सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - उत्तरार्ध ) का पचासवाँ, ईक्यावनवाँ, बावनवाँ, तिरपनवाँ व चौवनवाँ अध्याय [ Fifteenth, fifty-first, fifty-two, fifty-three and fifty-fourth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]

 



(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचाशत्तम अध्याय श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【पचासवाँ अध्याय】५०

"जरासन्धसे युद्ध और द्वारकापुरीका निर्माण"

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- भरतवंश शिरोमणि परीक्षित! कंस की दो रानियाँ थीं - अस्ति और प्राप्ति। पति की मृत्यु से उन्हें बड़ा दुःख हुआ और वे अपने पिता की राजधानी में चली गयीं। उन दोनों का पिता था मगधराज जरासन्ध। उससे उन्होंने बड़े दुःख के साथ अपने विधवा होने के कारणों का वर्णन किया। परीक्षित! यह अप्रिय समाचार सुनकर पहले तो जरासन्ध को बड़ा शोक हुआ, परन्तु पीछे वह क्रोध से तिलमिला उठा। उसने यह निश्चय करके कि मैं पृथ्वी पर एक भी यदुवंशी नहीं रहने दूँगा, युद्ध की बहुत बड़ी तैयारी की और तेईस अक्षौहिणी सेना के साथ यदुवंशियों की राजधानी मथुरा को चारों ओर से घेर लिया।

भगवान श्रीकृष्ण ने देखा - जरासन्ध की सेना क्या है, उमड़ता हुआ समुद्र है। उन्होंने यह भी देखा कि उसने चारों ओर से हमारी राजधानी घेर ली है और हमारे स्वजन तथा पुरवासी भयभीत हो रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण पृथ्वी का भार उतारने के लिये ही मनुष्य-सा वेष धारण किये हुए हैं। अब उन्होंने विचार किया कि मेरे अवतार का क्या प्रयोजन है और इस समय इस स्थान पर मुझे क्या करना चाहिये।

उन्होंने सोचा यह बड़ा अच्छा हुआ कि मगधराज जरासन्ध ने अपने अधीनस्थ नरपतियों की पैदल, घुड़सवार, रथी और हाथियों से युक्त हुई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी कर ली है। यह सब तो पृथ्वी का भार ही जुटकर मेरे पास आ पहुँचा है। मैं इसका नाश करूँगा। परन्तु अभी मगधराज जरासन्ध को नहीं मारना चाहिये। क्योंकि वह जीवित रहेगा तो फिर से असुरों की बहुत-सी सेना इकट्ठी कर लायेगा। मेरे अवतार का यही प्रयोजन है कि मैं पृथ्वी का बोझ हलका कर दूँ, साधु-सज्जनों की रक्षा करूँ और दुष्ट-दुर्जनों का संहार। समय-समय पर धर्म-रक्षा के लिये और बढ़ते हुए अधर्म को रोकने के लिये मैं और भी अनेकों शरीर ग्रहण करता हूँ।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि आकाश से सूर्य के समान चमकते हुए दो रथ आ पहुँचे। उनमें युद्ध की सारी सामग्रियाँ सुसज्जित थीं और दो सारथि उन्हें हाँक रहे थे। इसी समय भगवान के दिव्य और सनातन आयुध भी अपने-आप वहाँ आकर उपस्थित हो गये। उन्हें देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने अपने बड़े भाई बलराम जी से कहा ;— ‘भाई जी! आप बड़े शक्तिशाली हैं। इस समय जो यदुवंशी आपको ही अपना स्वामी और रक्षक मानते हैं, जो आपसे ही सनाथ हैं, उन पर बहुत बड़ी विपत्ति आ पड़ी है।

देखिये, यह आपका रथ है और आपके प्यारे आयुध हल-मूसल भी आ पहुँचे हैं। अब आप इस रथ पर सवार होकर शत्रु-सेना का संहार कीजिये और अपने स्वजनों को इस विपत्ति से बचाइये। भगवन! साधुओं का कल्याण करने के लिये ही हम दोनों ने अवतार ग्रहण किया हैं। अतः अब आप यह तेईस अक्षौहिणी सेना, पृथ्वी का यह विपुल भार नष्ट कीजिये।’ भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी ने यह सलाह करके कवच धारण किये और रथ पर सवार होकर वे मथुरा से निकले। उस समय दोनों भाई अपने-अपने आयुध लिये हुए थे और छोटी-सी सेना उनके साथ-साथ चल रही थी। श्रीकृष्ण का रथ हाँक रहा था दारुक। पुरी से बाहर निकलकर उन्होंने अपना पांचजन्य शंख बजाया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचाशत्तम अध्याय श्लोक 17-25 का हिन्दी अनुवाद)

उनके शंख की भयंकर ध्वनि सुनकर शत्रुपक्ष की सेना के वीरों का हृदय डर के मारे थर्रा उठा। उन्हें देखकर मगधराज जरासन्ध ने कहा - ‘पुरुषधाम श्रीकृष्ण! तू तो अभी निरा बच्चा है। अकेले तेरे साथ लड़ने में मुझे लाज लग रही है। इतने दिनों तक तू न जाने कहाँ-कहाँ छिपा फिरता था। मन्द! तू तो अपने मामा का हत्यारा है। इसलिये मैं तेरे साथ नहीं लड़ सकता। जा, मेरे सामने से भाग जा। बलराम! यदि तेरे चित्त में यह श्रद्धा हो कि युद्ध में मरने पर स्वर्ग मिलता है तो तू आ, हिम्मत बाँधकर मुझसे लड़। मेरे बाणों से छिन्न-भिन्न हुए शरीर को यहाँ छोड़कर स्वर्ग में जा अथवा यदि तुझमें शक्ति हो तो मुझे मार डाल।'

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- मगधराज! जो शूरवीर होते हैं, वे तुम्हारी तरह डींगे नहीं हाँकते, वे तो अपना बल-पौरुष ही दिखलाते हैं। देखो, अब तुम्हारी मृत्यु तुम्हारे सिर पर नाच रही है। तुम वैसे ही अक बक कर रह हो, जैसे मरने के समय कोई सन्निपात का रोगी करे। बक लो, मैं तुम्हारी बात पर ध्यान नहीं देता।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जैसे वायु बादलों से सूर्य को और धुएँ से आग को ढक लेती है, किन्तु वास्तव में वे ढकते नहीं, उनका प्रकाश फिर फैलता ही है; वैसे ही मगधराज जरासन्ध ने भगवान श्रीकृष्ण और बलराम के सामने आकर अपनी बहुत बड़ी बलवान और अपार सेना के द्वारा उन्हें चारों ओर से घेर लिया - यहाँ तक कि उनकी सेना, रथ, ध्वजा, घोड़ों और सारथियों का दीखना भी बंद हो गया। मथुरापुरी की स्त्रियाँ और महलों की अटारियों, छज्जों और फाटकों पर चढ़कर युद्ध का कौतुक देख रही थीं।

जब उन्होंने देखा कि युद्धभूमि में भगवान श्रीकृष्ण की गरुड़चिह्न से चिह्नित और बलराम जी की तालचिह्न से चिह्नित ध्वजावाले रथ नहीं दीख रहे हैं, तब वे शोक के आवेग से मूर्च्छित हो गयीं। जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि शत्रु-सेना के वीर हमारी सेना पर इस प्रकार बाणों की वर्षा कर रहे हैं, मानो बादल पानी की अनगिनत बूँदें बरसा रहे हों और हमारी सेना उससे अत्यन्त पीड़ित, व्यथित हो रही है; तब उन्होंने अपने देवता और असुर - दोनों से सम्मानित सारंगधनुष का टंकार किया।

इसके बाद वे तरकस में से बाण निकालने, उन्हें धनुष पर चढ़ाने और धनुष की डोरी खींचकर झुंड-के-झुंड बाण छोड़ने लगे। उस समय उनका वह धनुष इतनी फुर्ती से घूम रहा था, मानो कोई बड़े वेग से अलातचक्र (लुकारी) घुमा रहा हो। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण जरासन्ध की चतुरंगिणी - हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना का संहार करने लगे। इससे बहुत-से हाथियों के सिर फट गये और वे मर-मरकर गिरने लगे। बाणों की बौछार से अनेकों घोड़ों के सिर धड़ से अलग हो गये। घोड़े, ध्वजा, सारथि और रथियों के नष्ट हो जाने से बहुत-से रथ बेकाम हो गये। पैदल सेना की बाँहें, जाँघ और सिर आदि अंग-प्रत्यंग कट-कटकर गिर पड़े।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचाशत्तम अध्याय श्लोक 26-35 का हिन्दी अनुवाद)

उस युद्ध में अपार तेजस्वी भगवान बलराम जी ने अपने मूसल की चोट से बहुत-से मतवाले शत्रुओं को मार-मारकर उनके अंग-प्रत्यंग से निकले हुए खून की सैकड़ों नदियाँ बहा दीं। कहीं मनुष्य कट रहे हैं तो कहीं हाथी और घोड़े छटपटा रहे हैं। उस नदियों में मनुष्यों की भुजाएँ साँप के समान जान पड़तीं और सिर इस प्रकार मालूम पड़ते, मानो कछुओं की भीड़ लग गयी हो। मरे हुए हाथी दीप-जैसे और घोड़े ग्राहों के समान जान पड़ते। हाथ और जाँघे मछलियों की तरह, मनुष्यों के केश सेवार के समान, धनुष तरंगों की भाँति और अस्त्र-शस्त्र लता एवं तिनकों के समान जान पड़ते। ढालें ऐसी मालूम पड़ती, मानो भयानक भँवर हों। बहुमूल्य मणियाँ और आभूषण पत्थर के रोड़ों तथा कंकडों के समान बहे जा रहे थे। उन नदियों को देखकर कायर पुरुष डर रहे थे और वीरों का आपस में खूब उत्साह बढ़ रहा था।

परीक्षित! जरासन्ध की वह सेना समुद्र के समान दुर्गम, भयावह और बड़ी कठिनाई से जीतने योग्य थी। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी ने थोड़े ही समय में उसे नष्ट कर डाला। वे सारे जगत के स्वामी हैं। उनके लिये एक सेना का नाश कर देना केवल खिलवाड़ ही तो है। परीक्षित! भगवान के गुण अनन्त हैं। वे खेल-खेल में ही तीनों लोकों की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करते हैं। उनके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है कि वे शत्रुओं की सेना का इस प्रकार बात-की-बात में सत्यानाश कर दें। तथापि जब वे मनुष्य-सा वेष धारण करके मनुष्य-सी लीला करते हैं, तब उसका भी वर्णन किया ही जाता है।

इस प्रकार जरासन्ध की सारी सेना मारी गयी। रथ भी टूट गया। शरीर में केवल प्राण बाकी रहे। तब भगवान श्रीबलराम जी ने जैसे एक सिंह दूसरे सिंह को पकड़ लेता है, वैसे ही बलपूर्वक महाबली जरासन्ध को पकड़ लिया। जरासन्ध ने पहले बहुत-से विपक्षी नरपतियों का वध किया था, परन्तु आज उसे बलराम जी वरुण की फाँसी और मनुष्यों के फंदे से बाँध रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने यह सोचकर कि यह छोड़ दिया जायगा तो और भी सेना इकट्ठी करके लायेगा तथा हम सहज ही पृथ्वी का भार उतार सकेंगे, बलराम जी को रोक दिया।

बड़े-बड़े शूरवीर जरासन्ध का सम्मान करते थे। इसलिये उसे इस बात बड़ी लज्जा मालूम हुई कि मुझे श्रीकृष्ण और बलराम ने दया करके दीन की भाँति छोड़ दिया है। अब उसने तपस्या करने का निश्चय किया। परन्तु रास्ते में उसके साथी नरपतियों ने बहुत समझाया कि ‘राजन! यदुवंशियों में क्या रखा है? वे आपको बिलकुल ही पराजित नहीं कर सकते थे। आपको प्रारब्धवश ही नीचा देखना पड़ा है।’ उन लोगों ने भगवान की इच्छा, फिर विजय प्राप्त करने की आशा आदि बतलाकर तथा लौकिक दृष्टान्त एवं युक्तियाँ दे-देकर यह बात समझा दी कि आपको तपस्या नहीं करनी चाहिये। परीक्षित! उस समय मगधराज जरासन्ध की सारी सेना मर चुकी थी। भगवान बलराम जी ने उपेक्षापूर्वक उसे छोड़ दिया था, इससे वह बहुत उदास होकर अपने देश मगध को चला गया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचाशत्तम अध्याय श्लोक 36-49 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण की सेना में किसी का बाल भी बाँका न हुआ और उन्होंने जरासन्ध की तेईस अक्षौहिणी सेना पर, जो समुद्र के समान थी, सहज ही विजय प्राप्त कर ली। उस समय बड़े-बड़े देवता उन पर नन्दनवन के पुष्पों की वर्षा और उनके इस महान कार्य का अनुमोदन - प्रशंसा कर रहे थे। जरासन्ध की सेना के पराजय से मथुरावासी भयरहित हो गये थे और भगवान श्रीकृष्ण की विजय से उनका हृदय आनन्द से भर रहा था। भगवान श्रीकृष्ण आकर उनमें मिल गये।

सूत, मागध और वन्दीजन उनकी विजय के गीत गा रहे थे। जिस समय भगवान श्रीकृष्ण ने नगर में प्रवेश किया, उस समय वहाँ शंख, नगारे, भेरी, तुरही, वीणा, बाँसुरी और मृदंग आदि बाजे बजने लगे थे। मथुरा की एक-एक सड़क और गली में छिड़काव कर दिया गया था। चारों ओर हँसते-खेलते नागरिकों की चहल-पहल थी। सारा नगर छोटी-छोटी झंडियों और बड़ी-बड़ी विजय-पताकाओं से सजा दिया गया था। ब्राह्मणों की वेदध्वनि गूँज रही थी और सब और आनन्दोत्सव के सूचक बंदनवार बाँध दिये गये थे। जिस समय श्रीकृष्ण नगर में प्रवेश कर रहे थे, उस समय नगर की नारियाँ प्रेम और उत्कण्ठा से भरे हुए नेत्रों से उन्हें स्नेहपूर्वक निहार रही थीं और फूलों के हार, दही, अक्षत और जौ आदि के अंकुरों की उनके ऊपर वर्षा कर रही थीं। भगवान श्रीकृष्ण रणभूमि से अपार धन और वीरों के आभूषण ले आये थे। वह सब उन्होंने यदुवंशियों के राजा उग्रसेन के पास भेज दिया।

परीक्षित! इस प्रकार सत्रह बार तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके मगधराज जरासन्ध ने भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित यदुवंशियों से युद्ध किया। किन्तु यादवों ने भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति से हर बार उनकी सेना सारी सेना नष्ट कर दी। जब सारी सेना नष्ट हो जाती, तब यदुवंशियों के उपेक्षापूर्वक छोड़ देने पर जरासन्ध अपनी राजधानी में लौट जाता।

जिस समय अठारहवाँ संग्राम छिड़ने ही वाला था, उसी समय नारद जी का भेजा हुआ वीर कालयवन दिखायी पड़ा। युद्ध में कालयवन के सामने खड़ा होने वाला वीर संसार में दूसरा कोई न था। उसने जब यह सुना कि यदुवंशी हमारे ही-जैसे बलवान हैं और हमारा सामना कर सकते हैं, तब तीन करोड़ म्लेच्छों की सेना लेकर उसने मथुरा को घेर लिया।

कालयवन की यह असमय चढ़ाई देखकर भगवान श्रीकृष्ण ने बलराम जी के साथ मिलकर विचार किया - ‘अहो! इस समय तो यदुवंशियों पर जरासन्ध और कालयवन - ये दो-दो विपत्तियाँ एक साथ ही मँडरा रही हैं। आज इस परम बलशाली यवन ने हमें आकर घेर लिया है और जरासन्ध भी आज, कल या परसों में आ ही जायेगा। यदि हम दोनों भाई इसके साथ लड़ने में लग गये और उसी समय जरासन्ध भी आ पहुँचा, तो वह हमारे बन्धुओं को मार डालेगा या तो क़ैद करके अपने नगर में ले जायगा; क्योंकि वह बहुत बलवान है। इसलिये आज हम लोग एक ऐसा दुर्ग - ऐसा किला बनायेंगे, जिसमें किसी भी मनुष्य का प्रवेश करना अत्यन्त कठिन होगा। अपने स्वजन-सम्बन्धियों को उसी किले में पहुँचाकर फिर इस यवन का वध करायेंगे।'

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचाशत्तम अध्याय श्लोक 50-58 का हिन्दी अनुवाद)

बलराम जी से इस प्रकार सलाह करके भगवान श्रीकृष्ण ने समुद्र के भीतर एक ऐसा दुर्गम नगर बनवाया, जिसमें सभी वस्तुएँ अद्भुत थीं और उस नगर की लम्बाई-चौड़ाई अड़तालीस कोस की थी। उस नगर की एक-एक वस्तु में विश्वकर्मा का विज्ञान (वास्तु-विज्ञान) और शिल्पकला की निपुणता प्रकट होती थी। उसमें वास्तुशास्त्र के अनुसार बड़ी-बड़ी सड़कों, चौराहों और गलियों का यथास्थान ठीक-ठीक विभाजन किया गया था।

वह नगर ऐसे सुन्दर-सुन्दर उद्यानों और विचित्र-विचित्र उपवनों से युक्त था, जिनमें देवताओं के वृक्ष और लताएँ लहलहाती रहती थीं। सोने के इतने ऊँचे-ऊँचे शिखर थे, जो आकाश से बातें करते थे। स्फटिकमणि की अटारियाँ और ऊँचे-ऊँचे दरवाज़े बड़े ही सुन्दर लगते थे। अन्न रखने के लिये चाँदी और पीतल के बहुत-से कोठे बने हुए थे। वहाँ के महल सोने के बने बने हुए थे और उन पर कामदार सोने के कलश सजे हुए थे। उनके शिखर रत्नों के थे तथा गच पन्ने की बनी हुई बहुत भली मालूम होती थी।

इसके अतिरिक्त उस नगर में वास्तुदेवता के मंदिर और छज्जे भी बहुत सुन्दर-सुन्दर बने हुए थे। उसमें चारों वर्ण के लोग निवास करते थे और सबके बीच में यदुवंशियों के प्रधान उग्रसेन जी, वसुदेव जी, बलराम जी तथा भगवान श्रीकृष्ण के महल जगमगा रहे थे।

परीक्षित! उस समय देवराज इन्द्र ने भगवान श्रीकृष्ण के लिये पारिजात वृक्ष और सुधर्मा-सभा को भेज दिया। वह सभा ऐसी दिव्य थी कि उसमें बैठे हुए मनुष्य को भूख-प्यास आदि मर्त्यलोक के धर्म नहीं छू पाते थे। वरुण जी ने ऐसे बहुत-से श्वेत घोड़े भेज दिये, जिनका एक-एक कान श्यामवर्ण का था और जिनकी चाल मन के समान तेज थी। धनपति कुबेर जी ने अपनी आठों निधियां भेज दीं और दूसरे लोकपालों ने अपनी-अपनी विभूतियाँ भगवान के पास भेज दीं।

परीक्षित! सभी लोकपालों को भगवान श्रीकृष्ण ही उनके अधिकार के निर्वाह के लिये शक्तियाँ और सिद्धियाँ दी हैं। जब भगवान श्रीकृष्ण पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर लीला करने लगे, तब सभी सिद्धियाँ उन्होंने भगवान के चरणों में समर्पित कर दीं। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने समस्त स्वजन-सम्बन्धियों को अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमाया के द्वारा द्वारका में पहुँचा दिया। शेष प्रजा की रक्षा के लिये बलराम जी को मथुरापुरी में रख दिया और उनसे सलाह लेकर गले में कमलों की माला पहने, बिना कोई अस्त्र-शस्त्र लिये स्वयं नगर के बड़े दरवाजे से बाहर निकल आये।

                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【ईक्यावनवाँ अध्याय】५१

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकपंचाशत्तम अध्याय श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"कालयवन का भस्म होना, मुचुकुन्द की कथा"

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- प्रिय परीक्षित! जिस समय भगवान श्रीकृष्ण मथुरा नगर के मुख्य द्वार से निकले, उस समय ऐसा मालूम पड़ा मानो पूर्व दिशा से चंद्रोदय हो रहा हो। उनका श्यामल शरीर अत्यन्त ही दर्शनीय था, उस पर रेशमी पीताम्बर की छटा निराली ही थी; वक्षःस्थल पर स्वर्ण रेखा के रूप में श्रीवत्स चिह्न शोभा पा रहा था और गले में कौस्तुभ मणि जगमगा रही थी। चार भुजाएँ थीं, जो लम्बी-लम्बी और कुछ मोटी-मोटी थीं। हाल के खिले हुए कमल के समान कोमल और रतनारे नेत्र थे। मुखकमल पर राशि-राशि आनन्द खेल रहा था। कपोलों की छटा निराली हो रही थी। मन्द-मन्द मुस्कान देखने वालों का मन चुराये लेती थी। कानों में मकराकृत कुण्डल झिलमिल-झिलमिल झलक रहे थे। उन्हें देखकर कालयवन ने निश्चय किया कि ‘यही पुरुष वासुदेव है। क्योंकि नारद जी ने जो-जो लक्षण बतलाये थे- वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न, चार भुजाएँ, कमल के से नेत्र, गले में वनमाला और सुन्दरता की सीमा; वे सब इसमें मिल रहे हैं। इसलिये यह कोई दूसरा नहीं हो सकता। इस समय यह बिना किसी अस्त्र-शस्त्र के पैदल ही इस ओर चला आ रहा है, इसलिये मैं भी इसके साथ बिना अस्त्र-शस्त्र के ही लडूँगा।'

ऐसा निश्चय करके जब कालयवन भगवान श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा, तब वे दूसरी ओर मुँह करके रणभूमि से भाग चले और उन योगिदुर्लभ प्रभु को पकड़ने के लिये कालयवन उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। रणछोड़ भगवान लीला करते हुए भाग रहे थे; कालयवन पग-पग पर यही समझता था कि अब पकड़ा, तब पकड़ा। इस प्रकार भगवान उसे बहुत दूर एक पहाड़ की गुफ़ा में ले गये। कालयवन पीछे से बार-बार आक्षेप करता कि ‘अरे भाई! तुम परम यशस्वी यदुवंश में पैदा हुए हो, तुम्हारा इस प्रकार युद्ध छोड़कर भागना उचित नहीं है।’ परन्तु अभी उसके अशुभ निःशेष नहीं हुए थे, इसलिये वह भगवान को पाने में समर्थ न ओ सका। उसके आक्षेप करते रहने पर भी भगवान उस पर्वत की गुफा में घुस गये। उनके पीछे कालयवन भी घुसा। वहाँ उसने एक दूसरे ही मनुष्य को सोते हुए देखा। उसे देखकर कालयवन ने सोचा ‘देखो तो सही, यह मुझे इस प्रकार इतनी दूर ले आया और अब इस तरह- मानो इसे कुछ पता ही न हो- साधु बाबा बनकर सो रहा है।’ यह सोचकर उस मूढ़ ने उसे कसकर एक लात मारी। वह पुरुष वहाँ बहुत दिनों से सोया हुआ था। पैर की ठोकर लगने से वह उठ पड़ा और धीरे-धीरे उसने अपनी आँखें खोलीं। इधर-उधर देखने पर पास ही कालयवन खड़ा हुआ दिखायी दिया।

परीक्षित! वह पुरुष इस प्रकार ठोकर मारकर जगाये जाने से कुछ रुष्ट हो गया था। उसकी दृष्टि पड़ते ही कालयवन के शरीर में आग पैदा हो गयी और वह क्षणभर में जलकर ढेर हो गया।

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन! जिसके दृष्टिपात मात्र से कालयवन जलकर भस्म हो गया, वह पुरुष कौन था? किस वंश का था? उसमें कैसी शक्ति थी और वह किसका पुत्र था? आप कृपा करके यह भी बतलाइये कि वह पर्वत की गुफ़ा में जाकर क्यों सो रहा था?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! वे इक्ष्वाकुवंशी महाराज मान्धाता के पुत्र राजा मुचुकुन्द थे। वे ब्राह्मणों के परम भक्त, सत्यप्रतिज्ञ, संग्रामविजयी और महापुरुष थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकपंचाशत्तम अध्याय श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद)

एक बार इन्द्र आदि देवता असुरों से अत्यन्त भयभीत हो गये थे। उन्होंने अपनी रक्षा के लिये राजा मुचुकुन्द से प्रार्थना की और उन्होंने बहुत दिनों तक उनकी रक्षा की। जब बहुत दिनों के बाद देवताओं को सेनापति के रूप में स्वामी कार्तिकेय मिल गये, तब उन लोगों ने राजा मुचुकुन्द से कहा- ‘राजन! आपने हम लोगों की रक्षा के लिये बहुत श्रम और कष्ट उठाया है। अब आप विश्राम कीजिये। वीर शिरोमणे! आपने हमारी रक्षा के लिये मनुष्य लोक का अपना अकण्टक राज्य छोड़ दिया और जीवन की अभिलाषाएँ तथा भोगों का भी परित्याग कर दिया। अब आपके पुत्र, रानियाँ, बन्धु-बान्धव और अमात्य-मन्त्री तथा आपके समय की प्रजा में से कोई नहीं रहा है। सब-के-सब काल के गाल में चले गये। काल समस्त बलवानों से भी बलवान है। वह स्वयं परम समर्थ अविनाशी और भगवत्स्वरूप है। जैसे ग्वाले पशुओं को अपने वश में रखते हैं, वैसे ही वह खेल-खेल में सारी प्रजा को अपने अधीन रखता है।

राजन! आपका कल्याण हो। आपकी जो इच्छा हो, हमसे माँग लीजिये। हम कैवल्य-मोक्ष के अतिरिक्त आपको सब कुछ दे सकते हैं। क्योंकि कैवल्य-मोक्ष देने की सामर्थ्य तो केवल अविनाशी भगवान विष्णु में ही है।

परम यशस्वी राजा मुचुकुन्द ने देवताओं के इस प्रकार कहने पर उनकी वन्दना की और बहुत थके होने के कारण निद्रा का ही वर माँगा तथा उनसे वर पाकर वे नींद से भरकर पर्वत की गुफ़ा में जा सोये। उस समय देवताओं ने कह दिया था कि ‘राजन! सोते समय यदि आपको कोई मूर्ख बीच में ही जगा देगा तो वह आपकी दृष्टि पड़ते ही उसी क्षण भस्म हो जायगा।'

परीक्षित! जब कालयवन भस्म हो गया, तब यदुवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने परम बुद्धिमान राजा मुचुमुन्द को अपना दर्शन दिया। भगवान श्रीकृष्ण का श्रीविग्रह वर्षाकालीन मेघ के समान साँवला था। रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए थे। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स और गले में कौस्तुभ मणि अपनी दिव्य ज्योति बिखेर रहे थे। चार भुजाएँ थीं। वैजयन्ती माला अलग ही घुटनों तक लटक रही थी। मुखकमल अत्यन्त सुन्दर और प्रसन्नता से खिला हुआ था। कानों में मकराकृति कुण्डल जगमगा रहे थे। होठों पर प्रेम भरी मुस्कुराहट थी और नेत्रों की चितवन अनुराग की वर्षा कर रही थी। अत्यन्त दर्शनीय तरुण-अवस्था और मतवाले सिंह के समान निर्भीक चाल। राजा मुचुकुन्द यद्यपि बड़े बुद्धिमान और धीर पुरुष थे, फिर भी भगवान की यह दिव्य ज्योतिर्मयी मूर्ति देखकर कुछ चकित हो गये। उनके तेज से हतप्रतिभ हो सकपका गये। भगवान अपने तेज से दुर्द्धुर्ष जान पड़ते थे; राजा ने तनिक शंकित होकर पूछा।

राजा मुचुकुन्द ने कहा ;- ‘आप कौन हैं? इस काँटों से भरे हुए घोर जंगल में आप कमल के समान कोमल चरणों से क्यों विचर रहे हैं? और इस पर्वत की गुफ़ा में ही पधारने का क्या प्रयोजन था? क्या आप समस्त तेजस्वियों के मूर्तिमान तेज अथवा भगवान अग्निदेव तो नहीं हैं? क्या आप सूर्य, चन्द्रमा, देवराज इन्द्र या कोई दूसरे लोकपाल हैं? मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आप देवताओं के आराध्यदेव ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर- इन तीनों में से पुरुषोत्तम भगवान नारायण ही हैं। क्योंकि जैसे श्रेष्ठ दीपक अँधेरे को दूर कर देता है, वैसे ही आप अपनी अंगकान्ति से इस गुफ़ा का अँधेरा भगा रहे हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकपंचाशत्तमोऽध्याय श्लोक 31-45 का हिन्दी अनुवाद)

पुरुषश्रेष्ठ! यदि आपको रुचे तो हमें अपना जन्म, कर्म और गोत्र बतलाइये; क्योंकि हम सच्चे हृदय से उसे सुनने के इच्छुक हैं। और पुरुषोत्तम! यदि आप हमारे बारे में पूछें तो हम इक्ष्वाकुवंशी क्षत्रिय हैं, मेरा नाम मुचुकुन्द। और प्रभु! मैं युवनाश्वनन्दन महाराजा मान्धाता का पुत्र हूँ। बहुत दिनों तक जागते रहने के कारण मैं थक गया था। निद्रा ने मेरी समस्त इन्द्रियों की शक्ति छीन ली थी, उन्हें बेकाम कर दिया था, इसी से मैं इस निर्जन स्थान में निर्द्वन्द सो रहा था। अभी-अभी किसी ने मुझे जगा दिया। अवश्य उसके पापों ने ही उसे जलाकर भस्म कर दिया है। इसके बाद शत्रुओं के नाश करने वाले परम सुन्दर आपने मुझे दर्शन दिया। महाभाग! आप समस्त प्राणियों के माननीय हैं। आपके परम दिव्य और असह्य तेज से मेरी शक्ति खो गयी है। मैं आपको बहुत देर तक देख भी नहीं सकता।'

जब राजा मुचुकुन्द ने इस प्रकार कहा, तब समस्त प्राणियों के जीवनदाता भगवान श्रीकृष्ण ने हँसते हुए मेघध्वनि के समान गम्भीर वाणी से कहा। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- प्रिय मुचुकुन्द! मेरे हज़ारों जन्म, कर्म और नाम हैं। वे अनन्त हैं, इसलिये मैं भी उसकी गिनती करके नहीं बतला सकता। यह सम्भव है कि कोई पुरुष अपने अनेक जन्मों में पृथ्वी के छोटे-छोटे धूल-कणों की गिनती कर डाले; परन्तु मेरे जन्म, गुण, कर्म और नामों को कोई कभी किसी प्रकार नहीं गिन सकता।

राजन! सनक-सनन्दन आदि परमर्षिगण मेरे त्रिकालसिद्ध जन्म और कर्मों का वर्णन करते रहते हैं, परन्तु कभी उनका पार नहीं पाते। प्रिय मुचुकुन्द! ऐसा होने पर भी मैं अपने वर्तमान जन्म, कर्म और नामों का वर्णन करता हूँ, सुनो। पहले ब्रह्मा जी ने मुझसे धर्म की रक्षा और पृथ्वी के भार बने हुए असुरों का संहार करने के लिये प्रार्थना की थी। उन्हीं की प्रार्थना से मैंने यदुवंश में वसुदेव जी के यहाँ अवतार ग्रहण किया है। अब मैं वसुदेव जी का पुत्र हूँ, इसलिये लोग मुझे ‘वासुदेव’ कहते हैं। अब तक मैं कालनेमि असुर का, जो कंस के रूप में पैदा हुआ था, तथा प्रलम्ब आदि अनेकों साधुद्रोही असुरों का संहार कर चुका हूँ।

राजन! यह कालयवन था, जो मेरी ही प्रेरणा से तुम्हारी तीक्ष्ण दृष्टि पड़ते ही भस्म हो गया। वहीं मैं तुम पर कृपा करने के लिये ही इस गुफ़ा में आया हूँ। तुमने पहले मेरी बहुत आराधना की है और मैं हूँ भक्तवत्सल। इसलिये राजर्षे! तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझसे माँग लो। मैं तुम्हारी सारी लालसा, अभिलाषाएँ पूर्ण कर दूँगा। जो पुरुष मेरी शरण में आ जाता है, उसके लिये फिर ऐसी कोई वस्तु नहीं रह जाती, जिसके लिये वह शोक करे।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा, तब राजा मुचुकुन्द को वृद्ध गर्ग का यह कथन याद आ गया कि यदुवंश में भगवान अवतीर्ण होने वाले हैं। वे जान गये कि ये स्वयं भगवान नारायण हैं। आनन्द से भरकर उन्होंने भगवान के चरणों में प्रणाम किया और इस प्रकार स्तुति की।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 46-52 का हिन्दी अनुवाद)

मुचुकुन्द ने कहा- ‘प्रभो! जगत के सभी प्राणी आपकी माया से अत्यन्त मोहित हो रहे हैं। वे आपसे विमुख होकर अनर्थ में ही फँसे रहते हैं और आपका भजन नहीं करते। वे सुख के लिये घर-गृहस्थी के उन झंझटों में फँस जाते हैं, जो सारे दुःखों के मूल स्रोत हैं। इस तरह स्त्री और पुरुष सभी ठगे जा रहे हैं। इस पापरूप संसार से सर्वथा रहित प्रभो! यह भूमि अत्यन्त पवित्र कर्मभूमि है, इसमें मनुष्य का जन्म होना अत्यन्त दुर्लभ है। मनुष्य-जीवन इतना पूर्ण है कि उसमें भजन के लिए कोई भी असुविधा नहीं है। अपने परम सौभाग्य और भगवान की अहैतुक कृपा से उसे अनायास ही प्राप्त करके भी जो अपनी मति, गति असत् संसार में ही लगा देते हैं और तुच्छ विषय सुख के लिये ही सारा प्रयत्न करते हुए घर-गृहस्थी के अँधेरे कूएँ में पड़े रहते हैं- भगवान के चरणकमलों की उपासना नहीं करते, भजन नहीं करते, वे तो ठीक उस पशु के समान हैं, जो तुच्छ तृण के लोभ से अँधेरे कूएँ में गिर जाता है।

भगवन! मैं राजा था, राज्यलक्ष्मी के मद से मैं मतवाला हो रहा था। इस मरने वाले शरीर को ही तो मैं आत्मा-अपना स्वरूप समझ रहा था और राजकुमार, रानी, खजाना तथा पृथ्वी के लोभ-मोह में ही फँसा हुआ था। उन वस्तुओं की चिन्ता दिन-रात मेरे गले लगी रहती थी। इस प्रकार मेरे जीवन का यह अमूल्य समय बिलकुल निष्फल-व्यर्थ चला गया। जो शरीर प्रत्यक्ष ही घड़े और भीत के समान मिट्टी का है और दृश्य होने के कारण उन्हीं के समान अपने से अलग भी है, उसी को मैंने अपना स्वरूप मान लिया था और फिर अपने को मान बैठा था ‘नरदेव’! इस प्रकार मैंने मदान्ध होकर आपको तो कुछ समझा ही नहीं। रथ, हाथी, घोड़े और पैदल की चतुरंगिणी सेना तथा सेनापतियों से घिरकर मैं पृथ्वी में इधर-उधर घूमता रहता। मुझे यह करना चाहिये और यह नहीं करना चाहिये, इस प्रकार विविध कर्तव्य और अकर्तव्यों की चिन्ता में पड़कर मनुष्य अपने एकमात्र कर्तव्य भगवत्प्राप्ति से विमुख होकर प्रमत्त हो जाता है, असावधान हो जाता है।

संसार में बाँध रखने वाले विषयों के लिये उनकी लालसा दिन दूनी, रात चौगिनी बढ़ती ही जाती है। परन्तु जैसे भूख के कारण जीभ लपलपाता हुआ साँप असावधान चूहे को दबोच लेता है, वैसे ही कालरूप से सदा-सर्वदा सावधान रहने वाले आप एकाएक उस प्रसादग्रस्त प्राणी पर टूट पड़ते हैं और उसे ले बीतते हैं। जो पहले सोने के रथों पर अथवा बड़े-बड़े गजराजों पर चढ़कर चलता था और नरदेव कहलाता था, वही शरीर आपके अबाध काल का ग्रास बनकर बाहर फेंक देने पर पक्षियों की विष्ठा, धरती में गाड़ देने पर सड़कर कीड़ा और आग में जला देने पर राख का ढेर बन जाता है।

प्रभो! जिसने सारी दिशाओं पर विजय प्राप्त कर ली है और जिससे लड़ने वाला संसार में कोई रह नहीं गया है, जो श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठता है और बड़े-बड़े नरपति, जो पहले उसके समान थे, अब जिसके चरणों में सिर झुकाते हैं, वही पुरुष जब विषय-सुख भोगने के लिए, जो घर-गृहस्थी की एक विशेष वस्तु है, स्त्रियों के पास जाता है, तब उनके हाथ का खिलौना, उनका पालतू पशु बन जाता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 53-64 का हिन्दी अनुवाद)

बहुत-से लोग विषय-भोग छोड़कर पुनः राज्यादि भोग मिलने की इच्छा से दान-पुण्य करते हैं और ‘मैं फिर जन्म लेकर सबसे बड़ा परम स्वतन्त्र सम्राट होऊँ’ ऐसी कामना रखकर तपस्या में भलीभाँति स्थित हो शुभ कर्म करते हैं। इस प्रकार जिसकी तृष्णा बढ़ी हुई है, वह कदापि सुखी नहीं हो सकता। अपने स्वरूप में एकरस स्थित रहने वाले भगवन! जीव अनादिकाल से जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्कर में भटक रहा है। जब उस चक्कर से छूटने का समय आता है, तब उसे सत्संग प्राप्त होता है। यह निश्चय है कि जिस क्षण सत्संग प्राप्त होता है, उसी क्षण संतों के आश्रय, कार्य-कारणरूप जगत के एकमात्र स्वामी आप में जीव की बुद्धि अत्यन्त दृढ़ता से लग जाती है।

भगवन! मैं तो ऐसा समझता हूँ कि आपने मेरे ऊपर परम अनुग्रह की वर्षा की, क्योंकि बिना किसी परिश्रम के, अनायास ही मेरे राज्य का बन्धन टूट गया। साधु-स्वभाव के चक्रवर्ती राजा भी अब अपना राज्य छोड़कर एकान्त में भजन-साधन करने के उद्देश्य से वन में जाना चाहते हैं, तब उसके ममता-बन्धन से मुक्त होने के लिये बड़े प्रेम से आपसे प्रार्थन किया करते हैं। अन्तर्यामी प्रभो! आपसे क्या छिपा है? मैं आपके चरणों की सेवा के अतिरिक्त और कोई भी वर नहीं चाहता; क्योंकि जिनके पास किसी प्रकार का संग्रह-परग्रह नहीं है अथवा जो उसके अभिमान से रहित हैं, वे लोग भी केवल उसी के लिये प्रार्थना करते हैं। भगवन! भला, बतलाइये तो सही- मोक्ष देने वाले आपकी आराधना करके ऐसा कौन-सा श्रेष्ठ पुरुष होगा, जो अपने को बाँधने वाले सांसारिक विषयों का वर माँगे।

इसलिये प्रभो! मैं सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण से सम्बन्ध रखने वाली समस्त कामनाओं को छोड़कर केवल माया के लेशमात्र सम्बन्ध से रहित, गुणातीत, एक- अद्वितीय, चित्स्वरूप परमपुरुष आपकी शरण ग्रहण करता हूँ। भगवन! मैं अनादिकाल से अपने कर्मफलों को भोगते-भोगते अत्यन्त आर्त हो रहा था, उनकी दुःखद ज्वाला रात-दिन मुझे जलाती रहती थी। मेरे छः शत्रु (पाँच इन्द्रिय और एक मन) कभी शान्त न होते थे, उनकी विषयों की प्यास बढ़ती ही जा रही थी। कभी किसी प्रकार एक क्षण के लिये भी मुझे शान्ति न मिली। शरणदाता! अब मैं आपके भय, मृत्यु और शोक से रहित चरणकमलों की शरण में आया हूँ। सारे जगत के एकमात्र स्वामी! परमात्मन! आप मुझ शरणागत की रक्षा कीजिये।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- ‘सार्वभौम महाराज! तुम्हारी मति, तुम्हारा निश्चय बड़ा ही पवित्र और ऊँची कोटि का है। यद्यपि मैंने तुम्हें बार-बार वर देने का प्रलोभन दिया, फिर भी तुम्हारी बुद्धि कामनाओं के अधीन न हुई। मैंने तुम्हें जो वर देने का प्रलोभन दिया, वह केवल तुम्हारी सावधानी की परीक्षा के लिये। मेरे जो अनन्य भक्त होते हैं, उनकी बुद्धि कभी कामनाओं से इधर-उधर नहीं भटकती। जो लोग मेरे भक्त नहीं होते, वे चाहे प्राणायाम आदि के द्वारा अपने मन को वश में करने का कितना ही प्रयत्न क्यों न करें, उनकी वासनाएँ क्षीण नहीं होतीं और राजन! उनका मन फिर से विषयों के लिये मचल पड़ता है। तुम अपने मन और सारे मनोभावों को मुझे समर्पित कर दो, मुझमें लगा दो और फिर स्वछन्द रूप से पृथ्वी पर विचरण करो। मुझमें तुम्हारी विषय-वासनाशून्य निर्मल भक्ति सदा बनी रहेगी। तुमने क्षत्रिय धर्म का आचरण करते समय शिकार आदि के अवसरों पर बहुत-से पशुओं का वध किया है। अब एकाग्रचित्त से मेरी उपासना करते हुए तपस्या के द्वारा उस पाप को धो डालो।

राजन! अगले जन्म में तुम ब्राह्मण बनोगे और समस्त प्राणियों के सच्चे हितैषी, परम सुहृद् होओगे तथा फिर मुझ विशुद्ध विज्ञानघन परमात्मा को प्राप्त करोगे।'

                         {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【बावनवाँ अध्याय】५२

"द्वारकागमन, श्रीबलराम जी का विवाह तथा श्रीकृष्ण के पास रुक्मिणी जी का सन्देशा लेकर ब्राह्मण का आना"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- प्यारे परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार इक्ष्वाकुनन्दन राजा मुचुकुन्द पर अनुग्रह किया। अब उन्होंने भगवान की परिक्रमा की, उन्हें नमस्कार किया और गुफ़ा से बाहर निकले। उन्होंने बाहर आकर देखा कि सब-के-सब मनुष्य, पशु, लता और वृक्ष-वनस्पति पहले की अपेक्षा बहुत छोटे-छोटे आकार के हो गये हैं। इससे यह जानकर कि कलियुग आ गया, वे उत्तर दिशा की ओर चल दिये। महाराज मुचुकुन्द तपस्या, श्रद्धा, धैर्य तथा अनासक्ति से युक्त एवं संशय-सन्देह से मुक्त थे। वे अपना चित्त भगवान श्रीकृष्ण में लगाकर गन्धमादन पर्वत पर जा पहुँचे। भगवान नर-नारायण के नित्य निवासस्थान बदरिकाश्रम में जाकर बड़े शान्त-भाव से गर्मी-सर्दी आदि द्वन्द सहते हुए वे तपस्या के द्वारा भगवान की आराधना करने लगे।

इधर भगवान श्रीकृष्ण मथुरापुरी में लौट आये। अब तक कालयवन की सेना ने उसे घेर रखा था। अब उन्होंने म्लेच्छों की सेना का संहार किया और उसका सारा धन छीनकर द्वारका को ले चले। जिस समय भगवान श्रीकृष्ण के आज्ञानुसार मनुष्यों और बैलों पर वह धन ले जाया जाने लगा, उसी समय मगधराज जरासन्ध फिर (अठारहवीं बार) तेईस अक्षौहिणी सेना लेकर आ धमका।

परीक्षित! शत्रु-सेना का प्रबल वेग देखकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम मनुष्यों की-सी लीला करते हुए उसके सामने से बड़ी फुर्ती के साथ भाग निकले। उनके मन में तनिक भी भय न था। फिर भी मानो अत्यन्त भयभीत हो गये हों- इस प्रकार का नाट्य करते हुए, वह सब-का-सब धन वहीं छोड़कर अनेक योजनों तक वे अपने कमलदल के समान सुकोमल चरणों से ही, पैदल भागते चले गये। जब महाबली मगधराज जरासन्ध ने देखा कि श्रीकृष्ण और बलराम तो भाग रहे हैं, तब वह हँसने लगा और अपनी रथ-सेना के साथ उनका पीछा करने लगा। उसे भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी के ऐश्वर्य, प्रभाव आदि का ज्ञान न था। बहुत दूर तक दौड़ने के कारण दोनों भाई कुछ थक-से गये। अब वे बहुत ऊँचे प्रवर्षण पर्वत पर चढ़ गये। उस पर्वत का ‘प्रवर्षण’ नाम इसलिये पड़ा था कि वहाँ सदा ही मेघ वर्षा किया करते थे।

परीक्षित! जब जरासन्ध ने देखा कि वे दोनों पहाड़ में छिप गये और बहुत ढूँढ़ने पर भी पता न चला, तब उसने ईधन से भरे हुए प्रवर्षण पर्वत के चारों ओर आग लगवाकर उसे जला दिया। जब भगवान ने देखा कि पर्वत के छोर जलने लगे हैं, तब दोनों भाई जरासन्ध की सेना के घेरे को लाँघते हुए बड़े वेग से उस ग्यारह योजन (चौवालीस कोस) ऊँचे पर्वत से एकदम नीचे धरती-पर कूद आये। राजन! उन्हें जरासन्ध ने अथवा उसके किसी सैनिक ने देखा नहीं और वे दोनों भाई वहाँ से चलकर फिर अपनी समुद्र से घिरी हुई द्वारकापुरी में चले आये। जरासन्ध ने झूठमूठ ऐसा मान लिया कि श्रीकृष्ण और बलराम तो जल गये और फिर वह बहुत बड़ी सेना लौटाकर मगधदेश को चला गया। यह बात मैं तुमसे पहले ही (नवम स्कन्ध में) कह चुका हूँ कि आनर्तदेश के राजा श्रीमान रैवत जी ने अपनी रेवती नाम की कन्या ब्रह्मा जी की प्रेरणा से बलराम जी के साथ ब्याह दी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण भी स्वयंवर में आये हुए शिशुपाल और उसके पक्षपाती शाल्व आदि नरपतियों को बलपूर्वक हराकर सबके देखते-देखते, जैसे गरुड़ ने सुधा का हरण किया था, वैसे ही विदर्भदेश की राजकुमारी रुक्मिणी को हर लाये और उनसे विवाह कर लिया। रुक्मिणी जी राजा भीष्मक की कन्या और स्वयं भगवती लक्ष्मी जी का अवतार थीं।

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन! हमने सुना है कि भगवान श्रीकृष्ण ने भीष्मकनन्दिनी परमसुन्दरी रुक्मिणी देवी को बलपूर्वक हरण करके राक्षस विधि से उनके साथ विवाह किया था। महाराज! अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि परम तेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण ने जरासन्ध, शाल्व आदि नरपतियों को जीतकर किस प्रकार रुक्मिणी का हरण किया? ब्रह्मर्षे! भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं के सम्बन्ध में क्या कहना है? वे स्वयं तो पवित्र हैं ही, सारे जगत का मल धो-बहाकर उसे भी पवित्र कर देने वाली हैं। उनमें ऐसी लोकोत्तर माधुरी है, जिसे दिन-रात सेवन करते रहने पर भी नित्य नया-नया रस मिलता रहता है। भला ऐसा कौन रसिक, कौन मर्मज्ञ है, जो उन्हें सुनकर तृप्त न हो जाये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! महाराज भीष्मक विदर्भदेश के अधिपति थे। उनके पाँच पुत्र और एक सुन्दरी कन्या थी। सबसे बड़े पुत्र का नाम था रुक्मी और चार छोटे थे- जिनके नाम थे क्रमशः रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश और रुक्ममाली। इनकी बहिन थीं सती रुक्मिणी। जब उसने भगवान श्रीकृष्ण के सौन्दर्य, पराक्रम, गुण और वैभव की प्रशंसा सुनी- जो उसके महल में आने वाले अतिथि प्रायः गाया ही करते थे- तब उसने यही निश्चय किया कि भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे अनुरूप पति हैं। भगवान श्रीकृष्ण भी समझते थे कि ‘रुक्मिणी में बड़े सुन्दर-सुन्दर लक्षण हैं, वह परम बुद्धिमती है; उदारता, सौन्दर्य, शील स्वभाव और गुणों में भी अद्वितीय है। इसलिये रुक्मिणी जी ही मेरे अनुरूप पत्नी है। अतः भगवान ने रुक्मिणी जी से विवाह करने का निश्चय किया। रुक्मिणी जी के भाई-बन्धु भी चाहते थे कि हमारी बहिन का विवाह श्रीकृष्ण से ही हो। परन्तु रुक्मी श्रीकृष्ण से बड़ा द्वेष रखता था, उसने उन्हें विवाह करने से रोक दिया और शिशुपाल को ही अपनी बहिन के योग्य वर समझा।

जब परमसुन्दरी रुक्मिणी को यह मालूम हुआ कि मेरा बड़ा भाई रुक्मी शिशुपाल के साथ मेरा विवाह करना चाहता है, तब वे बहुत उदास हो गयीं। उन्होंने बहुत कुछ सोच-विचार कर एक विश्वासपात्र ब्राह्मण को तुरंत श्रीकृष्ण के पास भेजा। जब वे ब्राह्मणदेवता द्वारकापुरी में पहुँचे, तब द्वारपाल उन्हें राजमहल के भीतर ले गये। वहाँ जाकर ब्राह्मणदेवता ने देखा कि आदिपुरुष भगवान श्रीकृष्ण सोने के सिंहासन पर विराजमान हैं। ब्राह्मणों के परमभक्त भगवान श्रीकृष्ण उन ब्राह्मणदेवता को देखते ही अपने आसन से नीचे उतर गये और उन्हें अपने आसन पर बैठाकर वैसी ही पूजा की, जैसे देवता लोग उनकी (भगवान की) किया करते हैं।

आदर-सत्कार, कुशल-प्रश्न के अनन्तर जब ब्राह्मणदेवता खा-पी चुके, आराम-विश्राम कर चुके, तब संतों के परमआश्रय भगवान श्रीकृष्ण उनके पास गये और अपने कोमल हाथों से उनके पैर सहलाते हुए बड़े शान्त भाव से पूछने लगे ;- ‘ब्राह्मणशिरोमणे! आपका चित्त तो सदा-सर्वदा सन्तुष्ट रहता है न? आपको अपने पूर्वपुरुषों द्वारा स्वीकृत धर्म का पालन करने में कोई कठिनाई तो नहीं होती। ब्राह्मण यदि जो कुछ मिल जाये, उसी में सन्तुष्ट रहे और अपने धर्म का पालन करे, उससे च्युत न हो तो वह सन्तोष ही उसकी सारी कामनाएँ पूर्ण कर देता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 32-40 का हिन्दी अनुवाद)

यदि इन्द्र का पद पाकर भी किसी को सन्तोष न हो तो उसे सुख के लिये एक लोक से दूसरे लोक में बार-बार भटकना पड़ेगा, वह कहीं भी शान्ति से बैठ नहीं सकेगा। परन्तु जिसके पास तनिक भी संग्रह-परिग्रह नहीं है और जो उसी अवस्था में सन्तुष्ट है, वह सब प्रकार से सन्तापरहित होकर सुख की नींद सोता है। जो स्वयं प्राप्त हुई वस्तु से सन्तोष कर लेते हैं, जिनका स्वभाव बड़ा ही मधुर है और जो समस्त प्राणियों के परम हितैषी, अहंकाररहित और शान्त हैं, उन ब्राह्मणों को मैं सदा सिर झुकाकर नमस्कार करता हूँ।

ब्राह्मणदेवता! राजा की ओर से तो आप लोगों को सब प्रकार की सुविधा है न? जिसके राज्य में प्रजा का अच्छी तरह पालन होता है और वह आनन्द से रहती है, वह राजा मुझे बहुत ही प्रिय है। ब्राह्मणदेवता! आप कहाँ से, किस हेतु से और किस अभिलाषा से इतना कठिन मार्ग तय करके यहाँ पधारे हैं? यदि कोई बात विशेष गोपनीय न हो तो हमसे कहिये। हम आपकी क्या सेवा करें?’

परीक्षित! लीला से ही मनुष्य रूप धारण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने जब इस प्रकार ब्राह्मणदेवता से पूछा, तब उन्होंने सारी बात कह सुनायी। इसके बाद वे भगवान से रुक्मिणी जी का सन्देश कहने लगे।

रुक्मिणी जी ने कहा है ;- त्रिभुवनसुन्दर! आपके गुणों को, जो सुनने वालों के कानों के रास्ते हृदय में प्रवेश करके एक-एक अंग के ताप, जन्म-जन्म की जलन बुझा देते हैं तथा अपने रूप-सौन्दर्य को जो नेत्र वाले जीवों के नेत्रों के लिये धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों पुरुषार्थों के फल एवं स्वार्थ-परमार्थ, सब कुछ हैं, श्रवण करके प्यारे अच्युत! मेरा चित्त लज्जा, शर्म सब कुछ छोड़कर आप में ही प्रवेश कर रहा है। प्रेमस्वरूप श्यामसुन्दर! चाहे जिस दृष्टि से देखें; कुल, शील, स्वभाव, सौन्दर्य, विद्या, अवस्था, धन-धाम- सभी में आप अद्वितीय हैं, अपने ही समान हैं। मनुष्य लोक में जितने भी प्राणी हैं, सबका मन आपको देखकर शान्ति का अनुभव करता है, आनन्दित होता है। अब पुरुषभूषण! आप ही बतलाइये, ऐसी कौन-सी कुलवती, महागुणी और धैर्यवती कन्या होगी, जो विवाह के योग्य समय आने पर आपको ही पति के रूप में वरण न करेगी? इसीलिये प्रियतम! मैंने आपको पतिरूप से वरण किया है। मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूँ। आप अन्तर्यामी हैं। मेरे हृदय की बात आपसे छिपी नहीं हैं। आप यहाँ पधार कर मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिये।

कमलनयन! प्राणवल्लभ! मैं आप-सरीखे वीर को समर्पित हो चुकी हूँ, आपकी हूँ। अब जैसे सिंह का भाग सियार छू जाये, वैसे कहीं शिशुपाल निकट से आकर मेरा स्पर्श न कर जाये। मैंने यदि जन्म-जन्म में पूर्त (कुआँ, बावली आदि खुदवाना), इष्ट (यज्ञादि करना), दान, नियम, व्रत तथा देवता, ब्राह्मण और गुरु आदि की पूजा के द्वारा भगवान परमेश्वर की ही आराधना की हो और वे मुझ पर प्रसन्न हों तो भगवान श्रीकृष्ण आकर मेरा पाणिग्रहण करें; शिशुपाल अथवा दूसरा कोई भी पुरुष मेरा स्पर्श न कर सके।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्विपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 41-44 का हिन्दी अनुवाद)

प्रभो! आप अजित हैं। जिस दिन मेरा विवाह होने वाला हो, उसके एक दिन पहले आप हमारी राजधानी में गुप्त रूप से आ जाइये और फिर बड़े-बड़े सेनापतियों के साथ शिशुपाल तथा जरासन्ध की सेनाओं को मथ डालिये, तहस-नहस कर दीजिये और बलपूर्वक राक्षस-विधि से वीरता का मूल्य देकर मेरा पाणिग्रहण कीजिये।

यदि आप यह सोचते हों कि ‘तुम तो अन्तःपुर में-भीतर के जनाने महलों में पहरे के अंदर रहती हो, तुम्हारे भाई-बंधुओं को मारे बिना मैं तुम्हें कैसे ले जा सकता हूँ?’ तो इसका उपाय मैं आपको बतलाये देती हूँ। हमारे कुल का ऐसा नियम है कि विवाह के पहले दिन कुलदेवी का दर्शन करने के लिये एक बहुत बड़ी यात्रा होती है, जुलूस निकलता है-जिसमें विवाही जाने वाली कन्या को, दुलहिन को नगर के बाहर गिरिजा देवी के मन्दिर में जाना पड़ता है।

कमलनयन! उमापति भगवान शंकर के समान बड़े-बड़े महापुरुष भी आत्माशुद्धि के लिये आपके चरणकमलों की धूल से स्नान करना चाहते हैं। यदि मैं आपका वह प्रसाद, आपकी चरणधूल नहीं प्राप्त कर सकी तो व्रत द्वारा शरीर को सुखाकर प्राण छोड़ दूँगी। चाहे उसके लिये सैकड़ों जन्म क्यों ने लेने पड़ें, कभी-न-कभी तो आपका वह प्रसाद अवश्य ही मिलेगा।

ब्राह्मणदेवता ने कहा ;- 'यदुवंशशिरोमणे! यही रुक्मिणी के अत्यन्त गोपनीय सन्देश हैं, जिन्हें लेकर मैं आपके पास आया हूँ। इसके सम्बन्ध में जो कुछ करना हो, विचार कर लीजिये और तुरंत ही उसके अनुसार कार्य कीजिये।'

                         {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【तिरपनवाँ अध्याय】५३

                                 "रुक्मिणीहरण"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ने विदर्भ राजकुमारी रुक्मिणी जी का यह सन्देश सुनकर अपने हाथ से ब्राह्मणदेवता का हाथ पकड़ लिया और हँसते हुए यों बोले।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- 'ब्राह्मणदेवता! जैसे विदर्भ राजकुमारी मुझे चाहती हैं, वैसे ही मैं भी उन्हें चाहता हूँ। मेरा चित्त उन्हीं में लगा रहता है। कहाँ तक कहूँ, मुझे रात के समय नींद तक नहीं आती। मैं जानता हूँ कि रुक्मी ने द्वेषवश मेरा विवाह रोक दिया है। परन्तु ब्राह्मणदेवता! आप देखियेगा, जैसे लकड़ियों को मथकर, एक-दूसरे से रगड़कर मनुष्य उनमें से आग निकाल लेता है, वैसे ही युद्ध में उन नामधारी क्षत्रियकुल-कलंकों को तहस-नहस करके अपने से प्रेम करने वाली परमसुन्दरी राजकुमारी को मैं निकाल लाऊँगा।'

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! मधुसूदन श्रीकृष्ण ने यह जानकर कि रुक्मिणी के विवाह की लग्न परसों रात्रि ही है, सारथि को आज्ञा दी कि ‘दारुक! तनिक भी विलम्ब न करके रथ जोत लाओ।' दारुक भगवान के रथ में शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलवाहक नाम के चार घोड़े जोतकर उसे ले आया और हाथ जोड़कर भगवान के सामने खड़ा हो गया। शूरनन्दन श्रीकृष्ण ब्राह्मणदेवता को पहले रथ पर चढ़ाकर फिर आप भी सवार हुए और उन शीघ्रगामी घोड़ों के द्वारा एक ही रात में आनर्त-देह से विदर्भ देश में जा पहुँचे।

कुण्डिननरेश महाराज भीष्मक अपने बड़े लड़के रुक्मी के स्नेहवश अपनी कन्या शिशुपाल को देने के लिये विवाहोत्सव की तैयारी करा रहे थे। नगर के राजपथ, चौराहे तथा गली-कूचे झाड़-बुहार दिये गये थे, उन पर छिड़काव किया जा चुका था। चित्र-विचित्र, रंग-बिरंगी, छोटी-बड़ी झंडियाँ और पताकाएँ लगा दी गयी थीं। तोरण बाँध दिये गये थे। वहाँ के स्त्री-पुरुष पुष्प-माला, हार, इत्र-फुलेल, चन्दन, गहने और निर्मल वस्त्रों से सजे हुए थे। वहाँ के सुन्दर-सुन्दर घरों में से अगर के घूप की सुगन्ध फ़ैल रही थी।

परीक्षित! राजा भीष्मक ने पितर और देवताओं का विधिपूर्वक पूजन करके ब्राह्मणों को भोजन कराया और नियमानुसार स्वस्तिवाचन भी। सुशोभित दाँतों वाली परमसुन्दरी राजकुमारी रुक्मिणी को स्नान कराया गया, उनके हाथों में मंगलसूत्र कंकण पहनाये गये, कोहबर बनाया गया, दो नये-नये वस्त्र उन्हें पहनाये गये और वे उत्तम-उत्तम आभूषणों से विभूषित की गयीं। श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने साम, ऋक् और यजुर्वेद के मन्त्रों से उनकी रक्षा की और अथर्ववेद के विद्वान पुरोहित ने गृह-शान्ति के लिये हवन किया। राजा भीष्मक कुलपरम्परा और शास्त्रीय विधियों के बड़े जानकार थे। उन्होंने सोना, चाँदी, वस्त्र, गुड़ मिले हुए तिल और गौएँ ब्राह्मणों को दीं।

इसी प्रकार चेदिनरेश राजा दमघोष ने भी अपने पुत्र शिशुपाल के लिये मन्त्रज्ञ ब्राह्मणों से अपने पुत्र के विवाह-सम्बन्धी मंगलकृत्य कराये। इसके बाद वे मद चुआते हुए हाथियों, सोने की मालाओं से सजाये हुए रथों, पैदलों तथा घुड़सवारों की चतुरंगिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुर जा पहुँचे। विदर्भराज भीष्मक ने आगे आकर उनका स्वागत-सत्कार और प्रथा के अनुसार अर्चन-पूजन किया। इसके बाद उन लोगों को पहले से ही निश्चित किये हुए जनवासों में आनन्दपूर्वक ठहरा दिया। उस बारात में शाल्व, जरासन्ध, दन्तवक्त्र, विदूरथ और पौण्ड्रक आदि शिशुपाल के सहस्रों मित्र नरपति आये थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 18-31 का हिन्दी अनुवाद)

वे सब राजा श्रीकृष्ण और बलराम जी के विरोधी थे और राजकुमारी रुक्मिणी शिशुपाल को ही मिले, इस विचार से आये थे। उन्होंने अपने-अपने मन में यह पहले से ही निश्चय कर रखा था कि यदि श्रीकृष्ण-बलराम आदि यदुवंशियों के साथ आकर कन्या को हरने की चेष्टा करेंगे तो हम सब मिलकर उनसे लड़ेंगे। यही कारण था कि उन राजाओं ने अपनी-अपनी पूरी सेना और रथ, घोड़े, हाथी आदि भी अपने साथ ले लिये थे।

विपक्षी राजाओं की इस तैयारी का पता भगवान बलराम जी को लग गया और जब उन्होंने यह सुना कि भैया श्रीकृष्ण अकेले ही राजकुमारी का हरण करने के लिये चले गये हैं, तब उन्हें वहाँ लड़ाई-झगड़े की बड़ी आशंका हुई। यद्यपि वे श्रीकृष्ण का बल-विक्रम जानते थे, फिर भी भातृस्नेह से उनका हृदय भर आया; वे तुरंत ही हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों की बड़ी भारी चतुरंगिणी सेना साथ लेकर कुण्डिनपुर के लिये चल पड़े।

इधर परमसुन्दरी रुक्मिणी जी भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन की प्रतीक्षा कर रही थीं। उन्होंने देखा श्रीकृष्ण की तो कौन कहे, अभी ब्राह्मणदेवता भी नहीं लौटे! तो वे बड़ी चिन्ता में पड़ गयीं; सोचने लगीं- ‘अहो! अब मुझ अभागिनी के विवाह में केवल एक रात की देरी है। परन्तु मेरे जीवनसर्वस्व कमलनयन भगवान अब भी नहीं पधारे! इसका क्या कारण हो सकता है, कुछ निश्चय नहीं मालूम पड़ता। यही नहीं, मेरे सन्देश ले जाने वाले ब्राह्मणदेवता भी तो अभी तक नहीं लौटे। इसमें सन्देह नहीं कि भगवान श्रीकृष्ण का स्वरूप परम शुद्ध है और विशुद्ध पुरुष ही उनसे प्रेम कर सकते हैं। उन्होंने मुझमें कुछ-न-कुछ बुराई देखी होगी, तभी तो मेरे हाथ पकड़ने के लिये-मुझे स्वीकार करने के लिये उद्यत होकर वे यहाँ नहीं पधार रहे हैं? ठीक है, मेरे भाग्य ही मन्द हैं! विधाता और भगवान शंकर भी मेरे अनुकूल नहीं जान पड़ते। यह भी सम्भव है कि रुद्रपत्नी गिरिराजकुमारी सती पार्वती जी मुझसे अप्रसन्न हों।'

परीक्षित! रुक्मिणी जी इसी उधेड़-बुन में पड़ी हुई थीं। उनका सम्पूर्ण मन और उनके सारे मनोभाव भक्तमनचोर भगवान ने चुरा लिये थे। उन्होंने उन्हीं को सोचते-सोचते ‘अभी समय है’ ऐसा समझकर अपने आँसू भरे नेत्र बन्द कर लिये। परीक्षित! इस प्रकार रुक्मिणी जी भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन की प्रतीक्षा कर रही थीं। उसी समय उनकी बायीं जाँघ, भुजा और नेत्र फड़कने लगे, जो प्रियतम के आगमन का प्रिय संवाद सूचित कर रहे थे। इतने में ही भगवान श्रीकृष्ण के भेजे हुए वे ब्राह्मणदेवता आ गये और उन्होंने अन्तःपुर में राजकुमारी रुक्मिणी को इस प्रकार देखा, मानो कोई ध्यानमग्न देवी हो। सती रुक्मिणी जी ने देखा ब्राह्मणदेवता का मुख प्रफुल्लित है। उनके मन और चेहरे पर किसी प्रकार की घबड़ाहट नहीं है। वे उन्हें देखकर लक्षणों से ही समझ गयीं कि भगवान श्रीकृष्ण आ गये। फिर प्रसन्नता से खिलकर उन्होंने ब्राह्मणदेवता से पूछा। तब ब्राह्मणदेवता ने निवेदन किया कि ‘भगवान श्रीकृष्ण यहाँ पधार गये हैं’ और उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। यह भी बतलाया कि ‘राजकुमारी जी! आपको ले जाने की उन्होंने सत्य प्रतिज्ञा की है।' भगवान के शुभागमन का समाचार सुनकर रुक्मिणी जी का हृदय आनन्दातिरेक से भर गया। उन्होंने इसके बदले में ब्राह्मण के लिए भगवान के अतिरिक्त और कुछ प्रिय न देखकर उन्होंने केवल नमस्कार कर लिया। अर्थात् जगत कि समग्र लक्ष्मी ब्राह्मण देवता को सौंप दी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 32-48 का हिन्दी अनुवाद)

राजा भीष्मक ने सुना कि भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी मेरी कन्या का विवाह देखने के लिये उत्सुकतावश यहाँ पधारे हैं। तब तुरही, भेरी आदि बाजे बजवाते हुए पूजा की सामग्री लेकर उन्होंने उनकी अगवानी की और मधुपर्क, निर्मल वस्त्र तथा उत्तम-उत्तम भेंट देकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की। भीष्मक जी बड़े बुद्धिमान थे। भगवान के प्रति उनकी बड़ी भक्ति थी। उन्होंने भगवान को सेना और साथियों के सहित समस्त सामग्रियों से युक्त निवासस्थान में ठहराया और उनका यथावत् आतिथ्य-सत्कार किया। विदर्भराज भीष्मक जी के यहाँ निमन्त्रण में जितने राजा आये थे, उन्होंने उनके पराक्रम, अवस्था, बल और धन के अनुसार सारी इच्छित वस्तुएँ देकर सबका खूब सत्कार किया।

विदर्भ देश के नागरिकों ने जब सुना कि भगवान श्रीकृष्ण यहाँ पधारे हैं, तब वे लोग भगवान के निवासस्थान पर आये और अपने नयनों की अंजलि से भर-भरकर उनके वदनारविन्द का मधुर मकरन्द-रस पान करने लगे। वे आपस में इस प्रकार बातचीत करते थे- रुक्मिणी इन्हीं की अर्द्धांगिनी होने के योग्य हैं, और ये परम पवित्रमूर्ति श्यामसुन्दर रुक्मिणी के ही योग्य पति हैं। दूसरी कोई इनकी पत्नी होने के योग्य नहीं है। यदि हमने अपने पूर्वजन्म या इस जन्म में कुछ भी सत्कर्म किया हो तो त्रिलोक-विधाता भगवान हम पर प्रसन्न हों और ऐसी कृपा करें कि श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण ही विदर्भ राजकुमारी रुक्मिणी का पाणिग्रहण करें।'

परीक्षित! जिस समय प्रेम-परवश होकर पुरवासी-लोग परस्पर इस प्रकार बातचीत कर रहे थे, उसी समय रुक्मिणी जी अन्तःपुर से निकलकर देवी जी के मन्दिर के लिये चलीं। बहुत-से सैनिक उनकी रक्षा में नियुक्त थे। वे प्रेममूर्ति श्रीकृष्णचन्द्र के चरणकमलों का चिन्तन करती हुई भगवती भवानी के पाद-पल्लवों का दर्शन करने के लिये पैदल ही चलीं। वे स्वयं मौन थीं और माताएँ तथा सखी-सहेलियाँ सब ओर से उन्हें घेरे हुए थीं। शूरवीर राजसैनिक हाथों में अस्त्र-शस्त्र उठाये, कवच पहने उनकी रक्षा कर रहे थे। उस समय मृदंग, शंख, ढोल, तुरही और भेरी आदि बाजे बज रहे थे।

बहुत-सी ब्राह्मणपत्नियाँ पुष्पमाला, चन्दन आदि सुगन्ध-द्रव्य और गहने-कपड़ों से सज-धजकर साथ-साथ चल रही थीं और अनेकों प्रकार के उपहार तथा पूजन आदि की सामग्री लेकर सहस्रों श्रेष्ठ वारांगनाएँ भी साथ थीं। गवैये गाते जाते थे, बाजे वाले बाजे बजाते चलते थे और सूत, मागध तथा वंदीजन दुलहिन के चारों ओर जय-जयकार करते-विरद बखानते जा रहे थे। देवी जी के मन्दिर में पहुँचकर रुक्मिणी जी ने अपने कमल के सदृश सुकोमल हाथ-पैर धोये, आचमन किया; इसके बाद बाहर-भीतर से पवित्र एवं शान्तभाव से युक्त होकर अम्बिका देवी के मन्दिर में प्रवेश किया। बहुत-सी विधि-विधान जानने वाली बड़ी-बूढ़ी ब्रह्माणियाँ उनके साथ थीं। उन्होंने भगवान शंकर की अर्द्धांगिनी भवानी को और भगवान शंकर जी को भी रुक्मिणी जी से प्रणाम करवाया।

रुक्मिणी जी ने भगवती से प्रार्थना की ;- ‘अम्बिका माता! आपकी गोद में बैठे हुए आपके प्रिय पुत्र गणेश जी को तथा आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ। आप ऐसा आशीर्वाद दीजिये कि मेरी अभिलाषा पूर्ण हो। भगवान श्रीकृष्ण ही मेरे पति हों।' इसके बाद रुक्मिणी जी ने जल, गन्ध, अक्षत, धूप, वस्त्र, पुष्पमाला, हार, आभूषण, अनेकों प्रकार के नैवेद्य, भेंट और आरती आदि सामग्रियों से अम्बिका देवी की पूजा की। तदनन्तर उक्त सामग्रियों से तथा नमक, पुआ, पान, कण्ठसूत्र, फल और ईख से सुहागिनी ब्रह्माणियों की भी पूजा की।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 49-57 का हिन्दी अनुवाद)

तब ब्राह्मणियों ने उन्हें प्रसाद देकर आशीर्वाद दिये और दुलहिन ने ब्राह्मणियों और माता अम्बिका को नमस्कार करके प्रसाद ग्रहण किया। पूजा-अर्चा की विधि समाप्त हो जाने पर उन्होंने मौनव्रत तोड़ दिया और रत्नजटित अँगूठी से जगमगाते हुए कर कमल के द्वारा एक सहेली का हाथ पकड़ कर वे गिरिजा मन्दिर से बाहर निकलीं।

परीक्षित! रुक्मिणी जी भगवान की माया के समान ही बड़े-बड़े धीर-वीरों को भी मोहित कर लेने वाली थीं। उनका कटिभाग बहुत सुन्दर और पतला था। मुखमण्डल पर कुण्डलों की शोभा जगमगा रही थी। वे किशोर और तरुण-अवस्था की सन्धि में स्थित थीं। नितम्ब पर जड़ाऊ करधनी शोभायमान हो रही थी, वक्षःस्थल कुछ उभरे हुए थे और उनकी दृष्टि लटकती हुई अलकों के कारण कुछ चंचल हो रही थी। उनके होंठों पर मनोहर मुस्कान थी। उनके दाँतों की पाँत थी तो कुन्दकली के समान परम उज्ज्वल, परंतु पके हुए कुँदरू के समान लाल-लाल होठों की चमक से उस पर भी लालिमा आ गयी थी। उनके पाँवों के पायजेब चमक रहे थे और उनमें लगे हुए छोटे-छोटे घुँघरू रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे। वे अपने सुकुमार चरण-कमलों से पैदल ही राजहंस की गति से चल रही थीं। उनकी वह अपूर्व छवि देखकर वहाँ आये हुए बड़े-बड़े यशस्वी वीर सब मोहित हो गये। कामदेव ने ही भगवान का कार्य सिद्ध करने के लिये अपने बाणों से उनका हृदय जर्जर कर दिया।

रुक्मिणी जी इस प्रकार इस उत्सव यात्रा के बहाने मन्द-मन्द गति से चलकर भगवान श्रीकृष्ण पर अपना राशि-राशि सौन्दर्य निछावर कर रही थीं। उन्हें देखकर और उनकी खुली मुस्कान तथा लजीली चितवन पर अपना चित्त लुटाकर वे बड़े-बड़े नरपति एवं वीर इतने मोहित और बेहोश हो गये कि उनके हाथों से अस्त्र-शस्त्र छूटकर गिर पड़े और वे स्वयं भी रथ, हाथी तथा घोड़ों से धरती पर आ गिरे। इस प्रकार रुक्मिणी जी भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन की प्रतीक्षा करती हुई अपने कमल की कली के समान सुकुमार चरणों को बहुत ही धीरे-धीरे आगे बढ़ा रहीं थीं। उन्होंने अपने बायें हाथ की अँगुलियों से मुख की ओर लटकती हुई अलकें हटायीं और वहाँ आये हुए नरपतियों की ओर लजीली चितवन से देखा। उसी समय उन्हें श्यामसुन्दर भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन हुए।

राजकुमारी रुक्मिणी जी रथ पर चढ़ना ही चाहती थीं कि भगवान श्रीकृष्ण ने समस्त शत्रुओं के देखते-देखते उनकी भीड़ में से रुक्मिणी को उठा लिया और उन सैकड़ों राजाओं के सिर पर पाँव रखकर उन्हें अपने रथ पर बैठा लिया, जिसकी ध्वजा पर गरुड़ का चिह्न लगा हुआ था। इसके बाद जैसे सिंह सियारों के बीच में से अपना भाग ले जाये, वैसे ही रुक्मिणी जी को लेकर भगवान श्रीकृष्ण बलराम जी आदि यदुवंशियों के साथ वहाँ से चल पड़े। उस समय जरासन्ध के वशवर्ती अभिमानी राजाओं को अपना यह बड़ा भारी तिरस्कार और यश-कीर्ति का नाश सहन न हुआ। वे सब-के-सब चिढ़कर कहने लगे- ‘अहो, हमें धिक्कार है। आज हम लोग धनुष धारण करके खड़े ही रहे और ये ग्वाले, जैसे सिंह के भाग को हरिन ले जाये, उसी प्रकार हमारा सारा यश छीन ले गये।'

                         {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【चौवनवाँ अध्याय】५४

"शिशुपाल के साथी राजाओं की और रुक्मी की हार तथा श्रीकृष्ण-रुक्मिणी विवाह"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:चतुःपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इस प्रकार कह-सुनकर सब-के-सब राजा क्रोध से आग बबूला हो उठे और कवच पहनकर अपने-अपने वाहनों पर सवार हो गये। अपनी-अपनी सेना के साथ सब धनुष ले-लेकर भगवान श्रीकृष्ण पीछे दौड़े।

राजन! जब यदुवंशियों के सेनापतियों ने देखा कि शत्रुदल हम पर चढ़ा आ रहा है, तब उन्होंने भी अपने-अपने धनुष का टंकार किया और घूमकर उनके सामने डट गये। जरासन्ध की सेना के लोग कोई घोड़े पर, कोई हाथी पर, तो कोई रथ पर चढ़े हुए थे। वे सभी धनुर्वेद के बड़े मर्मज्ञ थे। वे यदुवंशियों पर इस प्रकार बाणों की वर्षा करने लगे, मानो दल-के-दल बादल पहाड़ों पर मूसलधार पानी बरसा रहे हों। परमसुन्दरी रुक्मिणी जी ने देखा कि उनके पति श्रीकृष्ण की सेना बाण-वर्षा से ढक गयी है। तब उन्होंने लज्जा के साथ भयभीत नेत्रों से भगवान श्रीकृष्ण के मुख की ओर देखा। भगवान ने हँसकर कहा- ‘सुन्दरी! डरो मत! तुम्हारी सेना अभी तुम्हारे शत्रुओं की सेना को नष्ट किये डालती है।' इधर गद और संकर्षण आदि यदुवंशी वीर अपने शत्रुओं का पराक्रम और अधिक न सह सके। वे अपने बाणों से शत्रुओं के हाथी, घोड़े तथा रथों को छिन्न-भिन्न करने लगे। उनके बाणों से रथ, घोड़े और हाथियों पर बैठे विपक्षी वीरों के कुण्डल, किरीट और पगड़ियों से सुशोभित करोंड़ों सिर, खड्ग, गदा और धनुषयुक्त हाथ, पहुँचे, जाँघें और पैर कट-कटकर पृथ्वी पर गिरने लगे। इसी प्रकार घोड़े, खच्चर, हाथी, ऊँट, गधे और मनुष्यों के सिर भी कट-कटकर रणभूमि में लोटने लगे। अन्त में विजय की सच्ची आकांक्षा वाले यदुवंशियों ने शत्रुओं की सेना तहस-नहस कर डाली। जरासन्ध आदि सभी राजा युद्ध से पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए।

उधर शिशुपाल अपनी भावी पत्नी के छिन जाने के कारण मरणासन्न-सा हो रहा था। न तो उसके हृदय में उत्साह रह गया था और न तो शरीर पर कान्ति। उसका मुँह सूख रहा था। उसके पास जाकर जरासन्ध कहने लगा- ‘शिशुपाल जी! आप तो एक श्रेष्ठ पुरुष हैं, यह उदासी छोड़ दीजिये। क्योंकि राजन! कोई भी बात सर्वदा अपने मन के अनुकूल ही हो या प्रतिकूल, इस सम्बन्ध में कुछ स्थिरता किसी भी प्राणी के जीवन में नहीं देखी जाती। जैसे कठपुतली बाजीगर की इच्छा के अनुसार नाचती है, वैसे ही यह जीव भी भगवदिच्छा के अधीन रहकर सुख और दुःख के सम्बन्ध में यथाशक्ति चेष्टा करता रहता है।

देखिये, श्रीकृष्ण ने मुझे तेईस-तेईस अक्षौहिणी सेनाओं के साथ सत्रह बार हरा दिया, मैंने केवल एक बार-अठारहवीं बार उन पर विजय प्राप्त की। फिर भी इस बात को लेकर मैं न तो कभी शोक करता हूँ और न तो कभी हर्ष; क्योंकि मैं जानता हूँ कि प्रारब्ध के अनूसार काल भगवान ही इस चराचर जगत को झकझोरते रहते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि हम लोग बड़े-बड़े वीर सेनापतियों के भी नायक हैं। फिर भी, इस समय श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित यदुवंशियों की थोड़ी-सी सेना ने हमें हरा दिया है। इस बार हमारे शत्रुओं की ही जीत हुई, क्योंकि काल उन्हीं के अनुकूल था। जब काल हमारे दाहिने होगा, तब हम भी उन्हें जीत लेंगे।'

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुःपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! जब मित्रों ने इस प्रकार समझाया, तब चेदिराज शिशुपाल अपने अनुयायियों के साथ अपनी राजधानी को लौट गया और उसके मित्र राजा भी, जो मरने से बचे थे, अपने-अपने नगरों को चले गये।

रुक्मिणी जी का बड़ा भाई रुक्मी भगवान श्रीकृष्ण से बहुत द्वेष रखता था। उसको यह बात बिलकुल सहन न हुई कि मेरी बहिन को श्रीकृष्ण हर ले जायें और राक्षस रीति से बलपूर्वक उसके साथ विवाह करें। रुक्मी बली तो था ही, उसने एक अक्षौहिणी सेना साथ ले ली और श्रीकृष्ण का पीछा किया। महाबाहु रुक्मी क्रोध के मारे जल रहा था। उसने कवच पहनकर और धनुष धारण करके समस्त नरपतियों के सामने यह प्रतिज्ञा की- ‘मैं आप लोगों के बीच में यह शपथ करता हूँ कि यदि मैं युद्ध में श्रीकृष्ण को न मार सका और अपनी बहिन रुक्मिणी को न लौटा सका तो अपनी राजधानी कुण्डिनपुर में प्रवेश नहीं करूँगा।'

परीक्षित! यह कहकर वह रथ पर सवार हो गया और सारथि से बोला- ‘जहाँ कृष्ण हो, वहाँ शीघ्र-से-शीघ्र मेरा रथ ले चलो। आज मेरा उसी के साथ युद्ध होगा। आज मैं अपने तीखे बाणों से उस खोटी बुद्धि वाले ग्वाले के बल-वीर्य का घमंड चूर-चूर कर दूँगा। देखो तो उसका साहस, वह हमारी बहिन को बलपूर्वक हर ले गया है।'

परीक्षित! रुक्मी की बुद्धि बिगड़ गयी थी। वह भगवान के तेज-प्रभाव को बिलकुल नहीं जानता था। इसी से इस प्रकार बहक-बहककर बातें करता हुआ वह एक ही रथ से श्रीकृष्ण के पास पहुँचकर ललकारने लगा- ‘खड़ा रह! खड़ा रह!’ उसने अपने धनुष को बलपूर्वक खींचकर भगवान श्रीकृष्ण को तीन बाण मारे और कहा- ‘एक क्षण मेरे सामने ठहर! यदुवंशियों के कुलकलंक! जैसे कौआ होम की सामग्री चुराकर उड़ जाये, वैसे ही तू मेरी बहिन को चुराकर कहाँ भागा जा रहा है? अरे मन्द! तू बड़ा मायावी और कपट-युद्ध में कुशल है। आज मैं तेरा सारा गर्व खर्व किये डालता हूँ। देख! जब तक मेरे बाण तुझे धरती पर सुला नहीं देते, उसके पहले ही इस बच्ची को छोड़कर भाग जा।’

रुक्मी की बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण मुसकराने लगे। उन्होंने उसका धनुष काट डाला और उस पर छः बाण छोड़े। साथ ही भगवान श्रीकृष्ण ने आठ बाण उसके चार घोड़ों पर और दो सारथि पर छोड़े और तीन बाणों से उसके रथ की ध्वजा को काट डाला। तब रुक्मी ने दूसरा धनुष उठाया और भगवान श्रीकृष्ण को पाँच बाण मारे। उन बाणों के लगने पर उन्होंने उसका वह धनुष भी काट डाला। रुक्मी ने इसके बाद एक और धनुष लिया, परन्तु हाथ में लेते-ही-लेते अविनाशी अच्युत ने उसे भी काट डाला। इस प्रकार रुक्मी ने परिघ, पट्टिश, शूल, ढाल, तलवार, शक्ति और तोमर- जितने अस्त्र-शस्त्र उठाये, उन सभी को भगवान ने प्रहार करने के पहले ही काट डाला। अब रुक्मी क्रोधवश हाथ में तलवार लेकर भगवान श्रीकृष्ण को मार डालने की इच्छा से रथ से कूद पड़ा और इस प्रकार उनकी ओर झपटा, जैसे पतिंगा आग की ओर लपकता है। जब भगवान ने देखा कि रुक्मी मुझ पर चोट करना चाहता है, तब उन्होंने अपने बाणों से उसकी ढाल-तलवार को तिल-तिलकर करके काट दिया और उसको मार डालने के लिये हाथ में तीखी तलवार निकाल ली।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुःपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 32-42 का हिन्दी अनुवाद)

जब रुक्मिणी जी ने देखा कि ये तो हमारे भाई को अब मार ही डालना चाहते हैं, तब वे भय विह्वल हो गयीं और अपने प्रियतम पति भगवान श्रीकृष्ण के चरणों पर गिरकर करुण-स्वर में बोलीं- ‘देवताओं के भी आराध्यदेव! जगत्पते! आप योगेश्वर हैं। आपके स्वरूप और इच्छाओं को कोई जान नहीं सकता। आप परम बलवान हैं, परन्तु कल्याण स्वरूप भी तो हैं। प्रभो! मेरे भैया को मारना आपके योग्य काम नहीं है।'

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- रुक्मिणी जी का एक-एक अंग भय के मारे थर-थर काँप रहा था। शोक की प्रबलता से मुँह सूख गया था, गला रूँध गया था। आतुरतावश सोने का हार गले से गिर पड़ा था और इसी अवस्था में वे भगवान के चरणकमल पकड़े हुए थीं। परम दयालु भगवान उन्हें भयभीत देखकर करुणा से द्रवित हो गये। उन्होंने रुक्मी को मार डालने का विचार छोड़ दिया। फिर भी रुक्मी उनके अनिष्ट की चेष्टा से विमुख न हुआ। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसको उसी के दुपट्टे से बाँध दिया और उसकी दाढ़ी-मूँछ तथा केश कई जगह से मूँड़कर उसे कुरूप बना दिया। तब तक यदुवंशी वीरों ने शत्रु की अद्भुत सेना को तहस-नहस कर डाला। ठीक वैसे ही, जैसे हाथी कमलवन को रौंद डालता है। फिर वे लोग उधर से लौटकर श्रीकृष्ण के पास आये तो देखा कि रुक्मी दुपट्टे से बँधा हुआ अधमरी अवस्था में पड़ा हुआ है। उसे देखकर सर्वशक्तिमान भगवान बलराम जी को बड़ी दया आयी और उन्होंने उसके बन्धन खोलकर उसे छोड़ दिया तथा श्रीकृष्ण से कहा- ‘कृष्ण! तुमने यह अच्छा नहीं किया। यह निन्दित कार्य हम लोगों के योग्य नहीं है। अपने सम्बन्धी की दाढ़ी-मूँछ मूँड़कर उसे कुरूप कर देना, यह तो एक प्रकार का वध ही है।'

इसके बाद बलराम जी ने रुक्मिणी को सम्बोधन करके कहा ;- ‘साध्वी! तुम्हारे भाई का रूप विकृत कर दिया गया है, यह सोचकर हम लोगों को बुरा न मानना; क्योंकि जीव को सुख-दुःख देने वाला कोई दूसरा नहीं है। उसे तो अपने ही कर्म का फल भोगना पड़ता है।' अब श्रीकृष्ण से बोले- ‘कृष्ण! यदि अपना सगा-सम्बन्धी वध करने योग्य अपराध करे तो भी अपने सम्बन्धियों के द्वारा उसका मारा जाना उचित नहीं है। उसे छोड़ देना चाहिये। वह तो अपने अपराध से ही मर चुका है, मरे हुए को फिर क्या मारना?' 
फिर रुक्मिणी जी से बोले ;- ‘साध्वी! ब्रह्मा जी ने क्षत्रियों का धर्म ही ऐसा बना दिया है कि सगा भाई भी अपने भाई को मार डालता है। इसलिये यह क्षात्रधर्म अत्यन्त घोर है।'

इसके बाद श्रीकृष्ण से बोले ;- ‘भाई कृष्ण! यह ठीक है कि जो लोग धन के नशे में अंधे हो रहे हैं और अभिमानी हैं, वे राज्य, पृथ्वी, पैसा, स्त्री, मान, तेज अथवा किसी और कारण से अपने बन्धुओं का ही तिरस्कार कर दिया करते हैं।' अब वे रुक्मिणी से बोले- ‘साध्वी! तुम्हारे भाई-बन्धु समस्त प्राणियों के प्रति दुर्भाव रखते हैं। हमने उनके मंगल के लिये ही उनके प्रति दण्डविधान किया है। उसे तुम अज्ञानियों की भाँति अमंगल मान रही हो, यह तुम्हारी बुद्धि की विषमता है।'

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुःपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 43-53 का हिन्दी अनुवाद)

देवि! जो लोग भगवान की माया से मोहित होकर देह को ही आत्मा मान बैठते हैं, उन्हीं को ऐसा आत्ममोह होता है कि यह मित्र है, यह शत्रु है और यह उदासीन है। समस्त देहधारियों की आत्मा एक ही है और कार्य-कारण से, माया से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। जल और घड़ा आदि उपाधियों के भेद से जैसे सूर्य, चन्द्रमा और प्रकाशयुक्त पदार्थ और आकाश भिन्न-भिन्न मालूम पड़ते हैं; परन्तु हैं एक ही, वैसे ही मूर्ख लोग शरीर के भेद से आत्मा का भेद मानते हैं। यह शरीर आदि और अन्त वाला है। पंचभूत, पंचप्राण, तन्मात्रा और त्रिगुण ही इसका स्वरूप है। आत्मा में उसके अज्ञान से ही इसकी कल्पना हुई है और वह कल्पित शरीर ही, जो उसे ‘मैं समझता है’, उसको जन्म-मृत्यु के चक्कर में ले जाता है।

साध्वी! नेत्र और रूप दोनों ही सूर्य के द्वारा प्रकाशित होते हैं। सूर्य ही उनका कारण है। इसलिये सूर्य के साथ नेत्र और रूप का न तो कभी वियोग होता है और न संयोग। इसी प्रकार समस्त संसार की सत्ता आत्मसत्ता के कारण जान पड़ती है, समस्त संसार का प्रकाशक आत्मा ही है। फिर आत्मा के साथ दूसरे असत् पदार्थों का संयोग या वियोग हो ही कैसे सकता है? जन्म लेना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और मरना- ये सारे विकार शरीर के ही होते हैं, आत्मा के नहीं। जैसे कृष्ण पक्ष में कलाओं का ही क्षय होता है, चन्द्रमा का नहीं, परन्तु अमावस्या के दिन व्यवहार में लोग चन्द्रमा का ही क्षय हुआ कहते-सुनते हैं; वैसे ही जन्म-मृत्यु आदि सारे विकार शरीर के ही होते हैं, परन्तु लोग उसे भ्रमवश अपना-अपने आत्मा का मान लेते हैं। जैसे सोया हुआ पुरुष किसी पदार्थ के न होने पर भी स्वप्न में भोक्ता, भोग्य और भोगरूप फलों का अनुभव करता है, उसी प्रकार अज्ञानी लोग झूठ-मूठ संसार-चक्र का अनुभव करते हैं। इसलिये साध्वी! अज्ञान के कारण होने वाले इस शोक को त्याग दो। यह शोक अंतःकरण को मुरझा देता है, मोहित कर देता है। इसलिये इसे छोड़कर तुम अपने स्वरूप में स्थित हो जाओ।'

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- परीक्षित! जब बलरामजी ने इस प्रकार समझाया, तब परमसुन्दरी रुक्मिणी जी ने अपने मन का मैल मिटाकर विवेक-बुद्धि से उसका समाधान किया। रुक्मी की सेना और उसके तेज का नाश हो चुका था। केवल प्राण बच रहे थे। उसके चित्त की सारी आशा-अभिलाषाएँ व्यर्थ हो चुकी थीं और शत्रुओं ने अपमानित करके उसे छोड़ दिया था। उसे अपने विरूप किये जाने की कष्टदायक स्मृति भूल नहीं पाती थी। अतः उसने अपने रहने के लिये भोजकट नाम की एक बहुत बड़ी नगरी बसायी। उसने पहले ही यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि ‘दुर्बुद्धि कृष्ण को मारे बिना और अपनी छोटी बहिन को लौटाये बिना मैं कुण्डिनपुर में प्रवेश नहीं करूँगा।’ इसलिये क्रोध करके वह वहीं रहने लगा।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सब राजाओं को जीत लिया और विदर्भ राजकुमारी रुक्मिणी जी को द्वारका में लाकर उनका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुःपंचाशत्त्म अध्याय श्लोक 54-60 का हिन्दी अनुवाद)

हे राजन! उस समय द्वारकापुरी के घर-घर बड़ा ही उत्सव मनाया जाने लगा। क्यों न हो, वहाँ के सभी लोगों का यदुपति श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम जो था। वहाँ के सभी नर-नारी मणियों के चमकीले कुण्डल धारण किये हुए थे। उन्होंने आनन्द से भरकर चित्र-विचित्र वस्त्र पहने दूल्हा और दुलहिन को अनेकों भेंट की सामग्रियाँ उपहार दीं।

उस समय द्वारका की अपूर्व शोभा हो रही थी। कहीं बड़ी-बड़ी पताकाएँ बहुत ऊँचे तक फहरा रही थीं। चित्र-विचित्र मालाएँ, वस्त्र और रत्नों के तोरन बँधे हुए थे। द्वार-द्वार पर दूब, खील आदि मंगल की वस्तुएँ सजायी हुई थीं। जल भरे कलश, अरगजा और धूप की सुगन्ध तथा दीपावली से बड़ी ही विलक्षण शोभा हो रही थी। मित्र नरपति आमन्त्रित किये गये थे। उनके मतवाले हाथियों के मद से द्वारका की सड़क और गलियों का छिड़काव हो गया था। प्रत्येक दरवाजे पर केलों के खंभे और सुपारी के पेड़ रोपे हुए बहुत ही भले मालूम होते थे।

उस उत्सव में कुतूहलवश इधर-उधर दौड़-धूप करते हुए बन्धु-वर्गों में कुरु, सृज्चय, कैकय, विदर्भ, यदु और कुन्ति आदि वंशों के लोग परस्पर आनन्द मना रहे थे। जहाँ-तहाँ रुक्मिणीहरण की गाथा गयी जाने लगी। उसे सुनकर राजा और राजकन्याएँ अत्यन्त विस्मित हो गयीं।

महाराज! भगवती लक्ष्मी जी को रुक्मिणी के रूप में साक्षात लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्ण के साथ देखकर द्वारकावासी नर-नारियों को परम आनन्द हुआ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें