शिव पुराण कोटिरुद्र संहिता के छठे अध्याय से दसवें अध्याय तक (From the sixth to the tenth chapter of the Shiva Purana Kotirudra Samhita)


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【कोटिरुद्र संहिता】

छठवाँ अध्याय

"ब्राह्मणी की सद्गति व मुक्ति"

सूत जी बोले ;- हे ऋषियो! जिस ब्राह्मण के घर में सुवाद ठहरा था, वह सुबह शाम दोनों समय अपनी गायों का दूध निकाला करता था। आज भी उसने अपनी स्त्री से कहा कि बरतन दे दो, मैं दूध निकालता हूँ। तब उसकी पत्नी ने दूध का पात्र दे दिया और बछड़े को खोलकर गाय के पास भेज दिया। परंतु बछड़े ने जैसे ही थोड़ा-सा दूध पिया उसे तुरंत गाय के पास से हटा दिया गया। मां के पास से हटा देने पर बछड़ा उछलने लगा, जिससे ब्राह्मण के पैर में ठोकर लग गई। क्रोधित होकर ब्राह्मण ने बछड़े को बहुत पीटा और गाय का दूध निकाल लिया। गाय दुखी होकर रोने लगी कि अपने बच्चे को दूध भी नहीं पिला सकती। मैं अपने बच्चे को पिटते हुए देखती रही परंतु उसकी कोई मदद नहीं कर सकी। तब बछड़ा अपनी माता को समझाने लगा कि माता तुम धैर्य रखो। जो जैसा करता है वह उसी का फल भी भोगता है।

  अपने बछड़े की ज्ञान भरी बातें सुनकर गाय बोली ;- मैं जानती हूं कि तुम सही कह रहे हो परंतु अपने पुत्र की दुर्दशा मुझसे देखी नहीं जाती। मुझे उस ब्राह्मण को दण्ड देना ही होगा क्योंकि यदि मैं कुछ नहीं करूंगी तो यही सब बार-बार होगा। 

तब बछड़ा अपनी माता से बोला ;-  मां! यदि आप ब्राह्मण को मारोगी तो आपको ब्रह्महत्या का पाप लगेगा।

अपने पुत्र की ऐसी बातें सुनकर गाय ने कहा ;- पुत्र! तुम ठीक कह रहे हो, परंतु गाय को सताने का दण्ड ब्राह्मण को अवश्य मिलना चाहिए। बाकी रही ब्रह्महत्या, उसके पाप को मिटाने का उपाय मैं जानती हूं। यह कहकर गाय चुप हो गई। गाय और बछड़े की ये बातें सुवाद ने सुन ली थीं। यह सब सुनकर उसने सोचा कि मैं अपनी मां की अस्थियां लेकर काशी जा रहा हूं परंतु मैं यह भी देखना चाहता हूं कि गाय ब्रह्महत्या के पाप से कैसे मुक्त होती है। और अपना बदला कैसे लेती है?

  प्रातःकाल होने पर सुवाद वहां का दृश्य देखने लगा। उस दिन ब्राह्मण ने अपने पुत्र से दूध निकालने के लिए कहा। उसके पुत्र ने भी गाय के बछड़े को पीटना शुरू कर दिया, जिससे गाय को क्रोध आ गया और उसने अपने सींगों का प्रहार लड़के की बगल में कर दिया। यह देखकर ब्राह्मण-ब्राह्मणी दोनों दौड़ते हुए अपने पुत्र के पास आए परंतु कुछ ही देर में उनके पुत्र प्राण पखेरू उड़ गए। तब हाहाकार मच गया। सब रोने लगे। ब्राह्मण ने पीट-पीटकर गाय और उसके बछड़े को घर से निकाल दिया। ब्रह्महत्या की दोषी उस गाय का रंग सफेद से काला पड़ गया।

