सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( एकादश स्कन्धः ) का छब्बीसवाँ, सत्ताईसवाँ, अट्ठाईसवाँ, उनतीसवाँ, तीसवाँ व इकत्तीसवाँ अध्याय [ Twenty-sixth, twenty-seventh,Twenty-eighth, twenty-ninth, thirtieth and thirty-one chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Eleventh wing) ]


                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【छब्बीसवाँ अध्याय】२६


"पुरूरवा की वैराग्योक्ति"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: षड्विंश अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- उद्धव जी! यह मनुष्य शरीर मेरे स्वरूप ज्ञान की प्राप्ति का-मेरी प्राप्ति का मुख्य साधन है। इसे पाकर जो मनुष्य सच्चे प्रेम से मेरी भक्ति करता है, वह अन्तःकरण में स्थित मुझ आनन्दस्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। जीवों की सभी योनियाँ, सभी गतियाँ त्रिगुणमयी हैं। जीव ज्ञाननिष्ठा के द्वारा उनसे सदा के लिये मुक्त हो जाता है। सत्त्व-रज आदि गुण जो दीख रहे हैं, वे वास्तविक नहीं हैं, मायामात्र हैं। ज्ञान हो जाने के बाद पुरुष उनके बीच में रहने पर भी, उनके द्वारा व्यवहार करने पर भी उनसे बँधता नहीं। इसका कारण यह है कि गुणों की वास्तविक सत्ता ही नहीं है। साधारण लोगों को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जो लोग विषयों के सेवन और उदर पोषण में ही लगे हुए हैं, उन असत् पुरुषों का संग कभी न करे; क्योंकि उनका अनुगमन करने वाले पुरुष की वैसी ही दुर्दशा होती है, जैसे अंधे के सहारे चलने वाले अंधे की। उसे तो घोर अन्धकार में ही भटकना पड़ता है।

उद्धव जी! पहले तो परम यशस्वी सम्राट् इलानन्दन पुरूरवा उर्वशी के विरह से अत्यन्त बेसुध हो गया था। पीछे शोक हट जाने पर उसे बड़ा वैराग्य हुआ और तब उसने यह गाथा गायी। राजा पुरुरवा नग्न होकर पागल की भाँति अपने को छोड़कर भागती हुई उर्वशी के पीछे अत्यन्त विह्वल होकर दौड़ने लगा और कहने लगा- 'देवि! निष्ठुर हृदये! थोड़ी देर ठहर जा, भाग मत’। उर्वशी ने उनका चित्त आकृष्ट कर लिया था। उन्हें तृप्ति नहीं हुई थी। वे क्षुद्र विषयों के सेवन में इतने डूब गये थे कि उन्हें वर्षों की रात्रियाँ न जाती मालूम पड़ीं और न तो आतीं।

पुरूरवा ने कहा ;- 'हाय-हाय! भला, मेरी मूढ़ता तो देखो, कामवासना ने मेरे चित्त को कितना कलुषित कर दिया! उर्वशी ने अपनी बाहुओं से मेरा ऐसा गला पकड़ा कि मैंने आयु के न जाने कितने वर्ष खो दिये। ओह! विस्मृति की भी एक सीमा होती है। हाय-हाय! इसने मुझे लुट लिया। सूर्य अस्त हो गया या उदित हुआ-यह भी मैं न जान सका। बड़े खेद की बात है कि बहुत-से वर्षों के दिन-पर-दिन बीतते गये और मुझे मालूम तक न पड़ा।

अहो! आश्चर्य है! मेरे मन में इतना मोह बढ़ गया, जिसने नरदेव-शिखामणि चक्रवर्ती सम्राट् मुझ पुरूरवा को भी स्त्रियों का क्रीड़ामृग (खिलौना) बना दिया। देखो, मैं प्रजा को मर्यादा में रखने वाला सम्राट् हूँ। वह मुझे और मेरे राजपाट को तिनके की तरह छोड़कर जाने लगी और मैं पागल नंग-धड़ंग रोता-बिलखता उस स्त्री के पीछे दौड़ पड़ा। हाय! हाय! यह भी कोई जीवन है। मैं गधे की तरह दुलत्तियाँ सहकर भी स्त्री के पीछे-पीछे दौड़ता रहा; फिर मुझ में प्रभाव, तेज और स्वामित्व भला कैसे रह सकता है। स्त्री ने जिसका मन चुरा लिया, उसकी विद्या व्यर्थ है। उसे तपस्या, त्याग और शास्त्राभ्यास से भी कोई लाभ नहीं और इसमें सन्देह नहीं कि उसका एकान्तसेवन और मौन भी निष्फल है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: षड्विंश अध्याय श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद)

मुझे अपनी ही हानि-लाभ का पता नहीं, फिर भी अपने को बहुत बड़ा पण्डित मानता हूँ। मुझ मूर्ख को धिक्कार है! हाय! हाय! मैं चक्रवर्ती सम्राट् होकर भी गधे और बैल की तरह स्त्री के फंदे में फँस गया। मैं वर्षों तक उर्वशी के होठों की मादक मदिरा पीता रहा, पर मेरी कामवासना तृप्त न हुई। सच है, कहीं आहुतियों से अग्नि की तृप्ति हुई है। उस कुलटा ने मेरा चित्त चुरा लिया। आत्माराम जिवन्मुक्तों के स्वामी इन्द्रियातीत भगवान को छोड़कर और ऐसा कौन है, जो मुझे उसके फंदे से निकाल सके। उर्वशी ने तो मुझे वैदिक सूक्त के वचनों द्वारा यथार्थ बात कहकर समझाया भी था; परन्तु मेरी बुद्धि ऐसी मारी गयी कि मेरे मन का वह भयंकर मोह तब भी मिटा नहीं। जब मेरी इन्द्रियाँ ही मेरे हाथ के बाहर हो गयीं, तब मैं समझता भी कैसे।

जो रस्सी के स्वरूप को न जानकर उसमें सर्प की कल्पना कर रहा है और दु:खी हो रहा है, रस्सी ने उसका क्या बिगाड़ा है? इसी प्रकार इस उर्वशी ने भी हमारा क्या बिगाड़ा? क्योंकि स्वयं मैं ही अजितेन्द्रिय होने के कारण अपराधी हूँ। कहाँ तो यह मैला-कुचैला, दुर्गन्ध से भरा अपवित्र शरीर और कहाँ सुकुमारता, पवित्रता, सुगन्ध आदि पुष्पोंचित गुण! परन्तु मैंने अज्ञानवश असुन्दर में सुन्दर का आरोप कर लिया। यह शरीर माता-पिता का सर्वस्व है अथवा पत्नी की सम्पत्ति? यह स्वामी की मोल ली हुई वस्तु है, आग का ईधन है अथवा कुत्ते और गीधों का भोजन? इसे अपना कहें अथवा सुहृद्-सम्बन्धियों का? बहुत सोचने-विचारने पर भी कोई निश्चय नहीं होता। यह शरीर मल-मूत्र से भरा हुआ अत्यन्त अपवित्र है। इसका अन्त यही है कि पक्षी खाकर विष्ठा कर दें, इसके सड़ जाने पर इसमें कीड़ें पड़ जायें अथवा जला देने पर यह राख का ढेर हो जाये। ऐसे शरीर पर लोग लट्टू हो जाते हैं और कहने लगते हैं- ‘अहो! इस स्त्री का मुखड़ा कितना सुन्दर है! नाक कितनी सुघड़ है और मन्द-मन्द मुस्कान कितनी मनोहर है।'

यह शरीर त्वचा, मांस, रुधिर, स्नायु, मेदा, मज्जा और हड्डियों का ढेर और मल-मूत्र तथा पीब से भरा हुआ है। यदि मनुष्य इसमें रमता है तो मल-मूत्र के कीड़ों और उसमें अन्तर ही क्या है। इसलिये अपनी भलाई समझने वाले विवेकी मनुष्य को चाहिये कि स्त्रियों और स्त्री-लम्पट पुरुषों का संग न करे। विषय और इन्द्रियों के संयोग से ही मन में विकार होता है; अन्यथा विकार का कोई अवसर ही नहीं है। जो वस्तु कभी देखी या सुनी नहीं गयी है, उसके लिये मन में विकार नहीं होता। जो लोग विषयों के साथ इन्द्रियों का संयोग नहीं होने देते, उनका मन अपने-आप निश्चल होकर शान्त हो जाता है। अतः वाणी, कान और मन आदि इन्द्रियों से स्त्रियों और स्त्रीलम्पटों का संग कभी नहीं करना चाहिये। मेरे-जैसे लोगों की तो बात ही क्या, बड़े-बड़े विद्वानों के लिये भी अपनी इन्द्रियाँ और मन विश्वसनीय नहीं हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: षड्विंश अध्याय श्लोक 25-35 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- उद्धव जी! राजराजेश्वर पुरूरवा के मन में जब इस तरह के उद्गार उठने लगे, तब उसने उर्वशीलोक का परित्याग कर दिया। अब ज्ञानोदय होने के कारण उसका मोह जाता रहा और उसने अपने हृदय में ही आत्मस्वरूप से मेरा साक्षात्कार कर लिया और वह शान्त भाव में स्थित हो गया। इसलिये बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि पुरूरवा की भाँति कुसंग छोड़कर सत्पुरुषों का संग करे। संत पुरुष अपने सदुपदेशों से उसके मन की आसक्ति नष्ट कर देंगे। संत पुरुषों का लक्षण यह है कि उन्हें कभी किसी वस्तु की अपेक्षा नहीं होती। उनका चित्त मुझ में लगा रहता है। उनके हृदय में शान्ति का अगाध समुद्र लहराता रहता है। वे सदा-सर्वदा सर्वत्र सब में सब रूप से स्थित भगवान का ही दर्शन करते हैं। उनमें अहंकार का लेश भी नहीं होता, फिर ममता की तो सम्भावना ही कहाँ है। वे सर्दी-गरमी, सुख-दुःख आदि द्वन्दों में एकरस रहते हैं तथा बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक और पदार्थ सम्बन्धी किसी प्रकार का भी परिग्रह नहीं रखते।

परमभाग्यवान् उद्धव जी! संतों के सौभाग्य की महिमा कौन कहे? उनके पास सदा-सर्वदा मेरी लीला-कथाएँ हुआ करती हैं। मेरी कथाएँ मनुष्यों के लिये परम हितकर हैं; जो उनका सेवन करते हैं, उसके सारे पाप-तापों को वे धो डालती हैं। जो लोग आदर और श्रद्धा से मेरी लीला-कथाओं का श्रवण, गान और अनुमोदन करते हैं, वे मेरे परायण हो जाते हैं और मेरी अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त कर लेते हैं। उद्धव जी! मैं अनन्त अचिन्त्य कल्याणमय गुण गणों का आश्रय हूँ। मेरा स्वरूप है-केवल आनन्द, केवल अनुभव, विशुद्ध आत्मा। मैं साक्षात् परब्रह्म हूँ। जिसे मेरी भक्ति मिल गयी, वह तो संत हो गया। अब उसे कुछ भी पाना शेष नहीं है। उनकी तो बात ही क्या-जिसने उन संत पुरुषों की शरण ग्रहण कर ली उसकी भी कर्मजड़ता, संसारभय और अज्ञान आदि सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं। भला, जिसने अग्निभगवान का आश्रय ले लिया उसे शीत, भय अथवा अन्धकार का दुःख हो सकता है?

जो इस घोर संसार सागर में डूब-उतरा रहे हैं, उसके लिये ब्रह्मवेत्ता और शान्त संत ही एकमात्र आश्रय है, जैसे जल में डूब रहे लोगों के लिये दृढ़ नौका। जैसे अन्न से प्राणियों के प्राण की रक्षा होती है, जैसे मैं ही दीन-दुखियों का परम रक्षक हूँ, जैसे मनुष्य के लिये परलोक में धर्म ही एकमात्र पूँजी है-वैसे ही जो लोग संसार से भयभीत हैं, उनके लिये संतजन ही परम आश्रय हैं। जैसे सूर्य आकाश में उदय होकर लोगों को जगत् तथा अपने को देखने के लिये नेत्रदान करता है, वैसे ही संत पुरुष अपने को तथा भगवान को देखने के लिये अन्तर्दृष्टि देते हैं। संत अनुग्रहशील देवता हैं। संत अपने हितैषी सुहृद हैं। संत अपने प्रियतम आत्मा हैं। और अधिक क्या कहूँ, स्वयं मैं ही संत के रूप में विद्यमान हूँ। प्रिय उद्धव! आत्मसाक्षात्कार होते ही इलानन्दन पुरूरवा को उर्वशी के लोक की स्पृहा न रही। उसकी सारी आसक्तियाँ मिट गयीं और वह आत्माराम होकर स्वच्छन्द रूप से इस पृथ्वी पर विचरण करने लगा।


                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【सत्ताईसवाँ अध्याय】२७


"क्रियायोग का वर्णन"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तविंश अध्याय श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

उद्धव जी ने पूछा ;- 'भक्तवत्सल श्रीकृष्ण! जिस क्रियायोग का आश्रय लेकर जो भक्तजन जिस प्रकार से जिस उद्देश्य से आपकी अर्चा-पूजा करते हैं, आप अपने उस आराधनारूप क्रियायोग का वर्णन कीजिये। देवर्षि नारद, भगवान व्यासदेव और आचार्य बृहस्पति आदि बड़े-बड़े ऋषि-मुनि यह बात बार-बार कहते हैं कि क्रियायोग के द्वारा आपकी आराधना ही मनुष्यों के परम कल्याण की साधना है। यह क्रियायोग पहले-पहल आपके मुखारविन्द से ही निकला था। आपसे ही ग्रहण करके इसे ब्रह्मा जी ने अपने पुत्र भृगु आदि महर्षियों को और भगवान शंकर ने अपनी अर्द्धांगिनी भगवती पार्वती जी को उपदेश किया था। मर्यादारक्षक प्रभो! यह क्रियायोग ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि वर्णों और ब्रह्मचारी-गृहस्थ आदि आश्रमों के लिये भी परम कल्याणकारी है। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि स्त्री-शूद्रादि के लिये भी यही सबसे श्रेष्ठ साधना-पद्धति है। कमलनयन श्यामसुन्दर! आप शंकर आदि जगदीश्वरों के भी ईश्वर हैं और मैं आपके चरणों का प्रेमी भक्त हूँ। आप कृपा करके मुझे यह कर्मबन्धन से मुक्त करने वाली विधि बतलाइये।'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- उद्धव जी! कर्मकाण्ड का इतना विस्तार है कि उसकी कोई सीमा नहीं है; इसलिये मैं उसे थोड़े में ही पूर्वा पर क्रम से विधिपूर्वक वर्णन करता हूँ। मेरी पूजा की तीन विधियाँ हैं- वैदिक, तान्त्रिक और मिश्रित। इन तीनों में से मेरे भक्त को जो भी अपने अनुकूल जान पड़े, उसी विधि से मेरी आराधना करनी चाहिये। पहले अपने अधिकारानुसार शास्त्रोक्त विधि से समय पर यज्ञोपवीत-संस्कार के द्वारा संस्कृत होकर द्विजत्व प्राप्त करे, फिर श्रद्धा और भक्ति के साथ वह किस प्रकार मेरी पूजा करे, इसकी विधि तुम मुझसे सुनो।

भक्तिपूर्वक निष्कपट भाव से अपने पिता एवं गुरुरूप मुझ परमात्मा का पूजा की सामग्रियों के द्वारा मूर्ति में, वेदी में, अग्नि में, सूर्य में, जल में, हृदय में अथवा ब्राह्मण में-चाहे किसी में भी आराधना करे। उपासक को चाहिये कि प्रातःकाल दातुन करके पहले शरीर शुद्धि के लिये स्नान करे और फिर वैदिक और तान्त्रिक दोनों प्रकार के मन्त्रों से मिट्टी और भस्म आदि का लेप करके पुनः स्नान करे। इसके पश्चात् देवोक्त सन्ध्या-वन्दनादि नित्यकर्म करने चाहिये। उसके बाद मेरी आराधना का ही सुदृश संकल्प करके वैदिक और तान्त्रिक विधि से कर्मबन्धनों से छुड़ाने वाली मेरी पूजा करे। मेरी मूर्ति आठ प्रकार की होती है- पत्थर की, लकड़ी की, धातु की, मिट्टी और चन्दन आदि की, चित्रमयी, बालुकामयी, मनोमयी और मणिमयी। चल और अचल भेद से दो प्रकार की प्रतिमा ही मुझ भगवान का मन्दिर है।

उद्धव जी! अचल प्रतिमा के पूजन में प्रतिदिन आवाहन और विसर्जन नहीं करना चाहिये। चल प्रतिमा के सम्बन्ध में विकल्प है। चाहे करे और चाहे न करे। परन्तु बालुकामयी प्रतिमा में तो आवाहन और विसर्जन प्रतिदिन करना ही चाहिये। मिट्टी और चन्दन की तथा चित्रमयी प्रतिमाओं को स्नान न करावे, केवल मार्जन कर दे; परन्तु और सबको स्नान कराना चाहिये। प्रसिद्ध-प्रसिद्ध पदार्थों से प्रतिमा आदि में मेरी पूजा की जाती है, परन्तु जो निष्काम भक्त हैं, वह अनायास प्राप्त पदार्थों से और भावना मात्र से ही हृदय में मेरी पूजा कर ले।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तविंश अध्याय श्लोक 16-24 का हिन्दी अनुवाद)

उद्धव जी! स्नान, वस्त्र, आभूषण आदि तो पाषाण अथवा धातु की प्रतिमा के पूजन में ही उपयोगी हैं। बालुकामयी मूर्ति अथवा मिट्टी की वेदी में पूजा करनी हो तो उसमें मन्त्रों के द्वारा अंग और उसके प्रधान देवताओं की यथास्थान पूजा करनी चाहिये तथा अग्नि में पूजा करनी हो तो घृतमिश्रित हवन-सामग्रियों से आहुति देनी चाहिये। सूर्य को प्रतीक मानकर की जाने वाली उपासना में मुख्यतः अर्घ्यदान एवं उपस्थान ही प्रिय है और जल में तर्पण आदि से मेरी उपासना करनी चाहिये। जब मुझे कोई भक्त हार्दिक श्रद्धा से जल भी चढ़ाता है, तब मैं उसे बड़े प्रेम से स्वीकार करता हूँ। यदि कोई अभक्त मुझे बहुत-सी सामग्री निवेदन करे तो भी मैं उससे सन्तुष्ट नहीं होता। जब मैं भक्ति-श्रद्धापूर्वक समर्पित जल से ही प्रसन्न हो जाता हूँ, तब गन्ध, पुष्प धूप, दीप और वैनेद्द आदि वस्तुओं के समर्पण से तो कहना ही क्या है।

उपासक पहले पूजा की सामग्री इकट्ठी कर ले। फिर इस प्रकार कुश बिछाये कि उनके अगले भाग पूर्व की ओर रहें। तदनन्तर पूर्व या उत्तर की ओर मुँह करके पवित्रता से उन कुशों के आसन पर बैठ जाये। यदि प्रतिमा अचल हो तो उसके सामने ही बैठना चाहिये। इसके बाद पूजा कार्य प्रारम्भ करे। पहले विधिपूर्वक अंगन्यास और करन्यास कर ले। इसके बाद मूर्ति में मन्त्रन्यास करे और हाथ से प्रतिमा पर से पूर्वसमर्पित सामग्री हटाकर उसे पोंछ दे। इसके बाद जल से भरे हुए कलश और प्रोक्षण पात्र आदि की पूजा गन्ध-पुष्प आदि से करे। प्रोक्षणपात्र के जल से पूजा सामग्री और अपने शरीर का प्रोक्षण कर ले। तदनन्तर पाद्य, अर्ध्य और आचमन के लिये तीन पात्रों में कलश में से जल भरकर रख ले और उसमें पूजा-पद्धति के अनुसार सामग्री डाले। (पाद्यपात्र में श्यामक-साँवे के दाने, दूब, कमल, विष्णुक्रान्ता और चन्दन, तुलसीदल आदि; अर्घ्यपात्र में गन्ध, पुष्प, अक्षत, जौ, कुश, तिल, सरसों और दूब तथा आचमन पात्र में जायफल, लौंग आदि डाले।) इसके बाद पूजा करने वाले को चाहिये कि तीनों पात्रों को क्रमशः हृदयमन्त्र, शिरोमन्त्र और शिखामन्त्र से अभिमन्त्रित करके अन्त में गायत्री मन्त्र से तीनों को अभिमन्त्रित करे।

इसके बाद प्राणायाम के द्वारा प्राण-वायु और भावनाओं द्वारा शरीरस्थ अग्नि के शुद्ध हो जाने पर हृदयकमल में परम सूक्ष्म और श्रेष्ठ दीपशिखा के समान मेरी जीव कला का ध्यान करे। बड़े-बड़े सिद्ध ऋषि-मुनि ॐकार के अकार, उकार, मकार, बिन्दु और नाद-इन पाँच कलाओं के अन्त में उसी जीवकला का ध्यान करते हैं। वह जीवकला आत्मस्वरूपिणी है। जब उसके तेज से सारा अन्तःकरण और शरीर भर जाये तब मानसिक उपचारों से मन-ही-मन उसकी पूजा करनी चाहिये। तदनन्तर तन्मय होकर मेरा आवाहन करे और प्रतिमा आदि में स्थापना करे। फिर मन्त्रों के द्वारा अंगन्यास करके उसमें मेरी पूजा करे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तविंश अध्याय श्लोक 25-39 का हिन्दी अनुवाद)

उद्धव जी! मेरे आसन में धर्म आदि गुणों और विमला आदि शक्तियों की भावना करे। अर्थात् आसन के चारों कोनों में धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यरूप चार पाये हैं; अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्य-ये चार चारों दिशाओं में डंडे हैं; सत्त्व-रज-तम-रूप तीन पटरानियों की बनी हुई पीठ है; उस पर विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योग, प्रह्वी, सत्या, ईशाना और अनुग्रहा-ये नौ शक्तियाँ विराजमान हैं। उस आसन पर एक अष्टदल कमल है, उसकी कर्णिका अत्यन्त प्रकाशमान है और पीली-पीली केसरों की छटा निराली ही है। आसन के सम्बन्ध में ऐसी भावना करके पाद्य, आचमनीय और अर्ध्य आदि उपचार प्रस्तुत करे। तदनन्तर भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिये वैदिक और तान्त्रिक विधि से मेरी पूजा करे।

सुदर्शन चक्र, पाञ्च्जन्य शंख, कौमोदकी गदा, खड्ग, बाण, धनुष, हल, मूसल-इन आठ आयुधों की पुजा आठ दिशाओं में करे और कौस्तुभ मणि, वैजयन्ती माला तथा श्रीवत्स चिह्न की वक्षःस्थल पर यथास्थान पूजा करे। नन्द, सुनन्द, प्रचण्ड, चण्ड, महाबल, बल, कुमुद और कुमुदेक्षण-इन आठ पार्षदों की आठ दिशाओं में; गरुड़ की सामने; दुर्गा, विनायक, व्यास और विश्वक्सेन की चारों कोनों में स्थापना करके पूजन करे। बायीं ओर गुरु की और यथाक्रम पुर्वादि दिशाओं में इन्द्रादि आठ लोकपालों की स्थापना करके प्रोक्षण, अर्घ्यदान आदि क्रम से उनकी पूजा करनी चाहिये।

प्रिय उद्धव! यदि सामर्थ्य हो तो प्रतिदिन चन्दन, खस, कपूर, केसर और अरगजा आदि सुगन्धित वस्तुओं द्वारा सुवासित जल से मुझे स्नान कराये और उस समय ‘सुवर्ण घर्म’ इत्यादि स्वर्णघर्मानुवाक, ‘जितं ते पुण्डरीकाक्ष’ इत्यादि महापुरुषविद्या, ‘सहस्रशीर्षा पुरुषः’ इत्यादि पुरुष सूक्त और ‘इन्द्रं नरो नेमधिता हवन्त’ इत्यादि मन्त्रोक्त राजनादि साम-गायन का पाठ भी करता रहे। मेरा भक्त वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, पत्र, माला, गन्ध और चन्दनादि से प्रेमपूर्वक यथावात् मेरा श्रृंगार करे। उपासक श्रद्धा के साथ मुझे पाद्य, आचमन, चन्दन, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप आदि सामग्रियाँ समर्पित करे। यदि हो सके तो गुड़, खीर, घृत, पुड़ी, हुए, लड्डू, हलुआ, दही और डाल आदि विविध व्यंजनों का नैवेद्य लगावे। भगवान के विग्रह को दतुअन कराये, उबटन लगाये, पंचामृत आदि से स्नान कराये, सुगन्धित पदार्थों का लेप करे, दर्पण दिखाये, भोग लगाये और शक्ति हो तो प्रतिदिन अथवा पर्वों के अवसर पर नाचने-गाने आदि का भी प्रबन्ध करे।

उद्धव जी! तदनन्तर पूजा के बाद शास्त्रोक्त विधि से बने हुए कुण्ड में अग्नि की स्थापना करे। वह कुण्ड मेखला, गर्त और वेदी से शोभायमान हो। उसमें हाथ की हवा से अग्नि प्रज्वलित करके उसका परिसमूहन करे, अर्थात् उसे एकत्र कर दे। वेदी के चारों ओर कुशकण्डिका करके अर्थात् चारों ओर बीस-बीस कुश बिछाकर मन्त्र पढ़ता हुआ उन पर जल छिड़के। इसके बाद विधिपूर्वक समिधाओं का आधानरूप अन्त्राधान कर्म करके अग्नि के उत्तर भाग में होमोपयोगी सामग्री रखे और प्रोक्षणी पात्र के जल से प्रोक्षण करे। तदनन्तर अग्नि में मेरा इस प्रकार ध्यान करे। ‘मेरी मूर्ति तपाये हुए सोने के समान दम-दम दमक रही है। रोम-रोम से शान्ति की वर्षा हो रही है। लंबी और विशाल चार भुजाएँ शोभायमान हैं। उनमें शंख, चक्र, गदा, पद्म विराजमान हैं। कमल की केसर के समान पीला-पीला वस्त्र फहरा रहा है। सिर पर मुकुट, कलाइयों में कंगन, कमर में करधनी और बाँहों में बाजूबंद झिलमिला रहे हैं। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न है। गले में कौस्तुभ मणि जगमगा रही है। घुटनों तक वनमाला लटक रही है’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तविंश अध्याय श्लोक 40-47 का हिन्दी अनुवाद)

अग्नि में मेरी इस मूर्ति का ध्यान करके पूजा करनी चाहिये। इसके बाद सूखी समिधाओं को घृत में डुबोकर आहुति दे और आज्यभाग और आघार नामक दो-दो आहुतियों से और भी हवन करे। तदनन्तर घी से भिगोकर अन्य हवन-सामग्रियों से आहुति दे। इसके बाद अपने इष्टमन्त्र से अथवा ’ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर मन्त्र से तथा पुरुष सूक्त के सोलह मन्त्रों से हवन करे। बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि धर्मादि देवताओं के लिये भी विधिपूर्वक मन्त्रों से हवन करे और स्विष्टकृत् आहुति भी दे।

इस प्रकार अग्नि में अन्तर्यामी रूप से स्थित भगवान की पूजा करके उन्हें नमस्कार करे और नन्द-सुनन्द आदि पार्षदों को आठों दिशाओं में हवन कर्मांग बलि दे। तदनन्तर प्रतिमा के सम्मुख बैठकर परब्रह्म स्वरूप भगवान नारायण का स्मरण करे और भगवत्स्वरूप मूलमन्त्र ‘ॐ नमो नारायणाय’ का जप करे। इसके बाद भगवान को आचमन कराये और उनका प्रसाद विष्वक्सेन को निवेदन करे। इसके पश्चात् अपने इष्टदेव की सेवा में सुगन्धित ताम्बूल आदि मुखवास उपस्थित करे तथा पुष्पान्जलि समर्पित करे। मेरी लीलाओं को गावे, उनका वर्णन करे और मेरी ही लीलाओं का अभिनय करे। यह सब करते समय प्रेमोन्मत्त होकर नाचने लगे। मेरी लीला-कथाएँ स्वयं सुने और दूसरों को सुनावे। कुछ समय तक संसार और उसके रगड़ों-झग ड़ों को भूलकर मुझमें ही तन्मय हो जाये।

प्राचीन ऋषियों के द्वारा अथवा प्राकृत भक्तों के द्वारा बनाये हुए छोटे-बड़े स्तव और स्त्रोतों से मेरी स्तुति करके प्रार्थना करे- ‘भगवन्! आप मुझ पर प्रसन्न हों। मुझे अपने कृपा प्रसाद से सराबोर कर दें।’ तदनन्तर दण्डवत् प्रणाम करे। अपना सिर मेरे चरणों पर रख दे और अपने दोनों हाथों से-दायें से दाहिना और बायें से बायाँ चरण पकड़कर कहे- ‘भगवन्! इस संसार-सागर में मैं डूब रहा हूँ। मृत्युरूप मगर मेरा पीछा कर रहा है। मैं डरकर आपकी शरण में आया हूँ। प्रभो! आप मेरी रक्षा कीजिये’। इस प्रकार स्तुति करके मुझे समर्पित की हुई माला आदर के साथ अपने सिर पर रखे और उसे मेरा दिया हुआ प्रसाद समझे। यदि विसर्जन करना हो तो ऐसी भावना करनी चाहिये कि प्रतिमा में से एक दिव्य ज्योति निकली है और वह मेरी हृदयस्थ ज्योति में लीन हो गयी है। बस, यही विसर्जन है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तविंश अध्याय श्लोक 48-55 का हिन्दी अनुवाद)

उद्धव जी! जो मनुष्य इस प्रकार वैदिक, तान्त्रिक क्रियायोग के द्वारा मेरी पूजा करता है, वह इस लोक और परलोक में मुझसे अभीष्ट सिद्धि प्राप्त करता है। यदि शक्ति हो तो उपासक सुन्दर और सुदृढ़ मन्दिर बनवाये और उसमें मेरी प्रतिमा स्थापित करे। सुन्दर-सुन्दर फूलों के बगीचे लगवा दे; नित्य की पूजा, पर्व की यात्रा और बड़े-बड़े उत्सवों की व्यवस्था कर दे। जो मनुष्य पर्वों के उत्सव और प्रतिदिन की पूजा लगातार चलने के लिये खेत, बाजार, नगर अथवा गाँव मेरे नाम पर समर्पित कर देते हैं, उन्हें मेरे समान ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।

मेरी मूर्ति की प्रतिष्ठा करने से पृथ्वी का एकच्छत्र राज्य, मन्दिर-निर्माण से त्रिलोकी का राज्य, पूजा आदि की व्यवस्था करने से ब्रह्मलोक और तीनों के द्वारा मेरी समानता प्राप्त होती है। जो निष्काम भाव से मेरी पूजा करता है, उसे मेरा भक्तियोग प्राप्त हो जाता है और उस निरपेक्ष भक्तियोग के द्वारा वह स्वयं मुझे प्राप्त कर लेता है।

जो अपनी दी हुई या दूसरों की दी हुई देवता और ब्राह्मण की जीविका हरण कर लेता है, वह करोड़ों वर्षों तक विष्ठा का कीड़ा होता है। जो लोग ऐसे कामों में सहायता, प्रेरणा अथवा अनुमोदन करते हैं, वे भी मरने के बाद प्राप्त करने वाले के समान ही फल के भागीदार होते हैं। यदि उनका हाथ अधिक रहा तो फल भी उन्हें अधिक ही मिलता है।


                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【अट्ठाईसवाँ अध्याय】२८


"परमार्थनिरूपण"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: अष्टाविंश अध्याय श्लोक 1-7 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- उद्धव जी! यद्यपि व्यवहार में पुरुष और प्रकृति-दृष्टा और दृश्य के भेद से दो प्रकार का जगत् जान पड़ता है, तथापि परमार्थ-दृष्टि से देखने पर यह सब एक अधिष्ठान-स्वरूप ही है; इसलिये किसी के शान्त, घोर और मूढ़ स्वभाव तथा उनके अनुसार कर्मों की न स्तुति करनी चाहिये और न निन्दा। सर्वदा अद्वैत-दृष्टि रखनी चाहिये। जो पुरुष दूसरों के स्वभाव और उनके कर्मों की प्रशंसा अथवा निन्दा करते हैं, वे शीघ्र ही अपने यथार्थ परमार्थ-साधन से च्युत हो जाते हैं; क्योंकि साधन तो द्वैत के अभिनिवेश का-उसके प्रति सत्यत्व-बुद्धि का निषेध करता है और प्रशंसा तथा निन्दा उसकी सत्यता के भ्रम को और भी दृढ़ करती हैं। उद्धव जी! सभी इन्द्रियाँ राजस अहंकार के कार्य हैं। जब वे निद्रित हो जाती हैं, तब शरीर का अभिमानी जीव चेतना शून्य हो जाता है; अर्थात् उसे बाहरी शरीर की स्मृति नहीं रहती। उस समय यदि मन बच रहा, तब तो वह सपने के झूठे दृश्यों में भटकने लगता है और वह भी लीन हो गया, तब तो जीव मृत्यु के समान गाढ़ निद्रा-सुषुप्ति में लीन हो जाता है। वैसे ही सब जीव अपने अद्वितीय आत्मस्वरूप को भूलकर नाना वस्तुओं का दर्शन करने लगता है, तब वह स्वप्न के समान झूठे दृश्यों में फँस जाता है; अथवा मृत्यु के समान अज्ञान में लीन हो जाता है।

उद्धव जी! जब द्वैत नाम की कोई वस्तु ही नहीं है, तब उसमें अमुक वस्तु भली है और अमुक बुरी, अथवा इतनी भली और इतनी बुरी है-यह प्रश्न ही नहीं उठ सकता। विश्व की सभी वस्तुएँ वाणी से कही जा सकती हैं अथवा मन से सोची जा सकती हैं; इसलिये दृश्य एवं अनित्य होने के कारण उनका मिथ्यात्व तो स्पष्ट ही है। परछाईं, प्रतिध्वनि और सीपी आदि में चाँदी आदि के आभास यद्यपि हैं तो सर्वथा मिथ्या, परन्तु उनके द्वारा मनुष्य के हृदय में भय-कम्प आदि का संचार हो जाता है। वैसे ही देहादि सभी वस्तुएँ हैं तो सर्वथा मिथ्या ही, परन्तु जब तक ज्ञान के द्वारा इनकी असत्यता का बोध नहीं हो जाता, इनकी आत्यन्तिक निवृत्ति नहीं हो जाती, तब तक ये भी अज्ञानियों को भयभीत करती रहती हैं। उद्धव जी! जो कुछ प्रत्यक्ष या परोक्ष वस्तु है, वह आत्मा ही है। वही सर्वशक्तिमान् भी है।

जो कुछ विश्व-सृष्टि प्रतीत हो रही है, इसका वह निमित्त-कारण तो है ही, उपादान-कारण भी है, वही रक्षक है और रक्षित भी वही है। सर्वात्मा भगवान ही इसका संहार करते हैं और जिसका संहार होता है, वह भी वे ही हैं। अवश्य ही व्यवहार दृष्टि से देखने पर आत्मा इस विश्व से भिन्न है; परन्तु आत्मदृष्टि से उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु ही नहीं है। उसके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा है, उसका किसी भी प्रकार निर्वचन नहीं किया जा सकता और अनिर्वचनीय तो केवल आत्मस्वरूप ही है; इसलिये आत्मा में सृष्टि-स्थिति संहार अथवा अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत-ये तीन-तीन प्रकार की प्रतीतियाँ सर्वथा निर्मूल ही हैं। न होने पर भी यों ही प्रतीत हो रही हैं। यह सत्त्व, रज और तम के कारण प्रतीत होने वाली दृष्टा-दर्शन-दृश्य आदि की त्रिविधता माया का खेल है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: अष्टाविंश अध्याय श्लोक 8-17 का हिन्दी अनुवाद)

उद्धव जी! तुमसे मैंने ज्ञान और विज्ञान की उत्तम स्थिति का वर्णन किया है। जो पुरुष मेरे इन वचनों का रहस्य जान लेता है, वह न तो किसी की प्रशंसा करता है और न निन्दा। वह जगत् में सूर्य के समान समभाव से विचरता रहता है। प्रत्यक्ष, अनुमान, शास्त्र और आत्मानुभूति आदि सभी प्रमाणों से यह सिद्ध है कि यह जगत् उत्पत्ति-विनाशशील होने के कारण अनित्य एवं असत्य है। यह बात जानकर जगत् में असंग भाव से विचरना चाहिये।

उद्धव जी! ने पूछा ;- 'भगवन्! आत्मा है दृष्टा और देह है दृश्य। आत्मा स्वयं प्रकाश है और देह है जड़। ऐसी स्थिति में जन्म-मृत्युरूप संसार न शरीर को हो सकता है और न आत्मा को। परन्तु इसका होना भी उपलब्ध होता है। तब यह होता किसे है? आत्मा तो अविनाशी, प्राकृत-अप्राकृत गुणों से रहित, शुद्ध, स्वयं प्रकाश और सभी प्रकार के आवरणों से रहित है; तथा विनाशी, सगुण, अशुद्ध, प्रकाश्य और आवृत है। आत्मा अग्नि के समान प्रकाशमान है तो शरीर काठ की तरह अचेतन। फिर यह जन्म-मृत्युरूप संसार है किसे?'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- वस्तुतः प्रिय उद्धव! संसार का अस्तित्व नहीं है तथापि जब तक देह, इन्द्रिय और प्राणों के साथ आत्मा कि सम्बन्ध-भ्रान्ति है, तब तक अविवेकी पुरुष को वह सत्य-सा स्फुरित होता है। जैसे स्वप्न में अनेकों विपत्तियाँ आती हैं, पर वास्तव में वे हैं नहीं, फिर भी स्वप्न टूटने तक उनका अस्तित्व नहीं मिटता, वैसे ही संसार के न होने पर भी जो उसमें प्रतीत होने वाले विषयों का चिन्तन करते रहते हैं, उनके जन्म-मृत्युरूप संसार की निवृत्ति नहीं होती। जब मनुष्य स्वप्न देखता रहता है, तब नींद टूटने के पहले उसे बड़ी-बड़ी विपत्तियों का सामना करना पड़ता है; परन्तु जब उसकी नन्द टूट जाती है, वह जग पड़ता है, तब न तो स्वप्न की विपत्तियाँ रहती हैं और न उनके कारण होने वाले मोह आदि विकार। उद्धव जी! अहंकार ही शोक, हर्ष, भय, क्रोध, लोभ, मोह, स्पृहा और जन्म-मृत्यु का शिकार बनता है। आत्मा से तो इनका कोई सम्बन्ध ही नहीं है।

उद्धव जी! देह, इन्द्रिय, प्राण, और मन में स्थित आत्मा ही जब उनका अभिमान कर बैठता है-उन्हें अपना स्वरूप मान लेता है-तब उसका नाम ‘जीव’ हो जाता है। उस सूक्ष्मातिसूक्ष्म आत्मा की मूर्ति है-गुण और कर्मों का बना हुआ लिंग शरीर। उसे ही कहीं सूत्रात्मा कहा जाता है और कहीं महत्तत्त्व। उसके और भी बहुत-से नाम हैं। वही कालरूप परमेश्वर के अधीन होकर जन्म-मृत्युरूप संसार में इधर-उधर भटकता रहता है। वास्तव में मन, वाणी, प्राण और शरीर अहंकार के ही कार्य हैं। यह है तो निर्मूल, परन्तु देवता, मनुष्य आदि अनेक रूपों में इसी की प्रतीति होती है। मननशील पुरुष उपासना की शान पर चढ़ाकर ज्ञान की तलवार को अत्यन्त तीखी बना लेता है और उसके द्वारा देहाभिमान का-अहंकार का मूलोच्छेद करके पृथ्वी में दिर्द्वंद होकर विचरता है। फिर उसमें किसी प्रकार की आशा-तृष्णा नहीं रहती।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: अष्टाविंश अध्याय श्लोक 18-25 का हिन्दी अनुवाद)

आत्मा और अनात्मा के स्वरूप को पृथक्-पृथक् भलीभाँति समझ लेना ही ज्ञान है, क्योंकि विवेक होते ही द्वैत का अस्तित्व मिट जाता है। उसका साधन है तपस्या के द्वारा हृदय को शुद्ध करके वेदादि शास्त्रों का श्रवण करना। इनके अतिरिक्त श्रवणानुकुल युक्तियाँ, महापुरुषों के उपदेश और इन दोनों से अविरुद्ध स्वानुभूति भी प्रमाण हैं। सबका सार यही निकलता है कि इस संसार के आदि में जो था तथा अन्त में जो रहेगा, जो इसका मूल कारण और प्रकाशक है, वही अद्वितीय, उपाधिशून्य परमात्मा बीच में भी है। उसके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है।

उद्धव जी! सोने के कंगन, कुण्डल आदि बहुत-से आभूषण बनते हैं; परन्तु जब वे गहने नहीं बने थे, तब भी सोना था और जब नहीं रहेंगे, तब भी सोना रहेगा। इसलिये जब बीच में उसके कंगन-कुण्डल आदि अनेकों नाम रखकर व्यवहार करते हैं, तब भी वह सोना ही है। ठीक ऐसे ही जगत् का आदि, अन्त और मध्य मैं ही हूँ। वास्तव में मैं ही सत्य तत्त्व हूँ। भाई उद्धव! मन की तीन अवस्थाएँ होती हैं-जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति; इन अवस्थाओं के कारण तीन ही गुण हैं सत्त्व, रज और तम, और जगत् के तीन भेद हैं-अध्यात्म (इन्द्रियाँ), अधिभूत (पृथिव्यादि) और अधिदैव (कर्ता)। ये सभी त्रिविधताएँ जिसकी सत्ता से सत्य के समान प्रतीत होती हैं और समाधि आदि में यह त्रिविधता न रहने पर भी जिसकी सत्ता बनी रहती हैं, वह तुरीयतत्त्व-इन तीनों से परे और इनमें अनुगत चौथा ब्रह्मतत्त्व ही सत्य है। जो उत्पत्ति से पहले नहीं था और प्रलय के पश्चात् भी नहीं रहेगा, ऐसा समझना चाहिये कि बीच में भी वह है नहीं-केवल कल्पना मात्र, नाम मात्र ही है। यह निश्चित सत्य है कि जो पदार्थ जिससे बनता है और जिसके द्वारा प्रकाशित होता है, वही उसका वास्तविक स्वरूप है, वही उसकी परमार्थ-सत्ता है-यह मेरा दृढ़ निश्चय है। यह जो विकारमयी राजस सृष्टि है, यह न होने पर भी दीख रही है। यह स्वयं प्रकाश ब्रह्म ही है। इसलिये इन्द्रिय, विषय, मन और पंचभूतादि जितने चित्र-विचित्र नाम रूप हैं उनके रूप में ब्रह्म ही प्रतीत हो रहा है।

ब्रह्मविचार के साधन हैं-श्रवण, मनन, निदिध्यासन और स्वानुभूति। उसमें सहायक हैं-आत्मज्ञानी गुरुदेव! इनके द्वारा विचार करके स्पष्ट रूप से देहादि अनात्म पदार्थों का निषेध कर देना चाहिये। इस प्रकार निषेध के द्वारा आत्मविषयक सन्देहों को छिन्न-भिन्न करके अपने आनन्दस्वरूप आत्मा में ही मग्न हो जाये और सब प्रकार की विषयवासनाओं से रहित हो जाये। निषेध करने की प्रक्रिया यह है कि पृथ्वी का विकार होने के कारण शरीर आत्मा नहीं है। इन्द्रिय, उनके अधिष्ठातृ-देवता प्राण वायु, जल अग्नि एवं मन भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि इनका धारण-पोषण शरीर के समान ही अन्न के द्वारा होता है। बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकश, पृथ्वी, शब्दादि विषय और गुणों की साम्यावस्था प्रकृति भी आत्मा नहीं हैं; क्योंकि ये सब-के-सब दृश्य एवं जड़ हैं।

उद्धव जी! जिसे मेरे स्वरूप का भलीभाँति ज्ञान हो गया है, उसकी वृत्तियाँ और इन्द्रियाँ यदि समाहित रहती हैं तो उसे उनसे लाभ क्या है? और यदि वे विक्षिप्त रहती हैं तो उनसे हानि भी क्या है? क्योंकि अन्तःकरण और बाह्यकरण-सभी गुणमय हैं और आत्मा से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। भला, आकाश में बादलों के छा जाने अथवा तितर-बितर हो जाने से सूर्य का क्या बनता-बिगड़ता है?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: अष्टाविंश अध्याय श्लोक 26-33 का हिन्दी अनुवाद)

जैसे वायु आकाश को सुखा नहीं सकती, आग जला नहीं सकती, जल भिगो नहीं सकता, धूल-धुएँ मटमैला नहीं कर सकते और ऋतुओं के गुण गरमी-सर्दी आदि उसे प्रभावित नहीं कर सकते-क्योंकि ये सब आने-जाने वाले क्षणिक भाव हैं और आकाश इन सबका एकरस अधिष्ठान है-वैसे ही सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की वृत्तियाँ तथा कर्म अविनाशी आत्मा का स्पर्श नहीं कर पाते; वह तो इनसे सर्वथा परे है। इनके द्वारा तो केवल वही संसार में भटकता है जो इनमें अहंकार कर बैठता है। उद्धव जी! ऐसा होने पर भी तब तक इन मायानिर्मित गुणों और उनके कार्यों का संग सर्वथा त्याग देना चाहिये, जब तक मेरे सुदृढ़ भक्तियोग के द्वारा मन का रजोगुणरूप मल एकदम निकल न जाये।

उद्धव जी! जैसे भलीभाँति चिकित्सा न करने पर रोग का समूल नाश नहीं होता, वह बार-बार उभरकर मनुष्य को सताया करता है; वैसे ही जिस मन की वासनाएँ और कर्मों के संस्कार मिट नहीं गये हैं, जो स्त्री-पुत्र आदि में आसक्त है, वह बार-बार अधूरे योगी को बेधता रहता है और उसे कई बार योगभ्रष्ट भी कर देता है। देवताओं के द्वारा प्रेरित शिष्य-पुत्र आदि के द्वारा किये हुए विघ्नों से यदि कदाचित् अधूरा योगी मार्गच्युत हो जाये तो भी वह अपने पूर्वाभ्यास के कारण पुनः योगाभ्यास में ही लग जाता है। कर्म आदि में उसकी प्रवृत्ति नहीं होती। उद्धव जी! जीव संस्कार आदि से प्रेरित होकर जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त कर्म में ही लगा रहता है और उनमें इष्ट-अनिष्ट-बुद्धि करके हर्ष-विषाद आदि विकारों को प्राप्त होता रहता है। परन्तु जो तत्त्व का साक्षात्कार कर लेता है, वह प्रकृति में स्थित रहने पर भी संस्कारानुसार कर्म होते रहने पर भी उनमें इष्ट-अनिष्ट-बुद्धि करके हर्ष-विषाद आदि विकारों से युक्त नहीं होता; क्योंकि आनन्दस्वरूप आत्मा के साक्षात्कार से उसकी संसार सम्बन्धी सभी आशा-तृष्णाएँ पहले से ही नष्ट हो चुकी होती हैं। जो अपने स्वरूप में स्थित हो गया है, उसे इस बात का भी पता नहीं रहता कि शरीर खड़ा है या बैठा, चल रहा है या सो रहा है, मल-मूत्र त्याग रहा है, भोजन कर रहा है अथवा और कोई स्वाभाविक कर्म कर रहा है; क्योंकि उसकी वृत्ति तो आत्मस्वरूप में स्थित-ब्रह्माकार रहती है। यदि ज्ञानी पुरुष की दृष्टि में इन्द्रियों के विविध बाह्य विषय, जो कि असत् हैं, आते भी हैं तो वह उन्हें अपने आत्मा से भिन्न नहीं मानता, क्योंकि वे युक्तियों, प्रमाणों और स्वानुभूति से सिद्ध नहीं होते। जैसे नींद टूट जाने पर स्वप्न में देखे हुए और जागने पर तिरोहित हुए पदार्थों को कोई सत्य नहीं मानता, वैसे ही ज्ञानी पुरुष भी अपने से भिन्न प्रतीयमान पदार्थों को सत्य नहीं मानते।

उद्धव जी! (इसका यह अर्थ नहीं है कि अज्ञानी ने आत्मा का त्याग कर दिया है और ज्ञानी उसको ग्रहण करता है। इसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि) अनेकों प्रकार के गुण और कर्मों से युक्त देह, इन्द्रिय आदि पदार्थ पहले अज्ञान के कारण आत्मा से अभिन्न मान लिये गये थे, उनका विवेक नहीं था। अब आत्मदृष्टि होने पर अज्ञान और उसके कार्यों की निवृत्ति हो जाती है। इसलिये अज्ञान की निवृत्ति ही अभीष्ट है। वृत्तियों के द्वारा न तो आत्मा का ग्रहण हो सकता है और न त्याग।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: अष्टाविंश अध्याय श्लोक 34-44 का हिन्दी अनुवाद)

जैसे सूर्य उदय होकर मनुष्यों के नेत्रों के सामने से अन्धकार का परदा हटा देते हैं, किसी नयी वस्तु का निर्माण नहीं करते, वैसे ही मेरे स्वरूप का दृढ़ अपरोक्ष ज्ञान पुरुष के बुद्धिगत अज्ञान का आवरण नष्ट कर देता है। वह इदंरूप से किसी वस्तु का अनुभव नहीं कराता। उद्धव जी! आत्मा नित्य अपरोक्ष है, उसकी प्राप्ति नहीं करनी पड़ती। वह स्वयं प्रकाश है। उसमें अज्ञान आदि किसी प्रकार के विकार नहीं है। वह जन्मरहित है अर्थात् कभी किसी प्रकार भी वृत्ति में आरूढ़ नहीं होता। इसलिये अप्रमेय है। ज्ञान आदि के द्वारा उसका संस्कार भी नहीं किया जा सकता। आत्मा में देश, काल और वस्तुकृत परिच्छेद न होने के कारण अस्तित्व, वृद्धि, परिवर्तन, ह्रास और विनाश उसका स्पर्श भी नहीं कर सकते। सबकी और सब प्रकार की अनुभूतियाँ आत्मस्वरूप ही हैं। जब मन और वाणी आत्मा को अपना अविषय समझकर निवृत्त हो जाते हैं, तब वही सजातीय, विजातीय और स्वगत भेद से शून्य एक अद्वितीय रह जाता है। व्यवहार दृष्टि से उसके स्वरूप का वाणी और प्राण आदि के प्रवर्तक के रूप में निरूपण किया जाता है।

उद्धव जी! अद्वितीय आत्मतत्त्व में अर्थहीन नामों के द्वारा विवधता मान लेना ही मन का भ्रम है, अज्ञान है। सचमुच यह बहुत बड़ा मोह है, क्योंकि अपने आत्मा के अतिरिक्त उस भ्रम का भी और कोई अधिष्ठान नहीं है। अधिष्ठान-सत्ता में अध्यस्त की सत्ता है ही नहीं। इसलिये सब कुछ आत्मा ही है। बहुत-से पण्डिताभिमानी लोग ऐसा कहते हैं कि यह पाञ्चभौतिक द्वैत विभिन्न नामों और रूपों के रूप में इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किया जाता है, इसलिये सत्य है। परन्तु यह तो अर्थहीन वाणी का आडम्बर मात्र है; क्योंकि तत्त्वतः तो इन्द्रियों की पृथक् सत्ता ही सिद्ध नहीं होती, फिर वे किसी को प्रमाणित कैसे करेंगी? उद्धव जी! यदि योग साधना पूर्ण होने के पहले ही किसी साधक का शरीर रोगादि उपद्रवों से पीड़ित हो, तो उसे इन उपायों का आश्रय लेना चाहिये।

गरमी-ठंडक आदि को चन्द्रमा-सूर्य आदि की धारणा के द्वारा, वात आदि रोगों को वायु धारणा युक्त आसनों के द्वारा और ग्रह-सर्पादिकृत विघ्नों को तपस्या, मन्त्र एवं ओषधि के द्वारा नष्ट कर डालना चाहिये। काम-क्रोध आदि विघ्नों को मेरे चिन्तन और नाम-संकीर्तन आदि के द्वारा नष्ट करना चाहिये। तथा पतन की ओर ले जाने वाले दम्भ-मद आदि विघ्नों को धीरे-धीरे महापुरुषों की सेवा के द्वारा दूर कर देना चाहिये। कोई-कोई मनस्वी योगी विवध उपायों के द्वारा इस शरीर को सुदृढ़ और युवावस्था में स्थिर करके फिर अणिमा आदि सिद्धियों के लिये योग साधन करते हैं, परन्तु बुद्धिमान पुरुष ऐसे विचार का समर्थन नहीं करते, क्योंकि यह तो एक व्यर्थ प्रयास है। वृक्ष में लगे हुए फल के समान इस शरीर का नाश तो अवश्यम्भावी है। यदि कदाचित् बहुत दिनों तक निरन्तर और आदर पूर्वक योग साधना करते रहने पर शरीर सुदृढ़ भी हो जाये, तब भी बुद्धिमान परुष को अपनी साधना छोड़कर उतने में ही सन्तोष नहीं कर लेना चाहिये। उसे तो सर्वदा मेरी प्राप्ति के लिये ही संलग्न रहना चाहिये। जो साधक मेरा आश्रय लेकर मेरे द्वारा कही हुई योग साधना में संलग्न रहता है, उसे कि भी विघ्न-बाधा डिगा नहीं सकती। उसकी सारी कामनाएँ नष्ट हो जाती हैं और वह आत्मानन्द की अनुभूति में मग्न हो जाता है।


                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【उनतीसवाँ अध्याय】२९


"भागवत धर्मों का निरूपण और उद्धव जी का बदरिकाश्रम गमन"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्याय श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

उद्धव जी कहते हैं ;- 'अच्युत! जो अपना मन वश में नहीं कर सका है, उसके लिये आपकी बतलायी हुई इस योग साधना को तो मैं बहुत ही कठिन समझता हूँ। अतः अब आप कोई ऐसा सरल और सुगम साधन बतलाइये, जिससे मनुष्य अनायास ही परमपद प्राप्त कर सके। कमलनयन! आप जानते ही हैं कि अधिकांश योगी जब अपने मन को एकाग्र करने लगते हैं, तब वे बार-बार चेष्टा करने पर भी सफल न होने के कारण हार मान लेते हैं और उसे वश में न कर पाने के कारण दुःखी हो जाते हैं। पद्मलोचन! आप विश्वेश्वर है! आपके ही द्वारा सारे संसार का नियमन होता है। इसी से सारासार-विचार में चतुर मनुष्य आपके आनन्दवर्षी चरणकमलों की शरण लेते हैं और अनायास ही सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। आपकी माया उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती; क्योंकि उन्हें योग साधन और कर्मानुष्ठान का अभिमान नहीं होता। परन्तु जो आपकी चरणों का आश्रय नहीं लेते, वे योगी और कर्मी अपने साधन के घमंड से फूल जाते हैं; अवश्य ही आपकी माया ने उनकी मति हर ली है। प्रभो! आप सबके हितैषी सुहृद् हैं। आप अपने अनन्य शरणागत बलि आदि सेवकों के अधीन हो जायें, यह आपके लिये कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि आपने रामावतार ग्रहण करके प्रेमवश वानरों से भी मित्रता का निर्वाह किया।

यद्यपि ब्रह्मा आदि लोकेश्वरगण भी आने दिव्य किरीटों को आपके चरणकमल रखने की चौकी पर रगड़ते रहते हैं। प्रभो! आप सबके प्रियतम, स्वामी और आत्मा हैं। आप अपने अनन्य शरणागतों को सब कुछ दे देते हैं। आपने बलि-प्रह्लाद आदि अपने भक्तों को जो कुछ दिया है, उसे जानकर ऐसा कौन पुरुष होगा जो आपको छोड़ देगा? यह बात किसी प्रकार बुद्धि में ही नहीं आती कि भला, कोई विचारवान् विस्मृति के गर्त में डालने वाले तुच्छ विषयों में ही फँसा रखने वाले भोगों को क्यों चाहेगा? हम लोग आपके चरणकमलों की रज के उपासक हैं। हमारे लिये दुर्लभ ही क्या है? भगवन्! आप समस्त प्राणियों के अन्तःकरण में अन्तर्यामीरूप से और बाहर गुरुरूप से स्थित होकर उनके सारे पाप-तप मिटा देते हैं और अपने अपने वास्तविक स्वरूप को उनके प्रति प्रकट कर देते हैं। बड़े-बड़े ब्रह्मज्ञानी ब्रह्मा जी के समान लंबी आयु पाकर भी आपके उपकारों का स्मरण करके क्षण-क्षण अधिकाधिक आनन्द का अनुभव करते रहते हैं।'

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मादि ईश्वरों के भी ईश्वर हैं। वे ही सत्त्व-रज आदि गुणों के द्वारा ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र का रूप धारण करके जगत् की उत्पत्ति-स्थिति आदि के खेल खेला करते हैं। जब उद्धव जी ने अनुराग भरे चित्त से उनसे यह प्रश्न किया, तब उन्होंने मन्द-मन्द मुसकराकर बड़े प्रेम से कहना प्रारम्भ किया। श्रीभगवान ने कहा- प्रिय उद्धव! अब मैं तुम्हें अपने उन मंगलमय भागवत धर्मों का उपदेश करता हूँ, जिनका श्रद्धापूर्वक आचरण करके मनुष्य संसाररूप दुर्जय मृत्यु को अनायास ही जीत लेता है। उद्धव जी! मेरे भक्त को चाहिये कि अपने सारे कर्म मेरे लिये ही करे और धीरे-धीरे उनको करते समय मेरे स्मरण का अभ्यास बढ़ाये। कुछ ही दिनों में उसके मन और चित्त मुझमें समर्पित हो जायेंगे। उसके मन और आत्मा मेरे ही धर्मों में रम जायेंगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्याय श्लोक 10-24 का हिन्दी अनुवाद)

मेरे भक्त साधुजन जिन पवित्र स्थानों में निवास करते हों, उन्हीं में रहे और देवता, असुर अथवा मनुष्यों में जो मेरे अनन्य भक्त हों, उनके आचरणों का अनुसरण करे। पर्व के अवसरों पर सबके साथ मिलकर अथवा अकेला ही नृत्य, गान, वाद्य आदि महाराजोचित ठाट-बाट से मेरी यात्रा आदि के महोत्सव करे। शुद्धान्तःकरण पुरुष आकाश के समान बाहर और भीतर परिपूर्ण एवं आवरणशून्य मुझ परमात्मा को ही समस्त प्राणियों और अपने हृदय में स्थित देखे।

निर्मलबुद्धि उद्धव जी! जो साधक केवल इस ज्ञान-दृष्टि का आश्रय लेकर सम्पूर्ण प्राणियों और पदार्थों में मेरा दर्शन करता है और उन्हें मेरा ही रूप मानकर सत्कार करता है तथा ब्राह्मण और चाण्डाल, चोर और ब्राह्मण भक्त, सूर्य और चिनगारी तथा कृपालु और क्रूर में समान दृष्टि रखता है, उसे ही सच्चा ज्ञानी समझना चाहिये। जब निरन्तर सभी नर-रानियों में मेरी ही भावना की जाती है, तब थोड़े ही दिनों में साधक के चित्त से स्पर्द्धा (होड़), ईर्ष्या, तिरस्कार और अहंकार आदि दोष दूर हो जाते हैं। अपने ही लोग यदि हँसी करें तो करने दे, उनकी परवा न करे; ‘मैं अच्छा हूँ, वह बुरा है’ ऐसी देहदृष्टि को और लोक-लज्जा को छोड़ दे और कुत्ते, चाण्डाल, गौ एवं गधे को भी पृथ्वी पर गिरकर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करे। जब तक समस्त प्राणियों में मेरी भावना-भगवद्भावना न होने लगे, तब तक इस प्रकार से मन, वाणी और शरीर के सभी संकल्पों और कर्मों द्वारा मेरी उपासना करता रहे। उद्धव जी! जब इस प्रकार सर्वत्र आत्मबुद्धि-ब्रह्मबुद्धि का अभ्यास किया जाता है, तब थोड़े ही दिनों में उसे ज्ञान होकर सब कुछ ब्रह्मस्वरूप दीखने लगता है। ऐसी दृष्टि हो जाने पर सारे संशय-सन्देह अपने-आप निवृत्त हो जाते हैं और वह सब कहीं मेरा साक्षात्कार करके संसार दृष्टि से उपराम हो जाता है।

मेरी प्राप्ति के जीतने साधन हैं, उनमें मैं तो सबसे श्रेष्ठ साधन यही समझता हूँ कि समस्त प्राणियों और पदार्थों में मन, वाणी और शरीर की समस्त वृत्तियों से मेरी ही भावना की जाये। उद्धव जी! यही मेरा अपना भागवत धर्म है; इसको एक बार आरम्भ कर देने के बाद फिर किसी प्रकार की विघ्न-बाधा से इसमें रत्तीभर भी अन्तर नहीं पड़ता; क्योंकि यह धर्म निष्काम है और स्वयं मैंने ही इसे निर्गुण होने के कारण सर्वोत्तम निश्चय किया है। भागवत धर्म में किसी प्रकार की त्रुटि पड़नी तो दूर रही-यदि इस धर्म का साधन भय-शोक आदि के अवसर पर होने वाली भावना और रोने-पीटने, भागने-जैसा निरर्थक कर्म भी निष्काम भाव से मुझे समर्पित कर दे तो वे भी मेरी प्रसन्नता के कारण धर्म बन जाते हैं। विवेकियों के विवेक और चतुरों की चतुराई की पराकाष्ठा इसी में है कि वे इस विनाशी और असत्य शरीर के द्वारा मुझ अविनाशी एवं सत्य तत्त्व को प्राप्त कर लें।

उद्धव जी! यह सम्पूर्ण ब्रह्मविद्या का रहस्य मैंने संक्षेप और विस्तार से तुम्हें सुना दिया। इस रहस्य को समझना मनुष्यों की तो कौन कहे, देवताओं के लिये भी अत्यन्त कठिन है। मैंने जिस सुस्पष्ट और युक्तियुक्त ज्ञान का वर्णन बार-बार किया है, उसके मर्म को जो समझ लेता है, उसके हृदय की संशय-ग्रंथियाँ छिन्न-भिन्न हो जाती हैं और वह मुक्त हो जाता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्याय श्लोक 25-38 का हिन्दी अनुवाद)

मैंने तुम्हारे प्रश्न का भलीभाँति खुलासा कर दिया; जो पुरुष हमारे प्रश्नोत्तर को विचारपूर्वक धारण करेगा, वह वेदों के भी परम रहस्य सनातन परब्रह्म को प्राप्त कर लेगा। जो पुरुष मेरे भक्तों को इसे भलीभाँति स्पष्ट करके समझायेगा, उस ज्ञानदाता को मैं प्रसन्न मन से अपना स्वरूप तक दे डालूँगा, उसे आत्मज्ञान करा दूँगा। उद्धव जी! यह तुम्हारा और मेरा संवाद स्वयं तो पवित्र है ही, दूसरों को भी पवित्र करने वाला है। जो प्रतिदिन इसका पाठ करेगा और दूसरों को सुनायेगा, वह इस ज्ञानदीप के द्वारा दूसरों को मेरा दर्शन कराने के कारण पवित्र हो जायेगा। जो कोई एकाग्रचित्त से इसे श्रद्धापूर्वक नित्य सुनेगा, उसे मेरी पराभक्ति प्राप्त होगी और वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जायेगा।

प्रिय सखे! तुमने भलीभाँति ब्रह्म का स्वरूप समझ लिया न? और तुम्हारे चित्त का मोह एवं शोक तो दूर हो गया न? तुम इसे दाम्भिक, नास्तिक, शठ, अश्रद्धालु, भक्तिहीन और उद्धत पुरुष को कभी मत देना। जो इन दोषों से रहित हो, ब्राह्मण भक्त हो, प्रेमी हो, साधुस्वभाव हो और जिसका चरित्र पवित्र हो, उसी को यह प्रसंग सुनाना चाहिये। यदि शूद्र और स्त्री भी मेरे प्रति प्रेम-भक्ति रखते हों तो उन्हें भी इसका उपदेश करना चाहिये। जैसे दिव्य अमृत पान कर लेने पर कुछ भी पीना शेष नहीं रहता, वैसे ही यह जान लेने पर जिज्ञासु के लिये और कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। प्यारे उद्धव! मनुष्यों को जो ज्ञान, कर्म, योग, वाणिज्य और राजदण्डादि से क्रमशः मोक्ष, धर्म, काम और अर्थरूप फल प्राप्त होते हैं; परन्तु तुम्हारे-जैसे अनन्य भक्तों के लिये वह चारों प्रकार का फल केवल मैं ही हूँ। जिस समय मनुष्य समस्त कर्मों का परित्याग करके मुझे आत्मसमर्पण कर देता है, उस समय वह मेरा विशेष माननीय हो जाता है और मैं उसे उसके जीवत्व से छुड़ाकर अमृतस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति करा देता हूँ और वह मुझसे मिलकर मेरा स्वरूप हो जाता है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अब उद्धव जी योगमार्ग का पूरा-पूरा उपदेश प्राप्त कर चुके थे। भगवान श्रीकृष्ण की बात सुनकर उनकी आँखों में आँसू उमड़ आये। प्रेम की बाढ़ से गला रूँध गया, चुपचाप हाथ जोड़े रह गये और वाणी से कुछ बोला न गया। उनका चित्त प्रेमावेश से विह्वल हो रहा था, उन्होंने धैर्यपूर्वक उसे रोका और अपने को अत्यन्त सौभाग्यशाली अनुभव करते हुए सिर से यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण के चरणों को स्पर्श किया तथा हाथ जोड़कर उनसे यह प्रार्थना की।

उद्धव जी ने कहा ;- 'प्रभो! आप माया और ब्रह्म आदि के भी मूल कारण हैं। मैं मोह के महान् अन्धकार में भटक रहा था। आपके सत्संग से वह सदा के लिये भाग गया। भला, जो अग्नि के पास पहुँच गया उसके सामने क्या शीत, अन्धकार और उसके कारण होने वाला भय ठहर सकते हैं? भगवन्! आपकी मोहिनी माया ने मेरा ज्ञानदीपक छीन लिया था, परन्तु आपने कृपा करके वह फिर अपने सेवक को लौटा दिया। आपने मेरे ऊपर महान् अनुग्रह की वर्षा की है। ऐसा कौन होगा, जो आपके इस कृपा-प्रसाद का अनुभव करके भी आपके चरणकमलों की शरण छोड़ दे और किसी दूसरे का सहारा ले?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्याय श्लोक 39-49 का हिन्दी अनुवाद)

आपने अपनी माया से सृष्टि वृद्धि के लिये दशार्ह, वृष्णि, अन्धक और सात्वतवंशी यादवों के साथ मुझे सुदृढ़ स्नहे-पाश से बाँध दिया था। आज आपने आत्मबोध की तीखी तलवार से उस बन्धन को अनायास ही काट डाला। महायोगेश्वर! मेरा आपको नमस्कार है। अब आप कृपा करके मुझ शरणागत को ऐसी आज्ञा दीजिये, जिससे आपके चरणकमलों में मेरी अनन्य भक्ति बनी रहे।'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- उद्धव जी! अब तुम मेरी आज्ञा से बदरीवन में चल जाओ। वह मेरा ही आश्रम है। वहाँ मेरे चरणकमलों के धोवन गंगा-जल का स्नानपान के द्वारा सेवन करके तुम पवित्र हो जाओगे। अलकनन्दा के दर्शन मात्र से तुम्हारे सारे पाप-ताप नष्ट हो जायेंगे। प्रिय उद्धव! तुम वहाँ वृक्षों की छाल पहनना, वन के कन्द-मूल-फल खाना आर किसी भोग की अपेक्षा न रखकर निःस्पृह-वृत्ति से अपने-आप में मस्त रहना। सर्दी-गरमी, सुख-दुःख-जो कुछ आ पड़े, उसे सम रहकर सहना। स्वभाव सौम्य रखना, इन्द्रियों को वश में रखना। चित्त शान्त रहे। बुद्धि समाहित रहे और तुम स्वयं मेरे स्वरूप के ज्ञान और अनुभव में डूबे रहना। मैंने तुम्हें जो कुछ शिक्षा दी है, उसका एकान्त में विचारपूर्वक अनुभव करते रहना। अपनी वाणी और चित्त मुझ में ही लगाये रहना और मेरे बतलाये हुए भागवत धर्म में प्रेम से रम जाना। अन्त में तुम त्रिगुण और उनसे सम्बन्ध रखने वाली गतियों को पार करके उनसे परे मेरे परमार्थस्वरूप में मिल जाओगे।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण के स्वरूप का ज्ञान संसार के भेदभ्रम को छिन्न-भिन्न कर देता है। जब उन्होंने स्वयं उद्धव जी को ऐसा उपदेश किया तो उन्होंने उनकी परिक्रमा की और उनके चरणों पर सिर रख दिया। इसमें सन्देह नहीं कि उद्धव जी संयोग-वियोग से होने वाले सुख-दुःख के जोड़े से परे थे, क्योंकि वे भगवान के निर्द्वंद चरणों की शरण ले चुके थे; फिर भी वहाँ से चलते समय उनका चित्त प्रेमोवेश से भर गया। उन्होंने अपने नेत्रों की झरती हुई अश्रुधारा से भगवान के चरणकमलों को भिगो दिया। परीक्षित! भगवान के प्रति प्रेम करके उसका त्याग करना सम्भव नहीं है। उन्हीं के वियोग की कल्पना से उद्धव जी कातर हो गये, उनक त्याग करने में समर्थ न हुए। बार-बार विह्वल होकर मुर्च्छित होने लगे। कुछ समय के बाद उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के चरणों की पादुकाएँ अपने सिर पर रख लीं और बार-बार भगवान के चरणों में प्रणाम करके वहाँ से प्रस्थान किया।

भगवान के परमप्रेमी भक्त उद्धव जी हृदय में उनकी दिव्य छवि धारण किये बदरिकाश्रम पहुँचे और वहाँ उन्होंने तमोमय जीवन व्यतीत करके जगत् के एकमात्र हितैषी भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशानुसार उनकी स्वरूपभूत परमगति प्राप्त की। भगवान शंकर आदि योगेश्वर भी सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण के चरणों की सेवा किया करते हैं। उन्होंने स्वयं श्रीमुख से अपने परमप्रेमी भक्त उद्धव के लिये इस ज्ञानामृत का वितरण किया। यह ज्ञानामृत आनन्द महासागर का सार है। जो श्रद्धा के साथ इसका सेवन करता है, वह तो मुक्त हो ही जाता है, उसके संग से सारा जगत् मुक्त हो जाता है।

परीक्षित! जैसे भौरा विभिन्न पुष्पों से उनका सार-सार मधु संग्रह कर लेता है, वैसे ही स्वयं वेदों को प्रकाशित करने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने भक्तों को संसार से मुक्त करने के लिये यह ज्ञान और विज्ञान का सार निकाला है। उन्होंने जरा-रोगादि भय की निवृत्ति के लिये क्षीर-समुद्र से अमृत भी निकाला था। इन्हें क्रमशः अपने निवृत्तिमार्गी और प्रवृत्तिमार्गी भक्तों को पिलाया, वे ही पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण सारे जगत् के मूल कारण हैं। मैं उनके चरणों में नमस्कार करता हूँ।


                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【तीसवाँ अध्याय】३०


"यदुकुल का संहार"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रिंश अध्याय श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

राजा परीक्षित् ने पूछा ;- भगवन्! जब महाभागवत उद्धव जी बदरीवन को चले गये, तब भूतभावन भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारका में क्या लीला रची? प्रभो! यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने अपने कुल के ब्रह्मशाप ग्रस्त होने पर सबके नेत्रादि इन्द्रियों के परमप्रिय अपने दिव्य श्रीविग्रह की लीला का संवरण कैसे किया? भगवन्! जब स्त्रियों के नेत्र उनके श्रीविग्रह में लग जाते थे, तब वे उन्हें वहाँ से हटाने में असमर्थ हो जाती थीं। जब संत पुरुष उनकी रूपमाधुरी का वर्णन सुनते हैं, तब वह श्रीविग्रह कानों के रास्ते प्रवेश करके उनके चित्त में गड़-सा जाता है, वहाँ से हटना नहीं जानता। उसकी शोभा कवियों की काव्य रचना में अनुराग का रंग भर देती है और उनका सम्मान बढ़ा देती है, इसके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है। महाभारत युद्ध के समय जब वे हमारे दादा अर्जुन के रथ पर बैठे हुए थे, उस समय जिन योद्धाओं ने उसे देखते-देखते शरीर-त्याग किया; उन्हें सारूप्यमुक्ति मिल गयी। उन्होंने अपना ऐसा अद्भुत श्रीविग्रह किस प्रकार अन्तर्धान किया?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि आकाश, पृथ्वी और अन्तरिक्ष में बड़े-बड़े उत्पात-अपशकुन हो रहे हैं, तब उन्होंने सुधर्मा-सभा में उपस्थित सभी यदुवंशियों से यह बात कही- ‘श्रेष्ठ यदुवंशियों! यह देखो, द्वारका में बड़े-बड़े भयंकर उत्पात होने लगे हैं। ये साक्षात् यमराज की ध्वजा के समान हमारे महान् अनिष्ट के सूचक हैं। अब हमें यहाँ घड़ी-दो-घड़ी भी नहीं ठहरना चाहिये। स्त्रियाँ, बच्चे और बूढ़े यहाँ से शंखद्धार क्षेत्र में चल जायें और हम लोग प्रभास क्षेत्र में चलें। आप सब जानते हैं कि वहाँ सरस्वती पश्चिम की ओर बहकर समुद्र में जा मिली है। वहाँ हम स्नान करके पवित्र होंगे, उपवास करेंगे और एकाग्रचित्त से स्नान एवं चन्दन आदि सामग्रियों से देवताओं की पूजा करेंगे। वहाँ स्वस्तिवाचन के बाद हम लोग गौ, भूमि, सोना, वस्त्र, हाथी, घोड़े, रथ और घर आदि के द्वारा महात्मा ब्राह्मणों का सत्कार करेंगे। यह विधि सब प्रकार के अमंगलों का नाश करने वाली और परममंगल की जननी है। श्रेष्ठ यदुवंशियों! देवता, ब्राह्मण और गौओं की पूजा ही प्राणियों के जन्म का परम लाभ है’।

परीक्षित! सभी वृद्ध यदुवंशियों ने भगवान श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर ‘तथास्तु’ कहकर उसका अनुमोदन किया और तुरंत नौकाओं से समुद्र पार करके रथों द्वारा प्रभास क्षेत्र की यात्रा की। वहाँ पहुँचकर यादवों ने यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण के आदेशानुसार बड़ी श्रद्धा और भक्ति से शान्ति पाठ आदि तथा और भी सब प्रकार के मंगल कृत्य किये। यह सब तो उन्होंने किया; परन्तु दैव ने उनकी बुद्धि हर ली और वे उस मैरेयक नामक मदिरा का पान करने लगे, जिसके नशे से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। वह पीने में तो अवश्य मीठी लगती है, परन्तु परिणाम में सर्वनाश करने वाली है। उस तीव्र मदिरा के पान से सब-के-सब उन्मत्त हो गये और वे घमंडी वीर एक-दूसरे से लड़ने-झगड़ने लगे। सच पूछो तो श्रीकृष्ण की माया से मूढ़ हो रहे थे। उस समय वे क्रोध से भरकर एक-दूसरे पर आक्रमण करने लगे और धनुष-बाण, तलवार, भाले, गदा, तोमर और ऋष्टि आदि अस्त्र-शस्त्रों से वहाँ समुद्र तट पर ही एक-दूसरे से भिड़ गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रिंश अध्याय श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद)

मतवाले यदुवंशी रथों, हाथियों, घोड़ों, गधों, ऊँटों, खच्चरों, बैलों, भैसों और मनुष्यों पर भी सवार होकर एक-दूसरे को बाणों से घायल करने लगे-मानो जंगली हाथी एक-दूसरे पर दाँतों से चोट कर रहे हों। सबकी सवारियों पर ध्वजाएँ फहरा रही थीं, पैदल सैनिक भी आपस में उलझ रहे थे। प्रद्युम्न साम्ब से, अक्रूर भोज से, अनिरुद्ध सात्यकि से, सुभद्र संग्रामजित् से, भगवान श्रीकृष्ण के भाई गद उसी नाम के उनके पुत्र से और सुमित्र सुरथ से युद्ध करने लगे। ये सभी बड़े भयंकर योद्धा थे और क्रोध में भरकर एक-दूसरे का नाश करने पर तुल गये थे। इनके अतिरिक्त निशठ, उल्मुक, सहस्रजित्, शतजित् और भानु आदि यादव भी एक-दूसरे से गूँथ गये। भगवान श्रीकृष्ण की माया ने तो इन्हें अत्यन्त मोहित कर ही रखा था, इधर मदिरा के नशे ने भी इन्हें अंधा बना दिया था। दशार्ह, वृष्णि, अन्धक, भोज, सात्वत, मधु, अर्बुद, माथुर, शूरसेन, विसर्जन, कुकुर और कुन्ति आदि वंशों के लोग सौहार्द और प्रेम को भुलाकर आपस में मार-काट करने लगे।

मूढ़तावश पुत्र पिता का, भाई भाई का, भानजा मामा का, नाती नाना का, मित्र मित्र का, सुहृद् सुहृद् का, चाचा भतीजे का तथा एक गोत्र वाले आपस में एक-दूसरे का खून करने लगे। अन्त में जब उनके सब बाण समाप्त हो गये, धनुष टूट गये और शस्त्रास्त्र नष्ट-भ्रष्ट हो गये, तब उन्होंने अपने हाथों से समुद्र तट पर लगी हुई 'एरका' नाम की घास उखाड़नी शुरू की। यह वही घास थी, जो ऋषियों के शाप के कारण उत्पन्न हुए लोहमय मूसल के चूरे से पैदा हुई थी। हे राजन्! उनके हाथों में आते ही वह घास वज्र के समान कठोर मुद्गरों के रूप में परिणत हो गयी। अब वे रोष में भरकर उसी घास के द्वारा अपने विपक्षियों पर प्रकार करने लगे। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें मना किया, तो उन्होंने उनको और बलराम जी को भी अपना शत्रु समझ लिया। उन आततायियों की बुद्धि ऐसी मूढ़ हो रही थी कि वे उन्हें मारने के लिये उनकी ओर दौड़ पड़े। कुरुनन्दन! अब भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी भी क्रोध में भरकर युद्धभूमि में इधर-उधर विचरने और मुट्टी-की-मुट्टी एरका घास उखाड़-उखाड़ कर उन्हें मारने लगे। एरका घास की मुट्टी ही मुद्गर के समान चोट करती थी। जैसे बाँसों की रगड़ से उत्पन्न होकर दावानल बाँसों को ही भस्म कर देता है, वैसे ही ब्रह्मशाप से ग्रस्त और भगवान श्रीकृष्ण की माया से मोहित यदुवंशियों के स्पर्द्धामूलक क्रोध ने उनक ध्वंस कर दिया। जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि समस्त यदुवंशियों का संहार हो चुका है, तब उन्होंने यह सोचकर सन्तोष की साँस ली कि पृथ्वी का बचा-खुचा भार भी उतर गया।

परीक्षित! बलराम जी ने समुद्र तट पर बैठकर एकाग्र-चित्त से परमात्मचिन्तन करते हुए अपने आत्मा को आत्मस्वरूप में ही स्थिर कर लिया और मनुष्य शरीर छोड़ दिया। जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरे बड़े भाई बलराम जी परमपद में लीन हो गये, तब वे एक पीपल के पेड़ के तले जाकर चुपचाप धरती पर ही बैठ गये। भगवान श्रीकृष्ण ने उस समय अपनी अंगकान्ति से देदीप्यमान चतुर्भुत रूप धारण कर रखा था और धूम से रहित अग्नि के समान दिशाओं को अन्धकार रहित-प्रकाशमान बना रहे थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रिंश अध्याय श्लोक 29-41 का हिन्दी अनुवाद)

वर्षा कालीन मेघ के समान साँवले शरीर से तपे हुए सोने के समान ज्योति निकल रही थी। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न शोभायमान था। वे रेशमी पीताम्बर की धोती और वैसा ही दुपट्टा धारण किये हुए थे। बड़ा ही मंगलमय रूप था। मुखकमल पर सुन्दर मुस्कान और कपोलों पर नीली-नीली अलकें बड़ी ही सुहावनी लगती थीं। कमल के समान सुन्दर-सुन्दर एवं सुकुमार नेत्र थे। कानों में मकराकृत कुण्डल झिलमिला रहे थे। कमर में करधनी, कंधे पर यज्ञोपवीत, माथे पर मुकुट, कलाइयों में कंगन, बाँहों में बाजूबंद, वक्षःस्थल पर हार, चरणों में नूपुर, अँगुलियों में अँगूठियाँ और गले में कौस्तुभ मणि शोभायमान हो रही थी। घुटनों तक वनमाला लटकी हुई थी। शंख, चक्र, गदा आदि आयुध मुर्तिमान् होकर प्रभु की सेवा कर रहे थे। उस समय भगवान अपनी दाहिनी जाँघ पर बायाँ चरण रखकर बैठे हुए थे, लाल-लाल तलवा रक्त कमल के समान चमक रहा था।

परीक्षित! जरा नाम का एक बहेलिया था। उसने मूसल के बचे हुए टुकड़े से अपने बाण की गाँसी बना ली थी। उसे दूर से भगवान का लाल-लाल तलवा हरिन के मुख के समान जान पड़ा। उसने उसे सचमुच हरिन समझकर अपने उसी बाण से बींध दिया। जब वह पास आया, तब उसने देखा कि ‘अरे! ये तो चतुर्भुज पुरुष हैं।’ अब तो वह अपराध कर चुका था, इसलिये डर के मारे काँपने लगा और दैत्यदलन भगवान श्रीकृष्ण के चरणों पर सिर रखकर धरती पर गिर पड़ा। उसने कहा- ‘हे मधुसुदन! मैंने अनजान में यह पाप किया है। सचमुच मैं बहुत बड़ा पापी हूँ; परन्तु आप परमयशस्वी और निर्विकार हैं। आप कृपा करके मेरा अपराध क्षमा कीजिये। सर्वव्यापक सर्वशक्तिमान् प्रभो! महात्मा लोग कहा करते हैं कि आपके स्मरण मात्र से मनुष्यों का अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है। बड़े खेद की बात है कि मैंने स्वयं आपका ही अनिष्ट कर दिया। वैकुण्ठनाथ! मैं निरपराध हरिणों को मारने वाला महापापी हूँ। आप मुझे अभी-अभी मार डालिये, क्योंकि मर जाने पर मैं फिर कभी आप-जैसे महापुरुषों का ऐसा अपराध न करूँगा। भगवन्! सम्पूर्ण विद्याओं के पारदर्शी ब्रह्मा जी और उनके पुत्र रुद्र आदि भी आपकी योगमाया का विलास नहीं समझ पाते; क्योंकि उनकी दृष्टि भी आपकी माया से आवृत है। ऐसी अवस्था में हमारे-जैसे पापयोनि लोग उसके विषय में कह ही क्या सकते हैं?'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- हे जरे! तू डर मत, उठ-उठ! यह तो तूने मेरे मन का काम किया है। जा, मेरी आज्ञा से तू उस स्वर्ग में निवास कर, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े पुण्यवानों को होती है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण तो अपनी इच्छा से शरीर धारण करते हैं। जब उन्होंने जरा व्याध को यह आदेश दिया, तब उसने उनकी तीन बार परिक्रमा की, नमस्कार किया और विमान पर सवार होकर स्वर्ग को चला गया। भगवान श्रीकृष्ण का सारथि दारुक उनके स्थान का पता लगाता हुआ उनके द्वारा धारण की हुई तुलसी की गन्ध से युक्त वायु सूँघकर और उससे उनके होने के स्थान का अनुमान लगाकर सामने की ओर गया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रिंश अध्याय श्लोक 42-50 का हिन्दी अनुवाद)

दारुक ने वहाँ जाकर देखा कि भगवान श्रीकृष्ण पीपल के वृक्ष के नीचे आसन लगाये बैठे हैं। असह्य तेज वाले आयुध मुर्तिमान् होकर उनकी सेवा में संलग्न हैं। उन्हें देखकर दारुक के हृदय में प्रेम की बाढ़ आ गयी। नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी। वह रथ से कूदकर भगवान के चरणों पर गिर पड़ा। उसने भगवान से प्रार्थना की- ‘प्रभो! रात्रि के समय चन्द्रमा के अस्त हो जाने पर राह चलने वाले की जैसी दशा हो जाती है, आपके चरणकमलों का दर्शन न पाकर मेरी भी वैसी ही दशा हो गयी है। मेरी दृष्टि नष्ट हो गयी है, चारों ओर अँधेरा छा गया है। अब न तो मुझे दिशाओं का ज्ञान है और न मेरे हृदय में शान्ति ही है’।

परीक्षित! अभी दारुक इस प्रकार कह ही रहा था कि उसके सामने ही भगवान का गरुड़ध्वज रथ पताका और घोड़ों के साथ आकाश में उड़ गया। उसके पीछे-पीछे भगवान के दिव्य आयुध भी चले गये। यह सब देखकर दारुक के आश्चर्य की सीमा न रही। तब भगवान ने उससे कहा- ‘दारुक! अब तुम द्वारका चले जाओ और वहाँ यदुवंशियों के पारस्परिक संहार, भैया बलराम जी की परमगति और मेरे स्वधाम-गमन की बात कहो’। उनसे कहना कि ‘अब तुम लोगों को अपने परिवार वालों के साथ द्वारका में नहीं रहना चाहिये। मेरे न रहने पर समुद्र उस नगरी को डुबो देगा। सब लोग अपनी-अपनी धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब और मेरे माता-पिता को लेकर अर्जुन के संरक्षण में इन्द्रप्रस्थ चले जायें। दारुक! तुम मेरे द्वारा उपदिष्ट भागवत धर्म का आश्रय लो और ज्ञाननिष्ठ होकर सब की उपेक्षा कर दो तथा इस दृश्य को मेरी माया की रचना समझकर शान्त हो जाओ’।

भगवान का यह आदेश पाकर दारुक ने उनकी परिक्रमा की और उनके चरणकमल अपने सिर पर रखकर बारम्बार प्रणाम किया। तदनन्तर वह उदास मन से द्वारका के लिये चल पड़ा।


                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【इकत्तीसवाँ अध्याय】३१


"श्रीभगवान का स्वधामगमन"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रिंश अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! दारुक के चले जाने पर ब्रह्मा जी, शिव-पार्वती, इन्द्रादि लोकपाल, मरीचि आदि प्रजापति, बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, पितर-सिद्ध, गन्धर्व-विद्याधर, नाग-चारण, यक्ष-राक्षस, किन्नर, अप्सराएँ तथा गरुड़लोक के विभिन्न पक्षी अथवा मैत्रेय आदि ब्राह्मण भगवान श्रीकृष्ण के परमधाम-प्रस्थान को देखने के लिये बड़ी उत्सुकता से वहाँ आये। वे सभी भगवान श्रीकृष्ण के जन्म और लीलाओं का गान अथवा वर्णन कर रहे थे। उनके विमानों से सारा आकाश भर-सा गया था। वे बड़ी भक्ति से भगवान पर पुष्पों की वर्षा कर रहे थे।

सर्वव्यापक भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा जी और अपने विभूतिस्वरूप देवताओं को देखकर अपने आत्मा को स्वरूप में स्थित किया और कमल के सामन नेत्र बंद कर लिये। भगवान का श्रीविग्रह उपासकों के ध्यान और धारणा का मंगलमय आधार और समस्त लोकों के लिये परम रमणीय आश्रय है; इसलिये उन्होंने (योगियों के समान) अग्नि देवता सम्बन्धी योग धारणा के द्वारा उसको जलाया नहीं, सशरीर अपने धाम में चले गये। उस समय स्वर्ग में नगारे बजने लगे और आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी। परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे इस लोक से सत्य, धर्म, धैर्य, कीर्ति और श्रीदेवी भी चली गयीं। भगवान श्रीकृष्ण की गति, मन और वाणी के परे है; तभी तो भगवान अपने धाम में प्रवेश करने लगे, तब ब्रह्मादि देवता भी उन्हें न देख सके। इस घटना से उन्हें बड़ा ही विस्मय हुआ। जैसे बिजली मेघमण्डल को छोड़कर जब आकाश में प्रवेश करती है, तब मनुष्य उसकी चाल नहीं देख पाते, वैसे ही बड़े-बड़े देवता भी श्रीकृष्ण की गति के सम्बन्ध में कुछ न जान सके। ब्रह्मा जी और भगवान शंकर आदि देवता भगवान की यह परम योगमयी गति देखकर बड़े विस्मय के साथ उसकी प्रशंसा करते अपने-अपने लोक में चले गये।

परीक्षित! जैसे नट अनेकों प्रकार के स्वाँग बनाता है, परन्तु रहता है उन सबसे निर्लेप; वैसे ही भगवान का मनुष्यों के समान जन्म लेना, लीला करना और फिर उसे संवरण कर लेना उनकी माया का विलास मात्र है-अभिनय मात्र है। वे स्वयं ही इस जगत् की सृष्टि करके इसमें प्रवेश करके विहार करते हैं और अन्त में संहार-लीला करके अपने अनन्त महिमामय स्वरूप में ही स्थित हो जाते हैं। सान्दीपनि गुरु का पुत्र यमपुरी चला गया था, परन्तु उसे वे मनुष्य-शरीर के साथ लौटा लाये। तुम्हारा ही शरीर ब्रह्मास्त्र से जल चुका था; परन्तु उन्होंने तुम्हें जीवित कर दिया। वास्तव में उनकी शरणागतवत्सलता ऐसी ही है। और तो क्या कहूँ, उन्होंने कालों के महाकाल भगवान शंकर को भी युद्ध में जीत लिया और अत्यन्त अपराधी-अपने शरीर पर ही प्रहार करने वाले व्याध को भी सदेह स्वर्ग भेज दिया। प्रिय परीक्षित! ऐसी स्थिति में क्या वे अपने शरीर को सदा के लिये यहाँ नहीं रख सकते थे? अवश्य ही रख सकते थे। यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत् की स्थिति, उत्पत्ति और संहार के निरपेक्ष कारण हैं और सम्पूर्ण शक्तियों के धारण करने वाले हैं तथापि उन्होंने अपने शरीर को इस संसार में बचा रखने की इच्छा नहीं की। इससे उन्होंने यह दिखाया कि इस मनुष्य-शरीर से मुझे क्या प्रयोजन है? आत्मनिष्ठ पुरुषों के लिये यही आदर्श है कि वे शरीर रखने की चेष्टा न करें।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रिंश अध्याय श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद)

इधर दारुक भगवान श्रीकृष्ण के विरह से व्याकुल होकर द्वारका आया और वसुदेव जी तथा उग्रसेन के चरणों पर गिर-गिरकर उन्हें आँसुओं से भिगोने लगा। परीक्षित! उसने अपने को सँभालकर यदुवंशियों के विनाश का पूरा-पूरा विवरण कह सुनाया। उसे सुनकर लोग बहुत ही दुःखी हुए और मारे शोक के मुर्च्छित हो गये। भगवान श्रीकृष्ण के वियोग के विह्वल होकर वे लोग सिर पीटते हुए वहाँ तुरंत पहुँचे, जहाँ उनके भाई-बन्धु निष्प्राण होकर पड़े हुए थे। देवकी, रोहिणी और वसुदेव जी अपने प्यारे पुत्र श्रीकृष्ण और बलराम को न देखकर शोक की पीड़ा से बेहोश हो गये। उन्होंने भगवदविरह से व्याकुल होकर वहीं अपने प्राण छोड़ दिये। स्त्रियों ने अपने-अपने पतियों के शव पहचानकर उन्हें हृदय से लगा लिया और उसके साथ चिता पर बैठकर भस्म हो गयीं। बलराम जी की पत्नियाँ उनके शरीर को, वसुदेव जी की पत्नियाँ उनके शव को और भगवान की पुत्र वधुएँ अपने पतियों की लाशों को लेकर अग्नि में प्रवेश कर गयीं। भगवान श्रीकृष्ण की रुक्मिणी आदि पटरानियाँ उनके ध्यान में मग्न होकर अग्नि में प्रविष्ट हो गयीं।

परीक्षित! अर्जुन अपने प्रियतम और सखा भगवान श्रीकृष्ण के विरह से पहले तो अत्यन्त व्याकुल हो गये; फिर उन्होंने उन्हीं की गीतोक्त सदुपदेशों का स्मरण करके अपने मन को सँभाला। यदुवंश के मृत व्यक्तियों में जिनको कोई पिण्ड देने वाला न था, उनका श्राद्ध अर्जुन ने क्रमशः विधिपूर्वक करवाया। महाराज! भगवान के न रहने पर समुद्र ने एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण का निवासस्थान छोड़कर एक ही क्षण में सारी द्वारका डुबो दी। भगवान श्रीकृष्ण वहाँ आज भी सदा-सर्वदा निवास करते हैं। वह स्थान स्मरण मात्र से ही सारे पाप-तापों का नाश करने वाला और सर्वमंगलों को भी मंगल बनाने वाला है। प्रिय परीक्षित! पिण्डदान के अनन्तर बची-खुची स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को लेकर अर्जुन इंद्रप्रस्थ आये। वहाँ सबको यथायोग्य बसाकर अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का राज्याभिषेक कर दिया। राजन! तुम्हारे दादा युधिष्ठिर आदि पाण्डवों को अर्जुन से ही यह बात मालूम हुई कि यदुवंशियों का संहार हो गया है। तब उन्होंने अपने वंशधर तुम्हें राज्यपद अभिषिक्त करके हिमालय की वीर यात्रा की।

मैंने तुम्हें देवताओं के भी आराध्यदेव भगवान श्रीकृष्ण की जन्म लीला और कर्म लीला सुनायी। जो मनुष्य श्रद्धा के साथ इसका कीर्तन करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। परीक्षित! जो मनुष्य इस प्रकार भक्तभयहारी निखिल सौन्दर्य-माधुर्यनिधि श्रीकृष्णचन्द्र के अवतार-सम्बन्धी रुचिर पराक्रम और इस श्रीमद्भागवत महापुराण में तथा दूसरे पुराणों में वर्णित परमानन्दमयी बाल लीला, कैशोर लीला आदि का संकीर्तन करता है, वह परमहंस मुनीन्द्रों के अन्तिम प्राप्तव्य श्रीकृष्ण के चरणों में पराभक्ति प्राप्त करता है।


                      【एकादश स्कन्ध: समाप्त】

                         【 हरिः ॐ तत्सत्】


।। इस प्रकार  "श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध:" के  ३१ अध्याय समाप्त हुये ।।

(अब द्वादश (१२) स्कन्ध: प्रारम्भ होता है)

(नोट :- सभी स्कन्ध:  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )


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