{एकादश स्कन्ध:}
【प्रथम अध्याय】१
"यदुवंश को ऋषियों का शाप"
(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: प्रथम अध्याय श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)
व्यासनन्दन भगवान श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ने बलराम जी तथा अन्य यदुवंशियों के साथ मिलकर बहुत-से दैत्यों का संहार किया तथा कौरव और पाण्डवों में भी शीघ्र मार-काट मचाने वाला अत्यन्त प्रबल कलह उत्पन्न करके पृथ्वी का भार उतार दिया। कौरवों ने कपटपूर्वक जुए से, तरह-तरह के अपमानों से तथा द्रौपदी के केश खींचने आदि अत्याचारों से पाण्डवों को अत्यन्त क्रोधित कर दिया था। उन्हीं पाण्डवों को निमित्त बनाकर भगवान श्रीकृष्ण ने दोनों पक्षों में एकत्र हुए राजाओं को मरवा डाला और इस प्रकार पृथ्वी का भार हल्का कर दिया।
अपने बाहुबल से सुरक्षित यदुवंशियों के द्वारा पृथ्वी के भार-राजा और उनकी सेना का विनाश करके, प्रमाणों के द्वारा ज्ञान के विषय न होने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने विचार किया कि लोक दृष्टि से पृथ्वी का भार दूर हो जाने पर भी वस्तुतः मेरी दृष्टि से अभी तक दूर नहीं हुआ; क्योंकि जिस पर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता, वह यदुवंश अभी पृथ्वी पर विद्यमान है। यह यदुवंश मेरे आश्रित है और हाथी, घोड़े, जनबल, धनबल आदि विशाल वैभव के कारण उच्छृखंल हो रहा है। अन्य किसी देवता आदि से भी इसकी किसी प्रकार पराजय नहीं हो सकती। बाँस के वन में परस्पर संघर्ष से उत्पन्न अग्नि के समान इस यदुवंश में भी परस्पर कलह खड़ा करके मैं शान्ति प्राप्त कर सकूँगा और इसके बाद अपने धाम में जाऊँगा।
राजन्! भगवान सर्वशक्तिमान् और सत्यसंकल्प हैं। उन्होंने इस प्रकार अपने मन में निश्चय करके ब्राह्मणों के शाप के बहाने अपने ही वंश का संहार कर डाला, सबको समेटकर अपने धाम में ले गये।
परीक्षित! भगवान की वह मूर्ति त्रिलोकी के सौन्दर्य का तिरस्कार करने वाली थी। उन्होंने अपनी सौन्दर्य-माधुरी से सबके नेत्र अपनी ओर आकर्षित कर लिये थे। उनकी वाणी, उनके उपदेश परम मधुर, दिव्यातिदिव्य थे। उनके द्वारा उन्हें स्मरण करने वालों के चित्त उन्होंने छीन लिये थे। उनके चरणकमल त्रिलोक-सुन्दर थे। जिसने उनके एक चरण-चिह्न का भी दर्शन कर लिया, उसकी बहिर्मुखता दूर भाग गयी, वह कर्मप्रपंच से ऊपर उठकर उन्हीं की सेवा में लग गया। उन्होंने अनायास ही पृथ्वी में अपनी कीर्ति का विस्तार कर दिया, जिसका बड़े-बड़े सुकवियों ने बड़ी ही सुन्दर भाषा में वर्णन किया है। वह इसलिए कि मेरे चले जाने के बाद लोग मेरी इस कीर्ति का गान, श्रवण और स्मरण करके इस अज्ञानरूप अन्धकार से सुगमतया पार हो जायेंगे। इसके बाद परमैश्वर्यशाली भगवान श्रीकृष्ण ने अपने धाम को प्रयाण किया।
राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! यदुवंशी बड़े ब्राह्मण भक्त थे। उनमें बड़ी उदारता भी थी और वे अपने कुलवृद्धों की नित्य-निरन्तर सेवा करने वाले थे। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि उनका चित्त भगवान श्रीकृष्ण में लगा रहता था; फिर उनसे ब्राह्मणों का अपराध कैसे बन गया? और क्यों ब्राह्मणों ने उन्हें शाप दिया? भगवान के परम प्रेमी विप्रवर! उस शाप का कारण क्या था तथा क्या स्वरूप था? समस्त यदुवंशियों के आत्मा, स्वामी और प्रियतम एकमात्र भगवान श्रीकृष्ण ही थे; फिर उनमें फूट कैसे हुई? दूसरी दृष्टि से देखें तो वे सब ऋषि अद्वैतदर्शी थे, फिर उनको ऐसी भेददृष्टि कैसे हुई? यह सब आप कृपा करके मुझे बतलाइये।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: प्रथम अध्याय श्लोक 10-20 का हिन्दी अनुवाद)
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- भगवान श्रीकृष्ण ने वह शरीर धारण करके जिसमें सम्पूर्ण सुन्दर पदार्थों का सन्निवेश था (नेत्रों में मृगनयन, कन्धों में सिंहस्कन्ध, करों में करि-कर, चरणों में कमल आदि का विन्यास था।) पृथ्वी में मंगलमय कल्याणकारी कर्मों का आचरण किया। वे पूर्णकाम प्रभु द्वारकाधाम में रहकर क्रीड़ा करते रहे और उन्होंने अपनी उदार कीर्ति की स्थापना की। (जो कीर्ति स्वयं अपने आश्रय तक का दान कर सके, वह उदार है।) अन्त में श्रीहरि ने अपने कुल के संहार-उपसंहार की इच्छा की; क्योंकि अब पृथ्वी का भार उतरने में इतना ही कार्य शेष रह गया था।
भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसे परम मंगलमय और पुण्य-प्रापक कर्म किये, जिनका गान करने वाले लोगों के सारे कलिमल नष्ट हो जाते हैं। अब भगवान श्रीकृष्ण महाराज उग्रसेन की राजधानी द्वारकापुरी में वसुदेव जी के घर यादवों का संहार करने के लिये कालरूप से ही निवास कर रहे थे। उस समय उनके विदा कर देने पर-विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, भृगु, अंगिरा, कश्यप, वामदेव, अत्रि, वसिष्ठ और नारद आदि बड़े-बड़े ऋषि द्वारका के पास ही पिण्डारक क्षेत्र में जाकर निवास करने लगे थे।
एक दिन यदुवंश के कुछ उद्दण्ड कुमार खेलते-खेलते उनके पास जा निकले। उन्होंने बनावटी नम्रता से उनके चरणों में प्रणाम करके प्रश्न किया। वे जाम्बवतीनन्दन साम्ब को स्त्री के वेष में सजाकर ले गये और कहने लगे- 'ब्राह्मणों! यह कजरारी आँखों वाली सुन्दरी गर्भवती है। यह आप से एक बात पूछना चाहती है, परन्तु स्वयं पूछने में सकुचाती है। आप लोगों का ज्ञान अमोघ-अबाध है, आप सर्वज्ञ हैं। इसे पुत्र की बड़ी लालसा है और अब प्रसव का समय निकट आ गया है। आप लोग बतलाइये, यह कन्या जानेगी या पुत्र?’
