सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( एकादश स्कन्धः ) का ग्यारहवाँ, बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँ व पन्द्रहवाँ अध्याय [ Eleventh, twelfth, thirteenth, fourteenth and fifteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Eleventh wing) ]

 


                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【ग्यारहवाँ अध्याय】११

                  "बद्ध, मुक्त और भक्जनों के लक्षण"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकादश अध्याय श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- 'प्यारे उद्धव! आत्मा बद्ध है या मुक्त है, इस प्रकार की व्याख्या या व्यवहार मेरे अधीन रहने वाले सत्त्वादि गुणों की उपाधि से ही होता है। वस्तुतः-तत्त्वदृष्टि से नहीं। सभी गुण माया-मूलक हैं-इन्द्रजाल हैं-जादू के खेल के समान हैं। इसलिये न मेरा मोक्ष है, न तो मेरा बन्धन ही है। जैसे स्वप्न बुद्धि का विवर्त है-उसमें बिना हुए ही भासता है-मिथ्या है, वैसे ही शोक-मोह, सुख-दुःख, शरीर की उत्पत्ति और मृत्यु-यह सब संसार का बखेड़ा माया (अविद्या) के कारण प्रतीत होने पर भी वास्तविक नहीं है।

उद्धव! शरीरधारियों को मुक्ति का अनुभव कराने वाली आत्मविद्या और बन्धन का अनुभव कराने वाली अविद्या-ये दोनों ही मेरी अनादि शक्तियाँ हैं। मेरी माया से ही इनकी रचना हुई है। इनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है। भाई! तुम तो स्वयं बड़े बुद्धिमान हो, विचार करो-जीव तो एक ही है। यह व्यवहार के लिये ही मेरे अंश के रूप में कल्पित हुआ है, वस्तुतः मेरा स्वरूप ही है। आत्मज्ञान से सम्पन्न होने पर उसे मुक्त कहते हैं और आत्मा का ज्ञान न होने से बद्ध और यह अज्ञान अनादि होने से बन्धन भी अनादि कहलाता है। इस प्रकार मुझ एक ही धर्मीं में रहने पर भी जो शोक और आनन्दरूप विरुद्ध धर्म वाले जान पड़ते हैं, उन बद्ध और मुक्त जीव का भेद मैं बतलाता हूँ। (वह भेद दो प्रकार का है-एक तो नित्यमुक्त ईश्वर से जीव का भेद, और दूसरा मुक्त-बद्ध जीव का भेद। पहला सुनो)-जीव और ईश्वर बद्ध और मुक्त के भेद से भिन्न-भिन्न होने पर भी एक ही शरीर में नियन्ता और नियन्त्रित के रूप से स्थित हैं।

ऐसा समझो कि शरीर एक वृक्ष है, इसमें हृदय का घोंसला बनाकर जीव और ईश्वर नाम के दो पक्षी रहते हैं। वे दोनों चेतन होने के कारण समान हैं और कभी न बिछुड़ने के कारण सखा हैं। इनके निवास करने का कारण केवल लीला ही है। इतनी समानता होने पर भी जीव तो शरीररूप वृक्ष के फल सुख-दुःख आदि भोगता है, परन्तु ईश्वर उन्हें न भोगकर कर्मफल सुख-दुःख आदि से असंग और उनका साक्षीमात्र रहता है। अभोक्ता होने पर भी ईश्वर की यह विलक्षणता है कि वह ज्ञान, ऐश्वर्य, आनन्द और सामर्थ्य आदि में भोक्ता जीव से बढ़कर है। साथ ही एक यह भी विलक्षणता है कि अभोक्ता ईश्वर तो अपने वास्तविक स्वरूप और इसके अतिरिक्त जगत् को भी जानता है, परन्तु भोक्ता जीव न अपने वास्तविक रूप को जानता है और न अपने से अतिरिक्त को। इन दोनों में जीव तो अविद्या से युक्त होने के कारण नित्य बद्ध है और ईश्वर विद्यास्वरूप होने होने के कारण नित्य मुक्त है।

प्यारे उद्धव! ज्ञान सम्पन्न पुरुष भी मुक्त ही है; जैसे स्वप्न टूट जाने पर जगा हुआ पुरुष स्वप्न के स्मर्यमाण शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं रखता, वैसे ही ज्ञानी पुरुष सूक्ष्म और स्थूल-शरीर में रहने पर भी उनसे किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखता, परन्तु अज्ञानी पुरुष वास्तव में शरीर से कोई सम्बन्ध न रखने पर भी अज्ञान के कारण शरीर में ही स्थित रहता है, जैसे स्वप्न देखने वाला पुरुष स्वप्न देखते समय स्वाप्निक शरीर से बँध जाता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकादश अध्याय श्लोक 9-20 का हिन्दी अनुवाद)

व्यवहारादि में इन्द्रियाँ शब्द-स्पर्शादि विषयों को ग्रहण करती हैं; क्योंकि यह तो नियम ही है कि गुण ही गुण को ग्रहण करते हैं, आत्मा नहीं। इसलिए जिसने अपने निर्विकार आत्मस्वरूप को समझ लिया है, वह उन विषयों के ग्रहण-त्याग में किसी प्रकार का अभिमान नहीं करता। यह शरीर प्रारब्ध के अधीन है। इससे शारीरिक और मानसिक जितने भी कर्म होते हैं, सब गुणों की प्रेरणा से ही होते हैं। अज्ञानी पुरुष झूठमूठ अपने को उन ग्रहण-त्याग आदि कर्मों का कर्ता मान बैठता है और इसी अभिमान के कारण वह बँध जाता है।

प्यारे उद्धव! पूर्वोक्त पद्धति से विचार करके विवेकी पुरुष समस्त विषयों से विरक्त रहता है और सोने-बैठने घूमने-फिरने, नहाने, देखने, छूने, सूँघने, खाने और सुनने आदि क्रियाओं में अपने को कर्ता नहीं मानता, बल्कि गुणों का ही कर्ता मानता है। गुण ही सभी कर्मों के कर्ता-भोक्ता हैं-ऐसा जानकार विद्वान् पुरुष कर्मवासना और फलों से नहीं बँधते। वे प्रकृति में रहकर भी वैसे ही असंग रहते हैं, जैसे स्पर्श आदि से आकाश, जल की आर्द्रता आदि से सूर्य और गन्ध आदि से वायु। उनकी विमान बुद्धि की तलवार असंग-भावना की सान से और भी तीखी हो जाती है, और वे उससे अपने सारे, संशय-सन्देहों को काट-कूटकर फ़ेंक देते हैं। जैसे कोई स्वप्न से जाग उठा हो, उसी प्रकार वे इस भेदबुद्धि के भ्रम से मुक्त हो जाते हैं। जिनके प्राण इन्द्रिय, मन और बुद्धि की समस्त चेष्टाएँ बिना संकल्प के होती हैं, वे देह में स्थित रहकर भी उसके गुणों से मुक्त हैं। उन तत्त्वज्ञमुक्त पुरुषों के शरीर को चाहे हिंसक लोग पीड़ा पहुँचायें और चाहे कभी कोई दैवयोग से पूजा करने लगे-वे न तो किसी के सताने से दुःखी होते हैं और न पूजा करने से सुखी। जो समदर्शी महात्मा गुण और दोष की भेददृष्टि से ऊपर उठ गये हैं, वे न तो अच्छे काम करने वालों की स्तुति करते हैं और न बुरे काम करने वाले की निन्दा; न तो किसी की अच्छी बात सुनकर उसकी सराहना करते हैं और न बुरी बात सुनकर किसी को झिड़कते ही हैं। जीवन्मुक्त पुरुष न तो कुछ भला या बुरा काम करते हैं, न कुछ भला या बुरा कहते हैं और न सोचते ही हैं। वे व्यवहार में अपनी समान वृत्ति रखकर आत्मानन्द में ही मग्न रहते हैं और जड़ के समान मानो कोई मूर्ख हो इस प्रकार विचरण करते रहते हैं।

प्यारे उद्धव! जो पुरुष वेदों का तो पारगामी विद्वान हो, परन्तु परब्रह्म के ज्ञान से शून्य हो, उसके परिश्रम का कोई फल नहीं है, वह तो वैसा ही है, जैसे बिना दूध की गाय का पालने वाला। दूध न देने वाली गाय, व्यभिचारिणी स्त्री, पराधीन शरीर, दुष्ट पुत्र, सत्पात्र के प्राप्त होने पर भी दान न किया हुआ धन और मेरे गुणों से रहित वाणी व्यर्थ है। इन वस्तुओं कि रखवाली करने वाला दुःख-पर-दुःख ही भोगता रहता है। इसलिये उद्धव! जिस वाणी में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयरूप मेरी लोक-पावन लीला का वर्णन न हो और लीलावतारों में भी मेरे लोकप्रिय राम-कृष्णादि अवतारों का जिसमें यशोगान न हो, वह वाणी वन्ध्या है। बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि ऐसी वाणी का उच्चारण एवं श्रवण न करे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकादश अध्याय श्लोक 21-31 का हिन्दी अनुवाद)

प्रिय उद्धव! जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है, आत्मजिज्ञासा और विचार के द्वारा आत्मा में जो अनेकता का भ्रम है, उसे दूर कर दे और मुझ सर्वव्यापी परमात्मा में अपना निर्मल मन लगा दे तथा संसार के व्यवहारों से उपराम हो जाये। यदि तुम अपना मन परब्रह्म में स्थिर न कर सको तो सारे कर्म निरपेक्ष होकर मेरे लिये ही करो। मेरी कथाएँ समस्त लोकों को पवित्र करने वाली एवं कल्याणस्वरूपिणी हैं। श्रद्धा के साथ उन्हें सुनना चाहिये। बार-बार मेरे अवतार और लीलाओं का गान, स्मरण और अभिनय करना चाहिये। मेरे आश्रित रहकर मेरे ही लिये धर्म, काम और अर्थ का सेवन करना चाहिये। प्रिय उद्धव! जो ऐसा करता है, उसे मुझ अविनाशी पुरुष के प्रति अनन्य प्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाती है।

भक्ति की प्राप्ति सत्संग से होती है; जिसे भक्ति प्राप्त हो जाती है, वह मेरी उपासना करता है, मेरे सान्निध्य का अनुभव करता है। इस प्रकार जब उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, तब वह संतों के उपदेशों के अनुसार उनके द्वारा बताये हुए मेरे परमपद को-वास्तविक स्वरूप को सहज ही में प्राप्त हो जाता है।

उद्धव जी ने पूछा ;- 'भगवन्! बड़े-बड़े संत आपकी कीर्ति का गान करते हैं। आप कृपया बतलाइये कि आपके विचार से संत पुरुष का क्या लक्षण है? आपके प्रति कैसी भक्ति करनी चाहिये, जिसका संत लोग आदर करते हैं? भगवन्! आप ही ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता, सत्यादि लोक और चराचर जगत् के स्वामी हैं। मैं आपका विनीत, प्रेमी और शरणागत भक्त हूँ। आप मुझे भक्ति और भक्त का रहस्य बतलाइये। भगवन्! मैं जानता हूँ कि आप प्रकृति से परे पुरुषोत्तम एवं चिदाकाशस्वरूप ब्रह्म हैं। आपसे भिन्न कुछ भी नहीं है; फिर भी आपने लीला के लिये स्वेच्छा से ही यह अलग शरीर धारण करके अवतार लिया है। इसलिये वास्तव में आप ही भक्ति और भक्त का रहस्य बतला सकते हैं।'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- प्यारे उद्धव! मेरा भक्त कृपा की मूर्ति होता है। वह किसी भी प्राणी से वैरभाव नहीं रखता और घोर-से-घोर दुःख भी प्रसन्नतापूर्वक सहता है। उसके जीवन का सार है सत्य, और उसके मन में किसी प्रकार की पाप वासना कभी नहीं आती। वह समदर्शी और सबका भला करने वाला होता है। उसकी बुद्धि कामनाओं से कलुषित नहीं होती। यह संयमी, मधुरस्वभाव और पवित्र होता है। संग्रह-परिग्रह से सर्वथा दूर रहता है। किसी भी वस्तु के लिये वह कोई चेष्टा नहीं करता। परिमित भोजन करता है और शान्त रहता है। उसकी बुद्धि स्थिर होती है। उसे केवल मेरा ही भरोसा होता है और वह आत्मतत्त्व के चिन्तन में सदा संलग्न रहता है। वह प्रमादरहित, गम्भीर स्वभाव और धैर्यवान् होता है। भूख-प्यास, शोक-मोह और जन्म-मृत्यु-ये छहों उसके वश में रहते हैं। वह स्वयं तो कभी किसी से किसी प्रकार का सम्मान नहीं चाहता, परन्तु दूसरों का सम्मान करता रहता है। मेरे सम्बन्ध की बातें दूसरों को समझाने में बड़ा निपुण होता है और सभी के साथ मित्रता का व्यवहार करता है। उसके हृदय में करुणा भरी होती है। मेरे तत्त्व का उसे याथार्थ ज्ञान होता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकादश अध्याय श्लोक 32-46 का हिन्दी अनुवाद)

प्रिय उद्धव! मैंने वेदों और शास्त्रों के रूप में मनुष्यों के धर्म का उपदेश किया है, उनके पालन से अन्तःकरण शुद्धि आदि गुण और उल्लंघन से नरकादि दुःख प्राप्त होते हैं; परन्तु मेरा जो भक्त उन्हें भी अपने ध्यान आदि में विक्षेप समझकर त्याग देता है और केवल मेरे ही भजन में लगा रहता है, वह परम संत है। मैं कौन हूँ, कितना बड़ा हूँ, कैसा हूँ-इन बातों को जाने, चाहे न जाने; किन्तु अनन्य भाव से मेरा भजन करते हैं, वे मेरे विचार से मेरे परम भक्त हैं।

प्यारे उद्धव! मेरी मूर्ति और मेरे भक्तजनों का दर्शन, स्पर्श, पूजा, सेवा-शुश्रूषा, स्तुति और प्रणाम करे तथा मेरे गुण और कर्मों का कीर्तन करे। उद्धव! मेरी कथा सुनने में श्रद्धा रखे और निरन्तर मेरा ध्यान करता रहे। जो कुछ मिले, वह मुझे समर्पित कर दे और दास्यभाव से मुझे आत्मनिवेदन करे। मेरे दिव्य जन्म और कर्मों की चर्चा करे। जन्माष्टमी, रामनवमी आदि पर्वों पर आनन्द मनावे और संगीत, नृत्य, बाजे और समाजों द्वारा मेरे मन्दिरों में उत्सव करे-करावे। वार्षिक त्योहारों के दिन मेरे स्थानों की यात्रा करे, जुलूस निकाले तथा विविध उपहारों से मेरी पूजा करे। वैदिक अथवा तान्त्रिक पद्धति से दीक्षा ग्रहण करे। मेरे व्रतों का पालन करे। मन्दिरों में मेरी मूर्तियों की स्थापना में श्रद्धा रखे। यदि यह काम अकेला न कर सके, तो औरों के साथ मिलकर उद्योग करे। मेरे लिये पुष्पवाटिका, बगीचे, क्रीड़ा के स्थान, नगर और मन्दिर बनवावे। सेवक की भाँति श्रद्धा भक्ति के साथ निष्कपट भाव से मेरे मन्दिरों की सेवा-शुश्रूषा करे-झाड़े-बुहारे, लीपे-पोते, छिड़काव करे और तरह-तरह के चौक पूरे। अभिमान न करे, दम्भ न करे। साथ ही अपने शुभ कर्मों का ढिंढोरा भी न पीटे।

प्रिय उद्धव! मेरे चढ़ावे की, अपने काम में लगाने की बात तो दूर रही, मुझे समर्पित दीपक के प्रकाश में भी अपना काम न ले। किसी दूसरे देवता की चढ़ायी हुई वस्तु मुझे न चढ़ावे। संसार में जो वस्तु अपने को सबसे प्रिय, सबसे अभीष्ट जान पड़े, वह मुझे समर्पित कर दे। ऐसा करने से वह वस्तु अनन्त फल देने वाली हो जाती है।

भद्र! सूर्य, अग्नि, ब्राह्मण, गौ, वैष्णव, आकाश, वायु, जल, पृथ्वी, आत्मा और समस्त प्राणी-ये सब मेरी पूजा के स्थान हैं। प्यारे उद्धव! ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के मन्त्रों द्वारा सूर्य में मेरी पूजा करनी चाहिये। हवन के द्वारा अग्नि में, आतिथ्य द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मण में और हरी-भरी घास आदि के द्वारा गौ में मेरी पूजा करे। भाई-बन्धु के समान सत्कार के द्वारा वैष्णव में, निरन्तर ध्यान में लगे रहने से हृदयाकाश में, मुख्य प्राण समझने से वायु में और जल-पुष्प आदि सामग्रियों-द्वारा जल में मेरी आराधना की जाती है। गुप्त मन्त्रों द्वारा न्यास करके मिट्टी की वेदी में, उपयुक्त भोगों द्वारा आत्मा में और समदृष्टि द्वारा सम्पूर्ण प्राणियों में मेरी आराधना करनी चाहिये, क्योंकि मैं सभी में क्षेत्रज्ञ आत्मा के रूप में स्थित हूँ। इन सभी स्थानों में शंख-चक्र-गदा-पद्म धारण किये चार भुजाओं वाले शान्तमूर्ति श्रीभगवान विराजमान हैं, ऐसा ध्यान करते हुए एकाग्रता के साथ मेरी पूजा करनी चाहिये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: एकादश अध्याय श्लोक 47-49 का हिन्दी अनुवाद)

इस प्रकार जो मनुष्य एकाग्र चित्त से यज्ञ-यागादि इष्ट और कुआँ-बावली बनवाना आदि पूर्त्तकर्मों के द्वारा मेरी पूजा करता है, उसे मेरी श्रेष्ठ भक्ति प्राप्त होती है तथा संत-पुरुषों की सेवा करने से मेरे स्वरूप का ज्ञान भी हो जाता है।

प्यारे उद्धव! मेरा ऐसा निश्चय है कि सत्संग और भक्तियोग-इन दो साधनों का एक साथ ही अनुष्ठान करते रहना चाहिये। प्रायः इन दोनों के अतिरिक्त संसार सागर से पार होने का और कोई उपाय नहीं है, क्योंकि संत पुरुष मुझे अपना आश्रय मानते हैं और मैं सदा-सर्वदा उनके पास बना रहता हूँ।

प्यारे उद्धव! अब मैं तुम्हें एक अत्यन्त गोपनीय परम रहस्य की बात बतलाऊँगा; क्योंकि तुम मेरे प्रिय सेवक, हितैषी, सुहृद् और प्रेमी सखा हो; साथ ही सुनने के भी इच्छुक हो।

                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【बारहवाँ अध्याय】१२


     "सत्संग की महिमा और कर्म तथा कर्मत्याग की विधि"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वादश अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- प्रिय उद्धव! जगत् में जितनी आसक्तियाँ हैं, उन्हें सत्संग नष्ट कर देता है। यही कारण है कि सत्संग जिस प्रकार मुझे वश में कर लेता है, वैसा साधन न योग है न सांख्य, न धर्मपालन और न स्वाध्याय। तपस्या, त्याग, इष्टापूर्त और दक्षिणा से भी मैं वैसा प्रसन्न नहीं होता। कहाँ तक कहूँ-व्रत, यज्ञ, वेद, तीर्थ और यम-नियम भी सत्संग के समान मुझे वश में करने में समर्थ नहीं हैं।

निष्पाप उद्धव जी! यह एक युग की नहीं, सभी युगों की एक-सी बात है। सत्संग के द्वारा ही दैत्य-राक्षस, पशु-पक्षी, गन्धर्व-अप्सरा, नाग-सिद्ध, चारण-गुह्यक और विद्याधरों को मेरी प्राप्ति हुई है। मनुष्यों में वैश्य, शूद्र, स्त्री और अन्त्यज आदि रजोगुणी-तमोगुणी प्रकृति के बहुत-से जीवों ने मेरा परमपद प्राप्त किया है। वृत्रासुर, प्रह्लाद, वृषपर्वा, बलि, बाणासुर, मय दानव, विभीषण, सुग्रीव, हनुमान, जाम्बवान, गजेन्द्र, जटायु, तुलाधार वैश्य, धर्मव्याध, कुब्जा, व्रज की गोपियाँ, यज्ञपत्नियाँ और दूसरे लोग भी सत्संग के प्रभाव से ही मुझे प्राप्त कर सके हैं। उन लोगों ने न तो वेदों का स्वाध्याय किया था और न विधिपूर्वक महापुरुषों की उपासना की थी। इसी प्रकार उन्होंने कृच्छ्रचान्द्रायण आदि व्रत और कोई तपस्या भी नहीं की थी। बस, केवल सत्संग के प्रभाव से ही वे मुझे प्राप्त हो गये। गोपियाँ, गायें, यमलार्जुन आदि वृक्ष, व्रज के हरिन आदि पशु, कालिय आदि नाग-ये तो साधन-साध्य एक सम्बन्ध में सर्वथा ही मूढ़बुद्धि थे। इतने ही नहीं, ऐसे-ऐसे और भी बहुत हो गये हैं, जिन्होंने केवल प्रेमपूर्ण भाव के द्वारा ही अनायास मेरी प्राप्ति कर ली और कृतकृत्य हो गये।

उद्धव! बड़े-बड़े प्रयत्नशील साधक योग, सांख्य दान, व्रत, तपस्या, यज्ञ, श्रुतियों की व्याख्या, स्वाध्याय और संन्यास आदि साधनों के द्वारा मुझे नहीं प्राप्त कर सकते; परन्तु सत्संग के द्वारा तो मैं अत्यन्त सुलभ हो जाता हूँ। उद्धव! जिस समय अक्रूर जी भैया बलराम जी के साथ मुझे व्रज से मथुरा ले आये, उस समय गोपियों का हृदय गाढ़ प्रेम के कारण मेरे अनुराग के रंग में रँगा हुआ था। मेरे वियोग की तीव्र व्याधि से वे व्याकुल हो रही थीं और मेरे अतिरिक्त कोई भी दूसरी वस्तु उन्हें सुखकारक नहीं जान पड़ती थी। तुम जानते हो कि मैं ही उनका एक मात्र प्रियतम हूँ। जब मैं वृन्दावन में था, तब उन्होंने बहुत-सी रात्रियाँ-वे रास की रात्रियाँ मेरे साथ आधे क्षण के समान बिता दी थीं; परन्तु प्यारे उद्धव! मेरे बिना वे ही रात्रियाँ उनके लिये एक-एक कल्प के समान हो गयीं। जैसे बड़े-बड़े ऋषि-मुनि समाधि में स्थित होकर तथा गंगा आदि बड़ी-बड़ी नदियाँ समुद्र में मिलकर अपने नाम-रूप खो देती हैं, वैसे ही वे गोपियाँ परम प्रेम के द्वारा मुझमें इतनी तन्मय हो गयी थीं कि उन्हें लोक-परलोक, शरीर और अपने कहलाने वाले पति-पुत्रादि की सुध-बुध नहीं रह गयी थी। उद्धव! उन गोपियों में बहुत-सी तो ऐसी थीं, जो मेरे वास्तविक स्वरूप को नहीं जानती थीं। वे मुझे भगवान न जानकर केवल प्रियतम ही समझती थीं और जारभाव से मुझसे मिलने की आकांक्षा किया करती थीं। उन साधनहीन सैकड़ों, हजारों अबलाओं ने केवल संग के प्रभाव से ही मुझ परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लिया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वादश अध्याय श्लोक 14-21 का हिन्दी अनुवाद)

इसलिये उद्धव! तुम श्रुति-स्मृति, विधि-निषेध, प्रवृत्ति-निवृत्ति और सुनने योग्य तथा सुने हुए विषय का भी परित्याग करके सर्वत्र मेरी ही भावना करते हुए समस्त प्राणियों के आत्मस्वरूप मुझ एक की ही शरण सम्पूर्ण रूप से ग्रहण करो; क्योंकि मेरी शरण में आ जाने से तुम सर्वथा निर्भय हो जाओगे।

उद्धव जी ने कहा ;- 'सनकादि योगेश्वरों के भी परमेश्वर प्रभो! यों तो मैं आपका उपदेश सुन रहा हूँ, परन्तु इससे मेरे मन का सन्देह मिट नहीं रहा है। मुझे स्वधर्म का पालन करना चाहिये या सब कुछ छोड़कर आपकी शरण ग्रहण करनी चाहिये, मेरा मन इसी दुविधा में लटक रहा है। आप कृपा करके मुझे भलीभाँति समझाइये।'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- प्रिय उद्धव! जिस परमात्मा का परोक्ष रूप से वर्णन किया जाता है, वे साक्षात् अपरोक्ष-प्रत्यक्ष ही हैं, क्योंकि वे ही निखिल वस्तुओं को सत्ता-स्फूर्ति-जीवन-दान करने वाले हैं, वे ही पहले अनाहत नादस्वरूप परावाणी नामक प्राण के साथ मूलाधार चक्र में प्रवेश करते हैं। उसके बाद मणिपूरक चक्र (नाभि-स्थान) में आकर पश्यन्ती वाणी का मनोमय सूक्ष्म रूप धारण करते हैं। तदनन्तर कण्ठ देश में स्थित विशुद्ध नामक चक्र में आते हैं और वहाँ मध्यमा वाणी के रूप में व्यक्त होते हैं। फिर क्रमशः मुख में आकर हृस्व-दीर्घादि मात्र, उदात्त-अनुदात्त आदि स्वर तथा ककारादि वर्णरूप स्थूल-वैखरी वाणी का रूप ग्रहण कर लेते हैं। अग्नि आकाश में उष्मा अथवा विद्युत् के रूप से अव्यक्त रूप में स्थित है। अब बलपूर्वक काष्ठ मन्थन किया जाता है, तब वायु की सहायता से वह पहले अत्यन्त सूक्ष्म चिनगारी के रूप में प्रकट होती है और फिर आहुति देने पर प्रचण्ड रूप धारण कर लेती है, वैसे ही मैं भी शब्दब्रह्मस्वरूप से क्रमशः परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी वाणी के रूप में प्रकट होता हूँ।

इसी प्रकार बोलना, हाथों से काम करना, पैरों से चलना, मूत्रेन्द्रिय तथा गुदा से मल-मूत्र त्यागना, सूँघना, चखना, देखना, छूना, सुनना, मन से संकल्प-विकल्प करना, बुद्धि से समझना, अहंकार के द्वारा अभिमान करना, महत्तत्त्व के रूप में सबका ताना-बाना बुनना तथा सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के सारे विकार; कहाँ तक कहूँ-समस्त कर्ता, करण और कर्म मेरी ही अभिव्यक्तियाँ हैं। यह सबको जीवित करने वाला परमेश्वर ही इस त्रिगुणमय ब्रह्माण्ड-कमल का कारण है। यह आदिपुरुष पहले एक और अव्यक्त था। जैसे उपजाऊ खेत में बोया हुआ बीज शाखा-पत्र-पुष्पादि अनेक रूप धारण कर लेता है, वैसे ही कालगति से माया का आश्रय लेकर शक्ति-विभाजन के द्वारा परमेश्वर ही अनेक रूपों में प्रतीत होने लगता है। जैसे तागों के ताने-बाने में वस्त्र ओतप्रोत रहता है, वैसे ही यह सारा विश्व परमात्मा में ही ओतप्रोत है। जैस सूत के बिना वस्त्र का अस्तित्व नहीं है, किन्तु सूत वस्त्र के बिना भी रह सकता है, वैसे ही इस जगत् के न रहने पर भी परमात्मा रहता है; किन्तु यह जगत् परमात्मास्वरूप ही है-परमात्मा के बिना इसका कोई अस्तित्व नहीं है। यह संसारवृक्ष अनादि और प्रवाह रूप से नित्य है। इसका स्वरूप ही है-कर्म की परम्परा तथा इस वृक्ष के फल-फूल हैं-मोक्ष और भोग।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वादश अध्याय श्लोक 22-24 का हिन्दी अनुवाद)

इस संसारवृक्ष के दो बीज हैं - पाप और पुण्य। असंख्य वासनाएँ जड़ें हैं और तीन गुण तने हैं। पाँच भूत इसकी मोटी-मोटी प्रधान शाखाएँ हैं और शब्दादि पाँच विषय रस हैं, ग्यारह इन्द्रियाँ शाखा हैं तथा जीव और ईश्वर-दो पक्षी इसमें घोंसला बनाकर निवास करते हैं। इस वृक्ष में वात, पित्त और कफरूप तीन तरह की छाल है। इसमें दो तरह के फल लगते हैं-सुख और दुःख। यह विशाल वृक्ष सूर्यमण्डल तक फैला हुआ है (इस सूर्यमण्डल का भेदन कर जाने वाले मुक्त पुरुष फिर संसार-चक्र में नहीं पड़ते)।

जो गृहस्थ शब्द-रूप-रस आदि विषयों में फँसे हुए हैं, वे कामना से भरे हुए होने के कारण गीध के समान हैं। वे इस वृक्ष का दुःखरूप फल भोगते हैं, क्योंकि वे अनेक प्रकार के कर्मों के बन्धन में फँसे रहते हैं। जो अरण्यवासी परमहंस विषयों से विरक्त हैं, वे इस वृक्ष में राजहंस के समान हैं और वे इसका सुखरूप भोगते हैं।

प्रिय उद्धव! वास्तव में मैं एक ही हूँ। यह मेरा जो अनेकों प्रकार का रूप है, वह तो केवल मायामय है। जो इस बात को गुरुओं के द्वारा समझ लेता है, वही वास्तव में समस्त वेदों का रहस्य जानता है। अतः उद्धव! तुम इस प्रकार गुरुदेव की उपासनारूप अनन्य भक्ति के द्वारा अपने ज्ञान की कुल्हाड़ी को तीखी कर लो और उसके द्वारा धैर्य एवं सावधानी से जीवभाव को काट डालो। फिर परमात्मा स्वरूप होकर उस वृत्तिरूप अस्त्रों को भी छोड़ दो और अपने अखण्ड स्वरूप में ही स्थित हो रहो।

                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【तेरहवाँ अध्याय】१३


        "हंसरूप से सनकादि को दिये हुए उपदेश का वर्णन"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रयोदश अध्याय श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- प्रिय उद्धव! सत्त्व, रज और तम-ये तीनों बुद्धि (प्रकृति) के गुण हैं, आत्मा के नहीं। सत्त्व के द्वारा रज और तम-इन दो गुणों पर विजय प्राप्त कर लेनी चाहिये। तदनन्तर सत्त्वगुण की शान्तवृत्ति के द्वारा उसकी दया आदि वृत्तियों को भी शान्त कर देना चाहिये। जब सत्त्वगुण की वृद्धि होती है, तभी जीव को मेरे भक्तिरूप स्वधर्म की प्राप्ति होती है। निरन्तर सात्त्विक वस्तुओं का सेवन करने से सत्त्वगुण की वृद्धि होती है और तब मेरे भक्तिरूप स्वधर्म में प्रवृत्ति होने लगती है। जिस धर्म के पालन से सत्त्वगुण की वृद्धि हो, वही सबसे श्रेष्ठ है। वह धर्म रजोगुण और तमोगुण को नष्ट कर देता है। जब वे दोनों नष्ट हो जाते हैं, तब उन्हीं के कारण होने वाला अधर्म भी शीघ्र ही मिट जाता है। शास्त्र, जल, प्रजाजन, देश, समय, कर्म, जन्म, ध्यान, मन्त्र और संस्कार-ये दस वस्तुएँ यदि सात्त्विक हों तो सत्त्वगुण की, राजसिक हों तो रजोगुण की और तामसिक हों तो तमोगुणी वृद्धि करती है। इसमें से शास्त्रज्ञ महात्मा जिनकी प्रशंसा करते हैं, वे सात्त्विक हैं, जिनकी निन्दा करते हैं, वे तामसिक हैं और जिनकी उपेक्षा करते हैं, वे वस्तुएँ राजसिक हैं।

जब तक अपने आत्मा का साक्षात्कार तथा स्थूल-सूक्ष्म शरीर और उनके कारण तीनों गुणों की निवृत्ति न हो, तब तक मनुष्य को चाहिये कि सत्त्वगुण की वृद्धि के लिये सात्त्विक शास्त्र आदि का ही सेवन करे; क्योंकि उससे धर्म की वृद्धि होती है और धर्म की वृद्धि से अन्तःकरण शुद्ध होकर आत्मतत्त्व का ज्ञान होता है। बाँसों की रगड़ से आग पैदा होती है और वह उनके सारे वन को जलाकर शान्त हो जाती है। वैसे ही यह शरीर गुणों के वैषम्य से उत्पन्न हुआ है। विचार द्वारा मन्थन करने पर इससे ज्ञानाग्नि प्रज्वलित होती है और वह समस्त शरीरों एवं गुणों को भस्म करके स्वयं भी शान्त हो जाती है।

उद्धव जी ने पूछा ;- 'भगवन्! प्रायः सभी मनुष्य इस बात को जानते हैं कि विषय विपत्तियों के घर हैं; फिर भी कुत्ते, गधे और बकरे के समान दुःख सहन करके भी उन्हीं को भोगते रहते हैं। इसका क्या कारण है?'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- प्रिय उद्धव! जीव जब अज्ञानवश अपने स्वरूप को भूलकर हृदय से सूक्ष्म-स्थूलादि शरीर में अहं बुद्धि कर बैठता है-जो कि सर्वथा भ्रम ही है-तब उसका सत्त्वप्रधान मन घोर रजोगुण की ओर झुक जाता है; उससे व्याप्त हो जाता है। बस, जहाँ मन में रजोगुण की प्रधानता हुई कि उसमें संकल्प-विकल्पों का ताँता बँध जाता है। अब वह विषयों का चिन्तन करने लगता है और अपनी दुर्बुद्धि के कारण काम के फंदे में फँस जाता है, जिससे फिर छुटकारा होना बहुत ही कठिन है। अब वह अज्ञानी कामवश अनेकों प्रकार के कर्म करने लगता है और इन्द्रियों के वश होकर, यह जानकार भी कि इन कर्मों का अन्तिम फल दुःख ही है, उन्हीं को करता है, उस समय वह रजोगुण के तीव्र वेग से अत्यन्त मोहित रहता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रयोदश अध्याय श्लोक 12-24 का हिन्दी अनुवाद)

यद्यपि विवेकी पुरुष का चित्त भी कभी-कभी रजोगुण और तमोगुण के वेग से विक्षिप्त होता है, तथापि उसकी विषयों में दोषदृष्टि बनी रहती है; इसलिये वह बड़ी सावधानी से अपने चित्त को एकाग्र करने की चेष्टा करता रहता है, जिससे उसकी विषयों में आसक्ति नहीं होती। साधक को चाहिये कि आसन पर प्राण वायु पर विजय प्राप्त कर अपनी शक्ति और समय के अनुसार बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे मुझमें अपना मन लगावे और इस प्रकार अभ्यास करते समय अपनी असफलता देखकर तनिक भी ऊबे नहीं, बल्कि और भी उत्साह से उसी में जुड़ जाये। प्रिय उद्धव! मेरे शिष्य सनकादि परमर्षियों ने योग का यही स्वरूप बताया है कि साधक अपने मन को सब ओर से खींचकर विराट् आदि में नहीं, साक्षात् मुझ में ही पूर्णरूप से लगा दे।

उद्धव जी ने कहा ;- 'श्रीकृष्ण! आपने जिस समय जिस रूप से, सनकादि परमर्षियों को योग का आदेश दिया था, उस रूप को मैं जानना चाहता हूँ।'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- प्रिय उद्धव! सनकादि परमर्षि ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं। उन्होंने एक बार अपने पिता से योग की सूक्ष्म अन्तिम सीमा के सम्बन्ध में इस प्रकार प्रश्न किया था।

सनकादि परमर्षियों ने पूछा ;- पिताजी! चित्त गुणों अर्थात् विषयों में घुसा ही रहता है और गुण भी चित्त की एक-एक वृत्ति में प्रविष्ट रहते ही हैं। अर्थात् चित्त और गुण आपस में मिले-जुले ही रहते हैं। ऐसी स्थिति में जो पुरुष इस संसार सागर से पार होकर मुक्तिपद प्राप्त करना चाहता है, वह इन दोनों को एक-दूसरे से अलग कैसे कर सकता है?

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- प्रिय उद्धव! यद्यपि ब्रह्मा जी सब देवताओं के शिरोमणि, स्वयम्भू और प्राणियों के जन्मदाता हैं। फिर भी सनकादि परमर्षियों के इस प्रकार पूछने पर ध्यान करके भी वे इस प्रश्न का मूल कारण न समझ सके; क्योंकि उनकी बुद्धि कर्मप्रवण थी। उद्धव! उस समय ब्रह्मा जी ने इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये भक्तिभाव से मेरा चिन्तन किया। तब मैं हंस का रूप धारण करके उनके सामने प्रकट हुआ। मुझे देखकर सनकादि ब्रह्मा जी को आगे करके मेरे पास आये और उन्होंने मेरे चरणों की वन्दना करके मुझसे पूछा कि ‘आप कौन हैं?’ प्रिय उद्धव! सनकादि परमार्थ तत्त्व के जिज्ञासु थे; इसलिये उनके पूछने पर उस समय मैंने जो कुछ कहा वह तुम मुझसे सुनो- ‘ब्राह्मणों! यदि परमार्थरूप वस्तु नानात्व से सर्वथा रहित है, तब आत्मा सम्बन्ध में आप लोगों का ऐसा प्रश्न कैसे युक्तिसंगत हो सकता है? अथवा मैं यदि उत्तर देने के लिये बोलूँ भी तो किस जाति, गुण, क्रिया और सम्बन्ध आदि का आश्रय लेकर उत्तर दूँ।

देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी शरीर पंच-भूतात्मक होने के कारण अभिन्न ही हैं और परमार्थ-रूप से भी अभिन्न हैं। ऐसी स्थिति में ‘आप कौन हैं?’ आप लोगों का यह प्रश्न ही केवल वाणी का व्यवहार है। विचारपूर्वक नहीं है, अतः निरर्थक है। मन से, वाणी से, दृष्टि से तथा अन्य इन्द्रियों से भी जो कुछ ग्रहण किया जाता है, वह सब मैं ही हूँ, मुझसे भिन्न और कुछ नहीं है। यह सिद्धान्त आप लोग तत्त्व-विचार के द्वारा समझ लीजिये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रयोदश अध्याय श्लोक 25-33 का हिन्दी अनुवाद)

पुत्रो! यह चित्त चिन्तन करते-करते विषयाकार हो जाता है और विषय चित्त में प्रविष्ट हो जाते हैं, यह बात सत्य हैं, तथापि विषय और चित्त ये दोनों ही मेरे स्वरूपभूत जीव के देह हैं-उपाधि हैं। अर्थात् आत्मा का चित्त और विषय के साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है। इसलिये बार-बार विषयों का सेवन करते रहने से जो चित्त विषयों में आसक्त हो गया है और विषय भी चित्त में प्रविष्ट हो गये हैं, इन दोनों को अपने वास्तविक से अभिन्न मुझ परमात्मा का साक्षात्कार करके त्याग देना चाहिये। जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति-ये तीनों अवस्थाएँ सत्त्वादि गुणों के अनुसार होती हैं और बुद्धि की वृत्तियाँ हैं, सच्चिदानन्द का स्वभाव नहीं। इन वृत्तियों का साक्षी होने के कारण जीव उनसे विलक्षण है। यह सिद्धान्त श्रुति, युक्ति और अनुभूति से युक्त है। क्योंकि बुद्धि-वृत्तियों के द्वारा होने वाला यह बन्धन ही आत्मा में त्रिगुणमयी वृत्तियों का दान करता है। इसिलये तीनों अवस्थाओं से विलक्षण और उनमें अनुगत मुझ तुरीय तत्त्व में स्थित होकर इस बुद्धि के बन्धन का परित्याग कर दे। तब विषय और चित्त दोनों का युगपत् त्याग हो जाता है। यह बन्धन अहंकार की ही रचना है और यही आत्मा के परिपूर्णतम सत्य, अखण्ड ज्ञान और परमानन्दस्वरूप को छिपा देता है। इस बात को जानकार विरक्त हो जाये और अपने तीन अवस्थाओं में अनुगत तुरीयस्वरूप में होकर संसार की चिन्ता को छोड़ दे।

जब तक पुरुष की भिन्न-भिन्न पदार्थों में सत्यत्व बुद्धि, अहं बुद्धि और मम बुद्धि युक्तियों के द्वारा निवृत्त नहीं हो जाती, तब तक यह अज्ञानी यद्यपि जागता है तथापि सोता हुआ-सा रहता है-जैसे स्वप्नावस्था में जान पड़ता है कि मैं जाग रहा हूँ। आत्मा से अन्य देह आदि प्रतीयमान नाम-रूपात्मक प्रपंच का कुछ भी अस्तित्व नहीं है। इसलिये उनके कारण होने वाले वर्णाश्रमादि भेद, स्वर्गादि फल और उनके कारण भूत कर्म-ये सब-के-सब इस आत्मा के लिये वैसे ही मिथ्या है; जैसे स्वप्नदर्शी पुरुष के द्वारा देखे हुए सब-के-सब पदार्थ जो जाग्रत्-अवस्था में समस्त इन्द्रियों के द्वारा बाहर दिखने वाले सम्पूर्ण क्षणभंगुर पदार्थों को अनुभव करता है और स्वप्नावस्था में हृदय में ही जाग्रत् में देखे हुए पदार्थों के समान ही वासनामय विषयों का अनुभव करता है और सुषुप्ति-अवस्था में उन सब विषयों को समेटकर उनके लय को भी अनुभव करता है, वह एक ही है।

जाग्रत्-अवस्था के इन्द्रिय, स्वप्नावस्था के मन और सुषुप्ति की संस्कारवती बुद्धि का भी वही स्वामी है। क्योंकि वह त्रिगुणमयी तीनों अवस्थाओं का साक्षी है। ‘जिस मैंने स्वप्न देखा, जो मैं सोया, वही मैं जाग रहा हूँ’-इस स्मृति के बल पर एक ही आत्मा का समस्त अवस्थाओं में होना सिद्ध हो जाता है। ऐसा विचारकर मन की ये तीनों अवस्थाएँ गुणों के द्वारा मेरी माया से मेरे अंशस्वरूप जीव में कल्पित की गयी हैं और आत्मा में ये नितान्त असत्य हैं, ऐसा निश्चय करके तुम लोग अनुमान, सत्पुरुषों द्वारा किये गये उपनिषदों के श्रवण और तीक्ष्ण ज्ञानखड्ग के द्वारा सकल संशयों के आधार अहंकार का छेदन करके हृदय में स्थित मुझ परमात्मा का भजन करो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: त्रयोदश अध्याय श्लोक 34-42 का हिन्दी अनुवाद)

यह जगत् मन का विलास है, दीखने पर भी नष्ट प्राय है, अलातचक्र (लुकारियों की बनेठी) के समान अत्यन्त चंचल है और भ्रममात्र है-ऐसा समझे। ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित एक ज्ञानस्वरूप आत्मा ही अनेक-सा प्रतीत हो रहा है। यह स्थूल शरीर इन्द्रिय और अन्तःकरणरूप तीन प्रकार का विकल्प गुणों के परिणाम की रचना है और स्वप्न के समान माया का खेल है, अज्ञान से कल्पित है। इसलिये उस देहादिरूप दृश्य से दृष्टि हटाकर तृष्णारहित इन्द्रियों के व्यापार से हीन और निरीह होकर आत्मानन्द के अनुभव में मग्न हो जाये।

यद्यपि कभी-कभी आहार आदि के समय यह देहादिक प्रपंच देखने में आता है, तथापि यह पहले ही आत्मवस्तु से अतिरिक्त और मिथ्या समझकर छोड़ा जा चुका है। इसलिये वह पुनः भ्रान्तिमूलक मोह उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकता। देहपातपर्यन्त केवल संस्कारमात्र उसकी प्रतीति होती है। जैसे मदिरा पीकर उन्मत्त पुरुष यह नहीं देखता कि मेरे द्वारा पहना हुआ वस्त्र शरीर पर है या गिर गया, वैसे ही सिद्ध पुरुष जिस शरीर से उसने अपने स्वरूप का साक्षात्कार किया है, वह प्रराब्धवश खड़ा है, बैठा है या दैववश कहीं गया या आया है-नश्वर शरीर सम्बन्धी इन बातों पर दृष्टि नहीं डालता।

प्राण और इन्द्रियों के साथ यह शरीर भी प्रारब्ध के अधीन है। इसलिये अपने आरम्भक (बनाने वाले) कर्म जब तक हैं, तब तक उनकी प्रतीक्षा करता ही रहता है। परन्तु आत्मवस्तु का साक्षात्कार करने वाला तथा समाधिपर्यन्त योग में आरूढ़ पुरुष स्त्री, पुत्र, धन आदि प्रपंच के सहित उस शरीर को फिर कभी स्वीकार नहीं करता, अपना नहीं मानता, जैसे जगा हुआ पुरुष स्वप्नावस्था के शरीर आदि को।

सनकादि ऋषियों! मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, वह सांख्य और योग दोनों का गोपनीय रहस्य है। मैं स्वयं भगवान हूँ, तुम लोगों को तत्त्वज्ञान का उपदेश करने के लिये ही यहाँ आया हूँ, ऐसा समझो। विप्रवरो! मैं योग, सांख्य, सत्य, ऋत (मधुर भाषण), तेज, श्री, कीर्ति और दम (इन्द्रियनिग्रह) इन सबका परम गति-परम अधिष्ठान हूँ। मैं समस्त गुणों से रहित हूँ और किसी की अपेक्षा नहीं रखता। फिर भी साम्य, असंगता आदि सभी गुण मेरा ही सेवन करते हैं, मुझमें ही प्रतिष्ठित हैं; क्योंकि मैं सबका हितैषी, सुहृद्, प्रियतम और आत्मा हूँ। सच पूछो तो उन्हें गुण कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि वे सत्त्वादि गुणों के परिणाम नहीं हैं और नित्य हैं।

प्रिय उद्धव! इस प्रकार मैंने सनकादि मुनियों के संशय मिटा दिये। उन्होंने परम भक्ति से मेरी पूजा की और स्तुतियों द्वारा मेरी महिमा का गान किया। जब उन परमर्षियों ने भलीभाँति मेरी पूजा और स्तुति कर ली, तब मैं ब्रह्मा जी के सामने ही अदृश्य होकर अपने धाम में लौट आया।

                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【चौदहवाँ अध्याय】१४

               "भक्तियोग की महिमा तथा ध्यानविधि का वर्णन"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

उद्धव जी ने पूछा ;- 'श्रीकृष्ण! ब्रह्मवादी महात्मा आत्म कल्याण के अनेकों साधन बतलाते हैं। उनमें अपनी-अपनी दृष्टि के अनुसार सभी श्रेष्ठ हैं अथवा किसी एक की प्रधानता है? मेरे स्वामी! आपने तो अभी-अभी भक्तियोग को ही निरपेक्ष एवं स्वतन्त्र साधन बतलाया है; क्योंकि इसी से सब ओर से आसक्ति छोड़कर मन आप में ही तन्मय हो जाता है।'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- प्रिय उद्धव! यह वेदवाणी समय के फेर से प्रलय के अवसर पर लुप्त हो गयी थी; फिर जब सृष्टि का समय आया, तब मैंने अपने संकल्प से ही इसे ब्रह्मा को उपदेश किया, इसमें मेरे भागवत धर्म का ही वर्णन है। ब्रह्मा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र स्वायम्भुव मनु को उपदेश किया और उनसे भृगु, अंगिरा, मरीचि, पुलह, अत्रि, [[पुलस्त्य] और क्रतु-इन सात प्रजापति-महर्षियों ने ग्रहण किया। तदनन्तर इन ब्रह्मर्षियों की सन्तान देवता, दानव, गुह्यक, मनुष्य, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर, चारण, किन्देव, किन्नर, नाग, राक्षस और किम्पुरुष आदि ने इसे अपने पूर्वज इन्हीं ब्रह्मर्षियों से प्राप्त किया। सभी जातियों और व्यक्तियों के स्वभाव-उनकी वासनाएँ सत्त्व, रज और तमोगुण के कारण भिन्न-भिन्न हैं; इसिलये उसमें और उनकी बुद्धि-वृत्तियों में भी अनेकों भेद हैं। इसलिये वे सभी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार उस वेदवाणी का भिन्न-भिन्न अर्थ ग्रहण करते हैं। वह वाणी ही ऐसी अलौकिक है कि उससे विभिन्न अर्थ निकलना स्वाभाविक ही है। इसी प्रकार स्वभाव भेद तथा परम्परागत उपदेश के भेद से मनुष्यों की बुद्धि में भिन्नता आ जाती है और कुछ लोग तो बिना किसी विचार के वेदविरुद्ध पाखण्ड मतावलम्बी हो जाते हैं।

प्रिय उद्धव! सभी की बुद्धि मेरी माया से मोहित हो रही है; इसी से वे अपने-अपने कर्म-संस्कार और अपनी-अपनी रुचि के अनुसार आत्मकल्याण के साधन भी एक नहीं, अनेकों बतलाते हैं। पूर्वमीमांसक धर्म को, साहित्याचार्य यश को, कामशास्त्री काम को, योगवेत्ता सत्य और शमदमादि को, दण्डनीतिकार ऐश्वर्य को, त्यागी त्याग को और लोकायतिक भोग को ही मनुष्य-जीवन का स्वार्थ-परम लाभ बतलाते हैं। कर्मयोगी लोग यज्ञ, तप, दान, व्रत तथा यम-नियम आदि को पुरुषार्थ बतलाते हैं। परन्तु ये सभी कर्म हैं; इनके फलस्वरूप जो लोक मिलते हैं, वे उत्पत्ति और नाश वाले हैं। कर्मों का फल समाप्त हो जाने पर उनसे दुःख ही मिलता है और सच पूछो, तो उनकी अन्तिम गति घोर अज्ञान ही है। उनसे जो सुख मिलता है, वह तुच्छ हैं-नगण्य है और वे लोग भोग के समय भी असूया आदि दोषों के कारण शोक से परिपूर्ण हैं। (इसलिये इन विभिन्न साधनों के फेर में न पड़ना चाहिये)।

प्रिय उद्धव! जो सब ओर से निपेक्ष-बेपरवाह हो गया है, किसी भी कर्म या फल आदि की आवश्यकता नहीं रखता और अपने अन्तःकरण को सब प्रकार से मुझे ही समर्पित कर चुका है, परमानन्दस्वरूप मैं उसकी आत्मा के रूप में स्फुरित होने लगता हूँ। इससे वह जिस सुख का अनुभव करता है, वह विषय-लोलुप प्राणियों को किसी प्रकार मिल नहीं सकता। जो सब प्रकार के संग्रह-परिग्रह से रहित-अकिंचन है, जो अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके शान्त और समदर्शी हो गया है, जो मेरी प्राप्ति से ही मेरे सान्निध्य का अनुभव करके ही सदा-सर्वदा पूर्ण सन्तोष का अनुभव करता है, उसके लिये आकाश का एक-एक कोना आनन्द से भरा हुआ है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय श्लोक 14-24 का हिन्दी अनुवाद)

जिसने अपने को मुझे सौंप दिया है, वह मुझे छोड़कर न तो ब्रह्मा का पद चाहता है और न देवराज इन्द्र का, उसके मन में न तो सार्वभौम सम्राट बनने की इच्छा होती है और न वह स्वर्ग से भी श्रेष्ठ रसातल का ही स्वामी होना चाहता है। वह योग की बड़ी-बड़ी सिद्धियों और मोक्ष तक की अभिलाषा नहीं करता।

उद्धव! मुझे तुम्हारे-जैसे प्रेमी भक्त जितने प्रियतम हैं, उतने प्रिय मेरे पुत्र ब्रह्मा, आत्मा शंकर, सगे भाई बलराम जी, स्वयं अर्धांगिनी लक्ष्मी जी और मेरा अपना आत्मा भी नहीं है। जिसे किसी की अपेक्षा नहीं, जो जगत् के चिन्तन से सर्वथा उपरत होकर मेरे ही मनन-चिन्तन में तल्लीन रहता है और राग-द्वेष न रखकर सबके प्रति समान दृष्टि रखता है, उस महात्मा के पीछे-पीछे मैं निरन्तर यह सोचकर घूमा करता हूँ कि उसके चरणों की धूल उड़कर मेरे ऊपर पड़ जाये और मैं पवित्र हो जाऊँ। जो सब प्रकार के संग्रह-परिग्रह से रहित हैं-यहाँ तक कि शरीर आदि में भी अहंता-ममता नहीं रखते, जिनका चित्त मेरे ही प्रेम के रंग में रँग गया है, जो संसार की वासनाओं से शान्त-उपरत हो चुके हैं और जो अपनी महत्ता-उदारता के कारण स्वभाव से ही समस्त प्राणियों के प्रति दया और प्रेम का भाव रखते हैं, किसी प्रकार की कामना जिनकी बुद्धि का स्पर्श नहीं कर पाती, उन्हें मेरे जिस परमानन्दस्वरूप का अनुभव होता है, उसे और कोई नहीं जान सकता; क्योंकि वह परमानन्द तो केवल निरपेक्षता से ही प्राप्त होता है ।
उद्धव जी! मेरा जो भक्त अभी जितेंद्रिये नहीं हो सका है और संसार के विषय बार-बार उसे बाधा पहुँचाते रहते हैं-अपनी ओर खींच लिया करते हैं, वह भी क्षण-क्षण में बढ़ने वाली मेरी प्रगल्भ भक्ति के प्रभाव से प्रायः विषयों से पराजित नहीं होता। उद्धव! जैसे धधकती हुई आग लकड़ियों के बड़े ढेर को भी जलाकर खाक कर देती है, वैसे ही मेरी भक्ति भी समस्त पाप-राशि को पूर्णतया जला डालती है। उद्धव! योग-साधन, ज्ञान-विज्ञान, धर्मानुष्ठान, जप-पाठ और तप-त्याग मुझे प्राप्त कराने में उतने समर्थ नहीं हैं, जितनी दिनों-दिन बढ़ने वाली अनन्य प्रेममयी मेरी भक्ति।

मैं संतों का प्रियतम आत्मा हूँ, मैं अनन्य श्रद्धा और अनन्य भक्ति से ही पकड़ में आता हूँ। मुझे प्राप्त करने का यह एक ही उपाय है। मेरी अनन्य भक्ति उन लोगों को भी पवित्र-जाति दोष से मुक्त कर देती है, जो जन्म से ही चाण्डाल हैं। इसके विपरीत जो मेरी भक्ति से वन्चित हैं, उनके चित्त को सत्य और दया से युक्त, धर्म और तपस्या से युक्त विद्या भी भलीभाँति पवित्र करने में असमर्थ हैं। जब तक सारा शरीर पुलकित नहीं हो जाता, चित्त पिघलकर गद्गद नहीं हो जाता, आनन्द के आँसू आँखों से छलकने नहीं लगते तथा अन्तरंग और बहिरंग भक्ति की बाढ़ में चित्त डूबने-उतराने नहीं लगता, तब तक इसके शुद्ध होने की कोई सम्भावना नहीं है। जिसकी वाणी प्रेम से गद्गद हो रही है, चित्त पिघलकर एक ओर बहता रहता है, एक क्षण के लिये भी रोने का ताँता नहीं टूटता, परन्तु जो कभी-कभी खिल-खिलाकर हँसने भी लगता है, कहीं लाज छोड़कर ऊँचें स्वर से गाने लगता है, तो कहीं नाचने नागता है, भैया उद्धव! मेरा वह भक्त न केवल अपने को बल्कि सारे संसार को पवित्र कर देता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय श्लोक 25-37 का हिन्दी अनुवाद)

जैसे आग में तपाने पर सोना मैल छोड़ देता है-निखर जाता है और अपने असली शुद्ध रूप में स्थित हो जाता है, वैसे ही मेरे भक्तियोग के द्वारा आत्मा कर्म-वासनाओं से मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त हो जाता है, क्योंकि मैं ही उसका वास्तविक स्वरूप हूँ।

उद्धव जी! मेरी परमपावन लीला-कथा के श्रवण-कीर्तन से ज्यों-ज्यों चित्त का मैल धुलता जाता है, त्यों-त्यों उसे सूक्ष्म-वस्तु के-वास्तविक तत्त्व के दर्शन होने लगते हैं-जैसे अंजन के द्वारा नेत्रों का दोष मिटने पर उसमें सूक्ष्म वस्तुओं को देखने की शक्ति आने लगती है। जो पुरुष निरन्तर विषय-चिन्तन किया करता है, उसका चित्त विषयों में फँस जाता है और जो मेरा स्मरण करता है, उसका चित्त मुझमें तल्लीन हो जता है। इसलिये तुम दूसरे साधनों और फलों का चिन्तन छोड़ दो।

अरे भाई! मेरे अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं, जो कुछ जान पड़ता है, वह ठीक वैसा ही है जैसे स्वप्न अथवा मनोरथ का राज्य। इसलिये मेरे चिन्तन से तुम अपना चित्त शुद्ध कर लो और उसे पूरी तरह से-एकाग्रता से मुझमें ही लगा दो। संयमी पुरुष स्त्रियों और उनके प्रेमियों का संग दूर से ही छोड़कर, पवित्र एकान्त स्थान में बैठकर बड़ी सावधानी से मेरा ही चिन्तन करे। प्यारे उद्धव! स्त्रियों के संग से और स्त्रीसंगियों के-लम्पटों के संग से पुरुष को जैसे क्लेश और बन्धन में पड़ना पड़ता है, वैसा क्लेश और फँसावट और किसी के भी संग से नहीं होती।

उद्धव जी ने पूछा ;- 'कमलनयन श्यामसुन्दर! आप कृपा करके यह बतलाइये कि मुमुक्षु पुरुष आपका किस रूप से, किस प्रकार और किस भाव से ध्यान करे?'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- प्रिय उद्धव! जो न तो बहुत ऊँचा हो और न बहुत नीचा ही-ऐसे आसन पर शरीर को सीधा रखकर आराम से बैठ जाये, हाथों को अपनी गोद में रख ले और दृष्टि अपनी नासिका के अग्रभाग पर जमावे। इसके बाद पूरक, कुम्भक और रेचक तथा रेचक, कुम्भक और पूरक-इन प्राणायामों के द्वारा नाड़ियों का शोधन करे। प्राणायाम का अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिये और उसके साथ-साथ इन्द्रियों को जीतने का भी अभ्यास करना चाहिये। हृदय में कमलनालगत पतले सूत के समान ऊँकार का चिन्तन करे प्राण के द्वारा उसे ऊपर ले जाये और उसमें घण्टानाद के समान स्वर स्थिर करे। उस स्वर का ताँता टूटने न पावे। इस प्रकार प्रतिदिन तीन समय दस-दस बार ऊँकार सहित प्राणायाम का अभ्यास करे। ऐसा करने से एक महीने के अन्दर ही प्राणवायु वश में हो जाता है। इसके बाद ऐसा चिन्तन करे कि हृदय एक कमल है, वह शरीर के भीतर इस प्रकार स्थित है मानो उसकी डंडी तो ऊपर की ओर है और मुँह नीचे की ओर। अब ध्यान करना चाहिये कि उसका मुख ऊपर की ओर होकर खिल गया है, उसके आठ दल (पंखुड़ियाँ) हैं और उनके बीचोबीच पीली-पीली अत्यत्न सुकुमार कर्णिका (गद्दी) है। कर्णिका पर क्रमशः सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि का न्यास करना चाहिये। तदनन्तर अग्नि के अन्दर मेरे इस रूप का स्मरण करना चाहिये। मेरा यह स्वरूप ध्यान के लिये बड़ा ही मंगलमय है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: चतुर्दश अध्याय श्लोक 38-46 का हिन्दी अनुवाद)

मेरे अवयवों की गठन बड़ी ही सुडौल है। रोम-रोम से शान्ति टपकती है। मुखकमल अत्यन्त प्रफुल्लित और सुन्दर है। घुटनों तक लंबी मनोहर चार-भुजाएँ हैं। बड़ी ही सुन्दर और मनोहर गरदन है। मरकत-मणि के समान सुस्निग्ध कपोल हैं। मुख पर मन्द-मन्द मुस्कान की अनोखी ही छटा है। दोनों ओर के कान बराबर हैं और उसमें मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल कर रहे हैं। वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल शरीर पर पीताम्बर फहरा रहा है। श्रीवत्स एवं लक्ष्मी जी का चिह्न वक्षःस्थल पर दायें-बायें विराजमान है। हाथों में क्रमशः शंख, चक्र, गदा एवं पद्म धारण किये हुए हैं। गले में वनमाला लटक रही है। चरणों में नूपुर शोभा दे रही हैं, गले में कौस्तुभ मणि जगमगा रही है। अपने-अपने स्थान पर चमचमाते हुए किरीट, कंगन, करधनी और बाजूबंद शोभायमान हो रहे हैं। मेरा एक-एक अंग अत्यन्त सुन्दर एवं हृदयहारी है। सुन्दर मुख और प्यार भरी चितवन कृपा-प्रसाद की वर्षा कर रही है।

उद्धव! मेरे इस सुकुमार रूप का ध्यान करना चाहिये और अपने मन को एक-एक अंग में लगाना चाहिये।

बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि मन के द्वारा इन्द्रियों को उनके विषयों से खींच ले और मन को बुद्धिरूप सारथि की सहायता से मुझमें ही लगा दे, चाहे मेरे किसी भी अंग में क्यों न लगे। जब सारे शरीर का ध्यान होने लगे, तब अपने चित्त को खींचकर एक स्थान में स्थिर करे और अन्य अंगों का चिन्तन न करके केवल मन्द-मन्द मुस्कान की छटा से युक्त मेरे मुख का ही ध्यान करे। जब चित्त मुखारविन्द में ठहर जाये, तब उसे वहाँ से हटाकर आकाश में स्थिर करे। तदनन्तर आकाश का चिन्तन भी त्यागकर मेरे स्वरूप में आरूढ़ हो जाये और मेरे सिवा किसी भी वस्तु का चिन्तन न करे। जब इस प्रकार चित्त समाहित हो जाता है, तब जैसे एक ज्योति दूसरी ज्योति से मिलकर एक हो जाती है, वैसे ही अपने में मुझे और मुझ सर्वात्मा में अपने को अनुभव करने लगता है। जो योगी इस प्रकार तीव्र ध्यान योग के द्वारा मुझमें ही अपने चित्त का संयम करता है, उसके चित्त से वस्तु की अनेकता, तत्सम्बन्धी ज्ञान और उनकी प्राप्ति के लिये होने वाले कर्मों का भ्रम शीघ्र ही निवृत्त हो जाता है।

                          {एकादश स्कन्ध:} 

                       【पन्द्रहवाँ अध्याय】१५


                     "भिन्न-भिन्न सिद्धियों के नाम और लक्षण"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: पंचदश अध्याय श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ;- प्रिय उद्धव! जब साधक इन्द्रिय, प्राण और मन को अपने वश में करके अपना चित्त मुझमें लगाने लगता है, मेरी धारणा करने लगता है, तब उसके सामने बहुत-सी सिद्धियाँ उपस्थित होती हैं।

उद्धव जी ने कहा ;- 'अच्युत! कौन-सी धारणा करने से किस प्रकार कौन-सी सिद्धि प्राप्त होती है और उनकी संख्या कितनी है, आप ही योगियों को सिद्धियाँ देते हैं, अतः आप इनका वर्णन कीजिये।'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- प्रिय उद्धव! धारणा योग के पारगामी योगियों ने अठारह प्रकार की सिद्धियाँ बतलायी हैं। उसमें आठ सिद्धियाँ तो प्रधान रूप से मुझमें ही रहती हैं और दूसरों में न्यून; तथा दस सत्त्वगुण के विकास से भी मिल जाती हैं। उनमें तीन सिद्धियाँ तो शरीर की हैं- ‘अणिमा’, ‘महिमा’ और ‘लघिमा’। इन्द्रियों की एक सिद्धि है- ‘प्राप्ति’। लौकिक और पारलौकिक पदार्थों का इच्छानुसार अनुभव करने वाली सिद्धि ‘प्राकाम्य’ हैं। माया और उसके कार्यों को इच्छानुसार संचालित करना ‘ईशिता’ नाम की सिद्धि है। विषयों में रहकर भी उनमें आसक्त न होना ‘वशिता’ है और जिस-जिस सुख की कामना करे, उसकी सीमा तक पहुँच जाना ‘कामावसायिता’ नाम की आठवीं सिद्धि है। ये आठों सिद्धियाँ मुझमें स्वभाव से ही रहती हैं और जिन्हें मैं देता हूँ, उन्हीं को अंशतः प्राप्त होती हैं। इनके अतिरिक्त और भी कई सिद्धियाँ हैं।

शरीर में भूख-प्यास आदि वेगों का न होना, बहुत दूर की वस्तु देख लेना और बहुत दूर की बात सुन लेना, मन के साथ ही शरीर का उस स्थान पर पहुँच जाना, जो इच्छा हो वही रूप बना लेना; दूसरे शरीर में प्रवेश करना, जब इच्छा हो तभी शरीर छोड़ना, अप्सराओं के साथ होने वाली देवक्रीड़ा का दर्शन, संकल्प की सिद्धि, सब जगह सबके द्वारा बिना ननु-नच के आज्ञा पालन-ये दस सिद्धियाँ सत्त्वगुण के विशेष विकार से होती हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान की बात जान लेना; शीत-उष्ण, सुख-दुःख और राग-द्वेष आदि द्वन्दों के वश में न होना, दूसरे के मन आदि की बात जान लेना; अग्नि, सूर्य, जल, विष आदि की शक्ति को स्तम्भित कर देना और किसी से भी पराजित न होना-ये पाँच सिद्धियाँ भी योगियों को प्राप्त होती हैं। प्रिय उद्धव! योग-धारणा करने से जो सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, उनका मैंने नाम-निर्देश के साथ वर्णन कर दिया। अब किस धारणा से कौन-सी सिद्धि कैसे प्राप्त होती है, यह बतलाता हूँ, सुनो।

प्रिय उद्धव! पंचभूतों की सूक्ष्मतम मात्राएँ मेरा ही शरीर है। जो साधक केवल मेरे उसी शरीर की उपासना करता है और अपने मन को तदाकार बनाकर उसी में लगा देता है अर्थात् मेरे तन्मात्रात्मक शरीर के अतिरिक्त और किसी भी वस्तु का चिन्तन नहीं करता, उसे ‘अणिमा’ नाम की सिद्धि अर्थात् पत्थर की चट्टान आदि में प्रवेश करने की शक्ति-अणुता प्राप्त हो जाती है। महत्तत्त्व के रूप में भी मैं ही प्रकाशित हो रहा हूँ और उस रूप में समस्त व्यावहारिक ज्ञानों का केन्द्र हूँ। जो मेरे उस रूप में अपने मन को महत्तत्त्वाकार करके तन्मय कर देता है, उसे ‘महिमा’ नाम की सिद्धि प्राप्त होती है, और इसी प्रकार आकाशादि पंचभूतों में-जो मेरे ही शरीर हैं-अलग-अलग मन लगाने से उन-उनकी महत्ता प्राप्त हो जाती है, यह भी ‘महिमा’ सिद्धि के ही अन्तर्गत है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: पंचदश अध्याय श्लोक 12-23 का हिन्दी अनुवाद)

जो योगी वायु आदि चार भूतों के परमाणुओं को मेरा ही रूप समझकर चित्त को तदाकार कर देता है, उसे ‘लघिमा’ सिद्धि प्राप्त हो जाती है-उसे परमाणुरूप काल के समान सूक्ष्म वस्तु बनने का सामर्थ्य प्राप्त हो जता है। जो सात्त्विक अहंकार को मेरा स्वरूप समझकर मेरे उसी रूप से चित्त की धारणा करता है, वह समस्त इन्द्रियों का अधिष्ठाता हो जाता है। मेरा चिन्तन करने वाला भक्त इस प्रकार ‘प्राप्ति’ नाम की सिद्धि प्राप्त कर लेता है। जो पुरुष मुझ महत्तत्त्वाभिमानी सूत्रात्मा में अपना चित्त स्थिर करता है, उसे मुझ अव्यक्त जन्मा (सूत्रात्मा) की ‘प्राकाम्य’ नाम कि सिद्धि प्राप्त होती है-जिससे इच्छानुसार सभी भोग प्राप्त हो जाते हैं। जो त्रिगुणमयी माया के स्वामी मेरे काल-स्वरूप विश्वरूप की धारणा करता है, वह शरीरों और जीवों को अपने इच्छानुसार प्रेरित करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। इस सिद्धि का नाम ‘ईशित्व’ है। जो योगी मेरे नारायण-स्वरूप में-जिसे तुरीय और भगवान भी कहते हैं-मन को लगा देता है, मेरे स्वाभाविक गुण उसमें प्रकट होने लगते हैं और उसे ‘वशिता’ नाम की सिद्धि प्राप्त हो जाती है। निर्गुण ब्रह्म भी मैं ही हूँ। जो अपना निर्मल मन मेरे इस ब्रह्मस्वरूप में स्थित कर लेता है, उसे परमानन्द-स्वरूपिणी ‘कामावसायिता’ नाम की सिद्धि प्राप्त होती है। इसके मिलने पर उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं, समाप्त हो जाती हैं।

प्रिय उद्धव! मेरा वह रूप, जो श्वेतद्वीप का स्वामी है, अत्यन्त शुद्ध और धर्ममय है। जो उसकी धारणा करता है, वह भूख-प्यास, जन्म-मृत्यु और शोक-मोह-इन छः उर्मियों से मुक्त हो जाता है और उसे शुद्ध-स्वरूप की प्राप्ति होती है। मैं ही समष्टि-प्राणरूप आकाशात्मा हूँ। जो मेरे इस स्वरूप में मन के द्वारा अनाहत नाद का चिन्तन करता है, वह ‘दूरश्रवण’ नाम की सिद्धि से सम्पन्न हो जाता है और आकाश में उपलब्ध होने वाली विविध प्राणियों की बोली सुन-समझ सकता है। जो योगी नेत्रों को सूर्य में और सूर्य को नेत्रों में संयुक्त कर देता है और दोनों के संयोग में मन-ही-मन मेरा ध्यान करता है, उसकी दृष्टि सूक्ष्म हो जाती है, उसे ‘दूरदर्शन’ नाम की सिद्धि प्राप्त होती है और वह सारे संसार को देख सकता है।

मन और शरीर को प्राण वायु के सहित मेरे साथ संयुक्त कर दे और मेरी धारणा करे तो इससे ‘मनोजव’ नाम की सिद्धि प्राप्त हो जाती है। इसके प्रभाव से वह रोगी जहाँ भी जाने का संकल्प करता है, वहीं उसका शरीर उसी क्षण पहुँच जाता है। जिस समय योगी मन को उपादान-कारण बनाकर किसी देवता आदि का रूप धारण करना चाहता है तो वह अपने मन के अनुकूल वैसा ही रूप धारण कर लेता है। इसका कारण यह है कि उसने अपने चित्त को मेरे साथ जोड़ दिया है। जो योगी दूसरे शरीर में प्रवेश करना चाहे, वह ऐसी भावना करे कि मैं उसी शरीर में हूँ। ऐसा करने से उसका प्राण वायुरूप धारण कर लेता है और वह एक फल से दूसरे फल पर जाने वाले भौंरे के समान अपना शरीर छोड़कर दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: पंचदश अध्याय श्लोक 24-36 का हिन्दी अनुवाद)

योगी को यदि शरीर का परित्याग करना हो तो एड़ी से गुदा द्वार को दबा कर प्राण वायु को क्रमशः हृदय, वक्षःस्थल, कण्ठ और मस्तक में ले जाये। फिर ब्रह्मरन्ध्र के द्वारा उसे ब्रह्म में लीन करके शरीर का परित्याग कर दे। यदि उसे देवताओं के विहार स्थलों में क्रीड़ा करने की इच्छा हो, तो मेरे शुद्ध सत्त्वमय स्वरूप की भावना करे। ऐसा करने से सत्त्वगुण की अंशस्वरूपा सुर-सुन्दरियाँ विमान पर चढ़कर उसके पास पहुँच जाती हैं।

जिस पुरुष ने मेरे सत्यसंकल्पस्वरूप में अपना चित्त स्थिर कर दिया है, उसी के ध्यान में संलग्न है, वह अपने मन से जिस समय जैसा संकल्प करता है, उसी समय उसका वह संकल्प सिद्ध हो जाता है। मैं ‘ईशित्व’ और ‘वशित्व’- इन दोनों सिद्धियों का स्वामी हूँ; इसलिये कभी कोई मेरी आज्ञा टाल नहीं सकता। जो मेरे उस रूप का चिन्तन करके उसी भाव से युक्त हो जाता है, मेरे समान उसकी आज्ञा को भी कोई टाल नहीं सकता। जिस योगी का चित्त मेरी धारणा करते-करते मेरी भक्ति के प्रभाव से शुद्ध हो गया है, उसकी बुद्धि जन्म-मृत्यु आदि अदृष्ट विषयों को भी जान लेती है। और तो क्या-भूत, भविष्य और वर्तमान की सभी बातें उसे मालूम हो जाती हैं। जैसे जल के द्वारा जल में रहने वाले प्राणियों का नाश नहीं होता, वैसे ही जिस योगी ने अपना चित्त मुझमें लगाकर शिथिल कर दिया है, उसके योगमय शरीर को अग्नि, जल आदि कोई भी पदार्थ नष्ट नहीं कर सकते। जो पुरुष श्रीवत्स आदि चिह्न और शंख-गदा-चक्र-पद्म आदि आयुधों से विभूषित तथा ध्वजा-छत्र-चँवर आदि से सम्पन्न मेरे अवतारों का ध्यान करता है, वह अजेय हो जाता है। इस प्रकार जो विचारशील पुरुष मेरी उपासना करता है और योग धारणा के द्वारा मेरा चिन्तन करता है, उसे वे सभी सिद्धियाँ पूर्णतः प्राप्त हो जाती हैं, जिनका वर्णन मैंने किया है।

प्यारे उद्धव! जिसने अपने प्राण, मन और इन्द्रीयों पर विजय प्राप्त कर ली है, जो संयमी है और मेरे ही स्वरूप की धारणा कर रहा है, उसके लिये ऐसी कोई भी सिद्धि नहीं, जो दुर्लभ हो। उसे तो सभी सिद्धियाँ प्राप्त ही हैं। परन्तु श्रेष्ठ पुरुष कहते हैं कि जो लोग भक्तियोग अथवा ज्ञानयोगादि उत्तम योगों का अभ्यास कर रहे हैं, जो मुझसे एक हो रहे हैं, उनके लिये इन सिद्धियों का प्राप्त होना एक विघ्न ही है; क्योंकि इनके कारण व्यर्थ ही उनके समय का दुरुपयोग होता है। जगत् में जन्म, ओषधि, तपस्या और मन्त्रादि के द्वारा जितनी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, वे सभी योग के द्वारा मिल जाती हैं; परन्तु योग की अन्तिम सीमा-मेरे सारूप्य, सालोक्य आदि की प्राप्ति बिना मुझमें चित्त लगाये किसी भी साधन से नहीं प्राप्त हो सकती। ब्रह्मवादियों ने बहुत-से साधन बतलाये हैं-योग, सांख्य और धर्म आदि। उनका एवं समस्त सिद्धियों का एकमात्र मैं ही हेतु, स्वामी और प्रभु हूँ। जैसे स्थूल पंचभूतों में बाहर, भीतर-सर्वत्र सूक्ष्म पंच-महाभूत ही हैं, सूक्ष्म भूतों के अतिरिक्त स्थूल भूतों की कोई सत्ता ही नहीं है, वैसे ही मैं समस्त प्राणियों के भीतर दृष्टारूप से और बाहर दृश्यरूप से स्थित हूँ। मुझमें बाहर-भीतर का भेद भी नहीं है; क्योंकि मैं निरावरण, एक-अद्वितीय आत्मा हूँ।

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