{दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)
【सत्तरवाँ अध्याय】७०
"भगवान श्रीकृष्ण की नित्यचर्या और उनके पास जरासन्ध के कैदी राजाओं के दूत का आना"
(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब सबेरा होने लगता, कुक्कुट (मुरगे) बोलने लगते, तब वे श्रीकृष्ण-पत्नियाँ, जिनके कण्ठ में श्रीकृष्ण ने अपनी भुजा डाल रखी है, उनके विछोह की आशंका से व्याकुल हो जातीं और उन मुरगों को कोसने लगतीं। उस समय पारिजात की सुगन्ध से सुवासित भीनी-भीनी वायु बहने लगती। भौंरे तालस्वर से अपने संगीत की तान छेड़ देते। पक्षियों की नींद उचट जाती और वे वंदीजनों की भाँति भगवान श्रीकृष्ण को जगाने के लिये मधुर स्वर से कलरव करने लगते। रुक्मिणी जी अपने प्रियतम के भुजपाश में बँधी रहने पर भी आलिंगन छूट जाने की आशंका से अत्यन्त सुहावने और पवित्र ब्रह्ममुहूर्त को भी असह्य समझने लगती थीं।
भगवान श्रीकृष्ण प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त में ही उठ जाते और हाथ-मुँह धोकर अपने मायातीत आत्मस्वरूप का ध्यान करने लगते। उस समय उनका रोम-रोम आनन्द से खिल उठता था। परीक्षित! भगवान का वह आत्मस्वरूप सजातीय, विजातीय और स्वगतभेद से रहित एक, अखण्ड है। क्योंकि उसमें किसी प्रकार की उपाधि या उपाधि के कारण होने वाला अन्य वस्तु का अस्तित्व नहीं है और यही कारण है कि वह अविनाशी सत्य है। जैसे चन्द्रमा-सूर्य आदि नेत्र-इन्द्रिय के द्वारा और नेत्र-इन्द्रिय चंद्रमा-सूर्य आदि के द्वारा प्रकाशित नहीं, स्वयंप्रकाश है। इसका कारण यह है कि अपने स्वरूप में ही सदा-सर्वदा और काल की सीमा के परे भी एकरस स्थित रहने के कारण अविद्या उसका स्पर्श भी नहीं कर सकती। इसी से प्रकाश्य-प्रकाशकभाव उसमें नहीं है। जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और नाश की कारणभूता ब्रह्मशक्ति, विष्णुशक्ति और रुद्रशक्तियों के द्वारा केवल इस बात का अनुमान हो सकता है कि वह स्वरूप एकरस सत्तारूप और आनन्दस्वरूप है। उसी को समझाने के लिये ‘ब्रह्म’ नाम से कहा जाता है। भगवान श्रीकृष्ण अपने उसी आत्मस्वरूप का प्रतिदिन ध्यान करते।
इसके बाद वे विधिपूर्वक निर्मल और पवित्र जल में स्नान करते। फिर शुद्ध धोती पहनकर, दुपट्टा ओढ़कर यथाविधि नित्यकर्म सन्ध्या-वन्दन आदि करते। इसके बाद हवन करते और मौन होकर गायत्री का जप करते। क्यों न हो, वे सत्पुरुषों के पात्र आदर्श जो हैं। इसके बाद सूर्योदय होने के समय सूर्योपस्थान करते और अपने कलास्वरूप देवता, ऋषि तथा पितरों का तर्पण करते। फिर कुल के बड़े-बूढ़ों और ब्राह्मणों की विधिपूर्वक पूजा करते। इसके बाद परम मनस्वी श्रीकृष्ण दुधारू, पहले-पहल ब्यायी हुई, बछड़ों वाली सीधी-शान्त गौओं का दान करते। उस समय उन्हें सुन्दर वस्त्र और मोतियों की माला पहना दी जाती। सींग में सोना और खुरों में चाँदी मढ़ दी जाती। वे ब्राह्मणों को वस्त्राभूषणों से सुसज्जित करके रेशमी वस्त्र, मृगचर्म और तिल के साथ प्रतिदिन तेरह हजार चौरासी गौएँ इस प्रकार दान करते।
तदनन्तर अपनी विभूतिरूप गौ, ब्राह्मण, देवता, कुल के बड़े-बूढ़े, गुरुजन और समस्त प्राणियों को प्रणाम करके मांगलिक वस्तुओं का स्पर्श करते। परीक्षित! यद्यपि भगवान के शरीर का सहज सौन्दर्य ही मनुष्य-लोक का अलंकार है, फिर भी वे अपने पीताम्बरादि दिव्य वस्त्र, कौस्तुभादि आभूषण, पुष्पों के हार और चन्दनादि दिव्य अंगराग से अपने को आभूषित करते।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 12-25 का हिन्दी अनुवाद)
इसके बाद वे घी और दर्पण में अपना मुखारविन्द देखते; गाय, बैल, ब्राह्मण और देव-प्रतिमाओं का दर्शन करते। फिर पुरवासी और अन्तःपुर में रहने वाले चारों वर्णों के लोगों की अभिलाषाएँ पूर्ण करते और फिर अपनी अन्य (ग्रामवासी) प्रजा की कामनापूर्ति करके उसे सन्तुष्ट करते और इन सबको प्रसन्न देखकर स्वयं भी बहुत ही आनन्दित होते। वे पुष्पमाला, ताम्बूल, चन्दन, अंगराग आदि वस्तुएँ पहले ब्राह्मण, स्वजनसम्बन्धी, मन्त्री और रानियों को बाँट देते; और उनसे बची हुई स्वयं अपने काम में लाते। भगवान यह सब करते होते, तब तक दारुक नाम का सारथि सुग्रीव आदि घोड़ों से जुता हुआ अत्यन्त अद्भुत रथ ले आता और प्रणाम करके भगवान के सामने खड़ा हो जाता। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण सात्यकि और उद्धव जी के साथ अपने हाथ से सारथि का हाथ पकड़कर रथ पर सवार होते-ठीक वैसे ही जैसे भुवनभास्कर भगवान सूर्य उदयाचल पर आरूढ़ होते। उस समय रनिवास की स्त्रियाँ लज्जा एवं प्रेम से भरी चितवन से उन्हें निहारने लगतीं और बड़े कष्ट से उन्हें विदा करतीं। भगवान मुसकराकर उनके चित्त को चुराते हुए महल से निकलते।
परीक्षित! तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण समस्त यदुवंशियों के साथ सुधर्मा नाम की सभा में प्रवेश करते। उस सभा की ऐसी महिमा है कि जो लोग उस सभा में जा बैठते हैं, उन्हें भूख-प्यास, शोक-मोह और जरा-मृत्यु- ये छः उर्मियाँ नहीं सतातीं। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण सब रानियों से अलग-अलग विदा होकर एक ही रूप में सुधर्मा सभा में प्रवेश करते और वहाँ जाकर श्रेष्ठ सिंहासन पर विराज जाते। उनकी अंगकान्ति से दिशाएँ प्रकाशित होती रहतीं। उस समय यदुवंशी वीरों के बीच में यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण की ऐसी शोभा होती, जैसे आकाश में तारों से घिरे हुए चन्द्रदेव शोभायमान होते हैं।
परीक्षित! सभा में विदूषक लोग विभिन्न प्रकार के हास्य-विनोद से, नटाचार्य अभिनय से और नर्तकियाँ कलापूर्ण नृत्यों से अलग-अलग अपनी टोलियों के साथ भगवान की सेवा करतीं। उस समय मृदंग, वीणा, पखावज, बाँसुरी, झाँझ और शंख बजने लगते और सूत, मागध तथा वंदीजन नाचते-गाते और भगवान की स्तुति करते। कोई-कोई व्याख्याकुशल ब्राह्मण वहाँ बैठकर वेदमन्त्रों की व्याख्या करते और कोई पूर्वकालीन पवित्रकीर्ति नरपतियों के चरित्र कह-कहकर सुनाते।
एक दिन की बात है, द्वारकापुरी में राजसभा के द्वार पर एक नया मनुष्य आया। द्वारपालों ने भगवान को उसके आने की सूचना देकर उसे सभा भवन में उपस्थित किया। उस मनुष्य ने परमेश्वर भगवान श्रीकृष्ण को हाथ जोड़कर नमस्कार किया और उन राजाओं का, जिन्होंने जरासन्ध के दिग्विजय के समय उसके सामने सिर नहीं झुकाया था और बलपूर्वक कैद कर लिये गये थे, जिनकी संख्या बीस हजार थी, जरासन्ध के बंदी बनने का दुःख श्रीकृष्ण के सामने निवेदन किया- ‘सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप मन और वाणी के अगोचर हैं। जो आपकी शरण में आता है, उसके सारे भय आप नष्ट कर देते हैं। प्रभो! हमारी भेद-बुद्धि मिटी नहीं है। हम जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्कर से भयभीत होकर आपकी शरण में आये हैं।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ततितम अध्यायः श्लोक 26-31 का हिन्दी अनुवाद)
भगवन्! अधिकांश जीव ऐसे सकाम और निषिद्ध कर्मों में फँसे हुए हैं कि वे आपके बतलाये हुए अपने परम कल्याणकारी कर्म, आपकी उपासना से विमुख हो गये हैं और अपने जीवन एवं जीवन सम्बन्धी आशा-अभिलाषाओं में भ्रम-भटक रहे हैं। परन्तु आप बड़े बलवान् हैं। आप काल रूप से सदा-सर्वदा सावधान रहकर उनकी आशालता का तुरंत समूल उच्छेद कर डालते हैं। हम आपके उस कालरूप को नमस्कार करते हैं। आप स्वयं जगदीश्वर हैं और आपने जगत् में अपने ज्ञान, बल आदि कलाओं के साथ इसलिये अवतार ग्रहण किया है कि संतों की रक्षा करें और दुष्टों को दण्ड दें। ऐसी अवस्था में प्रभो! जरासन्ध आदि कोई दूसरे राजा आपकी इच्छा और आज्ञा के विपरीत हमें कैसे कष्ट दे रहे हैं, यह बात हमारी समझ में नहीं आती।
यदि यह कहा जाये कि जरासन्ध हमें कष्ट नहीं देता, उसके रूप में- उसे निमित्त बनाकर हमारे अशुभ कर्म ही हमें दुःख पहुँचा रहे हैं; तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि जब हम लोग आपके अपने हैं, तब हमारे दुष्कर्म हमें फल देने में कैसे समर्थ हो सकते हैं? इसलिये आप कृपा करके अवश्य ही हमें इस क्लेश से मुक्त कीजिये ।प्रभो! हम जानते हैं कि राजापने का सुख प्रारब्ध के अधीन और विषयसाध्य है। और सच कहें तो स्वप्न-सुख के समान तुच्छ और असत् है। साथ ही उस सुख को भोगने वाला यह शरीर भी एक प्रकार से मुर्दा ही है और इसके पीछे सदा-सर्वदा सैकड़ों प्रकार के भय लगे रहते हैं। परन्तु हम तो इसी के द्वारा जगत् के अनेकों भार ढो रहे हैं और यही कारण है कि हमने अंतःकरण के निष्काम-भाव और निस्संकल्प स्थिति से प्राप्त होने वाले आत्मसुख का परित्याग कर दिया है। सचमुच हम अत्यन्त अज्ञानी हैं और आपकी माया के फंदे में फँसकर क्लेश-पर-क्लेश भोगते जा रहे हैं।
भगवन्! आपके चरण-कमल शरणागत पुरुषों के समस्त शोक और मोहों को नष्ट कर देने वाले हैं। इसलिये आप ही जरासन्धरूप कर्मों के बन्धन से हमें छुड़ाइये। प्रभो! यह अकेला ही दस हजार हाथियों की शक्ति रखता है और हम लोगों को उसी प्रकार बंदी बनाये हुए हैं, जैसे सिंह भेड़ों को घेर रखे। चक्रपाणे! आपने अठारह बार जरासन्ध से युद्ध किया और सत्रह बार उसका मान-मर्दन करके उसे छोड़ दिया। परन्तु एक बार उसने आपको जीत लिया। हम जानते हैं कि आपकी शक्ति, आपका बल-पौरुष अनन्त है। फिर भी मनुष्यों का-सा आचरण करते हुए आपने हारने का अभिनय किया। परन्तु इसी से उसका घमंड बढ़ गया है। हे अजित! अब वह यह जानकर हम लोगों को और भी सताता है कि हम आपके भक्त हैं, आपकी प्रजा हैं। अब आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा कीजिये’।
दूत ने कहा ;- भगवन्! जरासन्ध के बंदी नरपतियों ने इस प्रकार आपसे प्रार्थना की है। वे आपके चरणकमलों की शरण में हैं और आपका दर्शन चाहते हैं। आप कृपा करके उन दोनों का कल्याण कीजिये।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ततितम अध्याय श्लोक 32-41 का हिन्दी अनुवाद)
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! राजाओं का दूत इस प्रकार कह ही रहा था कि परमतेजस्वी देवर्षि नारद जी वहाँ आ पहुँचे। उनकी सुनहरी जटाएँ चमक रहीं थी। उन्हें देखकर ऐसा मालूम हो रहा था, मानो साक्षात् भगवान सूर्य ही उदय हो गये हों। ब्रह्मा आदि समस्त लोकपालों के एकमात्र स्वामी भगवान श्रीकृष्ण उन्हें देखते ही सभासदों और सेवकों के साथ हर्षित होकर उठ खड़े हुए और सिर झुकाकर उनकी वन्दना करने लगे।
जब देवर्षि नारद आसन स्वीकार करके बैठ गये, तब भगवान ने उनकी विधिपूर्वक पूजा की और अपनी श्रद्धा से उनको संतुष्ट करते हुए वे मधुर वाणी से बोले- ‘देवर्षे! इस समय तीनों लोकों में कुशल-मंगल तो है न’? आप तीनों लोकों में विचरण करते रहते हैं, इससे हमें बहुत बड़ा लाभ है कि घर बैठे सबका समाचार मिल जाता है। ईश्वर के द्वारा रचे हुए तीनों लोकों में ऐसी कोई बात नहीं है, जिसे आप न जानते हों। अतः हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि युधिष्ठिर आदि पाण्डव इस समय क्या करना चाहते हैं?’
देवर्षि नारद जी ने कहा ;- सर्वव्यापक अनन्त! आप विश्व के निर्माता हैं और इतने बड़े मायावी हैं कि बड़े-बड़े मायावी ब्रह्मा जी आदि भी आपकी माया का पार नहीं पा सकते? प्रभो! आप सबके घट-घट में अपनी अचिन्त्य शक्ति से व्याप्त रहते है-ठीक वैसे ही; जैसे अग्नि लकड़ियों में अपने को छिपाये रखता है। लोगों की दृष्टि सत्त्व आदि गुणों पर ही अटक जाती है, इससे आपको वे नहीं देख पाते। मैंने एक बार नहीं, अनेकों बार आपकी माया देखी है। इसलिये आप जो यों अनजान बनकर पाण्डवों का समाचार पूछते हैं, इसे मुझे कोई कौतूहल नहीं हो रहा है। भगवन्! आप अपनी माया से ही इस जगत् की रचना और संहार करते हैं, और आपकी माया के कारण ही यह असत्य होने पर सत्य के समान प्रतीत होता है। आप कब क्या करना चाहते हैं, यह बात भलीभाँति कौन समझ सकता है। आपका स्वरूप सर्वथा अचिंतनीय है। मैं तो केवल बार-बार आपको नमस्कार करता हूँ।
शरीर और इससे सम्बन्ध रखने वाली वासनाओं में फँसकर जीव जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकता रहता है तथा यह नहीं जानता कि मैं इस शरीर से कैसे मुक्त हो सकता हूँ। वास्तव में उसी के हित के लिये आप नाना प्रकार लीलावतार ग्रहण करते अपने पवित्र यश का दीपक जला देते हैं, जिसके सहारे वह इस अनर्थकारी शरीर से मुक्त हो सके। इसलिये मैं आपकी शरण में हूँ। प्रभो! आप स्वयं परब्रह्म हैं, तथापि मनुष्यों की-सी लीला का नाट्य करते हुए मुझसे पूछ रहे हैं। इसलिये आपके फुफेरे भाई और प्रेमी भक्त राजा युधिष्ठिर क्या करना चाहते हैं, यह बात मैं आपको सुनाता हूँ। इसमें सन्देह नहीं कि ब्रह्मलोक में किसी को जो भोग प्राप्त हो सकता है, वह राजा युधिष्ठिर को यहीं प्राप्त है। उन्हें किसी वस्तु की कामना नहीं है। फिर भी वे श्रेष्ठ यज्ञ राजसूय के द्वारा आपकी प्राप्ति के लिये आपकी आराधना करना चाहते हैं। आप कृपा करके उनकी इस अभिलाषा का अनुमोदन कीजिये।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकसप्ततितम अध्याय श्लोक 42-47 का हिन्दी अनुवाद)
भगवन्! उस श्रेष्ठ यज्ञ में आपका दर्शन करने के लिये बड़े-बड़े देवता और यशस्वी नरपतिगण एकत्र होंगे। प्रभो! आप स्वयं विज्ञानानन्दघन ब्रह्म हैं। आपके श्रवण, कीर्तन और ध्यान करने मात्र से अन्यत्ज भी पवित्र हो जाते हैं। फिर जो आपका दर्शन और स्पर्श प्राप्त करते हैं, उनके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है।
त्रिभुवन-मंगल! आपकी निर्मल कीर्ति समस्त दिशाओं में छा रही है तथा स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल में व्याप्त हो रही है; ठीक वैसे ही, जैसे आपकी चरणामृतधारा स्वर्ग में मन्दाकिनी, पाताल में भोगवती और मर्त्यलोक में गंगा के नाम से प्रवाहित होकर सारे विश्व को पवित्र कर रही है।
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! सभा में जितने यदुवंशी बैठे थे, वे सब इस बात के लिये अत्यन्त उत्सुक हो रहे थे कि पहले जरासन्ध पर चढ़ाई करके उसे जीत लिया जाये। अतः उन्हें नारद जी की बात पसंद न आयी। तब ब्रह्मा आदि के शासक भगवान श्रीकृष्ण ने तनिक मुसकराकर बड़ी मीठी वाणी में उद्धव जी से कहा-
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- ‘उद्धव! तुम मेरे हितैषी सुहृद हो। शुभ सम्मति देने वाले और कार्य के तत्त्व को भलीभाँति समझने वाले हो, इसीलिये हम तुम्हें अपना उत्तम नेत्र मानते हैं। अब तुम्हीं बताओ कि इस विषय में हमें क्या करना चाहिये। तुम्हारी बात पर हमारी श्रद्धा है। इसीलिये हम तुम्हारी सलाह के अनुसार ही काम करेंगे’।
जब उद्धव जी ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण सर्वज्ञ होने पर भी अनजान की तरह सलाह पूछ रहे हैं, तब वे उनकी आज्ञा शिरोधार्य करके बोले।
{दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)
【इकहत्तरवाँ अध्याय】७१
"श्रीकृष्ण भगवान का इन्द्रप्रस्थ पधारना"
(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकसप्ततितम अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण के वचन सुनकर महामती उद्धव जी ने देवर्षि नारद, सभासाद और भगवान श्रीकृष्ण के मत पर विचार किया और फिर कहने लगे।
उद्धव जी ने कहा ;- "भगवन! देवर्षि नारद जी ने आपको यह सलाह दी है कि फुफेरे भाई पांडवों के 'राजसूय यज्ञ' में सम्मिलित होकर उनकी सहायता करनी चाहिये। उसका यह कथन ठीक ही है और साथ ही यह भी ठीक है कि शरणागतों की रक्षा अवश्य कर्तव्य है। प्रभो! केवल जरासंध को जीत लेने से ही हमारा उद्देश्य सफ़ल हो जायेगा, साथ ही उससे बंदी राजाओं को मुक्ति और उसके कारण आपको सुयश की भी प्राप्ति हो जायेगी। राजा जरासंध बड़े-बड़े लोगों के भी दाँत खट्टे कर देता है; क्योंकि दस हज़ार हाथियों का बल उसे प्राप्त है। उसे यदि हरा सकते हैं तो केवल भीमसेन, क्योंकि वे भी वैसे ही बली हैं। उसे आमने-सामने के युद्ध में एक वीर जीत लें, यही सबसे अच्छा है। सौ अक्षौहिणी सेना लेकर जब वह युद्ध के लिये खड़ा होगा, उस समय उसे जीतना आसान न होगा। जरासंध बहुत बड़ा ब्राह्मण-भक्त है। यदि ब्राह्मण उससे किसी बात की याचना करते हैं, तो वह कभी कोरा जवाब नहीं देता। इसलिये भीमसेन ब्राह्मण के वेष में जायँ और उससे युद्ध की भिक्षा माँगे। भगवन! इसमें सन्देह नहीं कि यदि आपकी उपस्थिति में भीमसेन और जरासंध का द्वन्द युद्ध हो, तो भीमसेन उसे मार डालेंगे। प्रभो! आप सर्वशक्तिमान, रूपरहित और कालस्वरूप हैं। विश्व की सृष्टि और प्रलय आपकी ही शक्ति से होता है। ब्रह्मा और शंकर तो उसमें निमित्त मात्र हैं।[1] जब इस प्रकार आप जरासंध का वध कर डालेंगे, तब क़ैद में पड़े हुए राजाओं की रानियाँ अपने महलों में आपकी इस विशुद्ध लीला का गान करेंगी कि आपने उनके शत्रु का नाश कर दिया और उनके प्राणपतियों को छुड़ा दिया। ठीक वैसे ही, जैसे गोपियाँ शंखचूड़ से छुड़ाने की लीला का, आपके शरणागत मुनिगण गजेन्द्र और जानकी जी के उद्धार की लीला का तथा हम लोग आपके माता-पिता को कंस के कारागार से छुड़ाने की लीला का गान करते हैं। इसलिये प्रभो! जरासंध का वध स्वयं ही बहुत-से प्रयोजन सिद्ध कर देगा। बंदी नरपतियों के पुण्य-परिणाम से अथवा जरासंध के पाप-परिणाम से सच्चिंदानन्द श्रीकृष्ण! आप भी तो इस समय 'राजसूय यज्ञ' का होना ही पसंद करते हैं (इसलिये आप वहीं पधारिये)।"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! उद्धव जी की यह सलाह सब प्रकार से हितकर और निर्दोष थी। देवर्षि नारद, यदुवंश के बड़े-बूढ़े और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने भी उनकी बात का समर्थन किया। अब अन्तर्यामी भगवान श्रीकृष्ण ने वसुदेव आदि गुरुजनों से अनुमति लेकर दारुक, जैत्र आदि सेवकों को इन्द्रप्रस्थ जाने की तैयारी करने के लिये आज्ञा दी।
इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने यदुराज उग्रसेन और बलराम जी से आज्ञा लेकर बाल-बच्चों के साथ रानियों और उनके सब सामानों को आगे चला दिया और फिर दारुक के लाये हुए गरुड़ध्वज रथ पर स्वयं सवार हुए।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकसप्ततितम अध्याय श्लोक 14-25 का हिन्दी अनुवाद)
इसके बाद रथों, हाथियों, घुड़सवारों और पैदलों की बड़ी भारी सेना के साथ उन्होंने प्रस्थान किया। उस समय मृदंग, नगारे, ढोल, शंख और नरसिंगों की ऊँची ध्वनि से दसों दिशाएँ गूँज उठीं।
सती शिरोमणि रुक्मिणी जी आदि सहस्रों श्रीकृष्ण की पत्नियाँ अपनी सन्तानों के साथ सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण चन्दन, अंगराग और पुष्पों के हार आदि से सज-धजकर डोलियों, रथों और सोने की बनी हुई पालकियों में चढ़कर अपने पतिदेव भगवान श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे चलीं। पैदल सिपाही हाथों में ढाल-तलवार लेकर उनकी रक्षा करते हुए चल रहे थे। इसी प्रकार अनुचरों की स्त्रियाँ और वारांगनाएँ भलीभाँति श्रृंगार करके खस आदि की झोपड़ियों, भाँति-भाँति के तंबुओं, कनातों, कम्बलों और ओढ़ने-बिछाने आदि की सामग्रियों को बैलों, भैंसों, गधों और खच्चरों पर लादकर तथा पालकी, ऊँट, छकड़ों और हथिनियों पर सवार होकर चलीं। जैसे मगरमच्छों और लहरों की उछल-कूद से क्षुब्ध समुद्र की शोभा होती है, ठीक वैसे ही अत्यन्त कोलाहल से परिपूर्ण, फहराती हुई बड़ी-बड़ी पताकाओं, छत्रों, चँवरों, श्रेष्ठ अस्त्र-शस्त्रों, वस्त्राभूणों, मुकुटों, कवचों और दिन के समय उन पर पड़ती हुई सूर्य की किरणों से भगवान श्रीकृष्ण की सेना अत्यन्त शोभायमान हुई।
देवर्षि नारद जी भगवान श्रीकृष्ण से सम्मानित होकर और उनके निश्चय को सुनकर प्रसन्न हुए। भगवान के दर्शन से उनका हृदय और समस्त इन्द्रियाँ परमानन्द में मग्न हो गयीं। विदा होने के समय भगवान श्रीकृष्ण ने उनका नाना प्रकार की सामग्रियों से पूजन किया। अब देवर्षि नारद ने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया और उनकी दिव्य मूर्ति को हृदय में धारण करके आकाश-मार्ग से प्रस्थान किया। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने जरासन्ध के बंदी नरपतियों के दूत को अपनी मधुर वाणी से आश्वासन देते हुए कहा- ‘दूत! तुम अपने राजाओं से जाकर कहना- 'डरो मत! तुम लोगो का कल्याण हो। मैं जरासन्ध को मरवा डालूँगा’। भगवान की ऐसी आज्ञा पाकर वह दूत गिरिव्रज चला गया और नरपतियों को भगवान श्रीकृष्ण का सन्देश ज्यों-का-त्यों सुना दिया। वे राजा भी कारागार से छूटने के लिये शीघ्र-से-शीघ्र भगवान के शुभ दर्शन की बाट जोहने लगे।
परीक्षित! अब भगवान श्रीकृष्ण आनर्त, सौवीर, मरू, कुरुक्षेत्र और उनके बीच में पड़ने वाले पर्वत, नदी, नगर, गाँव, अहीरों की बस्तियाँ तथा खानों को पार करते हुए आगे बढ़ने लगे।
भगवान मुकुन्द मार्ग में दृषद्वती एवं सरस्वती नदी पार करके पांचाल और मत्स्य देशों में होते हुए इन्द्रप्रस्थ जा पहुँचे। परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है। जब अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर को यह समाचार मिला कि भगवान श्रीकृष्ण पधार गये हैं, तब उनका रोम-रोम आनन्द से खिल उठा। वे अपने आचार्यों और स्वजन-सम्बन्धियों के साथ भगवान की अगवानी करने के लिये नगर से बाहर आये। मंगल-गीत गाये जाने लगे, बाजे बजने लगे, बहुत-से ब्राह्मण मिलकर ऊँचे स्वर से वेदमन्त्रों का उच्चारण करने लगे। इस प्रकार वे बड़े आदर से हृषीकेश भगवान का स्वागत करने के लिये चले, जैसे इन्द्रियाँ मुख्य प्राण से मिलने जा रही हों।
भगवान श्रीकृष्ण को देखकर राजा युधिष्ठिर का हृदय स्नेहातिरेक से गद्गद हो गया। उन्हें बहुत दिनों पर अपने प्रियतम भगवान श्रीकृष्ण को देखऩे का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अतः वे उन्हें बार-बार अपने हृदय से लगाने लगे।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकसप्ततितम अध्याय श्लोक 26-35 का हिन्दी अनुवाद)
भगवान श्रीकृष्ण का श्रीविग्रह भगवती लक्ष्मी जी का पवित्र और एकमात्र निवास-स्थान है। राजा युधिष्ठिर अपनी दोनों भुजाओं से उसका आलिंगन करके समस्त पाप-तापों से छुटकारा पा गये। वे सर्वतोभावेन परमानन्द के समुद्र में मग्न हो गये। नेत्रों में आँसू छलक आये, अंग-अंग पुलकित हो गया, उन्हें इस विश्व-प्रपंच के भ्रम का तनिक भी स्मरण न रहा। तदनन्तर भीमसेन ने मुसकराकर अपने ममेरे भाई श्रीकृष्ण का आलिंगन किया। इससे उन्हें बड़ा आनन्द मिला। उस समय उनके हृदय में इतना प्रेम उमड़ा कि उन्हें बाह्य विस्मृति-सी हो गयी। नकुल, सहदेव और अर्जुन ने भी अपने परम प्रियतम और हितैषी भगवान श्रीकृष्ण का बड़े आनन्द से आलिंगन प्राप्त किया। उस समय उनके नेत्रों में आँसुओं की बाढ़-सी आ गयी थी। अर्जुन ने पुनः भगवान श्रीकृष्ण का आलिंगन किया, नकुल और सहदेव ने अभिवादन किया और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों और कुरुवंशी वृद्धों को यथायोग्य नमस्कार किया।
कुरु, सृंजय और केकय देश के नरपतियों ने भगवान श्रीकृष्ण का सम्मान किया और भगवान श्रीकृष्ण ने भी उनका यथोचित सत्कार किया। सूत, मागध, बंदीजन और ब्राह्मण भगवान की स्तुति करने लगे तथा गन्धर्व, नट, विदूषक आदि मृदंग, शंख, नगारे, वीणा, ढोल और नरसिंगे बजा-बजाकर कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिये नाचने-गाने लगे। इस प्रकार परमयशस्वी भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सुहृद-स्वजनों के साथ सब प्रकार से सुसज्जित इन्द्रप्रस्थ नगर में प्रवेश किया। उस समय लोग आपस में भगवान श्रीकृष्ण की प्रशंसा करते चल रहे थे।
इन्द्रप्रस्थ नगर की सड़कें और गलियाँ मतवाले हाथियों के मद से तथा सुगन्धित जल से सींच दी गयी थीं। जगह-जगह रंग-बिरंगी झंडियाँ लगा दी गयी थीं। सुनहले तोरन बाँधे हुए थे और सोने के जल भरे कलश स्थान-स्थान पर शोभा पा रहे थे। नगर के नर-नारी नहा-धोकर तथा नये वस्त्र, आभूषण, पुष्पों के हार, इत्र-फुलेल आदि से सज-धजकर घूम रहे थे। घर-घर में ठौर-ठौर पर दीपक जलाये गये थे, जिनसे दीपावली की-सी छटा हो रही थी। प्रत्येक घर के झरोखों से धूप का धूआँ निकलता हुआ बहुत ही भला मालूम होता था। सभी घरों के ऊपर पताकाएँ फहरा रहीं थीं तथा सोने के कलश और चाँदी के शिखर जगमगा रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार के महलों से परिपूर्ण पाण्डवों की राजधानी इन्द्रप्रस्थ नगर को देखते हुए आगे बढ़ रहे थे।
जब युवतियों ने सुना कि मानव-नेत्रों के पानपात्र अर्थात् अत्यन्त दर्शनीय भगवान श्रीकृष्ण राजपथ पर आ रहे हैं, तब उनके दर्शन की उत्सुकता के आवेग से उनकी चोटियों और साड़ियों की गाँठें ढीली पड़ गयी। उन्होंने घर का काम-काज तो छोड़ ही दिया, सेज पर सोये हुए अपने पतियों को भी छोड़ दिया और भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिये राजपथ पर दौड़ आयीं। सड़क पर हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना की भीड़ लग रही थी। उन स्त्रियों ने अटारियों पर चढ़कर रानियों के सहित भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन किया, उनके ऊपर पुष्पों की वर्षा की और मन-ही-मन आलिंगन किया तथा प्रेमभरी मुस्कान एवं चितवन से उनका सुस्वागत किया।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकसप्ततितम अध्याय श्लोक 36-46 का हिन्दी अनुवाद)
नगर की स्त्रियाँ राजपथ पर चन्द्रमा के साथ विराजमान तारोओं के समान श्रीकृष्ण की पत्नियों को देखकर आपस में कहने लगीं- ‘सखी! इन बड़भागिनी रानियों ने न जाने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है, जिसके कारण पुरुषशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण अपने उन्मुक्त हास्य और विलासपूर्ण कटाक्ष से उनकी ओर देखकर उनके नेत्रों को परम आनन्द प्रदान करते हैं।'
इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण राजपथ से चल रहे थे। स्थान-स्थान पर बहुत-से निष्पाप धनी-मानी और शिल्पजीवी नागरिकों ने अनेकों मांगलिक वस्तुएँ ला-लाकर उनकी पूजा-अर्चा और स्वागत सत्कार किया। अन्तःपुर की स्त्रियाँ भगवान श्रीकृष्ण को देखकर प्रेम और आनन्द से भर गयीं। उन्होंने अपने प्रेमविह्वल और आनन्द से खिले नेत्रों के द्वारा भगवान का स्वागत किया और श्रीकृष्ण उनका स्वागत-सत्कार स्वीकार करते हुए राजमहल में पधारे।
जब कुन्ती ने अपने त्रिभुवनपति भतीजे श्रीकृष्ण को देखा, तब उनका हृदय प्रेम से भर आया। वे पलँग से उठकर अपनी पुत्रवधू द्रौपदी के साथ आगे गयीं और और भगवान श्रीकृष्ण को हृदय से लगा लिया। देवदेवेश्वर भगवान श्रीकृष्ण को राजमहल के अन्दर लाकर राजा युधिष्ठिर आदरभाव और आनन्द के उद्रेक से आत्म-विस्मृत हो गये; उन्हें इस बात की भी सुधि न रही कि किस क्रम से भगवान की पूजा करनी चाहिये। भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी फुआ कुन्ती और गुरुजनों की पत्नियों का अभिवादन किया। उनकी बहिन सुभद्रा और द्रौपदी ने भगवान को नमस्कार किया।
अपनी सास कुन्ती की की प्रेरणा से द्रौपदी ने वस्त्र, आभूषण, माला आदि के द्वारा रुक्मिणी, सत्यभामा, भद्रा, जांबवती, कालिंदी, मित्रविंदा, लक्ष्मणा और परम साध्वी सत्या- भगवान श्रीकृष्ण की इन पटरानियों का तथा वहाँ आयी हुई श्रीकृष्ण की अन्यान्य रानियों का भी यथायोग्य सत्कार किया। धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण को उनकी सेना, सेवक, मन्त्री और पत्नियों के साथ ऐसे स्थान में ठहराया, जहाँ उन्हें नित्य नयी-नयी सुख की सामग्रियाँ प्राप्त हों। अर्जुन के साथ रहकर भगवान श्रीकृष्ण ने खाण्डव वन का दाह करवाकर अग्नि को तृप्त किया था और मयासुर को उससे बचाया था।
परीक्षित! उस मयासुर ने ही धर्मराज युधिष्ठिर के लिये भगवान की आज्ञा से एक दिव्य सभा तैयार कर दी। भगवान श्रीकृष्ण राजा युधिष्ठिर को आनन्दित करने के लिये कई महीनों तक इन्द्रप्रस्थ में ही रहे। वे समय-समय पर अर्जुन के साथ रथ पर सवार होकर विहार करने के लिये इधर-उधर चले जाया करते थे। उस समय बड़े-बड़े वीर सैनिक भी उनकी सेवा के लिये साथ-साथ जाते।
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