  जैसे ही गाय और बछड़ा घर से निकले, वह पथिक सुवाद भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ा। वह देखना चाहता था कि गाय क्या करती है और कहां जाती है? चलते-चलते वे नर्मदा नदी के किनारे पहुंचे, जहां पर पहले से ही नंदिकेश्वर महादेव विराजमान थे। गाय ने नर्मदा नदी में तीन गोते लगाए तो उसका काला रंग पुनः सफेद हो गया। यह देखकर सुवाद को बड़ा आश्चर्य हुआ। गाय वहां से निकलकर कहीं अन्यत्र चली गई। तब नर्मदा को प्रणाम कर ब्राह्मणी पुत्र सुवाद ने भी नदी में स्नान किया। फिर नंदिकेश्वर का विधिपूर्वक पूजन करने के पश्चात वह काशी को चल पड़ा। रास्ते में सुवाद को एक युवती दिखाई दी, जिसने सुंदर वस्त्र एवं अलंकार धारण किए हुए थे। 

   उसने सुवाद से पूछा ;- ब्राह्मण देवता! आप इस प्रकार प्रसन्न होकर कहां से आ रहे हैं और कहां जा रहे हैं? तब सुवाद ने उस युवती को सारी बातें बता दीं और कहा कि मैं अपनी माता की आज्ञा को पूर्ण करने हेतु उनकी अस्थियां काशी ले जा रहा हूं। 

   तब यह सुनकर वह युवती बोली ;- ब्राह्मण! तुम बहुत भोले-भाले हो। यह तीर्थ अत्यंत पवित्र है। प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल पक्ष की सप्तमी के दिन ननंदा की पवित्र धारा में स्वयं गंगाजी आती हैं। आज वही शुभ दिन है, इसलिए तुम अपनी माता की अस्थियों को यहीं प्रवाहित कर दो। यह कहकर वह युवती अंतर्धान हो गई। सुवाद पुनः ननंदा नदी की ओर लौट आया तथा उसकी पवित्र धारा में सुवाद ने अपनी माता की अस्थियां प्रवाहित कर दीं। तभी उसे एक दिव्य दृश्य दिखाई दिया। उसकी माता दिव्य देह धारण किए शिवलोक को जा रही थी और उसे आशीर्वचन देते हुए कह रही थी कि तुम धन्य हो, तुमने अपनी माता को सद्गति प्रदान कर है। पुत्र को आशीर्वाद देते हुए वह ब्राह्मणी शिवलोक को चली गई।

【कोटिरुद्र संहिता】

सातवाँ अध्याय

"नंदिकेश्वर लिंग की स्थापना"

   यह कथा सुनकर ऋषियों ने सूत जी से पूछा ;- हे भगवान सूत जी ! वैशाख शुक्ल पक्ष की सप्तमी को गंगाजी नर्मदा नदी में क्यों आती हैं? वहां भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग नंदिकेश्वर कैसे स्थापित हुआ? कृपा कर हमारी इस जिज्ञासा को शांत कीजिए ।

   ऋषियों के प्रश्न को सुनकर सूत जी बोले ;- एक बार की बात है, नर्मदा नदी के किनारे ऋषिका नाम की एक विधवा ब्राह्मणी रहा करती थी। तरुणावस्था में ही उसका पति पूर्व जन्म के पापों के कारण चल बसा था। तभी से ऋषिका भगवान शिव के चरणों का ध्यान करने लगी तथा उसने अपना सारा जीवन शिवजी के पूजन, ध्यान और व्रत में लगा दिया। उसने एक पार्थिव लिंग स्थापित किया और महादेव जी की कठोर तपस्या करनी आरंभ कर दी।

    एक दिन एक बलवान मायावी राक्षस घूमता हुआ उस स्थान पर आ गया और बाल विधवा तपस्विनी को देखकर उस पर मोहित हो गया परंतु वह ब्राह्मणी अपनी आराधना में ही लगी रही। तब वह उसे डरा-धमकाकर पाने की कोशिश करने लगा। तब ऋषिका डरकर शिवजी की मूर्ति से चिपककर रोने लगी और शिवजी से रक्षा करने हेतु प्रार्थना करने लगी। भक्तवत्सल भगवान शिव तुरंत अपने भक्त की रक्षा के लिए उस ज्योतिर्लिंग से प्रकट हुए और उस पापी राक्षस को भस्म कर दिया। 

फिर उस ब्राह्मणी से बोले ;- ब्राह्मणी ! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। वर मांगो।

अपने आराध्य त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को इस प्रकार अपने सामने पाकर वह दीन ब्राह्मणी शिवजी की स्तुति करने लगी,,

