सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - उत्तरार्ध ) का पचासीवाँ, छियासीवाँ, सतासीवाँ, अठासीवाँ, नवासीवाँ व नब्बेवाँ अध्याय [ Eighty-five, Eighty-six, Eighty-seven, Eighty-eight, Eighty-nine and Ninety chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【पचासीवाँ अध्याय】८५

"श्रीभगवान के द्वारा वसुदेव जी को ब्रह्मज्ञान का उपदेश तथा देवकी के छः पुत्रों को लौटा लाना"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचाशीतितम अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इसके बाद एक दिन भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी प्रातःकालीन प्रणाम करने के लिये माता-पिता के पास गये। प्रणाम कर लेने पर वसुदेव जी बड़े प्रेम से दोनों भाइयों का अभिनन्दन करके कहने लगे। वसुदेव जी ने बड़े-बड़े ऋषियों के मुँह से भगवान कि महिमा सुनी थी तथा उनके ऐश्वर्यपूर्ण चरित्र भी देखे थे। इससे उन्हें इस बात का दृढ़ विश्वास हो गया था कि ये साधारण पुरुष नहीं, स्वयं भगवान हैं। इसलिये उन्होंने अपने पुत्रों को प्रेमपूर्वक सम्बोधित करके यों कहा- ‘सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! महायोगीश्वर संकर्षण! तुम दोनों सनातन हो। मैं जानता हूँ कि तुम दोनों सारे जगत् के साक्षात् कारणस्वरूप प्रधान और पुरुष के भी नियामक परमेश्वर हो। इस जगत् के आधार, निर्माता और निर्माणसामग्री भी तुम्हीं हो। इस सारे जगत् के स्वामी तुम दोनों हो और तुम्हारी ही क्रीड़ा के लिये इसका निर्माण हुआ है। यह जिस समय, जिस रूप में जो कुछ रहता है, होता है- वह सब तुम्हीं हो। इस जगत् में प्रकृति-रूप से भोग्य और पुरुष रूप से भोक्ता तथा दोनों से परे दोनों के नियामक साक्षात् भगवान भी तुम्हीं हो।

इन्द्रियातीत! जन्म, अस्तित्व आदि भावविकारों से रहित परमात्मन्! इस चित्र-विचित्र जगत् का तुम्हीं ने निर्माण किया है और इसमें स्वयं तुमने ही आत्मारूप से प्रवेश भी किया है। तुम प्राण (क्रियाशक्ति) और जीव (ज्ञानशक्ति) के रूप में इसका पालन-पोषण कर रहे हो। क्रियाशक्ति प्रधान प्राण आदि में जो जगत् कि वस्तुओं कि सृष्टि करने कि सामर्थ्य है, वह उनकी अपनी सामर्थ्य नहीं, तुम्हारी ही है। क्योंकि वे तुम्हारे समान चेतन नहीं, अचेतन हैं; स्वतन्त्र नहीं, परतन्त्र हैं। अतः उन चेष्टाशील प्राण आदि में केवल चेष्टामात्र होती है, शक्ति नहीं। शक्ति तो तुम्हारी ही है। प्रभो! चन्द्रमा कि कान्ति, अग्नि का तेज, सूर्य कि प्रभा, नक्षत्र और विद्युत् आदि कि स्फुरणरूप से सत्ता, पर्वतों कि स्थिरता, पृथ्वी कि साधारण शक्ति रूप से वृत्ति और गन्धरूप गुण- ये सब वास्तव में तुम्हीं हो।

परमेश्वर! जल में तृप्त करने, जीवन देने और शुद्ध करने कि जो शक्तियाँ हैं, वे तुम्हारा ही स्वरूप हैं। जल और उसका रस भी तुम्हीं हो। प्रभो! इन्द्रियशक्ति, अन्तःकरण कि शक्ति, शरीर कि शक्ति, उसका हिलना-डोलना, चलना-फिरना- ये सब वायु कि शक्तियाँ तुम्हारी ही हैं। दिशाएँ और उनके अवकाश भी तुम्हीं हो। आकाश और उस आश्रयभूत स्फोट-शब्दतन्मात्रा या परावाणी, नाद-पश्यन्ती, ओंकार- मध्यमा तथा वर्ण (अक्षर) एवं पदार्थों का अलग-अलग निर्देश करने वाले पद, रूप, वैखरी वाणी भी तुम्हीं हो। इन्द्रियाँ, उनकी विषयप्रकाशिनी शक्ति और अधिष्ठातृ-देवता तुम्हीं हो! बुद्धि की निश्चयात्मिका शक्ति और जीव कि विशुद्ध स्मृति भी तुम्हीं हो। भूतों में उनका कारण तामस अहंकार, इन्द्रियों में उनका कारण तैजस अहंकार और इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवताओं में उनका कारण सात्त्विक अहंकार तथा जीवों के आवागमन का कारण माया भी तुम्हीं हो।

भगवन्! जैसे मिट्टी आदि वस्तुओं के विकार घड़ा, वृक्ष आदि में मिट्टी निरन्तर वर्तमान है और वास्तव में वे कारण (मृत्तिका) रूप ही है- उसी प्रकार जितने भी विनाशवान् पदार्थ हैं, उनमें तुम कारणरूप से अविनाशी तत्त्व हो। वास्तव में वे सब तुम्हारे ही स्वरूप हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचाशीतितम अध्याय श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद)

प्रभो! सत्त्व, रज, तम- ये तीनों गुण और उनकी वृत्तियाँ (परिणाम)- महत्तत्त्वादि परब्रह्म परमात्मा में, तुममें योगमाया के द्वारा कल्पित हैं। इसलिये ये जितने भी जन्म, अस्ति, वृद्धि, परिणाम आदि भाव-विकार हैं, वे तुममें सर्वथा नहीं हैं। जब तुममें इनकी कल्पना कर ली जाती है, तब तुम इन विकारों में अनुगत जान पड़ते हो। कल्पना की निवृत्ति हो जाने पर तो निर्विकल्प परमार्थस्वरूप तुम्हीं तुम रह जाते हो। यह जगत् सत्त्व, रज, तम- इन तीनों गुणों का प्रवाह है; देह, इन्द्रिय, अन्तःकरण, सुख, दुःख और रंग-लोभादि उन्हीं के कार्य हैं। इनमें जो अज्ञानी तुम्हारा, सर्वात्मा का सूक्ष्मस्वरूप नहीं जानते, वे अपने देहाभिमानरूप अज्ञान के कारण ही कर्मों के फंदे में फँसकर बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकते रहते हैं।

परमेश्वर! मुझे शुभ प्रारब्ध के अनुसार इन्द्रियादि की सामर्थ्य से युक्त अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर प्राप्त हुआ। किन्तु तुम्हारी माया के वश होकर मैं अपने सच्चे स्वार्थ-परमार्थ से ही असावधान हो गया और मेरी सारी आयु यों ही बीत गयी। प्रभो! यह शरीर मैं हूँ और इस शरीर के सम्बन्धी मेरे अपने हैं, इस अहंता एवं ममतारूप स्नेह की फाँसी से तुमने इस सारे जगत् को बाँध रखा है। मैं जानता हूँ कि तुम दोनों मेरे पुत्र नहीं हो, सम्पूर्ण प्रकृति और जीवों के स्वामी हो। पृथ्वी के भारभूत राजाओं के नाश के लिये ही तुमने अवतार ग्रहण किया है। यह बात तुमने मुझे कही भी थी। इसलिये दीनजनों के हितैषी, शरणागतवत्सल! मैं अब तुम्हारे चरणकमलों की शरण में हूँ; क्योंकि वे ही शरणागतों के संसारभय को मिटाने वाले हैं। अब इन्द्रियों की लोलुपता से भर पाया! इसी के कारण मैंने मृत्यु ग्रास इस शरीर में आत्मबुद्धि कर ली और तुमने, जो की परमात्मा हो, पुत्रबुद्धि।

प्रभो! तुमने प्रसव-गृह में ही हमसे कहा था कि ‘यद्यपि मैं अजन्मा हूँ, फिर भी मैं अपनी ही बनायीं हुई धर्म-मर्यादा की रक्षा करने के लिये प्रत्येक युग में तुम दोनों के द्वारा अवतार ग्रहण करता रहा हूँ।’ भगवन्! तुम आकाश के समान अनेकों शरीर ग्रहण करते और छोड़ते रहते हो। वास्तव में तुम अनन्त, एकरस सत्ता हो। तुम्हारी आश्चर्यमयी शक्ति योगमाया का रहस्य भला कौन जान सकता है? सब लोग तुम्हारी कीर्ति का ही गान करते रहते हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! वसुदेव जी के ये वचन सुनकर यदुवंशशिरोमणि भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण मुसकराने लगे। उन्होंने विनय से झुककर मधुर वाणी से कहा। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- पिताजी! हम तो आपके पुत्र ही हैं। हमें लक्ष्य करके आपने यह ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया है। हम आपकी एक-एक बात युक्तियुक्त मानते हैं। पिताजी! आप लोग, मैं, भैया बलराम जी, सारे द्वारकावासी, सम्पूर्ण चराचर जगत्- सब-के-सब आपने जैसा कहा, वैसे ही हैं, सबको ब्रह्मरूप ही समझना चाहिये। पिताजी! आत्मा तो एक ही है। परन्तु वह अपने में ही गुणों की सृष्टि कर लेता है और गुणों के द्वारा बनाये हुए पंचभूतों में एक होने पर भी अनेक, स्वयंप्रकाश होने पर भी दृश्य, अपना स्वरूप होने पर भी अपने से भिन्न, नित्य होने पर भी अनित्य और निर्गुण होने पर भी सगुण के रूप में प्रतीत होता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचाशीतितम अध्याय श्लोक 25-37 का हिन्दी अनुवाद)

जैसे आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- ये पंचमहाभूत अपने कार्य घट, कुण्डल आदि में प्रकट-अप्रकट, बड़े-छोटे, अधिक थोड़े, एक और अनेक से प्रतीत होते हैं- परन्तु वास्तव में सत्तारूप से वे एक ही रहते हैं; वैसे ही आत्मा में भी उपाधियों के भेद से ही नानात्व की प्रतीति होती है। इसलिये जो मैं हूँ, वही सब हैं- इस दृष्टि से आपका कहना ठीक ही है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण के इन वचनों को सुनकर वसुदेव जी ने नानात्व-बुद्धि छोड़ दी; वे आनन्द में मग्न होकर वाणी से मौन और मन से निस्संकल्प हो गये। कुरुश्रेष्ठ! उस समय वहाँ सर्वदेवमयी देवकी जी भी बैठी हुई थीं। वे बहुत पहले से ही यह सुनकर अत्यन्त विस्मित थीं कि श्रीकृष्ण और बलराम जी ने अपने मरे हुए गुरुपुत्र को यमलोक से वापस ला दिया। अब उन्हें अपने उन पुत्रों की याद आ गयी, जिन्हें कंस ने मार डाला था। उनके स्मरण से देवकी जी का हृदय आतुर हो गया, नेत्रों से आँसू बहने लगे। उन्होंने बड़े ही करुणस्वर से श्रीकृष्ण और बलराम जी को सम्बोधित करके कहा।

देवकी जी ने कहा ;- लोकाभिराम राम! तुम्हारी शक्ति मन और वाणी के परे है। श्रीकृष्ण! तुम योगेश्वरों के भी ईश्वर हो। मैं जानती हूँ कि तुम दोनों प्रजापतियों के भी ईश्वर, आदिपुरुष नारायण हो। यह भी मुझे निश्चित रूप से मालूम है कि जिन लोगों ने कालक्रम से अपना धैर्य, संयम और सत्त्वगुण खो दिया है तथा शास्त्र की आज्ञाओं का उल्लंघन करके जो स्वेच्छाचारपरायण हो रहे हैं, भूमि के भारभूत उन राजाओं का नाश करने के लिये ही तुम दोनों मेरे गर्भ से अवतीर्ण हुए हो।

विश्वात्मन्! तुम्हारे पुरुष रूप अंश से उत्पन्न हुई माया से गुणों की उत्पत्ति होती है और उनके लेशमात्र से जगत् की उत्पत्ति, विकास तथा प्रलय होता है। आज मैं सर्वान्तःकरण से तुम्हारी शरण हो रही हूँ। मैंने सुना है कि तुम्हारे गुरु सान्दीपनिजी के पुत्र को मरे बहुत दिन हो गये थे। उनको गुरुदक्षिणा देने के लिये उनकी आज्ञा तथा काल की प्रेरणा से तुम दोनों ने उनके पुत्र को यमपुरी से वापस ला दिया। तुम दोनों योगीश्वरों के भी ईश्वर हो। इसलिये आज मेरी अभिलाषा पूर्ण करो। मैं चाहती हूँ कि तुम दोनों मेरे उन पुत्रों को, जिन्हें कंस ने मार डाला था, ला दो और उन्हें मैं भर आँख देख लूँ।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! माता देवकी जी यह बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम दोनों ने योगमाया का आश्रय लेकर सुतल लोक में प्रवेश किया। जब दैत्यराज बलि ने देखा की जगत् के आत्मा और इष्टदेव तथा मेरे परम स्वामी भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी सुतल लोक में पधारे हैं, तब उनका हृदय उनके दर्शन के आनन्द में निमग्न हो गया। उन्होंने झटपट अपने कुटुम्ब के साथ आसन से उठकर भगवान के चरणों में प्रणाम किया। अत्यन्त आनन्द से भरकर दैत्यराज बलि ने भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी को श्रेष्ठ आसन दिया और जब वे दोनों महापुरुष उस पर विराज गये, तब उन्होंने उनके पाँव पखारकर उनका चरणोंदक परिवार सहित अपने सिर पर धारण किया।

परीक्षित! भगवान के चरणों का जल ब्रह्मापर्यन्त सारे जगत् को पवित्र कर देता है। इसके बाद दैत्यराज बलि ने बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण, चन्दन, ताम्बूल, दीपक, अमृत के समान भोजन एवं अन्य विविध सामग्रियों से उनकी पूजा की और अपने समस्त परिवार, धन तथा शरीर आदि को उनके चरणों में समर्पित कर दिया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचाशीतितम अध्याय श्लोक 38-51 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! दैत्यराज बलि बार-बार भगवान के चरणकमलों को अपने वक्षःस्थल और सिर पर रखने लगे, उनका हृदय प्रेम से विह्वल हो गया। नेत्रों से आनन्द के आँसू बहने लगे। रोम-रोम खिल उठा। अब वे गद्गद स्वर से भगवान की स्तुति करने लगे।

दैत्यराज बलि ने कहा ;- बलराम जी! आप अनन्त हैं। आप इतने महान् हैं कि शेष आदि सभी विग्रह आपके अन्तर्भूत हैं। सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप सकल जगत् के निर्माता हैं। ज्ञानयोग और भक्तियोग दोनों के प्रवर्तक आप ही हैं। आप स्वयं ही परब्रह्म परमात्मा हैं। हम आप दोनों को बार-बार नमस्कार करते हैं। भगवन्! आप दोनों का दर्शन प्राणियों के लिये अत्यन्त दुर्लभ है। फिर भी आपकी कृपा से वह सुलभ हो जाता है। क्योंकि आज आपने कृपा करके हम रजोगुणी एवं तमोगुणी स्वभाव वाले दैत्यों को भी दर्शन दिया है। प्रभो! हम और हमारे ही समान दूसरे दैत्य, दानव, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, चारण, यक्ष, राक्षस, पिशाच, भूत और प्रमथनायक आदि आपका प्रेम से भजन करना तो दूर रहा, आपसे सर्वदा दृढ़ वैरभाव रखते हैं; परन्तु आपका श्रीविग्रह साक्षात् वेदमय और विशुद्ध सत्त्वस्वरूप है। इसलिये हम लोगों में से बहुतों ने दृढ़ वैरभाव से, कुछ ने भक्ति से और कुछ ने कामना से आपका स्मरण करके उस पद को प्राप्त किया है, जिसे आपके समीप रहने वाले सत्त्वप्रधान देवता आदि भी नहीं प्राप्त कर सकते।

योगेश्वरों के अधीश्वर! बड़े-बड़े योगेश्वर भी प्रायः यह बात नहीं जानते कि आपकी योगमाया यह है और ऐसी है; फिर हमारी तो बात ही क्या है? इसलिये स्वामी! मुझ पर ऐसी कृपा कीजिये कि मेरी चित्त-वृत्ति आपके उन चरणकमलों में लग जाये, जिसे किसी की अपेक्षा न रखने वाले परमहंस लोग ढूंढा करते हैं; और उनका आश्रय लेकर मैं उससे भिन्न इस घर-गृहस्थी के अँधेरे कूएँ से निकल जाऊँ। प्रभो! इस प्रकार आपके उन चरणकमलों की, जो सारे जगत् के एकमात्र आश्रय हैं, शरण लेकर शान्त हो जाऊँ और अकेला ही विचरण करूँ। यदि कभी किसी का संग करना ही पड़े तो सबके परम हितैषी संतो का ही। प्रभो! आप समस्त चराचर जगत् के नियन्ता और स्वामी हैं। आप हमें आज्ञा देकर निष्पाप बनाइये, हमारे पापों का नाश कर दीजिये; क्योंकि जो पुरुष श्रद्धा के साथ आपकी आज्ञा का पालन करता है, वह विधि-निषेध के बन्धन से मुक्त हो जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- ‘दैत्यराज! स्वायम्भुव मन्वन्तर में प्रजापति मरीचि की पत्नी ऊर्णा के गर्भ से छः पुत्र उत्पन्न हुए थे। वे सभी देवता थे। वे यह देखकर की ब्रह्मा जी अपनी पुत्री से समागम करने के लिये उद्यत हैं, हँसने लगे। इस परिहासरूप अपराध के कारण उन्हें ब्रह्मा जी ने शाप दे दिया और वे असुर-योनि में हिरण्यकशिपु के पुत्ररूप से उत्पन्न हुए। अब योगमाया ने उन्हें वहाँ से लाकर देवकी के गर्भ में रख दिया और उनको उत्पन्न होते ही कंस ने मार डाला। दैत्यराज! माता देवकी जी अपने उन पुत्रों के लिये अत्यन्त शोकातुर हो रही हैं और वे तुम्हारे पास हैं। अतः हम अपनी माता का शोक दूर करने के लिये उन्हें यहाँ से ले जायँगे। इसके बाद ये शाप से मुक्त हो जायँगे और आनन्दपूर्वक अपने लोक में चले जायँगे। इनके छः नाम हैं- स्मर, उद्गीथ, परिष्वंग, पतंग, क्षुद्रभूत और घृणी। उन्हें मेरी कृपा से पुनः सद्गति प्राप्त होगी’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचाशीतितम अध्याय श्लोक 52-59 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! इतना कहकर भगवान श्रीकृष्ण चुप हो गये। दैत्यराज बलि ने उनकी पूजा की; इसके बाद श्रीकृष्ण और बलराम जी बालकों को लेकर फिर द्वारका लौट आये तथा माता देवकी को उनके पुत्र सौंप दिये। उन बालकों को देखकर देवी देवकी के हृदय में वात्सल्य स्नेह की बाढ़ आ गयी। उनके स्तनों से दूध बहने लगा। वे बार-बार उन्हें गोद में लेकर छाती से लगातीं और उनका सिर सूँघती।

पुत्रों के स्पर्श के आनन्द से सराबोर एवं आनन्दित देवकी ने उनको स्तन-पान कराया। वे विष्णु भगवान की उस माया से मोहित हो रही थीं, जिससे यह सृष्टि-चक्र चलता है।

परीक्षित! देवकी जी के स्तनों का दूध साक्षात् अमृत था; क्यों न हो, भगवान श्रीकृष्ण जो उसे पी चुके थे। उन बालकों ने वही अमृतमय दूध पिया। उस दूध के पीने से भगवान श्रीकृष्ण के अंगों का स्पर्श होने से उन्हें आत्मसाक्षात्कार हो गया। इसके बाद उन लोगों ने भगवान श्रीकृष्ण, माता देवकी, पिता वसुदेव और बलराम जी को नमस्कार किया। तदनन्तर सबके सामने ही वे देवलोक में चले गये।

परीक्षित! देवी देवकी यह देखकर अत्यन्त विस्मित हो गयीं कि मरे हुए बालक लौट आये और फिर चले भी गये। उन्होंने ऐसा निश्चय किया कि यह श्रीकृष्ण का ही कोई लीला-कौशल है। परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण स्वयं परमात्मा हैं, उनकी शक्ति अनन्त हैं। उनके ऐसे-ऐसे अद्भुत चरित्र इतने हैं कि किसी प्रकार उनका पार नहीं पाया जा सकता।