परीक्षित! जब उन कुमारों ने इस प्रकार उन ऋषि-मुनियों को धोखा देना चाहा, तब वे भगवत्प्रेरणा से क्रोधित हो उठे। उन्होंने कहा- ‘मूर्खों! यह एक ऐसा मूसल पैदा करेगी, जो तुम्हारे कुल का नाश करने वाला होगा।'
मुनियों की यह बात सुनकर वे बालक बहुत ही डर गये। उन्होंने तुरंत साम्ब का पेट खोलकर देखा तो सचमुच उसमें एक लोहे का मूसल मिला। अब तो वे पछताने लगे और कहने लगे- ‘हम बड़े अभागे हैं। देखो, हम लोगों ने यह क्या अनर्थ कर डाला? अब लोग हमें क्या कहेंगे?’ इस प्रकार वे बहुत ही घबरा गये तथा मूसल लेकर अपने निवासस्थान में गये। उस समय उनके चेहरे फीके पड़ गये थे। मुख कुम्हला गये थे। उन्होंने भरी सभा में सब यादवों के सामने ले जाकर वह मूसल रख दिया और राजा उग्रसेन से सारी घटना कह सुनायी। राजन्! जब सब लोगों ने ब्राह्मणों के शाप की बात सुनी और अपनी आँखों से उस मूसल को देखा, तब सब-के-सब द्वारकावासी विस्मित और भयभीत हो गये; क्योंकि वे जानते थे कि ब्राह्मणों का शाप कभी झूठा नहीं होता।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: प्रथम अध्याय श्लोक 21-24 का हिन्दी अनुवाद)
यदुराज उग्रसेन ने उस मूसल को चूरा-चूरा करा डाला और उस चूरे तथा लोहे के बचे हुए छोटे टुकड़े को समुद्र में फेंकवा दिया। (इसके सम्बन्ध में उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से कोई सलाह न ली; ऐसी ही उनकी प्रेरणा थी)।
परीक्षित! उस लोहे के टुकड़े को एक मछली निगल गयी और चूरा तरंगों के साथ बह-बहकर समुद्र के किनारे आ लगा। वह थोड़े दिनों में एरक (बिना गाँठ की एक घास) के रूप में उग आया। मछली मारने वाले मछुओं ने समुद्र में दूसरी मछलियों के साथ उस मछली को भी पकड़ लिया। उसके पेट में जो लोहे का टुकड़ा था, उसको जरा नामक व्याध ने अपने बाण के नोक में लगा लिया। भगवान सब कुछ जानते थे। वे इस शाप को उलट भी सकते थे। फिर भी उन्होंने ऐसा उचित न समझा। कालरूपधारी प्रभु ने ब्राह्मणों के शाप का अनुमोदन ही किया।
{एकादश स्कन्ध:}
【द्वितीय अध्याय】२
"वसुदेव जी के पास श्रीनारद जी का आना और उन्हें राजा जनक तथा नौ योगीश्वरों का संवाद सुनाना"
(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वितीय अध्याय श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- कुरुनन्दन! देवर्षि नारद के मन में भगवान श्रीकृष्ण की सन्निधि में रहने की बड़ी लालसा थी। इसलिए वे श्रीकृष्ण के निज बाहुओं से सुरक्षित द्वारका में-जहाँ दक्ष आदि के शाप का कोई भय नहीं था, विदा कर देने पर भी पुनः-पुनः आकर प्रायः रहा ही करते थे।
राजन्! ऐसा कौन प्राणी है, जिसे इन्द्रियाँ तो प्राप्त हों और वह भगवान के ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवताओं के भी उपास्य चरणकमलों की दिव्य गन्ध, मधुर मकरन्द-रस, अलौकिक रूपमाधुरी, सुकुमार स्पर्श और मंगलमय ध्वनि का सेवन करना न चाहे? क्योंकि यह बेचारा प्राणी सब ओर से मृत्यु से ही घिरा हुआ है।
एक दिन की बात है, देवर्षि नारद वसुदेव जी के यहाँ पधारे। वसुदेव जी ने उनका अभिवादन किया तथा आराम से बैठ जाने पर विधिपूर्वक उनकी पूजा की और इसके बाद पुनः प्रणाम करके उनसे यह बात कही।
वसुदेव जी ने कहा ;- 'संसार में माता-पिता का आगमन पुत्रों के लिये और भगवान की ओर अग्रसर होने वाले साधु-संतों का पदार्पण प्रपंच में उलझे हुए दीन-दुःखियों के लये बड़ा ही सुखकर और बड़ा ही मंगलमय होता है। परन्तु भगवन! आप तो स्वयं भगवन्मय, भगवत्स्वरूप हैं। आपका चलना-फिरना तो समस्त प्राणियों के कल्याण के लिये ही होता है। देवताओं के चरित्र भी कभी प्राणियों के लिये दुःख के हेतु, तो कभी सुख के हेतु बन जाते हैं, परन्तु जो आप-जैसे भगवत्प्रेमी पुरुष हैं-जिनका हृदय, प्राण, जीवन, सब कुछ भगवन्मय हो गया है-उनकी तो प्रत्येक चेष्टा समस्त प्राणियों के कल्याण के लिये ही होती है। जो लोग देवताओं का जिस प्रकार भजन करते हैं, देवता भी परछाईं के समान ठीक उसी रीति से भजन करने वालों को फल देते हैं; क्योंकि देवता कर्म के मन्त्री हैं, अधीन हैं। परन्तु सत्पुरुष दीनवत्सल होते हैं अर्थात् जो सांसारिक सम्पत्ति एवं साधन से भी हीन हैं, उन्हें अपनाते हैं। ब्रह्मन्! (यद्यपि हम आपके शुभागमन और शुभ दर्शन से ही कृतकृत्य हो गये हैं) तथापि आपसे उन धर्मों के-साधनों के सम्बन्ध में प्रश्न कर रहे हैं, जिनको मनुष्य श्रद्धा से सुन भर ले तो इस सब ओर से भयदायक संसार से मुक्त हो जाये। पहले जन्म में मैंने मुक्ति देने वाले भगवान की आराधना तो की थी, परन्तु इसलिए नहीं कि मुझे मुक्ति मिले। मेरी आराधना का उद्देश्य था कि वे मुझे पुत्ररूप में प्राप्त हों। उस समय मैं भगवान की लीला से मुग्ध हो रहा था। सुव्रत! अब आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिये जिससे मैं इस जन्म-मृत्युरूप भयावह संसार से-जिससे दुःख भी सुख का विचित्र और मोहक रूप धारण करके सामने आते हैं-अनायास ही पार हो जाऊँ।'
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! बुद्धिमान वसुदेव जी ने भगवान के स्वरूप और गुण आदि के श्रवण के अभिप्राय से ही यह प्रश्न किया था। देवर्षि नारद उनका प्रश्न सुनकर भगवान अचिन्त्य अनन्त कल्याणमय गुणों के स्मरण में तन्मय हो गये और प्रेम एवं आनन्द में भरकर वसुदेव जी से बोले।
नारद जी ने कहा ;- यदुवंशशिरोमणे! तुम्हारा यह निश्चय बहुत ही सुन्दर है; क्योंकि यह भागवत धर्म के सम्बन्ध में है, जो सारे विश्व को जीवन-दान देने वाला है, पवित्र करने वाला है।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वितीय अध्याय श्लोक 12-26 का हिन्दी अनुवाद)
वसुदेव जी! यह भागवत धर्म एक ऐसी वस्तु है, जिसे कानों से सुनने, वाणी से उचारण करने, चित्त से स्मरण करने, हृदय से स्वीकार करने या कोई इसका पालन करने जा रहा हो तो उसका अनुमोदन करने से ही मनुष्य उसी क्षण पवित्र हो जाता है-चाहे वह भगवान का एवं सारे संसार का द्रोही ही क्यों न हो। जिनके गुण, लीला और नाम आदि का श्रवण तथा कीर्तन पतितों को भी पावन करने वाला है, उन्हीं परम कल्याणस्वरूप मेरे आराध्यदेव भगवान नारायण का तुमने आज मुझे स्मरण कराया है।
वसुदेव जी! तुमने मुझसे जो प्रश्न किया है, इसके सम्बन्ध में संत पुरुष एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास है-ऋषभ के पुत्र नौ योगीश्वरों और महात्मा विदेह का शुभ संवाद। तुम जानते ही हो कि स्वायम्भुव मनु के एक प्रसिद्ध पुत्र थे प्रियव्रत। प्रियव्रत के आग्नीध्र, आग्नीध्र के नाभि और नाभि के पुत्र हुए ऋषभ। शास्त्रों ने उन्हें भगवान वासुदेव का अंश कहा है। मोक्षधर्म का उपदेश करने के लिये उन्होंने अवतार ग्रहण किया था। उनके सौ पुत्र थे और सब-के-सब वेदों के पारदर्शी विद्वान थे। उनमें सबसे बड़े थे राजर्षि भरत। वे भगवान नारायण के परमप्रेमी भक्त थे। उन्हीं के नाम से यह भूमिखण्ड, जो पहले ‘अजनाभवर्ष’ कहलाता था, ‘भारतवर्ष’ कहलाया। यह भारतवर्ष भी एक अलौकिक स्थान है।
राजर्षि भरत ने सारी पृथ्वी का राज्य-भोग किया, परन्तु अन्त में इसे छोड़कर वन में चले गये। वहाँ उन्होंने तपस्या के द्वारा भगवान की उपासना की और तीन जन्मों में वे भगवान को प्राप्त हुए। भगवान ऋषभदेव जी के शेष निन्यानबे पुत्रों में नौ पुत्र तो इस भारतवर्ष के सब ओर स्थित नौ द्वीपों के अधिपति हुए और इक्यासी पुत्र कर्मकाण्ड के रचयिता ब्राह्मण हो गये। शेष नौ संन्यासी हो गये। वे बड़े ही भाग्यवान् थे। उन्होंने आत्मविद्या के सम्पादन में बड़ा परिश्रम किया था और वास्तव में वे उसमें बड़े निपुण थे। वे प्रायः दिगम्बर ही रहते थे और अधिकारियों को परमार्थ-वस्तु का उपदेश किया करते थे। उनके नाम थे- कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और कर-भाजन। वे इस कार्य-कारण और व्यक्त-अव्यक्त भगवद् रूप जगत् को अपने आत्मा से अभिन्न अनुभव करते हुए पृथ्वी पर स्वच्छन्द विचरण करते थे। उनके लिये कहीं भी रोक-टोक न थी। वे जहाँ चाहते, चले जाते। देवता, सिद्ध, साध्य-गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, किन्नर और नागों के लोकों में तथा मुनि, चारण, भूतनाथ, विद्याधर, ब्राह्मण और गौओं के स्थानों में वे स्वच्छन्द विचरते थे। वसुदेव जी! वे सब-के-सब जीवन्मुक्त थे।
एक बार की बात है, इस अजनाभ (भारत) वर्ष में विदेहराज महात्मा निमि बड़े-बड़े ऋषियों के द्वारा एक महान् यज्ञ करा रहे थे। पूर्वोक्त नौ योगीश्वर स्वच्छन्द विचरण करते हुए उनके यज्ञ में जा पहुँचे। वसुदेव जी! वे योगीश्वर भगवान के परम प्रेमी भक्त और सूर्य के समान तेजस्वी थे। उन्हें देखकर राजा निमि, आहवनीय आदि मुर्तिमान् अग्नि और ऋत्विज् आदि ब्राह्मण सब-के-सब उनके स्वागत में खड़े हो गये। विदेहराज निमि ने उन्हें भगवान के परम प्रेमी भक्त जानकार यथायोग्य आसनों पर बैठाया और प्रेम तथा आनन्द से भरकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वितीय अध्याय श्लोक 27-37 का हिन्दी अनुवाद)
वे नवों योगीश्वर अपने अंगों की कान्ति से इस प्रकार चमक रहे थे, मानो साक्षात् ब्रह्मा जी के पुत्र सनकादि मुनीश्वर ही हों। राजा निमि ने विनय से झुककर परम प्रेम के साथ उनसे प्रश्न किया।
विदेहराज निमि ने कहा ;- 'भगवन्! मैं ऐसा समझता हूँ कि आप लोग मधुसूदन भगवान के पार्षद ही हैं, क्योंकि भगवान के पार्षद संसारी प्राणियों को पवित्र करने के लिये विचरण किया करते हैं। जीवों के लिये मनुष्य-शरीर का प्राप्त होना दुर्लभ है। यदि यह प्राप्त भी हो जाता है तो प्रतिक्षण मृत्यु का भय सिर पर सवार रहता है, क्योंकि यह क्षणभंगुर है। इसीलिये अनिश्चित मनुष्य-जीवन में भगवान के प्यारे और उनको प्यार करने वाले भक्तजनों का, संतों का दर्शन तो और भी दुर्लभ है। इसिलए त्रिलोकपावन महात्माओं! हम आप लोगों से यह प्रश्न करते हैं कि परम कल्याण का स्वरूप क्या है? और उसका साधन क्या है? इस संसार में आधे क्षण का सत्संग भी मनुष्यों के लिये परम निधि है।
योगीश्वरो! यदि हम सुनने के अधिकारी हों तो आप कृपा करके भागवत-धर्मों का उपदेश कीजिये; क्योंकि उनसे जन्मादि विकार से रहित, एकरस भगवान श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और उन धर्मों का पालन करने वाले शरणागत भक्तों को अपने-आप तक का दान कर डालते हैं।'
देवर्षि नारद जी ने कहा ;- वसुदेव जी! जब राजा निमि ने उन भगवत्प्रेमी संतों से यह प्रश्न किया, तब उन लोगों ने बड़े प्रेम से उनका और उनके प्रश्न का सम्मान किया और सदस्य तथा ऋत्विजों के साथ बैठे हुए राजा निमि से बोले। पहले उन नौ योगीश्वरों में से कवि जी ने कहा- राजन्! भक्तजनों के हृदय से कभी दूर न होने वाले अच्युत भगवान के चरणों की नित्य-निरन्तर उपासना ही इस संसार में परम कल्याण-अत्यान्तिक क्षेम है और सर्वथा भयशून्य है, ऐसा मेरा निश्चित मत है। देह, गेह आदि तुच्छ एवं असत् पदार्थों में अहंता एवं ममता हो जाने के कारण जिन लोगों की चित्तवृत्ति उद्विग्न हो रही है, उनका भय भी इस उपासना का अनुष्ठान करने पर पूर्णतया निवृत्त हो जाता है। भगवान ने भोले-भाले अज्ञानी पुरुषों को भी सुगमता से साक्षात् अपनी प्राप्ति के लिये जो उपाय स्वयं श्रीमुख से बतलाये हैं, उन्हें ही ‘भागवत धर्म’ समझो।
राजन्! इन भागवत धर्मों का अवलम्बन करके मनुष्य कभी विघ्नों से पीड़ित नहीं होता और नेत्र बंद करके दौड़ने पर भी अर्थात् विधि-विधान में त्रुटि हो जाने पर भी न तो मार्ग से स्खलित ही होता है और न तो पतित-फल से वञ्चित ही होता है। (भागवत धर्म का पालन करने वाले के लिये यह नियम नहीं है कि वह एक विशेष प्रकार का कर्म ही करे।) वह शरीर से, वाणी से, मन से, इन्द्रियों से, बुद्धि से, अहंकार से, अनेक जन्मों अथवा एक जन्म की आदतों से स्वभाववश जो-जो करे, वह सब परम पुरुष भगवान नारायण के लिये ही है-इस भाव से उन्हें समर्पण कर दे। (यही सरल-से-सरल, सीधा-सा भागवत धर्म है)।
ईश्वर से विमुख पुरुष को उनकी माया से अपने स्वरूप की विस्मृति हो जाती है और इस विस्मृति से ही ‘मैं देवता हूँ, मैं मनुष्य हूँ,’ इस प्रकार का भ्रम-विपर्यय हो जाता है। इस देह आदि अन्य वस्तु में अभिनिवेश, तन्मयता होने के कारण ही बुढ़ापा, मृत्यु, रोग आदि अनेकों भय होते हैं। इसलिये अपने गुरु को ही आराध्यदेव परम प्रियतम मानकर अनन्य भक्ति के द्वारा उस ईश्वर का भजन करना चाहिये।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वितीय अध्याय श्लोक 38-44 का हिन्दी अनुवाद)
राजन्! सच पूछो तो भगवान के अतिरिक्त, आत्मा के अतिरिक्त और कोई वस्तु है ही नहीं। परन्तु न होने पर भी इसकी प्रतीति इसका चिन्तन करने वाले को उसके चिन्तन के कारण, उधर मन लगने के कारण ही होती है-जैसे स्वप्न के समय स्वप्नदृष्टा की कल्पना से अथवा जाग्रत् अवस्था में नाना प्रकार के मनोरथों से एक विलक्षण ही सृष्टि दीखने लगती है। इसलिये विचारवान् पुरुष को चाहिये कि सांसारिक कर्मों के सम्बन्ध में संकल्प-विकल्प करने वाले मन को रोक दे-कैद कर ले। बस, ऐसा करते ही उसे अभय पद की, परमात्मा की प्राप्ति हो जायेगी।
संसार में भगवान के जन्म की और लीला की बहुत-सी मंगलमयी कथाएँ प्रसिद्ध हैं। उनको सुनते रहना चाहिये। उन गुणों और लीलाओं का स्मरण दिलाने वाले भगवान के बहुत-से नाम भी प्रसिद्ध हैं। लाज-संकोच छोड़कर उनका गान करते रहना चाहिये। इस प्रकार किसी भी व्यक्ति, वस्तु और स्थान में आसक्ति न करके विचरण करते रहना चाहिये। जो इस प्रकार विशुद्ध व्रत-नियम ले लेता है, उसके हृदय में अपने परम प्रियतम प्रभु के नाम-कीर्तन से अनुराग का, प्रेम का अंकुर उग जाता है। उसका चित्त द्रवित हो जाता है। अब वह साधारण लोगों की धारणाओं से परे हो जाता है। दम्भ से नहीं, स्वभाव से ही मतवाला-सा होकर कभी खिलखिलाकर हँसने लगता है तो कभी फूट-फूटकर रोने लगता है। कभी ऊँचे स्वर से भगवान को पुकारने ने लगता है, तो कभी मधुर स्वर से उनके गुणों का गान करने लगता है। कभी-कभी जब वह अपने प्रियतम को अपने नेत्रों के सामने अनुभव करता है, तब उन्हें रिझाने के लिये नृत्य भी करने लगता है।
राजन्! यह आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, गृह-नक्षत्र, प्राणी, दिशाएँ, वृक्ष-वनस्पति, नदी, समुद्र-सब-के-सब भगवान के शरीर हैं। सभी रूपों में स्वयं भगवान प्रकट हैं। ऐसा समझकर वह जो कोई भी उसके सामने आ जाता है-चाहे वह प्राणी हो या अप्राणी-उसे अनन्यभाव से-भगवद्भाव से प्रणाम करता है। जैसे भोजन करने वाले को प्रत्येक ग्रास के साथ ही तुष्टि (तृप्ति अथवा सुख), पुष्टि (जीवन शक्ति का संचार) और क्षुधा-निवृत्ति-ये तीनों एक साथ होते जाते हैं; वैसे ही जो मनुष्य भगवान की शरण लेकर उनका भजन करने लगता है, उसे भजन के प्रत्येक क्षण में भगवान के प्रति प्रेम, अपने प्रेमास्पद प्रभु के स्वरूप का अनुभव और उनके अतिरिक्त अन्य वस्तुओं में वैराग्य-इन तीनों की एक साथ ही प्राप्ति होती जाती है। राजन्! इस प्रकार जो प्रतिक्षण एक-एक वृत्ति के द्वारा भगवान के चरणकमलों का ही भजन करता है, उसे भगवान के प्रति प्रेममयी भक्ति, संसार के प्रति वैराग्य और अपने प्रियतम भगवान के स्वरूप की स्फूर्ति-ये सब अवश्य ही प्राप्त होते हैं; वह भागवत हो जाता है और जब ये सब प्राप्त हो जाते हैं, तब वह स्वयं परमशान्ति का अनुभव करने लगता है।
राजा निमि ने पूछा ;- योगीश्वर! अब आप कृपा करके भगवद्भक्त का लक्षण वर्णन कीजिये। उसके क्या धर्म हैं? और कैसा स्वभाव होता है? वह मनुष्यों के साथ व्यवहार करते समय कैसा आचरण करता है? क्या बोलता है? और किन लक्षणों के कारण भगवान का प्यारा होता है।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वितीय अध्याय श्लोक 45-55 का हिन्दी अनुवाद)
अब नौ योगीश्वरों में से दूसरे से हरि जी बोले- राजन्! आत्मस्वरूप भगवान समस्त प्राणियों में आत्मारूप से-नियन्तारूप से स्थित हैं। जो कहीं भी न्यूनाधिकता न देखकर सर्वत्र परिपूर्ण भगवत्सत्ता को ही देखता है और साथ ही समस्त प्राणी और समस्त पदार्थ आत्मस्वरूप भगवान में ही आधेयरूप से अथवा अध्यस्त रूप से स्थित हैं, अर्थात् वास्तव में भगवत्स्वरूप ही हैं-इस प्रकार का जिसका अनुभव है, ऐसी जिसकी सिद्धदृष्टि है, उसे भगवान का परमप्रेमी उत्तम भागवत समझना चाहिये।
जो भगवान से प्रेम, उनके भक्तों से मित्रता, दुःखी और अज्ञानियों पर कृपा तथा भगवान से द्वेष करने वालों की उपेक्षा करता है, वह मध्यम कोटि का भागवत है। और जो भगवान के अर्चा-विग्रह-मूर्ति आदि की पूजा तो श्रद्धा से करता है, परन्तु भगवान के भक्तों या दूसरे लोगों की विशेष सेवा-शुश्रूषा नहीं करता, वह साधारण श्रेणी का भगवद्भक्त है। जो श्रोत-नेत्र आदि इन्द्रियों के द्वारा शब्द-रूप आदि विषयों का ग्रहण तो करता है; परन्तु अपनी इच्छा के प्रतिकूल विषयों से द्वेष नहीं करता और अनुकूल विषयों के मिलने पर हर्षित नहीं होता-उसकी यह दृष्टि बनी रहती है कि यह सब हमारे भगवान की माया है-वह पुरुष उत्तम भागवत है।
संसार के धर्म हैं-जन्म-मृत्यु, भूख-प्यास, श्रम-कष्ट, भय और तृष्णा। ये क्रमशः शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि को प्राप्त होते ही रहते हैं। जो पुरुष भगवान की स्मृति में इतना तन्मय रहता है कि इनके बार-बार होते-जाते रहने पर भी उनसे मोहित नहीं होता, पराभूत नहीं होता, वह उत्तम भागवत है। जिसके मन में विषय-भोग की इच्छा, कर्म-प्रवृत्ति आर उनके बीज वासनाओं का उदय नहीं होता और जो एकमात्र भगवान वासुदेव में ही निवास करता है, वह उत्तम भागाद्भाक्त है। जिनका इस शरीर में न तो सत्कुल में जन्म, तपस्या आदि कर्म से तथा न वर्ण, आश्रम एवं जाति से ही अहंभाव होता है, वह निश्चय ही भगवान का प्यारा है। जो धन-सम्पत्ति अथवा शरीर आदि में ‘यह अपना है और यह पराया’-इस प्रकार का भेद-भाव नहीं रखता, समस्त पदार्थों में समस्वरूप परमात्मा को देखता रहता है, समभाव रखता है तथा किसी भी घटना अथवा संकल्प से विक्षिप्त न होकर शान्त रहता है, वह भगवान का उत्तम भक्त है।
