शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (पंचम खण्ड) के इक्यावन वे अध्याय से पचपनवें अध्याय तक (From the fifty-first to the fifty-fifth chapter of the Shiva Purana Sri Rudra Samhita (5th volume))

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

इक्यावनवाँ अध्याय 

"बाणासुर आख्यान"

व्यास जी बोले ;- हे सनत्कुमार जी ! अब आप मुझे बाणासुर को शिवजी द्वारा अपना गण बनाने की कथा सुनाइए। तब व्यास जी की इच्छा पूरी करने हेतु सनत्कुमार जी ने कहना आरंभ किया। वे बोले-हे महामुने! जैसा कि आप जानते ही हैं कि ब्रह्माजी के ज्येष्ठ पुत्र वे मरीचि हैं और उनके पुत्र महामुनि कश्यप भी ब्रह्माजी के परम भक्त थे। उन कश्यप मुनि की तेरह सुंदर और सुशील कन्याएं हुईं, जिसमें सबसे बड़ी का नाम दिति था । दिति के ही बड़े पुत्र का नाम हिरण्यकशिपु और छोटे पुत्र का नाम हिरण्याक्ष था। दिति के दोनों ही पुत्र महाबली, वीर और पराक्रमी थे। हिरण्यकशिपु को विवाह के उपरांत ब्याहाद, अनुब्हाद, सब्हाद और प्रह्लाद नामक चार पुत्र प्राप्त हुए। उनमें सबसे छोटा प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था, जिसको कोई भी दैत्य पराजित नहीं कर सका था। उसी का पुत्र विरोचना बहुत बड़ा दानी था। उसने देवराज इंद्र को दान में अपना सिर काटकर दे दिया था। उसका पुत्र बलि भी महान दानी और भगवान शिव का परम भक्त था । 

    बलि ने वामनरूप धारण कर आए भगवान विष्णु को अपनी सारी भूमि दान में दे दी थी। बलि का पुत्र औरस भी भगवान शिव का परम भक्त था। वह उदार, बुद्धिमान, सत्यनिष्ठ और दानी था। उस असुर ने अनेकों राज्यों को जीतकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया था। यही नहीं, उसने त्रिलोक के अधिपतियों पर भी बलपूर्वक अपना अधिकार स्थापित कर लिया था।

       उसने अपनी राजधारी शोणितपुर में बनाई थी। वही औरस, जो कि महाराज बलि का पुत्र था, बाणासुर नाम से विख्यात हुआ था। उसके राज्य में सारी प्रजा खुश थी, परंतु देवताओं का वह घोर शत्रु था। एक बार बाणासुर अपनी हजारों भुजाओं से ताली बजाकर और ताण्डव नृत्य करके भगवान शिव को प्रसन्न करने की कोशिश करने लगा। भगवान शिव उसके नृत्य से प्रसन्न हो गए और उसके सामने प्रकट हो गए। उन्हें साक्षात अपने सामने पाकर बाणासुर प्रसन्नतापूर्वक महादेव को प्रणाम कर,,,

 बोला ;- हे देवाधिदेव! हे करुणानिधान! भक्तवत्सल शिव! आप मेरे राज्य के रक्षक हो जाइए। आप सदा अपने परिवार एवं गणों सहित मेरे नगर के अध्यक्ष बनकर प्रसन्नतापूर्वक यहां निवास करें ।

   तब बाणासुर द्वारा मांगे गए वरदान को देते हुए परम ऐश्वर्य संपन्न भक्तवत्सल भगवान शिव ने अपने परिवार एवं गणों सहित बाणासुर के नगर में आना स्वीकार किया। तत्पश्चात भगवान शिव वहां निवास करने लगे। जब बाणासुर ने यह जाना तो वह ताण्डव नृत्य द्वारा उन्हें प्रसन्न करने लगा। तत्पश्चात उनकी स्तुति करने लगा और बोला- हे देवाधिदेव महादेव! आप सब देवताओं में शिरोमणि आपकी कृपादृष्टि पाकर ही मैं बली हुआ हूं। आपने ही मुझे हजार भुजाएं प्रदान की हैं। भगवन्! आप धन्य हैं। आप सदा ही अपने भक्तों पर कृपादृष्टि रखते हैं और उनके दुखों को दूर करते हैं।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

बावनवाँ अध्याय 

"बाणासुर को शाप व उषा चरित्र"

सनत्कुमार जी बोले ;— महामुने! एक समय दैत्यराज बाणासुर ने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को ताण्डव नृत्य द्वारा प्रसन्न किया। उसकी भक्तिभावना से शिवजी बहुत संतुष्ट हुए थे। तब उसने हाथ जोड़कर शिवजी की स्तुति करनी आरंभ की। वह बोला- हे महेश्वर! आपके आशीर्वाद से ही मैं इतना बलवान हुआ हूं। आपने मुझे एक हजार भुजाएं दी हैं, परंतु भगवन् मैं इनका क्या करूं? इन हजार भुजाओं का प्रयोग तो सिर्फ मैं युद्ध कर सकता हूं। बिना युद्ध के इनका मैं क्या करूं? युद्ध किए बिना मेरे हाथों में सिर्फ खुजली होती रहती है और जब मैं अपनी इस खुजली को मिटाने के लिए बड़े-बड़े योद्धाओं और दिग्गजों से युद्ध करने के लिए उनके पास जाता हूं तो वे मारे डर के भाग जाते हैं। जब मैंने पर्वतों को मसलकर अपनी खुजली को शांत करना चाहा तो उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया। मैंने यम, कुबेर, देवराज इंद्र, वरुण, नैऋति आदि सभी देवताओं को जीत लिया है। अतः भगवन्, अब मुझे कोई ऐसा महावीर बली और पराक्रमी शत्रु बताइए, जिससे युद्ध करके मेरी इन हजारों भुजाओं की खुजली शांत हो जाए।

  दैत्यराज बाणासुर के ऐसे अहंकार भरे वचनों को सुनकर भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हुए और ,,

   बोले ;— ओ अहंकारी दैत्य! तू बड़ा ही मूर्ख और अभिमानी है। तुझे धिक्कार है। मेरे परम भक्त और महादानी बलि का पुत्र होकर भी तुझमें इतना इंकार व्याप्त है। अहंकार और अभिमान मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है और उसे सदा ही पतन की ओर ले जाता है। तुझे भी अब अहंकार और अभिमान ने घेर लिया है। इसलिए अब तेरा पतन भी निश्चित है। अब तुझे कोई भी नहीं बचा सकता। निश्चय ही तेरा सामना अतिशीघ्र ऐसे वीर और पराक्रमी से होगा, जो तेरी इन गर्वीली भुजाओं को मदार की लकड़ी के समान पलभर में काटकर फेंक देगा। तेरे शस्त्रागार में वायु का भयानक उत्पात होगा।

    भगवान शिव के क्रोध भरे वचनों को सुनकर भी मदांध बाणासुर पर कोई असर नहीं पड़ा। कहते हैं न कि जब विनाश का समय आता है तो बुद्धि विपरीत सोचना शुरू कर देती है। इसलिए बाणासुर को युद्ध के निकट आने का समाचार सुनकर अति प्रसन्नता हुई। उसने सुंदर-सुगंधित पुष्पों से भगवान शिव की आराधना की और पुनः अपने महल में वापस आ गया। तत्पश्चात बाणासुर प्रसन्न मन से उस युद्ध की प्रतीक्षा करने लगा और मन में यही सोचने लगा कि भला मुझसे ज्यादा वीर पारंगत योद्धा और कौन हो सकता है, जो मेरे सामने टिक सके और मेरी बलशाली भुजाओं को लकड़ी के समान काटकर फेंक सके। बाणासुर अपनी इन्हीं बातों में उलझा रहता था।

     दूसरी ओर, बाणासुर नामक दैत्य की एक अति सुंदर एवं गुणवान कन्या थी, जिसका नाम उषा था। उषा भगवान श्रीहरि विष्णु की परम भक्त थी। एक दिन उषा वैशाख मास में शृंगार से सुसज्जित हो रात्रि को विष्णु भगवान की पूजा-अर्चना करने के पश्चात अपने में कक्ष विश्राम कर रही थी। तब उसे देवी पार्वती की शक्ति के फलस्वरूप सपने में भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के दर्शन हुए। तब दिव्य माया के वशीभूत उषा को अनिरुद्ध को देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई और मन में ही वह उन्हें हृदय दे बैठी। जब सुबह वह जागी तो उसे उसी सुदर्शन युवक का स्मरण हो आया और वह उसके ध्यान में ही खो गई।

   जब उषा इस प्रकार से सपने में दिखाई दिए उस सुंदर युवक के ध्यान में खोई हुई थी, उसी समय उषा की प्रिय सखी चित्रलेखा उसके कक्ष में आई और अपनी सखी की ऐसी स्थिति देखकर उसने इस बारे में पूछा। तब उषा ने सारी बातें उसे बता दीं और कहा कि तुम्हें उस युवक को कहीं से भी ढूंढ़कर मेरे पास लाना है। यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं अपने शरीर का त्याग कर दूंगी।

अपनी प्रिय सखी उषा के ऐसे वचन सुनकर चित्रलेखा को बहुत दुख हुआ और,,,

 वह बोली ;- सखी! ऐसी बातें मत कहो । भला तुम ही बताओ, मैं उस पुरुष को कहां से लेकर आ सकती हूं, जिसे मैंने कभी देखा नहीं है और जिसके बारे में मैं कुछ जानती भी नहीं हूं। पहले तुम मुझे बताओ कि वह है कौन और कैसा दिखता है। तभी मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं। सखी! मैं तुमसे वादा करती हूं कि वह पुरुष जहां भी होगा, मैं उसका अपहरण करके तुम्हारे पास ले आऊंगी और तुम्हें खुशी देने की कोशिश करूंगी।

    अपनी सहेली चित्रलेखा की बातें सुनकर उषा को बहुत संतोष हुआ। तब चित्रलेखा ने वस्त्र के परदे पर अनेक देवताओं, दैत्यों, दानवों, गंधर्वों, सिद्धों, नागों और यक्षों के चित्र बना-बनाकर उषा को दिखाए परंतु उषा ने सबके लिए मना कर दिया। तब चित्रलेखा ने मनुष्यों के चित्र बनाने शुरू किए। उसने शूर, वसुदेव, राम, कृष्ण और अनेकों पुरुषों के चित्र बना दिए परंतु उषा ने हां नहीं कहा। तब चित्रलेखा ने नरश्रेष्ठ प्रद्युम्ननंदन अनिरुद्ध का चित्र उकेरा, जिसे देखकर उषा का सिर लज्जा से आवर्त हो गया और उसके चेहरे पर लाली छा गई, वह खुशी से झूम उठी ।

उषा बोली ;- हे प्रिय चित्रलेखा! रात को जिसने मेरे स्वप्न में आकर मेरे मन को चुराया है वह यही है। मुझे इनसे मिलना है, तुम इन्हें अतिशीघ्र मेरे पास ले आओ वरना मुझे चैन नहीं आएगा। अपनी प्रिय सखी उषा के अनुरोध पर चित्रलेखा ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी की रात को द्वारका नगरी गई और वहां राजमहल से अनिरुद्ध को ले आई। अनिरुद्ध को सामने पाकर उषा हर्ष से फूली न समाई और तुरंत उसके गले से लग गई।

    जब इस प्रकार देवी उषा ने अपने प्रियतम अनिरुद्ध को साक्षात अपने सामने पाया तो वह खुशी से झूम उठी और उनके गले से लग गई। तब उनके कक्ष के बाहर तैनात द्वारपालों ने अंदर झांका और उषा-अनिरुद्ध को इस प्रकार देखकर उन्होंने इसकी शिकायत दैत्यराज बाणासुर से की। 

द्वारपाल बोले ;- महाराज ! आपकी कन्या के अंतःपुर में एक पुरुष घुस आया है और वह आपकी कन्या से प्रेमालाप कर रहा है। महाराज! आप वहां चलिए और देखिए कि वह कौन है? आपकी आज्ञा होने पर ही हम सब मिलकर उसे उसकी धृष्टता का दण्ड देंगे।

   इस प्रकार द्वारपालों से अपनी कन्या के विषय में सुनकर दैत्यराज बाणासुर को बहुत क्रोध आया और उसे आश्चर्य भी हुआ। वह तत्काल उनके साथ चलने को तैयार हो गया।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

तिरपनवाँ अध्याय 

"अनिरुद्ध को बाण द्वारा नागपाश में बांधना तथा दुर्गा की कृपा से उसका मुक्त होना"

सनत्कुमार जी बोले ;– हे व्यास जी ! जब दैत्यराज बाणासुर के द्वारपालों ने उनके पास जाकर उनकी पुत्री उषा के कक्ष में किसी पुरुष के होने की सूचना दी तो वे आश्यर्यचकित हुए और स्वयं वहां गए। तब क्रोधित बाणासुर ने उषा के साथ अनिरुद्ध को देखा। अनिरुद्ध बहुत सुंदर और बलशाली नवयुवक था। क्रोधित बाणासुर ने अपने सैनिकों को अनिरुद्ध को मारने की आज्ञा दी।

   जैसे ही बाणासुर के उन सैनिकों ने अनिरुद्ध पर हमला किया, उसने देखते ही देखते उन सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। जब बाणासुर ने अपने सैनिकों को इस प्रकार मरते हुए देखा, तब उसे समझ आ गया कि यह पुरुष बड़ा वीर और पराक्रमी है, जिसने अकेले ही इतने बलशाली सैनिकों को पल भर में ध्वस्त कर दिया है। तब बाणासुर ने स्वयं उससे युद्ध करने का निश्चय किया और अपनी विशाल सेना को भी बुला भेजा। फिर क्या था, अनिरुद्ध और बाणासुर के बीच बड़ा भयानक युद्ध होने लगा।

तब वीर अनिरुद्ध ने दैत्यराज बाणासुर को निशाना बनाकर एक दिव्य शक्ति छोड़ी, जिससे बाणासुर को भयानक चोट पहुंची। चोट खाकर उसे समझ आ गया कि इस महाबली और पराक्रमी मनुष्य को सीधे-सीधे युद्ध द्वारा हराना असंभव है। यह सोचकर बाणासुर ने अपनी राक्षसी माया का सहारा लिया और उसी क्षण वहां से अंतर्धान हो गया। एकदम अचानक से जब दैत्यराज सामने से गायब हो गया तो अनिरुद्ध को बहुत आश्चर्य हुआ। वह घूम-घूमकर इधर-उधर बाणासुर को तलाश कर ही रहा था कि बाणासुर ने छलपूर्वक अनिरुद्ध को नागपाश में बांध दिया और अपने सैनिकों को आदेश दिया कि इसे ले जाकर किसी अंधे कुएं में धकेल दो, ताकि यह जिंदा ही न बचे।

अपने स्वामी दैत्यराज बाणासुर का आदेश सुनकर ,,

कुंभाण्ड बोला ;- हे दैत्येंद्र! युद्ध और पराक्रम में तो यह भगवान विष्णु के समान है और साहस में शशिमौलि के समान है। इस प्रकार से नागपाश में बंधकर भी यह डर नहीं रहा है और पुरुषार्थ की बातें कर रहा है। फिर वह ,,

अनिरुद्ध से बोला ;– ऐ मूर्ख बालक! तू महाबली दैत्यराज बाणासुर से अपनी समानता क्यों करता है? तू उनके सामने झुककर उनसे मांफी मांग और अपनी हार मान ले। वे निश्चय ही तुझे क्षमा कर नागपाश से मुक्त कर देंगे।

