सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( एकादश स्कन्धः ) का सौलहवाँ, सत्रहवाँ, अठारहवाँ, उन्नीसवाँ व बीसवाँ अध्याय [ Sixteenth, seventeenth, eighteenth, nineteenth and twentieth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Eleventh wing) ]

 


                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【सौलहवाँ अध्याय】१६


"भगवान की विभूतियों का वर्णन"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: षोडश अध्याय श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

उद्धव जी ने कह ;- 'भगवन्! आप स्वयं परब्रह्म हैं, न आपका आदि है और न अन्त। आप आवरण-रहित, अद्वितीय तत्त्व हैं। समस्त प्राणियों और पदार्थों की उत्पत्ति, स्थिति, रक्षा और प्रलय के कारण भी आप ही हैं। आप ऊँचे-नीचे सभी प्राणियों में स्थित हैं; परन्तु जिन लोगों ने अपने मन और इन्द्रियों को वश में नहीं किया है, वे आपको नहीं जान सकते। आपकी यथोचित उपासना तो ब्रह्मवेत्ता पुरुष ही करते हैं। बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि आपके जिन रूपों और विभूतियों की परम भक्ति के साथ उपासना करके सिद्धि प्राप्त करते हैं, वह आप मुझसे कहिये।

समस्त प्राणियों के जीवनदाता प्रभो! आप समस्त प्राणियों के अन्तरात्मा हैं। आप उनमें अपने को गुप्त रखकर लीला करते रहते हैं। आप तो सबको देखते हैं, परन्तु जगत् के प्राणी आपकी माया से ऐसे मोहित हो रहे हैं कि वे आपको नहीं देख पाते। अचिन्त्य ऐश्वर्यसम्पन्न प्रभो! पृथ्वी, स्वर्ग, पाताल तथा दिशा-विदिशाओं में आपके प्रभाव से युक्त जो-जो भी विभूतियाँ हैं, आप कृपा करके मुझसे उनका वर्णन कीजिये। प्रभो! मैं आपके उन चरणकमलों की वन्दना करता हूँ, जो समस्त तीर्थों को भी तीर्थ बनाने वाले हैं।'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- प्रिय उद्धव! तुम प्रश्न का मर्म समझने वालों में शिरोमणि हो। जिस समय कुरुक्षेत्र में कौरव-पाण्डवों का युद्ध छिड़ा हुआ था, उस समय शत्रुओं से युद्ध के लिये तत्पर अर्जुन ने मुझसे यही प्रश्न किया था। अर्जुन के मन में ऐसी धारणा हुई कि कुटुम्बियों को मारना, और सो भी राज्य के लिये, बहुत ही निन्दनीय अधर्म है। साधारण पुरुषों के समान वह यह सोच रहा था कि ‘मैं मारने वाला हूँ और ये सब मरने वाले हैं। यह सोचकर वह युद्ध से उपरत हो गया। तब मैंने रणभूमि में बहुत-सी युक्तियाँ देकर वीरशिरोमणि अर्जुन को समझाया था। उस समय अर्जुन ने भी मुझसे यही प्रश्न किया था, जो तुम कर रहे हो।

उद्धव जी! मैं समस्त प्राणियों का आत्मा, हितैषी, सुहृद् और ईश्वर-नियामक हूँ। मैं ही इन समस्त प्राणियों और पदार्थों के रूप में हूँ और इनकी उत्पत्ति, स्थिति एवं प्रलय का कारण भी हूँ। गतिशील पदार्थों में मैं गति हूँ। अपने अधीन करने वालों में मैं काल हूँ। गुणों में मैं उनकी मूलस्वरूपा साम्यावस्था हूँ और जितने भी गुणवान् पदार्थ हैं, उसमें उनका स्वाभाविक गुण हूँ। गुणयुक्त वस्तुओं में मैं क्रिया-शक्ति-प्रधान प्रथम कार्य सूत्रात्मा हूँ और महानों में ज्ञान-शक्तिप्रधान प्रथम कार्य महत्तत्त्व हूँ। सूक्ष्म वस्तुओं में मैं जीव हूँ और कठिनाई से वश में होने वालों में मन हूँ। मैं वेदों का अभिव्यक्ति स्थान हिरण्यगर्भ हूँ और मन्त्रों में तीन मात्राओं (अ+उ+म) वाला ओंकार हूँ। मैं अक्षरों में अकार, छन्दों में त्रिपदा गायत्री हूँ। समस्त देवताओं में इन्द्र, आठ वसुओं में अग्नि, द्वादश आदित्यों में विष्णु और एकादश रुद्रों में नील लोहित नाम रुद्र हूँ। मैं ब्रह्मर्षियों में भृगु, राजर्षियों में मनु, देवर्षियों में नारद और गौओं में कामधेनु हूँ। मैं सिद्धेश्वरों में कपिल, पक्षियों में गरुड़, प्रजापतियों में दक्ष प्रजापति और पितरों में अर्यमा हूँ। प्रिय उद्धव! मैं दैत्यों में दैत्यराज प्रह्लाद, नक्षत्रों में चन्द्रमा, ओषधियों में सोमरस एवं यक्ष-राक्षसों में कुबेर हूँ-ऐसा समझो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: षोडश अध्याय श्लोक 17-35 का हिन्दी अनुवाद)

मैं गजराजों में ऐरावत, जल निवासियों में उनका प्रभु वरुण, तपने और चमकने वालों में सूर्य तथा मनुष्यों में राजा हूँ। मैं घोड़ो में उच्चैःश्रवा, धातुओं में सोना, दण्डधारियों में यम और सर्पों में वासुकि हूँ।

निष्पाप उद्धव जी! मैं नाग राजों में शेषनाग, सींग और दाढ़ वाले प्राणियों में उनका राजा सिंह, आश्रमों में संन्यास और वर्णों में ब्राह्मण हूँ। मैं तीर्थ और नदियों में गंगा, जलाशयों में समुद्र, अस्त्र-शस्त्रों में धनुष तथा धनुर्धरों में त्रिपुरारि शंकर हूँ।

मैं निवास स्थानों में सुमेरु, दुर्गम स्थानों में हिमालय, वनस्पतियों में पीपल और धान्यों में जौ हूँ। मैं पुरोहितों में वसिष्ठ, वेदवेत्ताओं में बृहस्पति, समस्त सेनापतियों में स्वामी कार्तिक और सन्मार्ग प्रवर्तकों में भगवान ब्रह्मा हूँ। पंचमहायज्ञों में ब्रह्मयज्ञ (स्वाध्याय यज्ञ) हूँ, व्रतों में अहिंसा व्रत और शुद्ध करने वाले पदार्थों में नित्य शुद्ध वायु, अग्नि, सूर्य, जल, वाणी एवं आत्मा हूँ। आठ प्रकार के योगों में मैं मनोनिरोध रूप समाधि हूँ। विजय के इच्छुकों में रहने वाला मैं मन्त्र (नीति) बल हूँ। कौशलों में आत्मा और अनात्मा का विवेकरूप कौशल तथा ख्यातिवादियों में विकल्प हूँ। मैं स्त्रियों में मनुपत्नी शतरूपा, पुरुषों में स्वायम्भुव मनु, मुनीश्वरों में नारायण और ब्रह्मचारियों में सनत्कुमार हूँ। मैं धर्मों में कर्मसंन्यास अथवा एषणात्रय के त्याग द्वारा सम्पूर्ण प्राणियों को अभयदानरूप सच्चा संन्यास हूँ। अभय के साधनों में आत्मस्वरूप का अनुसन्धान हूँ, अभिप्राय-गोपन के साधनों में मधुर वचन एवं मौन हूँ और स्त्री-पुरुष के जोड़ों में मैं प्रजापति हूँ-जिनके शरीर के दो भोगों से पुरुष और स्त्री का पहला जोड़ा पैदा हुआ।

सदा सावधान रहकर जागने वालों में संवत्सररूप काल मैं हूँ, ऋतुओं में वसन्त, महीनों में मार्गशीर्ष और नक्षत्रों में अभिजित् हूँ। मैं युगों में सत्ययुग, विवेकियों में महर्षि देवल और असित, व्यासों में श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास तथा कवियों में मनस्वी शुक्राचार्य हूँ। सृष्टि की उत्पत्ति और लय, प्राणियों के जन्म और मृत्यु तथा विद्या और अविद्या के जानने वाले भगवानों में (विशिष्ट महापुरुषों) मैं वासुदेव हूँ। मेरे प्रेमी भक्तों में तुम (उद्धव), किम्पुरुषों में हनुमान, विद्याधरों में सुदर्शन (जिसने अजगर के रूप में नन्दबाबा को ग्रस लिया था और फिर भगवान के पादस्पर्श से मुक्त हो गया था) मैं हूँ। रत्नों में पद्मराग (लाल), सुन्दर वस्तुओं में कमल की कली, तृणों में कुश और हविष्यों में गाय का घी हूँ। मैं व्यापारियों में रहने वाली लक्ष्मी, छल-कपट करने वालों में द्यूतक्रीड़ा, तितिक्षुओं की तितिक्षा (कष्टसहिष्णुता) और सात्त्विक पुरुषों में रहने वाला सत्त्वगुण हूँ।

मैं बलवानों में उत्साह और पराक्रम तथा भगवद्भक्तों में भक्तियुक्त निष्काम कर्म हूँ। वैष्णवों के पूज्य वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, नारायण, हयग्रीव, वराह, नृसिंह और ब्रह्मा-इन नौ मूर्तियों में मैं पहली एवं श्रेष्ठ मूर्ति वासुदेव हूँ। मैं गन्धर्वों में विश्वावसु और अप्सराओं में ब्रह्मा जी के दरबार की अप्सरा पूर्वचित्ति हूँ। पर्वतों में स्थिरता और पृथ्वी में शुद्ध अविकारी गन्ध मैं ही हूँ। मैं जल में रस, तेजस्वियों में परम तेजस्वी अग्नि; सूर्य, चन्द्र और तारों में प्रभा तथा आकाश में उसका एकमात्र गुण शब्द हूँ।

उद्धव जी! मैं ब्राह्मण भक्तों में बलि, वीरों में अर्जुन और प्राणियों में उसकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय हूँ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: षोडश अध्याय श्लोक 36-44 का हिन्दी अनुवाद)

मैं ही पैरों में चलने की शक्ति, वाणी में बोलने की शक्ति, पायु में मल-त्याग की शक्ति, हाथों में पकड़ने की शक्ति और जननेन्द्रिय में आनन्दोपभोग की शक्ति हूँ। त्वचा में स्पर्श की, नेत्रों में दर्शन की, रसना में स्वाद लेने की, कानों में श्रवण की और नासिका में सूँघने की शक्ति भी मैं ही हूँ। समस्त इन्द्रियों की इन्द्रिय-शक्ति मैं ही हूँ। पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज, अहंकार, महत्तत्त्व, पंचमहाभूत, जीव, अव्यक्त, प्रकृति, सत्त्व, रज, तम और उनसे परे रहने वाला ब्रह्म-ये सब मैं ही हूँ। इन तत्त्वों की गणना, लक्षणों द्वारा उनका ज्ञान तथा तत्त्वज्ञानरूप उसका फल भी मैं ही हूँ। मैं ही ईश्वर हूँ, मैं ही जीव हूँ, मैं ही गुण और मैं ही गुणी हूँ। मैं ही सबका आत्मा हूँ और मैं ही सब कुछ हूँ। मेरे अतिरिक्त और कोई भी पदार्थ कहीं भी नहीं है। यदि मैं गिनने लगूँ तो किसी समय परमाणुओं की गणना तो कर सकता हूँ, परन्तु अपनी विभूतियों की गणना नहीं कर सकता। क्योंकि जब मेरे रचे हुए कोटि-कोटि ब्राह्मणों की भी गणना नहीं हो सकती, तब मेरी विभूतियों की गणना तो हो ही कैसे सकती है। ऐसा समझो कि जिसमें भी तेज, श्री, कीर्ति, ऐश्वर्य, लज्जा, त्याग, सौन्दर्य, सौभाग्य, पराक्रम, तितिक्षा और विज्ञान आदि श्रेष्ठ गुण हों, वह मेरा ही अंश है।

उद्धव जी! मैंने तुम्हारे प्रश्न के अनुसार संक्षेप से विभूतियों का वर्णन किया। ये सब परमार्थ-वस्तु नहीं हैं, मनोविकार मात्र हैं; क्योंकि मन से सोची और वाणी से कही हुई कोई भी वस्तु परमार्थ (वास्तविक) नहीं होती। उसकी एक कल्पना ही होती है। इसलिए तुम वाणी के स्वच्छन्द भाषण को रोको, मन के संकल्प-विकल्प बंद करो। इसके लिये प्राणों को वश में करो और इन्द्रियों का दमन करो। सात्त्विक बुद्धि के द्वारा प्रपंचाभिमुख बुद्धि को शान्त करो। फिर तुम्हें संसार के जन्म-मृत्युरूप बीहड़ मार्ग में भटकना नहीं पड़ेगा। जो साधक बुद्धि के द्वारा वाणी और मन को पूर्णतया वश में नहीं कर लेता, उसके व्रत, तप और दान उसी प्रकार क्षीण हो जाते हैं, जैसे कच्चे घड़े में भरा हुआ जल, इसलिये मेरे प्रेमी भक्त को चाहिये कि मेरे परायण होकर भक्ति युक्त बुद्धि से वाणी, मन और प्राणों का संयम करे। ऐसा कर लेने पर फिर उसे कुछ करना शेष नहीं रहता। वह कृतकृत्य हो जाता है।

                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【सत्रहवाँ अध्याय】१७


"वर्णाश्रम-धर्म-निरूपण"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तदश अध्याय श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

उद्धव जी ने कहा ;- कमलनयन श्रीकृष्ण! आपने पहले वर्णाश्रम-धर्म का पालन करने वालों के लिये और सामान्यतः मनुष्यमात्र के लिये उस धर्म का उपदेश किया था, जिससे आपकी भक्ति प्राप्त होती है। अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि मनुष्य किस प्रकार से अपने धर्म का अनुष्ठान करे, जिससे आपके चरणों में उसे भक्ति प्राप्त हो जाये।

प्रभो! महाबाहु माधव! पहले आपने हंसरूप से अवतार ग्रहण करके ब्रह्मा जी को अपने परमधर्म का उपदेश किया था। रिपुदमन! बहुत समय बीत जाने के कारण वह इस समय मर्त्यलोक में प्रायः नहीं-सा रह गया है, क्योंकि आपको उसका उपदेश किये बहुत-दिन हो गये हैं। अच्युत! पृथ्वी में तथा ब्रह्मा की उस सभा में भी, जहाँ सम्पूर्ण वेद मूर्तिमान् होकर विराजमान रहते हैं, आपके अतिरिक्त ऐसा कोई भी नहीं है, जो आपके इस धर्म का प्रवचन, प्रवर्तन अथवा संरक्षण कर सके। इस धर्म के प्रवर्तक, रक्षक और उपदेशक आप ही हैं। आपने पहले जैसे मधु दैत्य को मारकर वेदों की रक्षा की थी, वैसे ही अपने धर्म की भी रक्षा कीजिये। स्वयंप्रकाश परमात्मन्! जब आप पृथ्वी तल से अपनी लीला संवरण कर लेंगे, तब तो इस धर्म का लोप ही हो जायेगा तो फिर उसे कौन बतावेगा? आप समस्त धर्मों के मर्मज्ञ हैं; इसलिये प्रभो! आप उस धर्म का वर्णन कीजिये, जो आपकी भक्ति प्राप्त कराने वाला है। और यह भी बतलाइये कि किसके लिये उसका कैसा विधान है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब इस प्रकार भक्तशिरोमणि उद्धव जी ने प्रश्न किया, तब भगवान श्रीकृष्ण ने अत्यन्त प्रसन्न होकर प्राणियों के कल्याण के लिये उन्हें सनातन धर्मों का उपदेश दिया।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- प्रिय उद्धव! तुम्हारा प्रश्न धर्ममय है, क्योंकि इससे वर्णाश्रम धर्मी मनुष्यों को परम कल्याणस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति होती है। अतः मैं तुम्हें उन धर्मों का उपदेश करता हूँ, सावधान होकर सुनो।

जिस समय इस कल्प का प्रारम्भ हुआ था और पहला सत्ययुग चल रहा था, उस समय सभी मनुष्यों का ‘हंस’ नामक एक ही वर्ण था। उस युग में सब लोग जन्म से ही कृतकृत्य होते थे; इसीलिये उसका एक नाम कृतयुग भी है। उस समय केवल प्रणव ही वेद था आर तपस्या, शौच, दया एवं सत्यरूप चार चरणों से युक्त मैं ही वृषभरूपधारी धर्म था। उस समय के निष्पाप एवं परम तपस्वी भक्तजन मुझ हंसस्वरूप शुद्ध परमात्मा की उपासना करते थे। परम भाग्यवान् उद्धव! सत्ययुग के बाद त्रेतायुग का आरम्भ होने पर मेरे हृदय से श्वास-प्रश्वास के द्वारा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद रूप त्रयीविद्या प्रकट हुई और उस त्रयीविद्या से होता, अध्वर्यु और उद्गाता के कर्मरूप तीन भेदों वाले यज्ञ के रूप से मैं प्रकट हुआ। विराट् पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरणों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। उनकी पहचान उनके स्वाभावानुसार और आचरण से होती है।

उद्धव जी! विराट् पुरुष भी मैं हूँ; इसलिये मेरे ही ऊरूस्थल से गृहस्थाश्रम, हृदय से ब्रह्मचर्याश्रम, वक्षःस्थल से वानप्रस्थानाश्रम और मस्तक से संन्यासश्रम की उत्पत्ति हुई है। इन वर्ण और आश्रमों के पुरुषों के स्वभाव भी इनके जन्मस्थानों के अनुसार उत्तम, मध्यम और अधम हो गये। अर्थात् उत्तम स्थानों से उत्पन्न होने वाले वर्ण और आश्रमों के स्वभाव उत्तम और अधम स्थानों से उत्पन्न होने वालों के अधम हुए।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तदश अध्याय श्लोक 16-30 का हिन्दी अनुवाद)

शम, दम, तपस्या, पवित्रता, सन्तोष, क्षमाशीलता, सीधापन, मेरी भक्ति, द्या और सत्य-ये ब्राह्मण वर्ण के स्वभाव हैं। तेज, बल, धैर्य, वीरता, सहनशीलता, उदारता, उद्योगशीलता, स्थिरता, ब्राह्मण-भक्ति और ऐश्वर्य-ये क्षत्रिय वर्ण के स्वभाव हैं। आस्तिकता, दानशीलता, दम्भहीनता, ब्राह्मणों की सेवा करना और धन संचय से सन्तुष्ट न होना-ये वैश्य वर्ण के स्वभाव हैं। ब्राह्मण, गौ और देवताओं की निष्कपट भाव से सेवा करना और उसी से जो कुछ मिल जाये, उसमें सन्तुष्ट रहना-ये शूद्र वर्ण के स्वभाव हैं। अपवित्रता, झूठ बोलना, चोरी करना, ईश्वर और परलोक की परवा न करना, झूठमूठ झगड़ना और काम, क्रोध एवं तृष्णा के वश में रहना-ये अन्त्यजों के स्वभाव हैं।

उद्धव जी! चारों वर्णों और चारों आश्रमों के लिये साधारण धर्म यह है कि मन, वाणी और शरीर से किसी की हिंसा न करें; सत्य पर दृढ़ रहें; चोरी न करें; काम, क्रोध तथा लोभ से बचें और जिन कामों के करने से समस्त प्राणियों की प्रसन्नता और उनका भला हो, वही करें।

ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य गर्भाधान आदि संस्कारों के क्रम से यज्ञोपवीत संस्काररूप द्वितीय जन्म प्राप्त करके गुरुकुल में रहे और अपनी इन्द्रियों को वश में रखे। आचार्य के बुलाने पर वेद का अध्ययन करे और उसके अर्थ का भी विचार करे। मेखला, मृगचर्म, वर्ण के अनुसार दण्ड, रुद्राक्ष की माला, यज्ञोपवीत और कमण्डलु धारण करे। सिर पर जटा रखे, शौकीनी के लिये दाँत और वस्त्र न धोवे, रंगीन आसन पर न बैठे और कुश धारण करे। स्नान, भोजन, हवन, जप और मल-मूत्र त्याग के समय मौन रहे और कक्ष तथा गुप्तेन्द्रिय के बाल और नाखूनों को कभी न काटे। पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करे। स्वयं तो कभी वीर्यपात करे ही नहीं। यदि स्वप्न आदि में वीर्य स्खलित हो जाये, तो जल में स्नान करके प्राणायाम करे एवं गायत्री का जप करे।

ब्रह्मचारी को पवित्रता के साथ एकाग्रचित्त होकर अग्नि, सूर्य, आचार्य, गौ, ब्राह्मण, गुरु, वृद्धजन और देवताओं की उपासना करनी चाहिये तथा सांयकाल और प्रातःकाल मौन होकर संध्योपासन एवं गायत्री का जप करना चाहिये। आचार्य को मेरा ही स्वरूप समझे, कभी उनका तिरस्कार न करे। उन्हें साधारण मनुष्य समझकर दोषदृष्टि न करे; क्योंकि गुरु सर्वदेवमय होता है। सायंकाल और प्रातःकाल दोनों समय जो कुछ भिक्षा में मिले, वह लाकर गुरुदेव के आगे रख दे। केवल भोजन ही नहीं, जो कुछ हो सब। तदनन्तर उनके आज्ञानुसार बड़े सयम से भिक्षा आदि का यथोचित उपयोग करे। आचार्य यदि जाते हों तो उनके पीछे-पीछे चले, उनके सो जाने के बाद बड़ी सावधानी से उनसे थोड़ी दूर पर सोवे। थके हो, तो पास बैठकर चरण दबावे और बैठे हों, तो उनके आदेश की प्रतीक्षा में हाथ जोड़कर पास में ही खड़ा रहे। इस प्रकार अत्यन्त छोटे व्यक्ति की भाँति सेवा-शुश्रूषा के द्वारा सदा-सर्वदा आचार्य की आज्ञा में तत्पर रहे। जब तक विद्याध्ययन समाप्त न हो जाये, तब तक सब प्रकार के भोगों से दूर रहकर इसी प्रकार गुरुकुल में निवास करे और कभी अपना ब्रह्मचर्य व्रत खण्डित न होने दे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तदश अध्याय श्लोक 31-42 का हिन्दी अनुवाद)

यदि ब्रह्मचारी का विचार हो कि मैं मूर्तिमान् वेदों के निवासस्थान ब्रह्मलोक में जाऊँ, तो उसे आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्य-व्रत ग्रहण कर लेना चाहिये और वेदों के स्वाध्याय के लिये अपना सारा जीवन आचार्य की सेवा में ही समर्पित कर देना चाहिये। ऐसा ब्रह्मचारी सचमुच ब्रह्मतेज से सम्पन्न हो जाता है और उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। उसे चाहिये कि अग्नि, गुरु, अपने शरीर और समस्त प्राणियों में मेरी ही उपासना करे और यह भाव रखे कि मेरे तथा सबके हृदय में एक ही परमात्मा विराजमान हैं। ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासियों को चाहिये कि वे स्त्रियों को देखना, स्पर्श करना, उनसे बातचीत या हँसी-मसखरी आदि करना दूर से ही त्याग दें; मैथुन करते हुए प्राणियों पर तो दृष्टिपात तक न करें।

प्रिय उद्धव! शौच, आचमन, स्नान, संध्योपासन, सरलता, तीर्थसेवन, जप, समस्त प्राणियों में मुझे ही देखना, मन, वाणी और शरीर का संयम-यह ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी-सभी के लिये एक-सा नियम है। अस्पृश्यों को न छूना, अभक्ष्य वस्तुओं को न खाना और जिनसे बोलना नहीं चाहिये उनसे न बोलना-ये नियम भी सबके लिये हैं। नैष्ठिक ब्रह्मचारी ब्राह्मण इन नियमों का पालन करने से अग्नि के समान तेजस्वी हो जाता है। तीव्र तपस्या के कारण उसके कर्म-संस्कार भस्म हो जाते हैं, अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और वह मेरा भक्त होकर मुझे प्राप्त कर लेता है।

प्यारे उद्धव! यदि नैष्ठिक ब्रह्मचर्य ग्रहण करने की इच्छा न हो-गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहता हो, तो विधिपूर्वक वेदाध्ययन समाप्त करके आचार्य को दक्षिणा देकर और उनकी अनुमति लेकर समावर्तन-संस्कार करावे-स्नातक बनकर ब्रह्मचर्याश्रम छोड़ दे। ब्रह्मचारी को चाहिये कि ब्रह्मचर्य-आश्रम के बाद गृहस्थ अथवा वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश करे। यदि ब्राह्मण हो तो संन्यास भी ले सकता है अथवा उसे चाहिये कि क्रमशः एक आश्रम से दूसरे आश्रम में प्रवेश करे। किन्तु मेरा आज्ञाकारी भक्त बिना आश्रम के रहकर अथवा विपरीत क्रम से आश्रम-परिवर्तन कर स्वेच्छाचार में प्रवृत्त हो।

प्रिय उद्धव! यदि ब्रह्मचर्याश्रम के बाद गृहस्थाश्रम स्वीकार करना हो तो ब्रह्मचारी को चाहिये कि अपने अनुरूप एवं शास्त्रोक्त लक्षणों से सम्पन्न कुलीन कन्या से विवाह करे। वह अवस्था में अपने से छोटी और अपने ही वर्ण की होनी चाहिये। यदि कामवश अन्य वर्ण की कन्या से और विवाह करना हो तो क्रमशः अपने से निम्न वर्ण की कन्या से विवाह कर सकता है। यज्ञ-यागादि, अध्ययन और दान करने का अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यों को समान रूप से है परन्तु दान लेने, पढ़ाने और यज्ञ कराने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को ही है। ब्राह्मण को चाहिये कि इन तीनों वृत्तियों में प्रतिग्रह अर्थात् दान लेने की वृत्ति को तपस्या, तेज और यश का नाश करने वाली समझकर पढ़ाने और यज्ञ कराने के द्वारा ही अपना जीवन-निर्वाह करे और यदि इन दोनों वृत्तियों में भी दोषदृष्टि हो-परावलम्बन, दीनता आदि दोष-दीखते हों-तो अन्न कटने के बाद खेतों में पड़े हुए दाने बीनकर ही अपने जीवन का निर्वाह कर ले। उद्धव! ब्राह्मण का शरीर अत्यन्त दुर्लभ है। यह इसलिये नही है कि इसके द्वारा तुच्छ विषय-भोग ही भोगे जायें। यह तो जीवन-पर्यन्त कष्ट भोगने, तपस्या करने और अन्त में अनन्त आनन्दस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति करने के लिये है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तदश अध्याय श्लोक 43-53 का हिन्दी अनुवाद)

जो ब्राह्मण घर में रहकर अपने महान् धर्म का निष्काम भाव से पालन करता है और खेतों में तथा बाजारों में गिरे-पड़े दाने चुनकर सन्तोषपूर्वक अपने जीवन का निर्वाह करता है, साथ ही अपना शरीर, प्राण, अन्तःकरण और आत्मा मुझे समर्पित कर देता है और कहीं भी अत्यन्त आसक्ति नहीं करता, वह बिना संन्यास लिये भी परमशान्तिस्वरूप परमपद प्राप्त कर लेता है। जो लोग विपत्ति में पड़े कष्ट पा रहे मेरे भक्त ब्राह्मण को विपत्तियों से बचा लेते हैं, उन्हें मैं शीघ्र ही समस्त आपत्तियों से उसी प्रकार बचा लेता हूँ, जैसे समुद्र में डूबते हुए प्राणी को नौका बचा लेती है। राजा पिता के समान सारी प्रजा का कष्ट से उद्धार करे-उन्हें बचावे, जैसे गजराज दूसरे गजों की रक्षा करता है और धीर होकर स्वयं अपने-आपसे अपना उद्धार करे। जो राजा इस प्रकार प्रजा की रक्षा करता है, वह सारे पापों से मुक्त होकर अन्त समय में सूर्य के समान तेजस्वी विमान पर चढ़कर स्वर्गलोक में जाता है और इन्द्र के साथ सुख भोगता है।

यदि ब्राह्मण अध्यापन अथवा यज्ञ-यागादि से अपनी जीविका न चला सके, तो वैश्य-वृत्ति का आश्रय ले ले, और जब-तक विपत्ति दूर न हो जाये तब तक करे। यदि बहुत बड़ी आपत्ति का सामना करना पड़े तो तलवार उठाकर क्षत्रियों की वृत्ति से अपना काम चला ले, परन्तु किसी भी अवस्था में नीचों की सेवा-जिसे ‘श्वानवृत्ति’ कहते हैं-न करे। इसी प्रकार यदि क्षत्रिय भी प्रजापालन आदि के द्वारा अपने जीवन का निर्वाह न कर सके तो वैश्यवृत्ति व्यापर आदि कर ले। बहुत बड़ी आपत्ति हो तो शिकार के द्वारा अथवा विद्यार्थियों को पढ़ाकर अपनी आपत्ति के दिन काट दे, परन्तु नीचों की सेवा, ‘श्वानवृत्ति’ का आश्रय कभी न ले। वैश्य भी आपत्ति के समय शूद्रों की वृत्ति सेवा से अपना जीवन-निर्वाह कर ले और शूद्र चटाई बनाने आदि कारूवृत्ति का आश्रय ले ले; परन्तु उद्धव! ये सारी बातें आपत्ति काल के लिये ही हैं। आपत्ति का समय बीत जाने पर निम्न वर्णों की वृत्ति से जीविकोपार्जन करने का लोभ न करे। गृहस्थ पुरुष को चाहिये कि वेदाध्ययनरूप ब्रह्मयज्ञ, तर्पणरूप पितृयज्ञ, हवनरूप देवयज्ञ, कालबलि आदि भूतयज्ञ और अन्नदानरूप अतिथियज्ञ आदि के द्वारा मेरे स्वरूपभूत ऋषि, देवता, पितर, मनुष्य एवं अन्य समस्त प्राणियों की यथाशक्ति प्रतिदिन पूजा करता रहे।

गृहस्थपुरुष अनायास प्राप्त अथवा शास्त्रोक्त रीति से उपार्जित अपने शुद्ध धन से अपने भृत्य, आश्रित प्रजाजन को किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचाते हुए न्याय और विधि के साथ ही यज्ञ करे। प्रिय उद्धव! गृहस्थपुरुष कुटुम्ब में आसक्त न हो। बड़ा कुटुम्ब होने पर भी भजन प्रमाद न करे। बुद्धिमान पुरुष को यह बात समझ लेनी चाहिये कि जैसे इन लोक की सभी वस्तुएँ नाशवान् हैं, वैसे ही स्वर्गादि परलोक के भोग भी नाशवान् ही हैं। यह जो स्त्री-पुत्र, भाई-बन्धु और गुरुजनों का मिलना-जुलना है, यह वैसे ही है, जैसे किसी प्याऊ पर कुछ बटोही इकट्ठे हो गये हों। सबको अलग-अलग रास्ते जाना है। जैसे स्वप्न नींद टूटने तक ही रहता है, वैसे ही इन मिलने-जुलने वालों का सम्बन्ध भी बस, शरीर के रहने तक ही रहता है; फिर तो कौन किसको पूछता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तदश अध्याय श्लोक 54-58 का हिन्दी अनुवाद)

गृहस्थ को चाहिये कि इस प्रकार विचार करके घर-गृहस्थी में फँसे नहीं, उसमें इस प्रकार अनासक्त भाव से रहे, मानो कोई अतिथि निवास कर रहे। जो शरीर आदि में अहंकार और घर आदि में ममता नहीं करता, उसे घर-गृहस्थी के फंदे बाँध नहीं सकते। भक्तिमान् पुरुष गृहस्थोचित शास्त्रोक्त कर्मों के द्वारा मेरी आराधना करता हुआ घर में ही रहे, अथवा यदि पुत्रवान् हो तो वानप्रस्थ आश्रम में चला जाये या संन्यासाश्रम स्वीकार कर ले।

प्रिय उद्धव जो लोग एस प्रकार का गृहस्थ जीवन न बितालकर घर गृहस्थी में ही आसक्त हो जाते है स्त्री, पुत्र और धनकी कामनाओं में फँसकर हाय हाय करते रहते और मूढ़तावश स्त्रीलम्पट और कपण होकर मैं मेरे के फेर में पड़ जाते हैं, वे बंध जाते हैं। वे सोचते हैं- 'हाय हाय। मेरे माँ-बाप बूढ़े हो गये, पत्नी के बाल-बच्चे अभी छोट-छोटे हैं, मेरे न रहने पर ये दीन, अनाथ और दु:खी हो जायेंगे। फिर इनका जीवन कैसे रहेगा? इस प्रकार घर गृहस्थी की वासना से जिसका चित्त विक्षिप्त हो रहा है, वह मूढ़ बुद्धिपुरुष विषय भोगों से कभी तृप्त नहीं होता। उन्हीं में उलझ कर आपना जीवन खो बैठता है और मर कर घोर तमोमय नरक में जाता है।

                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【अठारहवाँ अध्याय】१८


"वानप्रस्थ और संन्यासी के धर्म"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: अष्टदश अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- प्रिय उद्धव! यदि गृहस्थ मनुष्य वानप्रस्थ आश्रम में जाना चाहे, तो अपनी पत्नी को पुत्रों के हाथ सौंप दे अथवा अपने साथ ही ले ले और फिर शान्त चित्त से अपनी आयु का तीसरा भाग वन में ही रहकर व्यतीत करे। उसे वन के पवित्र कन्द-मूल और फलों से ही शरीर-निर्वाह करना चाहिये; वस्त्र की जगह वृक्षों की छाल पहिने अथवा घास-पात और मृगछाला से ही काम निकाल ले। केश, रोएँ, नख और मूँछ-दाढ़ीरूप शरीर के मल को हटावे नहीं। दातुन न करे। जल में घुसकर त्रिकाल स्नान करे और धरती पर ही पड़ रहे। ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि तपे, वर्षा ऋतु में खुले मैदान में रहकर वर्षा की बौछर सहे। जाड़े के दिनों में गले तक जल में डूबा रहे। इस प्रकार घोर तपस्यामय जीवन व्यतीत करे। कन्द-मूलों को केवल आग में भूनकर खा ले अथवा समयानुसार पके हुए फल आदि के द्वारा ही काम चला ले। उन्हें कूटने की आवश्यकता हो तो ओखली में या सिल पर कूट ले, अन्यथा दाँतों से ही चबा-चबाकर खा ले।

वानप्रस्थाश्रमी को चाहिये कि कौन-सा पदार्थ कहाँ से लाना चाहिये, किस समय लाना चाहिये, कौन-कौन पदार्थ अपने अनुकूल हैं-इन बातों को जानकर अपने जीवन-निर्वाह के लिये स्वयं ही सब प्रकार के कन्द-मूल-फल आदि ले आवे। देश-काल आदि से अनभिज्ञ लोगों से लाये हुए अथवा दूसरे समय के संचित पदार्थों को अपने काम में न ले।नीवार आदि जंगली अन्न से ही चरु-पुरोडाश आदि तैयार करे और उन्हीं से समयोचित आग्रयण आदि वैदिक कर्म करे। वानप्रस्थ हो जाने पर वेदविहित पशुओं द्वारा मेरा यजन न करे। वेदवेत्ताओं ने वानप्रस्थी के लिये अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास और चातुर्मास्य आदि का वैसा ही विधान किया है, जैसा गृहस्थों के लिये है। इस प्रकार घोर तपस्या करते-करते मांस सूख जाने के कारण वानप्रस्थी की एक-एक नस दीखने लगती है। वह इस तपस्या के द्वारा मेरी अराधना करके पहले तो ऋषियों के लोक में जाता है और वहाँ से फिर मेरे पास आ जाता है; क्योंकि तप मेरा ही स्वरूप है।

प्रिय उद्धव! जो पुरुष बड़े कष्ट से किये हुए और मोक्ष देने वाले इस महान् तपस्या को स्वर्ग, ब्रह्मलोक आदि छोटे-मोटे फलों की प्राप्ति के लिये करता है, उससे बढ़कर मूर्ख और कौन होगा? इसलिये तपस्या का अनुष्ठान निष्काम भाव से ही करना चाहिये। प्यारे उद्धव! वानप्रस्थी जब अपने आश्रमोचित नयमों का पालन करने में असमर्थ हो जाये, बुढ़ापे के कारण उसका शरीर काँपने लगे, तब यज्ञाग्नियों को भावना के द्वारा अपने अन्तःकरण में आरोपित कर ले और अपना मन मुझ में लगाकर अग्नि में प्रवेश कर जाये। (यह विधान केवल उनके लिये है, जो विरक्त नहीं है) यदि उसकी समझ में यह बात आ जाये कि काम्य कर्मों से उनके फलस्वरूप जो लोक प्राप्त होते हैं, वे नरकों के समान ही दुःखपूर्ण हैं और मन में लोक-परलोक से पूरा वैराग्य हो जाये तो विधिपूर्वक यज्ञाग्नियों का परित्याग करके संन्यास ले ले।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: अष्टदश अध्याय श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद)

जो वानप्रस्थी संन्यासी होना चाहे, वह पहले वेदविधि के अनुसार आठों प्रकार के श्राद्ध और प्राजापत्य यज्ञ से मेरा यजन करे। इसके बाद अपना सर्वस्व ऋत्विज को दे दे। यज्ञाग्नियों को अपने प्राणों में लीन कर ले और फिर किसी भी स्थान, वस्तु और व्यक्तियों की अपेक्षा न रखकर स्वच्छन्द विचरण करे।

उद्धव जी! जब ब्राह्मण संन्यास लेने लगता है, तब देवता लोग स्त्री-पुत्रादि सगे-सम्बन्धियों का रूप धारण करके उसके संन्यास-ग्रहण में विघ्न डालते हैं। वे सोचते हैं कि ‘अरे! यह तो हम लोगों की अवहेलना कर, हम लोगों को लाँघकर परमात्मा को प्राप्त होने जा रहा है’।

यदि संन्यासी वस्त्र धारण करे तो केवल लँगोटी लगा ले और अधिक-से-अधिक उसके ऊपर एक ऐसा छोटा-सा टुकड़ा लपेट ले कि जिसमें लँगोटी ढक जाये तथा आश्रमोचित दण्ड और कमण्डलु के अतिरिक्त और कोई भी वस्तु अपने पास न रखे। यह नियम आपत्ति काल को छोड़कर सदा के लिये है। नेत्रों से धरती देखकर पैर रखे, कपड़े से छानकर जल पिये, मुँह से प्रत्येक बात सत्यपूत-सत्य से पवित्र हुई ही निकाले और शरीर से जितने भी काम करे, बुद्धिपूर्वक-सोच-विचार कर ही करे। वाणी के लिये मौन, शरीर के लिये निश्चेष्ट स्थिति और मन के लिये प्राणायाम दण्ड हैं। जिसके पास ये तीनों दण्ड नहीं हैं, वह केवल शरीर पर बाँस के दण्ड धारण करने से दण्डी स्वामी नहीं हो जाता। संन्यासी को चाहिये कि जातिच्युत और गोघाती आदि पतितों को छोड़कर चारों वर्णों की भिक्षा ले। केवल अनिश्चित सात घरों से जितना मिल जाये, उतने से ही सन्तोष कर ले। इस प्रकार भिक्षा लेकर बस्ती के बाहर जलाशय पर जाये, वहाँ हाथ-पैर धोकर जल के द्वारा भिक्षा पवित्र कर ले; फिर शास्त्रोक्त पद्धति से जिन्हें भिक्षा का भाग देना चाहिये, उन्हें देकर जो कुछ बचे उसे मौन होकर खा ले। दूसरे समय के लिये बचाकर न रखे और न अधिक माँगकर ही लाये।

संन्यासी को पृथ्वी पर अकेले ही विचरना चाहिये। उसकी कहीं भी आसक्ति न हो, सब इन्द्रियाँ अपने वश में हों। वह अपने-आप में ही मस्त रहे, आत्म-प्रेम में ही तन्मय रहे, प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थियों में भी धैर्य रखे और सर्वत्र समान रूप से स्थित परमात्मा का अनुभव करता रहे। संन्यासी को निर्जन और निर्भय एकान्त-स्थान में रहना चाहिये। उसका हृदय निरन्तर मेरी भावना से विशुद्ध बना रहे। वह अपने-आपको मुझसे अभिन्न और अद्वितीय, अखण्ड के रूप में चिन्तन करे। वह अपनी ज्ञाननिष्ठा से चित्त के बन्धन और मोक्ष पर विचार करे तथा निश्चय करे कि इन्द्रियों का विषयों के लिये विक्षिप्त होना-चंचल होना बन्धन है और उनको संयम में रखना ही मोक्ष है। इसलिए संन्यासी को चाहिये कि मन एवं पाँचों ज्ञानेद्रियों को जीत ले, भोगों की क्षुद्रता समझकर उनकी ओर से सर्वथा मुँह मोड़ ले और अपने-आप में ही परम आनन्द का अनुभव करे। इस प्रकार वह मेरी भावना से भरकर पृथ्वी में विचरता रहे। केवल भिक्षा के लिये ही नगर, गाँव, अहीरों की बस्ती या यात्रियों की टोली में जाये। पवित्र देश, नदी, पर्वत, वन और आश्रमों से पूर्ण पृथ्वी में बिना कहीं ममता जोड़े घूमता-फिरता रहे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: अष्टदश अध्याय श्लोक 25-36 का हिन्दी अनुवाद)

भिक्षा भी अधिकतर वानप्रस्थियों के आश्रम से ही ग्रहण करे; क्योंकि कटे हुए खेतों के दाने से बनी हुई भिक्षा शीघ्र ही चित्त को शुद्ध कर देती है और उससे बचा-खुचा मोह दूर होकर सिद्धि प्राप्त हो जाती है। विचारवान् संन्यासी दृश्यमान जगत् को सत्य वस्तु कभी न समझे; क्योंकि यह तो प्रत्यक्ष ही नाशवान् है। इस जगत् में कहीं भी अपने चित्त को लगाये नहीं। इस लोक और परलोक में जो कुछ करने-पाने की इच्छा हो, उससे विरक्त हो जाये। संन्यासी विचार करे कि आत्मा में जो मन, वाणी और प्राणों का संघातरूप यह जगत् है, वह सारा-का-सारा माया ही है। इस विचार के द्वारा इसका बाध करके अपने स्वरूप में स्थित जो जाये फिर कभी उसका स्मरण भी न करे। ज्ञाननिष्ठ, विरक्त, मुमुक्षु और मोक्ष की भी अपेक्षा न रखने वाला मेरा भक्त आश्रमों की मर्यादा में बद्ध नहीं है। वह चाहे तो आश्रमों और उनके चिह्नों को छोड़-छाड़कर, वेद-शास्त्र के विधि-निषेधों से परे होकर स्वच्छन्द विचरे।

वह बुद्धिमान होकर भी बालकों के समान खेले। निपुण होकर भी जड़वत् रहे, विद्वान होकर भी पागल की तरह बातचीत करे और समस्त वेद-विधियों का जानकार होकर भी पशुवृत्ति से (अनियत आचारवान्) रहे। उसे चाहिये कि वेदों के कर्मकाण्ड-भाग की व्याख्या में न लगे, पाखण्ड न करे, तर्क-वितर्क से बचे और जहाँ कोरा वाद-विवाद हो रहा हो, वहाँ कोई पक्ष न ले। वह इतना धैर्यवान् हो कि उसके मन में किसी भी प्राणी से उद्वेग न हो और वह स्वयं भी किसी प्राणी को उद्विग्न न करे। उसकी कोई निन्दा करे, तो प्रसन्नता से सह ले; किसी का अपमान न करे। प्रिय उद्धव! संन्यासी इस शरीर के लिये किसी से भी वैर न करे। ऐसा वैर तो पशु करते हैं। जैसे एक ही चन्द्रमा जल से भरे हुए विभिन्न पात्रों में अलग-अलग दिखायी देता है, वैसे ही एक ही परमात्मा समस्त प्राणियों में और अपने में भी स्थित है। सबकी आत्मा तो एक है ही, पंचभूतों से बने हुए शरीर भी सबके एक ही है, क्योंकि सब पांच भौतिक ही तो हैं। (ऐसी अवस्था में किसी से भी वैर-विरोध करना अपना ही वैर-विरोध हैं)।

प्रिय उद्धव! संन्यासी को किसी दिन यदि समय पर भोजन न मिले, तो उसे दुःखी नहीं होना चाहिये और यदि बराबर मिलता रहे, तो हर्षित न होना चाहिये। उसे चाहिये कि वह धैर्य रखे। मन में हर्ष और विषाद दोनों प्रकार के विकार न आने दे; क्योंकि भोजन मिलना और न मिलना दोनों ही प्रारब्ध के अधीन हैं। भिक्षा अवश्य माँगनी चाहिये, ऐसा करना उचित ही है; क्योंकि भिक्षा से ही प्राणों की रक्षा होती है। प्राण रहने से ही तत्त्व का विचार होता है और तत्त्वविचार से तत्त्वज्ञान होकर मुक्ति मिलती है। संन्यासी को प्रारब्ध के अनुसार अच्छी या बुरी-जैसी भी भिक्षा मिल जाये, उसी से पेट भर ले। वस्त्र और बिछौने भी जैसे मिल जायें, उन्हीं से काम चला ले। उनमें अच्छेपन या बुरेपन की कल्पना न करे। जैसे मैं परमेश्वर होने पर भी अपनी लीला से ही शौच आदि शास्त्रोक्त नियमों का पालन करता हूँ, वैसे ही ज्ञाननिष्ठ पुरुष भी शौच, आचमन, स्नान और दूसरे नियमों का लीला से ही आचरण करे। वह शास्त्रविधि के अधीन होकर-विधि-किंकर होकर न करे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: अष्टदश अध्याय श्लोक 37-48 का हिन्दी अनुवाद)

क्योंकि ज्ञाननिष्ठ पुरुष को भेद की प्रतीति ही नहीं होती। जो पहले थी, वह भी मुझ सर्वात्मा के साक्षात्कार से नष्ट हो गयी। यदि कभी-कभी मरणपर्यन्त बाधित भेद की प्रतीति भी होती है, तब भी देहपात हो जाने पर वह मुझसे एक हो जाता है।

उद्धव जी! (यह तो हुई ज्ञानवान् की बात, अब केवल वैराग्यवान् की बात सुनो।) जितेन्द्रिय पुरुष, जब यह निश्चय हो जाये कि संसार के विषयों के भोग का फल दुःख-ही-दुःख है, तब वह विरक्त हो जाये और यदि वह मेरी प्राप्ति के साधनों को न जानता हो तो भगवच्चिन्तन में तन्मय रहने वाले ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु की शरण ग्रहण करे। वह गुरु की दृढ़ भक्ति करे, श्रद्धा रखे और उसमें दोष कभी न निकाले। जब तक ब्रह्म का ज्ञान हो, तब तक बड़े आदर से मुझे ही गुरु के रूप में समझता हुआ उनकी सेवा करे। किन्तु जिसने पाँच इन्द्रियाँ और मन, इन छहों पर विजय नहीं प्राप्त की है, जिसके इन्द्रियरूपी घोड़े और बुद्धिरूपी सारथि बिगड़े हुए हैं और जिसके हृदय में न ज्ञान है और न तो वैराग्य, वह यदि त्रिदण्डी संन्यासी का वेष धारणकर पेट पालता है तो वह संन्यास धर्म का सत्तानाश ही कर रहा है और अपने पूज्य देवताओं को, अपने-आपको और अपने हृदय में स्थित मुझको ठगने की चेष्टा करता है। अभी उस वेषमात्र के संन्यासी की वासनाएँ क्षीण नहीं हुई हैं; इसलिये वह इस लोक और परलोक दोनों से हाथ धो बैठता है।

संन्यासी का मुख्य धर्म है-शान्ति और अहिंसा। वानप्रस्थी का मुख्य धर्म है-तपस्या और भगवद्भाव। गृहस्थ का मुख्य धर्म है-प्राणियों की रक्षा और यज्ञ-याग तथा ब्रह्मचारी का मुख्य धर्म है-आचार्य की सेवा। गृहस्थ भी केवल ऋतुकाल में ही अपनी स्त्री का सहवास करे। उसके लिये भी ब्रह्मचर्य, तपस्या, शौच, सन्तोष और समस्त प्राणियों के प्रति प्रेमभाव-ये मुख्य धर्म हैं। मेरी उपासना तो सभी को करनी चाहिये। जो पुरुष इस प्रकार अनन्यभाव से अपने वर्णाश्रम धर्म के द्वारा मेरी सेवा में लगा रहता है और समस्त प्राणियों में मेरी भावना करता रहता है, उसे मेरी अविचल भक्ति प्राप्त हो जाती है।

उद्धव जी! मैं सम्पूर्ण लोकों का एकमात्र स्वामी, सब की उत्पत्ति और प्रलय का परम कारण ब्रह्म हूँ। नित्य-निरन्तर बढ़ने वाली अखण्ड भक्ति के द्वारा वह मुझे प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार वह गृहस्थ अपने धर्मपालन के द्वारा अन्तःकरण को शुद्ध करके मेरे ऐश्वर्य को-मेरे स्वरूप को जान लेता है और ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न होकर शीघ्र ही मुझे प्राप्त कर लेता है। मैंने तुम्हें यह सदाचाररूप वर्णाश्रमियों का धर्म बलताया है। यदि इस धर्मानुष्ठान में मेरी भक्ति का पुट लग जाये, तब तो इससे अनायास ही परम कल्याणस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति हो जाये।

साधुस्वभाव उद्धव! तुमने मुझसे जो प्रश्न किया था, उसका उत्तर मैंने दे दिया और यह बतला दिया कि अपने धर्म का पालन करने वाला भक्त मुझ परब्रह्मस्वरूप को किस प्रकार प्राप्त होता है।


                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【उन्नीसवाँ अध्याय】१९


"भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि साधनों का वर्णन"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकोनविंश अध्याय श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- उद्धव जी! जिसने उपनिषदादि शास्त्रों के श्रवण, मनन और निदिध्यासन के द्वारा आत्मसाक्षात्कार कर लिया है, जो श्रोत्रिय एवं ब्रह्मनिष्ठ है, जिसका निश्चय केवल युक्तियों और अनुमानों पर ही निर्भर नहीं करता, दूसरे शब्दों में-जो केवल परोक्ष ज्ञानी नहीं हैं, वह यह जानकार कि सम्पूर्ण द्वैतप्रपंच और इसकी निवृत्ति का साधन वृतिज्ञान मायामात्र है, उन्हें मुझमें लीन कर दे, वे दोनों ही मुझ आत्मा में अध्यस्त हैं, ऐसा जान ले। ज्ञानी पुरुष का अभीष्ट पदार्थ मैं ही हूँ, उसके साधन-साध्य, स्वर्ग और अपवर्ग भी मैं ही हूँ, मेरे अतिरिक्त और किसी भी पदार्थ से वह प्रेम नहीं करता। जो ज्ञान और विज्ञान से सम्पन्न सिद्धपुरुष हैं, वे ही मेरे वास्तविक स्वरूप को जानते हैं। इसीलिये ज्ञानी पुरुष मुझे सबसे प्रिय हैं।

उद्धव जी! ज्ञानी पुरुष अपने ज्ञान के द्वारा निरन्तर मुझे अपने अन्तःकरण में धारण करता है। तत्त्वज्ञान के लेशमात्र का उदय होने से जो सिद्धि प्राप्त होती है, वह तपस्या, तीर्थ, जप, दान अथवा अन्तःकरण शुद्धि के और किसी भी साधन से पूर्णतय नहीं हो सकती। इसलिए मेरे प्यारे उद्धव! तुम ज्ञान के सहित अपने आत्मस्वरूप को जान लो और फिर ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न होकर भक्तिभाव से मेरा भजन करो। बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों ने ज्ञान-विज्ञानरूप यज्ञ के द्वारा अपने अन्तःकरण में मुझ सब यज्ञों के अधिपति आत्मा का यजन करके परम सिद्धि प्राप्त की है। उद्धव! अध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक-इन तीन विकारों की समष्टि ही शरीर है और वह सर्वथा तुम्हारे आश्रित है। यह पहले नहीं था और अन्त में नहीं रहेगा; केवल बीच में ही दीख रहा है। इसलिये इसे जादू के खेल के समान माया ही समझना चाहिये। इसके जो जन्मना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट होना-ये छः भावविकार हैं, इनसे तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं है। यही नहीं, वे विकार उसके भी नहीं हैं; क्योंकि वह स्वयं असत् है। असत् वस्तु तो पहले नहीं थी, बाद में भी नहीं रहेगी; इसलिये बीच में भी उसका कोई अस्तित्व नहीं होता।

उद्धव जी ने कहा ;- 'विश्वरूप परमात्मन्! आप ही विश्व के स्वामी हैं। आपका यह वैराग्य और विज्ञान से युक्त सनातन एवं विशुद्ध ज्ञान जिस प्रकार सुदृढ़ हो जाये, उसी प्रकार मुझे स्पष्ट करके समझाइये और उस अपने भक्तियोग का भी वर्णन कीजिये, जिसे ब्रह्मा आदि महापुरुष भी ढूँढा करते हैं। मेरे स्वामी! जो पुरुष इस संसार के विकट मार्ग में तीनों तापों के थपेड़े खा रहे हैं और भीतर-बाहर जल-भुन रहे हैं, उनके लिये आपके अमृतवर्षी युगल चरणारविन्दों की छत्र-छाया के अतिरिक और कोई भी आश्रय नहीं दीखता। महानुभाव! आपका यह अपना सेवक अँधेरे कुएँ में पड़ा हुआ है, कालरूपी सर्प ने इसे डस रखा है; फिर भी विषयों के क्षुद्र सुख-लोगों की तीव्र तृष्णा मिटती नहीं, बढ़ती ही जा रही है। आप कृपा करके इसका उद्धार कीजिये और इससे मुक्त करने वाली वाणी की सुधा-धारा से इसे सराबोर कर दीजिये।'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- उद्धव जी! जो प्रश्न तुमने मुझसे किया है, यही प्रश्न धर्मराज युधिष्ठिर ने धार्मिक शिरोमणि भीष्म पितामह से किया था। उस समय हम सभी लोग वहाँ विद्यमान थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकोनविंश अध्याय श्लोक 12-23 का हिन्दी अनुवाद)

जब भारतीय महायुद्ध समाप्त हो चुका था और धर्मराज युधिष्ठिर अपने स्वजन-सम्बन्धियों के संहार से शोक विह्वल हो रहे थे, तब उन्होंने भीष्म पितामह से बहुत-से धर्मों का विवरण सुनने के पश्चात् मोक्ष के साधनों के सम्बन्ध में प्रश्न किया था। उस समय भीष्म पितामह के मुख से सुने हुए मोक्षधर्म मैं तुम्हें सुनाउँगा; क्योंकि वे ज्ञान, वैराग्य, विज्ञान, श्रद्धा और भक्ति के भावों से परिपूर्ण हैं।

उद्धव जी! जिस ज्ञान से प्रकृति, पुरुष, महत्तत्त्व,, अहंकार और पंच-तन्मात्रा-ये नौ, पाँच ज्ञानेद्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन-ये ग्यारह, पाँच महाभूत और तीन गुण अर्थात् इन अट्ठाईस तत्त्वों को ब्रह्मा से लेकर तृण तक सम्पूर्ण कार्यों में देखा जाता है और इनमें भी एक परमात्मतत्त्व को अनुगत रूप से देखा जाता है-वह परोक्ष ज्ञान है, ऐसा मेरा निश्चय है। जब जिस एक तत्त्व से अनुगत एकात्मक तत्त्वों को पहले देखता था, उनको पहले के समान न देखे, किन्तु एक परम कारण ब्रह्म को ही देखे, तब यही निश्चित विज्ञान (अपरोक्ष ज्ञान) कहा जाता है। (इस ज्ञान और विज्ञान को प्राप्त करने की युक्ति यह है कि) यह शरीर आदि जितने भी त्रिगुणात्मक सावयव पदार्थ हैं, उनकी स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय का विचार करे। जो तत्त्ववस्तु सृष्टि के प्रारम्भ में और अन्त में कारणरूप से स्थित रहती है, वही मध्य में भी रहती है और वही प्रतीयमान कार्य से प्रतीयमान कार्यान्तर में अनुगत भी होती है। फिर उन कार्यों का प्रलय अथवा बाध होने पर उसके साक्षी एवं अधिष्ठानरूप से शेष रह जाती है। वही सत्य परमार्थ वस्तु है, ऐसा समझे। श्रुति, प्रत्यक्ष, एतिह्य (महापुरुषों में प्रसिद्धि) और अनुमान-प्रमाणों में यह चार मुख्य हैं। इनकी कसौटी पर कसने से दृश्यप्रपंच अस्थिर, नश्वर एवं विकारी होने के कारण सत्य सिद्ध नहीं होता, इसलिये विवेकी पुरुष इस विविध कल्पनारूप अथवा शब्दमात्र प्रपंच से विरक्त हो जाता है। विवेकी पुरुष को चाहिये कि वह स्वर्गादि फल देने वाले यज्ञादि कर्मों के परिणामी-नश्वर होने के कारण ब्रह्मलोक पर्यन्त स्वर्गादि सुख-अदृष्ट को भी इस प्रत्यक्ष विषय-सुख के समान ही अमंगल, दुःखदायी एवं नाशवान् समझे।

निष्पाप उद्धव जी! भक्तियोग का वर्णन मैं तुम्हें पहले ही सुना चुका हूँ; परन्तु उसमें तुम्हारी बहुत प्रीति है, इसलिये मैं तुम्हें फिर से भक्ति प्राप्त होने का श्रेष्ठ साधन बतलाता हूँ। जो मेरी भक्ति प्राप्त करना चाहता हो, वह मेरी अमृतमयी कथा में श्रद्धा रखे; निरन्तर मेरे गुण-लीला और नामों का सकीर्तन करे; मेरी पूजा में अत्यन्त निष्ठा रखे और स्तोत्रों के द्वारा मेरी स्तुति करे। मेरी सेवा-पूजा में प्रेम रखे और सामने साष्टांग लोटकर प्रणाम करे; मेरे भक्तों की पूजा मेरी पूजा से बढ़कर करे और समस्त प्राणियों में मुझे ही देखे। अपने एक-एक अंग की चेष्टा केवल मेरे ही लिये करे, वाणी से मेरे ही गुणों का गान करे और अपना मन भी मुझे ही अर्पित कर दे तथा सारी कामनाएँ छोड़ दे। मेरे लिये धन, भोग और प्राप्त सुख का भी परित्याग कर दे और जो कुछ यज्ञ, दान, हवन, जप, व्रत और तप किया जाये, वह सब मेरे लिये ही करे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकोनविंश अध्याय श्लोक 24-37 का हिन्दी अनुवाद)

उद्धव जी! जो मनुष्य इन धर्मों का पालन करते हैं और मेरे प्रति आत्म-निवेदन कर देते हैं, उनके हृदय में मेरी प्रेममयी भक्ति का उदय होता है और जिसे मेरी भक्ति प्राप्त हो गयी, उसके लिये और किस दूसरी वस्तु का प्राप्त होना शेष रह जाता है। इस प्रकार के धर्मों का पालन करने से चित्त में जब सत्त्वगुण की वृद्धि होती है और वह शान्त होकर आत्मा में लग जाता है, उस समय साधक को धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य स्वयं ही प्राप्त हो जाते हैं। यह संसार विविध कल्पनाओं से भरपूर है। सच पूछो तो इसका नाम तो है, किन्तु कोई वस्तु नहीं है। जब चित्त इसमें लगा दिया जाता है, तब इन्द्रियों के साथ इधर-उधर भटकने लगता है। इस प्रकार चित्त में रजोगुण की बाढ़ आ जाती है, वह असत् वस्तु में लग जाता है और उसके धर्म, ज्ञान आदि तो लुप्त हो ही जाते हैं, वह अधर्म, अज्ञान और मोह का भी घर बन जाता है। उद्धव! जिससे मेरी भक्ति हो, वही धर्म है; जिससे ब्रह्म और आत्मा की एकता का साक्षात्कार हो, वही ज्ञान है; विषयों से असंग-निर्लेप रहन ही वैराग्य है और अणिमादि सिद्धियाँ ही ऐश्वर्य हैं।

उद्धव जी ने कहा ;- 'रिपुसूदन! यम और नियम कितने प्रकार के हैं? श्रीकृष्ण! शम क्या है? दम क्या है? प्रभो! तितिक्षा और धैर्य क्या है? आप मुझे दान, तपस्या, शूरता, सत्य और ऋत का भी स्वरूप बतलाइये। त्याग क्या है? अभीष्ट धन कौन-सा है? यज्ञ किसे कहते हैं? और दक्षिणा क्या वस्तु है? श्रीमान् केशव! पुरुष का सच्चा बल क्या है? भग किसे कहते हैं? और लाभ क्या वस्तु है? उत्तम विद्या, लज्जा, श्री तथा सुख और दुःख क्या है? पण्डित और मूर्ख के लक्षण क्या हैं? सुमार्ग और कुमार्ग का क्या लक्षण है? स्वर्ग और नरक क्या है? भाई-बन्धु किसे मानना चाहिये? और घर क्या है? धनवान् और निर्धन किसे कहते हैं? कृपण कौन है? और ईश्वर किसे कहते हैं? भक्तवत्सल प्रभो! आप मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दिजिये और साथ ही इनके विरोधी भावों की भी व्याख्या कीजिये।'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- ‘यम’ बारह हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), असंगता, लज्जा, असंचय (आवश्यकता से अधिक धन आदि न जोड़ना), आस्तिकता, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता, क्षमा और अभय। नियमों की संख्या भी बारह ही है। शौच (बाहरी पवित्रता और भीतरी पवित्रता), जप, तप, हवन, श्रद्धा, अतिथि सेवा, मेरी पूजा, तीर्थयात्रा, परोपकार की चेष्टा, सन्तोष और गुरुसेवा- इस प्रकार ‘यम’ और ‘नियम’ दोनों की संख्या बारह-बारह है। वे सकाम और निष्काम दोनों प्रकार के साधकों के लिये उपयोगी हैं। उद्धव जी! जो पुरुष इनका पालन करते हैं, वे यम और नियम उनके इच्छानुसार उन्हें भोग और मोक्ष दोनों प्रदान करते हैं। बुद्धि का मुझमें लग जाना ही ‘शम’ है। इन्द्रियों के संयम का नाम ‘दम’ है। न्याय से प्राप्त दुःख के सहने का नाम ‘तितिक्षा’ है। जिह्वा और ज्ञानेद्रिय पर विजय प्राप्त करना ‘धैर्य’ है। किसी से द्रोह न करना, सबको अभय देना ‘दान’ है। कामनाओं का त्याग करना ही ‘तप’ है। अपनी वासनाओं पर विजय प्राप्त करना ही ‘शूरता’ है। सर्वत्र समस्वरूप, सत्यस्वरूप परमात्मा का दर्शन ही ‘सत्य’ है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकोनविंश अध्याय श्लोक 38-45 का हिन्दी अनुवाद)

इसी प्रकार सत्य और मधुर भाषण को ही महात्माओं ने ‘ऋत’ कहा है। कर्मों में आसक्त न होना ही ‘शौच’ है। कामनाओं का त्याग ही सच्चा ‘संन्यास’ है। धर्म ही मनुष्यों का अभीष्ट ‘धन’ है। मैं परमेश्वर ही ‘यज्ञ’ हूँ। ज्ञान का उपदेश देना ही 'दक्षिणा’ है। प्राणायाम ही श्रेष्ठ ‘बल’ है। मेरा ऐश्वर्य ही ‘भग’ है, मेरी श्रेष्ठ भक्ति ही उत्तम ‘लाभ’ है, सच्ची ‘विद्या’ वही है, जिससे ब्रह्म और आत्मा का भेद मिट जाता है। पाप करने से घृणा होने का नाम ही ‘लज्जा’ है।

निरपेक्षता आदि गुण ही शरीर का सच्चा सौन्दर्य-‘श्री’ है, दुःख और सुख दोनों की भावना का सदा के लिये नष्ट हो जाना ही ‘सुख’ है। विषय भोगों की कामना ही ‘दुःख’ है। जो बन्धन और मोक्ष का तत्त्व जानता है, वही ‘पण्डित’ है। शरीर आदि में जिसका मैंपन है, वही ‘मूर्ख’ है। जो संसार की ओर से निवृत करके मुझे प्राप्त करा देता है, वही सच्चा ‘सुमार्ग’ है। चित्त की बहिर्मुखता ही ‘कुमार्ग’ है। सत्त्वगुण की वृद्धि ही ‘स्वर्ग’ और सखे! तमोगुण की वृद्धि ही ‘नरक’ है।

गुरु ही सच्चा ‘भाई-बन्धु’ है और वह गुरु मैं हूँ। यह मनुष्य-शरीर ही सच्चा ‘घर’ है तथा सच्चा ‘धनी’ वह है, जो गुणों से सम्पन्न है, जिसके पास गुणों का खजाना है। जिसके चित्त में असन्तोष है, अभाव का बोध है, वही ‘दरिद्र’ है। जो जितेन्द्रिय नहीं है, वही ‘कृपण’ है। समर्थ, स्वतन्त्र और ‘ईश्वर’ वह है, जिसकी चित्तवृत्ति विषयों में आसक्त नहीं है। इसके विपरीत जो विषयों में आसक्त है, वही सर्वथा ‘असमर्थ’ है।

प्यारे उद्धव! तुमने जितने प्रश्न पूछे थे, उनका उत्तर मैंने दे दिया; इनको समझ लेना मोक्ष-मार्ग के लिये सहायक है। मैं तुम्हें गुण और दोषों का लक्षण अलग-अलग कहाँ तक बताऊँ? सबका सारांश इतने में समझ लो कि गुणों और दोषों पर दृष्टि जाना ही सबसे बड़ा दोष है और गुण-दोषों पर दृष्टि न जाकर अपने शान्त निःसंकल्प स्वरूप में स्थित रहे-वही सबसे बड़ा गुण है।


                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【बीसवाँ अध्याय】२०


"ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: विंश अध्याय श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

उद्धव जी ने कहा ;- 'कमलनयन श्रीकृष्ण! आप सर्वशक्तिमान् हैं। आपकी आज्ञा ही वेद है; उसमें जो कुछ कर्मों को करने की विधि है और कुछ के करने का निषेध है। यह विधि-निषेध कर्मों के गुण और दोष की परीक्षा करके ही तो होता है। वर्णाश्रम-भेद, प्रतिलोम और अनुलोमरूप वर्णसंकर, कर्मों के उपयुक्त और अनुपयुक्त द्रव्य, देश, आयु और काल तथा स्वर्ग और नरक के भेदों का बोध भी वेदों से ही होता है। इसमें सन्देह नहीं कि आपकी वाणी ही वेद है, परन्तु उसमें विधि-निषेध ही तो भरा पड़ा है। यदि उसमें गुण और दोष में भेद करने वाली दृष्टि न हो, तो वह प्राणियों का कल्याण करने में समर्थ ही कैसे हो?

सर्वशक्तिमान् परमेश्वर! आपकी वाणी वेद ही पितर, देवता और मनुष्यों के लिये श्रेष्ठ मार्ग-दर्शन का काम करता है; क्योंकि उसी के द्वारा स्वर्ग-मोक्ष आदि अदृष्ट वस्तुओं का बोध होता है और इस लोक में भी किसका कौन-सा साध्य है और क्या साधन-इसका निर्णय भी उसी से होता है। प्रभो! इसमें सन्देह नहीं कि गुण और दोषों में भेददृष्टि आपकी वाणी वेद के अनुसार है, किसी की अपनी कल्पना नहीं; परन्तु प्रश्न तो यह है कि आपकी वाणी ही भेद का निषेध भी करती है। यह विरोध देखकर मुझे भ्रम हो रहा है। आप कृपा करके मेरा यह भ्रम मिटाइये।'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- प्रिय उद्धव! मैंने ही वेदों में एवं अन्यत्र भी मनुष्यों का कल्याण करने के लिये अधिकारिभेद से तीन प्रकार के योगों का उपदेश किया हैं। वे हैं- ज्ञान, कर्म और भक्ति। मनुष्य के परम कल्याण के लिये इनके अतिरिक्त और कोई उपाय कहीं नहीं है। उद्धव जी! जो लोग उनका त्याग कर चुके हैं, वे ज्ञानयोग के अधिकारी हैं। इसके विपरीत जिनके चित्त में कर्मों और उनके फलों से वैराग्य नहीं हुआ है, उसमें दुःखबुद्धि नहीं हुई है, वे सकाम व्यक्ति कर्मयोग के अधिकारी हैं। जो पुरुष न तो अत्यन्त विरक्त हैं और न अत्यन्त आसक्त ही हैं तथा किसी पूर्वजन्म के शुभकर्म से सौभाग्यवश मेरी लीला-कथा आदि में उसकी श्रद्धा हो गयी है, वह भक्तियोग का अधिकारी है। उसे भक्तियोग के द्वारा ही सिद्धि मिल सकती है। कर्म के सम्बन्ध में जितने भी विधि-निषेध हैं, उनके अनुसार तभी तक कर्म करना चाहिये, जब तक कर्ममय जगत् और उससे प्राप्त होने वाले स्वर्गादि सुखों से वैराग्य न हो जाये अथवा जब तक मेरी लीला-कथा के श्रवण-कीर्तन में श्रद्धा न हो जाये।

उद्धव! इस प्रकार अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल धर्म में स्थित रहकर यज्ञों के द्वारा बिना किसी आशा और कामना के मेरी आराधना करता रहे और निषिद्ध कर्मों से दूर रहकर केवल विहित कर्मों का ही आचरण करे तो उसे स्वर्ग या नरक में नहीं जाना पड़ता। अपने धर्म में निष्ठा रखने वाला पुरुष इस शरीर में रहते-रहते ही निषिद्ध कर्म का परित्याग कर देता है और रागादि मलों से भी मुक्त-पवित्र हो जाता है। इसी से अनायास ही उसे आत्मसाक्षात्काररूप विशुद्ध तत्त्वज्ञान अथवा द्रुत-चित्त होने पर मेरी भक्ति प्राप्त होती है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: विंश अध्याय श्लोक 12-21 का हिन्दी अनुवाद)

यह विधि-निषेधरूप कर्म का अधिकारी मनुष्य-शरीर बहुत ही दुर्लभ है। स्वर्ग और नरक दोनों ही लोकों में रहने वाले जीव इसकी अभिलाषा करते रहते हैं; क्योंकि इसी शरीर में अन्तःकरण की शुद्धि होने पर ज्ञान अथवा भक्ति की प्राप्ति हो सकती है, स्वर्ग अथवा नरक का भोगप्रधान शरीर किसी भी साधन के उपयुक्त नहीं है। बुद्धिमान पुरुष को न तो स्वर्ग की अभिलाषा करनी चाहीये और न नरक की ही। और तो क्या, इस मनुष्य-शरीर में गुणबुद्धि और अभिमान हो जाने से अपने वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति के साधन में प्रमाद होने लगता है। यद्यपि यह मनुष्य-शरीर है तो मृत्युग्रस्त ही, परन्तु इसके द्वारा परमार्थ की-सत्य वस्तु की प्राप्ति हो सकती है। बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि यह बात जानकर मृत्यु होने के पूर्व ही सावधान होकर ऐसी साधना कर ले, जिससे वह जन्म-मृत्यु के चक्कर से सदा के लिये छूट जाये-मुक्त हो जाये।

यह शरीर एक वृक्ष है। इसमें घोंसला बनाकर जीवरूप पक्षी निवास करता है। इसे यमराज के दूत प्रतिक्षण काट रहे हैं। जैसे पक्षी कटते हुए वृक्ष को छोड़कर उड़ जाता है, वैसे ही अनासक्त जीव भी इस शरीर को छोड़कर मोक्ष का भागी बन जाता है। परन्तु आसक्त जीव दुःख ही भोगता रहता है। प्रिय उद्धव! ये दिन और रात क्षण-क्षण में में शरीर की आयु को क्षीण कर रहे हैं। यह जानकर जो भय से काँप उठता है, वह व्यक्ति इसमें आसक्ति छोड़कर परमतत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर लेता है और फिर इसके जीवन-मरण से निरपेक्ष होकर अपने आत्मा में ही शान्त हो जाता है। यह मनुष्य-शरीर समस्त शुभ फलों की प्राप्ति का मूल है और अत्यन्त दुर्लभ होने पर भी अनायास सुलभ हो गया है। इस संसार-सागर से पार जाने के लिये यह एक सुदृढ़ नौका है। शरण-ग्रहण मात्र से ही गुरुदेव इसके केवट बनकर पतवार का संचालन करने लगते हैं और स्मरणमात्र से ही मैं अनुकूल वायु के रूप में इसे लक्ष्य की ओर बढ़ाने लगता हूँ। इतनी सुविधा होने पर भी जो इस शरीर के द्वारा संसार-सागर से पार नहीं हो जाता, वह तो अपने हाथों अपने आत्मा का हनन-अधःपतन कर रहा है।

प्रिय उद्धव! जब पुरुष दोषदर्शन के कारण कर्मों से उद्विग्न और विरक्त हो जाये, तब जितेन्द्रिय होकर वह योग में स्थित हो जाये और अभ्यास-आत्मानुसन्धान के द्वारा अपना मन मुझ परमात्मा में निश्चल रूप से धारण करे। जब स्थिर करते समय मन चंचल होकर इधर-उधर भटकने लगे, तब झटपट बड़ी सावधानी से उसे मनाकर, समझा-बुझाकर, फुसलाकर अपने वश में कर ले। इन्द्रियों और प्राणों को अपने वश में रखे और मन को एक क्षण के लिये भी स्वतन्त्र न छोड़े। उसकी एक-एक चाल, एक-एक हरकत को देखता रहे। इस प्रकार सत्त्वसम्पन्न बुद्धि के द्वारा धीरे-धीरे मन को अपने वश में कर लेना चाहिये। जैसे सवार घोड़े को अपने वश में करते समय उसे अपने मनोभाव की पहचान कराना चाहता है-अपनी इच्छा के अनुसार उसे चलाना चाहता है और बार-बार फुसलाकर उसे अपने वश में कर लेता है, वैसे ही मन को फुसलाकर, उसे मीठी-मीठी बातें सुनाकर वश में कर लेना ही परम योग है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: विंश अध्याय श्लोक 22-29 का हिन्दी अनुवाद)

सांख्यशास्त्र में प्रकृति से लेकर शरीरपर्यन्त सृष्टि का जो क्रम बतलाया गया है, उसके अनुसार सृष्टि-चिन्तन करना चाहिये और जिस क्रम से शरीर आदि का प्रकृति में लय बताया गया है, उस प्रकार लय-चिन्तन करना चाहिये। यह क्रम तब तक जारी रखना चाहिये, जब तक मन शान्त-स्थिर न हो जाये। जो पुरुष संसार से विरक्त हो गया है और जिसे संसार के पदार्थों में दुःख-बुद्धि हो गयी है, वह अपने गुरुजनों के उपदेश को भलीभाँति समझकर बार-बार अपने स्वरूप के ही चिन्तन में संलग्न रहता है। इस अभ्यास से बहुत शीघ्र ही उसका मन अपनी वह चंचलता, जो अनात्मा शरीर आदि में आत्मबुद्धि करने से हुई है, छोड़ देता है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि आदि योगमार्गों से, वस्तुतत्त्व का निरीक्षण-परीक्षण करने वाली आत्मविद्या से तथा मेरी प्रतिमा की उपासना से-अर्थात् कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग से मन परमात्मा का चिन्तन करने लगता है: और कोई उपाय नहीं है।

उद्धव जी! वैसे तो योगी कभी कोई निन्दित कर्म करता ही नहीं; परन्तु यदि कभी उससे प्रमादवश कोई अपराध बन जाये तो योग के द्वारा ही उस पाप को जला डाले, कृच्छ्र-चान्द्रायण आदि दूसरे प्रायश्चित कभी न करे। अपने-अपने अधिकार में जो निष्ठा है, वही गुण कहा गया है। इस गुण-दोष और विधि-निषेध के विधान से यह तात्पर्य निकलता है कि किसी प्रकार विषयासक्ति का परित्याग हो जाये; क्योंकि कर्म तो जन्म से ही अशुद्ध हैं, अनर्थ के मूल हैं। शास्त्र का तात्पर्य उनका नियन्त्रण, नियम ही है। जहाँ तक हो सके प्रवृत्ति का संकोच ही करना चाहिये। जो साधक समस्त कर्मों से विरक्त हो गया हो, उनमें दुःखबुद्धि रखता हो, मेरी लीला कथा के प्रति श्रद्धालु हो और यह भी जानता हो कि सभी भोग और भोग वासनाएँ दुःखरूप हैं, किन्तु इतना सब जानकर भी जो उनके परित्याग में समर्थ न हो, उसे चाहिये कि उन भोगों को तो भोग ले; परन्तु उन्हें सच्चे हृदय से दुःखजनक समझे और मन-ही-मन उनकी निन्दा करे तथा उसे अपना दुर्भाग्य ही समझे। साथ ही इस दुविधा की स्थिति से छुटकारा पाने के लिये श्रद्धा, दृढ़ निश्चय और प्रेम से मेरा भजन करे।

इस प्रकार मेरे बतलाये हुए भक्तियोग के द्वारा निरन्तर मेरा भजन करने से मैं उस साधक के हृदय में आकर बैठ जाता हूँ और मेरे विराजमान होते ही उसके हृदय की सारी वासनाएँ अपने संस्कारों के साथ नष्ट हो जाती हैं। इस तरह जब उसे मुझ सर्वात्मा का साक्षात्कार हो जाता है, तब तो उसके हृदय की गाँठ टूट जाती है, उसके सारे संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं और कर्मवासनाएँ सर्वथा क्षीण हो जाती हैं। इसी से जो योगी मेरी भक्ति से युक्त और मेरे चिन्तन में मग्न रहता है, उसके लिये ज्ञान अथवा वैराग्य की आवश्यकता नहीं होती। उसका कल्याण तो प्रायः मेरी भक्ति के द्वारा ही हो जाता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: विंश अध्याय श्लोक 32-37 का हिन्दी अनुवाद)

कर्म, तपस्या, ज्ञान, वैराग्य, योगाभ्यास, दान, धर्म और दूसरे कल्याण साधनों से जो कुछ स्वर्ग, अपवर्ग, मेरा परमधाम अथवा कोई भी वस्तु प्राप्त होती है, वह सब मेरा भक्त मेरे भक्तियोग के प्रभाव से ही, यदि चाहे तो, अनायास प्राप्त कर लेता है। मेरे अनन्य प्रेमी एवं धैर्यवान् साधुभक्त स्वयं तो कुछ चाहते ही नहीं; यदि मैं उन्हें देना चाहता हूँ और देता भी हूँ तो भी दूसरी वस्तुओं की तो बात ही क्या-वे कैवल्य-मोक्ष भी नहीं लेना चाहते।

उद्धव जी! सबसे श्रेष्ठ एवं महान् निःश्रेयस (परम कल्याण) तो निरपेक्षता का ही दूसरा नाम है। इसलिए जो निष्काम और निरपेक्ष होता है, उसी को मेरी भक्ति प्राप्त होती है। मेरे अनन्य प्रेमी भक्तों का और उन समदर्शी महात्माओं का; जो बुद्धि से अतीत परमतत्त्व को प्राप्त हो चुके हैं, इन विधि और निषेध से होने वाले पुण्य और पाप से कोई सम्बन्ध ही नहीं होता। इस प्रकार जो लोग मेरे बतालाये हुए इन ज्ञान, भक्ति और कर्मयोगों का आश्रय लेते हैं, वे मेरे परम कल्याण-स्वरूप धाम को प्राप्त होते हैं, क्योंकि वे परब्रह्मतत्त्व को जान लेते हैं।

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