सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - पूर्वार्ध ) का बयालीसवाँ, तिरतालिसवाँ, चवालिसवाँ, पैतालीसवाँ व छयालिसवाँ अध्याय [ Forty-two, thirty-three, forty-four, forty-five and forty-six chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - पूर्वार्ध ) का बयालीसवाँ, तिरतालिसवाँ, चवालिसवाँ, पैतालीसवाँ व छयालिसवाँ अध्याय [ Forty-two, thirty-three, forty-four, forty-five and forty-six chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]






                          {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                       【बयालीसवाँ अध्याय】४२


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विचत्वारिंश अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"कुब्जपर कृपा, धनुषभङ्ग और कंसकी घबराहट" 

शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण जब अपनी मण्डली के साथ राजमार्ग से आगे बढ़े, तब उन्होंने एक युवती स्त्री को देखा। उसका मुँह तो सुन्दर था, परन्तु वह शरीर से कुबड़ी थी। इसी से उनका नाम पड़ गया था ‘कुब्जा’। वह अपने हाथ में चन्दन का पात्र लिये हुए जा रही थी। भगवान श्रीकृष्ण प्रेमरस का दान करने वाले हैं, उन्होंने कुब्जा पर कृपा करने के लिये हँसते हुए उससे पूछा - ‘सुन्दरी! तुम कौन हो? यह चन्दन किसके लिये ले जा रही हो? कल्याणी! हमें सब बात सच-सच बतला दो। यह उत्तम चन्दन, यह अंगराग हमें भी दो। इस दान से शीघ्र ही तुम्हारा परम कल्याण होगा।'

उबटन आदि लगाने वाली सैरन्ध्री कुब्जा ने कहा - ‘परम सुन्दर! मैं कंस की प्रिय दासी हूँ। महाराज मुझे बहुत मानते हैं। मेरा नाम त्रिवक्रा (कुब्जा) है। मैं उनके यहाँ चन्दन, अंगराग लगाने का काम करती हूँ। मेरे द्वारा तैयार किये हुए चन्दन और अंगराग भोजराज कंस को बहुत भाते हैं। परन्तु आप दोनों से बढ़कर उसका कोई उत्तम पात्र नहीं है।' भगवान के सौन्दर्य, सुकुमारता, रसिकता, मन्दहास्य, प्रेमालाप और चारु चितवन से कुब्जा का मन हाथ से निकल गया। उसने दोनों भाइयों को वह सुन्दर और गाढ़ा अंगराग दे दिया।

तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपने साँवले शरीर पर पीले रंग का और बलराम जी ने अपने गोर शरीर पर लाल रंग का अंगराग लगाया तथा नाभि से ऊपर के भाग में अनुरंजित होकर वे अत्यन्त सुशोभित हुए। भगवान श्रीकृष्ण उस कुब्जा पर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने दर्शन का प्रत्यक्ष फल दिखलाने के लिये तीन जगह से टेढ़ी किन्तु सुन्दर मुखवाली कुब्जा को सीधी करने का विचार किया। भगवान ने अपने चरणों से कुब्जा के पैर के दोनों पंजे दबा लिये और हाथ ऊँचा करके दो अंगुलियाँ उसकी ठोड़ी में लगायीं तथा उसके शरीर को तनिक उचका दिया। उचकाते ही उसके सारे अंग सीधे और समान हो गये। प्रेम और मुक्ति के दाता भगवान के स्पर्श से वह तत्काल विशाल नितम्ब और पीन पयोधरों से युक्त एक उत्तम युवती बन गयी।

उसी क्षण कुब्जा रूप, गुण और उदारता से सम्पन्न हो गयी। उसके मन में भगवान के मिलन की कामना जाग उठी। उसने उनके दुपट्टे का छोर पकड़कर मुस्कराते हुए कहा - ‘वीरशिरोमणे! आइये, घर चलें। अब मैं आपको यहाँ नहीं छोड़ सकती। क्योंकि आपने मेरे चित्त को मथ डाला है। पुरुषोत्तम! मुझ दासी पर प्रसन्न होइये।' जब बलराम जी के सामने ही कुब्जा ने इस प्रकार प्रार्थना की, तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपने साथी ग्वालबालों के मुँह की ओर देखकर हँसते हुए उससे कहा - ‘सुन्दरी! तुम्हारा घर संसारी लोगों के लिये अपनी मानसिक व्याधि मिटाने का साधन है। मैं आपना कार्य पूरा करके अवश्य वहाँ आऊँगा। हमारे-जैसे बेघर के बटोहियों को तुम्हारा ही तो आसरा है।' इस प्रकार मीठी-मीठी बातें करके भगवान श्रीकृष्ण ने उसे विदा कर दिया। जब वे व्यापारियों के बाजार में पहुँचे, तब उन व्यापारियों ने उनका तथा बलराम जी का पान, फूलों के हार, चन्दन और तरह-तरह की भेंट - उपहारों से पूजन किया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विचत्वारिंश अध्याय श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद)

उनके दर्शनमात्र से स्त्रियों के हृदय में प्रेम का आवेग, मिलन की आकांक्षा जग उठती थी। यहाँ तक कि उन्हें अपने शरीर की भी सुधि न रहती। उनके वस्त्र, जुड़े और कंगन ढीले पड़ जाते थे तथा वे चित्रलिखित मूर्तियों के समान ज्यों-की-त्यों खड़ी रह जाती थीं।

इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण पुरवासियों से धनुष-यज्ञ का स्थान पूछते हुए रंगशाला में पहुँचे और वहाँ उन्होंने इन्द्रधनुष के समान एक अद्भुत धनुष देखा। उस धनुष में बहुत-सा धन लगाया गया था, अनेक बहुमूल्य अलंकारों से उसे सजाया गया था। उसकी खूब पूजा की गयी थी और बहुत-से सैनिक उसकी रक्षा कर रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने रक्षकों के रोकने पर भी उस धनुष को बलात उठा लिया।

उन्होंने सबके देखते-देखते उस धनुष को बायें हाथ से उठाया, उस पर डोरी चढ़ायी और एक क्षण में खींचकर बीचो-बीच से उसी प्रकार उसके दो टुकड़े कर डाले, जैसे बहुत बलवान मतवाला हाथी खेल-ही-खेल में ईख को तोड़ डालता है। जब धनुष टूटा तब उसके शब्द से आकाश, पृथ्वी और दिशाएँ भर गयीं; उसे सुनकर कंस भी भयभीत हो गया। अब धनुष रक्षक आततायी असुर अपने सहायकों के साथ बहुत ही बिगड़े। वे भगवान श्रीकृष्ण को घेरकर खड़े हो गये और उन्हें पकड़ लेने की इच्छा से चिल्लाने लगे - ‘पकड़ लो, बाँध लो, जाने ना पावे।'

उनका दुष्ट अभिप्राय जानकार बलराम जी और श्रीकृष्ण भी तनिक क्रोधित हो गये और उस धनुष के टुकड़ों को उठाकर उन्हीं से उनका काम तमाम कर दिया। उन्हीं धनुषखण्डों से उन्होंने उन असुरों की सहायता के लिये कंस की भेजी हुई सेना का भी संहार कर डाला। इसके बाद वे यज्ञशाला के प्रधान द्वार से होकर बाहर निकल आये और बड़े आनन्द से मथुरापुरी की शोभा देखते हुए विचरने लगे।

जब नगरवासियों ने दोनों भाइयों के इस अद्भुत पराक्रमी की बात सुनी और उनके तेज, साहस तथा अनुपम रूप को देखा तब उन्होंने यही निश्चय किया कि हो-न-हो ये दोनों कोई श्रेष्ठ देवता हैं। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी पूरी स्वतंत्रता से मथुरापुरी में विचरण करने लगे। जब सूर्यास्त हो गया तब दोनों भाई ग्वालबालों से घिरे हुए नगर से बाहर अपने डेरे पर, जहाँ छकड़े थे, लौट आये।

तीनों लोकों के बड़े-बड़े देवता चाहते थे कि लक्ष्मी हमें मिलें, परन्तु उन्होंने सबका परित्याग कर दिया और न चाहने वाले भगवान का वरण किया। उन्हीं को सदा के लिये अपना निवासस्थान बना लिया। मथुरावासी उन्हीं पुरुषभूषण भगवान श्रीकृष्ण के अंग-अंग का सौन्दर्य देख रहे हैं। उनका कितना सौभाग्य हैं! व्रज में भगवान की यात्रा के समय गोपियों ने विरहातुर होकर मथुरावासियों के सम्बन्ध में जो-जो बातें कहीं थीं, वे सब यहाँ अक्षरशः सत्य हुईं। सचमुच वे परमानन्द एन मग्न हो गये। जब कंस ने सुना कि श्रीकृष्ण और बलराम ने धनुष तोड़ डाला, रक्षकों तथा उनकी सहायता के लिये भेजी हुई सेना का भी संहार कर डाला और यह सब उनके लिये केवल एक खिलवाड़ ही था - इसके लिये उन्हें कोई श्रम या कठिनाई नहीं उठानी पड़ी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विचत्वारिंश अध्याय श्लोक 27-38 का हिन्दी अनुवाद)

तब वह बहुत डर गया, उस दुर्बुद्धि को बहुत देर तक नींद न आयी। उसे जाग्रत-अवस्था में तथा स्वप्न में भी बहुत-से ऐसे अपशकुन हुए जो उसकी मृत्यु के सूचक थे। जाग्रत-अवस्था में उसने देखा कि जल या दर्पण में शरीर की परछाईं तो पड़ती है, परन्तु सिर नहीं दिखायी देता; अँगुली आदि की आड़ ने होने पर भी चन्द्रमा, तारे और दीपक आदि की ज्योतियाँ उसे दो-दो दिखायी पड़ती हैं। छाया में छेद दिखायी पड़ता है और कानों में अँगुली डालकर सुनने पर भी प्राणों का घूँ-घूँ शब्द नहीं सुनायी पड़ता। वृक्ष सुनहले प्रतीत होते हैं और बालू या कीचड़ में अपने पैरों के चिह्न नहीं दीख पड़ते। कंस ने स्वप्नावस्था में देखा कि वह प्रेतों के गले लग रहा है, गधे पर चढ़कर चलता है और विष खा रहा है। उसका सारा शरीर तेल से तर है, गले में जपाकुसुम की माला है और नग्न होकर कहीं जा रहा है। स्वप्न और जाग्रत-अवस्था में उसने इसी प्रकार के और भी बहुत-से अपशकुन देखे। उनके कारण उसे नींद न आयी।

परीक्षित! जब रात बीत गयी और सूर्यनारायण पूर्व समुद्र से ऊपर उठे, तब राजा कंस ने मल्ल-क्रीड़ा - का महोत्सव प्रारम्भ कराया। राजकर्मचारियों ने रंगभूमि को भली-भाँति सजाया। तुरही, भेरी आदि बाजे बजने लगे। लोगों के बैठने के मंच फूलों के गजरों, झंडियों, वस्त्र और बंदनवारों से सजा दिये गये। उन पर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि नागरिक तथा ग्रामवासी - सब यथास्थान बैठ गये। राजा लोग भी अपने-अपने निश्चित स्थान पर जा डटे। राजा कंस अपने मन्त्रियों के साथ मण्डलेश्वरों के बीच में सबसे श्रेष्ठ राजसिंहासन पर जा बैठा। इस समय भी अपशकुनों के कारण उनका चित्त घबड़ाया हुआ था। तब पहलवानों के ताल ठोकने के साथ ही बाजे बजने लगे और गरबीले पहलवान खूब सज-धजकर अपने-अपने उस्तादों के साथ अखाड़े में आ उतरे। चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशल आदि प्रधान-प्रधान पहलवान बाजों की सुमधुर ध्वनि से उत्साहित होकर अखाड़े में आ-आकर बैठ गये। इसी समय भोजराज कंस ने नन्द आदि गोपों को बुलवाया। उन लोगों ने आकर उसे तरह-तरह की भेंटे दीं और फिर जाकर वे एक मंच पर बैठ गये।


                          {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                       【तिरतालिसवाँ अध्याय】४३


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिचत्वारिंश अध्याय श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"कुवलयापीड़का उद्धार और अखाड़े में प्रवेश"

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- काम-क्रोधादि शत्रुओं को पराजित करने वाले परीक्षित! अब श्रीकृष्ण और बलराम भी स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त हो दंगल के अनुरूप नगाड़े की ध्वनि सुनकर रंगभूमि देखने के लिये चल पड़े। भगवान श्रीकृष्ण ने रंगभूमि के दरवाजे पर पहुँचकर देखा कि वहाँ महावत की प्रेरणा से कुवलयापीड नाम का हाथी खड़ा है। तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी कमर कस ली और घुँघराली अलकें समेट लीं तथा मेघ के समान गम्भीर वाणी से महावत को ललकारा। कहा- ‘महावत, ओ महावत! हम दोनों को रास्ता दे दे। हमारे मार्ग से हट जा। अरे, सुनता नहीं? देर मत कर। नहीं तो मैं हाथी के साथ अभी तुझे यमराज के घर पहुँचाता हूँ।'

भगवान श्रीकृष्ण ने महावत को जब इस प्रकार धमकाया, तब वह क्रोध से तिलमिला उठा और उसने काल, मृत्यु तथा यमराज के समान अत्यन्त भयंकर कुवलयापीड को अंकुश की मार से क्रुद्ध करके श्रीकृष्ण की ओर बढ़ाया। कुवलयापीड ने भगवान की ओर झपटकर उन्हें बड़ी तेजी से सूँड़ में लपेट लिया; परन्तु भगवान सूँड़ से बाहर सरक आये और उसे एक घूँसा जमाकर उसके पैरों के बीच में जा छिपे। उन्हें अपने सामने न देखकर कुवलयापीड को बड़ा क्रोध हुआ। उसने सूँघकर भगवान को अपनी सूँड़ से टटोल लिया और पकड़ा भी; परन्तु उन्होंने बलपूर्वक अपने को उससे छुड़ा लिया।

इसके बाद भगवान उस बलवान हाथी की पूँछ पकड़कर खेल-खेल में ही उसे सौ हाथ तक पीछे घसीट लाये; जैसे गरुड़ साँप को घसीट लाते हैं। जिस प्रकार घूमते हुए बछड़े के साथ बालक घूमता है अथवा स्वयं भगवान श्रीकृष्ण जिस प्रकार बछड़ों से खेलते थे, वैसे ही वे उसकी पूँछ पकड़कर उसे घुमाने और खेलने लगे। जब वह दायें से घूमकर उनको पकड़ना चाहता, तब वे बायें आ जाते और जब वह बायें की ओर घूमता, तब वे दायें घूम जाते। इसके बाद हाथी के सामने आकर उन्होंने उसे एक घूँसा जमाया और वे उसे गिराने के लिये इस प्रकार उसके सामने से भागने लगे, मानो वह अब छू लेता है, तब छू लेता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने दौड़ते-दौड़ते एक बार खेल-खेल में ही पृथ्वी पर गिरने का अभिनय किया और झट वहाँ से उठकर भाग खड़े हुए। उस समय वह हाथी क्रोध से जल-भुन रहा था। उसने समझा कि वे गिर पड़े और बड़े जोर से दोनों दाँत धरती पर मारे। जब कुवलयापीड का यह आक्रमण व्यर्थ हो गया, तब वह और भी चिढ़ गया। महावतों की प्रेरणा से वह क्रुद्ध होकर भगवान श्रीकृष्ण पर टूट पड़ा। भगवान मधुसूदन ने जब उसे अपनी ओर झपटते देखा, तब उसके पास चले गये और अपने एक ही हाथ से उसकी सूँड़ पकड़कर उसे धरती पर पटक दिया। उसके गिर जाने पर भगवान ने सिंह के समान खेल-ही-खेल में उसे पैरों से दबाकर उसके दाँत उखाड़ लिये और उन्हीं से हाथी और महावतों का काम तमाम कर दिया ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिचत्वारिंश अध्याय श्लोक 15-26 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! मरे हुए हाथी को छोड़कर भगवान श्रीकृष्ण ने हाथ में उसके दाँत लिये-लिये ही रंगभूमि में प्रवेश किया। उस समय उनकी शोभा देखने ही योग्य थी। उनके कंधे पर हाथी का दाँत रखा हुआ था, शरीर रक्त और मद की बूँदों से सुशोभित था और मुखकमल पर पसीने की बूँदें झलक रहीं थीं।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण और बलराम दोनों के ही हाथ में कुवलयापीड के बड़े-बड़े दाँत शस्त्र के रूप में सुशोभित हो रहे थे और कुछ ग्वालबाल उनके साथ-साथ चल रहे थे। इस प्रकार उन्होंने रंगभूमि में प्रवेश किया। जिस समय भगवान श्रीकृष्ण बलराम जी के साथ रंगभूमि के पधारे, उस समय वे पहलवानों को व्रज कठोर शरीर, साधारण मनुष्यों को नर-रत्न, स्त्रियों को मूर्तिमान कामदेव, गोपों को स्वजन, दुष्ट राजाओं को दण्ड देने वाले शासक, माता-पिता के समान बड़े-बूढ़ों को शिशु, कंस को मृत्यु, अज्ञानियों को विराट, योगियों को परम तत्त्व और भक्तशिरोमणि वृष्णिवंशियों को अपने इष्टदेव जान पड़े।

राजन! वैसे तो कंस बड़ा धीर-वीर था; फिर भी जब उसने देखा इन दोनों ने कुवलयापीड को मार डाला, तब उसकी समझ में यह बात आयी कि इनको जीतना तो बहुत कठिन है। उस समय वह बहुत घबरा गया। श्रीकृष्ण और बलराम की बाँहें बड़ी लम्बी-लम्बी थीं। पुष्पों के हार, वस्त्र और आभूषण आदि से उनका वेष विचित्र हो रहा था; ऐसा जान पड़ता था, मानो उत्तम वेष धारण करके दो नट अभिनय करने के लिये निकले हों। जिनके नेत्र एक बार उन पर पड़ जाते, बस, लग ही जाते। यही नहीं, वे अपनी कान्ति से उनका मन भी चुरा लेते। इस प्रकार दोनों रंगभूमि में शोभायमान हुए।

परीक्षित! मंचों पर जितने लोग बैठे थे - वे मथुरा के नागरिक और राष्ट्र के जन-समुदाय पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम जी को देखकर इतने प्रसन्न हुए कि उनके नेत्र और मुखकमल खिल उठे। उत्कण्ठा से भर गये। वे नेत्रों के द्वारा उनकी मुखमाधुरी का पान करते-करते तृप्त ही नहीं होते थे। मानो वे उन्हें नेत्रों से पी रहे हों, जिह्वा से चाट रहे हों, नासिका से सूँघ रहे हों और भुजाओं से पकड़कर हृदय से सटा रहे हों। उनके सौन्दर्य, गुण, माधुर्य और निर्भयता ने मानो दर्शकों को उनकी लीलाओं का स्मरण करा दिया और वे लोग आपस में उनके सम्बन्ध देखी-सुनी बातें कहने-सुनने लगे। ‘ये दोनों साक्षात भगवान नारायण के अंश हैं। इस पृथ्वी पर वसुदेव जी के घर में अवतीर्ण हुए हैं ।

अँगुली से दिखाकर ये साँवले-सलोने कुमार देवकी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। जन्मते ही वसुदेवजी ने इन्हें गोकुल पहुँचा दिया था। इतने दिनों तक ये वहाँ छिपकर रहे और नन्दजी के घर में ही पलकर इतने बड़े हुए। इन्होंने ही पूतना, तृणावर्त, शंखचूड़, केशी और धेनुक आदि का तथा और भी दुष्ट दैत्यों का वध तथा यमलार्जुन का उद्धार किया है। इन्होंने ही गौ और ग्वालों को दावानल की ज्वाला से बचाया था। कालियनाग का दमन और इन्द्र का मान-मर्दन भी इन्होंने ही किया था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिचत्वारिंश अध्याय श्लोक 27-40 का हिन्दी अनुवाद)

इन्होंने सात दिनों तक एक ही हाथ पर गिरिराज गोवर्धन को उठाये रखा और उसके द्वारा आँधी-पानी तथा वज्रपात से गोकुल को बचा लिया। गोपियाँ इनकी मन्द-मन्द मुस्कान, मधुर चितवन और सर्वदा एकरस प्रसन्न रहने वाले मुखारविन्द के दर्शन से आनन्दित रहती थीं और अनायास ही सब प्रकार के तापों से मुक्त हो जाती थीं। कहते हैं कि ये यदुवंश की रक्षा करेंगे। यह विख्यात वंश इनके द्वारा महान समृद्धि, यश और गौरव प्राप्त करेगा। ये दूसरे इन्हीं श्यामसुन्दर के बड़े भाई कमलनयन श्रीबलरामजी हैं। हमने किसी-किसी के मुँह से ऐसा सुना है कि इन्होंने ही प्रलम्बासुर, वत्सासुर और बकासुर आदि को मारा है।'

जिस समय दर्शकों में यह चर्चा हो रही थी और अखाड़े में तुरही आदि बाजे बज रहे थे, उस समय चाणूर ने भगवान श्रीकृष्ण और बलराम को सम्बोधन करके यह बात कही - ‘नन्दनन्दन श्रीकृष्ण और बलराम जी! तुम दोनों वीरों के आदरणीय हो। हमारे महाराज ने यह सुनकर कि तुम लोग कुश्ती लड़ने में बड़े निपुण हो, तुम्हारा कौशल देखने के लिये तुम्हें यहाँ बुलवाया है। देखो भाई! जो प्रजा मन, वचन और कर्म से राजा का प्रिय कार्य करती है, उसका भला होता है और जो राजा की इच्छा के विपरीत काम करती है, उसे हानि उठानी पड़ती है। यह सभी जानते हैं कि गाय और बछड़े चराने वाले ग्वालिये प्रतिदिन आनन्द से जंगलों में कुश्ती लड़-लड़कर खेलते रहते हैं और गायें चराते रहते हैं। इसलिये आओ, हम और तुम मिलकर महाराज को प्रसन्न करने के लिये कुश्ती लड़े। ऐसा करने से हम पर सभी प्राणी प्रसन्न होंगे, क्योंकि राजा सारी प्रजा का प्रतीक है।'

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण तो चाहते ही थे कि इनसे दो-दो हाथ करें। इसलिये उन्होंने चाणूर की बात सुनकर उसका अनुमोदन किया और देश-काल के अनुसार यह बात कही - ‘चाणूर! हम भी इन भोजराज कंस की वनवासी प्रजा हैं। हमें इनको प्रसन्न करने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिये। इसी में हमारा कल्याण है। किन्तु चाणूर! हम लोग अभी बालक हैं। इसलिये हम अपने समान बल वाले बालकों के साथ ही लड़ने का खेल करेंगे। कुश्ती समान बलवालों के साथ ही होनी चाहिये, जिससे देखने वाले सभासदों को अन्याय के समर्थक होने का पाप न लगे।'

चाणूर ने कहा ;- 'अजी! तुम और बलराम न बालक हो और न तो किशोर। तुम दोनों बलवानों में श्रेष्ठ हो, तुमने अभी-अभी हज़ार हाथियों का बल रखने वाले कुवलयापीड को खेल-ही-खेल में मार डाला। इसलिये तुम दोनों को हम-जैसे बलवानों के साथ ही लड़ना चाहिये। इसमें अन्याय की कोई बात नहीं है। इसलिये कृष्ण! तुम मुझ पर अपना ज़ोर आजमाओ और बलराम के साथ मुष्टिक लड़ेगा।


                          {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                       【चवालिसवाँ अध्याय】४४


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुश्चत्वारिंश अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"चाणूर, मुष्टिक आदि पहलवानों का तथा कंस का उद्धार"

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ने चाणूर आदि के वध का निश्चित संकल्प कर लिया। जोड़ बन दिये जाने पर श्रीकृष्ण चाणूर से और बलरामजी मुष्टिक से जा भिड़े। वे लोग एक-दूसरे को जीत लेने की इच्छा से हाथ से हाथ बाँधकर और पैरों में पैर अड़ाकर बलपूर्वक अपनी-अपनी ओर खींचने गये। वे पंजों से पंजे, घुटनों से घुटने, माथे से माथा और छाती से छाती भिड़ाकर एक-दूसरे पर चोट करने लगे। इस प्रकार दाँव-पेंच करते-करते अपने-अपने जोड़ीदार को पकड़कर इधर-उधर घुमाते, दूर ढकेल देते, ज़ोर से जकड़ लेते, लिपट जाते, उठाकर पटक देते, छूटकर निकल भागते और कभी छोड़कर पीछे हट जाते थे। इस प्रकार एक-दूसरे को रोकते, प्रहार करते और अपने जोड़ीदार को पछाड़ देने की चेष्टा करते। कभी कोई नीचे गिर जाता, तो दूसरा उसे घुटनों और पैरों में दबाकर उठा लेता। हाथों से पकड़कर ऊपर ले जाता। गले में लिपट जाने पर ढकेल देता और आवश्यकता होने पर हाथ-पाँव इकट्ठे करके गाँठ बाँध देता।

परीक्षित! इस दंगल को देखने के लिये नगर की बहुत-सी महिलाएँ भी आयी हुई थीं। उन्होंने जब देखा कि बड़े-बड़े पहलवानों के साथ ये छोटे-छोटे बलहीन बालक लड़ाये जा रहे हैं, तब वे अलग-अलग टोलियाँ बनाकर करुणावश आपस में बात-चीत करने लगीं - ‘यहाँ राजा कंस के सभासद बड़ा अन्याय और अधर्म कर रहे हैं। कितने खेद की बात है कि राजा के सामने ही ये बली पहलवानों और निर्बल बालकों के युद्ध का अनुमोदन करते हैं। बहिन! देखो, इन पहलवानों का एक-एक अंग व्रज के समान कठोर है। ये देखने में बड़े भारी पर्वत-से मालूम होते हैं। परन्तु श्रीकृष्ण और बलराम अभी जवान भी नहीं हुए हैं। इसकी किशोरावस्था है। इनका एक-एक अंग अत्यन्त सुकुमार है। कहाँ ये और कहाँ वे?

जितने लोग यहाँ इकट्ठे हुए हैं, देख रहे हैं, उन्हें अवश्य धर्मोल्लंघन का पाप लगेगा। सखी! अब हमें भी यहाँ से चल देना चाहिये। जहाँ अधर्म की प्रधानता हो, वहाँ कभी न रहें; यही शास्त्र का नियम है। देखो, शास्त्र कहता है कि बुद्धिमान पुरुष को सभासदों के दोषों को जानते हुए सभा में जाना ठीक नहीं है। क्योंकि वहाँ जाकर उन अवगुणों को कहना, चुप रह जाना अथवा मैं नहीं जानता ऐसा कह देना - ये तीनों ही बातें मनुष्य को दोषभागी बनाती हैं। देखो, देखो, श्रीकृष्ण शत्रु के चारों ओर पैंतरा बदल रहे हैं। उनके मुख पर पसीने की बूँदें ठीक वैसे ही शोभा दे रही हैं, जैसे कमल-कोशल पर जल की बूँदें। सखियों! क्या तुम नहीं देख रही हो कि बलराम जी का मुख मुष्टिक के प्रति क्रोध के कारण कुछ-कुछ लाल लोचनों से युक्त हो रहा है! फिर भी हास्य का अनिरुद्ध आवेग कितना सुन्दर लग रहा है।

सखी! सच पूछो तो व्रजभूमि ही परम पवित्र और धन्य है। क्योंकि वहाँ ये पुरुषोत्तम मनुष्य के वेश में छिपकर रहते हैं। स्वयं भगवान शंकर और लक्ष्मी जी जिनके चरणों की पूजा करती हैं, वे ही प्रभु वहाँ रंग-बिरंगे जंगली पुष्पों की माला धारण कर लेते हैं तथा बलरामजी के साथ बाँसुरी बजाते, गौएँ चराते और तरह-तरह खेल खेलते हुए आनन्द से विचरते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुश्चत्वारिंश अध्याय श्लोक 14-23 का हिन्दी अनुवाद)

सखी! पता नहीं, गोपियों ने कौन-सी तपस्या की थी, जो नेत्रों के दोनों से नित्य-निरन्तर इनकी रूप-माधुरी का पान करती रहती हैं। इनका रूप क्या है, लावण्य का सार! संसार में या उससे परे किसी का भी रूप इनके रूप के समान नहीं है, फिर बढ़कर होने की तो बात ही क्या है! सो भी किसी के सँवारने-सजाने से नहीं, गहने-कपड़े से भी नहीं, बल्कि स्वयंसिद्ध है। इस रूप को देखते-देखते तृप्ति भी नहीं होती। क्योंकि यह प्रतिक्षण नया होता जाता है, नित्य नूतन है। समग्र यश, सौन्दर्य और ऐश्वर्य इसी के आश्रित हैं। सखियों! परन्तु इसका दर्शन तो औरों के लिये बड़ा ही दुर्लभ है। वह तो गोपियों के ही भाग्य में बदा है।

सखी! व्रज की गोपियाँ धन्य हैं। निरन्तर श्रीकृष्ण में ही चित्त लगा रहने के कारण प्रेमभरे हृदय से, आँसुओं के कारण गद्गद कण्ठ से वे इन्हीं की लीलाओं का गान करती रहती हैं। वे दूध दुहते, दही मथते, धान कूटते, घर लीपते, बालकों को झुला झुलाते, रोते हुए बालकों को चुप कराते, उन्हें नहलाते-धुलाते, घरों को झाड़ते-बुहारते - कहाँ तक कहें, सारे काम-काज करते समय श्रीकृष्ण के गुणों के गान में ही मस्त रहती हैं।

ये श्रीकृष्ण जब प्रातःकाल गौओं को चराने के लिये व्रज से वन में जाते हैं और सायंकाल उन्हें लेकर व्रज में लौटते हैं, तब बड़े मधुर स्वर से बाँसुरी बजाते हैं। उसकी टेर सुनकर गोपियाँ घर का सारा कामकाज छोड़कर झटपट रास्ते में दौड़ आती हैं और श्रीकृष्ण का मन्द-मन्द मुस्कान एवं दयाभरी चितवन से युक्त मुखकमल निहार-निहारकर निहाल होती हैं। सचमुच गोपियाँ ही परम पुण्यवती हैं।'

भरतवंश शिरोमणे! जिस समय पुरवासिनी स्त्रियाँ इस प्रकार बातें कर रही थीं, उसी समय योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने मन-ही-मन शत्रु को मार डालने का निश्चय किया। स्त्रियों की ये भयपूर्ण बातें माता-पिता देवकी-वसुदेव भी सुन रहे थे।[1] वे पुत्र स्नेहवश शोक से विह्वल हो गये। उनके हृदय में बड़ी जलन, बड़ी पीड़ा होने लगी। क्योंकि वे अपने पुत्रों के बल-वीर्य को नहीं जानते थे।

भगवान श्रीकृष्ण और उनसे भिड़ने वाला चाणूर दोनों ही भिन्न-भिन्न प्रकार के दाँव-पेंच का प्रयोग करते हुए परस्पर जिस प्रकार लड़ रहे थे, वैसे ही बलरामजी और मुष्टिक भी भिड़े हुए थे। भगवान के अंग-प्रत्यंक वज्र से भी कठोर हो रहे थे। उनकी रगड़ से चाणूर की रग-रग ढीली पड़ गयी। बार-बार उसे ऐसा मालूम हो रहा था मानो उसके उसके शरीर के सारे बन्धन टूट रहे हैं। उसे बड़ी ग्लानि, बड़ी व्यथा हुई। अब वह अत्यन्त क्रोधित होकर बाज की तरह झपटा और दोनों हाथों के घूँसे बाँधकर उसने भगवान श्रीकृष्ण की छाती पर प्रहार किया। परन्तु उसके प्रहार से भगवान तनिक भी विचलित न हुए, जैसे फूलों के गजरे की मार से गजराज। उन्होंने चाणूर की दोनों भुजाएँ पकड़ लीं और उसे अंतरिक्ष में बड़े वेग से कई बार घुमाकर धरती पर दे मारा।

परीक्षित! चाणूर के प्राण तो घुमाने के समय ही निकल गये थे। उसकी वेष-भूषा अस्त-व्यस्त हो गयी, केश और मालाएँ बिखर गयीं, वह इन्द्रध्वज के समान गिर पड़ा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुश्चत्वारिंश अध्याय श्लोक 24-38 का हिन्दी अनुवाद)

इसी प्रकार मुष्टिक ने भी पहले बलराम जी को एक घूँसा मारा। इस पर बली बलराम जी ने उसे बड़े ज़ोर से एक तमाचा जड़ दिया। तमाचा लगने से वह काँप उठा और आँधी से उखड़े हुए वृक्ष के समान अत्यन्त व्यथित और अन्त में प्राणहीन होकर खून उगलता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। हे राजन! इसके बाद योद्धाओं में श्रेष्ठ भगवान बलराम जी ने अपने सामने आते ही कूट नामक पहलवान को खेल-खेल में ही बायें हाथ के घूँसे से उपेक्षापूर्वक मार डाला।

उसी समय भगवान श्रीकृष्ण ने पैर की ठोकर से शल का सिर धड़ से अलग कर दिया और तोशल को तिनके की तरह चीर कर दो टुकड़े कर दिया। इस प्रकार दोनों धराशायी हो गये। जब चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल और तोशल - ये पाँचों पहलवान मर चुके, तब जो बच रहे थे, वे अपने प्राण बचाने के लिये स्वयं वहाँ भाग खड़े हुए। उनके भाग जाने पर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी अपने समवयस्क ग्वाल-बालों को खींच-खींचकर उनके साथ भिड़ने और नाच-नाचकर भेरीध्वनि के साथ अपने नूपुरों की झनकार को मिलाकर मल्लक्रीडा -कुश्ती के खेल करने लगे।

भगवान श्रीकृष्ण और बलराम की इस अद्भुत लीला को देखकर सभी दर्शकों को बड़ा आनन्द हुआ। श्रेष्ठ ब्राह्मण और साधु पुरुष ‘धन्य है, धन्य है, - इस प्रकार कहकर प्रशंसा करने लगे। परन्तु कंस को इससे बड़ा दुःख हुआ। वह और भी चिढ़ गया। जब उसके प्रधान पहलवान मार डाले गये और बचे हुए सब-के-सब भाग गये, तब भोजराज कंस ने अपने बाजे-गाजे बंद करा दिये और अपने सेवकों को यह आज्ञा दी - ‘अरे, वसुदेव के इन दुश्चरित्र लड़कों को नगर से बाहर निकाल दो। गोपों का सारा धन छीन लो और दुर्बुद्धि नन्द को कैद कर लो।

वसुदेव भी बड़ा कुबुद्धि और दुष्ट है। उसे शीघ्र मार डालो और उग्रसेन मेरा पिता होने पर भी अपने अनुयायियों के साथ शत्रुओं से मिला हुआ है। इसलिये उसे भी जीता मत छोडो।' कंस इस प्रकार बढ़-बढ़कर बकवाद कर रहा था कि अविनाशी श्रीकृष्ण कुपित होकर फुर्ती से वेगपूर्वक उछलकर लीला से ही उसके ऊँचे मंच पर जा चढ़े। जब मनस्वी कंस ने देखा कि मेरे मृत्युरूप भगवान श्रीकृष्ण सामने आ गये, तब वह सहसा अपने सिंहासन से उठ खड़ा हुआ और हाथ में ढाल तथा तलवार उठा ली।

हाथ में तलवार लेकर वह चोट करने का अवसर ढूँढता हुआ पैंतरा बदलने लगा। आकाश में उड़ते हुए बाज के समान वह कभी दायीं ओर जाता तो कभी बायीं ओर। परन्तु भगवान का प्रचण्ड तेज अत्यन्त दुस्सह है। जैसे गरुड़ साँप को पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान ने बलपूर्वक उसे पकड़ लिया। इसी समय कंस का मुकुट गिर गया और भगवान ने उसके केश पकड़कर उसे भी उस ऊँचे मंच से रंगभूमि में गिरा दिया। फिर परम स्वतन्त्र और सारे विश्व के आश्रय भगवान श्रीकृष्ण उसके ऊपर स्वयं कूद पड़े। उनके कूदते ही कंस की मृत्यु हो गयी। सबके देखते-देखते भगवान श्रीकृष्ण कंस की लाश को धरती पर उसी प्रकार घसीटने लगे, जैसे सिंह हाथी को घसीटे। नरेन्द्र! उस समय सबके मुँह से ‘हाय! हाय!’ की बड़ी ऊँची आवाज सुनायी पड़ी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुश्चत्वारिंश अध्याय श्लोक 39-51 का हिन्दी अनुवाद)

कंस नित्य-निरन्तर बड़ी घबड़ाहट के साथ श्रीकृष्ण का ही चिन्तन करता रहता था। वह खाते-पीते, सोते-चलते, बोलते और सांस लेते - सब समय अपने सामने चक्र हाथ में लिये भगवान श्रीकृष्ण को ही देखता रहता था। इस नित्य चिन्तन के फलस्वरूप - वह चाहे द्वेषभाव से ही क्यों न किया गया हो - उसे भगवान के उसी रूप की प्राप्ति हुई, सारूप्य मुक्ति हुई, जिसकी प्राप्ति बड़े-बड़े तपस्वी योगियों के लिये भी कठिन है।

कंस के कंक और न्यग्रोध आदि आठ छोटे भाई थे। वे अपने बड़े भाई का बदला लेने के लिये क्रोध से आगबबूले होकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम की ओर दौड़े। जब भगवान बलराम जी ने देखा कि वे बड़े वेग से युद्ध के लिये तैयार होकर दौड़े आ रहे हैं, तब उन्होंने परिघ उठाकर उन्हें वैसे ही मार डाला, जैसे सिंह पशुओं को मार डालता है। उस समय आकाश में दुन्दुभियाँ बजने लगीं। भगवान के विभूतिस्वरूप ब्रह्मा, शंकर आदि देवता बड़े आनन्द से पुष्पों की वर्षा करते हुए उनकी स्तुति करने लगे। अप्सराएँ नाचने लगीं।

महाराज! कंस और उसके भाइयों की स्त्रियाँ अपने आत्मीय स्वजनों की मृत्यु से अत्यन्त दुःखित हुईं। वे अपने सिर पीटती हुई आँखों में आँसू भरे वहाँ आयीं। वीरशैय्या पर सोये हुए अपने पतियों से लिपटकर वे शोकग्रस्त हो गयीं और बार-बार आँसू बहाती हुई ऊँचे स्वर से विलाप करने लगीं। ‘हा नाथ! हे प्यारे! हे धर्मज्ञ! हे करुणामय! हे अनाथवत्सल! आपकी मृत्यु से हम सबकी मृत्यु हो गयी। आज हमारे घर उजड़ गये। हमारी सन्तान अनाथ हो गयी। पुरुषश्रेष्ठ! इस पुरी के आप ही स्वामी थे। आपके विरह से इसके उत्सव समाप्त हो गये और मंगलचिह्न उतर गये। यह हमारी ही भाँति विधवा होकर शोभाहीन हो गयी।

स्वामी! आपने निरपराध प्राणियों के साथ घोर द्रोह किया था, अन्याय किया था; इसी से आपकी यह गति हुई। सच है, जो जगत के जीवों से द्रोह करता है, उनका अहित करता है, ऐसा कौन पुरुष शान्ति पा सकता है? ये भगवान श्रीकृष्ण जगत के समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और प्रलय के आधार हैं। यही रक्षक भी हैं। जो इसका बुरा चाहता है, इनका तिरस्कार करता है; वह कभी सुखी नहीं हो सकता।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ही सारे संसार के जीवनदाता हैं। उन्होंने रानियों को ढाढ़स बँधाया, सान्त्वना दी; फिर लोक-रीति के अनुसार मरने वालों का जैसा क्रिया-कर्म होता है, वह सब कराया।

तदनन्तर भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी ने जेल में जाकर अपने माता-पिता को बन्धन से छुड़ाया और सिर से स्पर्श करके उनके चरणों की वन्दना की। किंतु अपने पुत्रों के प्रणाम करने पर भी देवकी और वसुदेव ने उन्हें जगदीश्वर समझकर अपने हृदय से नहीं लगाया। उन्हें शंका हो गयी कि हम जगदीश्वर को पुत्र कैसे समझें।


                          {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                       【पैंंतालीसवाँ अध्याय】४५


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचचत्वारिंश अध्याय श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"श्री कृष्ण-बलरामका यज्ञोपवीत और गुरुकुल प्रवेश"

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि माता-पिता को मेरे ऐश्वर्य का, मेरे भगवद्भाव का ज्ञान हो गया है, परन्तु इन्हें ऐसा ज्ञान होना ठीक नहीं, (इससे तो ये पुत्र-स्नेह का सुख नहीं पा सकते) ऐसा सोचकर उन्होंने उन पर अपनी वह योगमाया फैला दी, जो उनके स्वजनों को मुग्ध रखकर उनकी लीला में सहायक होती है।

यदुवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण बड़े भाई बलराम जी के साथ अपने माँ-बाप के पास जाकर आदरपूर्वक और विनय से झुककर ‘मेरी अम्मा! मेरे पिताजी!’ इन शब्दों से उन्हें प्रसन्न करते हुए कहने लगे - ‘पिताजी! माताजी! हम आपके पुत्र हैं और आप हमारे लिये सर्वदा उत्कण्ठित रहे हैं, फिर भी आप हमारे बाल्य, पौंगण्ड और किशोर-अवस्था का सुख हमसे नहीं पा सके। दुर्दैववश हम लोगों को आपके पास रहने का सौभाग्य ही नहीं मिला। इसी से बालकों को माता-पिता के घर में रहकर जो लाड़-प्यार का सुख मिलता है, वह हमें भी नहीं मिल सका।

पिता और माता ही इस शरीर को जन्म देते हैं और इसका लालन-पालन करते हैं। तब कहीं जाकर यह शरीर धर्म, अर्थ, काम अथवा मोक्ष की प्राप्ति का साधन बनता है। यदि कोई मनुष्य सौ वर्ष तक जीकर माता और पिता की सेवा करता रहे, तब भी वह उनके उपकार से उऋण नहीं हो सकता। जो पुत्र सामर्थ्य रहते भी अपने माँ-बाप की शरीर और धन से सेवा नहीं करता, उसके मरने पर यमदूत उसे उसके अपने शरीर का मांस खिलाते हैं।

जो पुरुष समर्थ होकर भी बूढ़े माता-पिता, सती पत्नी, बालक, सन्तान, गुरु, ब्राह्मण और शरणागत का भरण-पोषण नहीं करता - वह जीता हुआ भी मुर्दे के समान ही है। पिताजी! हमारे इतने दिन व्यर्थ ही बीत गये। क्योंकि कंस के भय से सदा उद्विग्नचित्त रहने कारण हम आपकी सेवा करने में असमर्थ रहे। मेरी माँ और मेरे पिताजी! आप दोनों हमें क्षमा करें। हाय! दुष्ट कंस ने आपको इतने-इतने कष्ट दिये, परन्तु हम परतन्त्र रहने के कारण आपकी कोई सेवा-शुश्रूषा न कर सके।'

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अपनी लीला से मनुष्य बने हुए विश्वात्मा श्रीहरि की इस वाणी से मोहित हो देवकी-वसुदेव ने उन्हें गोद में उठा लिया और हृदय से चिपकाकर परमानन्द प्राप्त किया। राजन! वे स्नेह-पाश से बँधकर पूर्णतः मोहित हो गये और आँसुओं की धारा से अभिषेक करने लगे। यहाँ तक कि आँसुओं के कारण गला रूँध जाने से वे कुछ बोल भी न सके।

देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार अपने माता-पिता को सान्त्वना देकर अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशियों का राजा बना दिया और उनसे कहा ;- ‘महाराज! हम आपकी प्रजा हैं। आप हम लोगों पर शासन कीजिये। राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राजसिंहासन पर नहीं बैठ सकते; (परन्तु मेरी ऐसी ही इच्छा है, इसलिये आपको दोष न होगा।) जब मैं सेवक बनकर आपकी सेवा करता रहूँगा, तब बड़े-बड़े देवता भी सिर झुकाकर आपको भेंट देंगे।’ दूसरे नरपतियों के बारे में तो कहना ही क्या है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचचत्वारिंश अध्याय श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ही सारे विश्व के विधाता हैं। उन्होंने, जो कंस के भय से व्याकुल होकर इधर-उधर भाग गये थे, उन यदु, वृष्णि, अन्धक, मधु, दशार्ह और कुकुर आदि वंशों में उत्पन्न सजातीय सम्बन्धियों को ढूँढ-ढूँढ़कर बुलवाया। उन्हें घर से बाहर रहने में बड़ा क्लेश उठाना पड़ा था। भगवान ने उनका सत्कार किया, सान्त्वना दी और उन्हें ख़ूब धन-सम्पत्ति देकर तृप्त किया तथा अपने-अपने घरों में बसा दिया। अब सारे-के-सारे यदुवंशी भगवान श्रीकृष्ण तथा बलराम जी के बाहुबल से सुरक्षित थे। उनकी कृपा से उन्हें किसी प्रकार की व्यथा नहीं थी, दुःख नहीं था। उनके सारे मनोरथ सफल हो गये थे। वे कृतार्थ हो गये थे। अब वे अपने-अपने घरों में आनन्द से विहार करने लगे। भगवान श्रीकृष्ण का बदन आनन्द का सदन है। वह नित्य प्रफुल्लित, कभी न कुम्हलाने वाला कमल है। उसका सौन्दर्य अपार है। सदय हास और चितवन उस पर सदा नाचती रहती है। यदुवंशी दिन-प्रतिदिन उसका दर्शन करके आनन्दमग्न रहते। मथुरा के वृद्ध पुरुष भी युवकों के समान अत्यन्त बलवान और उत्साही हो गये थे; क्योंकि वे अपने नेत्रों के दोनों से बारंबार भगवान के मुखारविन्द का अमृतमय मकरन्द-रस पान करते रहते थे।

प्रिय परीक्षित! अब देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी दोनों ही नन्दबाबा के पास आये और गले लगने के बाद उनसे कहने लगे - ‘पिताजी! अपने और माँ यशोदा ने बड़े स्नेह और दुलार से हमारा लालन-पालन किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि माता-पिता सन्तान पर अपने शरीर से भी अधिक स्नेह करते हैं। जिन्हें पालन-पोषण न कर सकने के कारण स्वजन-सम्बन्धियों ने त्याग दिया है, उन बालकों को जो लोग अपने पुत्र के समान लाड़-प्यार से पालते हैं, वे ही वास्तव में उनके माँ-बाप हैं।

पिताजी! अब आप लोग व्रज में जाइये। इसमें सन्देह नहीं कि हमारे बिना वात्सल्य-स्नेह के कारण आप लोगों को बहुत दुःख होगा। यहाँ के सुहृद-सम्बन्धियों को सुखी करके हम आप लोगों से मिलने के लिये आयेंगे।' भगवान श्रीकृष्ण ने नन्दबाबा और दूसरे व्रजवासियों को इस प्रकार समझा-बुझाकर बड़े आदर के साथ वस्त्र, आभूषण और अनेक धातुओं के बने बरतन आदि देकर उनका सत्कार किया। भगवान की बात सुनकर नन्दबाबा ने प्रेम से अधीर होकर दोनों भाइयों को गले लगा लिया और फिर नेत्रों में आँसू भरकर गोपों के साथ व्रज के लिये प्रस्थान किया।

हे राजन! इसके बाद वसुदेव जी ने अपने पुरोहित गर्गाचार्य तथा दूसरे ब्राह्मणों से दोनों पुत्रों का विधिपूर्वक द्विजाति-समुचित यज्ञोपवीत संस्कार करवाया। उन्होंने विविध प्रकार के वस्त्र और आभूषणों से ब्राह्मणों का सत्कार करके उन्हें बहुत-सी दक्षिणा तथा बछड़ों वाली गौएँ दीं। सभी गौएँ गले में सोने की माला पहले हुए थीं तथा और भी बहुत से आभूषणों एवं रेशमी वस्त्रों की मालाओं से विभूषित थीं। महामति वसुदेव जी ने भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी के जन्म-नक्षत्र में जितनी गौएँ मन-ही-मन संकल्प करके दी थीं, उन्हें पहले कंस ने अन्याय से छीन लिया था। अब उनका स्मरण करके उन्होंने ब्राह्मणों को वे फिर से दीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचचत्वारिंश अध्याय श्लोक 29-41 का हिन्दी अनुवाद)

इस प्रकार यदुवंश के आचार्य गर्ग जी से संस्कार कराकर बलरामजी और श्रीकृष्ण द्विजत्व को प्राप्त हुए। उसका ब्रह्मचर्य अखण्ड तो था ही, अब उन्होंने गायत्रीपूर्वक अध्ययन करने के लिये उसे नियमतः स्वीकार किया। श्रीकृष्ण और बलराम जगत के एकमात्र स्वामी हैं। सर्वज्ञ हैं। सभी विद्याएँ उन्हीं से निकली हैं। उनका निर्मल ज्ञान स्वतःसिद्ध है। फिर भी उन्होंने मनुष्य-सी लीला करके उसे छिपा रखा था।

अब वे दोनों गुरुकुल में निवास करने की इच्छा से कश्यप गोत्री सान्दीपनि मुनि के पास गये, जो अवन्तीपुर उज्जैन में रहते थे। वे दोनों भाई विधिपूर्वक गुरु जी के पास रहने लगे। उस समय वे बड़े ही सुसंयत, अपनी चेष्टाओं को सर्वथा नियमित रखे हुए थे। गुरु जी तो उनका आदर करते ही थे, भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी भी गुरु की उत्तम सेवा कैसे करनी चाहिये, इसका आदर्श लोगों के सामने रखते हुए बड़ी भक्ति से इष्टदेव के समान उनकी सेवा करने लगे। गुरुवर सान्दीपनिजी उनकी शुद्धभाव से युक्त सेवा से बहुत प्रसन्न हुए।

उन्होंने दोनों भाइयों को छहों अंग और उपनिषदों के सहित सम्पूर्ण वेदों की शिक्षा दी। इनके सिवा मन्त्र और देवताओं के ज्ञान के साथ धनुर्वेद, मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्र, मीमांसा आदि, वेदों का तात्पर्य बतलाने वाले शास्त्र, तर्कविद्या (न्यायशास्त्र) आदि की भी शिक्षा दी। साथ ही सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्विध और आश्रय - इन छः भेदों से युक्त राजनीति का भी अध्ययन कराया।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण और बलराम सारी विद्याओं के प्रवर्तक हैं। इस समय केवल श्रेष्ठ मनुष्य का - सा व्यवहार करते हुए ही वे अध्ययन कर रहे थे। उन्होंने गुरु जी के केवल एक बार कहने मात्र से सारी विद्याएँ सीख लीं। केवल चौंसठ दिन-रात में ही संयमीशिरोमणि दोनों भाइयों ने चौंसठो कलाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया। इस प्रकार अध्ययन समाप्त होने पर उन्होंने सान्दिपनी मुनि से प्रार्थना की कि ‘आपकी जो इच्छा हो, गुरु-दक्षिणा माँग लें।'

महाराज! सान्दीपनि मुनि ने उनकी अद्भुत महिमा और अलौकिक बुद्धि का अनुभव कर लिया था। इसलिये उन्होंने अपनी पत्नी से सलाह करके यह गुरुदक्षिणा माँगी कि ‘प्रभासक्षेत्र में हमारा बालक समुद्र में डूबकर मर गया था, उसे तुम लोग ला दो।' बलराम जी और श्रीकृष्ण का पराक्रम अनन्त था। दोनों ही महारथी थे। उन्होंने ‘बहुत अच्छा’ कहकर गुरु जी की आज्ञा स्वीकार की और रथ पर सवार होकर प्रभासक्षेत्र में गये। वे समुद्र तट जाकर क्षण भर बैठे रहे। उस समय यह जानकार कि ये साक्षात परमेश्वर हैं, अनेक प्रकार की पूजा-सामग्री लेकर समुद्र उनके सामने उपस्थित हुआ। भगवान ने समुद्र से कहा - ‘समुद्र! तुम यहाँ अपनी बड़ी-बड़ी तरंगों से हमारे जिस गुरुपुत्र को बहा ले गये थे, उसे लाकर शीघ्र हमें दो।'

मनुष्य वेषधारी समुद्र ने कहा ;- ‘देवाधिदेव श्रीकृष्ण! मैंने उस बालक को नहीं लिया है। मेरे जल में पंचजन नाम का एक बड़ा भारी दैत्य जाति का असुर शंख के रूप में रहता है। अवश्य ही उसी ने वह बालक चुरा लिया होगा।' समुद्र की बात सुनकर भगवान तुरंत ही जल में जा घुसे और शंखासुर को मार डाला। परन्तु वह बालक उसके पेट में नहीं मिला।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचचत्वारिंश अध्याय श्लोक 42-50 का हिन्दी अनुवाद)

तब उसके शरीर का शंख लेकर भगवान रथ पर चले आये। वहाँ से बलराम जी के साथ श्रीकृष्ण ने यमराज की प्रिय पुरी संयमनी में जाकर अपना शंख बजाया। शंख का शब्द सुनकर सारी प्रजा का शासन करने वाले यमराज ने उनका स्वागत किया और भक्तिभाव से भरकर विधिपूर्वक उनकी बहुत बड़ी पूजा की। उन्होंने नम्रता से झुककर समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान सच्चिदानंद-स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण से कहा ;- ‘लीला से ही मनुष्य बने हुए सर्वव्यापक परमेश्वर! मैं आप दोनों की क्या सेवा करूँ?’

श्री भगवान ने कहा ;- ‘यमराज! यहाँ अपने कर्मबन्धन के अनुसार मेरा गुरुपुत्र लाया गया है। तुम मेरी आज्ञा स्वीकार करो और उसके कर्म पर ध्यान न देकर उसे मेरे पास ले आओ।

यमराज ने ‘जो आज्ञा’ कहकर भगवान का आदेश स्वीकार किया और उनका गुरुपुत्र ला दिया। तब यदुवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी उस बालक को लेकर उज्जैन लौट आये और उसे अपने गुरुदेव को सौंपकर कहा कि ‘आप और जो कुछ चाहें, माँग लें।'

गुरु जी ने कहा ;- ‘बेटा! तुम दोनों ने भलीभाँति गुरु दक्षिणा दी। अब और क्या चाहिये? जो तुम्हारे जैसे पुरुषोत्तमों का गुरु है, उसका कौन-सा मनोरथ अपूर्ण रह सकता है? वीरों! अब तुम दोनों अपने घर जाओ। तुम्हें लोकों को पवित्र करने वाली कीर्ति प्राप्त हो। तुम्हारी पढ़ी हुई विद्या इस लोक और परलोक में सदा नवीन बनी रहे, कभी विस्मृत न हो।'

बेटा परीक्षित! फिर गुरु जी से आज्ञा लेकर वायु के समान वेग और मेघ के समान शब्द वाले रथ पर सवार होकर दोनों भाई मथुरा लौट आये। मथुरा की प्रजा बहुत दिनों तक श्रीकृष्ण और बलराम को न देखने से अत्यन्त दुःखी हो रही थी। अब उन्हें आया हुआ देख सब-के-सब परमानन्द में मग्न हो गये, मानो खोया हुआ धन मिल गया हो।


                          {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                       【छयालिसवाँ अध्याय】४६


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्चत्वारिंश अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"उद्धव जी की ब्रजयात्रा"

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! उद्धव जी वृष्णिवंशीयों में एक प्रधान पुरुष थे। वे साक्षात ब्रहस्पति जी के शिष्य और परम बुद्धिमान थे। उनकी महिमा के सम्बन्ध में इससे पढ़कर और कौन-सी बात कही जा सकती है कि वे भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे सखा तथा मन्त्री भी थे। एक दिन शरणागतों के सारे दुःख हर लेने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय भक्त और एकान्त प्रेमी उद्धव जी का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा -

‘सौम्यस्वभाव उद्धव! तुम व्रज में जाओ। वहाँ मेरे पिता-माता नन्दबाबा और यशोदा मैया हैं, उन्हें आनन्दित करो; और गोपियाँ मेरे विरह की व्याधि से बहुत ही दुःखी हो रही हैं, उन्हें मेरे सन्देश सुनाकर उस वेदना से मुक्त करो।

प्यारे उद्धव! गोपियों का मन नित्य-निरन्तर मुझमें ही लगा रहता है। उनके प्राण, उनका जीवन, उनका सर्वस्व मैं ही हूँ। मेरे लिये उन्होंने अपने पति-पुत्र आदि सभी सगे-सम्बन्धियों को छोड़ दिया है। उन्होंने बुद्धि से भी मुझी को अपना प्यारा, अपना प्रियतम - नहीं, नहीं; अपनी आत्मा मान रखा है। मेरा यह व्रत है कि जो लोग मेरे लिये लौकिक और पारलौकिक धर्मों को छोड़ देते हैं, उनका भरण-पोषण मैं स्वयं करता हूँ।

प्रिय उद्धव! मैं उन गोपियों का परम प्रियतम हूँ। मेरे यहाँ चले आने से वे मुझे दूरस्थ मानती हैं और मेरा स्मरण करके अत्यन्त मोहित हो रही हैं, बार-बार मूर्च्छित हो जाती हैं। वे मेरे विरह की व्यथा से विह्वल हो रही हैं, प्रतिक्षण मेरे लिये उत्कण्ठित रहती हैं।

मेरी गोपियाँ, मेरी प्रेयसियाँ इस समय बड़े ही कष्ट और यत्न से अपने प्राणों को किसी प्रकार रख रही हैं। मैंने उनसे कहा था कि ‘मैं आऊँगा।’ वही उनके जीवन का आधार है। उद्धव! और तो क्या कहूँ, मैं ही उनकी आत्मा हूँ। वे नित्य-निरन्तर मुझमें ही तन्मय रहती हैं।'रीक्षित! जब भगवान श्रीकृष्ण ने यह बात कही, तब उद्धव जी बड़े आदर से अपने स्वामी का सन्देश लेकर रथ पर सवार हुए और नन्द गाँव के लिये चल पड़े। परम सुन्दर उद्धव जी सूर्यास्त के समय नन्दबाबा के व्रज में पहुँचे। उस समय जंगल से गौएँ लौट रही थीं। उनके खुरों के आघात से इतनी धूल उड़ रही थी कि उनका रथ ढक गया था।


व्रजभूमि में ऋतुमती गौओं के लिये मतवाले साँड़ आपस में लड़ रहे थे। उनकी गर्जना से सारा व्रज गूँज रहा था। थोड़े दिनों की ब्यायी हुई गौएँ अपने थनों के भारी भार से दबी होने पर भी अपने-अपने बछड़ों की ओर दौड़ रहीं थीं। सफ़ेद रंग के बछड़े इधर-उधर उछल-कूद मचाते हुए बहुत ही भले मालूम होते थे। गाय दुहने की ‘घर-घर’ध्वनि से और बाँसुरियों की मधुर टेर से अब भी व्रज की अपूर्व शोभा हो रही थी।

गोपी और गोप सुन्दर-सुन्दर वस्त्र तथा गहनों से सज-धजकर श्रीकृष्ण तथा बलराम जी के मंगलमय चरित्रों का गान कर रहे थे और इस प्रकार व्रज की शोभा और भी बढ़ गयी थी। गोपों के घरों में अग्नि, सूर्य, अतिथि, गौ, ब्राह्मण और देवता - पितरों की पूजा की हुई थी। धूप की सुगन्ध चारों ओर फ़ैल रही थी और दीपक जगमगा रहे थे। उन घरों को पुष्पों से सजाया गया था। ऐसे मनोहर गृहों से सारा व्रज और भी मनोरम हो रहा था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्चत्वारिंश अध्याय श्लोक 13-23 का हिन्दी अनुवाद)

चारों ओर वन-पंक्तियाँ फूलों से लद रही थीं। पक्षी चहक रहे थे और भौंरे गुंजार कर रहे थे। वहाँ जल और स्थल दोनों ही कमलों के वन से शोभायमान थे और हंस, बत्तख आदि पक्षी वन में विहार का रहे थे।

जब भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे अनुचर उद्धव जी व्रज में आये, तब उनसे मिलकर नन्दबाबा बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने उद्धव जी को गले लगाकर उनका वैसे ही सम्मान किया, मानो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण आ गये हों। समय पर उत्तम अन्न का भोजन कराया और जब वे आराम से पलँग पर बैठ गये, सेवकों ने पाँव दबाकर, पंखा झलकर उनकी थकावट दूर कर दी। तब नन्दबाबा ने पूछा - ‘परम भाग्यवान उद्धव जी! अब हमारे सखा वसुदेव जी जेल से छूट गये। उनके आत्मीय स्वजन तथा पुत्र आदि उनके साथ हैं। इस समय वे सब कुशल से तो हैं न? यह बड़े सौभाग्य की बात है कि अपने पापों के फलस्वरूप पापी कंस अपने अनुयायियों के साथ मारा गया। क्योंकि स्वभाव से ही धार्मिक परम साधु यदुवंशियों से वह सदा द्वेष करता था।

अच्छा उद्धव जी! श्रीकृष्ण कभी हम लोगों की भी याद करते हैं? यह उनकी माँ हैं, स्वजन-सम्बन्धी हैं, सखा हैं, गोप हैं; उन्हीं को अपना स्वामी और सर्वस्व मानने वाला यह व्रज है; उन्हीं की गौएँ, वृन्दावन और यह गिरिराज है, क्या वे कभी इनका स्मरण करते हैं? आप यह तो बतलाइये कि हमारे गोविन्द अपने सुहृद-बान्धवों को देखने के लिये एक बार भी यहाँ आयेंगे क्या? यदि वे यहाँ आ जाते तो हम उनकी वह सुघड़ नासिका, उनका मधुर हास्य और मनोहर चितवन से युक्त मुखकमल देख तो लेते।

उद्धव जी! श्रीकृष्ण का हृदय उदार है, उनकी शक्ति अनन्त है, उन्होंने दावानल से, आँधी-पानी से, वृषासुर और अजगर आदि अनेकों मृत्यु के निमित्तों से -जिन्हें टालने का कोई उपाय न था - एक बार नहीं, अनेक बार हमारी रक्षा की है। उद्धव जी! हम श्रीकृष्ण के विचित्र चरित्र, उनकी विलासपूर्ण तिरछी चितवन, उन्मुक्त हास्य, मधुर भाषण आदि का स्मरण करते रहते हैं और उसमें इतने तन्मय रहते हैं कि अब हमसे कोई काम-काज नहीं हो पाता।

जब हम देखते हैं कि यह वही नदी है, जिसमें श्रीकृष्ण जलक्रीड़ा करते थे; यह वही गिरिराज है, जिसे उन्होंने एक हाथ पर उठा लिया था; ये वे ही वन के प्रदेश हैं, जहाँ श्रीकृष्ण गौएँ चराते हुए बाँसुरी बजाते थे, और ये वे ही स्थान हैं, जहाँ वे अपने सखाओं के साथ अनेकों प्रकार के खेल-खेलते थे; और साथ ही यह भी देखते हैं कि वहाँ उनके चरणचिह्न अभी मिटे नहीं हैं, तब उन्हें देखकर हमारा मन श्रीकृष्णमय हो जाता है। इसमें सन्देह नहीं कि मैं श्रीकृष्ण और बलराम को देवशिरोमणि मानता हूँ और यह भी मानता हूँ कि वे देवताओं का कोई बहुत बड़ा प्रयोजन सिद्ध करने के लिये यहाँ आये हुए हैं। स्वयं भगवान गर्गाचार्य जी ने मुझसे ऐसा ही कहा था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्चत्वारिंश अध्याय श्लोक 24-35 का हिन्दी अनुवाद)

जैसे सिंह बिना किसी परिश्रम के पशुओं को मार डालता है, वैसे ही उन्होंने खेल-खेल में ही दस हजार हाथियों का बल रखने वाले कंस, उसके दोनों अजेय पहलवानों और महान बलशाली गजराज कुवलयापीड को मार डाला। उन्होंने तीन ताल लंबे और अत्यन्त दृढ़ धनुष को वैसे ही तोड़ डाला, जैसे कोई हाथी किसी छड़ी को तोड़ डाले। हमारे प्यारे श्रीकृष्ण ने एक हाथ से सात दिनों तक गिरिराज को उठाये रखा था। यही सब के देखते-देखते खेल-खेल में उन्होंने प्रलम्ब, धेनुक, अरिष्ट, तृणावर्त और बंक आदि उन बड़े-बड़े दैत्यों को मार डाला, जिन्होंने समस्त देवता और असुरों पर विजय प्राप्त कर ली थी।'

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! नन्दबाबा का हृदय यों ही भगवान श्रीकृष्ण के अनुराग-रंग में रँगा हुआ था। जब इस प्रकार वे उनकी लीलाओं का एक-एक करके स्मरण करने लगे, तब तो उनमें प्रेम की बाढ़ ही आ गयी, वे विह्वल हो गये और मिलने की अत्यन्त उत्कण्ठा होने के कारण उनका गला रूँध गया। वे चुप हो गये।

यशोदा रानी भी वहीं बैठकर नन्दबाबा की बातें सुन रही थीं, श्रीकृष्ण की एक-एक लीला सुनकर उनके नेत्रों से आँसू बहने जाते थे और पुत्रस्नेह की बाढ़ से उनके स्तनों से दूध की धारा बहती जा रही थी। उद्धव जी नन्दबाबा और यशोदा रानी के हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति कैसा अगाध अनुराग है - यह देखकर आनन्दमग्न हो गये और उनसे कहने लगे।

उद्धव जी ने कहा ;- हे मानद! इसमें सन्देह नहीं कि आप दोनों समस्त शरीरधारियों में अत्यन्त भाग्यवान हैं, सराहना करने योग्य हैं। क्योंकि जो सारे चराचर जगत के बनाने वाले और उसे ज्ञान देने वाले नारायण हैं, उनके प्रति आपके हृदय में ऐसा वात्सल्य स्नेह - पुत्रभाव है।

बलराम और श्रीकृष्ण पुराणपुरुष हैं; वे सारे संसार के उपादान कारण और निमित्त कारण भी हैं। भगवान श्रीकृष्ण पुरुष हैं तो बलराम जी प्रधान (प्रकृति)। ये ही दोनों समस्त शरीर में प्रविष्ट होकर उन्हें जीवनदान देते हैं और उनमें उनसे अत्यन्त विलक्षण जो ज्ञानस्वरूप जीव है, उसका नियमन करते हैं। जो जीव मृत्यु के समय अपने शुद्ध मन को एक क्षण के लिये भी उनमें लगा देता है, वह समस्त कर्म-वासनाओं को धो बहाता है और शीघ्र ही सूर्य के समान तेजस्वी तथा ब्रह्ममय होकर परमगति को प्राप्त होता है।

वे भगवान ही, जो सबके आत्मा और परम कारण हैं, भक्तों की अभिलाषा पूर्ण करने और पृथ्वी का भार उतारने के लिये मनुष्य का-सा शरीर ग्रहण करके प्रकट हुए हैं। उनके प्रति आप दोनों का ऐसा सुदृढ़ वात्सल्य भाव है; फिर महात्माओं! आप दोनों के लिये अब कौन-सा शुभ कर्म करना शेष रह जाता है।

भक्तवत्सल यदुवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण थोड़े ही दिनों में व्रज में आयेंगे और आप दोनों को - अपने माँ-बाप को आनन्दित करेंगे। जिस समय उन्होंने समस्त यदुवंशियों के द्रोही कंस को रंगभूमि में मार डाला और आपके पास आकर कहा कि ‘मैं व्रज में आऊँगा’ उस कथन को वे सत्य करेंगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्चत्वारिंश अध्याय श्लोक 36-45 का हिन्दी अनुवाद)

नन्दबाबा और माता यशोदानजी! आप दोनों परम भाग्यशाली हैं। खेद न करें। आप श्रीकृष्ण को अपने पास ही देखेंगे; क्योंकि जैसे काष्ठ में अग्नि सदा ही व्यापक रूप से रहती है, वैसे ही वे समस्त प्राणियों के हृदय में सर्वदा विराजमान रहते हैं।

एक शरीर के प्रति अभिमान न होने के कारण न तो कोई उनका प्रिय है और न तो अप्रिय। वे सबमें और सबके प्रति समान हैं; इसलिये उनकी दृष्टि में न तो कोई उत्तम है और न तो अधम। यहाँ तक कि विषमता का भाव रखने वाला भी उनके लिये विषम नहीं है। न तो उनकी कोई माता है और न पिता। न पत्नी है और न तो पुत्र आदि। न अपना है और न तो पराया। न देह है और न तो जन्म ही। इस लोक में उनका कोई कर्म नहीं है फिर भी वे साधुओं के परित्राण के लिये, लीला करने के लिये देवादि सात्त्विक, मत्स्यादि तामस एवं मनुष्य आदि मिश्र योनियों में शरीर धारण करते हैं।

भगवान अजन्मा है। उसमें प्राकृत सत्त्व, रज आदि में से एक भी गुण नहीं है। इस प्रकार इन गुणों से अतीत होने पर भी लीला के लिये खेल-खेल में वे सत्त्व, रज और तम - इन तीनों गुणों को स्वीकार कर लेते हैं और उनके द्वारा जगत की रचना, पालन और संहार करते हैं। जब बच्चे घुमरीपरेता खेलने लगते हैं या मनुष्य वेग से चक्कर लगाने लगते हैं, तब उन्हें सारी पृथ्वी घूमती हुई जान पड़ती है। वैसे ही वास्तव में सब कुछ करने वाला चित्त ही है; परन्तु उस चित्त में अहंबुद्धि हो जाने के कारण, भ्रमवश उसे आत्मा - अपना ‘मैं’ समझ लेने के कारण, जीव अपने को कर्ता समझने लगता है।

भगवान श्रीकृष्ण केवल आप दोनों के ही पुत्र नहीं हैं, वे समस्त प्राणियों के आत्मा, पुत्र, पिता-माता और स्वामी भी हैं। बाबा! जो कुछ देखा या सुना जाता है - वह चाहे भूत से सम्बन्ध रखता हो, वर्तमान से अथवा भविष्य से; स्थावर हो या जंगम हो, महान हो अथवा अल्प हो - ऐसी कोई वस्तु ही नहीं है जो भगवान श्रीकृष्ण से पृथक हो। बाबा! श्रीकृष्ण के अतिरिक्त ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे वस्तु कह सकें। वास्तव में सब वे ही हैं, वे ही परमार्थ सत्य हैं।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण के सखा उद्धव और नन्दबाबा इसी प्रकार आपस में बात करते रहे और वह रात बीत गयी। कुछ रात शेष रहने पर गोपियाँ उठीं, दीपक जलाकर उन्होंने घर की देहलियों पर वास्तुदेव का पूजन किया, अपने घरों को झाड़-बुहारकर साफ़ किया और फिर दही मथने लगीं।

गोपियों की कलाइयों में कंगन शोभायमान हो रहे थे, रस्सी खींचते समय वे बहुत भली मालूम हो रही थीं। उनके नितम्ब, स्तन और गले के हार हिल रहे थे। कानों के कुण्डल हिल-हिलकर उनके कुंकुम-मण्डित कपोलों की लालिमा बढ़ा रहे थे। उनके आभूषणों की मणियाँ दीपक की ज्योति से और भी जगमगा रही थीं और इस प्रकार वे अत्यन्त शोभा से सम्पन्न होकर दही मथ रही थीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्चत्वारिंश अध्याय श्लोक 46-49 का हिन्दी अनुवाद)

उस समय गोपियाँ - कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण के मंगलमय चरित्रों का गान कर रही थीं। उनका वह संगीत दही मथने की ध्वनि से मिलकर और भी अद्भुत हो गया तथा स्वर्गलोक तक जा पहुँचा, जिसकी स्वर-लहरी सब ओर फैलकर दिशाओं का अमंगल मिटा देती है।

जब भगवान भुवनभास्कर का उदय हुआ, तब व्रजांगनाओं ने देखा कि नन्दबाबा के दरवाज़े पर एक सोने का रथ खड़ा है। वे एक-दूसरे से पूछने लगीं ‘यह किसका रथ है?’ किसी गोपी ने कहा - ‘कंस का प्रयोजन सिद्ध करने वाला अक्रूर ही तो कहीं फिर नहीं आ गया है? जो कमलनयन प्यारे श्यामसुन्दर को यहाँ से मथुरा ले गया था।'

किसी दूसरी गोपी ने कहा ;- ‘क्या अब वह हमें ले जाकर अपने मरे हुए स्वामी कंस का पिण्डदान करेगा? अब यहाँ उसके आने का क्या प्रयोजन हो सकता है?’ व्रजवासिनी स्त्रियाँ इसी प्रकार आपस में बातचीत कर रही थीं कि उसी समय नित्यकर्म से निवृत होकर उद्धव जी आ पहुँचे।

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