सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - पूर्वार्ध ) का सैतालीसवाँ, अड़ तालिसवाँ व उन्चासवाँ अध्याय [ Forty-seventh, Forty-eight and Forty-ninth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]

 

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - पूर्वार्ध ) का सैतालीसवाँ, अड़ तालिसवाँ व उन्चासवाँ अध्याय [ Forty-seventh, Forty-eight and Forty-ninth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]



                          {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                       【सैतालीसवाँ अध्याय】४७

              "उद्धव तथा गोपियोंकी बातचीत और भ्रमरगीत"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंश अध्याय श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! गोपियों ने देखा कि श्रीकृष्ण के सेवक उद्धव जी की आकृति और वेषभूषा श्रीकृष्ण से मिलती-जुलती है। घुटनों तक लंबी-लंबी भुजाएँ हैं, नूतन कमलदल के समान कोमल नेत्र हैं, शरीर पर पीताम्बर धारण किये हुए हैं, गले में कमल-पुष्पों की माला है, कानों में मणिजटित कुण्डल झलक रहे हैं और मुखारविन्द अत्यन्त प्रफुल्लित है।

पवित्र मुस्कान वाली गोपियों ने आपस में कहा ;- ‘यह पुरुष देखने में तो बहुत सुन्दर है। परन्तु यह है कौन? कहाँ से आया है? किसका दूत है? इसने श्रीकृष्ण - जैसी वेशभूषा क्यों धारण कर रखी है?’ सब-की-सब गोपियाँ उनका परिचय प्राप्त करने के लिये अत्यन्त उत्सुक हो गयीं और उसमें से बहुत-सी पवित्रकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों के आश्रित तथा उनके सेवक-सखा उद्धव जी को चारों ओर से घेरकर खड़ी हो गयीं।

जब उन्हें मालूम हुआ कि ये तो रमारमण भगवान श्रीकृष्ण का सन्देश लेकर आये हैं, तब उन्होंने विनय से झुककर सलज्ज हास्य, चितवन और मधुर वाणी आदि से उद्धव जी का अत्यन्त सत्कार किया तथा एकान्त में आसन पर बैठकर वे उनसे इस प्रकार कहने लगीं - ‘उद्धव जी! हम जानती हैं कि आप यदुनाथ के पार्षद हैं। उन्हीं का संदेश लेकर यहाँ पधारे हैं। आपके स्वामी ने अपने माता-पिता को सुख देने के लिये आपको यहाँ भेजा है। अन्यथा हमें तो अब नन्दगाँव में - गौओं के रहने की जगह में उनके स्मरण करने योग्य कोई भी वस्तु दिखायी नहीं पड़ती; माता-पिता आदि सगे-सम्बन्धियों का स्नेह-बन्धन तो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी बड़ी कठिनाई से छोड़ पाते हैं।

दूसरों के साथ जो प्रेम-सम्बन्ध का स्वाँग किया जाता है, वह तो किसी-न-किसी स्वार्थ के लिये ही होता है। भौंरों का पुष्पों से और पुरुषों का स्त्रियों से ऐसा ही स्वार्थ का प्रेम-सम्बन्ध होता है। जब वेश्या समझती है कि अब मेरे यहाँ आने वाले के पास धन नहीं है, तब उसे वह धता बता देती है। जब प्रजा देखती है कि यह राजा हमारी रक्षा नहीं कर सकता, तब वह उसका साथ छोड़ देती है। अध्ययन समाप्त हो जाने पर कितने शिष्य अपने आचार्यों की सेवा करते हैं? यज्ञ की दक्षिणा मिली कि ऋत्विज लोग चलते बने। जब वृक्ष पर फल नहीं रहते, तब पक्षीगण वहाँ से बिना कुछ सोचे-विचारे उड़ जाते हैं। भोजन कर लेने के बाद अतिथि लोग ही गृहस्थ की ओर देखते हैं? वन में आग लगी कि पशु भाग खड़े हुए। चाहे स्त्री के हृदय में कितना भी अनुराग हो, जार पुरुष अपना काम बना लेने के बाद उलटकर भी तो नहीं देखता।'

परीक्षित! गोपियों के मन, वाणी और शरीर श्रीकृष्ण में ही तल्लीन थे। जब भगवान श्रीकृष्ण के दूत बनकर उद्धव जी व्रज में आये, तब वे उनसे इस प्रकार कहते-कहते भूल ही गयीं कि कौन-सी बात किस तरह किसके सामने कहनी चाहिये। भगवान श्रीकृष्ण ने बचपन से लेकर किशोर-अवस्था तक जितनी भी लीलाएँ की थीं, उन सबकी याद कर-करके गोपियाँ उनका गान करने लगीं। वे आत्मविस्मृत होकर स्त्री-सुलभ लज्जा को भी भूल गयीं और फूट-फूटकर रोने लगीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंश अध्याय श्लोक 11-15 का हिन्दी अनुवाद)

एक गोपी को उस समय स्मरण हो रहा था भगवान श्रीकृष्ण के मिलन की लीला का। उसी समय उसने देखा कि पास ही एक भौंरा गुनगुना रहा है। उसने ऐसा समझा मानो मुझे रूठी हुई समझकर श्रीकृष्ण ने मनाने के लिये दूत भेजा हो। वह गोपी भौंरे से इस प्रकार कहने लगी -


गोपी ने कहा ;- रे मधुप! तू कपटी का सखा है; इसलिये तू भी कपटी है। तू हमारे पैरों को मत छू। झूठे प्रणाम करके हमसे अनुनय-विनय मत कर। हम देख रही हैं कि श्रीकृष्ण की जो वनमाला हमारी सौतों के वक्षःस्थल के स्पर्श से मसली हुई है, उसका पीला-पीला कुंकुम तेरी मूछों पर भी लगा हुआ है। तू स्वयं भी तो किसी कुसुम से प्रेम नहीं करता, यहाँ-से-वहाँ उड़ा करता है। जैसे तेरे स्वामी, वैसा ही तू! मधुपति श्रीकृष्ण मथुरा की मानिनी नायिकाओं को मनाया करें, उनका वह कुंकुमरूप कृपा-प्रसाद, जो यदुवंशियों की सभा में उपहास करने योग्य है, अपने ही पास रखे। उसे तेरे द्वारा यहाँ भेजने की क्या आवश्यकता है?

जैसा तू काला है, वैसे ही वे भी हैं। तू भी पुष्पों का रस लेकर उड़ जाता है, वैसे ही वे भी निकले। उन्होंने हमें केवल एक बार - हाँ, ऐसा ही लगता है - केवल एक बार अपनी तनिक-सी मोहिनी और परम मादक अधर सुधा पिलायी थी और फिर हम भोली-भाली गोपियों को छोड़कर वे यहाँ से चले गये। पता नहीं; सुकुमारी लक्ष्मी उनके चरणकमलों की सेवा कैसे करती रहती हैं! अवश्य ही वे छैल-छबीले श्रीकृष्ण की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गयी होंगी। चितचोर ने उनका भी चित्त चुरा लिया होगा।

अरे भ्रमर! हम वनवासिनी हैं। हमारे तो घर-द्वार भी नहीं है। तू हम लोगों के सामने यदुवंश शिरोमणि श्रीकृष्ण का बहुत-सा गुणगान क्यों कर रहा है? यह सब भला हम लोगों को मनाने के लिये ही तो? परन्तु नहीं-नहीं, वे हमारे लिये कोई नये नहीं हैं। हमारे लिये जाने-पहिचाने, बिल्कुल पुराने हैं। तेरी चापलूसी हमारे पास नहीं चलेगी। तू जा, यहाँ से चला जा और जिनके साथ सदा विजय रहती है, उन श्रीकृष्ण की मधुरपुरवासिनी सखियों के सामने जाकर उनका गुणगान कर। वे नयी हैं, उनकी लीलाएँ कम जानती हैं और इस समय वे उनकी प्यारी हैं; उनके हृदय की पीड़ा उन्होंने मिटा दी है। वे तेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगी, तेरी चापलूसी से प्रसन्न होकर तुझे मुँहमाँगा वस्तु देंगी। भौंरे! वे हमारे लिये छटपटा रहे हैं, ऐसा तू क्यों कहता है? उनकी कपटभरी मनोहर मुस्कान और भौंहों के इशारे से जो वश में न हो जायँ, उनके पास दौड़ी न आवें - ऐसी कौन-सी स्त्रियाँ हैं? अरे अनजान! स्वर्ग में, पाताल में और पृथ्वी में ऐसी एक भी स्त्री नहीं है। औरों की तो बात ही क्या, स्वयं लक्ष्मी जी भी उनके चरणरज की सेवा किया करती हैं।

फिर हम श्रीकृष्ण के लिये किस गिनती में हैं? परन्तु तू उनके पास जाकर कहना कि ‘तुम्हारा नाम तो ‘उत्तमश्लोक’ है, अच्छे-अच्छे लोग तुम्हारी कीर्ति का गान करते हैं; परन्तु इसकी सार्थकता तो इसी में है कि तुम दीनों पर दया करो। नहीं तो कृष्ण! तुम्हारा ‘उत्तमश्लोक’ नाम झूठा पड़ जाता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंश अध्याय श्लोक 16-19 का हिन्दी अनुवाद)

अरे मधुकर! देख, तू मेरे पैर पर सिर मत टेक। मैं जानती हूँ कि तू अनुनय-विनय करने में, क्षमा-याचना करने में बड़ा निपुण है। मालूम होता है तू श्रीकृष्ण से ही यही सीखकर आया है कि रूठे हुए को मनाने के लिये दूत को - सन्देशवाहक को कितनी चाटुकारिता करनी चाहिये। परन्तु तू समझ ले कि यहाँ तेरी दाल नहीं गलने की। देख, हमने श्रीकृष्ण के लिये ही अपने पति, पुत्र और दूसरे लोगों को छोड़ दिया। परन्तु उनमें तनिक भी कृतज्ञता नहीं। वे ऐसे निर्मोही निकले कि हमें छोड़कर चलते बने! अब तू ही बता, ऐसे अकृतज्ञ के साथ हम क्या सन्धि करें?

क्या तू अब भी कहता है कि उन पर विश्वास करना चाहिये? ऐ रे मधुप! जब वे राम बने थे, तब उन्होंने कपिराज बालि को व्याध के समान छिपकर बड़ी निर्दयता से मारा था। बेचारी शूर्पणखा कामवश उनके पास आयी थी, परन्तु उन्होंने अपनी स्त्री के वश होकर उस बेचारी के नाक-कान काट लिये और इस प्रकार उसे कुरूप कर दिया। ब्राह्मण के घर वामन के रूप में जन्म लेकर उन्होंने क्या किया? बलि ने तो उनकी पूजा की, उनकी मुँहमाँगी वस्तु दी और उन्होंने उसकी पूजा ग्रहण करके भी उसे वरुणपाश में बाँधकर पातल में डाल दिया। ठीक वैसे ही, जैसे कौआ बलि खाकर भी बलि देने वाले को अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर घेर लेता है और परेशान करता है।

अच्छा, तो अब जाने दे; हमें श्रीकृष्ण से क्या, किसी भी काली वस्तु के साथ मित्रता से कोई प्रयोजन नहीं है। परन्तु यदि तू यह कहे कि ‘जब ऐसा है तब तुम लोग उनकी चर्चा क्यों करती हो?’ तो भ्रमर! हम सच कहती हैं, एक बार जिसे उसका चस्का लग जाता है, वह उसे छोड़ नहीं सकता। ऐसी दशा में हम चाहने पर भी उनकी चर्चा छोड़ नहीं सकतीं। श्रीकृष्ण की लीलारूप कर्णामृत के एक कण का भी जो रसास्वादन कर लेता है, उसके राग-द्वेष, सुख-दुःख आदि द्वन्द छूट जाते हैं। यहाँ तक कि बहुत-से लोग तो अपनी दुःखमय - दुःख से सनी हुई घर-गृहस्थी छोड़कर अकिंचन हो जाते हैं, अपने पास कुछ भी संग्रह-परिग्रह नहीं रखते और पक्षियों की तरह चुन-चुनकर - भीख माँगकर अपना पेट भरते हैं, दीन-दुनिया से जाते रहते हैं। फिर भी श्रीकृष्ण की लीला कथा छोड़ नहीं पाते।

वास्तव में उसका रस, उसका चस्का ऐसा ही है। यदि दशा हमारी हो रही है। जैसे कृष्णसार मृग की पत्नी भोली-भाली हरिनियाँ व्याध के सुमधुर गान का विश्वास कर लेती हैं और उसके जाल में फँसकर मारी जाती हैं, वैसे ही हम भोली-भाली गोपियाँ भी उस छलिया कृष्ण की कपटभरी मीठी-मीठी बातों में आकर उन्हें सत्य के समान मान बैठीं और उनके नखस्पर्श से होने वाली कामव्याधि का बार-बार अनुभव करती रहीं। इसलिये श्रीकृष्ण के दूत भौंरें! अब इस विषय में तू और कुछ मत कह। तुझे कहना ही हो तो कोई दूसरी बात कह।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंश अध्याय श्लोक 20-28 का हिन्दी अनुवाद)

हमारे प्रियतम के प्यारे सखा! जान पड़ता है तुम एक बार उधर जाकर फिर लौट आये हो। अवश्य ही हमारे प्रियतम ने मनाने के लिये तुम्हें भेजा होगा। प्रिय भ्रमर! तूम सब प्रकार से हमारे माननीय हो। कहो, तुम्हारी क्या इच्छा है ? हमसे जो चाहो सो माँग लो। अच्छा, तुम सच बताओ, क्या हमें वहाँ ले चलना चाहते हो? अजी, उनके पास जाकर लौटना बड़ा कठिन है। हम तो उनके पास जा चुकी हैं। परन्तु तुम हमें वहाँ ले जाकर करोगे क्या? प्यारे भ्रमर! उनके साथ - उनके वक्षःस्थल पर तो उनकी प्यारी पत्नी लक्ष्मी जी सदा रहती हैं न? तब वहाँ हमारा निर्वाह कैसे होगा।

अच्छा, हमारे प्रियतम के प्यारे दूत मधुकर! हमें यह बतलाओ कि आर्यपुत्र भगवान श्रीकृष्ण गुरुकुल से लौटकर मधुपुरी में अब सुख से तो हैं न? क्या वे कभी नन्दबाबा, यशोदा रानी, यहाँ के घर, सगे-सम्बन्धी और ग्वालबालों की भी याद करते हैं? और क्या हम दासियों की भी कोई बात कभी चलाते हैं? प्यारे भ्रमर! हमें यह भी बतलाओ कि कभी वे अपनी अगर के समय दिव्य सुगन्ध से युक्त भुजा हमारे सिरों पर रखेंगे? क्या हमारे जीवन में कभी ऐसा शुभ अवसर भी आयेगा?

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! गोपियाँ भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये अत्यन्त उत्सुक -लालायित हो रही थीं, उनके लिये तड़प रही थीं। उनकी बातें सुनकर उद्धव जी ने उन्हें उनके प्रियतम का सन्देश सुनाकर सान्त्वना देते हुए इस प्रकार कहा -

उद्धव जी ने कहा ;- अहो गोपियों! तुम कृतकृत्य हो। तुम्हारा जीवन सफल है। देवियों! तुम सारे संसार के लिये पूजनीय हो; क्योंकि तुम लोगों ने इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण को अपना हृदय, अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है। दान, व्रत, तप, होम, जप, वेदाध्ययन, ध्यान, धारणा, समाधि और कल्याण के अन्य विविध साधनों के द्वारा भगवान की भक्ति प्राप्त हो, यही प्रयत्न किया जाता है।

यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम लोगों ने पवित्र कीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के प्रति वही सर्वोत्तम प्रेमभक्ति प्राप्त की है और उसी का आदर्श स्थापित किया है, जो बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ है। सचमुच यह कितने सौभाग्य की बात है कि तुमने अपने पुत्र, पति, देह, स्वजन और घरों को छोड़कर पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण को, जो सबके परम पति हैं, पति के रूप में वरण किया है।

महाभाग्यवती गोपियों! भगवान श्रीकृष्ण के वियोग से तुमने उन इन्द्रियातीत परमात्मा के प्रति वह भाव प्राप्त कर लिया है, जो सभी वस्तुओं के रूप में उनका दर्शन कराता है। तुम लोगों का वह भाव मेरे सामने भी प्रकट हुआ, यह मेरे ऊपर तुम देवियों की बड़ी ही दया है। मैं अपने स्वामी का गुप्त काम करने वाला दूत हूँ। तुम्हारे प्रियतम भगवान श्रीकृष्ण ने तुम लोगों को परम सुख देने के लिये यह प्रिय सन्देश भेजा है। कल्याणियों! वही लेकर मैं तुम लोगों के पास आया हूँ, अब उसे सुनो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंश अध्याय श्लोक 29-38 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है ;- मैं सबका उपादान कारण होने से सबकी आत्मा हूँ, सबमें अनुगत हूँ; इसलिये मुझसे कभी भी तुम्हारा वियोग नहीं हो सकता। जैसे संसार के सभी भौतिक पदार्थों में आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी - ये पाँचो भूत व्याप्त हैं, इन्हीं से सब वस्तुएँ बनी हैं, और यही उन वस्तुओं के रूप में हैं। वैसे ही मैं मन, प्राण, पंचभूत, इन्द्रिय और उनके विषयों का आश्रय हूँ। वे मुझमें हैं, मैं उनमें हूँ और सच पूछो तो मैं ही उनके रूप में प्रकट हो रहा हूँ।

मैं ही अपनी माया के द्वारा भूत, इन्द्रिय और उनके विषयों के रूप में होकर उनका आश्रय बन जाता हूँ तथा स्वयं निमित्त भी बनकर अपने-आपको ही रचता हूँ, पालता हूँ और समेत लेता हूँ। आत्मा माया और माया के कार्यों से पृथक है। वह विशुद्ध ज्ञानस्वरूप, जड़ प्रकृति, अनेक जीव तथा अपने ही अवांतर भेदों से रही सर्वथा शुद्ध है। कोई भी गुण उसका स्पर्श नहीं कर पाते। माया की तीन वृत्तियाँ हैं - सुषुप्ति, स्वप्न और जाग्रत। इनके द्वारा वही अखण्ड, अनन्त बोधस्वरूप आत्मा कभी प्राज्ञ, तो कभी तैजस और कभी विश्वरूप से प्रतीत होता है।

मनुष्य को चाहिये कि वह समझे कि स्वप्न में दीखने वाले पदार्थों के समान ही जाग्रत-अवस्था में इन्द्रियों के विषय भी प्रतीत हो रहे हैं, वे मिथ्या हैं। इसलिये उन विषयों का चिन्तन करने वाले मन और इन्द्रियों को रोक ले और मानो सोकर उठा हो, इस प्रकार जगत के स्वाप्निक विषयों को त्यागकर मेरा साक्षात्कार करे। जिस प्रकार सभी नदियाँ घूम-फिरकर समुद्र में ही पहुँचती हैं, उसी प्रकार मनस्वी पुरुषों का वेदाभ्यास, योग-साधन, आत्मानात्म-विवेक, त्याग, तपस्या, इन्द्रियसंयम और सत्य आदि समस्त धर्म, मेरी प्राप्ति में ही समाप्त होते हैं। सबका सच्चा फल है मेरा साक्षात्कार; क्योंकि वे सब मन को निरुद्ध करके मेरे पास पहुँचाते हैं।

गोपियों! इसमें सन्देह नहीं कि मैं तुम्हारे नयनों का ध्रुवतारा हूँ। तुम्हारा जीवन-सर्वस्व हूँ। किन्तु मैं जो तुमसे इतना दूर रहता हूँ, उसका कारण है। वह यही कि तुम निरन्तर मेरा ध्यान कर सको, शरीर से दूर रहने पर भी मन से तुम मेरी सन्निधि का अनुभव करो, अपना मन मेरे पास रखो। क्योंकि स्त्रियों और अन्यान्य प्रेमियों का चित्त अपने परदेशी प्रियतम में जितना निश्चल भाव से लगा रहता है, उतना आँखों के सामने, पास रहने वाले प्रियतम में नहीं लगता। अशेष वृत्तियों से रहित सम्पूर्ण मन मुझमें लगाकर जब तुम लोग मेरा अनुस्मरण करोगी, तब शीघ्र ही सदा के लिये मुझे प्राप्त हो जाओगी।

कल्याणियों! जिस समय मैंने वृन्दावन में शारदीय पूर्णिमा की रात्रि में रास-क्रीड़ा की थी उस समय जो गोपियाँ स्वजनों के रोक लेने से व्रज में ही रह गयीं - मेरे साथ रास-विहार में सम्मिलित न हो सकीं, वे मेरी लीलाओं का स्मरण करने से ही मुझे प्राप्त हो गयी थीं। (तुम्हें भी मैं मिलूँगा अवश्य, निराश होने की कोई बात नहीं है)। श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! अपने प्रियतम श्रीकृष्ण का संदेशा सुनकर गोपियों को बड़ा आनन्द हुआ उनके सन्देश से उन्हें श्रीकृष्ण के स्वरूप और एक-एक लीला की याद आने लगी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंश अध्याय श्लोक 39-47 का हिन्दी अनुवाद)

गोपियों ने कहा ;- उद्धव जी! यह बड़े सौभाग्य की और आनन्द की बात है कि यदुवंशियों को सताने वाला पापी कंस अपने अनुयायियों के साथ मारा गया। यह भी कम आनन्द की बात नहीं है कि श्रीकृष्ण के बन्धु-बान्धव और गुरुजनों के सारे मनोरथ पूर्ण हो गये तथा अब हमारे प्यारे श्यामसुन्दर उनके साथ सकुशल निवास कर रहे हैं। किन्तु उद्धव जी! एक बात आप हमें बतलाइये। ‘जिस प्रकार हम अपनी प्रेमभरी लजीली मुस्कान और उन्मुक्त चितवन से उनकी पूजा करती थीं और वे भी हमसे प्यार करते थे, उसी प्रकार मथुरा की स्त्रियों से भी प्रेम करते हैं या नहीं?’

तब तक दूसरी गोपी बोल उठी ;- ‘अरी सखी! हमारे प्यारे श्यामसुन्दर तो प्रेम की मोहिनी कला के विशेषज्ञ हैं। सभी श्रेष्ठ स्त्रियाँ उनसे प्यार करती हैं, फिर भला जब नगर की स्त्रियाँ उनसे मीठी-मीठी बातें करेंगी और हाव-भाव से उनकी ओर देखेंगी तब वे उनपर क्यों न रीझेंगे?’ दूसरी गोपियाँ बोलीं - ‘साधो! आप यह तो बतलाइये कि जब कभी नागरी नारियों की मण्डली में कोई बात चलती है और हमारे प्यारे स्वछन्द रूप से, बिना किसी संकोच के जब प्रेम की बातें करने लगते हैं, तब क्या कभी प्रसंगवश हम गँवार ग्वालिनों-की भी याद करते हैं?’

कुछ गोपियों ने कहा ;- ‘उद्धव जी! क्या कभी श्रीकृष्ण उन रात्रियों का स्मरण करते हैं, जब कुमुदिनी तथा कुन्द के पुष्प खिले हुए थे, चारों ओर चाँदनी छिटक रही थी और वृन्दावन अत्यन्त रमणीय हो रहा था! उन रात्रियों में ही उन्होंने रास-मण्डल बनाकर हम लोगों के साथ नृत्य किया था। कितनी सुन्दर थी वह रासलीला! उस समय हम लोगों के पैरों के नूपुर रुनझुन-रुनझुन बज रहे थे। हम सब सखियाँ उन्हीं की सुन्दर-सुन्दर लीलाओं का गान कर रही थीं और वे हमारे साथ नाना प्रकार के विहार कर रहे थे।'

कुछ दूसरी गोपियाँ बोल उठीं ;- ‘उद्धवजी! हम सब तो उन्हीं के विरह को आग से जल रही हैं। देवराज इन्द्र जैसे जल बरसाकर वन को हरा-भरा कर देते हैं, उसी प्रकार क्या कभी श्रीकृष्ण भी अपने कर-स्पर्श आदि से हमें जीवनदान देने के लिये यहाँ आयेंगे?’ तब तक एक गोपी ने कहा - ‘अरी सखी! अब तो उन्होंने शत्रुओं को मारकर राज्य पा लिया है; जिसे देखो, वही उनका सुहृद बना फिरता है। अब वे बड़े-बड़े नरपतियों की कुमारियों से विवाह करेंगे, उनके साथ आनन्दपूर्वक रहेंगे, यहाँ हम गँवारिनो के पास क्यों आयेंगे?’

दूसरी गोपी ने कहा ;- ‘नहीं सखी! महात्मा श्रीकृष्ण जो स्वयं लक्ष्मीपति हैं। उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण ही हैं, वे कृतकृत्य हैं। हम वनवासिनी ग्वालिनों अथवा दूसरी राजकुमारियों से उनका कोई प्रयोजन नहीं है। हम लोगों के बिना उनका कौन-सा काम अटक रहा है। देखो वेश्या होने पर भी पिंगलाने क्या ही ठीक कहा है - ‘संसार में किसी की आशा न रखना ही सबसे बड़ा सुख है।’ यह बात हम जानती हैं, फिर भी हम भगवान श्रीकृष्ण के लौटने की आशा छोड़ने में असमर्थ हैं। उनके शुभागमन की आशा ही तो हमारा जीवन है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंश अध्याय श्लोक 48-56 का हिन्दी अनुवाद)

हमारे प्यारे श्यामसुन्दर ने, जिनकी कीर्ति का गान बड़े-बड़े महात्मा करते रहते हैं, हमसे एकान्त में जो मीठी-मीठी प्रेम की बातें की है उन्हें छोड़ने का, भुलाने का उत्साह भी हम कैसे कर सकती हैं? देखो तो, उनकी इच्छा न होने पर भी स्वयं लक्ष्मी जी उनके चरणों से लिपटी रहती हैं, एक क्षण के लिये भी उनका अंग-संग छोड़कर कहीं नहीं जातीं।

उद्धव जी! यह वही नदी है, जिसमें वे विहार करते थे। यह वही पर्वत है, जिसके शिखर पर चढ़कर वे बाँसुरी बजाते थे। ये वे ही वन हैं, जिसमें वे रात्रि के समय रासलीला करते थे, और ये वे ही गौएँ हैं, जिनको चराने के लिये वे सुबह-शाम हम लोगों को देखते हुए जाते-आते थे। और यह ठीक वैसी ही वंशी की तान हमारे कानों में गूँजती रहती है, जैसी वे अपने अधरों के संयोग से छेड़ा करते थे। बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण ने इन सभी का सेवन किया है।

यहाँ का एक-एक प्रदेश, एक-एक धूलिकण उनके परम सुन्दर चरणकमलों से चिह्नित है। इन्हें जब-जब हम देखती हैं, सुनती हैं—दिनभर यह तो करती रहती हैं - तब-तब वे हमारे प्यारे श्यामसुन्दर नन्दनन्दन को हमारे नेत्रों के सामने लाकर रख देते हैं। उद्धव जी! हम किसी भी प्रकार मरकर भी उन्हें भूल नहीं सकतीं। उनकी वह हंस की-सी सुन्दर चाल, उन्मुक्त हास्य, विलासपूर्ण चितवन और मधुमयी वाणी! आह! उन सबने हमारा चित्त चुरा लिया है, हमारा मन हमारे वश में नहीं है; अब हम उन्हें भूलें तो किस तरह?

हमारे प्यारे श्रीकृष्ण! तुम्हीं हमारे जीवन के स्वामी हो, सर्वस्व हो। प्यारे! तुम लक्ष्मीनाथ हो तो क्या हुआ? हमारे लिये तो व्रजनाथ ही हो। हम व्रजगोपियों के एकमात्र तुम्हीं सच्चे स्वामी हो। श्यामसुन्दर! तुमने बार-बार हमारी व्यथा मिटायी है, हमारे संकट काटे हैं। गोविन्द! तुम गौओं से बहुत प्रेम करते हो। क्या हम गौएँ नहीं हैं ? तुम्हारा यह सारा गोकुल जिसमें ग्वालबाल, माता-पिता, गौएँ और हम गोपियाँ सब कोई हैं - दुःख के अपार सागर में डूब रहा है। तुम इसे बचाओ, आओ, हमारी रक्षा करो।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- प्रिय परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण का प्रिय सन्देश सुनकर गोपियों के विरह व्यथा शान्त हो गयी थी। वे इन्द्रियातीत भगवान श्रीकृष्ण को अपने आत्मा के रूप में सर्वत्र स्थित समझ चुकी थीं। अब वे बड़े प्रेम और आदर से उद्धव जी का सत्कार करने लगीं। उद्धव जी गोपियों की विरह-व्यथा मिटाने के लिये कई महीनों तक वहीं रहे। वे भगवान श्रीकृष्ण की अनेकों लीलाएँ और बातें सुना-सुनाकर व्रज-वासियों को आनन्दित करते रहते।

नन्दबाबा के व्रज में जितने दिनों तक उद्धव जी रहे, उतने दिनों तक भगवान श्रीकृष्ण की लीला की चर्चा होते रहने के कारण व्रजवासियों को ऐसा जान पड़ा, मानो अभी एक ही क्षण हुआ हो। भगवान के परमप्रेमी भक्त उद्धव जी कभी नदी तट पर जाते, कभी वनों में विहरते और कभी गिरिराज की घाटियों में विचरते। कभी रंग-बिरंगे फूलों से लदे हुए वृक्षों में ही रम जाते और यहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने कौन-सी लीला की है, यह पूछ-पूछकर व्रजवासियों को भगवान श्रीकृष्ण और लीला के स्मरण में तन्मय कर देते।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंश अध्याय श्लोक 57-62 का हिन्दी अनुवाद)

उद्धव जी ने व्रज में रहकर गोपियों की इस प्रकार की प्रेम-विकलता तथा और भी बहुत-सी प्रेम चेष्टाएँ देखीं। उनकी इस प्रकार श्रीकृष्ण में तन्मयता देखकर वे प्रेम और आनन्द से भर गये। अब वे गोपियों को नमस्कार करते हुए इस प्रकार गान करने लगे -

‘इस पृथ्वी पर केवल इन गोपियों का ही शरीर धारण करना श्रेष्ठ एवं सफल है; क्योंकि ये सर्वात्मा भगवान श्रीकृष्ण के परम प्रेममय दिव्य महाभाव में स्थित हो गयी हैं। प्रेम की यह ऊँची-से-ऊँची स्थिति संसार के भय से मुमुक्षुजनों के लिये ही नहीं, अपितु बड़े-बड़े मुनियों - मुक्त पुरुषों तथा हम भक्तजनों के लिये भी अभी वांछनीय ही है। हमें इसकी प्राप्ति नहीं हो सकी। सत्य है, जिन्हें भगवान श्रीकृष्ण की लीला-कथा के रस का चस्का लग गया है, उन्हें कुलीनता की, द्विजाति समुचित संस्कार की और बड़े-बड़े यज्ञ-यागों में दीक्षित होने की क्या आवश्यकता है? अथवा यदि भगवान की कथा का रस नहीं मिला, उसमें रुचि नहीं हुई, तो अनेक महाकल्पों तक बार-बार ब्रह्मा होने से ही क्या लाभ?

कहाँ ये वनचरी आचार, ज्ञान और जाति से हीन गाँव की गँवार ग्वालिनें और कहाँ सच्चिदानन्दघन भगवान श्रीकृष्ण में यह अनन्य प्रेम! अहो, धन्य है! धन्य हैं! इससे सिद्ध होता है कि कोई भगवान के स्वरूप और रहस्य को न जानकर भी उनसे प्रेम करे, उनका भजन करे, तो वे स्वयं अपनी शक्ति से अपनी कृपा से उनका परम कल्याण कर देते हैं; ठीक वैसे ही, जैसे कोई अनजान में भी अमृत पी ले तो वह अपनी वस्तु-शक्ति ही पीने वाले को अमर बना देता है। भगवान श्रीकृष्ण ने रासोत्सव के समय इन व्रजांगनाओं के गले में बाँह डाल-डालकर इनके मनोरथ पूर्ण किये। इन्हें भगवान ने जिस कृपा-प्रसाद का वितरण किया, इन्हें जैसा प्रेमदान किया, वैसा भगवान की परमप्रेमवती नित्यसंगिनी वक्षःस्थल पर विराजमान लक्ष्मी जी को भी नहीं प्राप्त हुआ।

कमल की-सी सुगन्ध और कान्ति से युक्त देवांगनाओं को भी नहीं मिला। फिर दूसरी स्त्रियों की तो बात ही क्या करें? मेरे लिये तो सबसे अच्छी बात यही होगी कि मैं इस वृन्दावनधाम में कोई झाड़ी, लता अथवा औषधि - जड़ी-बूटी ही बन जाऊँ! अहा! यदि मैं ऐसा बन जाऊँगा, तो मुझ इन व्रजांगनाओं की चरणधूलि निरन्तर सेवन करने के लिये मिलती रहेगी। इनकी चरण-रज में स्नान करके मैं धन्य हो जाऊँगा। धन्य हैं ये गोपियाँ! देखो तो सही, जिनको छोड़ना अत्यन्त कठिन है, उन स्वजन-सम्बन्धियों तथा लोक-वेद की आर्य-मर्यादा का परित्याग करके इन्होंने भगवान की पदवी, उनके साथ तन्मयता, उनका परम प्रेम प्राप्त कर लिया है - औरों की तो बात की क्या- भगवद्वाणी, उनकी निःश्वासरूप समस्त श्रुतियाँ, उपनिषदें भी अब तक भगवान के परम प्रेममय स्वरूप को ढूँढती ही रहती हैं, प्राप्त नहीं कर पातीं।

स्वयं भगवती लक्ष्मी जी जिनकी पूजा करती रहती हैं; ब्रह्मा, शंकर आदि परमसमर्थ देवता, पूर्णकाम आत्माराम और बड़े-बड़े योगेश्वर अपने हृदय में जिनका चिन्तन करते रहते हैं, भगवान श्रीकृष्ण के उन्हीं चरणारविन्दों को रास-लीला के समय गोपियों ने अपने वक्षःस्थल पर रखा और उनका आलिंगन करके अपने हृदय की जलन, विरह-व्यथा शान्त की।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तचत्वारिंश अध्याय श्लोक 63-69 का हिन्दी अनुवाद)

नन्दबाबा के व्रज में रहने वाली गोपांगनाओं की चरण-धूलि को मैं बारंबार प्रणाम करता हूँ - उसे सिरपर चढ़ाता हूँ। अहा! इन गोपियों ने भगवान श्रीकृष्ण की लीलाकथा के सम्बन्ध में जो कुछ गान किया है, वह तीनों लोगों को पवित्र कर रहा है और सदा-सर्वदा पवित्र करता रहेगा।'

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इस प्रकार कई महीनों तक व्रज में रहकर उद्धव जी ने अब मथुरा जाने के लिये गोपियों से, नन्दबाबा और यशोदा मैया से आज्ञा प्राप्त की। ग्वालबालों से विदा लेकर वहाँ यात्रा करने के लिये वे रथ पर सवार हुए। जब उनका रथ व्रज से बाहर निकला, तब नन्दबाबा आदि गोपगण बहुत-सी भेंट की सामग्री लेकर उनके पास आये और आँखों में आँसू भरकर उन्होंने बड़े प्रेम से कहा - ‘उद्धव जी! अब हम यही चाहते हैं कि हमारे मन की एक-एक वृत्ति, एक-एक संकल्प श्रीकृष्ण के चरणकमलों के ही आश्रित रहे। उन्हीं की सेवा के लिये उठे और उन्हीं में लगी भी रहे। हमारी वाणी नित्य-निरन्तर उन्हीं के नामों का उच्चारण करती रहे और शरीर उन्हीं को प्रणाम करने, उन्हीं की आज्ञा-पालन और सेवा में लगा रहे।

उद्धव जी! हम सच कहते हैं, हमें मोक्ष की इच्छा बिलकुल नहीं है। हम भगवान की इच्छा से अपने कर्मों के अनुसार चाहे जिस योनि में जन्म लें - वह शुभ आचरण करें, दान करें और उसका फल यही पावें कि हमारे अपने ईश्वर श्रीकृष्ण में हमारी प्रीति उत्तरोत्तर बढती रहे।' प्रिय परीक्षित! नन्दबाबा आदि गोपों ने इस प्रकार श्रीकृष्ण-भक्ति के द्वारा उद्धवजी का सम्मान किया। अब वे भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित मथुरापुरी में लौट आये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को प्रणाम किया और उन्हें व्रजवासियों की प्रेममयी भक्ति का उद्रेक, जैसा उन्होंने देखा था, कह सुनाया। इसके बाद नन्दबाबा ने भेंट की जो-जो सामग्री दी थी वह उनको, वसुदेव जी, बलराम जी और राजा उग्रसेन को दे दी।

                          {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                       【अड़तालीसवाँ अध्याय】४८


"भगवान् का कुब्जा और अक्रूरजीके घर जाना"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टचत्वारिंश अध्याय श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! तदनन्तर सबके आत्मा तथा सब कुछ देखने वाले भगवान श्रीकृष्ण अपने से मिलन की आकांक्षा रखकर व्याकुल हुई कुब्जा का प्रिय करने - उसे सुख देने की इच्छा से उसके घर गये। कुब्जा का घर बहुमूल्य सामग्रियों से सम्पन्न था। उसमें श्रृंगार-रस का उद्दीपन करने वाली बहुत-सी साधन सामग्री भी भरी हुई थी। मोती की झालरें और स्थान-स्थान पर झंडियाँ भी लगी हुई थीं। चँदोवे तने हुए थे। सेजें बिछायी हुई थीं और बैठने के लिये बहुत सुन्दर-सुन्दर आसन लगाये हुए थे। धूप की सुगन्ध फ़ैल रही थी। दीपक की शिखाएँ जगमगा रही थीं।

स्थान-स्थान पर फूलों के हार और चन्दन रखे हुए थे। भगवान को अपने घर आते देखा कुब्जा तुरंत हड़बड़ाकर अपने आसन से उठ खड़ी हुई और सखियों के साथ आगे बढ़कर उसने विधिपूर्वक भगवान का स्वागत-सत्कार किया। फिर श्रेष्ठ आसन आदि देकर विविध उपचारों से उनकी विधिपूर्वक पूजा की। कुब्जा ने भगवान के परमभक्त उद्धव जी की भी समुचित रीति से पूजा की; परन्तु वे उसके सम्मान के लिये उसका दिया हुआ आसन छूकर धरती पर ही बैठ गये। (अपने स्वामी के सामने उन्होंने आसन पर बैठना उचित न समझा।)

भगवान श्रीकृष्ण सचिदानन्द-स्वरूप होने पर भी लोकाचार का अनुकरण करते हुए तुरंत उसकी बहुमूल्य सेज पर जा बैठे। तब कुब्जा स्नान, अंगराग, वस्त्र, आभूषण, हार, गन्ध (इत्र आदि), ताम्बूल और सुधासव आदि से अपने को खूब सजाकर लीलामयी लजीली मुस्कान तथा हाव-भाव के साथ भगवान की ओर देखती हुई उनके पास आयी। कुब्जा नवीन मिलन के संकोच से कुछ झिझक रही थी। तब श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ने उसे अपने पास बुला लिया और उनकी कंकण से सुशोभित कलाई पकड़कर अपने पास बैठा लिया और उसके साथ क्रीडा करने लगे।

परीक्षित! कुब्जा ने इस जन्म में केवल भगवान को अंगराग अर्पित किया था, उसी एक शुभकर्म के फलस्वरूप उसे ऐसा अनुपम अवसर मिला। कुब्जा भगवान श्रीकृष्ण के चरणों को अपने काम-सन्तप्त हृदय, वक्षःस्थल और नेत्रों पर रखकर उनकी दिव्य सुगन्ध लेने लगी और इस प्रकार उसने अपने हृदय की सारी आधि-व्याधि शान्त कर ली। वक्षःस्थल से सटे हुए आनन्दमूर्ति प्रियतम श्यामसुन्दर का अपनी दोनों भुजाओं से गाढ़ आलिंगन करके कुब्जा ने दीर्घकाल से बढे हुए विरहताप को शान्त किया।

परीक्षित! कुब्जा ने केवल अंगराग समर्पित किया था। उतने से ही उसे उन सर्वशक्तिमान भगवान की प्राप्ति हुई, जो कैवल्य मोक्ष के अधीश्वर हैं और जिनकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन है। परन्तु उस दुर्भाग ने उन्हें प्राप्त करके भी व्रजगोपियों की भाँति सेवा न माँगकर यही माँगा - ‘प्रियतम! आप कुछ दिन यहीं रुककर मेरे साथ क्रीडा कीजिये। क्योंकि हे कमलनयन! मुझसे आपका साथ नहीं छोड़ा जाता।'

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण सबका मान रखने वाले और सर्वेश्वर हैं। उन्होंने अभीष्ट वर देकर उसकी पूजा स्वीकार की और फिर अपने प्यारे भक्त उद्धव जी के साथ अपने सर्वसम्मानित घर पर लौट आये। परीक्षित! भगवान ब्रह्मा आदि समस्त ईश्वरों के ईश्वर हैं। उनको प्रसन्न कर लेना भी जीव के लिये बहुत ही कठिन है। जो कोई उन्हें प्रसन्न करके उनसे विषय-सुख माँगता है, वह निश्चय ही दुर्बुद्धि हैं; क्योंकि वास्तव में विषय-सुख अत्यन्त तुच्छ - नहीं के बराबर है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:अष्टचत्वारिंश अध्याय श्लोक 12-24 का हिन्दी अनुवाद)

तदनन्तर एक दिन सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण बलराम जी और उद्धव जी के साथ अक्रूर जी की अभिलाषा पूर्ण करने और उनसे कुछ काम लेने के लिये उनके घर गये। करूर्जी ने दूर से ही देख लिया कि हमारे परम बन्धु मनुष्यलोक शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी आदि पधार रहे हैं। वे तुरंत उठकर आगे गये और आनन्द से भरकर उनका अभिनन्दन और आलिंगन किया। अक्रूर जी ने भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी को नमस्कार किया तथा उद्धव जी के साथ उन दोनों भाइयों ने भी उन्हें नमस्कार किया। जब सब लोग आराम से आसनों पर बैठ गये, तब अक्रूर जी उन लोगों की विधिवत पूजा करने लगे।

परीक्षित! उन्होंने पहले भगवान के चरण धोकर चरणोदक सिर पर धारण किया और फिर अनेकों प्रकार की पूजा-सामग्री, दिव्य वस्त्र, गन्ध, माला और श्रेष्ठ आभूषणों से उनका पूजन किया, सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और उनके चरणों को अपनी गोद में लेकर दबाने लगे। उसी समय उन्होंने विनयावनत होकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी जी से कहा - ‘भगवन! यह बड़े ही आनन्द और सौभाग्य की बात है कि पापी कंस अपने अनुयायियों के साथ मारा गया। उसे मारकर आप दोनों ने यदुवंश को बहुत बड़े संकट से बचा लिया है तथा उन्नत और समृद्ध किया है।

आप दोनों जगत के कारण और जगद्गुरुरूप, आदिपुरुष हैं। आपके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है, न कारण और न तो कार्य। परमात्मन! आपने ही अपनी शक्ति से इसकी रचना की है और आप ही अपनी काल, माया आदि शक्तियों से इसमें प्रविष्ट होकर जितनी भी वस्तुएँ देखी और सुनी जाती हैं, उनके रूप में प्रतीत हो रहे हैं। जैसे पृथ्वी आदि कारण तत्त्वों से ही उनके कार्य स्थावर-जंगम शरीर बनते हैं; वे उनमें अनुप्रविष्ट-से होकर अनेक रूपों में प्रतीत होते हैं, परन्तु वास्तव में वे कारण रूप ही हैं। इसी प्रकार हैं तो केवल आप ही, परन्तु अपने कार्यरूप जगत् में स्वेच्छा से अनेक रूपों में प्रतीत होते हैं। यह भी आपकी एक लीला ही है। प्रभो! आज रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण अपनी शक्तियों से क्रमशः जगत की रचना, पालन और संहार करते हैं; किन्तु आप उन गुणों से अथवा उनके द्वारा होने वाले कर्मों से बन्धन में नहीं पड़ते, क्योंकि आप शुद्ध ज्ञानस्वरूप हैं। ऐसी स्थिति में आपके लिये बन्धन का कारण ही क्या हो सकता है?

प्रभो! स्वयं आत्मवस्तु में स्थूलदेह, सूक्ष्मदेह आदि उपाधियाँ न होने के कारण न तो उसमें जन्म-मृत्यु है और न किसी प्रकार का भेदभाव। यही कारण है कि न आपमें बन्धन है और न मोक्ष! आपमें अपने-अपने अभिप्राय के अनुसार बन्धन या मोक्ष की जो कुछ कल्पना होती है, उसका कारण केवल हमारा अविवेक ही है। आपने जगत के कल्याण के लिये यह सनातन वेदमार्ग प्रकट किया है। जब-जब इसे पाखण्ड-पथ से चलने वाले दुष्टों के द्वारा क्षति पहुँचती है, तब-तब आप शुद्ध सत्त्वमय शरीर ग्रहण करते हैं। प्रभो! वही आप इस समय अपने अंश श्री बलराम जी के साथ पृथ्वी का भार दूर करने के लिये यहाँ वसुदेव जी के घर अवतीर्ण हुए हैं। आप असुरों के अंश से उत्पन्न नाममात्र से शासकों की सौ-सौ अक्षौहिणी सेना का संहार करेंगे और यदुवंश के यश का विस्तार करेंगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टचत्वारिंश अध्याय श्लोक 25-36 का हिन्दी अनुवाद)

इन्द्रियातीत परमात्मन! सारे देवता, पिता, भूतगण और राजा आपकी मूर्ति हैं। आपके चरणों की धोवन गंगा जी तीनों लोगों को पवित्र करती हैं। आप सारे जगत के एकमात्र पिता और शिक्षक हैं। वही आज आप हमारे घर पधारे। इसमें सन्देह नहीं कि आज हमारे घर धन्य-धन्य हो गये। उनके सौभाग्य की सीमा न रही। प्रभो! आप प्रेमी भक्तों के परम प्रियतम, सत्यवक्ता, अकारण हितू और कृतज्ञ हैं - जरा-सी सेवा को भी मान लेते हैं। भला, ऐसा कौन बुद्धिमान पुरुष है जो आपको छोड़कर किसी दूसरे की शरण में जायगा?

आप अपना भजन करने वाले प्रेमी भक्त की समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण कर देते हैं। यहाँ तक कि जिसकी कभी क्षति और वृद्धि नहीं होती - जो एकरस है, अपने उस आत्मा का भी आप दान कर देते हैं। भक्तों के कष्ट मिटाने वाले और जन्म-मृत्यु के बन्धन से छुड़ाने वाले प्रभो! बड़े-बड़े योगिराज और देवराज भी आपके स्वरूप को नहीं जान सकते। परन्तु हमें आपका साक्षात दर्शन हो गया, यह कितने सौभाग्य की बात है। प्रभो! हम स्त्री, पुत्र, धन, स्वजन, गेह और देह आदि के मोह की रस्सी में बँधे हुए हैं। अवश्य ही यह आपकी माया का खेल है। आप कृपा करके इस गाढ़े बन्धन को शीघ्र काट दीजिये।'

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इस प्रकार भक्त अक्रूर जी ने भगवान श्रीकृष्ण की पूजा और स्तुति की। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने मुस्कराकर अपनी मधुर वाणी से मानो मोहित करते हुए कहा। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - ‘तात! आप हमारे - गुरु हितोपदेशक और चाचा हैं। हमारे वंश में अत्यन्त प्रशंसनीय तथा हमारे सदा के हितैषी हैं। हम तो आपके बालक हैं और सदा ही आपकी रक्षा, पालन और कृपा के पात्र हैं।

अपना परम कल्याण चाहने वाले मनुष्यों को आप-जैसे परम पूज्यनीय और महाभाग्यवान संतों की सर्वदा सेवा करनी चाहिये। आप-जैसे संत देवताओं से भी बढ़कर हैं; क्योंकि देवताओं में तो स्वार्थ रहता है, परन्तु संतों में नहीं। केवल जल के तीर्थ (नदी, सरोवर आदि) ही तीर्थ नहीं हैं, केवल मृत्तिका और शिला आदि की बनी हुई मूर्तियाँ ही देवता नहीं हैं। चाचा जी! उनकी तो बहुत दिनों तक श्रद्धा से सेवा की जाय, तब वे पवित्र करते हैं। परन्तु संत पुरुष तो अपने दर्शन मात्र से पवित्र कर देते हैं।

चाचा जी! आप हमारे हितैषी सुहृदों में सर्वश्रेष्ठ हैं। इसलिये आप पाण्डवों का हित करने के लिये तथा उनका कुशल-मंगल जानने के लिये हस्तिनापुर जाइये। हमने ऐसा सुना है कि राजा पाण्डु के मर पर जाने पर अपनी माता कुन्ती के साथ युधिष्ठिर आदि पाण्डव बड़े दुःख में पड़ गये थे। अब राजा धृतराष्ट्र उन्हें अपनी राजधानी हस्तिनापुर में ले आये हैं और वे वहीं रहते हैं।

आप जानते हैं कि राजा धृतराष्ट्र एक तो अंधे हैं और दूसरे उनमें मनोबल की कमी है। उसका पुत्र दुर्योधन बहुत दुष्ट है और उसके अधीन होने कर कारण वे पाण्डवों के साथ अपने पुत्र-जैसा समान व्यवहार नहीं कर पाते। इसलिये आप वहाँ जाइये और मालूम कीजिये कि उनकी स्थिति अच्छी है या बुरी। आपके द्वारा उसका समाचार जानकर मैं ऐसा उपाय करूँगा, जिससे उन सुहृदों को सुख मिले।' सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण अक्रूर जी को इस प्रकार आदेश देकर बलराम जी और उद्धव जी के साथ वहाँ से अपने घर लौट आये।


                          {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                       【उनचासवाँ अध्याय】४९

                  "अक्रूरजीका हस्तिनापुर जाना"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान के आज्ञानुसार अक्रूरजी हस्तिनापुर गये। वहाँ की एक-एक वस्तु पर पुरुवंशी नरपतियों की अमरकीर्ति की छाप लग रही है। वे वहाँ पहले धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर, कुन्ती, बाह्लीक और उनके पुत्र सोमदत्त, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, युधिष्ठिर आदि पाँचों पाण्डव तथा अन्यान्य इष्ट-मित्रों से मिले। जब गान्दिनीनन्दन अक्रूरजी सब इष्ट-मित्रों और सम्बन्धियों से भलीभाँति मिल चुके, तब उनसे उन लोगों ने अपने मथुरावासी स्वजन-सम्बन्धियों की कुशल-क्षेम पूछी। उनका उत्तर देकर अक्रूर जी ने भी हस्तिनापुरवासियों के कुशल-मंगल के सम्बन्ध में पूछताछ की।

परीक्षित! अक्रूर जी यह जानने कल लिये कि धृतराष्ट्र पाण्डवों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, कुछ महीनों तक वहीं रहे। सच पूछो तो, धृतराष्ट्र में अपने दुष्ट पुत्रों की इच्छा के विपरीत कुछ करने का साहस न था। वे शकुनि आदि दुष्टों की सलाह के अनुसार ही काम करते थे। अक्रूर जी को कुन्ती और विदुर ने यह बतलाया कि धृतराष्ट्र के लड़के दुर्योधन आदि पाण्डवों के प्रभाव, शस्त्रकौशल, बल, वीरता तथा विनय आदि सद्गुण देख-देखकर उनसे जलते-रहते हैं। जब वे यह देखते हैं कि प्रजा पाण्डवों से ही विशेष प्रेम रखती है, तब तो वे और भी चिढ़ जाते हैं और पाण्डवों का अनिष्ट करने पर उतारू हो जाते हैं। तब तक दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र के पुत्रों ने पाण्डवों पर कई बार विषदान आदि बहुत-से अत्याचार किया हैं और आगे भी बहुत कुछ करना चाहते हैं ।

जब अक्रूर जी कुन्ती के गहर आये, तब वह अपने भाई के पास जा बैठीं। अक्रूर जी को देखकर कुन्ती के मन में मायके की स्मृति जग गयी और नेत्रों में आँसू भर आये। उन्होंने कहा - ‘प्यारे भाई! क्या कभी मेरे माँ-बाप, भाई-बहिन, भतीजे, कुल की स्त्रियाँ और सखी-सहेलियाँ मेरी याद करती हैं? मैंने सुना है कि हमारे भतीजे भगवान श्रीकृष्ण और कमलनयन बलराम बड़े ही भक्तवत्सल और शरणागत-रक्षक हैं। क्या वे कभी अपने फुफेरे भाइयों को भी याद करते हैं? मैं शत्रुओं के बीच घिरकर शोकाकुल हो रही हूँ। मेरी वही दशा है, जैसे कोई हिरनी भेड़ियों के बीच में पड़ गयी हो। मेरे बच्चे बिना बाप के हो गये हैं। क्या हमारे श्रीकृष्ण कभी यहाँ आकर मुझको और इन अनाथ बालकों को सान्त्वना देंगे?

(श्रीकृष्ण को अपने सामने समझकर कुन्ती कहने लगीं) -

‘सचिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! तुम महायोगी हो, विश्वात्मा हो और तुम सारे विश्व के जीवन दाता हो। गोविन्द! मैं अपने बच्चों के साथ दुःख-पर-दुःख भोग रही हूँ। तुम्हारी शरण मन आयी हूँ। मेरी रक्षा करो। मेरे बच्चों को बचाओ। मेरे श्रीकृष्ण! यह संसार मृत्युमय है और तुम्हारे चरण मोक्ष देने वाले हैं। मैं देखती हूँ कि जो लोग इस संसार से डरे हुए हैं, उसके लिये तुम्हारे चरणकमलों के अतिरिक्त और कोई शरण, और कोई सहारा नहीं है। श्रीकृष्ण! तुम माया के लेश से रहित परम शुद्ध हो। तुम स्वयं परब्रह्म परमात्मा हो। समस्त साधनों, योगों और उपायों के स्वामी हो तथा स्वयं योग भी हो। श्रीकृष्ण! मैं तुम्हारी शरण में आयी हूँ। तुम मेरी रक्षा करो।'

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! तुम्हारी परदादी कुन्ती इस प्रकार अपने सगे-सम्बन्धियों और अन्त में जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण को स्मरण करके अत्यन्त दुःखित हो गयीं और फफक-फफककर रोने लगीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद)

अक्रूर जी और विदुर जी दोनों ही सुख और दुःख को समान दृष्टि से देखते थे। दोनों यशस्वी महात्माओं ने कुन्ती को उसके पुत्रों के जन्मदाता धर्म, वायु आदि देवताओं की याद दिलायी और यह कह-कर कि तुम्हारे पुत्र अधर्म का नाश करने के लिये ही पैदा हुए हैं, बहुत कुछ समझाया-बुझाया और सान्त्वना दी। अक्रूर जी जब मथुरा जाने लगे, तब राजा धृतराष्ट्र के पास आये। अब तक यह स्पष्ट हो गया था कि राजा अपने पुत्रों का पक्षपात करते हैं और भतीजों के साथ अपने पुत्रों का-सा बर्ताव नहीं करते। अब अक्रूर जी ने कौरवों की भरी सभा में श्रीकृष्ण और बलरामजी आदि का हितैषिता से भरा सन्देश कह सुनाया।

अक्रूर जी ने कहा ;- महाराज धृतराष्ट्र जी! आप कुरुवंशियों की उज्ज्वल कीर्ति को और भी बढ़ाइये। आपको यह काम विशेष रूप से इसलिये भी करना चाहिये कि अपने भाई पाण्डु के परलोक सिधार जाने पर अब आप राज्यसिंहासन के अधिकारी हुए हैं। आप धर्म से पृथ्वी का पालन कीजिये। अपने सद् व्यवहार से प्रजा को प्रसन्न रखिये और अपने स्वजनों के साथ समान बर्ताव कीजिये। ऐसा करने से ही आपको लोक में यश और परलोक में सद्गति प्राप्त होगी।

यदि आप इसके विपरीत आचरण करेंगे तो इस लोक में आपकी निन्दा होगी और मरने के बाद आपको नरक में जाना पड़ेगा। इसलिये अपने पुत्रों और पाण्डवों के साथ समानता का बर्ताव कीजिये। आप जानते ही हैं कि इस संसार में कभी कहीं कोई किसी के साथ सदा नहीं रह सकता। जिनसे जुड़े हुए हैं, उनसे एक दिन बिछुड़ना पड़ेगा ही। राजन! यह बात अपने शरीर के लिए भी सोलहों आने सत्य है। फिर स्त्री, पुत्र, धन आदि को छोड़कर जाना पड़ेगा, इसके विषय में तो कहना ही क्या है।

जीव अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मरकर जाता है। अपनी करनी-धरनी का, पाप-पुण्य का फल भी अकेला ही भुगतता है। जिन स्त्री-पुत्रों को हम अपना समझते हैं, वे तो ‘हम तुम्हारे अपने हैं, हमारा भरण-पोषण करना तुम्हारा धर्म है’ - इस प्रकार की बातें बनाकर मूर्ख प्राणी के अधर्म से इकट्ठे किये हुए धन को लूट लेते हैं, जैसे जल में रहने वाले जन्तुओं के सर्वस्व जल को उन्हीं के सम्बन्धी चाट जाते हैं। यह मूर्ख जीव जिन्हें अपना समझकर अधर्म करके भी पालता-पोसता है, वे ही प्राण, धन और पुत्र आदि इस जीव को असंतुष्ट छोड़कर ही चले जाते हैं।

जो अपने धर्म से विमुख है - सच पूछिये, तो वह अपना लौकिक स्वार्थ भी नहीं जानता। जिनके लिये वह अधर्म करता है, वे तो उसे छोड़ ही देंगे; उसे कभी सन्तोष का अनुभव न होगा और वह अपने पापों की गठरी सिर पर लादकर स्वयं घोर नरक मन जायगा। इसलिये महाराज! यह बात समझ लीजिये कि यह दुनिया चार दिन की चाँदनी है, सपने का खिलवाड़ है, जादू का तमाशा है और है मनोराज्यमात्र! आप अपने प्रयत्न से, अपनी शक्ति से चित्त को रोकिये; ममतावश पक्षपात न कीजिये। आप समर्थ हैं, समत्व में स्थित हो जाइये और इस संसार की ओर से उपराम-शान्त हो जाइये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 26-31 का हिन्दी अनुवाद)

राजा धृतराष्ट्र ने कहा ;- दानपते अक्रूर जी! आप मेरे कल्याण की, भले की बात कह रहे हैं, जैसे मरने वाले को अमृत मिल जाय तो वह कभी उससे तृप्त नहीं हो सकता, वैसे ही मैं भी आपकी इन बातों से तृप्त नहीं हो रहा हूँ।

फिर भी हमारे हितैषी अक्रूर जी! मेरे चंचल चित्त में आपकी यह प्रिय शिक्षा तनिक भी नहीं ठहर रही है; क्योंकि मेरा हृदय पुत्रों की ममता के कारण अत्यन्त विषम हो गया है। जैसे स्फटिक पर्वत के शिखर पर एक बार बिजली कौंधती है और दूसरे ही क्षण अन्तर्धान हो जाती है, वही दशा आपके उपदेशों की है।

अक्रूर जी! सुना है कि सर्वशक्तिमान भगवान पृथ्वी का भार उतारने के लिये यदुकुल में अवतीर्ण हुए हैं। ऐसा कौन पुरुष है, जो उनके विधान में उलट-फेर कर सके। उनकी जैसी इच्छा होगी, वही होगा। भगवान की माया का मार्ग अचिन्त्य है। उसी माया के द्वारा इस संसार की सृष्टि करके वे इसमें प्रवेश करते हैं और कर्म तथा कर्मफलों का विभाजन कर देते हैं। इस संसार-चक्र की बरोक-टोक चाल में उनकी अचिन्त्य लीला-शक्ति के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है। मैं उन्हीं परमैश्वर्य शक्तिशाली प्रभु को नमस्कार करता हूँ।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- इस प्रकार अक्रूर जी महाराज धृतराष्ट्र का अभिप्राय जानकर और कुरुवंशी स्वजन-सम्बन्धियों से प्रेमपूर्वक अनुमति लेकर मथुरा लौट आये। परीक्षित! उन्होंने वहाँ भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी के सामने धृतराष्ट्र का वह सारा व्यवहार-बर्ताव, जो वे पाण्डवों के साथ करते थे, कह सुनाया, क्योंकि उनको हस्तिनापुर भेजने का वास्तव में उद्देश्य भी यही था।

(अब पूर्वार्ध अंक समाप्त होता है ओर  उत्तरार्ध अंक प्रारम्भ होता है)

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