 और बोली ;- हे जगत का कल्याण करने वाले ! भक्तों के दुखों का नाश करने वाले देवाधिदेव भगवान शिव ! आपने आज मेरे पतिव्रत धर्म की रक्षा करके मुझ पर बहुत बड़ा उपकार किया है। यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हैं तो मेरी एक अभिलाषा को पूरा कीजिए। आप सदा मेरे द्वारा स्थापित इस पार्थिव मूर्ति में निवास करें।

ऋषिका के वचनों को सुनकर शिवजी प्रसन्नतापूर्वक उस लिंग में समा गए। उस समय आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। सारे देवता शिवजी की प्रशंसा करते हुए वहां आ गए। उसी समय पतित पावनी श्रीगंगाजी भी वहां आईं और,,

 उस ब्राह्मणी से बोलीं ;- कल्याणी ! जहां भगवान शिव का निवास होता है, वहां मेरा आगमन अवश्य होता है। इसलिए वैशाख में शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को मेरा यहां आगमन होगा।

ऋषियो! उसी दिन से उस पार्थिव लिंग का नाम नंदिकेश्वर हुआ और उसमें भगवान शिव का वास हुआ और गंगाजी भी प्रत्येक वैशाख शुक्ल पक्ष सप्तमी को वहां आने लगीं। यह दिव्य तीर्थ पापों का निवारण करने वाला है। इस पवित्र कुंड में स्नान करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और मनुष्य को शिवपद की प्राप्ति होती है।

【कोटिरुद्र संहिता】

आठवाँ अध्याय

"महाबली शिव माहात्म्य"

     सूत जी बोले ;– हे ऋषियो ! पश्चिम दिशा में कपिला नामक नगरी में कालनेश्वर नामक - शिवलिंग है, जिसके दर्शनों से सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है। पश्चिमी समुद्र पर सिद्धेश्वर शिवलिंग है, जो सभी कामनाओं को पूरा करने वाला है। इसी स्थान पर बहुत से तीर्थस्थल हैं। समुद्र के किनारे गोकर्ण नामक सरोवर है। इसमें स्नान करने से ब्रह्महत्या के पाप से भी मुक्ति मिल जाती है। जो महाबली गोकर्ण सातों रसातल एवं गुफाओं का भ्रमण करते हैं और सदैव शिवजी का पूजन करते हैं वे शिव रूप को प्राप्त होते हैं। इसी गोकर्ण तीर्थ में जाकर सभी नक्षत्र शिव स्वरूप हो जाते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, विश्वदेव मरुद्गण, वसु, सूर्य, अश्विनी कुमार चंद्रमा एवं नक्षत्र इसके पूर्व की ओर भ्रमण करते हैं। चित्रगुप्त, अग्नि और पितृ इसके दक्षिण दिशा से दर्शन और भ्रमण करते हैं। वरुणदेव गंगा, सिंधु और नर्मदा आदि नदियों के साथ पश्चिम की ओर इसका दर्शन व भ्रमण करते हैं। चण्डिका, भद्रकाली, भवानी एवं भूत प्रेत, पिशाच इसका दर्शन उत्तर दिशा की ओर से करते हैं।

सब देवता, पितृ, गंधर्व, चारण, सिद्ध, विद्याधर, किंपुरुष, गुह्य, खग, वैताल, बली, दिती के दैत्य पुत्र, मुनिगण एवं सर्प अपनी इच्छाओं की पूर्ति एवं कामनाओं की सिद्धि के लिए देवाधिदेव महादेव जी के दर्शन करते हैं। यहां स्थापित भगवान सदाशिव की मूर्ति साक्षात मोक्ष प्रदान करने वाली है। माघ माह के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी पर महाबल सदाशिव का पूजन-आराधन किया जाता है। इस परम पवित्र प्रतिमा के पूजन से एक चाण्डालिनी भी अपने पापों से मुक्त हो गई थी और उसे अंत में परम पवित्र शिवलोक की प्राप्ति हुई ।

【कोटिरुद्र संहिता】

नवाँ अध्याय

"चाण्डालिनी की मुक्ति"

  सूत जी बोले ;- हे ऋषियो ! अब आपको उस चाण्डालिनी की कथा सुनाता हूं। वह चण्डालिनी पूर्व जन्म में एक ब्राह्मण कन्या थी । विवाह योग्य होने पर उसके पिता ने उसका विवाह एक ब्राह्मण युवक से कर दिया। विवाह होने के पश्चात वह भोग-विलास में डूब विलास के कारण उसका पति बीमार होकर मृत्यु को प्राप्त हो गया परंतु उसकी भोग की लालसा पूर्ववत ही रही। अब तो वह स्वतंत्र थी। अपनी इच्छाओं को पूरा करने हेतु वह वेश्या बन गई। तब उसके परिवार वालों ने उसे घर से निकाल दिया और उसे जंगल में छोड़ आए। वहां जंगल में भटकते हुए एक दिन वह एक शूद्र के घर जा पहुंची। इस प्रकार एक युवती को सामने पाकर वह शूद्र उसे पाने की इच्छा करने लगा। तब वह उसके साथ वहीं रहने लगी। उस शूद्र के साथ रहते हुए उसने मांस-मदिरा तथा अभक्ष्य वस्तुएं खानी शुरू कर दीं।

एक दिन वह शूद्र किसी कार्य से बाहर गया था तब उसे बड़ी जोर से भूख लगी। अपनी भूख शांत करने के लिए उसने अपनी तलवार से आंगन में बंधे बछड़े को काट डाला और उसका मांस खा लिया। इस प्रकार उसने अपने जीवन में सब प्रकार के पाप किए तथा मृत्युकाल आने पर मृत्यु को प्राप्त हुई। यमराज उसे नरक ले गए और वहां उसने नरक की यातनाएं भोगीं।

   अगले जन्म में उसका जन्म एक शूद्र चाण्डाल के घर हुआ। वह अंधी जन्मी थी और अपने पूर्व जन्म के पापों के कारण कोढ़ी हो गई थी। उसके आस-पास कोई नहीं फटकता था। एक बार उसने कुछ लोगों को सदाशिव के गुणों का गान करते हुए सुना । वे कह रहे थे कि माघ कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को भगवान शिव के दर्शन करने से जन्म-जन्मांतरों के पाप धुल जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है। तब कल्याणकारी भगवान शिव के दर्शनों की अभिलाषा मन में लिए वह चाण्डालिनी गोकर्ण क्षेत्र की ओर चल दी। माघ कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी से एक दिन पूर्व वह चाण्डालिनी गोकर्ण जा पहुंची और भूख-प्यास से व्याकुल होकर भीख मांगने लगी। जब वह एक बनिए के दरवाजे पर भीख मांग रही थी तो बनिए ने उसकी झोली में बैल के गले की मंजरी डाल दी। जब उस भिखारिन ने उसे छूकर देखा तब उस मंजरी को उठाकर फेंक दिया। सौभाग्यवश वह मंजरी शिवलिंग पर जाकर गिरी। उस चाण्डालिनी के सारे पाप उस मंजरी के शिवलिंग पर चढ़ते ही नष्ट हो गए। अगले दिन चतुर्दशी पर उसने कुछ न खाया और इस प्रकार उसका निराहार व्रत हो गया। भूख के मारे पूरी रात जागी, इसलिए जागरण का फल भी उसे मिल गया। भगवान शिव अपने भक्तों पर सदा अपनी कृपादृष्टि रखते हैं। उन्होंने उस गरीब चाण्डालिनी के पापों को नष्ट कर दिया और उसकी इच्छा से उसकी मृत्यु हो गई। उसे शिवलोक ले जाने के लिए विमान आ गया। उस दिव्य विमान से वह सदा के लिए सद्गति पाकर शिवलोक को चली गई।

   हे ऋषियो ! इस प्रकार अज्ञानता या भूलवश किया गया भगवान शिव का दर्शन व पूजन भी भगवान शिव को प्रसन्न करता है और भक्तों को मोक्ष प्रदान करता है।

【कोटिरुद्र संहिता】

दसवाँ अध्याय

"लोकहितकारी शिव-माहात्म्य दर्शन"

सूत जी बोले ;- हे ऋषियो ! इक्ष्वाकु वंश में एक बड़ा पुण्यात्मा राजा हुआ, जिसका नाम मित्रसह तथा उसकी पत्नी का नाम दमयंती था। वह अति पतिव्रता व धर्म परायण स्त्री थी । एक दिन राजा शिकार खेलने वन को गए। वहां उन्होंने कुमठ नामक दैत्य को एक महात्मा को परेशान करते देखा। उन महात्मा के कष्टों को दूर करने के लिए उन्होंने उस राक्षस को मार डाला। तत्पश्चात वापस आकर अपना राज-काज देखने लगे। उधर, उस दानव के छोटे भाई कपट ने राजा से बदला लेने के लिए रसोइए का वेश बनाया और राजमहल में नौकरी करने लगा।

  एक बार गुरु जयंती के अवसर पर राजा मित्रसह ने अपने गुरु वशिष्ठ को भोजन के लिए आमंत्रित किया। गुरुदेव राजा के घर पधारे। उस कपटी राक्षस ने राजा से बदला लेने के लिए खाने में मांस मिला दिया और वह भोजन वशिष्ठ जी को परोस दिया परंतु गुरु वशिष्ठ ने भोजन करने से पूर्व ही जान लिया कि इस भोजन में मांस है। यह देखकर मुनि को राजा पर क्रोध आ गया और उन्होंने राजा को सदा के लिए राक्षस बन जाने का शाप दे दिया। 

शाप सुनकर राजा रोने-गिड़गिड़ाने लगा और बोला ;- मुनिश्रेष्ठ! मुझे क्षमा कर दें। यह अपराध मैंने नहीं किया है। राजा के वचनों को सुनकर वशिष्ठ मुनि सोच में डूब गए। तब उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से जान लिया कि अपराध रसोइए का है, जो कि वास्तव में एक राक्षस है। 

तब वे राजा से बोले ;- राजन! तुम्हारा रसोइया एक कपटी राक्षस है। उसी ने जान-बूझकर भोजन में मांस परोसा है। मैं अपना शाप वापस तो नहीं ले सकता परंतु इसका असर कम कर सकता हूं। तू बारह वर्षों तक राक्षस रहेगा। यह कहकर मुनि वशिष्ठ वहां से चले गए। उस शाप के कारण राजा राक्षस बन गया और वनों में भटकने लगा। वह जीवों को मारकर खाता था। एक दिन वह भूखा भटक रहा था। तभी उसने एक आश्रम में किशोर अवस्था के एक युवक को मुनि रूप में तपस्या करते देखा और उसे खाने के लिए दौड़ा। मुनि की पत्नी ने देख लिया कि वह राक्षस उसके पति को खाना चाहता है। उस ऋषि पत्नी ने राक्षस से प्रार्थना की कि मेरे पति को छोड़ दे, परंतु उसने मुनि को अपना आहार बना ही लिया। मुनि पत्नी शोक में डूब गई और उस राक्षस को शाप देते हुए,,

बोली ;- अरे तूने मेरे पति को मार डाला। मैं तुझे शाप देती हूं कि जब तू किसी स्त्री पर मोहित होकर दुष्ट राक्षस!

उसके साथ विहार करेगा, उसी समय तेरी मृत्यु हो जाएगी। इस प्रकार राक्षस को शाप देकर वह सती हो गई।

   बारह वर्ष बीत जाने पर राजा को अपना शरीर वापस मिल गया। उसने जाकर अपनी रानी को शाप के बारे में बताया। यह जानकर रानी राजा को अपने पास नहीं आने देती थी परंतु उन दोनों की संतान न होने के कारण दोनों बहुत दुखी थे। एक दिन दुखी राजा वन में चला गया परंतु ब्रह्महत्या के पाप ने उसका पीछा नहीं छोड़ा। तब राजा व्याकुल होकर गौतम ऋषि की शरण में चला गया। राजा ने उन्हें सारा वृत्तांत सुना दिया।

    तब गौतम ऋषि बोले हे राजन! पश्चिम दिशा में जाओ, वहां गोकर्ण नामक तीर्थ है, जहां महाबल नामक ज्योतिर्लिंग है। उस कुण्ड में स्नान करके देवाधिदेव महादेव जी का पूजन-अर्चन करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिए तुम वहां जाकर शिवजी की आराधना करो तभी तुम्हें ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिलेगी।

   गौतम ऋषि के वचन सुनकर राजा प्रसन्न हुआ और उनसे आज्ञा लेकर गोकर्ण तीर्थ को चला गया। वहां उसने कुंड में स्नान करके भगवान शिव का पूजन और आराधना आरंभ कर दी, जिसके फलस्वरूप राजा को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिल गई।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें