सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण (द्वादश स्कन्धः ) का ग्यारवाँ, बारहवाँ व तेरहवाँ अध्याय [ Eleventh, Twelfth and Thirteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Twelfth wing) ]

 



                          {द्वादश स्कन्ध:} 

                       【ग्यारवाँ अध्याय】११


"भगवान के अंग, उपांग और आयुधों का रहस्य तथा विभिन्न सूर्यगणों का वर्णन"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

शौनक जी ने कहा ;- सूत जी! आप भगवान के परम भक्त और बहुज्ञों में शिरोमणि हैं। हम लोग समस्त शास्त्रों के सिद्धान्त के सम्बन्ध में आप से एक विशेष प्रश्न पूछना चाहते हैं, क्योंकि आप उसके मर्मज्ञ हैं। हम लोग क्रियायोग का यथावत् ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं; क्योंकि उसका कुशलतापूर्वक ठीक-ठीक आचरण करने से मरणधर्मा पुरुष अमरत्व प्राप्त कर लेता है। अतः आप हमें यह बतलाइये कि पांचरात्रादि तन्त्रों कि विधि जानने वाले लोग केवल श्रीलक्ष्मीपति भगवान की आराधना करते समय किन-किन तत्त्वों से उनके चरणादि अंग, गरुड़ादि उपांग, सुरदर्शनादि आयुध और कौस्तुभादि आभूषणों की कल्पना करते हैं? भगवान आपका कल्याण करें।

सूत जी ने कहा ;- शौनक जी! ब्रह्मादि आचार्यों ने, वेदों ने और पांचरात्रादि तन्त्र-ग्रन्थों ने विष्णु भगवान की जिन विभूतियों का वर्णन किया है, मैं श्रीगुरुदेव के चरणों में नमस्कार करके आप लोगों को वही सुनाता हूँ। भगवान के जिस चेतनाधिष्ठित विराट् रूप में यह त्रिलोकी दिखायी देती है, वह प्रकृति, सूत्रात्मा, महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्रा-इन नौ तत्त्वों के सहित ग्यारह इन्द्रिय तथा पंचभूत-इन सोलह विकारों से बना हुआ है। यह भगवान का ही पुरुष रूप है। पृथ्वी इसके चरण हैं, वायु नासिका है और दिशाएँ कान हैं। प्रजापति लिंग है, मृत्यु गुदा है, लोकपाल गण भुजाएँ हैं, चन्द्रमा मन है और यमराज भौंहें हैं। लज्जा ऊपर का होठ है, लोभ नीचे का होठ है, चन्द्रमा की चाँदनी दन्तावली है, भ्रम मुस्कान है, वृक्ष रोम हैं और बादल ही विराट् पुरुष के सिर पर उगे हुए बाल हैं। शौनक जी! जिस प्रकार यह व्यष्टिपुरुष अपने परिमाण से सात बित्ते का है उसी प्रकार वह समष्टिपुरुष भी इस लोक संस्थिति के साथ अपने सात बित्ते का है।

स्वयं भगवान अजन्मा हैं। वे कौस्तुभ मणि के बहाने जीव-चैतन्यरूप आत्म ज्योति को ही धारण करते हैं और उसकी सर्वव्यापिनी प्रभा को ही वक्षःस्थल पर श्रीवत्स रूप से। वे अपनी सत्त्व, रज आदि गुणों वाली माया को वनमाला के रूप से, छन्द को पीताम्बर के रूप से तथा अ+उ+म्-इन तीन मात्रा वाले प्रणव को यज्ञोपवीत के रूप में धारण करते हैं। देवाधिदेव भगवान सांख्य और योगरूप मकराकृत कुण्डल तथा सब लोकों को अभय करने वाले ब्रह्मलोक को ही मुकुट के रूप में धारण करते हैं। मूल प्रकृति ही उनकी शेषशय्या है, जिस पर वे विराजमान रहते हैं और धर्म-ज्ञानादि युक्त सत्त्वगुण ही उनके नाभि-कमल के रूप में वर्णित हुआ है। वे मन, इन्द्रिय और शरीर सम्बन्धी शक्तियों से युक्त प्राण-तत्त्वरूप कौमोद की गदा, जल तत्त्वरूप पांचजन्य शंख और तेजस्तत्त्व रूप सुदर्शन चक्र को धारण करते हैं। आकाश के समान निर्मल आकाश स्वरूप खड्ग, तमोमय अज्ञानरूप ढाल, कालरूप शारंग धनुष और कर्म का ही तरकस धारण किये हुए हैं। इन्द्रियों को ही भगवान के बाणों के रूप में कहा गया है। क्रियाशक्ति युक्त मन ही रथ है। तन्मात्राएँ रथ के बाहरी भाग हैं और वर-अभय आदि की मुद्राओं से उनकी वरदान, अभयदान आदि के रूप में क्रियाशीलता प्रकट होती है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: एकादश अध्यायःश्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद)

सूर्यमण्डल अथवा अग्निमण्डल ही भगवान की पूजा का स्थान है, अन्तःकरण की शुद्धि ही मन्त्र दीक्षा है और अपने समस्त पापों को नष्ट कर देना ही भगवान की पूजा है। ब्राह्मणों! समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य-इन छः पदार्थों का नाम ही लीला-कमल है, जिसे भगवान अपने करकमल में धारण करते हैं। धर्म और यश को क्रमशः चँवर एवं व्यजन (पंखें) के रूप से तथा अपने निर्भय धाम वैकुण्ठ को छत्र रूप से धारण किये हुए हैं। तीनों वेदों का ही नाम गरुड़ है। वे ही अन्तर्यामी परमात्मा का वहन करते हैं। आत्मस्वरूप भगवान की उनसे कभी न बिछुड़ने वाली आत्मशक्ति का ही नाम लक्ष्मी है। भगवान के पार्षदों के नायक विश्वविश्रुत विष्वक्सेन पांचरात्रादि आगमरूप हैं। भगवान के स्वाभाविक गुण अणिमा, महिमा आदि अष्ट सिद्धियों को ही नन्द-सुनन्दादि आठ द्वारपाल कहते हैं।

