सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - उत्तरार्ध ) का पचपनवाँ, छप्पनवाँ, सत्तावनवाँ, अठ्ठावनवाँ व उनसठवाँ अध्याय [ Fifty five, fifty six, fifty seven, fifty eight and fifty ninth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【पचपनवाँ अध्याय】५५

        "प्रद्युम्न का जन्म और शम्बरासुर का वध"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचपंचाशत्तम अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! कामदेव भगवान वासुदेव के ही अंश हैं। वे पहले रुद्र भगवान की क्रोधाग्नि से भस्म हो गये थे। अब फिर शरीर-प्राप्ति के लिये उन्होंने अपने अंशी भगवान वासुदेव का ही आश्रय लिया। वे ही काम अब की बार भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा रुक्मिणी जी के गर्भ से उत्पन्न हुए और प्रद्युम्न नाम से जगत में प्रसिद्ध हुए। सौन्दर्य, वीर्य, सौशील्य और सद्गुणों में भगवान श्रीकृष्ण से वे किसी प्रकार कम न थे। बालक प्रद्युम्न अभी दस दिन के भी न हुए थे कि कामरूपी शम्बरासुर वेष बदलकर सूतिकागृह से उन्हें हर ले गया और समुद्र में फेंककर अपने घर लौट गया। उसे मालूम हो गया था कि यह मेरा भावी शत्रु है।

समुद्र में बालक प्रद्युम्न को एक बड़ा भारी मच्छ निगल गया। तदनन्तर मछुओं ने अपने बहुत बड़े जाल में फँसाकर दूसरी मछलियों के साथ उस मच्छ को भी पकड़ लिया और उन्होंने उसे ले जाकर शम्बरासुर को भेंट के रूप में दे दिया। शम्बरासुर के रसोइये उस अद्भुत मच्छ को उठाकर रसोईघर में ले आये और कुल्हाड़ियों से उसे काटने लगे। रसोइयों ने मत्स्य के पेट में बालक देखकर उसे शम्बरासुर की दासी मायावती को समर्पित किया। उसके मन में बड़ी शंका हुई। तब नारदजी ने आकर बालक का कामदेव होना, श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मिणी के गर्भ से जन्म लेना, मच्छ पेट में जाना सब कुछ कह सुनाया।

परीक्षित! वह मायावती कामदेव की यशस्विनी पत्नी रति ही थी। जिस दिन शंकर जी के क्रोध से कामदेव का शरीर भस्म हो गया था, उसी दिन से वह उसकी देह के पुनः उत्पन्न होने की प्रतीक्षा कर रही थी। उसी रति को शम्बरासुर ने अपने यहाँ दाल-भात बनाने के काम में नियुक्त कर रखा था। जब उसे मालूम हुआ कि इस शिशु के रूप में मेरे पति कामदेव ही हैं, तब वह उसके प्रति बहुत प्रेम करने लगी। श्रीकृष्णकुमार भगवान प्रद्युम्न बहुत थोड़े दिनों में जवान हो गये। उनका रूप-लावण्य इतना अद्भुत था कि जो स्त्रियाँ उनकी ओर देखतीं, उनके मन में श्रृंगार-रस का उद्दीपन हो जाता। कमलदल के समान कोमल एवं विशाल नेत्र, घुटनों तक लंबी-लंबी बाँहें और मनुष्य लोक में सबसे सुन्दर शरीर! रति सलज्ज हास्य के साथ भौंह मटका-कर उनकी ओर देखती और प्रेम से भरकर स्त्री-पुरुषसम्बन्धी भाव व्यक्त करती हुई उनकी सेवा-शुश्रूषा में लगी रहती।

श्रीकृष्णनन्दन भगवान प्रद्युम्न ने उसके भावों में परिवर्तन देखकर कहा- ‘देवि! तुम तो मेरी माँ के समान हो। तुम्हारी बुद्धि उलटी कैसे हो गयी? मैं देखता हूँ कि तुम माता का भाव छोड़कर कामिनी के समान हाव-भाव दिखा रही हो।' रति ने कहा- ‘प्रभो! आप स्वयं भगवान नारायण के पुत्र हैं। शम्बरासुर आपको सूतिकागृह से चुरा लाया था। आप मेरे पति स्वयं कामदेव हैं और मैं आपकी सदा ही धर्म-पत्नी रति हूँ। मेरे स्वामी! जब आप दस दिन के भी न थे, तब इस शरम्बरासुर ने आपको हरकर समुद्र में डाल दिया था। वहाँ एक मच्छ आपको निगल गया और उसी के पेट से आप यहाँ मुझे प्राप्त हुए हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचपंचाशत्तम अध्याय श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद)

यह शम्बरासुर सैंकड़ों प्रकार की माया जानता है। इसको अपने वश में कर लेना या जीत लेना बहुत ही कठिन है। आप अपने इस शत्रु को मोहन आदि मायाओं के द्वारा नष्ट कर डालिए। स्वामिन्! अपनी सन्तान आपके खो जाने से आपकी माता पुत्रस्नेह से व्याकुल हो रही हैं, वे आतुर होकर अत्यन्त दीनता से रात-दिन चिन्ता करती रहती हैं। उनकी ठीक वैसी ही दशा हो रही है, जैसी बच्चा खो जाने पर कुररी पक्षी की अथवा बछड़ा खो जाने पर बेचारी गाय होती है।'

मायावती रति ने इस प्रकार कहकर परम शक्तिशाली प्रद्युम्न को महामाया नाम की विद्या सिखायी। यह विद्या ऐसी है, जो सब प्रकार की मायाओं का नाश कर देती है। अब प्रद्युम्न जी शम्बरासुर के पास जाकर उस पर बड़े कटु-कटु आक्षेप करने लगे। वे चाहते थे कि यह किसी प्रकार झगड़ा कर बैठे। इतना ही नहीं, उन्होंने युद्ध के लिये उसे स्पष्ट रूप से ललकारा। प्रद्युम्न जी के कटु वचनों कि चोट से शम्बरासुर तिलमिला उठा। मानो किसी ने विषैले साँप को पैर से ठोकर मार दी हो। उसकी आँखें क्रोध से लाल हो गयीं। वह हाथ में गदा लेकर बाहर निकल आया। उसने अपनी गदा बड़े जोर से आकाश में घुमायी और इसके बाद प्रद्युम्न जी पर चला दी। गदा चलाते समय उसने इतना कर्कश सिंहनाद किया, मानो बिजली कड़क रही हो।

परीक्षित! भगवान प्रद्युम्न ने देखा कि उसकी गदा बड़े वेग से मेरी ओर आ रही है। तब उन्होंने अपनी गदा के प्रहार से उसकी गदा गिरा दी और क्रोध में भरकर अपनी गदा उस पर चलायी। तब वह दैत्य मयासुर की बतलायी हुई आसुरी माया का आश्रय लेकर आकाश में चला गया और वहीं से प्रद्युम्न जी पर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करने लगा। महारथी प्रद्युम्न जी पर बहुत-सी अस्त्र-वर्षा करके जब वह उन्हें पीड़ित करने लगा, तब उन्होंने समस्त मायाओं को शान्त करने वाली सत्त्वमयी महाविद्या का प्रयोग किया। तदनन्तर शम्बरासुर ने यक्ष, गन्धर्व, पिशाच, नाग और राक्षसों की सैकड़ों मायाओं का प्रयोग किया; परन्तु श्रीकृष्णकुमार प्रद्युम्न जी ने अपनी महाविद्या से उन सबका नाश कर दिया। इसके बाद उन्होंने एक तीक्ष्ण तलवार उठायी और शम्बरासुर का किरीट एवं कुण्डल से सुशोभित सिर, जो लाल-लाल दाढ़ी, मूँछों से बड़ा भयंकर लग रहा था, काटकर धड़ से अलग कर दिया। देवता लोग पुष्पों की वर्षा करते हुए स्तुति करने लगे और इसके बाद मायावती रति, जो आकाश में चलना जानती थीं, अपनी पति प्रद्युम्न जी को आकाश मार्ग से द्वारिकापुरी में ले गयी ।

परीक्षित! आकाश में अपनी गोरी पत्नी के साथ साँवले प्रद्युम्न जी की ऐसी शोभा हो रही थी, मानो बिजली और मेघ का जोड़ा हो। इस प्रकार उन्होंने भगवान के उस उत्तम अन्तःपुर में प्रवेश किया, जिसमें सैकड़ों श्रेष्ठ रमणियाँ निवास करती थीं। अन्तःपुर की नारियों ने देखा कि प्रद्युम्न जी का शरीर वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामवर्ण है। रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए हैं। घुटनों तक लंबी भुजाएँ हैं। रतनारे नेत्र हैं और सुन्दर मुख पर मन्द-मन्द मुस्कान की अनूठी ही छटा है। उनके मुखारविन्द पर घुँघराली और नीली अलकें इस प्रकार शोभायमान हो रही हैं, मानो भौंरें खेल रहे हों। वे सब उन्हें श्रीकृष्ण समझकर सकुचा गयीं और घरों में इधर-उधर लुक-छिप गयीं। फिर धीरे-धीरे स्त्रियों को यह मालूम हो गया कि श्रीकृष्ण नहीं हैं। क्योंकि उनकी अपेक्षा इनमें कुछ विलक्षणता अवश्य है। अब वे अत्यन्त आनन्द और विस्मय से भरकर इस श्रेष्ठ दम्पत्ति के पास आ गयीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचपंचाशत्तम अध्याय श्लोक 30-40 का हिन्दी अनुवाद)

इसी समय वहाँ रुक्मिणी जी आ पहुँचीं। परीक्षित! उनके नेत्र कजरारे और वाणी अत्यन्त मधुर थी। इस नवीन दम्पत्ति को देखते ही उन्हें अपने खोये पुत्र की याद हो आयी। वात्सल्य स्नेह की अधिकता से उनके स्तनों से दूध झरने लगा।

रुक्मिणी जी सोचने लगीं ;- ‘यह नररत्न कौन है? यह कमलनयन किसका पुत्र है? किस बड़भागिनी ने इसे अपने गर्भ में धारण किया होगा? इसे यह कौन सौभाग्यवती पत्नी-रूप में प्राप्त हुई है? मेरा भी एक नन्हा-सा शिशु खो गया था। न जाने कौन उसे सूतिकागृह से उठा ले गया। यदि वह कहीं जीता-जागता होगा तो उसकी अवस्था तथा रूप भी इसी के समान हुआ होगा। मैं तो इस बात से हैरान हूँ कि इसे भगवान श्यामसुन्दर की-सी रूपरेखा, अंगों की गठन, चाल-ढाल, मुसकान-चितवन और बोल-चाल कहाँ से प्राप्त हुई? हो-न-हो यह वही बालक है, जिसे मैंने अपने गर्भ में धारण किया था; क्योंकि स्वभाव से ही मेरा स्नेह इसके प्रति उमड़ रहा है और मेरी बायीं बाँह भी फड़क रही है।'

जिस समय रुक्मिणी जी इस प्रकार सोच-विचार कर रही थीं-निश्चय और सन्देह के झूले में झूल रही थीं, उसी समय पवित्रकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण अपने माता-पिता देवकी-वसुदेवजी के साथ वहाँ पधारे। भगवान श्रीकृष्ण सब कुछ जानते थे। परन्तु वे कुछ न बोले, चुपचाप खड़े रहे। इतने में ही नारदजी वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने प्रद्युम्न जी को शम्बरासुर द्वारा हर ले जाना, समुद्र में फेंक देना आदि जितनी भी घटनाएँ घटित हुई थीं, वे सब कह सुनायीं। नारद जी के द्वारा यह महान आश्चर्यमयी घटना सुनकर भगवान श्रीकृष्ण के अन्तःपुर की स्त्रियाँ चकित हो गयीं और बहुत वर्षों तक खोये रहने के बाद लौट हुए प्रद्युम्न जी का इस प्रकार अभिनन्दन करने लगीं, मानो कोई मरकर जी उठा हो।

देवकी जी, वसुदेव जी, भगवान श्रीकृष्ण, बलराम जी, रुक्मिणी जी और स्त्रियाँ- सब उस नवदम्पत्ति को हृदय से लगाकर बहुत ही आनन्दित हुए। जब द्वारकावासी नर-नारियों को यह मालूम हुआ कि खोये हुए प्रद्युम्न जी लौट आये हैं, तब वे परस्पर कहने लगे- ‘अहो, कैसे सौभाग्य की बात है कि यह बालक मानो मरकर फिर लौट आया।'

परीक्षित! प्रद्युम्न जी का रूप-रंग भगवान श्रीकृष्ण से इतना मिलता-जुलता था कि उन्हें देखकर उनकी माताएँ भी उन्हें अपना पतिदेव श्रीकृष्ण समझकर मधुरभाव में मग्न हो जाती थीं और उनके सामने से हटकर एकान्त में चली जाती थीं। श्रीनिकेतन भगवान के प्रतिबिम्बस्वरूप कामावतार भगवान प्रद्युम्न के दीख जाने पर ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। फिर उन्हें देखकर दूसरी स्त्रियों की विचित्र दशा हो जाती थी, इसमें तो कहना ही क्या है।

                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【छप्पनवाँ अध्याय】५६

"स्यमन्तक मणि की कथा, जाम्बवती और सत्यभामा के साथ श्रीकृष्ण का विवाह"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्पंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! सत्राजित ने श्रीकृष्ण को झूठा कलंक लगाया था। फिर उस अपराध का मार्जन करने के लिये उसने स्वयं स्यमन्तक मणि सहित अपनी कन्या सत्यभामा भगवान श्रीकृष्ण सौंप दी।

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन! सत्राजित ने भगवान श्रीकृष्ण का क्या अपराध किया था? उसे स्यमन्तक मणि कहाँ से मिली? और उसने अपनी कन्या उन्हें क्यों दी?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! सत्राजित भगवान सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। वे उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसके बहुत बड़े मित्र बन गये थे। सूर्य भगवान ने प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उसे स्यमन्तक मणि दी थी। सत्राजित उस मणि को गले में धारण कर ऐसा चमकने लगा, मानो स्वयं सूर्य ही हो। परीक्षित! जब सत्राजित द्वारका में आया, तब अत्यन्त तेजस्विता के कारण लोग उसे पहचान न सके। दूर से ही उसे देखकर लोगों की आँखें उसके तेज से चौंधिया गयीं। लोगों ने समझा कि कदाचित् स्वयं भगवान सूर्य आ रहे हैं। उन लोगों ने भगवान के पास आकर उन्हें इस बात की सूचना दी। उस समय भगवान श्रीकृष्ण चौसर खेल रहे थे। लोगों ने कहा- ‘शंख-चक्र-गदाधारी नारायण! कमलनयन दामोदर! यदुवंशशिरोमणि गोविन्द! आपको नमस्कार है। जगदीश्वर! देखिये! अपनी चमकीली किरणों से लोगों के नेत्रों को चौंधियाते हुए प्रचण्डरश्मि भगवान सूर्य आपका दर्शन करने आ रहे हैं। प्रभो! सभी श्रेष्ठ देवता त्रिलोकी में आपकी प्राप्ति का मार्ग ढूँढते रहते हैं; किन्तु उसे पाते नहीं। आज आपको यदुवंश में छिपा हुआ जानकर स्वयं सूर्यनारायण आपका दर्शन करने आ रहे हैं।'

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अनजान पुरुषों की यह बात सुनकर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने कहा- ‘अरे, ये सूर्यदेव नहीं है। यह तो सत्राजित है, जो मणि के कारण इतना चमक रहा है।' इसके बाद सत्राजित अपने समृद्ध घर में चला आया। घर पर उसके शुभागमन के उपलक्ष्य में मंगल-उत्सव मनाया जा रहा था। उसने ब्राह्मणों के द्वारा स्यमन्तक मणि को एक देवमन्दिर में स्थापित करा दिया। परीक्षित! वह मणि प्रतिदिन आठ भार[1] सोना दिया करती थी और वहाँ वह पूजित होकर रहती थी। वहाँ दुर्भिक्ष, महामारी, ग्रहपीड़ा, सर्पभय, मानसिक और शारीरिक व्यथा तथा मायावियों का उपद्रव आदि कोई भी अशुभ नहीं होता था।

एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसंगवश कहा ;- ‘सत्राजित! तुम अपनी मणि राजा उग्रसेन को दे दो।’ परन्तु वह इतना अर्थलोलुप-लोभी था कि भगवान की आज्ञा का उल्लंघन होगा, इसका कुछ भी विचार न करके उसे अस्वीकार कर दिया। एक दिन सत्राजित के भाई प्रसेन ने उस परम प्रकाशमयी मणि को अपने गले में धारण कर लिया और फिर वह घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने वन में चला गया। वहाँ एक सिंह ने घोड़े सहित प्रसेन को मार डाला और उस मणि को छीन लिया। वह अभी पर्वत की गुफ़ा में प्रवेश कर ही रहा था कि मणि के लिये ऋक्षराज जाम्बवान ने उसे मार डाला। उन्होंने वह मणि अपनी गुफ़ा में ले जाकर बच्चे को खेलने के लिये दे दी। अपने भाई प्रसेन के न लौटने से उसके भाई सत्राजित को बड़ा दुःख हुआ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्पंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद)

वह कहने लगा, ‘बहुत सम्भव है श्रीकृष्ण ने ही मेरे भाई को मार डाला हो; क्योंकि वह मणि गले में डालकर वन में गया था।’ सत्राजित की यह बात सुनकर लोग आपस में काना-फूसी करने लगे।

जब भगवान श्रीकृष्ण ने सुना कि यह कलंक का टीका मेरे ही सिर लगाया गया है, तब वे उसे धो-बहाने के उद्देश्य से नगर के कुछ सभ्य पुरुषों को साथ लेकर प्रसेन को ढूँढने के लिये वन में गये। वहाँ खोजते-खोजते लोगों ने देखा कि घोर जंगल में सिंह ने प्रसेन और उसके घोड़े को मार डाला है। जब वे लोग सिंह के पैरों का चिह्न देखते हुए आगे बढ़े, तब उन लोगों ने यह भी देखा कि पर्वत पर एक रीछ ने सिंह को भी मार डाला है। भगवान श्रीकृष्ण ने सब लोगों को बाहर ही बिठा दिया और अकेले ही घोर अन्धकार से भरी हुई ऋक्षराज की भयंकर गुफ़ा में प्रवेश किया। भगवान ने वहाँ जाकर देखा कि श्रेष्ठ मणि स्यमन्तक को बच्चों का खिलौना बना दिया गया है। वे उसे हर लेने की इच्छा से बच्चे के पास जा खड़े हुए।

उस गुफ़ा में एक अपरिचित मनुष्य को देखकर बच्चे की धाय भयभीत की भाँति चिल्ला उठी। उसकी चिल्लाहट सुनकर परमबली ऋक्षराज जाम्बवान क्रोधित होकर वहाँ दौड़ आये। परीक्षित! जाम्बवान उस समय कुपित हो रहे थे। उन्हें भगवान की महिमा, उनके प्रभाव का पता न चला। उन्होंने उन्हें एक साधारण मनुष्य समझ लिया और वे अपने स्वामी भगवान श्रीकृष्ण से युद्ध करने लगे। जिस प्रकार मांस के लिये दो बाज आपस में लड़ते हैं, वैसे ही विजयाभिलाषी भगवान श्रीकृष्ण और जाम्बवान आपस में घमासान युद्ध करने लगे। पहले तो उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार किया, फिर शिलाओं का, तत्पश्चात् वे वृक्ष उखाड़कर एक-दूसरे पर फेंकने लगे। अन्त में उनमें बाहुयुद्ध होने लगा।

परीक्षित! वज्र-प्रहार के समान कठोर घूँसों से आपस में वे अट्ठाईस दिन तक बिना विश्राम किये रात-दिन लड़ते रहे। अन्त में भगवान श्रीकृष्ण के घूँसों की चोट से जाम्बवान के शरीर की एक-एक गाँठ टूट-फूट गयी। उत्साह जाता रहा। शरीर पसीने से लथपथ हो गया। तब उन्होंने अत्यन्त विस्मित-चकित होकर भगवान श्रीकृष्ण से कहा- ‘प्रभो! मैं जान गया। आप ही समस्त प्राणियों के स्वामी, रक्षक, पुराणपुरुष भगवान विष्णु हैं। आप ही सबके प्राण, इन्द्रियबल, मनोबल और शरीरबल हैं। आप विश्व के रचयिता ब्रह्मा आदि को भी बनाने वाले हैं। बनाये हुए पदार्थों में भी सत्तारूप से आप ही विराजमान हैं। काल के जितने भी अवयव हैं, उनके नियामक परमकाल आप ही हैं और शरीर-भेद से भिन्न-भिन्न प्रतीयमान अंतरात्माओं के परमआत्मा भी आप ही हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्पंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 28-41 का हिन्दी अनुवाद)

प्रभो! मुझे स्मरण है, आपने अपने नेत्रों में तनिक-सा क्रोध का भाव लेकर तिरछी दृष्टि से समुद्र की ओर देखा था। उस समय समुद्र के अन्दर रहने वाले बड़े-बड़े नाक (घड़ियाल) और मगरमच्छ क्षुब्ध हो गये थे और समुद्र ने आपको मार्ग दे दिया था। तब आपने उस पर सेतु बाँधकर सुन्दर यश की स्थापना की तथा लंका का विध्वंस किया। आपके बाणों से कट-कटकर राक्षसों के सिर पृथ्वी पर लोट रहे थे (अवश्य ही आप मेरे वे ही ‘राम जी’ श्रीकृष्ण के रूप में आये हैं)।'

परीक्षित! जब ऋक्षराज जाम्बवान ने भगवान को पहचान लिया, तब कमलनयन श्रीकृष्ण ने अपने परम कल्याणकारी शीतल करकमल को उनके शरीर पर फेर दिया और फिर अहैतु की कृपा से भरकर प्रेम-गम्भीर वाणी से अपने भक्त जाम्बवान जी से कहा- ‘ऋक्षराज! हम मणि के लिये ही तुम्हारी इस गुफ़ा में आये हैं। इस मणि के द्वारा मैं अपने पर लगे झूठे कलंक को मिटाना चाहता हूँ।' भगवान के ऐसा कहने पर जाम्बवान ने बड़े आनन्द से उनकी पूजा करने के लिये अपनी कन्या कुमारी जाम्बवती को मणि के साथ उनके चरणों में समर्पित कर दिया।

भगवान श्रीकृष्ण जिन लोगों को गुफ़ा के बाहर छोड़ गये थे, उन्होंने बारह दिन तक उनकी प्रतीक्षा की। परन्तु जब उन्होंने देखा कि अब तक वे गुफ़ा से नहीं निकले, तब वे अत्यन्त दुःखी होकर द्वारका को लौट आये। वहाँ जब माता देवकी, रुक्मिणी, वसुदेव जी तथा अन्य सम्बन्धियों और कुटुम्बियों को यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण गुफ़ा में से नहीं निकले, तब उन्हें बड़ा शोक हुआ। सभी द्वारकावासी अत्यन्त दुःखित होकर सत्राजित को भला-बुरा कहने लगे और भगवान श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिये महामाया दुर्गादेवी की शरण में गये। उनकी उपासना करने लगे। उनकी उपासना से दुर्गादेवी प्रसन्न हुईं और उन्होंने आशीर्वाद किया। उसी समय उनके बीच में मणि और नववधु जाम्बवती के साथ सफल मनोरथ होकर श्रीकृष्ण सबको प्रसन्न करते हुए प्रकट हो गये। सभी द्वारकावासी भगवान श्रीकृष्ण को पत्नी के साथ और गले में मणि धारण किये हुए देखकर परमानन्द में मग्न हो गये, मानो कोई मरकर लौट आया हो।

तदनन्तर भगवान ने सत्राजित को राजसभा में महाराज उग्रसेन के पास बुलवाया और जिस प्रकार मणि प्राप्त हुई थी, वह सब कथा सुनाकर उन्होंने वह मणि सत्राजित को सौंप दी। सत्राजित अत्यन्त लज्जित हो गया। मणि तो उसने ले ली, परन्तु उसका मुँह नीचे की ओर लटक गया। अपने अपराध पर उसे बड़ा पश्चाताप हो रहा था, किसी प्रकार वह अपने घर पहुँचा। उसके मन में आँखों के सामने निरन्तर अपना अपराध नाचता रहता। बलवान के साथ विरोध करने के कारण वह भयभीत हो गया था। अब वह यही सोचता रहता कि ‘मैं अपने अपराध का मार्जन कैसे करूँ? मुझ पर भगवान श्रीकृष्ण कैसे प्रसन्न हों। मैं ऐसा कौन-सा काम करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो और लोग मुझे कोसें नहीं। सचमुच मैं अदूरदर्शी, क्षुद्र हूँ। धन के लोभ से मैं बड़ी मूढ़ता का काम कर बैठा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्पंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 42-45 का हिन्दी अनुवाद)

अब मैं रमणियों में रत्न के समान अपनी कन्या सत्यभामा और वह स्यमन्तक मणि दोनों ही श्रीकृष्ण को दे दूँ। यह उपाय बहुत अच्छा है। इसी से मेरे अपराध का मार्जन हो सकता है और कोई उपाय नहीं है।'

सत्राजित ने अपनी विवेक-बुद्धि से ऐसा निश्चय करके स्वयं ही इसके लिये उद्योग किया और अपनी कन्या तथा स्यमन्तक मणि दोनों ही ले जाकर श्रीकृष्ण को अर्पण कर दीं। सत्यभामा शील-स्वभाव, सुन्दरता, उदारता आदि सद्गुणों से सम्पन्न थी। बहुत-से लोग चाहते थे कि सत्यभामा हमें मिले और उन लोगों ने उन्हें माँगा भी था। परन्तु अब भगवान श्रीकृष्ण ने विधिपूर्वक उनका पाणिग्रहण किया।

परीक्षित!
       भगवान श्रीकृष्ण ने सत्राजित से कहा ;- ‘हम स्यमन्तक मणि न लेंगे। आप सूर्य भगवान के भक्त हैं, इसीलिये वह आपके ही पास रहे। हम तो केवल उनके फल के, अर्थात् उससे निकले हुए सोने के अधिकारी हैं। वही आप हमें दे दिया करें।'


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【सत्तावनवाँ अध्याय】५७

"स्यमन्तक-हरण, शतधन्वा का उद्धार और अक्रूर जी को फिर से द्वारका बुलाना"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! यद्यपि भगवान श्रीकृष्ण को इस बात का पता था कि लाक्षागृह की आग से पाण्डवों का बाल भी बाँका नहीं हुआ है, तथापि जब उन्होंने सुना कि कुन्ती और पाण्डव जल मरे, तब उस समय का कुल-परम्परोचित व्यवहार करने के लिये वे बलराम जी के साथ हस्तिनापुर गये। वहाँ जाकर भीष्म पितामह, कृपाचार्य, विदुर, गान्धारी और द्रोणाचार्य से मिलकर उनके साथ समदेवना-सहानुभूति प्रकट की और उन लोगों से कहने लगे- ‘हाय! हाय! यह तो बड़े ही दुःख की बात हुई।'

भगवान श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर चले जाने से द्वारका में अक्रूर और कृतवर्मा को अवसर मिल गया। उन लोगों ने शतधन्वा से आकर कहा- ‘तुम सत्राजित से मणि क्यों नहीं छीन लेते? सत्राजित ने अपनी श्रेष्ठ कन्या सत्यभामा का विवाह हमसे करने का वचन दिया था और अब उसने हम लोगों का तिरस्कार करके उसे श्रीकृष्ण के साथ व्याह दिया है। अब सत्राजित भी अपने भाई प्रसेन की तरह क्यों न यमपुरी में जाये?’ शतधन्वा पापी था और अब तो उसकी मृत्यु भी उसके सिर पर नाच रही थी। अक्रूर और कृतवर्मा के इस प्रकार बहकाने पर शतधन्वा उनकी बातों में आ गया और उस महादुष्ट ने लोभवश सोये हुए सत्राजित को मार डाला। इस समय स्त्रियाँ अनाथ के समान रोने-चिल्लाने लगीं; परन्तु शतधन्वा ने उनकी ओर तनिक भी ध्यान न दिया; जैसे कसाई पशुओं की हत्या कर डालता है, वैसे ही वह सत्राजित को मारकर और मणि लेकर वहाँ से चम्पत हो गया।

सत्यभामा जी को यह देखकर कि मेरे पिता मार डाले गये हैं, बड़ा शोक हुआ और वे ‘हाय पिताजी! हाय पिताजी! मैं मारी गयी’- इस प्रकार पुकार-पुकारकर विलाप करने लगीं। बीच-बीच में वे बेहोश हो जातीं और होश में आने पर फिर विलाप करने लगतीं। इसके बाद उन्होंने अपने पिता के शव को तेल के कड़ाहे में रखवा दिया और आप हस्तिनापुर को गयीं। उन्होंने बड़े दुःख से भगवान श्रीकृष्ण को अपने पिता की हत्या का वृत्तांत सुनाया। यद्यपि इन बातों को भगवान श्रीकृष्ण पहले से ही जानते थे।

परीक्षित! सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी ने सब सुनकर मनुष्यों की-सी लीला करते हुए अपनी आँखों में आँसूं भर लिये और विलाप करने लगे कि ‘अहो! हम लोगों पर तो यह बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी।' इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण सत्यभामा जी और बलराम जी के साथ हस्तिनापुर से द्वारका लौट आये और शतधन्वा को मारने तथा उससे मणि छीनने का उद्योग करने लगे। जब शतधन्वा को यह मालूम हुआ कि भगवान श्रीकृष्ण मुझे मारने का उद्योग कर रहे हैं, तब वह बहुत डर गया और अपने प्राण बचाने के लिये उसने कृतवर्मा से सहायता माँगी। तब कृतवर्मा ने कहा- ‘भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं। मैं उनका सामना नहीं कर सकता। भला, ऐसा कौन है, जो उनके साथ वैर बाँधकर इस लोक और परलोक में सकुशल रह सके? तुम जानते हो कि कंस उन्हीं से द्वेष करने के कारण राज्यलक्ष्मी को खो बैठा और अपने अनुयायियों के साथ मारा गया। जरासन्ध जैसे शूरवीर को भी उनके सामने सत्रह बार मैदान में हराकार बिना रथ के ही अपनी राजधानी में लौट जाना पड़ा था।'

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद)

जब कृतवर्मा ने उसे इस प्रकार टका-सा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने सहायता के लिए अक्रूर जी से प्रार्थना की। उन्होंने कहा- ‘भाई! ऐसा कौन है, जो सर्वशक्तिमान भगवान का बल-पौरुष जानकर भी उनसे वैर-विरोध ठाने। जो भगवान खेल-खेल में ही इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं तथा जो कब क्या करना चाहते हैं- इस बात को माया से मोहित ब्रह्मा आदि विश्वविधाता भी नहीं समझ पाते; जिन्होंने सात वर्ष की अवस्था में- जब वे निरे बालक थे, एक हाथ से ही गिरिराज गोवर्धन को उखाड़ लिया और जैसे नन्हे-नन्हे बच्चे बरसाती छत्ते को उखाड़कर हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही खेल-खेल में सात दिनों तक उसे उठाये रखा; मैं तो उन भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार करता हूँ। उनके कर्म अद्भुत हैं। वे अनन्त, अनादि, एकरस और आत्मस्वरूप हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूँ।'

जब इस प्रकार अक्रूर जी ने भी उसे कोरा जवाब दे दिया, तब शतधन्वा ने स्यमन्तक मणि उन्हीं के पास रख दी और आप चार सौ कोस लगातार चलने वाले घोड़े पर सवार होकर वहाँ से बड़ी फुर्ती से भागा।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई अपने उस रथ पर सवार हुए, जिस पर गरुड़ चिह्न से चिह्नित ध्वजा फहरा रही थी और बड़े वेग वाले घोड़े जुते हुए थे। अब उन्होंने अपने श्वसुर सत्राजित को मारने वाले शतधन्वा का पीछा किया। मिथिलापुरी के निकट एक उपवन में शतधन्वा का घोडा गिर पड़ा, अब वह उसे छोड़कर पैदल ही भागा। वह अत्यन्त भयभीत हो गया था। भगवान श्रीकृष्ण भी क्रोध करके उसके पीछे दौड़े। शतधन्वा पैदल ही भाग रहा था, इसलिये भगवान ने भी पैदल ही दौड़कर अपने तीक्ष्ण धार वाले चक्र से उसका सिर उतार लिया और उसके वस्त्रों में स्यमन्तक मणि को ढूँढा। परन्तु जब मणि नहीं मिली, तब भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े भाई बलराम जी के पास आकर कहा- ‘हमने शतधन्वा को व्यर्थ ही मारा। क्योंकि उसके पास स्यमन्तक मणि तो है ही नहीं।'

बलराम जी ने कहा ;- ‘इसमें सन्देह नहीं कि शतधन्वा ने स्यमन्तक मणि को किसी-न-किसी के पास रख दिया है। अब तुम द्वारका जाओ और उसका पता लगाओ। मैं विदेहराज से मिलना चाहता हूँ; क्योंकि वे मेरे बहुत ही प्रिय मित्र हैं।’

परीक्षित! यह कहकर यदुवंशशिरोमणि बलराम जी मिथिला नगरी में चले गये। जब मिथिला नरेश ने देखा कि पूजनीय बलराम जी महाराज पधारे हैं, तब उनका हृदय आनन्द से भर गया। उन्होंने झटपट अपने आसन से उठकर अनेक सामग्रियों से उनकी पूजा की। इसके बाद भगवान बलराम जी कई वर्षों तक मिथिलापुरी में ही रहे। महात्मा जनक ने बड़े प्रेम और सम्मान से उन्हें रखा। इसके बाद समय पर धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन ने बलराम जी से गदा युद्ध की शिक्षा ग्रहण की। अपनी प्रिया सत्यभामा का प्रिय कार्य करके भगवान श्रीकृष्ण द्वारका लौट आये और उनको यह समाचार सुना दिया कि शतधन्वा को मार डाला गया, परन्तु स्यमन्तक मणि उसके पास न मिली। इसके बाद उन्होंने भाई-बन्धुओं के साथ अपन श्वशुर सत्राजित की वे सब और्ध्वदैहिक क्रियाएँ करवायीं, जिनसे मृतक प्राणी का परलोक सुधरता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 29-42 का हिन्दी अनुवाद)

अक्रूर और कृतवर्मा ने शतधन्वा को सत्राजित के वध के लिये उत्तेजित किया था। इसलिये जब उन्होंने सुना कि भगवान श्रीकृष्ण ने शतधन्वा को मार डाला है, तब वे अत्यन्त भयभीत होकर द्वारका से भाग खड़े हुए। परीक्षित! कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि अक्रूर के द्वारका से चले जाने पर द्वारकावासियों को बहुत प्रकार के अनिष्टों और अरिष्टों का सामना करना पड़ा। दैविक और भौतिक निमित्तों से बार-बार वहाँ के नागरिकों को शारीरिक और मानसिक कष्ट सहना पड़ा। परन्तु जो लोग ऐसा कहते हैं, वे पहले कही हुई बातों को भूल जाते हैं। भला, यह भी कभी सम्भव है कि कि जिन भगवान श्रीकृष्ण में समस्त ऋषि-मुनि निवास करते हैं, उनके निवास स्थान द्वारका में उनके रहते कोई उपद्रव खड़ा हो जाये।

उस समय नगर के बड़े-बूढ़े लोगों ने कहा ;- ‘एक बार काशी-नरेश के राज्य में वर्षा नहीं हो रही थी, सूखा पड़ गया था। तब उन्होंने अपने राज्य में आये हुए अक्रूर के पिता श्वफल्क को अपनी पुत्री गान्दिनी ब्याह दी। तब उस प्रदेश में वर्षा हुई। अक्रूर भी श्वफल्क के ही पुत्र हैं और इनका प्रभाव भी वैसा ही है। इसलिये जहाँ-जहाँ अक्रूर रहते हैं, वहाँ-वहाँ खूब वर्षा होती है तथा किसी प्रकार का कष्ट और महामारी आदि उपद्रव नहीं होते।’

परीक्षित! उन लोगों की बात सुनकर भगवान ने सोचा कि ‘इस उपद्रव का यही कारण नहीं है’, यह जानकर भी भगवान ने दूत भेजकर अक्रूर जी को ढुँढवाया और आने पर उनसे बातचीत की। भगवान ने उनका खूब स्वागत-सत्कार किया और मीठी-मीठी प्रेम की बातें कहकर उनसे सम्भाषण किया। परीक्षित! भगवान सबके चित्त का एक-एक संकल्प देखते रहते हैं। इसलिये उन्होंने मुसकराते हुए अक्रूर से कहा- ‘चाचाजी! आप दान-धर्म के पालक हैं। हमें यह बात पहले से मालूम है कि शतधन्वा आपके पास वह स्यमन्तक मणि छोड़ गया है, जो बड़ी ही प्रकाशमान और धन देने वाली है। आप जानते ही हैं कि सत्राजित के कोई पुत्र नहीं है। इसलिये उनकी लड़की के लड़के- उनके नाती ही उन्हें तिलांजलि और पिण्डदान करेंगे, उनका ऋण चुकायेंगे और जो कुछ बच रहेगा, उसके उत्तराधिकारी होंगे। इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टि से यद्यपि स्यमन्तक मणि हमारे पुत्रों को ही मिलनी चाहिये, तथापि वह मणि आपके ही पास रहे। क्योंकि आप बड़े व्रतनिष्ठ और पवित्रात्मा हैं तथा दूसरों के लिये उस मणि को रखना अत्यन्त कठिन भी है। परन्तु हमारे सामने एक बहुत बड़ी कठिनाई यह आ गयी है कि हमारे बड़े भाई बलराम जी मणि के सम्बन्ध में मेरी बात का पूरा विश्वास नहीं करते। इसलिये महाभाग्यवान अकूर जी! आप वह मणि दिखाकर हमारे इष्ट-मित्र- बलराम जी, सत्यभामा और जाम्बवती का सन्देह दूर कर दीजिये और उनके हृदय में शान्ति का संचार कीजिये। हमें पता है कि उसी मणि के प्रताप से आजकल आप लगातार ही ऐसे यज्ञ करते रहते हैं, जिनमें सोने की वेदियाँ बनती हैं।'

परीक्षित! जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सान्त्वना देकर उन्हें समझाया-बुझाया, तब अक्रूर जी ने वस्त्र में लपेटी हुई सूर्य के समान प्रकाशमान वह मणि निकाली और भगवान श्रीकृष्ण को दे दी। भगवान श्रीकृष्ण ने वह स्यमन्तक मणि अपने जाति-भाइयों को दिखाकर अपना कलंक दूर किया और उसे अपने पास में रखने में समर्थ होने पर भी पुनः अक्रूर जी को लौटा दिया।

सर्वशक्तिमान सर्वव्यापक भगवान श्रीकृष्ण के पराक्रमों से परिपूर्ण यह आख्यान समस्त पापों, अपराधों और कलंकों का मार्जन करने वाला तथा परम मंगलमय है। जो इसे पढ़ता, सुनता और स्मरण करता है, वह सब प्रकार की अपकीर्ति और पापों से छूटकर शान्ति का अनुभव करता है।


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【अठ्ठावनवाँ अध्याय】५८

"भगवान श्रीकृष्ण के अन्यान्य विवाहों की कथा"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अब पाण्डवों का पता चल गया था कि वे लाक्षाभवन में जले नहीं हैं। एक बार भगवान श्रीकृष्ण उनसे मिलने के लिये इन्द्रप्रस्थ पधारे। उनके साथ सात्यकि आदि बहुत-से यदुवंशी भी थे। जब वीर पाण्डवों ने देखा कि सर्वेश्वर भगवान श्रीकृष्ण पधारे हैं तो जैसे प्राण का संचार होने पर सभी इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं, वैसे ही वे सब-के-सब एक साथ उठ खड़े हुए। वीर पाण्डवों ने भगवान श्रीकृष्ण का आलिंगन किया, उनके अंग-संग से उनके सारे पाप-ताप धुल गये। भगवान की प्रेम भरी मुसकराहट से सुशोभित मुख-सुषमा देखकर वे आनन्द में मग्न हो गये।

भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर और भीमसेन के चरणों में प्रणाम किया और अर्जुन को हृदय से लगाया। नकुल और सहदेव ने भगवान के चरणों की वन्दना की। जब भगवान श्रीकृष्ण श्रेष्ठ सिंहासन पर विराजमान हो गये; तब परम सुन्दरी श्यामवर्णी द्रौपदी, जो नवविवाहिता होने के कारण तनिक लजा रही थी, धीरे-धीरे भगवान श्रीकृष्ण के पास आयी और उन्हें प्रणाम किया। पाण्डवों ने भगवान श्रीकृष्ण के समान ही वीर सात्यकि का भी स्वागत-सत्कार और अभिनन्दन-वन्दन किया। वे एक आसन पर बैठ गये। दूसरे यदुवंशियों का भी यथायोग्य सत्कार किया गया तथा वे भी श्रीकृष्ण के चारों ओर आसनों पर बैठ गये। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण अपनी फूआ कुन्ती के पास गये और उनके चरणों में प्रणाम किया। कुन्ती जी ने अत्यन्त स्नेहवश उन्हें अपने हृदय से लगा लिया। उस समय उनके नेत्रों में प्रेम के आँसू छलक आये। कुन्ती जी ने श्रीकृष्ण से अपने भाई-बन्धुओं की कुशल-क्षेम पूछी और भगवान ने भी उनका यथोचित उत्तर देकर उनसे उनकी पुत्रवधू द्रौपदी और स्वयं उनका कुशल-मंगल पूछा।

उस समय प्रेम की विह्वलता से कुन्ती जी का गला रूँध गया था, नेत्रों से आँसू बह रहे थे। भगवान के पूछने पर उन्हें अपने पहले के क्लेश-पर-क्लेश याद आने लगे और वे अपने को बहुत सँभालकर, जिनका दर्शन समस्त क्लेशों का अन्त करने के लिये ही हुआ करता है, उन भगवान श्रीकृष्ण से कहने लगीं- ‘श्रीकृष्ण! जिस समय तुमने हम लोगों को अपना कुटुम्बी, सम्बन्धी समझकर स्मरण किया और हमारा कुशल-मंगल जानने के लिये भाई अक्रूर को भेजा, उसी समय हमारा कल्याण हो गया, हम अनाथों को तुमने सनाथ कर दिया। मैं जानती हूँ कि तुम सम्पूर्ण जगत के परम हितैषी सुहृद और आत्मा हो। यह अपना है और यह पराया, इस प्रकार की भ्रान्ति तुम्हारे अन्दर नहीं है। ऐसा होने पर भी, श्रीकृष्ण! जो सदा तुम्हें स्मरण करते हैं, उनके हृदय में आकर तुम बैठ जाते हो और उनकी क्लेश-परम्परा को सदा के लिये मिटा देते हो।'

युधिष्ठिर जी ने कहा ;- ‘सर्वेश्वर श्रीकृष्ण! हमें इस बात का पता नहीं है कि हमने अपने पूर्वजन्मों में या इस जन्म में कौन-सा कल्याण साधन किया है? आपका दर्शन बड़े-बड़े योगेश्वर भी बड़ी कठिनता से प्राप्त कर पाते हैं और हम कुबुद्धियों को घर बैठे ही आपके दर्शन हो रहे हैं।' राजा युधिष्ठिर ने इस प्रकार भगवान का खूब सम्मान किया और कुछ दिन वहीं रहने की प्रार्थना की। इस पर भगवान श्रीकृष्ण इन्द्रप्रस्थ के नर-नारियों को अपनी रूपमाधुरी से नयनानन्द का दान करते हुए बरसात के चार महीनों तक सुखपूर्वक वहीं रहे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 13-27 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! एक बार वीरशिरोमणि अर्जुन ने गाण्डीव धनुष और अक्षय बाण वाले दो तरकस लिये तथा भगवान श्रीकृष्ण के साथ कवच पहनकर अपने उस रथ पर सवार हुए, जिस पर वानर-चिह्न से चिह्नित ध्वजा लगी हुई थी। इसके बाद विपक्षी वीरों का नाश करने वाले अर्जुन उस गहन वन में शिकार खेलने गये, जो बहुत-से सिंह, बाघ आदि भयंकर जानवरों से भरा हुआ था। वहाँ उन्होंने बहुत-से बाघ, सूअर, भैसे, काले हरिन, शरभ, गवय (नीलापन लिये हुए भूरे रंग का एक बड़ा हिरन), गैंडे, हरिन, खरगोश और शल्लकी (साही) आदि पशुओं पर अपने बाणों का निशाना लगाया। उनमें से जो यज्ञ के योग्य थे, उन्हें सेवकगण पर्व का समय जानकार राजा युधिष्ठिर के पास ले गये।

अर्जुन शिकार खेलते-खेलते थक गये थे। अब वे प्यास लगने पर यमुना जी के किनारे गये। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों महारथियों ने यमुना जी में हाथ-पैर धोकर उनका निर्मल जल पिया और देखा कि एक परम सुन्दरी कन्या वहाँ तपस्या कर रही है। उस श्रेष्ठ सुन्दरी की जंघा, दाँत और मुख अत्यन्त सुन्दर थे। अपने प्रिय मित्र श्रीकृष्ण के भेजने पर अर्जुन ने उसके पास जाकर पूछा- ‘सुन्दरी! तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो? कहाँ से आयी हो? और क्या करना चाहती हो? मैं ऐसा समझता हूँ कि तुम अपने योग्य पति चाह रही हो। हे कल्याणि! तुम अपनी सारी बात बतलाओ।'

कालिन्दी ने कहा ;- ‘मैं भगवान सूर्यदेव की पुत्री हूँ। मैं सर्वश्रेष्ठ वरदानी भगवान विष्णु को पति के रूप में प्राप्त करना चाहती हूँ और इसीलिये यह कठोर तपस्या कर रही हूँ। वीर अर्जुन! मैं लक्ष्मी के परम आश्रय भगवान को छोड़कर और किसी को अपना पति नहीं बना सकती। अनाथों के एकमात्र सहारे, प्रेम वितरण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण मुझ पर प्रसन्न हों। मेरा नाम है कालिन्दी। यमुना जल में मेरे पिता सूर्य ने मेरे लिये एक भवन भी बनवा दिया है। उसी में मैं रहती हूँ। जब तक भगवान का दर्शन न होगा, मैं यहीं रहूँगी।'

अर्जुन ने जाकर भगवान श्रीकृष्ण से सारी बातें कहीं। वे तो पहले से ही यह सब कुछ जानते थे, अब उन्होंने कालिदी को अपने रथ पर बैठा लिया और धर्मराज युधिष्ठिर के पास ले आये। इसके बाद पाण्डवों की प्रार्थना से भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डवों के रहने के लिये एक अत्यन्त अद्भुत और विचित्र नगर विश्वकर्मा के द्वारा बनवा दिया। भगवान इस बार पाण्डवों को आनन्द देने और उनका हित करने के लिए वहाँ बहुत दिनों तक रहे। इसी बीच अग्निदेव को खाण्डववन दिलाने के लिए वे अर्जुन के सारथि भी बने। खाण्डववन का भोजन मिल जाने से अग्निदेव बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अर्जुन को गाण्डीव धनुष, चार श्वेत घोड़े, एक रथ, दो अटूट बाणों वाले तरकस और एक ऐसा कवच दिया, जिसे कोई अस्त्र-शस्त्रधारी भेद न सके। खाण्डवदाह के समय अर्जुन ने मय दानव को जलने से बचा लिया था। इसलिये उसने अर्जुन से मित्रता करके उनके लिये एक परम अद्भुत सभा बना दी। उसी सभा में दुर्योधन को जल में स्थल और स्थल में जल का भ्रम हो गया था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 28-40 का हिन्दी अनुवाद)

कुछ दिनों के बाद भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन की अनुमति एवं अन्य सम्बन्धियों का अनुमोदन प्राप्त करके सात्यकि आदि के साथ द्वारका लौट आये। वहाँ आकर उन्होंने विवाह के योग्य ऋतु और ज्यौतिष शास्त्र के अनुसार प्रशंसित पवित्र लग्न में कालिन्दी जी का पाणिग्रहण किया। इससे उनके स्वजन-सम्बन्धियों को परममंगल और परमानन्द की प्राप्ति हुई।

अवन्ती (उज्जैन) देश के राजा थे- विन्द और अनुविन्द। वे दुर्योधन के वशवर्ती तथा अनुयायी थे। उनकी बहिन मित्रविन्दा ने स्वयंवर में भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना पति बनाना चाहा। परन्तु विन्द और अनुविन्द ने अपनी बहिन को रोक दिया। परीक्षित! मित्रविन्दा श्रीकृष्ण की फूआ राजाधिदेवी की कन्या थी। भगवान श्रीकृष्ण राजाओं की भरी सभा में उसे बलपूर्वक हर ले गये, सब लोग अपना-सा मुँह लिये देखते ही रह गये।

परीक्षित! कोसलदेश के राजा थे नग्नजित। वे अत्यन्त धार्मिक थे। उनकी परम सुन्दरी कन्या का नाम था सत्या; नग्नजित की पुत्री होने से वह नाग्नजिती भी कहलाती थी। परीक्षित! राजा की प्रतिज्ञा के अनुसार सात दुर्दान्त बैलों पर विजय प्राप्त न कर सकने के कारण कोई भी राजा उस कन्या से विवाह न कर सका। क्योंकि उनके सींग बड़े तीखे थे और वे बैल किसी वीर पुरुष की गन्ध भी नहीं सह सकते थे। जब यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने यह समाचार सुना कि जो पुरुष उन बैलों को जीत लेगा, उसे ही सत्या प्राप्त होगी; तब वे बहुत बड़ी सेना लेकर कोसलपुरी (अयोध्या) पहुँचे। कोसलनरेश महाराज नग्नजित ने बड़ी प्रसन्नता से उनकी अगवानी की और आसन आदि देकर बहुत बड़ी पूजा-सामग्री से उनका सत्कार किया। भगवान श्रीकृष्ण ने भी उनका बहुत-बहुत अभिनन्दन किया।

राजा नग्नजित की कन्या सत्या ने देखा कि मेरे चिर-अभिलषित रमारमण भगवान श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं; तब उसने मन-ही-मन यह अभिलाषा की कि ‘यदि मैंने व्रत-नियम आदि का पालन करके इन्हीं का चिन्तन किया है तो ये ही मेरे पति हों और मेरी विशुद्ध लालसा को पूर्ण करें।' नाग्नजिती सत्या मन-ही-मन सोचने लगी- ‘भगवती लक्ष्मी, ब्रह्मा, शंकर और बड़े-बड़े लोकपाल जिनके पदपंकज का पराग अपने सिर पर धारण करते हैं और जिन प्रभु ने अपनी बनायी हुई मर्यादा का पालन करने के लिये ही समय-समय पर अनेकों लीलावतार ग्रहण किये हैं, वे प्रभु मेरे किस धर्म, व्रत अथवा नियम से प्रसन्न होंगे? वे तो केवल अपनी कृपा से ही प्रसन्न हो सकते हैं।'

परीक्षित! राजा नग्नजित ने भगवान श्रीकृष्ण की विधिपूर्वक अर्चा-पूजा करके यह प्रार्थना की- ‘जगत के एकमात्र स्वामी नारायण! आप अपने स्वरूपभूत आनन्द से ही परिपूर्ण हैं और मैं हूँ एक तुच्छ मनुष्य। मैं आपकी क्या सेवा करूँ?’

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! राजा नग्नजित का दिया हुआ आसन, पूजा आदि स्वीकार करके भगवान श्रीकृष्ण बहुत सन्तुष्ट हुए। उन्होंने मुसकराते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी से कहा।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- राजन! जो क्षत्रिय अपने धर्म में स्थित है, उसका कुछ भी माँगना उचित नहीं। धर्मज्ञ विद्वानों ने उसके इस कर्म की निन्दा की है। फिर भी मैं आपसे सौहार्द का-प्रेम का सबन्ध स्थापित करने के लिये आपकी कन्या चाहता हूँ। हमारे यहाँ इसके बदले में कुछ शुल्क देने की प्रथा नहीं है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 41-55 का हिन्दी अनुवाद)

राजा नग्नजित ने कहा ;- ‘प्रभो! आप समस्त गुणों के धाम हैं, एकमात्र आश्रय हैं। आपके वक्षःस्थल पर भगवती लक्ष्मी नित्य-निरन्तर निवास करती हैं। आपसे बढ़कर कन्या के लिये अभीष्ट वर भला और कौन हो सकता है? परन्तु यदुवंशशिरोमणे! हमने पहले ही इस विषय में एक प्रण कर लिया है। कन्या के लिये कौन-सा वर उपयुक्त है, उसका बल-पौरुष कैसा है- इत्यादि बातें जानने के लिये ही ऐसा किया गया है। वीरश्रेष्ठ श्रीकृष्ण! हमारे ये सातों बैल किसी के वश में न आने वाले और बिना सधाये हुए हैं। इन्होंने बहुत-से राजकुमारों के अंगों को खण्डित करके उनका उत्साह तोड़ दिया है। श्रीकृष्ण! यदि इन्हें आप ही नाथ लें, अपने वश में कर लें, तो लक्ष्मीपते! आप ही हमारी कन्या के लिये अभीष्ट वर होंगे।'

भगवान श्रीकृष्ण ने राजा नग्नजित का ऐसा प्रण सुनकर कमर में फेंट कस ली और अपने सात रूप बनाकर खेल-खेल में ही उन बैलों को नाथ लिया। इससे बैलों का घमंड चूर हो गया और उनका बल-पौरुष भी जाता रहा। अब भगवान श्रीकृष्ण उन्हें रस्सी से बाँधकर इस प्रकार खींचने लगे, जैसे खेलते समय नन्हा-सा बालक काठ के बैलों को घसीटता है। राजा नग्नजित को बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने प्रसन्न होकर भगवान श्रीकृष्ण को अपनी कन्या का दान कर दिया और सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण ने भी अपने अनुरूप पत्नी सत्या का विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया। रानियों ने देखा कि हमारी कन्या को उसके अत्यन्त प्यारे भगवान श्रीकृष्ण ही पति के रूप में प्राप्त हो गये हैं। उन्हें बड़ा आनन्द हुआ और चारों ओर बड़ा भारी उत्सव मनाया जाने लगा। शंख, ढोल, नगारे बजने लगे। सब ओर गाना-बजाना होने लगा। ब्राह्मण आशीर्वाद देने लगे। सुन्दर वस्त्र, पुष्पों के हार और गहनों से सज-धजकर नगर के नर-नारी आनन्द मनाने लगे। राजा नग्नजित ने दस हज़ार गौएँ और तीन हज़ार ऐसी नवयुवती दासियाँ जो सुन्दर वस्त्र तथा गले में स्वर्णहार पहने हुए थीं, दहेज में दीं। इसके साथ ही नौ हज़ार हाथी, नौ लाख रथ, नौ करोड़ घोड़े और नौ अरब सेवक भी दहेज में दिये। कोसलनरेश राजा नग्नजित ने कन्या और दामाद को रथ पर चढ़ाकर एक बड़ी सेना के साथ विदा किया। उस समय उनका हृदय वात्सल्य-स्नेह के उद्वेग से द्रवित हो रहा था।

परीक्षित! यदुवंशियों ने और राजा नग्नजित के बैलों ने पहले बहुत-से राजाओं का बल-पौरुष धूल में मिला दिया था। जब उन राजाओं ने यह समाचार सुना, तब उनसे भगवान श्रीकृष्ण की यह विजय सहन न हुई। उन लोगों ने नाग्नजिती सत्या को लेकर जाते समय मार्ग में भगवान श्रीकृष्ण को घेर लिया और वे बड़े वेग से उन पर बाणों की वर्षा करने लगे। उस समय पाण्डववीर अर्जुन ने अपने मित्र भगवान श्रीकृष्ण का प्रिय करने के लिये गाण्डीव धनुष धारण करके- जैसे सिंह छोटे-मोटे पशुओं को खदेड़ दे, वैसे ही उन नरपतियों को मार-पीटकर भगा दिया। तदनन्तर यदुवंशशिरोमणि देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण उस दहेज और सत्या के साथ द्वारका में आये और वहाँ रहकर गृहस्थोचित विहार करने लगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 56-58 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण की फूआ श्रुतकीर्ति केकय देश में ब्याही गयी थीं। उनकी कन्या का नाम था भद्रा। उसके भाई सन्तर्दन आदि ने उसे स्वयं ही भगवान श्रीकृष्ण को दे दिया और उन्होंने उसका पाणिग्रहण किया।

मद्र प्रदेश के राजा की एक कन्या थी लक्ष्मणा। वह अत्यन्त सुलक्षणा थी। जैसे गरुड़ ने स्वर्ग से अमृत का हरण किया था, वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयंवर में अकेले ही उसे हर लिया।

परीक्षित! इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की और भी सहस्रों स्त्रियाँ थीं। उन परम सुन्दरियों को वे भौमासुर को मारकर उसके बंदीगृह से छुड़ा लाये थे।


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【उनसठवाँ अध्याय】५९

"भौमासुर का उद्धार और सोलह हजार एक सौ राजकन्याओं के साथ भगवान का विवाह"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनषष्टितम अध्याय श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन! भगवान श्रीकृष्ण ने भौमासुर को, जिसने उन स्त्रियों को बंदीगृह में डाल रखा था, क्यों और कैसे मारा? आप कृपा करके सारंग-धनुषधारी भगवान श्रीकृष्ण का वह विचित्र चरित्र सुनाइये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भौमासुर ने वरुण का छत्र, माता अदिति के कुण्डल और मेरु पर्वत पर स्थित देवताओं का मणिपर्वत नामक स्थान छीन लिया था। इस पर सबके राजा इन्द्र द्वारका में आये और उसकी एक-एक करतूत उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को सुनायी। अब भगवान श्रीकृष्ण अपनी प्रिय पत्नी सत्यभामा के साथ गरुड़ पर सवार हुए और भौमसुर की राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर में गये। प्रागज्योतिषपुर में प्रवेश करना बहुत कठिन था। पहले तो उसके चारों ओर पहाड़ों की किलेबंदी थी, उसके बाद शस्त्रों का घेरा लगाया हुआ था। फिर जल से भरी खाई थी, उसके बाद आग या बिजली की चहारदिवारी थी और उसके भीतर वायु (गैस) बंद करके रखा गया था। इससे भी भीतर मुर दैत्य ने नगर के चारों ओर अपने दस हज़ार घोर एवं सुदृढ़ फंदे (जाल) बिछा रखे थे।

भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी गदा की चोट से पहाड़ों को तोड़-फोड़ डाला और शस्त्रों की मोरचे-बंदी को बाणों से छिन्न-भिन्न कर दिया। चक्र के द्वारा अग्नि, जल और वायु की चहारदिवारियों को तहस-नहस कर दिया और मुर दैत्य के फंदों को तलवार से काट-कूटकर अलग रख दिया। जो बड़े-बड़े यन्त्र-मशीनें वहाँ लगी हुईं थीं, उसको तथा वीरपुरुषों के हृदय को शंखनाद से विदीर्ण कर दिया और नगर के परकोटे को गदाधर भगवान ने अपनी भारी गदा से ध्वंस कर डाला। भगवान के पांचजन्य शंख की ध्वनि प्रलयकालीन बिजली की कड़क के समान महाभयंकर थी। उसे सुनकर मुर दैत्य की नींद टूटी और वह बाहर निकल आया। उसके पाँच सिर थे और अब तक वह जल के भीतर सो रहा था। वह दैत्य प्रलयकालीन सूर्य और अग्नि के समान प्रचण्ड तेजस्वी था। वह इतना भयंकर था कि उसकी ओर आँख उठाकर देखना भी आसान काम नहीं था। उसने त्रिशूल उठाया और इस प्रकार भगवान की ओर दौड़ा, जैसे साँप गरुड़ जी पर टूट पड़े। उस समय ऐसा मालूम होता था, मानो वह अपने पाँचों मुखों से त्रिलोकी को निगल जायगा। उसने अपने त्रिशूल को बड़े वेग से घुमाकर गरुड़ जी पर चलाया और फिर अपने पाँचों मुखों से घोर सिंहनाद करने लगा। उसके सिंहनाद का महान शब्द पृथ्वी, आकाश, पाताल और दसों दिशाओं में फैलकर सारे ब्रह्माण्ड में भर गया।

भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि मुर दैत्य का त्रिशूल गरुड़ की ओर बड़े वेग से आ रहा है। तब अपना हस्तकौशल दिखाकर फुर्ती से उन्होंने दो बाण मारे, जिनसे वह त्रिशूल कटकर तीन टूक हो गया। इसके साथ ही मुर दैत्य के मुखों में भी भगवान ने बहुत-से बाण मारे। इससे वह दैत्य अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा और उसने भगवान पर अपनी गदा चलायी। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी गदा के प्रहार से मुर दैत्य की गदा को अपने पास पहुँचने के पहले ही चूर-चूर कर दिया। अब वह अस्त्रहीन हो जाने के कारण अपनी भुजाएँ फैलाकर श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा और उन्होंने खेल-खेल में ही चक्र से उसके पाँचों सिर उतार लिये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनषष्टितम अध्याय श्लोक 11-22 का हिन्दी अनुवाद)

सिर कटते ही मुर दैत्य के प्राण-पखेरू उड़ गये और वह ठीक वैसे ही जल में गिर पड़ा, जैसे इन्द्र के वज्र से शिखर कट जाने पर कोई पर्वत समुद्र में गिर पड़ा हो। मुर दैत्य के सात पुत्र थे- ताम्र, अन्तरिक्ष, श्रवण, विभावसु, वसु, नभस्वान और अरुण। ये अपने पिता की मृत्यु से अत्यन्त शोकाकुल हो उठे और फिर बदला लेने के लिये क्रोध से भरकर शस्त्रास्त्र से सुसज्जित हो गये तथा पीठ नामक दैत्य को अपना सेनापति बनाकर भौमासुर के आदेश से श्रीकृष्ण पर चढ़ आये। वे वहाँ आकर बड़े क्रोध से भगवान श्रीकृष्ण पर बाण, खड्ग, गदा, शक्ति, ऋष्टि और त्रिशूल आदि प्रचण्ड शस्त्रों की वर्षा करने लगे।

परीक्षित! भगवान की शक्ति अमोघ और अनन्त है। उन्होंने अपने बाणों से उनके कोटि-कोटि शस्त्रास्त्र तिल-तिल करके काट गिराये। भगवान के शस्त्र प्रहार से सेनापति पीठ और उसके साथी दैत्यों के सिर, जाँघें, भुजा, पैर और कवच कट गये और उन सभी को भगवान ने यमराज के घर पहुँचा दिया। जब पृथ्वी के पुत्र नरकासुर (भौमासुर) ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण के चक्र और बाणों से हमारी सेना और सेनापतियों का संहार हो गया, तब उसे असह्य क्रोध हुआ। वह समुद्र तट पर पैदा हुए बहुत-से मद वाले हाथियों की सेना लेकर नगर से बाहर निकला। उसने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण अपनी पत्नी के साथ आकाश में गरुड़ पर स्थित हैं, जैसे सूर्य के ऊपर बिजली के साथ वर्षाकालीन श्याममेघ शोभायमान हों। भौमासुर ने स्वयं भगवान के ऊपर शतघ्नी नाम की शक्ति चलायी और उसके सब सैनिकों ने भी एक ही साथ उन पर अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र छोड़े। अब भगवान श्रीकृष्ण भी चित्र-विचित्र पंख वाले तीखे-तीखे बाण चलाने लगे। इससे उसी समय भौमासुर के सैनिकों की भुजाएँ, जाँघें, गर्दन और धड़ कट-कटकर गिरने लगे; हाथी और घोड़े भी मरने लगे।

परीक्षित! भौमासुर के सैनिकों ने भगवान पर जो-जो अस्त्र-शस्त्र चलाये थे, उनमें से प्रत्येक को भगवान ने तीन-तीन तीखे बाणों से काट गिराया। उस समय भगवान श्रीकृष्ण गरुड़ जी पर सवार थे और गरुड़ जी अपने पंखों से हाथियों को मार रहे थे। उनकी चोंच, पंख और पंजों की मार से हाथियों को बड़ी पीड़ा हुई और वे सब-के-सब आर्त होकर युद्धभूमि से भागकर नगर में घुस गये। अब वहाँ अकेला भौमासुर ही लड़ता रहा। जब उसने देखा कि गरुड़ जी की मार से पीड़ित होकर मेरी सेना भाग रही है, तब उसने उन पर वह शक्ति चलायी, जिसने वज्र को भी विफल कर दिया था। परन्तु उसकी चोट से पक्षिराज गरुड़ तनिक भी विचलित न हुए, मानो किसी ने मतवाले गजराज पर फूलों की माला से प्रहार किया हो।

अब भौमासुर ने देखा कि मेरी एक भी चाल नहीं चलती, सारे उद्योग विफल होते जा रहे हैं, तब उसने श्रीकृष्ण को मार डालने के लिये एक त्रिशूल उठाया। परन्तु उसे अभी वह छोड़ भी न पाया था कि भगवान श्रीकृष्ण ने छुरे के समान तीखी धार वाले चक्र से हाथी पर बैठे हुए भौमासुर का सिर काट डाला। उसका जगमगाता हुआ सिर कुण्डल और सुन्दर किरीट के सहित पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसे देखकर भौमासुर के सगे-सम्बन्धी हाय-हाय पुकार उठे, ऋषि लोग ‘साधु-साधु’ कहने लगे और देवता लोग भगवान पर पुष्पों की वर्षा करते हुए स्तुति करने लगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनषष्टितम अध्याय श्लोक 23-34 का हिन्दी अनुवाद)

अब पृथ्वी भगवान के पास आयी। उसने भगवान श्रीकृष्ण के गले में वैजन्ती के साथ वनमाला पहना दी और अदिति माता के जगमगाते हुए कुण्डल, जो तपाये हुए सोने के एवं रत्नजटित थे, भगवान को दे दिये तथा वरुण का छत्र और साथ ही एक महामणि भी उनको दी। राजन! इसके बाद पृथ्वी देवी बड़े-बड़े देवताओं के द्वारा पूजित विश्वेश्वर भगवान श्रीकृष्ण को प्रणाम करके हाथ जोड़कर भक्तिभाव भरे हृदय से उनकी स्तुति करने लगीं।

पृथ्वी देवी ने कहा ;- शंखचक्रगदाधारी देव-देवेश्वर! मैं आपको नमस्कार करती हूँ। परमात्मन! आप अपने भक्तों की इच्छा पूर्ण करने के लिये उसी के अनुसार रूप प्रकट किया करते हैं। आपको नमस्कार करती हूँ। प्रभो! आपकी नाभि से कमल प्रकट हुआ है। आप कमल की माला पहनते हैं। आपके नेत्र कमल से खिले हुए और शान्तिदायक हैं। आपके चरण कमल के समान सुकुमार और भक्तों के हृदय को शीतल करने वाले हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ। आप समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, सम्पत्ति, ज्ञान और वैराग्य के आश्रय हैं। आप सर्वव्यापक होने पर भी स्वयं वसुदेवनन्दन के रूप में प्रकट हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। आप ही पुरुष हैं और समस्त कारणों के भी परम कारण हैं। आप स्वयं पूर्ण ज्ञानस्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। आप स्वयं तो हैं जन्मरहित, परन्तु इस जगत के जन्मदाता आप ही हैं। आप ही अनन्त शक्तियों के आश्रय ब्रह्मा हैं। जगत का जो कुछ भी कार्य-कारणमय रूप है, जितने भी प्राणी या अप्राणी हैं- सब आपके ही स्वरूप हैं। परमात्मन! आपके चरणों में मेरे बार-बार नमस्कार।

प्रभो! जब आप जगत की रचना करना चाहते हैं, तब उत्कट रजोगुण को, और जब इसका प्रलय करना चाहते हैं तब तमोगुण को, तथा जब इसका पालन करना चाहते हैं, तब सत्त्वगुण को स्वीकार करते हैं। परन्तु यह सब करने पर भी आप इन गुणों से ढकते नहीं, लिप्त नहीं होते। जगत्पते! आप स्वयं ही प्रकृति, पुरुष और दोनों के संयोग-वियोग के हेतु काल हैं तथा उन तीनों से परे भी हैं। भगवन! मैं (पृथ्वी), जल, अग्नि, वायु, आकाश, पंचतन्मात्राएँ, मन, इन्द्रिय और इनके अधिष्ठातृ-देवता, अहंकार और महत्तत्त्व-कहाँ तक कहूँ, यह सम्पूर्ण चराचर जगत आपके अद्वितीय स्वरूप में भ्रम के कारण ही पृथक प्रतीत हो रहा है। शरणागत-भय-भंजन प्रभो! मेरे पुत्र भौमासुर का यह पुत्र भगदत्त अत्यन्त भयभीत हो रहा है। मैं इसे आपके चरणकमलों की शरण में ले आयी हूँ। प्रभो! आप इसकी रक्षा कीजिये और इसके सिर पर अपना वह करकमल रखिये जो सारे जगत के समस्त पाप-तापों को नष्ट करने वाला है।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- परीक्षित! जब पृथ्वी ने भक्तिभाव से विनम्र होकर इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति-प्रार्थना की, तब उन्होंने भगदत्त को अभयदान दिया और भौमासुर की समस्त सम्पत्तियों से सम्पन्न महल में प्रवेश किया। वहाँ जाकर भगवान ने देखा कि भौमासुर ने बलपूर्वक राजाओं से सोलह हज़ार राजकुमारियाँ छीनकर अपने यहाँ रख छोड़ी थीं। जब उन राजकुमारियों ने अन्तःपुर में पधारे हुए नरश्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण को देखा, तब वे मोहित हो गयीं और उन्होंने उनकी अहैतुकी कृपा तथा अपना सौभाग्य समझकर मन-ही-मन भगवान को अपने परम प्रियतम पति के रूप में वरण कर लिया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनषष्टितम अध्याय श्लोक 35-45 का हिन्दी अनुवाद)

उन राजकुमारियों में से प्रत्येक ने अलग-अलग अपने मन में यही निश्चय किया कि ‘ये श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों और विधाता मेरी इस अभिलाषा को पूर्ण करें।’ इस प्रकार उन्होंने प्रेम-भाव से अपना हृदय भगवान के प्रति निछावर कर दिया। तब भगवानश्रीकृष्ण ने उन राजकुमारियों को सुन्दर-सुन्दर निर्मल वस्त्राभूषण पहनाकर पालकियों से द्वारका भेज दिया और उनके साथ ही बहुत-से खजाने, रथ, घोड़े तथा अतुल सम्पत्ति भी भेजी। ऐरावत के वंश में उत्पन्न हुए अत्यन्त वेगवान् चार-चार दाँतों वाले सफेद रंग के चौंसठ हाथी भी भगवान ने वहाँ से द्वारका भेजे।

इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण अमरावती में स्थित देवराज इन्द्र के महलों में गये। वहाँ देवराज इन्द्र ने अपनी पत्नी इन्द्राणी के साथ सत्यभामा जी और भगवान श्रीकृष्ण की पूजा की, तब भगवान ने अदिति के कुण्डल उन्हें दे दिये। वहाँ से लौटते समय सत्यभामा जी की प्रेरणा से भगवान श्रीकृष्ण ने कल्पवृक्ष उखाड़कर गरुड़ पर रख दिया और देवराज इन्द्र तथा समस्त देवताओं को जीतकर उसे द्वारका ले आये। भगवान ने उसे सत्यभामा के महल के बगीचे में लगा दिया। इससे उस बगीचे की शोभा अत्यन्त बढ़ गयी। कल्पवृक्ष के साथ उसके गन्ध और और मकरन्द के लोभी भौरें स्वर्ग से द्वारका में चले आये थे।

परीक्षित! देखो तो सही, जब इन्द्र को अपना काम बनाना था, तब तो उन्होंने अपना सिर झुकाकर मुकुट की नोक से भगवान श्रीकृष्ण के चरणों का स्पर्श करके उनसे सहायता की भिक्षा माँगी थी, परन्तु जब काम बन गया, तब उन्होंने उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण से लड़ाई ठान ली। सचमुच ये देवता भी बड़े तमोगुणी हैं और सबसे बड़ा दोष तो उनमें धनाढ्यता का है। धिक्कार है ऐसी धनाढ्यता को। तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण ने एक ही मुहूर्त में अलग-अलग भवनों में अलग-अलग रूप धारण करके एक ही साथ सब राजकुमारियों का शास्त्रोक्त विधि से पाणिग्रहण किया। सर्वशक्तिमान् अविनाशी भगवान के लिये इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है।

परीक्षित! भगवान की पत्नियों के अलग-अलग महलों में ऐसी दिव्य सामग्रियाँ भरी हुई थीं, जिनके बराबर जगत् में कहीं भी और कोई भी सामग्री नहीं है; फिर अधिक की तो बात ही क्या है। उन महलों में रहकर मति-गति के परे की लीला करने वाले अविनाशी भगवान श्रीकृष्ण अपने आत्मानन्द में मग्न रहते हुए लक्ष्मी जी की अंशस्वरूपा उन पत्नियों के साथ ठीक वैसे ही विहार करते थे, जैसे कोई साधारण मनुष्य घर-गृहस्थी में रहकर गृहस्थ-धर्म के अनुसार आचरण करता हो। परीक्षित! ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवता भी भगवान के वास्तविक स्वरूप को और उनकी प्राप्ति के मार्ग को नहीं जानते। उन्हीं रमारमण भगवान श्रीकृष्ण को उन स्त्रियों ने पति के रूप में प्राप्त किया था। अब नित्य-निरन्तर उनके प्रेम और आनन्द की अभिवृद्धि होती रहती थी और वे प्रेमभरी मुसकराहट, मधुर चितवन, नवसमागम, प्रेमालाप तथा भाव बढ़ाने वाली लज्जा से युक्त होकर सब प्रकार से भगवान की सेवा करती रहती थीं। उनमें से सभी पत्नियों के साथ सेवा करने के लिये सैकड़ों दासियाँ रहतीं, फिर भी जब उनके महल में भगवान पधारते तब वे स्वयं आगे जाकर आदरपूर्वक उन्हें लिवा लातीं, श्रेष्ठ आसन पर बैठातीं, उत्तम सामग्रियों से पूजा करतीं, चरणकमल पखारतीं, पान लगाकर खिलातीं, पाँव दबाकर थकावट दूर करतीं, पंखा झलती, इत्र-फुलेल, चन्दन आदि लगातीं, फूलों के हार पहनातीं, केश सँवारतीं, सुलातीं, स्नान करातीं और अनेक प्रकार के भोजन कराकर अपने ही हाथों भगवान की सेवा करतीं।


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