    दैत्यराज बाणासुर के उस सेवक के वचनों को सुनकर अनिरुद्ध क्रोधित होकर बोला ओ दुराचारी निशाचर! शायद तुझे क्षत्रिय धर्म के बारे में कुछ पता नहीं है। शूरवीर के लिए युद्ध में पीठ दिखाना मरने से भी बढ़कर है। मैं इस अधर्मी से माफी मांगने से अच्छा युद्ध में लड़ते हुए प्राण त्यागना पसंद करूंगा परंतु इस अभिमानी के आगे बिलकुल नहीं झुकूंगा।

यह सुनकर दैत्येंद्र बाणासुर का क्रोध सातवें आसमान पर जा चढ़ा। इससे पूर्व कि वह कुछ करता आकाशवाणी हुई- बाणासुर तुम भगवान शिव के परम भक्त और महाराज बलि के पुत्र हो। तुम्हें इस प्रकार क्रोध करना शोभा नहीं देता। तुम जानते हो कि भगवान शिव सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण का आश्रय लेकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप में सृष्टि, भरण-पोषण और संहार करते हैं। वे अंतर्यामी और सबके ईश्वर हैं। भगवन् अनेक लीलाओं के रचयिता हैं और गर्व को चूर कर देते हैं। वे तुम्हारे गर्व को भी चकनाचूर कर देंगे ।

    आकाशवाणी सुनकर बाणासुर ने अनिरुद्ध का वध करने का विचार छोड़ दिया और अनिरुद्ध को जेल में छोड़कर चला गया। नागपाश में बंधे हुए अनिरुद्ध को बड़ा कष्ट हो रहा था। उसने दोनों हाथ जोड़कर कल्याण स्वरूपा मां जगदंबा देवी दुर्गा का स्मरण कर उनकी आराधना आरंभ कर दी। 

अनिरुद्ध बोला ;- हे माता! आप अपने शरणागतों की रक्षा करने वाली तथा उन्हें यश प्रदान करने वाली हैं। देवी! मैं नागपाश में बंधा हूं और नागों के जहर की ज्वाला मुझे जला रही है। हे माता! मेरी रक्षा कीजिए।

    अनिरुद्ध की इस प्रकार अनुरोध भरी विनम्र प्रार्थना सुनकर देवी कालिका वहां प्रकट हो गईं और उन्होंने अपने जोरदार मुक्कों के प्रहार से पल भर में ही उसे नागपाश से मुक्त कर दिया तथा अंतर्धान हो गईं। नागपाश से मुक्त होते ही अनिरुद्ध को अपनी प्रिया उषा की याद सताने लगी और वह पुनः देवी उषा के पास चला गया। उषा अनिरुद्ध को देखकर बहुत प्रसन्न हुई और उसके गले लग गई। तब वे दोनों सुखपूर्वक विहार करने लगे।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

चौवनवाँ अध्याय 

"श्रीकृष्ण द्वारा राक्षस सेना का संहार"

महर्षि व्यास बोले ;— हे मुनिश्रेष्ठ सनत्कुमार जी! जब कुष्माण्ड नामक दैत्य की पुत्री और उषा की सखी चित्रलेखा ने श्रीकृष्ण की नगरी द्वारका जाकर वहां से सोते हुए उनके पोते अनिरुद्ध का अपहरण कर लिया तब श्रीकृष्ण ने क्या किया? इससे आगे की कथा से मुझे अवगत कराइए।

महर्षि व्यास के इस विनम्र आग्रह को सुनकर,,

 ब्रह्मापुत्र सनत्कुमार जी बोले ;- हे व्यास जी! जब चित्रलेखा रात्रि के समय सोते हुए कुमार अनिरुद्ध को उठाकर ले गई और वहां सुबह द्वारका में जब अनिरुद्ध अपने कक्ष में न दिखाई दिए तो उनकी तलाश आरंभ की गई परंतु वे जब द्वारका में थे ही नहीं तो मिलते कहां से? जब अनिरुद्ध की माता आदि अन्य स्त्रियों को यह पता चला कि कुमार अनिरुद्ध अपने महल से गायब हैं तो वहां रोना-पीटना मच गया। सब स्त्रियां रो-रोकर श्रीकृष्ण से अनिरुद्ध को ढूंढकर ले आने की प्रार्थना कर रही थीं। श्रीकृष्ण भी बड़े परेशान थे कि आखिर अनिरुद्ध महल से गायब कहां हो गया?

तभी वहां भगवान श्रीकृष्ण के राजमहल में देवर्षि नारद का आगमन हुआ। नारद ने भगवान श्रीकृष्ण को चिंतित देखा तो अपनी आदत के अनुसार सारी बातें उन्हें बता दीं। सबकुछ जानकर भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी अक्षौहिणी सेना के साथ दैत्यराज बाणासुर की राजधानी शोणितपुर पर चढ़ाई कर दी। प्रद्युम्न, युयुधान, सांब, सारण, नंद, उपनंद, बलभद्र और कृष्ण के सभी अनुवर्ती इस युद्ध में उनके साथ थे। जब इस प्रकार भक्तवत्सल भगवान शिव ने अपने परम भक्त बाणासुर पर संकट को आते देखा तो वे स्वयं श्रीकृष्ण से युद्ध करने के लिए आगे आ गए, क्योंकि शिवजी सदा ही अपने भक्तों के अधीन रहते हैं। तब भगवान शिव और श्रीकृष्ण की सेना में बड़ा भयानक युद्ध आरंभ हो गया। दोनों सेनाएं एक दूसरे पर विविध दिव्यास्त्रों का प्रयोग कर रही थीं। दोनों में से कोई भी सेना हार मानने को तैयार नहीं थी।

तब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं देवाधिदेव भगवान शिव के पास गए और हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगे। 

श्रीकृष्ण बोले ;- हे देवाधिदेव ! हे भक्तवत्सल! हे करुणानिधान! भगवान शिव! आप सब प्रकार के गुणों से प्रकाशित हैं और अपने दुखों में डूबे हुए भक्तों को दुखों के सागर से उबारते हैं। भगवन्! आज आप क्यों इस संसार की माया में लिप्त हो रहे हैं। प्रभु ! यह तो आपके आदेश के अनुसार ही हो रहा है। पूर्व में आपने ही गर्व से भरे दैत्यराज बाणासुर को शाप दिया था कि उसकी एक हजार भुजाओं का नाश शीघ्र ही होगा। इस समय मैं तो आपके उसी शाप को फलीभूत करने के लिए ही आया हूं। इसलिए

आप अपनी आज्ञा प्रदान करें और शाप को पूरा होने दें। श्रीकृष्ण के इस प्रकार के वचन सुनकर,,

 देवाधिदेव भगवान शिव बोले ;- तात! आप सही कह रहे हैं परंतु आप तो जानते ही हैं कि मैं सदा अपने ही भक्तों के वश में रहता हूं। इसलिए अपने भक्त बाणासुर की रक्षा करने के लिए ही मैं आपसे युद्ध करने को उद्यत हुआ हूं। आपको भी अपना कार्य पूर्ण करना है और शाप को भी पूरा करना है इसलिए दैत्यराज बाणासुर से युद्ध करने से पहले आप मुझे जृंभणास्र नामक शस्त्र द्वारा जीम्भ्रण कर दीजिए फिर अपने कार्य को पूरा कीजिएगा।

भगवान शिव की आज्ञा का पालन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने तुरंत जृम्भणास्त्र नामक अस्त्र छोड़ा, जिसके फलस्वरूप भगवान शिव जीम्भत हो गए और मोहित होकर युद्ध को भूल गए। तब भगवान श्रीकृष्ण खड्ग, गदा और ऋष्टि आदि अस्त्रों से दैत्यराज बाणासुर की विशाल सेना का संहार करने लगे।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

पचपनवाँ अध्याय 

"बाणासुर की भुजाओं का विध्वंस"

व्यास जी ने सनत्कुमार जी से पूछा ;- हे ब्रह्मापुत्र सनत्कुमार जी ! जब भगवान शिव को श्रीकृष्ण ने जृम्भणास्त्र से मोहित कर दिया, तब वहां उस युद्ध में क्या हुआ? 

सनत्कुमार ने बताया ;– व्यास जी! जब युद्धभूमि में श्रीकृष्ण ने जृम्भणास्त्र का प्रयोग किया तो देवाधिदेव भगवान शिव अपने शिवगणों सहित मोहित हो गए और संग्राम भूमि में ही सो गए। तब दैत्यराज बाणासुर अपने रथ पर बैठकर श्रीकृष्ण से युद्ध करने के लिए आया। बाणासुर के रथ के घोड़ों की लगाम उसके सेनापति कुष्माण्ड के हाथों में थी। अनेकों प्रकार के आयुधों से सुसज्जित होकर बाणासुर भीषण युद्ध करने लगा। दोनों पक्षों में काफी समय तक युद्ध चलता रहा। श्रीकृष्ण जी ने भगवान शिव का स्मरण करके हाथो में शार्गं धनुष उठा लिया और बाणासुर पर बाणों की वर्षा करने लगे परंतु बाणासुर भी वीर और पराक्रमी था। वह उन बाणों को अपने पास आने से पहले ही काट डालता।

बाणासुर की वीरता से सारी कृष्ण सेना भयभीत होने लगी। उसके दैत्य भी बड़ी बहादुरी से लड़ रहे थे। बाणासुर ने देखते ही देखते संपूर्ण यादव वंश को मूर्च्छित कर दिया। यह दृश्य देखकर श्रीकृष्ण अत्यंत क्रोधित हो उठे। श्रीकृष्ण ने गर्जन करते हुए अनेक प्रचण्ड बाणों को चलाकर उसके रथ और धनुष को तोड़ दिया। तब बाणासुर गदा लेकर कृष्ण की ओर दौड़ा। फिर दोनों में गदा युद्ध होने लगा। बाणासुर ने श्रीकृष्ण पर गदा का भीषण प्रहार किया, जिससे वे एक पल के लिए धरती पर गिर पड़े परंतु अगले ही क्षण उठकर पूरे वेग के साथ दैत्येंद्र से युद्ध करने लगे। उन दोनों के बीच इसी प्रकार भीषण युद्ध चलता रहा। तब एक दिन भगवान श्रीकृष्ण बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने मन में भगवान शिव का स्मरण करके हाथों में परम दिव्य सुदर्शन चक्र उठा लिया और दैत्यराज बाणासुर की भुजाएं लकड़ी की तरह काट डालीं। अब बाणासुर की केवल चार भुजाएं ही शेष थीं। तब क्रोधित श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र द्वारा ही बाणासुर का सिर काटना चाहा।

   उसी समय भगवान शिव मोहनिद्रा से जाग गए और बोले ;- हे देवकीनंदन! आप तो सदा ही मेरी आज्ञा का पालन करते हैं। मैंने आपको बाणासुर की भुजाओं को काटने की ही आज्ञा दी थी। यह मैंने अपने इस भक्त के गर्व को तोड़ने के लिए किया था। अपने भक्तों की सदा रक्षा करना मेरा धर्म है। इसलिए आप बाणासुर के वध की इच्छा त्याग दीजिए और अपनी शत्रुता को भूल जाइए । बाणासुर की पुत्री उषा और आपके पौत्र अनिरुद्ध एक-दूसरे के होकर जीना चाहते हैं। इसलिए उन दोनों को विवाह के पवित्र बंधन में बांधकर आप अपने साथ द्वारका ले जाइए।

यह कहकर भगवान शिव ने बाणासुर और श्रीकृष्ण में मित्रता करा दी और स्वयं वहां से अंतर्धान होकर शिवलोक को चले गए। तब बाणासुर श्रीकृष्ण को आदर सहित अपने महल में ले गया और वहां उनका बहुत आदर-सत्कार किया। तत्पश्चात शुभ मुहूर्त में अपनी पुत्री उषा और श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध का विवाह संपन्न कराके उन्हें अनेक बहुमूल्य रत्नों और हीरों-जवाहरातों के साथ विदा किया।


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