सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( एकादश स्कन्धः ) का छठवाँ, सातवाँ, आठवाँ, नवाँ व दसवाँ अध्याय [ Sixth, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Eleventh wing) ]

 


                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【छठवाँ अध्याय】६


"देवताओं की भगवान से स्वधाम सिधारने के लिये प्रार्थना तथा यादवों को प्रभास क्षेत्र जाने की तैयारी करते देखकर उद्धव का भगवान के पास आना"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: षष्ठ अध्याय श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब देवर्षि नारद वसुदेव जी को उपदेश करके चले गये, तब अपने पुत्र सनकादिकों, देवताओं और प्रजापतियों के साथ ब्रह्मा जी, भूतगणों के साथ सर्वेश्वर महादेव जी और मरुद्गणों के साथ देवराज इन्द्र द्वारकानगरी में आये। साथ ही सभी आदित्यगण, आठों वसु, अश्विनीकुमार, ऋभु, अंगिरा के वंशज ऋषि, ग्यारहों रुद्र, विश्वेदेव, साध्यगण, गन्धर्व, अप्सराएँ, नाग, सिद्ध, चारण, गुह्यक, ऋषि, पितर, विद्याधर और किन्नर भी वहीं पहुँचे। इन लोगों के आगमन का उद्देश्य यह था कि मनुष्य का-सा मनोहर वेष धारण करने वाले और अपने श्यामसुन्दर विग्रह से सभी लोगों का मन अपनी ओर खींचकर रमा लेने वाले भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन करें; क्योंकि इस समय उन्होंने अपना श्रीविग्रह प्रकट करके उसके द्वारा तीनों लोकों में ऐसी पवित्र कीर्ति का विस्तार किया है, जो समस्त लोकों के पाप-ताप को सदा के लिये मिटा देती है।

द्वारकापुरी सब प्रकार की सम्पत्ति और ऐश्वर्यों से समृद्ध तथा अलौकिक दीप्ति से देदीप्यमान हो रही थी। वहाँ आकर उन लोगों ने अनूठी छवि से युक्त भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन किये। भगवान की रूप-माधुरी का निर्निमेष नयनों से पान करने पर भी उनके नेत्र तृप्त न होते थे। वे एकटक बहुत देर तक उन्हें देखते ही रहे। उन लोगों ने स्वर्ग के उद्यान नन्दन-वन, चैत्ररथ आदि के दिव्य पुष्पों से जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण को ढक दिया और चित्र-विचित्र पदों तथा अर्थों से युक्त वाणी के द्वारा उनकी स्तुति करने लगे।

देवताओं ने प्रार्थना की- 'स्वामी! कर्मों के विकट फंदों से छूटने की इच्छा वाले मुमुक्षुजन भक्ति-भाव से अपने हृदय से जिसका चिन्तन करते रहते हैं, आपके उसी चरणकमल को हम लोगों ने अपनी बुद्धि, इन्द्रिय, प्राण, मन और वाणी से साक्षात् नमस्कार किया है। अहो! आश्चर्य है! अजित! आप मायिक रज आदि गुणों में स्थित होकर इस अचिन्त्य नाम-रूपात्मक प्रपंच की त्रिगुणमयी माया के द्वारा अपने-आप में ही रचना करते हैं, पालन करते और संहार करते हैं। यह सब करते हुए भी इन कर्मों से आप लिप्त नहीं होते हैं; क्योंकि आप राग-द्वेषादि दोषों से सर्वथा मुक्त हैं और अपने निरावरण अखण्ड स्वरूप भूत परमानन्द में मग्न रहते हैं। स्तुति करने योग्य परमात्मन्! जिन मनुष्यों की चित्तवृत्ति राग-द्वेषादि से कलुषित हैं, वे उपासना, वेदाध्ययन, दान, तपस्या और यज्ञ आदि कर्म भले ही करें; परन्तु उनकी वैसी शुद्धि नहीं हो सकती, जैसी श्रवण के द्वारा सम्पुष्ट शुद्धान्तःकरण सज्जन पुरुषों की आपकी लीला कथा, कीर्ति के विषय में दिनोंदिन बढ़कर परिपूर्ण होने वाली श्रद्धा से होती है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: षष्ठ अध्याय श्लोक 10-16 का हिन्दी अनुवाद)

मननशील मुमुक्षुजन मोक्ष-प्राप्ति के लिये अपने प्रेम से पिघले हुए हृदय के द्वारा जिन्हें लिये-लिये फिरते हैं, पांचरात्र विधि से उपासना करने वाले भक्तजन समान ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध- इस चतुर्व्यूह के रूप में जिनका पूजन करते हैं और जितेन्द्रिय धीर पुरुष स्वर्ग लोक का अतिक्रमण करके भगवद्धाम की प्राप्ति के लिये तीनों समय जिनकी पूजा किया करते हैं, याज्ञिक लोग तीनों वेदों के द्वारा बतलायी हुई विधि से अपने संयत हाथों में हविष्य लेकर यज्ञकुण्ड में आहुति देते और उन्हीं का चिन्तन करते हैं। आपकी आत्म-स्वरूपिणी माया के जिज्ञासु योगीजन हृदय के अन्तर्देश में दहरविद्या आदि के द्वारा आपके चरणकमलों का ही ध्यान करते हैं और आपके बड़े-बड़े प्रेमी भक्तजन उन्हीं को अपना परम इष्ट आराध्यदेव मानते हैं।

प्रभो! आपके वे ही चरणकमल हमारी समस्त अशुभ वासनाओं-विषय-वासनाओं को भस्म करने के लिये अग्निस्वरूप हों। वे अग्नि के समान हमारे पाप-तापों को भस्म कर दें। प्रभो! यह भगवती लक्ष्मी आपके वक्षःस्थल पर मुरझायी हुई बासी वनमाला से भी सौत की तरह स्पर्द्धा रखती हैं। फिर भी आप उनकी परवा न कर भक्तों के द्वारा इस बासी माला से की हुई पूजा भी प्रेम से स्वीकार करते हैं। ऐसे भक्तवत्सल प्रभु के चरणकमल सर्वदा हमारी विषय वासनाओं को जलाने-वाले अग्निस्वरूप हों।

अनन्त! वामनावतार में दैत्यराज बलि की दी हुई पृथ्वी को नापने के लिये जब आपने अपना पग उठाया था और वह सत्यलोक में पहुँच गया था, तब यह ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई बहुत बड़ा विजय ध्वज हो। ब्रह्मा जी के पखारने के बाद उससे गिरती हुई गंगाजी के जल की तीन धाराएँ ऐसी जान पड़ती थीं, मानो उसमें लगी हुई तीन पताकाएँ फहरा रही हों। उसे देखकर असुरों की सेना भयभीत हो गयी थी और देवसेना निर्भय। आपका यह चरणकमल साधुस्वभाव पुरुषों के लिये आपके धाम वैकुण्ठ लोक की प्राप्ति का और दुष्टों के लिये अधो-गति का कारण है। भगवन्! आपका वही पादपद्म हम भजन करने वालों के सारे पाप-ताप धो-बहा दे।

ब्रह्मा आदि जितने भी शरीरधारी हैं, वे सत्त्व, रज, तम-इन तीनों गुणों के परस्पर-विरोधी त्रिविध भावों की टक्कर से जीते-मरते रहते हैं। वे सुख-दुःख के थपेड़ों से बाहर नहीं हैं और ठीक वैसे ही आपके वश में हैं, जैसे नाते हुए बैल अपने स्वामी के वश में होते हैं। आप उनके लिये भी कालस्वरूप हैं। उनके जीवन का आदि, मध्य और अन्त आपके ही अधीन है। इतना ही नहीं, आप प्रकृति और पुरुष से भी परे स्वयं पुरुषोत्तम हैं। आपके चरणकमल हम-लोगों का कल्याण करें।

प्रभो! आप इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के परम कारण हैं; क्योंकि शास्त्रों ने ऐसा कहा है कि आप प्रकृति, पुरुष और महत्तत्त्व के भी नियन्त्रण करने वाले काल हैं। शीत, गीष्म और वर्षाकाल रूप तीन नाभियों वाले संवत्सर के रूप में सबको क्षय की ओर ले जाने वाले काल आप ही हैं। आपकी गति अबाध और गम्भीर है। आप स्वयं पुरुषोत्तम हैं। यह पुरुष आप से शक्ति प्राप्त करके अमोघवीर्य हो जाता है और फिर माया के साथ संयुक्त होकर विश्व के महत्तत्त्व रूप गर्भ का स्थापन करता है। इसके बाद वह महत्तत्त्व त्रिगुणमयी माया का अनुसरण करके पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार और मनरूप सात आवरणों (परतों) वाले इस सुवर्णवर्ण ब्रह्माण्ड की रचना करता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: षष्ठ अध्याय श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद)

इसलिये हृषीकेश! आप समस्त चराचर जगत् के अधीश्वर हैं। यही कारण है कि माया की गुण विषमता के कारण बनने वाले विभिन्न पदार्थों का उपभोग करते हुए भी आप उनमें लिप्त नहीं होते। यह केवल आपकी ही बात है। आपके अतिरिक्त दूसरे तो स्वयं उनका त्याग करके भी उन विषयों से डरते रहते हैं। सोलह हजार से अधिक रानियाँ आपके साथ रहती हैं। वे सब अपनी मन्द-मन्द मुस्कान और तिरछी चितवन से युक्त मनोहर भौंहों के इशारे से और सुरतालापों से प्रौढ़ सम्मोहक काम बाण चलाती हैं और काम कला की विविध रीतियों से आपका मन आकर्षित करना चाहती हैं; परन्तु फिर भी वे अपने परिपुष्ट कामबाणों से आपका मन तनिक भी न डिगा सकीं, वे असफल ही रहीं। आपने त्रिलोकी की पाप-राशि को धो बहाने के लिये दो प्रकार की पवित्र नदियाँ बहा रखी हैं-एक तो आपकी अमृतमयी लीला से भरी कथा नदी और दूसरी आपके पाद-प्रक्षालन के जल से भरी गंगाजी। अतः सत्संग सेवी विवेकीजन कानों के द्वारा आपकी कथा-नदी में और शरीर के द्वारा गंगाजी में गोता लगाकर दोनों ही तीर्थों का सेवन करते हैं और अपने पाप-ताप मिटा देते हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! समस्त देवताओं और भगवान शंकर के साथ ब्रह्मा जी ने इस प्रकार भगवान की स्तुति की। इसके बाद वे प्रणाम करके अपने धाम में जाने के लिये आकाश में स्थित होकर भगवान से इस प्रकार कहने लगे।

ब्रह्मा जी ने कहा ;- सर्वात्मन् प्रभो! पहले हम लोगों ने आपसे अवतार लेकर पृथ्वी का भार उतारने के लिये प्रार्थना के अनुसार ही यथोचित रूप से पूरा कर दिया। आपने सत्यपरायण साधु पुरुषों के कल्याणार्थ धर्म की स्थापना भी कर दी और दसों दिशाओं में ऐसी कीर्ति फैला दी, जिसे सुन-सुनाकर सब लोग अपने मन का मैल मिटा देते हैं। आपने यह सर्वोत्तम रूप धारण करके यदुवंश में अवतार लिया और जगत् के हित के लिये उदारता और पराक्रम से भरी अनेकों लीलाएँ कीं। प्रभो! कलियुग में जो साधुस्वभाव मनुष्य आपकी इन लीलाओं का श्रवण-कीर्तन करेंगे वे सुगमता से ही इस अज्ञानरूप अन्धकार से पार हो जायेंगे। पुरुषोत्तम सर्वशक्तिमान् प्रभो! आपको यदुवंश में अवतार ग्रहण किये एक सौ पचीस वर्ष बीत गये हैं। सर्वाधार! हम लोगों का ऐसा कोई काम बाकी नहीं है, जिसे पूर्ण करने के लिये आपको यहाँ रहने की आवश्यकता हो। ब्राह्मणों के शाप के कारण आपका यह कुल भी एक प्रकार से नष्ट हो ही चुका है। इसलिये वैकुण्ठनाथ! यदि आप उचित समझें तो अपने परमधाम में पधारिये और अपने सेवक हम लोकपालों का तथा हमारे लोकों का पालन-पोषण कीजिये।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- ब्रह्मा जी! आप जैसा कहते हैं, मैं पहले से ही वैसा निश्चय कर चुका हूँ। मैंने आप लोगों का सब काम पूरा करके पृथ्वी का भार उतार दिया। परन्तु अभी एक काम बाकी है; वह यह कि यदुवंशी बल-विक्रम, वीरता-शूरता और धन सम्पत्ति से उन्मत्त हो रहे हैं। ये सारी पृथ्वी को ग्रस लेने पर तुले हुए हैं। इन्हें मैंने ठीक वैसे ही रोक रखा है, जैसे समुद्र को उसके तट की भूमि।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: षष्ठ अध्याय श्लोक 30-43 का हिन्दी अनुवाद)

यदि मैं घमंडी और उच्छ्रंखल यदुवंशियों का यह विशाल वंश नष्ट किये बिना ही चला जाऊँगा तो ये सब मर्यादा का उल्लंघन करके सारे लोकों का संहार कर डालेंगे। निष्पाप ब्रह्मा जी! अब ब्राह्मणों के शाप से इस वंश का नाश प्रारम्भ हो चुका है। इसका अन्त हो जाने पर मैं आपके धाम में होकर जाऊँगा।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब अखिल लोकाधिपति भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा, तब ब्रह्मा जी ने उन्हें प्रणाम किया और देवताओं के साथ वे अपने धाम को चले गये। उनके जाते ही द्वारकापुरी में बड़े-बड़े अपशकुन, बड़े-बड़े उत्पात उठ खड़े हुए। उन्हें देखकर यदुवंश के बड़े-बूढ़े भगवान श्रीकृष्ण के पास आये। भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे यह बात कही।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- 'गुरुजनो! आजकल द्वारका में जिधर देखिये, उधर ही बड़े-बड़े अपशकुन और उत्पात हो रहे हैं। आप लोग जानते ही हैं कि ब्राह्मणों ने हमारे वंश को ऐसा शाप दे दिया है, जिसे टाल सकना बहुत ही कठिन है। मेरा ऐसा विचार है कि हम लोग अपने प्राणों की रक्षा चाहते हों तो हमें यहाँ नहीं रहना चाहिये। अब विलम्ब करने की आवश्यकता नहीं है। हम लोग आज परम पवित्र प्रभास क्षेत्र के लिए निकल पड़ें। प्रभास क्षेत्र की महिमा बहुत प्रसिद्ध है। जिस समय दक्ष प्रजापति के शाप से चन्द्रमा को राजयक्ष्मा रोग ने ग्रस लिया था, उस समय उन्होंने प्रभास क्षेत्र में जाकर स्नान किया और वे तत्क्षण उस पापजन्य रोग से छूट गये। साथ ही उन्हें कलाओं की अभिवृद्धि भी पाप्त हो गयी। हम लोग भी प्रभास क्षेत्र चलकर स्नान करेंगे, देवता एवं पितरों का तर्पण करेंगे और साथ ही अनेकों गुण वाले पकवान तैयार करके श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन करायेंगे। वहाँ हम लोग उन सत्पात्र ब्राह्मणों को पूरी श्रद्धा से बड़ी-बड़ी दान-दक्षिणा देंगे और इस प्रकार उनके द्वारा अपने बड़े-बड़े संकटों को वैसे ही पार कर जायेंगे, जैसे कोई जहाज के द्वारा समुद्र पार कर जाये।'

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- कुलनन्दन! जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार आज्ञा दी, तब यदुवंशियों ने एक मत से प्रभास जाने का निश्चय कर लिया और सब अपने-अपने रथ सजाने-जोतने लगे। परीक्षित! उद्धव जी भगवान श्रीकृष्ण के बड़े प्रेमी और सेवक थे। उन्होंने जब यदुवंशियों को यात्रा की तैयारी करते देखा, भगवान की आज्ञा सुनी और अत्यन्त घोर अपशकुन देखे, तब वे जगत् के एकमात्र अधिपति भगवान श्रीकृष्ण के पास एकान्त में गये, उनके चरणों पर अपना सिर रखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उनसे प्रार्थना करने लगे।

उद्धव जी ने कहा ;- 'योगेश्वर! आप देवाधिदेवों के भी अधीश्वर हैं। आपकी लीलाओं के श्रवण-कीर्तन से जीव पवित्र हो जाता है। आप सर्वशक्तिमान् परमेशवर हैं। आप चाहते तो ब्राह्मणों के शाप को मिटा सकते थे। परन्तु आपने वैसा किया नहीं। इससे मैं यह समझ गया कि अब आप यदुवंश का संहार करके, इसे समेटकर अवश्य ही इस लोक का परित्याग कर देंगे। परन्तु घुँघराली अलकों वाले श्यामसुन्दर! मैं आधे क्षण के लिये भी आपके चरणकमलों के त्याग की बात सोच भी नहीं सकता। मेरे जीवनसर्वस्व, मेरे स्वामी! आप मुझे भी अपने धाम में ले चलिये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: षष्ठ अध्याय श्लोक 44-50 का हिन्दी अनुवाद)

प्यारे कृष्ण! आपकी एक-एक लीला मनुष्यों के लिये परम मंगलमयी और कानों के लिये अमृतस्वरूप है। जिसे एक बार उस रस का चसका लग जाता है, उसके मन में फिर किसी दूसरी वस्तु के लिये लालसा ही नहीं रह जाती।

प्रभो! हम तो उठते-बैठते, सोते-जागते, घूमते-फिरते आपके साथ रहे हैं, हमने आपके साथ स्नान किया, खेल खेले, भोजन किया; कहाँ तक गिनावें, हमारी एक-एक चेष्टा आप के साथ होती रही। आप हमारे प्रियतम हैं; और तो क्या, आप हमारे आत्मा ही हैं। ऐसी स्थिति में हम आपके प्रेमी भक्त आपको कैसे छोड़ सकते हैं?

हमने आपकी धारण की हुई माला पहली, आपके लगाये हुए चन्दन लगाये, आपके उतारे हुए वस्त्र पहने और आपके धारण किये हुए गहनों से अपने-आप को सजाते रहे। हम आपकी जूठन खाने वाले सेवक हैं। इसलिये हम आपकी माया पर अवश्य ही विजय प्राप्त कर लेंगे। (अतः प्रभो! हमें आपकी माया का डर नहीं है, डर है तो केवल आपके वियोग का)। हम जानते हैं कि माया को पार कर लेना बहुत ही कठिन है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि दिगम्बर रहकर और आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन करके अध्यात्मविद्या के लिये अत्यन्त परिश्रम करते हैं। इस प्रकार की कठिन साधना से उन संन्यासियों के हृदय निर्मल हो पाते हैं और तब कहीं वे समस्त वृत्तियों की शान्तिरूप नैष्कर्म्य-अवस्था में स्थित होकर आपके ब्रह्म नामक धाम को प्राप्त होते हैं।

महायोगेश्वर! हम लोग तो कर्म-मार्ग में ही भ्रम-भटक रहे हैं। परन्तु इतना निश्चित है कि हम आपके भक्तजनों के साथ आपके गुणों और लीलाओं की चर्चा करेंगे तथा मनुष्य की-सी लीला करते हुए आपने जो कुछ किया या कहा है, उसका स्मरण-कीर्तन करते रहेंगे। साथ ही आपकी चाल-ढाल, मुसकान-चितवन और हास-परिहास की स्मृति में तल्लीन हो जायेंगे। केवल इसी से हम दुस्तर माया को पार कर लेंगे। (इसलिए हमें माया से पार जाने की नहीं, आपके विरह की चिन्ता है। आप हमें छोड़िये नहीं, साथ ले चलिये)।'

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब उद्धव जी ने देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार प्रार्थना की, तब उन्होंने अपने अनन्य प्रेमी सखा एवं सेवक उद्धव जी से कहा।


                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【सातवाँ अध्याय】७


"अवधूतोपाख्यान-पृथ्वी से लेकर कबूतर तक आठ गुरुओं की कथा"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तम अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- महाभाग्यवान् उद्धव! तुमने मुझसे जो कुछ कहा है, मैं वही करना चाहता हूँ। ब्रह्मा, शंकर और इन्द्रादि लोकपाल भी अब यही चाहते हैं कि मैं उनके लोकों में होकर अपने धाम को चला जाऊँ। पृथ्वी पर देवताओं का जितना काम करना था, उसे मैं पूरा कर चुका। इसी काम के लिये ब्रह्मा जी की प्रार्थना से मैं बलराम जी के साथ अवतीर्ण हुआ था। अब यह यदुवंश, जो ब्राह्मणों के शाप से भस्म हो चुका है, पारस्परिक फूट और युद्ध से नष्ट हो जायेगा। आज के सातवें दिन समुद्र इस पुरी द्वारका को डुबो देगा।

प्यारे उद्धव! जिस क्षण मैं मर्त्यलोक का परित्याग कर दूँगा, उसी क्षण इसके सारे मंगल नष्ट हो जायेंगे और थोड़े ही दिनों में पृथ्वी पर कलियुग का बोलबाला हो जायेगा। जब मैं इस पृथ्वी का त्याग कर दूँ, तब तुम इस पर मत रहना; क्योंकि साधु उद्धव! कलियुग में अधिकांश लोगों की रुचि अधर्म में ही होगी। अब तुम अपने आत्मीय स्वजन और बन्धु-बान्धवों का स्नेह-सम्बन्ध छोड़ दो और अनन्य प्रेम से मुझमें अपना मन लगाकर समदृष्टि से पृथ्वी में स्वछन्द विचरण करो। इस जगत् में जो कुछ मन से सोचा जाता है, वाणी से कहा जाता है, नेत्रों से देखा जाता है और श्रवण आदि इन्द्रियों से अनुभव किया जाता है, वह सब नाशवान् है। सपने की तरह मन का विलास है। इसलिए मायामात्र है, मिथ्या है-ऐसा समझ लो।

जिस पुरुष का मन अशान्त है, असंयत है, उसी को पागल की तरह अनेकों वस्तुएँ मालूम पड़ती हैं; वास्तव में यह चित्त का भ्रम ही है। नानात्व का भ्रम हो जाने पर ही ‘यह गुण है’ और ‘यह दोष’ इस प्रकार की कल्पना करनी पड़ती है। जिसकी बुद्धि में गुण और दोष का भेद बैठ गया है, दृढ़मूल हो गया है, उसी के लिये कर्म[1], अकर्म[2] और विकर्मरूप भेद का प्रतिपादन हुआ है। इसलिए उद्धव! तुम पहले अपनी समस्त इन्द्रियों को अपने वश में कर लो, उनकी बागडोर अपने हाथ में ले लो और केवल इन्द्रियों को ही नहीं, चित्त की समस्त वृत्तियों को भी रोक लो और फिर ऐसा अनुभव करो कि यह सारा आत्मा मुझ सर्वात्मा इन्द्रियातीत ब्रह्म से एक है, अभिन्न है।

जब वेदों के मुख्य तात्पर्य-निश्चयरूप ज्ञान और अनुभवरूप विज्ञान से भलीभाँति सम्पन्न होकर तुम अपने आत्मा के अनुभव में ही आनन्दमग्न रहोगे और सम्पूर्ण देवता आदि शरीरधारियों के आत्मा हो जाओगे। इसलिये किसी भी विघ्न से तुम पीड़ित नहीं हो सकोगे; क्योंकि उन विघ्नों और विघ्न करने वालों की आत्मा भी तुम्हीं होंगे। जो पुरुष गुण और दोष-बुद्धि से अतीत हो जाता है, वह बालक के समान निषिद्ध कर्म से निवृत्त होता है, परन्तु दोष-बुद्धि से नहीं। वह विहित कर्म का अनुष्ठान भी करता है, परन्तु गुणबुद्धि से नहीं। जिसने श्रुतियों के तात्पर्य का यथार्थ ज्ञान ही नहीं प्राप्त कर लिया, बल्कि उनका साक्षात्कार भी कर लिया है और इस प्रकार जो अटल निश्चय से सम्पन्न हो गया है, वह समस्त प्राणियों का हितैषी सुहृद होता है और उसकी वृत्तियाँ सर्वथा शान्त रहती हैं। वह समस्त प्रतीयमान विश्व को मेरा ही स्वरूप-आत्मस्वरूप देखता है; इसलिये उसे फिर कभी जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं पड़ना पड़ता।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तम अध्याय श्लोक 13-23 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार आदेश दिया, तब भगवान के परम प्रेमी उद्धव जी ने उन्हें प्रणाम करके तत्त्वज्ञान की प्राप्ति की इच्छा से यह प्रश्न किया।

उद्धव जी ने कहा ;- 'भगवन्! आप ही समस्त योगियों की गुप्त पूँजी योगों के कारण और योगेश्वर हैं। आप ही समस्त योगों के आधार, उनके कारण और योगस्वरूप भी हैं। आपने मेरे परम-कल्याण के लिये उस संन्यासरूप त्याग का उपदेश किया है। परन्तु अनन्त! जो लोग विषयों के चिन्तन और सेवन में घुल-मिल गये हैं, विषयात्मा हो गये हैं, उनके लिये विषय-भोगों और कामनाओं का त्याग अत्यन्त कठिन है। सर्वस्वरूप! उसमें भी जो लोग आपसे विमुख हैं, उनके लिये तो इस प्रकार का त्याग सर्वथा असम्भव ही है, ऐसा मेरा निश्चय है।

प्रभो! मैं भी ऐसा ही हूँ; मेरी मति इतनी मूढ़ हो गयी है कि ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है’ इस भाव से मैं आपकी माया के खेल, देह और देह के सम्बन्धी स्त्री, पुत्र, धन आदि में डूब रहा हूँ। अतः भगवन्! आपने जिस संन्यास का उपदेश किया है, उसका तत्त्व मुझ सेवक को इस प्रकार समझाइये कि मैं सुगमतापूर्वक उसका साधन कर सकूँ। मेरे प्रभो! आप भूत, भविष्य, वर्तमान इन तीनों कालों से अबाधित, एकरस सत्य हैं। आप दूसरे के द्वारा प्रकाशित नहीं, स्वयं प्रकाश आत्मस्वरूप हैं। प्रभो! मैं समझता हूँ कि मेरे लिये आत्मतत्त्व् का उपदेश करने वाला आपके अतिरिक्त देवताओं में भी कोई नहीं है। ब्रह्मा आदि जितने बड़े-बड़े देवता हैं, वे सब शरीराभिमानी होने के कारण आपकी माया से मोहित हो रहे हैं। उनकी बुद्धि माया के वश में हो गयी है। यही कारण है कि वे इन्द्रियों से अनुभव किये जाने वाले बाह्य विषयों को सत्य मानते हैं। इसलिये मुझे तो आप ही उपदेश कीजिये। भगवन्! इसी से चारों ओर से दुःखों की दावाग्नि से जलकर और विरक्त होकर मैं आपकी शरण में आया हूँ। आप निर्दोष देश-काल से अपरिच्छिन्न, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् और अविनाशी वैकुण्ठलोक के निवासी एवं नर के नित्य सखा नारायण हैं। (अतः आप ही मुझे उपदेश कीजिये)।'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- उद्धव! संसार में जो मनुष्य ‘यह जगत् क्या है? इसमें क्या हो रहा है?’ इत्यादि बातों का विचार करने में निपुण हैं, वे चित्त में भरी हुई अशुभ वासनाओं से अपने-आप को स्वयं अपनी विवेक-शक्ति से ही प्रायः बचा लेते हैं। समस्त प्राणियों का विशेषकर मनुष्य का आत्मा अपने हित और अहित का उपदेशक गुरु है। क्योंकि मनुष्य अपने प्रत्यक्ष अनुभव और अनुमान के द्वारा अपने हित-अहित का निर्णय करने में पूर्णतः समर्थ है। सांख्य-योगविशारद धीर पुरुष इस मनुष्य योनि में इन्द्रियशक्ति, मनःशक्ति आदि के आश्रयभूत मुझ आत्मतत्त्व् को पूर्णतः प्रकटरूप से साक्षात्कार कर लेते हैं। मैंने एक पैर वाले, दो पैर वाले, तीन पैर वाले, चार पैर वाले, चार से अधिक पैर वाले और बिना पैर के-इत्यादि अनेक प्रकार के शरीरों का निर्माण किया है। उनमें मुझे सबसे अधिक प्रिय मनुष्य का ही शरीर है। इस मनुष्य-शरीर में एकाग्रचित्त तीक्ष्णबुद्धि पुरुष बुद्धि आदि ग्रहण किये जाने वाले हेतुओं से जिनसे कि अनुमान भी होता है, अनुमान से अग्राह्य अर्थात् अहंकार आदि विषयों से भिन्न मुझ सर्वप्रवर्तक ईश्वर क साक्षात् अनुभव करते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तम अध्याय श्लोक 24-37 का हिन्दी अनुवाद)

इस विषय में महात्मा-लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास परम तेजस्वी अवधूत दत्तात्रेय और राजा यदु के संवाद के रूप में है।

एक बार धर्म के मर्मज्ञ राजा यदु ने देखा कि एक त्रिकालदर्शी तरुण अवधूत ब्राह्मण निर्भय विचर रहे हैं। तब उन्होंने उनसे यह प्रश्न किया। राजा यदु ने पूछा- 'ब्रह्मन्! आप कर्म तो करते नहीं, फिर आपको यह अत्यन्त निपुण बुद्धि कहाँ से प्राप्त हुई? जिसका आश्रय लेकर आप परम विद्वान होने पर भी बालक के समान संसार में विचरते रहते हैं। ऐसा देखा जाता है कि मनुष्य आयु, यश अथवा सौन्दर्य-सम्पत्ति आदि की अभिलाषा लेकर ही धर्म, अर्थ, काम अथवा तत्त्व-जिज्ञासा में प्रवृत्त होते हैं; अकारण कहीं किसी की प्रवृत्ति नहीं देखी जाती। मैं देखा रहा हूँ कि आप कर्म करने में समर्थ, विद्वान और निपुण हैं। आपका भाग्य और सौन्दर्य भी प्रशंसनीय है। आपकी वाणी से तो मानो अमृत टपक रहा है। फिर भी आप जड़, उन्मत्त अथवा पिशाच के समान रहते हैं; न तो कुछ करते हैं और न चाहते ही हैं। संसार के अधिकांश लोग काम और लोभ के दावानल से जल रहे हैं। परन्तु आपको देखकर ऐसा मालूम होता है कि आप मुक्त हैं, आप तक उसकी आँच भी नहीं पहुँच पाती; ठीक वैसे ही जैसे कोई हाथी वन में दावाग्नि लगने पर उससे छूटकर गंगाजल में खड़ा हो। ब्रह्मन्! आप पुत्र, स्त्री, धन आदि संसार के स्पर्श से भी रहित हैं। आप सदा-सर्वदा अपने केवल स्वरूप में ही स्थित रहते हैं। हम आपसे यह पूछना चाहते हैं कि आपको अपने आत्मा में ही ऐसे अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव कैसे होता है? आप कृपा करके अवश्य बतलाइये।'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- उद्धव! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्राह्मण-भक्ति थी। उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेय जी का अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्र भाव से सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये। अब दत्तात्रेय जी ने कहा।

ब्रह्मवेत्ता दत्तात्रेय जी ने कहा ;- 'राजन्! मैंने अपनी बुद्धि से बहुत-से गुरुओं का आश्रय लिया है, उनसे शिक्षा ग्रहण करके मैं इस जगत् में मुक्तभाव से स्वच्छन्द विचरता हूँ। तुम उन गुरुओं के नाम और उनसे ग्रहण की हुई शिक्षा सुनो। मेरे गुरुओं के नाम हैं- पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंग, भौरा या मधुमक्खी, हाथी, शहद निकालने वाला, हरिन, मछली, पिंगला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुँआरी कन्या, बाण बनाने वाला, सर्प, मकड़ी और भृंगी कीट।

राजन्! मैंने इन चौबीस गुरुओं का आश्रय लिया है और इन्हीं के आचरण से इस लोक में अपने लिये शिक्षा ग्रहण की है। वीरवर ययातिनन्दन! मैंने जिससे जिस प्रकार जो कुछ सीखा है, वह सब ज्यों-का-त्यों तुमसे कहता हूँ, सुनो। मैंने पृथ्वी से उसके धैर्य की, क्षमा की शिक्षा ली है। लोग पृथ्वी पर कितना आघात और क्या-क्या उत्पात नहीं करते; परन्तु वह न तो किसी से बदला लेती है और न रोती-चिल्लाती है। संसार के सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्ध के अनुसार चेष्टा कर रहे हैं, वे समय-समय पर भिन्न-भिन्न प्रकार से जान या अनजान में आक्रमण कर बैठते हैं। धीर पुरुष को चाहिये कि उनकी विवशता समझे, न तो अपना धीरज खोवे और न क्रोध करे। अपने मार्ग पर ज्यों-का-त्यों चलता रहे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तम अध्याय श्लोक 38-44 का हिन्दी अनुवाद)

पृथ्वी के ही विकार पर्वत और वृक्ष से मैंने यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे उनकी सारी चेष्टाएँ सदा-सर्वदा दूसरों के हित के लिये ही होती हैं, बल्कि यों कहना चाहिये कि उनका जन्म ही एकमात्र दूसरों का हित करने के लिये ही हुआ है, साधु पुरुष को चाहिये कि उनकी शिष्यता स्वीकार करके उनसे परोपकार की शिक्षा ग्रहण करे।

मैंने शरीर के भीतर रहने वाले वायु-प्राणवायु से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह आहार मात्र की इच्छा रखता है और उसकी प्राप्ति से ही सन्तुष्ट हो जाता है, वैसे ही साधक को भी चाहिये कि जितने से जीवन-निर्वाह हो जाये, उतना भोजन कर ले। इन्द्रियों को तृप्त करने के लिये बहुत-से विषय न चाहे। संक्षेप में उतने ही विषयों का उपयोग करना चाहिये, जिनसे बुद्धि विकृत न हो, मन चंचल न हो और वाणी व्यर्थ की बातों में न लग जाये। शरीर के बाहर रहने वाले वायु से मैंने यह सीखा है कि जैसे वायु को अनेक स्थानों में जाना पड़ता है, परन्तु वह कहीं भी आसक्त नहीं होता, किसी का भी गुण-दोष नहीं अपनाता, वैसे ही साधक पुरुष भी आवश्यकता होने पर विभिन्न प्रकार के धर्म और स्वभाव वाले विषयों में जाये, परन्तु अपने लक्ष्य पर स्थिर रहे। किसी के गुण या दोष की ओर झुक न जाये, किसी से आसक्ति या द्वेष न कर बैठे। गन्ध वायु का गुण नहीं, पृथ्वी का गुण है। परन्तु वायु को गन्ध का वहन करना पड़ता है। ऐसा करने पर भी वायु शुद्ध ही रहता है, गन्ध से उसका सम्पर्क नहीं होता। वैसे ही साधन का जब तक इस पार्थिव शरीर से सम्बन्ध है, तब तक उसे इसकी व्याधि-पीड़ा और भूख-प्यास आदि का भी वहन करना पड़ता है। परन्तु अपने को शरीर नहीं, आत्मा के रूप में देखने वाला साधक शरीर और उसके गुणों का आश्रय होने पर भी उनसे सर्वथा निर्लिप्त रहता है।

राजन्! जितने भी घट-मठ आदि पदार्थ हैं, वे चाहे चल हों या अचल, उनके कारण भिन्न-भिन्न प्रतीत होने पर भी वास्तव में आकाश एक और अपरिच्छिन्न (अखण्ड) ही है। वैसे ही चर-अचर जितने भी सूक्ष्म-स्थूल शरीर हैं, उनमें आत्मरूप से सर्वत्र स्थित होने के कारण ब्रह्म सभी में हैं। साधक को चाहिये कि सूत के मणियों में व्याप्त सूत के समान आत्मा को अखण्ड और असंगरूप से देखे। वह इतना विस्तृत है कि उसकी तुलना कुछ-कुछ आकाश से ही की जा सकती है। इसलिए साधक को आत्मा की आकाशरूपता की भावना करनी चाहिये। आग लगती है, पानी बरसता है, अन्न आदि पैदा होते और नष्ट होते हैं, वायु की प्रेरणा से बादल आदि आते और चले जाते हैं; यह सब होने पर भी आकाश अछूता रहता है। आकाश की दृष्टि से यह सब कुछ है ही नहीं। इसी प्रकार भूत, वर्तमान और भविष्य के चक्कर में जाने किन-किन नाम रूपों की सृष्टि और प्रलय होते हैं; परन्तु आत्मा के साथ उनका कोई संस्पर्श नहीं है। जिस प्रकार जल स्वभाव से ही स्वच्छ, चिकना, मधुर और पवित्र करने वाला होता है तथा गंगा आदि तीर्थों के दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारण से भी लोग पवित्र हो जाते हैं-वैसे ही साधक को भी स्वभाव से शुद्ध, स्निग्ध, मधुरभाषी और लोक पावन होना चाहीये। जल से शिक्षा ग्रहण करने वाला अपने दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारण से लोगों को पवित्र कर देता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तम अध्याय श्लोक 45-52 का हिन्दी अनुवाद)

राजन्! मैंने अग्नि से यह शिक्षा ली है कि जैसे वह तेजस्वी और ज्योतिर्मय होती है, जैसे उसे कोई अपने तेज से दबा नहीं सकता, जैसे उसके पास संग्रह-परिग्रह के लिये कोई पात्र नहीं-सब कुछ अपने पेट में रख लेती है, और जैसे सब कुछ खा-पी लेने पर भी विभिन्न वस्तुओं के दोषों से वह लिप्त नहीं होती वैसे ही साधक भी परम तेजस्वी, तपस्या से देदीप्यमान, इन्द्रियों से अपराभूत, भोजन मात्र का संग्रही और यथायोग्य सभी विषयों का उपभोग करता हुआ भी अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखे, किसी का दोष अपने में न आने दे।

जैसे अग्नि कहीं (लकड़ी आदि में) अप्रकट रहती है और कहीं प्रकट, वैसे ही साधक भी कहीं गुप्त रहे और कहीं प्रकट हो जाये। वह कहीं-कहीं ऐसे रूप में भी प्रकट हो जाता है, जिससे कल्याणकामी पुरुष उसकी उपासना कर सकें। वह अग्नि के समान ही भिक्षारूप हवन करने वालों के अतीत और भावी अशुभ को भस्म कर देता है तथा सर्वत्र अन्न ग्रहण करता है। साधक पुरुष को इसका विचार करना चाहिये कि जैसे अग्नि लम्बी-चौड़ी, टेढ़ी-सीधी लकड़ियों में रहकर उनके समान ही सीधी-टेढ़ी या लम्बी-चौड़ी दिखाई पड़ती है-वास्तव में वह वैसी है नहीं; वैसे ही सर्वव्यापक आत्मा भी अपनी माया से रचे हुए कार्य-कारणरूप जगत् में व्याप्त होने के कारण उन-उन वस्तुओं के नाम-रूप से कोई सम्बन्ध न होने पर भी उनके रूप में प्रतीत होने लगता है।

मैंने चन्द्रमा से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यद्यपि जिसकी गति नहीं जानी जा सकती, उस काल के प्रभाव से चन्द्रमा की कलाएँ घटती-बढ़ती रहती हैं, तथापि चन्द्रमा ही है, वह न घटता है और न बढ़ता ही है; वैसे ही जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त जितनी भी अवस्थाएँ हैं, सब शरीर की हैं, आत्मा से उनका कोई भी सम्बन्ध नहीं है। जैसे आग की लपट अथवा दीपक की लौ क्षण-क्षण में उत्पन्न और नष्ट होती रहती है-उनका यह क्रम निरन्तर चलता रहता है, परन्तु दीख नहीं पड़ता-वैसे ही जलप्रवाह के समान वेगवान् काल के द्वारा क्षण-क्षण में प्राणियों के शरीर की उत्पत्ति और विनाश होता रहता है, परन्तु अज्ञानवश वह दिखायी नहीं पड़ता।

राजन्! मैंने सूर्य से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वे अपनी किरणों से पृथ्वी का जल खींचते और समय पर उसे बरसा देते हैं, वैसे ही योगी पुरुष इन्द्रियों के द्वारा समय पर विषयों का ग्रहण करता है और समय आने पर उनका त्याग-उनका दान भी कर देता है। किसी भी समय उसे इन्द्रिय के किसी भी विषय में आसक्ति नहीं होती। स्थूलबुद्धि पुरुषों को जल के विभिन्न पात्रों में प्रतिबिम्बित हुआ सूर्य उन्हीं में प्रविष्ट-सा होकर भिन्न-भिन्न दिखायी पड़ता है। परन्तु इससे स्वरूपतः सूर्य अनेक नहीं हो जाता; वैसे ही चल-अचल उपाधियों के भेद से ऐसा जान पड़ता है कि प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा अलग-अलग है। परन्तु जिनको ऐसा मालूम होता है, उनकी बुद्धि मोटी है। असल बात तो यह है कि आत्मा सूर्य के समान एक ही है। स्वरूपतः उनमें कोई भेद नहीं है।

राजन्! कहीं किसी के साथ अत्यन्त स्नेह अथवा आसक्ति न करनी चाहिये, अन्यथा उसकी बुद्धि अपना स्वातन्त्र्य खोकर दीन हो जायेगी और उसे कबूतर की तरह अत्यन्त क्लेश उठाना पड़ेगा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तम अध्याय श्लोक 53-67 का हिन्दी अनुवाद)

राजन्! किसी जंगल में एक कबूतर रहता था, उसने एक पेड़ पर अपना घोंसला बना रखा था। अपनी मादा कबूतरी के साथ वह कई वर्षों तक उसी घोंसले में रहा। उस कबूतर के जोड़े के हृदय में निरन्तर एक-दूसरे के प्रति स्नेह की वृद्धि होती जाती थी। वे गृहस्थ धर्म में इतने आसक्त हो गये थे कि उन्होंने एक-दूसरे की दृष्टि-से-दृष्टि, अंग-से-अंग और बुद्धि-से-बुद्धि को बाँध रखा था। उनका एक-दूसरे पर इतना विश्वास हो गया था कि वे निःशंक होकर वहाँ की वृक्षावली में एक साथ सोते, बैठते, घूमते-फिरते, ठहरते, बातचीत करते, खेलते और खाते-पीते थे।

राजन् कबूतरी पर कबूतर का इतना प्रेम था कि वह जो कुछ चाहती, कबूतर बड़े-से-बड़ा कष्ट उठाकर उसकी कामना पूर्ण करता; वह कबूतरी भी अपने कामुक पति की कामनाएँ पूर्ण करती। समय आने पर कबूतरी को पहला गर्भ रहा। उसने अपने पति के पास ही घोंसले में अंडे दिये। भगवान की अचिन्त्य शक्ति से समय आने पर वे अंडे फूट गये और उनमें से हाथ-पैर वाले बच्चे निकल आये। उनका एक-एक अंग और रोएँ अत्यन्त कोमल थे। अब उन कबूतर-कबूतरी की आँखें अपने बच्चों पर लग गयीं, वे बड़े प्रेम और आनन्द से अपने बच्चों का लालन-पालन, लाड़-प्यार करते और उनकी मीठी बोली, उनकी गुटर-गूँ सुन-सुनकर आनन्द मग्न हो जाते। बच्चे तो सदा-सर्वदा प्रसन्न रहते ही हैं; वे जब अपने सुकुमार पंखों से माँ-बाप का सपर्श करते, कुजते, भोली-भाली चेष्टाएँ करते और फुदक-फुदककर अपने माँ-बाप के पास दौड़ आते, तब कबूतर-कबूतरी आनन्दमग्न हो जाते। राजन्! सच पूछो तो वे कबूतर-कबूतरी भगवान की माया से मोहित हो रहे थे। उनका हृदय एक-दूसरे के स्नेह बन्धन से बँध रहा था। वे अपने नन्हें-नन्हें बच्चों के पालन-पोषण में इतने व्यग्र रहते कि उन्हें दीन-दुनिया, लोक-परलोक की याद ही न आती।

एक दिन दोनों नर-मादा अपने बच्चों के लिये चारा लाने जंगल में गये हुए थे। क्योंकि अब उन कुटुम्ब बहुत बढ़ गया था। वे चारे के लिये चिरकाल तक जंगल में चारों ओर विचरते रहे। इधर एक बहेलिया घूमता-घूमता संयोगवश उनके घोंसले की ओर आ निकला। उसने देखा कि घोंसले के आस-पास कबूतर के बच्चे फुदक रहे हैं; उसने जाल फैलाकर उन्हें पकड़ लिया। कबूतर-कबूतरी बच्चों को खिलाने-पिलाने के लिये हर समय उत्सुक रहा करते थे। अब वे चारा लेकर अपने घोंसले के पास आये। कबूतरी ने देखा कि उसके नन्हें-नन्हे बच्चे उसके हृदय के टुकड़े जाल में फँसे हुए हैं और दुःख से चें-चें कर रहे हैं। उन्हें ऐसी स्थिति में देखकर कबूतरी के दुःख की सीमा न रही। वह रोती-चिल्लाती उनके पास दौड़ गयी।

भगवान की माया से उसका चित्त अत्यन्त दीन-दुःखी हो रहा था। वह उमड़ते हुए स्नेह की रस्सी से जकड़ी हुई थी; अपने बच्चों को जाल में फँसा देखकर उसे अपने शरीर की सुध-बुध न रही और वह स्वयं ही जाकर जाल में फँस गयी। जब कबूतर ने देखा कि मेरे प्राणों से भी प्यारे बच्चे जाल में फँस गये और मेरी प्राणप्रिया पत्नी भी उसी दशा में पहुँच गयी, तब वह अत्यन्त दुःखित होकर विलाप करने लगा। सचमुच उस समय उसकी दशा अत्यन्त दयनीय थी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: सप्तम अध्याय श्लोक 68-74 का हिन्दी अनुवाद)

‘मैं अभागा हूँ, दुर्मति हूँ। हाय, हाय! मेरा तो सत्यानाश हो गया। देखो, देखो, न मुझे अभी तृप्ति हुई और न मेरी आशाएँ ही पूरी हुईं। तब तक मेरा धर्म, अर्थ और काम का मूल यह गृहस्थाश्रम ही नष्ट हो गया। हाय! मेरी प्राणप्यारी मुझे ही अपना इष्टदेव समझती थी; मेरी एक-एक बात मानती थी, मेरे इशारे पर नाचती थी, सब तरह से मेरे योग्य थी। आज वह मुझे सूने घर में छोड़कर हमारे सीधे-सादे निश्छल बच्चों के साथ स्वर्ग सिधार रही है। मेरे बच्चे मर गये। मेरी पत्नी जाती रही है। मेरा अब संसार में क्या काम है? मुझ दीन का यह विधुर जीवन-बिना गृहणी का जीवन जलन का-व्यथा का जीवन है। अब मैं इस सूने घर में किसके लिये जिऊँ?'

राजन्! कबूतर के बच्चे जाल में फँसकर तड़फड़ा रहे थे, स्पष्ट दीख रहा था कि वे मौत के पंजे में हैं, परन्तु वह मूर्ख कबूतर यह सब देखते हुए भी इतना दीन हो रहा था कि स्वयं जान-बूझकर जाल में कूद पड़ा। राजन्! वह बहेलिया बड़ा क्रूर था। गृहस्थाश्रमी कबूतर-कबूतरी और उनके बच्चों के मिल जाने से उसे बड़ी प्रसन्नता हुई; उसने समझा मेरा काम बन गया और वह उन्हें लेकर चलता बना।

जो कुटुम्बी है, विषयों और लोगों के संग-साथ में ही जिसे सुख मिलता है एवं अपने कुटुम्ब के भरण-पोषण में ही जो सारी सुध-बुध खो बैठा है, उसे कभी शान्ति नहीं मिल सकती। वह उसी कबूतर के समान अपने कुटुम्ब के साथ कष्ट पाता है। यह मनुष्य-शरीर मुक्ति का खुला हुआ द्वार है। इसे पाकर भी जो कबूतर की तरह अपनी घर-गृहस्थी में ही फँसा हुआ है, वह बहुत ऊँचे तक चढ़कर गिर रहा है। शास्त्र की भाषा में वह ‘आरूढ़च्युत’ है।


                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【आठवाँ अध्याय】८


"अवधूतोपाख्यान-अजगर से पिंगला तक नौ गुरुओं की कथा"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: अष्टम अध्याय श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

अवधूत दत्तात्रेय जी कहते हैं ;- राजन्! प्राणियों को जैसे बिना इच्छा के, बिना किसी प्रयत्न के, रोकने की चेष्टा करने पर भी पूर्वकर्मानुसार दुःख प्राप्त होते हैं, वैसे ही स्वर्ग में या नरक में-कहीं भी रहें, उन्हें इन्द्रियसम्बन्धी सुख भी प्राप्त होते ही हैं। इसलिए सुख और दुःख का रहस्य जानने वाले बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि इनके लिये इच्छा अथवा किसी प्रकार का प्रयत्न न करे। बिना माँगे, बिना इच्छा किये स्वयं ही अनायास जो कुछ मिल जाये-वह चाहे रूखा-सूखा हो, चाहे बहुत मधुर और स्वादिष्ट, अधिक या थोड़ा-बुद्धिमान पुरुष अजगर के समान उसे ही खाकर जीवन-निर्वाह कर ले और उदासीन रहे। यदि भोजन न मिले तो उसे भी प्रारब्ध-भोग समझकर किसी प्रकार की चेष्टा न करे, बहुत दिनों तक भूखा ही पड़ा रहे। उसे चाहिये कि अजगर के समान केवल प्रारब्ध के अनुसार प्राप्त हुए भोजन में ही सन्तुष्ट रहे। उनके शरीर के मनोबल, इन्द्रियबल और देहबल तीनों हों, तब भी वह निश्चेष्ट ही रहे। निद्रारहित होने पर भी सोया हुआ-सा रहे और कर्मेन्द्रियों के होने पर भी उनसे कोई चेष्टा न करे।

राजन्! मैंने अजगर से यही शिक्षा ग्रहण की है। समुद्र से मैंने यह सीखा है कि साधक को सर्वदा प्रसन्न और गम्भीर रहना चाहिये, उसका भाव अथाह, अपार और असीम होना चाहिये तथा किसी भी निमित्त से उसे क्षोभ न होना चाहिये। उसे ठीक वैसे ही रहना चाहिये, जैसे ज्वार-भाटे और तरंगों से रहित शान्त समुद्र देखो, समुद्र वर्षा ऋतु में नदियों की बाढ़ के कारण बढ़ता नहीं और न ग्रीष्म-ऋतु में घटता ही है; वैसे ही भगवत्परायण साधक को भी सांसारिक पदर्थों की प्राप्ति से प्रफुल्लित न होना चाहिये और न उनके घटने से उदास ही होना चाहिये।

राजन्! मैंने पतिंगे से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह रूप पर मोहित होकर आग में कूद पड़ता है और जल मरता है, वैसे ही अपनी इन्द्रियों को वश में न रखने वाला पुरुष जब स्त्री को देखता है तो उसके हाव-भाव पर लट्टू हो जाता है और घोर अन्धकार में, नरक में गिरकर अपना सत्यानाश कर लेता है। सचमुच स्त्री देवताओं की वह माया है, जिससे जीव भगवान या मोक्ष की प्राप्ति से वंचित रह जाता है। जो मूढ़ कामिनी-कंचन, गहने-कपड़े आदि नाशवान् मायिक पदार्थों में फँसा हुआ है और जिसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्ति उनके उपभोग के लिये ही लालायित है, वह अपनी विवेक बुद्धि खोकर पतिंगे के समान नष्ट हो जाता है।

राजन्! संन्यासी को चाहिये कि गृहस्थों को किसी प्रकार का कष्ट न देकर भौंरे की तरह अपना जीवन-निर्वाह करे। वह अपने शरीर के लिये उपयोगी रोटी के कुछ टुकड़े कई घरों से माँग ले। जिस प्रकार भौरा विभिन्न पुष्पों से-चाहे वे छोटे हों या बड़े-उनका सार संग्रह करता है, वैसे ही बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि छोटे-बड़े सभी शास्त्रों से उनका सार-उनका रस निचोड़ ले। राजन्! मैंने मधुमक्खी से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासी को सायंकाल अथवा दूसरे दिन के लिये भिक्षा का संग्रह न करना चाहिये। उसके पास भिक्षा लेने को कोई पात्र हो तो केवल हाथ और रखने के लिये कोई बर्तन हो तो पेट। वह कहीं संग्रह न कर बैठे, नहीं तो मधुमक्खियों के समान उसका जीवन ही दूभर हो जायेगा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: अष्टम अध्याय श्लोक 12-23 का हिन्दी अनुवाद)

यह बात खूब समझ लेनी चाहिये कि संन्यासी सबेरे-शाम के लिये किसी प्रकार का संग्रह न करे; यदि संग्रह करेगा तो मधुमक्खियों के समान अपने संग्रह के साथ जीवन भी गँवा बैठेगा।

राजन्! मैंने हाथी से यह सीखा कि संन्यासी को कभी पैर से भी काठ की बनी हुई स्त्री का स्पर्श न करना चाहिये। यदि वह ऐसा करेगा तो जैसे हथिनी के अंग-संग से हाथी बँध जाता है, वैसे ही वह बँध जायेगा। विवेकी पुरुष किसी भी स्त्री को कभी भी भोग्यरूप से स्वीकार न करे; क्योंकि यह मूर्तिमयी मृत्यु है। यदि वह स्वीकार करेगा तो हाथियों से हाथी की तरह अधिक बलवान् अन्य पुरुषों के द्वारा मारा जायेगा।

मैंने मधु निकालने वाले पुरुष से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संसार के लोभी पुरुष बड़ी कठिनाई से धन संचय तो करते रहते हैं, किन्तु वह संचित धन न किसी को दान करते हैं और न स्वयं उसका उपभोग ही करते हैं। बस, जैसे मधु निकालने वाला मधुमक्खियों द्वारा संचित रस को निकाल ले जाता है, वैसे ही उनके संचित धन को भी उसकी टोह रखने वाला कोई दूसरा पुरुष ही भोगता है। तुम देखते हो न कि मधुहारी मधुमक्खियों का जोड़ा हुआ मधु उनके खाने से पहले ही साफ कर जाता है; वैसे ही गृहस्थों के बहुत कठिनाई से संचित किये पदार्थों को, जिनसे वे सुख भोग की अभिलाषा रखते हैं, उनसे भी पहले संन्यासी और ब्रह्मचारी भोगते हैं। क्योंकि गृहस्थ तो पहले अतिथि-अभ्यागतों को भोजन कराकर ही स्वयं भोजन करेगा।

मैंने हरिन से यह सीखा है कि वनवासी संन्यासी को कभी विषय-सम्बन्धी गीत नहीं सुनने चाहिये। वह इस बात की शिक्षा उस हरिन से ग्रहण ग्रहण करे, जो व्याध के गीत से मोहित होकर बँध जाता है। तुम्हें इस बात का पता है कि हरिनी के गर्भ से पैदा हुए ऋष्यश्रृंग मुनि स्त्रियों का विषय-सम्बन्धी गाना-बजाना, नाचना आदि देख-सुनकर उनके वश में हो गये थे और उनके हाथ की कठपुतली बन गये थे।

अब मैं तुम्हें मछली की सीख सुनाता हूँ। जैसे मछली काँटे में लगे हुए मांस के टुकड़े के लोभ से अपने प्राण गँवा देती है, वैसे ही स्वाद का लोभी दुर्बुद्धि मनुष्य भी मन को मथकर व्याकुल कर देने वाली अपनी जिव्हा के वश में हो जाता है और मारा जाता है। विवेकी पुरुष भोजन बंद करके दूसरी इन्द्रियों पर तो बहुत शीघ्र विजय प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु इससे उनकी रसना-इन्द्रिय वश में नहीं होती। वह तो भोजन बंद कर देने से और भी प्रबल हो जाती है। मनुष्य और सब इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेने पर भी तब तक जितेन्द्रिय नहीं हो सकता, जब तक रसनेन्द्रिय को अपने वश में नहीं कर लेता। और यदि रसनेन्द्रिय को वश में कर लिया, तब तो मानो सभी इन्द्रियाँ वश में हो गयीं।

नृपनन्दन! प्राचीन काल की बात है, विदेहनगरी मिथिला में एक वेश्या रहती थी। उसका नाम था पिंगला। मैंने उससे जो कुछ शिक्षा ग्रहण की, वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ; सावधान होकर सुनो। वह स्वेच्छाचारिणी तो थी ही, रूपवती भी थी। एक दिन रात्रि के समय किसी पुरुष को अपने रमण स्थान में लाने के लिये खूब बन-ठनकर-उत्तम वस्त्राभूषणों से सज कर बहुत देर तक अपने घर के बाहरी दरवाजे पर खड़ी रही।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: अष्टम अध्याय श्लोक 24-33 का हिन्दी अनुवाद)

नररत्न! उसे पुरुष की नहीं, धन की कामना थी और उसके मन में यह कामना इतनी दृढ़मूल हो गयी थी कि वह किसी भी पुरुष को उधर से आते-जाते देखकर यही सोचती कि यह कोई धनी है और मुझे धन देकर उपभोग करने के लिये ही आ रहा है।

जब आने-जाने वाले आगे बढ़ जाते, तब फिर वह संकेतजीविनी वेश्या यही सोचती कि अवश्य ही अब की बार कोई ऐसा धनी मेरे पास आवेगा, जो मुझे बहुत-सा धन देगा। उसके चित्त की यह दुराशा बढ़ती ही जाती थी। वह दरवाजे पर बहुत देर तक टँगी रही। उसकी नींद भी जाती रही। वह कभी बाहर आती तो कभी भीतर जाती। इस प्रकार आधी रात हो गयी।

राजन्! सचमुच आशा और सो भी धन की-बहुत बुरी है। धनी की बाट जोहते-जोहते उसका मुँह सूख गया, चित्त व्याकुल हो गया। अब उसे इस वृत्ति से बड़ा वैराग्य हुआ। उसमें दुःख-बुद्धि हो गयी। इसमें सन्देह नहीं कि इस वैराग्य का कारण चिन्ता ही थी। परन्तु ऐसा वैराग्य भी है तो सुख का ही हेतु। जब पिंगला के चित्त में इस प्रकार वैराग्य की भावना जाग्रत् हुई, तब उसने एक गीत गाया। वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ। राजन्! मनुष्य आशा की फाँसी पर लटक रहा है। इसको तलवार की तरह काटने वाली यदि कोई वस्तु है तो वह केवल वैराग्य है। प्रिय राजन्! जिसे वैराग्य नहीं हुआ है, जो इन बखेड़ों से ऊबा नहीं है, वह शरीर और इसके बन्धन से उसी प्रकार मुक्त नहीं होना चाहता, जैसे अज्ञानी पुरुष ममता छोड़ने की इच्छा भी नहीं करता।

पिंगला ने यह गीत गाया था- 'हाय! हाय! मैं इन्द्रियों के अधीन हो गयी। भला! मेरे मोह का विस्तार तो देखो, मैं इन दुष्ट पुरुषों से, जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है, विषयसुख की लालसा करती हूँ। कितने दुःख की बात है। मैं सचमुच मूर्ख हूँ। देखो तो सही, मेरे निकट-से-निकट हृदय में ही मेरे सच्चे स्वामी भगवान विराजमान हैं। वे वास्तविक प्रेम, सुख और परमार्थ का सच्चा धन भी देने वाले हैं। जगत् के पुरुष अनित्य हैं और वे नित्य हैं। हाय! हाय! मैंने उनको तो छोड़ दिया और उन तुच्छ मनुष्यों का सेवन किया जो मेरी एक भी कामना पूरी नहीं कर सकते; उलटे दुःख-भय, आधि-व्याधि, शोक और मोह ही देते हैं। यह मेरी मुर्खता की हद है कि मैं उनका सेवन करती हूँ। बड़े खेद की बात है, मैंने अत्यन्त निन्दनीय आजीविका वेश्यावृति का आश्रय लिया और व्यर्थ में अपने शरीर और मन को क्लेश दिया, पीड़ा पहुँचायी। मेरा यह शरीर बिक गया है। लम्पट, लोभी और निन्दनीय मनुष्यों ने इसे खरीद लिया है और मैं इतनी मूर्ख हूँ कि इसी शरीर से धन और रति-सुख चाहती हूँ। मुझे धिक्कार है। यह शरीर एक घर है। इसमें हड्डियों के टेढ़े-तिरछे बाँस और खंभे लगे हुए हैं; चाम, रोएँ और नाखूनों से यह छाया गया है। इसमें नौ दरवाजे हैं, जिनसे मल निकलते ही रहते हैं। इसमें संचित सम्पत्ति के नाम पर केवल मल और मूत्र है। मेरे अतिरिक्त ऐसी कौन स्त्री है, जो इस स्थूल शरीर को अपना प्रिय समझकर सेवन करेगी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: अष्टम अध्याय श्लोक 34-40 का हिन्दी अनुवाद)

यों तो यह विदेहों की-जीवन्मुक्तों की नगरी है, परन्तु इसमें मैं ही सबसे मूर्ख और दुष्ट हूँ; क्योंकि अकेली मैं ही तो आत्मदानी, अविनाशी एवं परमप्रियतम परमात्मा को छोड़कर दूसरे पुरुष की अभिलाषा करती हूँ। मेरे हृदय में विराजमान प्रभु, समस्त प्राणियों के हितैषी, सुहृद्, प्रियतम, स्वामी और आत्मा हैं। अब मैं अपने-आपको देकर इन्हें खरीद लूँगी और इनके साथ वैसे ही विहार करुँगी, जैसे लक्ष्मी जी करती हैं।

मेरे मूर्ख चित्त! तू बतला तो सही, जगत् के विषय भोगों ने और उनको देने वाले पुरुषों ने तुझे कितना सुख दिया है। अरे! वे तो स्वयं ही पैदा होते और मरते रहते हैं। मैं केवल अपनी ही बात नहीं कहती, केवल मनुष्यों की भी नहीं; क्या देवताओं ने भी भोगों के द्वारा अपनी पत्नियों को सन्तुष्ट किया है? वे बेचारे तो स्वयं काल के गाल में पड़े-पड़े कराह रहे हैं। अवश्य ही मेरे किसी शुभकर्म से विष्णु भगवान मुझ पर प्रसन्न हैं, तभी तो दुराशा से मुझे इस प्रकार वैराग्य हुआ है। अवश्य ही मेरा यह वैराग्य सुख देने वाला होगा। यदि मैं मन्दभागिनी होती हो मुझे ऐसे दुःख ही न उठाने पड़ते, जिनसे वैराग्य होता है।

मनुष्य वैराग्य के द्वारा ही घर आदि के सब बन्धनों को काटकर शान्ति-लाभ करता है। अब मैं भगवान का यह उपकार आदरपूर्वक सिर झुककर स्वीकार करती हूँ और विषय भोगों की दुराशा छोड़कर उन्हीं जगदीश्वर की शरण ग्रहण करती हूँ। अब मुझे प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जायेगा, उसी से निर्वाह कर लूँगी और बड़े सन्तोष तथा श्रद्धा के साथ रहूँगी। मैं अब किसी दूसरे पुरुष की ओर न ताककर अपने हृदयेश्वर, आत्मस्वरूप प्रभु के साथ ही विहार करूँगी।


                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【नवाँ अध्याय】९


"अवधूतोपाख्यान-कूरर से लेकर भृंगी तक सात गुरुओं की कथा"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: नवम अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

अवधूत दत्तात्रेय जी ने कहा ;- राजन्! मनुष्यों को जो वस्तुएँ अत्यन्त प्रिय लगती हैं, उन्हें इकठ्ठा करना ही उनके दुःख का कारण है। जो बुद्धिमान पुरुष यह बात समझकर अकिंचन भाव से रहता है-शरीर की तो बात ही अलग, मन से भी किसी वस्तु का संग्रह नहीं करता-उसे अनन्त सुखस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति होती है।

एक कुरर पक्षी अपनी चोंच में मांस का टुकड़ा लिये हुए था। उस समय दूसरे बलवान् पक्षी, जिनके पास मांस नहीं था, उससे छीनने के लिये उसे घेरकर चोंचें मारने लगे। जब कुरर पक्षी ने अपनी चोंच से मांस का टुकड़ा फेंक दिया, तभी उसे सुख मिला। मुझे मान या अपमान का कोई ध्यान नहीं है और घर एवं परिवार वालों को चिन्ता होती है, वह मुझे नहीं है। मैं अपने आत्मा में ही रमता हूँ और अपने साथ ही क्रीड़ा करता हूँ। यह शिक्षा मैंने बालक से ली है। अतः उसी के समान मैं भी मौज से रहता हूँ। इस जगत् में दो ही प्रकार के व्यक्ति निश्चिन्त और परमानन्द में मग्न रहते हैं-एक तो भोला-भाला निश्चेष्ट नन्हा-सा बालक और दूसरा वह पुरुष जो गुणातीत हो गया हो।

एक बार किसी कुमारी कन्या के घर उसे वरण करने के लिये कई लोग आये हुए थे। उस दिन उसके घर के लोग कहीं बाहर गये हुए थे। इसलिए उसने स्वयं ही उनका आतिथ्य सत्कार किया। राजन्! उनको भोजन कराने के लिये वह घर के भीतर एकान्त में धान कूटने लगी। उस समय कलाई में पड़ी शंख की चूड़ियाँ जोर-जोर बज रही थीं। इस शब्द को निन्दित समझकर कुमारी को बड़ी लज्जा मालूम हुई,[1] और उसने एक-एक करके सब चूड़ियाँ तोड़ डाली और दोनों हाथों में केवल दो-दो चूड़ियाँ रहने दीं। अब वह फिर धान कूटने लगी। परन्तु वे दो-दो चूड़ियाँ भी बजने लगीं, तब उसने एक-एक चूड़ी और तोड़ दी। जब दोनों कलाईयों में केवल एक-एक चूड़ी रह गयी, तब किसी प्रकार की आवाज नहीं हुई।

रिपुदमन! उस समय लोगों का आचार-विचार निरखने-परखने के लिये इधर-उधर घूमता-घामता मैं भी वहाँ पहुँच गया था। मैंने उससे यह शिक्षा ग्रहण की कि जब बहुत लोग एक साथ रहते हैं, तब कलह होता है और दो आदमी साथ रहते हैं, तब भी बातचीत होती ही है; इसलिये कुमारकन्या की चूड़ी के समान अकेले ही विचरना चाहिये।

राजन्! मैंने बाण बनाने वाले से यह सीखा है कि आसन और श्वास को जीतकर वैराग्य और अभ्यास के द्वारा अपने मन को वश कर ले और फिर बड़ी सावधानी के साथ उसे एक लक्ष्य में लगा दे। जब परमानन्दस्वरूप परमात्मा में मन स्थिर हो जाता है, तब वह धीरे-धीरे कर्मवासनाओं की धूल को धो बहाता है। सत्त्वगुण की वृद्धि से रजोगुणी और तमोगुणी वृत्तियों का त्याग करके मन वैसे ही शान्त हो जाता है, जैसे ईंधन के बिना अग्नि, इस प्रकार जिसका चित्त अपने आत्मा में ही स्थिर-निरुद्ध हो जाता है, उसे बाहर-भीतर कहीं किसी पदार्थ का भान नहीं होता। मैंने देखा था कि एक बाण बनाने वाला कारीगर बाण बनाने में इतना तन्मय हो रहा था कि उसके पास से ही एक दलबल के साथ राजा की सवारी निकल गयी और उसे पता तक न चला।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: नवम अध्याय श्लोक 14-24 का हिन्दी अनुवाद)

राजन्! मैंने साँप से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासी को सर्प की भाँति अकेले ही विचरण करना चाहिये, उसे मण्डली नहीं बाँधनी चाहिये, मठ तो बनाना ही नहीं चाहिये। वह एक स्थान में न रहे, प्रमाद न करे, गुहा आदि में पड़ा रहे, बाहरी आचारों से पहचाना न जाये। किसी से सहायता न ले और बहुत कम बोले। इस अनित्य शरीर के लिये घर बनाने के बखेड़े में पड़ना व्यर्थ और दुःख की जड़ है। साँप दूसरों के बनाये घर में घुसकर बड़े आराम से अपना समय काटता है।

अब मकड़ी से ली हुई शिक्षा सुनो। सब के प्रकाशक और अन्तर्यामी सर्वशक्तिमान् भगवान ने पूर्वकल्प में बिना किसी अन्य सहायक के अपनी ही माया से रचे हुए जगत् को कल्प के अन्त में (प्रलयकाल उपस्थित होने पर) काल शक्ति के द्वारा नष्ट कर दिया-उसे अपने में लीन कर लिया और सजातीय, विजातीय तथा स्वगतभेद से शून्य अकेले ही शेष रह गये। वे सबके अधिष्ठान हैं, सबके आश्रय हैं; परन्तु स्वयं अपने आश्रय-अपने ही आधार से रहते हैं, उनका कोई दूसरा आधार नहीं है। वे प्रकृति और पुरुष दोनों के नियामक, कार्य और करणात्मक जगत् के आदिकारण परमात्मा अपनी शक्ति काल के प्रभाव से सत्त्व-रज आदि समस्त शक्तियों को साम्यावस्था में पहुँचा देते हैं और स्वयं कैवल्यरूप से एक और अद्वितीयरूप से विराजमान रहते हैं। वे केवल अनुभवस्वरूप और आनन्दघन मात्र हैं। किसी भी प्रकार की उपाधि का उनसे सम्बन्ध नहीं है। वे ही प्रभु केवल अपनी शक्ति काल के द्वारा अपनी त्रिगुणमयी माया को क्षुब्ध करते हैं और उससे पहले क्रियाशक्ति-प्रधान सूत्र (महत्तत्त्व) की रचना करते हैं। यह सूत्ररूप महत्तत्त्व ही तीनों गुणों की पहली अभिव्यक्ति है, वही सब प्रकार की सृष्टि का मूल कारण है। उसी में यह सारा विश्व, सूत में ताने-बाने की तरह ओतप्रोत है और इसी के कारण जीव को जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ना पड़ता है। जैसे मकड़ी अपने हृदय से मुँह के द्वारा जाला फैलाती है, उसी में विहार करती है और फिर उसे निगल जाती है, वैसे ही परमेश्वर भी इस जगत् को अपने में से उत्पन्न करते हैं, उसमें जीवरूप से विहार करते हैं और फिर उसे अपने लीन कर लेते हैं।

राजन्! मैंने भृंगी (बिलनी) कीड़े से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यदि प्राणी स्नेह से, द्वेष से अथवा भय से भी जान-बूझकर एकाग्ररूप से अपना मन किसी में लगा दे तो उसे उसी वस्तु का स्वरूप प्राप्त हो जाता है। राजन्! जैसे भृंगी एक कीड़े को ले जाकर दीवार पर अपने रहने की जगह बंद कर देता है और वह कीड़ा भय से उसी का चिन्तन करते-करते अपने पहले शरीर का त्याग किये बिना ही उसी शरीर से तद्रूप हो जाता है।

राजन्! इस प्रकार मैंने इतने गुरुओं से ये शिक्षाएँ ग्रहण कीं। अब मैंने अपने शरीर से जो कुछ सीखा है, वह तुम्हें बताता हूँ, सावधान होकर सुनो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: नवम अध्याय श्लोक 25-33 का हिन्दी अनुवाद)

यह शरीर भी मेरा गुरु ही है; क्योंकि यह मुझे विवेक और वैराग्य की शिक्षा देता है। मरना और जीना तो इसके साथ लगा ही रहता है। इस शरीर को पकड़ रखने का फल यह है कि दुःख-पर-दुःख भोगते जाओ। यद्यपि इस शरीर से तत्त्वविचार करने में सहायता मिलती है, तथापि मैं इसे अपना कभी नहीं समझता; सर्वदा यही निश्चय रखता हूँ कि एक दिन इसे सियार-कुत्ते खा जायेंगे। इसीलिए मैं इससे असंग होकर विचरता हूँ। जीव जिस शरीर का प्रिय करने के लिये ही अनेकों प्रकार की कामनाएँ और कर्म करता है तथा स्त्री-पुत्र, धन-दौलत, हाथी-घोड़े, नौकर-चाकर, घर-द्वार और भाई-बन्धुओं का विस्तार करते हुए उनके पालन-पोषण में लगा रहता है। बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ सहकर धन संचय करता है। आयुष्य पूरी होने पर वही शरीर स्वयं तो नष्ट होता ही है, वृक्ष के समान दूसरे शरीर के लिये बीज बोकर उसके लिये भी दुःख की व्यवस्था कर जाता है। जैसे बहुत-सी सौतें अपने एक पति को अपनी-अपनी ओर खींचती हैं, वैसे ही जीव को जीभ एक ओर-स्वादिष्ट पदार्थों की ओर खींचती है तो प्यास दूसरी ओर-जल की ओर; जननेद्रिय एक ओर-स्त्री संभोग की ओर ले जाना चाहती है तो त्वचा, पेट और कान दूसरी ओर-कोमल स्पर्श, भोजन और मधुर शब्द की ओर खींचने लगते हैं। नाक कहीं सुन्दर गन्ध सूँघने के लिये ले जाना चाहती है तो चंचल नेत्र कहीं दूसरी ओर सुन्दर रूप देखते के लिये। इस प्रकार कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ दोनों ही इसे सताती रहती हैं।

वैसे तो भगवान ने अपनी अचिन्त्य शक्ति माया से वृक्ष, सरीसृप (रेंगने वाले जन्तु) पशु, पक्षी, डांस और मछली आदि अनेकों प्रकार की योनियाँ रचीं; परन्तु उनसे उन्हें सन्तोष न हुआ। तब उन्होंने मनुष्य शरीर की सृष्टि की। यह ऐसी बुद्धि से युक्त है जो ब्रह्म का साक्षात्कार कर सकती है। इसकी रचना करके वे बहुत आनन्दित हुए। यद्यपि यह मनुष्य शरीर है तो अनित्य ही-मृत्यु सदा इसके पीछे लगी रहती है। इससे परमपुरुषार्थ की प्राप्ति हो सकती है; इसलिए अनेक जन्मों के बाद यह अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर पाकर बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि शीघ्र-से-शीघ्र, मृत्यु के पहले ही मोक्ष-प्राप्ति का प्रयत्न कर ले। इस जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष ही है। विषय-भोग तो सभी योनियों में प्राप्त हो सकते हैं, इसलिये उनके संग्रह में यह अमूल्य जीवन नहीं खोना चाहिये।

राजन्! यही सब सोच-विचारकर मुझे जगत् से वैराग्य हो गया। मेरे हृदय में ज्ञान-विज्ञान की ज्योति जगमगाती रहती है। न तो कहीं मेरी आसक्ति है और न कहीं अहंकार ही। अब मैं स्वच्छन्द रूप से इस पृथ्वी में विचरण करता हूँ। राजन्! अकेले गुरु से ही यथेष्ट और सुदृढ़ बोध नहीं होता, उसके लिये अपनी बुद्धि से भी बहुत कुछ सोचने-समझने की आवश्यकता है। देखो! ऋषियों ने एक ही अद्वितीय ब्रह्म का अनेकों प्रकार से गान किया है। (यदि तुम स्वयं विचारकर निर्णय न करोगे तो ब्रह्म के वास्तविक स्वरूप को कैसे जान सकोगे?

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- 'प्यारे उद्धव! गम्भीर बुद्धि अवधूत दत्तात्रेय ने राजा यदु को इस प्रकार उपदेश किया। यदु ने उनकी पूजा और वन्दना की, दत्तात्रेय जी उनसे अनुमति लेकर बड़ी प्रसन्नता से इच्छानुसार पधार गये। हमारे पूर्वजों के भी पूर्वज राजा यदु अवधूत दत्तात्रेय की यह बात सुनकर समस्त आसक्तियों से छुटकारा पा गये और समदर्शी हो गये। (इसी प्रकार तुम्हें भी समस्त आसक्तियों का परित्याग करके समदर्शी हो जाना चाहिये)


                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【दसवाँ अध्याय】१०


"लौकिक तथा पारलौकिक भोगों की असारता का निरूपण"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: दशम अध्याय श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- 'प्यारे उद्धव! साधक को चाहिये कि सब तरह से मेरी शरण में रहकर (गीता-पंचरात्र आदि में) मेरे द्वारा उपदिष्ट अपने धर्मों का सावधानी से पालन करे। साथ ही जहाँ तक उनसे विरोध न हो ,वहाँ तक निष्काम भाव से अपने वर्ण, आश्रम और कुल के अनुसार सदाचार का भी अनुष्ठान करे। निष्काम होने का उपाय यह है कि स्वधर्मों का पालन करने से शुद्ध हुए अपने चित्त में यह विचार करे कि जगत् के विषयी प्राणी शब्द, स्पर्श, रूप आदि विषयों को सत्य समझकर उनकी प्राप्ति के लिये जो प्रयत्न करते हैं, उसमें उनका उद्देश्य तो यह होता है कि सुख मिले, परन्तु मिलता है दुःख, इसके सम्बन्ध में ऐसा विचार करना चाहिये कि स्वप्नावस्था में और मनोरथ करते समय जाग्रत्-अवस्था में भी मनुष्य मन-ही-मन अनेकों प्रकार के विषयों का अनुभव करता है, परन्तु उसकी वह सारी कल्पना वस्तुशून्य होने के कारण व्यर्थ है। वैसे ही इन्द्रियों के द्वारा होने वाली भेद बुद्धि भी व्यर्थ ही है, क्योंकि यह भी इन्द्रियजन्य और नाना वस्तु विषयक होने के कारण पूर्ववत् असत्य ही है।

जो पुरुष मेरी शरण में है, उसे अन्तर्मुख करने वाले निष्काम अथवा नित्यकर्म ही करने चाहिये। उन कर्मों का बिलकुल परित्याग कर देना चाहिये जो बहिर्मुख बनाने वाले अथवा सकाम हों। जब आत्मज्ञान की उत्कट इच्छा जाग उठे, तब तो कर्मसम्बन्धी विधि-विधानों का भी आदर नहीं करना चाहिये। अहिंसा आदि यमों का तो आदरपूर्वक सेवन करना चाहिये, परन्तु शौच (पवित्रता) आदि नियमों का पालन शक्ति के अनुसार और आत्मज्ञान के विरोधी न होने पर ही करना चाहिये। जिज्ञासु पुरुष के लिये यम और नियमों के पालन से भी बढ़कर आवश्यक बात यह है कि वह अपने गुरु की, जो मेरे स्वरूप को जानने वाले और शान्त हों, मेरा ही स्वरूप समझकर सेवा करे। शिष्य को अभिमान न करना चाहिये। वह कभी किसी से डाह न करे-किसी का बुरा न सोचे। वह प्रत्येक कार्य में कुशल हो-उसे आलस्य छू न जाये। उसे कहीं भी ममता न हो, गुरु के चरणों में दृढ़ अनुराग हो। कोई काम हड़बड़ाकर न करे-उसे सावधानी से पूरा करे। सदा परमार्थ के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा बनाये रखे। किसी के गुणों में दोष न निकाले और व्यर्थ की बात न करे। जिज्ञासु का परम धन है आत्मा; इसलिये वह स्त्री-पुत्र, घर-खेत, स्वजन और धन आदि सम्पूर्ण पदार्थों में एक सम आत्मा को देखे और किसी में कुछ विशेषता का आरोप करके उससे ममता न करे, उदासीन रहे।

उद्धव! जैसे जलने वाली लकड़ी से उसे जलाने और प्रकाशित करने वाली आग सर्वथा अलग है। ठीक वैसे ही विचार करने पर जान पड़ता है कि पंचभूतों का बना स्थूल शरीर और मन-बुद्धि आदि सत्रह तत्त्वों का बना सूक्ष्म शरीर दोनों ही दृश्य और जड़ हैं तथा उनको जानने और प्रकाशित करने वाला आत्मा साक्षी एवं स्वयं प्रकाश है। शरीर अनित्य, अनेक एवं जड़ है। आत्मा नित्य, एक एवं चेतन है। इस प्रकार देह की अपेक्षा आत्मा में महान् विलक्षणता है। अतएव देह से आत्मा भिन्न है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: दशम अध्याय श्लोक 9-13 का हिन्दी अनुवाद)

जब आग लकड़ी में प्रज्वलित होती है, तब लकड़ी के उत्पत्ति-विनाश, बड़ाई-छोटाई और अनेकता आदि सभी गुण वह स्वयं ग्रहण कर लेती है। परन्तु सच पूछो तो लकड़ी के उन गुणों से आग का कोई सम्बन्ध नहीं है। वैसे ही जब आत्मा अपने को शरीर मान लेता है, तब वह देह के जड़ता, अनित्यता, स्थूलता, अनेकता आदि गुणों से सर्वदा रहित होने पर भी उनसे युक्त जान पड़ता है। ईश्वर के द्वारा नियन्त्रित माया के गुणों ने ही सूक्ष्म और स्थूल शरीर का निर्माण किया है। जीव को शरीर और शरीर को जीव समझ लेने के कारण ही स्थूल शरीर के जन्म-मरण और सूक्ष्म शरीर के आवागमन का आत्मा पर आरोप किया जाता है। जीव को जन्म-मृत्युरूप संसार इसी भ्रम अथवा अध्यास के कारण प्राप्त होता है। आत्मा के स्वरूप का ज्ञान होने पर उसकी जड़ कट जाती है।

प्यारे उद्धव! इस जन्म-मृत्युरूप संसार का कोई दूसरा कारण नहीं, केवल अज्ञान ही मूल कारण है। इसलिए अपने वास्तविक स्वरूप को, आत्मा को जानने की इच्छा करनी चाहिये। अपना यह वास्तविक स्वरूप समस्त प्रकृति और प्राकृत जगत् से अतीत, द्वैत की गन्ध से रहित एवं अपने-आप में ही स्थित हैं। उसका कोई और आधार नहीं है। उसे जानकार धीरे-धीरे स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर आदि में जो सत्यत्व बुद्धि हो रही है, उसे क्रमशः मिटा देना चाहिये।

(यज्ञ में जब अरणि मन्थन करके अग्नि उत्पन्न करते हैं, तो उसमें नीचे-ऊपर दो लकड़ियाँ रहती हैं और बीच में मन्थन काष्ठ रहता है; वैसे ही) विद्यारूप अग्नि की उत्पत्ति के लिये आचार्य और शिष्य तो नीचे-ऊपर की अरणियाँ हैं तथा उपदेश मन्थन काष्ठ है। इनसे जो ज्ञानाग्नि प्रज्वलित होती है, वह विलक्षण सुख देने वाली है। इस यज्ञ में बुद्धिमान शिष्य सद्गुरु के द्वारा जो अत्यन्त विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करता है, वह गुणों से बनी हुई विषयों की माया को भस्म कर देता है। तत्पश्चात् वे गुण भी भस्म हो जाते हैं, जिनसे कि यह संसार बना हुआ है। इस प्रकार सब के भस्म हो जाने पर जब आत्मा के अतिरिक्त और कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती, तब वह ज्ञानाग्नि भी ठीक वैसे ही अपने वास्तविक स्वरूप में शान्त हो जाती है, जैसे समिधा न रहने पर आग बुझ जाती है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: दशम अध्याय श्लोक 14-21 का हिन्दी अनुवाद)

प्यारे उद्धव! यदि तुम कदाचित् कर्मों के कर्ता और सुख-दुःखों के भोक्ता जीवों को अनेक तथा जगत्, काल, वेद और आत्माओं को नित्य मानते हो; साथ ही समस्त पदार्थों की स्थिति प्रवाह से नित्य और यथार्थ स्वीकार करते हो तथा यह समझते हो कि घर-घट आदि बाह्य आकृतियों के भेद से उनके अनुसार ज्ञान ही उत्पन्न होता और बदलता रहता है; तो ऐसे मत के मानने से बड़ा अनर्थ हो जायेगा। (क्योंकि इस प्रकार जगत् के कर्ता आत्मा की नित्य सत्ता और जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्ति भी सिद्ध न हो सकेगी।) यदि कदाचित् ऐसा स्वीकार भी कर लिया जाये तो देह और संवत्सरादि कालावयवों के सम्बन्ध से होने वाली जीवों की जन्म-मरण आदि अवस्थाएँ भी नित्य होने के कारण दूर न हो सकेंगी; क्योंकि तुम देहादि पदार्थ और काल की नित्यता स्वीकार करते हो। इसके सिवा, यहाँ भी कर्मों का कर्ता तथा सुख-दुःख का भोक्ता जीव परतन्त्र ही दिखायी देता है; यदि वह स्वतन्त्र हो तो दुःख का फल क्यों भोगना चाहेगा? इस प्रकार सुख-भोग की समस्या सुलझ जाने पर भी दुःख-भोग की समस्या तो उलझी हो रहेगी। अतः इस मत के अनुसार जीव को कभी मुक्ति या स्वतन्त्रता प्राप्त न हो सकेगी।

अब जीव स्वरूपतः परतन्त्र है, विवश है, तब तो स्वार्थ या परमार्थ कोई भी उसका सेवन न करेगा। अर्थात् वह स्वार्थ और परमार्थ दोनों से ही वंचित रह जायेगा। (यदि यह कहा जाये कि जो भलीभाँति कर्म करना जानते हैं, वे सुखी रहते हैं, और जो नहीं जानते उन्हें दुःख भोगना पड़ता है तो यह कहना भी ठीक नहीं; क्योंकि) ऐसा देखा जाता है कि बड़े-बड़े कर्मकुशल विद्वानों को भी कुछ सुख नहीं मिलता और मूढ़ों का भी कभी दुःख से पाला नहीं पड़ता। इसलिये जो लोग अपनी बुद्धि या कर्म से सुख पाने का घमंड करते हैं, उनका वह अभिमान व्यर्थ है। यदि यह स्वीकार कर लिया जाये कि वे लोग सुख की प्राप्ति और दुःख के नाश का ठीक-ठाक उपाय जानते हैं, तो भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि उन्हें भी ऐसे उपाय का पता नहीं है, जिससे मृत्यु उनके ऊपर कोई प्रभाव न डाल सके और वे कभी मरें ही नहीं। जब मृत्यु उनके सिर पर नाच रही है, तब ऐसी कौन-सी भोग-सामग्री या भोग-कामना है, जो उन्हें सुखी कर सके? भला, जिस मनुष्य को फाँसी पर लटकाने के लिये वधस्थान पर ले जाया जा रहा है, उसे क्या फूल-चन्दन-स्त्री आदि पदार्थ सन्तुष्ट कर सकते हैं? कदापि नहीं। (अतः पूर्वोक्त मत मानने वालों की दृष्टि से न सुख ही सिद्ध होगा और न जीव का कुछ पुरुषार्थ ही रहेगा)।

प्यारे उद्धव! लौकिक सुख के समान पारलौकिक सुख भी दोषयुक्त ही है; क्योंकि वहाँ भी बराबरी वालों से होड़ चलती है, अधिक सुख भोगने-वालों के प्रति असूया होती है-उनके गुणों में दोष निकाला जाता है और छोटों से घृणा होती है। प्रतिदिन पुण्य क्षीण होने के साथ ही वहाँ के सुख भी क्षय के निकट पहुँचते रहते हैं और एक दिन नष्ट हो जाते हैं। वहाँ की कामना पूर्ण होने में भी यजमान, ऋत्विज् और कर्म आदि की त्रुटियों के कारण बड़े-बड़े विघ्नों की सम्भावना रहती है। जैसे हरी-भरी खेती भी अतिवृष्टि-अनावृष्टि आदि के कारण नष्ट हो जाती है, वैसे ही स्वर्ग भी प्राप्त होते-होते विघ्नों के कारण नहीं मिल पाता।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: दशम अध्याय श्लोक 22-33 का हिन्दी अनुवाद)

यदि यज्ञ-यागादी धर्म बिना किसी विघ्न के पूरा हो जाये तो उसके द्वारा जो स्वर्गादि लोक मिलते हैं, उनकी प्राप्ति का प्रकार मैं बतलाता हूँ, सुनो।

यज्ञ करने वाला पुरुष यज्ञों के द्वारा देवताओं की आराधना करके स्वर्ग में जाता है और वहाँ अपने पुण्यकर्मों के द्वारा उपार्जित दिव्य भोगों को देवताओं के समान भोगता है। उसे उसके पुण्यों के अनुसार एक चमकीला विमान मिलता है और वह उस पर सवार होकर सुर-सुन्दरियों के साथ विहार करता है। गन्धर्वगण उसके गुणों का गान करते हैं और उसके रूप-लावण्य को देखकर दूसरों का मन लुभा जाता है। उसका विमान वह जहाँ ले जाना चाहता है, वहीं चला जाता है और उसकी घंटियाँ घनघनाकर दिशाओं को गुंजारित करती हैं। वह अप्सराओं के साथ नन्दनवन आदि देवताओं की विहार-स्थलियों में क्रीड़ाएँ करते-करते इतना वेसुध हो जाता है कि उसे इस बात का पता ही नहीं चलता कि अब मेरे पुण्य समाप्त हो जायेंगे और मैं यहाँ से ढकेल दिया जाऊँगा। जब तक उसके पुण्य शेष रहते हैं, तब तक वह स्वर्ग में चैन की वंशी बजाता रहता है; परन्तु पुण्य क्षीण होते ही इच्छा न रहने पर भी उसे नीचे गिरना पड़ता है, क्योंकि काल की चाल ही ऐसी है।

यदि कोई मनुष्य दुष्टों की संगती में पड़कर अधर्म-परायण हो जाये, अपनी इन्द्रियों के वश में होकर मनमानी करने लगे, लोभवश दाने-दाने में कृपणता करने लगे, लम्पट हो जाये अथवा प्राणियों को सताने लगे और विधि-विरुद्ध पशुओं की बलि देकर भूत और प्रेतों की उपासना में लग जाये, तब तो वह पशुओं से भी गया-बीता हो जाता है और अवश्य ही नरक में जाता है। उसे अन्त में घोर अन्धकार, स्वार्थ और परमार्थ से रहित अज्ञान में ही भटकना पड़ता है। जितने भी सकाम और बहिर्मुख करने वाले कर्म हैं, उनका फल दुःख ही है। जो जीव शरीर में अहंता-ममता करके उन्हीं में लग जाता है, उसे बार-बार जन्म-पर-जन्म और मृत्यु-पर-मृत्यु प्राप्त होती रहती है। ऐसी स्थिति में मृत्युधर्मा जीव को क्या सुख हो सकता है?

सारे लोक और लोकपालों की आयु भी केवल एक कल्प है, इसलिये मुझसे भयभीत रहते हैं। औरों की बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मा भी मुझसे भयभीत रहते हैं; क्योंकि उनकी आयु भी काल से सीमित-केवल दो परार्द्ध है। सत्त्व, रज और तम-ये तीनों गुण इन्द्रियों को उनके कर्मों में प्रेरित करते हैं और इन्द्रियाँ कर्म करती हैं। जीव अज्ञानवश सत्त्व, रज आदि गुणों और इन्द्रियों को अपना स्वरूप मान बैठता है और उनके किये हुए कर्मों का फल सुख-दुःख भोगने लगता है। जब तक गुणों की विषमता है अर्थात् शरीरादि में मैं और मेरेपन का अभिमान है; तभी तक आत्मा के एकत्व की अनुभूति नहीं होती-वह अनेक जान पड़ता है; और जब तक आत्मा की अनेकता है, तब तक तो उन्हें काल अथवा कर्म किसी के अधीन रहना ही पड़ेगा। जब तक परतन्त्रता है, तब तक ईश्वर से भय बना ही रहता है। जो मैं ओर मेरेपन के भाव से ग्रस्त रहकर आत्मा की अनेकता, परतन्त्रता आदि मानते हैं तो वैराग्य न ग्रहण करके बहिर्मुख करने वाले कर्मों का ही सेवन करते रहते हैं, उन्हें शोक और मोह की प्राप्ति होती है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: दशम अध्याय श्लोक 34-37 का हिन्दी अनुवाद)

प्यारे उद्धव! जब माया के गुणों में क्षोभ होता है, तब मुझ आत्मा को ही काल, जीव, वेद, लोक, स्वभाव और धर्म आदि अनेक नामों से निरूपण करने लगते हैं। (ये सब मायामय है। वास्तविक सत्य मैं आत्मा ही हूँ)।

उद्धव जी ने पूछा ;- 'भगवन्! यह जीव देह आदि रूप गुणों में ही रह रहा है। फिर देह से होने वाले कर्मों या सुख-दुःख आदि रूप फलों में क्यों नहीं बँधता है? अथवा यह आत्मा गुणों से निर्लिप्त है, देह आदि के सम्पर्क से सर्वथा रहित है, फिर इसे बन्धन की गति कैसे होती है?

बद्ध अथवा मुक्त पुरुष कैसा बर्ताव करता है, वह कैसे विहार करता है, या वह किन लक्षणों से पहचाना जाता है, कैसे भोजन करता है? और मल-त्याग आदि कैसे करता है? कैसे सोता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?

अच्युत! प्रश्न का मर्म जानने वालों में आप श्रेष्ठ हैं। इसलिये आप मेरे इस प्रश्न का उत्तर दीजिये-एक आत्मा अनादि गुणों के संसर्ग से नित्यबद्ध भी मालूम पड़ता है और असंग होने के कारण नित्य मुक्त भी। इस बात को लेकर मुझे भ्रम हो रहा है।


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