सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - उत्तरार्ध ) का पचहत्तरवाँ, छिहत्तरवाँ, सतहत्तरवाँ, अठहत्तरवाँ व उन्यासीवाँ अध्याय [ Seventy-five , Seventy-six, Seventy-seven, Seventy-eight and Seventy-nine chapter chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【पचहत्तरवाँ अध्याय】७५


"राजसूय यज्ञ की पूर्ति और दुर्योधन का अपमान"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचसप्ततितम अध्याय श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

राजा परीक्षित् ने पूछा ;- भगवन्! अजातशत्रु धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ महोत्सव को देखकर, जितने मनुष्य, नरपति, ऋषि, मुनि और देवता आदि आये थे, वे सब आनन्दित हुए। परन्तु दुर्योधन को बड़ा दुःख, बड़ी पीड़ा हुई; यह बात मैंने आपके मुख से सुनी है। भगवन्! आप कृपा करके इसका कारण बतलाइये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! तुम्हरे दादा युधिष्ठिर बड़े महात्मा थे। उनके प्रेमबन्धन से बँधकर सभी बन्धु-बन्धावों ने राजसूय यज्ञ में विभिन्न सेवाकार्य स्वीकार्य किया था। भीमसेन भोजनालय की देख-रेख करते थे। दुर्योधन कोषाध्यक्ष थे। सहदेव अभ्यागतों के स्वागत-सत्कार में नियुक्त थे और नकुल विविध प्रकार की सामग्री एकत्र करने का काम देखते थे। अर्जुन गुरुजनों की सेवा-शुश्रूषा करते थे और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण आये हुए अतिथियों के पाँव पखारने का काम करते थे। देवी द्रौपदी भोजन परसने का काम करतीं और उदारशिरोमणि कर्ण खुले हाथों दान दिया करते थे।

परीक्षित! इसी प्रकार सात्यकि, विकर्ण, हार्दिक्य, विदुर, भूरिश्रवा आदि बाह्लीक के पुत्र और सन्तर्दन आदि राजसूय यज्ञ में विभिन्न कर्मों में नियुक्त थे। वे सब-के-सब वैसा ही काम करते थे, जिससे महाराज युधिष्ठिर का प्रिय और हित हो। परीक्षित! जब ऋत्विज्, सदस्य और बहुज्ञ पुरुषों का तथा अपने इष्ट-मित्र एवं बन्धु-बान्धवों का सुमधुर वाणी, विविध प्रकार की पूजा-सामग्री और दक्षिणा आदि से भलीभाँति सत्कार हो चुका था तथा शिशुपाल भक्तवत्सल भगवान के चरणों में समा गया, तब धर्मराज युधिष्ठिर गंगा जी में यज्ञान्त-स्नान करने गये। उस समय जब वे अवभृथ-स्नान करने लगे, तब मृदंग, शंख, ढोल, नौबत, नगारे और नर्तकियाँ आनन्द से झूम-झूमकर नाचने लगीं। झुंड-के-झुंड गवैये गाने लगे और वीणा, बाँसुरी तथा झाँझ-मँजीरे बजने लगे। इनकी तुमुल ध्वनि सारे आकाश में गूँज गयी। सोने के हार पहने हुए यदु, सृंजय, कम्बोज, कुरु, केकय और कोसल देश के नरपति रंग-बिरंगी ध्वजा-पताकाओं से युक्त और खूब सजे-धजे गजराजों, रथों, घोड़ों तथा सुसज्जित वीर सैनिकों के साथ महाराज युधिष्ठिर को आगे करके पृथ्वी को कँपाते हुए चल रहे थे। यज्ञ के सदस्य ऋत्विज् और बहुत-से श्रेष्ठ ब्राह्मण वेदमन्त्रों का ऊँचे स्वर से उच्चारण करते हुए चले। देवता, ऋषि, पितर, गन्धर्व आकाश से पुष्पों की वर्षा करते हुए उनकी स्तुति करने लगे।

इन्द्रप्रस्थ के नर-नारी इत्र-फुलेल, पुष्पों के हार, रंग-बिरंगे वस्त्र और बहुमूल्य आभूषणों से सज-धजकर एक-दूसरे पर जल, तेल, दूध, मक्खन आदि रस डालकर भिगो देते, एक-दूसरे के शरीर में लगा देते और इस प्रकार क्रीड़ा करते हुए चलने लगे। वारांगनाएँ पुरुषों को तेल, गोरस, सुगन्धित जल, हल्दी और गाढ़ी केसर मल देतीं और पुरुष भी उन्हें उन्हीं वस्तुओं से सराबोर कर देते। उस समय इस उत्सव को देखने के लिये जैसे उत्तम-उत्तम विमानों पर चढ़कर आकाश में बहुत-सी देवियाँ आयी थीं, वैसे ही सैनिकों के द्वारा सुरक्षित इन्द्रप्रस्थ की बहुत-सी राजमहिलाएँ भी सुन्दर-सुन्दर पालकियों पर सवार होकर आयी थीं। पाण्डवों के ममेरे भाई श्रीकृष्ण और उनके सखा उन रानियों के ऊपर तरह-तरह के रंग आदि डाल रहे थे। इससे रानियों के मुख लजीली मुसकराहट से खिल उठते थे और उनकी बड़ी शोभा होती थी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचसप्ततितम अध्याय श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद)

उन लोगों के रंग आदि डालने से रानियों के वस्त्र भीग गये थे। इससे उनके शरीर के अंग-प्रत्यंग- वक्षःस्थल, जंघा और कटिभाग कुछ-कुछ दीख-से रहे थे। वे भी पिचकारी और पात्रों में रंग भर-भरकर अपने देवरों और उनके सखाओं पर उड़ेल रही थीं। प्रेमभरी उत्सुकता के कारण उनकी चोटियों और जूड़ों के बन्धन ढीले पड़ गये थे तथा उनमें गूँथे हुए फूल गिरते जा रहे थे। परीक्षित! उनका यह रुचिर और पवित्र विहार देखकर मलिन अंतःकरण वाले पुरुषों का चित्त चंचल हो उठता था, काम-मोहित हो जाता था।

चक्रवर्ती राजा युधिष्ठिर द्रौपदी आदि रानियों के साथ सुन्दर-सुन्दर घोड़ों से युक्त एवं सोने के हारों से सुसज्जित रथ पर सवार होकर ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो स्वयं राजसूय यज्ञ प्रयाज आदि क्रियाओं के साथ मूर्तिमान् होकर प्रकट हो गया हो। ऋत्विजनों ने पत्नी-संयाज (एक प्रकार का यज्ञकर्म) तथा यज्ञान्त-स्नान सम्बन्धी कर्म करवाकर द्रौपदी के साथ सम्राट युधिष्ठिर को आचमन करवाया और इसके बाद गंगास्नान। उस समय मनुष्यों की दुन्दुभियों के साथ ही देवताओं की दुन्दभियाँ भी बजने लगीं। बड़े-बड़े देवता, ऋषि-मुनि, पितर और मनुष्य पुष्पों की वर्षा करने लगे। महाराज युधिष्ठिर के स्नान कर लेने के बाद सभी वर्णों एवं आश्रमों के लोगों ने गंगा जी में स्नान किया; क्योंकि इस स्नान से बड़े-से-बड़ा महापापी भी अपनी पाप-राशि से तत्काल मुक्त हो जाता है।

तदनन्तर धर्मराज युधिष्ठिर ने नयी रेशमी धोती और दुपट्टा धारण किया तथा विविध प्रकार के आभूषणों से अपने को सजा लिया। फिर ऋत्विज् सदस्य, ब्राह्मण आदि को वस्त्राभूषण दे-देकर उनकी पूजा की। महाराज युधिष्ठिर भगवत्परायण थे, उन्हें सब में भगवान के ही दर्शन होते। इसलिये वे भाई-बन्धु, कुटुम्बी, नरपति, इष्ट-मित्र, हितैषी और सभी लोगों की बार-बार पूजा करते। उस समय सभी लोग जड़ाऊ कुण्डल, पुष्पों के हार, पगड़ी, लंबी अँगरखी, दुपट्टा तथा मणियों के बहुमूल्य हार पहनकर देवताओं के समान शोभायमान हो रहे थे। स्त्रियों के मुखों की भी दोनों कानों के कर्णफूल और घुँघराली अलकों से बड़ी शोभा हो रही थी तथा उनके कटिभाग में सोने की करधनियाँ तो बहुत ही भली मालूम हो रही थीं।

परीक्षित! राजसूय यज्ञ में जितने लोग आये थे- परम शीलवान् ऋत्विज्, ब्रह्मवादी सदस्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, राजा, देवता, ऋषि, मुनि पितर तथा अन्य प्राणी और अपने अनुयायियों के साथ लोकपाल- इन सबकी पूजा महाराज युधिष्ठिर ने की। इसके बाद वे लोग धर्मराज से अनुमति लेकर अपने-अपने निवासस्थान को चले गये। परीक्षित! जैसे मनुष्य अमृतपान करते-करते कभी तृप्त नहीं हो सकता, वैसे ही सब लोग भगवद्भक्त राजर्षि युधिष्ठिर के राजसूय महायज्ञ की प्रशंसा करते-करते तृप्त न होते थे। इसके बाद धर्मराज युधिष्ठिर ने बड़े प्रेम से अपने हितैषी सुहृद्-सम्बन्धियों, भाई-बन्धुओं और भगवान श्रीकृष्ण को भी रोक लिया, क्योंकि उन्हें उसके विछोह की कल्पना से ही बड़ा दुःख होता था।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ने यदुवंशी वीर सांब आदि को द्वारकापुरी भेज दिया और स्वयं राजा युधिष्ठिर की अभिलाषा पूर्ण करने के लिये, उन्हें आनन्द देने के लिये वहीं रह गये। इस प्रकार धर्मनन्दन महाराज युधिष्ठिर मनोरथों के महान समुद्र को जिसे पार करना अत्यन्त कठिन है, भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से अनायास ही पार कर गये और उनकी सारी चिन्ता मिट गयी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचसप्ततितम अध्याय श्लोक 31-40 का हिन्दी अनुवाद)

एक दिन की बात है, भगवान के परम प्रेमी महाराज युधिष्ठिर के अन्तःपुर की सौन्दर्य-सम्पत्ति और राजसूय यज्ञ द्वारा प्राप्त महत्त्व को देखकर दुर्योधन का मन डाह से जलने लगा। परीक्षित! पाण्डवों के लिये मय दानव ने जो महल बना दिये थे, उसमें नरपति, दैत्यपति और सुरपतियों की विविध विभूतियाँ तथा श्रेष्ठ सौन्दर्य स्थान-स्थान पर शोभायमान था। उनके द्वारा राजरानी द्रौपदी अपने पतियों की सेवा करती थीं। उस राजभवन में उन दिनों भगवान श्रीकृष्ण की सहस्रों रानियाँ निवास करती थीं। नितम्ब के भारी-भार के कारण जब वे उस राजभवन में धीरे-धीरे चलने लगती थीं, तब उनके पायजेबों की झनकार चारों ओर फैल जाती थी। उनका कटिभाग बहुत ही सुन्दर था तथा उनके वक्षःस्थल पर लगी हुई केसर की लालिमा से मोतियों के सुन्दर श्वेत हार भी लाल-लाल जान पड़ते थे। कुण्डलों की और घुँघराली अलकों की चंचलता से उनके मुख की शोभा और भी बढ़ जाती थी। यह सब देखकर दुर्योधन के हृदय में बड़ी जलन होती।

परीक्षित! सच पूछो तो दुर्योधन का चित्त द्रौपदी में आसक्त था और यही उसकी जलन का मुख्य कारण भी था। एक दिन राजाधिराज महाराज युधिष्ठिर अपने भाइयों, सम्बन्धियों एवं अपने नयनों के तारे परम हितैषी भगवान श्रीकृष्ण के साथ मय दानव की बनायी सभा में स्वर्ण सिंहासन पर देवराज इन्द्र के समान विराजमान थे। उनकी भोग-सामग्री, उनकी राज्यलक्ष्मी ब्रह्मा जी के ऐश्वर्य के समान थी। वंदीजन उनकी स्तुति कर रहे थे। उसी समय अभिमानी दुर्योधन अपने दु:शासन आदि भाइयों के साथ वहाँ आया। उसके सिर पर मुकुट, गले में माला और हाथ में तलवार थी। परीक्षित! वह क्रोधवश द्वारपालों और सेवकों को झिड़क रहा था। उस सभा में मय दानव ने ऐसी माया फैला रखी थी कि दुर्योधन ने उससे मोहित हो स्थल को जल समझकर अपने वस्त्र समेट लिये और जल को स्थल समझकर वह उसमें गिर पड़ा। उसको गिरते देखकर भीमसेन, राजरानियाँ तथा दूसरे नरपति हँसने लगे। यद्यपि युधिष्ठिर उन्हें ऐसा करने से रोक रहे थे, परन्तु प्यारे परीक्षित! उन्हें इशारे से श्रीकृष्ण का अनुमोदन प्राप्त हो चुका था। इससे दुर्योधन लज्जित हो गया, उसका रोम-रोम क्रोध से जलने लगा। अब वह मुँह लटकाकर चुपचाप सभा भवन से निकलकर हस्तिनापुर चला गया। इस घटना को देखकर सत्पुरुषों में हाहाकार मच गया और धर्मराज युधिष्ठिर का मन भी कुछ खिन्न-सा हो गया।

परीक्षित! यह सब होने पर भी भगवान श्रीकृष्ण चुप थे। उनकी इच्छा थी कि किसी प्रकार पृथ्वी का भार उतर जाये और सच पूछो तो उन्हीं की दृष्टि से दुर्योधन को वह भ्रम हुआ था। परीक्षित! तुमने मुझसे यह पूछा था कि उस महान राजसूय यज्ञ में दुर्योधन को डाह क्यों हुआ? जलन क्यों हुई? सो वह सब मैंने तुम्हें बतला दिया।

                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【छिहत्तरवाँ अध्याय】७६

                         "शाल्व के साथ यादवों का युद्ध"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्सप्ततितम अध्याय श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अब मनुष्य की-सी लीला करने वाले भगवान श्रीकृष्ण का एक और भी अद्भुत चरित्र सुनो। इसमें यह बतलाया जायेगा कि सौभ नामक विमान का अधिपति शाल्व किस प्रकार भगवान के हाथ से मारा गया। शाल्व शिशुपाल का सखा था और रुक्मिणी के विवाह के अवसर पर बारात में शिशुपाल की ओर से आया हुआ था। उस समय यदुवंशियों ने युद्ध में जरासन्ध आदि के साथ-साथ शाल्व को भी जीत लिया था। उस दिन सब राजाओं के सामने शाल्व ने यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘मैं पृथ्वी से यदुवंशियों को मिटाकर छोडूँगा, सब लोग मेरा बल-पौरुष देखना’।

परीक्षित! मूढ़ शाल्व ने इस प्रकार प्रतिज्ञा करके देवाधिदेव भगवान पशुपति की आराधना प्रारम्भ की। वह उन दिनों दिन में केवल एक बार मुट्टी भर राख फाँक लिया करता था। यों तो पार्वतीपति भगवान शंकर आशुतोष हैं, औढरदानी हैं, फिर भी वे शाल्व का घोर संकल्प जानकार एक वर्ष के बाद प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने शरणागत शाल्व से वर माँगने के लिये कहा। उस समय शाल्व ने यह वर माँगा कि ‘मुझे आप ऐसा विमान दीजिये जो देवता, असुर, गन्धर्व, नाग और राक्षसों से तोड़ा न जा सके; जहाँ इच्छा हो, वहीं चला जाये और यदुवंशियों के लिये अत्यन्त भयंकर हो’। भगवान शंकर ने कह दिया ‘तथास्तु!’ इसके बाद उनकी आज्ञा से विपक्षियों के नगर जीतने वाले मय दानव ने लोहे का सौभ नामक विमान बनाया आर शाल्व को दे दिया। वह विमान क्या था एक नगर ही था। वह इतना अन्धकारमय था कि उसे देखना या पकड़ना अत्यन्त कठिन था। चलाने वाला उसे जहाँ ले जाना चाहता, वहीं वह उसके इच्छा करते ही चला जाता था। शाल्व ने वह विमान प्राप्त करके द्वारका पर चढ़ाई कर दी, क्योंकि वह वृष्णिवंशी यादवों द्वारा किये हुए वैर को स्मरण रखता था।

परीक्षित! शाल्व ने अपनी बहुत बड़ी सेना से द्वारका को चारों ओर से घेर लिया और फिर उसके फल-फूल से लदे उपवन और उद्यानों को उजाड़ने और नगर द्वारों, फाटकों, राजमहलों, अटारियों, दीवारों और नागरिकों के मनोविनोद के स्थानों को नष्ट-भ्रष्ट करने लगा। उस श्रेष्ठ विमान से शस्त्रों की झड़ी लग गयी। बड़ी-बड़ी चट्टानें, वृक्ष, वज्र, सर्प और ओले बरसने लगे। बड़े जोर का बवंडर उठ खड़ा हुआ। चारों ओर धूल-ही-धूल छा गयी। परीक्षित! प्राचीन काल में जैसे त्रिपुरासुर ने सारी पृथ्वी को पीड़ित कर रखा था, वैसे ही शाल्व के विमान ने द्वारकापुरी को अत्यन्त पीड़ित कर दिया। वहाँ के नर-नारियों को कहीं एक क्षण के लिये भी शान्ति न मिलती थी।

परमयशस्वी वीर भगवान प्रद्युम्न ने देखा- हमारी प्रजा को बड़ा कष्ट हो रहा है, तब उन्होंने रथ पर सवार होकर सबको ढाढ़स बँधाया और कहा कि ‘डरो मत’। उनके पीछे-पीछे सात्यकि, चारुदेष्ण, सांब, भाइयों के साथ अक्रूर, कृतवर्मा, भानुविन्द, गद, शुक, सारण आदि बहुत-से वीर बड़े-बड़े धनुष धारण करके निकले। वे सब-के-सब महारथी थे। सब ने कवच पहन रखे थे और सबकी रक्षा के लिये बहुत-से रथ, हाथी, घोड़े तथा पैदल सेना साथ-साथ चल रही थी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्सप्ततितम अध्याय श्लोक 16-29 का हिन्दी अनुवाद)

इसके बाद प्राचीन काल में जैसे देवताओं के साथ असुरों का घमासान युद्ध हुआ था, वैसे ही शाल्व के सैनिकों और यदुवंशियों का युद्ध होने लगा। उसे देखकर लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते थे। प्रद्युम्न जी ने अपने दिव्य अस्त्रों से क्षण भर में ही सौभपति शाल्व की सारी माया काट डाली; ठीक वैसे ही जैसे सूर्य अपनी प्रखर किरणों से रात्रि का अन्धकार मिटा देते हैं। प्रद्युम्न जी के बाणों में सोने के पंख एवं लोहे के फल लगे हुए थे। उनकी गाँठें जान नहीं पड़तीं थीं। उन्होंने ऐसे ही पचीस बाणों से शाल्व के सेनापति को घायल कर दिया। परममनस्वी प्रद्युम्न जी ने सेनापति के साथ ही शाल्व को भी सौ बाण मारे, फिर प्रत्येक सैनिक को एक-एक और सारथि को दस-दस तथा वाहनों को तीन-तीन बाणों से घायल किया। महामना प्रद्युम्न जी के इस अद्भुत और महान कर्म को देखकर अपने एवं पराये-सभी सैनिक उनकी प्रशंसा करने लगे।

परीक्षित! मय दानव का बनाया हुआ शाल्व का वह विमान अत्यन्त मायामय था। वह इतना विचित्र था कि कभी अनेक रूपों में दीखता तो कभी एक रूप में, कभी दीखता तो कभी न भी दीखता। यदुवंशियों को इस बात का पता ही न चलता कि वह इस समय कहाँ है। वह कभी पृथ्वी पर आ जाता तो कभी आकाश में उड़ने लगता। कभी पहाड़ की चोटी पर चढ़ जाता तो कभी जल में तैरने लगता। वह अलात चक्र के समान-मानो कोई दुमुँही लुकारियों की बनेठी भाँज रहा हो-घूमता रहता था, एक क्षण के लिए भी कहीं ठहरता न था। शाल्व अपने विमान और सैनिकों के साथ जहाँ-जहाँ दिखायी पड़ता, वहीं-वहीं यदुवंशी सेनापति बाणों की झड़ी लगा देते थे। उनके बाण सूर्य और अग्नि के समान जलते हुए तथा विषैले साँप की तरह असह्य होते थे। उनसे शाल्व का नागराकर विमान और सेना अत्यन्त पीड़ित हो गयी, यहाँ तक कि यदुवंशियों के बाणों से शाल्व स्वयं मूर्च्छित हो गया।

परीक्षित! शाल्व के सेनापतियों ने भी यदुवंशियों पर खूब शस्त्रों की वर्षा कर रखी थी, इससे वे अत्यन्त पीड़ित थे; परन्तु उन्होंने अपना-अपना मोर्चा छोड़ा नहीं। वे सोचते थे कि मरेंगे तो परलोक बनेगा और जीतेंगे तो विजय की प्राप्ति होगी। परीक्षित! शाल्व के मन्त्री का नाम द्युमान, जिसे पहले प्रद्युम्न जी ने पचीस बाण मारे थे, वह बहुत बली था। उसने झपटकर प्रद्युम्न जी पर अपनी फौलादी गदा से बड़े जोर से प्रहार किया और ‘मार लिया, मार लिया’ कहकर गरजने लगा।

परीक्षित! गदा की चोट से शत्रुदमन प्रद्युम्न जी का वक्षःस्थल फट-सा गया। दारुक का पुत्र उनका रथ हाँक रहा था। वह सारथि धर्म के अनुसार उन्हें रणभूमि से हटा ले गया। दो घड़ी में प्रद्युम्न जी की मूर्च्छा टूटी। तब उन्होंने सारथि से कहा- ‘सारथे! तूने यह बहुत बुरा किया। हाय, हाय! तू मुझे रणभूमि से हटा लाया? सूत! हमने ऐसा कभी नहीं सुना कि हमारे वंश का कोई भी वीर रणभूमि छोड़कर अलग हट गया हो! यह कलंक का टीका तो मेरे ही सिर लगा। सचमुच सूत! तू कायर है, नपुंसक है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्सप्ततितम अध्याय श्लोक 30-33 का हिन्दी अनुवाद)

बतला तो सही, अब मैं अपने ताऊ बलराम जी और पिता श्रीकृष्ण के सामने जाकर क्या कहूँगा? अब तो सब लोग यही कहेंगे न, कि मैं युद्ध से भग गया? उनके पूछने पर मैं अपने अनुरूप क्या उत्तर दे सकूँगा। मेरी भाभियाँ हँसती हुई मुझसे साफ-साफ पूछेंगी कि ‘कहो, वीर! तुम नपुंसक कैसे हो गये? दूसरों ने युद्ध में तुम्हें नीचा कैसे दिखा दिया? सूत! अवश्य ही तुमने मुझे रणभूमि से भगाकर अक्षम्य अपराध किया है’।

सारथी ने कहा ;- आयुष्मन! मैंने जो कुछ किया है, सारथी धर्म समझकर ही किया है। मेरे समर्थ स्वामी! युद्ध का ऐसा धर्म है कि संकट पड़ने पर सारथी रथी की रक्षा कर ले और रथी सारथी की। इस धर्म को समझते हुए ही मैंने आपको रणभूमि से हटाया है। शत्रु ने आप पर गदा का प्रहार किया था, जिससे आप मुर्च्छित हो गये थे, बड़े संकट में थे; इसी से मुझे ऐसा करना पड़ा।

                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【सतहत्तरवाँ अध्याय】७७


                                  "शाल्व-उद्धार"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तसप्ततितम अध्याय श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- अब प्रद्युम्न जी ने हाथ-मुँह धोकर, कवच पहन धनुष धारण किया और सारथी से कहा कि ‘मुझे वीर द्युमान के पास फिर से ले चलो’। उस समय द्युमान यादव सेना को तहस-नहस कर रहा था। प्रद्युम्न जी ने उसके पास पहुँचकर उसे ऐसा करने से रोक दिया और मुसकराकर आठ बाण मारे। चार बाणों से उनके चार घोड़े और एक-एक बाण से सारथी, धनुष, ध्वजा और उसका सिर काट डाला। इधर गद, सात्यकि, साम्ब आदि यदुवंशी वीर भी शाल्व की सेना का संहार करने लगे। सौभ विमान पर चढ़े हुए सैनिकों की गरदनें कट जातीं और वे समुद्र में गिर पड़ते।

इस प्रकार यदुवंशी और शाल्व के सैनिक एक-दूसरे पर प्रहार करते रहे। बड़ा ही घमासान और भयंकर युद्ध हुआ और वह लगातार सत्ताईस दिनों तक चलता रहा। उन दिनों भगवान श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर के बुलाने से इन्द्रप्रस्थ गये हुए थे। राजसूय यज्ञ हो चुका था और शिशुपाल की भी मृत्यु हो गयी थी। वहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि बड़े भयंकर अपशकुन हो रहे हैं। तब उन्होंने कुरु वंश के बड़े-बूढ़ों, ऋषि-मुनियों, कुन्ती और पाण्डवों से अनुमति लेकर द्वारका के लिये प्रस्थान किया। वे मन-ही-मन कहने लगे कि ‘मैं पूज्य भाई बलराम जी के साथ यहाँ चला आया। अब शिशुपाल के पक्षपाती क्षत्रिय अवश्य ही द्वारका पर आक्रमण कर रहे होंगे’।

भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारका पहुँचकर देखा कि सचमुच यादवों पर बड़ी विपत्ति आयी है। तब उन्होंने बलराम जी को नगर की रक्षा के लिये नियुक्त कर दिया और सौभपति शाल्व को देखकर अपने सारथि दारुक से कहा- ‘दारुक! तुम शीघ्र-से-शीघ्र मेरा रथ शाल्व के पास ले चलो। देखो, यह शाल्व बड़ा मायावी है, तो भी तुम तनिक भी भय न करना’। भगवान की ऐसी आज्ञा पाकर दारुक रथ पर चढ़ गया और उसे शाल्व की ओर ले चला। भगवान के रथ की ध्वजा गरुड़चिह्नों से चिह्नित थी। उसे देखकर यदुवंशियों तथा शाल्व की सेना के लोगों ने युद्धभूमि में प्रवेश करते ही भगवान को पहचान लिया।

परीक्षित! तब तक शाल्व की सारी सेना प्रायः नष्ट हो चुकी थी। भगवान श्रीकृष्ण को देखते ही उसने उनके सारथी पर एक बहुत बड़ी शक्ति चलायी। वह शक्ति बड़ा भयंकर शब्द करती हुई आकाश में बड़े वेग से चल रही थी और बहुत बड़े लूक के समान जान पड़ती थी। उसके प्रकाश से दिशाएँ चमक उठी थीं। उसे सारथी की ओर आते देख भगवान श्रीकृष्ण ने अपने बाणों से उसके सैकड़ों टुकड़े कर दिये। इसके बाद उन्होंने शाल्व को सोलह बाण मारे और उसके विमान को भी, जो आकाश में घूम रहा था, असंख्य बाणों से चलनी कर दिया- ठीक वैसे ही जैसे सूर्य अपनी किरणों से आकाश को भर देता है। शाल्व ने भगवान श्रीकृष्ण की बायीं भुजा में जिसमें शारंग धनुष शोभायमान था, बाण मारा, इससे शारंग धनुष भगवान के हाथ से छूटकर गिर पड़ा। यह एक अद्भुत घटना घट गयी। जो लोग आकाश या पृथ्वी से यह युद्ध देख रहे थे, वे बड़े जोर से ‘हाय-हाय’ पुकार उठे। अब शाल्व ने गरजकर भगवान श्रीकृष्ण से यों कहा- ‘मूढ़! तूने हम लोगों के देखते-देखते हमारे भाई और सखा शिशुपाल की पत्नी को हर लिया तथा भरी सभा में, जबकि हमारा मित्र शिशुपाल असावधान था, तूने उसे मार डाला।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तसप्ततितम अध्याय श्लोक 18-30 का हिन्दी अनुवाद)

मैं जानता हूँ कि तू अपने को अजेय मानता है। यदि मेरे सामने ठहर गया तो मैं आज तुझे अपने तीखे बाणों से वहाँ पहुँचा दूँगा, जहाँ से फिर कोई लौटकर नहीं आता’।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- ‘रे मन्द! तू वृथा ही बहक रहा है। तुझे पता नहीं कि तेरे सिर पर मौत सवार है। शूरवीर व्यर्थ की बकवाद नहीं करते, वे अपनी वीरता ही दिखलाया करते हैं’। इस प्रकार कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने क्रोधित हो अपनी अत्यन्त वेगवती और भयंकर गदा से शाल्व के जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया। इससे वह खून उगलता हुआ काँपने लगा। इधर जब गदा भगवान के पास लौट आयी, तब शाल्व अन्तर्धान हो गया।

इसके बाद दो घड़ी बीतते-बीतते एक मनुष्य ने भगवान के पास पहुँचकर उनको सिर झुकाकर प्रणाम किया और वह रोता हुआ बोला- ‘मुझे आपकी माता देवकी जी ने भेजा है। उन्होंने कहा है कि अपने पिता के प्रति अत्यन्त प्रेम रखने वाले महाबाहु श्रीकृष्ण! शाल्व तुम्हारे पिता को उसी प्रकार बाँधकर ले गया है, जैसे कोई कसाई पशु को बाँधकर ले जाये’। यह अप्रिय समाचार सुनकर भगवान श्रीकृष्ण मनुष्य-से बन गये। उनके मुँह पर कुछ उदासी छा गयी। वे साधारण पुरुष के समान अत्यन्त करुणा और स्नेह से कहने लगे- ‘अहो! मेरे भाई बलराम जी को तो देवता अथवा असुर कोई नहीं जीत सकता। वे सदा-सर्वदा सावधान रहते हैं। शाल्व का बल-पौरुष तो अत्यन्त अल्प है। फिर भी इसने उन्हें कैसे जीत लिया और कैसे मेरे पिताजी को बाँधकर ले गया? सचमुच, प्रारब्ध बहुत बलवान है’।

भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार कह ही रहे थे कि शाल्व वसुदेव जी के समान एक मायारचित मनुष्य लेकर वहाँ आ पहुँचा और श्रीकृष्ण से कहने लगा- ‘मूर्ख! देख, यही तुझे पैदा करने वाला तेरा बाप है, जिसके लिये तू जी रहा है। तेरे देखते-देखते मैं इसका काम तमाम करता हूँ। कुछ बल-पौरुष हो, तो इसे बचा’। मायावी शाल्व ने इस प्रकार भगवान को फटकार कर मायारचित वसुदेव का सिर तलवार से काट लिया और उसे लेकर अपने आकाशस्थ विमान पर जा बैठा।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण स्वयंसिद्ध ज्ञानस्वरूप और महानुभाव हैं। वे यह घटना देखकर दो घड़ी के लिये अपने स्वजन वसुदेव जी के प्रति अत्यन्त प्रेम होने के कारण साधारण पुरुषों के समान शोक में डूब गये। परन्तु फिर वे जान गये कि यह तो शाल्व की फैलायी हुई आसुरी माया ही है, जो उसे मय दानव ने बतलायी थी। भगवान श्रीकृष्ण ने युद्धभूमि में सचेत होकर देखा- न वहाँ दूत है और न पिता का वह शरीर; जैसे स्वप्न में एक दृश्य दीखकर लुप्त हो गया हो! उधर देखा तो शाल्व विमान पर चढ़कर आकाश में विचर रहा है। तब वे उसका वध करने के लिये उद्यत हो गये।

प्रिय परीक्षित! इस प्रकार की बात पूर्वापर का विचार न करने वाले कोई-कोई ऋषि कहते हैं। अवश्य ही वे इस बात को भूल जाते हैं कि श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में ऐसा कहना उन्हीं के वचनों के विपरीत है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तसप्ततितम अध्याय श्लोक 31-37 का हिन्दी अनुवाद)

कहाँ अज्ञानियों में रहने वाले शोक, मोह, स्नेह और भय; तथा कहाँ वे परिपूर्ण भगवान श्रीकृष्ण- जिनका ज्ञान, विज्ञान और ऐश्वर्य अखण्डित है, एकरस है (भला उनमें वैसे भावों की सम्भावना ही कहाँ है?) बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की सेवा करके आत्मविद्या का भलीभाँति सम्पादन करते हैं और उसके द्वारा शरीर आदि में आत्मबुद्धि रूप अनादि अज्ञान को मिटा डालते हैं तथा आत्मसम्बन्धी अनन्त ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं। उन संतों के परमगतिस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण में भला, मोह कैसे हो सकता है।

अब शाल्व भगवान श्रीकृष्ण पर बड़े उत्साह और वेग से शस्त्रों की वर्षा करने लगा था। अमोघशक्ति भगवान श्रीकृष्ण ने भी अपने बाणों से शाल्व को घायल कर दिया और उनके कवच, धनुष तथा सिर की मणि को छिन्न-भिन्न कर दिया। साथ ही गदा की चोट से उसके विमान को भी जर्जर कर दिया।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण के हाथों से चलायी हुई गदा से वह विमान चूर-चूर होकर समुद्र में गिर पड़ा। गिरने से पहले ही शाल्व हाथ में गदा लेकर धरती पर कूद पड़ा और सावधान होकर बड़े वेग से भगवान श्रीकृष्ण की ओर झपटा। शाल्व को आक्रमण करते देख उन्होंने भाले से गदा के साथ उसका हाथ काट गिराया। फिर उसे मार डालने के लिये उन्होंने प्रलयकालीन सूर्य के समान तेजस्वी और अत्यन्त अद्भुत सुदर्शन चक्र धारण कर लिया। उस समय उनकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो सूर्य के साथ उदयाचल शोभायमान हो।

भगवान श्रीकृष्ण ने उस चक्र से परममायवी शाल्व का कुण्डल-किरीट सहित सिर धड़ से अलग कर दिया; ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्र ने वज्र से वृत्रासुर का सिर काट डाला था। उस समय शाल्व के सैनिक अत्यन्त दुःख से ‘हाय-हाय’ चिल्ला उठे।

परीक्षित! जब पापी शाल्व मर गया और उसका विमान भी गदा के प्रहार से चूर-चूर हो गया, तब देवता लोग आकाश में दुन्दुभियाँ बजाने लगे। ठीक इसी समय दन्तवक्त्र अपने मित्र शिशुपाल आदि का बदला लेने के लिये अत्यन्त क्रोधित हो आ पहुँचा।

                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【अठहत्तरवाँ अध्याय】७८

"दन्तवक्त्र और विदूरथ का उद्धार तथा तीर्थयात्रा में बलराम जी के हाथ से सूत जी का वध"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टसप्तसप्ततितम अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! शिशुपाल, शाल्व और पौण्ड्रक के मारे जाने पर उनकी मित्रता का ऋण चुकाने के लिये मूर्ख दन्तवक्त्र अकेला ही पैदल युद्धभूमि में आ धमका। वह क्रोध के मारे आग-बबूला हो रहा था। शस्त्र के नाम पर उसके हाथ में एकमात्र गदा थी। परन्तु परीक्षित! लोगों ने देखा, वह इतना शक्तिशाली है कि उसके पैरों कि धमक से पृथ्वी हिल रही है।

भगवान श्रीकृष्ण ने जब उसे इस प्रकार आते देखा, तब झटपट हाथ में गदा लेकर वे रथ से कूद पड़े। फिर जैसे समुद्र के तट की भूमि उसके ज्वार-भाटे को आगे बढ़ने से रोक देती है, वैसे ही उन्होंने उसे रोक दिया। घमंड के नशे में चूर करुषनरेश दन्तवक्त्र ने गदा तानकर भगवान श्रीकृष्ण से कहा- ‘बड़े सौभाग्य और आनन्द की बात है कि आज तुम मेरी आँखों के सामने पड़ गये। कृष्ण! तुम मेरे मामा के लड़के हो, इसलिये तुम्हें मारना तो नहीं चाहिये; परन्तु एक तो तुमने मेरे मित्रों को मार डाला है और दूसरे एक मुझे भी मारना चाहते हो। इसलिये मतिमन्द! आज मैं तुम्हें अपनी वज्रकर्कश गदा से चूर-चूर कर डालूँगा। मूर्ख! वैसे तो तुम मेरे सम्बन्धी हो, फिर भी हो शत्रु ही, जैसे अपने ही शरीर में रहने वाला कोई रोग हो। मैं अपने मित्रों से बड़ा प्रेम करता हूँ, उनका मुझ पर ऋण है। अब तुम्हें मारकर ही मैं उनके ऋण से उऋण हो सकता हूँ।'

जैसे महावत अंकुश से हाथी को घायल करता है, वैसे ही दन्तवक्त्र ने अपनी कड़वी बातों से श्रीकृष्ण को चोट पहुँचाने की चेष्टा की और फिर वह उनके सिर पर बड़े वेग से गदा मारकर सिंह के समान गरज उठा। रणभूमि में गदा की चोट खाकर भी भगवान श्रीकृष्ण टस-से-मस नहीं हुए। उन्होंने अपनी बहुत बड़ी कौमोदकी गदा सँभालकर उससे दन्तवक्त्र के वक्षःस्थल पर प्रहार किया। गदा की चोट से दन्तवक्त्र का कलेजा फट गया। वह मुँह से खून उगलने लगा। उसके बाल बिखर गये, भुजाएँ और पैर फैल गये। निदान निष्प्राण होकर वह धरती पर गिर पड़ा। परीक्षित! जैसा कि शिशुपाल की मृत्यु के समय हुआ था, सब प्राणियों के सामने ही दन्तवक्त्र के मृत शरीर से एक अत्यन्त सूक्ष्म ज्योति निकली और वह बड़ी विचित्र रीति से भगवान श्रीकृष्ण में समा गयी।

दन्तवक्त्र के भाई का नाम था विदूरथ। वह अपने भाई की मृत्यु से अत्यन्त शोकाकुल हो गया। अब वह क्रोध के मारे लम्बी-लम्बी साँस लेता हुआ हाथ में ढाल-तलवार लेकर भगवान श्रीकृष्ण को मार डालने की इच्छा से आया। राजेन्द्र! जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि अब वह प्रहार करना ही चाहता है, तब उन्होंने अपने छुरे के समान तीखी धार वाले चक्र से किरीट और कुण्डल के साथ उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टसप्तसप्ततितम अध्याय श्लोक 13-27 का हिन्दी अनुवाद)

इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने शाल्व, उसके विमान सौभ, दन्तवक्त्र और विदूरथ को, जिन्हें मारना दूसरों के लिये अशक्य था, मारकर द्वारकापुरी में प्रवेश किया। उस समय देवता और मनुष्य उनकी स्तुति कर रहे थे। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, सिद्ध-गन्धर्व, विद्याधर और वासुकि आदि महानाग, अप्सराएँ, पितर, यक्ष, किन्नर तथा चारण उनके ऊपर पुष्पों की वर्षा करते हुए उनकी विजय के गीत गा रहे थे। भगवान के प्रवेश के अवसर पर पुरी खूब सजा दी गयी थी और बड़े-बड़े वृष्णिवंशी यादव वीर उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। योगेश्वर एवं जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण इसी प्रकार अनेकों खेल खेलते रहते हैं। जो पशुओं के समान अविवेकी हैं, वे उन्हें कभी हारते भी देखते हैं। परन्तु वास्तव में तो वे सदा-सर्वदा विजयी ही हैं।

एक बार बलराम जी ने सुना कि दुर्योधन आदि कौरव पाण्डवों के साथ युद्ध करने की तैयारी कर रहे हैं। वे मध्यस्थ थे, उन्हें किसी का पक्ष लेकर लड़ना पसंद नहीं था। इसलिये वे तीर्थों में स्नान करने के बहाने द्वारका से चले गये। वहाँ से चलकर उन्होंने प्रभास क्षेत्र में स्नान किया और तर्पण तथा ब्राह्मण भोजन के द्वारा देवता, ऋषि, पितर और मनुष्यों को तृप्त किया। इसके बाद वे कुछ ब्राह्मणों के साथ जिधर से सरस्वती नदी आ रही थी, उधर ही चल पड़े। वे क्रमशः पृथूदक, बिन्दुसर, त्रितकूप, सुदर्शन तीर्थ, विशालतीर्थ, ब्रह्मतीर्थ चक्रतीर्थ और पूर्ववाहिनी सरस्वती आदि तीर्थों में गये।

परीक्षित! तदनन्तर यमुनातट और गंगातट के प्रधान-प्रधान तीर्थों में होते हुए वे नैमिषारण्य क्षेत्र में गये। उन दिनों नैमिषारण्य क्षेत्र में बड़े-बड़े ऋषि सत्संगरूप महान सत्र कर रहे थे। दीर्घकाल तक सत्संग सत्र का नियम लेकर बैठे हुए ऋषियों ने बलराम जी को आया देख अपने-अपने आसनों से उठकर उनका स्वागत-सत्कार किया और यथायोग्य प्रणाम-आशीर्वाद करके उनकी पूजा की। वे अपने साथियों के साथ आसन ग्रहण करके बैठ गये और उनकी अर्चा-पूजा हो चुकी, तब उन्होंने देखा कि भगवान व्यास के शिष्य रोमहर्षण व्यासगद्दी पर बैठे हुए हैं।

बलराम जी ने देखा कि रोमहर्षण जी सूत-जाति में उत्पन्न होने पर भी उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों से ऊँचे आसन पर बैठे हुए हैं और उनके आने पर न तो उठकर स्वागत करते हैं और न हाथ जोड़कर प्रणाम ही। इस पर बलराम जी को क्रोध आ गया। वे कहने लगे कि ‘यह रोमहर्षण प्रतिलोम जाति का होने पर भी इन श्रेष्ठ ब्राह्मणों से तथा धर्म के रक्षक हम लोगों से ऊपर बैठा हुआ है, इसलिये यह दुर्बुद्धि मृत्युदण्ड का पात्र है। भगवान व्यासदेव का शिष्य होकर इसने इतिहास, पुराण, धर्मशास्त्र आदि बहुत-से शास्त्रों का अध्ययन भी किया है; परन्तु अभी इसका अपने मन पर संयम नहीं है। यह विनयी नहीं, उद्दण्ड है। इस अजातितात्मा ने झूठमूठ अपने को बहुत बड़ा पण्डित मान रखा है। जैसे नटकी सारी चेष्टाएँ अभिनयमात्र होती हैं, वैसे ही इसका सारा अध्ययन स्वाँग के लिये है। उससे न इसका लाभ है और न किसी दूसरे का। जो लोग धर्म का चिह्न धारण करते हैं, परन्तु धर्म का पालन नहीं करते, वे अधिक पापी हैं और वे मेरे लिये वध करने योग्य हैं। इस जगत् में इसीलिये मैंने अवतार धारण किया है’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टसप्तसप्ततितम अध्याय श्लोक 28-40 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान बलराम यद्यपि तीर्थयात्रा के कारण दुष्टों के वध से भी अलग हो गये थे, फिर भी इतना कहकर उन्होंने अपने हाथ में स्थित कुश की नोक से उन पर प्रहार कर दिया और वे तुरंत मर गये। होनहार ही ऐसी थी। सूत जी के मरते ही सब ऋषि-मुनि हाय-हाय करने लगे, सबके चित्त खिन्न हो गये। उन्होंने देवाधिदेव भगवान बलराम जी से कहा- ‘प्रभो! आपने यह बहुत बड़ा अधर्म किया। यदुवंशशिरोमणे! सूत जी को हम लोगों ने ही ब्राह्मणोंचित आसन पर बैठाया था और जब तक हमारा यह सत्र समाप्त न हो, तब तक के लिये उन्हें शारीरिक कष्ट से रहित आयु भी दे दी थी। आपने अनजान में यह ऐसा काम कर दिया, जो ब्रह्महत्या के समान है। हम लोग यह मानते हैं कि आप योगेश्वर हैं, वेद भी आप पर शासन नहीं कर सकता। फिर भी आपसे यह प्रार्थना है कि आपका अवतार लोगों को पवित्र करने के लिये हुआ है; यदि आप किसी की प्रेरणा के बिना स्वयं अपनी इच्छा से ही इस ब्रह्महत्या का प्रायश्चित कर लेंगे तो इससे लोगों को बहुत शिक्षा मिलेगी’।

भगवान बलराम ने कहा ;- मैं लोगों को शिक्षा देने के लिये, लोगों पर अनुग्रह करने के लिये इस ब्रह्महत्या का प्रायश्चित अवश्य करूँगा, अतः इसके लिये प्रथम श्रेणी का जो प्रायश्चित हो, आप लोग उसी का विधान कीजिये। आप लोग इस सूत को लम्बी आयु, बल, इन्द्रिय-शक्ति आदि जो कुछ भी देना चाहते हों, मुझे बतला दीजिये; मैं अपने योगबल से सब कुछ सम्पन्न किये देता हूँ।

ऋषियों ने कहा ;- 'बलराम जी! आप ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे आपका शस्त्र, पराक्रम और इनकी मृत्यु भी व्यर्थ न हो और हम लोगों ने उन्हें जो वरदान दिया था, वह भी सत्य हो जाये'।

भगवान बलराम ने कहा ;- ऋषियों! वेदों का ऐसा कहना है कि आत्मा ही पुत्र के रूप में उत्पन्न होता है। इसलिये रोमहर्षण के स्थान पर उनका पुत्र आप लोगों को पुराणों की कथा सुनायेगा। उसे मैं अपनी शक्ति से दीर्घायु, इन्द्रियशक्ति और बल दिये देता हूँ।

ऋषियों! इसके अतिरिक्त आप लोग और जो कुछ भी चाहते हों, मुझसे कहिये। मैं आप लोगों की इच्छा पूर्ण करूँगा। अनजान में मुझसे जो अपराध हो गया है, उसका प्रायश्चित भी आप लोग सोच-विचारकर बतलाइये; क्योंकि आप लोग इस विषय के विद्वान हैं।

ऋषियों ने कहा ;- बलराम जी! इल्वल का पुत्र बल्वल नाम का एक भयंकर दानव है। वह प्रत्येक पर्व पर यहाँ आ पहुँचता है और हमारे इस सत्र को दूषित कर देता है।

यदुनन्दन! वह यहाँ आकर पीब, खून, विष्ठा, मूत्र, शराब और मांस की वर्षा करने लगता है। आप उस पापी को मार डालिये। हम लोगों कि यह बहुत बड़ी सेवा होगी। इसके बाद आप एकाग्रचित्त से तीर्थों में स्नान करते हुए बारह महीनों तक भारतवर्ष की परिक्रमा करते हुए विचरण कीजिये। इससे आपकी शुद्धि हो जायगी।

                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【उन्यासीवाँ अध्याय】७९

          "बल्वल का उद्धार और बलराम जी कि तीर्थयात्रा"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनाशीतितम अध्याय श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! पर्व का दिन आने पर बड़ा भयंकर अंधड़ चलने लगा। धूल की वर्षा होने लगी और चारों ओर से पीब की दुर्गन्ध आने लगी। इसके बाद यज्ञशाला में बल्वल दानव ने मल-मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओं की वर्षा की। तदनन्तर हाथ में त्रिशूल लिये वह स्वयं दिखायी पड़ा। उस का डील-डौल बहुत बड़ा था, ऐसा जान पड़ता मानो ढेर-का-ढेर कालिख इकठ्ठा कर दिया गया हो। उसकी चोटी और दाढ़ी-मूँछ तपे हुए ताँबे के समान लाल-लाल थीं। बड़ी-बड़ी दाढ़ों और भौंहों के कारण उसका मुँह बड़ा भयावना लगता था। उसे देखकर भगवान बलराम जी ने शत्रु सेना की कुंदी करने वाले मूसल और दैत्यों को चीर-फाड़ डालने वाले हल का स्मरण किया। उनके स्मरण करते ही वे दोनों शस्त्र तुरंत वहाँ आ पहुँचे ।

बलराम जी ने आकाश में विचरने वाले बल्वल दैत्य को अपने हल के अगले भाग से खींचकर उस ब्रह्मद्रोही के सिर पर बड़े क्रोध से एक मूसल कसकर जमाया, जिससे उसका ललाट फट गया और वह खून उगलता तथा आर्तस्वर से चिल्लाता हुआ धरती पर गिर पड़ा, ठीक वैसे ही जैसे वज्र की चोट खाकर गेरू आदि से लाल हुआ कोई पहाड़ गिर पड़ा हो।

नैमिषारण्यवासी महाभाग्यवान् मुनियों ने बलराम जी की स्तुति की, उन्हें कभी न व्यर्थ होने वाले आशीर्वाद दिये और जैसे देवता लोग देवराज इन्द्र का अभिषेक करते हैं, वैसे ही उनका अभिषेक किया। इसके बाद ऋषियों ने बलराम जी को दिव्य वस्त्र और दिव्य आभूषण दिये तथा एक ऐसी वैजन्ती की माला भी दी, जो सौन्दर्य का आश्रय एवं कभी ने मुरझाने वाले कमल के पुष्पों से युक्त थी।

तदनन्तर नैमिषारण्यवासी ऋषियों से विदा होकर उनके आज्ञानुसार बलराम जी ब्राह्मणों के साथ कौशिकी नदी के तट पर आये। वहाँ स्नान करके वे उस सरोवर पर गये, जहाँ से सरयू नदी निकलती है। वहाँ से सरयू के किनारे-किनारे चलने लगे, फिर उसे छोड़कर प्रयाग आये; वहाँ स्नान तथा देवता, ऋषि एवं पितरों का तर्पण करके वहाँ से पुलहाश्रम गये। वहाँ से गण्डकी, गोमती तथा विपाशा नदियों में स्नान किया। इसके बाद गया में जाकर पितरों का वसुदेव जी के आज्ञानुसार पूजन-यजन किया। फिर गंगासागर संगम पर गये; वहाँ भी स्नान आदि तीर्थ-कृत्यों से निवृत्त होकर महेन्द्र पर्वत पर गये। वहाँ परशुराम जी का दर्शन और अभिवादन किया।

तदनन्तर सप्तगोदावरी, वेणा, पम्पा और भीमरथी आदि में स्नान करते हुए स्वामिकार्तिक का दर्शन करने गये तथा वहाँ से महादेव जी के निवास स्थान श्रीशैल पर पहुँचे। इसके बाद भगवान बलराम ने द्रविड़ देश के परम पुण्यमय स्थान वेंकटाचल (बालाजी) का दर्शन किया और वहाँ से वे कामाक्षी- शिवकांची, विष्णुकांची होते हुए तथा श्रेष्ठ नदी कावेरी में स्नान करते हुए पुण्यमय श्रीरंग क्षेत्र में पहुँचे। श्रीरंग क्षेत्र में भगवान विष्णु सदा विराजमान रहते हैं। वहाँ से उन्होंने विष्णु भगवान के क्षेत्र ऋषभ पर्वत, दक्षिण मथुरा तथा बड़े-बड़े महापापों को नष्ट करने वाले सेतुबन्ध की यात्रा की। वहाँ बलराम जी ने ब्राह्मणों को दस हजार गौएँ दान कीं। फिर वहाँ से कृतमाला और ताम्रपणीं नदियों में स्नान करते हुए वे मलय पर्वत पर गये। वह पर्वत सात कुलपर्वतों में से एक है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनाशीतितम अध्याय श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद)

वहाँ पर विराजमान अगस्त्य मुनि को उन्होंने नमस्कार और अभिवादन किया। अगस्त्य जी से आशीर्वाद और अनुमति प्राप्त परके बलराम जी ने दक्षिण समुद्र की यात्रा की। वहाँ उन्होंने दुर्गादेवी का कन्याकुमारी के रूप में दर्शन किया। इसके बाद वे फाल्गुन तीर्थ-अनन्तशयन क्षेत्र में गये और वहाँ के सर्वश्रेष्ठ पंचाप्सरस तीर्थ में स्नान किया। उस तीर्थ में सर्वदा विष्णु भगवान का सान्निध्य रहता है। वहाँ बलराम जी ने दस हजार गौएँ दान कीं।

अब भगवान बलराम वहाँ से चलकर केरल और त्रिगर्त देशों में होकर भगवान शंकर के क्षेत्र गोकर्ण तीर्थ में आये। वहाँ सदा-सर्वदा भगवान शंकर विराजमान रहते हैं। वहाँ से जल से घिरे द्वीप में निवास करने वाली आर्यादेवी का दर्शन करने गये और फिर उस द्वीप से चलकर शूर्पारक-क्षेत्र की यात्रा की, इसके बाद तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या नदियों में स्नान करके वे दण्डकारण्य में आये। वहाँ होकर वे नर्मदा जी के तट पर गये। परीक्षित! इस पवित्र नदी के तट पर ही माहिष्मतीपुरी है। वहाँ मनुतीर्थ में स्नान करके वे फिर प्रभास क्षेत्र में चले आये। वहीं उन्होंने ब्राह्मणों से सुना कि कौरव और पाण्डवों के युद्ध में अधिकांश क्षत्रियों का संहार हो गया। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि अब पृथ्वी का बहुत-सा भार उतर गया। जिस दिन रणभूमि में भीमसेन और दुर्योधन गदायुद्ध कर रहे थे, उसी दिन बलराम जी उन्हें रोकने के लिये कुरुक्षेत्र जा पहुँचे।

महाराज युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन ने बलराम जी को देखकर प्रणाम किया तथा चुप ही रहे। वे डरते हुए मन-ही-मन सोचने लगे कि ये जाने क्या कहने के लिये यहाँ पधारे हैं? उस समय भीमसेन और दुर्योधन दोनों ही हाथ में गदा लेकर एक-दूसरे को जीतने के लिये क्रोध से भरकर भाँति-भाँति के पैंतरे बदल रहे थे। उन्हें देखकर बलराम जी ने कहा- ‘राजा दुर्योधन और भीमसेन! तुम दोनों वीर हो। तुम दोनों में बल-पौरुष भी समान है। मैं ऐसा समझता हूँ कि भीमसेन में बल अधिक है और दुर्योधन ने गदा युद्ध में शिक्षा अधिक पायी है। इसलिये तुम लोग-जैसे समान बलशालियों में किसी एक की जय या पराजय नहीं होती दीखती। अतः तुम लोग व्यर्थ का युद्ध मत करो, अब इसे बंद कर दो’।

परीक्षित! बलराम जी की बात दोनों के लिये हितकर थी। परन्तु उन दोनों का वैरभाव इतना दृढ़ मूल हो गया था कि उन्होंने बलराम जी की बात न मानी। वे एक-दूसरे की कटुवाणी और दुर्व्यवहारों का स्मरण करके उन्मत्त-से हो रहे थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनाशीतितम अध्याय श्लोक 29-34 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान बलराम जी ने निश्चय किया कि इनका प्रारब्ध ऐसा ही है; इसलिये उसके सम्बन्ध में विशेष आग्रह न करके वे द्वारका लौट गये।

द्वारका में उग्रसेन आदि गुरुजनों तथा अन्य सम्बन्धियों ने बड़े प्रेम से आगे आकर उनका स्वागत किया। वहाँ से बलराम जी फिर नैमिषारण्य क्षेत्र में गये। वहाँ ऋषियों ने विरोधभाव से-युद्धादि से निवृत्त बलराम जी के द्वारा बड़े प्रेम से सब प्रकार के यज्ञ कराये।

परीक्षित! सच पूछो तो जितने भी यज्ञ हैं, वे बलराम जी के अंग ही हैं। इसलिये उनका यह यज्ञानुष्ठान लोक संग्रह के लिये ही था। सर्वसमर्थ भगवान बलराम ने उन ऋषियों को विशुद्ध तत्त्वज्ञान का उपदेश किया, जिससे वे लोग इस सम्पूर्ण विश्व को अपने-आप में और अपने-आपको सारे विश्व में अनुभव करने लगे। इसके बाद बलराम जी ने अपनी पत्नी रेवती के साथ यज्ञान्त-स्नान किया और सुन्दर-सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण पहनकर अपने भाई-बन्धु तथा स्वजन-सम्बन्धियों के साथ इस प्रकार शोभायमान हुए, जैसे अपनी चन्द्रिका एवं नक्षत्रों के साथ चन्द्रदेव होते हैं।

परीक्षित! भगवान बलराम स्वयं अनन्त हैं। उनका स्वरूप मन और वाणी के परे हैं। उन्होंने लीला के लिये ही यह मनुष्यों का-सा शरीर ग्रहण किया है। उन बलशाली बलराम जी के ऐसे-ऐसे चरित्रों की गिनती भी नहीं की जा सकती। जो पुरुष अनन्त, सर्वव्यापक, अद्भुतकर्मा भगवान बलराम जी के चरित्रों का सायं-प्रातः स्मरण करता है, वह भगवान का अत्यन्त प्रिय हो जाता है।

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