सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - पूर्वार्ध ) का सैतीसवाँ, अड़तीसवाँ, उन्चालीसवाँ, चालीसवाँ व ईक्तालीसवाँ अध्याय [ Thirty-seventh, Thirty eight, thirty-ninth, Forties and forty-first chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing-First half) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - पूर्वार्ध ) का सैतीसवाँ, अड़तीसवाँ, उन्चालीसवाँ, चालीसवाँ व ईक्तालीसवाँ अध्याय [ Thirty-seventh, Thirty eight, thirty-ninth, Forties and forty-first chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]




                            {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                         【सैतीसवाँ अध्याय】३७


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:सप्तत्रिंश अध्याय श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद)

"केशी और व्योमासुर का उद्धार तथा नारदजी के द्वारा भगवान की स्तुति"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! कंस ने जिस केशी नामक दैत्य को भेजा था, वह बड़े भारी घोड़े के रूप में मन के समान वेग से दौड़ता हुआ व्रज में आया। वह अपनी टापों से धरती को खड़ता आ रहा था! उसकी गरदन के छितराये हुए बालों के झटके से आकाश के बादल और विमानों की भीड़ तितर-बितर हो रही थी। उसकी भयानक हिनहिनाहट से सब-के-सब भय से काँप रहे थे। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें थीं, मुँह क्या था, मानो किसी वृक्ष का खोड़र ही हो। उसे देखने से ही डर लगता था। बड़ी मोटी गरदन थी। शरीर इतना विशाल था कि मालूम होता था काली-काली बादल की घटा है। उसकी नीयत में पाप भरा था।

वह श्रीकृष्ण को मारकर अपने स्वामी कंस का हित करना चाहता था। उसके चलने से भूकम्प होने लगता था। भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि उसकी हिनहिनाहट से उनके आश्रित रहने वाला गोकुल भयभीत हो रहा है और उसकी पूँछ के बालों से बादल तितर-बितर हो रहे हैं, तथा वह लड़के के लिये उन्हीं को ढूँढ भी रहा है - तब वे बढ़कर उसके सामने आ गये और उन्होंने सिंह के समान गरजकर उसे ललकारा। भगवान को सामने आया देख वह और भी चिढ़ गया तथा उनकी ओर इस प्रकार मुँह फैलाकर दौड़ा, मानो आकाश को पी जायगा।

परीक्षित! सचमुच केशी का वेग बड़ा प्रचण्ड था। उस पर विजय पाना तो कठिन था ही, उसे पकड़ लेना भी आसान नहीं था। उसने भगवान के पास पहुँचकर दुलत्ती झाड़ी। परन्तु भगवान ने उससे अपने को बचा लिया। भला, वह इन्द्रियातीत को कैसे मार पाता! उन्होंने अपने दोनों हाथों से उसके दोनों पिछले पैर पकड़ लिये और जैसे गरुड़ साँप को पकड़ कर झटक देते हैं, उसी प्रकार क्रोध से उसे घुमाकर बड़े अपमान के साथ चार सौ हाथ की दूरी पर फेंक दिया और स्वयं अकड़कर खड़े हो गये।

थोड़ी ही देर के बाद केशी फिर सचेत हो गया और उठ खड़ा हुआ। इसके बाद वह क्रोध से से तिलमिलाकर और मुँह फाड़कर बड़े वेग से भगवान की ओर झपटा। उसको दौड़ते देख भगवान मुस्कराने लगे। उन्होंने अपना बायाँ हाथ उसके मुँह में इस प्रकार डाल दिया, जैसे सर्प बिना किसी आशंका के अपने बिल में घुस जाता है।

परीक्षित! भगवान का अत्यन्त कोमल कर कमल भी उस समय ऐसा हो गया, मानो तपाया हुआ लोहा हो। उसका स्पर्श होते ही केशी के दाँत टूट-टूटकर गिर गये और जैसे जलोदर रोग उपेक्षा कर देने पर बहुत बढ़ जाता है, वैसे ही श्रीकृष्ण का भुजदण्ड उसके मुँह में बढ़ने लगा। अचिन्त्यशक्ति भगवान श्रीकृष्ण का हाथ उसके मुँह में इतना बढ़ गया कि उसकी साँस के भी आने-जाने का मार्ग न रहा। अब तो दम घुटने के कारण वह पैर पीटने लगा। उसका शरीर पसीने से लथपथ हो गया, आँखों की पुतली उलट गयी, वह मल-त्याग करने लगा। थोड़ी ही देर में उसका शरीर निश्चेष्ट होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा तथा उसके प्राण-पखेरू उड़ गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तत्रिंश अध्याय श्लोक 9-21 का हिन्दी अनुवाद)

उसका निष्प्राण शरीर फूला हुआ होने के कारण ही पकी ककड़ी की तरह फट गया। महाबाहु भगवान श्रीकृष्ण ने उसके शरीर से अपनी भुजा खींच ली। उन्हें इससे कुछ भी आश्चर्य या गर्व नहीं हुआ। बिना प्रयत्न के ही शत्रु का नाश हो गया। देवताओं को अवश्य ही इससे बड़ा आश्चर्य हुआ। वे प्रसन्न हो-होकर भगवान के ऊपर पुष्प बरसाने और उनकी स्तुति करने लगे।

परीक्षित! देवर्षि नारद जी भगवान के परम प्रेमी और समस्त जीवों के सच्चे हितैषी है। कंस के यहाँ लौटकर वे अनायास ही अद्भुत कर्म करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के पास आये और एकान्त में उनसे कहने लगे ;- ‘सच्चिदानंदस्वरूप श्रीकृष्ण! आपका स्वरूप मन और वाणी का विषय नहीं है। आप योगेश्वर हैं। सारे जगत का नियन्त्रण आप ही करते हैं। आप सबके हृदय में निवास करते हैं और सब-के-सब आपके हृदय में निवास करते हैं। आप भक्तों के एकमात्र वांछनीय, यदुवंश-शिरोमणि और हमारे स्वामी हैं। जैसे एक ही अग्नि सभी लकड़ियों में व्याप्त रहती है, वैसे एक ही आप समस्त प्राणियों के आत्मा हैं। आत्मा के रूप में होने पर भी आप अपने को छिपाये रखते हैं; क्योंकि पंचकोशरूप गुफाओं के भीतर रहते हैं। फिर भी पुरुषोत्तम के रूप में, सबके नियन्ता के रूप में और सबके साक्षी के रूप में आपका अनुभव होता ही है।

प्रभो! आप सबके अधिष्ठान और स्वयं अधिष्ठानरहित हैं। आपने सृष्टि के प्रारम्भ में अपनी माया से ही गुणों की सृष्टि की और उन गुणों को ही स्वीकार करके आप जगत की उत्पत्ति स्थिति और प्रलय करते रहते हैं। यह सब करने के लिये आपको अपने से अतिरिक्त और किसी भी वस्तु आवश्यकता नहीं है। क्योंकि आप सर्वशक्तिमान और सत्यसंकल्प हैं। वही आप दैत्य, प्रमथ और राक्षसों का, जिन्होंने आजकल राजाओं का वेष धारण कर रखा है, विनाश करने के लिये तथा धर्म की मर्यादाओं की रक्षा करने के लिये यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं। यह बड़े आनन्द की बात है कि आपने खेल-ही-खेल में घोड़े के रूप में रहने वाले इस केशी दैत्य को मार डाला। इसकी हिनहिनाहट से डरकर देवता लोग अपना स्वर्ग छोड़कर भाग जाया करते थे।

प्रभो! अब परसों मैं आपके हाथों चाणूर, मुष्टिक, दूसरे पहलवान, कुवलयापीड हाथी और स्वयं कंस को मरते देखूँगा। उसके बाद शंखासुर, कालयवन, मुर और नरकासुर का वध देखूँगा। आप स्वर्ग से कल्पवृक्ष उखाड़ लायेंगे और इन्द्र के चीं-चपड़ करने पर उनको उसका मजा चखायेंगे। आप अपनी कृपा, वीरता, सौन्दर्य आदि का शुल्क देकर वीर-कन्याओं से विवाह करेंगे, और जगदीश्वर! आप द्वारका में रहते हुए नृग को पाप से छुडायेंगे।

आप जाम्बवती के साथ स्यमन्तक मणि को जाम्बवान से ले आयेंगे और अपने धाम से ब्राह्मण के मरे हुए पुत्रों को ला देंगे। इसके पश्चात आप पौण्ड्रक मिथ्यावासुदेव का वध करेंगे। काशीपुरी को जला देंगे। युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ में चेदिराज शिशुपाल को और वहाँ से लौटते समय उसके मौसेरे भाई दन्तवक्त्र को नष्ट करेंगे।

प्रभो! द्वारका में निवास करते समय आप और भी बहुत-से पराक्रम प्रकट करेंगे जिन्हें पृथ्वी के बड़े-बड़े ज्ञानी और प्रतिभाशील पुरुष आगे चलकर गायेंगे। मैं वह सब देखूँगा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तत्रिंश अध्याय श्लोक 22-34 का हिन्दी अनुवाद)

इसके बाद आप पृथ्वी का भार उतारने के लिये कालरूप से अर्जुन के सारथी बनेंगे और अनेक अक्षौहिणी सेना का संहार करेंगे। यह सब मैं अपनी आँखों से देखूँगा।

प्रभो! आप विशुद्ध ज्ञानघन हैं। आपके स्वरूप में और किसी का अस्तित्व है ही नहीं। आप नित्य-निरन्तर अपने परमानन्दस्वरूप में स्थित रहते हैं। इसलिये सारे पदार्थ आपको नित्य प्राप्त ही हैं। आपका संकल्प अमोघ है। आपकी चिन्मयी शक्ति के सामने माया और माया से होने वाला यह त्रिगुणमय संसार-चक्र नित्यनिवृत है - कभी हुआ ही नहीं। ऐसे आप अखण्ड, एकरस, सच्चिंदानंदस्वरूप, निरतिशय ऐश्वर्यसम्पन्न भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ।

आप सबके अन्तर्यामी और नियन्ता हैं। अपने-आपमें स्थित, परम स्वतन्त्र हैं। जगत और उसके अशेष विशेषों - भाव-अभाव रूप सारे भेद-विभेदों की कल्पना केवल आपकी माया से ही हुई है। इस समय आपने अपनी लीला प्रकट करने के लिये मनुष्य का-सा श्रीविग्रह प्रकट किया है और आप यदु, वृष्णि तथा सात्वतवंशियों के शिरोमणि बने हैं। प्रभो! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।'

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान के परमप्रेमी भक्त देवर्षि नारद जी ने इस प्रकार भगवान की स्तुति और प्रणाम किया। भगवान के दर्शनों के आह्लाद से नारद जी का रोम-रोम खिल उठा। तदनन्तर उनकी आज्ञा प्राप्त करके वे चले गये।

इधर भगवान श्रीकृष्ण केशी को लड़ाई में मारकर फिर अपने प्रेमी एवं प्रसन्नचित्त ग्वाल-बालों के साथ पूर्ववत पशु-पालन के काम में लग गये तथा व्रजवासियों को परमानन्द वितरण करने लगे। एक समय वे ग्वालबाल पहाड़ी की चोटियों पर गाय आदि पशुओं को चरा रहे थे तथा कुछ चोर और कुछ रक्षक बनकर छिपने-छिपाने का - लुका-लुकी का खेल खेल रहे थे।

राजन! उन लोगों में से कुछ तो चोर और कुछ रक्षक तथा कुछ भेड़ बन गये थे। इस प्रकार वे निर्भय होकर खेल में रम गये थे। उसी समय ग्वाल का वेष धारण करके व्योमासुर वहाँ आया। वह मायावियों के आचार्य मयासुर का पुत्र था और स्वयं भी बड़ा मायावी था। वह खेल में बहुधा चोर ही बनता और भेड़ बने हुए बहुत-से बालकों को चुराकर छिपा आता।

वह महान असुर बार-बार उन्हें ले जाकर एक पहाड़ की गुफा में डाल देता और उनका दरवाजा एक बड़ी चट्टान से ढक देता। इस प्रकार ग्वालबालों में केवल चार-पाँच बालक ही बच रहे। भक्तवत्सल भगवान उसकी यह करतूत जान गये। जिस समय वह ग्वालबालों को लिये जा रहा था, उसी समय उन्होंने, जैसे सिंह भेड़िये को दबोच ले उसी प्रकार, उसे धर दबाया। व्योमासुर बड़ा बली था। उसने पहाड़ के समान अपना असली रूप प्रकट कर दिया और चाहा कि अपने को छुड़ा लूँ। परन्तु भगवान ने उसको इस प्रकार अपने शिकंजे में फाँस लिया था कि वह अपने को छुड़ा न सका।

तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपने दोनों हाथों से जकड़कर उसे भूमि पर गिरा दिया और पशु की भाँति गला घोंटकर मार डाला। देवता लोग विमानों पर चढ़कर उनकी यह लीला देख रहे थे। अब भगवान श्रीकृष्ण ने गुफा के द्वार पर लगे हुए चट्टानों के पिहान तोड़ डाले और ग्वालबालों को उस संकटपूर्ण स्थान से निकाल लिया। बड़े-बड़े देवता और ग्वालबाल उनकी स्तुति करने लगे और भगवान श्रीकृष्ण व्रज में चले आये।

                            {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                         【अड़तीसवाँ अध्याय】३८


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टात्रिंश अध्याय श्लोक 1- 10 का हिन्दी अनुवाद)

"अक्रूरजी की व्रज-यात्रा"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! महामती अक्रूर जी भी वह रात मथुरापुरी में बिताकर प्रातःकाल होते ही रथ पर सवार हुए और नन्दबाबा के गोकुल की ओर चल दिये। परम भाग्यवान अक्रूर जी व्रज की यात्रा करते समय मार्ग में कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण की परम प्रेममयी भक्ति से परिपूर्ण हो गये। वे इस प्रकार सोचने लगे - ‘मैंने ऐसा कौन-सा शुभ कर्म किया है, ऐसी कौन-सी श्रेष्ठ तपस्या की है अथवा किसी सत्पात्र को ऐसा कौन-सा महत्त्वपूर्ण दान दिया है जिसके फलस्वरूप आज मैं भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन करूँगा।

मैं बड़ा विषयी हूँ। ऐसी स्थितियों में, बड़े-बड़े सात्त्विक पुरुष भी जिनके गुणों का ही गान करते रहते हैं, दर्शन नहीं कर पाते - उन भगवान के दर्शन मेरे लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं, ठीक वैसे ही, जैसे शूद्र कुल के बालक के लिये वेदों का कीर्तन। परन्तु नहीं, मुझ अधम को भी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन होंगे ही। क्योंकि जैसे नदी में बहते हुए तिनके कभी-कभी इस पार से उस पार लग जाते हैं, वैसे ही समय के प्रवाह से भी कहीं कोई इस संसार सागर को पार कर सकता है। अवश्य ही आज मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गये। आज मेरा जन्म सफल हो गया। क्योंकि आज मैं भगवान के उन चरणकमलों में साक्षात नमस्कार करूँगा, जो बड़े-बड़े योगी-यतियों के भी केवल ध्यान के ही विषय हैं।

अहो! कंस के भेजने मेरे ऊपर बड़ी ही कृपा की है। उसी कंस के भेजने से मैं इस भूतल पर अवतीर्ण स्वयं भगवान के चरणकमलों के दर्शन पाऊँगा। जिनके नभमण्डल की कान्ति का ध्यान करके पहले युगों के ऋषि-महर्षि इस अज्ञान रूप अपार अन्धकार-राशि को पार कर चुके हैं, स्वयं वही भगवान तो अवतार ग्रहण करके प्रकट हुए हैं। ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता जिन चरणकमलों उपासना करते रहते हैं, स्वयं भगवती लक्ष्मी एक क्षण के लिये भी जिनकी सेवा नहीं छोड़तीं, प्रेमी भक्तों के साथ बड़े-बड़े ज्ञानी थी जिनकी आराधना में संलग्न रहते हैं - भगवान के वे ही चरणकमल गौओं को चराने के लिये ग्वालबालों के साथ वन-वन में विचरते हैं।

वे ही सुर-मुनि - वन्दित श्रीचरण गोपियों के वक्षःस्थल पर लगी हुई केसर से रँग जाते हैं, चिह्नित हो जाते हैं, मैं अवश्य-अवश्य उनका दर्शन करूँगा। मरकतमणि के समान सुस्निग्ध कान्तिमान उनके कोमल कपोल हैं, तोते की ठोर के समान नुकीली नासिका है, होंठों पर मन्द-मन्द मुस्कान, प्रेमभरी चितवन, कमल-से-कोमल रतनारे लोचन और कपोलों पर घुँघराली अलकें लटक रही हैं।

मैं प्रेम और मुक्ति के परम दानी श्रीमुकुन्द के उस मुखकमल का आज अवश्य दर्शन करूँगा। क्योंकि हरिन मेरी दायीं ओर से निकल रहे हैं। भगवान विष्णु पृथ्वी का भार उतारने के लिये स्वेच्छा से मनुष्य की-सी लीला कर रहे हैं! वे सम्पूर्ण लावण्य के धाम हैं। सौन्दर्य की मूर्तिमान निधि हैं। आज मुझे उन्हीं का दर्शन होगा! अवश्य होगा! आज मुझे सहज में ही आँखों का फल मिल जायगा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टात्रिंश अध्याय श्लोक 11-17 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान इस कार्य-कारणरूप जगत के दृष्टामात्र हैं, और ऐसा होने पर भी दृष्टापन का अहंकार उन्हें छू तक नहीं गया है। उनकी चिन्मयी शक्ति से अज्ञान के कारण होने वाला भेद भ्रम अज्ञान सहित दूर से ही निरस्त रहता है। वे अपनी योगमाया से ही अपने-आपमें भ्रूविलास मात्र से प्राण, इन्द्रिय और बुद्धि आदि के सहित अपने अपने स्वरूप भूत जीवों की रचना कर लेते हैं और उनके साथ वृन्दावन की कुंजों में तथा गोपियों के घरों में तरह-तरह की लीलाएँ करते हुए प्रतीत होते हैं। जब समस्त पापों के नाशक उनके परम मंगलमय गुण, कर्म और जन्म की लीलाओं से युक्त होकर वाणी उनका गान करती है, तब उस गान से संसार में जीवन की स्फूर्ति होने लगती है, शोभा का संचार हो जाता है, सारी अपवित्रताएँ धुलकर पवित्रता का साम्राज्य छा जाता है; परन्तु जिस वाणी से उनके गुण, लीला और जन्म की कथाएँ नहीं गायी जातीं, वह तो मुर्दों को ही शोभित करने वाली है, होने पर भी नहीं के समान - व्यर्थ है।

जिनके गुणगान का ही ऐसा माहात्म्य है, वे ही भगवान स्वयं यदुवंश में अवतीर्ण हुए हैं। किसलिये? अपनी ही बनायी मर्यादा का पालन करने वाले श्रेष्ठ देवताओं का कल्याण करने के लिये। वे ही परम ऐश्वर्यशाली भगवान आज व्रज में निवास कर रहे हैं उनका यश कितना पवित्र है!

अहो, देवता लोग भी उस सम्पूर्ण मंगलमय यश का गान करते रहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि आज मैं अवश्य ही उन्हें देखूँगा। वे बड़े-बड़े संतों और लोकपालों के भी एकमात्र आश्रय हैं। सबके परम गुरु हैं। और उनका रूप-सौन्दर्य तीनों लोकों के मन को मोह लेने वाला है। जो नेत्र वाले हैं उनके लिये वह आनन्द और रस की चरम सीमा है। इसी से स्वयं लक्ष्मी जी भी, जो सौन्दर्य की अधीश्वरी हैं, उन्हें पाने के लिये ललकती रहती हैं। हाँ, तो मैं उन्हें अवश्य देखूँगा। क्योंकि आज मेरा मंगल-प्रभात है, आज मुझे प्रातःकाल से ही अच्छे-अच्छे शकुन दीख रहे हैं।

जब मैं उन्हें देखूँगा तब सर्वश्रेष्ठ पुरुष बलराम तथा श्रीकृष्ण के चरणों में नमस्कार करने के लिये तुरंत रथ से कूद पडूँगा। उनके चरण पकड़ लूँगा। ओह! उनके चरण कितने दुर्लभ हैं! बड़े-बड़े योगी-यति आत्म-साक्षात्कार के लिये मन-ही-मन अपने हृदय में उनके चरणों की धारणा करते हैं और मैं तो उन्हें प्रत्यक्ष पा जाऊँगा और लौट जाऊँगा उन पर।

उन दोनों के साथ ही उनके वनवासी सखा एक-एक ग्वालबाल के चरणों की भी वन्दना करूँगा। मेरे अहोभाग्य! जब मैं उनके चरण-कमलों में गिर जाऊँगा, तब क्या वे अपना करकमल मेरे सिरपर रख देंगे? उनके वे करकमल उन लोगों को सदा के लिये अभयदान दे चुके हैं, जो कामरूपी साँप के भय से अत्यन्त घबड़ाकर उनकी शरण चाहते और शरण में आ जाते हैं। इन्द्र तथा दैत्यराज बलि ने भगवान के उन्हीं करकमलों में पूजा की भेंट समर्पित करके तीनों लोकों का प्रभुत्व - इन्द्रपद प्राप्त कर लिया। भगवान के उन्हीं करकमलों ने, जिनमें से दिव्य कमल की-सी सुगन्ध आया करती है, अपने स्पर्श से रासलीला के समय व्रज युवतियों की सारी थकान मिटा दी थी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टात्रिंश अध्याय श्लोक 18-25 का हिन्दी अनुवाद)

मैं कंस का दूत हूँ। उसी के भेजने से उनके पास जा रहा हूँ। कहीं वे मुझे अपना शत्रु तो न समझ बैठेंगे? राम-राम! वे ऐसा कदापि नहीं समझ सकते। क्योंकि वे निर्विकार हैं, सम हैं, अच्युत हैं, सारे विश्व के साक्षी हैं, सर्वज्ञ हैं, वे चित्त के बाहर भी हैं और भीतर भी। वे क्षेत्रज्ञ रूप से स्थित होकर अन्तःकरण की एक-एक चेष्टा को अपनी निर्मल ज्ञान-दृष्टि के द्वारा देखते रहते हैं। तब मेरी शंका व्यर्थ हैं। अवश्य ही मैं उनके चरणों में हाथ जोड़कर विनीतभाव से खड़ा हो जाऊँगा। वे मुस्कराते हुए दया भरी स्निग्ध दृष्टि से मेरी ओर देखेंगे। उस समय मेरे जन्म-जन्म के समस्त अशुभ संस्कार उसी क्षण नष्ट हो जायँगे और मैं निःशंक होकर सदा के लिये परमानन्द में मग्न हो जाऊँगा।

मैं उनके कुटुम्ब का हूँ और उनका अत्यन्त हित चाहता हूँ। उनके सिवा और कोई मेरा आराध्यदेव भी नहीं है। ऐसी स्थिति में वे अपनी लंबी-लंबी बाँहों से पकड़कर मुझे अवश्य अपने हृदय से लगा लेंगे। अहा! उस समय मेरी तो देह पवित्र होगी ही, वह दूसरों को पवित्र करने वाली भी बन जायगी और उसी समय - उनका आलिंगन प्राप्त होते ही - मेरे कर्ममय बन्धन, जिनके कारण मैं अनादिकाल से भटक रहा हूँ, टूट जायँगे। जब वे मेरा आलिंगन कर चुकेंगे और मैं हाथ जोड़, सिर झुकाकर उनके सामने खड़ा हो जाऊँगा। तब वे मुझे ‘चाचा अक्रूर!’ इस प्रकार कहकर सम्बोधन करेंगे। क्यों न हो, इसी पवित्र और मधुर यश का विस्तार करने के लिये ही तो वे लीला कर रहे हैं। तब मेरा जीवन सफल हो जायगा।

भगवान श्रीकृष्ण ने जिसको अपनाया नहीं, जिसे आदर नहीं दिया - उसके उस जन्म को, जीवन को धिक्कार है। न तो उन्हें कोई प्रिय है और न तो अप्रिय। न तो उनका कोई आत्मीय सुहृद है और न तो शत्रु। उनकी उपेक्षा का पात्र भी कोई नहीं है। फिर भी जैसे कल्पवृक्ष अपने निकट आकर याचना करने वालों को उनकी मुँहमाँगी वस्तु देता है, वैसे ही भगवान श्रीकृष्ण भी, जो उन्हें जिस प्रकार भजता है, उसे उसी रूप में भजते हैं - वे अपने प्रेमी भक्तों से ही पूर्ण प्रेम करते हैं। मैं उनके सामने विनीत भाव से सिर झुकाकर खड़ा हो जाऊँगा और बलराम जी मुस्कराते हुए मुझे अपने हृदय से लगा लेंगे और फिर मेरे दोनों हाथ पकड़कर मुझे घर के भीतर ले जायँगे। वहाँ सब प्रकार से मेरा सत्कार करेंगे। इसके बाद मुझसे पूछेंगे कि ‘कंस हमारे घरवालों के साथ कैसा व्यवहार करता है?’

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! श्वफल्कनन्दन अक्रूर मार्ग में इसी चिन्तन में डूबे-डूबे रथ से नन्द गाँव पहुँच गये और सूर्य अस्ताचल पर चले गये। जिनके चरणकमल की रज का सभी लोकपाल अपने किरीटों के द्वारा सेवन करते हैं, अक्रूर जी ने गोष्ठ में उनके चरणचिह्नों के दर्शन किये। कमल, यव, अंकुश आदि असाधारण चिह्नों के द्वारा उनकी पहचान हो रही थी और उनसे पृथ्वी की शोभा बढ़ रहीं थी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टात्रिंशोऽध्यायः श्लोक 26-38 का हिन्दी अनुवाद)

उन चरणचिह्नों के दर्शन करते ही अक्रूर जी के हृदय में इतना आह्लाद हुआ कि वे अपने को सँभाल न सके, विह्वल हो गये। प्रेम के आवेग से उनका रोम-रोम खिल उठा, नेत्रों में आँसू भर आये और टप-टप टपकने लगे। वे रथ से कूद-कर उस धूलि में लोटने लगे और कहने लगे - ‘अहो! यह हमारे प्रभु के चरणों की रज है।'

परीक्षित! कंस के सन्देश से लेकर यहाँ तक अक्रूर जी के चित्त की जैसी अवस्था रही है, यही जीवों के देह धारण करने का परम लाभ है। इसलिये जीवमात्र का यही परम कर्तव्य है कि दम्भ, भय और शोक त्यागकर भगवान की मूर्ति चिह्न, लीला, स्थान तथा गुणों के दर्शन-श्रवण आदि के द्वारा ऐसा ही भाव सम्पादन करें।

व्रज में पहुँचकर अक्रूर जी ने श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाइयों को गाय दुहने के स्थान में विराजमान देखा। श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण पीताम्बर धारण किये हुए थे और गौरसुन्दर बलराम नीलाम्बर। उनके नेत्र शरत्कालीन कमल के समान खिले हुए थे। उन्होंने अभी किशोर-अवस्था में प्रवेश ही किया था। वे दोनों गौर-श्याम निखिल सौन्दर्य की खान थे। घुटनों का स्पर्श करने वाली लंबी-लंबी भुजाएँ, सुन्दर बदन, परम मनोहर और गजशावक के समान ललित चाल थी।

उनके चरणों में ध्वजा, वज्र, अंकुश और कमल के चिह्न थे। जब वे चलते थे, उनसे चिह्नित होकर पृथ्वी शोभायमान हो जाती थी। उनकी मन्द-मन्द मुस्कान और चितवन ऐसी थी मानो दया बरस रही हो। वे उदारता की तो मानो मूर्ति ही थे। उनकी एक-एक लीला उदारता और सुन्दर कला से भरी थी। गले में वनमाला और मणियों के हार जगमगा रहे थे। उन्होंने अभी-अभी स्नान करके निर्मल वस्त्र पहने थे और शरीर में पवित्र अंगराग तथा चन्दन का लेप किया था।

परीक्षित! अक्रूर ने देखा कि जगत के आदिकारण, जगत के परमपति, पुरुषोत्तम ही संसार की रक्षा के लिये अपने सम्पूर्ण अंशो से बलराम जी और श्रीकृष्ण के रूप में अवतीर्ण होकर अपनी अंगकान्ति से दिशाओं का अन्धकार दूर कर रहे हैं। वे ऐसे भले मालूम होते थे, जैसे सोने से मढ़े हुए मरकतमणि और चाँदी के पर्वत जगमगा रहे हों। उन्हें देखते ही अक्रूर जी प्रेमावेग से अधीर होकर रथ से कूद पड़े और भगवान श्रीकृष्ण तथा बलराम के चरणों के पास साष्टांग लोट गये।

परीक्षित!भगवान के दर्शन से उन्हें इतना आह्लाद हुआ कि उनके नेत्र आँसू से सर्वथा भर गये। सारे शरीर में पुलकावली छा गयी। उत्कण्ठावश गला भर आने के कारण वे अपना नाम भी न बतला सके। शरणागतवत्सल भगवान श्रीकृष्ण उनके मन का भाव जान गये। उन्होंने बड़ी प्रसन्नता से चक्रांकित हाथों के द्वारा उन्हें खींचकर उठाया और हृदय से लगा लिया। इसके बाद जब वे परम मनस्वी श्री बलराम जी के सामने विनीत भाव से खड़े हो गये, तब उन्होंने उनको गले लगा लिया और उनका एक हाथ श्रीकृष्ण ने पकड़ा तथा दूसरा बलराम जी ने। दोनों भाई उन्हें घर ले गये।

घर ले जाकर भगवान ने उनका बड़ा स्वागत-सत्कार किया। कुशल-मंगल पूछकर श्रेष्ठ आसन पर बैठाया और विधिपूर्वक उनके पाँव पखारकर मधुपर्क आदि पूजा की सामग्री भेंट की।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टात्रिंश अध्याय श्लोक 39-43 का हिन्दी अनुवाद)

इसके बाद भगवान ने अतिथि अक्रूर जी को एक गाय दी और पैर दबाकर उनकी थकावट दूर की तथा बड़े आदर एवं श्रद्धा से उन्हें पवित्र और अनेक गुणों से युक्त अन्न का भोजन कराया। जब वे भोजन कर चुके, तब धर्म के परम मर्मज्ञ भगवान बलराम जी ने बड़े प्रेम से मुखवास और सुगन्धित माला आदि देकर उन्हें अत्यन्त आनन्दित किया।

इस प्रकार सत्कार हो चुकने पर नन्दराय जी ने उनके पास आकर पूछा - ‘अक्रूर जी! आप लोग निर्दयी कंस के जीते-जी किस प्रकार अपने दिन काटते हैं? अरे! उसके रहते आप लोगों की वही दशा है जो कसाई द्वारा पाली हुई भेड़ों की होती है। जिस इन्द्रियाराम पापी ने अपनी बिलखती हुई बहन के नन्हें-नन्हें बच्चों को मार डाला। आप लोग उसकी प्रजा हैं। फिर आप सुखी हैं, यह अनुमान तो हम कर ही कैसे सकते हैं? अक्रूर जी ने नन्दबाबा से पहले ही कुशल-मंगल पूछ लिया था। जब इस प्रकार नन्दबाबा ने मधुर वाणी से अक्रूर जी से कुशल-मंगल पूछा और उनका सम्मान किया तब अक्रूर जी के शरीर से रास्ता चलने की जो कुछ थकावट थी, वह सब दूर हो गयी।


                            {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                         【उन्चालीसवाँ अध्याय】३९


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनचत्वरिंश अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"श्री कृष्ण- बलराम का मथुरागमन"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी ने अक्रूर जी का भलीभाँति सम्मान किया। वे आराम से पलंग पर बैठ गये। उन्होंने मार्ग में जो-जो अभिलाषाएँ की थी, वे सब पूरी हो गयीं। परीक्षित! लक्ष्मी के आश्रयस्थान भगवान श्रीकृष्ण के प्रसन्न होने पर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो प्राप्त नहीं हो सकती? फिर भी भगवान के परमप्रेमी भक्तजन किसी भी वस्तु की कामना नहीं करते।

देवकी नन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने सायंकाल का भोजन करने के बाद अक्रूर जी के पास जाकर अपने स्वजन-सम्बन्धियों के साथ कंस के व्यवहार और उसके अगले कार्यक्रम के सम्बन्ध में पूछा।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- चाचा जी! आपका हृदय बड़ा शुद्ध है। आपको यात्रा में कोई कष्ट तो नहीं हुआ? स्वागत है। मैं आपकी मंगलकामना करता हूँ। मथुरा के हमारे आत्मीय सुहृद, कुटुम्बी तथा अन्य सम्बन्धी सब सकुशल और स्वस्थ हैं न? हमारा नाममात्र का मामा कंस तो हमारे कुल के लिये एक भयंकर व्याधि है। जब तक उनकी बढ़ती हो रही है, तब तक हम अपने वंश वालों और उनके बाल-बच्चों का कुशल-मंगल क्या पूछें।

चाचा जी! हमारे लिये यह बड़े खेद की बात है कि मेरे ही कारण मेरे निरपराध और सदाचारी माता-पिता को अनेकों प्रकार की यातनाएँ झेलनी पड़ी - तरह-तरह के कष्ट उठाने पड़े। और तो क्या कहूँ, मेरे ही कारण उन्हें हथकड़ी-बेड़ी से जकड़कर जेल में डाल दिया गया तथा मेरे ही कारण उनके बच्चे भी मार डाले गये। मैं बहुत दिनों से चाहता था कि आप-लोगों में से किसी-न-किसी का दर्शन हो। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आज मेरी वह अभिलाषा पूरी हो गयी। सौम्य-स्वभाव चाचा जी! अब आप कृपा करके यह बतलाइये कि आपका शुभागमन किस निमित्त हुआ?

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब भगवान श्रीकृष्ण ने अक्रूर जी से इस प्रकार प्रश्न किया, तब उन्होंने बतलाया कि ‘कंस ने तो सभी यदुवंशियों से घोर वैर ठान रखा है। वह वसुदेव जी को मार डालने का भी उद्दम कर चुका है।' अक्रूर जी ने कंस का सन्देश और जिस उद्देश्य से उसने स्वयं अक्रूर जी को दूत बनाकर भेजा था और नारद जी ने जिस प्रकार वसुदेव जी के घर श्रीकृष्ण के जन्म लेने का वृतान्त उनको बता दिया था, सो सब कह सुनाया।

अक्रूर जी की यह बात सुनकर विपक्षी शत्रुओं का दमन करने वाले भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी हँसने लगे और इसके बाद उन्होंने अपने पिता नन्द जी को कंस की आज्ञा सुना दी। तब नन्दबाबा ने सब गोपों को आज्ञा दी कि ‘सारा गोरस एकत्र करो। भेंट की सामग्री ले लो और छकड़े जोड़ो। कल प्रातःकाल ही हम सब मथुरा की यात्रा करेंगे और वहाँ चलकर राजा कंस को गोरस देंगे। वहाँ एक बहुत बड़ा उत्सव हो रहा है। उसे देखने के लिये देश की सारी प्रजा इकट्ठी हो रही है। हमलोग भ उसे देखेंगे।’ नन्दबाबा ने गाँव के कोतवाल के द्वारा यह घोषणा सारे व्रज में करवा दी।

परीक्षित! जब गोपियों ने सुना कि हमारे मनमोहन श्यामसुन्दर और गौरसुन्दर बलराम जी को मथुरा ले जाने के लिये अक्रूर जी व्रज में आये हैं तब उनके हृदय में बड़ी व्यथा हुई। वे व्याकुल हो गयीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनचत्वरिंश अध्याय श्लोक14-22 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान श्रीकृष्ण के मथुरा जाने की बात सुनते ही बहुतों के हृदय में ऐसी जलन हुई कि गरम साँस चलने लगी, मुख कमल कुम्हला गया। और बहुतों की ऐसी दशा हुई - वे इस प्रकार अचेत हो गयीं कि उन्हें खिसकी हुई ओढ़नी, गिरते हुए कंगन और ढीले हुए जूड़ों तक का पता न रहा। भगवान के स्वरूप का ध्यान आते ही बहुत-सी गोपियों की चित्तवृतियाँ सर्वथा निवृत्त हो गयीं, मानो वे समाधिस्थ - आत्मा में स्थित हो गयी हों, और उन्हें अपने शरीर और संसार का कुछ ध्यान ही न रहा।

बहुत-सी गोपियों के सामने भगवान श्रीकृष्ण का प्रेम, उनकी मन्द-मन्द मुस्कान और हृदय को स्पर्श करने वाली विचित्र पदों से युक्त मधुर वाणी नाचने लगी। वे उसमें तल्लीन हो गयीं। मोहित हो गयीं। गोपियाँ मन-ही-मन भगवान की लटकीली चाल, भाव-भंगी, प्रेमभरी मुस्कान, चितवन, सारे शोकों को मिटा देने वाली ठिठोलियाँ तथा उदारता-भरी लीलाओं का चिन्तन करने लगीं और उनके विरह के भय से कातर हो गयीं। उनका हृदय, उनका जीवन - सब कुछ भगवान के प्रति समर्पित था। उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे। वे झुंड-के-झुंड इकट्ठी होकर इस प्रकार कहने लगीं।

गोपियों ने कहा ;- धन्य हो विधाता! तुम सब कुछ विधान तो करते हो, परन्तु तुम्हारे हृदय में दया का लेश भी नहीं है। पहले तो तुम सौहार्द और प्रेम से जगत के प्राणियों को एक-दूसरे के साथ जोड़ देते हो, उन्हें आपस में एक कर देते हो; मिला देते हो परन्तु अभी उनकी आशा-अभिलाषाएँ पूरी भी नहीं हो पातीं, वे तृप्त भी नहीं हो पाते कि तुम उन्हें व्यर्थ ही अलग-अलग कर देते हो! सच है, तुम्हारा यह खिलवाड़ बच्चों के खेल की तरह व्यर्थ ही है। यह कितने दुःख की बात है!

विधाता! तुमने पहले हमें प्रेम का वितरण करने वाले श्यामसुन्दर का मुख कमल दिखलाया। कितना सुन्दर है वह! काले-काले घुँघराले बाल कपोलों पर झलक रहे हैं। मरकत मणि-से चिकने सुस्निग्ध कपोल और तोते की चोंच-सी सुन्दर नासिका तथा अधरों पर मन्द-मन्द मुस्कान की सुन्दर रेखा, जो सारे शोकों को तत्क्षण भगा देती है।

विधाता! तुमने एक बार तो हमें वह परम सुन्दर मुख कमल दिखाया और अब उसे ही हमारी आँखों से ओझल कर रह हो! सचमुच तुम्हारी यह करतूत बहुत ही अनुचित है। हम जानती हैं, इसमें अक्रूर का दोष नहीं है; यह तो साफ़ तुम्हारी क्रूरता है। वास्तव में तुम्हीं अक्रूर के नाम से यहाँ आये हो और अपनी ही दी हुई आँखें तुम हमसे मूर्ख की भाँति छीन रहे हो। इनके द्वारा हम श्यामसुन्दर के एक-एक अंग में तुम्हारी सृष्टि का सम्पूर्ण सौन्दर्य निहारती रहती थीं। विधाता! तुम्हें ऐसा नहीं चाहिये।

अहो! नन्दनन्दन श्यामसुन्दर को भी नये-नये लोगों से नेह लगाने की चाट पड़ गयी है। देखो तो सही - इनका सौहार्द, इनका प्रेम एक क्षण में ही कहाँ चला गया? हम तो अपने घर-द्वार, स्वजन-सम्बन्धी, पति-पुत्र आदि को छोड़कर इनकी दासी बनीं और इन्हीं के लिये आज हमारा हृदय शोकातुर हो रहा है, परन्तु ये ऐसे हैं कि हमारी ओर देखते तक नहीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनचत्वरिंश अध्याय श्लोक 23-30 का हिन्दी अनुवाद)

आज की रात का प्रातःकाल मथुरा की स्त्रियों के लिये निश्चय ही बड़ा मंगलमय होगा। आज उनकी बहुत दिनों की अभिलाषाएँ अवश्य ही पूरी हो जायँगी। जब हमारे व्रजराज श्यामसुन्दर अपनी तिरछी चितवन और मन्द-मन्द मुस्कान से युक्त मुखारविन्द का मादक मधु वितरण करते हुए मथुरापुरी में प्रवेश करेंगे, अब वे उनका पान करके धन्य-धन्य हो जायँगी। यद्यपि हमारी श्यामसुन्दर धैर्यवान होने के साथ ही नन्दबाबा आदि गुरुजनों की आज्ञा में रहते हैं, तथापि मथुरा की युवतियों अपने मधु के समान मधुर वचनों से इनका चित्त बरबस अपनी ओर खींच लेंगी और ये उनकी सलज्ज मुस्कान तथा विलासपूर्ण भाव-भंगी से वहीं रम जायँगे। फिर हम गंवार ग्वालिनों के पास ये लौटकर क्यों आने लगे।

धन्य है आज हमारे श्यामसुन्दर का दर्शन करके मथुरा के दाशार्ह, भोज, अन्धक और वृष्णिवंशी यादवों के नेत्र अवश्य ही परमानन्द का साक्षात्कार करेंगे। आज उनके यहाँ महान उत्सव होगा। साथ ही जो लोग यहाँ से मथुरा जाते हुए रमारमण गुणसागर नटनागर देवकीनन्दन श्यामसुन्दर का मार्ग में दर्शन करेंगे, वे भी निहाल हो जायँगे।

देखो सखी! यह अक्रूर कितना निष्ठुर, कितना हृदयहीन है। इधर तो हम गोपियाँ इतनी दुःखित हो रही हैं और यह हमारे परम प्रियतम नन्ददुलारे श्यामसुन्दर को हमारी आँखों से ओझल करके बहुत दूर ले जाना चाहता है और दो बात कहकर हमें धीरज भी नहीं बँधाता, आश्वासन भी नहीं देता। सचमुच ऐसे अत्यन्त क्रूर पुरुष का ‘अक्रूर’ नाम नहीं होना चाहिये था।

सखी! हमारे ये श्यामसुन्दर भी तो कम निष्ठुर नहीं हैं। देखो-देखो, वे भी रथ पर बैठ गये। और मतवाले गोपगण छकड़ों द्वारा उनके साथ जाने के लिये कितनी जल्दी मचा रहे हैं। सचमुच ये मूर्ख हैं। और हमारे बड़े-बूढ़े! उन्होंने तो इन लोगों की जल्दबाजी देखकर उपेक्षा कर दी है कि ‘जाओ जो मन में आवे, करो!’ अब हम क्या करें? आज विधाता सर्वथा हमारे प्रतिकूल चेष्टा कर रहा है।

चलो, हम स्वयं ही चलकर अपने प्राणप्यारे श्यामसुन्दर को रोकेंगी; कुल के बड़े-बूढ़े और बन्धुजन हमारा क्या कर लेंगे? अरी सखी! हम आधे क्षण के लिये भी प्राणवल्लभ नन्दनन्दन का संग छोड़ने में असमर्थ थीं। आज हमारे दुर्भाग्य ने हमारे सामने उनका वियोग उपस्थित करके हमारे चित्त को विनष्ट एवं व्याकुल कर दिया है।

सखियों! जिनकी प्रेमभरी मनोहर मुस्कान, रहस्य की मीठी-मीठी बातें, विलासपूर्ण चितवन और प्रेमालिंगन से हमने रासलीला की वे रात्रियाँ - जो बहुत विशाल थीं - एक क्षण के समान बिता दी थीं। अब भला, उनके बिना हम उन्हीं की दी हुई अपार विरह व्यथा का पार कैसे पावेंगी। एक दिन की नहीं, प्रतिदिन की बात है, सायंकाल में प्रतिदिन वे ग्वालबालों से घिरे हुए बलराम जी के साथ वन से गौएँ चराकर लौटते हैं। उनकी काली-काली घुँघराली अलकें और गले के पुष्पहार गौओं के खुर की रज से ढके रहते हैं। वे बाँसुरी बजाते हुए अपनी मन्द-मन्द मुस्कान और तिरछी चितवन से देख-देखकर हमारे हृदय को बेध डालते हैं। उनके बिना भला, हम कैसे जी सकेंगी?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनचत्वरिंश अध्याय श्लोक 31-44 का हिन्दी अनुवाद)

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! गोपियाँ वाणी से तो इस प्रकार कह रही थीं; परन्तु उनका एक-एक मनोरथ भगवान श्रीकृष्ण का स्पर्श, उनका आलिंगन कर रहा था। वे विरह की सम्भावना से अत्यन्त व्याकुल हो गयीं और लाज छोड़कर ‘हे गोविन्द! हे दामोदर! हे माधव!’ - इस प्रकार ऊँची आवाज से पुकार-पुकारकर सुललित स्वर से रोने लगीं। गोपियाँ इस प्रकार रो रहीं थीं! रोते-रोते सारी रात बीत गयी, सूर्योदय हुआ। अक्रूर जी सन्ध्या-वन्दन आदि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर रथ पर सवार हुए और उसे हाँक ले चले।

नन्दबाबा आदि गोपों ने भी दूध, दही, मक्खन, घी आदि से भरे मटके और भेंट की बहुत-सी सामग्रियाँ ले लीं तथा वे छकड़ों पर चढ़कर उनके पीछे-पीछे चले। इसी समय अनुराग के रंग में रँगी हुई गोपियाँ अपने प्राणप्यारे श्रीकृष्ण के पास गयीं और उनकी चितवन, मुस्कान आदि निरखकर कुछ-कुछ सुखी हुईं। अब वे अपने प्रियतम श्यामसुन्दर से कुछ सन्देश पाने की आकांक्षा से वहीं खड़ी हो गयीं।

यदुवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरे मथुरा जाने से गोपियों के हृदय में बड़ी जलन हो रही है, वे सन्तप्त हो रही हैं, तब उन्होंने दूत के द्वारा ‘मैं आऊँगा’ यह प्रेम-सन्देश भेजकर उन्हें धीरज बँधाया। गोपियों को जब तक रथ की ध्वजा और पहियों से उड़ती हुई धूल दीखती रही तब तक उनके शरीर चित्रलिखित-से वहीं ज्यों-के-त्यों खड़े रहे। परन्तु उन्होंने अपना चित्त तो मनमोहन प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण के साथ ही भेज दिया था। अभी उनके मन में आशा थी कि शायद श्रीकृष्ण कुछ दूर जाकर लौट आयें! परन्तु जब नहीं लौटे, तब वे निराश हो गयीं और अपने-अपने घर चली आयीं। परीक्षित! वे रात-दिन अपने प्यारे श्यामसुन्दर की लीलाओं का गान करती रहतीं और इस प्रकार अपने शोकसन्ताप को हल्का करतीं।

परीक्षित! इधर भगवान श्रीकृष्ण भी बलराम जी और अक्रूर जी के साथ वायु के समान वेग वाले रथ पर सवार होकर पापनाशिनी यमुना जी के किनारे जा पहुँचे। वहाँ उन लोगों ने हाथ-मुँह धोकर यमुना जी का मरकत मणि के समान नीला और अमृत के समान मीठा जल पिया। इसके बाद बलराम जी के साथ भगवान वृक्षों के झुरमुट के खड़े रथ पर सवार हो गये। अक्रूर जी ने दोनों भाइयों को रथ पर बैठाकर उनसे आज्ञा ली और यमुना जी के कुण्ड पर आकर वे विधिपूर्वक स्नान करने लगे।

उस कुण्ड में स्नान करने के बाद वे जल में डुबकी लगाकर गायत्री का जप करने लगे। उसी समय जल के भीतर अक्रूर जी ने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम दोनों भाई एक साथ ही बैठे हुए हैं। अब उनके मन में वे शंका हुई कि ‘वसुदेव जी के पुत्रों को तो मैं रथ पर बैठा आया हूँ, अब वे यहाँ जल में कैसे आ गये? जब यहाँ हैं तो शायद रथ पर नहीं होंगे।’ ऐसा सोचकर उन्होंने सिर बाहर निकालकर देखा। वे उस रथ पर भी पूर्ववत बैठे हुए थे। उन्होंने यह सोचकर कि मैंने उन्हें जो जल में देखा था, वह भ्रम ही रहा होगा, फिर डुबकी लगायी। परन्तु फिर उन्होंने वहाँ भी देखा कि साक्षात अनन्तदेव श्रीशेष जी विराजमान हैं और सिद्ध, चारण, गन्धर्व एवं असुर अपने-अपने सिर झुकाकर उनकी स्तुति कर रहे हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनचत्वरिंश अध्याय श्लोक 45-57 का हिन्दी अनुवाद)

शेष जी के हज़ार सिर हैं और प्रत्येक फण पर मुकुट सुशोभित है। कमलनाल के समान उज्ज्वल शरीर पर नीलाम्बर धारण किये हुए हैं और उनकी ऐसी शोभा हो रही है, मानो सहस्र शिखरों से युक्त स्वेतगिरि कैलास शोभायमान हो। अक्रूर जी ने देखा कि शेष जी की गोद में श्याम मेघ के समान घनश्याम विराजमान हो रहे हैं। वे रेशमी पीताम्बर पहले हुए हैं। बड़ी ही शान्त चतुर्भुत मूर्ति है और कमल के रक्तदल के समान रतनारे नेत्र हैं। उनका बदन बड़ा ही मनोहर और प्रसन्नता का सदन है। उनका मधुर हास्य और चारु चितवन चित्त को चुराये लेती हैं। भौंहें सुन्दर और नासिका तनिक ऊँची तथा बड़ी ही सुघड़ है। सुन्दर कान, कपोल और लाल-लाल अधरों की छटा निराली ही है। बाँहें घुटनों तक लंबी और हृष्ट-पुष्ट हैं। कंधे ऊंचें और वक्षःस्थल लक्ष्मी जी का आश्रय-स्थान है। शंख के समाण उतार-चढ़ाव वाला सुडौल गला, गहरी नाभि और त्रिवलीयुक्त उदर पीपल पत्ते के समान शोभायमान है।

स्थूल कटि प्रदेश और नितम्ब, हाथी की सूँड के समान जाँघें, सुन्दर घुटने एवं पिंडलियाँ हैं। एड़ी के ऊपर की गाँठे उभरी हुई हैं और लाल-लाल नखों से दिव्य ज्योतिर्मय किरणें फ़ैल रही हैं। चरणकमल की अंगुलियाँ और अंगूठे नयी और कोमल पंखुड़ियों के समान सुशोभित हैं। अत्यन्त बहुमूल्य मणियों से जड़ा हुआ मुकुट, कड़े, बाजूबंद, करधनी, हार, नूपुर और कुण्डलों से तथा यज्ञोपवीत से दिव्य मूर्ति अलंकृत हो रही है। एक हाथ में पद्म शोभा पा रहा है और शेष तीन हाथों में शंख, चक्र और गदा, वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न, गले में कौस्तुभमणि और वनमाला लटक रही है।

नन्द-सुनन्द आदि पार्षद अपने ‘स्वामी’, सनकादि परमर्षि ‘परब्रह्म’, ब्रह्मा, महादेव आदि देवता ‘सर्वेश्वर’, मरीचि आदि नौ ब्राह्मण ‘प्रजापति’ और प्रह्लाद-नारद आदि भगवान के परम प्रेमी भक्त तथा आठों वसु अपने अनुसार निर्दोष वेदवाणी से भगवान की स्तुति कर रहे हैं।

साथ ही लक्ष्मी, पुष्टि, सरस्वती, कान्ति, कीर्ति और तुष्टि, इला, ऊर्जा, विद्या-अविद्या (जीवों के मोक्ष और बन्धन में कारणरूपा बहिरंग शक्ति), ह्लादिनी, संवित और माया आदि शक्तियाँ मूर्तिमान होकर उनकी सेवा कर रही हैं। भगवान की यह झाँकी निरखकर अक्रूर जी का हृदय परमानन्द से लबालब भर गया। उन्हें परम शक्ति प्राप्त हो गयी। सारा शरीर हर्षावेश से पुलकित हो गया। प्रेमभाव का उद्रेक होने से उनके नेत्र आँसू से भर गये। अब अक्रूरजी ने अपना साहस बटोकर भगवान के चरणों में सिर रखकर प्रणाम किया और वे उसके बाद हाथ जोड़कर बड़ी सावधानी से धीरे-धीरे गद्गद स्वर से भगवान की स्तुति करने लगे।

                            {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                         【चालीसवाँ अध्याय】४०


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चत्वारिंश अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"अक्रूरजी के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति"
अक्रूर जी बोले ;- प्रभो! आप प्रकृति आदि समस्त कारणों के परम कारण हैं। आप ही अविनाशी पुरुषोत्तम नारायण हैं तथा आपके ही नाभिकमल से उन ब्रह्मा जी का आविर्भाव हुआ है, जिन्होंने इस चराचर जगत की सृष्टि की है। मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व, प्रकृति, पुरुष, मन, इन्द्रिय, सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषय और उनके अधिष्ठातृ देवता - यही सब चराचर जगत तथा तथा उनके व्यवहार के कारण हैं और ये सब-के-सब आपके ही अंगस्वरूप हैं।

प्रकृति और प्रकृति से उत्पन्न होने वाले समस्त पदार्थ ‘इंद्रवृत्ति’ के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, इसलिये ये सब अनात्मा हैं। अनात्मा होने के कारण जड़ है और इसलिये आपका स्वरूप नहीं जान सकते। क्योंकि आप तो स्वयं आत्मा ही ठहरे। ब्रह्मा जी अवश्य ही आपके स्वरूप हैं। परन्तु वे प्रकृति के गुण रजस से युक्त हैं, इसलिये वे भी आपकी प्रकृति का और उसके गुणों से परे का स्वरूप नहीं जानते। साधु योगी स्वयं अपने अतःकरण में स्थित ‘अन्तर्यामी’ के रूप में, समस्त भूत-भौतिक पदार्थों में व्याप्त ‘परमात्मा के’ रूप में और सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि देवमण्डल में स्थित ‘इष्ट-देवता’ के रूप में तथा उनके साक्षी महापुरुष एवं नियन्ता ईश्वर के रूप में साक्षात आपकी ही उपासना करते हैं।

बहुत-से कर्मकाण्डी ब्राह्मण कर्ममार्ग का उपदेश करने वाली त्रयीविद्या के द्वारा, जो आपके इन्द्र, अग्नि आदि अनेक देववाचक नाम वज्रहस्त, सप्तर्षि आदि अनेक रूप बतलाती है, बड़े-बड़े यज्ञ करते हैं और उनसे आपकी ही उपासना करते हैं। बहुत-से ज्ञानी अपने समस्त कर्मों का संन्यास कर देते हैं और शान्त-भाव में स्थित हो जाते हैं। वे इस प्रकार ज्ञानयज्ञ के द्वारा ज्ञानस्वरूप आपकी ही आराधना करते हैं। और भी बहुत-से संस्कार-सम्पन्न अथवा शुद्धचित्त वैष्णवजन आपकी बतलायी हुई पांचरात्र आदि विधियों से तन्मय होकर आपके चतुर्व्यूह आदि अनेक और नारायणरूप एक स्वरूप की पूजा करते हैं।

भगवन! दूसरे लोग शिव जी के द्वारा बतलाये हुए मार्ग से, जिसके आचार्य भेद से अनेक अवान्तर भेद भी हैं, शिव स्वरूप आपकी ही पूजा करते हैं। स्वामिन! जो लोग दूसरे देवताओं की भक्ति करते हैं और उन्हें आपसे भिन्न समझते हैं, वे सब भी वास्तव में आपकी ही आराधना करते हैं; क्योंकि आप ही समस्त देवताओं के रूप में हैं और सर्वेश्वर भी हैं। प्रभो! जैसे पर्वतों से सब ओर बहुत-सी नदियाँ निकलती हैं और वर्षा के जल से भरकर घूमती-घामती समुद्र में प्रवेश कर जाती हैं, वैसे ही सभी प्रकार के उपासना-मार्ग घूम-घामकर देर-सबेर आपके ही पास पहुँच जाते हैं।

प्रभो! आपकी प्रकृति के तीन गुण हैं - सत्त्व, रज और तम। ब्रह्मा से लेकर स्थानवरपर्यन्त सम्पूर्ण चराचर जीव प्राकृत हैं और जैसे वस्त्र सूत्रों से ओतप्रोत रहते हैं, वैसे ही ये सब प्रकृति के उन गुणों से ही ओतप्रोत हैं। परन्तु आप सर्वस्वरूप होने पर भी उनके हाथ लिप्त नहीं हैं। आपकी दृष्टि निर्लिप्त हैं, क्योंकि आप समस्त वृत्तियों के साक्षी हैं। यह गुणों के प्रवाह से होने वाली सृष्टि अज्ञानमूलक है और वह देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि समस्त योनियों में व्याप्त हैं; परन्तु आप उससे सर्वथा अलग हैं। इसलिये मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चत्वारिंश अध्याय श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद)

अग्नि आपका मुख है, पृथ्वी चरण है, सूर्य और चन्द्रमा नेत्र हैं, आकाश नाभि है, दिशाएँ कान हैं, स्वर्ग सिर है, देवेद्रगण भुजाएँ हैं, समुद्र कोख है और यह वायु ही आपकी प्राणशक्ति के रूप में उपासना के लिये कल्पित हुई है। वृक्ष और औषधियाँ रोम हैं, मेघ सिर के केश हैं, पर्वत आपके अस्थिसमूह और नख हैं, दिन और रात पलकों का खोलना और मीचना है, प्रजापति जननेन्द्रिय हैं और वृष्टि ही आपका वीर्य है।

अविनाशी भगवन! जैसे जल में बहुत-से जलचर जीव और गूलर के फलों में नन्हें-नन्हें कीट रहते हैं, उसी प्रकार उपासना के लिये स्वीकृत आपके मनोमय पुरुषरूप में अनेक प्रकार के जीव-जन्तुओं से भरे हुए लोक और उनके लोकपाल कल्पित किये गये हैं। प्रभो! आप क्रीडा करने के लिये पृथ्वी पर जो-जो रूप धारण करते हैं, वे सब अवतार लोगों के शोक-मोह को धो-बहा देते हैं; और फिर सब लोग बड़े आनन्द से आपके निर्मल यश का गान करते हैं।

प्रभो! आपने वेदों, ऋषियों, औषधियों और सत्यव्रत आदि की रक्षा-दीक्षा के लिये मत्स्यरूप धारण किया था और प्रलय के समुद्र में स्वच्छन्द विहार किया था। आपके मत्स्यरूप को मैं नमस्कार करता हूँ। आपने ही मधु और कैटभ नाम के असुरों का संहार करने के लिये हयग्रीव अवतार ग्रहण किया था। मैं आपके उस रूप को भी मैं नमस्कार करता हूँ।

आपने ही वह विशाल कच्छपरूप ग्रहण करके मन्दराचल को धारण किया था, आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आपने ही पृथ्वी के उद्धार की लीला करने के लिये वराहरूप स्वीकार किया था, आपको मेरा बार-बार नमस्कार। प्रह्लाद-जैसे साधुजनों का भय मिटाने वाले प्रभो! आप के उस अलौकिक नृसिंह-रूप को मैं नमस्कार करता हूँ। आपने वामनरूप ग्रहण करके अपने पगों से तीनों लोक नाप लिये थे, आपको मैं नमस्कार करता हूँ। धर्म का उल्लंघन करने वाले घमंडी क्षत्रियों के वन का छेदन देने के लिये आपने भृगुपति परशुराम रूप ग्रहण किया था। मैं आपके उस रूप को नमस्कार करता हूँ। रावण का नाश करने के लिये आपने रघुवंश में भगवान राम के रूप में अवतार ग्रहण किया था।

मैं आपको नमस्कार करता हूँ। वैष्णवजनों तथा यदु-वंशियों का पालन-पोषण करने के लिये आपने ही अपने को वासुदेव, संकर्षण, प्रद्दुम्न और अनिरुद्ध-इस चतुर्व्यूह के रूप में प्रकट किया है। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ। दैत्य और दानवों को मोहित करने के लिये आप शुद्ध अहिंसा-मार्ग के प्रवर्तक बुद्ध का रूप ग्रहण करेंगे। मैं आपको नमस्कार करता हूँ और पृथ्वी के क्षत्रिय जब मलेच्छ प्राय: हो जायँगे तब उनका नाश करने के लिये आप ही कल्कि के रूप में अवतीर्ण होंगे। मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

भगवन! ये सब-के-सब जीव आपकी माया से मोहित हो रहे हैं और इस मोह के कारण ही ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ इस झूठे दुराग्रह में फँसकर कर्म के मार्गों में भटक रहे हैं। मेरे स्वामी! इसी प्रकार मैं भी स्वप्न में दीखने वाले पदार्थों के समान झूठे देह-गेह, पत्नी-पुत्र और धन-स्वजन आदि को सत्य समझकर उन्हीं के मोह में फँस रहा हूँ और भटक रहा हूँ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 25-30 का हिन्दी अनुवाद)

मेरी मूर्खता तो देखिये, प्रभो! मैंने अनित्य वस्तुओं को नित्य, अनात्मा को आत्मा और दुःख को सुख समझ लिया। भला, इस उल्टी बुद्धि की भी कोई सीमा है! इस प्रकार अज्ञानवश सांसारिक सुख-दुःख आदि द्वंदों में ही रम गया और यह बात बिलकुल भूल गया कि आप ही हमारे सच्चे प्यारे हैं। जैसे कोई अनजान मनुष्य जल के लिये तालाब पर जाय और उसे उसी से पैदा हुए सिवार आदि घासों से ढका देखकर ऐसा समझ ले कि यहाँ जल नहीं है, तथा सूर्य की किरणों में झूठ-मूठ प्रतीत होने वाले जल के लिये मृगतृष्णा की ओर दौड़ पड़े, वैसे ही मैं अपनी ही माया से छिपे रहने के कारण आपको छोड़कर विषयों में सुख की आशा से भटक रहा हूँ। मैं अविनाशी अक्षर वस्तु के ज्ञान से रहित हूँ। इसी से मेरे मन में अनेक वस्तुओं की कामना और उनके लिये कर्म करने के संकल्प उठते ही रहते हैं। इसके अतिरिक्त ये इन्द्रियाँ भी जो बड़ी प्रबल एवं दुर्दमनीय हैं, मन को मथ-मथकर बलपूर्वक इधर-उधर घसीट ले जाती हैं। इसीलिये इस मन को मैं रोक नहीं पाता।

इस प्रकार भटकता हुआ मैं आपके उन चरणकमलों की छत्रछाया में आ पहुँचा हूँ, जो दुष्टों के लिये दुर्लभ है। मेरे स्वामी! इसे भी मैं आपका कृपाप्रसाद ही मानता हूँ। क्योंकि पद्मनाभ! जब जीव के संसार से मुक्त होने का समय आता है, तब सत्पुरुषों की उपासना से चित्तवृत्ति आपमें लगती है। प्रभो! आप केवल विज्ञानस्वरूप हैं, विज्ञान-घन हैं। जितनी भी प्रतीतियाँ होती हैं, जितनी भी वृत्तियाँ हैं, उन सबके आप ही कारण और अधिष्ठान हैं। जीव के रूप में एवं जीवों के सुख-दुःख आदि के निमित्त काल, कर्म, स्वभाव तथा प्रकृति के रूप में भी आप ही हैं तथा आप ही उन सबके नियन्ता भी है। आपकी शक्तियाँ अनन्त हैं। आप स्वयं ब्रह्म हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। प्रभो! आप ही वासुदेव, आप ही समस्त जीवों के आश्रय  हैं; तथा आप बुद्धि और मन के अधिष्ठातृ-देवता हृषिकेश है। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ। प्रभो! आप मुझ शरणागत की रक्षा कीजिये।

                            {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                         【ईक्तालीसवाँ अध्याय】४१


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"श्री कृष्ण का मथुराजी मेंं प्रवेश"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अक्रूर जी इस प्रकार स्तुति कर रही थे। उन्हें भगवान श्रीकृष्ण ने जल में अपने दिव्यरूप के दर्शन कराये और फिर उसे छिपा लिया, ठीक वैसे ही जैसे कोई नट अभिनय में कोई रूप दिखाकर फिर उसे परदे की ओट में छिपा दे। जब अक्रूर जी ने देखा कि भगवान का वह दिव्यरूप अन्तर्धान हो गया, तब वे जल से बाहर निकल आये और फिर जल्दी-जल्दी सारे आवश्यक कर्म समाप्त करके रथ पर चले आये। उस समय वे बहुत ही विस्मित हो रहे थे। 
भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे पूछा ;- ‘चाचा जी! आपने पृथ्वी, आकाश या जल में कोई अद्भुत वस्तु देखी है क्या? क्योंकि आपकी आकृति देखने से ऐसा ही जान पड़ता है।'

अक्रूर जी ने कहा ;- ‘प्रभो! पृथ्वी, आकाश या जल में और सारे जगत में जितने भी अद्भुत पदार्थ हैं, वे सब आपमें ही हैं। क्योंकि आप विश्वरूप हैं। जब मैं आपको ही देख रहा हूँ तब ऐसी कौन-सी अद्भुत वस्तु रह जाती है, जो मैंने न देखी हो। भगवन! जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे पृथ्वी में हों या जल अथवा आकाश में - सब-की-सब जिनमें हैं, उन्हीं आपको मैं देख रहा हूँ! फिर भला, मैंने यहाँ अद्भुत वस्तु कौन-सी देखी?

गान्दिनीनन्दन अक्रूर जी ने यह कहकर रथ हाँक दिया और भगवान श्रीकृष्ण तथा बलरामजी को लेकर दिन ढलते-ढलते वे मथुरापुरी जा पहुँचे। परीक्षित! मार्ग में स्थान-स्थान पर गाँवों के लोग मिलने के लिये आते और भगवान श्रीकृष्ण तथा बलराम जी को देखकर आनन्दमग्न हो जाते। वे एकटक उनकी ओर देखने लगते, अपनी दृष्टि हटा न पाते।

नन्दबाबा आदि व्रजवासी तो पहले से ही वहाँ पहुँच गये थे, और मथुरापुरी के बाहरी उपवन में रुककर उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उनके पास पहुँचकर जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने विनीतभाव से खड़े अक्रूर जी का हाथ अपने हाथ में लेकर मुस्कराते हुए कहा - ‘चाचा जी! आप रथ लेकर पहले मथुरापुरी में प्रवेश कीजिये और अपने घर जाइये। हम लोग पहले यहाँ उतरकर फिर नगर देखने के लिये आयेंगें।'

अक्रूर जी ने कहा ;- प्रभो! आप दोनों के बिना मैं मथुरा में नहीं जा सकता। स्वामी! मैं आपका भक्त हूँ! भक्तवत्सल प्रभो! आप मुझे मत छोडिये। भगवन! आइये, चलें। मेरे परम हितैषी और सच्चे सुहृद भगवन! आप बलराम जी, ग्वालबालों तथा नन्दराय जी आदि आत्मीयों के साथ चलकर हमारा घर सनाथ कीजिये। हम गृहस्थ हैं। आप अपने चरणों की धूलि से हमारा घर पवित्र कीजिये।

आपके चरणों की धोवन से अग्नि, देवता, पितर - सब-के-सब तृप्त हो जाते हैं। प्रभो! आपके युगल चरणों को पखारकर महात्मा बलि ने वह यश प्राप्त किया, जिसका गान सन्त पुरुष करते हैं। केवल यश ही नहीं - उन्हें अतुलनीय ऐश्वर्य तथा वह गति प्राप्त हुई, जो अनन्य प्रेमी भक्तों को प्राप्त होती है। आपके चरणोदक - गंगा जी ने तीनों लोक पवित्र कर दिये। सचमुच वे मूर्तिमान पवित्रता हैं। उन्हीं के स्पर्श से सगर के पुत्रों को सद्गति प्राप्त हुई और उसी जल को स्वयं भगवान शंकर ने अपने सिर पर धारण किया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद)

यदुवंशशिरोमणे! आप देवताओं के भी आराध्य देव हैं। जगत के स्वामी हैं। आपके गुण और लीलाओं का श्रवण तथा कीर्तन बड़ा ही मंगलकारी है। उत्तम पुरुष आपके गुणों का कीर्तन करते रहते हैं। नारायण! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

श्री भगवान ने कहा ;- चाचा जी! मैं दाऊ भैया के साथ आपके घर आऊँगा और पहले इस यदुवंशियों के द्रोही कंस को मारकर तब अपने सभी सुहृद-स्वजनों का प्रिय करूँगा।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान के इस प्रकार कहने पर अक्रूर जी कुछ अनमने-से हो गये। उन्होंने पुरी में प्रवेश करके कंस से श्रीकृष्ण और बलराम के आने का समाचार निवेदन किया और फिर अपने घर गये। दूसरे दिन तीसरे पहर बलराम जी और ग्वालबालों के साथ भगवान श्रीकृष्ण ने मथुरापुरी को देखने के लिये नगर में प्रवेश किया।

भगवान ने देखा कि नगर के परकोटे में स्फटिकमणि के बहुत ऊँचे-ऊँचे गोपुर तथा घरों में भी बड़े-बड़े फाटक बने हुए हैं। उनमें सोने के बड़े-बड़े किंवाड़ लगे हैं और सोने के ही तोरण बने हुए हैं। नगर के चारों ओर ताँबें और पीतल की चहरदीवारी बनी हुई है। खाई के कारण और और कहीं से उस नगर में प्रवेश करना बहुत कठिन है।

स्थान-स्थान पर सुन्दर-सुन्दर उद्यान और रमणीय उपवन शोभायमान हैं। सुवर्ण से सजे हुए चौराहे, धनियों के महल, उन्हीं के साथ के बगीचे, कारीगरों के बैठने के स्थान या प्रजावर्ग के सभा-भवन और साधारण लोगों के निवासगृह नगर की शोभा बढ़ा रहे हैं। वैदूर्य, हीरे, स्फटिक, नीलम, मूँगे, मोती और पन्ने आदि से जड़े हुए छज्जे, चबूतरे, झरोखे एवं फर्श आदि जगमगा रहे हैं। उन पर बैठे हुए कबूतर, मोर आदि पक्षी भाँति-भाँति बोली बोल रहे हैं।

सड़क, बाजार, गली एवं चौराहों पर खूब छिड़काव किया गया है। स्थान-स्थान पर फूलों के गजरे, जवारे, खील और चावल बिखरे हुए हैं। घरों के दरवाजों पर दही और चन्दन आदि से चर्चित जल से भरे हुए कलश रखे हैं और वे फूल, दीपक, नयी-नयी कोंपलें फलसहित केले और सुपारी के वृक्ष, छोटी-छोटी झंडियों और रेशमी वस्त्रों से भलीभाँति सजाए हुए हैं।

परीक्षित! वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी ने ग्वालबालों के साथ राजपथ से मथुरा नगरी में प्रवेश किया। उस समय नगर की नारियाँ बड़ी उत्सुकता से उन्हें देखने के लिये झटपट अटारियों पर चढ़ गयीं। किसी-किसी ने जल्दी के कारण अपने वस्त्र और गहने पहन लिये। किसी ने भूल से कुण्डल, कंगन आदि जोड़ से पहने जाने वाले आभूषणों में से एक ही पहना और चल पड़ी। कोई एक ही कान में पत्र नामक आभूषण धारण कर पायी थी तो किसी ने एक ही पाँव में पायजेब पहन रखा था। कोई एक ही आँख में अंजन आँज पायी थी और दूसरी में बिना आँजे जी चल पड़ी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 26-35 का हिन्दी अनुवाद)

कई रमणियाँ तो भोजन कर रही थीं, वे हाथ का कौर फेंककर चल पड़ी। सबका मन उत्साह और आनन्द से भर रहा था। कोई-कोई उबटन लगवा रही थीं, वे बिना स्नान किये ही दौड़ पड़ी। जो सो रही थीं, वे कोलाहल सुनकर उठ खड़ी हुईं और उसी अवस्था में दौड़ चलीं। जो माताएँ बच्चों को दूध पिला रही थीं, वे उन्हें गोद से हटाकर भगवान श्रीकृष्ण को देखने के लिये चल पड़ी।

कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण मत-वाले गजराज के समान बड़ी मस्ती से चल रहे थे। उन्होंने लक्ष्मी को भी आनन्दित करने वाले अपने श्यामसुन्दर विग्रह से नगरनारियों के नेत्रों को बड़ा आनन्द दिया और अपनी विलासपूर्ण प्रगल्भ हँसी तथा प्रेमभरी चितवन से उनके मन चुरा लिये। मथुरा की स्त्रियाँ बहुत दिनों से भगवान श्रीकृष्ण की अद्भुत लीलाएँ सुनती आ रही थीं। उनके चित्त-चिरकाल से श्रीकृष्ण के लिये चंचल, व्याकुल हो रहे थे। आज उन्होंने उन्हें देखा। भगवान श्रीकृष्ण ने भी अपनी प्रेमभरी चितवन और मन्द मुस्कान की सुधा से सींचकर उनका सम्मान किया।

परीक्षित! उन स्त्रियों ने नेत्रों के द्वारा भगवान को अपने हृदय में ले जाकर उनके आनन्दमय स्वरूप का आलिंगन किया। उनका शरीर पुलकित हो गया और बहुत दिनों की विरह-व्याधि शान्त हो गयी। मथुरा की नारियाँ अपने-अपने महलों की अटारियों पर चढ़कर बलराम और श्रीकृष्ण पर पुष्पों की वर्षा करने लगीं। उस समय उन स्त्रियों के मुखकमल प्रेम के आवेग से खिल रहे थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वेश्यों ने स्थान-स्थान पर दही, अक्षत, जल से भरे पात्र, फूलों के हार, चन्दन और भेंट की सामग्रियों से आनन्दमग्न होकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी की पूजा की। भगवान को देखकर सभी पुरवासी आपस में कहने लगे - ‘धन्य हैं! धन्य हैं!’ गोपियों ने ऐसी कौन-सी महान तपस्या की है, जिसके कारण वे मनुष्यमात्र को परमानन्द देने वाले इन दोनों मनोहर किशोरों को देखती रहती हैं।

इसी समय भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि एक धोबी, जो कपड़े रँगने का भी काम करता था, उनकी ओर आ रहा है। भगवान श्रीकृष्ण ने उससे धुले हुए उत्तम-उत्तम कपड़े माँगे। भगवान ने कहा - ‘भाई! तुम हमें ऐसे वस्त्र हो, जो हमारे शरीर में पूरे-पूरे आ जायँ। वास्तव में हम लोग उन वस्त्रों के अधिकारी हैं। इसमें सन्देह नहीं कि यदि तुम हम लोगों को वस्त्र दोगे तो तुम्हारा परम कल्याण होगा'।

परीक्षित! भगवान सर्वत्र परिपूर्ण हैं। सब कुछ उन्हीं का है। फिर भी उन्होंने इस प्रकार माँगने की लीला की। परन्तु वह मूर्ख राजा कंस का सेवक होने के कारण मतवाला हो रहा था। भगवान की वस्तु भगवान को देना तो दूर रहा, उसने क्रोध में भरकर आपेक्ष करते हुए कहा - ‘तुम लोग रहते हो सदा पहाड़ और जंगलों में। क्या वहाँ ऐसे ही वस्त्र पहनते हो? तुम लोग बहुत उदण्ड हो गये हो तभी तो ऐसे बढ़-बढ़कर बातें करते हो। अब तुम्हें राजा का धन लूटने की इच्छा हुई है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 36-49 का हिन्दी अनुवाद)

अरे, मूर्खों! जाओ, भाग जाओ! यदि कुछ दिन जीने की इच्छा हो तो फिर इस तरह मत माँगना। राज्यकर्मचारी तुम्हारे जैसे उच्छृंखलों को कैद कर लेते हैं, मार डालते हैं और जो कुछ उनके पास होता है, छीन लेते हैं।' जब वह धोबी इस प्रकार बहुत कुछ बहक-बहककर बातें करने लगा, तब भगवान श्रीकृष्ण ने तनिक कुपित होकर उसे एक तमाचा जमाया और उसका सिर धड़ाम से धड़ से नीचे जा गिरा। यह देखकर उस धोबी के अधीन काम करने वाले सब-के-सब कपड़ों के गट्ठर वहीं छोड़कर इधर-उधर भाग गये। भगवान ने उन वस्त्रों ले लिया। भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी ने मनमाने वस्त्र पहन लिये तथा बचे हुए वस्त्रों में से बहुत-से अपने साथी ग्वाल-बालों को भी दिये। बहुत-से कपड़े तो वहीं जमीन पर ही छोड़कर चल दिये।

भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जब कुछ आगे बढ़े, तब उन्हें एक दर्जी मिला। भगवान का अनुपम सौन्दर्य देखकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने उन रंग-बिरंगे सुन्दर वस्त्रों को उनके शरीर पर ऐसे ढंग से सजा दिया कि वे सब ठीक-ठीक फब गये। अनेक प्रकार के वस्त्रों से विभूषित होकर दोनों भाई और भी अधिक शोभायमान हुए ऐसे जान पड़ते, मानो उत्सव के समय श्वेत और श्याम गजशावक भलीभाँति सजा दिये गये हों। भगवान श्रीकृष्ण उस दर्जी पर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे इस लोक में भरपूर धन-सम्पत्ति, बल-ऐश्वर्य, अपनी स्मृति और दूर तक देखने-सुनने आदि की इन्द्रियसम्बन्धी शक्तियाँ दी और मृत्यु के बाद के लिये अपना सारूप्य मोक्ष भी दे दिया।

इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण सुदामा माली के घर गये। दोनों भाइयों को देखते ही सुदामा उठ खड़ा हुआ और पृथ्वी पर सिर रखकर उन्हें प्रणाम किया। फिर उनको आसन पर बैठाकर उनके पाँव पखारे, हाथ धुलाये और तदनन्तर ग्वालबालों के सहित सबकी फूलों के हार, पान, चन्दन आदि सामग्रियों से विधिपूर्वक पूजा की। इसके पश्चात उसने प्रार्थना की - ‘प्रभो! आप दोनों के शुभागमन से हमारा जन्म सफल हो गया। हमारा कुल पवित्र हो गया। आज हम पितर, ऋषि और देवताओं के ऋण से मुक्त हो गये। वे हम पर परम संतुष्ट हैं। आप दोनों सम्पूर्ण जगत के परम कारण हैं। आप संसार के अभ्युदय-उन्नति और निःश्रेयस - मोक्ष के लिये ही इस पृथ्वी पर अपने ज्ञान, बल आदि अंशों के साथ अवतीर्ण हुए हैं।

यद्यपि आप प्रेम करने वालों से ही प्रेम करते हैं, भजन करने वालों को ही भजते हैं - फिर भी आपकी दृष्टि में विषमता नहीं है। क्योंकि आप सारे जगत के परम सुहृद और आत्मा हैं। आप समस्त प्राणियों और पदार्थों समरूप से स्थित हैं। मैं आपक दास हूँ। आप दोनों मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं आप लोगों की क्या सेवा करूँ। भगवन! जीव पर आपका यह बहुत बड़ा अनुग्रह है, पूर्ण कृपाप्रसाद है कि आप उसे आज्ञा देकर किसी कार्य में नियुक्त करते हैं। राजेन्द्र! सुदामा माली ने इस प्रकार प्रार्थना करने के बाद भगवान का अभिप्राय जानकार बड़े प्रेम और आनन्द से भरकर अत्यन्त सुन्दर-सुन्दर तथा सुगन्धित पुष्पों से गुंथें हुए हार उन्हें पहनाये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 50-52 का हिन्दी अनुवाद)

जब ग्वालबाल और बलराम जी के साथ भगवान श्रीकृष्ण उन सुन्दर-सुन्दर मालाओं से अलंकृत हो चुके, तब उन वरदायक प्रभु ने प्रसन्न होकर विनीत और शरणागत सुदामा को श्रेष्ठ वर दिये। सुदामा माली ने उनसे यही वर माँगा कि ‘प्रभो! आप ही समस्त प्राणियों के आत्मा हैं। सर्वस्वरूप आपके चरणों में मेरी अविचल भक्ति हो। आपके भक्तों से मेरा सौहार्द, मैत्री का सम्बन्ध हो और समस्त प्राणियों के प्रति अहैतुक दया का भाव बना रहे।'

भगवान श्रीकृष्ण ने सुदामा को उसके मांगे हुए वर तो दिये ही - ऐसी लक्ष्मी भी दी जो वंशपरम्परा के साथ-साथ बढ़ती जाये; और साथ ही बल, आयु, कीर्ति तथा कान्ति का भी वरदान दिया। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण बलराम जी के साथ वहाँ से विदा हुए।

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