सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण (द्वादश स्कन्धः ) का पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा, व पाँचवाँ अध्याय [ First, second, third, fourth, and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Twelfth wing) ]

 



                          {द्वादश स्कन्ध:} 

                       【प्रथम अध्याय】१

"कलियुग के राजवंशों का वर्णन"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: प्रथम अध्याय श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)


राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण जब अपने परमधाम पधार गये, तब पृथ्वी पर किस वंश का राज्य हुआ? तथा अब किसका राज्य होगा? आप कृपा करके मुझे यह बतलाइये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- प्रिय परीक्षित! मैंने तुम्हें नवें स्कन्ध में यह बात बतलायी थी कि जरासन्ध के पिता वृहद्रथ के वंश में अन्तिम राजा होगा पुरंजय या रिपुंजय। उसके मन्त्री का नाम होगा शुनक। वह अपने स्वामी को मार डालेगा और अपने पुत्र प्रद्योत को राजसिंहासन पर अभिषिक्त करेगा। प्रद्योत का पुत्र होगा पालक, पालक का विशाखयूप, विशाखयूप का राजक और राजक का पुत्र होगा नन्दिवर्द्धन। प्रद्योत-वंश में यही पाँच नरपति होंगे। इनकी संज्ञा होगी ‘प्रद्योतन’। ये एक सौ अड़तीस वर्ष तक पृथ्वी का उपभोग करेंगे। इसके पश्चात् शिशुनाग नाम का राजा होगा। शिशुनाग का काकवर्ण, उसका क्षेमधर्मा और क्षेमधर्मा का पुत्र होगा क्षेत्रज। क्षेत्रज का विधिसार, उसका अजातशत्रु, फिर दर्भक और दर्भक का पुत्र अजय होगा। अजय से नन्दिवर्द्धन और उससे महानन्दि का जन्म होगा। शिशुनाग-वंश में ये दस राजा होंगे। ये सब मिलकर कलियुग में तीन सौ साठ वर्ष तक पृथ्वी पर राज्य करेंगे।

प्रिय परीक्षित! महानन्दि की शुद्रा पत्नी के गर्भ से नन्द नामक पुत्र होगा। वह बड़ा बलवान् होगा। महानन्दि ‘महापद्म’ नामक निधि का अधिपति होगा। इसीलिये लोग उसे ‘महापद्म’ भी कहेंगे। वह क्षत्रिय राजाओं के विनाश का कारण बनेगा। तभी से राजा लोग प्रायः शूद्र और अधार्मिक हो जायेंगे। महापद्म पृथ्वी पर एकच्छत्र शासक होगा। उसके शासन का उल्लंघन कोई भी नहीं कर सकेगा। क्षत्रियों के विनाश में हेतु होने के की दृष्टि से तो उसे दूसरा परशुराम ही समझना चाहिये। उसके सुमाल्य आदि आठ पुत्र होंगे। वे सभी राजा होंगे और सौ वर्ष तक इस पृथ्वी का उपभोग करेंगे। कौटिल्य, वात्स्यायन तथा चाणक्य के नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण विश्वविख्यात नन्द और उनके सुमाल्य आदि आठ पुत्रों का नाश कर डालेगा। उनका नाश हो जाने पर कलियुग में मौर्यवंशी नरपति पृथ्वी का राज्य करेंगे। वही ब्राह्मण पहले-पहल चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा के पद पर अभिषिक्त करेगा। चन्द्रगुप्त का पुत्र होगा वारिसार और वारिसार का अशोकवर्द्धन। अशोकवर्द्धन का पुत्र होगा सुयश। सुयश का संगत, संगत का शालिशूक और शालिशूक का सोमशर्मा। शोमशर्मा का शतधन्वा और शतधन्वा का पुत्र बृहद्रथ होगा।

कुरुवंशविभूषण परीक्षित! मौर्यवंश के ये दस नरपति कलियुग में एक सौ सैंतीस वर्ष तक पृथ्वी का उपभोग करेंगे। बृहद्रथ का सेनापति होगा पुष्यमित्र शुंग। वह अपने स्वामी को मारकर स्वयं राजा बन बैठेगा। पुष्यमित्र का अग्निमित्र और अग्निमित्र का सुज्येष्ठ होगा। सुज्येष्ठ का वसुमित्र, वसुमित्र का भ्रद्रक और भद्रक का पुलिन्द, पुलिन्द का घोष और घोष का पुत्र होगा वज्रमित्र। वज्रमित्र का भागवत और भागवत का पुत्र होगा देवभूमि। शुंगवंश के ये दस नरपति एक सौ बारह वर्ष तक पृथ्वी का पालन करेंगे। परीक्षित! शुंगवंशी नरपतियों का राज्य काल समाप्त होने पर यह पृथ्वी कण्ववंशी नरपतियों के हाथ में चली जायेगी। कण्ववंशी नरपति अपने पूर्ववर्ती राजाओं की अपेक्षा कम गुण वाले होंगे। शुंगवंश का अन्तिम नरपति देवभूमि बड़ा ही लम्पट होगा। उसे उसका मन्त्री कण्ववंशी वसुदेव मार डालेगा और अपने बुद्धिबल से स्वयं राज्य प्राप्त करेगा। वसुदेव का पुत्र होगा भूमित्र, भूमित्र का नारायण और नारायण का सुशर्मा। सुशर्मा बड़ा यशस्वी होगा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: प्रथम अध्याय श्लोक 21-39 का हिन्दी अनुवाद)

कण्व वंश के चार नरपति काण्वायन कहलायेंगे और कलियुग में तीन सौ पैंतालिस वर्ष तक पृथ्वी का उपभोग करेंगे। प्रिय परीक्षित! कण्ववंशी सुशर्मा का एक शूद्र सेवक होगा-बली। वह अन्ध्रजाति का एवं बड़ा दुष्ट होगा। वह सुशर्मा को मारकर कुछ समय तक स्वयं पृथ्वी का राज्य करेगा। इसके बाद उसका भाई कृष्ण राजा होगा। कृष्ण का पुत्र श्रीशान्तकर्ण और उसका पौर्णमास होगा। पौर्णमास का लम्बोदर और लम्बोदर का पुत्र चिविलक होगा। चिविलक का मेघस्वाति, मेघस्वाति का अटमान, अटमान का अनिष्टकर्मा, अनिष्टकर्मा का हालेय, हालेय का तलक, तलक का पुरीषभीरु और पुरीषभीरु का पुत्र होगा राजा सुनन्दन।

परीक्षित! सुनन्दन का पुत्र होगा चकोर; चकोर के आठ पुत्र होंगे, जो सभी ‘बहु’ कहलायेंगे। इनमें सबसे छोटे का नाम होगा शिवस्वाति। वह बड़ा वीर होगा और शत्रुओं का दमन करेगा। शिवस्वाति का गोमतीपुत्र और उसका पुत्र होगा पुरीमान्। पुरीमान् का मेदःशिरा, मेदःशिरा का शिवस्कन्द, शिवस्कन्द का यज्ञश्री, यज्ञश्री का विजय और विजय के दो पुत्र होंगे-चन्द्रविज्ञ और लोमधि। परीक्षित! ये तीस राजा चार सौ छप्पन वर्ष तक पृथ्वी का राज्य भोगेंगे। परीक्षित! इसके पश्चात् अवभृति-नगरी के सात आभीर, दस गर्दभी और सोलह कंक पृथ्वी का राज्य करेंगे। ये सब-के-सब बड़े लोभी होंगे। इनके बाद आठ यवन और चौदह तुर्क राज्य करेंगे। इसके बाद दस गुरुदण्ड और ग्यारह मौन नरपति होंगे। मौनों के अतिरिक्त ये सब एक हजार निन्यानबे वर्ष तक पृथ्वी का उपभोग करेंगे तथा ग्यारह मौन नरपति तीन सौ वर्ष तक पृथ्वी का शासन करेंगे। जब उनका राज्यकाल समाप्त हो जायेगा, तब किलिकिला नाम की नगरी में भूतनन्द नाम का राजा होगा। भूतनन्द का वंगिरि, वंगिरि का भाई शिशुनन्दि तथा यशोनन्दि और प्रवीरक-ये एक सौ छः वर्ष तक राज्य करेंगे। इनके तेरह पुत्र होंगे और वे सब-के-सब बाह्लिक कहलायेंगे। उनके पश्चात् पुष्यमित्र नामक क्षत्रिय और उसके पुत्र दुर्मित्र का राज्य होगा।

परीक्षित! बाह्लिकवंशी नरपति एक साथ ही विभिन्न प्रदेशों में राज्य करेंगे। उनमें सात अन्ध्र देश के तथा साथ ही कोसल देश के अधिपति होंगे, कुछ विदूर-भूमि के शासक और कुछ निषेध देश के स्वामी होंगे। इनके बाद मगध देश का राजा होगा विश्व-स्फूर्जि। यह पूर्वोक्त पुरंजय के अतिरिक्त द्वितीय पुरंजय कहलायेगा। यह ब्रह्माणादि उच्च वर्णों को पुलिन्द, यदु और मद्र आदि म्लेच्छप्राय जातियों के रूप में परिणत कर देगा। इसकी बुद्धि इतनी दुष्ट होगी कि यह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का नाश करके शुद्रप्राय जनता की रक्षा करेगा। यह अपने बल-वीर्य से क्षत्रियों को उजाड़ देगा और पद्मवतीपुरी को राजधानी बनाकर हरिद्वार से लेकर प्रयागपर्यन्त सुरक्षित पृथ्वी का राज्य करेगा। परीक्षित! ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जायेगा, त्यों-त्यों सौराष्ट्र, अवन्ती, आभीर, शूर, अर्बुद और मालव देश के ब्राह्मणगण संस्कारशून्य हो जायेंगे तथा राजा लोग भी शूद्रतुल्य हो जायेंगे। सिन्धुतट, चन्द्रभागा का तटवर्ती प्रदेश, कौन्तीपुत्री और काश्मीर-मण्डल पर प्रायः शूद्रों का, संस्कार एवं ब्रह्मतेजस से हीन नाम मात्र के द्विजों का और म्लेच्छों का राज्य होगा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: प्रथम अध्याय श्लोक 40-43 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! ये सब-के-सब राजा आचार-विचार में म्लेच्छप्राय होंगे। ये सब एक ही समय भिन्न-भिन्न प्रान्तों में राज्य करेंगे। ये सब-के-सब परले सिरे के झूठे, अधार्मिक और स्वल्प दान करने वाले होंगे।

छोटी-छोटी बातों को लेकर ही ये क्रोध के मारे आग बबूला हो जाया करेंगे। ये दुष्ट लोग स्त्री, बच्चों, गौओं, ब्राह्मणों को मारने में भी नहीं हिचकेंगे। दूसरे की स्त्री और धन हथिया लेने के लिये ये सर्वदा उत्सुक रहेंगे। न तो इन्हें बढ़ते देर लगेगी और न तो घटते। क्षण में रुष्ट तो क्षण में तुष्ट। इनकी शक्ति और आयु थोड़ी होगी। इनमें परम्परागत संस्कार नहीं होंगे। ये अपने कर्तव्य-कर्म का पालन नहीं करेंगे। रजोगुण और तमोगुण से अंधे बने रहेंगे। राजा के वेष में वे म्लेच्छ ही होंगे। वे लूट-खसोटकर अपनी प्रजा का खून चूसेंगे।

जब ऐसे लोगों का शासन होगा, तो देश की प्रजा में भी वैसे ही स्वभाव, आचरण और भाषण की वृद्धि हो जायेगी। राजा लोग तो उनका शोषण करेंगे ही, वे आपस में भी एक-दूसरे को उत्पीड़ित करेंगे और अन्ततः सब-के-सब नष्ट हो जायेंगे।

                          {द्वादश स्कन्ध:} 

                       【द्वितीय अध्याय】२

"कलियुग के धर्म"


(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: द्वितीय अध्याय श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! समय बड़ा बलवान् है; ज्यों-ज्यों घोर कलियुग आता जायेगा, त्यों-त्यों उत्तरोत्तर धर्म, सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मरण शक्ति का लोप होता जायेगा। कलियुग में जिसके पास धन होगा, उसी को लोग कुलीन, सदाचारी और सद्गुणी मानेंगे। जिसके हाथ में शक्ति होगी वही धर्म और न्याय की व्यवस्था अपने अनुकूल करा सकेगा। विवाह-सम्बन्ध के लिये कुल-शील-योग्यता आदि की परख-निरख नहीं रहेगी, युवक-युवती की पारम्परिक रुचि से ही सम्बन्ध हो जायेगा। व्यवहार की निपुणता सच्चाई और ईमानदारी में नहीं रहेगी; जो जितना छल-कपट कर सकेगा, वह उतना ही व्यवहारकुशल माना जायेगा। स्त्री और पुरुष की श्रेष्ठता का आधार उनका शील-संयम न होकर केवल रतिकौशल ही रहेगा। ब्राह्मण की पहचान उसके गुण-स्वभाव से नहीं यज्ञोपवीत से हुआ करेगी। वस्त्र, दण्ड-कमण्डलु आदि से ही ब्रह्मचारी, संन्यासी आदि आश्रमियों की पहचान होगी और एक-दूसरे का चिह्न स्वीकार कर लेना ही एक से दूसरे आश्रम में प्रवेश का स्वरूप होगा। जो घूस देने या धन खर्च करने में असमर्थ होगा, उसे अदालतों में ठीक-ठीक न्याय न मिल सकेगा। जो बोलचाल में जितना चालक होगा, उसे उतना ही बड़ा पण्डित माना जायेगा।

असाधुता की-दोषी होने की एक ही पहचान रहेगी-गरीब होना। जो जितना अधिक दम्भ-पाखण्ड कर सकेगा, उसे उतना ही बड़ा साधु समझा जायेगा। विवाह के लिये एक-दूसरे की स्वीकृति ही पर्याप्त होगी, शास्त्रीय विधि-विधान की-संस्कार आदि की कोई आवश्यकता न समझी जायेगी। बाल आदि सँवारकर कपड़े-लत्ते से लैस हो जाना ही स्नान समझा जायेगा। लोग दूर के तालाब को तीर्थ मानेंगे और निकट के तीर्थ गंगा-गोमती, माता-पिता आदि की उपेक्षा करेंगे। सिर पर बड़े-बड़े बाल-काकुल रखना ही शारीरिक सौन्दर्य का चिह्न समझा जायेगा और जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ होगा-अपना पेट भर लेना। जो जितनी ढिठाई से बात कर सकेगा, उसे उतना ही सच्चा समझा जायेगा। योग्यता चतुराई का सबसे बड़ा लक्षण यह होगा कि मनुष्य अपने कुटुम्ब का पालन कर ले। धर्म का सेवन यश के लिये किया जायेगा।

इस प्रकार जब सारी पृथ्वी पर दुष्टों का बोलबाला हो जायेगा, तब राजा होने का कोई नियम न रहेगा; ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्रों में जो बली होगा, वही राजा बन बैठेगा। उस समय के नीच राजा अत्यन्त निर्दय एवं क्रूर होंगे; लोभी तो इतने होंगे कि उसमें और लुटेरों में कोई अन्तर न किया जा सकेगा। वे प्रजा की पूँजी एवं पत्नियों तक को छीन लेंगे। उनसे डरकर प्रजा पहाड़ों और जंगलों में भाग जायेगी। उस समय प्रजा तरह-तरह के शाक, कन्द-मूल, मांस, मधु, फल-फूल और बीज-गुठली आदि खा-खाकर अपना पेट भरेगी। कभी वर्षा न होगी-सूखा पड़ जायेगा; तो कभी कर-पर-कर लगाये जायेंगे। कभी कड़ाके की सर्दी पड़ेगी तो कभी पाला पड़ेगा, कभी आँधी चलेगी, कभी गरमी पड़ेगी तो कभी बाढ़ आ जायेगी। इन उत्पातों से तथा आपस के संघर्ष से प्रजा अत्यन्त पीड़ित होगी, नष्ट हो जायेगी। लोग भूख-प्यास तथा नाना प्रकार की चिन्ताओं से दुःखी रहेंगे। रोगों से तो उन्हें छुटकारा ही न मिलेगा। कलियुग में मनुष्यों की परमायु केवल बीस या तीस वर्ष की होगी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: द्वितीय अध्याय श्लोक 12-24 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! कलिकाल के दोष से प्राणियों के शरीर छोटे-छोटे, क्षीण और रोगग्रस्त होने लगेंगे। वर्ण और आश्रमों का धर्म बतलाने वाला वेद-आर्ग नष्टप्राय हो जायेगा। धर्म में पाखण्ड की प्रधानता हो जायेगी। राजे-महाराजे डाकू-लुटेरों के समान हो जायेंगे। मनुष्य चोरी, झूठ तथा निरपराध हिंसा आदि नाना प्रकार के कुकर्मों से जीविका चलाने लगेंगे। चारों वर्णों के लोग शूद्रों के समान हो जायेंगे। गौएँ बकरियों की तरह छोटी-छोटी और कम दूध देने वाली हो जायेंगी। वानप्रस्थी और संन्यासी आदि विरक्त आश्रम वाले भी घर-गृहस्थी जुटाकर गृहस्थों का-सा व्यापार करने लगेंगे। जिनसे विवाहित सम्बन्ध हैं, उन्हीं को अपना सम्बन्धी माना जायेगा। धान, जौ, गेंहूँ आदि धान्यों के पौधे छोटे-छोटे होने लगेंगे। वृक्षों में अधिकांश शमी के समान छोटे और कँटीले वृक्ष ही रह जायेंगे। बादलों में बिजली तो बहुत चमकेगी, परन्तु वर्षा कम होगी। गृहस्थों के घर अतिथि-सत्कार या वेदध्वनि से रहित होने के कारण अथवा जनसंख्या घट जाने के कारण सूने-सूने हो जायेंगे।

परीक्षित! अधिक क्या कहें-कलियुग का अन्त होते-होते मनुष्यों का स्वभाव गधों-जैसा दुःसह बन जायेगा, लोग प्रायः गृहस्थी का भार ढोने वाले और विषयी हो जायेंगे। ऐसी स्थिति में धर्म की रक्षा करने के लिये सत्त्वगुण स्वीकार करके स्वयं भगवान अवतार ग्रहण करेंगे। प्रिय परीक्षित! सर्वव्यापक भगवान विष्णु सर्वशक्तिमान् हैं। वे सर्वस्वरूप होने पर भी चराचर जगत् के शिक्षक-सद्गुरु हैं। वे साधु-सज्जन पुरुषों के धर्म की रक्षा के लिये, उनके कर्म का बन्धन काटकर उन्हें जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने के लिये अवतार ग्रहण करते हैं। उन दिनों शम्भल-ग्राम में विष्णुयश नाम के श्रेष्ठ ब्राह्मण होंगे। उनका हृदय बड़ा उदार एवं भगवद्भक्ति से पूर्ण होगा। उन्हीं के घर कल्कि भगवान अवतार ग्रहण करेंगे। श्रीभगवान ही अष्टसिद्धियों के और समस्त सद्गुणों के एकमात्र आश्रय हैं। समस्त चराचर जगत् के वे ही रक्षक और स्वामी हैं। वे देवदत्त नामक शीघ्रगामी घोड़े पर सवार होकर दुष्टों को तलवार के घाट उतार कर ठीक करेंगे। उनके रोम-रोम से अतुलनीय तेज की किरणें छिटकती होंगी। वे अपने शीघ्रगामी घोड़े से पृथ्वी पर सर्वत्र विचरण करेंगे और राजा के वेष में छिपकर रहने वाले कोटि-कोटि डाकुओं का संहार करेंगे।

प्रिय परीक्षित! जब सब डाकुओं का संहार हो चुकेगा, तब नगर की और देश की सारी प्रजा का हृदय पवित्रता से भर जायेगा; क्योंकि भगवान कल्कि के शरीर में लगे हुए अंगरांग का स्पर्श पाकर अत्यन्त पवित्र हुई वायु उनका स्पर्श करेगी और इस प्रकार वे भगवान के श्रीविग्रह की दिव्य गन्ध प्राप्त कर सकेंगे। उनके पवित्र हृदय में सत्त्वमूर्ति भगवान वासुदेव विराजमान होंगे और फिर उनकी सन्तान पहले की भाँति हष्ट-पुष्ट और बलवान् होने लगेगी। प्रजा के नयन-मनोहारी हरि ही धर्म के रक्षक और स्वामी हैं। वे ही भगवान जब कल्कि के रूप में अवतार ग्रहण करेंगे, उसी समय सत्ययुग का प्रारम्भ हो जायेगा और प्रजा की सन्तान-परम्परा स्वयं ही सत्त्वगुण से युक्त हो जायेगी। जिस समय चन्द्रमा, सूर्य और बृहस्पति एक ही समय एक ही साथ पुष्य नक्षत्र के प्रथम पल में प्रवेश करके एक राशि पर आते हैं, उसी समय सत्ययुग का प्रारम्भ होता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: द्वितीय अध्याय श्लोक 25-39 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! चन्द्रवंश और सूर्यवंश में जितने राजा हो गये हैं या होंगे, उन सब का मैंने संक्षेप से वर्णन कर दिया। तूम्हारे जन्म से लेकर राजा नन्द के अभिषेक तक एक हजार एक सौ पन्द्रह वर्ष का समय लगेगा। जिस समय आकाश में सप्तर्षियों का उदय होता है, उस समय पहले उनमें से दो ही दिखायी पड़ते हैं। उनके बीच में दक्षिणोत्तर रेखा पर समभाग में अश्विनी आदि नक्षत्रों में से एक नक्षत्र दिखायी पड़ता है। उस नक्षत्र के साथ सप्तर्षिगण मनुष्यों की गणना से सौ वर्ष तक रहते हैं। वे तुम्हारे जन्म के समय और इस समय भी मघा नक्षत्र पर स्थित हैं। स्वयं सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् भगवान ही शुद्ध सत्त्वमय विग्रह के साथ श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट हुए थे। वे जिस समय अपनी लीला संवरण करके परमधाम को पधार गये, उसी समय कलियुग ने संसार में प्रवेश किया। उसी के कारण मनुष्यों की मति-गति पाप की ओर ढुलक गयी। जब तक लक्ष्मीपती भगवान श्रीकृष्ण अपने चरणकमलों से पृथ्वी का स्पर्श करते रहे, तब तक कलियुग पृथ्वी पर अपना पैर न जमा सका।

परीक्षित! जिस समय सप्तर्षि मघा नक्षत्र पर विचरण करते रहते हैं, उसी समय कलियुग का प्रारम्भ होता है। कलियुग की आयु देवताओं की वर्ष गणना से बारह सौ वर्षों की अर्थात् मनुष्यों की गणना के अनुसार चार लाख बत्तीस हजार वर्ष की है। जिस समय सप्तर्षि मघा से चलकर पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में जा चुके होंगे, उस समय राजा नन्द का राज्य रहेगा। तभी से कलियुग की वृद्धि शुरू होगी। पुरातत्त्ववेत्ता ऐतिहासिक विद्वानों का कहना है कि जिस दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अपने परम-धाम को प्रयाण किया, उसी दिन, उसी समय कलियुग का प्रारम्भ हो गया। परीक्षित! जब देवताओं की वर्ष गणना के अनुसार एक हजार वर्ष बीत चुकेंगे, तब कलियुग के अन्तिम दिनों में फिर से कल्कि भगवान की कृपा से मनुष्यों के मन में सात्त्विकता का संचार होगा, लोग अपने वास्तविक स्वरूप को जान सकेंगे और तभी से सत्ययुग का प्रारम्भ भी होगा।

परीक्षित! मैंने तो तुमसे केवल मनुवंश का, सो भी संक्षेप से वर्णन किया है। जैसे मनुवंश की गणना होती है, वैसे ही प्रत्येक युग में ब्राह्मण, वैश्य और शूद्रों को भी वंश परम्परा समझनी चाहिये। राजन्! जिन पुरुषों और महात्माओं का वर्णन मैंने तुमसे किया है, अब केवल नाम से ही उनकी पहचान होती है। अब वे नहीं हैं, केवल उनकी यह कथा रह गयी है। अब उनकी कीर्ति ही पृथ्वी पर जहाँ-तहाँ सुनने को मिलती है। भीष्म पितामह के पिता राजा शान्तनु के भाई देवापि और इक्ष्वाकुवंशी मरू इस समय कलाप-ग्राम में स्थित हैं। वे बहुत बड़े योगबल से युक्त हैं। कलियुग के अन्त में कल्कि भगवान की आज्ञा से वे फिर यहाँ आयेंगे और पहले की भाँति ही वर्णाश्रम धर्म का विस्तार करेंगे। सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग- ये ही चार युग हैं; ये पूर्वोक्त क्रम के अनुसार अपने-अपने समय में पृथ्वी के प्राणियों पर अपना प्रभाव दिखाते रहते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: द्वितीय अध्याय श्लोक 40-44 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! मैंने तुमसे जिन राजाओं का वर्णन किया है, वे सब और उनके अतिरिक्त दूसरे राजा भी इस पृथ्वी को ‘मेरी-मेरी’ करते रहे, परन्तु अन्त में मरकर धूल में मिल गये। यह शरीर को भले ही कोई राजा कह ले; परन्तु अन्त में यह कीड़ा, विष्ठा अथवा राख के रूप में ही परिणत होगा, राख ही होकर रहेगा। इसी शरीर के या इसके सम्बन्धियों के लिये जो भी किसी भी प्राणी को सताता है, वह न तो अपना स्वार्थ जानता है और न तो परमार्थ। क्योंकि प्राणियों को सताना तो नरक का द्वार है। वे लोग यही सोचा करते हैं कि मेरे दादा-परदादा इस अखण्ड भूमण्डल का शासन करते थे; अब वह मेरे अधीन किस प्रकार रहे और मेरे बाद मेरे बेटे-पोते, मेरे वंशज किस प्रकार इसका उपभोग करें। जो मूर्ख इस आग, पानी और मिट्टी के शरीर को अपना आपा मान बैठते हैं और बड़े अभिमान के साथ डींग हाँकते हैं कि यह पृथ्वी मेरी है। अन्त में वे शरीर और पृथ्वी दोनों को छोड़कर स्वयं ही अदृश्य हो जाते हैं।

प्रिय परीक्षित! जो-जो नरपति बड़े उत्साह और बल-पौरुष से इस पृथ्वी के उपभोग में लगे रहे, उन सब को काल ने अपने विकराल गाल में धर दबाया। अब केवल इतिहास में उनकी कहानी ही शेष रह गयी है।

                          {द्वादश स्कन्ध:} 

                       【तृतीय अध्याय】३

"राज्य, युगधर्म और कलियुग के दोषों से बचने का उपाय-नाम संकीर्तन"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: तृतीय अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब पृथ्वी देखती है कि राजा लोग मुझ पर विजय प्राप्त करने के लिये उतावले हो रहे हैं, तब वह हँसने लगती है और कहती है- "कितने आश्चर्य की बात है कि ये राजा लोग, जो स्वयं मौत के खिलौने हैं, मुझे जीतना चाहते हैं। राजाओं से यह बात छिपी नहीं है कि वे एक-न-एक दिन मर जायेंगे, फिर भी वे व्यर्थ में ही मुझे जीतने की कामना करते हैं। सचमुच इस कामना से अंधे होने के कारण ही वे पानी के बुलबुले के समान क्षणभंगुर शरीर पर विश्वास कर बैठते हैं और धोखा खाते हैं। वे सोचते हैं कि ‘हम पहले मन के सहित अपनी पाँचों इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करेंगे-अपने भीतरी शत्रुओं को वश में करेंगे; क्योंकि इनको जीते बिना बाहरी शत्रुओं को जीतना कठिन है। उसके बाद अपने शत्रु के मन्त्रियों, अमात्यों, नागरिकों, नेताओं और समस्त सेना को भी वश में कर लेंगे। जो भी हमारे विजय-मार्ग में काँटे बोयेगा, उसे हम अवश्य जीत लेंगे। इस प्रकार धीरे-धीरे क्रम से सारी पृथ्वी हमारे अधीन हो जायेगी और फिर तो समुद्र ही हमारे राज्य की खाईं का काम करेगा। इस प्रकार वे अपने मन में अनेकों आशाएँ बाँध लेते हैं और उन्हें यह बात बिलकुल नहीं सूझती कि उनके सिर पर काल सवार है। यहीं तक नहीं, जब एक द्वीप उनके वश में हो जाता है, तब वे दूसरे द्वीप पर विजय करने के लिये बड़ी शक्ति और उत्साह के साथ समुद्र यात्रा करते हैं। अपने मन को, इन्द्रियों को वश में करके लोग मुक्ति प्राप्त करते हैं, परन्तु ये लोग उनको वश में करके भी थोड़ा-सा भूभाग ही प्राप्त करते हैं। इतने परिश्रम और आत्मसयंम का यह कितना तुच्छ फल है।"

परीक्षित! पृथ्वी कहती है कि ‘बड़े-बड़े मनु और उनके वीर पुत्र मुझे ज्यों-की-त्यों छोड़कर जहाँ से आये थे, वहीं खाली हाथ लौट गये, मुझे अपने साथ न ले जा सके। अब ये मूर्ख राजा मुझे युद्ध में जीतकर वश में करना चाहते हैं। जिनके चित्त में यह बात दृढ़मूल हो गयी है कि यह पृथ्वी मेरी है, उन दुष्टों के राज्य में मेरे लिये पिता-पुत्र और भाई-भाई भी आपस में लड़ बैठते हैं। वे परस्पर इस प्रकार कहते हैं कि ‘ओ मूढ़! यह सारी पृथ्वी मेरी ही है, तेरी नहीं’, इस प्रकार राजा लोग एक-दूसरे को कहते-सुनते हैं, एक-दूसरे से स्पर्द्धा करते हैं, मेरे लिये एक-दूसरे को मारते हैं और स्वयं मर मिटते हैं। पृथु, पुरूरवा, गाधि, नहुष, भरत, सहस्राबाहु, अर्जुन, मान्धाता, सगर, राम, खट्वांग, धुन्धुमार, रघु, तृणबिन्दु, ययाति, शर्याति, शान्तनु, गय, भगीरथ, कुवलयाश्व, कुकुत्स्थ, नल, नृग, हिरण्यकशिपु, वृत्रासुर, लोकद्रोही रावण, नमुचि, शम्बर, भौमासुर, हिरण्याक्ष और तारकासुर तथा बहुत-से दैत्य एवं शक्तिशाली नरपति हो गये। ये सब लोग सब कुछ समझते थे, शूर थे, सभी ने दिग्विजय में दूसरों को हरा दिया; किन्तु दूसरे लोग इन्हें न जीत सके, परन्तु सब-के-सब मृत्यु के ग्रास बन गये।

राजन्! उन्होंने अपने पूरे अन्तःकरण से मुझ से ममता की और समझा कि ‘यह पृथ्वी मेरी है।’ परन्तु विकराल काल ने उनकी लालसा पूरी न होने दी। अब उनके बल-पौरुष और शरीर आदि का कुछ पता ही नहीं है। केवल उनकी कहानी मात्र शेष रह गयी है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: तृतीय अध्याय श्लोक 14-25 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! संसार के बड़े-बड़े प्रतापी और महान् पुरुष हुए हैं। वे लोकों में अपने यश का विस्तार करके यहाँ से चल बसे। मैंने तुम्हें ज्ञान और वैराग्य का उपदेश करने के लिये ही उनकी कथा सुनायी है। यह सब वाणी का विलास मात्र है। इसमें पारमार्थिक सत्य कुछ भी नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण का गुणानुवाद समस्त अमंगलों का नाश करने वाला है, बड़े-बड़े महात्मा उसी का गान करते रहते हैं। जो भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेममयी भक्ति की लालसा रखता हो, उसे नित्य-निरन्तर भगवान के दिव्य गुणानुवाद का ही श्रवण करते रहना चाहिये।

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! मुझे तो कलियुग में राशि-राशि दोष ही दिखायी दे रहे हैं। उस समय लोग किस उपाय से उन दोषों का नाश करेंगे। इसके अतिरिक्त युगों का स्वरूप, उनके धर्म, कल्प की स्थिति और प्रलय काल के मान एवं सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् भगवान के कालरूप का भी यथावत् वर्णन कीजिये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! सत्ययुग में धर्म के चार चरण होते हैं; वे चरण हैं- सत्य, दया, तप और दान। उस समय के लोग पूरी निष्ठा के साथ अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। धर्म स्वयं भगवान का स्वरूप है। सत्ययुग के लोग बड़े सन्तोषी और दयालु होते हैं। वे सबसे मित्रता का व्यवहार करते और शान्त रहते हैं। इन्द्रियाँ और मन उनके वश में रहते हैं और सुख-दुःख आदि द्वन्दों को वे समान भाव से सहन करते हैं। अधिकांश लोग तो समदर्शी और आत्माराम होते हैं और बाकी लोग स्वरूप-स्थिति के लिये अभ्यास में तत्पर रहते हैं। परीक्षित! धर्म के समान अधर्म के भी चार चरण हैं- असत्य, हिंसा, असन्तोष और कलह। त्रेतायुग में इनके प्रभाव से धीरे-धीरे धर्म के सत्य आदि चरणों का चतुर्थाश क्षीण हो जाता है। राजन्! उस समय वर्णों में ब्राह्मणों की प्रधानता अक्षुण्ण रहती हैं। लोगों में अत्यन्त हिंसा और लम्पटता का अभाव रहता है। सभी लोग कर्मकाण्ड और तपस्या में निष्ठा रखते हैं और अर्थ, धर्म एवं कामरूप त्रिवर्ग का सेवन करते हैं। अधिकांश लोग कर्म प्रतिपादक वेदों के पारदर्शी विद्वान् होते हैं।

द्वापर युग में हिंसा, असन्तोष, झूठ और द्वेष-अधर्म के इन चरणों की वृद्धि हो जाती है एवं इनके कारण धर्म के चारों चरण-तपस्या, सत्य, दया और दान आधे-आधे क्षीण हो जाते हैं। उस समय के लोग बड़े यशस्वी, कर्मकाण्ड और वेदों के अध्ययन-अध्यापन में बड़े तत्पर होते हैं। लोगों के कुटुम्ब बड़े-बड़े होते हैं, प्रायः लोग धनाढ्य एवं सुखी होते हैं। उस समय वर्णों में क्षत्रिय और ब्राह्मण दो वर्णों की प्रधानता रहती है। कलियुग में तो अधर्म के चारों चरण अत्यन्त बढ़ जाते हैं। उनके कारण धर्म के चारों चरण क्षीण होने लगते हैं और उनका चतुर्थांश का भी लोप हो जाता है। कलियुग में लोग लोभी, दुराचारी और कठोर हृदय होते हैं। वे झूठमूठ एक-दूसरे से वैर मोल ले लेते हैं एवं लालसा-तृष्णा की तरंगों में बहते रहते हैं। उस समय के अभागे लोगों में शूद्र, केवट आदि की प्रधानता रहती है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: तृतीय अध्याय श्लोक 26-36 का हिन्दी अनुवाद)

सभी प्राणियों में तीन गुण होते हैं- सत्त्व, रज और तम। काल की प्रेरणा से समय-समय पर शरीर, प्राण और मन में उनका ह्रास और विकास भी हुआ करता है। जिस समय मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ सत्त्वगुण में स्थित होकर अपना-अपना काम करने लगती हैं, उस समय सत्ययुग समझना चाहिये। सत्त्वगुण की प्रधानता के समय मनुष्य ज्ञान और तपस्या से अधिक प्रेम करने लगता है। जिस समय मनुष्यों की प्रवृत्ति और रुचि धर्म, अर्थ और लौकिक-परलौकिक सुख-भोगों की ओर होती हैं तथा शरीर, मन एवं इन्द्रियाँ रजोगुण में स्थित होकर काम करने लगती हैं-बुद्धिमान परीक्षित! समझना चाहिये कि उस समय त्रेतायुग अपना काम कर रहा है। जिस समय लोभ, असन्तोष, अभिमान, दम्भ और मत्सर आदि दोषों का बोलबाला हो और मनुष्य बड़े उत्साह तथा रुचि के साथ सकाम कर्मों में लगना चाहे, उस समय द्वापर युग समझना चाहिये।

अवश्य ही रजोगुण और तमोगुण की मिश्रित प्रधानता का नाम ही द्वापर युग है। जिस समय झूठ-कपट, तन्द्रा-निद्रा, हिंसा-विषाद, शोक-मोह, भय और दीनता की प्रधानता हो, उसे तमोगुण-प्रधान कलियुग समझना चाहिये। जब कलियुग का राज्य होता है, तब लोगों की दृष्टि क्षुद्र हो जाती है; अधिकांश लोग होते तो हैं अत्यन्त निर्धन, परन्तु खाते हैं बहुत अधिक। उनका भाग्य तो होता है बहुत ही मन्द और चित्त में कामनाएँ होती हैं बहुत बड़ी-बड़ी। स्त्रियों में दुष्टता और कुलटापन की वृद्धि हो जाती है। सारे देश में, गाँव-गाँव में लुटेरों की प्रधानता एवं प्रचुरता हो जाती है। पाखण्डी लोग अपने नये-नये मत चलाकर मनमाने ढंग से वेदों का तात्पर्य निकालने लगते हैं और इस प्रकार उन्हें कलंकित करते हैं। राजा कहलाने वाले लोग प्रजा की सारी कमाई हड़पकर उन्हें चूसने लगते हैं। ब्राह्मण नामधारी जीव पेट भरने और जननेन्द्रिय को तृप्त करने में ही लग जाते हैं। ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य व्रत से रहित और अपवित्र रहते लगते हैं। गृहस्थ दूसरों को भिक्षा देने के बदले स्वयं भीख माँगने हैं, वानप्रस्थी गाँवों में बसने लगते हैं और संन्यासी धन के अत्यन्त लोभी-अर्थपिशाच हो जाते हैं। स्त्रियों का आकार तो छोटा हो जाता है, पर भूख बढ़ जाती है। उन्हें सन्तान बहुत अधिक होती है और वे अपने कुल-मर्यादा का उल्लंघन करके लाज-हया-जो उनका भूषण है-छोड़ बैठती हैं। वे सदा-सर्वदा कड़वी बात कहती रहती हैं और चोरी तथा कपट में बड़ी निपुण हो जाती हैं। उनमें साहस भी बहुत बढ़ जाता है।

व्यापारियों के हृदय अत्यन्त क्षुद्र हो जाते हैं। वे कौड़ी-कौड़ी से लिपटे रहते और छदाम-छदाम के लिये धोखाधड़ी करने लगते हैं। और तो क्या-आपत्ति काल न होने पर धनी होने पर भी वे निम्न श्रेणी के व्यापारों को, जिनकी सत्पुरुष निन्दा करते हैं, ठीक समझने और अपनाने लगते हैं। स्वामी चाहे सर्वश्रेष्ठ ही क्यों न हों-जब सेवक लोग देखते हैं कि इसके पास धन-दौलत नहीं रही, तब उसे छोड़कर भाग जाते हैं। सेवक चाहे कितना ही पुराना क्यों न हो-परन्तु जब वह किसी विपत्ति में पड़ जाता है, तब स्वामी उसे छोड़ देते हैं। और तो क्या, जब गौएँ बकेन हो जाती हैं-दूध देना बन्द कर देती हैं, तब लोग उनका भी परित्याग कर देते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: तृतीय अध्याय: श्लोक 37-45 का हिन्दी अनुवाद)

प्रिय परीक्षित! कलियुग के मनुष्य बड़े ही लम्पट हो जाते हैं, वे अपनी कामवासना को तृप्त करने के लिये ही किसी से प्रेम करते हैं। वे विषय वासना के वशीभूत होकर इतने दीन हो जाते हैं कि माता-पिता, भाई-बन्धु और मित्रों को भी छोड़कर केवल अपनी साली और सालों से ही सलाह लेने लगते हैं। शूद्र तपस्वियों का वेष बनाकर अपना पेट भरते और दान लेने लगते हैं। जिन्हें धर्म का रत्तीभर भी ज्ञान नहीं है, वे ऊँचें सिंहासन पर विराजमान होकर धर्म का उपदेश करने लगते हैं। प्रिय परीक्षित! कलियुग की प्रजा सूखा पड़ने के कारण अत्यन्त भयभीत और आतुर हो जाती है। एक तो दुर्भिक्ष और दूसरे शासकों की कर-वृद्धि! प्रजा के शरीर में केवल अस्थिपंजर और मन में केवल उद्वेग शेष रह जाता है। प्राण-रक्षा के लिये रोटी का टुकड़ा मिलना भी कठिन हो जाता है।

कलियुग में प्रजा शरीर ढकने के लिये वस्त्र और पेट की ज्वाला शान्त करने के लिये रोटी, पीने के लिये पानी और सोने के लिये दो हाथ जमीन से भी वंचित हो जाती है। उसे दाम्पत्य-जीवन, स्नान और आभूषण पहनने तक सुविधा नहीं रहती। लोगों की आकृति, प्रकृति और चेष्टाएँ पिशाचों की-सी हो जाती हैं। कलियुग में लोग, अधिक धन की तो बात ही क्या, कुछ कौड़ियों के लिये आपस में वैर-विरोध करने लगते और बहुत दिनों के सद्भाव तथा मित्रता को तिलांजलि दे देते हैं। इतना ही नहीं, वे दमड़ी-दमड़ी के लिये अपने सगे-सम्बन्धियों तक की हत्या कर बैठते और अपने प्रिय प्राणों से भी हाथ धो बैठते हैं। परीक्षित! कलियुग के क्षुद्र प्राणी केवल कामवासना की पूर्ति और पेट भरने की धुन में ही लगे रहते हैं। पुत्र अपने बूढ़े माँ-बाप की रक्षा-पालन-पोषण नहीं करते, उनकी उपेक्षा कर देते हैं और पिता अपने निपुण-से-निपुण, सब कामों में योग्य पुत्रों की भी परवा नहीं करते, उन्हें अलग कर देते हैं।

परीक्षित! श्रीभगवान ही चराचर जगत् के परम पिता और परम गुरु हैं। इन्द्र-ब्रह्मा आदि त्रिलोकाधिपति उनके चरणकमलों में अपना सिर झुकाकर सर्वस्व समर्पण करते रहते हैं। उनका ऐश्वर्य अनन्त है और वे एकरस अपने स्वरूप में स्थित हैं। परन्तु कलियुग में लोगों में इतनी मूढ़ता फैल जाती है, पाखण्डियों के कारण लोगों का चित्त इतना भटक जाता है कि प्रायः लोग अपने कर्म और भावनाओं के द्वारा भगवान की पूजा से भी विमुख हो जाते हैं। मनुष्य मरने के समय आतुरता की स्थिति में अथवा गिरते या फिसलते समय विवश होकर भी यदि भगवान के किसी एक नाम का उच्चारण कर ले, तो उसके सारे कर्मबन्धन छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और उसे उत्तम-से-उत्तम गति प्राप्त होती है। परन्तु हाय रे कलियुग! कलियुग से प्रभावित होकर लोग उन भगवान की आराधना से भी विमुख हो जाते हैं। परीक्षित! कलियुग के अनेकों दोष हैं। कल वस्तुएँ दूषित हो जाती हैं, स्थानों में भी दोष की प्रधानता हो जाती है। सब दोषों का मूल स्रोत तो अन्तःकरण है ही, परन्तु जब पुरुषोत्तम भगवान हृदय में आ विराजते हैं, तब उनकी सन्निधिमात्र से ही सब-के-सब दोष नष्ट हो जाते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: तृतीय अध्याय: श्लोक 46-52 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान के रूप, गुण, लीला, धाम और नाम के श्रवण, संकीर्तन, ध्यान, पूजन और आदर से वे मनुष्य के हृदय में आकर विराजमान हो जाते हैं और एक-दो जन्म के पापों की तो बात ही क्या, हजारों जन्मों के पाप के ढेर-के-ढेर भी क्षणभर में भस्म कर देते हैं। जैसे सोने के साथ संयुक्त होकर अग्नि उसके धातु सम्बन्धी मलिनता आदि दोषों को नष्ट कर देती है, वैसे ही साधकों के हृदय में स्थित होकर भगवान विष्णु उनके अशुभ सस्कारों को सदा के लिये मिटा देते हैं।

परीक्षित! विद्या, तपस्या, प्राणायाम, समस्त प्राणियों के प्रति मित्रभाव, तीर्थस्नान, व्रत, दान और जप आदि किसी भी साधन से मनुष्य के अन्तःकरण की वैसी वास्तविक शुद्धि नहीं होती, जैसी शुद्धि भगवान पुरुषोत्तम के हृदय में विराजमान हो जाने पर होती है।

परीक्षित! अब तुम्हारी मृत्यु का समय निकट आ गया है। अब सावधान हो जाओ। पूरी शक्ति से और अन्तःकरण की सारी वृत्तियों से भगवान श्रीकृष्ण को अपने हृदय सिंहासन पर बैठा लो। ऐसा करने से अवश्य ही तुम्हें परमगति कि प्राप्ति होगी। जो लोग मृत्यु के निकट पहुँच रहे हैं, उन्हें सब प्रकार से परम ऐश्वर्यशाली भगवान का ही ध्यान करना चाहिये। प्यारे परीक्षित! सब के परम आश्रय और सर्वात्मा भगवान अपना ध्यान करने वाले को अपने स्वरूप में लीन कर लेते हैं, उसे अपना स्वरूप बना लेते हैं।

परीक्षित! यों तो कलियुग दोषों का खजाना है, परन्तु इसमें एक बहुत बड़ा गुण है। वह गुण यही है कि कलियुग में केवल भगवान श्रीकृष्ण का संकीर्तन करने मात्र से ही सारी असक्तियाँ छूट जाती हैं और परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। सत्ययुग में भगवान का ध्यान करने से, त्रेता में बड़े-बड़े यज्ञों के द्वारा उनकी आराधना करने से और द्वापर में विधिपूर्वक उनकी पूजा-सेवा से जो फल मिलता है, वह कलियुग में केवल भगवन्नाम का कीर्तन करने से ही प्राप्त हो जाता है।

                          {द्वादश स्कन्ध:} 

                       【चतुर्थ अध्याय】४

"चार प्रकार के प्रलय"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! (तीसरे स्कन्ध में) परमाणु से लेकर द्विपरार्ध पर्यन्त काल का स्वरूप और एक-एक युग कितने-कितने वर्षों का होता है, यह मैं तुम्हें बतला चुका हूँ। अब तुम कल्प की स्थिति और उसके प्रलय का वर्णन भी सुनो।

राजन्! एक हजार चतुर्युगी का ब्रह्मा का एक दिन होता है। एक कल्प में चौदह मनु होते हैं। कल्प के अन्त में उतने ही समय तक प्रलय भी रहता है। प्रलय को ही ब्रह्मा की रात भी कहते हैं। उस समय ये तीनों लोक लीन हो जाते हैं, उनका प्रलय हो जाता है। इसका नाम नैमित्तिक प्रलय है। इस प्रलय के अवसर पर सारे विश्व को अपने अन्दर समेटकर-लीन कर ब्रह्मा और तत्पश्चात् शेषशायी भगवान नारायण भी शयन कर जाते हैं। इस प्रकार रात के बाद दिन और दिन के बाद रात होते-होते जब ब्रह्मा जी की अपने मान से सौ वर्ष की और मनुष्यों की दृष्टि में दो परार्द्ध की आयु समाप्त हो जाती है, तब महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्रा-ये सातों प्रकृतियाँ अपने कारण मूल प्रकृति में लीन हो जाती हैं। राजन्! इसी का नाम प्राकृतिक प्रलय है। इस प्रलय में प्रलय का कारण उपस्थित होने पर पंचभूतों के मिश्रण से बना हुआ ब्राह्मण अपना स्थूलरूप छोड़कर कारणरूप में स्थित हो जाता है, घुल-मिल जाता है।

परीक्षित! प्रलय का समय आने पर सौ वर्षों तक मेघ पृथ्वी पर वर्षा नहीं करते। किसी को अन्न नहीं मिलता। उस समय प्रजा भूख-प्यास से व्याकुल होकर एक-दूसरे को खाने लगती है। इस प्रकार काल के उपद्रव से पीड़ित होकर धीरे-धीरे सारी प्रजा क्षीण हो जाती है। प्रलयकालीन सांवर्तक सूर्य अपनी प्रचण्ड किरणों से समुद्र, प्राणियों के शरीर और पृथ्वी का सारा रस खींच-खींचकर सोख जाते हैं और फिर उन्हें सदा की भाँति पृथ्वी पर बरसाते नहीं। उस समय संकर्षण भगवान के मुख से प्रलयकालीन संवर्तक अग्नि प्रकट होती है। वायु के वेग से वह और भी बढ़ जाती है और तल-अतल आदि सातों नीचे के लोकों को भस्म कर देती है। वहाँ के प्राणी तो पहले ही मर चुके होते हैं, नीचे से आग की लपटें और ऊपर से सूर्य की प्रचण्ड गरमी! उस समय ऊपर-नीचे, चारों ओर यह ब्रह्माण्ड जलने लगता है और ऐसा जान पड़ता है, मानो गोबर का उपला जलकर अंगारे के रूप में दहक रहा हो।

इसके बाद प्रलयकालीन अत्यन्त प्रचण्ड सांवर्तन वायु सैकड़ों वर्षों तक चलती रहती है। उस समय का आकाश धुएँ और धूल से तो भरा ही रहता है, उसके बाद असंख्य रंग-बिरंगें बादल आकाश में मँडराने लगते हैं और बड़ी भयंकरता के साथ गरज-गरजकर सैकड़ों वर्षों तक वर्षा करते रहते हैं। उस समय ब्रह्माण्ड के भीतर सारा संसार एक समुद्र हो जाता है, सब कुछ जलमग्न हो जाता है। इस प्रकार जब जल-प्रलय हो जाता है, तब जल पृथ्वी के विशेष गुण गन्ध को ग्रस लेता है-अपने में लीन कर लेता है। गन्ध गुण के जल में लीन हो जाने पर पृथ्वी का प्रलय हो जाता है, वह जल में घुल-मिलकर जलरूप बन जाती है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद)

राजन्! इसके बाद जल के गुण रस को तेजस्तत्त्व ग्रस लेता है और जल नीरस होकर तेज में समा जाता है। तदनन्तर वायु तेज के गुणरूप को ग्रस लेता है और तेज रूपरहित होकर वायु में लीन हो जाता है। अब आकाश वायु के गुण स्पर्श को अपने में मिला लेता है और वायु स्पर्शहीन होकर आकाश में शान्त हो जाता है। इसके बाद तामस अहंकार आकाश के गुण शब्द को ग्रस लेता है और आकाश शब्दहीन होकर तामस अहंकार में लीन हो जाता है। इसी प्रकार तैजस अहंकार इन्द्रियों को और विकारिक (सात्त्विक) अहंकार इन्द्रियाधिष्ठातृ देवता और इन्द्रियवृत्तियों को अपने में लीन कर लेता है। तत्पश्चात् महत्तत्त्व अहंकार को और सत्त्व आदि गुण महत्तत्त्व को ग्रस लेते हैं।

परीक्षित! यह सब काल कि महिमा है। उसी की प्रेरणा से अव्यक्त प्रकृति गुणों को ग्रस लेती है और तब केवल प्रकृति-ही-प्रकृति शेष रह जाती है। वही चराचर जगत् का मूल कारण है। वह अव्यक्त, अनादि, अनन्त, नित्य और अविनाशी है। जब वह अपने कार्यों को लीन करके प्रलय के समय साम्यावस्था को प्राप्त हो जाती है, तब काल के अवयव वर्ष, मास, दिन-रात क्षण आदि के कारण उसमें परिणाम, क्षय, वृद्धि आदि किसी प्रकार के विकार नहीं होते। उस समय प्रकृति में स्थूल अथवा सूक्ष्मरूप से वाणी, मन, सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण, महत्तत्त्व आदि विकार, प्राण, बुद्धि, इन्द्रिय और उनके देवता आदि कुछ नहीं रहते। सृष्टि के समय रहने वाले लोकों की कल्पना और उनकी स्थिति भी नहीं रहती। उस समय स्वप्न, जाग्रत् और सुषुप्ति-ये तीन अवस्थाएँ नहीं रहतीं। आकाश, जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि और सूर्य भी नहीं रहते। सब कुछ सोये हुए के समान शून्य-सा रहता है। उस अवस्था का तर्क के द्वारा अनुमान करना भी असम्भव है। उस अव्यक्त को ही जगत् का मूलभूत तत्त्व कहते हैं। इसी अवस्था का नाम ‘प्राकृत प्रलय’ है। उस समय पुरुष और प्रकृति दोनों की शक्तियाँ कल के प्रभाव से क्षीण हो जाती हैं और विवश होकर अपने मूल-स्वरूप में लीन हो जाती हैं।

परीक्षित! (अब आत्यन्तिक प्रलय अर्थात् मोक्ष का स्वरूप बतलाया जाता है।) बुद्धि, इन्द्रिय और उनके विषयों के रूप में उनका अधिष्ठान, ज्ञानस्वरूप वस्तु ही भासित हो रही है। उन सबका तो आदि भी है और अन्त भी। इसलिये वे सब सत्य नहीं हैं। वे दृश्य हैं और अपने अधिष्ठान से भिन्न उनकी सत्ता भी नहीं है। इसलिये वे सर्वथा मिथ्या-मायामात्र है। जैसे दीपक, नेत्र और रूप-ये तीनों तेज से भिन्न नहीं हैं, वैसे ही बुद्धि इन्द्रिय और इनके विषय तन्मात्राएँ भी अपने अधिष्ठान स्वरूप ब्रह्म से भिन्न नहीं हैं यद्यपि वह इनसे सर्वथा भिन्न हैं; (जैसे रज्जुरूप अधिष्ठान में अध्यस्त सर्प अपने-अपने अधिष्ठान से पृथक् नहीं है, परन्तु अध्यस्त सर्प से अधिष्ठान का कोई सम्बन्ध नहीं है)। परीक्षित! जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति-ये तीनों अवस्थाएँ बुद्धि की ही हैं। अतः इनके कारण अन्तरात्मा में जो विश्व, तैजस और प्राज्ञरूप नानात्व की प्रतीति होती है, वह केवल मायामात्र है। बुद्धिगत नानात्व का एकमात्र सत्य आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 26-34 का हिन्दी अनुवाद)

यह विश्व उत्पत्ति और प्रलय से ग्रस्त है; इसलिये अनेक अवयवों का समूह अवयवी है। अतः यह कभी ब्रह्म में होता है और कभी नहीं होता, ठीक वैसे ही जैसे आकाश में मेघमाला कभी होती है और कभी नहीं होती। परीक्षित! जगत् के व्यवहार में जितने भी अवयवी पदार्थ होते हैं, उनके न होने पर भी उनके भिन्न-भिन्न अवयव सत्य माने जाते हैं। क्योंकि वे उनके कारण हैं। जैसे वस्त्ररूप अवयवी के न होने पर भी उसके कारणरूप सूत का अस्तित्व माना ही जाता है, उसी प्रकार कार्यरूप जगत् के अभाव में भी इस जगत् के कारणरूप अवयव की स्थिति हो सकती है। परन्तु ब्रह्म में यह कार्य-कारण भाव भी वास्तविक नहीं है। क्योंकि देखो, कारण तो सामान्य वस्तु है और कार्य विशेष वस्तु। इस प्रकार का जो भेद दिखायी देता है, वह केवल भ्रम ही है। इसका हेतु यह है कि सामान्य और विशेष भाव आपेक्षिक हैं, अन्योन्याश्रित हैं। विशेष के बिना सामान्य और सामान्य के बिना विशेष की स्थिति नहीं हो सकती। कार्य और कारण भाव का आदि और अन्त दोनों ही मिलते हैं, इसलिये भी वह स्वाप्निक भेद-भाव के समान सर्वथा अवस्तु है।

इसमें सन्देह नहीं कि यह प्रपंचरूप विकार स्वाप्निक विकार के समान ही प्रतीत हो रहा है, तो भी यह अपने अधिष्ठान ब्रह्मस्वरूप आत्मा से भिन्न नहीं है। कोई चाहे भी तो आत्मा से भिन्न रूप में अणुमात्र भी इसका निरूपण नहीं कर सकता। यदि आत्मा से पृथक् इसकी सत्ता मानी भी जाये तो यह भी चिद्रूप आत्मा के समान स्वयंप्रकाश होगा, और ऐसी स्थिति में वह आत्मा की भाँति ही एकरूप सिद्ध होगा। परन्तु इतना तो सर्वथा निश्चित है कि परमार्थ-सत्य वस्तु में नानात्व नहीं है। यदि कोई अज्ञानी परमार्थ-सत्य वस्तु में नानात्व स्वीकार करता है, तो उसका वह मानना वैसा ही है, जैसा महाप्रकाश और घटाकाश का, आकाशास्थित सूर्य और जल में प्रतिबिम्बित सूर्य का तथा बाह्य वायु और आन्तर वायु का भेद मानना। जैसे व्यवहार में मनुष्य एक ही सोने को अनेकों रूपों में गढ़-गलाकर तैयार कर लेते हैं और वह कंगन, कुण्डल, कड़ा आदि अनेकों रूपों में मिलता है; इसी प्रकार व्यवहार में निपुण विद्वान् लौकिक और वैदिक वाणी के द्वारा इन्द्रियातीत आत्मस्वरूप भगवान का भी अनेकों रूपों में वर्णन करते हैं।

देखो न, बादल सूर्य से उत्पन्न होता है और सूर्य से ही प्रकाशित। फिर भी वह सूर्य के ही अंश नेत्रों के लिये सूर्य का दर्शन होने में बाधक बन बैठता है। इसी प्रकार अहंकार भी ब्रह्म से ही उत्पन्न होता, ब्रह्म से ही प्रकाशित होता और ब्रह्म के अंश जीव के लिये ब्रह्मस्वरूप के साक्षात्कार में बाधक बन बैठता है। जब सूर्य से प्रकट होने वाला बादल तितर-बितर हो जाता है, तब नेत्र अपने स्वरूप सूर्य का दर्शन करने में समर्थ होते हैं। ठीक वैसे ही, जब जीव के हृदय में जिज्ञासा जगती है, तब आत्मा की उपाधि अहंकार नष्ट हो जाता है और उसे अपने स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है।

प्रिय परीक्षित! जब जीव विवेक के खड्ग से मायामय अहंकार का बन्धन काट देता है, तब यह अपने एकरस आत्मस्वरूप के साक्षात्कार में स्थित हो जाता है। आत्मा की यह मायामुक्ति वास्तविक स्थिति ही आत्यन्तिक प्रलय कही जाती है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 35-43 का हिन्दी अनुवाद)

हे शत्रुदमन! तत्त्वदर्शी लोग कहते हैं कि ब्रह्मा से लेकर तिनके तक जितने प्राणी या पदार्थ हैं, सभी हर समय पैदा होते और मरते रहते हैं। अर्थात् नित्यरूप से उत्पत्ति और प्रलय होता ही रहता है। संसार के परिणामी पदार्थ नदी-प्रवाह और दीप-सिखा आदि क्षण-क्षण बदलते रहते हैं। उसकी बदलती हुई अवस्थाओं को देखकर यह निश्चय होता है कि देह आदि भी कालरूप सोते के वेग में बहते-बदलते जा रहे हैं। इसलिये क्षण-क्षण में उनकी उत्पत्ति और प्रलय हो रहा है। जैसे आकाश में तारे हर समय चलते ही रहते हैं, परन्तु उनकी गति स्पष्ट रूप से नहीं दिखायी पड़ती, वैसे ही भगवान के स्वरूपभूत अनादि-अनन्त काल के कारण प्राणियों की प्रतिक्षण होने वाली उत्पत्ति और प्रलय का भी पता नहीं चलता।

परीक्षित! मैंने तुमसे चार प्रकार के प्रलय का वर्णन किया; उनके नाम हैं- नित्य प्रलय, नैमित्तिक प्रलय, प्राकृतिक प्रलय और आत्यन्तिक प्रलय। वास्तव में काल की सूक्ष्म गति ऐसी ही है।

हे कुरुश्रेष्ठ! विश्वविधाता भगवान नारायण ही समस्त प्राणियों और शक्तियों के आश्रय हैं। जो कुछ मैंने संक्षेप से कहा है, वह सब उन्हीं की लीला-कथा है। भगवान की लीलाओं का पूर्ण वर्णन तो स्वयं ब्रह्मा जी भी नहीं कर सकते। जो लोग अत्यन्त दुस्तर संसार-सागर से पार जाना चाहते हैं अथवा जो लोग अनेकों प्रकार के दुःख-दावानल से दग्ध हो रहे हैं, उनके लिये पुरुषोत्तम भगवान की लीला-कथारूप रस के सेवन के अतिरिक्त और कोई साधन, कोई नौका नहीं है। ये केवल लीला-रसायन का सेवन करके ही अपना मनोरथ सिद्ध कर सकते हैं। जो कुछ मैंने तुम्हें सुनाया है, यही श्रीमद्भागवत महापुराण है। इसे सनातन ऋषि नर-नारायण ने पहले देवर्षि नारद को सुनाया था और उन्होंने मेरे पिता महर्षि कृष्णद्वैपायन को। महाराज! उन्हीं बदरीवनविहारी भगवान श्रीकृष्णद्वैपायन ने प्रसन्न होकर मुझे इस वेदतुल्य श्रीभागवत सहिंता का उपदेश किया। कुरुश्रेष्ठ! आगे चलकर जब शौनकादि ऋषि नैमिषारण्य क्षेत्र में बहुत बड़ा सत्र करेंगे, तब उनके प्रश्न करने पर पौराणिक वक्ता श्रीसूत जी उन लोगों को इस सहिंता का श्रवण करायेंगे।

                          {द्वादश स्कन्ध:} 

                       【पंचम अध्याय】५

"श्रीशुकदेव जी का अन्तिम उपदेश"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- प्रिय परीक्षित! इस श्रीमद्भागवत महापुराण में बार-बार और सर्वत्र विश्वात्मा भगवान श्रीहरि का ही संकीर्तन हुआ है। ब्रह्मा और रुद्र भी श्रीहरि से पृथक् नहीं हैं, उन्हीं की प्रसाद-लीला और क्रोध-लीला की अभिव्यक्ति हैं। हे राजन्! अब तुम यह पशुओं की-सी अविवेकमूलक धारणा छोड़ दो कि मैं मरूँगा; जैसे शरीर पहले नहीं था और अब पैदा हुआ और फिर नष्ट हो जायेगा, वैसे ही तुम भी पहले नहीं थे, तुम्हारा जन्म हुआ, तुम मर जाओगे-यह बात नहीं है। जैसे बीज से अंकुर और अंकुर से बीज की उत्पत्ति होती है, वैसे ही एक देह से दूसरे देह की और दूसरे देह से तीसरे की उत्पत्ति होती है। किन्तु तुम न तो किसी से उत्पन्न हुए हो और न तो आगे पुत्र-पौत्रादिकों के शरीर के रूप में उत्पन्न होओगे। अजी, जैसे आग लकड़ी से सर्वथा अलग रहती है-लकड़ी की उत्पत्ति और विनाश से सर्वथा परे, वैसे ही तुम भी शरीर आदि से सर्वथा अलग हो।

स्वप्नावस्था में ऐसा मालूम होता है कि मेरा सिर कट गया है और मैं मर गया हूँ, मुझे लोग श्मशान में जला रहे हैं; परन्तु ये सब शरीर की ही अवस्थाएँ दीखती हैं, आत्मा की नहीं। देखने वाला तो उन अवस्थाओं से सर्वथा परे, जन्म और मृत्यु से रहित, शुद्ध-बुद्ध परमतत्त्वस्वरूप है। जैसे घड़ा फूट जाने पर आकाश पहले की ही भाँति अखण्ड रहता है, परन्तु घटाकाशता की निवृत्ति हो जाने से लोगों को ऐसा प्रतीत होता है कि वह महाकाश से मिल गया है-वास्तव में तो वह मिला हुआ था ही, वैसे ही देहपात हो जाने पर ऐसा मालूम पड़ता है मानो जीव ब्रह्म हो गया। वास्तव में तो वह ब्रह्म था ही, उसकी अब्रह्मता तो प्रतीति मात्र थी। मन ही आत्मा के लिये शरीर, विषय और कर्मों की कल्पना कर लेता है; और उस मन की सृष्टि करती है माया (अविद्या)। वास्तव में माया ही जीव के संसार-चक्र में पड़ने का कारण है।

जब तक तेल, तेल रखने का पात्र, बत्ती और आग का संयोग रहता है, तभी तक दीपक में दीपकपना है; वैसे ही उनके ही समान जब तक आत्मा का कर्म, मन, शरीर और इसमें रहने वाले चैतन्याध्यास के साथ सम्बन्ध रहता है, तभी तक उसे जन्म-मृत्यु के चक्र संसार में भटकना पड़ता है और रजोगुण, सत्त्वगुण तथा तमोगुण की वृत्तियों से उसे उत्पन्न, स्थित एवं विनष्ट होना पड़ता है। परन्तु जैसे दीपक के बुझ जाने से तत्त्वरूप तेज का विनाश नहीं होता, वैसे ही संसार का नाश होने पर भी स्वयंप्रकाश आत्मा का नाश नहीं होता। क्योंकि वह कार्य और कारण, व्यक्त और अव्यक्त सबसे परे है, वह आकाश के समान सबका आधार है, नित्य और निश्चल है, वह अनन्त है। सचमुच आत्मा की उपमा आत्मा ही है।

हे राजन्! तुम अपनी विशुद्ध एवं विवेकवती बुद्धि को परमात्मा के चिन्तन से भरपूर कर लो और स्वयं ही अपने अन्तर में स्थित परमात्मा का साक्षात्कार करो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: पंचम अध्याय: श्लोक 10-13 का हिन्दी अनुवाद)

देखो, तुम मृत्युओं की भी मृत्यु हो। तुम स्वयं ईश्वर हो। ब्राह्मण के शाप से प्रेरित तक्षक तुम्हें भस्म न कर सकेगा। अजी, तक्षक की तो बात ही क्या, स्वयं मृत्यु और मृत्युओं का समूह भी तुम्हारे पास तक न फटक सकेंगे। तुम इस प्रकार अनुसंधान-चिन्तन करो कि ‘मैं ही सर्वाधिष्ठान परब्रह्म हूँ। सर्वाधिष्ठान ब्रह्म मैं ही हूँ।’ इस प्रकार तुम अपने-आपको अपने वास्तविक एकरस अनन्त अखण्ड स्वरूप में स्थित कर लो। उस समय अपनी विषैली जीभ लपलपाता हुआ, अपने होठों के कोने चाटता हुआ तक्षक आये और अपने विषपूर्ण मुखों से तुम्हारे पैरों में डस ले-कोई परवा नहीं। तुम अपने आत्मस्वरूप में स्थित होकर इस शरीर को-और तो क्या, सारे विश्व को भी अपने से पृथक् न देखोगे।

आत्मस्वरूप बेटा परीक्षित! तुमने विश्वात्मा भगवान की लीला के सम्बन्ध में जो प्रश्न किया था, उसका उत्तर मैंने दे दिया, अब और क्या सुनना चाहते हो?

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