शौनक जी! स्वयं भगवान ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध-इन चार मूर्तियों के रूप में अवस्थित हैं; इसलिये उन्हीं को चतुर्व्यूह के रूप में कहा जाता है। वे ही जाग्रत्-अवस्था के अभिमानी ‘विश्व’ बनकर शब्द, स्पर्श आदि बाह्य विषयों को ग्रहण करते और वे ही स्वप्नावस्था के अभिमानी ‘तैजस’ बनकर बाह्य विषयों के बिना ही मन-ही-मन अनेक विषयों को देखते और ग्रहण करते हैं। वे ही सुषुप्ति-अवस्था के अभिमानी ‘प्राज्ञ’ बनकर विषय और मन के संस्कारों से युक्त अज्ञान से ढक जाते हैं और वही सबके साक्षी ‘तुरीय’ रहकर समस्त ज्ञानों के अधिष्ठान रहते हैं। इस प्रकार अंग, उपांग, आयुध और आभूषणों से युक्त तथा वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध-इन चार मूर्तियों के रूप में प्रकट सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीहरि ही क्रमशः विश्व, तैजस, पाज्ञ एवं तुरीयरूप से प्रकशित होते हैं।

शौनक जी! वही सर्वस्वरूप भगवान वेदों के मूल कारण हैं, वे स्वयं प्रकाश एवं अपनी महिमा से परिपूर्ण हैं। वे अपनी माया से ब्रह्मा आदि रूपों एवं नामों से इस विश्व की सृष्टि, स्थिति और संहार सम्पन्न करते हैं। इन सब कर्मों और नामों से उनका ज्ञान कभी आवृत नहीं होता। यद्यपि शास्त्रों में भिन्न के समान उनका वर्णन हुआ है अवश्य, परन्तु वे अपने भक्तों को आत्मस्वरूप से ही प्राप्त होते हैं। सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप अर्जुन के सखा हैं। आपने यदुवंशशिरोमणि के रूप में अवतार ग्रहण करके पृथ्वी के द्रोही भूपालों को भस्म कर दिया है। आपका पराक्रम सदा एकरस रहता है। व्रज की गोपबालाएँ और आपके नारदादि प्रेमी निरन्तर आपके पवित्र यश का गान करते रहते हैं। गोविन्द! आपके नाम, गुण और लीलादि का श्रवण करने से ही जीव का मंगल हो जाता है। हम सब आपके सेवक हैं। आप कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये। पुरुषोत्तम भगवान के चिह्न भूत अंग, उपांग और आयुध आदि के इस वर्णन का जो मनुष्य भगवान में ही चित्त लगाकर पवित्र होकर प्रातःकाल पाठ करेगा, उसे सबके हृदय में रहने वाले ब्रह्मस्वरूप परमात्मा का ज्ञान हो जायेगा।

शौनक जी ने कहा ;- सूत जी! भगवान श्रीशुकदेव जी ने श्रीमद्भागवत-कथा सुनाते समय राजर्षि परीक्षित से (पंचम स्कन्ध में) कहा था कि ऋषि, गन्धर्व, नाग, अप्सरा, यक्ष, राक्षस और देवताओं का एक सौरगण होता है और ये सातों प्रत्येक महीने में बदलते रहते हैं। ये बारह गण अपने स्वामी द्वादश आदित्यों के साथ रहकर क्या काम करते हैं और उनके अन्तर्गत व्यक्तियों के नाम क्या हैं? सूर्य के रूप में भी स्वयं भगवान ही हैं; इसलिये उनके विभाग को हम बड़ी श्रद्धा के साथ सुनना चाहते हैं, आप कृपा करके कहिये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: एकादश अध्याय:श्लोक 29-45 का हिन्दी अनुवाद)

सूत जी ने कहा ;- समस्त प्राणियों के आत्मा भगवान विष्णु ही हैं। अनादि अविद्या से अर्थात् उनके वास्तविक स्वरूप के आज्ञान से समस्त लोकों के व्यवहार-प्रवर्तक प्राकृत सूर्यमण्डल का निर्माण हुआ है। वही लोकों में भ्रमण किया करता है। असल में समस्त लोकों के आत्मा एवं आदिकर्ता एकमात्र श्रीहरि ही अन्तर्यामी रूप से सूर्य बने हुए हैं। वे यद्यपि एक ही हैं, तथापि ऋषियों ने उनका बहुत रूपों में वर्णन किया है, वे ही समस्त वैदिक क्रियाओं के मूल हैं। शौनक जी! एक भगवान ही माया के द्वार, काल, देश, यज्ञादि क्रिया, कर्ता, स्रुवा आदि करण, यागादि कर्म, वेद मन्त्र, शाकल्य आदि द्रव्य और फलरूप से नौ प्रकार के कहे जाते हैं। कालरूपधारी भगवान सूर्य लोगों का व्यवहार ठीक-ठीक चलाने के लिये चैत्रादि बारह महीनों में अपने भिन्न-भिन्न बारह गणों के साथ चक्कर लगाया करते हैं।

शौनक जी! धाता नामक सूर्य, कृतस्थली अप्सरा, हेति राक्षस, वासुकि सर्प, रथकृत् यक्ष, पुलस्त्य ऋषि और तुम्बुरु गन्धर्व-ये चैत्र मास में अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हैं। अर्यमा सूर्य, पुलह ऋषि, अथौजा यक्ष, प्रहेति राक्षस, पुंजिकस्थली अप्सरा, नारद गन्धर्व और कच्छनीर सर्प-ये वैशाख मास के कार्य-निर्वाहक हैं। मित्र सूर्य, अत्रि ऋषि, पौरुषेय राक्षस, तक्षक सर्प, मेनका अप्सरा, हाहा गन्धर्व और रथस्वन यक्ष-ये जेष्ठ मास के कार्य निर्वाहक हैं। आषाढ़ में वरुण नामक सूर्य के साथ वसिष्ठ ऋषि, रम्भा अप्सरा, सहजन्य यक्ष, हूहू गन्धर्व, शुक्र नाग और चित्रस्वन राक्षस अपने-अपने कार्य का निर्वाह करते हैं। श्रावण मास इन्द्र नामक सूर्य का कार्यकाल है। उनके साथ विश्वावसु गन्धर्व, श्रोता यक्ष, एलापत्र नाग, अंगिरा ऋषि, प्रम्लोचा अप्सरा एवं वर्य नामक राक्षस अपने कार्य का सम्पादन करते हैं। भाद्रपद के सूर्य का नाम है विवस्वान्। उनके साथ उग्रसेन गन्धर्व, व्याघ्र राक्षस, आसारण यक्ष, भृगु ऋषि, अनुम्लोचा अप्सरा और शंखपाल नाग रहते हैं।

शौनक जी! माघ मास में पूषा नाम के सूर्य रहते हैं। उनके साथ धनंजय नाग, वात राक्षस, सुषेण गन्धर्व,, सुरुचि यक्ष, घृताची अप्सरा और गौतम ऋषि रहते हैं। फाल्गुन मास का कार्यकाल पर्जन्य नामक सूर्य का है। उनके साथ क्रतु यक्ष, वर्चा राक्षस, भरद्वाज ऋषि, सेनजित अप्सरा, विश्व गन्धर्व और ऐरावत सर्प रहते हैं। मार्गशीर्ष मास में सूर्य का नाम होता है अंशु। उनके साथ कश्यप ऋषि, ताक्ष्र्य पक्ष, ऋतसेन गन्धर्व, उर्वशी अप्सरा, विद्युच्छत्रु राक्षस और महाशंख नाग रहते हैं। पौष मास में भग नामक सूर्य के साथ स्फूर्ज राक्षस, अरिष्टिनेमि गन्धर्व, उर्ण यक्ष, आयु ऋषि, पूर्वचित्ति अप्सरा और कर्कोटक नाग रहते हैं। आश्विन मास में त्वष्टा सूर्य, जमदग्नि ऋषि, कम्बल नाग, तिलोत्तमा अप्सरा, ब्रह्मापेत राक्षस, शतजित् यक्ष और धृतराष्ट्र गन्धर्व का कार्यकाल है तथा कीर्ति में विष्णु नामक सूर्य के साथ अश्वतर नाग, रम्भा अप्सरा, सूर्यवर्चा गन्धर्व, सत्यजित यक्ष, विश्वामित्र ऋषि और मखापेत राक्षस अपना-अपना कार्य सम्पन्न करते हैं।

शौनक जी! ये सब सूर्यरूप भगवान की विभूतियाँ हैं। जो लोग इनका प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकाल स्मरण करते हैं, उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: एकादश अध्याय: श्लोक 46-50 का हिन्दी अनुवाद)

ये सूर्यदेव अपने छः गुणों के साथ बारहों महीने सर्वत्र विचरते रहते हैं और इस लोक तथा परलोक में विवेक-बुद्धि का विस्तार करते हैं। सूर्य भगवान के गणों में ऋषि लोग तो सूर्य सम्बन्धी ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के मन्त्रों द्वारा उनकी स्तुति करते हैं और गंधर्व उनके सुयश का गान करते रहते हैं। अप्सराएँ आगे-आगे नृत्य करती चलती हैं।

नागगण रस्सी की तरह उनके रथ को कसे रहते हैं। यक्षगण रथ का साज सजाते हैं और बलवान् राक्षस उसे पीछे से धकेलते हैं। इनके सिवा वालखिल्य नाम के साठ हजार निर्मल स्वभाव ब्रह्मर्षि सूर्य की ओर मुँह करके उनके आगे-आगे स्तुति पाठ करते चलते हैं। इस प्रकार अनादि, अनन्त, अजन्मा भगवान श्रीहरि ही कल्प-कल्प में अपने स्वरूप का विभाग करके लोकों का पालन-पोषण करते-रहते हैं।


                          {द्वादश स्कन्ध:} 

                       【बारहवाँ अध्याय】१२


"श्रीमद्भागवत की संक्षिप्त विषय-सूची"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

सूत जी कहते हैं ;- भगवद्भक्तिरूप महान् धर्म को नमस्कार है। विश्व विधाता भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार है। अब मैं ब्राह्मणों को नमस्कार करके श्रीमद्भागवतोक्त सनातन धर्मों का संक्षिप्त विवरण सुनाता हूँ।

शौनकादि ऋषियों! आप लोगों ने मुझसे जो प्रश्न किया था, उसके अनुसार मैंने भगवान विष्णु का यह अद्भुत चरित्र सुनाया। यह सभी मुनष्यों के श्रवण करने योग्य है। इस श्रीमद्भागवत महापुराण में सर्वपापहारी स्वयं भगवान श्रीहरि का ही संकीर्तन हुआ है। वे ही सबके हृदय में विराजमान, सबकी इन्द्रियों के स्वामी और प्रेमी भक्तों के जीवन धन हैं। इस श्रीमद्भागवत महापुराण में परम रहस्यमय-अत्यन्त गोपनीय ब्रह्मतत्त्व का वर्णन हुआ है। उस ब्रह्म में ही इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की प्रतीति होती है। इस पुराण में उसी परमतत्त्व का अनुभवात्मक ज्ञान और उसकी प्राप्ति के साधनों का स्पष्ट निर्देश है।

शौनक जी! इस महापुराण के प्रथम स्कन्ध में भक्तियोग भलीभाँति निरूपण हुआ है और साथ ही भक्तियोग से उत्पन्न एवं उसको स्थिर रखने वाले वैराग्य का भी वर्णन किया गया है। परीक्षित की कथा और व्यास-नारद संवाद के प्रसंग से नारद चरित्र भी कहा गया है। राजर्षि परीक्षित ब्राह्मण का शाप हो जाने पर किस प्रकार गंगातट पर अनशन-व्रत लेकर बैठ गये और ऋषिप्रवर श्रीशुकदेव जी के साथ किस प्रकार उनका संवाद प्रारम्भ हुआ, यह कथा भी प्रथम स्कन्ध में ही है। योग धारणा के द्वारा शरीर त्याग की विधि, ब्रह्मा और नारद का संवाद, अवतारों की संक्षिप्त चर्चा तथा महत्तत्त्व आदि के क्रम से प्राकृतिक सृष्टि की उत्पत्ति, आदि विषयों का वर्णन द्वितीये स्कन्ध में हुआ है।

तीसरे स्कन्ध में पहले-पहल विदुर जी और उद्धव जी के, तदनन्तर विदुर तथा मैत्रय जी के समागम और संवाद का प्रसंग है। इसके पश्चात् पुराणसंहिता के विषय में प्रश्न है और फिर प्रलयकाल में परमात्मा की प्रकार स्थित रहते हैं, इसका निरूपण है। गुणों के क्षोभ से प्राकृतिक सृष्टि और महत्तत्त्व आदि सात प्रकृति-विकृतियों के द्वारा कार्य-सृष्टि का वर्णन है। इसके बाद ब्राह्मण की उत्पत्ति और उसमें विराट् पुरुष की स्थिति का स्वरूप समझाया गया है। तदनन्तर स्थूल और सूक्ष्म काल का स्वरूप, लोक-पद्म की उत्पत्ति, प्रलय-समुद्र से पृथ्वी का उद्धार करते समय वराह भगवान के द्वारा हिरण्याक्ष का वध; देवता, पशु, पक्षी और मनुष्यों की सृष्टि एवं रुद्रों की उत्पत्ति का प्रसंग है। इसके पश्चात् उस अर्द्धनारी-नर के स्वरूप का विवेचन है, जिससे स्वायम्भुव् मनु और स्त्रियों की अत्यन्त उत्तम आद्य प्रकृति शतरूपा का जन्म हुआ था। कर्दम प्रजापति का चरित्र, उनसे मुनि पत्नियों का जन्म, महात्मा भगवान कपिल का अवतार और फिर कपिल देव तथा उनकी माता देवहूति के संवाद का प्रसंग आता है।

चौथे स्कन्ध में मरीचि आदि नौ प्रजापतियों की उत्पत्ति, दक्ष्यज्ञ का विध्वंस राजर्षि ध्रुव एवं पृथु का चरित्र तथा प्राचीनबार्हि और नारद जी के संवाद का वर्णन है। पाँचवे स्कन्ध में प्रियव्रत का उपाख्यान, नाभि, ऋषभ और भरत के चरित्र, द्वीप, वर्ष, समुद्र, पर्वत और नदियों का वर्णन; ज्योतिश्चक्र के विस्तर एवं पाताल तथा नरकों की स्थिति का निरूपण हुआ है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: द्वादश अध्याय: श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद)

शौनकादि ऋषियों! छठे स्कन्ध में ये विषय आये हैं- प्रचेताओं से दक्ष की उत्पत्ति; दक्ष-पुत्रियों की सन्तान देवता, असुर, मनुष्य, पशु, पर्वत और पक्षियों का जन्म-कर्म; वृत्रासुर की उत्पत्ति और उसकी परम गति। (अब सातवें स्कन्ध के विषय बतलाये जाते हैं-) इस स्कन्ध में मुख्यतः दैत्यराज्य हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष के जन्म-कर्म एवं दैत्यशिरोमणि महात्मा प्रह्लाद के उत्कृष्ट चरित्र का निरूपण है। आठवें स्कन्ध में मन्वन्तरों की कथा, गजेन्द्र मोक्ष, विभिन्न मन्वन्तरों में होने वाले जगदीश्वर भगवान विष्णु के अवतार- कूर्म, मत्स्य, वामन, धन्वन्तरि, हयग्रीव आदि; अमृत-प्राप्ति के लिये देवताओं और दैत्यों का समुद्र मन्थन और देवासुर संग्राम आदि विषयों का वर्णन है।

नवें स्कन्ध में मुख्यतः राजवंशों का वर्णन है। इक्ष्वाकु के जन्म-कर्म, वंशविस्तार, महात्मा सुद्युम्न, इला एवं तारा के उपाख्यान-इन सबका वर्णन किया गया है। सूर्य वंश का वृत्तान्त, शशाद और नृग आदि राजाओं का वर्णन, सुकन्या का चरित्र, शर्याति, खट्वांग, मान्धाता, सौभरि, सगर, बुद्धिमान कुकुत्स्थ और कोसलेन्द्र भगवान राम के सर्वपापहारी चरित्र वर्णन भी इसी स्कन्ध में है। तदनन्तर निमि का देह त्याग-और जनकों की उत्पत्ति का वर्णन है। भृगुवंशशिरोमणि परशुराम का क्षत्रिय संहार, चन्द्रवंशी नरपति पुरूरवा, ययाति, नहुष, दुष्यन्तनन्दन भरत, शान्तनु और उनके पुत्र भीष्म आदि की संक्षिप्त कथाएँ भी नवम स्कन्ध में ही हैं। सबके अन्त में ययाति के बड़े लड़के यदु का वंश विस्तार कहा गया है।

शौनकादि ऋषियों! इसी यदुवंश में जगत्पति भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार ग्रहण किया था। उन्होंने अनेक असुरों का संहार किया। उनकी लीलाएँ इतनी हैं कि कोई पार नहीं पा सकता। फिर भी दशम स्कन्ध में उनका कुछ कीर्तन किया गया है। वसुदेव की पत्नी देवकी के गर्भ से उनका जन्म हुआ। गोकुल में नन्दबाबा के घर जाकर बढ़े। पूतना के प्राणों को दूध के साथ पी लिया। बचपन में ही छकड़े को उलट दिया। तृणावर्त, बकासुर एवं वत्सासुर को पीस डाला। सपरिवार धेनुकासुर और प्रलम्बासुर को मार डाला। दावानल से घिरे गोपों की रक्षा की। कालिय नाग का दमन किया। अजगर से नन्दबाबा को छुड़ाया। इसके बाद गोपियों ने भगवान को पतिरूप से प्राप्त करने के लिये व्रत किया और भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर उन्हें अभिमत वर दिया। भगवान ने यज्ञपत्नियों पर कृपा की। उनके पत्नियों-ब्राह्मणों को बड़ा पश्चात् हुआ।

गोवर्धन धारण की लीला करने पर इन्द्र और कामधेनु ने आकर भगवान का यज्ञाभिषेक किया। शरद् ऋतु की रात्रियों में व्रजसुन्दरियों के साथ रास-क्रीड़ा की। दुष्ट शंखचूड, अरिष्ट और केशी के वध की लीला हुई। तदनन्तर अक्रूर जी मथुरा से वृन्दावन आये और उनके साथ भगवान श्रीकृष्ण तथा बलराम जी ने मथुरा के लिये प्रस्थान किया। उस प्रसंग पर व्रजसुन्दरियों ने जो विलाप किया था, उसका वर्णन है। राम और श्याम ने मथुरा में जाकर वहाँ की सजावट देखी और कुवलयापीड़ हाथी, मुष्टिक, चाणूर एवं कंस आदि का संहार किया। सान्दीपनि गुरु के यहाँ विद्याध्ययन करके उनके मृत पुत्र को लौटा लाये। शौनकादि ऋषियों! जिस समय भगवान श्रीकृष्ण मथुरा में निवास कर रहे थे, उस समय उन्होंने उद्धव और बलराम जी के साथ यदुवंशियों का सब प्रकार से प्रिय और हित किया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: द्वादश अध्याय: श्लोक 36-48 का हिन्दी अनुवाद)

जरासन्ध कई बार बड़ी-बड़ी सुनाएँ लेकर आया और भगवान ने उनका उद्धार करके पृथ्वी का भार हलका किया। कालयवन को मुचुकुन्द से भस्म करा दिया। द्वारकापुरी बसाकर रातों-रात सबको वहाँ पहुँचा दिया। स्वर्ग से कल्पवृक्ष एवं सुधर्मा सभा ले आये। भगवान ने दल-के-दल शत्रुओं को युद्ध में पराजित करके रुक्मिणी का हरण किया। बाणासुर के साथ युद्ध के प्रसंग में महादेव जी पर ऐसा बाण छोड़ा कि वे जँभाई लेने लगे और इधर बाणासुर की भुजाएँ काट डालीं। पाग्-ज्योतिषपुर के स्वामी भौमासुर को मारकर सोलह हजार कन्याएँ ग्रहण कीं। शिशुपाल, पौण्ड्रक, शाल्व, दुष्ट दन्तवक्त्र, शम्बरासुर, द्विविद, पीठ, मुर, पंचजन आदि दैत्यों के बल-पौरुष का वर्णन करके यह बात बतलायी गयी कि भगवान ने उन्हें कैसे-कैसे मारा। भगवान के चक्र ने काशी को जला दिया और फिर उन्होंने भारतीय युद्ध में पाण्डवों को निमित्त बनाकर पृथ्वी का बहुत बड़ा भार उतार दिया।

शौनकादि ऋषियों! ग्यारहवें स्कन्ध में इस बात का वर्णन हुआ है कि भगवान ने ब्राह्मणों के शाप के बहाने किस प्रकार यदुवंश का संहार किया। इस स्कन्ध में भगवान श्रीकृष्ण और उद्धव का संवाद बड़ा ही अद्भुत है। उसमें सम्पूर्ण आत्मज्ञान और धर्म-निर्णय का निरूपण हुआ है और अन्त में यह बात बतायी गयी है कि भगवान श्रीकृष्ण ने अपने आत्मयोग के प्रभाव से किस प्रकार मर्त्यलोक का परित्याग किया। बारहवें स्कन्ध में विभिन्न युगों के लक्षण और उनमें रहने वाले लोगों के व्यवहार का वर्णन किया गया है तथा यह भी बतलाया गया है कि कलियुग में मनुष्यों की गति विपरीत होती है। चार प्रकार के प्रलय और तीन प्रकार की उत्पत्ति का वर्णन भी इसी स्कन्ध में है। इसके बाद परम ज्ञानी राजर्षि परीक्षित के शरीर त्याग की बात कही गयी है। तदनन्तर वेदों के शाखा-विभाजन का प्रसंग आया है। मार्कण्डेय जी की सुन्दर कथा, भगवान के अंग-उपांगों का स्वरूप कथन और सबके अन्त में विश्वात्मा भगवान सूर्य के गणों का वर्णन है।

शौनकादि ऋषियों! आप लोगों ने इस सत्संग के अवसर पर मुझसे जो कुछ पूछा था, उसका वर्णन मैंने कर दिया। इसमें सन्देह नहीं कि इस अवसर पर मैंने हर तरह से भगवान की लीला और उनके अवतार-चरित्रों का ही कीर्तन किया है। जो मनुष्य गिरते-पड़ते, फिसलते से, दुःख भोगते अथवा छींकते समय विवशता से भी ऊँचे स्वर से बोल उठता है- ‘हरये नमः’, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। यदि देश, काल एवं वस्तु से अपरिच्छिन्न भगवान श्रीकृष्ण के नाम, लीला, गुण आदि का संकीर्तन किया जाये अथवा उनके प्रभाव, महिमा आदि का श्रवण किया जाये तो वे स्वयं ही हृदय में आ विराजते हैं और श्रवण तथा कीर्तन करने वाले पुरुष के सारे दुःख मिटा देते हैं-ठीक वैसे ही जैसे सूर्य अन्धकार को और आँधी बादलों को तितर-बितर कर देती है।

