सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - उत्तरार्ध ) का पैंसठवाँ, छियासठवाँ, सड़सठवाँ, अड़सठवाँ व उनहत्तरवाँ अध्याय [ Sixty-fifth, sixty-sixth, sixty-seventh, sixty-eight and sixty-ninth chapter chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]

 


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【पैंसठवाँ अध्याय】६५

               "श्रीबलराम जी का व्रजगमन"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचषष्टितम अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान बलराम जी के मन में व्रज के नन्दबाबा आदि स्वजन सम्बन्धियों से मिलने की बड़ी इच्छा और उत्कण्ठा थी। अब वे रथ पर सवार होकर द्वारका से नन्दबाबा के व्रज में आये। इधर उनके लिये व्रजवासी गोप और गोपियाँ भी बहुत दिनों से उत्कण्ठित थीं। उन्हें अपने बीच में पाकर सबने बड़े प्रेम से गले लगाया। बलराम जी ने माता यशोदा और नन्दबाबा को प्रणाम किया। उन लोगों ने भी आशीर्वाद देकर उनका अभिनन्दन किया। यह कहकर कि ‘बलराम जी! तुम जगदीश्वर हो, अपने छोटे भाई श्रीकृष्ण के साथ सर्वदा हमारी रक्षा करते रहो, उनको गोद में ले लिया और अपने प्रेमाश्रुओं से उन्हें भिगो दिया। इसके बाद बड़े-बड़े गोपों को बलराम जी ने और छोटे-छोटे गोपों ने बलराम जी को नमस्कार किया। वे अपनी आयु, मेल-जोल और सम्बन्ध के अनुसार सबसे मिले-जुले। ग्वालबालों के पास जाकर किसी से हाथ मिलाया, किसी से मीठी-मीठी बातें कीं, किसी को खूब हँस-हँसकर गले लगाया।

इसके बाद जब बलराम जी की थकावट दूर हो गयी, वे आराम से बैठ गये, तब सब ग्वाल उनके पास आये। इन ग्वालों ने कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण के लिये समस्त भोग, स्वर्ग और मोक्ष तक त्याग रखा था। बलराम जी ने जब उनके और उनके घर वालों के सम्बन्ध में कुशलप्रश्न किया, तब उन्होंने प्रेम-गद्गद वाणी से उनसे प्रश्न किया। ‘बलराम जी! वसुदेव जी आदि हमारे सब भाई-बन्धु सकुशल हैं न? अब आप लोग स्त्री-पुत्र आदि के साथ रहते हैं, बाल-बच्चेदार हो गये हैं; क्या कभी आप लोगों को हमारी याद भी आती है? यह बड़े सौभाग्य की बात है कि पापी कंस को आप लोगों ने मार डाला और अपने सुहृद्-सम्बन्धियों को बड़े कष्ट से बचा लिया। यह भी कम आनन्द की बात नहीं है कि आप लोगों ने और भी बहुत-से शत्रुओं को मार डाला या जीत लिया और अब अत्यन्त सुरक्षित दुर्ग (किले) में आप लोग निवास करते हैं’।

परीक्षित! भगवान बलराम जी के दर्शन से, उनकी प्रेमभरी चितवन से गोपियाँ निहाल हो गयीं। उन्होंने हँसकर पूछा- ‘क्यों बलराम जी! नगर-नारियों के प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण अब सकुशल ही हैं न ? क्या कभी उन्हें अपने भाई-बन्धु और पिता-माता की भी याद आती है? क्या वे अपनी माता के दर्शन के लिये एक बार भी यहाँ आ सकेंगे? क्या महाबाहु श्रीकृष्ण कभी हम लोगों की सेवा का भी कुछ स्मरण करते हैं। आप जानते हैं कि स्वजन-सम्बन्धियों को छोड़ना बहुत ही कठिन है। फिर भी हमने उनके लिये माँ-बाप, भाई-बन्धु, पति-पुत्र और बहिन-बेटियों को भी छोड़ दिया। परन्तु प्रभो! वे बात-की-बात में हमारे सौहार्द और प्रेम का बन्धन काटकर, हमसे नाता तोड़कर परदेश चले गये; हम लोगों को बिलकुल ही छोड़ दिया। हम चाहतीं तो उन्हें रोक लेतीं; परन्तु जब वे कहते कि हम तुम्हारे ऋणी हैं- तुम्हारे उपकार का बदला कभी नहीं चुका सकते, तब ऐसी कौन-सी स्त्री है, जो उनकी मीठी-मीठी बातों पर विश्वास न कर लेतीं’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचषष्टितम अध्याय श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद)

एक गोपी ने कहा ;- ‘बलराम जी! हम गाँव की गँवार ग्वालिनें ठहरीं, उनकी बातों में आ गयीं। परन्तु नगर की स्त्रियाँ तो बड़ी चतुर होती हैं। भला, वे चंचल और कृतघ्न श्रीकृष्ण की बातों में क्यों फँसने लगीं; उन्हें तो वे नहीं छका पाते होंगे!’ 

दूसरी गोपी ने कहा ;- ‘नहीं सखी, श्रीकृष्ण बातें बनाने में तो एक ही हैं। ऐसी रंग-बिरंगी मीठी-मीठी बातें गढ़ते हैं कि क्या कहना! उनकी सुन्दर मुसकुराहट और प्रेम भरी चितवन से नगर-नारियाँ भी प्रेमावेश से व्याकुल हो जाती होंगी और वे अवश्य उनकी बातों में आकर अपने को निछावर कर देती होंगीं’। तीसरी गोपी ने कहा- ‘अरी गोपियों! हम लोगों को उसकी बात से क्या मतलब है? यदि समय ही काटना है तो कोई दूसरी बात करो। यदि उस निष्ठुर का समय हमारे बिना बीत जाता है तो हमारा भी उसी की तरह, भले ही दुःख से क्यों न हो, कट ही जायेगा’।

अब गोपियों के भाव-नेत्रों के सामने भगवान श्रीकृष्ण की हँसी, प्रेमभरी बातें, चारु-चितवन, अनूठी चाल और प्रेमालिंगन आदि मुर्तिमान् होकर नाचने लगे। वे उन बातों की मधुर स्मृति में तन्मय होकर रोने लगीं।

परीक्षित! भगवान बलराम जी नाना प्रकार से अनुनय विनय करने में बड़े निपुण थे। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के हृदयस्पर्शी और लुभावने सन्देश सुना-सुनाकर गोपियों को सान्त्वना दी। और वसन्त के दो महीने- चैत्र और वैशाख वहीं बिताये। वे रात्रि के समय गोपियों में रहकर उनके प्रेम की अभिवृद्धि करते। क्यों न हो, भगवान राम ही जो ठहरे! उस समय कुमुदिनी कि सुगन्ध लेकर भीनी-भीनी वायु चलती रहती, पूर्ण चन्द्रमा की चाँदनी छिटककर यमुना जी के तटवर्ती उपवन को उज्ज्वल कर देती और भगवान बलराम गोपियों के साथ वहीं विहार करते। वरुणदेव ने अपनी पुत्री वारुनीदेवी को वहाँ भेज दिया था। वह एक वृक्ष के खोडर से बह निकली। उसने अपनी सुगन्ध से सारे वन को सुगन्धित कर दिया। मधुधारा की वह सुगन्ध वायु ने बलराम जी के पास पहुँचायी, मानो उसने उन्हें उपहार दिया हो। उसकी महक से आकृष्ट होकर बलराम जी गोपियों को लेकर वहाँ पहुँचे गये और उनके साथ उसका पान किया।

उस समय गोपियाँ बलराम जी के चारों ओर उनके चरित्र का गान कर रही थीं, और वे मतवाले-से होकर वन में विचर रहे थे। उनके नेत्र आनन्दमद से विह्वल हो रहे थे। गले में पुष्पों का हार शोभा पा रहा था। वैजयन्ती की माला पहने हुए आनन्दोन्मत्त हो रहे थे। उनके एक कान में कुण्डल झलक रहा था। मुखारविन्द पर मुसकराहट की शोभा निराली ही थी। उस पर पसीने की बूँदें हिमकण के समान जान पड़ती थीं। सर्वशक्तिमान् बलराम जी ने जलक्रीड़ा करने के लिये यमुना जी को पुकारा। परन्तु यमुना जी ने यह समझकर कि ये तो मतवाले हो रहे हैं, उनकी आज्ञा का उल्लंघन कर दिया; वे नहीं आयीं। तब बलराम जी ने क्रोधपूर्वक अपने हल की नोक से उन्हें खींचा और कहा ‘पापिनी यमुने! मेरे बुलाने पर भी तू मेरी आज्ञा का उल्लंघन करके यहाँ नहीं आ रही है, मेरा तिरस्कार कर रही है! देख, अब मैं तुझे तेरे स्वेच्छाचार का फल चखाता हूँ। अभी-अभी तुझे हल की नोक से सौ-सौ टुकड़े किये देता हूँ’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचषष्टितम अध्याय श्लोक 25-32 का हिन्दी अनुवाद)

जब बलराम जी ने यमुना जी को इस प्रकार डाँटा-फटकारा, तब वे चकित और भयभीत होकर बलराम जी के चरणों पर गिर पड़ीं और गिड़गिड़ाकर प्रार्थना करने लगीं- ‘लोकाभिराम बलराम जी! महाबाहो! मैं आपका पराक्रम भूल गयी थी। जगत्पते! अब मैं जान गयी कि आपके अंशमात्र शेष जी इस सारे जगत् को धारण करते हैं। भगवन्! आप परम ऐश्वर्यशाली हैं। आपके वास्तविक स्वरूप को न जानने के कारण ही मुझसे यह अपराध बन गया है। सर्वस्वरूप भक्तवत्सल! मैं आपकी शरण में हूँ। आप मेरी भूल-चूक क्षमा कीजिये, मुझे छोड़ दीजिये’।

अब यमुना जी कि प्रार्थना स्वीकार करके भगवान बलराम जी ने उन्हें क्षमा कर दिया और फिर जैसे गजराज हथिनियों के साथ क्रीडा करता है, वैसे ही वे गोपियों के साथ जलक्रीड़ा करने लगे। जब वे यथेष्ट जल-विहार करके यमुना जी से बाहर निकले, तब लक्ष्मी जी ने उन्हें नीलाम्बर, बहुमूल्य आभूषण और सोने का सुन्दर हार दिया। बलराम जी ने नील वस्त्र पहन लिये और सोने की माला गले में डाल ली। वे अंगराग लगाकर, सुन्दर भूषणों से विभूषित होकर इस प्रकार शोभायमान हुए मानो इन्द्र का श्वेतवर्ण ऐरावत हाथी हो।

परीक्षित! यमुना जी अब भी बलराम जी के खींचे हुए मार्ग से बहती हैं और वे ऐसी जान पड़ती हैं, मानो अनन्तशक्ति भगवान बलराम जी का यश-गान कर रही हों। बलराम जी का चित्त व्रजवासिनी गोपियों के माधुर्य से इस प्रकार मुग्ध हो गया कि उन्हें समय का कुछ ध्यान न रहा, बहुत-सी रात्रियाँ एक रात के समान व्यतीत हो गयीं। इस प्रकार बलराम जी व्रज में विहार करते रहे।


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【छियासठवाँ अध्याय】६६

          "पौण्ड्रक और काशिराज का उद्धार"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्षष्टितम अध्याय श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब भगवान बलराम जी नन्दबाबा के व्रज में गये हुए थे, तब पीछे से करुष देश के अज्ञानी राजा पौण्ड्रक ने भगवान श्रीकृष्ण के पास एक दूत भेजकर यह कहलाया कि ‘भगवान वासुदेव मैं हूँ’। मूर्ख लोग उसे बहकाया करते थे कि ‘आप ही भगवान वासुदेव हैं और जगत् की रक्षा के लिये पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए हैं।’ इसका फल यह हुआ कि वह मूर्ख अपने को ही भगवान मान बैठा। जैसे बच्चे आपस में खेलते समय किसी बालक को ही राजा मान लेते हैं और वह राजा की तरह उनके साथ व्यवहार करने लगता है, वैसे ही मन्दमति अज्ञानी पौण्ड्रक ने अचिन्त्यगति भगवान श्रीकृष्ण की लीला और रहस्य न जानकार द्वारका में उनके पास दूत भेज दिया।

पौण्ड्रक का दूत द्वारका आया और राजसभा में बैठे हुए कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण को उसने अपने राजा का यह सन्देश कह सुनाया- ‘एकमात्र मैं ही वासुदेव हूँ। दूसरा कोई नहीं है। प्राणियों पर कृपा करने के लिये मैंने ही अवतार ग्रहण किया है। तुमने झूठ-मूठ अपना नाम वासुदेव रख लिया है, अब उसे छोड़ दो। यदुवंशी! तुमने मुर्खतावश मेरे चिह्न धारण कर रखे हैं। उन्हें छोड़कर मेरी शरण में आओ और यदि मेरी बात तुम्हें स्वीकार न हो, तो मुझसे युद्ध करो’।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! मन्दमति पौण्ड्रक की यह बहक सुनकर उग्रसेन आदि सभासद जोर-जोर से हँसने लगे। उन लोगों की हँसी समाप्त होने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने दूत से कहा- ‘तुम जाकर अपने राजा से कह देना कि ‘रे मूढ़! मैं अपने चक्र आदि चिह्न यों नहीं छोडूँगा। इन्हें मैं तुझ पर छोडूँगा और केवल तुझ पर ही नहीं, तेरे उन सब साथियों पर भी, जिनके बहकाने से तू इस प्रकार बहक रहा है। उस समय मूर्ख! तू अपना मुँह छिपाकर- औंधें मुँह गिरकर चील, गीध, बटेर आदि मांसभोजी पक्षियों से घिरकर सो जायेगा और तू मेरा शरणदाता नहीं, उन कुत्तों की शरण होगा, जो तेरा मांस चींथ-चींथ खा जायँगे’।

परीक्षित! भगवान का यह तिरस्कारपूर्ण संवाद लेकर पौण्ड्रक का दूत अपने स्वामी के पास आया और उसे कह सुनाया। इधर भगवान श्रीकृष्ण ने भी रथ पर सवार होकर काशी पर चढ़ाई कर दी। (क्योंकि वह करुष का राजा उन दिनों वहीं अपने मित्र काशिराज के पास रहता था)। भगवान श्रीकृष्ण के आक्रमण का समाचार पाकर महारथी पौण्ड्रक भी दो अक्षौहिणी सेना के साथ शीघ्र ही नगर से बाहर निकल आया। काशी का राजा पौण्ड्रक का मित्र था। अतः वह भी उसकी सहायता करने के लिये तीन अक्षौहिणी सेना के साथ उसके पीछे-पीछे आया।

परीक्षित! अब भगवान श्रीकृष्ण ने पौण्ड्रक को देखा। पौण्ड्रक ने भी शंख, चक्र, तलवार, गदा, शारंग धनुष और श्रीवत्सं चिह्न आदि धारण कर रखे थे। उसके वक्षःस्थल पर बनावटी कौस्तुभ मणि और वनमाला लटक रही थी। उसने रेशमी पीले वस्त्र पहन रखे थे और रथ की ध्वजा पर गरुड़ का चिह्न भी लगा रखा था। उसके सिर पर अमूल्य मुकुट था और कानों में मकराकृत कुण्डल जगमगा रहे थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्षष्टितम अध्याय श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद)

उसका यह सारा-का-सारा वेष बनावटी था, मानो कोई अभिनेता रंगमंच पर अभिनय करने के लिये आया हो। उसकी वेष-भूषा अपने समान देखकर भगवान श्रीकृष्ण खिलखिलाकर हँसने लगे। अब शत्रुओं ने भगवान श्रीकृष्ण पर त्रिशूल, गदा, मुद्गर, शक्ति, ऋष्टि, प्रास, तोमर, तलवार, पट्टिश और बाण आदि अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार किया। प्रलय के समय जिस प्रकार आग सभी प्रकार के प्राणियों को जला देती है, वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण ने भी गदा, तलवार, चक्र और बाण आदि शस्त्रास्त्रों से पौण्ड्रक तथा काशिराज के हाथी, रथ, घोड़े और पैदल की चतुरंगिणी सेना को तहस-नहस कर दिया। वह रणभूमि भगवान के चक्र से खण्ड-खण्ड हुए रथ, घोड़े, हाथी, मनुष्य, गधे और ऊँटों से पट गयी। उस समय ऐसा मालूम हो रहा था, मानो वह भूतनाथ शंकर की भयंकर क्रीड़ास्थली हो। उसे देख-देखकर शूरवीरों का उत्साह और भी बढ़ रहा था।

अब भगवान श्रीकृष्ण ने पौण्ड्रक से कहा ;- ‘रे पौण्ड्रक! तूने दूत के द्वारा कहलाया था कि मेरे चिह्न अस्त्र-शास्त्रादि छोड़ दो। सो अब मैं उन्हें तुझ पर छोड़ रहा हूँ। तूने झूठ-मुठ मेरा नाम रख लिया है। अतः मूर्ख! अब मैं तुझसे उन नामों को भी छुड़ाकर रहूँगा। रही तेरे शरण में आने की बात; सो यदि मैं तुझसे युद्ध न कर सकूँगा तो तेरी शरण ग्रहण करूँगा’। भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार पौण्ड्रक का तिरस्कार करके अपने तीखे बाणों से उसके रथ को तोड़-फोड़ डाला और चक्र से उसका सिर वैसे ही उतार लिया, जैसे इन्द्र ने अपने वज्र से पहाड़ की चोटियों को उड़ा दिया था। इसी प्रकार भगवान ने अपने बाणों से काशिनरेश का सिर भी धड़ से ऊपर उड़ाकर काशीपुरी में गिरा दिया, जैसे वायु कमल का पुष्प गिरा देती है। इस प्रकार अपने साथ डाह रखने वाले पौण्ड्रक को और उसके सखा काशिनरेश को मारकर भगवान श्रीकृष्ण अपनी राजधानी द्वारका में लौट आये। उह समय सिद्धगण भगवान की अमृतमयी कथा का गान कर रहे थे।

परीक्षित! पौण्ड्रक भगवान के रूप का, चाहे वह किसी भाव से हो, सदा चिन्तन करता रहता था। इससे उसके सारे बन्धन कट गये। वह भगवान का बनावटी वेष धारण किये रहता था, इससे बार-बार उसी का स्मरण होने के कारण वह भगवान के सारूप्य को ही प्राप्त हुआ।

इधर काशी में राजमहल के दरवाजे पर एक कुण्डल-मण्डित मुण्ड गिरा देखकर लोग तरह-तरह का सन्देह करने लगे और सोचने लगे कि ‘यह क्या है, यह किसका सिर है?’ जब यह मालूम हुआ कि वह तो काशिनरेश का ही सिर है, तब रानियाँ, राजकुमार, राजपरिवार के लोग तथा नागरिक रो-रोकर विलाप करने लगे- ‘हा नाथ! हा राजन्! हाय-हाय! हमारा तो सर्वनाश हो गया’। काशिनरेश का पुत्र था सुदक्षिण। उसने अपने पिता का अन्त्योष्टि-संस्कार करके मन-ही-मन यह निश्चय किया कि अपने पितृघाती को मारकर ही मैं पिता के ऋण से उऋण हो सकूँगा। निदान वह अपने कुलपुरोहित और आचार्यों के साथ अत्यन्त एकाग्रता से भगवान शंकर की आराधना करने लगा। काशी नगरी में उसकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने वर देने को कहा। सुदक्षिण ने यह अभीष्ट वर माँगा कि मुझे मेरे पितृघाती के वध का उपाय बतलाइये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्षष्टितम अध्यायश्लोक 30-43 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान शंकर ने कहा ;- ‘तुम ब्राह्मणों के साथ मिलकर यज्ञ के देवता ऋत्विग्भूत दक्षिणाग्नि की अभिचार विधि से आराधना करो। इससे वह अग्नि प्रमथगणों के साथ प्रकट होकर यदि ब्राह्मणों के अभक्तपर प्रयोग करोगे तो वह तुम्हारा संकल्प सिद्ध करेगा।’

भगवान शंकर की ऐसी आज्ञा प्राप्त करके सुदक्षिण ने अनुष्ठान के उपयुक्त नियम ग्रहण किये और वह भगवान श्रीकृष्ण के लिये अभिचार (मारण का पुरश्चरण) करने लगा। अभिचार पूर्ण होते ही यज्ञकुण्ड से अति भीषण अग्नि मुर्तिमान् होकर प्रकट हुआ। उसके केश और दाढ़ी-मूँछें तपे हुए ताँबे के समान लाल-लाल थे। आँखों से अंगारे बरस रहे थे। उग्र दाढ़ों और टेढ़ी भृकुटियों के कारण उसके मुख से क्रूरता टपक रही थी। वह अपनी जीभ से मुँह के दोनों कोने चाट रहा था। शरीर नंग-धड़ंग था। हाथों में त्रिशूल लिये हुए था, जिसे वह बार-बार घुमाता जाता था और उसमें से अग्नि की लपटें निकल रही थीं। ताड़ के पेड़ के समान बड़ी-बड़ी टाँगे थीं। वह अपने वेग से धरती को काँपाता हुआ और ज्वालाओं से दसों दिशाओं को दग्ध करता हुआ द्वारका की ओर दौड़ा और बात-की-बात में द्वारका के पास जा पहुँचा। उसके साथ बहुत-से भूत भी थे। उस अभिचार की आग को बिलकुल पास आयी हुई देख द्वारकावासी वैसे ही डर गये, जैसे जंगल में आग लगने पर हरिन डर जाते हैं। वे लोग भयभीत होकर भगवान के पास दौड़ते हुए आये; भगवान उस समय सभा में चौसर खेल रहे थे, उन लोगों ने भगवान से प्रार्थना की- ‘तीनों लोकों के एकमात्र स्वामी! द्वारका नगरी इस आग से भस्म होना चाहती है। आप हमारी रक्षा कीजिये। आपके सिवा इसकी रक्षा कोई नहीं कर सकता’। शरणागतवत्सल भगवान ने देखा कि हमारे स्वजन भयभीत हो गये हैं और और पुकार-पुकारकर विकलता भरे स्वर से हमारी प्रार्थना कर रहे हैं; तब उन्होंने हँसकर कहा- ‘डरो मत, मैं तुम लोगों की रक्षा करूँगा’।

परीक्षित! भगवान सबके बाहर-भीतर की जानने वाले हैं। वे जान गये कि यह काशी से चली हुई माहेश्वरी कृत्या है। उन्होंने उसके प्रतीकार के लिये अपने पास ही विराजमान चक्र सुदर्शन को आज्ञा दी। भगवान मुकुन्द का प्यारा अस्त्र सुदर्शन चक्र कोटि-कोटि सूर्यों के समान तेजस्वी और प्रलयकालीन अग्नि के समान जाज्वल्यमान है। उसके तेज से आकाश, दिशाएँ और अन्तरिक्ष चमक उठे और अब उसने उस अभिचार-अग्नि को कुचल डाला। भगवान श्रीकृष्ण के अस्त्र सुदर्शन चक्र की शक्ति से कृत्यारूप आग का मुँह टूट-फूट गया, उसका तेज नष्ट हो गया, शक्ति कुण्ठित हो गयी और वह वहाँ से लौटकर काशी आ गयी तथा उसने ऋत्विज् आचार्यों के साथ सुदक्षिण को जलाकर भस्म कर दिया। इस प्रकार उसका अभिचार उसी के विनाश का कारण हुआ।

कृत्या के पीछे-पीछे सुदर्शन चक्र भी काशी पहुँचा। काशी बड़ी विशाल नगरी थी। वह बड़ी-बड़ी अटारियों, सभा भवन, बाजार, नगरद्वार, द्वारों के शिखर, चहारदीवारियों, खजाने, हाथी, घोड़े, रथ और अन्नों के गोदाम से सुसज्जित थी। भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र ने सारी काशी को जलाकर भस्म कर दिया और फिर वह परमानन्दमयी लीला करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के पास लौट आया।

जो मनुष्य पुण्यकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के इस चरित्र को एकाग्रता के साथ सुनता या सुनाता है, वह सारे पापों से छूट जाता है।


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【सड़सठवाँ अध्याय】६७

             "द्विविद का उद्धार"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तषष्टितम अध्याय श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवान बलराम जी सर्वशक्तिमान् एवं सृष्टि-प्रलय की सीमा से परे, अनन्त हैं। उनका स्वरूप, गुण, लीला आदि मन, बुद्धि और वाणी के विषय नहीं हैं। उनकी एक-एक लीला लोकमर्यादा से विलक्षण है, अलौकिक है। उन्होंने और जो कुछ अद्भुत कर्म किये हों, उन्हें मैं फिर सुनना चाहता हूँ।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! द्विविद नाम का एक वानर था। वह भौमासुर का सखा, सुग्रीव का मन्त्री और मैन्द का शक्तिशाली भाई था। जब उसने सुना कि श्रीकृष्ण ने भौमासुर को मार डाला, तब वह अपने मित्र की मित्रता के ऋण से उऋण होने के लिये राष्ट्र-विप्लव करने पर उतारू हो गया। वह वानर बड़े-बड़े नगरों, गावों, खानों और अहीरों की बस्तियों में आग लगाकर उन्हें जलाने लगा। कभी वह बड़े-बड़े पहाड़ों को उखाड़कर उनसे प्रान्त-के-प्रान्त चकनाचूर कर देता और विशेष करके ऐसा काम वह आनर्त (कठियावाड़) देश में ही करता था। क्योंकि उसके मित्र को मारने वाले भगवान श्रीकृष्ण उसी देश में निवास करते थे।

द्विविद वानर में दस हजार हाथियों का बल था। कभी-कभी वह दुष्ट समुद्र में खड़ा हो जाता और हाथों से इतना जल उछालता कि समुद्रतट के देश डूब जाते। वह दुष्ट बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के आश्रमों की सुन्दर-सुन्दर लता-वनस्पतियों को तोड़-मरोड़ चौपट कर देता और उनके यज्ञसम्बन्धी अग्नि-कुण्डो में मलमूत्र डालकर अग्नियों को दूषित कर देता। जैसे भृंगी नाम का कीड़ा दूसरे कीड़ों को ले जाकर अपने बिल में बंद कर देता है, वैसे ही मदोन्मत्त वानर स्त्रियों और पुरुषों को ले जाकर पहाड़ों की घाटियों तथा गुफाओं में डाल देता। फिर बाहर से बड़ी-बड़ी चट्टानें रखकर उनका मुँह बंद कर देता। इस प्रकार वह देशवासियों का तो तिरस्कार करता ही, कुलीन स्त्रियों को भी दूषित कर देता था।

एक दिन वह दुष्ट सुललित संगीत सुनकर रैवतक पर्वत पर गया। वहाँ उसने देखा कि यदुवंशशिरोमणि बलराम जी सुन्दर-सुन्दर युवतियों के झुंड में विराजमान हैं। उनका एक-एक अंग अत्यन्त सुन्दर और दर्शनीय है और वक्षःस्थल पर कमलों की माला लटक रही है। वे मधुपान करके मधुर संगीत गा रहे थे और उनके नेत्र आनन्दोन्माद से विह्वल हो रहे थे। उनका शरीर इस प्रकार शोभायमान हो रहा था, मानो कोई मदमत्त गजराज हो। वह दुष्ट वानर वृक्षों की शाखाओं पर चढ़ जाता और उन्हें झकझोर देता। कभी स्त्रियों के सामने आकर किलकारी भी मारने लगता। युवती स्त्रियाँ स्वभाव से ही चंचल और हास-परिहास में रुचि रखने वाली होती हैं। बलराम जी की स्त्रियाँ उस वानर की ढिठाई देखकर हँसने लगीं। अब वह वानर भगवान बलराम जी के सामने ही उन स्त्रियों की अवहेलना करने लगा। वह उन्हें कभी अपनी गुदा दिखाता तो कभी भौंहें मटकाता, फिर कभी-कभी गरज-तरज कर मुँह बनाता, घुड़कता। वीरशिरोमणि बलराम जी उसकी यह चेष्टा देखकर क्रोधित हो गये। उन्होंने उस पर पत्थर का एक टुकड़ा फेंका। परन्तु द्विविद ने उससे अपने को बचा लिया और झपटकर मधुकलश उठा लिया तथा बलराम जी की अवहेलना करने लगा। उस धूर्त ने मधुकलश को तो फोड़ ही डाला, स्त्रियों के वस्त्र फाड़ डाले और अब वह दुष्ट हँस-हँसकर बलराम जी को क्रोधित करने लगा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तषष्टितम अध्याय श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! जब इस प्रकार बलवान और मदोन्मत्त द्विविद बलराम जी को नीचा दिखाने तथा उनका घोर तिरस्कार करने लगा, तब उन्होंने ढिठाई देखकर और उसके द्वारा सताये हुए देशों की दुर्दशा पर विचार करके उस शत्रु को मार डालने की इच्छा से क्रोधपूर्वक अपना हल-मूसल उठाया। द्विविद भी बड़ा बलवान था। उसने अपने एक ही हाथ से शाल का पेड़ उखाड़ लिया और बड़े वेग से दौड़कर बलराम जी के सिर पर उसे दे मारा। भगवान बलराम पर्वत की तरह अविचल खड़े रहे। उन्होंने अपने हाथ से उस वृक्ष को सिर पर गिरते-गिरते पकड़ लिया और अपने सुनन्द नामक मूसल से उस पर प्रहार किया। मूसल लगने से द्विविद का मस्तक फट गया और उससे खून की धारा बहने लगी। उस समय उसकी ऐसी शोभा हुई, मानो किसी पर्वत से गेरू का सोता बह रहा हो। परन्तु द्विविद ने अपने सिर फटने की कोई परवा नहीं की। उसने कुपित होकर एक दूसरा वृक्ष उखाड़ा, उसे झाड़-झूड़कर बिना पत्ते का कर दिया और फिर उससे बलराम जी पर बड़े जोर का प्रहार किया।

बलराम जी ने उस वृक्ष के सैकड़ों टुकड़े कर दिये। इसके बाद द्विविद ने बड़े क्रोध से दूसरा वृक्ष चलाया, परन्तु भगवान बलराम जी ने उसे भी शतधा छिन्न-भिन्न कर दिया। इस प्रकार वह उनसे युद्ध करता रहा। एक वृक्ष के टूट जाने पर दूसरा वृक्ष उखाड़ता और उससे प्रहार करने की चेष्टा करता। इस तरह सब ओर से वृक्ष उखाड़-उखाड़कर लड़ते-लड़ते उसने सारे वन को ही वृक्षहीन कर दिया। वृक्ष न रहे, तब द्विविद का क्रोध और भी बढ़ गया तथा वह बहुत चिढ़कर बलराम जी के ऊपर बड़ी-बड़ी चट्टानों की वर्षा करने लगा। परन्तु भगवान बलराम जी ने अपने मूसल से उन सभी चट्टानों को खेल-खेल में ही चकनाचूर कर दिया। अन्त में कपिराज द्विविद अपनी ताड़ के समान लम्बी बाँहों से घूँसा बाँधकर बलराम जी की ओर झपटा और पास जाकर उसने उनकी छाती पर प्रहार किया। अब यदुवंशशिरोमणि बलराम जी ने हल और मूसल अलग रख दिये तथा क्रुद्ध होकर दोनों हाथों से उसके जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया। इससे वह वानर खून उगलता हुआ धरती पर गिर पड़ा।

परीक्षित! आँधी आने पर जैसे जल में डोंगी डगमगाने लगती है, वैसे ही उसके गिरने से बड़े-बड़े वृक्षों और चोटियों के साथ सारा पर्वत हिल गया। आकाश में देवता लोग ‘जय-जय’, सिद्ध लोग ‘नमो-नमः’ और बड़े-बड़े ऋषि-मुनि ‘साधु-साधु’ के नारे लगाने और बलराम जी पर फूलों की वर्षा करने लगे। परीक्षित! द्विविद ने जगत् में बड़ा उपद्रव मचा रखा था, अतः भगवान बलराम जी ने उसे इस प्रकार मार डाला और फिर वे द्वारकापुरी में लौट आये। उस समय सभी पुरजन-परिजन भगवान बलराम की प्रशंसा कर रहे थे।


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【अड़सठवाँ अध्याय】६८

      "कौरवों का बलराम जी पर कोप और साम्ब का विवाह"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टषष्टितम अध्याय श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जाम्बतीनन्दन साम्ब अकेले ही बहुत बड़े-बड़े वीरों पर विजय प्राप्त करने वाले थे। वे स्वयंवर में स्थित दुर्योधन की कन्या लक्ष्मणा को हर लाये। इससे कौरवों को बड़ा क्रोध हुआ, वे बोले- ‘यह बालक बहुत ढीठ है। देखो तो सही, इसने हम लोगों को नीचा दिखाकर बलपूर्वक हमारी कन्या का अपहरण कर लिया। वह तो इसे चाहती भी न थी। अतः इस ढीठ को पकड़कर बाँध लो। यदि यदुवंशी लोग रुष्ट भी होंगे तो वे हमारा क्या बिगाड़ लेंगे? वे लोग हमारी ही कृपा से हमारी ही दी हुई धन-धान्य से परिपूर्ण पृथ्वी का उपभोग कर रहे हैं। यदि वे लोग अपने इस लड़के के बंदी होने का समाचार सुनकर यहाँ आयेंगे, तो हम लोग उसका सारा घमंड चूर-चूर कर देंगे और उन लोगों के मिजाज वैसे ही ठंडे हो जायँगे, जैसे संयमी पुरुष के द्वारा प्राणायाम आदि उपायों से वश में की हुई इन्द्रियाँ’। ऐसा विचार करके कर्ण, शल, भूरिश्रवा, यज्ञकेतु और दुर्योधनादि वीरों ने कुरुवंश के बड़े-बूढ़ों की अनुमति ली तथा साम्ब को पकड़ लेने की तैयारी की।

जब महारथी साम्ब ने देखा कि धृतराष्ट्र के पुत्र मेरा पीछा कर रहे हैं, तब वे एक सुन्दर धनुष चढ़ाकर सिंह के समान अकेले ही रणभूमि में डट गये। इधर कर्ण को मुखिया बनाकर कौरव वीर धनुष चढ़ाये हुए साम्ब के पा आ पहुँचे और क्रोध में भरकर उनको पकड़ लेने की इच्छा से ‘खड़ा रह! खड़ा रह!’ इस प्रकार ललकारते हुए बाणों की वर्षा करने लगे।

परीक्षित! यदुनन्दन साम्ब अचिन्त्यैश्वर्यशाली भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र थे। कौरवों के प्रहार से वे उन पर चिढ़ गये, जैसे सिंह तुच्छ हरिनों का पराक्रम देखकर चिढ़ जाता है। साम्ब ने अपने सुन्दर धनुष की टंकार करके कर्ण आदि छः वीरों पर, जो अलग-अलग छः रथों पर सवार थे, छः-छः बाणों से एक साथ अलग-अलग प्रहार किया। उनमें से चार-चार बाण उनके चार-चार घोड़ों पर, एक-एक उनके सारथियों पर और एक-एक उन महान् धनुषधारी रथी वीरों पर छोड़ा। साम्ब के इस अद्भुत हस्तलाघव को देखकर विपक्षी वीर भी मुक्तकण्ठ से उनकी प्रशंसा करने लगे। इसके बाद उन छहों वीरों ने एक साथ मिलकर साम्ब को रथहीन कर दिया। चार वीरों ने एक-एक बाण से उनके चार घोड़ों को मारा, एक ने सारथि को एक ने साम्ब का धनुष काट डाला। इस प्रकार कौरवों ने युद्ध में बड़ी कठिनाई और कष्ट से साम्ब को रथहीन करके बाँध लिया। इसके बाद वे उन्हें तथा अपनी कन्या लक्ष्मणा को लेकर जय मानते हुए हस्तिनापुर लौट आये।

परीक्षित! नारद जी से यह समाचार सुनकर यदुवंशियों को बड़ा क्रोध आया। वे महाराज उग्रसेन की आज्ञा से कौरवों पर चढ़ाई करने की तैयारी करने लगे। बलराम जी कलहप्रधान कलियुग के सारे पाप-ताप मिटाने वाले हैं। उन्होंने कुरुवाशियों और यदुवंशियों के लड़ाई-झगड़े को ठीक न समझा। यद्यपि यदुवंशी अपनी तैयारी पूरी कर चुके थे, फिर भी उन्होंने उन्हें शान्त कर दिया और स्वयं सूर्य के समान तेजस्वी रथ पर सवार होकर हस्तिनापुर गये। उनके साथ कुछ ब्राह्मण और यदुवंश के बड़े-बूढ़े भी गये। उनके बीच में बलराम जी की ऐसी शोभा हो रही थी, मानो चन्द्रमा ग्रहों से घिरे हुए हों।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टषअष्टषष्टितम अध्याय श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद)

हस्तिनापुर पहुँचकर बलराम जी नगर के बाहर एक उपवन में ठहर गये और कौरव लोग क्या करना चाहते हैं, इस बात का पता लगाने के लिये उन्होंने उद्धव जी को धृतराष्ट्र के पास भेजा।

उद्धव जी ने कौरवों की सभा में जाकर धृतराष्ट्र, भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, बाह्लीक और दुर्योधन की विधिपूर्वक अभ्यर्थना-वन्दना की और निवेदन किया कि ‘बलराम जी पधारे हैं’। अपने परम हितैषी और प्रियतम बलराम जी का आगमन सुनकर कौरवों की प्रसन्नता की सीमा न रही। वे उद्धव जी का विधिपूर्वक सत्कार करके अपने हाथों में मांगलिक सामग्री लेकर बलराम जी की अगवानी करने चले। फिर अपनी-अपनी अवस्था और सम्बन्ध के अनुसार सब लोग बलराम जी से मिले तथा उनके सत्कार के लिये उन्हें गौ अर्पण की एवं अर्ध्य प्रदान किया। उनमें जो लोग भगवान बलराम जी का प्रभाव जानते थे, उन्होंने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया।

तदनन्तर उन लोगों ने परस्पर एक-दूसरे का कुशल-मंगल पूछा और यह सुनकर कि सब भाई-बन्धु सकुशल हैं, बलराम जी ने बड़ी धीरता और गम्भीरता के साथ यह बात कही- ‘सर्वसमर्थ राजाधिराज महाराज उग्रसेन ने तुम लोगों को एक आज्ञा दी है। उसे तुम लोग एकाग्रता और सावधानी से सुनो और अविलम्ब उसका पालन करो। उग्रसेन जी ने कहा है- 'हम जानते हैं कि तुम लोगों ने कईयों ने मिलकर अधर्म से अकेले धर्मात्मा साम्ब को हरा दिया और बंदी कर लिया है। यह सब हम इसलिये सह लेते हैं कि हम सम्बन्धियों में परस्पर फूट न पड़े, एकता बनी रहे। (अतः अब झगड़ा मत बढ़ाओ, साम्ब को उसकी नववधु के साथ हमारे पास भेज दो)।'

परीक्षित! बलराम जी की वाणी वीरता, शूरता और बल-पौरुष के उत्कर्ष से परिपूर्ण और उनकी शक्ति के अनुरूप थी। यह बात सुनकर कुरुवंशी क्रोध से तिल-मिला उठे। वे कहने लगे- ‘अहो, यह तो बड़े आश्चर्य की बात है! सचमुच काल की चाल को कोई टाल नहीं सकता। तभी जो आज पैरों की जूती उस सिर पर चढ़ना चाहती है, जो श्रेष्ठ मुकुट से सुशोभित है। इन यदुवंशियों के साथ किसी प्रकार हम लोगों ने विवाह-सम्बन्ध कर लिया। ये हमारे साथ सोने-बैठने और एक पंक्ति में खाने लगे। हम लोगों ने ही इन्हें राजसिंहासन देकर राजा बनाया और अपने बराबर बना लिया। ये यदुवंशी चँवर, पंखा, शंख, श्वेतछत्र, मुकुट, राजसिंहासन और राजोचित शय्या का उपयोग-उपभोग इसलिये कर रहे हैं कि हमने जान-बूझकर इस विषय में उपेक्षा कर रखी है। बस-बस, अब हो चुका। यदुवंशियों के पास अब राजचिह्न रहने की आवश्यकता नहीं, उन्हें उनसे छीन लेना चाहिये। जैसे साँप को दूध पिलाना पिलाने वाले के लिये ही घातक है, वैसे ही हमारे दिये हुए राजचिह्नों को लेकर ये यदुवंशी हमारे ही विपरीत हो रहे हैं। देखो तो भला हमारे ही कृपा-प्रसाद से तो इनकी बढ़ती हुई और अब ये निर्लज्ज होकर हमीं पर हुकुम चलाने चले हैं। शोक है! शोक है! जैसे सिंह का ग्रास कभी भेड़ा नहीं छीन सकता, वैसे ही यदि भीष्म, द्रोण, अर्जुन आदि कौरववीर जान-बूझकर न छोड़ दें, न दे दें तो स्वयं देवराज इन्द्र भी किसी वस्तु का उपभोग कैसे कर सकते हैं?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टषष्टितम अध्याय श्लोक 29-41 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! कुरुवंशी अपनी कुलीनता, बान्धवों-परिवार वालों (भीष्मादि) के बल और धन सम्पत्ति के घमंड में चूर हो रहे थे। उन्होंने साधारण शिष्टाचार की भी परवा नहीं की और वे भगवान बलराम जी को इस प्रकार दुर्वचन कहकर हस्तिनापुर लौट गये। बलराम जी कौरवों की दुष्टता-अशिष्टता देखी और उनके दुर्वचन भी सुने। अब उनका चेहरा क्रोध से तमतमा उठा। उस समय उनकी ओर देखा तक नहीं जाता था। वे बार-बार जोर-जोर से हँसकर कहने लगे- ‘सच है, जिन दुष्टों को अपनी कुलीनता, बलपौरुष और धन का घमंड हो जाता है, वे शान्ति नहीं चाहते। उनको दमन करने का, रास्ते पर लाने का उपाय समझाना-बुझाना नहीं, बल्कि दण्ड देना है- ठीक वैसे ही, जैसे पशुओं को ठीक करने के लिये डंडे का प्रयोग आवश्यक होता है। भला, देखो तो सही- सारे यदुवंशी और श्रीकृष्ण भी क्रोध से भरकर लड़ाई के लिये तैयार हो रहे थे। मैं उन्हें शनैः-शनैः समझा-बुझाकर उन लोगों का शान्त करने के लिये, सुलह करने के लिये यहाँ आया। फिर भी ये मूर्ख ऐसी दुष्टता कर रहे हैं! उन्हें शान्ति प्यारी नहीं, कलह प्यारी है।

ये इतने घमंडी हो रहे हैं कि बार-बार मेरा तिरस्कार करके गलियाँ बक गये हैं। ठीक है, भाई! ठीक है। पृथ्वी के राजाओं की तो क्या, त्रिलोकी के स्वामी इन्द्र आदि लोकपाल जिनकी आज्ञा का पालन करते हैं, वे उग्रसेन राजाधिराज नहीं हैं; वे तो केवल भोज, वृष्णि और अन्धकवंशी यादवों के ही स्वामी हैं! क्यों! जो सुधर्मासभा को अधिकार में करके उसमें विराजते हैं और जो देवताओं के वृक्ष पारिजात को उखाड़कर ले आते और उसका उपभोग करते हैं, वे भगवान श्रीकृष्ण भी राजसिंहासन के अधिकारी नहीं हैं! अच्छी बात है!। सारे जगत् की स्वामिनी भगवती लक्ष्मी स्वयं जिनके चरण-कमलों की उपासना करती हैं, वे लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्णचन्द्र छत्र, चँवर आदि राजोचित सामग्रियों को नहीं रख सकते। ठीक है भाई! जिनके चरण-कमलों की धूल संत पुरुषों के द्वारा सेवित गंगा आदि तीर्थों को भी तीर्थ बनाने वाली है, सारे लोकपाल अपने-अपने श्रेष्ठ मुकुट पर जिनके चरणकमलों की धूर धारण करते हैं; ब्रह्मा, शंकर, मैं और लक्ष्मी जी जिनकी कला की भी कला हैं और जिनके चरणों की धूल सदा-सर्वदा धारण करते हैं; उन भगवान श्रीकृष्ण के लिये भला; राजसिंहासन कहाँ रखा है! बेचारे यदुवंशी तो कौरवों का दिया हुआ पृथ्वी का एक टुकड़ा भोगते हैं।

क्या खूब! हम लोग जूती हैं और ये कुरुवंशी स्वयं सिर हैं। ये लोग ऐश्वर्य से उन्मत्त, घमंडी कौरव पागल-सरीखे हो रहें हैं। इनकी एक-एक बात कटुता से भरी और बेसिर-पैर की है। मेरे जैसा पुरुष- जो इनका शासन कर सकता है, इन्हें दण्ड देकर इनके होश ठिकाने ला सकता है- भला इनकी बातों को कैसे सहन कर सकता है? आज मैं सारी पृथ्वी को कौरवहीन कर डालूँगा, इस प्रकार कहते-कहते बलराम जी क्रोध से ऐसे भर गये, मानो त्रिलोकी को भस्म कर देंगे। वे अपना हल लेकर खड़े हो गये। उन्होंने उसकी नोक से बार-बार चोट करके हस्तिनापुर को उखाड़ लिया और उसे डुबाने के लिये बड़े क्रोध से गंगा जी की ओर खींचने लगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टषष्टितम अध्याय श्लोक 42-54 का हिन्दी अनुवाद)

हल से खींचने पर हस्तिनापुर इस प्रकार काँपने लगा, मानो जल में कोई नाव डगमगा रही हो। जब कौरवों ने देखा कि हमारा नगर तो गंगा जी में गिर रहा है, तब वे घबड़ा उठे। फिर उन लोगों ने लक्ष्मणा के साथ साम्ब को आगे किया और अपने प्राणों की रक्षा के लिये कुटुम्ब के साथ हाथ जोड़कर सर्वशक्तिमान् उन्हीं भगवान बलराम जी की शरण में गये और कहने लगे- ‘लोकाभिराम बलराम जी! आप सारे जगत् के आधार शेष जी हैं। हम आपका प्रभाव नहीं जानते। प्रभो! हम लोग मूढ़ हो रहे हैं, हमारी बुद्धि बिगड़ गयी है; इसलिये आप हम लोगों के अपराध क्षमा कर दीजिये। आप जगत् की स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय के एकमात्र कारण हैं और स्वयं निराधार स्थित हैं। सर्वशक्तिमान् प्रभो! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि कहते हैं कि आप खिलाड़ी हैं और ये सब-के-सब लोग आपके खिलौने हैं।

अनन्त! आपके सहस्र-सहस्र सिर हैं और आप खेल-खेल में ही इस भूमण्डल को अपने सिर पर रखे रहते हैं। जब प्रलय का समय आता है, तब आप सारे जगत् को अपने भीतर लीन कर लेते हैं और केवल आप ही बचे रहकर अद्वितीयरूप से सहायक करते हैं। भगवन्! आप जगत् की स्थिति और पालन के लिये विशुद्ध सत्त्वमय शरीर ग्रहण किये हुए हैं। आपका यह क्रोध द्वेष या मत्सर के कारण नहीं है। यह तो समस्त प्राणियों को शिक्षा देने के लिये है। समस्त शक्तियों को धारण करने वाले सर्वप्राणिस्वरूप अविनाशी भगवन्! आपको हम नमस्कार करते हैं। समस्त विश्व के रचयिता देव! हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। हम आपकी शरण में हैं। आप कृपा करके हमारी रक्षा कीजिये’।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! कौरवों का नगर डगमगा रहा था और वे अत्यन्त घबराहट में पड़े हुए थे। जब सब-के-सब कुरुवंशी इस प्रकार भगवान बलराम जी की शरण में आये और उनकी स्तुति-प्रार्थना की, तब वे प्रसन्न हो गये और ‘डरो मत’ ऐसा कहकर उन्हें अभयदान दिया। परीक्षित! दुर्योधन अपनी पुत्री लक्ष्मणा से बड़ा प्रेम करता था। उसने दहेज़ में साठ-साठ वर्ष के बारह सौ हाथी, दस हजार घोड़े, सूर्य के समान चमकते हुए सोने के छः हजार रथ और सोने के हार पहनी हुई एक हजार दासियाँ दीं। यदुवंशशिरोमणि भगवान बलराम जी ने यह सब दहेज़ स्वीकार किया और नवदम्पत्ति लक्ष्मणा तथा साम्ब के साथ कौरवों का अभिनन्दन स्वीकार करके द्वारका की यात्रा की। अब बलराम जी द्वारकापुरी में पहुँचे और अपने प्रेमी तथा समाचार जानने के लिये उत्सुक बन्धु-बान्धवों से मिले। उन्होंने यदुवंशियों की भरी सभा में अपना वह सारा चरित्र कह सुनाया, जो हस्तिनापुर में उन्होंने कौरवों के साथ किया था। परीक्षित! यह हस्तिनापुर आज भी दक्षिण की ओर ऊँचा और गंगा जी की ओर कुछ झुका हुआ है और इस प्रकार वह बलराम जी के पराक्रम की सूचना दे रहा है।


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【उनहत्तरवाँ अध्याय】६९

         "देवर्षि नारद जी का भगवान की गृहचर्या देखना"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनसप्ततितम अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब देवर्षि नारद ने सुना कि भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर (भौमासुर) को मारकर अकेले ही हजारों राजकुमारियों के साथ विवाह कर लिया है, तब उनके मन में भगवान की रहन-सहन देखने की बड़ी अभिलाषा हुई। वे सोचने लगे- 'अहो, यह कितने आश्चर्य की बात है कि भगवान श्रीकृष्ण ने एक ही शरीर से एक ही समय सोलह हजार महलों में अलग-अलग सोलह हजार राजकुमारियों का पाणिग्रहण किया।'

देवर्षि नारद इस उत्सुकता से प्रेरित होकर भगवान की लीला देखने के लिये द्वारका आ पहुँचे। वान के उपवन और उद्यान खिले हुए रंग-बिरंगे पुष्पों से लदे वृक्षों से परिपूर्ण थे, उन पर तरह-तरह के पक्षी चहक रहे थे और भौंरे गुंजार कर रहे थे। निर्मल जल से भरे सरोवरों में नीले, लाल और सफ़ेद रंग के भाँति-भाँति के कमल खिले हुए थे। कुमुद (कोईं) और नवजात कमलों की मानो भीड़ ही लगी हुई थी। उसमें हंस और सारस कलरव कर रहे थे। द्वारका पुरी में स्फटिकमणि और चाँदी के नौ लाख महल थे। वे फर्श आदि में जड़ी हुई महामरकतमणि (पन्ने) की प्रभा से जगमगा रहे थे और उनमें सोने तथा हीरों की बहुत-सी सामग्रियाँ शोभायमान थीं। उसके राजपथ (बड़ी-बड़ी सड़कें), गलियाँ, चौराहे और बाजार बहुत ही सुन्दर-सुन्दर थे। घुड़साल आदि पशुओं के रहने के स्थान, सभा-भवन और देव-मन्दिरों के कारण उसका सौन्दर्य और भी चमक उठा था। उसकी सड़कों, चौक, गली और दरवाजों पर छिड़काव किया गया था। छोटी-छोटी झंडियाँ और बड़े-बड़े झंडे जगह-जगह फहरा रहे थे, जिनके कारण रास्तों पर धूप नहीं आ पाती थी।

उसी द्वारकानगरी में भगवान श्रीकृष्ण का बहुत ही सुन्दर अन्तःपुर था। बड़े-बड़े लोकपाल उसकी पूजा-प्रशंसा किया करते थे। उसका निर्माण करने में विश्वकर्मा ने अपना सारा कला-कौशल, सारी कारीगरी लगा दी थी। उस अन्तःपुर (रनिवास) में भगवान की रानियों के सोलह हजार से अधिक महल शोभायमान थे, उनमें से एक बड़े भवन में देवर्षि नारद जी ने प्रवेश किया। उस महल में मूँगों के खम्भे, वैदूर्य के उत्तम-उत्तम छज्जे तथा इन्द्रनीलमणि की दीवारें जगमगा रही थीं और वहाँ की गचें भी ऐसी इन्द्र-नीलमणियों से बनी हुई थीं, जिनकी चमक किसी प्रकार कम नहीं होती। विश्वकर्मा ने बहुत-से ऐसे चंदोवे बना रखे थे, जिसमें मोती की लड़ियों की झालरें लटक रही थीं। हाथी-दाँत के बने हुए आसन और पलँग थे, जिसमें श्रेष्ठ-श्रेष्ठ मणि जड़ी हुई थी। बहुत-सी दासियाँ गले में सोने का हार पहने और बहुत वस्त्रों से सुसज्जित होकर तथा बहुत-से सेवक भी जामा-पगड़ी और सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहने तथा जड़ाऊ कुण्डल धारण किये, अपने-अपने काम में व्यस्त थे और महल की शोभा बढ़ा रहे थे। अनेकों रत्न-प्रदीप अपनी जगमगाहट से उसका अन्धकार दूर कर रहे थे। अगर की धूप देने के कारण झरोखों से धुआँ निकल रहा था। उसे देखकर रंग-बिरंगे मणिमय छज्जों पर बैठे हुए मोर बादलों के भ्रम से कूक-कूककर नाचने लगते।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनसप्ततितम अध्याय श्लोक 13-21 का हिन्दी अनुवाद)

देवर्षि नारद जी ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण उस महल की स्वामिनी रुक्मिणी जी के साथ बैठे हुए हैं और वे अपने हाथों भगवान को सोने की डांडी वाले चँवर से हवा कर रही हैं। यद्यपि उस महल में रुक्मिणी जी के समान ही गुण, रूप, अवस्था और वेष-भूषा वाली सहस्रों दासियाँ भी हर समय विद्यमान रहती थीं।

नारद जी को देखते ही समस्त धार्मिकों के मुकुटमणि भगवान श्रीकृष्ण रुक्मिणी जी के पलँग से सहसा उठ खड़े हुए। उन्होंने देवर्षि नारद के युगलचरणों में मुकुटयुक्त सिर से प्रणाम किया और हाथ जोड़कर उन्हें अपने आसन पर बैठाया। परीक्षित! इसमें सन्देह नहीं कि भगवान श्रीकृष्ण चराचर जगत् के परम गुरु हैं और उनके चरणों का धोवन गंगाजल सारे जगत् को पवित्र करने वाला है। फिर भी वे परमभक्तवत्सल और संतों के परम आदर्श, उनके स्वामी हैं। उनका एक असाधारण नाम ब्रह्मण्यदेव भी है। वे ब्राह्मणों को ही अपना आराध्यदेव मानते हैं। उनका यह नाम उनके गुण के अनुरूप एवं उचित ही है। तभी तो भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं ही नारद जी के पाँव पखारे और उनका चरणामृत अपने सिर पर धारण किया। नरशिरोमणि नर के सखा सर्वदर्शी पुराणपुरुष भगवान नारायण ने शास्त्रोक्त विधि से देवर्षिशिरोमणि भगवान नारद की पूजा की। इसके बाद अमृत से भी मीठे किन्तु थोड़े शब्दों में उनका स्वागत-सत्कार किया और फिर कहा- ‘प्रभो! आप तो स्वयं समग्र, ज्ञान, वैराग्य, धर्म, यश, श्री और ऐश्वर्य से पूर्ण हैं। आपकी हम क्या सेवा करें'?

देवर्षि नारद ने कहा ;- भगवन! आप समस्त लोकों के एकमात्र स्वामी हैं। आपके लिये यह कोई नयी बात नहीं है कि आप अपने भक्तजनों से प्रेम करते हैं और दुष्टों को दण्ड देते हैं। परमयशस्वी प्रभो! आपने जगत् की स्थिति और रक्षा के द्वारा समस्त जीवों का कल्याण करने के लिये स्वेच्छा से अवतार ग्रहण किया है। भगवन! यह बात हम भलीभाँति जानते हैं। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आज मुझे आपके चरणकमलों के दर्शन हुए हैं। आपके चरणकमल सम्पूर्ण जनता को परम साम्य, मोक्ष देने में समर्थ हैं। जिनके ज्ञान की कोई सीमा ही नहीं हैं, वे ब्रह्मा, शंकर आदि सदा-सर्वदा अपने हृदय में उनका चिन्तन करते रहते हैं। वास्तव में वे श्रीचरण ही संसाररूप कुएँ में गिरे हुए लोगों को बाहर निकलने के लिये अवलम्बन हैं। आप ऐसी कृपा कीजिये कि आपके उन चरणकमलों की स्मृति सर्वदा बनी रहे और मैं चाहे जहाँ भी रहूँ, उसके ध्यान में तन्मय रहूँ'।

परीक्षित! इसके बाद देवर्षि नारद जी योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान श्रीकृष्ण की योगमाया का रहस्य जानने के लिए उनकी दूसरी पत्नी के महल गये। वहाँ उन्होंने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिया और उद्धव जी के साथ चौसर खेल रहे हैं। वहाँ भी भगवान ने खड़े होकर उनका स्वागत किया, आसन पर बैठाया और विविध सामग्रियों द्वारा बड़ी भक्ति से उनकी अर्चा-पूजा की। इसके बाद भगवान ने नारद जी से अनजान की तरह पूछा- ‘आप यहाँ कब पधारे! आप तो परिपूर्ण आत्माराम-आप्तकाम हैं और हम लोग हैं अपूर्ण। ऐसी अवस्था में भला हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनसप्ततितम अध्याय श्लोक 22-30 का हिन्दी अनुवाद)

फिर भी ब्रह्मस्वरूप नारद जी! आप कुछ-न-कुछ आज्ञा अवश्य कीजिये और हमें सेवा का अवसर देकर हमारा जन्म सफल कीजिये।’

नारद जी यह सब देख-सुनकर चकित और विस्मित हो रहे थे। वे वहाँ से उठकर चुपचाप दूसरे महल में चले गये। उस महल में देवर्षि नारद ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण अपने नन्हे-नन्हे बच्चों को दुलार रहे हैं। वहाँ से फिर दूसरे महल में गये तो क्या देखते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण स्नान की तैयारी कर रहे हैं। (इसी प्रकार देवर्षि नारद ने विभिन्न महलों में भगवान को भिन्न-भिन्न कार्य करते देखा।)

कहीं वे यज्ञ-कुण्डों में हवन कर रहे हैं और कहीं पंचमहायज्ञों से देवता आदि की आराधना कर रहे हैं। कहीं ब्राह्मणों को भोजन करा रहे हैं, तो कहीं यज्ञ का अवशेष स्वयं भोजन कर रहे हैं। कहीं सन्ध्या कर रहे हैं, तो कहीं मौन होकर गायत्री का जप कर रहे हैं। कहीं हाथों में ढाल-तलवार लेकर उनको चलाने के पैतरे बदल रहे हैं। कहीं घोड़े, हाथी अथवा रथ पर सवार होकर श्रीकृष्ण विचरण कर रहे हैं। कहीं पलँग पर सो रहे हैं, तो कहीं वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे हैं। किसी महल में उद्धव आदि मन्त्रियों के साथ किसी गम्भीर विषय पर परामर्श कर रहे हैं, तो कहीं उत्तमोत्तम वारांगनाओं से घिरकर जलक्रीड़ा कर रहे हैं।

कहीं श्रेष्ठ ब्राह्मणों को वस्त्राभूषण से सुसज्जित गौओं का दान कर रहे हैं, तो कहीं मंगलमय इतिहास-पुराणों का श्रवण कर रहे हैं। कहीं किसी पत्नी के महल में अपनी प्राणप्रिया के साथ हास्य-विनोद की बातें करके हँस रहे हैं। तो कहीं धर्म का सेवन कर रहे हैं। कहीं अर्थ का सेवन कर रहे हैं-धन-संग्रह और धनवृद्धि के कार्य में लगे हुए हैं, तो कहीं धर्मानुकूल गृहस्थोचित विषयों का उपभोग कर रहे हैं। कहीं एकान्त में बैठकर प्रकृति से अतीत पुराण-पुरुष का ध्यान कर रहे हैं, तो कहीं गुरुजनों को इच्छित भोग-सामग्री समर्पित करके उनकी सेवा-शुश्रूषा कर रहे हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनसप्ततितम अध्याय श्लोक 31-45 का हिन्दी अनुवाद)

देवर्षि नारद ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण किसी के साथ युद्ध की बात कर रहे हैं, तो किसी के साथ सन्धि की। कहीं भगवान बलराम जी के साथ बैठकर सत्पुरुषों के कल्याण के बारे में विचार कर रहे हैं। कहीं उचित समय पर पुत्र और कन्याओं का उनके सदृश पत्नी और वरों के साथ बड़ी धूमधाम से विधिवत् विवाह कर रहे हैं। कहीं घर से कन्याओं को विदा कर रहे हैं, तो कहीं बुलाने की तैयारी में लगे हुए हैं। योगेश्वरेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के इन विराट उत्सवों को देखकर सभी लोग विस्मित-चकित हो जाते थे। कहीं बड़े-बड़े यज्ञों के द्वारा समस्त देवताओं का यजन-पूजन और कहीं कुएँ, बगीचे तथा मठ आदि बनवाकर इष्टापूर्त धर्म का आचरण कर रहे हैं। कहीं श्रेष्ठ यादवों से घिरे हुए सिन्धुदेशीय घोड़े पर चढ़कर मृगया कर रह हैं, इस प्रकार यज्ञ के लिये मेध्य पशुओं का संग्रह कर रहे हैं और कहीं प्रजा में तथा अन्तःपुर के महलों में वेष बदलकर छिपे रूप से सबका अभिप्राय जानने के लिये विचरण कर रहे हैं। क्यों न हो, भगवान यागेश्वर जो हैं।

परीक्षित! इस प्रकार मनुष्य की-सी लीला करते हुए हृषीकेश भगवान श्रीकृष्ण की योगमाया का वैभव देखकर देवर्षि नारद जी ने मुसकराते हुए उनसे कहा- ‘योगेश्वर आत्मदेव! आपकी योगमाया ब्रह्मा जी आदि बड़े-बड़े मायावियों के लिये भी अगम्य है। परन्तु हम आपकी योगमाया का रहस्य जानते हैं; क्योंकि आपके चरणकमलों की सेवा करने से वह स्वयं ही हमारे सामने प्रकट हो गयी है। देवताओं के भी आराध्यदेव भगवन! चौदहों भुवन आपके सुयश से परिपूर्ण हो रहे हैं। अब मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं आपकी त्रिभुवन-पावनी लीला का गान करता हुआ उन लोकों में विचरण करूँ’।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- देवर्षि नारद जी! मैं ही धर्म का उपदेशक, पालन करने वाला और उसका अनुष्ठान करने वालों का अनुमोदनकर्ता भी हूँ। इसलिये संसार को धर्म की शिक्षा देने के उद्देश्य से ही मैं इस प्रकार धर्म आचरण करता हूँ। मेरे प्यारे पुत्र! तुम मेरी यह योगमाया देखकर मोहित मत होना।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण गृहस्थों को पवित्र करने वाले श्रेष्ठ धर्मों का आचरण कर रहे थे। यद्यपि वे एक ही हैं, फिर भी देवर्षि नारद जी ने उनको उनकी प्रत्येक पत्नी के महल में अलग-अलग देखा। भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति अनन्त है। उनकी योगमाया परम ऐश्वर्य बार-बार देखकर देवर्षि नारद के विस्मय और कौतूहल की सीमा न रही। द्वारका में भगवान श्रीकृष्ण गृहस्थ की भाँति ऐसा आचरण करते थे, मानो धर्म, अर्थ और कामरूप पुरुषार्थों में उनकी बड़ी श्रद्धा हो। उन्होंने देवर्षि नारद का बहुत सम्मान किया। वे अत्यन्त प्रसन्न होकर भगवान का स्मरण करते हुए वहाँ से चले गये।

राजन! भगवान नारायण सारे जगत् के कल्याण के लिये अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमाया को स्वीकार करते हैं और इस प्रकार मनुष्यों की-सी लीला करते हैं। द्वारकापुरी में सोलह हजार से भी अधिक पत्नियाँ अपनी सलज्ज एवं प्रेमभरी चितवन तथा मन्द-मन्द मुसकान से उनकी सेवा करती थीं और वे उनके साथ विहार करते थे। भगवान श्रीकृष्ण ने जो लीलाएँ की हैं, उन्हें दूसरा कोई नहीं कर सकता। परीक्षित! वे विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के परम कारण हैं। जो उनकी लीलाओं का गान, श्रवण और गान-श्रवण करने वालों का अनुमोदन करता है, उसे मोक्ष के मार्गस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में परमप्रेममयी भक्ति प्राप्त हो जाती है।


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