सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - उत्तरार्ध ) का साठवाँ, इकसठवाँ, बासठवाँ, तिरसठवाँ व चौसठवाँ अध्याय [ Sixty, sixty one, sixty two, sixty three and sixty four chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]

 


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【साठवाँ अध्याय】६०

          "श्रीकृष्ण-रुक्मिणी संवाद"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षष्टितम अध्याय श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! एक दिन समस्त जगत् के परमपिता और ज्ञानदाता भगवान श्रीकृष्ण रुक्मिणी जी के पलँग पर आराम से बैठे हुए थे। भीष्मकनन्दिनी श्री रुक्मिणी जी सखियों के साथ अपने पतिदेव की सेवा कर रही थीं, उन्हें पंखा झल रही थीं। परीक्षित! जो सर्वशक्तिमान् भगवान खेल-खेल में ही इस जगत् की रचना, रक्षा और प्रलय करते हैं-वही अजन्मा प्रभु अपनी बनायी हुई धर्म-मर्यादाओं की रक्षा करने के लिये यदुवंशियों में अवतीर्ण हुए हैं। रुक्मिणी जी का महल बड़ा ही सुन्दर था। उसमें ऐसे-ऐसे चँदोवे तने हुए थे, जिनमें मोतियों की लड़ियों की झालरें लटक रही थीं। मणियों के दीपक जगमगा रहे थे। बेला-चमेली के फूल और हार मँह-मँह मँहक रहे थे। फूलों पर झुंड-के-झुंड भौरे गुंजार कर रहे थे। सुन्दर-सुन्दर झरोखों की जालियों में से चन्द्रमा की शुभ्र किरणें कमल के भीतर छिटक रही थीं। उद्यान में पारिजात के उपवन की सुगन्ध लेकर मन्द-मन्द शीतल वायु चल रही थी। झरोखों की जालियों में से अगर के धूप का धुआँ बाहर निकल रहा था। ऐसे महल में दूध के फेन के समान कोमल और उज्ज्वल बिछौनों से युक्त सुन्दर पलँग पर भगवान श्रीकृष्ण बड़े आनन्द से विराजमान थे और रुक्मिणी जी त्रिलोकी के स्वामी को पतिरूप में प्राप्त करके उसकी सेवा कर रही थीं।

रुक्मिणी जी ने अपनी सखी के हाथ से वह चँवर ले लिया, जिसमें रत्नों की डांडी लगी थी और परमरूपवती लक्ष्मीरूपिणी देवी रुक्मिणी जी उसे डुला-डुलाकर भगवान की सेवा करने लगीं। उनके करकमलों में जड़ाऊ अँगूठियाँ, कंगन और चँवर शोभा पा रहे थे। चरणों में मणिजटित पायजेब रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे। अंचल के नीचे छिपे हुए स्तनों की केशर की लालिमा से हार लाल-लाल जान पड़ता था और चमक रहा था। नितम्ब भाग में बहुमूल्य करधनी की लड़ियाँ लटक रही थीं। इस प्रकार वे भगवान के पास ही रहकर उनकी सेवा में संलग्न थीं। रुक्मिणी जी की घुँघराली अलकें, कानों के कुण्डल और गले के स्वर्णहार अत्यन्त विलक्षण थे। उनके मुखचन्द्र से मुसकराहट की अमृतवर्षा हो रही थी। ये रुक्मिणीजी अलौकिक रूपलावण्यवती लक्ष्मीजी ही तो हैं। उन्होंने जब देखा कि भगवान ने लीला के लिये मनुष्य का-सा शरीर ग्रहण किया है, तब उन्होंने भी उनके अनुरूप रूप प्रकट कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण यह देखकर बहुत प्रसन्न हुए कि रुक्मिणी जी मेरे परायण हैं, मेरी अनन्य प्रेयसी हैं। तब उन्होंने बड़े प्रेम से मुस्कराहते हुए उनसे कहा।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- राजकुमारी! बड़े-बड़े नरपति, जिनके पास लोकपालों के समान ऐश्वर्य और सम्पत्ति है, जो बड़े महानुभाव और श्रीमान् हैं तथा सुन्दरता, उदारता और बल में भी बहुत आगे बढ़े हुए हैं, तुमसे विवाह करना चाहते थे। तुम्हारे पिता और भाई भी उन्हीं के साथ तुम्हारा विवाह करना चाहते थे, यहाँ तक कि उन्होंने वाग्दान भी कर दिया था। शिशुपाल आदि बड़े-बड़े वीरों को, जो कामोन्मत्त होकर तुम्हारे याचक बन रहे थे, तुमने छोड़ दिया और मेरे-जैसे व्यक्ति को, जो किसी प्रकार तुम्हारे समान नहीं है, अपना पति स्वीकार किया। ऐसा तुमने क्यों किया?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षष्टितम अध्याय श्लोक 12-24 का हिन्दी अनुवाद)

सुन्दरी! देखो, हम जरासन्ध आदि राजाओं से डरकर समुद्र की शरण में आ बसे हैं। बड़े-बड़े बलवानों से हमने वैर बाँध रखा है और प्रायः राजसिंहासन के अधिकार से भी वंचित ही हैं। सुन्दरी! हम किस मार्ग के अनुयायी हैं, हमारा कौन-सा मार्ग है, यह भी लोगों को अच्छी तरह मालूम नहीं है। हम लोग लौकिक व्यवहार का भी ठीक-ठाक पालन नहीं करते, अनुनय-विनय के द्वारा स्त्रियों को रिझाते भी नहीं। जो स्त्रियाँ हमारे-जैसे पुरुषों का अनुसरण करती हैं, उन्हें प्रायः क्लेश-ही-क्लेश भोगना पड़ता है। सुन्दरी! हम तो सदा के अकिंचन हैं। न तो हमारे पास कभी कुछ था और न रहेगा। ऐसे ही अकिंचन लोगों से हम प्रेम भी करते हैं और वे लोग भी हमसे प्रेम करते हैं। यही कारण है कि अपने को धनी समझने वाले लोग प्रायः हमसे प्रेम नहीं करते, हमारी सेवा नहीं करते। जिनका धन, कुल, ऐश्वर्य, सौन्दर्य और आय अपने समान होती है, उन्हीं से विवाह और मित्रता का सम्बन्ध करना चाहिये। जो अपने से श्रेष्ठ या अधम हों, उनसे नहीं करना चाहिये।

विदर्भराजकुमारी! तुमने अपनी अदूरदर्शिता के कारण इन बातों का विचार नहीं किया और बिना जाने-बूझे भिक्षुकों से मेरी झूठ प्रशंसा सुनकर मुझ गुणहीन को वरण कर लिया। अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है। तुम अपने अनुरूप किसी श्रेष्ठ क्षत्रिय को वरण कर लो। जिसके द्वारा तुम्हारी इहलोक और परलोक की सारी आशा-अभिलाषाएँ पूरी हो सकें। सुन्दरी! तुम जानती ही हो कि शिशुपाल, शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र आदि नरपति और तुम्हारा बड़ा भाई रुक्मी- सभी मुझसे द्वेष करते थे। कल्याणी! वे सब बल-पौरुष के मद से अंधे हो रहे थे, अपने सामने किसी को कुछ नहीं गिनते थे। उन दुष्टों का मान मर्दन करने के लिए ही मैंने तुम्हारा हरण किया था और कोई कारण नहीं था। निश्चय ही हम उदासीन हैं। हम स्त्री, सन्तान और धन के लोलुप नहीं हैं। निष्क्रिय और देह-गेह से सम्बन्धरहित दीपशिखा के समान साक्षीमात्र हैं। हम अपने आत्मा के साक्षात्कार से ही पूर्णकाम हैं, कृतकृत्य हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण के क्षणभर के लिये भी अलग न होने के कारण रुक्मिणी जी को यह अभिमान हो गया था कि मैं इनकी सबसे अधिक प्यारी हूँ। इसी गर्व की शान्ति के लिये इतना कहकर भगवान चुप हो गये। परीक्षित! जब रुक्मिणी जी ने अपने परम प्रियतम पति त्रिलोकेश्वर भगवान की यह अप्रिय वाणी सुनी, जो पहले कभी नहीं सुनी थी, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गयीं; उनका हृदय धड़कने लगा, वे रोते-रोते चिन्ता के अगाध समुद्र में डूबने-उतराने लगीं। वे अपने कमल के समान कोमल और नखों की लालिमा से कुछ-कुछ लाल प्रतीत होने वाले चरणों से धरती कुरेदने लगीं। अंजन से मिले हुए काले-काले आँसू केशर से रँगे हुए वक्षःस्थल को धोने लगे। मुँह नीचे को लटक गया। अत्यन्त दुःख के कारण उनकी वाणी रुक गयी और वे ठिठकी-सी रह गयीं। अत्यन्त व्यथा, भय और शोक के कारण विचारशक्ति लुप्त हो गयी, वियोग की सम्भावना से वे तक्षण इतनी दुबली हो गयीं कि उनकी कलाई का कंगन तक खिसक गया। हाथ का चँवर गिर पड़ा, बुद्धि की विकलता के कारण वे एकाएक अचेत हो गयीं, केश बिखर गये और वे वायुवेग से उखड़े हुए केले के खंभे की तरह धरती पर गिर पड़ीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षष्टितम अध्याय श्लोक 25-35 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी प्रेयसी रुक्मिणी जी हास्य-विनोद की गम्भीरता नहीं समझ रही हैं और प्रेम-पाश की दृढ़ता के कारण उनकी यह दशा हो रही है। स्वभाव से ही परम कारुणिक भगवान श्रीकृष्ण का हृदय उनके प्रति करुणा से भर गया। चार भुजाओं वाले वे भगवान उसी समय पलँग से उतर पड़े और रुक्मिणी जी को उठा लिया तथा उनके खुले हुए केशपाशों को बाँधकर अपने शीतल करकमलों से उनका मुँह पोंछ दिया। भगवान ने उनके नेत्रों के आँसू और शोक के आँसूओं से भीगे हुए स्तनों को पोंछकर अपने प्रति अनन्य प्रेमभाव रखने वाली उन सती रुक्मिणी जी को बाँहों में भरकर छाती से लगा लिया। भगवान श्रीकृष्ण समझाने-बुझाने में बड़े कुशल और अपने प्रेमी भक्तों के एकमात्र आश्रय हैं। जब उन्होंने देखा कि हास्य की गम्भीरता के कारण रुक्मिणी जी की बुद्धि चक्कर में पड़ गयी और वे अत्यन्त दीन हो रही हैं, तब उन्होंने इस अवस्था के अयोग्य अपनी प्रेयसी रुक्मिणी जी को समझाया ।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- विदर्भनन्दिनी! तुम मुझसे बुरा मत मानना। मुझसे रूठना नहीं। मैं जानता हूँ कि तुम एकमात्र मेरे ही परायण हो। मेरी प्रिय सहचरी! तुम्हारी प्रेमभरी बात सुनने के लिये ही मैंने हँसी-हँसी में यह छलना की थी। मैं देखना चाहता था कि मेरे यों कहने पर तुम्हारे लाल-लाल होठ प्रणय-कोप से किस प्रकार फड़कने लगते हैं। तुम्हारे कटाक्षपूर्वक देखने से नेत्रों में कैसी लाली छा जाती है और भौंहें चढ़ जाने के कारण तुम्हारा मुँह कैसा सुन्दर लगता है। मेरी परमप्रिये! सुन्दरी! घर के काम-धंधों में रात-दिन लगे रहने वाले गृहस्थों के लिये घर-गृहस्थी में इतना ही तो परम लाभ है कि अपनी प्रिय अर्द्धांगिनी के साथ हास-परिहास करते हुए कुछ घड़ियाँ सुख से बिता ली जाती हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन! यह भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी प्राणप्रिया को इस प्रकार समझाया-बुझाया, तब उन्हें इस बात का विश्वास हो गया कि मेरे प्रियतम ने केवल परिहास में ही ऐसा कहा था। अब उनके हृदय से यह भय जाता रहा कि प्यारे हमें छोड़ देंगे। परीक्षित! अब वे सलज्ज हास्य और प्रेमपूर्ण मधुर चितवन से पुरुषभूषण भगवान श्रीकृष्ण का मुखारविन्द निरखती हुई उनसे कहने लगीं-

रुक्मिणी जी ने कहा ;- कमलनयन! आपका यह कहना ठीक है कि ऐश्वर्य आदि समस्त गुणों से युक्त, अनन्त भगवान के अनुरूप मैं नहीं हूँ। आपकी समानता मैं किसी प्रकार नहीं कर सकती। कहाँ तो अपनी अखण्ड महिमा से स्थित, तीनों गुणों के स्वामी तथा ब्रह्मा आदि देवताओं से सेवित आप भगवान्; और कहाँ तीनों गुणों के अनुसार स्वभाव रखने वाली गुणमयी प्रकृति मैं, जिसकी सेवा कामनाओं के पीछे भटकने वाले अज्ञानी लोग ही करते हैं। भला मैं आपके समान कब हो सकती हूँ। स्वामिन्! आपका यह कहना भी ठीक ही है कि आप राजाओं के भय से समुद्र में आ छिपे हैं। परन्तु राजा शब्द का अर्थ पृथ्वी के राजा नहीं, तीनों गुणरूप राजा हैं। मानो आप उन्हीं के भय से अन्तःकरणरूप समुद्र में चैतन्यघन अनुभूतिस्वरूप आत्मा के रूप में विराजमान रहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि आप राजाओं से वैर रखते हैं, परन्तु वे राजा कौन हैं? यही अपनी दुष्ट इन्द्रियाँ। इनसे तो आपका वैर है ही। और प्रभो! आप राजसिंहासन से रहित हैं, यह भी ठीक ही है; क्योंकि आपके चरणों की सेवा करने वालों ने भी राजा के पद को घोर अज्ञान-अन्धकार समझकर दूर से ही दुत्कार रखा है। फिर आपके लिये तो कहना ही क्या है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षष्टितम अध्याय श्लोक 36-40 का हिन्दी अनुवाद)

आप कहते हैं कि हमारा मार्ग स्पष्ट नहीं है और हम लौकिक पुरुषों-जैसा आचरण भी नहीं करते; यह बात भी निस्सन्देह सत्य है। क्योंकि जो ऋषि-मुनि आपके पादपद्मों का मकरन्द-रस सेवन करते हैं, उनका मार्ग भी अस्पष्ट रहता है और विषयों में उलझे हुए नरपशु उसका अनुमान भी नहीं लगा सकते। और हे अनन्त! आपके मार्ग पर चलने वाले आपके भक्तों की भी चेष्टाएँ जब प्रायः अलौकिक ही होती हैं, तब समस्त शक्तियों और ऐश्वर्यों के आश्रय आपकी चेष्टाएँ अलौकिक हों इसमें तो कहना ही क्या है?

आपने अपने को अकिंचन बतलाया है; परन्तु आपकी अकिंचनता दरिद्रता नहीं है। उसका अर्थ यह है कि आपके अतिरिक्त और कोई वस्तु न होने के कारण आप ही सब कुछ हैं। आपके पास रखने के लिये कुछ नहीं है। परन्तु जिन ब्रह्मा आदि देवताओं की पूजा सब लोग करते हैं, भेंट देते हैं, वे ही लोग आपकी पूजा करते रहते हैं। आप उनके प्यारे हैं और वे आपके प्यारे हैं। (आपका यह कहना भी सर्वथा उचित है कि धनाढ्यता लोग मेरा भजन नहीं करते;) जो लोग अपनी धनाढ्यता के अभिमान से अंधे हो रहे हैं और इन्द्रियों को तृप्त करने में ही लगे हैं, वे न तो आपका भजन-सेवन ही करते और न तो यह जानते हैं कि आप मृत्यु के रूप में उनके सिर पर सवार हैं। जगत् में जीव के लिये जितने भी वांछनीय पदार्थ हैं- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- उन सब के रूप में आप ही प्रकट हैं। आप समस्त वृत्तियों-प्रवृत्तियों, साधनों, सिद्धियों और साध्यों के फलस्वरूप हैं। विचारशील पुरुष आपको प्राप्त करने के लिये सब कुछ छोड़ देते हैं।

भगवन्! उन्हीं विवेकी पुरुषों का आपके साथ सम्बन्ध होना चाहिये। जो लोग स्त्री-पुरुष के सहवास से प्राप्त होने वाले सुख या दुःख के वशीभूत हैं, वे कदापि आपका सम्बन्ध प्राप्त करने के योग्य नहीं हैं। यह ठीक है कि भिक्षुको ने आपकी प्रशंसा की है। परन्तु किन भिक्षुकों ने? उन परमशान्त संन्यासी महात्माओं ने आपकी महिमा और प्रभाव का वर्णन किया है, जिन्होंने अपराधी-से-अपराधी व्यक्ति को भी दण्ड न देने का निश्चय कर लिया है। मैंने अदूरदर्शिता से नहीं, इस बात को समझते हुए आपको वरण किया है कि आप सारे जगत् के आत्मा हैं और अपने प्रेमियों को आत्मदान करते हैं। मैंने जान-बूझकर उन ब्रह्मा और देवराज इन्द्र आदि का भी इसलिये परित्याग कर दिया है कि आपकी भौंहों के इशारे से पैदा होने वाला काल अपने वेग से उनकी आशा-अभिलाषाओं पर पानी फेर देता है। फिर दूसरों की- शिशुपाल, दन्तवक्त्र या जरासन्ध की तो बात ही क्या है?

सर्वेश्वर आर्यपुत्र! आपकी यह बात किसी प्रकार युक्तिसंगत नहीं मालूम होती कि आप राजाओं से भयभीत होकर समुद्र में आ बसे हैं। क्योंकि आपने केवल अपने सारंगधनुष के टंकार से मेरे विवाह के समय आये हुए समस्त राजाओं को भगाकर अपने चरणों में समर्पित मुझ दासी को उसी प्रकार हरण कर लिया, जैसे सिंह अपने कर्कश ध्वनि से वन-पशुओं को भगाकर अपना भाग ले आवे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षष्टितम अध्याय श्लोक 41-46 का हिन्दी अनुवाद)

कमलनयन! आप कैसे कहते हैं कि जो मेरा अनुसरण करता है, उसे प्रायः कष्ट ही उठाना पड़ता है। प्राचीन काल के अंग, पृथु, भरत, ययाति और गय आदि जो बड़े-बड़े राजराजेश्वर अपना-अपना एकछत्र साम्राज्य छोड़कर आपको पाने की अभिलाषा से तपस्या करने वन में चले गये थे, वे आपके मार्ग का अनुसरण करने के कारण क्या किसी प्रकार का कष्ट उठा रहे हैं। आप कहते हैं कि तुम और किसी राजकुमार का वरण कर लो।

भगवन! आप समस्त गुणों के एकमात्र आश्रय हैं। बड़े-बड़े संत आपके चरणकमलों की सुगन्ध का बखान करते रहते हैं। उसका आश्रय लेने मात्र से लोग संसार के पाप-ताप से मुक्त हो जाते हैं। लक्ष्मी सर्वदा उन्हीं में निवास करती हैं। फिर आप बतलाइये कि अपने स्वार्थ और परमार्थ को भलीभाँति समझने वाली ऐसी कौन-सी स्त्री है, जिसे एक बार उन चरणकमलों की सुगन्ध सूँघने को मिल जाये और फिर वह उनका तिरस्कार करके ऐसे लोगों को वरण करे जो सदा मृत्यु, रोग, जन्म, जरा आदि भयों से युक्त हैं। कोई भी बुद्धिमती स्त्री ऐसा नहीं कर सकती। प्रभो! आप सारे जगत् के एकमात्र स्वामी हैं। आप ही इस लोक और परलोक में समस्त आशाओं को पूर्ण करने वाले एवं आत्मा हैं। मैंने आपको अपने अनुरूप समझकर ही वरण किया है। मुझे अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न योनियों में भटकता पड़े, इसकी मुझको परवा नहीं है। मेरी एकमात्र अभिलाषा यही है कि मैं सदा अपना भजन करने वालों का मिथ्या संसारभ्रम निवृत्त करने वाले तथा उन्हें अपना स्वरूप तक दे डालने वाले आप परमेश्वर के चरणों कि शरण में रहूँ।

अच्युत! शत्रुसूदन! गधों के समान घर का बोझा ढोने वाले, बैलों के समान गृहस्थी के व्यापारों में जुते रहकर कष्ट उठाने वाले, कुत्तों के समान तिरस्कार सहने वाले, बिलाव के समान कृपण और हिंसक तथा क्रीत दासों के समान स्त्री की सेवा करने वाले शिशुपाल आदि राजा लोग, जिन्हें वरण करने के लिये आपने मुझे संकेत किया है, उसी अभागिन स्त्री के पति हों, जिनके कानों में भगवान शंकर, ब्रह्मा आदि देवेश्वरों की सभा में गायी जाने वाली आपकी लीला कथा ने प्रवेश नहीं किया है। यह मनुष्य का शरीर जीवित होने पर भी मुर्दा ही है। ऊपर से चमड़ी, दाढ़ी-मूँछ, रोएँ, नख और केशों से ढका हुआ है; परन्तु इसके भीतर मांस, हड्डी, खून, कीड़े, मल-मूत्र, कफ, पित्त और वायु भरे पड़े हैं। इसे वही मूढ़ स्त्री अपना प्रियतम पति समझकर सेवन करती है, जिसे कभी आपके चरणारविन्द के मकरन्द की सुगन्ध सूँघने को नहीं मिली है।

कमलनयन! आप आत्माराम हैं। मैं सुन्दरी अथवा गुणवती हूँ, इन बातों पर आपकी दृष्टि नहीं जाती। अतः आपका उदासीन रहना स्वाभाविक है, फिर भी आपके चरणकमलों में मेरा सुदृढ़ अनुराग हो, यही मेरी अभिलाषा है। जब आप इस संसार की अभिवृद्धि के लिये उत्कट रजोगुण स्वीकार करके मेरी ओर देखते हैं, तब वह भी आपका परम अनुग्रह ही है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षष्टितम अध्याय श्लोक 47-55 का हिन्दी अनुवाद)

मधुसूदन! आपने कहा कि किसी अनुरूप वर को वरण कर लो। मैं आपकी इस बात को भी झूठ नहीं मानती। क्योंकि कभी-कभी एक पुरुष के द्वारा जीती जाने पर भी कशी-नरेश की कन्या अम्बा के समान किसी-किसी की दूसरे पुरुष में भी प्रीती रहती है। कुलटा स्त्री का मन तो विवाह हो जाने पर भी नये-नये पुरुषों की ओर खिंचता रहता है। बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह ऐसी कुलटा स्त्री को अपने पास न रखे। उसे अपनाने वाला पुरुष लोक और परलोक दोनों खो बैठता है, उभयभ्रष्ट हो जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- साध्वी! राजकुमारी! यही बातें सुनने के लिये मैंने तुमसे हँसी-हँसी में तुम्हारी वंचना की थी, तम्हें छकाया था। तुमने मेरे वचनों की जैसी व्याख्या की है, वह अक्षरशः सत्य है। सुन्दरी! तुम मेरी अनन्य प्रेयसी हो। मेरे प्रति तुम्हारा अनन्य प्रेम है। तुम मुझसे जो-जो अभिलाषाएँ करती हो, वे तो तुम्हें सदा-सर्वदा प्राप्त ही हैं। और यह बात भी है कि मुझसे की हुई अभिलाषाएँ सांसारिक कामनाओं के समान बन्धन में डालने वाली नहीं होतीं, बल्कि वे समस्त कामनाओं से मुक्त कर देती हैं।

पुण्यमयी प्रिये! मैंने तुमहरा पतिप्रेम और पातिव्रत्य भी भलीभाँति देख लिया। मैंने उलटी-सीधी बात कह-कहकर तुम्हें विचलित करना चाहा था; परन्तु तुम्हारी बुद्धि मुझसे तनिक भी इधर-उधर न हुई। प्रिये! मैं मोक्ष का स्वामी हूँ। लोगों को संसार-सागर से पार करता हूँ। जो सकाम पुरुष अनेक प्रकार के व्रत और तपस्या करके दाम्पत्य-जीवन के विषय-सुख की अभिलाषा से मेरा भजन करते हैं, वे मेरी माया से मोहित हैं। मानिनी प्रिये! मैं मोक्ष तथा सम्पूर्ण सम्पदाओं का आश्रय हूँ, अधीश्वर हूँ। मुझ परमात्मा को प्राप्त करके भी जो लोग केवल विषयसुख के साधन सम्पत्ति की ही अभिलाषा करते हैं, मेरी पराभक्ति नहीं चाहते, वे बड़े मन्दभागी हैं, क्योंकि विषयसुख तो नरक में और नरक के ही समान सूकर-कूकर आदि योनियों में भी प्राप्त हो सकते हैं। परन्तु उन लोगों का मन तो विषयों में ही लगा रहता है, इसलिये उन्हें नरक में जाना भी अच्छा जान पड़ता है।

गृहेश्वरी प्राणप्रिये! यह बड़े आनन्द की बात है कि तुमने अब तक निरन्तर संसार-बन्धन से मुक्त करने वाली मेरी सेवा की है। दुष्ट पुरुष ऐसा कभी नहीं कर सकते। जिन स्त्रियों का चित्त दूषित कामनाओं से भरा हुआ है और जो अपनी इन्द्रियों की तृप्ति में ही लगी रहने के कारण अनेकों प्रकार के छल-छन्द रचती रहती हैं, उनके लिये तो ऐसा करना और भी कठिन है। मानिनि! मुझे अपने घर भर में तुम्हारे समान प्रेम करने वाली भार्या और कोई दिखायी नहीं देती। क्योंकि जिस समय तुमने मुझे देखा न था, केवल मेरी प्रशंसा सुनी थी, उस समय भी अपने विवाह में आये हुए राजाओं की उपेक्षा करके ब्राह्मण के द्वारा मेरे पास गुप्त सन्देश भेजा था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षष्टितम अध्याय श्लोक 56-59 का हिन्दी अनुवाद)

तुम्हारा हरण करते समय मैंने तुम्हारे भाई को युद्ध में जीतकर उसे विरूप कर दिया था और अनिरुद्ध के विवाहोत्सव में चौसर खेलते समय बलराम जी ने तो उसे मार ही डाला। किन्तु हमसे वियोग हो जाने की आशंका से तुमने चुपचाप वह सारा दुःख सह लिया। मुझसे एक बात भी नहीं कही। तुम्हारे इस गुण से मैं तुम्हारे वश में हो गया हूँ। तुमने मेरी प्राप्ति के लिये दूत के द्वारा अपना गुप्त सन्देश भेजा था; परन्तु जब तुमने मेरे पहुँचने में कुछ विलम्ब होता देखा; तब तुम्हें यह सारा संसार सूना दीखने लगा। उस समय तुमने अपना यह सर्वांगसुन्दर शरीर किसी दूसरे के योग्य न समझकर इसे छोड़ने का संकल्प कर लिया था। तुम्हारा यह प्रेम-भाव तुम्हारे ही अंदर रहे। हम इसका बदला नहीं चुका सकते। तुम्हारे इस सर्वोच्च प्रेम-भाव का केवल अभिनन्दन करते हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण आत्माराम हैं। वे जब मनुष्यों की-सी लीला कर रहे हैं, तब उसमें दाम्पत्य-प्रेम को बढ़ाने वाले विनोद भरे वार्तालाप भी करते हैं और इस प्रकार लक्ष्मीरूपिणी रुक्मिणी जी के साथ विहार करते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण समस्त जगत् को शिक्षा देने वाले और सर्वव्यापक हैं। वे इसी प्रकार दूसरी पत्नियों के महलों में भी गृहस्थों के समान रहते और गृहस्थोचित धर्म का पालन करते थे।

                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【इकसठवाँ अध्याय】६१

"भगवान की सन्तति का वर्णन तथा अनिरुद्ध के विवाह में रुक्मी का मारा जाना"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकषष्टितम अध्याय श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण की प्रत्येक पत्नी के गर्भ से दस-दस पुत्र उत्पन्न हुए। वे रूप, बल आदि गुणों में अपने पिता भगवान श्रीकृष्ण से किसी बात में कम न थे। राजकुमारियाँ देखतीं कि भगवान श्रीकृष्ण हमारे महल से कभी बाहर नहीं जाते। सदा हमारे ही पास बने रहते हैं। इससे वे यही समझतीं कि श्रीकृष्ण को मैं ही सबसे प्यारी हूँ।

परीक्षित! सच पूछो तो वे अपने पति भगवान श्रीकृष्ण का तत्त्व- उनकी महिमा नहीं समझती थीं। वे सुन्दरियाँ अपने आत्मानन्द में एकरस स्थित भगवान श्रीकृष्ण के कमल-कली के समान सुन्दर मुख, विशाल बाहु, कर्णस्पर्शी नेत्र, प्रेमभरी मुसकान, रसमयी चितवन और मधुर वाणी से स्वयं ही मोहित रहती थीं। वे अपने श्रृंगारसम्बन्धी हावभावों से उनके मन को अपनी ओर खींचने में समर्थ न हो सकीं। वे सोलह हजार से अधिक थीं। अपनी मन्द-मन्द मुस्कान और तिरछी चितवन से युक्त मनोहर भौंहों के इशारे से ऐसे प्रेम के बाण चलाती थीं, जो काम-कला के भावों से परिपूर्ण होते थे, परन्तु किसी भी प्रकार से, किन्हीं साधनों के द्वारा वे भगवान के मन एवं इन्द्रियों में चंचलता नहीं उत्पन्न कर सकीं।

परीक्षित! ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता भी भगवान के वास्तविक स्वरूप को या उनकी प्राप्ति के मार्ग को नहीं जानते। उन्हीं रमारमण भगवान श्रीकृष्ण को उन स्त्रियों ने पति के रूप में प्राप्त किया था। अब नित्य-निरन्तर उनके प्रेम और आनन्द की अभिवृद्धि होती रहती थी और वे प्रेमभरी मुसकराहट, मधुर चितवन, नवसमागम की लालसा आदि से भगवान की सेवा करती रहती थीं। उनमें से सभी पत्नियों के साथ सेवा करने के लिये सैकड़ों दासियाँ रहतीं। फिर भी जब उनके महल में भगवान पधारते, तब वे स्वयं आगे जाकर आदरपूर्वक उन्हें लिवा लातीं, श्रेष्ठ आसन पर बैठातीं, उत्तम सामग्रियों से उनकी पूजा करतीं, चरणकमल पखारतीं, पान खिलाकर खिलातीं, पाँव दबाकर थकावट दूर करतीं, पंखा झलतीं, इत्र-फुलेल, चन्दन आदि लगातीं, फूलों के हार पहनातीं, केश सँवारतीं, सुलातीं, स्नान करातीं और अनेक प्रकार के भोजन कराकर अपने हाथों भगवान की सेवा करतीं।

परीक्षित! मैं कह चुका हूँ कि भगवान श्रीकृष्ण की प्रत्येक पत्नी के दस-दस पुत्र थे। उन रानियों में आठ पटरानियाँ थीं, जिनके विवाह का वर्णन मैं पहले कर चुका हूँ। अब उनके प्रद्युम्न आदि पुत्रों का वर्णन करता हूँ। रुक्मिणी के गर्भ से दस पुत्र हुए- प्रद्युम्न, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, पराक्रमी चारुदेह, सुचारु, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुचन्द्र, विचारू और दसवाँ चारु। ये अपने पिता भगवान श्रीकृष्ण से किसी बात में कम न थे। सत्यभामा के भी दस पुत्र थे- भानु, सुभानु, स्वर्भानु, प्रभानु, भानुमान्, चन्द्रभानु, बृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु, और प्रतिभानु। जाम्बवती के भी भी साम्ब आदि दस पुत्र थे- साम्ब, सुमित्र, पुरुजित्, शतजित्, सहस्रजित्, विजय, चित्रकेतु, वसुमान्, द्रविड और क्रतु। ये सब श्रीकृष्ण को बहुत प्यारे थे। नाग्नजिती सत्या के भी दस पुत्र हुए- वीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रुग, वेगभान, वृष, आम, शंकु, वसु और परम तेजस्वी कुन्ति। कालिन्दी के दस पुत्र ये थे- श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शान्ति, दर्श, पूर्णमास और सबसे छोड़ा सोमक।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकषष्टितम अध्याय श्लोक 15-27 का हिन्दी अनुवाद)

मद्र देश की राजकुमारी लक्ष्मणा के गर्भ से प्रघोष, गात्रवान्, सिंह, बल, प्रबल, ऊर्ध्वग, महाशक्ति, सह, ओज और अपराजिता का जन्म हुआ। मित्रविन्दा के पुत्र थे - वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, अन्नाद, महाश, पावन, वह्नि, और क्षुधि। भद्रा के पुत्र थे- संग्रामजित्, ब्रहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित, जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यक। इन पटरानियों के अतिरिक्त भगवान की रोहिणी आदि सोलह हजार एक सौ और भी पत्नियाँ थीं। उनके दीप्तिमान और ताम्रतप्त आदि दस-दस पुत्र हुए। रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न का मायावती रति के अतिरिक्त भोजकट-नगर-निवासी रुक्मी की पुत्री रुक्मवती से भी विवाह हुआ था। उसी के गर्भ से परम बलशाली अनिरुद्ध का जन्म हुआ।

परीक्षित! श्रीकृष्ण के पुत्रों की माताएँ ही सोलह हजार से अधिक थीं। इसलिये उनके पुत्र-पौत्रों की संख्या करोड़ों तक पहुँच गयी ।

राजा परीक्षित ने पूछा ;- परम ज्ञानी मुनीश्वर! भगवान श्रीकृष्ण ने रणभूमि में रुक्मी का बड़ा तिरस्कार किया था। इसलिये वह सदा इस बात की घात में रहता था कि अवसर मिलते ही श्रीकृष्ण से उसका बदला लूँ और उनका काम तमाम कर डालूँ। ऐसी स्थिति में उसने अपनी कन्या रुक्मवती अपने शत्रु के पुत्र प्रद्युम्न जी को कैसे ब्याह दी? कृपा करके बतलाइये। दो शत्रुओं में- श्रीकृष्ण और रुक्मी में फिर से परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध कैसे हुआ? आपसे कोई बात छिपी नहीं है। क्योंकि योगीजन भूत, भविष्य और वर्तमान की सभी बातें भलीभाँति जानते हैं। उनसे ऐसी बातें भी छिपी नहीं रहती; जो इन्द्रियों से परे हैं, बहुत दूर हैं अथवा बीच में किसी वस्तु की आड़ होने के कारण नहीं दीखतीं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! प्रद्युम्न जी मूर्तिमान् कामदेव थे। उनके सौन्दर्य और गुणों पर रीझकर रुक्मवती ने स्वयंवर में उन्हीं को वरमाला पहना दी। प्रद्युम्न जी ने युद्ध में अकेले ही वहाँ इकट्ठे हुए नरपतियों को जीत लिया और रुक्मवती को हर लाये। यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण से अपमानित होने के कारण रुक्मी के हृदय की क्रोधाग्नि शान्त नहीं हुई थी, वह अब भी उनसे वैर गाँठे हुए था, फिर भी अपनी बहिन रुक्मिणी को प्रसन्न करने के लिये उसने अपने भानजे प्रद्युम्न को अपनी बेटी ब्याह दी। परीक्षित! दस पुत्रों के अतिरिक्त रुक्मिणी जी के एक परम सुन्दरी बड़े-बड़े नेत्र वाली कन्या थी। उसका नाम था चारुमती। कृतवर्मा के पुत्र बली ने उसके साथ विवाह किया।

परीक्षित! रुक्मी का भगवान श्रीकृष्ण के साथ पुराना वैर था। फिर भी अपनी बहिन रुक्मिणी को प्रसन्न करने के लिये उसने अपनी पौत्री रोचना का विवाह रुक्मिणी के पौत्र, अपने नाती (दौहित्र) अनिरुद्ध के साथ कर दिया। यद्यपि रुक्मी को इस बात का पता था कि इस प्रकार का विवाह-सम्बन्ध धर्म के अनुकूल नहीं है, फिर भी स्नेह-बन्धन में बँधकर उसने ऐसा कर दिया। परीक्षित! अनिरुद्ध के विवाहोत्सव में सम्मिलित होने के लिये भगवान श्रीकृष्ण, बलराम जी, रुक्मिणी जी, प्रद्युम्न, साम्ब आदि द्वारिकावासी भोजकट नगर में पधारे। जब विवाहोत्सव निर्विघ्न समाप्त हो गया, तब कलिंगनरेश आदि घमंडी नरपतियों ने रुक्मी से कहा कि ‘तुम बलराम जी को पासों के खेल में जीत लो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकषष्टितम अध्याय श्लोक 28-40 का हिन्दी अनुवाद)

राजन! बलराम जी को पासे डालने तो आते नहीं, परन्तु उन्हें खेलने का बहुत बड़ा व्यसन है।’ उन लोगों के बहकाने से रुक्मी ने बलराम जी को बुलवाया और वह उनके साथ चौसर खेलने लगा। बलराम जी ने पहले सौ, फिर हजार और इसके बाद दस हजार मुहरों का दाँव लगाया। उन्हें रुक्मी ने जीत लिया। रुक्मी की जीत होने पर कलिंगनरेश दाँत दिखा-दिखाकर, ठहाका मारकर बलराम जी की हँसी उड़ाने लगा। बलराम जी से वह हँसी सहन न हुई। वे कुछ चिढ़ गये। इसके बाद रुक्मी ने एक लाख मुहरों का दाँव लगाया। उसे बलराम जी ने जीत लिया। परन्तु रुक्मी धूर्तता से यह कहने लगा कि ‘मैंने जीता है’। इस पर श्रीमान बलराम जी क्रोध से तिलमिला उठे। उनके हृदय में इतना क्षोभ हुआ, मानो पूर्णिमा के दिन समुद्र में ज्वार आ गया हो। उनके नेत्र एक तो स्वभाव से ही लाल-लाल थे, दूसरे अत्यन्त क्रोध के मारे वे और भी दहक उठे। अब उन्होंने दस करोड़ मुहरों का दाँव रखा। इस बार भी द्यूतिनियम के अनुसार बलराम जी की ही जीत हुई। परन्तु रुक्मी ने छल करके कहा- ‘मेरी जीत है। इस विषय के विशेषज्ञ कलिंगनरेश आदि सभासद इसका निर्णय कर दें।'

उस समय आकाशवाणी ने कहा ;- ‘यदि धर्मपूर्वक कहा जाये, तो बलराम जी ने ही यह दाँव जीता है। रुक्मी का यह कहना सरासर झूठ है कि उसने जीता है।' एक तो रुक्मी के सिर पर मौत सवार थी और दूसरे उसके साथी दुष्ट राजाओं ने भी उसे उभाड़ रखा था। इससे उसने आकाशवाणी पर कोई ध्यान न दिया और बलराम जी की हँसी उड़ाते हुए कहा- ‘बलराम जी! आखिर आप लोग वन-वन भटकने वाले ग्वाले ही तो ठहरे! आप पासा खेलना क्या जानें? पासों और बाणों से तो केवल राजा लोग ही खेला करते हैं, आप-जैसे नहीं।'

रुक्मी के इस प्रकार आक्षेप और राजाओं के उपहास करने पर बलराम जी क्रोध से आगबबूला ही थे। उन्होंने एक मुद्गर उठाया और उस मांगलिक सभा में ही रुक्मी को मार डाला। पहले कलिंगनरेश दाँत दिखा-दिखाकर हँसता था, अब रंग में भंग देखकर वहाँ से भागा; परन्तु बलराम जी ने दस ही कदम पर उसे पकड़ लिया और क्रोध से उसके दाँत तोड़ डाले। बलराम जी ने अपने मुद्गर की चोट से दूसरे राजाओं की भी बाँह, जाँघ और सिर आदि तोड़-फोड़ डाले। वे खून से लथपथ और भयभीत होकर वहाँ से भागते बने।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ने यह सोचकर कि बलराम जी का समर्थन करने से रुक्मिणी जी अप्रसन्न होंगी और रुक्मी के वध को बुरा बतलाने से बलराम जी रुष्ट होंगे, अपने साले रुक्मी की मृत्यु पर भला-बुरा कुछ भी न कहा। इसके बाद अनिरुद्ध जी का विवाह और शत्रु का वध दोनों प्रयोजन सिद्ध हो जाने पर भगवान के आश्रित बलराम जी आदि यदुवंशी नवविवाहिता दुलहिन रोचना के साथ अनिरुद्ध जी को श्रेष्ठ रथ पर चढ़ाकर भोजकट नगर से द्वारकापुरी को चले आये।

                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【बासठवाँ अध्याय】६२

          "उषा-अनिरुद्ध-मिलन"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विषष्टितम अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

राजा परीक्षित ने पूछा ;- महायोगसम्पन्न मुनीश्वर! मैंने सुना है कि यदुवंशशिरोमणि अनिरुद्ध जी ने बाणासुर की पुत्री उषा से विवाह किया था और इस प्रसंग में भगवान श्रीकृष्ण और शंकर जी का बहुत बड़ा घमासान युद्ध हुआ था। आप कृपा करके यह वृतान्त विस्तार से सुनाइये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! महात्मा बलि की कथा तो तुम सुन ही चुके हो। उन्होंने वामनरूपधारी भगवान को सारी पृथ्वी का दान कर दिया था। उनके सौ लड़के थे। उनमें सबसे बड़ा था बाणासुर। दैत्यराज बलि का औरस पुत्र बाणासुर भगवान शिव की भक्ति में सदा रत रहता था। समाज में उसका बड़ा आदर था। उसकी उदारता और बुद्धिमत्ता प्रशंसनीय थी। उसकी प्रतिज्ञा अटल होती थी और सचमुच वह बात का धनी था। उन दिनों वह परम रमणीय शोणितपुर में राज्य करता था। भगवान शंकर की कृपा से इन्द्रादि देवता नौकर-चाकर की तरह उनकी सेवा करते थे। उसके हजार भुजाएँ थीं।

एक दिन जब भगवान शंकर ताण्डव नृत्य कर रहे थे, तब उसने अपने हजार हाथों से अनेकों प्रकार के बाजे बजाकर उन्हें प्रसन्न कर लिया। सचमुच भगवान शंकर बड़े ही भक्तवत्सल और शरणागतरक्षक हैं। समस्त भूतों के एकमात्र स्वामी प्रभु ने बाणासुर से कहा- ‘तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो।’ बाणासुर ने कहा- ‘भगवन! आप मेरे नगर की रक्षा करते हुए यहीं रहा करें।'

एक दिन बल-पौरुष के घमंड में चूर बाणासुर ने अपने समीप ही स्थित भगवान शंकर के चरणकमलों को सूर्य के समान चमकीले मुकुट से छूकर प्रणाम किया और कहा- ‘देवाधिवदेव! आप समस्त चराचर जगत् के गुरु और ईश्वर हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। जिन लोगों के मनोरथ अब तक पूरे नहीं हुए थे, उनको पूर्ण करने के लिये आप कल्पवृक्ष हैं। भगवन! आपने मुझे एक हजार भुजाएँ दी हैं, परन्तु वे मेरे लिये केवल भाररूप हो रही हैं। क्योंकि त्रिलोकी में आपको छोड़कर मुझे अपनी बराबरी का कोई वीर-योद्धा ही नहीं मिलता, जो मुझसे लड़ सके। आदिदेव! एक बार मेरी बाहों में लड़ने के लिये इतनी खुजलाहट हुई कि मैं दिग्गजों की ओर चला। परन्तु वे भी डर के मारे भाग खड़े हुए। उस समय मार्ग में अपनी बाहों की चोट से मैंने बहुत से पहाड़ों को तोड़-फोड़ डाला था’।

बाणासुर की यह प्रार्थना सुनकर भगवान शंकर ने तनिक क्रोध से कहा- ‘रे मूढ़! जिस समय तेरी ध्वजा टूटकर गिर जायेगी, उस समय मेरे ही समान योद्धा से तेरा युद्ध होगा और वह युद्ध तेरा घमंड चूर-चूर कर देगा’।

परीक्षित! बाणासुर की बुद्धि इतनी बिगड़ गयी थी कि भगवान शंकर की बात सुनकर उसे बड़ा हर्ष हुआ और वह अपने घर लौट गया। अब वह मूर्ख भगवान शंकर के आदेशानुसार उस युद्ध की प्रतीक्षा करने लगा, जिसमें उसके बल-वीर्य का नाश होने वाला था। परीक्षित! बाणासुर की एक कन्या थी, जिसका नाम था उषा। अभी वह कुमारी ही थी कि एक दिन स्वप्न में उसने देखा कि ‘परम सुन्दर अनिरुद्ध जी के साथ मेरा समागम हो रहा है।’ आश्चर्य की बात तो यह थी कि उसने अनिरुद्ध जी को न तो कभी देखा था और न ही सुना ही था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विषष्टितम अध्याय श्लोक 13-26 का हिन्दी अनुवाद)

स्वप्न में ही उन्हें न देखकर वह बोल उठी ;- ‘प्राणप्यारे! तुम कहाँ हो?’ और उसकी नींद टूट गयी। वह अत्यन्त विह्वलता के साथ उठ बैठी और यह देखकर कि मैं सखियों के बीच में हूँ, बहुत ही लज्जित हुई।

परीक्षित! बाणासुर के मन्त्री का नाम था कुम्भाण्ड। उसकी एक कन्या थी, जिसका नाम था चित्रलेखा। उषा और चित्रलेखा एक-दूसरे की सहेलियाँ थीं। चित्रलेखा ने उषा से कौतूहलवश पूछा- ‘सुन्दरी! राजकुमारी! मैं देखती हूँ कि अभी तक किसी ने तुम्हारा पाणिग्रहण भी नहीं किया है। फिर तुम किसे ढूँढ रही हो और तुम्हारे मनोरथ का क्या स्वरूप है?’

उषा ने कहा ;- सखी! मैंने स्वप्न में एक बहुत ही सुन्दर नवयुवक को देखा है। उसके शरीर का रंग साँवला-साँवला-सा है। नेत्र कमलदल के समान हैं। शरीर पर पीला-पीला पीताम्बर फहरा रहा है। भुजाएँ लम्बी-लम्बी हैं और वह स्त्रियों का चित्त चुराने वाला हैं। उसने पहले तो अपने अधरों का मधुर मधु मुझे पिलाया, परन्तु मैं उसे अघाकर पी ही न पायी थी कि वह मुझे दुःख के सागर में डालकर न जाने कहाँ चला गया। मैं तरसती ही रह गयी। सखी! मैं अपने उसी प्राणवल्लभ को ढूँढ रही हूँ।'

चित्रलेखा ने कहा ;- ‘सखी! यदि तुम्हारा चित्तचोर त्रिलोकी में कहीं भी होगा, और उसे तुम पहचान सकोगी, तो मैं तुम्हारी विरह-व्यथा अवश्य शान्त कर दूँगी। मैं चित्र बनाती हूँ, तुम अपने चित्त चोर प्राणवल्लभ को पहचान कर बतला दो। फिर वह चाहे कहीं भी होगा, मैं उसे तुम्हारे पास ले आऊँगी’। यों कहकर चित्रलेखा ने बात-की-बात में बहुत-से देवता, गन्धर्व, सिद्ध, चारण, पन्नग, दैत्य, विद्याधर, यक्ष और मनुष्यों के चित्र बना दिये। मनुष्यों में उसने वृष्णिवंशी वसुदेव जी के पिता शूर, स्वयं वसुदेव जी, बलराम जी और भगवान श्रीकृष्ण आदि के चित्र बनाये। प्रद्युम्न का चित्र देखते ही उषा लज्जित हो गयी।

परीक्षित! जब उसने अनिरुद्ध का चित्र देखा, तब तो लज्जा के मारे उसका सिर नीचा हो गया। फिर मन्द-मन्द मुसकराते हुए उसने कहा- ‘मेरा यह प्राणवल्लभ यही है, यही है’।

परीक्षित! चित्रलेखा योगिनी थी। वह जान गयी कि ये भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र हैं। अब वह आकाशमार्ग से रात्रि में ही भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित द्वारकापुरी में पहुँची। वहाँ अनिरुद्ध जी बहुत ही सुन्दर पलँग पर सो रहे थे। चित्रलेखा योगसिद्धि के प्रभाव से उन्हें उठाकर शोणितपुर ले आयी और अपनी सखी उषा को उसके प्रियतम का दर्शन करा दिया। अपने परम सुन्दर प्राणवल्लभ को पाकर आनन्द की अधिकता से उसका मुखकमल प्रफुल्लित हो उठा और वह अनिरुद्ध जी के साथ अपने महल में विहार करने लगी।

परीक्षित! उसका अन्तःपुर इतना सुरक्षित था कि उसकी ओर कोई पुरुष झाँक तक नहीं सकता था। उषा का प्रेम दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जा रहा था। वह बहुमूल्य वस्त्र, पुष्पों के हार, इत्र-फुलेल, धूप-दीप, आसन आदि सामग्रियों से, सुमधुर पेय (पीने योग्य पदार्थ- दूध, शरबत आदि), भोज्य (चबाकर खाने-योग्य) और भक्ष्य (निगल जाने योग्य) पदार्थों से तथा मनोहर वाणी एवं सेवा-शुश्रूषा से अनिरुद्ध जी का बड़ा सत्कार करती। उषा ने अपने प्रेम से उनके मन को अपने वश में कर लिया। अनिरुद्ध जी उस कन्या के अन्तःपुर में छिपे रहकर अपने-आपको भूल गये। उन्हें इस बात का भी पता न चला कि मुझे यहाँ आये कितने दिन बीत गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विषष्टितम अध्याय श्लोक 27-35 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! यदुकुमार अनिरुद्ध जी के सहवास से उषा का कुआँरपन नष्ट हो चुका था। उसके शरीर पर ऐसे चिह्न प्रकट हो गये, जो स्पष्ट इस बात की सूचना दे रहे थे और जिन्हें किसी प्रकार छिपाया नहीं जा सकता था। उषा बहुत प्रसन्न भी रहने लगी। पहरेदारों ने समझ लिया कि इसका किसी-न-किसी पुरुष से सम्बन्ध अवश्य हो गया है। उन्होंने जाकर बाणासुर से निवेदन किया- ‘राजन्! हम लोग आपकी अविवाहिता राजकुमारी का जैसा रंग-ढंग देख रहे हैं, वह आपके कुल पर बट्टा लगाने वाला है। प्रभो! इसमें सन्देह नहीं कि हम लोग बिना क्रम टूटे, रात-दिन महल का पहरा देते रहते हैं। आपकी कन्या को बाहर के मनुष्य देख भी नहीं सकते। फिर भी वह कलंकित कैसे हो गयी? इसका कारण हमारी समझ में नहीं आ रहा है’।

परीक्षित! पहरेदारों से यह समाचार जानकार कि कन्या का चरित्र दूषित हो गया है, बाणासुर के हृदय में बड़ी पीड़ा हुई। वह झटपट उषा के महल में जा धमका और देखा कि अनिरुद्ध जी वहाँ बैठे हुए हैं। प्रिय परीक्षित! अनिरुद्ध जी स्वयं कामावतार प्रद्युम्न जी के पुत्र थे। त्रिभुवन में उनके जैसा सुन्दर और कोई न था। साँवला-सलोना शरीर और उस पर पीताम्बर फहराता हुआ, कमलदल के समान बड़ी-बड़ी कोमल आँखें, लम्बी-लम्बी भुजाएँ, कपोलों पर घुँघराली अलकें और कुण्डलों की झिलमिलाती हुई ज्योति, होठों पर मन्द-मन्द मुस्कान और प्रेमभरी चितवन से मुख की शोभा अनूठी हो रही थी। अनिरुद्ध जी उस समय अपनी सब ओर से सज-धजकर बैठी हुई प्रियतमा उषा के साथ पासे खेल रहे थे। उनके गले में बसंती बेला के बहुत सुन्दर पुष्पों का हार सुशोभित हो रहा था और उस हार में उषा के अंग का सम्पर्क होने से उसके वक्षःस्थल की केशर लगी हुई थी। उन्हें उषा के सामने ही बैठा देखकर बाणासुर विस्मित- चकित हो गया।

जब अनिरुद्ध जी ने देखा कि बाणासुर बहुत-से आक्रमणकारी शस्त्रास्त्र से सुसज्जित वीर सैनिकों के साथ महलों में घुस आया है, तब वे उन्हें धराशायी कर देने के लिये लोहे का एक भयंकर परिघ लेकर डट गये, मानो स्वयं कालदण्ड लेकर मृत्यु (यम) खड़ा हो। बाणासुर के साथ आये हुए सैनिक उनको पकड़ने के लिये ज्यों-ज्यों उनकी ओर झपटते, त्यों-त्यों वे उन्हें मार-मारकर गिराते जाते-ठीक वैसे ही, जैसे सूअरों के दल का नायक कुत्तों को मार डाले।

अनिरुद्ध जी की चोट से उन सैनिकों के सिर, भुजा, जंघा आदि अंग टूट-फूट गये और वे महलों से निकल भागे। जब बली बाणासुर ने देखा कि यह तो मेरी सारी सेना का संहार कर रहा है, तब वह क्रोध से तिलमिला उठा और उसने नागपाश से उन्हें बाँध लिया। उषा ने जब सुना कि उसके प्रियतम को बाँध लिया गया है, तब वह अत्यन्त शोक और विषाद से विह्वल हो गयी; उसके नेत्रों से आँसू की धारा बहने लगी, वह रोने लगी।


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【तिरसठवाँ अध्याय】६३

         "भगवान श्रीकृष्ण के साथ बाणासुर का युद्ध"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिषष्टितम अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! बरसात के चार महीने बीत गये। परन्तु अनिरुद्ध जी का कहीं पता न चला। उनके घर के लोग, इस घटना से बहुत ही शोकाकुल हो रहे थे। एक दिन नारद जी ने आकर अनिरुद्ध का शोणितपुर जाना, वहाँ बाणासुर के सैनिकों को हराना और फिर नागपाशमें बाँधा जाना- यह सारा समाचार सुनाया। तब श्रीकृष्ण को ही अपना आराध्यदेव मानने वाले यदुवंशियों ने शोणितपुर पर चढ़ाई कर दी। अब श्रीकृष्ण और बलराम जी के साथ उनके अनुयायी सभी यदुवंशी- प्रद्युम्न, सात्यकि, गद, साम्ब, सारण, नन्द, उपनन्द और भद्र आदि ने बारह अक्षौहिणी सेना के साथ व्यूह बनाकर चारों ओर से बाणासुर की राजधानी को घेर लिया।

जब बाणासुर ने देखा कि यदुवंशियों की सेना नगर के उद्यान, परकोटों, बुर्जों और सिंहद्वारों को तोड़-फोड़ रही है, तब उसे बड़ा क्रोध आया और वह भी बारह अक्षौहिणी सेना लेकर नगर से निकल पड़ा। बाणासुर की ओर से साक्षात् भगवान शंकर वृषभराज नन्दी पर सवार होकर अपने पुत्र कार्तिकेय और गणों के साथ रणभूमि में पधारे और उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण तथा बलराम जी से युद्ध किया। परीक्षित! वह युद्ध इतना अद्भुत और घमासान हुआ कि उसे देखकर रोंगटे खड़े हो जाते थे। भगवान श्रीकृष्ण से शंकर जी का और प्रद्युम्न से स्वामी कार्तिकेय का युद्ध हुआ। बलराम जी से कुम्भाण्ड और कूपकर्ण का युद्ध हुआ। बाणासुर के पुत्र के साथ साम्ब और स्वयं बाणासुर के साथ सात्यकि भिड़ गये। ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता, ऋषि-मुनि, सिद्ध-चारण, गन्धर्व-अप्सराएँ और यक्ष विमानों पर चढ़-चढ़कर युद्ध देखने के लिये आ पहुँचे।

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने शारंगधनुष के तीखी नोक वाले बाणों से शंकर जी के अनुचरों- भूत, प्रेत, प्रमथ, गुह्यक, डाकिनी, यातुधान, वेताल, विनायक, प्रेतगण, मातृगण, पिशाच, कूष्माण्ड और ब्रह्म-राक्षसों को मार-मारकर खदेड़ दिया। पिनाकपाणि शंकर जी ने भगवान श्रीकृष्ण पर भाँति-भाँति के अगणित अस्त्र-शास्त्रों का प्रयोग किया, किन्तु भगवान श्रीकृष्ण ने बिना किसी प्रकार के विस्मय के उन्हें विरोधी शस्त्रास्त्रों से शान्त कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मास्त्र की शान्ति के लिये ब्रह्मास्त्र का, वायव्यास्त्र के लिये पर्वतास्त्र का, आग्नेयास्त्र के लिये पर्जन्यास्त्र का और पाशुपतास्त्र के लिये नारायणास्त्र का प्रयोग किया। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने जृम्भणास्त्र से (जिससे मनुष्य को जँभाई-पर-जँभाई आने लगती है) महादेव जी को मोहित कर दिया। वे युद्ध से विरत होकर जँभाई लेने लगे, तब भगवान श्रीकृष्ण शंकर जी से छुट्टी पाकर तलवार, गदा और बाणों से बाणासुर की सेना कर संहार करने लगे। इधर प्रद्युम्न ने बाणों की बौछार से स्वामी कार्तिकेय को घायल कर दिया, उनके अंग-अंग से रक्त की धारा बह चली, वे रणभूमि छोड़कर अपने वाहन मयूर द्वारा भाग निकले।

बलराम जी ने अपने मूसल की चोट से कुम्भाण्ड और कुपकर्ण को घायल कर दिया, वे रणभूमि में गिर पड़े। इस प्रकार अपने सेनापतियों को हताहत देखकर बाणासुर की सारी सेना तितर-बितर हो गयी। जब रथ पर सवार बाणासुर ने देखा कि श्रीकृष्ण आदि के प्रहार से हमारी सेना तितर-बितर और तहस-नहस हो रही है, तब उसे बड़ा क्रोध आया। उसने चिढ़कर सात्यकि को छोड़ दिया और वह भगवान श्रीकृष्ण पर आक्रमण करने के लिये दौड़ पड़ा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिषष्टितम अध्यायः श्लोक 18-31 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! रणोन्मत्त बाणासुर ने अपने एक हजार हाथों से एक साथ ही पाँच सौ धनुष खींचकर एक-एक पर दो-दो बाण चढ़ाये, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण ने एक साथ ही उसके सारे धनुष काट डाले और सारथि, रथ तथा घोड़ों को भी धराशायी कर दिया एवं शंखध्वनि की। कोटरा नाम की एक देवी बाणासुर की धर्ममाता थी। वह अपने उपासक पुत्र के प्राणों की रक्षा के लिये बाल बिखेरकर नंग-धड़ंग भगवान श्रीकृष्ण के सामने आकर खड़ी हो गयी। भगवान श्रीकृष्ण ने इसलिये कि कहीं उस पर दृष्टि न पड़ जाये, अपना मुँह फेर लिया और वे दूसरी ओर देखने लगे। तब तक बाणासुर धनुष कट जाने और रथहीन हो जाने के कारण अपने नगर में चला गया।

इधर जब भगवान शंकर के भूतगण इधर-उधर भाग गये, तब उनका छोड़ा हुआ तीन सिर और तीन पैर वाला ज्वर दसों दिशाओं को जलाता हुआ-सा भगवान श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा। भगवान श्रीकृष्ण ने उसे अपनी ओर आते देखकर उसका मुकबला करने के लिये अपना ज्वर छोड़ा। अब वैष्णव और माहेश्वर दोनों ज्वर आपस में लड़ने लगे। अन्त में वैष्णव ज्वर के तेज से माहेश्वर ज्वर पीड़ित होकर चिल्लाने लगा और अत्यन्त भयभीत हो गया। जब उसे अन्यत्र कहीं त्राण न मिला, तब वह अत्यन्त नम्रता से हाथ जोड़कर शरण में लेने के लिये भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना करने लगा ।

ज्वर ने कहा ;- प्रभो! आपकी शक्ति अनन्त है। आप ब्रह्मादि ईश्वरों के भी परम महेश्वर हैं। आप सबके आत्मा और सर्वस्वरूप हैं। आप अद्वितीय और केवल ज्ञानस्वरूप हैं। संसार की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के कारण आप ही हैं। श्रुतियों के द्वारा आपका ही वर्णन और अनुमान किया जाता है। आप समस्त विकारों से रहित स्वयं ब्रह्म हैं। मैं आपको प्रणाम करता हूँ। काल, दैव (अदृष्ट), कर्म, जीव, स्वभाव, सूक्ष्मभूत, शरीर, सुत्रात्मा प्राण, अहंकार, एकादश इन्द्रियाँ और पंचभूत- इन सबका संघात लिंगशरीर और बीजांकुर-न्याय के अनुसार उससे कर्म और कर्म से फिर लिंग-शरीर की उत्पत्ति- यह सब आपकी माया है। आप माया के निषेध की परम अवधि हैं। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ। प्रभो! आप अपनी लीला से ही अनेकों रूप धारण कर लेते हैं और देवता, साधु तथा लोकमर्यादाओं का पालन-पोषण करते हैं। साथ ही उन्मार्गगामी और हिंसक असुरों का संहार भी करते हैं। आपका यह अवतार पृथ्वी का भार उतारने के लिये ही हुआ है। प्रभो! आपके शान्त, उग्र और अत्यन्त भयानक दुस्सह तेज ज्वर से मैं अत्यन्त सन्तप्त हो रहा हूँ। भगवन्! देहधारी जीवों को तभी तक ताप-सन्ताप रहता है, जब तक वे आशा के फंदों में फँसे रहने के कारण आपके चरण-कमलों की शरण नहीं ग्रहण करते।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- ‘त्रिशिर! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। अब तुम मेरे ज्वर से निर्भय हो जाओ। संसार में जो कोई हम दोनों के संवाद का स्मरण करेगा, उसे तुमसे कोई भय न रहेगा’।

भगवान श्रीकृष्ण के इस प्रकार कहने पर माहेश्वर ज्वर उन्हें प्रणाम करके चला गया। तब तक बाणासुर रथ पर सवार होकर भगवान श्रीकृष्ण से युद्ध करने के लिये फिर आ पहुँचा। परीक्षित! बाणासुर ने अपने हजार हाथों में तरह-तरह हथियार ले रखे थे। अब वह अत्यन्त क्रोध में भरकर चक्रपाणि भगवान पर बाणों की वर्षा करने लगा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिषष्टितम अध्यायः श्लोक 32-43 का हिन्दी अनुवाद)

जब भगवान् श्रीकृष्ण ने देखा कि बाणासुर ने तो बाणों की झड़ी लगा दी है, तब वे छुरे के समान तीखी धार वाले चक्र से उसकी भुजाएँ काटने लगे, मानो कोई किसी वृक्ष की छोटी-छोटी डालियाँ काट रहा हो। जब भक्तवत्सल भगवान् शंकर ने देखा की बाणासुर की भुजाएँ कट रही हैं, तब वे चक्रधारी भगवान् श्रीकृष्ण के पास आये और स्तुति करने लगे।

भगवान् शंकर ने कहा ;- प्रभो! आप वेदमन्त्रों में तात्पर्यरूप से छिपे हुए परमज्योतिः-स्वरूप परब्रह्म हैं। शुद्धहृदय महात्मागण आपके आकाश के समान सर्वव्यापक और निर्विकार (निर्लेप) स्वरूप का साक्षात्कार करते हैं। आकाश आपकी नाभि है, अग्नि मुख हैं और जल वीर्य। स्वर्ग सिर, दिशाएँ कान और पृथ्वी चरण हैं। चन्द्रमा मन, सूर्य नेत्र और मैं शिव आपका अहंकार हूँ। समुद्र आपका पेट है और इन्द्र भुजा। धान्यादि ओषधियाँ रोम हैं, मेघ केश हैं और ब्रह्मा बुद्धि। प्रजापति लिंग हैं और धर्म हृदय। इस प्रकार समस्त लोक और लोकान्तरों के साथ जिसके शरीर की तुलना की जाती है, वे परमपुरुष आप ही हैं। अखण्ड ज्योतिःस्वरूप परमात्मन्! आपका यह अवतार धर्म की रक्षा और संसार के अभ्युदय- अभिवृद्धि के लिये हुआ है। हम सब भी आपके प्रभाव से ही प्रभावान्वित होकर सातों भुवनों का पालन करते हैं। आप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद से रहित हैं- एक और अद्वितीय आदिपुरुष हैं। मायाकृत जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति- इन तीन अवस्थाओं से में अनुगत और उनसे अतीत तुरीयतत्त्व भी आप ही हैं। आप किसी दूसरी वस्तु के द्वारा प्रकाशित नहीं होते, स्वयं प्रकाश हैं। आप सबके कारण हैं, परन्तु आपका न तो कोई कारण है और न तो आप में कारणपना ही है।

भगवन्! ऐसा होने पर भी आप तीनों गुणों की विभिन्न विषमताओं को प्रकाशित करने के लिये अपनी माया से देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि शरीरों के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों में प्रतीत होते हैं। प्रभो! जैसे सूर्य अपनी छाया बादलों से ही ढक जाता है और उन बादलों तथा विभिन्न रूपों को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार आप तो स्वयं प्रकाश हैं, परन्तु गुणों के द्वारा मानो ढक-से जाते हैं और समस्त गुणों तथा गुणाभिमानी जीवों को प्रकाशित करते हैं। वास्तव में आप अनन्त हैं।

भगवन्! आपकी माया से मोहित होकर लोग स्त्री-पुत्र, देह-गेह आदि में आसक्त हो जाते हैं और फिर दुःख के अपार सागर में डूबने-उतराने लगते हैं। संसार के मानवों को यह मनुष्य-शरीर आपने अत्यन्त कृपा करके दिया है। जो पुरुष इसे पाकर भी अपनी इन्द्रियों को वश में करता और आपके चरणकमलों का आश्रय नहीं लेता- उनका सेवन नहीं करता, उसका जीवन अत्यन्त शोचनीय है और वह स्वयं अपने-आपको धोखा दे रहा है। प्रभो! आप समस्त प्राणियों के आत्मा, प्रियतम और ईश्वर हैं। जो मृत्यु का ग्रास मनुष्य आपको छोड़ देता है और अनात्म, दुःखरूप एवं तुच्छ विषयों में सुखवृद्धि करके उनके पीछे भटकता है, वह इतना मूर्ख कि अमृत को छोड़कर विष पी रहा है। मैं, ब्रह्मा सारे देवता और विशुद्ध हृदय वाले ऋषि-मुनि सब प्रकार से और सर्वात्मभाव से आपके शरणागत हैं; क्योंकि आप ही हम लोगों के आत्मा, प्रियतम और ईश्वर हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिषष्टितम अध्यायः श्लोक 44-53 का हिन्दी अनुवाद)

आप जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के कारण हैं। आप सब में सम, परम शान्त, सबके सुह्रद्, आत्मा और इष्टदेव हैं। आप एक, अद्वितीय और जगत् के आधार तथा अधिष्ठान हैं। हे प्रभो! हम सब संसार से मुक्त होने के लिये आपका भजन करते हैं।

देव! यह बाणासुर मेरा परम प्रिय, कृपापात्र और सेवक है। मैंने इसे अभयदान दिया है। प्रभो! जिस प्रकार इसके परदादा दैत्यराज प्रह्लाद पर आपका कृपा प्रसाद है, वैसा ही कृपा प्रसाद आप इस पर भी करें।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- भगवन्! आपकी बात मानकर- जैसा आप चाहते हैं, मैं इसे निर्भय किये देता हूँ। आपने पहले इसके सम्बन्ध में जैसा निश्चय किया था- मैंने इसकी भुजाएँ काटकर उसी का अनुमोदन किया है। मैं जानता हूँ कि बाणासुर दैत्यराज बलि का पुत्र है। इसलिये मैं भी इसका वध नहीं कर सकता; क्योंकि मैंने प्रह्लाद को वर दे दिया कि मैं तुम्हारे वंश में पैदा होने वाले किसी भी दैत्य का वध नहीं करूँगा। इसका घमंड चूर करने के लिये ही मैंने इसकी भुजाएँ काट दी हैं। इसकी बहुत बड़ी सेना पृथ्वी के लिये भार हो रही थी, इसीलिये मैंने उसका संहार कर दिया है। अब इसकी चार भुजाएँ बच रही हैं। ये अजर, अमर बनी रहेंगी। यह बाणासुर आपके पार्षदों में मुख्य होगा। अब इसको किसी से किसी प्रकार का भय नहीं है।

श्रीकृष्ण से इस प्रकार अभयदान प्राप्त करके बाणासुर ने उनके पास आकर धरती में माथा टेका, प्रणाम किया और अनिरुद्ध जी को अपनी पुत्री उषा के साथ रथ पर बैठाकर भगवान के पास ले आया। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने महादेवी जी की सम्मति से वस्त्रालंकार विभूषित उषा और अनिरुद्ध जी को एक अक्षौहिणी सेना के साथ आगे करके द्वारका के लिये प्रस्थान किया।

इधर द्वारका में भगवान श्रीकृष्ण आदि के शुभागमन का समाचार सुनकर झंडियों और तोरणों से नगर का कोना-कोना सजा दिया गया। बड़ी-बड़ी सड़कों और चौराहों को चन्दन-मिश्रित जल से सींच दिया गया। नगर नागरिकों, बन्धु-बान्धवों और ब्राह्मणों ने आगे आकर खूब धूमधाम से भगवान का स्वागत किया। उस समय शंख, नगारों और ढोलों की तुमुल ध्वनि हो रही थी। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी राजधानी में प्रवेश किया।

परीक्षित! जो पुरुष श्रीशंकर जी के साथ भगवान श्रीकृष्ण का युद्ध और उनकी विजय की कथा का प्रातःकाल उठकर स्मरण करता है, उसकी पराजय नहीं होती।


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【चौसठवाँ अध्याय】६४

                   "नृग राजा की कथा"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुःषष्टितम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- प्रिय परीक्षित! एक दिन साम्ब, प्रद्युम्न, चारुभानु और गद आदि यदुवंशी राजकुमार घूमने के लिये उपवन में गये। वहाँ बहुत देर तक खेल खेलते हुए उन्हें प्यास लग आयी। अब वे इधर-उदर जल की खोज करने लगे। वे एक कुएँ के पास गये; उसमें जल तो था नहीं, एक बड़ा विचित्र जीव दीख पड़ा। वह जीव पर्वत के समान आकार का एक गिरगिट था। उसे देखकर उनके आश्चर्य की सीमा न रही। उनका हृदय करुणा से भर आया और वे उसे बाहर निकालने का प्रयत्न करने लगे। परन्तु जब वे राजकुमार उस गिरे हुए गिरगिट को चमड़े और सूत की रस्सियों से बाँधकर बाहर न निकाल सके, तब कुतूहलवश उन्होंने यह आश्चर्यमय वृत्तान्त भगवान श्रीकृष्ण के पास जाकर निवेदन किया।

जगत् के जीवनदाता कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण उस कुएँ पर आये। उसे देखकर उन्होंने बायें हाथ से खेल-खेल में- अनायास ही उसको बाहर निकाल लिया। भगवान श्रीकृष्ण के करकमलों का स्पर्श होते ही उसका गिरगिट-रूप जाता रहा और वह एक स्वर्गीय देवता के रूप में परिणत हो गया। अब उसके शरीर का रंग तपाये हुए सोने के समान चमक रहा था और उसके शरीर पर अद्भुत वस्त्र, आभूषण और पुष्पों के हार शोभा पा रहे थे। यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण जानते थे कि इस दिव्य पुरुष को गिरगिट-योनि क्यों मिली थी, फिर भी वह कारण सर्वसाधारण को मालूम हो जाये, इसलिये उन्होंने उस दिव्य पुरुष से पूछा- ‘महाभाग! तुम्हारा यह रूप तो बहुत ही सुन्दर है। तुम हो कौन? मैं तो ऐसा समझता हूँ कि तुम अवश्य ही कोई श्रेष्ठ देवता हो। कल्याणमूर्ते! किस कर्म के फल से तुम्हें इस योनि में आना पड़ा था? वास्तव में तुम इसके योग्य नहीं हो। हम लोग तुम्हारा वृत्तान्त जानना चाहते हैं। यदि तुम हम लोगों को वह बतलाना उचित समझो तो अपना परिचय अवश्य दो’।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब अनन्तमूर्ति भगवान श्रीकृष्ण ने राजा नृग से (क्योंकि वे ही इस रूप में प्रकट हुए थे) इस प्रकार पूछा, तब उन्होंने अपना सूर्य के समान जाज्वल्यमान मुकुट झुकाकर भगवान को प्रणाम किया और वे इस प्रकार कहने लगे।

राजा नृग ने कहा ;- प्रभो! मैं महाराज इक्ष्वाकु का पुत्र राजा नृग हूँ। जब कभी किसी ने आपके सामने दानियों की गिनती की होगी, तब उसमें मेरा नाम भी अवश्य ही आपके कानों में पड़ा होगा। प्रभो! आप समस्त प्राणियों की एक-एक वृत्ति के साक्षी हैं। भूत और भविष्य का व्यवधान भी आपके अखण्ड ज्ञान में किसी प्रकार की बाधा नहीं डाल सकता। अतः आपसे छिपा ही क्या है? फिर भी मैं आपकी आज्ञा का पालन करने के लिये कहता हूँ।

भगवन्! पृथ्वी में जितने धूलिकण हैं, आकाश में जितने तारे हैं और वर्षा में जितनी जल की धाराएँ गिरती हैं, मैंने उतनी ही गौएँ दान की थीं। वे सभी गौएँ दुधार, नौजवान, सीधी, सुन्दर, सुलक्षणा और कपिला थीं। उन्हें मैंने न्याय के धन से प्राप्त किया था। सबके साथ बछड़े थे। उनके सींगों में सोना मढ़ दिया गया था और खुरों में चाँदी। उन्हें वस्त्र, हार और गहनों से सजा दिया जाता था। ऐसी गौएँ मैने दी थीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुःषष्टितम अध्याय श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद)

भगवन्! मैं युवावस्था से सम्पन्न श्रेष्ठ ब्राह्मणकुमारों को- जो सद्गुणी, शीलसम्पन्न, कष्ट में पड़े हुए कुटुम्ब वाले, दम्भरहित, तपस्वी, वेदपाठी, शिष्यों को विद्यादान करने वाले तथा सच्चरित्र होते- वस्त्राभूषण से अलंकृत करता और उन गौओं का दान करता। इस प्रकार मैंने बहुत-सी गौएँ, पृथ्वी, सोना, घर, घोड़े, हाथी, दासियों के सहित कन्याएँ, तिलों के पर्वत, चाँदी, शय्या, वस्त्र, रत्न, गृह-सामग्री और रथ आदि दान किये। अनेकों यज्ञ किये और बहुत-से कुएँ, बावली आदि बनवाये।

एक दिन किसी अप्रतिग्रही (दान न लेने वाले), तपस्वी ब्राह्मण की एक गाय बिछुड़कर मेरी गौओं में आ मिली। मुझे इस बात का बिलकुल पता न चला। इसलिये मैंने अनजान में उसे किसी दूसरे ब्राह्मण को दान कर दिया। जब उस गाय को वे ब्राह्मण ले चले, तब उस गाय के असली स्वामी ने कहा- ‘यह गौ मेरी है।’ दान ले जाने वाले ब्राह्मण ने कहा- ‘यह तो मेरी है, क्योंकि राजा नृग ने मुझे इसका दान किया है’। वे दोनों ब्राह्मण आपस में झगड़ते हुए अपनी-अपनी बात कायम करने के लिये मेरे पास आये। एक ने कहा- 'यह गाय अभी-अभी आपने मुझे दी है’ और दूसरे ने कहा कि ‘यदि ऐसी बात है तो तुमने मेरी गाय चुरा ली है।’

भगवन्! उन दोनों ब्राह्मणों की बात सुनकर मेरा चित्त भ्रमित हो गया। मैंने धर्मसंकट में पड़कर उन दोनों से बड़ी अनुनय-विनय की और कहा कि ‘मैं बदले में एक लाख उत्तम गौएँ दूँगा। आप लोग मुझे यह गाय दे दीजिये। मैं आप लोगों का सेवक हूँ। मुझसे अनजाने में यह अपराध बन गया है। मुझ पर आप लोग कृपा कीजिये और मुझे इस घोर कष्ट से तथा घोर नरक में गिरने से बचा लीजिये’।

‘राजन! मैं इसके बदले मैं कुछ नहीं लूँगा।’ यह कहकर गाय का स्वामी चला गया।'

‘तुम इसके बदले में एक लाख ही नहीं, दस हजार गौएँ और दो तो भी मैं लेने का नहीं।’ इस प्रकार कहकर दूसरा ब्राह्मण भी चला गया। देवाधिदेव जगदीश्वर! इसके बाद आयु समाप्त होने पर यमराज के दूत आये और मुझे यमपुरी ले गये। वहाँ यमराज ने मुझसे पूछा- ‘राजन! तुम पहले अपने पाप का फल भोगना चाहते हो या पुण्य का? तुम्हारे दान और धर्म के फलस्वरूप तुम्हें ऐसा तेजस्वी लोक प्राप्त होने वाला है, जिसकी कोई सीमा ही नहीं है’। भगवन! तब मैंने यमराज से कहा- ‘देव! पहले मैं अपने पाप का फल भोगना चाहता हूँ’ और उसी क्षण यमराज ने कहा- ‘तुम गिर जाओ।’ उनके ऐसा कहते ही मैं वहाँ से गिरा और गिरते ही समय मैंने देखा कि मैं गिरगिट हो गया हूँ।

प्रभो! मैं ब्राह्मणों का सेवक, उदार, दानी और आपका भक्त था। मुझे इस बात की उत्कृष्ट अभिलाषा थी कि किसी प्रकार आपके दर्शन हो जायें। इस प्रकार आपकी कृपा से मेरे पूर्वजन्मों की स्मृति नष्ट न हुई। भगवन! आप परमात्मा हैं। बड़े-बड़े शुद्ध-हृदय योगीश्वर उपनिषदों की दृष्टि से (अभेददृष्टि से) अपने हृदय में आपका ध्यान करते हैं। इन्द्रियातीत परमात्मन्! साक्षात् आप मेरे नेत्रों के सामने कैसे आ गये! क्योंकि मैं तो अनेक प्रकार के व्यसनों, दुःखद कर्मों में फँसकर अंधा हो रहा था। आपका दर्शन तो तब होता है, जब संसार के चक्कर से छुटकारा मिलने का समय आता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुःषष्टितम अध्याय श्लोक 27-40 का हिन्दी अनुवाद)

देवताओं के भी आराध्यदेव! पुरुषोत्तम गोविन्द! आप ही व्यक्त और अव्यक्त जगत् तथा जीवों के स्वामी हैं। अविनाशी अच्युत! आपकी कीर्ति पवित्र है। अन्तर्यामी नारायण! आप ही समस्त वृत्तियों और इन्द्रियों के स्वामी हैं। प्रभो! श्रीकृष्ण! मैं अब देवताओं के लोक में जा रहा हूँ। आप मुझे आज्ञा दीजिये। आप ऐसी कृपा कीजिये कि मैं चाहे कहीं-कहीं भी क्यों न रहूँ, मेरा चित्त सदा आपके चरणकमलों में ही लगा रहे। आप समस्त कार्यों और कारणों के रूप में विद्यमान हैं। आपकी शक्ति अनन्त हैं और आप स्वयं ब्रह्म हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वान्तर्यामी वासुदेव श्रीकृष्ण! आप समस्त योगों के स्वामी योगेश्वर हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।

राजा नृग ने इस प्रकार कहकर भगवान की परिक्रमा की और अपने मुकुट से उनके चरणों का स्पर्श करके प्रणाम किया। फिर उनसे आज्ञा लेकर सबके देखते-देखते ही वे श्रेष्ठ विमान पर सवार हो गये।

राजा नृग के चले जाने पर ब्राह्मणों के परम प्रेमी, धर्म के आधार देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने क्षत्रियों को शिक्षा देने के लिये वहाँ उपस्थित अपने कुटुम्ब के लोगों से कहा- ‘जो लोग अग्नि के समान तेजस्वी हैं, वे भी ब्राह्मणों का थोड़े-से-थोड़ा धन हड़पकर नहीं पचा सकते। फिर जो अभिमानवश झूठ-मूठ अपने को लोगों का स्वामी समझते हैं, वे राजा तो क्या पचा सकते हैं? मैं हलाहल विष को विष नहीं मानता, क्योंकि उसकी चिकित्सा होती है। वस्तुतः ब्राह्मणों का धन ही परम विष है, उसको पचा लेने के लिये पृथ्वी में कोई औषध, कोई उपाय नहीं है। हलाहल विष केवल खाने वाले का ही प्राण लेता है और आग भी जल के द्वारा बुझायी जा सकती है; परन्तु ब्राह्मण के धन रूप अरणि से जो आग पैदा होती है, वह सारे कुल को समूल जला डालती है। ब्राह्मण का धन यदि उसकी पूरी-पूरी सम्मति लिये बिना भोगा जाये, तब तो वह भोगने वाले, उसके लड़के और पौत्र- इन तीन पीढ़ियों को ही चौपट करता है। परन्तु यदि बलपूर्वक हठ करके उसका उपभोग किया जाये, तब तो पूर्वपुरुषों की दस पिढ़ियाँ और आगे की भी दस पीढ़ियाँ नष्ट हो जाती हैं।

जो मूर्ख राजा अपनी राजलक्ष्मी के घमंड से अंधे होकर ब्राह्मणों का धन हड़पना चाहते हैं, समझना चाहिये कि वे जान-बूझकर नरक में जाने का रास्ता साफ कर रहे हैं। वे देखते नहीं कि उन्हें अधःपतन के कैसे गहरे गड्ढे में गिरना पड़ेगा। जिन उदारहृदय और बहु-कुटुम्बी ब्राह्मणों की वृत्ति छीन ली जाती है, उनके रोने पर उनके आँसू की बूँदों से धरती के जितने धूलकण भीगते हैं, उतने वर्षों तक ब्राह्मण के स्वत्व को छिनने वाले उस उच्छ्रंखल राजा और उसके वंशजों को कुम्भीपाक नरक में दुःख भोगना पड़ता है। जो मनुष्य अपनी या दूसरों की दी हुई ब्राह्मणों की वृत्ति, उनकी जीविका के साधन छीन लेते हैं, वे साठ हजार वर्ष तक विष्ठा के कीड़े होते हैं। इसलिये मैं तो यही चाहता हूँ कि ब्राह्मणों का धन कभी भूल से भी मेरे कोष में न आये, क्योंकि जो लोग ब्राह्मणों के धन की इच्छा भी करते हैं, उसे छिनने की बात तो अलग रही- वे इस जन्म में अल्पायु, शत्रुओं से पराजित और राज्यभ्रष्ट हो जाते हैं और मृत्यु के बाद भी दूसरों को कष्ट देने वाले साँप ही होते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुःषष्टितम अध्याय श्लोक 41-44 का हिन्दी अनुवाद)

इसलिये मेरे आत्मीयो! यदि ब्राह्मण अपराध करे, तो भी उससे द्वेष मत करो। वह मार ही क्यों न बैठे या बहुत-सी गालियाँ या शाप ही क्यों न दे, उसे तुम लोग सदा नमस्कार ही करो। जिस प्रकार मैं बड़ी सावधानी से तीनों समय ब्राह्मणों को प्रणाम करता हूँ, वैसे ही तुम लोग भी किया करो। जो मेरी इस आज्ञा का उल्लंघन करेगा, उसे मैं क्षमा नहीं करूँगा, दण्ड दूँगा।

यदि ब्राह्मण के धन का अपहरण हो जाये तो वह अपहृत धन उस अपहरण करने वाले को-अनजान में उसके द्वारा यह अपराध हुआ हो तो भी-अधःपतन के गड्ढे में डाल देता है। जैसे ब्राह्मण की गाय ने अनजान में उसे लेने वाले राजा नृग को नरक में डाल दिया था।

परीक्षित! समस्त लोकों को पवित्र करने वाले भगवान श्रीकृष्ण द्वारकावासियों को इस प्रकार उपदेश देकर अपने महल में चले गये।


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