सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण (द्वादश स्कन्धः ) का छटा, सातवाँ, आठवाँ, नवाँ, व दसवाँ अध्याय [ Sixth, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Twelfth wing) ]

 


                          {द्वादश स्कन्ध:} 

                       【छठवाँ अध्याय】६

"परीक्षित की परमगति, जनमेजय का सर्पसत्र और वेदों के शाखा भेद"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीसूत जी कहते हैं ;- शौनकादि ऋषियों! व्यासनन्दन श्रीशुकदेव मुनि समस्त चराचर जगत् को अपनी आत्मा के रूप में अनुभव करते हैं और व्यवहार में सबके प्रति समदृष्टि रखते हैं। भगवान के शरणागत एवं उनके द्वारा सुरक्षित राजर्षि परीक्षित ने उसका सम्पूर्ण उपदेश बड़े ध्यान से श्रवण किया। अब वे सिर झुकाकर उनके चरणों के तनिक और पास खिसक आये तथा अंजलि बाँधकर उनसे यह प्रार्थना करने लगे।

राजा परीक्षित ने कहा ;- भगवन्! आप करुणा के मूर्तिमान् स्वरूप हैं। आपने मुझ पर परम कृपा करके अनादि-अनन्त, एकरस, सत्य भगवान श्रीहरि के स्वरूप और लीलाओं का वर्णन किया है। अब मैं आपकी कृपा से परम अनुगृहीत और कृतकृत्य हो गया हूँ। संसार के प्राणी अपने स्वार्थ और परमार्थ के ज्ञान से शून्य हैं और विभिन्न प्रकार के दुःखों के दावानल से दग्ध हो रहे हैं। उनके ऊपर भगवन्मय महात्माओं का अनुग्रह होना कोई नयी घटना अथवा आश्चर्य की बात नहीं है। यह तो उनके लिये स्वाभाविक ही है। मैंने और मेरे साथ बहुत-से लोगों ने आपके मुखारविन्द से इस श्रीमद्भागवत महापुराण का श्रवण किया है। इस पुराण में पद-पद पर भगवान श्रीहरि के उस स्वरूप और उन लीलाओं का वर्णन हुआ है, जिसके गान में बड़े-बड़े आत्माराम पुरुष रमते हैं।

भगवन्! आपने मुझे अभयपद का, ब्रह्म और आत्मा की एकता का साक्षात्कार करा दिया है। अब मैं परम शान्ति-स्वरूप ब्रह्म में स्थित हूँ। अब मुझे तक्षक आदि किसी भी मृत्यु के निमित्त से अथवा दल-के-दल मृत्युओं से भी भय नहीं है। मैं अभय हो गया हूँ। ब्रह्मन्! अब आप मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं अपनी वाणी बंद कर लूँ, मौन हो जाऊँ और साथ कामनाओं के संस्कार से भी रहित चित्त को इन्द्रियातीत परमात्मा के स्वरूप में विलीन करके अपने प्राणों का त्याग कर दूँ। आपके द्वारा उपदेश किये हुए ज्ञान और विज्ञान में परिनिष्ठित हो जाने से मेरा अज्ञान सर्वदा के लिये नष्ट हो गया। आपने भगवान के परम कल्याणमय स्वरूप का मुझे साक्षात्कार करा दिया है।

सूत जी कहते हैं ;- शौनकादि ऋषियों! राजा परीक्षित ने भगवान श्रीशुकदेव जी से इस प्रकार कहकर बड़े प्रेम से उनकी पूजा की। अब वे परीक्षित से विदा लेकर समागत त्यागी महात्माओं, भिक्षुओं के साथ वहाँ से चले गये। राजर्षि परीक्षित ने भी बिना किसी बाह्य सहायता के स्वयं ही अपने अन्तरात्मा को परमात्मा के चिन्तन में समाहित किया और ध्यानमग्न हो गये। उस समय उनका श्वास-प्रश्वास भी नहीं चलता था, ऐसा जान पड़ता था मानो कोई वृक्ष का ठूँठ हो। उन्होंने गंगा जी के तट पर कुशों को इस प्रकार बिछा रखा था, जिसमें उनका अग्रभाव पूर्व की ओर हो और उन पर स्वयं उत्तर मुँह होकर बैठे हुए थे। उनकी आसक्ति और संशय तो पहले ही मिट चुके थे। अब वे ब्रह्म और आत्मा की एकतारूप महायोग में स्थित होकर ब्रह्मस्वरूप हो गये।

शौनकादि ऋषियों! मुनिकुमार श्रृंगी ने क्रोधित होकर परीक्षित को शाप दे दिया था। अब उनका भेजा हुआ तक्षक सर्प राजा परीक्षित को डसने के लिये उनके पास चला। रास्ते में उसने कश्यप नाम के एक ब्राह्मण को देखा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: षष्ठ अध्याय: श्लोक 12-26 का हिन्दी अनुवाद)

कश्यप ब्राह्मण सर्पविष की चिकित्सा करने में बड़े निपुण थे। तक्षक ने बहुत-सा धन देकर कश्यप को वहीं से लौटा दिया, उन्हें राजा के पास न जाने दिया और स्वयं ब्राह्मण के रूप में छिपकर, क्योंकि वह इच्छानुसार रूप धारण कर सकता था, राजा परीक्षित के पास गया और उन्हें डस लिया। राजर्षि परीक्षित् तक्षक के डसने के पहले ही ब्रह्म में स्थित हो चुके थे। अब तक्षक के विष की आग से उनका शरीर सबके समाने ही जलकर भस्म हो गया। पृथ्वी, आकाश और सब दिशाओं में बड़े जोर से ‘हाय-हाय’ की ध्वनि होने लगी। देवता, असुर, मनुष्य आदि सब-के-सब परीक्षित् की यह परम गति देखकर विस्मित हो गये। देवताओं की दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं। गन्धर्व और अप्सराएँ गान करने लगीं। देवता लोग ‘साधु-साधु’ के नारे लगाकर पुष्पों की वर्षा करने लगे।

जब जनमेजय ने सुना कि तक्षक ने मेरे पिताजी को डस लिया है, तो उसे बड़ा क्रोध हुआ। अब वह ब्राह्मणों के साथ विधिपूर्वक सर्पों का अग्निकुण्ड में हवन करने लगा। तक्षक ने देखा कि जनमेजय के सर्पसत्र की प्रज्वलित अग्नि में बड़े-बड़े महासर्प भस्म होते जा रहे हैं, तब वह अत्यन्त भयभीत होकर देवराज इन्द्र की शरण में गया। बहुत सर्पों के भस्म होने पर भी तक्षक न आया, यह देखकर परीक्षितनन्दन राजा जनमेजय ने ब्राह्मणों से कहा कि- ‘ब्राह्मणों! अब तक सर्पाधम तक्षक क्यों नहीं भस्म हो रहा है?’ ब्राह्मणों ने कहा- ‘राजेन्द्र! तक्षक इस समय इन्द्र की शरण में चला गया है और वे उसकी रक्षा कर रहे हैं। उन्होंने ही तक्षक को स्तम्भित कर दिया है, इसी से वह अग्निकुण्ड में गिरकर भस्म नहीं हो रहा है’। परीक्षितनन्दन जनमेजय बड़े ही बुद्धिमान और वीर थे। उन्होंने ब्राह्मणों की बात सुनकर ऋत्विजों से कहा कि- ‘ब्राह्मणों! आप लोग इन्द्र के साथ तक्षक को क्यों नहीं अग्नि में में गिरा देते?’ जनमेजय की बात सुनकर ब्राह्मणों ने उस यज्ञ में इन्द्र के साथ तक्षक का अग्निकुण्ड में आवाहन किया। उन्होंने कहा- ‘रे तक्षक! तू मरुद्गण के सहचर इन्द्र के साथ इस अग्निकुण्ड में शीघ्र आ पड़’। जब ब्राह्मणों ने इस प्रकार आकर्षण मन्त्र का पाठ किया, तब तो इन्द्र अपने स्थान स्वर्गलोक से विचलित हो गये। विमान पर बैठे हुए इन्द्र तक्षक के साथ ही बहुत घबड़ा गये और उनका विमान भी चक्कर काटने लगा।

अंगिरानन्दन बृहस्पति जी ने देखा कि आकाश से देवराज इन्द्र विमान और तक्षक के साथ ही अग्निकुण्ड में गिर रहे हैं; तब उन्होंने राजा जनमेजय से कहा- ‘नरेन्द्र! सर्पराज तक्षक को मार डालना आपके योग्य काम नहीं है। यह अमृत पी चुका है। इसलिये यह अजर और अमर है। राजन्! जगत् के प्राणी अपने-अपने कर्म के अनुसार ही जीवन, मरण और मरणोत्तर गति प्राप्त करते हैं। कर्म के अतिरिक्त और कोई भी किसी को सुख-दुःख नहीं दे सकता। जनमेजय! यों तो बहुत-से लोगों की मृत्यु साँप, चोर, आग, बिजली आदि से तथा भूख-प्यास, रोग आदि निमित्तों से होती है; परन्तु यह तो कहने की बात है। वास्तव में तो सभी प्राणी अपने प्रारब्ध-कर्म का ही उपभोग करते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 27-33 का हिन्दी अनुवाद)

राजन्! तुमने बहुत-से निरपराध सर्पों को जला दिया है। इस अभिचार-यज्ञ का फल केवल प्राणियों की हिंसा ही है। इसलिये इसे बन्द कर देना चाहिये। क्योंकि जगत् के सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्ध कर्म का ही भोग कर रहे हैं।'

सूत जी कहते हैं ;- शौनकादि ऋषियों! महर्षि बृहस्पति जी की बात का सम्मान करके जनमेजय ने कहा कि ‘आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।’ उन्होंने सर्पसत्र बंद कर दिया और देवगुरु बृहस्पति जी की विधिपूर्वक पूजा की। ऋषिगण! (जिससे विद्वान् ब्राह्मण को भी क्रोध आया, राजा को शाप हुआ, मृत्यु हुई, फिर जनमेजय को क्रोध आया, सर्प मारे गये) यह वही भगवान विष्णु की महामाया है। यह अनिर्वचनीय है, इसी से भगवान के स्वरूपभूत जीव क्रोधादि गुण-वृत्तियों के द्वारा शरीरों में मोहित हो जाते हैं, एक-दूसरे को दुःख देते और भोगते हैं और अपने प्रयत्न से इसको निवृत्त नहीं कर सकते। (विष्णु भगवान के स्वरूप का निश्चय करके उनका भजन करने से ही माया से निवृत्ति होती है; इसलिये उनके स्वरूप का निरूपण सुनो-) यह दम्भी है, कपटी है-इत्याकारक बुद्धि में बार-बार जो दम्भ-कपट स्फुरण होता है, वही माया है।

जब आत्मवादी पुरुष आत्मचर्चा करने लगते हैं, तब वह परमात्मा के स्वरूप में निर्भयरूप से प्रकाशित नहीं होती; किन्तु भयभीत होकर अपना मोह आदि कार्य न करती हुई ही किसी प्रकार रहती है। इस रूप में उसका प्रतिपादन किया गया है। माया के आश्रित नाना प्रकार के विवाद, मतवाद भी परमात्मा के स्वरूप में नहीं हैं; क्योंकि वे विशेष विषयक हैं और परमात्मा निर्विशेष है। केवल वाद-विवाद की तो बात ही क्या, लोक-परलोक के विषयों के सम्बन्ध में संकल्प-विकल्प करने वाला मन भी शान्त हो जाता है। कर्म, उसके सम्पादन की सामग्री और उनके द्वारा साध्यकर्म-इन तीनों से अन्वित अहंकारात्मक जीव-यह सब जिसमें नहीं हैं, वह आत्म-स्वरूप परमात्मा न तो कभी किसी के द्वारा बाधित होता है और न तो किसी का विरोधी ही है। जो पुरुष उस परमपद के स्वरूप का विचार करता है, वह मन की मायामयी लहरों, अहंकार आदि का बाध करके स्वयं अपने आत्मस्वरूप में विहार करने लगता है। जो मुमुक्षु एवं विचारशील पुरुष परमपद के अतिरिक्त वस्तु का परित्याग करते हुए ‘नेति-नेति’ के द्वारा उसका निषेध करके ऐसी वस्तु प्राप्त करते हैं, जिसका कभी निषेध नहीं हो सकता और न तो कभी त्याग ही, वही विष्णु भगवान का परम पद है; यह बात सभी महात्मा और श्रुतियाँ एक मत से स्वीकार करती हैं।

अपने चित्त को एकाग्र करने वाले पुरुष अन्तःकरण की अशुद्धियों को, असत्य भावनाओं को सदा-सर्वदा के लिये मिटाकर अनन्य प्रेमभाव से परिपूर्ण हृदय के द्वारा उसी परम पद का आलिंगन करते हैं और उसी में समा जाते हैं। विष्णु भगवान का यही वास्तविक स्वरूप है, यही उनका परम पद है। इसकी प्राप्ति उन्हीं लोगों को होती है, जिनके अन्तःकरण में शरीर के प्रति अहंभाव नहीं है, और न तो इसके सम्बन्धी गृह आदि पदार्थों में ममता ही। सचमुच जगत् की वस्तुओं में मैंपन और मेरेपन का आरोप बहुत बड़ी दुर्जनता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: षष्ठ अध्याय: श्लोक 34-45 का हिन्दी अनुवाद)

शौनक जी! जिसे इस परम पद की प्राप्ति अभीष्ट है, उसे चाहिये कि वह दूसरों की कटु वाणी सहन कर ले और बदले में किसी का अपमान न करे। इस क्षणभंगुर शरीर में अहंता-ममता करके किसी भी प्राणी से कभी वैर न करे। भगवान श्रीकृष्ण का ज्ञान अनन्त है। उन्हीं के चरणकमलों के ध्यान से मैंने इस श्रीमद्भागवत महापुराण का अध्ययन किया है। मैं अब उन्हीं को नमस्कार करके यह पुराण समाप्त करता हूँ।

शौनक जी ने पूछा ;- साधुशिरोमणि सूत जी! वेदव्यास जी के शिष्य पैल आदि महर्षि बड़े महात्मा और वेदों के आचार्य थे। उन लोगों ने कितने प्रकार से वेदों का विभाजन किया, यह बात आप कृपा करके हमें सुनाइये।

सूत जी ने कहा ;- ब्रह्मन्! जिस समय परमेष्ठी ब्रह्मा जी पूर्व सृष्टि का ज्ञान सम्पादन करने के लिये एकाग्रचित्त हुए, उस समय उनके हृदयाकाश से कण्ठ-तालु आदि स्थानों के संघर्ष से रहित एक अत्यन्त विलक्षण अनाहत नाद प्रकट हुआ। जब जीव अपनी मनोवृत्तियों को रोक लेता है, तब उसे भी उस अनाहत नाद का अनुभव होता है। शौनक जी! बड़े-बड़े योगी उसी अनाहत नाद की उपासना करते हैं और उसके प्रभाव से अन्तःकरण के द्रव्य (अधिभूत) रूप मल को नष्ट करके वह परमगतिरूप मोक्ष प्राप्त करते हैं, जिसमें जन्म-मृत्युरूप संसार चक्र नहीं है। उसी अनाहत नाद से ‘अ’ कार, ‘उ’ कार और और ‘म’ काररूप तीन मात्राओं से युक्त ॐकार प्रकट हुआ। इस ॐकार की शक्ति से ही प्रकृति अव्यक्त से व्यक्त रूप में परिणत हो जाती है। ॐकार स्वयं भी अव्यक्त एवं अनादि है और परमात्मा-स्वरूप होने के कारण स्वयं प्रकाश भी है। जिस परम वस्तु को भगवान ब्रह्म अथवा परमात्मा के नाम से कहा जाता है, उसके स्वरूप का बोध भी ॐकार के द्वारा ही होता है। जब श्रवणेन्द्रिय की शक्ति लुप्त हो जाती है, तब भी इस ॐकार को- समस्त अर्थों को प्रकाशित करने वाले स्फोट तत्त्व को जो सुनता है और सुषुप्ति एवं समाधि-अवस्थाओं में सबके अभाव को भी जानता है, वही परमात्मा का विशुद्ध स्वरूप है। वही ॐकार परमात्मा से हृदयाकाश में प्रकट होकर वेदरूपा वाणी को अभिव्यक्त करता है। ॐकार अपने आश्रय परमात्मा परब्रह्म का साक्षात् वाचक है और ॐकार ही सम्पूर्ण मन्त्र, उपनिषद और वेदों का सनातन बीज है।

शौनक जी! ॐकार के तीन वर्ण हैं- ‘अ’, ‘उ’, और ‘म’। ये ही तीनों वर्ण सत्त्व, रज, तम- इन तीन गुणों; ऋक्, यजुः, साम- इन तीनों; भूः, भुवः, स्वः- इन तीन अर्थों और जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति- इन तीन वृत्तियों के रूप में तीन-तीन की संख्या वाले भावों को धारण करते हैं। इसके बाद सर्वशक्तिमान् ब्रह्मा जी ने ॐकार से ही अन्तःस्थ (य, र, ल, व), उष्म (श, ष, स, ह), स्वर (‘अ’ से ‘औ’ तक), स्पर्श (‘क’ से ‘म’ तक) तथा ह्रस्व और दीर्घ आदि लक्षणों से युक्त अक्षर-समाम्नाय अर्थात् वर्णमाला की रचना की। उसी वर्णमाला द्वारा उन्होंने अपने चार मुखों से होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा- इन चार ऋत्विजों के कर्म बतलाने के लिये ॐकार और व्याहृतिओं के सहित चार वेद प्रकट किये और अपने पुत्र ब्रह्मर्षि मरीचि आदि को वेदाध्ययन में कुशल देखकर उन्हें वेदों की शिक्षा दी। वे सभी जब धर्म का उपदेश करने में निपुण हो गये, तब उन्होंने अपने पुत्रों को उनका अध्ययन कराया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: षष्ठ अध्याय: श्लोक 46-63 का हिन्दी अनुवाद)

तदनन्तर, उन्हीं लोगों के नैष्ठिक ब्रह्मचारी शिष्य-प्रशिष्यों के द्वारा चारों युगों में सम्प्रदाय के रूप में वेदों की रक्षा होती रही। द्वापर के अन्त में महर्षियों ने उनका विभाजन भी किया। जब ब्रह्मवेत्ता ऋषियों ने देखा कि समय के फेर से लोगों की आयु, शक्ति और बुद्धि क्षीण हो गयी है, तब उन्होंने अपने हृदय-देश में विराजमान परमात्मा की प्रेरणा से वेदों के अनेकों विभाग कर दिये।

शौनक जी! इस वैवस्वत मन्वन्तर में भी ब्रह्मा-शंकर आदि लोकपालों की प्रार्थना से अखिल विश्व के जीवन दाता भगवान ने धर्म की रक्षा के लिये महर्षि पराशर द्वारा सत्यवती के गर्भ से अपने अंशांश-कलास्वरूप व्यास के रूप में अवतार ग्रहण किया है। परम भाग्यवान् शौनक जी! उन्होंने ही वर्तमान युग में वेद के चार विभाग किये हैं। जैसे मणियों के समूह में से विभिन्न जाति की मणियाँ छाँटकर अलग-अलग कर दी जाती हैं, वैसे ही महामति भगवान व्यासदेव ने मन्त्र-समुदाय में से भिन्न-भिन्न प्रकरणों के अनुसार मन्त्रों का संग्रह करके उनसे ऋग्, यजु:, साम और अथर्व-ये चार सहिंताएँ बनायीं और अपने चार शिष्यों को बुलाकर प्रत्येक को एक-एक संहिता की शिक्षा दी। उन्होंने ‘बह्वृच’ नाम की पहली ऋक्संहिता पैल को, ‘निगद’ नाम की दूसरी यजुःसंहिता वैशम्पायन को, सामश्रुतियों की ‘छन्दोग-सहिंता’ जैमिनि को और अपने शिष्य सुमन्तु को ‘अथर्वांगिरससंहिता’ का अध्ययन कराया।

शौनक जी! पैल मुनि ने अपनी संहिता के दो विभाग करके एक का अध्ययन इन्द्र प्रमिति को और दूसरे का बाष्कल को कराया। बाष्कल ने भी अपनी शाखा के चार विभाग करके उन्हें अलग-अलग अपने शिष्य बोध, याज्ञवल्क्य, पराशर और अग्निमित्र को पढ़ाया। परमसंयमी इन्द्र-प्रमिति ने प्रतिभाशाली माण्डूकेय ऋषि को अपनी संहिता का अध्ययन कराया। माण्डूकेय के शिष्य थे-देवमित्र। उन्होंने सौभरि आदि ऋषियों को वेदों का अध्ययन कराया। माण्डूकेय के पुत्र का नाम था शाकल्य। उन्होंने अपनी संहिता के पाँच विभाग करके उन्हें वात्स्य, मुद्गल, शालीय, गोखल्य और शिशिर नामक शिष्यों को पढ़ाया। शाकल्य के एक और शिष्य थे-जातूक कर्ण्य मुनि। उन्होंने अपनी संहिता के तीन विभाग करके तत्सम्बन्धी निरुक्त के साथ अपने शिष्य बलाक, पैज, बैताल और विरज को पढ़ाया। बाष्कल के पुत्र बाष्कलि ने सब शाखाओं से एक ‘वालखिल्य’ नाम की शाखा रची। उसे बालायनि, भज्य एवं कासार ने ग्रहण किया। इन ब्रह्मर्षियों ने पूर्वोक्त सम्प्रदाय के अनुसार ऋग्वेद सम्बन्धी बह्‌वृच शाखाओं को धारण किया। जो मनुष्य यह वेदों के विभाजन का इतिहास श्रवण करता है, वह सब पापों से छूट जाता है।

शौनक जी! वैशम्पायन के कुछ शिष्यों का नाम था चरकाध्वर्यु। इन लोगों ने अपने गुरुदेव के ब्रह्महत्या-जनित पाप का प्रायश्चित् करने के लिये एक व्रत का अनुष्ठान किया। इसीलिये इनका नाम ‘चरकाध्वर्यु’ पड़ा। वैशम्पायन के एक शिष्य याज्ञवल्क्य मुनि भी थे। उन्होंने अपने गुरुदेव से कहा- ‘अहो भगवन्! ये चरकाध्वर्यु ब्राह्मण तो बहुत ही थोड़ी शक्ति रखते हैं। इनके व्रत पालन से लाभ ही कितना है? मैं आपके प्रायश्चित के लिये बहुत ही कठिन तपस्या करूँगा’। याज्ञवल्क्य मुनि की यह बात सुनकर वैशम्पायन मुनि को क्रोध आ गया। उन्होंने कहा- ‘बस-बस’, चुप रहो। तुम्हारे-जैसे ब्राह्मणों का अपमान करने वाले शिष्य की मुझे कोई आवश्यकता नहीं है। देखो, अब तक तुमने मुझसे जो कुछ अध्ययन किया है, उसका शीघ्र-से-शीघ्र त्याग कर दो और यहाँ से चले जाओ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 64-74 का हिन्दी अनुवाद)

याज्ञवल्क्य जी देवरात के पुत्र थे। उन्होंने गुरुजी की आज्ञा पाते ही उनके पढ़ाये हुए यजुर्वेद का वमन कर दिया और वे वहाँ से चले गये। जब मुनियों ने देखा कि याज्ञवल्क्य ने तो यजुर्वेद का वमन कर दिया, तब उनके चित्त में इस बात के लिये बड़ा लालच हुआ कि हम लोग किसी प्रकार इसको ग्रहण कर लें। परन्तु ब्राह्मण होकर उगले हुए मन्त्रों को ग्रहण करना अनुचित है, ऐसा सोचकर वे तीतर बन गये और उस सहिंता को चुग लिया। इसी से यजुर्वेद की वह परम रमणीय शाखा ‘तैत्तिरीय’ के नाम से प्रसिद्ध हुई।

शौनक जी! अब याज्ञवल्क्य ने सोचा कि मैं ऐसी श्रुतियाँ प्राप्त करूँ, जो मेरे गुरुजी के पास भी न हों। इसके लिये वे सूर्य भगवान का उपस्थान करने लगे। याज्ञवल्क्य जी इस प्रकार उपस्थान करते हैं- 'मैं ॐकार स्वरूप भगवान सूर्य को नमस्कार करता हूँ। आप सम्पूर्ण जगत् के आत्मा और कालस्वरूप हैं। ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त जितने भी जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज-चार प्रकार के प्राणी हैं, उन सबके हृदय देश में और बाहर आकाश के समान व्याप्त रहकर भी आप उपाधि के धर्मों से असंग रहने वाले अद्वितीय भगवान ही हैं। आप ही क्षण, लव, निमेष आदि अवयवों से संघटित संवत्सरों के द्वारा एवं जल के आकर्षण-विकर्षण-आदान-प्रदान के द्वारा समस्त लोकों की जीवन यात्रा चलाते हैं। प्रभो! आप समस्त देवताओं में श्रेष्ठ हैं। जो लोग प्रतिदिन तीनों समय वेद-विधि से आपकी उपासना करते हैं, उनके सारे पाप और दुःखों के बीजों को आप भस्म कर देते हैं। सूर्यदेव! आप सारी सृष्टि के मूल कारण एवं समस्त ऐश्वर्यों के स्वामी हैं। इसलिये हम आपके इस तेजोमय मण्डल का पूरी एकाग्रता के साथ ध्यान करते हैं। आप सबके आत्मा और अन्तर्यामी हैं। जगत् में जितने चराचर प्राणी हैं, सब आपके ही आश्रित हैं। आप ही उनके अचेतन मन, इन्द्रिय और प्राणों के प्रेरक हैं। यह लोक प्रतिदिन अन्धकाररूप अजगर के विकराल मुँह में पड़कर अचेत और मुर्दा-सा हो जाता है। आप परम करुणास्वरूप हैं, इसलिये कृपा करके अपनी दृष्टिमात्र से ही इसे सचेत कर देते हैं और परम कल्याण के साधन समय-समय के धर्मानुष्ठानों में लगाकर आत्माभिमुख करते हैं। जैसे राजा दुष्टों को भयभीत करता हुआ अपने राज्य में विचरण करता है, वैसे ही आप चोर-जार आदि दुष्टों को भयभीत करते हुए विचरते रहते हैं। चारों ओर सभी दिक्पाल स्थान-स्थान पर अपनी कमल की कली के समान अंजलियों से आपको उपहार समर्पित करते हैं। भगवन्! आपके दोनों चरणकमल तीनों लोकों के गुरु-सदृश महानुभावों से भी वन्दित हैं। मैंने आपके युगल चरणकमलों की इसलिये शरण ली है कि मुझे ऐसे यजुर्वेद की प्राप्ति हो, जो अब तक किसी को न मिला हो।'

सूत जी कहते हैं ;- शौनकादि ऋषियों! जब याज्ञवल्क्य मुनि ने भगवान सूर्य की इस प्रकार स्तुति की, तब वे प्रसन्न होकर उनके सामने अश्वरूप से प्रकट हुए और उन्हें यजुर्वेद के उन मन्त्रों का उपदेश किया, जो अब तक किसी को प्राप्त न हुए थे। इसके बाद याज्ञवल्क्य मुनि ने यजुर्वेद के असंख्य मन्त्रों से उसकी पंद्रह शाखाओं की रचना की। वही 'वाजसनेय' शाखा के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्हें कण्व, माध्यन्दिन आदि ऋषियों ने ग्रहण किया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: षष्ठ अध्याय: श्लोक 75-80 का हिन्दी अनुवाद)

यह बात मैं पहले ही कह चुका हूँ कि महर्षि श्रीकृष्ण-द्वैपायन ने जैमिनि मुनि को 'सामसंहिता' का अध्ययन कराया। उनके पुत्र थे सुमन्तु मुनि और पौत्र थे सुन्वान्। जैमिनि मुनि ने अपने पुत्र और पौत्र को एक-एक संहिता पढ़ायी।

जैमिनि मुनि के एक शिष्य का नाम था सुकर्मा। वह एक महान् पुरुष था। जैसे एक वृक्ष में बहुत-सी डालियाँ होती हैं, वैसे ही सुकर्मा ने सामवेद की एक हजार संहिताएँ बना दीं।

सुकर्मा के शिष्य कोसल देश निवासी हिरण्यनाभ, पौष्यंजि और ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ आवन्त्य ने उन शाखाओं को ग्रहण किया। पौष्यंजि और आवन्त्य के पाँच सौ शिष्य थे। वे उत्तर दिशा के निवासी होने के कारण औदीच्य सामवेदी भी कहलाते थे। उन्हीं को प्राच्य सामवेदी भी कहते हैं। उन्होंने एक-एक संहिता का अध्ययन किया। पौष्यंजि के और भी शिष्य थे- लौगाक्षि, मांगलि, कुल्य, कुसीद और कुक्षि। इसमें से प्रत्येक ने सौ-सौ सहिंताओं का अध्ययन किया।

हिरण्यनाभ का शिष्य था - कृत। उसने अपने शिष्यों को चौबीस संहिताएँ पढ़ायीं। शेष संहिताएँ परम संयमी आवन्त्य ने अपने शिष्यों को दीं। इस प्रकार सामदेव का विस्तार हुआ।


                          {द्वादश स्कन्ध:} 

                       【सातवाँ अध्याय】७


"अथर्ववेद की शाखाएँ और पुराणों के लक्षण"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

सूतजी कहते हैं ;- शौनकादि ऋषियों! मैं कह चुका हूँ कि अथर्ववेद के ज्ञाता सुमन्तु मुनि थे। उन्होंने अपनी संहिता अपने प्रिय शिष्य कबन्ध को पढ़ायी। कबन्ध ने उस संहिता के दो भाग करके पथ्य और वेददर्श को उसका अध्ययन कराया। वेददर्श के चार शिष्य-शौल्कायनि, ब्रह्मबलि, मोदोष और पिप्पलायनि। अब पथ्य के शिष्यों के नाम सुनो। शौनक जी! पथ्य के तीन शिष्य थे- कुमुद, शुनक और अथर्ववेत्ता जाजलि। अंगिरा-गोत्रोत्पन्न शुनक के दो शिष्य थे- बभ्रु और सैन्धवायन। उन लोगों ने दो संहिताओं का अध्ययन किया। अथर्ववेद के आचार्यों में इनके अतिरिक्त सैन्धवायनादि के शिष्य सावर्ण्य आदि तथा नक्षत्रकल्प, शान्ति, कश्यप, आंगिरस और कई विद्वान् और भी हुए। अब मैं तुम्हें पौराणिकों के सम्बन्ध में सुनाता हूँ।

शौनक जी! पुराणों के छः आचार्य प्रसिद्ध हैं- त्रय्यारुणि, कश्यप, सावर्णि, अकृतव्रण, वैशम्पायन और हारीत। इन लोगों ने मेरे पिताजी से एक-एक पुराण संहिता पढ़ी थी और मेरे पिताजी ने स्वयं भगवान व्यास से उन संहिताओं का अध्ययन किया था। मैंने उन छहों आचार्यों से सभी संहिताओं का अध्ययन किया था। उन छः संहिताओं के अतिरिक्त और भी चार मूल संहिताएँ थीं। उन्हें भी कश्यप, सावर्णि, परशुराम जी के शिष्य अकृतव्रण और उन सब के साथ मैंने व्यास जी के शिष्य श्रीरोमहर्षण जी से, जो मेरे पिता थे, अध्ययन किया था। शौनक जी! महर्षियों ने वेद और शास्त्रों के अनुसार पुराणों के लक्षण बतलाये हैं। अब तुम स्वस्थ होकर सावधानी से उनका वर्णन सुनो।

शौनक जी! पुराणों के पारदर्शी विद्वान् बतलाते हैं कि पुराणों के दस लक्षण हैं- विश्वसर्ग, विसर्ग, वृत्ति, रक्षा, मन्वन्तर, वंश, वंशानुचरित, संस्था (प्रलय), हेतु (ऊति) और अपाश्रय। कोई-कोई आचार्य पुराणों के पाँच ही लक्षण मानते हैं। दोनों ही बातें ठीक हैं, क्योंकि महापुराणों में दस लक्षण होते हैं और छोटे पुराणों में पाँच। विस्तार करके दस बतलाये हैं और संक्षेप करके पाँच। (अब इनके लक्षण सुनो) जब मूल प्रकृति में लीन गुण क्षुब्ध होते हैं, तब महत्तत्त्व की उत्पत्ति होती है। महत्तत्त्व से तामस, राजस और वैकारिक (सात्त्विक) तीन प्रकार के अहंकार बनते हैं। त्रिविध अहंकार से ही पंचतन्मात्रा, इन्द्रिय और विषयों की उत्पत्ति होती है। इसी उत्पत्ति क्रम का नाम ‘सर्ग’ है। परमेश्वर के अनुग्रह से सृष्टि का सामर्थ्य प्राप्त करके महत्तत्त्व आदि पूर्वकर्मों के अनुसार अच्छी और बुरी वासनाओं की प्रधानता से जो यह चराचर शरीरात्मक जीव की उपाधि की सृष्टि करते हैं, एक बीज से दूसरे बीज के समान, इसी को विसर्ग कहते हैं। चर प्राणियों की अचर-पदार्थ ‘वृत्ति’ अर्थात् जीवन-निर्वाह की सामग्री है। चर प्राणियों के दुग्ध आदि भी इनमें से मनुष्यों ने कुछ तो स्वभाववश कामना के अनुसार निश्चित कर ली है और कुछ ने शास्त्र के आज्ञानुसार।

भगवान युग-युग में पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋषि, देवता आदि के रूप में अवतार ग्रहण करके अनेकों लीलाएँ करते हैं। इन्हीं अवतारों में वे वेदधर्म के विरोधियों का संहार भी करते हैं। उनकी यह अवतार-लीला विश्व की रक्षा के लिये ही होती है, इसीलिये उनका नाम ‘रक्षा’ है। मनु, देवता, मनुपुत्र, इन्द्र, सप्तर्षि और भगवान के अंशावतार-इन्हीं छः बातों की विशेषता से युक्त समय को ‘मन्वन्तर’ कहते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद)

ब्रह्मा जी से जितने राजाओं की सृष्टि हुई है, उनकी भूत, भविष्य और वर्तमानकालीन सन्तान-परम्परा को ‘वंश’ कहते हैं। उन राजाओं के तथा उनके वंशधरों के चरित्र का नाम ‘वंशानुचरित’ है। इस विश्व ब्रह्माण्ड का स्वभाव से ही प्रलय हो जाता है। उसके चार भेद हैं- नैमित्तिक, प्राकृतिक, नित्य और आत्यन्तिक। तत्त्वज्ञ विद्वानों ने इन्हीं को ‘संस्था’ कहा है। पुराणों के लक्षण में ‘हेतु’ नाम से जिसका व्यवहार होता है, वह जीव ही है; क्योंकि वास्तव में वही सर्ग-विसर्ग आदि का हेतु है और अविद्यावश अनेकों प्रकार के कर्म कलाप में उलझ गया है। जो लोग उसे चैतन्य प्रधान की दृष्टि से देखते हैं, वे उसे अनुशयी अर्थात् प्रकृति में शयन करने वाला कहते हैं; और जो उपाधि की दृष्टि से कहते हैं, वे उसे अव्याकृत अर्थात् प्रकृति रूप कहते हैं।

जीव की वृत्तियों के तीन विभाग हैं- जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति। जो इन अवस्थाओं में इनके अभिमानी विश्व, तैजस और प्राज्ञ के मायामय रूपों में प्रतीत होता है और इन अवस्थाओं से परे तुरीय तत्त्व के रूप में भी लक्षित होता है, वही ब्रह्म है; उसी को यहाँ ‘अपाश्रय’ शब्द से कहा गया है। नाम विशेष और रूप विशेष से युक्त पदार्थों पर विचार करें तो वे सत्तामात्र वस्तु के रूप में सिद्ध होते हैं। उनकी विशेषताएँ लुप्त हो जाती हैं। असल में वह सत्ता ही उन विशेषताओं के रूप में प्रतीत भी हो रही है और उनसे पृथक् भी है। ठीक इसी न्याय से शरीर और विश्व ब्रह्मण्ड की उत्पत्ति से लेकर मृत्यु और महाप्रलय पर्यन्त जितनी भी विशेष अवस्थाएँ हैं, उनके रूप में परम सत्यस्वरूप ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा है और वह उनसे सर्वथा पृथक् भी है। यही वाक्य-भेद से अधिष्ठान और साक्षी के रूप में ब्रह्म ही पुराणोक्त आश्रयतत्त्व है। जब चित्त स्वयं आत्मविचार अथवा योगाभ्यास के द्वारा सत्त्वगुण-रजोगुण-तमोगुण-सम्बन्धी व्यावहारिक वृत्तियों और जाग्रत्-स्वप्न आदि स्वाभाविक वृत्तियों का त्याग करके उपराम हो जाता है, तब शान्तवृत्ति में ‘तत्त्वमसि’ आदि महावाक्यों के द्वारा आत्मज्ञान का उदय होता है। उस समय आत्मवेत्ता पुरुष अविद्याजनित कर्म-वासना और कर्मप्रवृत्ति से निवृत्त हो जाता है।

शौनकादि ऋषियों! पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानों ने इन्हीं लक्षणों के द्वारा पुराणों की यह पहचान बतलायी है। ऐसे लक्षणों से युक्त छोटे-बड़े अठारह पुराण हैं। उनके नाम ये हैं- ब्रह्मपुराण, पद्मपुराण, विष्णुपुराण, शिवपुराण, लिंगपुराण, गरुड़पुराण, नारदपुराण, भागवतपुराण, अग्निपुराण, स्कन्धपुराण, भविष्यपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, मार्कण्डेयपुराण, वामनपुराण, वराहपुराण, मत्स्यपुराण, कूर्मपुराण और ब्रह्माण्डपुराण, यह अठारह हैं।

शौनक जी! व्यास जी की शिष्य-परम्परा ने जिस प्रकार वेद संहिता और पुराण संहिताओं का अध्ययन-अध्यापन, विभाजन आदि किया, वह मैंने तुम्हें सुना दिया। यह प्रसंग सुनने और पढ़ने वालों के ब्रह्मतेज की अभिवृद्धि करता है।


                          {द्वादश स्कन्ध:} 

                       【आठवाँ अध्याय】८

"मार्कण्डेय जी की तपस्या और वर-प्राप्ति"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

शौनक जी ने कहा ;- साधुशिरोमणि सूत जी! आप आयुष्यमान् हों। सचमुच आप वक्ताओं के सिरमौर हैं। जो लोग संसार के अपार अन्धकार में भूल-भटक रहे हैं, उन्हें आप वहाँ से निकालकर प्रकाशस्वरूप परमात्मा का साक्षात्कार करा देते हैं। आप कृपा करके हमारे एक प्रश्न का उत्तर दीजिये। लोग कहते हैं कि मृकण्ड ऋषि के पुत्र मार्कण्डेय ऋषि चिरायु हैं और जिस समय प्रलय ने सारे जगत् को निगल लिया था, उस समय भी वे बचे रहे। परन्तु सूत जी! वे तो इसी कल्प में हमारे ही वंश में उत्पन्न हुए एक श्रेष्ठ भृगुवंशी हैं और जहाँ तक हमें मालूम है, इस कल्प में अब तक प्राणियों का कोई प्रलय नहीं हुआ है। ऐसी स्थिति में यह बात कैसे सत्य हो सकती है कि जिस समय सारी पृथ्वी प्रलयकालीन समुद्र में डूब गयी थी, उस समय मार्कण्डेय जी उसमें डूब-उतरा रहे थे और उन्होंने अक्षयवट के पत्ते के दोने में अत्यन्त अद्भुत और सोये हुए बालमुकुन्द का दर्शन किया। सूत जी! हमारे मन में बड़ा सन्देह है और इस बात को जानने की बड़ी उत्कण्ठा है। आप बड़े योगी हैं, पौराणिकों में सम्मानित हैं। आप कृपा करे हमारा यह सन्देह मिटा दीजिये।

सूत जी ने कहा ;- शौनक जी! आपने बड़ा सुन्दर प्रश्न किया। इससे लोगों का भ्रम मिट जायेगा और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस कथा में भगवान नारायण की महिमा है। जो इसका गान करता है, उसके सारे कलिमल नष्ट हो जाते हैं।

शौनक जी! मृकण्ड ऋषि ने अपने पुत्र मार्कण्डेय के सभी संस्कार समय-समय पर किये। मार्कण्डेय जी विधिपूर्वक वेदों का अध्ययन करके तपस्या और स्वाध्याय से सम्पन्न हो गये थे। उन्होंने आजीवन ब्रहचर्य का व्रत ले रखा था। शान्तभाव से रहते थे। सिर पर जटाएँ बढ़ा रखी थीं। वृक्षों की छाल का ही वस्त्र पहनते थे। वे अपने हाथों में कमण्डलु और दण्ड धारण करते, शरीर पर यज्ञोपवीत और मेखला शोभायमान रहती। काले मृग का चर्म, रुद्राक्षमाला और कुश- यही उनकी पूँजी थी। यह सब उन्होंने अपने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत की पूर्ति के लिये ही ग्रहण किया था। वे सायंकाल और प्रातःकाल अग्निहोत्र, सूर्योपस्थान, गुरुवन्दन, ब्राह्मण-सत्कार, मानस-पूजा और ‘मैं परमात्मा का स्वरूप ही हूँ’ इस प्रकार की भावना आदि के द्वारा भगवान की आराधना करते। सायं-प्रातः भिक्षा लाकर गुरुदेव के चरणों में निवेदन कर देते और मौन हो जाते। गुरु जी की आज्ञा होती तो एक बार खा लेते, अन्यथा उपवास कर जाते। मार्कण्डेय जी ने इस प्रकार तपस्या और स्वाध्याय में तत्पर रहकर करोड़ों वर्षों तक भगवान की आराधना की और इस प्रकार उस मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर ली, जिसको जीतना बड़े-बड़े योगियों के लिये भी कठिन है। मार्कण्डेय जी की मृत्यु-विजय को देखकर ब्रह्मा, भृगु, शंकर, दक्ष प्रजापति, ब्रह्मा जी के अन्यान्य पुत्र तथा मनुष्य, देवता, पितर एवं अन्य सभी प्राणी अत्यन्त विस्मित हो गये। आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रतधारी एवं योगी मार्कण्डेय जी इस प्रकार तपस्या, स्वाधाय और संयम आदि के द्वारा अविद्या आदि सारे क्लेशों को मिटाकर शुद्ध अन्तःकरण से इन्द्रियातीत परमात्मा का ध्यान करने लगे। योगी मार्कण्डेय जी महायोग के द्वारा अपना चित्त भगवान के स्वरूप में जोड़ते रहे। इस प्रकार साधन करते-करते बहुत समय- छः मन्वन्तर व्यतीत हो गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: अष्टम अध्याय: श्लोक 15-26 का हिन्दी अनुवाद)

ब्रह्मन्! इस सातवें मन्वन्तर में जब इन्द्र को इस बात का पता चला, तब तो वे उनकी तपस्या से शंकित और भयभीत हो गये। इसलिये उन्होंने उनकी तपस्या में विघ्न डालना आरम्भ कर दिया।

शौनक जी! इन्द्र ने मार्कण्डेय जी की तपस्या में विघ्न डालने के लिये उनके आश्रम पर गन्धर्व, अप्सराएँ, काम, वसन्त, मलयानिल, लोभ और मद्र को भेजा। भगवन्! वे सब उनकी आज्ञा के अनुसार उनके आश्रम पर गये। मार्कण्डेय जी का आश्रम हिमालय के उत्तर की ओर है। वहाँ पुष्पभद्रा नाम की नदी बहती है और उसके पास ही चित्रा नाम की एक शिला है। शौनक जी! मार्कण्डेय जी का आश्रम बड़ा ही पवित्र है। चारों ओर हरे-भरे पवित्र वृक्षों की पंक्तियाँ हैं, उन पर लताएँ लहलहाती रहती हैं। वृक्षों के झुरमुट में स्थान-स्थान पर पुण्यात्मा ऋषिगण निवास करते हैं और बड़े ही पवित्र एवं निर्मल जल से भरे जलाशय सब ऋतुयों में एक-से ही रहते हैं। कहीं मतवाले भौंरे अपनी संगीतमयी गुंजार से लोगों का मन आकर्षित करते रहते हैं तो कहीं मतवाले कोकिल पंचम स्वर में ‘कुहू-कुहू’ कूकते रहते हैं; कहीं मतवाले मोर अपने पंख फैलाकर कलापूर्ण नृत्य करते रहते हैं तो कहीं अन्य मतवाले पक्षियों का झुंड खेलता रहता है।

मार्कण्डेय मुनि के ऐसे पवित्र आश्रम में इन्द्र के भेजे हुए वायु ने प्रवेश किया। वहाँ उसने पहले शीतल झरनों की नन्हीं-नन्हीं फुहियाँ संग्रह कीं। इसके बाद सुगन्धित पुष्पों का आलिंगन किया और फिर कामभाव को उत्तेजित करते हुए धीरे-धीरे बहने लगा। कामदेव के प्यारे सखा वसन्त ने भी अपनी माया फैलायी। सन्ध्या का समय था। चन्द्रमा उदित हो अपनी मनोहर किरणों का विस्तार कर रहे थे। सहस्र-सहस्र डालियों वाले वृक्ष लताओं का आलिंगन पाकर धरती तक झुके हुए थे। नयी-नयी कोपलों, फलों और फूलों के गुच्छे अलग ही शोभायमान हो रहे थे। वसन्त का साम्राज्य देखकर कामदेव ने भी वहाँ प्रवेश किया। उसके साथ गाने-बजाने वाले गन्धर्व झुंड-के-झुंड चल रहे थे, उसके चारों ओर बहुत-सी स्वर्गीय अप्सराएँ चल रही थीं और अकेला काम ही सबका नायक था। उसके हाथ में पुष्पों का धनुष और उस पर सम्मोहन आदि बाण चढ़े हुए थे। उस समय मार्कण्डेय मुनि अग्निहोत्र करके भगवान की उपासना कर रहे थे। उनके नेत्र बंद थे। वे इतने तेजस्वी थे, मानो स्वयं अग्निदेव ही मूर्तिमान् होकर बैठे हों! उनको देखने से ही मालूम हो जाता था कि इनको पराजित कर सकना बहुत ही कठिन है। इन्द्र के आज्ञाकारी सेवकों ने मार्कण्डेय मुनि को इसी अवस्था में देखा। अब अप्सराएँ उनके सामने नाचने लगीं। कुछ गन्धर्व मधुर गान करने लगे तो कुछ मृदंग, वीणा, ढोल आदि बाजे बड़े मनोहर स्वर में बजाने लगे।

शौनक जी! अब कामदेव ने अपने पुष्प निर्मित धनुष पर पंचमुख बाण चढ़ाया। उसके बाण के पाँच मुख हैं- शोषण, दीपन, सम्मोहन, तापन और उन्मादन। जिस समय वह निशाना लगाने की ताक में था, उस समय इन्द्र के सेवक वसन्त और लोभ मार्कण्डेय मुनि का मन विचलित करने के लिये प्रयत्नशील थे। उनके सामने ही पुंजिकस्थली नाम की सुन्दरी अप्सरा गेंद खेल रही थी। स्तनों के भार से बार-बार उसकी कमर लचक जाया करती थी। साथ ही उसकी चोटियों में गुँथे हुए सुन्दर-सुन्दर पुष्प और मालाएँ बिखर कर धरती पर गिरती जा रही थीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: अष्टम अध्याय: श्लोक 27-37 का हिन्दी अनुवाद)

कभी-कभी वह तिरछी चितवन से इधर-उधर देख लिया करती थी। उसके नेत्र कभी गेंद के साथ आकाश की ओर जाते, कभी धरती की ओर और कभी हथेलियों की ओर। वह बड़े हाव-भाव के साथ गेंद की ओर दौड़ती थी। उसी समय उसकी करधनी टूट गयी और वायु ने उसकी झीनी-सी साड़ी को शरीर से अलग कर दिया। कामदेव ने अपना उपयुक्त अवसर देखकर और यह समझकर कि अब मार्कण्डेय मुनि को मैंने जीत लिया, उनके ऊपर अपना बाण छोड़ा। परन्तु उसकी एक न चली। मार्कण्डेय मुनि पर उसका सारा उद्योग निष्फल हो गया-ठीक वैसे ही, जैसे असमर्थ और अभागे पुरुषों के प्रयत्न विफल हो जाते हैं।

शौनक जी! मार्कण्डेय मुनि अपरिमित तेजस्वी थे। काम, वसन्त आदि आये तो थे इसलिये कि उन्हें तपस्या से भ्रष्ट कर दें; परन्तु अब उनके तेज से जलने लगे और ठीक उसी प्रकार भाग गये, जैसे छोटे-छोटे बच्चे सोते हुए साँप को जगाकर भाग जाते हैं। शौनक जी! इन्द्र के सेवकों ने इस प्रकार मार्कण्डेय जी को पराजित करना चाहा, परन्तु वे रत्तीभर भी विचलित न हुए। इतना ही नहीं, उनके मन में इस बात को लेकर भी अहंकार का भाव न हुआ। सच है, महापुरुषों के लिये यह कौन-सी आश्चर्य की बात है। जब देवराज इन्द्र ने देखा कि कामदेव अपनी सेना के साथ निस्तेज-हतप्रभ होकर लौटा है और सुना कि ब्रह्मर्षि मार्कण्डेय जी परम प्रभावशाली हैं, तब उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ।

शौनक जी! मार्कण्डेय मुनि तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारा भगवान में चित्त लगाने का प्रयत्न करते रहते थे। अब उन पर कृपा प्रसाद की वर्षा करने के लिये मुनिजन-नयन-मनोहारी नरोत्तम नर और भगवान प्रकट हुए। उन दोनों में एक का शरीर गौरवर्ण था और दूसरे का श्याम। दोनों के ही नेत्र तुरंत के खिले हुए कमल के समान कोमल और विशाल थे। चार-चार भुजाएँ थीं। एक मृगचर्म पहने हुए थे तो दूसरे वृक्ष की छाल। हाथों में कुश लिये हुए थे और गले में तीन-तीन सूत के यज्ञोपवीत शोभायमान थे। वे कमण्डलु और बाँस का सीधा दण्ड ग्रहण किये हुए थे। कमल गट्टे की माला और जीवों को हटाने के लिये वस्त्र की कूँची भी रखे हुए थे। ब्रह्मा, इन्द्र आदि के भी पूज्य भगवान नर-नारायण कुछ ऊँचे कद के थे और वेद धारण किये हुए थे। उनके शरीर से चमकती हुई बिजली के समान पीले-पीले रंग की स्वयं तप ही मुर्तिमान् हो गया हो।

जब मार्कण्डेय मुनि ने देखा कि भगवान के साक्षात् स्वरूप नर-नारायण ऋषि पधारे हैं, तब वे बड़े आदरभाव से उठकर खड़े हो गये और धरती पर दण्डवत् लोटकर साष्टांग प्रणाम किया। भगवान के दिव्य दर्शन से उन्हें इतना आनन्द हुआ कि उनका रोम-रोम, उनकी सारी इन्द्रियाँ एवं अन्तःकरण शान्ति के समुद्र में गोता खाने लगे। शरीर पुलकित हो गया। नेत्रों में आँसू उमड़ आये, जिसके कारण वे उन्हें भर आँख देख भी न सकते। तदनन्तर वे हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए। उनका अंग-अंग भगवान के सामने झुका जा रहा था। उनके हृदय में उत्सुकता तो इतनी थी, मानो वे भगवान का आलिंगन कर लेंगे। उनसे और कुछ तो बोला न गया, गद्गद वाणी से केवल इतना ही कहा- ‘नमस्कार! नमस्कार’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: अष्टम अध्याय: श्लोक 38-45 का हिन्दी अनुवाद)

इसके बाद उन्होंने दोनों को आसन पर बैठाया, बड़े प्रेम से उनके चरण पखारे और अर्घ्य, चन्दन, धूप और माला आदि से उनकी पूजा करने लगे। भगवान नर-नारायण सुखपूर्वक आसन पर विराजमान थे और मार्कण्डेय जी पर कृपा-प्रसाद की वर्षा कर रहे थे। पूजा के अनन्तर मार्कण्डेय मुनि ने उस सर्वश्रेष्ठ मुनिवेषधारी नर-नारायण के चरणों में प्रणाम किया और यह स्तुति की।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा ;- भगवन्! मैं अल्पज्ञ जीव भला, आपकी अनन्त महिमा का कैसे वर्णन करूँ? आपकी प्रेरणा से ही सम्पूर्ण प्राणियों- ब्रह्मा, शंकर तथा मेरे शरीर में भी प्राणशक्ति का संचार होता है और फिर उसी के कारण वाणी, मन तथा इन्द्रियों में भी बोलने, सोचने-विचारने और करने-जानने की शक्ति आती है। इस प्रकार सबके प्रेरक और परम स्वतन्त्र होने पर भी आप अपना भजन करने वाले भक्तों के प्रेम-बन्धन में बँधे हुए हैं। प्रभो! आपने केवल विश्व की रक्षा के लिये ही जैसे मत्स्य-कूर्म आदि अनेकों अवतार ग्रहण किये हैं, वैसे ही आपने ये दोनों रूप भी त्रिलोकी के कल्याण, उसकी दुःख-निवृत्ति और विश्व के प्राणियों को मृत्यु पर विजय प्राप्त कराने के लिये ग्रहण किया है। आप रक्षा तो करते ही हैं, मकड़ी के समान अपने से ही इस विश्व को प्रकट करते हैं और फिर स्वयं अपने में ही लीन भी कर लेते हैं। आप चराचर का पालन और नियमन करने वाले हैं। मैं आपके चरणकमलों में प्रणाम करता हूँ। जो आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण कर लेते हैं, उन्हें कर्म, गुण और कालजनित क्लेश स्पर्श भी नहीं कर सकते। वेद के मर्मज्ञ ऋषि-मुनि आपकी प्राप्ति के लिये निरन्तर आपका स्तवन, वन्दन, पूजन और ध्यान किया करते हैं।

प्रभो! जीव के चारों ओर भय-ही-भय का बोलबाला है। औरों की तो बात ही क्या, आपके कालरूप से स्वयं ब्रह्मा भी अत्यन्त भयभीत रहते हैं; क्योंकि उनकी आयु भी सीमित-केवल दो परार्थ की है। फिर उनके बनाये हुए भौतिक शरीर वाले प्राणियों के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है। ऐसी अवस्था में आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण करने के अतिरिक्त और कोई भी परम कल्याण तथा सुख-शान्ति का उपाय हमारी समझ में नहीं आता; क्योंकि आप स्वयं ही मोक्षस्वरूप हैं। भगवन्! आप समस्त जीवों के परम गुरु, सबसे श्रेष्ठ और सत्य ज्ञानस्वरूप हैं। इसलिये आत्मस्वरूप को ढक देने वाले देह-गेह आदि निष्फल, असत्य, नाशवान् और प्रतीतिमात्र पदार्थों को त्याग कर मैं आपके चरणकमलों की ही शरण ग्रहण करता हूँ। कोई भी प्राणी यदि आपकी शरण ग्रहण कर लेता है तो वह उससे अपने सारे अभीष्ट पदार्थ प्राप्त कर लेता है।

जीवों के परम सुहृद् प्रभो! यद्यपि सत्त्व, रज और तम-ये तीनों गुण आपकी मूर्ति हैं-इन्हीं के द्वारा आप जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, लय आदि अनेकों मायामयी लीलाएँ करते हैं, फिर भी आपकी सत्त्वगुणमयी मूर्ति ही जीवों को शान्ति प्रदान करती है। रजोगुणी और तमोगुणी मूर्तियों से जीवों को शान्ति नहीं मिल सकती। उनसे तो दुःख, मोह और भय की वृद्धि ही होती है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: अष्टम अध्याय श्लोक 46-49 का हिन्दी अनुवाद)

भगवन्! इसलिये बुद्धिमान पुरुष आपकी और आपके भक्तों की परम प्रिय एवं शुद्ध मूर्ति नर-नारायण की ही उपासना करते हैं। पांचरात्र-सिद्धान्त के अनुयायी विशुद्ध सत्त्व को ही आपका श्रीविग्रह मानते हैं। उसी की उपासना से आपके नित्यधाम वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है। उस धाम की यह विलक्षणता है कि वह लोक होने पर भी सर्वथा भयरहित और भोगयुक्त होने पर भी आत्मानन्द से परिपूर्ण है। वे रजोगुण और तमोगुण को आपकी मूर्ति स्वीकार नहीं करते।

भगवन्! आप अन्तर्यामी, सर्वव्यापक, सर्वस्वरूप, जगद्गुरु परमाराध्य और शुद्धस्वरूप हैं। समस्त लौकिक और वैदिक वाणी आपके अधीन है। आप ही वेदमार्ग के प्रवर्तक हैं। मैं आपके इस युगल स्वरूप को नरोत्तम नर और ऋषिवर नारायण को नमस्कार करता हूँ। आप यद्यपि प्रत्येक जीव की इन्द्रियों तथा उनके विषयों में, प्राणों में तथा हृदय में भी विद्यमान हैं तो भी आपकी माया से जीव की बुद्धि इतनी मोहित हो जाती है-ढक जाती है कि वह निष्फल और झूठी इन्द्रियों के जाल में फँसकर आपकी झाँकी से वंचित हो जाता है। किन्तु सारे जगत् के गुरु तो आप ही हैं। इसलिये पहले अज्ञानी होने पर भी जब आपकी कृपा से उसे आपके ज्ञान-भण्डार वेदों की प्राप्ति होती है, तब वह आपके साक्षात् दर्शन कर लेता है।

प्रभो! वेद में आपका साक्षात्कार कराने वाला वह ज्ञान पूर्णरूप से विद्यमान है, जो आपके स्वरूप का रहस्य प्रकट करता है। ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े प्रतिभाशाली मनीषी उसे प्राप्त करने का यत्न करते रहने पर भी मोह में पड़ जाते हैं। आप भी ऐसे लीलाविहारी हैं कि विभिन्न मतवाले आपके सम्बन्ध में जैसा सोचते-विचारते हैं, वैसा ही शील-स्वभाव और रूप ग्रहण करके आप उनके सामने प्रकट हो जाते हैं। वास्तव में आप देह आदि समस्त उपाधियों में छिपे हुए विशुद्ध विज्ञानघन ही हैं। हे पुरुषोत्तम! मैं आपकी वन्दना करता हूँ।


                          {द्वादश स्कन्ध:} 

                       【नावाँ अध्याय】९

"मार्कण्डेय जी का माया-दर्शन"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

सूत जी कहते हैं ;- जब ज्ञानसम्पन्न मार्कण्डेयजी मुनि ने इस प्रकार स्तुति की, तब भगवान नर-नारायण ने प्रसन्न होकर मार्कण्डेय जी से कहा।

भगवान नारायण ने कहा ;- सम्मान्य ब्रह्मर्षि-शिरोमणि! तुम चित्त की एकाग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, संयम और मेरी अनन्य भक्ति से सिद्ध हो गये हो। तुम्हारे इस आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रत की निष्ठा देखकर हम तुम पर बहुत ही प्रसन्न हुए हैं। तुम्हारा कल्याण हो! मैं समस्त वर देने वालों का स्वामी हूँ। इसलिये तुम अपना अभीष्ट वर मुझसे माँग लो।

मार्कण्डेय जी मुनि ने कहा ;- देवदेवेश! शरणागत-भयहारी अच्युत! आपकी जय हो! जय हो! हमारे लिये बस इतना ही वर पर्याप्त है कि आपने कृपा करके अपने मनोहर स्वरूप का दर्शन कराया। ब्रह्मा-शंकर आदि देवगण योग-साधना के द्वारा एकाग्र हुए मन से ही आपके परम सुन्दर श्रीचरणकमलों का दर्शन प्राप्त करके कृतार्थ हो गये हैं। आज उन्हीं आपने मेरे नेत्रों के सामने प्रकट होकर मुझे धन्य बनाया है। पवित्रकीर्ति महानुभावों के शिरोमणि कमलनयन! फिर भी आपकी आज्ञा के अनुसार मैं आपसे वर माँगता हूँ। मैं आपकी वह माया देखना चाहता हूँ, जिससे मोहित होकर सभी लोक और लोकपाल अद्वितीय वस्तु ब्रह्म में अनेकों प्रकार के भेद-विभेद देखने लगते हैं।

सूत जी कहते हैं ;- शौनक जी! जब इस प्रकार मार्कण्डेय जी मुनि ने भगवान नर-नारायण की इच्छानुसार स्तुति-पूजा कर ली एवं वरदान माँगा लिया, तब उन्होंने मुसकराते हुए कहा- ‘ठीक है, ऐसा ही होगा।’ इसके बाद वे अपने आश्रम बदरीवन को चले गये। मार्कण्डेय जी मुनि अपने आश्रम पर ही रहकर निरन्तर इस बात का चिन्तन करते रहते कि मुझे माया के दर्शन कब होंगे। वे अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, जल, पृथ्वी, वायु, आकाश एवं अन्तःकरण में-और तो क्या, सर्वत्र भगवान का ही दर्शन करते हुए मानसिक वस्तुओं से उनका पूजन करते रहते। कभी-कभी तो उनके हृदय में प्रेम की ऐसी बाढ़ आ जाती कि वे उसके प्रवाह में डूबने-उतराने लगते, उन्हें इस बात की भी याद न रहती कि कब कहाँ किस प्रकार भगवान की पूजा करनी चाहिये?

शौनक जी! एक दिन की बात है, सन्ध्या के समय पुष्पभद्रा नदी के तट पर मार्कण्डेय जी मुनि भगवान की उपासना में तन्मय हो रहे थे। ब्रह्मन्! उसी समय एकाएक बड़े जोर की आँधी चलने लगी। उस समय आँधी के कारण बड़ी भयंकर आवाज होने लगी और बड़े विकराल बादल आकाश में मँडराने लगे। बिजली चमक-चमककर कड़कने लगी और और रथ के धुरे के समान जल की मोटी-मोटी धाराएँ पृथ्वी पर गिरने लगीं। यही नहीं, मार्कण्डेय जी मुनि को ऐसा दिखायी पड़ा कि चारों ओर से समुद्र समूची पृथ्वी को निगलते हुए उमड़े आ रहे हैं। आँधी के वेग से समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें उठ रही हैं, बड़े भयंकर भँवर पड़ रहे हैं और भयंकर ध्वनि कान फाड़े डालती है। स्थान-स्थान पर बड़े-बड़े मगर उछल रहे हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद)

उस समय बाहर-भीतर, चारों ओर जल-ही-जल दीखता था। ऐसा जान पड़ता था कि उस जलराशि में पृथ्वी ही नहीं, स्वर्ग भी डूबा जा रहा है; ऊपर से बड़े वेग से आँधी चल रही है और बिजली चमक रही है, जिससे सम्पूर्ण जगत् संतप्त हो रहा है। जब मार्कण्डेय जी मुनि ने देखा कि इस जल-प्रलय से सारी पृथ्वी डूब गयी है, उद्भिज्ज, स्वेदज, अण्डज और जरायुज-चारों प्रकार के प्राणी तथा स्वयं वे भी अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं, तब वे उदास हो गये और साथ ही अत्यन्त भयभीत भी। उनके सामने ही प्रलय समुद्र में भयंकर लहरें उठ रही थीं, आँधी के वेग से जलराशि उछल रही थी और प्रलयकालीन बादल बरस-बरसकर समुद्र को और भी भरते जा रहे थे। उन्होंने देखा कि समुद्र ने द्वीप, वर्ष और पर्वतों के साथ सारी पृथ्वी को डुबा दिया। पृथ्वी, अन्तरिक्ष, स्वर्ग, ज्योतिर्मण्डल (ग्रह, नक्षत्र एवं तारों का समूह) और दिशाओं के साथ तीनों लोक जल में डूब गये। बस, उस समय एकमात्र महामुनि मार्कण्डेय जी ही बच रहे थे।

उस समय वे पागल और अंधे के समान जटा फैलाकर यहाँ से वहाँ से और वहाँ से यहाँ भाग-भागकर अपने प्राण बचाने की चेष्टा कर रहे थे। वे भूख-प्यास से व्याकुल हो रहे थे। किसी ओर बड़े-बड़े मगर तो किसी ओर बड़े-बड़े तिमिंगिल मच्छ उन पर टूट पड़ते। किसी ओर से हवा का झोंका आता, तो किसी ओर से लहरों के थपेड़े उन्हें घायल कर देते। इस प्रकार इधर-उधर भटकते-भटकते वे अपार अज्ञानान्धकार में पड़ गये-बेहोश हो गये और इतने थक गये कि उन्हें पृथ्वी और आकाश का भी ज्ञान न रहा। वे कभी बड़े भारी भँवर में पड़ जाते, कभी तरल तरंगों की चोट से चंचल हो उठते। जब कभी जल-जन्तु आपस में एक-दूसरे पर आक्रमण करते, तब ये अचानक ही उनके शिकार बन जाते। कहीं शोकग्रस्त हो जाते तो कहीं मोहग्रस्त। कभी दुःख-ही-दुःख के निमित्त आते तो कभी तनिक सुख भी मिल जाता। कभी भयभीत होते, कभी मर जाते तो कभी तरह-तरह के रोग उन्हें सताने लगते। इस प्रकार मार्कण्डेय जी मुनि विष्णु भगवान की माया के चक्कर में मोहित हो रहे थे। उस प्रलयकाल के समुद्र में भटकते-भटकते उन्हें सैकड़ों-हजारों ही नहीं, लाखों-करोंड़ों वर्ष बीत गये। शौनक जी! मार्कण्डेय जी मुनि इसी प्रकार प्रलय के जल में बहुत समय तक भटकते रहे।

एक बार उन्होंने पृथ्वी के एक टीले पर एक छोटा-सा बरगद का पेड़ देखा। उसमें हरे-हरे पत्ते और लाल-लाल फल शोभायमान हो रहे थे। बरगद के पेड़ में ईशान कोण पर एक डाल थी, उसमें एक पत्तों का दोना-सा बन गया था। उसी पर एक बड़ा ही सुन्दर नन्हा-सा शिशु लेट रहा था। उसके शरीर से ऐसी उज्ज्वल छटा छिटक रही थी, जिससे आसपास का अँधेरा दूर हो रहा था। वह शिशु मरकतमणि के समान साँवल-साँवला था। मुखकमल पर सारा सौन्दर्य फूटा पड़ता था। गरदन शंख के समान उतार-चढ़ाव वाली थी। छाती चौड़ी थी। तोते की चोंच के समान सुन्दर नासिका और भौंहें बड़ी मनोहर थीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 23-34 का हिन्दी अनुवाद)

काली-काली घुँघराली अलकें कपोलों पर लटक रही थीं और श्वास लगने से कभी-कभी हिल भी जाती थीं। शंख के समान घुमावदार कानों में अनार के लाल-लाल फूल शोभायमान हो रहे थे। मूँगे के समान लाल-लाल होंठों की कान्ति से उनकी सुधामयी श्वेत मुस्कान कुछ लालिमामिश्रित हो गयी थी। नेत्रों के कोने कमल के भीतरी भाग के समान तनिक लाल-लाल थे। मुस्कान और चितवन बरबस हृदय को पकड़ लेती थी। बड़ी गम्भीर नाभि थी। छोटी-सी तोंद पीपल के पत्ते के समान जान पड़ती और श्वास लेने के समय उस पर पड़ी हुई बलें तथा नाभि भी हिल जाया करती थी। नन्हें-नन्हें हाथों में बड़ी सुन्दर-सुन्दर अँगुलियाँ थीं। वह शिशु अपने दोनों करकमलों से एक चरणकमल को मुख में डालकर चूस रहा था। मार्कण्डेय जी मुनि यह दिव्य दृश्य देखकर विस्मित हो गये।

शौनक जी! उस दिव्य शिशु को देखते ही मार्कण्डेय जी मुनि की सारी थकावट जाती रही। आनन्द से उनके हृदय-कमल और नेत्रकमल खिल गये। शरीर पुलकित हो गया। उस नन्हें-से शिशु के इस अद्भुत भाव को देखकर उनके मन में तरह-तरह की शंकाएँ- ‘यह कौन है’ इत्यादि-आने लगीं और वे उस शिशु से ये बातें पूछने के लिये उसके सामने सरक गये। अभी मार्कण्डेय जी पहुँच भी न पाये थे कि उस शिशु के श्वास के साथ उसके शरीर के भीतर उसी प्रकार घुस गये, जैसे कोई मच्छर किसी के पेट में चला जाये। उस शिशु के पेट में जाकर उन्होंने सब-की-सब वही सृष्टि देखी, जैसी प्रलय के पहले उन्होंने देखी थी। वे वह सब विचित्र दृश्य देखकर आश्चर्यचकित हो गये। वे मोहवश कुछ सोच-विचार भी न सके। उन्होंने उस शिशु के उदर में आकाश, अन्तरिक्ष, ज्योतिर्मण्डल, पर्वत, समुद्र, द्वीप, वर्ष, दिशाएँ, देवता, दैत्य, वन, देश, नदियाँ, नगर, खानें, किसानों के गाँव, अहीरों की बस्तियाँ, आश्रम, वर्ण, उनके आचार-व्यवहार, पंचमहाभूत, भूतों से बने हुए प्राणियों के शरीर तथा पदार्थ, अनेक युग और कल्पों के भेद से युक्त काल आदि सब कुछ देखा। केवल इतना ही नहीं जिन देशों, वस्तुओं और कालों के द्वारा जगत् का व्यवहार सम्पन्न होता है, वह सब कुछ वहाँ विद्यमान था। कहाँ तक कहें, यह सम्पूर्ण विश्व न होने पर भी वहाँ सत्य के समान प्रतीत होते देखा। हिमालय पर्वत, वही पुष्पभद्रा नदी, उसके तट पर अपना आश्रम और वहाँ रहने वाले ऋषियों को भी मार्कण्डेय जी ने प्रत्यक्ष ही देखा। इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व को देखते-देखते ही वे उस दिव्य शिशु के श्वास के द्वारा ही बाहर आ गये और फिर प्रलयकालीन समुद्र में गिर पड़े। अब फिर उन्होंने देखा कि समुद्र के बीच में पृथ्वी के टीले पर वही बरगद का पेड़ ज्यों-का-त्यों विद्यमान है और उसके पत्ते के दोने में वही शिशु सोया हुआ है। उसके अधरों पर प्रेमामृत से परिपूर्ण मन्द-मन्द मुस्कान है और अपनी प्रेमपूर्ण चितवन से वह मार्कण्डेय जी की ओर देख रहा है।

अब मार्कण्डेय जी मुनि इन्द्रियातीत भगवान को जो शिशु के रूप में क्रीड़ा कर रहे थे और नेत्रों के मार्ग से पहले ही हृदय में विराजमान हो चुके थे, आलिंगन करने के लिये बड़े श्रम और कठिनाई से आगे बढ़े। परन्तु शौनक जी! भगवान केवल योगियों के ही नहीं, स्वयं योग के भी स्वामी और सबके हृदय में छिपे रहने वाले हैं। अभी मार्कण्डेय जी मुनि उसके पास पहुँच भी न पाये थे कि वे तुरंत अन्तर्धान हो गये-ठीक वैसे ही, जैसे अभागे और असमर्थ पुरुषों के परिश्रम का पता नहीं चलता कि वह फल दिये बिना ही क्या हो गया। शौनक जी! उस शिशु के अन्तर्धान होते ही वह बरगद का वृक्ष तथा प्रलयकालीन दृश्य एवं जल भी तत्काल लीन हो गया और मार्कण्डेय जी मुनि ने देखा कि मैं तो पहले के समान ही अपने आश्रम में बैठा हुआ हूँ।


                          {द्वादश स्कन्ध:} 

                       【दसवाँ अध्याय】१०


"मार्कण्डेय जी को भगवान शंकर का वरदान"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

सूत जी कहते हैं ;- शौनकादि ऋषियों! मार्कण्डेय मुनि ने इस प्रकार नारायण-निर्मित योगमाया-वैभव का अनुभव किया। अब यह निश्चय करके कि इस माया से मुक्त होने के लिये मायापति भगवान की शरण ही एकमात्र उपाय है, उन्हीं की शरण में स्थित हो गये। मार्कण्डेय ने मन-ही-मन कहा- 'प्रभो! आपकी माया वास्तव में प्रतीति मात्र होने पर भी सत्य ज्ञान के समान प्रकाशित होती है और बड़े-बड़े विद्वान भी उसके खेलों में मोहित हो जाते हैं। आपके श्रीचरण कमल ही शरणागतों को सब प्रकार से अभयदान करते हैं। इसलिये मैंने उन्हीं की शरण ग्रहण की है।'

सूत जी कहते हैं ;- मार्कण्डेय इस प्रकार शरणागति की भावना में तन्मय हो रहे थे। उसी समय भगवान शंकर भगवती पार्वती जी के साथ नन्दी पर सवार होकर आकाशमार्ग से विचरण करते हुए उधर आ निकले और मार्कण्डेय को उसी अवस्था में देखा। उनके साथ बहुत-से गण भी थे। जब भगवती पार्वती जी ने मार्कण्डेय मुनि को ध्यान की अवस्था में देखा, तब उनका हृदय वात्सल्य-स्नेह से उमड़ आया। उन्होंने शंकर जी से कहा- ‘भगवन्! तनिक इस ब्राह्मण की ओर तो देखिये। जैसे तूफान शान्त हो जाने पर समुद्र की लहरें और मछलियाँ शान्त हो जाती हैं और समुद्र धीर-गम्भीर हो जाता है, वैसे ही इस ब्राह्मण का शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण शान्त हो रहा है। समस्त सिद्धियों के दाता आप ही हैं। इसलिये कृपा करके आप इस ब्राह्मण की तपस्या का प्रत्यक्ष फल दीजिये’।

भगवान शंकर ने कहा ;- देवि! ये ब्रह्मर्षि लोक अथवा परलोक की कोई भी वस्तु नहीं चाहते। और तो क्या, इनके मन में कभी मोक्ष की भी आकांक्षा नहीं होती। इसका कारण यह है कि घट-घटवासी अविनाशी भगवान के चरणकमलों में इन्हें परम भक्ति प्राप्त हो चुकी है। प्रिये! यद्यपि इन्हें हमारी कोई आवश्यकता नहीं है, फिर भी मैं इनके साथ बातचीत करूँगा; क्योंकि ये महात्मा पुरुष हैं। जीवमात्र के लिये सबसे बड़े लाभ की बात यही है कि संत पुरुषों का समागम प्राप्त हो।

सूत जी कहते हैं ;- शौनक जी! भगवान शंकर समस्त विद्याओं के प्रवर्तक और सारे प्राणियों के हृदय में विराजमान अन्तर्यामी प्रभु हैं। जगत् के जितने भी संत हैं, उनके एकमात्र आश्रय और आदर्श भी वही हैं। भगवती पार्वती से इस प्रकार कहकर भगवान शंकर मार्कण्डेय मुनि के पास गये। उस समय मार्कण्डेय मुनि की समस्त मनोवृत्तियाँ भगवद्भाव में तन्मय थीं। उन्हें अपने शरीर और जगत् का बिलकुल पता न था। इसलिये उस समय वे यह भी न जान सके कि मेरे सामने सारे विश्व के आत्मा स्वयं भगवान गौरी-शंकर पधारे हुए हैं। शौनक जी! सर्वशक्तिमान् भगवान कैलासपति से यह बात छिपी न रही कि मार्कण्डेय मुनि इस समय किस अवस्था में हैं। इसलिये जैसे वायु अवकाश के स्थान में अनायास ही प्रवेश कर जाती हैं, वैसे ही वे अपनी योगमाया से मार्कण्डेय मुनि के हृदयाकाश में प्रवेश कर गये। मार्कण्डेय मुनि ने देखा कि उनके हृदय में तो भगवान शंकर के दर्शन हो रहे हैं। शंकर जी के सिर पर बिजली के समान चमकीली पीली-पीली जटाएँ शोभायमान हो रही हैं। तीन नेत्र हैं और दस भुजाएँ। लम्बा-तगड़ा शरीर उदयकालीन सूर्य के समान तेजस्वी है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 12-25 का हिन्दी अनुवाद)

शरीर पर बाघम्बर धारण किये हुए हैं और हाथों में शूल, खट्वांग, ढाल, रुद्राक्ष-माला, डमरू, खप्पर, तलवार और धनुष लिये हैं। मार्कण्डेय मुनि अपने हृदय में अकस्मात् भगवान शंकर का यह रूप देखकर विस्मित हो गये। ‘यह क्या है? कहाँ से आया?’ इस प्रकार की वृत्तियों का उदय हो जाने से उन्होंने अपनी समाधि खोल दी। जब उन्होंने ऑंखें खोलीं, तब देखा कि तीनों लोकों के एकमात्र गुरु भगवान शंकर श्रीपार्वती जी तथा अपने गणों के साथ पधारे हुए हैं। उन्होंने उनके चरणों में माथा टेककर प्रणाम किया। तदनन्तर मार्कण्डेय मुनि ने स्वागत, आसन, पाद्य, अर्घ्य, गन्ध, पुष्पमाला, धूप और दीप आदि उपचारों से भगवान शंकर, भगवती पार्वती और उनके गणों की पूजा की। इसके पश्चात् मार्कण्डेय मुनि उनसे कहने लगे- ‘सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान् प्रभो! आप अपनी आत्मानुभूति और महिमा से ही पूर्णकाम हैं। आपकी शान्ति और सुख से ही सारे जगत् में सुख-शान्ति का विस्तार हो रहा है, ऐसी अवस्था में मैं आपकी क्या सेवा करूँ? मैं आपके त्रिगुणातीत सदाशिव स्वरूप को और सत्त्वगुण से युक्त शान्त-स्वरूप को नमस्कार करता हूँ। मैं आपके रजोगुण युक्त सर्वप्रवर्तक स्वरूप एवं तमोगुण युक्त अघोर स्वरूप को नमस्कार करता हूँ’।

सूत जी कहते हैं ;- शौनक जी! जब मार्कण्डेय मुनि ने संतों के परम आश्रय देवाधिदेव भगवान शंकर की इस प्रकार स्तुति की, तब वे उन पर अत्यन्त सन्तुष्ट हुए और बड़े प्रसन्नचित से हँसते हुए कहने लगे।

भगवान शंकर ने कहा ;- मार्कण्डेय! ब्रह्मा, विष्णु तथा मैं-हम तीनों ही वर दाताओं के स्वामी हैं, हम लोगों का दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता। हम लोगों से ही मरणशील मनुष्य भी अमृतत्त्व की प्राप्ति कर लेता है। इसलिये तुम्हारी जो इच्छा हो, वही वर मुझसे माँग लो। ब्राह्मण स्वभाव से ही परोपकारी, शान्तचित्त एवं अनासक्त होते हैं। वे किसी के साथ वैरभाव नहीं रखते और समदर्शी होने पर भी प्राणियों का कष्ट देखकर उसके निवारण के लिये पूरे हृदय से जुट जाते हैं। उनकी सबसे बड़ी विशेषता तो यह होती है कि वे हमारे अनन्य प्रेमी एवं भक्त होते हैं। सारे लोक और लोकपाल ऐसे ब्राह्मणों की वन्दना, पूजा और उपासना किया करते हैं। केवल वे ही क्यों; मैं, भगवान ब्रह्मा तथा स्वयं साक्षात् ईश्वर विष्णु भी उनकी सेवा में संलग्न रहते हैं। ऐसे शान्त महापुरुष मुझमें, विष्णु भगवान में, ब्रह्मा में, अपने में और सब जीवों में अणुमात्र भी भेद नहीं देखते। सदा-सर्वदा, सर्वत्र और सर्वथा एकरस आत्मा का ही दर्शन करते हैं। इसलिये हम तुम्हारे-जैसे महात्माओं की स्तुति और सेवा करते हैं।

मार्कण्डेय जी! केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं होते तथा केवल जड़ मूर्तियाँ ही देवता नहीं होतीं। सबसे बड़े तीर्थ और देवता तो तुम्हारे-जैसे संत हैं; क्योंकि वे तीर्थ और देवता बहुत दिनों में पवित्र करते हैं, परन्तु तुम लोग दर्शन मात्र से ही पवित्र कर देते हो। हम लोग तो ब्राह्मणों को ही नमस्कार करते हैं; क्योंकि वे चित्त की एकाग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारा हमारे वेदमय शरीर को धारण करते हैं। मार्कण्डेय जी! बड़े-बड़े महापापी और अन्त्यज भी तुम्हारे-जैसे महापुरुषों के चरित्र श्रवण और दर्शन से ही शुद्ध हो जाते हैं; फिर वे तुम लोगों के सम्भाषण और सहवास आदि से शुद्ध हो जायें, इसमें तो कहना ही क्या है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 26-37 का हिन्दी अनुवाद)

सूत जी कहते हैं ;- शौनकादि ऋषियों! चन्द्रभूषण भगवान शंकर की एक-एक बात धर्म के गुप्ततम सहस्य से परिपूर्ण थी। उनकी एक-एक बात अक्षर में अमृत का समुद्र भरा हुआ था। मार्कण्डेय मुनि अपने कानों के द्वारा पूरी तन्मयता के साथ उसका पान करते रहे; परन्तु उन्हें तृप्ति न हुई। वे चिरकाल तक विष्णु भगवान की माया से भटक चुके थे और बहुत थके हुए भी थे। भगवान शिव की कल्याणी वाणी का अमृतपान करने से उनके सारे क्लेश नष्ट हो गये। उन्होंने भगवान शंकर से इस प्रकार कहा।

मार्कण्डेय ने कहा ;- सचमुच सर्वशक्तिमान् भगवान की यह लीला सभी प्राणियों की समझ के परे हैं। भला, देखो तो सही-ये सारे जगत् के स्वामी होकर भी अपने अधीन रहने वाले मेरे-जैसे जीवों की वन्दना और स्तुति करते हैं। धर्म के प्रवचनकार प्रायः प्राणियों को धर्म का रहस्य और स्वरूप समझाने के लिये उसका आचरण और अनुमोदन करते हैं तथा कोई धर्म का आचरण करता है तो उसकी प्रशंसा भी करते हैं। जैसे जादूगर अनेकों खेल दिखलाता है और उन खेलों से उसके प्रभाव में कोई अन्तर नहीं पड़ता, वैसे ही आप अपनी स्वजनमोहिनी माया की वृत्तियों को स्वीकार करके किसी की वन्दना-स्तुति आदि करते हैं तो केवल इस काम के द्वारा आपकी महिमा में कोई त्रुटि नहीं आती। आपने स्वप्नदृष्टा के समान अपने मन से ही सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि की है और इसमें स्वयं प्रवेश करके कर्ता न होने पर भी कर्म करने वाले गुणों के द्वारा कर्ता के समान प्रतीत होते हैं।

भगवन्! आप त्रिगुणस्वरूप होने पर भी उनके परे उनकी आत्मा के रूप में स्थित हैं। आप ही समस्त ज्ञान के मूल, केवल, अद्वितीय ब्रह्मस्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। अनन्त! आपके श्रेष्ठ दर्शन से बढ़कर ऐसी और कौन-सी वस्तु है, जिसे मैं वरदान के रूप में माँगू? मनुष्य आपके दर्शन से ही पूर्णकाम और सत्यसंकल्प हो जाता है। आप स्वयं तो पूर्ण हैं ही, अपने भक्तों की भी समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। इसलिये मैं आपका दर्शन प्राप्त कर लेने पर भी एक वर और माँगता हूँ। वह यह कि भगवान में, उनके शरणागत भक्तों में और आप में मेरी अविचल भक्ति सदा-सर्वदा बनी रहे।

सूत जी कहते हैं ;- शौनक जी! जब मार्कण्डेय मुनि ने सुमधुर वाणी से इस प्रकार भगवान शंकर की स्तुति और पूजा की, तब उन्होंने भगवती पार्वती की प्रसाद-प्रेरणा से यह बात कही। महर्षे! तुम्हारी सारी कामनाएँ पूर्ण हों। इन्द्रियातीत परमात्मा में तुम्हारी अनन्य भक्ति सदा-सर्वदा बनी रहे। कल्प पर्यन्त तुम्हारा पवित्र यश फैले और तुम अजर एवं अमर हो जाओ। ब्रह्मन्! तुम्हारा ब्रह्मतेज तो सर्वदा अक्षुण्ण रहेगा ही। तुम्हें भूत, भविष्य और वर्तमान के समस्त विशेष ज्ञानों का एक अधिष्ठानरूप ज्ञान और वैराग्ययुक्त स्वरूप स्थिति की प्राप्ति हो जाये। तुम्हें पुराण का आचार्यत्व भी प्राप्त हो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 38-42 का हिन्दी अनुवाद)

सूत जी कहते हैं ;- शौनक जी! इस प्रकार त्रिलोचन भगवान शंकर मार्कण्डेय मुनि को वर देकर भगवती पार्वती से मार्कण्डेय मुनि की तपस्या और उनके प्रलय सम्बन्धी अनुभवों का वर्णन करते हुए वहाँ से चले गये। भृगुवंश शिरोमणि मार्कण्डेय मुनि को उनके महायोग का परम फल प्राप्त हो गया। वे भगवान के अनन्य प्रेमी हो गये। अब भी वे भक्तिभावभरित हृदय से पृथ्वी पर विचरण किया करते हैं। परम ज्ञान सम्पन्न मार्कण्डेय मुनि ने भगवान की योगमाया जिस अद्भुत लीला का अनुभव किया था, वह मैंने आप लोगों को सुना दिया।

शौनक जी! यह जो मार्कण्डेय जी ने अनेक कल्पों का-सृष्टि-प्रलयों का अनुभव किया, वह भगवान की माया का ही वैभव था, तात्कालिक था और उन्हीं के लिये था, सर्वसाधारण के लिये नहीं। कोई-कोई इस माया की रचना को न जानकर अनादि-काल से बार-बार होने वाले सृष्टि-प्रलय ही इसको भी बतलाते हैं। (इसलिये आपको यह शंका नहीं करनी चाहिये कि इसी कल्प के हमारे पूर्वज मार्कण्डेय जी की आयु इतनी लम्बी कैसे हो गयी?)

भृगुवंशशिरोमणे! मैंने आपको यह जो मार्कण्डेय-चरित्र सुनाया है, वह भगवान चक्रपाणि के प्रभाव और महिमा से भरपूर है। जो इसका श्रवण एवं कीर्तन करते हैं, वे दोनों ही कर्म-वासनाओं के कारण प्राप्त होने वाले आवागमन के चक्कर से सर्वदा के लिये छूट जाते हैं।

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