राजन्! बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि भी अपने अन्तःकरण को भगवन्मय बनाते हुए जिन्हें ढूँढ़ते रहते हैं-भगवान के ऐसे चरणकमलों से आधे क्षण, आधे पल के लिये भी जो नहीं हटता, निरन्तर उन चरणों की सन्निधि और सेवा में ही संलग्न रहता है; यहाँ तक कि कोई स्वयं उसे त्रिभुवन की राज्यलक्ष्मी दे तो भी वह भगवत्स्मृति का तार नहीं तोड़ता, उस राज्यलक्ष्मी की ओर ध्यान ही नहीं देता; वही पुरुष वास्तव में भगवद्भक्त वैष्णवों में अग्रगण्य है, सबसे श्रेष्ठ है। रासलीला के अवसर पर नृत्य-गति से भाँति-भाँति के पाद-विन्यास करने वाले निखिल सौन्दर्य-माधुर्य-निधि भगवान के चरणों के अंगुलि-नख की मणि-चन्द्रिका से जिन शरणागत भक्तजनों के हृदय का विरहजन्य संताप एक बार दूर हो चुका है, उनके हृदय में वह फिर कैसे आ सकता है, जैसे चन्द्रोदय होने पर सूर्य का ताप नहीं लग सकता। विवशता से नामोच्चारण करने पर भी सम्पूर्ण अघ-राशि को नष्ट कर देने वाले स्वयं भगवान श्रीहरि जिसके हृदय को क्षण भर के लिये भी नहीं छोड़ते हैं, क्योंकि उसने प्रेम की रस्सी से उनके चरण-कमलों को बाँध रखा है, वास्तव में ऐसा पुरुष ही भगवान के भक्तों में प्रधान है।
{एकादश स्कन्ध:}
【तृतीय अध्याय】३
"माया, माया से पार होने के उपाय तथा ब्रह्म और कर्मयोग का निरूपण"
(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: तृतीय अध्याय श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
राजा निमि ने पूछा ;- भगवन् सर्वशक्तिमान् परम कारण विष्णु भगवान की माया बड़े-बड़े मायावियों को भी मोहित कर देती है, उसे कोई पहचान नहीं पाता; (और आप कहते हैं कि भक्त उसे देखा करता है।) अतः अब मैं उस माया का स्वरूप जानना चाहता हूँ, आप लोग कृपा करके बतलाइये।
योगीश्वरो! मैं एक मृत्यु का शिकार मनुष्य हूँ। संसार के तरह-तरह के तापों ने मुझे बहुत दिनों से तपा रखा है। आप लोग जो भगवत्कथारूप अमृत का पान करा रहे हैं, वह उन तापों को मिटने की एकमात्र ओषधि है; इसलिए मैं आप लोगों की इस वाणी का सेवन करते-करते तृप्त नहीं होता। आप कृपया और कहिये।
अब तीसरे योगीश्वर अन्तरिक्ष जी ने कहा- राजन्! (भगवान की माया स्वरूपतः अनिर्वचीय है, इसलिये उसके कार्यों के द्वारा ही उसका निरूपण होता है।) आदि-पुरुष परमात्मा जिस शक्ति से सम्पूर्ण भूतों के कारण बनते हैं और उनके विषय-भोग तथा मोक्ष की सिद्धि के लिये अथवा अपने उपासकों की उत्कृष्ट सिद्धि के लिये स्वनिर्मित पंचभूतों के द्वारा नाना प्रकार के देव, मनुष्य आदि शरीरों की सृष्टि करते हैं, उसी को माया कहते हैं। इस प्रकार पंचमहाभूतों के द्वारा बने हुए प्राणि-शरीरों में उन्होंने अन्तर्यामी रूप से प्रवेश किया और अपने को ही पहले मन के रूप में और इसके बाद पाँच ज्ञानेन्द्रिय तथा पाँच कर्मेन्द्रिय-इन दस रूपों में विभक्त कर दिया तथा उन्हीं के द्वारा विषयों का भोग कराने लगे। वह देहाभिमानी जीव अन्तर्यामी के द्वारा प्रकाशित इन्द्रियों के द्वारा विषयों का भोग करता है और इस पंचभूतों के द्वारा निर्मित शरीर को आत्मा-अपना स्वरूप मानकर उसी में आसक्त हो जाता है। (यह भगवान की माया है)।
अब वह कर्मेन्द्रियों से सकाम कर्म करता है और उनके अनुसार शुभ कर्म का फल सुख और अशुभ कर्म का फल दुःख भोग करने लगता है और शरीरधारी होकर इस संसार में भटकने लगता है। यह भगवान की माया है। इस प्रकार यह जीव ऐसी अनेक अमंगलमय कर्मगतियों को, उसने फलों को प्राप्त होता है और महाभूतों के प्रलयपर्यन्त विवश होकर जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म को प्राप्त होता रहता है-यह भगवान की माया है। जब पंचभूतों के प्रलय का समय आता है, तब अनादि और अनन्त काल स्थूल तथा सूक्ष्म द्रव्य एवं गुणरूप इस समस्त व्यक्त सृष्टि को अव्यक्त की ओर, उसके मूल कारण की ओर खींचता है-यह भगवान की माया है। उस समय पृथ्वी पर लगातार सौ वर्ष तक भयंकर सूखा पड़ता है, वर्षा बिलकुल नहीं होती; प्रलयकाल की शक्ति से सूर्य की उष्णता और भी बढ़ जाती है तथा वे तीनों लोकों को तपाने लगते हैं-यह भगवान की माया है। उस समय शेषनाग (संकर्षण) के मुँह से आग की प्रचण्ड लपटें निकलती हैं और वायु की प्रेरणा से वे लपटें पाताल लोक से जलाना आरम्भ करती हैं तथा और भी ऊँची-ऊँची होकर चारों ओर फैल जाती हैं-यह भगवान की माया है। इसके बाद प्रलयकालीन सांवर्तक मेघगण हाथी की सूंड़ के समान मोटी-मोटी धाराओं से सौ वर्ष तक बरसता रहता है। उससे यह विराट् ब्रह्माण्ड जल में डूब जाता है-यह भगवान की माया है।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: तृतीय अध्याय श्लोक 12-20 का हिन्दी अनुवाद)
राजन्! उस समय जैसे बिना ईधन के आग बुझ जाती है, वैसे ही विराट् पुरुष ब्रह्मा अपने ब्रह्माण्ड-शरीर को छोड़कर सूक्ष् मस्वरूप अव्यक्त में लीन हो जाते हैं-यह भगवान की माया है। वायु पृथ्वी की गन्ध खींच लेती है, जिससे वह जल के रूप में हो जाती है और जब वही वायु जल के रस को खींच लेती है, तब वह जल अपना कारण अग्नि बन जाता है-यह भगवान की माया है। जब अन्धकार अग्नि का रूप छीन लेता है, तब वह अग्नि वायु में लीन हो जाती है और जब अवकाशरूप आकाश वायु की स्पर्श-शक्ति छीन लेता है, तब वह आकाश में लीन हो जाता है-यह भगवान की माया है।
राजन्! तदनन्तर कालरूप ईश्वर आकाश के शब्द गुण को हरण कर लेता है, जिससे वह तामस अहंकार में लीन हो जाता है। इन्द्रियाँ और बुद्धि राजस अहंकार में लीन होती हैं। मन सात्त्विक अहंकार से उत्पन्न देवताओं के साथ सात्त्विक अहंकार में प्रवेश कर जाता है तथा अपने तीन प्रकार के कार्यों के साथ अहंकार महत्तत्त्व में लीन हो जाता है। महत्तत्त्व प्रकृति में और प्रकृति ब्रह्म में लीन होती है। फिर इसी के उलटे क्रम से सृष्टि होती है-यह भगवान की माया है। यह सृष्टि, स्थिति और संहार करने वाली त्रिगुणमयी माया है। इसका हमने आपसे वर्णन किया। अब आप और क्या सुनना चाहते हैं?
राजा निमि ने पूछा ;- 'महर्षि जी! इस भगवान की माया को पार करना उन लोगों के लिये तो बहुत ही कठिन है, जो अपने मन को वश में नहीं कर पाये हैं। अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि जो लोग शरीर आदि में आत्मबुद्धि रखते हैं तथा जिनकी समझ मोटी है, वे भी अनायास ही इसे कैसे पार सकते हैं?'
अब चौथे योगीश्वर प्रबुद्ध जी बोले ;- राजन्! स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध आदि बन्धनों में बँधे हुए संसारी मनुष्य सुख की प्राप्ति और दुःख की निवृत्ति के लिये बड़े-बड़े कर्म करते रहते हैं। जो पुरुष माया के पार जाना चाहता है, उसको विचार करना चाहिये कि उनके कर्मों का फल किस प्रकार विपरीत होता जाता है। वे सुख के बदले दुःख पाते हैं और दुख-निवृत्ति के स्थान पर दिनोंदिन दुःख बढ़ता ही जाता है। एक धन को ही लो। इससे दिन-पर-दिन दुःख बढ़ता ही है, इसको पाना भी कठिन है और यदि किसी प्रकार मिल भी जाये तो आत्मा के लिये तो यह मृत्युस्वरूप ही है। जो इसकी उलझनों में पड़ जाता है, वह अपने-आपको भूल जाता है। इसी प्रकार घर, पुत्र, स्वजन-सम्बन्धी, पशुधन आदि भी अनित्य और नाशवान् ही हैं; यदि कोई इन्हें जुटा भी ले तो इनसे क्या सुख-शान्ति मिल सकती है? इसी प्रकार जो मनुष्य माया से पार जाना चाहता है, उसे यह भी समझ लेना चाहिये कि मरने के बाद प्राप्त होने वाले लोक-परलोक भी ऐसे ही नाशवान् हैं। क्योंकि इस लोग की वस्तुओं के समान वे भी कुछ सीमित कर्मों के सीमित फलमात्र हैं। वहाँ भी पृथ्वी के छोटे-छोटे राजाओं के समान बराबर वालों से होड़ अथवा लाग-डांट रहती है, अधिक ऐश्वर्य और सुख वालों के प्रति छिद्रान्वेषण तथा ईर्ष्या-द्वेष का भाव रहता है, कम सुख और ऐश्वर्य वालों के प्रति घृणा रहती है एवं कर्मों का फल पूरा हो जाने पर वहाँ से पतन तो होता ही है। उसका नाश निश्चित है। नाश का भय वहाँ भी नहीं छूट पाता।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: तृतीय अध्याय श्लोक 21-31 का हिन्दी अनुवाद)
इसलिये जो परम कल्याण का जिज्ञासु हो, उसे गुरुदेव की शरण लेनी चाहिये। गुरुदेव ऐसे हों, जो शब्दब्रह्म-वेदों के पारदर्शी विद्वान् हों, जिससे वे ठीक-ठीक समझा सकें; और साथ ही परब्रह्म में परिनिष्ठित तत्त्वज्ञानी भी हों, ताकि अपने अनुभव के द्वारा प्राप्त हुई रहस्य की बातों को बता सकें। उनका चित्त शान्त हो, व्यवहार के प्रपंच में विशेष प्रवृत्त न हो।
जिज्ञासु को चाहिये कि गुरु को ही अपना परम प्रियतम आत्मा और इष्टदेव माने। उनकी निष्कपट भाव से सेवा करे और उनके पास रहकर भागवत धर्म की-भगवान को प्राप्त कराने वाले भक्ति-भाव के साधनों की क्रियात्मक शिक्षा ग्रहण करे। इन्हीं साधनों से सर्वात्मा एवं भक्त को अपने आत्मा का दान करने वाले भगवान प्रसन्न होते हैं। पहले शरीर, सन्तान आदि में मन की आसक्ति सीखें। फिर भगवान के भक्तों से प्रेम कैसा करना चाहिये-यह सीखे। इसके पश्चात् प्राणियों के प्रति यथा योग्य दया, मैत्री और विनय की निष्कपट भाव से शिक्षा ग्रहण करें।
मिट्टी, जल आदि से बाह्य शरीर की पवित्रता, छल-कपट आदि के त्याग से भीतर की पवित्रता, अपने धर्म का अनुष्ठान, सहनशक्ति, मौन, स्वाध्याय, सरलता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा तथा शीत-उष्ण, सुख-दुःख आदि द्वंदों में हर्ष विषाद से रहित होना सीखे। सर्वत्र अर्थात् समस्त देश, काल और वस्तुओं में चेतन रूप से आत्मा और नियन्ता रूप से ईश्वर को देखना, एकान्त सेवन, ‘यही मेरा घर है’-ऐसा भाव न रखना, गृहस्थ हो तो पवित्र वस्त्र पहनना और त्यागी हो तो फटे-पुराने चिथड़े, जो कुछ प्रारब्ध के अनुसार मिल जाये, उसी में सन्तोष करना सीखे। भगवान की प्राप्ति का मार्ग बतलाने वाले शास्त्रों में श्रद्धा और दूसरे किसी भी शास्त्र की निन्दा न करना, प्राणायाम के द्वारा मन का, मौन के द्वारा वाणी का और वासनाहीनता के अभ्यास से कर्मों का संयम करना, सत्य बोलना, इन्द्रियों को अपने-अपने गोलकों में स्थिर रखना और मन को कहीं बाहर न जाने देना सीखे।
राजन्! भगवान की लीलाएँ अद्भुत हैं। उनके जन्म, कर्म और गुण दिव्य हैं। उन्हीं का श्रवण, कीर्तन और ध्यान करना तथा शरीर से जितनी भी चेष्टाएँ हों, सब भगवान के लिये करना सीखे। यज्ञ, दान, तप अथवा जप, सदाचार का पालन और स्त्री, पुत्र, घर, अपना जीवन, प्राण तथा जो कुछ अपने को प्रिय लगता हो-सब-का-सब भगवान के चरणों में निवेदन करना उन्हें सौंप देना सीखे। जिन संत पुरुषों ने सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण का अपने आत्मा और स्वामी के रूप में साक्षात्कार कर लिया हो, उनसे प्रेम और स्थावर, जंगम दोनों प्रकार के प्राणियों की सेवा; विशेष करके मनुष्यों की, मनुष्यों में भी परोपकारी सज्जनों की और उनमें भी भगवत्प्रेमी संतों की करना सीखे।
भगवान के परम पावन यश के सम्बन्ध में ही एक-दूसरे से बातचीत करना और इस प्रकार के साधकों का इकट्ठे होकर आपस में प्रेम करना, आपस में सन्तुष्ट रहना और प्रपंच से निवृत्त होकर आपस में ही आध्यात्मिक शान्ति का अनुभव करना सीखे। राजन्! श्रीकृष्ण राशि-राशि पापों को एक क्षण में भस्म कर देते हैं। सब उन्हीं का स्मरण करें और एक-दूसरे को स्मरण करावें। इस साधन-भक्ति का अनुष्ठान करते-करते प्रेम-भक्ति का उदय हो जाता है और वे प्रेमोद्रेक से पुलकित-शरीर धारण करते हैं।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: तृतीय अध्याय श्लोक 32-36 का हिन्दी अनुवाद)
उनके हृदय की बड़ी विलक्षण स्थिति होती है। कभी-कभी वे इस प्रकार चिन्ता करने लगते हैं कि अब तक भगवान नहीं मिले, क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, किसे पूछूँ, कौन मुझे उनकी प्राप्ति करावे? इस तरह सोचते-सोचते वे रोने लगते हैं तो कभी भगवान की लीला की स्फूर्ति हो जाने से ऐसा देखकर कि परमैश्वर्यशाली भगवान गोपियों के डर से छिपे हुए हैं, खिलखिलाकर हँसने लगते हैं। कभी-कभी उनके प्रेम और दर्शन की अनुभूति से आनन्दमग्न हो जाते हैं तो कभी लोकातीत भाव में स्थित होकर भगवान के साथ बातचीत करने लगते हैं। कभी मानो उन्हें सुना रहे हों, इस प्रकार उनके गुणों का गान छेड़ देते हैं और कभी नाच-नाचकर उन्हें रिझाने लगते हैं। कभी-कभी उन्हें अपने पास न पाकर इधर-उधर ढूँढने लगते हैं तो कभी-कभी उनसे एक होकर, उसकी सन्निधि में स्थित होकर परम शान्ति का अनुभव करते और चुप हो जाते हैं।
राजन्! जो इस प्रकार भागवत धर्मों की शिक्षा ग्रहण करता है, उसे उनके द्वारा प्रेम-भक्ति की प्राप्ति हो जाती है और वह भगवान नारायण के परायण होकर उस माया को अनायास ही पार कर जाता है, जिसके पंजे से निकलना बहुत ही कठिन है।
राजा निमि ने पूछा ;- 'महर्षियो! आप लोग परमात्मा का वास्तविक स्वरूप जानने वालों में सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिए मुझे यह बतलाइये कि जिस परब्रह्म परमात्मा का ‘नारायण’ नाम से वर्णन किया जाता है, उनका स्वरूप क्या है?'
अब पाँचवे योगीश्वर पिप्पलायन जी ने कहा ;- राजन्! जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का निमित्त कारण और उपादान-कारण दोनों ही है, बनने वाला भी है और बनाने वला भी-परन्तु स्वयं कारणरहित है; जो स्वप्न, जाग्रत् और सुषुप्ति अवस्थाओं में उनके साक्षी के रूप में विद्यामान रहता है और उनके अतिरिक्त समाधि में भी ज्यों-का-त्यों एकरस रहता है; जिसकी सत्ता से ही सत्तावान् होकर शरीर, इन्द्रिय, प्राण और अन्तःकरण अपना-अपना काम करने में समर्थ होते हैं, उसी परम सत्य वस्तु को आप ‘नारायण’ समझिये। जैसे चिनगारियाँ न तो अग्नि को प्रकाशित ही कर सकती हैं और न जला ही सकती हैं, वैसे ही उस परमतत्त्व में-आत्मस्वरूप में न तो मन की गति है और न वाणी की, नेत्र उसे देख नहीं सकते और बुद्धि सोच नहीं सकती, प्राण और इन्द्रियाँ तो उसके पास तक नहीं फटक पातीं। ‘नेति-नेति’-इत्यादि श्रुतियों के शब्द भी वह यह है-इस रूप में उसका वर्णन नहीं करते, बल्कि उसको बोध कराने वाले जितने भी साधन हैं, उनका निषेध करके तात्पर्यरूप से अपना मूल-निषेध का मूल लक्षित करा देते हैं; क्योंकि यदि निषेध के आधार की, आत्मा की सत्ता न हो तो निषेध कौन कर रहा है, निषेध की वृत्ति किसमें है-इन प्रश्नों का कोई उत्तर ही न रहे, निषेध की ही सिद्धि न हो।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: तृतीय अध्याय श्लोक 37-42 का हिन्दी अनुवाद)
जब सृष्टि नहीं थी, तब केवल एक वही था। सृष्टि का निरूपण करने के लिये उसी को त्रिगुण (सत्त्व-रज-तम) मयी प्रकृति कहकर वर्णन किया गया। फिर उसी को ज्ञान प्रधान होने से महत्तत्त्व, क्रिया प्रधान होने से सूत्रात्मा और जीव की उपाधि होने से अहंकार के रूप में वर्णन किया गया। वास्तव में जितनी भी शक्तियाँ हैं-चाहे वे इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवताओं के रूप में हों, चाहे इन्द्रियों के, उनके विषयों के अथवा विषयों के प्रकाश के रूप में हों-सब-का-सब वह ब्रह्म ही है; क्योंकि ब्रह्म की शक्ति अनन्त है। कहाँ तक कहूँ? जो कुछ दृश्य-अदृश्य, कार्य-कारण, सत्य और असत्य है-सब कुछ ब्रह्म है। इनसे परे जो कुछ है, वह भी ब्रह्म ही है। वह ब्रह्मस्वरूप आत्मा न तो कभी जन्म लेता है और न मरता है। वह न तो बढ़ता है और न घटता ही है। जितने भी पर्तिवर्तनशील पदार्थ हैं-चाहे वे क्रिया, संकल्प और उनके अभाव के रूप में ही क्यों न हों-सब की भूत, भविष्यत् और वर्तमान सत्ता का वह साक्षी है। सब में है। देश, काल और वस्तु से अपरिच्छिन्न है, अविनाशी है। वह उपलब्धि करने वाला अथवा उपलब्धि का विषय नहीं है। केवल उपलब्धिस्वरूप-ज्ञानस्वरूप है। जैसे प्राण तो एक ही रहता है, परन्तु स्थान भेद से उसके अनेक नाम हो जाते हैं-वैसे ही ज्ञान एक होने पर भी इन्द्रियों के सहयोग से उसमें अनेकता की कल्पना हो जाती है।
जगत् में चार प्रकार के जीव होते हैं- अंडा फोड़कर पैदा होने वाले पक्षी-साँप आदि, नाल में बँधे पैदा होने वाले पशु-मनुष्य, धरती फोड़कर निकलने वाले वृक्ष-वनस्पति और पसीने से उत्पन्न होने वाले खटमल आदि। इन सभी जीव-शरीर में प्राणशक्ति जीव के पीछे लगी रहती है। शरीरों के भिन्न-भिन्न होने पर भी प्राण एक ही रहता है। सुषुप्ति-अवस्था में जब इन्द्रियाँ निश्चेष्ट हो जाती हैं, अहंकार भी सो जाता है-लीन हो जाता है, अर्थात् लिंग शरीर नहीं रहता, उस समय यदि कूटस्थ आत्मा भी न हो तो इस बात की पीछे से स्मृति ही कैसे हो कि मैं सुख से सोया था। पीछे होने वाली यह स्मृति ही उस समय आत्मा के अस्तित्व को प्रमाणित करती है।
जब भगवान कमलनाभ के चरणकमलों को प्राप्त करने की इच्छा से तीव्र भक्ति की जाती है, तब वह भक्ति ही अग्नि की भाँति गुण और कर्मों से उत्पन्न हुए चित्त के सारे मलों को जला डालती है। जब चित्त शुद्ध हो जाता है, तब आत्मतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है-जैसे नेत्रों के निर्विकार हो जाने पर सूर्य के प्रकाश की प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगती है।
राजा निमि ने पूछा ;- 'योगीश्वरो! अब आप लोग हमें कर्मयोग का उपदेश कीजिये, जिसके द्वारा शुद्ध होकर मनुष्य शीघ्रातिशीघ्र परम नैष्कर्म्य अर्थात् कर्तृत्व, कर्म और कर्मफल की निवृत्ति करने वाला ज्ञान प्राप्त करता है। एक बार यही प्रश्न मैंने अपने पिता महाराज इक्ष्वाकु के सामने ब्रह्मा जी के मानस पुत्र सनकादि ऋषियों से पूछा था, परन्तु उन्होंने सर्वज्ञ होने पर भी मेरे प्रश्न का उत्तर न दिया। इसका क्या कारण था? कृपा करके मुझे बतलाइये।'
(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: तृतीय अध्याय श्लोक 43-53 का हिन्दी अनुवाद)
अब छठे योगीश्वर आविर्होत्र जी ने कहा ;- राजन्! कर्म (शास्त्रविहित), अकर्म (निषिद्ध) और विकर्म (विहित का उल्लंघन) ये तीनों एकमात्र वेद के द्वारा जाने जाते हैं, इनकी व्यवस्था लौकिक रीति से नहीं होती। वेद अपौरुषेय हैं-ईश्वररूप हैं; इसलिए उनके तात्पर्य का निश्चय करना बहुत कठिन है। इसी से बड़े-बड़े विद्वान भी उनके अभिप्राय का निर्णय करने में भूल कर बैठते हैं। (इसी से तुम्हरे बचपन की ओर देखकर-तुम्हें अनधिकारी समझकर सनकादि ऋषियों ने तुम्हारे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया)। यह वेद परोक्षवादात्मक है। यह कर्मों की निवृत्ति के लिये कर्म का विधान करता है, जैसे बालक को मिठाई आदि का लालच देकर औषध खिलाते हैं, वैसे ही यह अनभिज्ञों को स्वर्ग आदि का प्रलोभन देकर श्रेष्ठ कर्म में प्रवृत्त करता है।
जिसका अज्ञान निवृत्त नहीं हुआ है, जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, वह यदि मनमाने ढंग से वेदोक्त कर्मों का परित्याग कर देता है, तो वह विहित कर्मों का आचरण न करने के कारण विकर्मरूप अधर्म ही करता है। इसलिये वह मृत्यु के बाद फिर मृत्यु को प्राप्त होता है। इसलिये फल की अभिलाषा छोड़कर और विश्वात्मा भगवान को समर्पित कर जो वेदोक्त कर्म का ही अनुष्ठान करता है, उसे कर्मों की निवृत्ति से प्राप्त होने वाली ज्ञानरूप सिद्धि मिल जाती है। जो वेदों में स्वर्गादिरूप फल का वर्णन है, उसका तात्पर्य फल की सत्यता में नहीं है, वह तो कर्मों में रुचि उत्पन्न कराने के लिये है।
राजन्! जो पुरुष चाहता है कि शीघ्र-से शीघ्र मेरे ब्रह्मस्वरूप आत्मा की हृदय-ग्रन्थि-मैं और मेरे की कल्पित गाँठ खुल जाये, उसे चाहिये कि वह वैदिक और तान्त्रिक दोनों ही पद्धतियों से भगवान की आराधना करे। पहले सेवा आदि के द्वारा गुरुदेव की दीक्षा प्राप्त करे, फिर उनके द्वारा अनुष्ठान की विधि सीखे; अपने को भगवान की जो मूर्ति प्रिय लगे, अभीष्ट जान पड़े, उसी के द्वरा पुरुषोत्तम भगवान की पूजा करे। पहले स्नानादि से शरीर और सन्तोष आदि से अन्तः-करण को शुद्ध करे, इसके बाद भगवान की मूर्ति के सामने बैठकर प्राणायाम आदि के द्वारा भूतशुद्धि-नाड़ी-शोधन करे, तत्पश्चात् विधिपूर्वक मन्त्र, देवता आदि के न्यास से अंगरक्षा करके भगवान की पूजा करे। पहले पुष्प आदि पदार्थों का जन्तु आदि निकालकर, पृथ्वी को सम्मार्जन आदि से, अपने को अव्यग्र होकर और भगवान की मूर्ति को पहले ही की पूजा के लगे हुए पदार्थों के क्षालन आदि से पूजा के योग्य बनाकर फिर आसन पर मन्त्रोच्चारणपूर्वक जल छिड़कर पाद्य, अर्ध्य आदि पात्रों को स्थापित करे। तदनन्तर एकाग्रचित्त होकर हृदय में भगवान का ध्यान करके फिर उसे सामने की श्रीमूर्ति में चिन्तन करे। तदनन्तर हृदय, सिर, शिखा (हृदयाय नमः, शिर से स्वाहा) इत्यादि मन्त्रों से न्यास करे और अपने इष्टदेव के मूलमन्त्र के द्वारा देश, काल आदि के अनुकूल प्राप्त पूजा-सामग्री से प्रतिमा आदि में अथवा हृदय में भगवान की पूजा करे।
अपने-अपने उपास्यदेव के विग्रह की हृदयादि अंग, आयुधादि उपांग और पार्षदों सहित उसके मूलमन्त्र द्वारा पाद्य, अर्घ्य, आचमन, मधुपर्क, स्नान, वस्त्र, आभूषण, गन्ध, पुष्प, दधि-अक्षत के तिलक, माला, धूप, दीप और नैवेद्य आदि से विधिवत् पूजा करे तथा फिर स्तोत्रों द्वारा स्तुति करके सपरिवार भगवान श्रीहरि को नमस्कार करे।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: तृतीय अध्याय श्लोक 54-55 का हिन्दी अनुवाद)
अपने-आपको भगवन्य ध्यान करते हुए ही भगवान की मूर्ति का पूजन करना चाहिये। निर्माल्य को अपने सिर पर रखे और आदर के साथ भगवद्विग्रह को यथास्थान स्थापित कर पूजा समाप्त करनी चाहिये।
इस प्रकार जो पुरुष अग्नि, सूर्य, जल, अतिथि और अपने हृदय में आत्मरूप श्रीहरि की पूजा करता है, वह शीघ्र ही मुक्त हो जाता है।
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