सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( एकादश स्कन्धः ) का इक्कीसवाँ, बाईसवाँ, तेईसवाँ, चौबीसवाँ व पच्चीसवाँ अध्याय [ Twenty-first, twenty-second, twenty-third, twenty-fourth and twenty-fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Eleventh wing) ]



                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【इक्कीसवाँ अध्याय】२१

"गुण-दोष-व्यवस्था का स्वरूप और रहस्य"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकविंश अध्याय श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- प्रिय उद्धव! मेरी प्राप्ति के तीन मार्ग हैं- भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग। जो इन्हें छोड़कर चंचल इन्द्रियों के द्वारा क्षुद्र भोग भोगते हैं, वे बार-बार जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्कर में भटकते रहते हैं। अपने-अपने अधिकार के अनुसार धर्म में दृढ़ निष्ठा रखना ही गुण कहा गया है और इसके विपरीत अनधिकार चेष्टा करना दोष है। तात्पर्य यह कि गुण और दोष दोनों की व्यवस्था अधिकार के अनुसार की जाती है, किसी वस्तु के अनुसार नहीं। वस्तुओं के समान होने पर भी शुद्धि-अशुद्धि, गुण-दोष और शुभ-अशुभ आदि का जो विधान किया जाता है, उसका अभिप्राय यह है कि पदार्थ का ठीक-ठीक निरिक्षण-परिक्षण हो सके और उसमें सन्देह उत्पन्न करके ही यह योग्य है कि अयोग्य, स्वाभाविक प्रवृत्ति को नियन्त्रित-संकुचित किया जा सके। उनके द्वारा धर्म-सम्पादन कर सके, समाज का व्यवहार ठीक-ठीक चला सके और अपने व्यक्तिगत जीवन के निर्वाह में भी सुविधा हो। इससे यह लाभ भी है कि मनुष्य अपनी वासनामूलक सहज वृत्तियों के द्वारा इनके जाल में न फँसकर शास्त्रानुसार अपने जीवन को नियन्त्रित और मन को वशीभूत कर लेता है।

निष्पाप उद्धव! यह आचार मैंने ही मनु आदि का रूप धारण करके धर्म का भार ढोने वाले कर्मजड़ों के लिये उपदेश किया है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश-ये पंचभूत ही ब्रह्मा से लेकर पर्वत-वृक्षपर्यन्त सभी प्राणियों के शरीरों के मूलकारण हैं। इस तरह वे सब शरीर की दृष्टि से तो समान हैं ही, सबका आत्मा भी एक ही है। प्रिय उद्धव! यद्यपि सबके शरीरों के पंचभूत समान हैं, फिर भी वेदों ने इनके वर्णाश्रम आदि अलग-अलग नाम और रूप इसलिये बना दिये हैं कि ये अपनी वासना-मूलक प्रवृत्तियों को संकुचित करके-नियन्त्रित करके धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थों को सिद्ध कर सके।

साधुश्रेष्ठ! देश, काल, फल, निमित्त, अधिकारी और धान्य आदि वस्तुओं के गुण-दोषों का विधान भी मेरे द्वारा इसीलिये किया गया है कि कर्मों में लोगों की उच्छ्रंखल प्रवृत्ति न हो, मर्यादा का भंग न होने पावे। देशों में वह देश अपवित्र है, जिसमें कृष्णसार मृग न हो और जिसके निवासी ब्राह्मण-भक्त न हों। कृष्णसार मृग के होने पर भी, केवल उन प्रदेशों को छोड़कर जहाँ संत पुरुष रहते हैं, कीकट देश अपवित्र ही है। संस्काररहित और ऊसर आदि स्थान भी अपवित्र ही होते हैं। समय वही पवित्र है, जिसमें कर्म करने योग्य सामग्री मिल सके तथा कर्म भी हो सके। जिसमें कर्म करने की सामग्री न मिले, आगन्तुक दोषों से अथवा स्वाभाविक दोष के कारण जिसमें कर्म ही न हो सके, वह समय अशुद्ध है। पदार्थों की शुद्धि और अशुद्धि द्रव्य, वचन, संस्कार, काल, महत्त्व अथवा अल्पत्व से भी होती है। (जैसे कोई पात्र जल से शुद्ध और मूत्रादि से अशुद्ध हो जाता है। किसी वस्तु की शुद्धि अथवा अशुद्धि में शंका होने पर ब्राह्मणों के वचन से वह शुद्ध हो जाती है अन्यथा अशुद्ध रहती है। पुष्पादि जल छिड़कने से शुद्ध और सूँघने से अशुद्ध माने जाते हैं। तत्काल का पकाया हुआ अन्न शुद्ध और बासी अशुद्ध माना जाता है। बड़े सरोवर और नदी आदि का जल शुद्ध और छोटे गड्ढ़ों का अशुद्ध माना जाता है। इस प्रकार क्रम से समझ लेना चाहिये।)

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकविंश अध्याय श्लोक 11-19 का हिन्दी अनुवाद)

शक्ति, अशक्ति, बुद्धि और वैभव के अनुसार भी पवित्रता और अपवित्रता की व्यवस्था होती है। उसमें भी स्थान और उपयोग करने वाले की आयु का विचार करते हुए ही अशुद्ध वस्तुओं के व्यवहार का दोष ठीक तरह से आँका जाता है। (जैसे धनी-दरिद्र, बलवान्-निर्बल, बुद्धिमान्-मूर्ख, उपद्रवपूर्ण और सुखद देश तथा तरुण एवं वृद्धावस्था के भेद से शुद्धि और अशुद्धि की व्यवस्था में अन्तर पड़ जाता है।)। अनाज, लकड़ी, हाथी दाँत आदि हड्डी, सूत, मधु, नमक, तेज, घी आदि रस, सोना-पारा आदि तैजस पदार्थ, चाम और घड़ा आदि मिट्टी के बने पदार्थ समय पर अपने-आप हवा लगने से, आग में जलाने से, मिट्टी लगाने से अथवा जल में धोने से शुद्ध हो जाते हैं। देश, काल और अवस्था के अनुसार कहीं जल-मिट्टी आदि शोधक सामग्री के संयोग से शुद्धि करनी पड़ती है तो कहीं-कहीं एक-एक से भी शुद्धि हो जाती है। यदि किसी वस्तु में कोई अशुद्ध पदार्थ लग गया हो तो छीलने से या मिट्टी आदि मलने से जब उस पदार्थ की गन्ध और लेप न रहे और वह वस्तु अपने पूर्वरूप में आ जाये, तब उसको शुद्ध समझना चाहिये।

स्नान, दान, तपस्या, वय, सामर्थ्य, संस्कार, कर्म और मेरे स्मरण से चित्त की शुद्धि होती है। इनके द्वारा शुद्ध होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को विहित कर्मों का आचरण करना चाहिये। गुरुमुख से सुनकर भलीभाँति हृदयगम कर लेने से मन्त्र की और मुझे समर्पित कर देने से कर्म की शुद्धि होती है। उद्धव जी! इस प्रकार देश, काल, पदार्थ, कर्ता, मन्त्र और कर्म-इन छहों के शुद्ध होने से धर्म और अशुद्ध होने से अधर्म होता है। कहीं-कहीं शास्त्रविधि से गुण दोष हो जाता है और दोष गुण। (जैसे ब्राह्मण के लिये सन्ध्या-वन्दन, गायत्री-जप आदि गुण हैं; परन्तु शूद्र के लिये दोष हैं और दूध आदि का व्यापार वैश्य के लिये विहित हैं; परन्तु ब्राह्मण के लिये अत्यन्त निषिद्ध है।) एक ही वस्तु के विषय में किसी के लिये गुण और किसी के लिये दोष का विधान गुण और दोषों की वास्तविकता का खण्डन कर देता है और इससे यह निश्चय होता है कि गुण-दोष का यह भेद कल्पित है। जो लोग पतित हैं, वे पतितों का-सा आचरण करते हैं तो उन्हें पाप नहीं लगता, जबकि श्रेष्ठ पुरुषों के लिये वह सर्वथा त्याज्य होता है। जैसे गृहस्थों के लिये स्वाभाविक होने के कारण अपनी पत्नी का संग पाप नहीं है; परन्तु संन्यासी के लिये घोर पाप है।

उद्धव जी! बात तो यह है कि जो नीचे सोया हुआ है, वह गिरेगा कहाँ? वैसे ही जो पहले से ही पतित हैं, उनका अब और पतन क्या होगा? जिन-जिन दोषों और गुणों से मनुष्य का चित्त उपरत हो जाता है, उन्हीं वस्तुओं के बन्धन से वह मुक्त हो जाता है। मनुष्यों के लिये यह निवृत्तिरूप धर्म ही परम कल्याण का साधन है; क्योंकि यही शोक, मोह और भय को मिटाने वाला है। उद्धव जी! विषयों में कहीं भी गुणों का आरोप करने से उस वस्तु के प्रति आसक्ति हो जाती है। आसक्ति होने से उसे अपने पास रखने की कामना हो जाती है और इस कामना की पूर्ति में किसी प्रकार की बाधा पड़ने पर लोगों में परस्पर कलह होने लगता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकविंश अध्याय श्लोक 20-28 का हिन्दी अनुवाद)

कलह से असह्य क्रोध की उत्पत्ति होती है और क्रोध के समय अपने हित-अहित का बोध नहीं रहता, अज्ञान छा जाता है। इस अज्ञान से शीघ्र ही मनुष्य की कार्याकार्य का निर्णय करने वाली व्यापक चेतना शक्ति लुप्त हो जाती है। साधो! चेतना-शक्ति अर्थात् स्मृति के लुप्त हो जाने पर मनुष्य में मनुष्यता नहीं रह जाती, पशुता आ जाती है और वह शून्य के समान अस्तित्वहीन हो जाता है। अब उसकी अवस्था वैसी ही हो जाती है, जैसे कोई मुर्च्छित या मुर्दा हो। ऐसी स्थिति में न तो उसका स्वार्थ बनता है और न तो परमार्थ। विषयों का चिन्तन करते-करते वह विषयरूप हो जाता है। उसका जीवन वृक्षों के समान जड़ हो जाता है। उसके शरीर में उसी प्रकार व्यर्थ श्वास चलता रहता है, जैसे लुहार की धौंकनी की हवा। उसे न अपना ज्ञान रहता है और न किसी दूसरे का। वह सर्वथा आत्म-वंचित हो जाता है।

उद्धव जी! यह स्वर्गादिरूप फल का वर्णन करने वाली श्रुति मनुष्यों के लिये उन-उन लोकों को परम पुरुषार्थ नहीं बतलाती; परन्तु बहिर्मुख पुरुषों के लिये अन्तःकरण शुद्धि के द्वारा परम कल्याणमय मोक्ष की विवक्षा से ही कर्मों में रुचि उत्पन्न करने के लिये वैसा वर्णन करती है। जैसे बच्चों से ओषधि में रुचि उत्पन्न करने के लिये रोचक वाक्य कहे जाते हैं। (बेटा! प्रेम से गिलोय का काढ़ा पी लो तो तुम्हारी चोटी बढ़ जायेगी)। इसमें सन्देह नहीं कि संसार विषय-भोगों में, प्राणों में और सगे-सम्बन्धियों में सभी मनुष्य जन्म से ही आसक्त हैं और उन वस्तुओं की आसक्ति उनकी आत्मोन्नति में बाधक एवं अनर्थ का कारण है। वे अपने परम पुरुषार्थ को नहीं जानते, इसलिये स्वर्गादि का जो वर्णन मिलता है, वह ज्यों-का-त्यों सत्य है-ऐसा विश्वास करके देवादि योनियों में भटकते रहते हैं और फिर वृक्ष आदि योनियों के घोर अन्धकार में आ पड़ते हैं। ऐसी अवस्था में कोई भी विद्वान् अथवा वेद फिर से उन्हें उन्हीं विषयों में क्यों प्रवृत्त करेगा?