जिस वाणी के द्वारा घट-घटवासी अविनाशी भगवान के नाम, लीला, गुण आदि का उच्चारण नहीं होता, वह वाणी भावपूर्ण होने पर भी निरर्थक है-सारहीन है, सुन्दर होने पर भी असुन्दर है और उत्तमोत्तम विषयों का प्रतिपादन करने वाली होने पर भी असत्कथा है। जो वाणी और वचन भगवान के गुणों से परिपूर्ण रहते हैं, वे ही परम पावन हैं, वे ही मंगलमय हैं और वे ही परम सत्य हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: द्वादश अध्याय: श्लोक 49-57 का हिन्दी अनुवाद)

जिस वचन के द्वारा भगवान के परम पवित्र यश का गान होता है, वही परम रमणीय, रुचिकर एवं प्रतिक्षण नया-नया जान पड़ता है। उससे अनन्त काल तक मन को परमानन्द की अनुभूति होती रहती है। मनुष्यों का सारा शोक, चाहे वह समुद्र के समान लंबा और गहरा क्यों न हो, उस वचन के प्रभाव से सदा के लिये सुख जाता है। जिस वाणी से-चाहे वह रस, भाव, अलंकर आदि से युक्त ही क्यों न हो-जगत् को पवित्र करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के यश का कभी गान नहीं होता, वह तो कौओं के लिये उच्छिष्ट फेंकने के स्थान के समान अत्यन्त अपवित्र है। मानसरोवर-निवासी हंस अथवा ब्रह्मधाम में विहार करने वाले भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंसभक्त उसका कभी सेवन नहीं करते। निर्मल हृदय वाले साधुजन तो वहीं निवास करते हैं, जहाँ भगवान रहते हैं।

इसके विपरीत जिसमें सुन्दर रचना भी नहीं है, जो व्याकरण आदि की दृष्टि से दूषित शब्दों से युक्त भी है, परन्तु जिसके प्रत्येक श्लोक में भगवान के सुयश सूचक नाम जड़े हुए हैं, वह वाणी लोगों के सारे पापों का नाश का कर देती है; क्योंकि सत्पूरुष ऐसी ही वाणी का श्रवण, गान और कीर्तन किया करते हैं। वह निर्मल ज्ञान भी, जो मोक्ष की प्राप्ति का साक्षात् साधन है, यदि भगवान की भक्ति से रहित हो तो उसकी उतनी शोभा नहीं होती। फिर जो कर्म भगवान को अर्पण नहीं किया गया है-वह चाहे कितना ही ऊँचा क्यों न हो-सर्वदा अमंगलरूप, दुःख देने वाला ही है; वह तो शोभन-वरणीय हो ही कैसे सकता है?

वर्णाश्रम के अनुकूल आचरण, तपस्या और अध्ययन आदि के लिये जो बहुत बड़ा परिश्रम किया जाता है, उसका फल है-केवल यश अथवा लक्ष्मी की प्राप्ति। परन्तु भगवान के गुण, लीला, नाम आदि का श्रवण, कीर्तन आदि तो उनके श्रीचरणकमलों की अविचल स्मृति प्रदान करता है। भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की अविचल स्मृति सारे पाप-ताप और अमंगलों को नष्ट कर देती और परम शान्ति का विस्तार करती है। उसी के द्वारा अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, भगवान की भक्ति प्राप्त होती है एवं परवैराग्य से युक्त भगवान के स्वरूप का ज्ञान तथा अनुभव प्राप्त होता है।

शौनकादि ऋषियों! आप लोग बड़े भाग्यवान् हैं। धन्य हैं, धन्य हैं! क्योंकि आप लोग बड़े प्रेम से निरन्तर अपने हृदय में सर्वान्तर्यामी, सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् आदिदेव सबके आराध्यदेव एवं स्वयं दूसरे आराध्यदेव से रहित नारायण भगवान को स्थापित करके भजन करते रहते हैं। जिस समय राजर्षि परीक्षित अनशन करके बड़े-बड़े ऋषियों की भरी सभा में सबके सामने श्रीशुकदेव जी महाराज से श्रीमद्भागवत की कथा सुन रहे थे, उस समय वहीं बैठकर मैंने भी उन्हीं परमर्षि के मुख से इस आत्मतत्त्व का श्रवण किया था। आप लोगों ने उसका स्मरण कराकर मुझ पर बड़ा अनुग्रह किया। मैं इसके लिये आप लोगों का बड़ा ऋणी हूँ। शौनकादि ऋषियों! भगवान वासुदेव की एक-एक लीला सर्वदा श्रवण-कीर्तन करने योग्य है। मैंने इस प्रसंग में उन्हीं की महिमा का वर्ना किया है; जो सारे अशुभ संस्कारों को धो बहाती है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: द्वादश अध्याय: श्लोक 58-68 का हिन्दी अनुवाद)

जो मनुष्य एकाग्रचित्त से एक पहर अथवा एक क्षण ही प्रतिदिन इसका कीर्तन करता है और जो श्रद्धा के साथ इसका श्रवण करता है, वह अवश्य ही शरीर सहित अपने अन्तःकरण को पवित्र बना लेता है। जो पुरुष द्वादशी अथवा एकादशी के दिन इसका श्रवण करता है, वह दीर्घायु हो जाता है और जो सयंमपूर्वक निराहार रहकर पाठ करता है, उसके पहले के पाप तो नष्ट हो ही जाते हैं, पाप की प्रवृत्ति भी नष्ट हो जाती है। जो मनुष्य इन्द्रियों और अन्तःकरण को अपने वश में करके उपवासपूर्वक पुष्कर, मथुरा अथवा द्वारका में इस पुराण संहिता का पाठ करता है, वह सारे भयों से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य इसका श्रवण या उच्चारण करता है, उसके कीर्तन से देवता, मुनि, सिद्ध, पितर, मनु और नरपति सन्तुष्ट होते हैं और उसकी अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं।

ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के पाठ से ब्राह्मण को मधुकुल्या, घृतकुल्या और पयःकुल्या (मधु, घी एवं दूध की नदियाँ अर्थात् सब प्रकार की सुख-समृद्धि) की प्राप्ति होती है। वही फल श्रीमद्भागवत के पाठ से भी मिलता है। जो द्विज संयमपूर्वक इस पुराण संहिता का अध्ययन करता है, उसे उसी परमपद की प्राप्ति होती है, जिसका वर्णन स्वयं भगवान ने किया है। इसके अध्ययन से ब्राह्मण को ऋतम्भरा प्रज्ञा (तत्त्वज्ञान को प्राप्त कराने वाली बुद्धि) की प्राप्ति होती है और क्षत्रिय को समुद्र पर्यन्त भूमण्डल का राज्य प्राप्त होता है। वैश्य कुबेर का पद प्राप्त करता है और शूद्र सारे पापों से छुटकारा पा जाता है।

भगवान ही सबके स्वामी हैं और समूह-के-समूह कलिमलों को ध्वंस करने वाले हैं। यों तो उनका वर्णन करने के लिये बहुत-से पुराण हैं, परन्तु उनमें सर्वत्र और निरन्तर भगवान का वर्णन नहीं मिलता। श्रीमद्भागवत-महापुराण में तो प्रत्येक कथा-प्रसंग में पद-पद पर सर्वस्वरूप भगवान का ही वर्णन हुआ है। वे जन्म-मृत्यु आदि विकारों से रहित, देश कालादि कृत परिच्छेदों से मुक्त एवं स्वयं आत्मतत्त्व ही हैं। जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करने वाली शक्तियाँ भी उनकी स्वरूपभूत ही हैं, भिन्न नहीं। ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि लोकपाल भी उनकी स्तुति करना लेशमात्र भी नहीं जानते। उन्हीं एकरस सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। जिन्होंने अपने स्वरूप में ही प्रकृति आदि नौ शक्तियों का संकल्प करके इस चराचर जगत् की सृष्टि की है और जो इसके अधिष्ठानरूप से स्थित हैं तथा जिनका परम पद केवल अनुभूतिस्वरूप है, उन्हीं देवताओं के आराध्यदेव सनातन भगवान के चरणों में मैं नमस्कार करता हूँ।

श्रीशुकदेव जी महाराज अपने आत्मानन्द में ही निमग्न थे। इस अखण्ड अद्वैत स्थिति से उनकी भेददृष्टि सर्वथा निवृत्त हो चुकी थी। फिर भी मुरली मनोहर श्यामसुन्दर की मधुमयी, मंगलमयी, मनोहारिणी लीलाओं ने उनकी वृत्तियों को अपनी ओर आकर्षित कर लिया और उन्होंने जगत् के प्राणियों पर कृपा करके भगवततत्त्व को प्रकाशित करने वाले इस महापुराण का विस्तार किया। मैं उन्हीं सर्वपापहारी व्यासनन्दन भगवान श्रीशुकदेव जी के चरणों में नमस्कार करता हूँ।


                          {द्वादश स्कन्ध:} 

                       【तेरहवाँ अध्याय】१३


"विभिन्न पुराणों की श्लोक-संख्या और श्रीमद्भागवत की महिमा"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

सूत जी कहते हैं ;- ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्गण दिव्य स्तुतियों के द्वारा जिनके गुणगान में संलग्न रहते हैं; साम-संगीत के मर्मज्ञ ऋषि-मुनि अंग, पद, क्रम एवं उपनिषदों के सहित वेदों द्वारा जिनका गान करते रहते हैं; योगी लोग ध्यान के द्वारा निश्चल एवं तल्लीन मन से जिनका भावमय दर्शन प्राप्त करते रहते हैं; किन्तु यह सब करते रहने पर भी देवता, दैत्य, मनुष्य- कोई भी जिनके वास्तविक स्वरूप को पूर्णतय न जान सका, उन स्वयं प्रकाश परमात्मा को नमस्कार है।

जिस समय भगवान ने कच्छप रूप धारण किया था और उनकी पीठ पर बड़ा भारी मन्दराचल मथानी की तरह घूम रहा था, उस समय मन्दराचल की चट्टानों की नोक से खुजलाने के कारण भगवान को तनिक सुख मिला। वे सो गये और श्वास की गति तनिक बढ़ गयी। उस समय उस श्वास वायु से जो समुद्र के जल को धक्का लगा था, उसका संस्कार आज भी उसमें शेष है। आज भी समुद्र उसी श्वास वायु के थपेड़ों के फलस्वरूप ज्वार-भाटों के रूप में दिन-रात चढ़ता-उतरता रहता है, उसे अब तक विश्राम न मिला। भगवान की वही परम प्रभावशाली श्वास वायु आप लोगों की रक्षा करे।

शौनक जी! अब पुराणों की अलग-अलग श्लोक-संख्या, उनका जोड़, श्रीमद्भागवत का प्रतिपाद्य विषय और उसका प्रयोजन भी सुनिये। इसके दान की पद्धति तथा दान और पाठ आदि की महिमा भी आप लोग श्रवण कीजिये। ब्रह्मपुराण में दस हजार श्लोक, पद्मपुराण में पचपन हजार, श्रीविष्णुपुराण में तेईस हजार और शिवपुराण की श्लोक संख्या चौबीस हजार है। श्रीमद्भागवत में अठारह हजार, नारदपुराण में पचीस हजार, मार्कण्डेयपुराण में नौ हजार तथा अग्निपुराण में पन्द्रह हजार चार सौ श्लोक हैं। भविष्यपुराण की श्लोक-संख्या चौदह हजार पाँच सौ है और ब्रह्मवैवर्तपुराण की अठारह हजार तथा लिंगपुराण में ग्यारह हजार श्लोक हैं। वराहपुराण में चौबीस हजार, स्कन्धपुराण की श्लोक संख्या इक्यासी हजार एक सौ है और वामनपुराण की दस हजार। कूर्मपुराण सत्रह हजार श्लोकों का और मत्स्यपुराण चौदह हजार श्लोकों का है। गरुड़पुराण में उन्नीस हजार श्लोक हैं और ब्रह्माण्डपुराण में बारह हजार। इस प्रकार सब पुराणों की श्लोक संख्या कुल मिलाकर चार लाख होती है। उनमें श्रीमद्भागवत, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, अठारह हजार श्लोकों का है।

शौनक जी! पहले-पहल भगवान विष्णु ने अपने नाभिकमल पर स्थित एवं संसार से भयभीत ब्रह्मा पर परम करुणा करके इस पुराण को प्रकाशित किया था। इसके आदि, मध्य और अन्त में वैराग्य उत्पन्न करने वाली बहुत-सी कथाएँ हैं। इस महापुराण में जो भगवान श्रीहरि की लीला-कथाएँ हैं, वे तो अमृतस्वरूप हैं ही; उनके सेवन से सत्पुरुष देवताओं को बड़ा ही आनन्द मिलता है। आप लोग जानते हैं कि समस्त उपनिषदों का सार है। ब्रह्म और आत्मा का एकत्वरूप अद्वितीय सद्वस्तु। वही श्रीमद्भागवत का प्रतिपाद्य विषय है। इनके निर्माण प्रयोजन है एकमात्र कैवल्य-मोक्ष। जो पुरुष भाद्रपद मास की पूर्णिमा के दिन श्रीमद्भागवत को सोने के सिंहासन पर रखकर उसका दान करता है, उसे परमगति प्राप्त होती है। संतों की सभा में तभी तक दूसरे पुराणों की शोभा होती है, जब तक सर्वश्रेष्ठ स्वयं श्रीमद्भागवत महापुराण के दर्शन नहीं होते।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध:त्रयोदश अध्याय: श्लोक 15-23 का हिन्दी अनुवाद)

यह श्रीमद्भागवत समस्त उपनिषदों का सार है। जो इस रस-सुधा का पान करके छक चुका है, वह किसी और पुराण-शास्त्र में रम नहीं सकता। जैसे नदियों में गंगा, देवताओं में विष्णु और वैष्णवों में श्रीशंकर जी सर्वश्रेष्ठ हैं, वैस ही पुराणों में श्रीमद्भागवत है।

शौनकादि ऋषियों! जैसे सम्पूर्ण क्षेत्रों में काशी सर्वश्रेष्ठ है, वैसे ही पुराणों में श्रीमद्भागवत का स्थान सबसे ऊँचा है। यह श्रीमद्भागवत महापुराण सर्वथा निर्दोष है। भगवान के प्यारे भक्त वैष्णव इससे बड़ा प्रेम करते हैं। इस पुराण में जीवन्मुक्त परमहंसों के सर्वश्रेष्ठ, अद्वितीय एवं माया के लेश से रहित ज्ञान का गान किया गया है। इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विलक्षणता यह है कि इसका नैष्कर्म्य अर्थात् कर्मों की आत्यन्तिक निवृत्ति भी ज्ञान-वैराग्य एवं भक्ति से युक्त है। जो इसका श्रवण, पठन और मनन करने लगता है, उसे भगवान की भक्ति प्राप्त हो जाती है और वह मुक्त हो जाता है।

यह श्रीमद्भागवत भगवतत्त्व ज्ञान का एक श्रेष्ठ प्रकाशक है। इसकी तुलना में और कोई भी पुराण नहीं है। इसे पहले-पहल स्वयं भगवान नारायण ने ब्रह्मा जी के लिये प्रकट किया था। फिर उन्होंने ही ब्रह्मा जी के रूप से देवर्षि नारद को उपदेश किया और नारद जी के रूप से भगवान श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास को। तदनन्तर उन्होंने ही व्यासरूप से योगीन्द्र शुकदेव जी को और श्रीशुकदेव जी के रूप से अत्यन्त करुणावश राजर्षि परीक्षित को उपदेश किया।

वे भगवान परम शुद्ध एवं मायामल से रहित हैं। शोक और मृत्यु उनके पास तक नहीं फटक सकते। हम सब उन्हीं परम सत्यस्वरूप परमेश्वर का ध्यान करते हैं। हम उन सर्वसाक्षी भगवान वासुदेव को नमस्कार करते हैं, जिन्होंने कृपा करके मोक्षाभिलाषी ब्रह्मा जी को इस श्रीमद्भागवत महापुराण का उपदेश किया। साथ ही हम उन योगिराज ब्रह्मस्वरूप श्रीशुकदेव जी को भी नमस्कार करते हैं, जिन्होंने श्रीमद्भागवत महापुराण सुनाकर संसार-सर्प से डसे हुए राजर्षि परीक्षित को मुक्त किया।

देवताओं के आराध्यदेव सर्वेश्वर! आप ही हमारे एकमात्र स्वामी एवं सर्वस्व हैं। अब आप ऐसी कृपा कीजिये कि बार-बार जन्म ग्रहण करते रहने पर भी आपके चरणकमलों में हमारी अविचल भक्ति बनी रहे। जब भगवान के नामों का संकीर्तन सारे पापों को सर्वथा नष्ट कर देता है और जिन भगवान के चरणों में आत्मसमर्पण, उनके चरणों में प्रणति सर्वदा के लिये सब प्रकार के दुःखों को शान्त कर देती है, उन्हीं परम-तत्त्वस्वरूप श्रीहरि को मैं नमस्कार करता हूँ।

                      【द्वादश स्कन्ध: समाप्त】

                         【 हरिः ॐ तत्सत्】

{सम्पूर्ण ग्रन्थ समाप्त}



(नोट :- सभी स्कन्ध:  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें