सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - उत्तरार्ध ) का सत्तरवाँ, इकहत्तरवाँ, बहत्तरवाँ, तिहत्तरवाँ व चौहत्तरवाँ अध्याय [ Seventy, Seventy-one, Seventy-two, Seventy-three and Seventy-four chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【सत्तरवाँ अध्याय】७०

"भगवान श्रीकृष्ण की नित्यचर्या और उनके पास जरासन्ध के कैदी राजाओं के दूत का आना"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब सबेरा होने लगता, कुक्कुट (मुरगे) बोलने लगते, तब वे श्रीकृष्ण-पत्नियाँ, जिनके कण्ठ में श्रीकृष्ण ने अपनी भुजा डाल रखी है, उनके विछोह की आशंका से व्याकुल हो जातीं और उन मुरगों को कोसने लगतीं। उस समय पारिजात की सुगन्ध से सुवासित भीनी-भीनी वायु बहने लगती। भौंरे तालस्वर से अपने संगीत की तान छेड़ देते। पक्षियों की नींद उचट जाती और वे वंदीजनों की भाँति भगवान श्रीकृष्ण को जगाने के लिये मधुर स्वर से कलरव करने लगते। रुक्मिणी जी अपने प्रियतम के भुजपाश में बँधी रहने पर भी आलिंगन छूट जाने की आशंका से अत्यन्त सुहावने और पवित्र ब्रह्ममुहूर्त को भी असह्य समझने लगती थीं।

भगवान श्रीकृष्ण प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त में ही उठ जाते और हाथ-मुँह धोकर अपने मायातीत आत्मस्वरूप का ध्यान करने लगते। उस समय उनका रोम-रोम आनन्द से खिल उठता था। परीक्षित! भगवान का वह आत्मस्वरूप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद से रहित एक, अखण्ड है। क्योंकि उसमें किसी प्रकार की उपाधि या उपाधि के कारण होने वाला अन्य वस्तु का अस्तित्व नहीं है और यही कारण है कि वह अविनाशी सत्य है। जैसे चन्द्रमा-सूर्य आदि नेत्र-इन्द्रिय के द्वारा और नेत्र-इन्द्रिय चंद्रमा-सूर्य आदि के द्वारा प्रकाशित नहीं, स्वयंप्रकाश है। इसका कारण यह है कि अपने स्वरूप में ही सदा-सर्वदा और काल की सीमा के परे भी एकरस स्थित रहने के कारण अविद्या उसका स्पर्श भी नहीं कर सकती। इसी से प्रकाश्य-प्रकाशकभाव उसमें नहीं है। जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और नाश की कारणभूता ब्रह्मशक्ति, विष्णुशक्ति और रुद्रशक्तियों के द्वारा केवल इस बात का अनुमान हो सकता है कि वह स्वरूप एकरस सत्तारूप और आनन्दस्वरूप है। उसी को समझाने के लिये ‘ब्रह्म’ नाम से कहा जाता है। भगवान श्रीकृष्ण अपने उसी आत्मस्वरूप का प्रतिदिन ध्यान करते।

इसके बाद वे विधिपूर्वक निर्मल और पवित्र जल में स्नान करते। फिर शुद्ध धोती पहनकर, दुपट्टा ओढ़कर यथाविधि नित्यकर्म सन्ध्या-वन्दन आदि करते। इसके बाद हवन करते और मौन होकर गायत्री का जप करते। क्यों न हो, वे सत्पुरुषों के पात्र आदर्श जो हैं। इसके बाद सूर्योदय होने के समय सूर्योपस्थान करते और अपने कलास्वरूप देवता, ऋषि तथा पितरों का तर्पण करते। फिर कुल के बड़े-बूढ़ों और ब्राह्मणों की विधिपूर्वक पूजा करते। इसके बाद परम मनस्वी श्रीकृष्ण दुधारू, पहले-पहल ब्यायी हुई, बछड़ों वाली सीधी-शान्त गौओं का दान करते। उस समय उन्हें सुन्दर वस्त्र और मोतियों की माला पहना दी जाती। सींग में सोना और खुरों में चाँदी मढ़ दी जाती। वे ब्राह्मणों को वस्त्राभूषणों से सुसज्जित करके रेशमी वस्त्र, मृगचर्म और तिल के साथ प्रतिदिन तेरह हजार चौरासी गौएँ इस प्रकार दान करते।

तदनन्तर अपनी विभूतिरूप गौ, ब्राह्मण, देवता, कुल के बड़े-बूढ़े, गुरुजन और समस्त प्राणियों को प्रणाम करके मांगलिक वस्तुओं का स्पर्श करते। परीक्षित! यद्यपि भगवान के शरीर का सहज सौन्दर्य ही मनुष्य-लोक का अलंकार है, फिर भी वे अपने पीताम्बरादि दिव्य वस्त्र, कौस्तुभादि आभूषण, पुष्पों के हार और चन्दनादि दिव्य अंगराग से अपने को आभूषित करते।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 12-25 का हिन्दी अनुवाद)

इसके बाद वे घी और दर्पण में अपना मुखारविन्द देखते; गाय, बैल, ब्राह्मण और देव-प्रतिमाओं का दर्शन करते। फिर पुरवासी और अन्तःपुर में रहने वाले चारों वर्णों के लोगों की अभिलाषाएँ पूर्ण करते और फिर अपनी अन्य (ग्रामवासी) प्रजा की कामनापूर्ति करके उसे सन्तुष्ट करते और इन सबको प्रसन्न देखकर स्वयं भी बहुत ही आनन्दित होते। वे पुष्पमाला, ताम्बूल, चन्दन, अंगराग आदि वस्तुएँ पहले ब्राह्मण, स्वजनसम्बन्धी, मन्त्री और रानियों को बाँट देते; और उनसे बची हुई स्वयं अपने काम में लाते। भगवान यह सब करते होते, तब तक दारुक नाम का सारथि सुग्रीव आदि घोड़ों से जुता हुआ अत्यन्त अद्भुत रथ ले आता और प्रणाम करके भगवान के सामने खड़ा हो जाता। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण सात्यकि और उद्धव जी के साथ अपने हाथ से सारथि का हाथ पकड़कर रथ पर सवार होते-ठीक वैसे ही जैसे भुवनभास्कर भगवान सूर्य उदयाचल पर आरूढ़ होते। उस समय रनिवास की स्त्रियाँ लज्जा एवं प्रेम से भरी चितवन से उन्हें निहारने लगतीं और बड़े कष्ट से उन्हें विदा करतीं। भगवान मुसकराकर उनके चित्त को चुराते हुए महल से निकलते।

परीक्षित! तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण समस्त यदुवंशियों के साथ सुधर्मा नाम की सभा में प्रवेश करते। उस सभा की ऐसी महिमा है कि जो लोग उस सभा में जा बैठते हैं, उन्हें भूख-प्यास, शोक-मोह और जरा-मृत्यु- ये छः उर्मियाँ नहीं सतातीं। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण सब रानियों से अलग-अलग विदा होकर एक ही रूप में सुधर्मा सभा में प्रवेश करते और वहाँ जाकर श्रेष्ठ सिंहासन पर विराज जाते। उनकी अंगकान्ति से दिशाएँ प्रकाशित होती रहतीं। उस समय यदुवंशी वीरों के बीच में यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण की ऐसी शोभा होती, जैसे आकाश में तारों से घिरे हुए चन्द्रदेव शोभायमान होते हैं।

परीक्षित! सभा में विदूषक लोग विभिन्न प्रकार के हास्य-विनोद से, नटाचार्य अभिनय से और नर्तकियाँ कलापूर्ण नृत्यों से अलग-अलग अपनी टोलियों के साथ भगवान की सेवा करतीं। उस समय मृदंग, वीणा, पखावज, बाँसुरी, झाँझ और शंख बजने लगते और सूत, मागध तथा वंदीजन नाचते-गाते और भगवान की स्तुति करते। कोई-कोई व्याख्याकुशल ब्राह्मण वहाँ बैठकर वेदमन्त्रों की व्याख्या करते और कोई पूर्वकालीन पवित्रकीर्ति नरपतियों के चरित्र कह-कहकर सुनाते।

एक दिन की बात है, द्वारकापुरी में राजसभा के द्वार पर एक नया मनुष्य आया। द्वारपालों ने भगवान को उसके आने की सूचना देकर उसे सभा भवन में उपस्थित किया। उस मनुष्य ने परमेश्वर भगवान श्रीकृष्ण को हाथ जोड़कर नमस्कार किया और उन राजाओं का, जिन्होंने जरासन्ध के दिग्विजय के समय उसके सामने सिर नहीं झुकाया था और बलपूर्वक कैद कर लिये गये थे, जिनकी संख्या बीस हजार थी, जरासन्ध के बंदी बनने का दुःख श्रीकृष्ण के सामने निवेदन किया- ‘सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप मन और वाणी के अगोचर हैं। जो आपकी शरण में आता है, उसके सारे भय आप नष्ट कर देते हैं। प्रभो! हमारी भेद-बुद्धि मिटी नहीं है। हम जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्कर से भयभीत होकर आपकी शरण में आये हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ततितम अध्यायः श्लोक 26-31 का हिन्दी अनुवाद)

भगवन्! अधिकांश जीव ऐसे सकाम और निषिद्ध कर्मों में फँसे हुए हैं कि वे आपके बतलाये हुए अपने परम कल्याणकारी कर्म, आपकी उपासना से विमुख हो गये हैं और अपने जीवन एवं जीवन सम्बन्धी आशा-अभिलाषाओं में भ्रम-भटक रहे हैं। परन्तु आप बड़े बलवान् हैं। आप काल रूप से सदा-सर्वदा सावधान रहकर उनकी आशालता का तुरंत समूल उच्छेद कर डालते हैं। हम आपके उस कालरूप को नमस्कार करते हैं। आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत् में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओं के साथ इसलिये अवतार ग्रहण किया है कि संतों की रक्षा करें और दुष्टों को दण्ड दें। ऐसी अवस्था में प्रभो! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञा के विपरीत हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझ में नहीं आती।

यदि यह कहा जाये कि जरासन्ध हमें कष्ट नहीं देता, उसके रूप में- उसे निमित्त बनाकर हमारे अशुभ कर्म ही हमें दुःख पहुँचा रहे हैं; तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि जब हम लोग आपके अपने हैं, तब हमारे दुष्कर्म हमें फल देने में कैसे समर्थ हो सकते हैं? इसलिये आप कृपा करके अवश्य ही हमें इस क्लेश से मुक्त कीजिये ।प्रभो! हम जानते हैं कि राजापने का सुख प्रारब्ध के अधीन और विषयसाध्य है। और सच कहें तो स्वप्न-सुख के समान तुच्छ और असत् है। साथ ही उस सुख को भोगने वाला यह शरीर भी एक प्रकार से मुर्दा ही है और इसके पीछे सदा-सर्वदा सैकड़ों प्रकार के भय लगे रहते हैं। परन्तु हम तो इसी के द्वारा जगत् के अनेकों भार ढो रहे हैं और यही कारण है कि हमने अंतःकरण के निष्काम-भाव और निस्संकल्प स्थिति से प्राप्त होने वाले आत्मसुख का परित्याग कर दिया है। सचमुच हम अत्यन्त अज्ञानी हैं और आपकी माया के फंदे में फँसकर क्लेश-पर-क्लेश भोगते जा रहे हैं।

भगवन्! आपके चरण-कमल शरणागत पुरुषों के समस्त शोक और मोहों को नष्ट कर देने वाले हैं। इसलिये आप ही जरासन्धरूप कर्मों के बन्धन से हमें छुड़ाइये। प्रभो! यह अकेला ही दस हजार हाथियों की शक्ति रखता है और हम लोगों को उसी प्रकार बंदी बनाये हुए हैं, जैसे सिंह भेड़ों को घेर रखे। चक्रपाणे! आपने अठारह बार जरासन्ध से युद्ध किया और सत्रह बार उसका मान-मर्दन करके उसे छोड़ दिया। परन्तु एक बार उसने आपको जीत लिया। हम जानते हैं कि आपकी शक्ति, आपका बल-पौरुष अनन्त है। फिर भी मनुष्यों का-सा आचरण करते हुए आपने हारने का अभिनय किया। परन्तु इसी से उसका घमंड बढ़ गया है। हे अजित! अब वह यह जानकर हम लोगों को और भी सताता है कि हम आपके भक्त हैं, आपकी प्रजा हैं। अब आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा कीजिये’।

दूत ने कहा ;- भगवन्! जरासन्ध के बंदी नरपतियों ने इस प्रकार आपसे प्रार्थना की है। वे आपके चरणकमलों की शरण में हैं और आपका दर्शन चाहते हैं। आप कृपा करके उन दोनों का कल्याण कीजिये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ततितम अध्याय श्लोक 32-41 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! राजाओं का दूत इस प्रकार कह ही रहा था कि परमतेजस्वी देवर्षि नारद जी वहाँ आ पहुँचे। उनकी सुनहरी जटाएँ चमक रहीं थी। उन्हें देखकर ऐसा मालूम हो रहा था, मानो साक्षात् भगवान सूर्य ही उदय हो गये हों। ब्रह्मा आदि समस्त लोकपालों के एकमात्र स्वामी भगवान श्रीकृष्ण उन्हें देखते ही सभासदों और सेवकों के साथ हर्षित होकर उठ खड़े हुए और सिर झुकाकर उनकी वन्दना करने लगे।

जब देवर्षि नारद आसन स्वीकार करके बैठ गये, तब भगवान ने उनकी विधिपूर्वक पूजा की और अपनी श्रद्धा से उनको संतुष्ट करते हुए वे मधुर वाणी से बोले- ‘देवर्षे! इस समय तीनों लोकों में कुशल-मंगल तो है न’? आप तीनों लोकों में विचरण करते रहते हैं, इससे हमें बहुत बड़ा लाभ है कि घर बैठे सबका समाचार मिल जाता है। ईश्वर के द्वारा रचे हुए तीनों लोकों में ऐसी कोई बात नहीं है, जिसे आप न जानते हों। अतः हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि युधिष्ठिर आदि पाण्डव इस समय क्या करना चाहते हैं?’

देवर्षि नारद जी ने कहा ;- सर्वव्यापक अनन्त! आप विश्व के निर्माता हैं और इतने बड़े मायावी हैं कि बड़े-बड़े मायावी ब्रह्मा जी आदि भी आपकी माया का पार नहीं पा सकते? प्रभो! आप सबके घट-घट में अपनी अचिन्त्य शक्ति से व्याप्त रहते है-ठीक वैसे ही; जैसे अग्नि लकड़ियों में अपने को छिपाये रखता है। लोगों की दृष्टि सत्त्व आदि गुणों पर ही अटक जाती है, इससे आपको वे नहीं देख पाते। मैंने एक बार नहीं, अनेकों बार आपकी माया देखी है। इसलिये आप जो यों अनजान बनकर पाण्डवों का समाचार पूछते हैं, इसे मुझे कोई कौतूहल नहीं हो रहा है। भगवन्! आप अपनी माया से ही इस जगत् की रचना और संहार करते हैं, और आपकी माया के कारण ही यह असत्य होने पर सत्य के समान प्रतीत होता है। आप कब क्या करना चाहते हैं, यह बात भलीभाँति कौन समझ सकता है। आपका स्वरूप सर्वथा अचिंतनीय है। मैं तो केवल बार-बार आपको नमस्कार करता हूँ।

शरीर और इससे सम्बन्ध रखने वाली वासनाओं में फँसकर जीव जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकता रहता है तथा यह नहीं जानता कि मैं इस शरीर से कैसे मुक्त हो सकता हूँ। वास्तव में उसी के हित के लिये आप नाना प्रकार लीलावतार ग्रहण करते अपने पवित्र यश का दीपक जला देते हैं, जिसके सहारे वह इस अनर्थकारी शरीर से मुक्त हो सके। इसलिये मैं आपकी शरण में हूँ। प्रभो! आप स्वयं परब्रह्म हैं, तथापि मनुष्यों की-सी लीला का नाट्य करते हुए मुझसे पूछ रहे हैं। इसलिये आपके फुफेरे भाई और प्रेमी भक्त राजा युधिष्ठिर क्या करना चाहते हैं, यह बात मैं आपको सुनाता हूँ। इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह्मलोक में किसी को जो भोग प्राप्त हो सकता है, वह राजा युधिष्ठिर को यहीं प्राप्त है। उन्हें किसी वस्तु की कामना नहीं है। फिर भी वे श्रेष्ठ यज्ञ राजसूय के द्वारा आपकी प्राप्ति के लिये आपकी आराधना करना चाहते हैं। आप कृपा करके उनकी इस अभिलाषा का अनुमोदन कीजिये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकसप्ततितम अध्याय श्लोक 42-47 का हिन्दी अनुवाद)

भगवन्! उस श्रेष्ठ यज्ञ में आपका दर्शन करने के लिये बड़े-बड़े देवता और यशस्वी नरपतिगण एकत्र होंगे। प्रभो! आप स्वयं विज्ञानानन्दघन ब्रह्म हैं। आपके श्रवण, कीर्तन और ध्यान करने मात्र से अन्यत्ज भी पवित्र हो जाते हैं। फिर जो आपका दर्शन और स्पर्श प्राप्त करते हैं, उनके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है।

त्रिभुवन-मंगल! आपकी निर्मल कीर्ति समस्त दिशाओं में छा रही है तथा स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल में व्याप्त हो रही है; ठीक वैसे ही, जैसे आपकी चरणामृतधारा स्वर्ग में मन्दाकिनी, पाताल में भोगवती और मर्त्यलोक में गंगा के नाम से प्रवाहित होकर सारे विश्व को पवित्र कर रही है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! सभा में जितने यदुवंशी बैठे थे, वे सब इस बात के लिये अत्यन्त उत्सुक हो रहे थे कि पहले जरासन्ध पर चढ़ाई करके उसे जीत लिया जाये। अतः उन्हें नारद जी की बात पसंद न आयी। तब ब्रह्मा आदि के शासक भगवान श्रीकृष्ण ने तनिक मुसकराकर बड़ी मीठी वाणी में उद्धव जी से कहा-

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- ‘उद्धव! तुम मेरे हितैषी सुहृद हो। शुभ सम्मति देने वाले और कार्य के तत्त्व को भलीभाँति समझने वाले हो, इसीलिये हम तुम्हें अपना उत्तम नेत्र मानते हैं। अब तुम्हीं बताओ कि इस विषय में हमें क्या करना चाहिये। तुम्हारी बात पर हमारी श्रद्धा है। इसीलिये हम तुम्हारी सलाह के अनुसार ही काम करेंगे’।

जब उद्धव जी ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण सर्वज्ञ होने पर भी अनजान की तरह सलाह पूछ रहे हैं, तब वे उनकी आज्ञा शिरोधार्य करके बोले।

                         {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【इकहत्तरवाँ अध्याय】७१

            "श्रीकृष्ण भगवान का इन्द्रप्रस्थ पधारना"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकसप्ततितम अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण के वचन सुनकर महामती उद्धव जी ने देवर्षि नारद, सभासाद और भगवान श्रीकृष्ण के मत पर विचार किया और फिर कहने लगे।

उद्धव जी ने कहा ;- "भगवन! देवर्षि नारद जी ने आपको यह सलाह दी है कि फुफेरे भाई पांडवों के 'राजसूय यज्ञ' में सम्मिलित होकर उनकी सहायता करनी चाहिये। उसका यह कथन ठीक ही है और साथ ही यह भी ठीक है कि शरणागतों की रक्षा अवश्य कर्तव्य है। प्रभो! केवल जरासंध को जीत लेने से ही हमारा उद्देश्य सफ़ल हो जायेगा, साथ ही उससे बंदी राजाओं को मुक्ति और उसके कारण आपको सुयश की भी प्राप्ति हो जायेगी। राजा जरासंध बड़े-बड़े लोगों के भी दाँत खट्टे कर देता है; क्योंकि दस हज़ार हाथियों का बल उसे प्राप्त है। उसे यदि हरा सकते हैं तो केवल भीमसेन, क्योंकि वे भी वैसे ही बली हैं। उसे आमने-सामने के युद्ध में एक वीर जीत लें, यही सबसे अच्छा है। सौ अक्षौहिणी सेना लेकर जब वह युद्ध के लिये खड़ा होगा, उस समय उसे जीतना आसान न होगा। जरासंध बहुत बड़ा ब्राह्मण-भक्त है। यदि ब्राह्मण उससे किसी बात की याचना करते हैं, तो वह कभी कोरा जवाब नहीं देता। इसलिये भीमसेन ब्राह्मण के वेष में जायँ और उससे युद्ध की भिक्षा माँगे। भगवन! इसमें सन्देह नहीं कि यदि आपकी उपस्थिति में भीमसेन और जरासंध का द्वन्द युद्ध हो, तो भीमसेन उसे मार डालेंगे। प्रभो! आप सर्वशक्तिमान, रूपरहित और कालस्वरूप हैं। विश्व की सृष्टि और प्रलय आपकी ही शक्ति से होता है। ब्रह्मा और शंकर तो उसमें निमित्त मात्र हैं।[1] जब इस प्रकार आप जरासंध का वध कर डालेंगे, तब क़ैद में पड़े हुए राजाओं की रानियाँ अपने महलों में आपकी इस विशुद्ध लीला का गान करेंगी कि आपने उनके शत्रु का नाश कर दिया और उनके प्राणपतियों को छुड़ा दिया। ठीक वैसे ही, जैसे गोपियाँ शंखचूड़ से छुड़ाने की लीला का, आपके शरणागत मुनिगण गजेन्द्र और जानकी जी के उद्धार की लीला का तथा हम लोग आपके माता-पिता को कंस के कारागार से छुड़ाने की लीला का गान करते हैं। इसलिये प्रभो! जरासंध का वध स्वयं ही बहुत-से प्रयोजन सिद्ध कर देगा। बंदी नरपतियों के पुण्य-परिणाम से अथवा जरासंध के पाप-परिणाम से सच्चिंदानन्द श्रीकृष्ण! आप भी तो इस समय 'राजसूय यज्ञ' का होना ही पसंद करते हैं (इसलिये आप वहीं पधारिये)।"

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! उद्धव जी की यह सलाह सब प्रकार से हितकर और निर्दोष थी। देवर्षि नारद, यदुवंश के बड़े-बूढ़े और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने भी उनकी बात का समर्थन किया। अब अन्तर्यामी भगवान श्रीकृष्ण ने वसुदेव आदि गुरुजनों से अनुमति लेकर दारुक, जैत्र आदि सेवकों को इन्द्रप्रस्थ जाने की तैयारी करने के लिये आज्ञा दी।

इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने यदुराज उग्रसेन और बलराम जी से आज्ञा लेकर बाल-बच्चों के साथ रानियों और उनके सब सामानों को आगे चला दिया और फिर दारुक के लाये हुए गरुड़ध्वज रथ पर स्वयं सवार हुए।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकसप्ततितम अध्याय श्लोक 14-25 का हिन्दी अनुवाद)

इसके बाद रथों, हाथियों, घुड़सवारों और पैदलों की बड़ी भारी सेना के साथ उन्होंने प्रस्थान किया। उस समय मृदंग, नगारे, ढोल, शंख और नरसिंगों की ऊँची ध्वनि से दसों दिशाएँ गूँज उठीं।

सती शिरोमणि रुक्मिणी जी आदि सहस्रों श्रीकृष्ण की पत्नियाँ अपनी सन्तानों के साथ सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण चन्दन, अंगराग और पुष्पों के हार आदि से सज-धजकर डोलियों, रथों और सोने की बनी हुई पालकियों में चढ़कर अपने पतिदेव भगवान श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे चलीं। पैदल सिपाही हाथों में ढाल-तलवार लेकर उनकी रक्षा करते हुए चल रहे थे। इसी प्रकार अनुचरों की स्त्रियाँ और वारांगनाएँ भलीभाँति श्रृंगार करके खस आदि की झोपड़ियों, भाँति-भाँति के तंबुओं, कनातों, कम्बलों और ओढ़ने-बिछाने आदि की सामग्रियों को बैलों, भैंसों, गधों और खच्चरों पर लादकर तथा पालकी, ऊँट, छकड़ों और हथिनियों पर सवार होकर चलीं। जैसे मगरमच्छों और लहरों की उछल-कूद से क्षुब्ध समुद्र की शोभा होती है, ठीक वैसे ही अत्यन्त कोलाहल से परिपूर्ण, फहराती हुई बड़ी-बड़ी पताकाओं, छत्रों, चँवरों, श्रेष्ठ अस्त्र-शस्त्रों, वस्त्राभूणों, मुकुटों, कवचों और दिन के समय उन पर पड़ती हुई सूर्य की किरणों से भगवान श्रीकृष्ण की सेना अत्यन्त शोभायमान हुई।

देवर्षि नारद जी भगवान श्रीकृष्ण से सम्मानित होकर और उनके निश्चय को सुनकर प्रसन्न हुए। भगवान के दर्शन से उनका हृदय और समस्त इन्द्रियाँ परमानन्द में मग्न हो गयीं। विदा होने के समय भगवान श्रीकृष्ण ने उनका नाना प्रकार की सामग्रियों से पूजन किया। अब देवर्षि नारद ने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया और उनकी दिव्य मूर्ति को हृदय में धारण करके आकाश-मार्ग से प्रस्थान किया। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने जरासन्ध के बंदी नरपतियों के दूत को अपनी मधुर वाणी से आश्वासन देते हुए कहा- ‘दूत! तुम अपने राजाओं से जाकर कहना- 'डरो मत! तुम लोगो का कल्याण हो। मैं जरासन्ध को मरवा डालूँगा’। भगवान की ऐसी आज्ञा पाकर वह दूत गिरिव्रज चला गया और नरपतियों को भगवान श्रीकृष्ण का सन्देश ज्यों-का-त्यों सुना दिया। वे राजा भी कारागार से छूटने के लिये शीघ्र-से-शीघ्र भगवान के शुभ दर्शन की बाट जोहने लगे।

परीक्षित! अब भगवान श्रीकृष्ण आनर्त, सौवीर, मरू, कुरुक्षेत्र और उनके बीच में पड़ने वाले पर्वत, नदी, नगर, गाँव, अहीरों की बस्तियाँ तथा खानों को पार करते हुए आगे बढ़ने लगे।

भगवान मुकुन्द मार्ग में दृषद्वती एवं सरस्वती नदी पार करके पांचाल और मत्स्य देशों में होते हुए इन्द्रप्रस्थ जा पहुँचे। परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है। जब अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर को यह समाचार मिला कि भगवान श्रीकृष्ण पधार गये हैं, तब उनका रोम-रोम आनन्द से खिल उठा। वे अपने आचार्यों और स्वजन-सम्बन्धियों के साथ भगवान की अगवानी करने के लिये नगर से बाहर आये। मंगल-गीत गाये जाने लगे, बाजे बजने लगे, बहुत-से ब्राह्मण मिलकर ऊँचे स्वर से वेदमन्त्रों का उच्चारण करने लगे। इस प्रकार वे बड़े आदर से हृषीकेश भगवान का स्वागत करने के लिये चले, जैसे इन्द्रियाँ मुख्य प्राण से मिलने जा रही हों।

भगवान श्रीकृष्ण को देखकर राजा युधिष्ठिर का हृदय स्नेहातिरेक से गद्गद हो गया। उन्हें बहुत दिनों पर अपने प्रियतम भगवान श्रीकृष्ण को देखऩे का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अतः वे उन्हें बार-बार अपने हृदय से लगाने लगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकसप्ततितम अध्याय श्लोक 26-35 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान श्रीकृष्ण का श्रीविग्रह भगवती लक्ष्मी जी का पवित्र और एकमात्र निवास-स्थान है। राजा युधिष्ठिर अपनी दोनों भुजाओं से उसका आलिंगन करके समस्त पाप-तापों से छुटकारा पा गये। वे सर्वतोभावेन परमानन्द के समुद्र में मग्न हो गये। नेत्रों में आँसू छलक आये, अंग-अंग पुलकित हो गया, उन्हें इस विश्व-प्रपंच के भ्रम का तनिक भी स्मरण न रहा। तदनन्तर भीमसेन ने मुसकराकर अपने ममेरे भाई श्रीकृष्ण का आलिंगन किया। इससे उन्हें बड़ा आनन्द मिला। उस समय उनके हृदय में इतना प्रेम उमड़ा कि उन्हें बाह्य विस्मृति-सी हो गयी। नकुल, सहदेव और अर्जुन ने भी अपने परम प्रियतम और हितैषी भगवान श्रीकृष्ण का बड़े आनन्द से आलिंगन प्राप्त किया। उस समय उनके नेत्रों में आँसुओं की बाढ़-सी आ गयी थी। अर्जुन ने पुनः भगवान श्रीकृष्ण का आलिंगन किया, नकुल और सहदेव ने अभिवादन किया और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों और कुरुवंशी वृद्धों को यथायोग्य नमस्कार किया।

कुरु, सृंजय और केकय देश के नरपतियों ने भगवान श्रीकृष्ण का सम्मान किया और भगवान श्रीकृष्ण ने भी उनका यथोचित सत्कार किया। सूत, मागध, बंदीजन और ब्राह्मण भगवान की स्तुति करने लगे तथा गन्धर्व, नट, विदूषक आदि मृदंग, शंख, नगारे, वीणा, ढोल और नरसिंगे बजा-बजाकर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिये नाचने-गाने लगे। इस प्रकार परमयशस्वी भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सुहृद-स्वजनों के साथ सब प्रकार से सुसज्जित इन्द्रप्रस्थ नगर में प्रवेश किया। उस समय लोग आपस में भगवान श्रीकृष्ण की प्रशंसा करते चल रहे थे।

इन्द्रप्रस्थ नगर की सड़कें और गलियाँ मतवाले हाथियों के मद से तथा सुगन्धित जल से सींच दी गयी थीं। जगह-जगह रंग-बिरंगी झंडियाँ लगा दी गयी थीं। सुनहले तोरन बाँधे हुए थे और सोने के जल भरे कलश स्थान-स्थान पर शोभा पा रहे थे। नगर के नर-नारी नहा-धोकर तथा नये वस्त्र, आभूषण, पुष्पों के हार, इत्र-फुलेल आदि से सज-धजकर घूम रहे थे। घर-घर में ठौर-ठौर पर दीपक जलाये गये थे, जिनसे दीपावली की-सी छटा हो रही थी। प्रत्येक घर के झरोखों से धूप का धूआँ निकलता हुआ बहुत ही भला मालूम होता था। सभी घरों के ऊपर पताकाएँ फहरा रहीं थीं तथा सोने के कलश और चाँदी के शिखर जगमगा रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार के महलों से परिपूर्ण पाण्डवों की राजधानी इन्द्रप्रस्थ नगर को देखते हुए आगे बढ़ रहे थे।

जब युवतियों ने सुना कि मानव-नेत्रों के पानपात्र अर्थात् अत्यन्त दर्शनीय भगवान श्रीकृष्ण राजपथ पर आ रहे हैं, तब उनके दर्शन की उत्सुकता के आवेग से उनकी चोटियों और साड़ियों की गाँठें ढीली पड़ गयी। उन्होंने घर का काम-काज तो छोड़ ही दिया, सेज पर सोये हुए अपने पतियों को भी छोड़ दिया और भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिये राजपथ पर दौड़ आयीं। सड़क पर हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना की भीड़ लग रही थी। उन स्त्रियों ने अटारियों पर चढ़कर रानियों के सहित भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन किया, उनके ऊपर पुष्पों की वर्षा की और मन-ही-मन आलिंगन किया तथा प्रेमभरी मुस्कान एवं चितवन से उनका सुस्वागत किया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकसप्ततितम अध्याय श्लोक 36-46 का हिन्दी अनुवाद)

नगर की स्त्रियाँ राजपथ पर चन्द्रमा के साथ विराजमान तारोओं के समान श्रीकृष्ण की पत्नियों को देखकर आपस में कहने लगीं- ‘सखी! इन बड़भागिनी रानियों ने न जाने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है, जिसके कारण पुरुषशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण अपने उन्मुक्त हास्य और विलासपूर्ण कटाक्ष से उनकी ओर देखकर उनके नेत्रों को परम आनन्द प्रदान करते हैं।'

इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण राजपथ से चल रहे थे। स्थान-स्थान पर बहुत-से निष्पाप धनी-मानी और शिल्पजीवी नागरिकों ने अनेकों मांगलिक वस्तुएँ ला-लाकर उनकी पूजा-अर्चा और स्वागत सत्कार किया। अन्तःपुर की स्त्रियाँ भगवान श्रीकृष्ण को देखकर प्रेम और आनन्द से भर गयीं। उन्होंने अपने प्रेमविह्वल और आनन्द से खिले नेत्रों के द्वारा भगवान का स्वागत किया और श्रीकृष्ण उनका स्वागत-सत्कार स्वीकार करते हुए राजमहल में पधारे।

जब कुन्ती ने अपने त्रिभुवनपति भतीजे श्रीकृष्ण को देखा, तब उनका हृदय प्रेम से भर आया। वे पलँग से उठकर अपनी पुत्रवधू द्रौपदी के साथ आगे गयीं और और भगवान श्रीकृष्ण को हृदय से लगा लिया। देवदेवेश्वर भगवान श्रीकृष्ण को राजमहल के अन्दर लाकर राजा युधिष्ठिर आदरभाव और आनन्द के उद्रेक से आत्म-विस्मृत हो गये; उन्हें इस बात की भी सुधि न रही कि किस क्रम से भगवान की पूजा करनी चाहिये। भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी फुआ कुन्ती और गुरुजनों की पत्नियों का अभिवादन किया। उनकी बहिन सुभद्रा और द्रौपदी ने भगवान को नमस्कार किया।

अपनी सास कुन्ती की की प्रेरणा से द्रौपदी ने वस्त्र, आभूषण, माला आदि के द्वारा रुक्मिणी, सत्यभामा, भद्रा, जांबवती, कालिंदी, मित्रविंदा, लक्ष्मणा और परम साध्वी सत्या- भगवान श्रीकृष्ण की इन पटरानियों का तथा वहाँ आयी हुई श्रीकृष्ण की अन्यान्य रानियों का भी यथायोग्य सत्कार किया। धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण को उनकी सेना, सेवक, मन्त्री और पत्नियों के साथ ऐसे स्थान में ठहराया, जहाँ उन्हें नित्य नयी-नयी सुख की सामग्रियाँ प्राप्त हों। अर्जुन के साथ रहकर भगवान श्रीकृष्ण ने खाण्डव वन का दाह करवाकर अग्नि को तृप्त किया था और मयासुर को उससे बचाया था।

परीक्षित! उस मयासुर ने ही धर्मराज युधिष्ठिर के लिये भगवान की आज्ञा से एक दिव्य सभा तैयार कर दी। भगवान श्रीकृष्ण राजा युधिष्ठिर को आनन्दित करने के लिये कई महीनों तक इन्द्रप्रस्थ में ही रहे। वे समय-समय पर अर्जुन के साथ रथ पर सवार होकर विहार करने के लिये इधर-उधर चले जाया करते थे। उस समय बड़े-बड़े वीर सैनिक भी उनकी सेवा के लिये साथ-साथ जाते।


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【बहत्तरवाँ अध्याय】७२

"पाण्डवों के राजसूय यज्ञ का आयोजन और जरासन्ध का उद्धार"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विसप्ततितम अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! एक दिन महाराज युधिष्ठिर बहुत-से मुनियों, ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, भीमसेन आदि भाइयों, आचार्यों, कुल के बड़े-बूढों, जाति-बन्धुओं, सम्बन्धियों एवं कुटुम्बियों के साथ राजसभा में बैठे हुए थे। उन्होंने सबके सामने ही भगवान श्रीकृष्ण को सम्बोधित करके यह बात कही।

धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा ;- गोविन्द! मैं सर्वश्रेष्ठ राजसूय-यज्ञ के द्वारा आपका और आपके परम पावन विभूतिस्वरूप देवताओं का यजन करना चाहता हूँ। प्रभो! आप कृपा करके मेरा यह संकल्प पूरा कीजिये। कमलनाभ! आपके चरणकमलों की पादुकाएँ समस्त अमंगलों को नष्ट करने वाली हैं। जो लोग निरन्तर उनकी सेवा करते हैं, ध्यान और स्तुति करते हैं, वास्तव में वे ही पवित्रात्मा हैं। वे जन्म-मृत्यु के चक्कर से छुटकारा पा जाते हैं। और यदि वे सांसारिक विषयों की अभिलाषा करें तो उन्हें उनकी भी प्राप्ति हो जाती है। परन्तु जो आपके चरणकमलों की शरण ग्रहण नहीं करते, उन्हें मुक्ति तो मिलती ही नहीं, सांसारिक भोग भी नहीं मिलते। देवताओं के भी आराध्यदेव! मैं चाहता हूँ कि संसारी लोग आपके चरणकमलों की सेवा का प्रभाव देखें। प्रभो! कुरुवंशी और सृंजयवंशी नरपतियों में जो लोग आपका भजन करते हैं और जो नहीं करते, उनका अंतर आप जनता को दिखला दीजिये। प्रभो! आप सबके आत्मा, समदर्शी और स्वयं आत्मानन्द के साक्षात्कार हैं, स्वयं ब्रह्म हैं। आपमें ‘यह मैं हूँ और यह दूसरा, यह अपना है और यह पराया’- इस प्रकार का भेदभाव नहीं है। फिर भी जो आपकी सेवा करते हैं, उन्हें उनकी भावना के अनुसार फल मिलता ही है- ठीक वैसे ही, जैसे कल्पवृक्ष की सेवा करने वाले को। उस फल में जो न्यूनाधिकता होती है, वह तो न्यूनाधिक सेवा के अनुरूप ही होती है। इससे आपमें विषमता या निर्दयता आदि दोष नहीं आते।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- शत्रु विजयी धर्मराज! आपका निश्चय बहुत ही उत्तम है। राजसूय-यज्ञ करने से समस्त लोकों में आपकी मंगलमयी कीर्ति का विस्तार होगा। राजन्य! आपका यह महायज्ञ ऋषियों, पितरों, देवताओं, सगे-सम्बन्धियों, हमें- और कहाँ तक कहें, समस्त प्राणियों को अभीष्ट है। महाराज! पृथ्वी के समस्त नरपतियों को जीतकर, सारी पृथ्वी को अपने वश में करके और याज्ञोचित सम्पूर्ण सामग्री एकत्रित करके फिर इस महायज्ञ का अनुष्ठान कीजिये। महाराज! आपके चारों भाई वायु, इन्द्र आदि लोकपालों के अंश से पैदा हुए हैं। वे सब-के-सब बड़े वीर हैं। आप तो परम मनस्वी और संयमी हैं ही। आप लोगों ने अपने सद्गुणों से मुझे अपने वश में कर लिया है। जिन लोगों ने अपनी इन्द्रियों और मन को वश में नहीं किया है, वे मुझे अपने वश में नहीं कर सकते। संसार में कोई बड़े-से-बड़ा देवता भी तेज, यश, लक्ष्मी, सौन्दर्य और ऐश्वर्य आदि के द्वारा मेरे भक्त का तिरस्कार नहीं कर सकता। फिर कोई राजा उसका तिरस्कार कर दे, इसकी तो सम्भावना ही क्या है?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान की बात सुनकर महाराज युधिष्ठिर का हृदय आनन्द से भर गया। उनका मुखकमल प्रफुल्लित हो गया। अब उन्होंने अपने भाइयों को दिग्विजय करने का आदेश दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डवों में अपनी शक्ति का संचार करके उनको अत्यन्त प्रभावशाली बना दिया था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विसप्ततितम अध्याय श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद)

धर्मराज युधिष्ठिर ने सृंजयवंशी वीरों के साथ सहदेव को दक्षिण दिशा में दिग्विजय करने के लिये भेजा। नकुल को मत्स्यदेशीय वीरों के साथ पश्चिम में, अर्जुन को केकयदेशीय वीरों के साथ उत्तर में और भीमसेन को मद्रदेशीय वीरों के साथ पूर्व दिशा में दिग्विजय करने का आदेश दिया। परीक्षित! उन भीमसेन आदि वीरों ने अपने बल-पौरुष से सब ओर के नरपतियों को जीत लिया और यज्ञ करने के लिये उद्यत महाराज युधिष्ठिर को बहुत-सा धन लाकर दिया। जब महाराज युधिष्ठिर ने यह सुना कि अब तक जरासन्ध पर विजय नहीं प्राप्त की जा सकी, तब वे चिन्ता में पड़ गये। उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें वही उपाय कह सुनाया, जो उद्धव जी ने बतलाया था।

परीक्षित! इसके बाद भीमसेन, अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण- ये तीनों ही ब्राह्मण का वेष धारण करके गिरीव्रज गये। वही जरासन्ध की राजधानी थी। राजा जरासन्ध ब्राह्मणों का भक्त और ग्रहस्थोचित धर्मों का पालन करने वाला था। उपर्युक्त तीनों क्षत्रिय ब्राह्मण का वेष धारण करके अतिथि-अभ्यागतों के सत्कार के समय जरासन्ध के पास गये और उससे इस प्रकार याचना की- ‘राजन! आपका कल्याण हो। हम तीनों आपके अतिथि हैं और बहुत दूर से आ रहे हैं। अवश्य ही हम यहाँ किसी विशेष प्रयोजन से ही आये हैं। इसलिये हम आपसे जो कुछ चाहते हैं, वह आप हमें अवश्य दीजिये। तितिक्षु, पुरुष क्या नहीं सह सकते। दुष्ट पुरुष बुरा-से-बुरा क्या नहीं कर सकते। उदार पुरुष क्या नहीं दे सकते और समदर्शी के लिये पराया कौन है ? जो पुरुष स्वयं समर्थ होकर भी इस नाश्वान् शरीर से ऐसे अविनाशी यश का संग्रह नहीं करता, जिसका बड़े-बड़े सत्पुरुष भी गान करें; सच पूछिये तो उसकी जितनी निन्दा की जाये, थोड़ी है। उसका जीवन शोक करने योग्य है। राजन! आप तो जानते ही होंगे- राजा हरिश्चंद्र, रन्तिदेव, केवल अन्न के दाने बीन-चुनकर निर्वाह करने वाले महात्मा मुद्गल, शिबी, बलि, व्याध और कपोत आदि बहुत-से व्यक्ति अतिथि को अपना सर्वस्व देकर इस नाशवान् शरीर के द्वारा अविनाशी पद को प्राप्त हो चुके हैं। इसलिये आप भी हम लोगों को निराश मत कीजिये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जरासन्ध ने उन लोगों की आवाज, सूरत-शक्ल और कलाइयों पर पड़े हुए धनुष की रगड़ के चिह्नों को देखकर पहचान लिया कि ये तो ब्राह्मण नहीं, क्षत्रिय हैं। अब वह सोचने लगा कि मैंने कहीं-न-कहीं इन्हें देखा भी अवश्य है। फिर उसने मन-ही-मन यह विचार किया कि ‘ये क्षत्रिय होने पर भी मेरे भय से ब्राह्मण का वेष बनाकर आये हैं। जब ये भिक्षा माँगने पर ही उतारू हो गये हैं, तब चाहे जो कुछ माँग लें, मैं इन्हें दूँगा। याचना करने पर अपना अत्यन्त प्यारा और दुस्त्यज शरीर देने में भी मुझे हिचकिचाहट न होगी। विष्णु भगवान ने ब्राह्मण का वेष धारण करके बलि का धन, ऐश्वर्य- सब कुछ छीन लिया; फिर भी बलि की पवित्र कीर्ति सब ओर फैली हुई है और आज भी लोग बड़े आदर से उसका गान करते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विसप्ततितम अध्याय श्लोक 25-37 का हिन्दी अनुवाद)

इसमें सन्देह नहीं कि विष्णु भगवान ने देवराज इन्द्र की राज्यलक्ष्मी बलि से छीनकर उन्हें लौटाने के लिये ही ब्राह्मणरूप धारण किया था। दैत्यराज बलि को यह बात मालूम हो गयी थी और शुक्राचार्य ने उन्हें रोका भी; परन्तु उन्होंने पृथ्वी दान कर ही दिया।

मेरा तो यह पक्का निश्चय है कि यह शरीर नाशवान् है। इस शरीर से जो विपुल यश नहीं कमाता और जो क्षत्रिय ब्राह्मण के लिये ही जीवन नहीं धारण करता, उसका जीना व्यर्थ है’।

परीक्षित! सचमुच जरासन्ध की बुद्धि बड़ी उदार थी। उपर्युक्त विचार करके उसने ब्राह्मण-वेषधारी श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीमसेन से कहा- ‘ब्राह्मणों! आप लोग मनचाही वस्तु माँग लें, आप चाहें तो मैं आप लोगों को अपना सिर भी दे सकता हूँ’।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- ‘राजेन्द्र! हम लोग अन्न के इच्छुक ब्राह्मण नहीं हैं, क्षत्रिय हैं; हम आपके पास युद्ध के लिये आये हैं। यदि आपकी इच्छा हो तो हमें द्वन्दयुद्ध की भिक्षा दीजिये। देखो, ये पाण्डुपुत्र भीमसेन हैं और यह इनका भाई अर्जुन हैं और मैं इन दोनों का ममेरा भाई तथा आपका पुराना शत्रु कृष्ण हूँ’।

जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार अपना परिचय दिया, तब राजा जरासन्ध ठठाकर हँसने लगा और चिढ़कर बोला- ‘अरे मूर्खों! यदि तुम्हें युद्ध की ही इच्छा है तो लो मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ। परन्तु कृष्ण! तुम तो बड़े डरपोक हो। युद्ध में तुम घबरा जाते हो। यहाँ तक कि मेरे डर से तुमने अपनी नगरी मथुरा भी छोड़ दी तथा समुद्र की शरण ली है। इसलिये मैं तुम्हारे साथ नहीं लडूँगा। यह अर्जुन भी कोई योद्धा नहीं है। एक तो अवस्था में मुझसे छोटा, दूसरे कोई विशेष बलवान् भी नहीं है। इसलिये यह भी मेरे जोड़ का वीर नहीं है। मैं इसके साथ भी नहीं लडूँगा। रहे भीमसेन, ये अवश्य ही मेरे समान बलवान् और मेरे जोड़ के हैं’।

जरासन्ध ने यह कहकर भीमसेन को एक बहुत बड़ी गदा दे दी और स्वयं दूसरी गदा लेकर नगर से बाहर निकल आया। अब दोनों रणोंन्मत्त वीर अखाड़े में आकर एक-दूसरे से भिड़ गये और अपनी वज्र के समान कठोर गदाओं से एक-दूसरे पर चोट करने लगे। वे दायें-बायें तरह-तरह के पैंतरे बदलते हुए ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो दो श्रेष्ठ नट रंगमंच पर युद्ध का अभिनय कर रहे हों। परीक्षित! जब एक की गदा दूसरे की गदा से टकराती, तब ऐसा मालूम होता मानो युद्ध करने वाले दो हाथियों के दाँत आपस में भिड़कर चटचटा रहे हों या बड़े जोर से बिजली तड़क रही हो। जब दो हाथी क्रोध में भरकर लड़ने लगते हैं और आक की डालियाँ तोड़-तोड़कर एक-दूसरे पर प्रहार करते हैं, उस समय एक-दूसरे की चोट से वे डालियाँ चूर-चूर हो जाती हैं; वैसे ही जब जरासन्ध और भीमसेन बड़े वेग से गदा चला-चलाकर एक-दूसरे के कंधों, कमरों, पैरों, हाथों, जाँघों और हँसलियों पर चोट करने लगे; तब उनकी गदाएँ उनके अंगों से टकरा-टकराकर चकनाचूर होने लगीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विसप्ततितम अध्याय श्लोक 38-48 का हिन्दी अनुवाद)

इस प्रकार जब गदाएँ चूर-चूर हो गयीं, तब दोनों वीर क्रोध में भरकर अपने घूँसों से एक-दूसरे को कुचल डालने की चेष्टा करने लगे। उनके घूँसे ऐसी चोट करते, मानो लोहे का घन गिर रहा हो। एक-दूसरे पर खुलकर चोट करते हुए दो हाथियों की तरह उनके थप्पड़ों और घूँसों का कठोर शब्द बिजली की कड़-कड़ाहट के समान जान पड़ता था।

परीक्षित! जरासन्ध और भीमसेन दोनों की गदा-युद्ध में कुशलता, बल और उत्साह समान थे। दोनों की शक्ति तनिक भी क्षीण नहीं हो रही थी। इस प्रकार लगातार प्रहार करते रहने पर भी दोनों में से किसी की जीत या हार न हुई। दोनों वीर रात के समय मित्र के समान रहते और दिन में छूटकर एक-दूसरे पर प्रहार करते और लड़ते। महाराज! इस प्रकार उनके लड़ते-लड़ते सत्ताईस दिन बीत गये।

प्रिय परीक्षित! अट्ठाईसवें दिन भीमसेन ने अपने ममेरे भाई श्रीकृष्ण से कहा- ‘श्रीकृष्ण! मैं युद्ध में जरासन्ध को जीत नहीं सकता।' भगवान श्रीकृष्ण जरासन्ध के जन्म और मृत्यु का रहस्य जानते थे और यह भी जानते थे कि जरा राक्षसी ने जरासन्ध के शरीर के दो टुकड़ों को जोड़कर इसे जीवन-दान दिया है। इसलिये उन्होंने भीमसेन के शरीर में अपनी शक्ति का संचार किया और जरासन्ध के वध का उपाय सोचा। परीक्षित! भगवान का ज्ञान अबाध है। अब उन्होंने उसकी मृत्यु का उपाय जानकर एक वृक्ष की डाली को बीचोबीच से चीर दिया और इशारे से भीमसेन को दिखाया। वीरशिरोमणि एवं परम शक्तिशाली भीमसेन ने भगवान श्रीकृष्ण का अभिप्राय समझ लिया और जरासन्ध के पैर पकड़कर उसे धरती पर दे मारा। फिर उसके एक पैर को अपने पैर के नीचे दबाया और दूसरे को अपने दोनों हाथों से पकड़ लिया। इसके बाद भीमसेन ने उसे गुदा की ओर से इस प्रकार चीर डाला, जैसे गजराज वृक्ष की डाली चीर डाले। लोगों ने देखा कि जरासन्ध के शरीर के दो टुकड़े हो गये हैं, और इस प्रकार उनके एक-एक पैर, जाँघ, अण्डकोश, कमर, पीठ, स्तन, कंधा, भुजा, नेत्र, भौंह और कान अलग-अलग हो गये हैं।

मगधराज जरासन्ध की मृत्यु हो जाने पर वहाँ की प्रजा बड़े जोर से ‘हाय! हाय!’ पुकारने लगी। भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भीमसेन का आलिंगन करके उनका सत्कार किया। सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण के स्वरूप और विचारों को कोई समझ नहीं सकता। वास्तव में वे ही समस्त प्राणीयों के जीवनदाता हैं। उन्होंने जरासन्ध के राजसिंहासन पर उसके पुत्र सहदेव का अभिषेक कर दिया और जरासन्ध ने जिन राजाओं को कैदी बना रखा था, उन्हें कारागार से मुक्त कर दिया।


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【तिहत्तरवाँ अध्याय】७३

"जरासन्ध के जेल से छूटे हुए राजाओं की बिदाई और भगवान का इन्द्रप्रस्थ लौट आना"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिसप्ततितम अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जरासन्ध ने अनायास ही बीस हजार आठ सौ राजाओं को जीतकर पहाड़ों की घाटी के एक किले के भीतर कैद कर रखा था। भगवान श्रीकृष्ण के छोड़ देने पर जब वे वहाँ से निकले, तब उनके शरीर और वस्त्र मैले हो रहे थे। वे भूख से दुर्बल हो रहे थे और उनके मुँह सूख गये थे। जेल में बंद रहने के कारण उनके शरीर का एक-एक अंग ढीला पड़ गया था। वहाँ से निकलते ही उन नरपतियों ने देखा कि सामने भगवान श्रीकृष्ण खड़े हैं। वर्षाकालीन मेघ के समान उनका साँवला-सलोना शरीर है और उस पर पीले रंग का रेशमी वस्त्र फहरा रहा है। चार भुजाएँ हैं- जिसमें गदा, शंख, चक्र और कमल सुशोभित है। वक्षःस्थल पर सुनहली रेखा-श्रीवत्स का चिह्न है और कमल के भीतरी भाग के समान कोमल, रतनारे नेत्र हैं। सुन्दर वदन प्रसन्नता का सदन है। कानों में मकराकृत कुण्डल झिलमिला रहे हैं। सुन्दर मुकुट, मोतियों का हार, कड़े, करधनी और बाजूबंद अपने-अपने स्थान पर शोभा पा रहे हैं। गले में कौस्तुभ मणि जगमगा रही है और वनमाला लटक रही है।

भगवान श्रीकृष्ण को देखकर उन राजाओं की ऐसी स्थिति हो गयी, मानो वे नेत्रों से उन्हें पी रहे हैं। जीभ से चाट रहे हैं, नासिका से सूँघ रहे हैं और बाहुओं से आलिंगन कर रहे हैं। उनके सारे पाप तो भगवान के दर्शन से ही धुल चुके थे। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के चरणों पर अपना सिर रखकर प्रणाम किया। भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन से उन राजाओं को इतना अधिक आनन्द हुआ कि कैद में रहने का क्लेश बिलकुल जाता रहा। वे हाथ जोड़कर विनम्र वाणी से भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे।

राजाओं ने कहा ;- शरणागतों के सारे दुःख और भय हर लेने वाले देवेश्वर! सचिदानन्दस्वरूप अविनाशी श्रीकृष्ण! हम आपको नमस्कार करते हैं। आपने जरासन्ध के कारागार से तो हमें छुड़ा ही दिया, अब इस जन्म-मृत्यु रूप घोर संसार-चक्र से भी छुड़ा दीजिये; क्योंकि हम संसार में दुःख का कटु अनुभव करके उससे ऊब गये हैं और आपकी शरण में आये हैं। प्रभो! अब आप हमारी रक्षा कीजिये। मधुसूदन! हमारे स्वामी! हम मगधराज जरासन्ध का कोई दोष नहीं देखते। भगवन्! यह तो आपका बहुत बड़ा अनुग्रह है कि हम राजा कहलाने वाले लोग राज्यलक्ष्मी से च्युत कर दिये गये। क्योंकि जो राजा अपने राज्य-ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त हो जाता है, उसको सच्चे सुख की-कल्याण की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। वह आपकी माया से मोहित होकर अनित्य सम्पत्तियों को ही अचल मान बैठता है। जैसे मूर्ख लोग मृगतृष्णा के जल को ही जलाशय मान लेते हैं, वैसे ही इन्द्रियलोलुप और अज्ञानी पुरुष भी इस परिवर्तनशील माया को सत्य वस्तु मान लेते हैं।

भगवन्! पहले हम लोग धन-सम्पत्ति के नशे में चूर होकर अंधे हो रहे थे। इस पृथ्वी को जीत लेने के लिये एक-दूसरे की होड़ करते थे और अपनी ही प्रजा का नाश करते रहते थे। सचमुच हमारा जीवन अत्यन्त क्रूरता से भरा हुआ था, और हम लोग इतने अधिक मतवाले हो रहे थे कि आप मृत्युरूप से हमारे सामने खड़े हैं, इस बात की भी हम तनिक परवा नहीं करते थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिसप्ततितम अध्याय श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद)

सच्चिन्दानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! काल की गति बड़ी गहन है। वह इतना बलवान् है कि किसी के टाले टलता नहीं। क्यों न हो, वह आपका शरीर ही तो है। अब उसने हम लोगों को श्रीहीन, निर्धन कर दिया है। आपकी अहैतुक अनुकम्पा से हमारा घमंड चूर-चूर हो गया। अब हम आपके चरणकमलों का स्मरण करते हैं। विभो! यह शरीर दिनोंदिन क्षीण होता जा रहा है। रोगों की तो यह जन्मभूमि ही है। अब हमें इस शरीर से भोगे जाने वाले राज्य की अभिलाषा नहीं है। क्योंकि हम समझ गये हैं कि वह मृगतृष्णा के जल के समान सर्वथा मिथ्या है। यही नहीं, हमें कर्म के फल स्वर्गादि लोकों की भी, जो मरने के बाद मिलते हैं, इच्छा नहीं है। क्योंकि हम जानते हैं कि वे निस्सार हैं, केवल सुनने में ही आकर्षक जान पड़ते हैं। अब हमें कृपा करके आप वह उपाय बतलाइये, जिससे आपके चरणकमलों की विस्मृति कभी न हो, सर्वदा स्मृति बनी रहे। चाहे हमें संसार की किसी भी योनि में जन्म क्यों न लेना पड़े। प्रणाम करने वालों के क्लेश का नाश करने वाले श्रीकृष्ण, वासुदेव, हरि, परमात्मा एवं गोविन्द के प्रति हमारा बार-बार नमस्कार है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! कारागार से मुक्त राजाओं ने जब इस प्रकार करुणावरुणालय भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति की, तब शरणागत रक्षक प्रभु ने बड़ी मधुर वाणी से उनसे कहा।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- नरपतियों! तुम लोगों ने जैसी इच्छा प्रकट की है, उसके अनुसार आज से मुझमें तुम लोगों की निश्चय ही सुदृढ़ भक्ति होगी। यह जान लो कि मैं सबका आत्मा और सबका स्वामी हूँ। नरपतियों! तुम लोगों ने जो निश्चय किया है, वह सचमुच तुम्हारे लिये बड़े सौभाग्य और आनन्द की बात है। तुम लोगों ने मुझसे जो कुछ कहा है, वह बिलकुल ठीक है। क्योंकि मैं देखता हूँ, धन-सम्पत्ति और ऐश्वर्य के मद से चूर होकर बहुत-से लोग उच्छ्रंखल और मतवाले हो जाते हैं। हैहय, नहुष, वेन, रावण, नरकासुर आदि अनेकों देवता, दैत्य और नरपति श्रीमद के कारण अपने स्थान से, पद से च्युत हो गये। तुम लोग यह समझ लो कि शरीर और और इसके सम्बन्धी पैदा होते हैं, इसलिये उनका नाश भी अवश्यम्भावी है। अतः उनमें आसक्ति मत करो। बड़ी सावधानी से मन और इन्द्रियों को वश में रखकर यज्ञों के द्वारा मेरा यजन करो और धर्मपूर्वक प्रजा की रक्षा करो। तुम लोग अपनी वंश-परम्परा की रक्षा के लिये, भोग के लिये नहीं, सन्तान उत्पन्न करो और प्रारब्ध के अनुसार जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख, लाभ-हानि- जो कुछ प्राप्त हों, उन्हें समान भाव से मेरा प्रसाद समझकर सेवन करो और अपना चित्त मुझमें लगाकर जीवन बिताओ। देह और देह के सम्बन्धियों से किसी प्रकार की आसक्ति न रखकर उदासीन रहो; अपने-आप में, आत्मा में ही रमण करो और भजन तथा आश्रम के योग्य व्रतों का पालन करते रहो। अपना मन भलीभाँति मुझमें लगाकर अन्त में तुम लोग मुझ ब्रह्मस्वरूप को ही प्राप्त हो जाओगे।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भुवनेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने राजाओं को यह आदेश देकर उन्हें स्नान आदि कराने के लिये बहुत-से स्त्री-पुरुष नियुक्त कर दिये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिसप्ततितम अध्याय श्लोक 25-35 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! जरासन्ध के पुत्र सहदेव से उनको राजोचित वस्त्र-आभूषण, माला-चन्दन आदि दिलवाकर उनका खूब सम्मान करवाया। जब वे स्नान करके वस्त्राभूषण से सुसज्जित हो चुके, तब भगवान ने उन्हें उत्तम-उत्तम पदार्थों का भोजन करवाया और पान आदि विविध प्रकार के राजोचित भोग दिलवाये। भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार उन बंदी राजाओं को सम्मानित किया। अब वे समस्त क्लेशों से छुटकारा पाकर तथा कानों में झिलमिलाते हुए सुन्दर-सुन्दर कुण्डल पहनकर ऐसे शोभायमान हुए, जैसे वर्षाऋतु का अन्त हो जाने पर तारे।

फिर भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें सुवर्ण और मणियों से भूषित एवं श्रेष्ठ घोड़ों से युक्त रथों पर चढ़ाया, मधुर वाणी से तृप्त किया और फिर उन्हें उनके देशों को भेज दिया। इस प्रकार उदारशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने उन राजाओं को महान कष्ट से मुक्त किया। अब वे जगत्पति भगवान श्रीकृष्ण के रूप, गुण और लीलाओं का चिन्तन करते हुए अपनी-अपनी राजधानी को चले गये। वहाँ जाकर उन लोगों ने अपनी-अपनी प्रजा से परमपुरुष भगवान श्रीकृष्ण की अद्भुत कृपा और लीला कह सुनायी और फिर बड़ी सावधानी से भगवान के आज्ञानुसार वे अपना जीवन व्यतीत करने लगे।

परीक्षित! इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण भीमसेन के द्वारा जरासन्ध का वध करवाकर भीमसेन और अर्जुन के साथ जरासन्धनन्दन सहदेव से सम्मानित होकर इन्द्रप्रस्थ के लिये चले। उन विजयी वीरों ने इन्द्रप्रस्थ के पास पहुँचकर अपने-अपने शंख बजाये, जिससे उनके इष्टमित्रों को सुख और शत्रुओं को बड़ा दुःख हुआ। इन्द्रप्रस्थनिवासियों का मन उस शंखध्वनि को सुनकर खिल उठा। उन्होंने समझ लिया कि जरासन्ध मर गया और अब राजा युधिष्ठिर का राजसूय-यज्ञ करने का संकल्प एक प्रकार से पूरा हो गया।

भीमसेन, अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण ने राजा युधिष्ठिर की वन्दना की और वह सब कृत्य कह सुनाया, जो उन्हें जरासन्ध के वध के लिये करना पड़ा था। धर्मराज युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण के इस परम अनुग्रह की बात सुनकर प्रेम से भर गये, उनके नेत्रों से आनन्द के आँसुओं की बूँदें टपकने लगीं और वे उनसे कुछ भी कह न सके।

                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【चौहत्तरवाँ अध्याय】७४

"भगवान की अग्रपूजा और शिशुपाल का उद्धार"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुःसप्ततितम अध्याय श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! धर्मराज युधिष्ठिर जरासन्ध का वध और सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण की अद्भुत महिमा सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और उनसे बोले।

धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा ;- सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! त्रिलोकी के स्वामी ब्रह्मा, शंकर आदि और इन्द्रादि लोकपाल- सब आपकी आज्ञा पाने के लिये तरसते रहते हैं और यदि वह मिल जाती है तो बड़ी श्रद्धा से उसको शिरोधार्य करते हैं। अनन्त! हम लोग हैं तो अत्यन्त दीन, परन्तु मानते हैं अपने को भूपति और नरपति। ऐसी स्थिति में हैं तो हम दण्ड के पात्र, परन्तु आप हमारी आज्ञा स्वीकार करते हैं और उसका पालन करते हैं। सर्वशक्तिमान् कमलनयन भगवान के लिये यह मनुष्य-लीला का अभिनयमात्र है। जैसे उदय अथवा अस्त के कारण सूर्य के तेज में घटती या बढ़ती नहीं होती, वैसे ही किसी भी प्रकार के कर्मों से न तो आपका उल्लास होता है और न तो ह्रास ही। क्योंकि आप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद से रहित स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं। किसी से पराजित न होने वाले माधव! ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है तथा यह तू है और यह तेरा’- इस प्रकार की विकारयुक्त भेदबुद्धि तो पशुओं की होती है। जो आपके अनन्य भक्त हैं, उनके चित्त में ऐसे पागलपन के विचार कभी नहीं आते। फिर आपमें तो होंगे ही कहाँ से? (इसलिये आप जो कुछ कर रहे हैं, वह लीला-ही-लीला है)।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इस प्रकार कहकर धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण की अनुमति से यज्ञ के योग्य समय आने पर यज्ञ के कर्मों में निपुण वेदवादी ब्राह्मणों को ऋत्विज्, आचार्य आदि के रूप में वरण किया। उनके नाम ये हैं- श्रीकृष्णाद्वैपायन व्यासदेव, भरद्वाज, सुमन्तु, गौतम, असित, वसिष्ठ, च्यवन, कण्व, मैत्रेय, कवष, त्रित, विश्वामित्र, वामदेव, सुमति, जैमिनी, क्रतु, पैल, पराशर, गर्ग, वैशम्पायन, अथर्वा, कश्यप, धौम्य, परशुराम, शुक्राचार्य, आसुरी, वीतिहोत्र, मधुच्छन्दा, वीरसेन और अकृतव्रण। इसके अतिरिक्त धर्मराज ने द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र और उनके दुर्योधन आदि पुत्रों और महामति विदुर आदि को भी बुलवाया।

राजन्! राजसूय-यज्ञ का दर्शन करने के लिये देश के सब राजा, उनके मन्त्री तथा कर्मचारी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र- सब-के-सब वहाँ आये। इसके बाद ऋत्विज् ब्राह्मणों ने सोने के हलों से यज्ञभूमि को जुतवाकर राजा युधिष्ठिर को शास्त्रानुसार यज्ञ की दीक्षा दी। प्राचीन काल में जैसे वरुणदेव के यज्ञ में सब-के-सब यज्ञपात्र सोने के बने हुए थे, वैसे ही युधिष्ठिर के यज्ञ में भी थे। पाण्डुनन्दन महाराज युधिष्ठिर के यज्ञ में निमन्त्रण पाकर ब्रह्मा जी, शंकर जी, इन्द्र आदि लोकपाल, अपने गणों के साथ सिद्ध और गन्धर्व, विद्याधर, नाग, मुनि, यक्ष, राक्षस, पक्षी, किन्नर, चारण, बड़े-बड़े राजा और रानियाँ- ये सभी उपस्थित हुए। सब ने बिना किसी प्रकार के कौतूहल के यह बात मान ली कि राजसूय-यज्ञ करना युधिष्ठिर के योग्य ही है। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण के भक्त के लिये ऐसा करना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। उस समय देवताओं के समान तेजस्वी याजकों ने धर्मराज युधिष्ठिर से विधिपूर्वक राजसूय-यज्ञ कराया; ठीक वैसे ही, जैसे पूर्वकाल में देवताओं ने वरुण से करवाया था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुःसप्ततितम अध्याय श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद)

सोमलता से रस निकालने के दिन महाराज युधिष्ठिर ने अपने परम भाग्यवान याजकों और यज्ञकर्म की भूल-चूक का निरिक्षण करने वाले सदसस्पतियों का बड़ी सावधानी से विधिपूर्वक पूजन किया। अब सभासद लोग इस विषय पर विचार करने लगे कि सदस्यों में सबसे पहले किसकी पूजा-अग्रपूजा होनी चाहिये। जितनी मति, उतने मत। इसलिये सर्वसम्मति से कोई निर्णय न हो सका। ऐसी स्थिति में सहदेव ने कहा- ‘यदुवंशशिरोमणि भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण ही सदस्यों में सर्वश्रेष्ठ और अग्रपूजा के पात्र हैं; क्योंकि यही समस्त देवताओं के रूप में हैं; और देश, काल, धन आदि जितनी भी वस्तुएँ हैं, उन सबके रूप में भी ये ही हैं। यह सारा विश्व श्रीकृष्ण का ही रूप है। समस्त यज्ञ भी श्रीकृष्णस्वरूप ही हैं। भगवान श्रीकृष्ण ही अग्नि, आहुति और मन्त्रों के रूप में हैं। ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग- ये दोनों भी श्रीकृष्ण की प्राप्ति के ही हेतु हैं।

सभासदों! मैं कहाँ तक वर्णन करूँ, भगवान श्रीकृष्ण वह एकरस अद्वितीय ब्रह्म हैं, जिसमें सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद नाममात्र का भी नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् उन्हीं का स्वरूप है। वे अपने-आपमें ही स्थित और जन्म, अस्तित्व, वृद्धि आदि छः भावविकारों से रहित हैं। वे अपने आत्मस्वरूप संकल्प से ही जगत् सृष्टि, पालन और संहार करते हैं। सारा जगत् श्रीकृष्ण के ही अनुग्रह से अनेकों प्रकार के कर्म का अनुष्ठान करता हुआ धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थों का सम्पादन करता है। इसलिये सबसे महान् भगवान श्रीकृष्ण की ही अग्रपूजा होनी चाहिये। इनकी पूजा करने से समस्त प्राणियों की तथा अपनी भी पूजा हो जाती है। जो अपने दान-धर्म को अनन्त भाव से युक्त करना चाहता हो, उसे चाहिये कि समस्त प्राणियों और पदार्थों के अंतरात्मा, भेदभावरहित, परमशान्त और परिपूर्ण भगवान श्रीकृष्ण को ही दान करे।

परीक्षित! सहदेव भगवान की महिमा और उनके प्रभाव को जानते थे। इतना कहकर वे चुप हो गये। उस समय धर्मराज युधिष्ठिर की यज्ञसभा में जितने सत्पुरुष उपस्थित थे, सब ने एक स्वर से ‘बहुत ठीक, बहुत ठीक’ कहकर सहदेव की बात का समर्थन किया। धर्मराज युधिष्ठिर ने ब्राह्मणों की यह आज्ञा सुनकर तथा सभासदों का अभिप्राय जानकर बड़े आनन्द से प्रेमोद्रेक से विह्वल होकर भगवान श्रीकृष्ण की पूजा की। अपनी पत्नी, भाई, मन्त्री और कुटुम्बियों के साथ धर्मराज युधिष्ठिर ने बड़े प्रेम और आनन्द से भगवान के पाँव पखारे तथा उनके चरणकमलों का लोकपावन जल अपने सिर पर धारण किया। उन्होंने भगवान को पीले-पीले रेशमी वस्त्र और बहुमूल्य आभूषण समर्पित किये। उस समय उनके नेत्र प्रेम और आनन्द के आँसुओं से इस प्रकार भर गये कि वे भगवान को भलीभाँति देख भी नहीं सकते थे। यज्ञसभा में उपस्थित सभी लोग भगवान श्रीकृष्ण को इस प्रकार पूजित, सत्कृत देखकर हाथ जोड़े हुए ‘नमो नमः ! जय जय !’ इस प्रकार के नारे लगाकर उन्हें नमस्कार करने लगे। उस समय आकाश से स्वयं ही पुष्पों की वर्षा होने लगी।

परीक्षित! अपने आसन पर बैठा हुआ शिशुपाल यह सब देख-सुन रहा था। भगवान श्रीकृष्ण के गुण सुनकर उसे क्रोध हो आया और वह उठकर खड़ा हो गया। वह भरी सभा में हाथ उठाकर बड़ी असहिष्णुता किन्तु निर्भयता के साथ भगवान को सुना-सुना कर अत्यन्त कठोर बातें कहने लगा-

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुःसप्ततितम अध्याय श्लोक 31-44 का हिन्दी अनुवाद)

‘सभासदों! श्रुतियों का यह कहना सर्वथा सत्य है कि काल ही ईश्वर है। लाख चेष्टा करने पर भी वह अपना काम करा ही लेता है- इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हमने देख लिया कि यहाँ बच्चों और मूर्खों की बात से बड़े-बड़े वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्धों की बुद्धि भी चकरा गयी है। पर मैं मानता हूँ कि आप लोग अग्रपूजा के योग्य पात्र का निर्णय करने में सर्वथा समर्थ हैं। इसलिये सदसस्पतियों! आप लोग बालक सहदेव की यह बात ठीक न मानें कि ‘कृष्ण ही अग्रपूजा के योग्य हैं। यहाँ बड़े-बड़े तपस्वी, विद्वान, व्रतधारी, ज्ञान के द्वारा अपने समस्त पाप-तापों को शान्त करने वाले, परम ज्ञानी परमर्षि, ब्रह्मनिष्ठ आदि उपस्थित हैं- जिनकी पूजा बड़े-बड़े लोकपाल भी करते हैं। यज्ञ की भूल-चूक बतलाने वाले उन सदसस्पतियों को छोड़कर यह कुलकलंक ग्वाला भला, अग्रपूजा का अधिकारी कैसे हो सकता है? क्या कौआ कभी यज्ञ के पुरोडाश का अधिकारी हो सकता है? न इसका कोई वर्ण है और न तो आश्रम। कुल भी इसका ऊँचा नहीं है। सारे धर्मों से यह बाहर है। वेद और लोकमर्यादाओं का उल्लंघन करके मनमाना आचरण करता है। इसमें कोई गुण भी नहीं है। ऐसी स्थिति में यह अग्रपूजा का पात्र कैसे हो सकता है? आप लोग जानते हैं कि राजा ययाति ने इसके वंश को शाप दे रखा है। इसलिये सत्पुरुषों ने इस वंश का ही बहिष्कार कर दिया है। ये सर्वदा व्यर्थ मधुपान में आसक्त रहते हैं। फिर ये अग्रपूजा के योग्य कैसे हो सकते हैं? इन सबने ब्रह्मर्षियों के द्वारा सेवित मथुरा आदि देशों का परित्याग कर दिया और ब्रह्मवर्चस् के विरोधी (वेदचर्चा रहित) समुद्र में किला बनाकर रहने लगे। वहाँ से जब ये बाहर निकलते हैं तो डाकुओं की तरह सारी प्रजा को सताते हैं’।

परीक्षित! सच पूछो तो शिशुपाल का सारा शुभ नष्ट हो चुका था। इसी से उसने और भी बहुत-सी कड़ी-कड़ी बातें भगवान श्रीकृष्ण को सुनायीं। परन्तु जैसे सिंह कभी सियार की ‘हुआँ-हुआँ’ पर ध्यान नहीं देता, वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण चुप रहे, उन्होंने उसकी बातों का कुछ भी उत्तर न दिया। परन्तु सभासदों के लिये भगवान की निन्दा सुनना असह्य था। उसमें से कई अपने-अपने कान बंद करके क्रोध से शिशुपाल को गाली देते हुए बाहर चले गये। परीक्षित! जो भगवान की या भगवत्परायण भक्तों की सुनकर वहाँ से हट नहीं जाता, वह शुभकर्मों से च्युत हो जाता है और उसकी अधोगति होती है।

परीक्षित! अब शिशुपाल को मार डालने के लिये पाण्डव, मत्स्य, केकय और सृंजयवंशी नरपति क्रोधित होकर हाथों में हथियार ले उठ खड़े हुए। परन्तु शिशुपाल को इससे कोई घबड़ाहट न हुई। उसने बिना किसी प्रकार का आगा-पीछा सोचे अपनी ढाल-तलवार उठा ली और वह भरी सभा में श्रीकृष्ण के पक्षपाती राजाओं को ललकारने लगा। उन लोगों को लड़ते-झगड़ते देख भगवान श्रीकृष्ण उठ खड़े हुए। उन्होंने अपने पक्षपाती राजाओं को शान्त किया और स्वयं क्रोध करके अपने ऊपर झपटते हुए शिशुपाल का सिर छुरे के समान तीखी धार वाले चक्र से काट लिया। शिशुपाल के मारे जाने पर वहाँ बड़ा कोलाहल मच गया। उसके अनुयायी नरपति अपने-अपने प्राण बचाने के लिये वहाँ से भाग खड़े हुए।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुःसप्ततितम अध्याय श्लोक 45-54 का हिन्दी अनुवाद)

जैसे आकाश से गिरा हुआ लूक धरती में समा जाता है, वैसे ही सब प्राणियों के देखते-देखते शिशुपाल के शरीर से एक ज्योति निकलकर भगवान श्रीकृष्ण में समा गयी।

परीक्षित! शिशुपाल के अन्तःकरण में लगातार तीन जन्म से वैर भाव की अभिवृद्धि हो रही थी और इस प्रकार, वैरभाव से ही सही, ध्यान करते-करते वह तन्मय हो गया-पार्षद हो गया। सच है-मृत्यु के बाद होने वाली गति में भाव ही कारण है। शिशुपाल की सद्गति होने के बाद चक्रवर्ती धर्मराज युधिष्ठिर ने सदस्यों और ऋत्विजों को पुष्कल दक्षिणा दी तथा सबका सत्कार करके विधिपूर्वक यज्ञान्त-स्नान-अवभृथ-स्नान किया।

परीक्षित! इस प्रकार योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर का राजसूय-यज्ञ पूर्ण किया और अपने सगे-सम्बन्धी और सुहृदों की प्रार्थना से कुछ महीनों तक वहीं रहे। इसके बाद राजा युधिष्ठिर की इच्छा न होने पर भी सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे अनुमति ले ली और अपनी रानियों तथा मन्त्रियों के साथ इन्द्रप्रस्थ से द्वारकापुरी की यात्रा की।

परीक्षित! मैं यह उपाख्यान तुम्हें बहुत विस्तार से (सातवें स्कन्ध से) सुना चुका हूँ कि बैकुण्ठवासी जय और विजय को सनकादि ऋषियों के शाप से बार-बार जन्म लेना पड़ा था। महाराज युधिष्ठिर राजसूय का यज्ञान्त-स्नान करके ब्राह्मण और क्षत्रियों की सभा में देवराज इन्द्र के समान शोभायमान होने लगे। राजा युद्धिष्ठिर ने देवता, मनुष्य और आकाशचारियों का यथायोग्य सत्कार किया तथा वे भगवान श्रीकृष्ण एवं राजसूय यज्ञ की प्रशंसा करते हुए बड़े आनन्द से अपने-अपने लोकों को चले गये।

परीक्षित! सब तो सुखी हुए, परन्तु दुर्योधन से पाण्डवों की यह उज्ज्वल राज्यलक्ष्मी का उत्कर्ष सहन न हुआ। क्योंकि वह स्वभाव से ही पापी, कलहप्रेमी और कुरुकुल का नाश करने के लिये एक महान रोग था ।

परीक्षित! जो पुरुष भगवान श्रीकृष्ण की इस लीला- शिशुपाल वध, जरासन्ध वध, बंदी राजाओं की मुक्ति और यज्ञानुष्ठान का कीर्तन करेगा, वह समस्त पापों से छूट जायगा।

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