दुर्बुद्धि लोग (कर्मवादी) वेदों का यह अभिप्राय न समझकर कर्मासक्तिवश पुष्पों के समान स्वर्गादि लोकों का वर्णन देखते हैं और उन्हीं को परम फल मानकर भटक जाते हैं। परन्तु वेदवेत्ता लोग श्रुतियों का ऐसा तात्पर्य नहीं बतलाते। विषय-वासनाओं में फँसे हुए दीन-हीन, लोभी पुरुष रंग-बिरंगे पुष्पों के समान स्वर्गादि लोकों को ही सब कुछ समझ बैठते हैं, अग्नि के द्वारा सिद्ध होने वाले यज्ञ-यागादि कर्मों में ही मुग्ध हो जाते हैं। उन्हें अन्त में देवलोक, पितृलोक आदि की ही प्राप्ति होती है। दूसरी ओर भटक जाने के कारण उन्हें अपने निजधाम आत्मपद का पता नहीं लगता। प्यारे उद्धव! उनके पास साधना है तो केवल कर्म की और उसका कोई फल है तो इन्द्रियों की तृप्ति। उनकी आँखें धुँधली हो गयी हैं; इसी से वे यह बात नहीं जानते कि जिससे इस जगत् की उत्पत्ति हुई है, जो स्वयं इस जगत् के रूप में हैं, वह परमात्मा मैं उनके हृदय में हूँ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकविंश अध्याय श्लोक 29-40 का हिन्दी अनुवाद)

यदि हिंसा और उनके फल मांस-भक्षण में राग ही हो, उसका त्याग न किया जा सकता हो, तो यज्ञ में ही करे-यह परिसंख्या विधि है, स्वाभाविक प्रवृत्ति का संकोच है, संध्यावन्दनादि के समान अपूर्व विधि नहीं है। इस प्रकार मेरे परोक्ष अभिप्राय को न जानकर विषयलोलुप पुरुष हिंसा का खिलवाड़ खेलते हैं और दुष्टतावश अपनी इन्द्रियों की तृप्ति के लिये वध हुए पशुओं के मांस से यज्ञ करके देवता, पितर तथा भूतपतियों के यजन का ढोंग करते हैं।

उद्धव जी! स्वर्गादि परलोक स्वप्न के दृश्यों के समान हैं, वास्तव में वे असत् हैं, केवल उनकी बातें सुनने में बहुत मीठी लगती हैं। सकाम पुरुष वहाँ के भोगों के लिये मन-ही-मन अनेकों प्रकार के संकल्प कर लेते हैं और जैसे व्यापारी अधिक लाभ की आशा से मूलधन को भी खो बैठता है, वैसे ही वे सकाम यज्ञों द्वारा अपने धन का नाश करते हैं। वे स्वयं रजोगुण, सत्त्वगुणी अथवा तमोगुणी इन्द्रादि देवताओं की उपासना करते हैं। वे उन्हीं सामग्रियों से उतने ही परिश्रम से मेरी पूजा नहीं करते। वे जब इस प्रकार की पुष्पिता वाणी-रंग-बिरंगी मीठी-मीठी बातें सुनते हैं कि ‘हम लोग इस लोक में यज्ञों के द्वारा देवताओं का यजन करके स्वर्ग में जायेंगे और वहाँ दिव्य आनन्द भोगेंगे, उसके बाद जब फिर हमारा जन्म होगा, तब हम बड़े कुलीन परिवार में पैदा होंगे, हमारे बड़े-बड़े महल होंगे और हमारा कुटुम्ब बहुत सुखी और बहुत बड़ा होगा’ तब उनका चित्त क्षुब्ध हो जाता है और उन हेकड़ी जताने वाले घमंडियों को मेरे सम्बन्ध की बातचीत भी अच्छी नहीं लगती।

उद्धव जी! वेदों में तीन काण्ड हैं- कर्म, उपासना और ज्ञान। इन तीनों काण्डों के द्वारा प्रतिपादित विषय है ब्रह्म और आत्मा की एकता, सभी मन्त्र और मन्त्र-दृष्टा ऋषि इस विषय को खोलकर नहीं, गुप्तभाव से बतलाते हैं और मुझे भी इस बात को गुप्तरूप से कहना ही अभीष्ट है। वेदों का नाम है शब्दब्रह्म। वे मेरी मूर्ति हैं, इसी से रहस्य समझना अत्यन्त कठिन है। वह शब्दब्रह्म परा, पश्यन्ति और मध्यमा वाणी के रूप में प्राण, मन और इन्द्रियमय है। समुद्र के समान सीमारहित और गहरा है। उसकी थाह लगाना अत्यन्त कठिन है। (इसी से जैमिनी आदि बड़े-बड़े विद्वान् भी उसके तात्पर्य का ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाते)। उद्धव! मैं अनन्त-शक्ति-सम्पन्न एवं स्वयं अनन्त ब्रह्म हूँ। मैंने ही वेदवाणी का विस्तार किया है। जैसे कमलनाल में पतला-सा सूत होता है, वैसे ही वह वेदवाणी प्राणियों के अन्तःकरण में अनाहतनाद के रूप में प्रकट होती है।

भगवान हिरण्यगर्भ स्वयं वेदमूर्ति एवं अमृतमय हैं। उनकी उपाधि है प्राण और स्वयं अनाहत शब्द के द्वारा ही उनकी अभिव्यक्ति हुई। जैसे मकड़ी अपने हृदय से मुख द्वारा जाला उगलती और फिर निगल लेती है, वैसे ही वे स्पर्श आदि वर्णों का संकल्प करने वाले मनरूप निमित्तिकारण के द्वारा हृदयाकाश से अनन्त अपार अनेकों मार्गों वाली वैखरीरूप वेदवाणी को स्वयं ही प्रकट करते हैं और फिर उसे अपने में लीन कर लेते हैं। वह वाणी हृद्गत सूक्ष्म ओंकार के द्वारा अभिव्यक्त स्पर्श (‘क’ से लेकर ‘म’ तक-25), स्वर (‘अ’ से ‘औ’ तक-9), ऊष्मा (श, ष, स, ह) और अन्तःस्थ (य, र, ल, व)-वर्णों से विभूषित है। उसमें ऐसे छन्द हैं, जिसमें उत्तरोत्तर चार-चार वर्ण बढ़ते जाते हैं और उनके द्वारा विचित्र भाषा के रूप में वह विस्तृत हुई है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकविंश अध्याय श्लोक 41-43 का हिन्दी अनुवाद)

(चार-चार अधिक वर्णों वाले छन्दों में से कुछ ये हैं-) गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती, अतिच्छन्द, अत्यष्टि, अतिजगती और विराट्। वह वेदवाणी कर्मकाण्ड में क्या विधान करती है, उपासना काण्ड में किन प्रतीतियों का अनुवाद करके उनमें अनेकों प्रकार के विकल्प करती है-इन बातों को इस सम्बन्ध में श्रुति के सहस्य को मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं जानता।

मैं तुम्हें स्पष्ट बतला देता हूँ, सभी श्रुतियाँ कर्मकाण्ड में मेरा ही विधान करती हैं, उपासना काण्ड में उपास्य देवताओं के रूप में वे मेरा ही वर्णन करती हैं और ज्ञानकाण्ड में आकाशादि रूप से मुझमें ही अन्य वस्तुओं का आरोप करके उनका निषेध कर देती है।

सम्पूर्ण श्रुतियों का बस, इतना ही तात्पर्य है कि वे मेरा आश्रय लेकर मुझमें भेद का आरोप करती हैं, मायामात्र कहकर उसका अनुवाद करती हैं और अन्त में सबका निषेध करके मुझमें ही शान्त हो जाती हैं और केवल अधिष्ठान रूप से मैं ही शेष रह जाता हूँ।


                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【बाईसवाँ अध्याय】२२


"तत्त्वों की संख्या और पुरुष-प्रकृति-विवेक"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

उद्धव जी ने कहा ;- 'प्रभो! विश्वेश्वर! ऋषियों ने तत्त्वों की संख्या कितनी बतलायी है? आपने तो अभी (उन्नीसवें अध्याय में) नौ, ग्यारह, पाँच और तीन अर्थात् कुल अट्ठाईस तत्त्व गिनाये हैं। यह तो हम सुन चुके हैं। किन्तु कुछ लोग छब्बीस तत्त्व बतलाते हैं तो कुछ पचीस; कोई सात, नौ अथवा छः स्वीकार करते हैं, कोई चार बतलाते हैं तो कोई ग्यारह। इसी प्रकार किन्हीं-किन्हीं ऋषि-मुनियों के मत में उनकी संख्या सत्रह है, कोई सोलह और कोई तेरह बतलाते हैं। सनातन श्रीकृष्ण! ऋषि-मुनि इतनी भिन्न संख्याएँ किस अभिप्राय से बतलाते हैं? आप कृपा करके हमें बतलाइये।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- उद्धव जी! वेदज्ञ ब्राह्मण इस विषय में जो कुछ कहते हैं, वह सभी ठीक है; क्योंकि सभी तत्त्व सब में अन्तर्भूत हैं। मेरी माया को स्वीकार करके क्या कहना असम्भव है? ‘जैसा तुम कहते हो, वह ठीक नहीं है, जो मैं कहता हूँ, वही यथार्थ है’-इस प्रकार जगत् के कारण के सम्बन्ध में विवाद इसलिये होता है कि मेरी शक्तियों-सत्त्व, रज आदि गुणों और उनकी वृत्तियों का रहस्य लोग समझ नहीं पाते; इसलिये वे अपनी-अपनी मनोवृत्ति पर ही आग्रह कर बैठते हैं। सत्त्व आदि गुणों के क्षोभ से ही यह विविध कल्पनारूप प्रपंच-जो वस्तु नहीं केवल नाम-उठ खड़ा हुआ है। यही वाद-विवाद करने वालों के विवाद का विषय है। जब इन्द्रियाँ अपने वश में हो जाती हैं तथा चित्त शान्त हो जाता है, तब यह प्रपंच भी निवृत्त हो जाता है और इसकी निवृत्ति के साथ ही सारे वाद-विवाद भी मिट जाते हैं।

पुरुष-शिरोमणे! तत्त्वों का एक-दूसरे में अनुप्रवेश है, इसलिये वक्ता तत्त्वों की जितनी संख्या बतलाना चाहता है, उसके अनुसार कारण को कार्य में अथवा कार्य को कारण में मिलाकर अपनी इच्छित संख्या सिद्ध कर लेता है। ऐसा देखा जाता है कि एक ही तत्त्व में बहुत-से दूसरे तत्त्वों का अन्तर्भाव हो गया है। इसका कोई बन्धन नहीं है कि किसका किसमें अन्तर्भाव हो। कभी घट-पट आदि कार्य वस्तुओं का उनके कारण मिट्टी-सूत आदि में, तो कभी मिट्टी-सूत आदि का घट-पट आदि कार्यों में अन्तर्भाव हो जाता है। इसलिये वादी-प्रतिवादियों में से जिसकी वाणी ने जिस कार्य को जिस कारण में अथवा जिस कारण को जिस कार्य में अन्तर्भूत करके तत्त्वों की जितनी संख्या स्वीकार की है, वह हम निश्चय ही स्वीकार करते हैं; क्योंकि उनका वह उपपादन युक्तिसंगत ही है।

उद्धव जी! जिन लोगों ने छब्बीस संख्या स्वीकार की है, वे ऐसा कहते हैं कि जीव अनादि काल से अविद्या से ग्रस्त हो रहा है। वह स्वयं अपने-आपको नहीं जान सकता। उसे आत्मज्ञान कराने के लिये किसी अन्य सर्वज्ञ की आवश्यकता है। (इसलिये प्रकृति के कार्यकारणरूप चौबीस तत्त्व, पचीसवाँ पुरुष और छब्बीसवाँ ईश्वर-इस प्रकार कुल छब्बीस तत्त्व स्वीकार करने चाहिये)। पचीस तत्त्व मानने वाले कहते हैं कि इस शरीर में जीव और ईश्वर का अणुमात्र भी अन्तर या भेद नहीं है, इसलिये उसे भेद की कल्पना व्यर्थ है। रही ज्ञान की बात, सो तो सत्त्वात्मिका प्रकृति का गुण है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय श्लोक 12-22 का हिन्दी अनुवाद)

तीनों गुणों की साम्यावस्था ही प्रकृति है; इसलिये सत्त्व, रज आदि गुण आत्मा के नहीं, प्रकृति के ही हैं। इन्हीं के द्वारा जगत् की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय हुआ करते हैं। इसलिये ज्ञान आत्मा का गुण नहीं, प्रकृति का ही गुण सिद्ध होता है। इस प्रसंग में सत्त्वगुण ही ज्ञान है, रजोगुण ही कर्म है और तमोगुण ही अज्ञान कहा गया है। और गुणों में क्षोभ उत्पन्न करने वाला ईश्वर ही काल है और सूत्र अर्थात् महत्तत्त्व ही स्वभाव है। (इसलिये पचीस और छब्बीस तत्त्वों की-दोनों ही संख्या युक्तिसंगत है)।

उद्धव जी! (यदि तीनों गुणों को प्रकृति से अलग मान लिया जाये, जैसा कि उनकी उत्पत्ति और प्रलय देखते हुआ मानना चाहिये, तो तत्त्वों की संख्या स्वयं ही अट्ठाईस हो जाती है। उन तीनों के अतिरिक्त पचीस ये हैं-) पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी-ये नौ तत्त्व मैं पहले ही गिना चुका हूँ। श्रोत, त्वचा, चक्षु, नासिका और रसना-ये पाँच ज्ञानेद्रियाँ; वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ-ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ; तथा मन, जो कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेद्रिय दोनों ही हैं। इस प्रकार कुल ग्यारह इन्द्रियाँ तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध-ये ज्ञानेद्रियों के पाँच विषय। इस प्रकार तीन, नौ, ग्यारह और पाँच-सब मिलाकर अट्ठाईस तत्त्व होते हैं। कर्मेन्द्रियों के द्वारा होने वाले पाँच कर्म-चलना, बोलना, मल त्यागना, पेशाब करना और काम करना-इनके द्वारा तत्त्वों की संख्या नहीं बढ़ती। इन्हें कर्मेन्द्रियस्वरूप ही मानना चाहिये। सृष्टि के आरम्भ में कार्य (ग्यारह इन्द्रिय और पंचभूत) और कारण (महत्तत्त्व आदि) के रूप में प्रकृति ही रहती है। वही सत्त्वगुण, रजोगुण तमोगुण की सहायता जगत् की स्थिति, उत्पत्ति और संहार सम्बन्धी अवस्थाएँ धारण करती है। अव्यक्त पुरुष तो प्रकृति और उसकी अवस्थाओं का केवल साक्षीमात्र बना रहता है। महत्तत्त्व आदि कारण धातुएँ विकार को प्राप्त होते हुए पुरुष के ईक्षण से शक्ति प्राप्त करके परस्पर मिल जाते हैं और प्रकृति का आश्रय लेकर उसी के बल से ब्रह्माण्ड की सृष्टि करते हैं।

उद्धव जी! जो लोग तत्त्वों की संख्या सात स्वीकार करते हैं, उनके विचार से आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी-ये पाँच भूत, छठा जीव और सातवाँ परमात्मा-जो साक्षी जीव और साक्ष्य जगत् दोनों का अधिष्ठान है-ये ही तत्त्व हैं। देह, इन्द्रिय और प्राणादि की उत्पत्ति तो पंचभूतों से ही हुई है [इसलिये वे इन्हें अलग नहीं गिनते]। जो लोग केवल छः तत्त्व स्वीकार करते हैं, वे कहते हैं कि पाँच भूत हैं और छठा है परम पुरुष परमात्मा। वह परमात्मा अपने बनाये हुए पंचभूतों से युक्त होकर देह आदि की सृष्टि करता है और उनमें जीवरूप से प्रवेश करता है (इस मत के अनुसार जीव का परमात्मा में और शरीर आदि का पंचभूतों में समावेश हो जाता है)। जो लोग कारण के रूप में चार ही तत्त्व स्वीकार करते हैं, वे कहते हैं कि आत्मा से तेज, जल और पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है और जगत् में जितने पदार्थ हैं, सब इन्हीं से उत्पन्न होते हैं। वे सभी कार्यों का इन्हीं में समावेश कर लेते हैं। जो लोग तत्त्वों की संख्या सत्रह बतलाते हैं, वे इस प्रकार गणना करते हैं-पाँच भूत, पाँच तन्मात्राएँ, पाँच ज्ञानेद्रियाँ, एक मन और एक आत्मा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय श्लोक 23-32 का हिन्दी अनुवाद)

जो लोग तत्त्वों की संख्या सोलह बतलाते हैं, उनकी गणना भी इसी प्रकार है। अन्तर केवल इतना ही है कि वे आत्मा में मन का भी समावेश कर लेते हैं और इस प्रकार उनकी तत्त्व संख्या सोलह रह जाती हैं। जो लोग तेरह तत्त्व मानते हैं, वे कहते हैं कि आकाशादि पाँच भूत, श्रोत्रादि पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, एक मन, एक जीवात्मा और परमात्मा-ये तेरह तत्त्व हैं। ग्यारह संख्या मानने वालों ने पाँच भूत, पाँच ज्ञानेद्रियाँ और इनके अतिरिक्त एक आत्मा का अस्तित्व स्वीकार किया है। जो लोग नौ तत्त्व मानते हैं, वे आकाशादि पाँच भूत और मन, बुद्धि, अहंकार-ये आठ प्रकृतियाँ और नवाँ पुरुष-इन्हीं को तत्त्व मानते हैं। उद्धव जी! इस प्रकार ऋषि-मुनियों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से तत्त्वों की गणना की है। सबका कहना उचित ही है, क्योंकि सबकी संख्या युक्तियुक्त है। जो लोग तत्त्वज्ञानी हैं, उन्हें किसी भी मत में बुराई नहीं दीखती। उनके लिये तो सब कुछ ठीक ही है।

उद्धव जी ने कहा ;- 'श्यामसुन्दर! यद्यपि स्वरूपतः प्रकृति और पुरुष-दोनों एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं, तथापि वे आपस में इतने घुल-मिल गये हैं कि साधारणतः उनका भेद नहीं जान पड़ता। प्रकृति में परुष और पुरुष में प्रकृति अभिन्न-से प्रतीत होते हैं। इनकी भिन्नता स्पष्ट कैसे हो? कमलनयन श्रीकृष्ण! मेरे हृदय में इनकी भिन्नता और अभिन्नता को लेकर बहुत बड़ा सन्देह है। आप तो सर्वज्ञ हैं, अपनी युक्तियुक्त वाणी से मेरे सन्देह का निवारण कर दीजिये। भगवन्! आपकी ही कृपा से जीवों को ज्ञान होता है और आपकी माया-शक्ति से ही उनके ज्ञान का नाश होता है। अपनी आत्मस्वरूपिणी माया की विचित्र गति आप ही जानते हैं और कोई नहीं जानता। अतएव आप ही मेरा सन्देह मिटाने में समर्थ हैं।'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- उद्धव जी! प्रकृति और पुरुष, शरीर और आत्मा-इन दोनों में अत्यन्त भेद है। इस प्राकृत जगत् में जन्म-मरण एवं वृद्धि-ह्रास आदि विकार लगे ही रहते हैं। इसका कारण यह है कि यह गुणों के क्षोभ से ही बना है। प्रिय मित्र! मेरी माया त्रिगुणात्मिक है। वही अपने सत्त्व, रज आदि गुणों से अनेकों प्रकार की भेदवृत्तियाँ पैदा कर देती है। यद्यपि इसका विस्तार असीम है, फिर भी इस विकारात्मक सृष्टि को तीन भागों में बाँट सकते हैं। वे तीन भाग हैं-अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत। उदाहरणार्थ-नेत्रेन्द्रिय अध्यात्म है, उसका विषयरूप अधिभूत है और नेत्र-गोलक में स्थित सूर्य देवता का अंश अधिदैव है। ये तीनों परस्पर एक-दूसरे के आश्रय से सिद्ध होते हैं और इसलिये अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत-ये तीनों ही परस्पर सापेक्ष हैं। परन्तु आकाश में स्थित सूर्यमण्डल इन तीनों की अपेक्षा से मुक्त है, क्योंकि वह स्वतःसिद्ध है। इसी प्रकार आत्मा भी उपर्युक्त तीनों भेदों का मूल कारण, उनका साक्षी और उनसे परे हैं। वही अपने स्वयंसिद्ध प्रकाश से समस्त सिद्ध पदार्थों की मूलसिद्धि है। उसी के द्वारा सबका प्रकाश होता है। जिस प्रकार चक्षु के तीन भेद बताये गये, उसी प्रकार त्वचा, श्रोत, जिह्वा, नासिका और चित्त आदि के भी तीन-तीन भेद हैं। प्रकृति से महत्तत्त्व बनता है और महत्तत्त्व से अहंकार। इस प्रकार यह अहंकार गुणों के क्षोभ से उत्पन्न हुआ प्रकृति का ही एक विकार है। अहंकार के तीन भेद हैं-सात्त्विक, तापस और राजस। यह अहंकार ही अज्ञान और सृष्टि की विविधता का मूल कारण है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय श्लोक 33-42 का हिन्दी अनुवाद)

आत्मा ज्ञानस्वरूप है; उसका इन पदार्थों से न तो कोई सम्बन्ध है और न उसमें कोई विवाद की ही बात है। अस्ति-नास्ति (है-नहीं), सगुण-निर्गुण, भाव-अभाव, सत्य-मिथ्या आदि रूप से जितने भी वाद-विवाद हैं, सबका मूल कारण भेददृष्टि ही है। इसमें सन्देह नहीं कि इस विवाद का कोई प्रयोजन नहीं है; यह सर्वथा व्यर्थ है तथापि जो लोग मुझसे-अपने वास्तविक स्वरूप से विमुख हैं, वे इस विवाद से मुक्त नहीं हो सकते।

उद्धव जी ने पूछा ;- 'भगवन्! आपसे विमुख जीव अपने किये हुए पुण्य-पापों के फलस्वरूप ऊँची-नीची योनियों में जाते-आते रहते हैं। अब प्रश्न यह है कि व्यापक आत्मा का एक शरीर से दूसरे शरीर में जाना, अकर्ता का कर्म करना और नित्य-वस्तु का जन्म-मरण कैसे सम्भव है? गोविन्द! जो लोग आत्मज्ञान से रहित हैं, वे तो इस विषय को ठीक-ठीक सोच भी नही सकते और इस विषय के विद्वान् संसार में प्रायः मिलते नहीं, क्योंकि सभी लोग आपकी माया की भूल-भुलैया में पड़े हुए हैं। इसलिये आप ही कृपा करके मुझे इसका रहस्य समझाइये।'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- प्रिय उद्धव! मनुष्यों का मन कर्म-संस्कारों का पुंज है। उन संस्कारों के अनुसार भोग प्राप्त करने के लिये उसके साथ पाँच इन्द्रियाँ भी लगी हुई हैं। इसी का नाम है लिंगशरीर। वही कर्मों के अनुसार एक शरीर से दूसरे शरीर में, एक लोक से दूसरे लोक में आता-जाता रहता है। आत्मा इस लिंगशरीर से सर्वथा पृथक् है। उसका आना-जाना नहीं होता; परन्तु जब वह अपने को लिंगशरीर ही समझ बैठता है, उसी में अहंकार कर लेता है, तब उसे भी अपना जाना-आना प्रतीत होने लगता है। मन कर्मों के अधीन है। वह देखे हुए या सुने हुए विषयों का चिन्तन करने लगता है और क्षण भर में ही उनमें तदाकार हो जाता है तथा उन्हीं पूर्वचिन्तित विषयों में लीन हो जाता है। धीरे-धीरे उसकी स्मृति, पूर्वा पर का अनुसन्धान भी नष्ट हो जाता है। उन देवादि शरीरों में इसका इतना अभिनिवेश, इतनी तल्लीनता हो जाती है कि जीव को अपने पूर्व शरीर का स्मरण भी नहीं रहता। किसी भी कारण से शरीर को सर्वथा भूल जाना ही मृत्यु है।

उदार उद्धव! जब यह जीव किसी भी शरीर को अभेद-भाव से ‘मैं’ के रूप में स्वीकार कर लेता है, तब उसे ही जन्म कहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे स्वप्नकालीन और मनोरथकालीन शरीर में अभिमान करना ही स्वप्न और मनोरथ कहा जाता है। यह वर्तमान देह में स्थित जीव जैसे पूर्वदेह का स्मरण नहीं करता, वैसे ही स्वप्न या मनोरथ में स्थित जीव भी पहले के स्वप्न और मनोरथ को स्मरण नहीं करता, प्रत्युत उस वर्तमान स्वप्न और मनोरथ में पूर्वसिद्ध होने पर भी अपने को नवीन-सा ही समझता है। इन्द्रियों के आश्रय मन या शरीर की सृष्टि से आत्मवस्तु में यह उत्तम, मध्यम और अधम की त्रिविधता भासती है। उसमें अभिमान करने से ही आत्मा बाह्य और आभ्यन्तर भेदों का हेतु मालूम पड़ते लगता है, जैसे दुष्ट पुत्र को उत्पन्न करने वाला पिता पुत्र के शत्रु-मित्र आदि के लिये भेद का हेतु हो जाता है। प्यारे उद्धव! काल की गति सूक्ष्म है। उसे साधारणतः देखा नहीं जा सकता। उसके द्वारा प्रतिक्षण ही शरीरों की उत्पत्ति और नाश होते रहते हैं। सूक्ष्म होने के कारण ही प्रतिक्षण होने वाले जन्म-मरण नहीं दीख पड़ते।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय श्लोक 43-54 का हिन्दी अनुवाद)

जैसे काल के प्रभाव से दिये की लौ, नदियों के प्रवाह अथवा वृक्ष के फलों की विशेष-विशेष अवस्थाएँ बदलती रहती हैं, वैसे ही समस्त प्राणियों के शरीरों की आयु, अवस्था आदि भी बदलती रहती है। जैसे यह उन्हीं ज्योतियों का वही दीपक है, प्रवाह का यह वही जल है-ऐसा समझना और कहना मिथ्या है, वैसे ही विषय-चिन्तन में व्यर्थ आयु बिताने वाले अविवेकी पुरुषों का ऐसा कहना और समझना कि यह वही पुरुष है, सर्वथा मिथ्या है। यद्यपि वह भ्रान्त पुरुष भी अपने कर्मों के बीज द्वारा न पैदा होता है और न तो मरता ही है; वह भी अजन्मा और अमर ही है, फिर भी भ्रान्ति से वह उत्पन्न होता है और मरता-सा भी है, जैसे कि काष्ठ से युक्ति अग्नि पैदा होता और नष्ट होता दिखायी पड़ता है।

उद्धव जी! गर्भाधान, गर्भवृद्धि, जन्म, बाल्यावस्था, कुमारावस्था, जवानी, अधेड़ अवस्था, बुढ़ापा और मृत्यु-ये नौ अवस्थाएँ शरीर की ही हैं। यह शरीर जीव से भिन्न है और ये ऊँची-नीची अवस्थाएँ उसके मनोरथ के अनुसार ही हैं; परन्तु वह अज्ञानवश गुणों के संग से इन्हें अपनी मानकर भटकने लगता है और कभी-कभी विवेक हो जाने पर इन्हें छोड़ भी देता है। पिता को पुत्र के जन्म से और पुत्र को पिता की मृत्यु से अपने-अपने जन्म-मरण का अनुमान कर लेना चाहिये। जन्म-मृत्यु से युक्त देहों का दृष्टा जन्म और मृत्यु से युक्त शरीर नहीं है। जैसे जौ-गेंहूँ आदि की फसल बोने पर उग आती है और पक जाने पर काट दी जाती है, किन्तु जो पुरुष उनके उगने और काटने का जानने वाला साक्षी है, वह उनसे सर्वथा पृथक् है; वैसे ही जो शरीर और उसकी अवस्थाओं का साक्षी है, वह शरीर से सर्वथा पृथक् है। अज्ञानी परुष इस प्रकार प्रकृति और शरीर से आत्मा का विवेचन नहीं करते। वे उसे उनसे तत्त्वतः अलग अनुभव नहीं करते और विषय भोग में सच्चा सुख मानने लगते हैं तथा उसी में मोहित हो जाते हैं। इसी से उन्हें जन्म-मृत्युरूप संसार में भटकना पड़ता है।

जब अविवेकी जीव अपने कर्मों के अनुसार जन्म-मृत्यु के चक्र में भटकने लगता है, तब सात्त्विक कर्मों की आसक्ति से वह ऋषिलोक और देवलोक में राजसिक कर्मों की आसक्ति से मनुष्य और असुरयोनियों में तथा तामसी कर्मों की आसक्ति से भूत-प्रेत एवं पशु-पक्षी आदि योनियों में जाता है। जब मनुष्य किसी को नाचते-गाते देखता है, तब वह स्वयं भी उसका अनुकरण करने-तान तोड़ने लगता है। वैसे ही जब जीव बुद्धि के गुणों को देखता है, तब स्वयं निष्क्रिय होने पर ही भी उसका अनुकरण करने के लिये बाध्य हो जाता है। जैसे नदी-तालाब आदि के जल के हिलने या चंचल होने पर उसमें प्रतिबिम्बित तट के वृक्ष भी उसके साथ हिलते-डोलते-से जान पड़ते हैं, जैसे घुमाये जाने वाले नेत्र के साथ-साथ पृथ्वी भी घुमती हुई-सी दिखायी देती है, जैसे मन के द्वारा सोचे गये तथा स्वप्न में देखे गये भोग पदार्थ सर्वथा अलीक ही होते हैं, वैसे ही हे दाशार्द! आत्मा का विषयानुभवरूप संसार भी सर्वथा असत्य है। आत्मा तो नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव ही है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय श्लोक 55-60 का हिन्दी अनुवाद)

विषयों के सत्य न होने पर भी जो जीव विषयों का ही चिन्तन करता रहता है, उसक यह जन्म-मृत्युरूप संसार-चक्र कभी निवृत्ति नहीं होता, जैसे स्वप्न में प्राप्त अनर्थ-परम्परा जागे बिना निवृत्त नहीं होती।

प्रिय उद्धव! इसलिये इन दुष्ट (कभी तृप्त न होने वाली) इन्द्रियों से विषयों को मत भोगो। आत्म-विषयक अज्ञान से प्रतीत होने वाला सांसारिक भेद-भाव भ्रममूलक ही है, ऐसा समझो। असाधु पुरुष गर्दन पकड़कर बाहर निकाल दें, वाणी द्वारा अपमान करें, उपहास करें, निन्दा करें, मारें-पीटें, बांधें, आजीविका छीन लें, ऊपर थूक दें, मूत दें अथवा तरह-तरह से विचलित करें, निष्ठा से डिगाने की चेष्टा करें; उसके किसी भी उपद्रव से क्षुब्ध न होना चाहिये; क्योंकि जो बेचारे अज्ञानी हैं, उन्हें परमार्थ का तो पता ही नहीं हैं। अतः जो अपने कल्याण का इच्छुक है, उसे सभी कठिनाइयों से अपनी विवेक-बुद्धि द्वारा ही-किसी बाह्य साधन से नहीं-अपने को बचा लेना चाहिये। वस्तुतः आत्म-दृष्टि ही समस्त विपत्तियों से बचने का एकमात्र साधन है।

उद्धव जी ने कहा ;- 'भगवन्! आप समस्त वक्ताओं के शिरोमणि हैं। मैं इस दुर्जनों से किये गये तिरस्कार को अपने मन में अत्यन्त असह्य समझता हूँ। अतः जैसे मैं इसको समझ सकूँ, आपका उपदेश जीवन में धारण कर सकूँ, वैसे हमें बतलाइये। विश्वात्मन्! जो आपके भागवत धर्म के आचरण में प्रेमपूर्वक संलग्न हैं, जिन्होंने आपके चरण कमलों का ही आश्रय ले लिया है, उन शान्त पुरुषों के अतिरिक्त बड़े-बड़े विद्वानों के लिये भी दुष्टों के द्वारा किया हुआ तिरस्कार सह लेना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि प्रकृति अत्यन्त बलवती है।'


                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【तेईसवाँ अध्याय】२३


"एक तितिक्षु ब्राह्मण का इतिहास"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रयोविंश अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! वास्तव में भगवान की लीला कथा ही श्रवण करने योग्य है। वे ही प्रेम और मुक्ति के दाता हैं। जब उनके परमप्रेमी भक्त उद्धव जी ने इस प्रकार प्रार्थना की, तब यदुवंशविभूषण श्रीभगवान ने उनके प्रश्न की प्रशंसा करके उनसे इस प्रकार कहा-

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- देवगुरु बृहस्पति के शिष्य उद्धव जी! इस संसार में प्रायः ऐसे संत-पुरुष नहीं मिलते, जो दुर्जनों की कटुवाणी से बिंधे हुए अपने हृदय को सँभाल सकें। मनुष्य का हृदय मर्मभेदी बाणों से बिंधने पर भी उतनी पीड़ा का अनुभव नहीं करता, जितनी पीड़ा उसे दुष्टजनों के मर्मान्तक एवं कठोर वाग्बाण पहुँचाते हैं। उद्धव जी! इस विषय में महात्मा लोग एक बड़ा पवित्र प्राचीन इतिहास कहा करते हैं; मैं वही तुम्हें सुनाउँगा, तुम मन लगाकर उसे सुनो। एक भिक्षुक को दुष्टों ने बहुत सताया था। उस समय भी उसने अपना धैर्य न छोड़ा और उसे अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल समझकर कुछ अपने मानसिक उदगार प्रकट किये थे। उन्हीं का इस इतिहास में वर्णन है।

प्राचीन समय की बात है, उज्जैन में एक ब्राह्मण रहता था। उसने खेती-व्यापार आदि करके बहुत-सी धन-सम्पत्ति इकट्ठी कर ली थी। वह बहुत ही कृपण, कामी और लोभी था। क्रोध तो उसे बात-बात में आ जाया करता था। उसने अपने जाति-बन्धु और अतिथियों को कभी मीठी बात से भी प्रसन्न नहीं किया, खिलाने-पिलाने की तो बात ही क्या है। वह धर्म-कर्म से रीते घर में रहता और स्वयं भी अपनी धन-सम्पत्ति के द्वारा समय पर अपने शरीर को भी सुखी नहीं करता था। उसकी कृपणता और बुरे स्वभाव के कारण उसके बेटे-बेटी, भाई-बन्धु, नौकर-चाकर और पत्नी आदि सभी दुःखी रहते और मन-ही-मन उसका अनिष्टचिन्तन किया करते थे। कोई भी उसके मन को प्रिय लगने वाला व्यवहार नहीं करता था। वह लोक-परलोक दोनों से गिर गया था। बस, यक्षों के समान धन की रखवाली करता रहता था। उस धन से वह न तो धर्म कमाता था और न भोग ही भोगता था। बहुत दिनों तक इस प्रकार जीवन बिताने से उस पर पंच महायज्ञ के भागी देवता बिगड़ उठे।

उदार उद्धव जी! पंच महायज्ञ के भागियों के तिरस्कार से उसके पूर्व-पुण्यों का सहारा-जिसके बल से अब तक धन टिका हुआ था-जाता रहा और जिसे उसने बड़े उद्योग और परिश्रम से इकठ्ठा किया था, वह धन उसकी आँखों के सामने ही नष्ट-भ्रष्ट हो गया। उस नीच ब्राह्मण का कुछ धन तो उसके कुटुम्बियों ने ही छीन लिया, कुछ चोर चुरा ले गये। कुछ आग लग जाने आदि दैवी कोप से नष्ट हो गया, कुछ समय के फेर से मारा गया। कुछ साधारण मनुष्यों ने ले लिया और बचा-खुचा कर और दण्ड के रूप में शासकों ने हड़प लिया। उद्धव जी! इस प्रकार उसकी सारी सम्पत्ति जाती रही। न तो उसने धर्म ही कमाया और न भोग ही भोगे। इधर उसके सगे-सम्बन्धियों ने भी उसकी ओर से मुँह मोड़ लिया। अब उसे बड़ी भयानक चिन्ता ने घेर लिया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रयोविंश अध्याय श्लोक 13-25 का हिन्दी अनुवाद)

धन के नाश से उसके हृदय में बड़ी जलन हुई। उसका मन खेद से भर गया। आँसुओं के कारण गला रूँध गया। परन्तु इस तरह चिन्ता करते-करते ही उसके मन में संसार के प्रति महान् दुःखबुद्धि और उत्कट वैराग्य का उदय हो गया। अब वह ब्राह्मण मन-ही-मन कहने लगा- ‘हाय! हाय!! बड़े खेद की बात है, मैंने इतने दिनों तक अपने को व्यर्थ ही इस प्रकार सताया। जिस धन के लिये मैंने सरतोड़ परिश्रम किया, वह न तो धर्म कर्म में लगा और न मेरे सुख भोग के ही काम आया। प्रायः देखा जाता है कि कृपण पुरुषों को धन से कभी सुख नहीं मिलता। इस लोक में तो वे धन कमाने और रक्षा की चिन्ता से जलते रहते हैं और मरने पर धर्म न करने के कारण नरक में जाते हैं। जैसे थोडा-सा भी कोढ़ सर्वांगसुन्दर स्वरूप को बिगाड़ देता है, वैसे ही तनिक-सा भी लोभ यशस्वियों के शुद्ध यश और गुणियों के प्रशंसनीय गुणों पर पानी फेर देता है।

धन कमाने में, कमा लेने पर उसको बढ़ाने, रखने एवं खर्च करने में तथा उसके नाश और उपभोग में-जहाँ देखो वहीं निरन्तर परिश्रम, भय, चिन्ता और भ्रम का ही सामना करना पड़ता है। चोरी, हिंसा, झूठ बोलना, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व, अहंकार, भेदबुद्धि, वैर, अविश्वास, स्पर्द्धा, लम्पटता, जुआ और शराब-ये पन्द्रह अनर्थ मनुष्यों में धन के कारण ही माने गये हैं। इसलिये कल्याणकामी पुरुष को चाहिये कि स्वार्थ एवं परमार्थ के विरोधी अर्थनामधारी अनर्थ को दूर से छोड़ दे। भाई-बन्धु, स्त्री-पुत्र, माता-पिता, सगे-सम्बन्धी-जो स्नेहबन्धन से बँधकर बिलकुल एक हुए रहते हैं-सब-के-सब कौड़ी के कारण इतने फट जाते हैं कि तुरंत एक-दूसरे के शत्रु बन जाते हैं। ये लोग थोड़े-से धन के लिये भी क्षुब्ध और क्रुद्ध हो जाते हैं। बात-की-बात में सौहार्द-सम्बन्ध छोड़ देते हैं, लाग-डांट रखने लगते हैं और एकाएक प्राण लेने-देने पर उतारू हो जाते हैं। यहाँ तक कि एक-दूसरे का सर्वनाश कर डालते हैं।

देवताओं के भी प्रार्थनीय मनुष्य-जन्म को और उसमें भी श्रेष्ठ ब्राह्मण-शरीर प्राप्त करके जो उसका अनादर करते हैं और अपने सच्चे स्वार्थ-परमार्थ का नाश करते है, वे अशुभ गति को प्राप्त होते हैं। यह मनुष्य-शरीर मोक्ष और स्वर्ग का द्वार है, इसको पाकर भी ऐसा कौन बुद्धिमान मनुष्य है जो अनर्थों के धाम धन के चक्कर में फँसा रहे। जो मनुष्य देवता, ऋषि, पितर, प्राणी, जाति-भाई, कुटुम्बी और धन के दूसरे भागीदारों को उनका देकर सन्तुष्ट नहीं रखता और न स्वयं ही उसका उपभोग करता है, वह यक्ष के समान धन की रखवाली करने वाला कृपण तो अवश्य ही अधोगति को प्राप्त होता है। मैं अपने कर्तव्य से च्युत हो गया हूँ। मैंने प्रमाद में अपनी आयु, धन और बल-पौरुष खो दिये। विवेकी लोग जिन साधनों से मोक्ष तक प्राप्त कर लेते हैं, उन्हीं को मैंने धन इकठ्ठा करने की व्यर्थ चेष्टा में खो दिया। अब बुढ़ापे में मैं कौन-सा साधन करूँगा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रयोविंश अध्याय श्लोक 26-39 का हिन्दी अनुवाद)

मुझे मालूम नहीं होता कि बड़े-बड़े विद्वान् भी धन की व्यर्थ तृष्णा से निरन्तर क्यों दुःखी रहते हैं? हो-न-हो, अवश्य ही यह संसार किसी की माया से अत्यन्त मोहित हो रहा है। यह मनुष्य-शरीर काल के विकराल गाल में पड़ा है। इसको धन से, धन देने वाले देवताओं और लोगों से, भोग वासनाओं और उनको पूर्ण करने वालों से तथा पुनः-पुनः जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालने वाले सकाम कर्मों से लाभ ही क्या है? इसमें सन्देह नहीं कि सर्वदेवस्वरूप भगवान मुझ पर प्रसन्न हैं। तभी तो उन्होंने मुझे इस दशा में पहुँचाया है और मुझे जगत् के प्रति यह दुःख-बुद्धि और वैराग्य दिया है। वस्तुतः वैराग्य ही इस संसार-सागर से पार होने के लिये नौका के समान है। मैं अब ऐसी अवस्था में पहुँच गया हूँ। यदि मेरी आयु शेष हो तो मैं आत्मलाभ में ही सन्तुष्ट रहकर अपने परमार्थ के सम्बन्ध में सावधान हो जाऊँगा और अब जो समय बच रहा है, उसमें अपने शरीर को तपस्या के द्वारा सुखा डालूँगा। तीनों लोकों के स्वामी देवगण मेरे इस संकल्प का अनुमोदन करें। अभी निराश होने की कोई बात नहीं है, क्योंकि राजा खट्वांग ने तो दो घड़ी में ही भगवद्धाम की प्राप्ति कर ली थी।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- उद्धव जी! उस उज्जैन निवासी ब्राह्मण ने मन-ही-मन इस प्रकार निश्चय करके ‘मैं’ और ‘मेरे’ पन की गाँठ खोल दी। इसके बाद वह शान्त होकर मौनी संन्यासी हो गया। अब उसके चित्त में किसी भी स्थान, वस्तु या व्यक्ति के प्रति आसक्ति न रही। उसने अपने मन, इन्द्रिय और प्राणों को वश में कर लिया। वह पृथ्वी पर स्वच्छन्द रूप से विचरने लगा। वह भिक्षा के लिये नगर और गाँवों में जाता अवश्य था, परन्तु इस प्रकार जाता था कि कोई उसे पहचान न पाता था। उद्धव जी! वह भिक्षुक अवधूत बहुत बूढ़ा हो गया था। दुष्ट उसे देखते ही टूट पड़ते और तरह-तरह से उसका तिरस्कार करके उसे तंग करते। कोई उसका दण्ड छीन लेता, तो कोई भिक्षापात्र ही झटक ले जाता। कोई कमण्डलु उठा ले जाता तो कोई आसन, रुद्राक्ष माला और कन्था ही लेकर भाग जाता। कोई तो उसकी लँगोटी और वस्त्र को ही इधर-उधर डाल देते। कोई-कोई वे वस्तुएँ देकर और कोई दिखला-दिखलाकर फिर छीन लेते।

जब वह अवधूत मधुकरी माँग कर लाता और बाहर नदी-तट पर भोजन करने बैठता, तो पापी लोग कभी उसके सिर पर मूत देते, तो कभी थूक देते। वे लोग उस मौनी अवधूत को तरह-तरह से बोलने के लिये विवश करते और जब वह इस पर भी न बोलता तो उसे पीटते। कोई उसे चोर कहकर डाँटने-डपटने लगता। कोई कहता ‘इसे बाँध लो, बाँध लो’ और फिर उसे रस्सी से बाँधने लगते। कोई उसका तिरस्कार करके इस प्रकार ताना कसते कि ‘देखो-देखो, अब इस कृपण ने धर्म का ढोंग रचा है। धन-सम्पत्ति जाती रही, स्त्री-पुत्रों ने घर से निकाल दिया; तब इसने भीख माँगने का रोजगार लिया है। ओहो! देखो तो सही, यह मोटा-तगड़ा भिखारी धैर्य में बड़े भारी पर्वत के समान है। यह मौन रहकर अपना काम बनाना चाहता है। सचमुच यह बगुले से भी बढ़कर ढोंगी और दृढ़निश्चयी है’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रयोविंश अध्याय श्लोक 40-49 का हिन्दी अनुवाद)

कोई उस अवधूत की हँसी उड़ाता, तो कोई उस पर अधोवायु छोड़ता। जैसे लोग तोता-मैना आदि पालतू पक्षियों को बाँध लेते या पिंजड़े में बंद कर लेते हैं, वैसे ही उसे भी वे लोग बाँध देते और घरों में बंद कर देते। किन्तु वह सब चुपचाप सह लेता। उसे कभी ज्वर आदि के कारण दैहिक पीड़ा सहनी पड़ती, कभी गरमी-सर्दी आदि से दैवी कष्ट उठाना पड़ता और कभी दुर्जन लोग अपमान आदि के द्वारा उसे भौतिक पीड़ा पहुँचाते; परन्तु भिक्षुक के मन में इससे कोई विकार न होता। वह समझता कि यह सब मेरे पूर्वजन्म के कर्मों का फल है और इसे मुझे अवश्य भोगना पड़ेगा। यद्यपि नीच मनुष्य तरह-तरह के तिरस्कार करके उसे उसके धर्म से गिराने की चेष्टा किया करते, फिर भी वह बड़ी दृढ़ता से अपने धर्म में स्थिर रहता और सात्त्विक धैर्य का आश्रय लेकर कभी-कभी ऐसे उद्गार प्रकट किया करता।

ब्राह्मण कहता ;- मेरे सुख अथवा दुःख का कारण न ये मनुष्य हैं, न देवता हैं, न शरीर है और न ग्रह, कर्म एवं काल आदि ही हैं। श्रुतियाँ और महात्माजन मन को ही इसका परम कारण बताते हैं और मन ही इस सारे संसार-चक्र को चला रहा है। सचमुच यह मन बहुत बलवान् है। इसी ने विषयों, उनके कारण गुणों और उनसे सम्बन्ध रहने वाली वृत्तियों की सृष्टि की है। उन वृतियों के अनुसार ही सात्त्विक, राजस और तामस-अनेकों प्रकार के कर्म होते हैं और कर्मों के अनुसार ही जीव की विविध गतियाँ होती हैं। मन ही समस्त चेष्टाएँ करता है। उसके साथ रहने पर भी आत्मा निष्क्रिय ही है। वह ज्ञानशक्तिप्रधान है, मुझ जीव का सनातन सखा है और अपने अलुप्त ज्ञान से सब कुछ देखता रहता है। मन के द्वारा ही उसकी अभिव्यक्ति होती है। जब वह मन को स्वीकार करके उसके द्वारा विषयों का भोक्ता बन बैठता है, तब कर्मों के साथ आसक्ति होने के कारण व उनसे बँध जाता है।

दान, अपने धर्म का पालन, नियम, यम, वेदाध्ययन, सत्कर्म और ब्रह्मचर्यादी श्रेष्ठ व्रत-इन सब का अन्तिम फल यही है कि मन एकाग्र हो जाये, भगवान में लग जाये। मन का समाहित हो जाना ही परम योग है। जिसका मन शान्त और समाहित है, उसे दान आदि समस्त सत्कर्मों का फल प्राप्त हो चुका है। अब उनसे कुछ लेना बाकी नहीं है और जिसका मन चंचल है अथवा आलस्य से अभिभूत हो रहा है, उसको इन दानादि शुभकर्मों से अब तक कोई लाभ नहीं हुआ। सभी इन्द्रियाँ मन के वश में हैं। मन किसी भी इन्द्रिय के वश में नहीं है। यह मन बलवान् से भी बलवान्, अत्यन्त भयंकर देव है। जो इसको अपने वश में कर लेता है, वही देव-देव-इन्द्रियों का विजेता है। सचमुच मन बहुत बड़ा शत्रु है। इसका आक्रमण असह्य है। यह बाहरी शरीर को ही नहीं, हृदयादि मर्मस्थानों को भी बेधता रहता है। इसे जीतना बहुत ही कठिन है। मनुष्यों को चाहिये कि सबसे पहले इसी शत्रु पर विजय प्राप्त करे; परन्तु होता है यह कि मूर्ख लोग इसे तो जीतने का प्रयत्न करते नहीं, दूसरे मनुष्यों से झूठमूठ झगड़ा-बखेड़ा करते रहते हैं और इस जगत् के लोगों को ही मित्र-शत्रु-उदासीन बना लेते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रयोविंश अध्याय श्लोक 50-56 का हिन्दी अनुवाद)

साधारणतः मनुष्यों की बुद्धि अंधी हो रही है। तभी तो वे इस मनःकल्पित शरीर को ‘मैं’ और ‘मेरा’ मान बैठते हैं और फिर इस भ्रम के फंदे में फँस जाते हैं कि ‘यह मैं हूँ और यह दूसरा।’ इसका परिणाम यह होता है कि वे इस अनन्त अज्ञानान्धकार में ही भटकते रहते हैं। यदि मान लें कि मनुष्य ही सुख-दुःख का कारण है, तो भी उनसे आत्मा का क्या सम्बन्ध? क्योंकि सुख-दुःख पहुँचाने वाला भी मिट्टी का शरीर है और भोगने वाला भी। कभी भोजन आदि के समय यदि अपने दाँतों से ही अपनी जीभ कट जाये और उससे पीड़ा होने लगे, तो मनुष्य किस पर क्रोध करेगा? यदि ऐसा मान लें कि देवता ही दुःख के कारण हैं तो भी इस दुःख से आत्मा की क्या हानि? क्योंकि यदि दुःख के कारण देवता हैं, तो इन्द्रियाभिमानी देवताओं के रूप में उनके भोक्ता भी तो वे ही हैं और देवता सभी शरीरों में एक है; जो देवता एक शरीर में है; वे ही दूसरे में भी है। ऐसी दशा में यदि अपने ही शरीर के किसी एक अंग से दूसरे अंग को चोट लग जाये तो भला, किस पर क्रोध किया जायेगा?

यदि ऐसा मानें कि आत्मा ही सुख-दुःख का कारण है तो वह तो अपना आप ही है, कोई दूसरा नहीं; क्योंकि आत्मा से भिन्न कुछ और है ही नहीं। यदि दूसरा कुछ प्रतीत होता है तो वह मिथ्या है। इसलिये न सुख है, न दुःख, फिर क्रोध कैसा? क्रोध का निमित्त ही क्या? यदि ग्रहों को सुख-दुःख का निमित्त माने, तो उनसे भी अजन्मा आत्मा की क्या हानि? उनका प्रभाव भी जन्म-मृत्युशील शरीर पर ही होता है। ग्रहों की पीड़ा तो उनका प्रभाव ग्रहण करने वाले शरीर को ही होती है और आत्मा उन ग्रहों और शरीर से सर्वथा परे हैं। तब भला वह किस पर क्रोध करे? यदि कर्मों को ही सुख-दुःख का कारण माने, तो उनसे आत्मा का क्या प्रयोजन? क्योंकि वे तो एक पदार्थ के जड़ और चेतन-उभयरूप होने पर ही हो सकते हैं।

(जो वस्तु विकारयुक्त और अपना हिताहित जानने वाली होती है, उसी से कर्म हो सकते हैं; अतः वह विकारयुक्त होने के कारण जड़ होनी चाहिये और हिताहित का ज्ञान रखने के कारण चेतन।) किन्तु देह तो अचेतन है और उसमें पक्षीरूप से रहने वाला आत्मा सर्वथा निर्विकार और साक्षीमात्र है। इस प्रकार कर्मों का तो कोई आधार ही सिद्ध नहीं होता। फिर क्रोध किस पर करें? यदि ऐसा माने कि काल ही सुख-दुःख का कारण है, तो आत्मा पर उसका क्या प्रभाव? क्योंकि काल तो आत्मस्वरूप ही है। जैसे आग आग को नहीं जला सकती और बर्फ बर्फ को नहीं गला सकता, वैसे ही आत्मस्वरूप काल अपने आत्मा को ही सुख-दुःख नहीं पहुँचा सकता। फिर किस पर क्रोध किया जाये? आत्मा शीत-उष्ण, सुख-दुःख आदि द्वन्दों से सर्वथा अतीत है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रयोविंश अध्याय श्लोक 57-62 का हिन्दी अनुवाद)

आत्मा प्रकृति के स्वरूप, धर्म, कार्य, लेश, सम्बन्ध और गन्ध से भी रहित है। उसे कभी कहीं किसी के द्वारा किसी भी प्रकार से द्वन्द का स्पर्श ही नहीं होता। वह तो जन्म-मृत्यु के चक्र में भटकने वाले अहंकार को ही होता है। जो इस बात को जान लेता है, वह फिर किसी भी भय के निमित्त से भयभीत नहीं होता। बड़े-बड़े प्राचीन ऋषि-मुनियों ने इस परमात्मनिष्ठा का आश्रय ग्रहण किया है। मैं भी इसी का आश्रय ग्रहण करूँगा और मुक्ति तथा प्रेम के दाता भगवान के चरणकमलों की सेवा के द्वारा ही इस दुरन्त अज्ञान सागर को अनायास ही पार कर लूँगा।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- उद्धव जी! उस ब्राह्मण का दान क्या नष्ट हुआ, उसका सारा क्लेश ही दूर हो गया। अब वह संसार से विरक्त हो गया था और संन्यास लेकर पृथ्वी में स्वच्छन्द विचर रहा था। यद्यपि दुष्टों ने उसे बहुत सताया, फिर भी वह अपने धर्म में अटल रहा, तनिक भी विचलित न हुआ। उस समय वह मौनी अवधूत मन-ही-मन इस प्रकार का गीत गाया करता था।

उद्धव जी! इस संसार में मनुष्य को कोई दूसरा सुख या दुःख नहीं देता, यह तो उसके चित्त का भ्रममात्र है। यह सारा संसार और इसके भीतर मित्र, उदासीन और शत्रु के भेद अज्ञानकल्पित हैं। इसलिये प्यारे उद्धव! अपनी वृत्तियों को मुझ में तन्मय कर दो और इस प्रकार अपनी सारी शक्ति लगाकर मन को वश में कर लो और फिर मुझ में ही नित्य युक्त होकर स्थित हो जाओ। बस, सारे योग साधन का इतना ही सार-संग्रह है। यह भिक्षुक का गीत क्या है, मुर्तिमान् ब्रह्मज्ञान-निष्ठा ही है। जो पुरुष एकाग्रचित्त से इसे सुनता, सुनाता और धारण करता है, वह कभी सुख-दुःखादि द्वन्दों के वश में नहीं होता। उनके बीच में भी वह सिंह के समान दहाड़ता रहता है।


                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【चौबीसवाँ अध्याय】२४


"सांख्ययोग"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: चतुर्विंश अध्याय श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- प्यारे उद्धव! अब मैं तुम्हें सांख्यशास्त्र का निर्णय सुनाता हूँ। प्राचीन काल के बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों ने इसका निश्चय किया है। जब जीव इसे भलीभाँति समझ लेता है तो वह भेदबुद्धि मूलक सुख-दुःखादिरूप भ्रम का तत्काल त्याग कर देता है। युगों से पूर्व प्रलयकाल में आदिसत्ययुग में और जब कभी मनुष्य विवेक निपुण होते हैं-इन सभी अवस्थाओं में यह सम्पूर्ण दृश्य और दृष्टा, जगत् और जीव विकल्पशून्य किसी प्रकार के भेदभाव से रहित केवल ब्रह्म ही होते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह्म में किसी प्रकार का विकल्प नहीं है, वह केवल-अद्वितीय सत्य है; मन और वाणी की उसमें गति नहीं है। वह ब्रह्म ही माया और उसमें प्रतिबिम्बित जीव के रूप में-दृश्य और दृष्टा के रूप में-दो भागों में विभक्त-सा हो गया। उनमें से एक वस्तु को प्रकृति कहते हैं। उसी ने जगत् में कार्य और कारण का रूप धारण किया है। दूसरी वस्तु को, जो ज्ञानस्वरूप है, पुरुष कहते हैं।

उद्धव जी! मैंने ही जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार प्रकृति को क्षुब्ध किया। तब उससे सत्त्व, रज और तम-ये तीन गुण प्रकट हुए। उनसे क्रिया-शक्ति प्रधान सूत्र और ज्ञानशक्ति प्रधान महत्तत्त्व प्रकट हुए। वे दोनों परस्पर मिले हुए ही हैं। महत्तत्त्व में विकार होने पर अहंकार व्यक्त हुआ। यह अहंकार ही जीवों को मोह में डालने वाला है। वह तीन प्रकार का है-सात्त्विक, राजस और तामस। अहंकार पंचतन्मात्रा, इन्द्रिय और मन का कारण है; इसलिये वह जड़-चेतन-उभयात्मक है। तामस अहंकार से पंचतन्मात्राएँ और उनसे पाँच भूतों की उत्पत्ति हुई तथा राजस अहंकार से इन्द्रियाँ और सात्त्विक अहंकार से इन्द्रियों के अधिष्ठाता ग्यारह देवता[1] प्रकट हुए। ये सभी पदार्थ मेरी प्रेरणा से एकत्र होकर परस्पर मिल गये और इन्होंने यह ब्रह्माण्डरूप अण्ड उत्पन्न किया। यह अण्ड जल में स्थित हो गया, तब मैं नारायणरूप से इसमें विराजमान हो गया। मेरी नाभि से विश्वकमल की उत्पत्ति हुई। उसी पर ब्रह्मा का आविर्भाव हुआ।

विश्वसमष्टि के अन्तःकरण ब्रह्मा ने पहले बहुत बड़ी तपस्या की। उसके बाद मेरा कृपा-प्रसाद प्राप्त करके रजोगुण के द्वारा भूः, भुवः, स्वः अर्थात् पृथ्वी, अन्तरिक्ष और स्वर्ग- इन तीन लोकों की और इनके लोकपालों की रचना की। देवताओं के निवास के लिये स्वर्लोक, भूत-प्रेतादि के लिये भुवर्लोक (अन्तरिक्ष) और मनुष्य आदि के लिये भूर्लोक (पृथ्वीलोक) का निश्चय किया गया। इन तीनों लोकों से ऊपर महर्लोक, तपोलोक आदि सिद्धों के निवास स्थान हुए। सृष्टिकार्य में समर्थ ब्रह्मा जी ने असुर और नागों के लिये पृथ्वी के नीचे अतल, वितल, सुतल आदि सात पाताल बनाये। इन्हीं तीनों लोकों में त्रिगुणात्मक कर्मों के अनुसार विविध गतियाँ प्राप्त होती हैं। योग, तपस्या और संन्यास के द्वरा महर्लोक, जनलोक, तपलोक और सत्यलोकरूप उत्तम गति प्राप्त होती है तथा भक्तियोग से मेरा परमधाम मिलता है। यह सारा जगत् कर्म और उनके संस्कारों से युक्त है। मैं ही कालरूप से कर्मों के अनुसार उनके फल का विधान करता हूँ। इस गुणप्रवाह में पड़कर जीव कभी डूब जाता है और कभी ऊपर आ जाता है-कभी उसकी अधोगति होती है और कभी उसे पुण्यवश उच्च गति प्राप्त हो जाती है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: चतुर्विंश अध्याय श्लोक 16-29 का हिन्दी अनुवाद)

जगत् में छोटे-बड़े, मोटे-पतले-जितने भी पदार्थ बनते हैं, सब प्रकृति और पुरुष दोनों के संयोग से ही सिद्ध होते हैं। जिसके आदि और अन्त में जो है, वही बीच में भी है और वही सत्य है। विकार तो केवल व्यवहार के लिये की हुई कल्पनामात्र है। जैसे कंगन-कुण्डल आदि सोने के विकार और घड़े-सकोरे आदि मिट्टी के विकार पहले सोना या मिट्टी ही थे, बाद में भी सोना या मिट्टी ही रहेंगे। अतः बीच में भी वे सोना या मिट्टी ही हैं। पूर्ववर्ती कारण (महत्तत्त्व आदि) भी जिस परम कारण को उपादान बनाकर अपर (अहंकार आदि) कार्य-वर्ग की सृष्टि करते हैं, वही उनकी अपेक्षा भी परम सत्य है। तात्पर्य यह कि जब जो जिस किसी भी कार्य के आदि और अन्त में विद्यमान रहता है, वही सत्य है। इस प्रपंच का उपादान-कारण प्रकृति है, परमात्मा अधिष्ठान है और इसको प्रकट करने वाला काल है। व्यवहार-काल की यह त्रिविधता वस्तुतः ब्रह्म-स्वरूप है और मैं वही शुद्ध ब्रह्म हूँ। जब तक परमात्मा की ईक्षणशक्ति अपना काम करती रहती है, जब तक उनकी पालन-प्रवृत्ति बनी रहती है, तब तक जीवों के कर्मभोग के लिये कारण-कार्यरूप से अथवा पिता-पुत्रादि के रूप से यह सृष्टि चक्र निरन्तर चलता रहता है।

यह विराट् ही विविध लोकों की सृष्टि, स्थिति और संहार की लीलाभूमि है। जब मैं कालरूप से इसमें व्याप्त होता हूँ, प्रलय का संकल्प करता हूँ, तब यह भुवनों के साथ विनाशरूप विभाग योग्य हो जाता है। उसके लीन होने की प्रक्रिया यह है कि प्राणियों के शरीर अन्न में, अन्न बीज में, बीज भूमि में और भूमि गन्ध-तन्मात्रा में लीन हो जाती है। गन्ध जल में, जल अपने गुण रस में, रस तेज में और तेज रूप में लीन हो जाता है। रूप वायु में, वायु स्पर्श में, स्पर्श आकाश में तथा आकाश शब्दतन्मात्रा में लीन हो जाता है। इन्द्रियाँ अपने कारण देवताओं में और अन्ततः राजस अहंकार में समा जाती हैं। हे सौम्य! राजस अहंकार अपने नियन्ता सात्त्विक अहंकाररूप मन में, शब्दतन्मात्रा पंचभूतों के कारण तामस अहंकारों में और सारे जगत् को मोहित करने में समर्थ त्रिविध अहंकार महत्तत्त्व में लीन हो जाता है। ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति प्रधान महत्तत्त्व अपने कारण गुणों में लीन हो जाता है। गुण अव्यक्त प्रकृति में और प्रकृति अपने प्रेरक अविनाशी काल में लीन हो जाती है। काल मायामय जीव में और जीव मुझ अजन्मा आत्मा में लीन हो जाता है। आत्मा किसी में लीन नहीं होता, वह उपाधिरहित अपने स्वरूप में ही स्थित रहता है। वह जगत् की सृष्टि और लय का अधिष्ठान एवं अवधि है।

उद्धव जी! जो इस प्रकार विवेकदृष्टि से देखता है, उसके चित्त में यह प्रपंच का भ्रम हो ही नहीं सकता। यदि कदाचित् उसकी स्फूर्ति हो भी जाये तो वह अधिक काल तक हृदय में ठहर कैसे सकता है? क्या सूर्योदय होने पर भी आकाश में अन्धकार ठहर सकता है। उद्धव जी! मैं कार्य और कारण दोनों का ही साक्षी हूँ। मैंने तुम्हें सृष्टि से प्रलय और प्रलय से सृष्टि तक की सांख्यविधि बतला दी। इससे सन्देह की गाँठ कट जाती है और पुरुष अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है।


                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【पच्चीसवाँ अध्याय】२५


"तीनों गुणों की वृत्तियों का निरूपण"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: पंचविंश अध्याय श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- पुरुषप्रवर उद्धव जी! प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग गुणों का प्रकाश होता है। उनके कारण प्राणियों के स्वभाव में भी भेद हो जाता है। अब मैं बतलाता हूँ कि किस गुण से कैसा-कैसा स्वभाव बनता है। तुम सावधानी से सुनो।

सत्त्वगुण की वृत्तियाँ हैं-शम (मनःसंयम), दम (इन्द्रियनिग्रह), तितिक्षा (सहिष्णुता), विवेक, तप, सत्य, दया, स्मृति, सन्तोष, त्याग, विषयों के प्रति अनिच्छा, श्रद्धा, लज्जा (पाप करने में स्वाभाविक संकोच), आत्मरति, दान, विनय और सरलता आदि। रजोगुण की वृत्तियाँ हैं-इच्छा, प्रयत्न, घमंड, तृष्णा (असन्तोष), ऐंठ या अकड़, देवताओं से धन आदि की याचना, भेदबुद्धि, विषयभोग, युद्धादि के लिये मदजनित उत्साह, अपने यश में प्रेम, हास्य, पराक्रम और हठपूर्वक उद्योग करना आदि। तमोगुण की वृत्तियाँ हैं-क्रोध (असहिष्णुता), लोभ, मिथ्या भाषण, हिंसा, याचना, पाखण्ड, श्रम, कलह, शोक, मोह, विषाद, दीनता, निद्रा, आशा, भय और अकर्मण्यता आदि। इस प्रकार क्रम से सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की अधिकांश वृत्तियों का पृथक्-पृथक् वर्णन किया गया। अब उनके मेल से होने वाली वृत्तियों का वर्णन सुनो।

उद्धव जी! ‘मैं हूँ और यह मेरा है’ इस प्रकार की बुद्धि में तीनों गुणों का मिश्रण है। जिन मन, शब्दादि विषय, इन्द्रिय और प्राणों के कारण पूर्वोक्त वृत्तियों का उदय होता है, वे सब-के-सब सात्त्विक, राजस और तामस हैं। जब मनुष्य धर्म, अर्थ और काम में संलग्न रहता है, तब उसे सत्त्वगुण से श्रद्धा, रजोगुण से रति और तमोगुण से धन की प्राप्ति होती है। यह भी गुणों का मिश्रण ही है। जिस समय मनुष्य स्कन कर्म, गृहस्थाश्रम और स्वधर्माचरण में अधिक प्रीति रखता है, उस समय भी उसमें तीनों का गुणों का मेल ही समझना चाहिये। मानसिक शान्ति और जितेन्द्रियता आदि गुणों से सत्त्वगुणी पुरुष की, कामना आदि से रजोगुणी पुरुष की और क्रोध-हिंसा आदि से तमोगुणी पुरुष की पहचान करे। पुरुष हो, चाहे स्त्री-जब वह निष्काम होकर अपने नित्य-नैमित्तिक कर्मों द्वारा मेरी आराधना करे, तब उसे सत्त्वगुणी जानना चाहिये। सकामभाव से अपने कर्मों के द्वारा मेरा भजन-पूजन करने वाला रजोगुणी है और जो अपने शत्रु की मृत्यु आदि के लिये मेरा भजन-पूजन करे, उसे तमोगुणी समझना चाहिये।

सत्त्व, रज और तम-इन तीनों गुणों का कारण जीव का चित्त है। उससे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। इन्हीं गुणों के द्वारा जीव शरीर अथवा धन आदि में आसक्त होकर बन्धन में पड़ जाता है। सत्त्वगुण प्रकाशक, निर्मल और शान्त है। जिस समय वह रजोगुण और तमोगुण को दबाकर बढ़ता है, उस समय पुरुष सुख, धर्म और ज्ञान आदि का भाजन हो जाता है। रजोगुण भेदबुद्धि का कारण है। उसका स्वभाव है आसक्ति और प्रवृत्ति। जिस समय तमोगुण और सत्त्वगुण को दबाकर रजोगुण बढ़ता है, उस समय मनुष्य दुःख, कर्म, यश और लक्ष्मी से सम्पन्न होता है। तमोगुण का स्वरूप है अज्ञान। उसका स्वभाव है आलस्य और बुद्धि की मूढ़ता। जब वह बढ़कर सत्त्वगुण और रजोगुण को दबा लेता है, तब प्राणी तरह-तरह की आशाएँ करता है, शोक-मोह में पड़ जाता है, हिंसा करने लगता है अथवा निद्रा-आलस्य के वशीभूत होकर पड़ रहता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: पंचविंश अध्याय श्लोक 16-29 का हिन्दी अनुवाद)

जब चित्त प्रसन्न हो, इन्द्रियाँ शान्त हों, देह निर्भय हो और मन में आसक्ति न हो, तब सत्त्वगुण की वृद्धि समझनी चाहिये। सत्त्वगुण मेरी प्राप्ति का साधन है। जब काम करते-करते जीव की बुद्धि चंचल, ज्ञानेद्रियाँ असन्तुष्ट, कर्मेंदियाँ विकारयुक्त, मन भ्रान्त और शरीर अस्वस्थ हो जाये, तब समझना चाहिये कि रजोगुण जोर पकड़ रहा है। जब चित्त ज्ञानेद्रियों के द्वारा शब्दादि विषयों को ठीक-ठीक समझने में असमर्थ हो जाये और खिन्न होकर लीन होने लगे, मन सूना-सा हो जाये तथा अज्ञान और विषाद की वृद्धि हो, तब समझना चाहिये कि तमोगुण वृद्धि पर है।

उद्धव जी! सत्त्वगुण के बढ़ने पर देवताओं का, रजोगुण के बढ़ने पर असुरों का और तमोगुण के बढ़ने पर राक्षसों का बल बढ़ जाता है। (वृत्तियों में भी क्रमशः सत्वादि गुणों की अधिकता होने पर देवत्व, असुरत्व और राक्षसत्व-प्रधान निवृत्ति, प्रवृत्ति अथवा मोह की प्रधानता हो जाती है)। सत्त्वगुण से जाग्रत्-अवस्था, रजोगुण से स्वप्नावस्था होती है। तुरीय इन तीनों में एक-सा व्याप्त रहता है। वही शुद्ध और एकरस आत्मा है। वेदों के अभ्यास में तत्पर ब्राह्मण सत्त्वगुण के द्वारा उत्तरोत्तर ऊपर के लोकों में जाते हैं। तमोगुण से जीवों को वृक्षादिपर्यन्त अधोगति प्राप्त होती है और रजोगुण से मनुष्य-शरीर मिलता है। जिसकी मृत्यु सत्त्वगुणों की वृद्धि के समय होती है, उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है; जिसकी रजोगुण की वृद्धि के समय होती है, उसे मनुष्य-लोक मिलता है और जो तमोगुण की वृद्धि के समय मरता है, उसे नरक की प्राप्ति होती है। परन्तु जो पुरुष त्रिगुणातीत-जीवन्मुक्त हो गये हैं, उन्हें मेरी ही प्राप्ति होती है। जब अपने धर्म का आचरण मुझे समर्पित करके अथवा निष्काम भाव से किया जाता है, तब वह सात्त्विक होता है। जिस कर्म के अनुष्ठान में किसी फल की कामना रहती है, वह राजसिक होता है और जिस कर्म में किसी को सताने अथवा दिखाने आदि का भाव रहता है, वह तामसिक होता है।

शुद्ध आत्मा का ज्ञान सात्त्विक है। उसको कर्ता-भोक्ता समझना राजस ज्ञान है और उसे शरीर समझना तो सर्वथा तामसिक है। इन तीनों से विलक्षण मेरे स्वरूप का वास्तविक ज्ञान निर्गुण ज्ञान है। वन में रहना सात्त्विक निवास है, गाँव में रहना राजस है और जुआघर में रहना तामसिक है। इन सबसे बढ़कर मेरे मन्दिर में रहना निर्गुण निवास है। अनासक्त भाव से कर्म करने वाला सात्त्विक है, रागान्ध होकर कर्म करने वाला राजसिक है और पूर्वा पर विचार से रहित होकर करने वाला तामसिक है। इनके अतिरिक्त जो पुरुष केवल मेरी शरण में रहकर बिना अहंकार के कर्म करता है, वह निर्गुण कर्ता है। आत्मज्ञानविषयक श्रद्धा सात्त्विक श्रद्धा है, कर्मविषयक श्रद्धा राजस है और जो श्रद्धा अधर्म में होती है, वह तामस है तथा मेरी सेवा में जो श्रद्धा है, वह निर्गुण श्रद्धा है। आरोग्यदायक, पवित्र और अनायास प्राप्त भोजन सात्त्विक है। रसनेन्द्रिय को रुचिकर और स्वाद की दृष्टि से युक्त आहार राजस है तथा दुःखदायी और अपवित्र आहार तामस है। अन्तर्मुखता से-आत्मचिन्तन से प्राप्त होने वाला सुख सात्त्विक है। बहिर्मुखता से-विषयों से प्राप्त होने वाला राजस है तथा अज्ञान और दीनता से प्राप्त होने वाला सुख तामस है और जो सुख मुझसे मिलता है, वह तो गुणातीत और अप्राकृत है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: पंचविंश अध्याय श्लोक 30-36 का हिन्दी अनुवाद)

उद्धव जी! द्रव्य (वस्तु), देश (स्थान), फल, काल, ज्ञान, कर्म, कर्ता, श्रद्धा, अवस्था, देव-मनुष्य-तिर्यगादि शरीर और निष्ठा-सभी त्रिगुणात्मक हैं।

नररत्न! पुरुष और प्रकृति के आश्रित जितने भी भाव हैं, सभी गुणमय हैं-वे चाहे नेत्रादि इन्द्रियों से अनुभव किये हुए हों, शास्त्रों के द्वारा लोक-लोकान्तरों के सम्बन्ध में सुने गये हों अथवा बुद्धि के द्वारा सोचे-विचारे गये हों। जीव को जितनी भी योनियाँ अथवा गतियाँ प्राप्त होती हैं, वे सब उनके गुणों और कर्मों के अनुसार ही होती हैं।

हे सौम्य! सब-के-सब गुण चित्त से ही सम्बन्ध रखते हैं (इसलिये जीव उन्हें अनायास ही जीत सकता है) जो जीव उन पर विजय प्राप्त कर लेता है, वह भक्तियोग के द्वारा मुझ में ही परिनिष्ठ हो जाता है और अन्ततः मेरा वास्तविक स्वरूप, जिसे मोक्ष भी कहते हैं, प्राप्त कर लेता है। यह मनुष्य शरीर बहुत दुर्लभ है। इसी शरीर में तत्त्वज्ञान और उसमें निष्ठारूप विज्ञान की प्राप्ति सम्भव है; इसलिये इसे पाकर बुद्धिमान पुरुषों को गुणों की आसक्ति हटाकर मेरा भजन करना चाहिये।

विचारशील पुरुष को चाहिये कि बड़ी सावधानी से सत्त्वगुण के सेवन से रजोगुण और तमोगुण को जीत ले, इन्द्रियों को वश में कर ले और मेरे स्वरूप को समझकर मेरे भजन में लग जाये। आसक्ति को लेशमात्र भी न रहने दे। योगयुक्ति से चित्तवृत्तियों को शान्त करके निरपेक्षता के द्वारा सत्त्वगुण पर भी विजय प्राप्त कर ले। इस प्रकार गुणों से मुक्त होकर जीव अपने जीव भाव को छोड़ देता है और मुझसे एक हो जाता है। जीव लिंग शरीररूप अपनी उपाधि जीवत्व से तथा अन्तःकरण में उदय होने वाली सात्वादि गुणों की वृत्तियों से मुक्त होकर मुझ ब्रह्म की अनुभूति से एकत्व दर्शन से पूर्ण हो जाता है और वह फिर बाह्य अथवा आन्तरिक किसी भी विषय में नहीं जाता।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें