सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - उत्तरार्ध ) का अस्सीवाँ, इक्यासीवाँ, बयासीवाँ, तेरासीवाँ व चौरासीवाँ अध्याय [ Eighty , Eighty-one, Eighty-two, Eighty-three and Eighty-four chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【अस्सीवाँ अध्याय】८०


                   "श्रीकृष्ण के द्वारा सुदामा जी का स्वागत"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अशीतितम अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

राजा परीक्षित ने कहा ;- भगवन्! प्रेम और मुक्ति के दाता परब्रह्म परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति अनन्त है। इसलिये उनकी माधुर्य और ऐश्वर्य से भरी लीलाएँ भी अनन्त हैं। अब हम उनकी दूसरी लीलाएँ, जिनका वर्णन आपने अब तक नहीं किया है, सुनना चाहते हैं।

ब्रह्मन्! यह जीव विषय-सुख को खोजते-खोजते अत्यन्त दुःखी हो गया है। वे बाण की तरह इसके चित्त में चुभते रहते हैं। ऐसी स्थिति में ऐसा कौन-सा रसिक- रस का विशेषज्ञ पुरुष होगा, जो बार-बार पवित्रकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण की मंगलमयी लीलाओं का श्रवण करके भी उनसे विमुख होना चाहेगा। जो वाणी भगवान के गुणों का गान करती है, वही सच्ची वाणी है। वे ही हाथ सच्चे हाथ हैं, जो भगवान की सेवा के लिये काम करते हैं। वही मन सच्चा मन हैं, जो चराचर प्राणियों में निवास करने वाले भगवान का स्मरण करता है; और वे ही कान वास्तव में कान कहने योग्य हैं, जो भगवान की पुण्यमयी कथाओं का श्रवण करते हैं। वही सिर सिर है, जो चराचर जगत् को भगवान की चल-अचल प्रतिमा समझकर नमस्कार करता है; और जो सर्वत्र भगद्विग्रह का दर्शन करते हैं, वे ही नेत्र वास्तव में नेत्र हैं। शरीर के जो अंग भगवान और उनके भक्तों के चरणोंदक का सेवन करते हैं, वे ही अंग वास्तव में अंग हैं; सच पूछिये तो उन्हीं का होना सफल है।

सूत जी कहते हैं ;- शौनकादि ऋषियों! जब राजा परीक्षित ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब भगवान श्रीशुकदेव जी का हृदय भगवान श्रीकृष्ण में ही तल्लीन हो गया। उन्होंने परीक्षित से इस प्रकार कहा।

श्रीशुकदेव जी कहा ;- परीक्षित! एक ब्राह्मण भगवान श्रीकृष्ण के परम मित्र थे। वे बड़े ब्रह्मज्ञानी, विषयों से विरक्त, शान्तचित्त और जितेन्द्रिय थे। वे गृहस्थ होने पर भी किसी प्रकार का संग्रह-परिग्रह न रखकर प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ मिल जाता, उसी में सन्तुष्ट रहते थे। उनके वस्त्र तो फटे-पुराने थे ही, उनकी पत्नी के भी वैसे ही थे। वह भी अपने पति के समान ही भूख से दुबली हो रही थी। एक दिन दरिद्रता की प्रतिमूर्ति दुःखिनी पतिव्रता भूख के मारे काँपती हुई अपने पतिदेव के पास गयी और मुरझाये हुए मुँह से बोली- ‘भगवन्! साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्ण आपके सखा हैं। वे भक्तवांछाकल्पतरु, शरणागतवत्सल और ब्राह्मणों के परम भक्त हैं। परम भाग्यवान् आर्यपुत्र! वे साधु-संतों के, सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय हैं। आप उनके पास जाइये। जब वे जानेंगे कि आप कुटुम्बी हैं और अन्न के बिना दुःखी हो रहे हैं तो वे आपको बहुत-सा धन देंगे। आजकल वे भोज, वृष्णि और अन्धकवंशी यादवों के स्वामी के रूप में द्वारका में ही निवास कर रहे हैं और इतने उदार हैं कि जो उनके चरणकमलों का स्मरण करते हैं, उन प्रेमी भक्तों को वे अपने-आप तक का दान कर डालते हैं। ऐसी स्थिति में जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण अपने भक्तों को यदि धन और विषय-सुख, जो अत्यन्त वाञ्छनीय नहीं है, दे दें तो इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है?’

इस प्रकार जब उन ब्राह्मण देवता की पत्नी ने अपने पतिदेव से कई बार बड़ी नम्रता से प्रार्थना की, तब उन्होंने सोचा कि ‘धन की तो कोई बात नहीं है; परन्तु भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन हो जायेगा, यह तो जीवन का बहुत बड़ा लाभ है’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अशीतितम अध्याय श्लोक 13-29 का हिन्दी अनुवाद)

यही विचार करके उन्होंने जाने का निश्चय किया और अपनी पत्नी से बोले ;- ‘कल्याणी! घर में कुछ भेंट देने योग्य वस्तु भी है क्या? यदि हो तो दे दो’। तब उस ब्राह्मणी ने पास-पड़ोस के ब्राह्मणों के घर से चार मुट्ठी चिउड़े माँगकर एक कपड़े में बाँध दिया और भगवान को भेंट देने के लिये अपने पतिदेव को दे दिये। इसके बाद वे ब्राह्मण देवता उन चिउड़ों को लेकर द्वारका के लिये चल पड़े। वे मार्ग में यह सोचते जाते थे कि ‘मुझे भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन कैसे प्राप्त होंगे?’

परीक्षित! द्वारका में पहुँचने पर वे ब्राह्मण देवता दूसरे ब्राह्मणों के साथ सैनिकों की तीन छावनियाँ और तीन ड्योढ़ियाँ पार करके भगवद्धर्म का पालन करने वाले अन्धक और वृष्णिवंशी यादवों के महलों में, जहाँ पहुँचना अत्यन्त कठिन है, जा पहुँचे। उनके बीच भगवान श्रीकृष्ण की सोलह हजार रानियों के महल थे। उनमें से एक में उन ब्राह्मण देवता ने प्रवेश किया। वह महल खूब सजा-सजाया- अत्यन्त शोभायुक्त था। उसमें प्रवेश करते समय उन्हें ऐसा मालूम हुआ, मानो वे ब्रह्मानन्द के समुद्र में डूब-उतरा रहे हों। उस समय भगवान श्रीकृष्ण अपनी प्राणप्रिया रुक्मिणी जी के पलंग पर विराजे हुए थे। ब्राह्मण देवता को दूर से ही देखकर वे सहसा उठ खड़े हुए और उनके पास आकर बड़े आनन्द से उन्हें अपने भुजपाश में बाँध लिया।

परीक्षित! परमानन्दस्वरूप भगवान अपने प्यारे सखा ब्राह्मणदेवता के अंग-स्पर्श से अत्यन्त आनन्दित हुए। उनके कमल के समान कोमल नेत्रों से प्रेम के आँसू बरसने लगे। परीक्षित! कुछ समय के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें ले जाकर अपने पलंग पर बैठा दिया और स्वयं पूजन की सामग्री लाकर उनकी पूजा की। प्रिय परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण सभी को पवित्र करने वाले हैं; फिर भी उन्होंने अपने हाथों ब्राह्मण देवता के पाँव पखारकर उनका चरणोंदक अपने सिर पर धारण किया और उनके शरीर में चन्दन, अरगजा, केसर आदि दिव्य गन्धों का लेपन किया। फिर उन्होंने बड़े आनन्द से सुगन्धित धूप और दीपावली से अपने मित्र की आरती उतारी। इस प्रकार पूजा करके पान एवं गाय देकर मधुर वचनों से ‘भले पधारे’ ऐसा कहकर उनका स्वागत किया।

ब्राह्मण देवता फटे-पुराने वस्त्र पहने हुए थे। शरीर अत्यन्त मलिन और दुर्बल था। देह की सारी नसें दिखायी पड़ती थीं। स्वयं भगवती रुक्मिणी जी चँवर डुलाकर उनकी सेवा करने लगीं। निन्दनीय और निकृष्ट भिखमंगे ने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है, जिससे त्रिलोकी-गुरु श्रीनिवास श्रीकृष्ण स्वयं इसका आदर-सत्कार कर रहे हैं। देखो तो सही, इन्होंने अपने पलंग पर सेवा करती हुई स्वयं लक्ष्मीरूपिणी रुक्मिणी जी को छोड़कर इस ब्राह्मण को अपने बड़े भाई बलराम जी के समान हृदय से लगाया है’।

प्रिय परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण और वे ब्राह्मण दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़कर अपने पूर्व जीवन की उन आनन्ददायक घटनाओं का स्मरण और वर्णन करने लगे जो गुरुकुल में रहते समय घटित हुई थीं। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- धर्म के मर्मज्ञ ब्राह्मणदेव! गुरुदक्षिणा देकर जब आप गुरुकुल से लौट आये, तब आपने अपने अनुरूप स्त्री से विवाह किया या नहीं? मैं जानता हूँ कि आपका चित्त गृहस्थी में रहने पर भी प्रायः विषय-भोगों में आसक्त नहीं है। विद्वान! यह भी मुझे मालूम है कि धन आदि में भी आपकी कोई प्रीति नहीं है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अशीतितम अध्याय श्लोक 30-41 का हिन्दी अनुवाद)


जगत् में विरले ही लोग ऐसे होते हैं, जो भगवान की माया से निर्मित विषयसम्बन्धी वासनाओं का त्याग कर देते हैं और चित्त में विषयों की तनिक भी वासना न रहने पर भी मेरे समान केवल लोकशिक्षा के लिये कर्म करते रहते हैं। ब्राह्मणशिरोमणे! क्या आपको उस समय की बात याद है, जब हम दोनों एक साथ गुरुकुल में निवास करते थे। सचमुच गुरुकुल में ही द्विजातियों को अपने ज्ञातव्य वस्तु का ज्ञान होता है, जिसके द्वारा वे अज्ञानान्धकार से पार हो जाते हैं।

मित्र! इस संसार में शरीर का कारण-जन्मदाता पिता प्रथम गुरु है। इसके बाद उपनयन-संस्कार करके सत्कर्मों की शिक्षा देने वाला दूसरा गुरु है। वह मेरे ही समान पूज्य है। तदनन्तर ज्ञानोपदेश करके परमात्मा को प्राप्त कराने वाला गुरु तो मेरा स्वरूप ही है। वर्णाश्रमियों के ये तीन गुरु होते हैं। मेरे प्यारे मित्र! गुरु के स्वरूप में स्वयं मैं हूँ। इस जगत् में वर्णाश्रमियों में जो लोग अपने गुरुदेव के उपदेशानुसार अनायास ही भवसागर पार कर लेते हैं, वे अपने स्वार्थ और परमार्थ के सच्चे जानकार हैं। प्रिय मित्र! मैं सबका आत्मा हूँ, सबके हृदय में अन्तर्यामी रूप से विराजमान हूँ। मैं गृहस्थ के धर्म पंचमहायज्ञ आदि से, ब्रह्मचारी के धर्म उपनयन-वेदाध्ययन आदि से, वानप्रस्थी के धर्म तपस्या से और सब ओर से उपरत हो जाना-इस संन्यासी के धर्म से भी उतना सन्तुष्ट नहीं होता, जितना गुरुदेव की सेवा-शुश्रूवा से सन्तुष्ट होता हूँ।

ब्रह्मन्! जिस समय हम लोग गुरुकुल में निवास कर रहे थे; उस समय की वह बात आपको याद है क्या, जब हम दोनों को एक दिन हमारी गुरुपत्नी ने ईंधन लाने के लिये जंगल में भेजा था। उस समय हम लोग एक घोर जंगल में गये हुए थे और बिना ऋतु के ही बड़ा भयंकर आँधी-पानी आ गया था। आकाश में बिजली कड़कने लगी थी। तब तक सूर्यास्त हो गया; चारों ओर अँधेरा-ही-अँधेरा फैल गया। धरती पर इस प्रकार पानी-ही-पानी हो गया कि कहाँ गड्ढा है, कहाँ किनारा, इसका पता ही न चलता था।

वह वर्षा क्या थी, एक छोटा-मोटा प्रलय ही था। आँधी के झटकों और वर्षा की बौछारों से हम लोगों को बड़ी पीड़ा हुई, दिशा का ज्ञान न रहा। हम लोग अत्यन्त आतुर हो गये और एक-दूसरे का हाथ पकड़कर जंगल में इधर-उधर भटकते रहे। जब हमारे गुरुदेव सान्दीपनि मुनि को इस बात का पता चला, तब वे सूर्योदय होने पर अपने शिष्यों सहित हम लोगों को ढूँढते हुए जंगल में पहुँचे और उन्होंने देखा कि हम अत्यन्त आतुर हो रहे हैं। वे कहने लगे- ‘आश्चर्य है, आश्चर्य है! पुत्रों! तुम लोगों ने हमारे लिये अत्यन्त कष्ट उठाया। सभी प्राणियों को अपना शरीर सबसे अधिक प्रिय होता है; परन्तु तुम दोनों उसकी भी परवा न करके हमारी सेवा में ही संलग्न रहे। गुरु के ऋण से मुक्त होने के लिये सत्-शिष्यों का इतना ही कर्तव्य है कि वे विशुद्ध भाव से अपना सब कुछ और शरीर भी गुरुदेव की सेवा में समर्पित कर दें।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अशीतितम अध्याय श्लोक 42-45 का हिन्दी अनुवाद)

द्विज-शिरोमणियो! मैं तुम लोगों से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम्हारे सारे मनोरथ, सारी अभिलाषाएँ पूर्ण हों, और तुम लोगों ने हमसे जो वेदाध्ययन किया है, वह तुम्हें सर्वदा कण्ठस्थ रहे तथा इस लोक एवं परलोक में कहीं भी निष्फल न हो’।

प्रिय मित्र! जिस समय हम लोग गुरुकुल में निवास कर रहे थे, हमारे जीवन में ऐसी-ऐसी अनेकों घटनाएँ घटित हुईं थीं। इसमें सन्देह नहीं कि गुरुदेव की कृपा से ही मनुष्य शान्ति का अधिकारी होता और पूर्णता को प्राप्त करता है।

ब्राह्मण देवता ने कहा ;- देवताओं के आराध्यदेव जगद्गुरु श्रीकृष्ण! भला, अब हमें क्या करना बाकी है? क्योंकि आपके साथ, जो सत्यसंकल्प परमात्मा हैं, हमें गुरुकुल में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।

प्रभो! छन्दोमय वेद, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चतुर्विध पुरुषार्थ के मूल स्रोत हैं; और वे हैं आपके शरीर। वही आप वेदाध्ययन के लिये गुरुकुल में निवास करें, यह मनुष्य-लीला का अभिनय नहीं तो और क्या है?

                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【इक्यासीवाँ अध्याय】८१


                           "सुदामा जी को ऐश्वर्य की प्राप्ति"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकशीतितम अध्याय श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- प्रिय परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण सबके मन की बात जानते हैं। वे ब्राह्मणों के परम भक्त, उनके क्लेशों के नाशक और संतों के एकमात्र आश्रय हैं। वे पूर्वोक्त प्रकार से उन ब्राह्मण देवता के साथ बहुत देर तक बीतचीत करते रहे। अब वे अपने प्यारे सखा उन ब्राह्मण से तनिक मुसकराकर विनोद करते हुए बोले। उस समय भगवान उन ब्राह्मण देवता की ओर प्रेमभरी दृष्टि से देख रहे थे।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- ‘ब्रह्मन्! आप अपने घर से मेरे लिए क्या उपहार लाये हैं? मेरे प्रेमी भक्त जब प्रेम से थोड़ी-सी वस्तु भी मुझे अर्पण करते हैं तो वह मेरे लिए बहुत हो जाती है। परन्तु मेरे अभक्त यदि बहुत-सी सामग्री भी मुझे भेंट करते हैं तो उससे मैं सन्तुष्ट नहीं होता। जो पुरुष प्रेमभक्ति के फल-फूल अथवा पत्ता-पानी में से कोई भी वस्तु मुझे समर्पित करता है, तो मैं उस शुद्धचित्त भक्त का वह प्रेमोपहार केवल स्वीकार ही नहीं करता, बल्कि तुरंत भोग लगा लेता हूँ’।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण के ऐसा कहने पर भी उन ब्राह्मण देवता ने लज्जावश उन लक्ष्मीपति को वे चार मुट्ठी चिउड़े नहीं दिये। उन्होंने संकोच से अपना मुँह नीचे कर लिया था। परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण समस्त प्राणियों के हृदय का एक-एक संकल्प और उनका अभाव भी जानते हैं। उन्होंने ब्राह्मण के आने का कारण, उनके हृदय की बात जान ली। अब वे विचार करने लगे की ‘एक तो यह मेरा प्यारा सखा है, दूसरे इसने पहले कभी लक्ष्मी की कामना से मेरा भजन नहीं किया है। इस समय यह अपनी पतिव्रता पत्नी को प्रसन्न करने के लिये उसी के आग्रह से यहाँ आया है। अब मैं इसे ऐसी सम्पत्ति दूँगा, जो देवताओं के लिये भी अत्यंत दुर्लभ है’।

भगवान श्रीकृष्ण ने ऐसा विचार करके उनके वस्त्र में से चिथड़े की एक पोटली में बँधा हुआ चिउड़ा ‘यह क्या है’- ऐसा कहकर स्वयं ही छीन लिया और बड़े आदर से कहने लगे- ‘प्यारे मित्र! यह तो तुम मेरे लिए अत्यन्त प्रिय भेंट ले आये हो। ये चिउड़े न केवल मुझे, बल्कि सारे संसार को तृप्त करने के लिए पर्याप्त हैं’। ऐसा कहकर उसमें से एक मुट्ठी चिउड़ा खा गए और दूसरी मुट्ठी ज्यों ही भरी त्यों ही रुक्मिणी जी के रूप में स्वयं भगवती लक्ष्मी जी ने भगवान श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया। क्योंकि वे तो एकमात्र भगवान के परायण हैं, उन्हें छोड़कर और कहीं जा नहीं सकतीं।

रुक्मिणी जी ने कहा ;- ‘विश्वात्मन्! बस, बस! मनुष्य को इस लोक में तथा मरने के बाद परलोक में भी समस्त संपत्तियों की समृद्धि प्राप्त करने के लिए यह एक मुट्ठी चिउड़ा ही बहुत है; क्योंकि आपके लिये इतना ही प्रसन्नता का हेतु बन जाता है’।

परीक्षित! ब्राह्मण देवता उस रात को भगवान श्रीकृष्ण के महल में ही रहे। उन्होंने बड़े आराम से वहाँ खाया-पिया और ऐसा अनुभव किया, मानो मैं वैकुण्ठ में ही पहुँच गया हूँ। परीक्षित! श्रीकृष्ण से ब्राह्मण को प्रत्यक्षरूप में कुछ भी न मिला। फिर भी उन्होंने उनसे कुछ माँगा नहीं। वे अपने चित्त की करतूत पर कुछ लज्जित-से होकर भगवान श्रीकृष्ण के दर्शनजनित आनन्द में डूबते-उतराते अपने घर की और चल पड़े।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकशीतितम अध्याय श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद)

वे मन-ही-मन सोचने लगे ;- ‘अहो, कितने आनन्द और आश्चर्य की बात है। ब्राह्मणों को अपना इष्टदेव मानने वाले भगवान श्रीकृष्ण की ब्राह्मणभक्ति आज मैंने अपनी आँखों देख ली। धन्य हैं! जिनके वक्षःस्थल पर स्वयं लक्ष्मी जी सदा विराजमान रहती हैं, उन्होंने मुझ अत्यन्त दरिद्र को अपने हृदय से लगा लिया। कहाँ तो मैं अत्यन्त पापी और दरिद्र, और कहाँ लक्ष्मी के एकमात्र आश्रय भगवान श्रीकृष्ण! परन्तु उन्होंने ‘यह ब्राह्मण है’- ऐसा समझकर मुझे अपनी भुजाओं में भरकर हृदय से लगा लिया। इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे उस पलंग पर सुलाया, जिस पर उनकी प्राणप्रिया रुक्मिणी जी शयन करती हैं। मानो मैं उनका सगा भाई हूँ! कहाँ तक कहूँ? मैं थका हुआ था, इसलिये स्वयं उनकी पटरानी रुक्मिणी जी ने अपने हाथों चँवर डुलाकर मेरी सेवा की। ओह, देवताओं के आराध्यदेव होकर ब्राह्मणों को अपना इष्टदेव मानने वाले प्रभु ने पाँव दबाकर, अपने हाथों खिला-पिलाकर मेरी अत्यन्त सेवा-शुश्रूषा की और देवता के सामान मेरी पूजा की। स्वर्ग, मोक्ष, पृथ्वी और रसातल की सम्पत्ति तथा समस्त योगसिद्धियों की प्राप्ति का मूल उनके चरणों की पूजा ही है। फिर भी परम दयालु श्रीकृष्ण ने यह सोचकर मुझे थोड़ा-सा भी धन नहीं दिया कि कहीं यह दरिद्र धन पाकर बिलकुल मतवाला न हो जाये और मुझे न भूल बैठे’।

इस प्रकार मन-ही-मन विचार करते-करते ब्राह्मण देवता अपने घर के पास पहुँच गये। वे वहाँ क्या देखते हैं कि सब-का-सब स्थान सूर्य, अग्नि और चन्द्रमा के सामान तेजस्वी रत्न निर्मित महलों से घिरा हुआ है। ठौर-ठौर चित्र-विचित्र उपवन और उद्यान बने हुए हैं तथा उसमें झुंड-के-झुंड रंग-बिरंगे पक्षी कलरव कर रहे हैं। सरोवरों में कुमुदिनी तथा श्वेत, नील और सौगन्धिक- भाँति-भाँति के कमल खिले हुए हैं; सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष बन-ठनकर इधर-उधर विचर रहे हैं। उस स्थान को देखकर ब्राह्मण देवता सोचने लगे- ‘मैं यह क्या देख रहा हूँ? यह किसका स्थान है? यदि यह वही स्थान है, जहाँ मैं रहता था तो यह ऐसा कैसे हो गया’।

इस प्रकार वे सोच ही रहे थे कि देवताओं के समान सुन्दर-सुन्दर स्त्री-पुरुष गाजे-बाजे के साथ मंगलगीत गाते हुए उस महाभाग्यवान् ब्राह्मण की अगवानी करने के लिये आये। पतिदेव का शुभागमन सुनकर ब्रह्माणी को अपार आनन्द हुआ और वह हड़बड़ा कर जल्दी-जल्दी घर से निकल आयी, वह ऐसी मालूम होती थी मानो मूर्तिमती लक्ष्मी जी ही कमलवन से पधारी हों। पतिदेव को देखते ही पतिव्रता पत्नी के नेत्रों में प्रेम और उत्कण्ठा के आवेग से आँसू छलक आये। उसने अपने नेत्र बंद कर लिये। ब्रह्माणी ने बड़े प्रेमभाव से उन्हें नमस्कार किया और मन-ही-मन आलिंगन भी।

प्रिय परीक्षित! ब्रह्माणपत्नी सोने का हार पहनी हुई दासियों के बीच में विमानस्थित देवांगना के समान अत्यन्त शोभायमान एवं देदीप्यमान हो रही थी। उसे इस रूप में देखकर वे विस्मित हो गये। उन्होंने अपनी पत्नी के साथ बड़े प्रेम से अपने महल में प्रवेश किया। उनका महल क्या था, मानो देवराज इन्द्र का निवासस्थान था। इसमें मणियों के सैकड़ों खंभे खड़े थे। हाथी के दाँत के बने हुए और सोने के पात के मढ़े हुई पलंगों पर दूध के फेन की तरह श्वेत और कोमल बिछौने बिछ रहे थे। बहुत-से चँवर वहाँ रखे हुए थे, जिसमें सोने की डंडियाँ लगी हुई थीं। सोने के सिंहासन शोभायमान हो रहे थे, जिन पर बड़ी कोमल-कोमल गद्दियाँ लगी हुई थीं। ऐसे चँदोवे भी झिलमिला रहे थे, जिसमें मोतियों की लड़ियाँ लटक रही थीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकशीतितम अध्याय श्लोक 31-41 का हिन्दी अनुवाद)

स्फटिक मणि की स्वच्छ भीतों पर पन्ने की पच्चीकारी की हुई थी। रत्ननिर्मित स्त्रीमूर्तियों के हाथों में रत्नों के दीपक जगमगा रहे थे। इस प्रकार समस्त सम्पत्तियों की समृद्धि देखकर और उसका कोई प्रत्यक्ष कारण न पाकर, बड़ी गम्भीरता से ब्राह्मण देवता विचार करने लगे कि मेरे पास इतनी सम्पत्ति कहाँ से आ गयी। वे मन-ही-मन कहने लगे- ‘मैं जन्म से ही भाग्यहीन और दरिद्र हूँ। फिर मेरी इस सम्पत्ति-समृद्धि का कारण क्या है? अवश्य ही परमैश्वर्यशाली यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण के कृपाकटाक्ष के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं हो सकता। यह सब कुछ उनकी करुणा की ही देन है। स्वयं भगवान श्रीकृष्ण पूर्णकाम और लक्ष्मीपति होने के कारण अत्यन्त भोग-विलास सामग्रियों से युक्त हैं। इसलिये वे याचक भक्त को उसके मन का भाव जानकर बहुत कुछ दे देते हैं, परन्तु उसे समझते हैं बहुत थोड़ा; इसलिये सामने कुछ कहते नहीं।

मेरे यदुवंशशिरोमणि सखा श्यामसुन्दर सचमुच उस मेघ से भी बढ़कर उदार हैं, जो समुद्र को भर देने की शक्ति रखने पर भी किसान के सामने न बरसकर उसके सो जाने पर रात में बरसता है और बहुत बरसने पर भी थोड़ा ही समझता है। मेरे प्यारे सखा श्रीकृष्ण देते हैं बहुत, पर उसे मानते हैं बहुत थोड़ा और उनका प्रेमी भक्त यदि उनके लिये कुछ भी कर दे, तो वे उसको बहुत मान लेते हैं। देखो तो सही! मैंने उन्हें केवल एक मुट्ठी चिउड़ा भेंट किया था, पर उदारशिरोमणि श्रीकृष्ण ने उसे कितने प्रेम से स्वीकार किया। मुझे जन्म-जन्म उन्हीं का प्रेम, उन्हीं की हितैषिता, उन्हीं की मित्रता और उन्हीं की सेवा प्राप्त हो। मुझे सम्पत्ति की आवश्यकता नहीं, सदा-सर्वदा उन्हीं गुणों के एकमात्र निवासस्थान महानुभाव भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में मेरा अनुराग बढ़ता जाये और उन्हीं के प्रेमी भक्तों का सत्संग प्राप्त हो। अजन्मा भगवान श्रीकृष्ण सम्पत्ति आदि के दोष जानते हैं। वे देखते हैं कि बड़े-बड़े धनिकों का धन और ऐश्वर्य के मद से पतन हो जाता है। इसलिये वे अपने अदूरदर्शी भक्त को उसके माँगते रहने पर भी तरह-तरह की सम्पत्ति, राज्य और ऐश्वर्य आदि नहीं देते। यह उनकी बड़ी कृपा है’।

परीक्षित! अपनी बुद्धि से इस प्रकार निश्चय करके वे ब्राह्मण देवता त्यागपूर्वक अनासक्त भाव से अपनी पत्नी के साथ भगवत्प्रसादस्वरूप विषयों को ग्रहण करने लगे और दिनों दिन उनकी प्रेम-भक्ति बढ़ने लगी।

प्रिय परीक्षित! देवताओं के भी आराध्यदेव भक्त-भयहारी यज्ञपति सर्वशक्तिमान् भगवान स्वयं ब्राह्मणों को अपना प्रभु, अपना इष्टदेव मानते हैं। इसलिये ब्राह्मणों से बढ़कर और कोई भी प्राणी जगत् में नहीं है। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे सखा उस ब्राह्मण ने देखा कि ‘यद्यपि भगवान अजित हैं, किसी के अधीन नहीं हैं; फिर भी वे अपने सेवकों के अधीन हो जाते हैं, उनसे पराजित हो जाते हैं। अब वे उन्हीं के ध्यान में तन्मय हो गये। ध्यान के आवेग से उनकी अविद्या की गाँठ कट गयी और उन्होंने थोड़े ही समय में भगवान का धाम, जो कि संतों का एकमात्र आश्रय है, प्राप्त किया।

परीक्षित! ब्राह्मणों को अपना इष्टदेव मानने वाले भगवान श्रीकृष्ण की इस ब्राह्मण भक्ति को जो सुनता है, उसे भगवान के चरणों में प्रेमभाव प्राप्त हो जाता है और वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है।


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【बयासीवाँ अध्याय】८२

        "भगवान श्रीकृष्ण-बलराम से गोप-गोपियों की भेंट"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वयशीतितम अध्याय श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी द्वारका में निवास कर रहे थे। एक बार सर्वग्रास सूर्यग्रहण लगा, जैसा कि प्रलय के समय लगा करता है।

परीक्षित! मनुष्यों को ज्योतिषियों के द्वारा उस ग्रहण का पता पहले से ही चल गया था, इसलिये सब लोग अपने-अपने कल्याण के उद्देश्य से पुण्य आदि उपार्जन करने के लिए समन्तपंचक तीर्थ कुरुक्षेत्र में आये। समन्तपंचक क्षेत्र वह है, जहाँ शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ परशुराम जी ने सारी पृथ्वी क्षत्रियहीन करके राजाओं की रुधिर धारा से पाँच बड़े-बड़े कुण्ड बना दिये थे। जैसे कोई साधारण मनुष्य अपने पाप की निवृत्ति के लिये प्रायश्चित करता है, वैसे ही सर्वशक्तिमान् भगवान परशुराम ने अपने साथ कर्म का कुछ सम्बन्ध न होने पर भी लोकमर्यादा की रक्षा के लिये वहीं पर यज्ञ किया था।

परीक्षित! महान् तीर्थयात्रा के अवसर पर भारतवर्ष के सभी प्रान्तों की जनता कुरुक्षेत्र आयी थी। उनमें, अक्रूर, वसुदेव, उग्रसेन आदि बड़े-बूढ़े तथा गद, प्रद्युम्न, साम्ब आदि अन्य यदुवंशी सभी अपने-अपने पापों का नाश करने के लिये कुरुक्षेत्र आये थे। प्रद्युम्ननन्दन अनिरुद्ध और यदुवंशी सेनापति कृतवर्मा- ये दोनों सुचंद्र, शुक, सारण आदि के साथ नगर की रक्षा के लिये द्वारका में रह गये थे। यदुवंशी एक तो स्वभाव से ही परमतेजस्वी थे; दूसरे गले में सोने की माला, दिव्य पुष्पों के हार, बहुमूल्य वस्त्र और कवचों से सुसज्जित होने के कारण उनकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। वे तीर्थयात्रा के पथ में देवताओं के विमान के समान रथों, समुद्र की तरंग के समान चलने वाले घोड़ों, बादलों के समान विशालकाय एवं गर्जना करते हुए हाथियों तथा विद्याधरों के समान मनुष्यों के द्वारा ढोयी जाने वाली पालकियों पर अपनी पत्नियों के साथ इस प्रकार शोभायमान हो रहे थे, मानो स्वर्ग के देवता ही यात्रा कर रहे हों।

महाभाग्यवान् यदुवंशियों ने कुरुक्षेत्र में पहुँचकर एकाग्रचित्त से संयमपूर्वक स्नान किया और ग्रहण के उपलक्ष्य में निश्चित काल तक उपवास किया। उन्होंने ब्राह्मणों को गोदान किया। ऐसी गौओं का दान किया, जिन्हें वस्त्रों की सुन्दर-सुन्दर झूले, पुष्पमालाएँ एवं सोने की जंजीरें पहना दी गयी थीं। इसके बाद ग्रहण का मोक्ष हो जाने पर परशुराम जी के बनाये हुए कुण्डों में यदुवंशियों ने विधिपूर्वक स्नान किया और सत्पात्र ब्राह्मणों को सुन्दर-सुन्दर पकवानों का भोजन कराया। उन्होंने अपने मन में यह संकल्प किया था कि भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में हमारी प्रेमभक्ति बनी रहे। भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना आदर्श और इष्टदेव मानने वाले यदुवंशियों ने ब्राह्मणों से अनुमति लेकर तब स्वयं भोजन किया और फिर घनी एवं ठंडी छाया वाले वृक्षों के नीचे अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार डेरा डालकर ठहर गये।

परीक्षित! विश्राम कर लेने के बाद यदुवंशियों ने अपने सुहृद और सम्बन्धी राजाओं से मिलना-भेंटना शुरू किया। वहाँ मत्स्य, उशीनर, कोसल, विदर्भ, कुरु, सृंजय, काम्बोज, कैकय, मद्र, कुन्ति, आनर्त, केरल एवं दूसरे अनेकों देशों के- अपने पक्ष के तथा शत्रुपक्ष के- सैकड़ों नरपति आये हुए थे। परीक्षित! इनके अतिरिक्त यदुवंशियों के परम हितैषी बन्धु नन्द आदि गोप तथा भगवान के दर्शन के लिये चिरकाल से उत्कण्ठित गोपियाँ भी वहाँ आयी हुई थीं। यादवों ने इन सबको देखा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वयशीतितम अध्याय श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! एक-दूसरे के दर्शन, मिलन और वार्तालाप से सभी को बड़ा आनन्द हुआ। सभी के हृदय-कमल एवं मुख-कमल खिल उठे। सब एक-दूसरे को भुजाओं में भरकर हृदय से लगाते, उनके नेत्रों में आँसुओं की झड़ी लग जाती, रोम-रोम खिल उठता, प्रेम के आवेग से बोली बंद हो जाती और सब-के-सब आनन्द-समुद्र में डूबने-उतराने लगते। पुरुषों की भाँति स्त्रियाँ भी एक-दूसरे को देखकर प्रेम और आनन्द से भर गयीं। वे अत्यन्त सौहार्द, मन्द-मन्द मुसकान, परम पवित्र तिरछी चितवन से देख-देखकर परस्पर भेंट-अँकवार भरने लगीं। वे अपनी भुजाओं में भरकर केसर लगे हुए वक्षःस्थलों को दूसरी स्त्रियों के वक्षःस्थलों से दबातीं और अत्यन्त आनन्द का अनुभव करतीं। उस समय उनके नेत्रों से प्रेम के आँसू छलकने लगते। अवस्था आदि में छोटे ने बड़े-बूढ़ों को प्रणाम किया और उन्होंने अपने से छोटों का प्रणाम स्वीकार किया। वे एक-दूसरे का स्वागत करके तथा कुशल-मंगल आदि पूछकर फिर श्रीकृष्ण की मधुर लीलाएँ आपस में कहने-सुनने लगे।

परीक्षित! कुन्ती, वसुदेव आदि अपने भाइयों, बहिनों, उनके पुत्रों, माता-पिता, भाभियों और भगवान श्रीकृष्ण को देखकर तथा उनसे बातचीत करके अपना सारा दुःख भूल गयीं। कुन्ती ने वसुदेव जी से कहा- भैया! मैं सचमुच बड़ी अभागिन हूँ। मेरी एक भी साध पूरी न हुई। आप-जैसे साधु-स्वभाव सज्जन भाई आपत्ति के समय मेरी सुधि भी न लें, इससे बढ़कर दुःख की बात क्या होगी? भैया! विधाता जिसके बाँयें हो जाता है, उसे स्वजन-सम्बन्धी, पुत्र और माता-पिता भी भूल जाते हैं। इसमें आप लोगों का कोई दोष नहीं।

वसुदेव जी ने कहा ;- बहिन! उलाहना मत दो। हमसे बिलग न मानो। सभी मनुष्य दैव के खिलौने हैं। यह सम्पूर्ण लोक ईश्वर के वश में रहकर कर्म करता है और उसका फल भोगता है। बहिन! कंस से सताये जाकर हम लोग इधर-उधर अनेक दिशाओं में भागे हुए थे। अभी कुछ ही दिन हुए, ईश्वर कृपा से हम सब पुनः अपना स्थान प्राप्त कर सके हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! वहाँ जितने भी नरपति आये थे- वसुदेव, उग्रसेन आदि यदुवंशियों ने उनका खूब सम्मान-सत्कार किया। वे सब भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन पाकर परमानन्द और शान्ति का अनुभव करने लगे।

परीक्षित! भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, धृतराष्ट्र, दुर्योधनादि पुत्रों के साथ गान्धारी, पत्नियों के सहित युधिष्ठिर आदि पाण्डव, कुन्ती, सृंजय, विदुर, कृपाचार्य, कुन्तिभोज, विराट, भीष्मक, महाराज नग्नजित्, पुरुजित्, द्रुपद, शल्य, धृष्टकेतु, काशीनरेश, दमघोष, विशालाक्ष, मिथिलानरेश, मद्रनरेश, केकयनरेश, युधामन्यु, सुशर्मा, अपने पुत्रों के साथ बाह्लीक और दूसरे भी युधिष्ठिर के अनुयायी नृपति भगवान श्रीकृष्ण का परम सुन्दर श्रीनिकेतन विग्रह और उनकी रानियों को देखकर अत्यन्त विस्मित हो गये। अब वे बलराम जी तथा भगवान श्रीकृष्ण से भलीभाँति सम्मान प्राप्त करके बड़े आनन्द से श्रीकृष्ण के स्वजनों- यदुवंशियों की प्रशंसा करने लगे। उन लोगों ने मुख्यता उग्रसेन जी को सम्बोधित कर कहा- ‘भोजराज उग्रसेन जी! सच पूछिये तो इस जगत् के मनुष्यों में आप लोगों का जीवन ही सफल है, धन्य है! धन्य है! क्योंकि जिन श्रीकृष्ण का दर्शन बड़े-बड़े योगियों के लिये दुर्लभ है, उन्हीं को आप लोग नित्य-निरन्तर देखते रहते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वयशीतितम अध्याय श्लोक 30-38 का हिन्दी अनुवाद)

वेदों ने बड़े आदर के साथ भगवान श्रीकृष्ण की कीर्ति का गान किया है। उनके चरणधोवन का जल गंगाजल, उनकी वाणी- शास्त्र और उनकी कीर्ति इस जगत् को अत्यन्त पवित्र कर रही है। अभी हम लोगों के जीवन की ही बात है, समय के फेर से पृथ्वी का सारा सौभाग्य नष्ट हो चुका था; परन्तु उनके चरणकमलों के स्पर्श से पृथ्वी में फिर समस्त शक्तियों का संचार हो गया और अब वह फिर हमारी समस्त अभिलाषाओं- मनोरथों को पूर्ण करने लगी।

उग्रसेन जी! आप लोगों का श्रीकृष्ण के साथ वैवाहिक एवं गोत्रसम्बन्ध है। यही नहीं, आप हर समय उनका दर्शन और स्पर्श प्राप्त करते रहते हैं। उनके साथ चलते हैं, बोलते हैं, सोते हैं, बैठते हैं और खाते-पीते हैं। यों तो आप लोग गृहस्थी की झंझटों में फँसे रहते हैं- जो नरक का मार्ग है, परन्तु आप लोगों के घर वे सर्वव्यापक विष्णु भगवान मूर्तिमान् रूप से निवास करते हैं, जिनके दर्शनमात्र से स्वर्ग और मोक्ष तक की अभिलाषा मिट जाती है’।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब नन्दबाबा को यह बात मालूम हुई की श्रीकृष्ण आदि यदुवंशी कुरुक्षेत्र में आये हुए हैं, तब वे गोपों के साथ अपनी सारी सामग्री गाड़ियों पर लादकर अपने प्रिय श्रीकृष्ण-बलराम आदि को देखने के लिये वहाँ आये। नन्द आदि गोपों को देखकर सब-के-सब यदुवंशी आनन्द से भर गये। वे इस प्रकार उठ खड़े हुए, मानो मृत शरीर में प्राणों का संचार हो गया हो। वे लोग एक-दूसरे से मिलने के लिये बहुत दिनों से आतुर हो रहे थे। इसलिये एक-दूसरे को बहुत देर तक अत्यन्त गाढ़भाव से आलिंगन करते रहे। वसुदेव जी ने अत्यन्त प्रेम और आनन्द से विह्वल होकर नन्द जी को हृदय से लगा लिया। उन्हें एक-एक करके सारी बातें याद हो आयीं- कंस किस प्रकार उन्हें सताता था और किस प्रकार उन्होंने अपने पुत्र को गोकुल में ले जाकर नन्द जी के घर रख दिया था। भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी ने माता यशोदा और पिता नन्द जी के हृदय उनके चरणों में प्रणाम किया।

परीक्षित! उस समय प्रेम के उद्रेक से दोनों भाइयों का गला रूँध गया, वे कुछ भी बोल न सके। महाभाग्यवती यशोदा जी और नन्दबाबा ने दोनों पुत्रों को अपनी गोद में बैठा लिया और भुजाओं से उनका गाढ़ आलिंगन किया। उसके हृदय में चिरकाल तक न मिलने का जो दुःख था, वह सब मिट गया। रोहिणी और देवकी जी ने व्रजेश्वरी यशोदा को अपनी अँकवार में भर लिया। यशोदा जी ने उन लोगों के साथ मित्रता का जो व्यवहार किया था, उसका स्मरण करके दोनों का गला भर आया। वे यशोदा जी से कहने लगीं- ‘यशोदारानी! आपने और व्रजेश्वर नन्द जी ने हम लोगों के साथ जो मित्रता का व्यवहार किया है, वह कभी मिटने वाला नहीं है, उसका बदला इन्द्र का ऐश्वर्य पाकर भी हम किसी प्रकार नहीं चुका सकतीं। नन्दरानी जी! भला ऐसा कौन सा कृतघ्न है, जो आपके उस उपकार को भूल सके?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वयशीतितम अध्याय श्लोक 39-46 का हिन्दी अनुवाद)

देवि! जिस बलराम और श्रीकृष्ण ने अपने माँ-बाप को देखा तक न था और उनके पिता ने धरोहर के रूप में इन्हें आप दोनों के पास रख छोड़ा था, उस समय आपने इन दोनों की इस प्रकार रक्षा की, जैसे पलकें पुतलियों की रक्षा करती हैं तथा आप लोगों ने ही इन्हें खिलाया-पिलाया, दुलार किया और रिझाया; इनके मंगल के लिये अनेकों प्रकार के उत्सव मनाये। सच पूछिये, तो इनके माँ-बाप आप ही लोग हैं। आप लोगों की देख-रेख में इन्हें किसी की आँच तक न लगी, ये सर्वथा निर्भय रहे, ऐसा करना आप लोगों के अनुरूप ही था। क्योंकि सत्पुरुषों की दृष्टि में अपने-पराये का भेद-भाव नहीं रहता। नन्दरानी जी! सचमुच आप लोग परम संत हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! मैं कह चुका हूँ की गोपियों के परम प्रियतम, जीवनसर्वस्व श्रीकृष्ण ही थे। जब उनके दर्शन के समय नेत्रों की पलकें गिर पड़तीं, तब वे पलकों को बनाने वाले को ही कोसने लगतीं। उन्हीं प्रेम की मूर्ति गोपियों को आज बहुत दिनों के बाद भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन हुआ। उनके मन में इसके लिये कितनी लालसा थी, इसका अनुमान भी नहीं किया जा सकता। उन्होंने नेत्रों के रास्ते अपने प्रियतम श्रीकृष्ण को हृदय में ले जाकर गाढ़ आलिंगन किया और मन-ही-मन आलिंगन करते-करते तन्मय हो गयीं।

परीक्षित! कहाँ तक कहूँ, वे उस भाव को प्राप्त हो गयीं, जो नित्य-निरन्तर अभ्यास करने वाले योगियों के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है। जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा की गोपियाँ मुझसे तादात्म्य को प्राप्त-एक हो रही हैं, तब वे एकान्त में उनके पास गये, उनको हृदय से लगाया, कुशल-मंगल पूछा और हँसते हुए यों बोले- ‘सखियों! हम लोग अपने स्वजन-सम्बन्धियों का काम करने के लिये व्रज से बाहर चले आये और इस प्रकार तुम्हारी-जैसी प्रेयसियों को छोड़कर हम शत्रुओं का विनाश करने में उलझ गये। बहुत दिन बीत गए, क्या कभी तुम लोग हमारा स्मरण भी करती हो? मेरी प्यारी सखियों! कहीं तुम लोगों के मन में यह आशंका तो नहीं हो गयी है कि मैं अकृतज्ञ हूँ और ऐसा समझकर तुम लोग हमसे बुरा तो नहीं मानने लगी हो? निस्सन्देह भगवान ही प्राणियों के संयोग और वियोग के कारण हैं।

जैसे वायु बादलों, तिनकों, रुई और धूल के कणों को एक-दूसरे से मिला देती है और फिर स्वच्छन्दरूप से उन्हें अलग-अलग कर देती है, वैसे ही समस्त पदार्थों के निर्माता भगवान भी सबका संयोग-वियोग अपनी इच्छानुसार करते रहते हैं। सखियों! यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम सब लोगों को मेरा वह प्रेम प्राप्त हो चुका है, जो मेरी ही प्राप्ति कराने वाला है। क्योंकि मेरे प्रति की हुई प्रेम-भक्ति प्राणियों को अमृतत्त्व (परमानन्द-धाम) प्रदान करने में समर्थ है। प्यारी गोपियों! जैसे घट, पट आदि जितने भी भौतिक पदार्थ हैं, उनके आदि, अन्त और मध्य में, बाहर और भीतर, उनके मूल कारण पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि तथा आकाश ही ओतप्रोत हो रहे हैं, वैसे ही जितने भी पदार्थ हैं, उनके पहले, पीछे, बीच में, बाहर और भीतर केवल मैं-ही-मैं हूँ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वयशीतितम अध्याय श्लोक 47-49 का हिन्दी अनुवाद)

इसी प्रकार सभी प्राणियों के शरीर में यही पाँचों भूत कारणरूप से स्थित हैं और आत्मा भोक्ता के रूप से अथवा जीव के रूप से स्थित है। परन्तु मैं इन दोनों से परे अविनाशी सत्य हूँ। ये दोनों मेरे ही अंदर प्रतीत हो रहे हैं, तुम लोग ऐसा अनुभव करो।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार गोपियों को अध्यात्म ज्ञान की शिक्षा से शिक्षित किया। उसी उपदेश के बार-बार स्मरण से गोपियों का जीवकोश-लिंगशरीर नष्ट हो गया और वे भगवान से एक हो गयीं, भगवान को ही सदा-सर्वदा के लिए प्राप्त हो गयीं।

उन्होंने कहा ;- ‘हे कमलनाभ! अगाधबोध-सम्पन्न बड़े-बड़े योगेश्वर अपने हृदयकमल में आपके चरणकमलों का चिन्तन करते रहते हैं। जो लोग संसार के कुएँ में गिरे हुए हैं, उन्हें उससे निकलने के लिये आपके चरणकमल ही एकमात्र अवलम्बन हैं। प्रभो! आप ऐसी कृपा कीजिये की आपका चरणकमल, घर-गृहस्थी के काम करते रहने पर भी सदा-सर्वदा हमारे हृदय में विराजमान रहे, हम एक क्षण के लिये भी उसे न भूलें।


                         {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【तेरासीवाँ अध्याय】८३

        "भगवान की पटरानियों के साथ द्रौपदी की बातचीत"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्र्यशीतितम अध्याय श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ही गोपियों को शिक्षा देने वाले हैं और वही उस शिक्षा के द्वारा प्राप्त होने वाली वस्तु हैं। इसके पहले, जैसा कि वर्णन किया गया है, भगवान श्रीकृष्ण ने उन पर महान अनुग्रह किया। अब उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर तथा अन्य समस्त सम्बन्धियों से कुशल-मंगल पूछा। भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का दर्शन करने से ही उनके सारे अशुभ नष्ट हो चुके थे। अब जब भगवान श्रीकृष्ण ने उनका सत्कार किया, कुशल-मंगल पूछा, तब वे अत्यन्त आनन्दित होकर उनसे कहने लगे- ‘भगवन्! बड़े-बड़े महापुरुष मन-ही-मन आपके चरणारविन्द का मकरन्द रस पान करते रहते हैं। कभी-कभी उनके मुखकमल से लीला-कथा के रूप में वह रस छलक पड़ता है। प्रभो! वह इतना अद्भुत दिव्य रस है कि कोई भी प्राणी उसको पी ले तो वह जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालने वाली विस्मृति अथवा अविद्या को नष्ट कर देता है। उसी रस को जो लोग अपने कानों के दोनों में भर-भरकर जी-भर पीते हैं, उनके अमंगल की आशंका ही क्या है? भगवन्! आप एकरस ज्ञानस्वरूप और अखण्ड आनन्द के समुद्र हैं। बुद्धि-वृत्तियों के कारण होने वाली जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति- ये तीनों अवस्थाएँ आपके स्वयं प्रकाश स्वरूप तक पहुँच ही नहीं पातीं, दूर से ही नष्ट हो जाती हैं। आप परमहंसों की एकमात्र गति हैं। समय के फेर से वेदों का ह्रास होते देखकर उसकी रक्षा के लिये आपने अपनी अचिन्त्य योगमाया के द्वारा मनुष्य का-सा शरीर ग्रहण किया है। हम आपके चरणों में बार-बार नमस्कार करते हैं'।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जिस समय दूसरे लोग इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति कर रहे थे, उसी समय यादव और कौरव-कुल की स्त्रियाँ एकत्र होकर आपस में भगवान की त्रिभुवन-विख्यात लीलाओं का वर्णन कर रही थीं। अब मैं तुम्हें उन्हीं की बातें सुनता हूँ।

द्रौपदी ने कहा ;- हे रुक्मिणी, भद्रे, हे जाम्बवती, सत्ये, हे सत्यभामे, कालिन्दी, शैव्ये, लक्ष्मणे, रोहिणी और अन्यान्य श्रीकृष्णपत्नियों! तुम लोग हमें यह तो बताओ कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी माया से लोगों का अनुकरण करते हुए तुम लोगों का किस प्रकार पाणिग्रहण किया?

रुक्मिणी जी ने कहा ;- द्रौपदी जी! जरासन्ध आदि सभी राजा चाहते थे कि मेरा विवाह शिशुपाल के साथ हो; इसके लिये सभी शस्त्रास्त्र से सुसज्जित होकर युद्ध के लिये तैयार थे। परन्तु भगवान मुझे वैसे ही हर लाये, जैसे सिंह बकरी और भेड़ों के झुंड में से अपना भाग छीन ले जाये। क्यों न हो- जगत् में जितने भी अजेय वीर हैं, उनके मुकुटों पर इन्हीं की चरणधूलि शोभायमान होती है। द्रौपदी जी! मेरी तो यही अभिलाषा है कि भगवान के वे ही समस्त सम्पत्ति और सौन्दर्यों के आश्रय चरणकमल जन्म-जन्म मुझे आराधना करने के लिये प्राप्त होते रहें, मैं उन्हीं की सेवा में लगी रहूँ।

सत्यभामा ने कहा ;- द्रौपदी जी! मेरे पिताजी अपने भाई प्रसेन की मृत्यु से बहुत दुःखी हो रहे थे, अतः उन्होंने उनके वध का कलंक भगवान पर ही लगाया। उस कलंक को दूर करने के लिये भगवान ने ऋक्षराज जाम्बवान पर विजय प्राप्त की और वह रत्न लाकर मेरे पिता को दे दिया। अब तो मेरे पिताजी मिथ्या कलंक लगाने के कारण डर गये। अतः यद्यपि वे दूसरे को मेरा वाग्दान कर चुके थे, फिर भी उन्होंने मुझे स्यमन्तक मणि के साथ भगवान के चरणों में ही समर्पित कर दिया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्र्यशीतितम अध्याय श्लोक 10-19 का हिन्दी अनुवाद)

जाम्बवती ने कहा ;- द्रौपदी जी! मेरे पिता ऋजराज जाम्बवान को इस बात का पता न था कि यही मेरे स्वामी भगवान सीतापति हैं। इसलिये वे इनसे सत्ताईस दिन तक लड़ते रहे। परन्तु जब परीक्षा पूरी हुई, उन्होंने जान लिया कि ये भगवान राम ही हैं, तब इनके चरणकमल पकड़ कर स्यमन्तक मणि के साथ उपहार के रूप में मुझे समर्पित कर दिया। मैं यही चाहती हूँ कि जन्म-जन्म इन्हीं की दासी बनी रहूँ।

कालिन्दी ने कहा ;- द्रौपदी जी! जब भगवान को यह मालूम हुआ कि मैं उनके चरणों का स्पर्श करने की आशा-अभिलाषा से तपस्या कर रही हूँ, तब वे अपने सखा अर्जुन के साथ यमुना-तट पर आये और मुझे स्वीकार कर लिया। मैं उनका घर बुहारने वाली उनकी दासी हूँ।

मित्रविन्दा ने कहा ;- द्रौपदी जी! मेरा स्वयंवर हो रहा था। वहाँ आकर भगवान ने सब राजाओं को जीत लिया और जैसे सिंह झुंड-के-झुंड कुत्तों में से अपना भाग ले जाये, वैसे ही मुझे अपनी शोभामयी द्वारकापूरी में ले आये। मेरे भाइयों ने भी मुझे भगवान से छुड़ाकर मेरा अपकार करना चाहा, परन्तु उन्होंने उन्हें भी नीचा दिखा दिया। मैं ऐसा चाहती हूँ कि मुझे जन्म-जन्म उनके पाँव पखारने का सौभाग्य प्राप्त होता रहे।

सत्या ने कहा ;- द्रौपदी जी! मेरे पिताजी ने स्वयंवर में आये हुए राजाओं के बल-पौरुष की परीक्षा के लिये बड़े बलवान और पराक्रमी, तीखे सींग वाले सात बैल रख छोड़े थे। उन बैलों ने बड़े-बड़े वीरों का घमंड चूर-चूर कर दिया था। उन्हें भगवान ने खेल-खेल में ही झपटकर पकड़ लिया, नाथ लिया और बाँध दिया; ठीक वैसे ही, जैसे छोटे-छोटे बच्चे बकरी के बच्चों को पकड़ लेते हैं। इस प्रकार भगवान बल-पौरुष द्वारा मुझे प्राप्त कर चतुरंगिणी सेना और दासियों के साथ द्वारका ले आये। मार्ग में जिन क्षत्रियों ने विघ्न डाला, उन्हें जीत भी लिया। मेरी यही अभिलाषा है कि मुझे इनकी सेवा का अवसर सदा-सर्वदा प्राप्त होता रहे।

भद्रा ने कहा ;- द्रौपदी जी! भगवान मेरे मामा के पुत्र हैं। मेरा चित्त इन्हीं के चरणों में अनुरक्त हो गया था। जब मेरे पिताजी को यह बात मालूम हुई, तब उन्होंने स्वयं ही भगवान को बुलाकर अक्षौहिणी सेना और बहुत-सी दासियों के साथ इन्हीं के चरणों में समर्पित कर दिया। मैं अपना परम कल्याण इसी में समझती हूँ कि कर्म के अनुसार मुझे जहाँ जन्म लेना पड़े, सर्वत्र इन्हीं के चरणकमलों का संस्पर्श प्राप्त होता रहे।

लक्ष्मणा ने कहा ;- रानीजी! देवर्षि नारद बार-बार भगवान के अवतार और लीलाओं का गान करते रहते थे। उसे सुनकर और यह सोचकर कि लक्ष्मी जी ने समस्त लोकपालों का त्याग करके भगवान का ही वरण किया, मेरा चित्त भगवान के चरणों में आसक्त हो गया। साध्वी! मेरे पिता बृहत्सेन मुझ पर बहुत प्रेम रखते थे। जब उन्हें मेरा अभिप्राय मालूम हुआ, तब उन्होंने मेरी इच्छा की पूर्ति के लिये यह उपाय किया। महारानी! जिस प्रकार पाण्डववीर अर्जुन की प्राप्ति के लिये आपके पिता ने स्वयंवर में मत्स्यवेध का आयोजन किया था, उसी प्रकार मेरे पिता ने भी किया। आपके स्वयंर की अपेक्षा हमारे यहाँ यह विशेषता थी कि मत्स्य बाहर से ढका हुआ था, केवल जल में ही उसकी परछाईं दीख पड़ती थी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्र्यशीतितम अध्याय श्लोक 20-32 का हिन्दी अनुवाद)

जब यह समाचार राजाओं को मिला, तब सब ओर से समस्त अस्त्र-शस्त्रों के तत्त्वज्ञ हजारों राजा अपने-अपने गुरुओं के साथ मेरे पिताजी की राजधानी में आने लगे। मेरे पिताजी ने आये हुए सभी राजाओं का बल-पौरुष और अवस्था के अनुसार भलीभाँति स्वागत-सत्कार किया। उन लोगों ने मुझे प्राप्त करने की इच्छा से स्वयंवर-सभा में रखे हुए धनुष और बाण उठाये। उनमें से कितने ही राजा तो धनुष पर ताँत भी न चढ़ा सके। उन्होंने धनुष को ज्यों-का-त्यों रख दिया। कइयों ने धनुष की डोरी को एक सिरे से बाँधकर दूसरे सिरे तक खींच तो लिया, परन्तु वे उसे दूसरे सिरे से बाँध न सके, उसका झटका लगने से गिर पड़े।

रानी जी! बड़े-बड़े प्रसिद्ध वीर- जैसे जरासन्ध, अम्बष्ठ नरेश, शिशुपाल, भीमसेन, दुर्योधन और कर्ण- इन लोगों ने धनुष पर डोरी तो चढ़ा ली; परन्तु उन्हें मछली की स्थिति का पता न चला। पाण्डववीर अर्जुन ने जल में उस मछली की परछाईं देख ली और यह भी जान लिया कि वह कहाँ है। बड़ी सावधानी से उन्होंने बाण छोड़ा भी; परन्तु उससे लक्ष्यवेध न हुआ, उनके बाण ने केवल उसका स्पर्शमात्र किया। रानी जी! इस प्रकार बड़े-बड़े अभिमानियों का मान मर्दन हो गया। अधिकांश नरपतियों ने मुझे पाने की लालसा एवं साथ-ही-साथ लक्ष्यवेध की चेष्टा भी छोड़ दी। तब भगवान ने धनुष उठाकर खेल-खेल में- अनायास ही उस पर डोरी चढ़ा दी, बाण साधा और जल में केवल एक बार मछली की परछाईं देखकर बाण मारा तथा उसे नीचे गिरा दिया। उस समय ठीक दोपहर हो रहा था, सर्वार्थसाधक ‘अभिजित्’ नामक मुहूर्त बीत रहा था।

देवी जी! उस समय पृथ्वी में जय-जयकार होने लगा और आकाश में दुन्दुभियाँ बजने लगीं। बड़े-बड़े देवता आनन्द-विह्वल होकर पुष्पों की वर्षा करने लगे। रानी जी! उसी समय मैंने रंगशाला में प्रवेश किया। मेरे पैरों में पायजेब रुनझुन-रुनझुन बोल रहे थे। मैंने नये-नये उत्तम रेशमी वस्त्र धारण कर रखे थे। मेरी चोटियों में मालाएँ गुँथी हुई थीं और मुँह पर लज्जामिश्रित मुसकराहट थी। मैं अपने हाथों में रत्नों का हार लिये हुए थी, जो बीच-बीच में लगे हुए सोने के कारण और भी दमक रहा था। रानी जी! उस समय मेरा मुखमण्डल घनी घुँघराली अलकों से सुशोभित हो रहा था तथा कपोलों पर कुण्डलों की आभा पड़ने से वह और भी दमक उठा था। मैंने एक बार अपना मुख उठाकर चन्द्रमा की किरणों के समान सुशीतल हास्यरेखा और तिरछी चितवन से चारों और बैठे हुए राजाओं की और देखा, फिर धीरे से अपनी वरमाला भगवान के गले में डाल दी। यह तो कह ही चुकी हूँ कि मेरा हृदय पहले से ही भगवान के प्रति अनुरक्त था। मैंने ज्यों ही वरमाला पहनायी त्यों ही मृदंग, पखावज, शंख, ढोल, नगारे आदि बाजे बजने लगे। नट और नर्तकियाँ नाचने लगीं। गवैये गाने लगे।

द्रौपदी जी! जब मैंने इस प्रकार अपने स्वामी प्रियतम भगवान को वरमाला पहना दी, उन्हें वरण कर लिया, तब कामातुर राजाओं को बड़ा डाह हुआ। वे बहुत ही चिढ़ गये। चतुर्भुज भगवान ने अपने श्रेष्ठ चार घोड़ों वाले रथ पर मुझे चढ़ा लिया और हाथ में शारंग धनुष लेकर तथा कवच पहनकर युद्ध करने के लिये वे रथ पर खड़े हो गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्र्यशीतितम अध्याय श्लोक 33-43 का हिन्दी अनुवाद)

पर रानी जी! दारुक ने सोने के साज-सामान से लदे हुए रथ को सब राजाओं के सामने ही द्वारका के लिये हाँक दिया, जैसे कोई सिंह हरिनियों के बीच से अपना भाग ले जाये। उनमें से कुछ राजाओं ने धनुष लेकर युद्ध के लिये सज-धजकर इस उद्देश्य से रास्ते में पीछा किया कि हम भगवान को रोक लें; परन्तु रानी जी! उनकी चेष्टा ठीक वैसी ही थी, जैसे कुत्ते सिंह को रोकना चाहें। शारंग धनुष के छूटे हुए तीरों से किसी की बाँह कट गयी तो किसी के पैर कटे और किसी की गर्दन ही उतर गयी। बहुत-से लोग तो उस रणभूमि में ही सदा के लिये सो गये और बहुत-से युद्धभूमि छोड़कर भाग खड़े हुए।

तदनन्तर यदुवंशशिरोमणि भगवान ने सूर्य की भाँति अपने निवासस्थान स्वर्ग और पृथ्वी में सर्वत्र प्रशंसित द्वारका-नगरी में प्रवेश किया। उस दिन वह विशेषरूप से सजायी गयी थी। इतनी झंडियाँ, पताकाएँ और तोरण लगाये गये थे कि उनके कारण सूर्य का प्रकाश धरती तक नहीं आ पाता था। मेरी अभिलाषा पूर्ण हो जाने से पिताजी को बहुत प्रसन्नता हुई। उन्होंने अपने हितैषी-सुहृदों, सगे-सम्बन्धियों और भाई-बन्धुओं को बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण, शय्या, आसन और विविध प्रकार की सामग्रियाँ देकर सम्मानित किया। भगवान परिपूर्ण हैं- तथापि मेरे पिताजी ने प्रेमवश उन्हें बहुत-सी दासियाँ, सब प्रकार की सम्पत्तियाँ, सैनिक, हाथी, रथ, घोड़े एवं बहुत-से बहुमूल्य अस्त्र-शस्त्र समर्पित किये। रानी जी! हमने पूर्वजन्म में सबकी आसक्ति छोड़कर कोई बहुत बड़ी तपस्या की होगी। तभी तो हम इस जन्म में आत्माराम भगवान की गृह-दासियाँ हुई हैं।

सोलह हजार पत्नियों की ओर से रोहिणी जी ने कहा- भौमासुर ने दिग्विजय के समय बहुत-से राजाओं को जीतकर उनकी कन्या हम लोगों को अपने महल में बंदी बना रखा था। भगवान ने यह जानकर युद्ध में भौमासुर और उसकी सेना का संहार कर डाला और स्वयं पूर्णकाम होने पर भी उन्होंने हम लोगों को वहाँ से छुड़ाया तथा पाणिग्रहण करके अपनी दासी बना लिया। रानी जी! हम सदा-सर्वदा उनके उन्हीं चरणकमलों का चिन्तन करती रहती थीं, जो जन्म-मृत्युरूप संसार से मुक्त करने वाले हैं।

साध्वी द्रौपदी जी! हम साम्राज्य, इन्द्रपद अथवा इन दोनों के भोग, अणिमा आदि ऐश्वर्य, ब्रह्मा का पद, मोक्ष अथवा सालोक्य, सारूप्य आदि मुक्तियाँ- कुछ भी नहीं चाहतीं। हम केवल इतना ही चाहती हैं कि अपने प्रियतम प्रभु के सुकोमल चरणकमलों की वह श्रीरज सर्वदा अपने सिर पर वहन किया करें, जो लक्ष्मी जी के वक्षःस्थल पर लगी हुई केशर की सुगन्ध से युक्त है। उदारशिरोमणि भगवान के जिन चरणकमलों का स्पर्श उनके गौ चराते समय गोप, गोपियाँ, भीलिनें, तिनके और घास लताएँ तक करना चाहतीं थीं, उन्हीं की हमें भी चाह है।

                         {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【चौरासीवाँ अध्याय】८४

                            "वसुदेवजी का यज्ञोत्सव"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुरशीतितम अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! सर्वात्मा भक्तभयहारी भगवान श्रीकृष्ण के प्रति उनकी पत्नियों का कितना प्रेम है- यह बात कुन्ती, गान्धारी, द्रौपदी, सुभद्रा, दूसरी राजपत्नियों और भगवान की प्रियतमा गोपियों ने भी सुनी। सब-की-सब उनका यह अलौकिक प्रेम देखकर अत्यन्त मुग्ध, अत्यन्त विस्मित हो गयीं। सबके नेत्रों में प्रेम के आँसू छलक आये। इस प्रकार जिस समय स्त्रियों से स्त्रियाँ और पुरुषों से पुरुष बातचीत कर रहे थे, उसी समय बहुत-से ऋषि-मुनि भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी का दर्शन करने के लिये वहाँ आये। उनमें प्रधान ये थे- श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास, देवर्षि नारद, च्यवन, देवल, असित, विश्वामित्र, शतानन्द, भरद्वाज, गौतम, अपने शिष्यों के सहित भगवान परशुराम, वसिष्ठ, गालव, भृगु, पुलस्त्य, कश्यप, अत्रि, मार्कण्डेय, बृहस्पति, द्वित, त्रित, एकत, सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार , अंगिरा, अगस्त्य, याज्ञवल्क्य और वामदेव इत्यादि।

ऋषियों को देखकर पहले से बैठे हुए नरपतिगण, युधिष्ठिर आदि पाण्डव, भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी सहसा उठकर खड़े हो गये और सब ने उन विश्ववन्दित ऋषियों को प्रणाम किया। इसके बाद स्वागत, आसन, पाद्य, अर्घ्य, पुष्पमाला, धूप और चन्दन आदि से सब राजाओं ने तथा बलराम जी के साथ स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उन सब ऋषियों की विधिपूर्वक पूजा की। जब सब ऋषि-मुनि आराम से बैठ गये, तब धर्मरक्षा के लिये अवतीर्ण भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा। उस समय वह बहुत बड़ी सभा चुपचाप भगवान का भाषण सुन रही थी।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- धन्य है! हम लोगों का जीवन सफल हो गया, आज जन्म लेने का हमें पूरा-पूरा फल मिल गया; क्योंकि जिन योगेश्वरों का दर्शन बड़े-बड़े देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है, उन्हीं का दर्शन हमें प्राप्त हुआ है। जिन्होंने बहुत थोड़ी तपस्या की है और जो लोग अपने इष्टदेव को समस्त प्राणियों के हृदय में न देखकर केवल मूर्ति विशेष में ही उनका दर्शन करते हैं, उन्हें आप लोगों के दर्शन, स्पर्श, कुशल-प्रश्न, प्रणाम और पादपूजन आदि का सुअवसर भला कब मिल सकता है?

केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं कहलाते और केवल मिट्टी या पत्थर की प्रतिमाएँ ही देवता नहीं होतीं; संत पुरुष ही वास्तव में तीर्थ और देवता हैं; क्योंकि उनका बहुत समय तक सेवन किया जाये, तब वे पवित्र हैं; परन्तु संत पुरुष तो दर्शन मात्र से ही कृतार्थ कर देते हैं। अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, तारे, पृथ्वी, जल, आकाश, वायु, वाणी और मन के अधिष्ठातृ-देवता उपासना करने पर भी पाप का पूरा-पूरा नाश नहीं कर सकते; क्योंकि उनकी उपासना से भेद-बुद्धि का नाश नहीं होता, वह और भी बढ़ती है। परन्तु यदि घड़ी-दो-घड़ी भी ज्ञानी महापुरुषों की सेवा की जाये तो वे सारे पाप-ताप मिटा देते हैं; क्योंकि वे भेद-बुद्धि के विनाशक हैं। महात्माओ और सभासदो! जो मनुष्य वात, पित्त और कफ- इन तीन धातुओं से बने हुए शवतुल्य शरीर को ही आत्मा-अपना, ‘मैं’, स्त्री-पुत्र आदि को ही अपना और मिट्टी, पत्थर, काष्ठ, आदि पार्थिव विकारों को ही इष्टदेव मानता है तथा जो केवल जल को ही तीर्थ समझता है- ज्ञानी महापुरुषों को नहीं, वह मनुष्य होने पर भी पशुओं में भी नीच गधा ही है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुरशीतितम अध्याय श्लोक 14-24 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण अखण्ड ज्ञानसम्पन्न हैं। उनका यह गूढ भाषण सुनकर सब-के-सब ऋषि-मुनि चुप रह गये। उनकी बुद्धि चक्कर में पड़ गयी, वे समझ न सके कि भगवान यह क्या कह रहे हैं। उन्होंने बहुत देर तक विचार करने के बाद यह निश्चय किया कि भगवान सर्वेश्वर होने पर भी जो इस प्रकार सामान्य, कर्म-परतन्त्र जीव की भाँति व्यवहार कर रहे हैं- यह केवल लोक संग्रह के लिये ही है। ऐसा समझकर वे मुसकराते हुए जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण से कहने लगे।

मुनियों ने कहा ;- भगवन्! आपकी माया से प्रजापतियों के अधीश्वर मरीचि आदि तथा बड़े-बड़े तत्त्वज्ञानी हम लोग मोहित हो रहे हैं। आप स्वयं ईश्वर होते हुए भी मनुष्य की-सी चेष्टाओं से अपने को छिपाये रखकर जीव की भाँति आचरण करते हैं। भगवन्! सचमुच आपकी लीला अत्यन्त विचित्र है। परम आश्चर्यमयी है। जैसे पृथ्वी अपने विकारों–वृक्ष, पत्थर, घट आदि के द्वारा बहुत-से नाम और रूपों को ग्रहण कर लेती है, वास्तव में वह एक ही है, वैसे ही आप एक और चेष्टाहीन होने पर भी अनेक रूप धारण कर लेते हैं और अपने-आप से इस जगत् की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। पर यह सब करते हुए भी इन कर्मों से लिप्त नहीं होते। जो सजातीय, विजातीय और स्वगत भेदशून्य एकरस अनन्त है, उसका यह चरित्र लीलामात्र नहीं तो और क्या है? धन्य है आपकी यह लीला।

भगवन्! यद्यपि आप प्रकृति से परे, स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं, तथापि समय-समय पर भक्तजनों की रक्षा और दुष्टों का दमन करने के लिये विशुद्ध सत्त्वमय श्रीविग्रह प्रकट करते हैं और अपनी लीला के द्वारा सनातन वैदिक मार्गों की रक्षा करते हैं; क्योंकि सभी वर्णों और आश्रमों के रूप में आप स्वयं ही प्रकट हैं। भगवन्! वेद आपका विशुद्ध हृदय हैं; तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारा उसी में आपके साकार-निराकार रूप और दोनों के अधिष्ठान-स्वरूप परब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार होता है। परमात्मन्! ब्राह्मण ही वेदों के आधारभूत आपके स्वरूप की उपलब्धि के स्थान हैं; इसी से आप ब्राह्मणों का सम्मान करते हैं और इसी से आप ब्राह्मणभक्तों में अग्रगण्य भी हैं। आप सर्वविध कल्याण-साधनों की चरमसीमा हैं और संत पुरुषों की एकमात्र गति हैं। आपसे मिलकर आज हमारे जन्म, विद्या, तप और ज्ञान सफल हो गये। वास्तव में सबके परम फल आप ही हैं।

प्रभो! आपका ज्ञान अनन्त है, आप स्वयं सच्चिदानन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मा भगवान हैं। आपने अपनी अचिन्त्य शक्ति योगमाया के द्वारा अपनी महिमा छिपा रखी है, हम आपको नमस्कार करते हैं। ये सभा में बैठे हुए राजा लोग और दूसरों की तो बात ही क्या, स्वयं आपके साथ आहार-विहार करने वाले यदुवंशी लोग भी आपको वास्तव में नहीं जानते; क्योंकि आपने अपने स्वरूप को- जो सबका आत्मा, जगत् का आदिकारण और नियन्ता है- माया के परदे से ढक रखा है। जब मनुष्य स्वप्न देखने लगता है, उस समय स्वप्न के मिथ्या पदार्थों को ही सत्य समझ लेता है और नाममात्र की इन्द्रियों से प्रतीत होने वाले अपने स्वप्न शरीर को ही वास्तविक शरीर मान बैठता है। उसे उतनी देर के लिये इस बात का बिलकुल ही पता नहीं रहता कि स्वप्न शरीर के अतिरिक्त एक जाग्रत्-अवस्था का शरीर भी है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुरशीतितम अध्याय श्लोक 25-37 का हिन्दी अनुवाद)

ठीक इसी प्रकार, जाग्रत्-अवस्था में भी इन्द्रियों की प्रवृत्तिरूप माया से चित्त मोहित होकर नाममात्र के विषयों में भटकने लगता है। उस समय भी चित्त के चक्कर से विवेकशक्ति ढक जाती है और जीव यह नहीं जान पाता कि आप इस जाग्रत् संसार से परे हैं। प्रभो! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि अत्यन्त परिपक्व योग-साधना के द्वारा आपके उन चरणकमलों को हृदय में धारण करते हैं, जो समस्त पाप-राशि को नष्ट करने वाले गंगाजल के भी आश्रय-स्थान हैं। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आज हमें उन्हीं का दर्शन हुआ है। प्रभो! हम आपके भक्त हैं, आप हम पर अनुग्रह कीजिये; क्योंकि आपके परम पद की प्राप्ति उन्हीं लोगों को होती हैं, जिनका लिंग शरीररूप जीव-कोश आपकी उत्कृष्ट भक्ति के द्वारा नष्ट हो जाता है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजर्षे! भगवान की इस प्रकार स्तुति करके और उनसे, राजा धृतराष्ट्र से तथा धर्मराज युधिष्ठिर जी से अनुमति लेकर उन लोगों ने अपने-अपने आश्रम पर जाने का विचार किया। परम यशस्वी वसुदेव जी उनका जाने का विचार देखकर उनके पास आये और उन्हें प्रणाम किया और उनके चरण पकड़कर बड़ी नम्रता से निवेदन करने लगे। वसुदेव जी ने कहा- ऋषियों! आप लोग सर्वदेवस्वरूप हैं। मैं आप लोगों को नमस्कार करता हूँ। आप लोग कृपा करके मेरी एक प्रार्थना सुन लीजिये। वह यह कि जिन कर्मों के अनुष्ठान से कर्मों और कर्मवासनाओं का आत्यन्तिक नाश- मोक्ष हो जाये, उनका आप मुझे उपदेश कीजिये।

नारद जी ने कहा ;- ऋषियों! यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि वसुदेव जी श्रीकृष्ण को अपना बालक समझकर शुद्ध जिज्ञासा के भाव से अपने कल्याण का साधन हम लोगों से पूछ रहे हैं। संसार में बहुत पास रहना मनुष्यों के अनादर का कारण हुआ करता है। देखते हैं, गंगातट पर रहने वाला पुरुष गंगाजल को छोड़कर अपनी शुद्धि के लिये दूसरे तीर्थ में जाता है। श्रीकृष्ण की अनुभूति समय के फेर से होने वाली जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय से मिटने वाली नहीं है। वह स्वतः किसी दूसरे निमित्त से, गुणों से और किसी से भी क्षीण नहीं होती। उनका ज्ञानमय स्वरूप अविद्या, राग-द्वेष आदि क्लेश, पुण्य-पापमय कर्म, सुख-दुःखादि कर्मफल तथा सत्त्व आदि गुणों के प्रवाह से खण्डित नहीं है। वे स्वयं अद्वितीय परमात्मा हैं। जब वे अपने को अपनी ही शक्तियों- प्राण आदि से ढक लेते हैं, तब मूर्ख लोग ऐसा समझते हैं कि वे ढक गये, जैसे बादल, कुहरा या ग्रहण के द्वारा अपने नेत्रों के ढक जाने पर सूर्य को ढका हुआ मान लेते हैं।

परीक्षित! इसके बाद ऋषियों ने भगवान श्रीकृष्ण, बलराम जी और अन्यान्य राजाओं के सामने ही वसुदेव जी को सम्बोधित करके कहा- ‘कर्मो के द्वारा कर्मवासनाओं और कर्मफलों का अत्यान्तिक नाश करने का सबसे अच्छा उपाय यह है कि यज्ञ आदि के द्वारा समस्त यज्ञों के अधिपति भगवान विष्णु की श्रद्धापूर्वक आराधना करे। त्रिकालदर्शी ज्ञानियों ने शास्त्रदृष्टि से यही चित्त की शान्ति का उपाय, सुगम मोक्ष साधन और चित्त में आनन्द का उल्लास करने वाला धर्म बतलाया है। अपने न्यायार्जित धन से श्रद्धापूर्वक पुरुषोत्तम भगवान की आराधना करना ही द्विजाति- ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ग्रहस्थ के लिये परम कल्याण का मार्ग है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुरशीतितम अध्याय श्लोक 38-50 का हिन्दी अनुवाद)

वसुदेव जी! विचारवान् पुरुष को चाहिये कि यज्ञ, दान आदि के द्वारा धन कि इच्छा को, ग्रहस्थोचित भोगों द्वारा स्त्री-पुत्र कि इच्छा को और कालक्रम से स्वर्गादि भोग भी नष्ट हो जाते हैं- इस विचार से लोकैषणा को त्याग दे। इस प्रकार धीर पुरुष घर में रहते हुए ही तीनों प्रकार कि एषाणाओं-इच्छाओं का परित्याग करके तपोवन का रास्ता लिया करते थे।

समर्थ वसुदेवद जी! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य- ये तीनों देवता, ऋषि और पितरों का ऋण लेकर ही पैदा होते हैं। इनके ऋणों से छुटकारा मिलता है यज्ञ, अध्ययन और संतानोत्पत्ति से। इनसे उऋण हुए बिना ही जो संसार का त्याग करता है, उसका पतन हो जाता है। परम बुद्धिमान वसुदेव जी! आप अब तक ऋषि और पितरों के ऋण से तो मुक्त हो चुके हैं। अब यज्ञों के द्वारा देवताओं का ऋण चुका दीजिये और इस प्रकार सबसे उऋण होकर गृहत्याग कीजिये, भगवान कि शरण हो जाइये। वसुदेव जी! आपने अवश्य ही परम भक्ति से जगदीश्वर भगवान कि आराधना की है; तभी तो वे आप दोनों के पुत्र हुए हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! परम मनस्वी वसुदेव जी ने ऋषियों कि यह बात सुनकर, उनके चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया, उन्हें प्रसन्न किया और यज्ञ के ऋत्विजों के रूप में उनका वरण कर लिया। राजन्! जब इस प्रकार वसुदेव जी ने धर्मपूर्वक ऋषियों का वरण कर लिया, तब उन्होंने पुण्यक्षेत्र कुरुक्षेत्र में परम धार्मिक वसुदेव जी के द्वारा उत्तमोत्तम सामग्री से युक्त यज्ञ करवाये।

परीक्षित! जब वसुदेव जी ने यज्ञ कि दीक्षा ले ली, तब यदुवंशियों ने स्नान करके सुन्दर वस्त्र और कमलों कि मालाएँ धारण कर लीं, राजा लोग वस्त्राभूषणों से खूब सुसज्जित हो गये। वसुदेव जी कि पत्नियों ने सुन्दर वस्त्र, अंगराग और सोने के हारों से अपने को सजा लिया और फिर वे सब बड़े आनन्द से अपने-अपने हाथों में मांगलिक सामग्री लेकर यज्ञशाला में आयीं। उस समय मृदंग, पखावज, शंख, ढोल और नगारे आदि बाजे बजने लगे। नट और नर्तकियाँ नाचने लगीं। सूत और मागध स्तुति गान करने लगे। गन्धर्वों के साथ सुरीले गले वाली गन्धर्वपत्नियाँ गान करने लगीं।

वसुदेव जी ने पहले नेत्रों में अंजन और शरीर में मक्खन लगा लिया; फिर उनकी देवकी आदि अठारह पत्नियों के साथ उन्हें ऋत्विजों ने महाभिषेक कि विधि से वैसे ही अभिषेक कराया, जिस प्रकार प्राचीन काल में नक्षत्रों के साथ चन्द्रमा का अभिषेक हुआ था। उस समय यज्ञ में दीक्षित होने के कारण वसुदेव जी तो मृगचर्म धारण किये हुए थे; परन्तु उनकी पत्नियाँ सुन्दर-सुन्दर साड़ी, कंगन, हार, पायजेब और कर्णफूल आदि आभूषणों से खूब सजी हुई थीं। वे अपनी पत्नियों के साथ भलीभाँति शोभायमान हुए। महाराज! वसुदेव जी के ऋत्विज् और सदस्य रत्नजटित आभूषण तथा रेशमी वस्त्र धारण करके वैसे ही सुशोभित हुए, जैसे पहले इन्द्र के यज्ञ में हुए थे। उस समय भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी अपने-अपने भाई-बन्धु और स्त्री-पुत्रों के साथ इस प्रकार शोभायमान हुए, जैसे अपनी शक्तियों के साथ समस्त जीवों के ईश्वर स्वयं भगवान समिष्ट जीवों के अभिमानी श्रीसंकर्षण तथा अपने विशुद्ध नारायणस्वरूप में शोभायमान होते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुरशीतितम अध्याय श्लोक 51-64 का हिन्दी अनुवाद)

वसुदेव जी ने प्रत्येक यज्ञ में ज्योतिष्टोम, दर्श, पूर्णमास आदि प्राकृत यज्ञों, सौरसत्रादि वैकृत यज्ञों और अग्निहोत्र आदि अन्यान्य यज्ञों के द्वारा द्रव्य, क्रिया और उनके ज्ञान के- मन्त्रों के स्वामी विष्णु भगवान की आराधना की। इसके बाद उन्होंने उचित समय पर ऋत्विजों को वस्त्रालंकारों से सुसज्जित किया और शास्त्र के अनुसार बहुत-सी दक्षिणा तथा प्रचुर धन के साथ अलंकृत गौएँ, पृथ्वी और सुंदरी कन्याएँ दीं।

इसके बाद महर्षियों ने पत्नीसंयाज नामक यज्ञांग और अवभृथ स्नान अर्थात् यज्ञान्त-स्नान सम्बन्धी अवशेष कर्म कराकर वसुदेव जी को आगे करके परशुराम जी के बनाये ह्नद में- रामह्नद में स्नान किया। स्नान करने के बाद वसुदेव जी और उनकी पत्नियों ने वंदीजनों को अपने सारे वस्त्राभूषण दे दिये तथा स्वयं अन्य वस्त्राभूषण से सुसज्जित होकर उन्होंने ब्राह्मणों से लेकर कुत्तों तक को भोजन कराया। तदनन्तर अपने भाई-बन्धुओं, उनके स्त्री-पुत्रों तथा विदर्भ, कोसल, कुरु, काशी, केकय और सृंजय आदि देशों के राजाओं, सदस्यों, ऋत्विजों, देवताओं, मनुष्यों, भूतों, पितरों और चारणों को विदाई के रूप में बहुत-सी भेंट देकर सम्मानित किया। वे लोग लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्ण की अनुमति लेकर यज्ञ की प्रशंसा करते हुए अपने-अपने घर चले गये।

परीक्षित! उस समय राजा धृतराष्ट्र, विदुर, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कुन्ती, नकुल, सहदेव, नारद, भगवान व्यासदेव, तथा दूसरे स्वजन, सम्बन्धी और बान्धव अपने हितैषी बन्धु यादवों को छोड़कर जाने में अत्यन्त विरह-व्यथा का अनुभव करने लगे। उन्होंने अत्यन्त स्नेहार्द्र चित्त से यदुवंशियों का आलिंगन किया और बड़ी कठिनाई से किसी प्रकार अपने-अपने देश को गये। दूसरे लोग भी इनके साथ ही वहाँ से रवाना हो गये। परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण, बलराम जी तथा उग्रसेन आदि ने नन्दबाबा एवं अन्य सभी गोपों की बहुत बड़ी-बड़ी सामग्रियों से अर्चा-पूजा की; उनका सत्कार किया; और वे प्रेम-परवश होकर बहुत दिनों तक वहीं रहे।

वसुदेव जी अनायास ही अपने बहुत बड़े मनोरथ का महासागर पार कर गये थे। उनके आनन्द की सीमा न थी। सभी आत्मीय स्वजन उनके साथ थे। उन्होंने नन्दबाबा का हाथ पकड़कर कहा। वसुदेव जी ने कहा- भाईजी! भगवान ने मनुष्यों के लिये एक बहुत बड़ा बन्धन बना दिया है। उस बन्धन का नाम है स्नेह, प्रेमपाश। मैं तो ऐसा समझता हूँ कि बड़े-बड़े शूरवीर और योगी-यति भी उसे तोड़ने में असमर्थ हैं। आपने हम अकृतज्ञों के प्रति अनुपम मित्रता का व्यवहार किया है। क्यों न हो, आप-सरीखे संत शिरोमणियों का तो ऐसा स्वभाव ही होता है। हम इसका कभी बदला नहीं चुका सकते, आपको इसका कोई फल नहीं दे सकते। फिर भी हमारा यह मैत्री-सम्बन्ध कभी टूटने वाला नहीं है। आप इसको सदा निभाते रहेंगे।

भाईजी! पहले तो बंदीगृह में बंद होने के कारण हम आपका कुछ भी प्रिय और हित न कर सके। अब हमारी यह दशा हो रही है कि हम धन-सम्पत्ति के नशे से- श्रीमद से अंधे हो रहे हैं; आप हमारे सामने हैं तो भी हम आपकी और नहीं देख पाते। दूसरों को सम्मान देकर स्वयं सम्मान न चाहने वाले भाईजी! जो कल्याणकामी है, उसे राज्यलक्ष्मी न मिले- इसी में उसका भला है; क्योंकि मनुष्य राज्यलक्ष्मी से अँधा हो जाता है और अपने भाई-बन्धु, स्वजनों तक को नहीं देख पाता।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुरशीतितम अध्याय श्लोक 65-71 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इस प्रकार कहते-कहते वसुदेव जी का हृदय प्रेम से गद्गद हो गया। उन्हें नन्दबाबा की मित्रता और उपकार स्मरण हो आये। उनके नेत्रों में प्रेमाश्रु उमड़ आये, वे रोने लगे।

नन्द जी अपने सखा वसुदेव जी को प्रसन्न करने के लिये एवं भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी के प्रेमपाश में बँधकर आज-कल करते-करते तीन महीने तक वहीं रह गये। यदुवंशियों ने जी भर उनका सम्मान किया। इसके बाद बहुमूल्य आभूषण, रेशमी वस्त्र, नाना प्रकार की उत्तमोत्तम सामग्रियों और भोगों से नन्दबाबा को, उनके व्रजवासी साथियों को और बन्धु-बान्धवों को खूब तृप्त किया।

वसुदेव जी, उग्रसेन, श्रीकृष्ण, बलराम, उद्धव आदि यदुवंशियों ने अलग-अलग उन्हें अनेकों प्रकार की भेंटें दीं। उनको विदा करने पर उन सब सामग्रियों को लेकर नन्दबाबा, अपने व्रज के लिये रवाना हुए। नन्दबाबा, गोपों और गोपियों का चित्त भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों में इस प्रकार लग गया कि वे फिर प्रयत्न करने पर भी उसे वहाँ से लौटा न सके। सुतरां बिना ही मन के उन्होंने मथुरा की यात्रा की।

जब सब बन्धु-बान्धव वहाँ से विदा हो चुके, तब भगवान श्रीकृष्ण को ही एकमात्र इष्टदेव मानने वाले यदुवंशियों ने यह देखकर कि वर्षा ऋतु आ पहुँची है, द्वारका के लिये प्रस्थान किया। वहाँ जाकर उन्होंने सब लोगों से वसुदेव जी के यज्ञ महोत्सव, स्वजन-सम्बन्धियों के दर्शन-मिलन आदि तीर्थयात्रा के प्रसंगों को कह सुनाया।

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