सूत जी कहते हैं ;- शौनकादि ऋषियों! भगवान श्रीकृष्ण की कीर्ति अमर है, अमृतमयी है। उनका चरित्र जगत् के समस्त पाप-तापों को मिटाने वाला तथा भक्तजनों के कर्णकुहरों में आनन्दसुधा प्रवाहित करने वाला है। इसका वर्णन स्वयं व्यासनन्दन भगवान श्रीशुकदेव जी ने किया है। जो इसका श्रवण करता है अथवा दूसरों को सुनाता है, उसकी सम्पूर्ण चित्तवृत्ति भगवान में लग जाती है और वह उन्हीं के परम कल्याणस्वरूप धाम को प्राप्त होता है।


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【छियासीवाँ अध्याय】८६


"सुभद्राहरण और भगवान का मिथिलापुरी में राजा जनक और श्रुतदेव ब्राह्मण के घर एक ही साथ जाना"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षडशीतितम अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन! मेरे दादा अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी की बहिन सुभद्रा जी से, जो मेरी दादी थीं, किस प्रकार विवाह किया? मैं यह जानने के लिये बहुत उत्सुक हूँ।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! एक बार अत्यन्त शक्तिशाली अर्जुन तीर्थयात्रा के लिये पृथ्वी पर विचरण करते हुए प्रभास क्षेत्र पहुँचे। वहाँ उन्होंने यह सुना कि बलराम जी मेरे मामा की पुत्री सुभद्रा का विवाह दुर्योधन के साथ करना चाहते हैं और वसुदेव, श्रीकृष्ण आदि उनसे इस विषय में सहमत नहीं हैं। अब अर्जुन के मन में सुभद्रा को पाने की लालसा जग आयी। वे त्रिदण्डी वैष्णव का वेष धारण करके द्वारका पहुँचे। अर्जुन सुभद्रा को प्राप्त करने के लिये वहाँ वर्षाकाल में चार महीने तक रहे। वहाँ पुरवासियों और बलराम जी ने उनका खूब सम्मान किया। उन्हें यह पता न चला कि ये अर्जुन हैं।

एक दिन बलराम जी ने आतिथ्य के लिये उन्हें निमन्त्रित किया और उनको वे अपने घर ले आये। त्रिदण्डी-वेषधारी अर्जुन को बलराम जी ने अत्यन्त श्रद्धा के साथ भोजन-सामग्री निवेदित की और उन्होंने प्रेम से भोजन किया। अर्जुन ने भोजन के समय वहाँ विवाह योग्य परम सुन्दरी सुभद्रा को देखा। उसका सौन्दर्य बड़े-बड़े वीरों का मन हरने वाला था। अर्जुन के नेत्र प्रेम से प्रफुल्लित हो गये। उनका मन उसे पाने की आकांक्षा से क्षुब्ध हो गया और उन्होंने उसे पत्नी बनाने का दृढ़ निश्चय कर लिया।

परीक्षित! तुम्हारे दादा अर्जुन भी बड़े ही सुन्दर थे। उनके शरीर की गठन, भाव-भंगी स्त्रियों का हृदय स्पर्श कर लेती थी। उन्हें देखकर सुभद्रा ने भी मन में उन्हीं को पति बनाने का निश्चय किया। वह तनिक मुसकराकर लजीली चितवन से उनकी ओर देखने लगी। उसने अपना हृदय उन्हें समर्पित कर दिया। अब अर्जुन केवल उसी का चिन्तन करने लगे और इस बात का अवसर ढूँढने लगे कि इसे कब हर ले जाऊँ। सुभद्रा को प्राप्त करने की उत्कट कामना से उनका चित्त चक्कर काटने लगा, उन्हें तनिक भी शान्ति नहीं मिलती थी।

एक बार सुभद्रा जी देव-दर्शन के लिये रथ पर सवार होकर द्वारका-दुर्ग से बाहर निकलीं। उसी समय महारथी अर्जुन ने देवकी-वसुदेव और श्रीकृष्ण की अनुमति से सुभद्रा का हरण कर लिया। रथ पर सवार होकर अर्जुन ने धनुष उठा लिया और जो सैनिक उन्हें रोकने के लिये आये, उन्हें मार-पीटकर भगा दिया। सुभद्रा के निज-जन रोते-चिल्लाते रह गये और अर्जुन जिस प्रकार सिंह अपना भाग लेकर चल देता है, वैसे ही सुभद्रा को लेकर चल पड़े। यह समाचार सुनकर बलराम जी बहुत बिगड़े। वे वैसे ही क्षुब्ध हो उठे, जैसे पूर्णिमा के दिन समुद्र। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तथा अन्य सुहृद-सम्बन्धियों ने उनके पैर पकड़कर उन्हें बहुत कुछ समझाया-बुझाया, तब वे शान्त हुए। इसके बाद बलराम जी ने प्रसन्न होकर वर-वधू के लिये बहुत-सा धन, सामग्री, हाथी, रथ, घोड़े और दासी-दास दहेज में भेजे।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं ;- परीक्षित! विदेह की राजधानी मिथिला में एक गृहस्थ ब्राह्मण थे। उनका नाम था श्रुतदेव। वे भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। वे एकमात्र भगवद्भक्ति से ही पूर्णमनोरथ, परमशान्त, ज्ञानी और विरक्त थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षडशीतितम अध्याय श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद)

वे गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी किसी प्रकार का उद्योग नहीं करते थे; जो कुछ मिल जाता, उसी से अपना निर्वाह कर लेते थे। प्रारब्धवश प्रतिदिन उन्हें जीवन-निर्वाह भर के लिये सामग्री मिल जाया करती थी, अधिक नहीं। वे उतने से ही सन्तुष्ट भी थे, और अपने वर्णाश्रम के अनुसार धर्म-पालन में तत्पर रहते थे।

प्रिय परीक्षित! उस देश के राजा भी ब्राह्मण के समान ही भक्तिमान् थे। मैथिलवंश के उन प्रतिष्ठित नरपति का नाम था बहुलाश्व। उनमें अहंकार का लेश भी न था। श्रुतदेव और बहुलाश्व दोनों ही भगवान श्रीकृष्ण के प्यारे भक्त थे।

एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने उन दोनों पर प्रसन्न होकर दारुक से रथ मँगवाया और उस पर सवार होकर द्वारका से विदेह देश की ओर प्रस्थान किया। भगवान के साथ नारद, वामदेव, अत्रि, वेदव्यास, परशुराम, असित, आरुणि, मैं (शुकदेव), बृहस्पति, कण्व, मैत्रेय, च्यवन आदि ऋषि भी थे। परीक्षित! वे जहाँ-जहाँ पहुँचते, वहाँ-वहाँ के नागरिक और ग्रामवासी प्रजा पूजा की सामग्री लेकर उपस्थित होते। पूजा करने वालों को भगवान ऐसे जान पड़ते, मानो ग्रहों के साथ साक्षात् सूर्यनारायण उदय हो रहे हों।

परीक्षित! उस यात्रा में आनर्त, धन्व, कुरुजांगल, कंक, मत्स्य, पांचाल, कुन्ति, मधु, केकय, कोसल, अर्ण आदि अनेकों देशों के नर-नारियों ने अपने नेत्ररूपी दोनों से भगवान श्रीकृष्ण के उन्मुक्त हास्य और प्रेमभरी चितवन से युक्त मुखारविन्द के मकरन्द-रस का पान किया। त्रिलोकगुरु भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन से उन लोगों की अज्ञानदृष्टि नष्ट हो गयी। प्रभु-दर्शन करने वाले नर-नारियों को अपनी दृष्टि से परम कल्याण और तत्त्वज्ञान का दान करते चल रहे थे। स्थान-स्थान पर मनुष्य और देवता भगवान की उस कीर्ति का गान करके सुनाते, जो समस्त दिशाओं को उज्ज्वल बनाने वाली एवं समस्त अशुभों का विनाश करने वाली है। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण धीरे-धीरे विदेह देश में पहुँचे।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण के शुभागमन का समाचार सुनकर नागरिक और ग्रामवासियों के आनन्द की सीमा न रही। वे अपने हाथों में पूजा कि विविध सामग्रियाँ लेकर उनकी अगवानी करने आये। भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन करके उनके हृदय और मुखकमल प्रेम और आनन्द से खिल उठे। उन्होंने भगवान तथा मुनियों को, जिनका नाम केवल सुन रखा था, देखा न था-हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। मिथिलानरेश बहुलाश्व और श्रुतदेव ने, यह समझकर की जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण हम लोगों पर अनुग्रह करने के लिये ही पधारे हैं, उनके चरणों पर गिरकर प्रणाम किया। बहुलाश्व और श्रुतदेव दोनों ने ही एक साथ हाथ जोड़कर मुनि-मण्डली के सहित भगवान श्रीकृष्ण को आतिथ्य ग्रहण करने के लिये निमन्त्रित किया। भगवान श्रीकृष्ण दोनों की प्रार्थना स्वीकार करके दोनों को ही प्रसन्न करने के लिये एक ही समय पृथक्-पृथक् रूप से दोनों के घर पधारे और यह बात एक-दूसरे को मालूम न हुई कि भगवान श्रीकृष्ण मेरे घर के अतिरिक्त और कहीं भी जा रहे हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षडशीतितम अध्याय श्लोक 27-40 का हिन्दी अनुवाद)

विदेहराज बहुलाश्व बड़े मनस्वी थे; उन्होंने यह देखकर कि दुष्ट-दुराचारी पुरुष जिनका नाम भी नहीं सुन सकते, वे ही भगवान श्रीकृष्ण और ऋषि-मुनि मेरे घर पधारे हैं, सुन्दर-सुन्दर आसन मँगाये और भगवान श्रीकृष्ण तथा ऋषि-मुनि आराम से उन पर बैठ गये। उस समय बहुलाश्व की विचित्र दशा थी। प्रेम-भक्ति के उद्रेक से उनका हृदय भर आया था। नेत्रों में आँसू उमड़ रहे थे। उन्होंने अपने पूज्यतम अतिथियों के चरणों में नमस्कार करके पाँव पखारे और अपने कुटुम्ब के साथ उनके चरणों का लोकपावन जल सिर पर धारण किया और फिर भगवान एवं भगवत्स्वरूप ऋषियों को गन्ध, माला, वस्त्र, अलंकार, धूप, दीप, अर्घ्य, गौ, बैल आदि समर्पित करके उनकी पूजा की। जब सब लोग भोजन करके तृप्त हो गये, तब राजा बहुलाश्व भगवान श्रीकृष्ण के चरणों को अपनी गोद में लेकर बैठ गये और बड़े आनन्द से धीरे-धीरे उन्हें सहलाते हुए बड़ी मधुर वाणी से भगवान की स्तुति करने लगे।

राजा बहुलाश्व ने कहा ;- ‘प्रभो! आप समस्त प्राणियों के आत्मा, साक्षी एवं स्वयंप्रकाश हैं। हम सदा-सर्वदा आपके चरणकमलों का स्मरण करते रहते हैं। इसी से आपने हम लोगों को दर्शन देकर कृतार्थ किया है। भगवन्! आपके वचन हैं कि मेरा अनन्यप्रेमी भक्त मुझे अपने स्वरूप बलराम जी, अर्द्धांगिनी लक्ष्मी और पुत्र ब्रह्मा से भी बढ़कर प्रिय है। अपने उन वचनों को सत्य करने के लिये ही आपने हम लोगों को दर्शन दिया है। भला, ऐसा कौन पुरुष है, जो आपकी इस परम दयालुता और प्रेमवशता को जानकर भी आपके चरणकमलों का परित्याग कर सके?

प्रभो! जिन्होंने जगत् की समस्त वस्तुओं का एवं शरीर आदि का भी मन से परित्याग कर दिया है, उन परम शान्त मुनियों को आप अपने तक को भी दे डालते हैं। आपने यदुवंश में अवतार लेकर जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़े हुए मनुष्यों को उससे मुक्त करने के लिये जगत् में ऐसे विशुद्ध यश का विस्तार किया है, जो त्रिलोकी के पाप-ताप को शान्त करने वाला है। प्रभो! आप अचिन्त्य, अनन्त ऐश्वर्य और माधुर्य की निधि हैं; सबके चित्त को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये आप सच्चीदानन्दस्वरूप परमब्रह्म हैं। आपका ज्ञान अनन्त है। परम शान्ति का विस्तार करने के लिये आप ही नारायण ऋषि के रूप में तपस्या कर रहे हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। एकरस अनन्त! आप कुछ दिनों तक मुनिमण्डली के साथ हमारे यहाँ निवास कीजिये और अपने चरणों की धूल से इस निमिवंश को पवित्र कीजिये’।

परीक्षित! सबके जीवनदाता भगवान श्रीकृष्ण राजा बहुलाश्व की यह प्रार्थना स्वीकार करके मिथिलावासी नर-नारियों का कल्याण करते हुए कुछ दिनों तक वहीं रहे। प्रिय परीक्षित! जैसे राजा बहुलाश्व भगवान श्रीकृष्ण और मुनि-मण्डली के पधारने पर आनन्दमग्न हो गये थे, वैसे ही श्रुतदेव ब्राह्मण भगवान श्रीकृष्ण और मुनियों को अपने घर आया देखकर आनन्द विह्वल हो गये; वे उन्हें नमस्कार करके अपने वस्त्र उछाल-उछालकर नाचने लगे। श्रुतदेव ने चटाई, पीढ़े और कुशासन बिछाकर उन पर भगवान श्रीकृष्ण और मुनियों को बैठाया, स्वागत-भाषण आदि के द्वारा उनका अभिनन्दन किया तथा अपनी पत्नी के साथ बड़े आनन्द से सबके पाँव पखारे। परीक्षित! महान् सौभाग्यशाली श्रुतदेव ने भगवान और ऋषियों के चरणोदक से अपने घर और कुटुम्बियों को सींच दिया। इस समय उनके सारे मनोरथ पूर्ण हो गये थे। वे हर्षातिरेक से मतवाले हो रहे थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षडशीतितम अध्याय श्लोक 41-51 का हिन्दी अनुवाद)

तदनन्तर उन्होंने फल, गन्ध, खस से सुवासित निर्मल एवं मधुर जल, सुगन्धित मिट्टी, तुलसी, कुश, कमल आदि अनायास-प्राप्त पूजा-सामग्री और सत्त्वगुण बढ़ाने वाले अन्न से सबकी आराधना की। उस समय श्रुतदेव जी मन-ही-मन तर्कना करने लगे कि ‘मैं तो घर-गृहस्थी के अँधेरे कूएँ में गिरा हुआ हूँ, अभागा हूँ; मुझे भगवान श्रीकृष्ण और उनके निवासस्थान ऋषि-मुनियों का, जिनके चरणों की धूल ही समस्त तीर्थों को तीर्थ बनाने वाली है, समागम कैसे प्राप्त हो गया?’

जब सब लोग आतिथ्य स्वीकार करके आराम से बैठ गये, तब श्रुतदेव अपने स्त्री-पुत्र तथा अन्य सम्बन्धियों के साथ उनकी सेवा में उपस्थित हुए। वे भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का स्पर्श करते हुए कहने लगे।

श्रुतदेव ने कहा ;- प्रभो! आप व्यक्त-अव्यक्तरूप प्रकृति और जीवों से परे पुरुषोत्तम हैं। मुझे आपने आज ही दर्शन दिया हो, ऐसी बात नहीं है। आप तो तभी से सब लोगों से मिले हुए हैं, जब से आपने अपनी शक्तियों के द्वारा इस जगत् की रचना करके आत्मसत्ता के रूप में इसमें प्रवेश किया है। जैसे सोया हुआ पुरुष स्वप्नावस्था में अविद्यावश मन-ही-मन स्वप्न जगत् की सृष्टि कर लेता है और उसमें स्वयं उपस्थित होकर अनेक रूपों में अनेक कर्म करता हुआ प्रतीत होता है, वैसे ही आपने अपने में ही अपनी माया से जगत् की रचना कर ली है और अब इसमें प्रवेश करके अनेकों रूपों से प्रकाशित हो रहे हैं। जो लोग सर्वदा आपकी लीला कथा का श्रवण-कीर्तन तथा आपकी प्रतिमाओं का अर्चन-वन्दन करते हैं और आपस में आपकी ही चर्चा करते हैं, उनका हृदय शुद्ध हो जाता है और आप उसमें प्रकाशित हो जाते हैं। जिन लोगों का चित्त लौकिक-वैदिक आदि कर्मों की वासना से बहिर्मुख हो रहा है, उनके हृदय में रहने पर भी आप उनसे बहुत दूर हैं। किन्तु जिन लोगों ने आपके गुणगान से अपने अन्तःकरण को सद्गुणसम्पन्न बना दिया है, उनके लिये चित्तवृत्तियों से अग्राह्य होने पर भी आप अत्यन्त निकट हैं।

प्रभो! जो लोग आत्मतत्त्व को जानने वाले हैं, उनके आत्मा के रूप में ही आप स्थित हैं और जो शरीर आदि को ही अपना आत्मा मान बैठे हैं, उनके लिये आप अनात्मा को प्राप्त होने वाली मृत्यु के रूप में हैं। आप महतत्त्व आदि कार्यद्रव्य और प्रकृति रूप कारण के नियामक हैं- शासक हैं। आपकी माया आपकी अपनी दृष्टि पर पर्दा नहीं डाल सकती, किन्तु उसने दूसरों की दृष्टि को ढक रखा है। आपको मैं नमस्कार करता हूँ।

स्वयंप्रकाश प्रभो! हम आपके सेवक हैं। हमें आज्ञा दीजिये की हम आपकी क्या सेवा करें? नेत्रों के द्वारा आपका दर्शन होने तक ही जीवों के क्लेश रहते हैं। आपके दर्शन में ही समस्त क्लेशों की परिसमाप्ति है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! शरणागत-भयहारी भगवान श्रीकृष्ण ने श्रुतदेव की प्रार्थना सुनकर अपने हाथ से उनका हाथ पकड़ लिया और मुसकराते हुए कहा। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा- प्रिय श्रुतदेव! ये बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तुम पर अनुग्रह करने के लिये ही यहाँ पधारे हैं। ये अपने चरणकमलों की धूल से लोगों और लोकों को पवित्र करते हुए मेरे साथ विचरण कर रहे हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षडशीतितम अध्याय श्लोक 52-59 का हिन्दी अनुवाद)

देवता, पुण्यक्षेत्र और तीर्थ आदि तो दर्शन, स्पर्श, अर्चन आदि के द्वारा धीरे-धीरे बहुत दिनों में पवित्र करते हैं; परन्तु संत पुरुष अपनी दृष्टि से ही सबको पवित्र कर देते हैं। यही नहीं; देवता आदि में जो पवित्र करने की शक्ति है, वह भी उन्हें संतों की दृष्टि से ही प्राप्त होती है।

श्रुतदेव! जगत् में ब्राह्मण जन्म से ही सब प्राणियों में श्रेष्ठ है। यदि वह तपस्या, विद्या, सन्तोष और मेरी उपासना- मेरी भक्ति से युक्त हो, तब तो कहना ही क्या है।

मुझे अपना यह चतुर्भुजरूप भी ब्राह्मणों की अपेक्षा अधिक प्रिय नहीं है। क्योंकि ब्राह्मण सर्ववेदमय है और मैं सर्वदेवमय हूँ। दुर्बुद्धि मनुष्य इस बात को न जानकर केवल मूर्ति आदि में ही पूज्यबुद्धि रखते हैं और गुणों में दोष निकालकर मेरे स्वरूप जगद्गुरु ब्राह्मण का, जो कि उनका आत्मा ही है, तिरस्कार करते हैं।

ब्राह्मण मेरा साक्षात्कार करके अपने चित्त में यह निश्चय कर लेता है कि यह चराचर जगत्, इसके सम्बन्ध की सारी भावनाएँ और इसके कारण प्रकृति-महतत्त्वादि सब-के-सब आत्मस्वरूप भगवान के ही रूप हैं। इसीलिए श्रुतदेव! तुम इन ब्रह्मर्षियों को मेरा ही स्वरूप समझकर पूरी श्रद्धा से इनकी पूजा करो। यदि तुम ऐसा करोगे, तब तो तुमने साक्षात् अनायास ही मेरा पूजन कर लिया; नहीं तो बड़ी-बड़ी बहुमूल्य सामग्रियों से ही मेरी पूजा नहीं हो सकती।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण का यह आदेश प्राप्त करके श्रुतदेव ने भगवान श्रीकृष्ण और ब्रह्मर्षियों की एकात्मभाव से आराधना की तथा उनकी कृपा से वे भगवत्स्वरूप को प्राप्त हो गये। राजा बहुलाश्व ने भी वही गति प्राप्त की।

प्रिय परीक्षित! जैसे भक्त भगवान की भक्ति करते हैं, वैसे ही भगवान भी भक्तों की भक्ति करते हैं। वे अपने दोनों भक्तों को प्रसन्न करने के लिये कुछ दिनों तक मिथिलापुरी में रहे और उन्हें साधु पुरुषों के मार्ग का उपदेश करके वे द्वारका लौट आये।


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【सतासीवाँ अध्याय】८७

                                  "वेदस्तुति"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितम अध्याय श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! ब्रह्म कार्य और कारण से सर्वथा परे हैं। सत्त्व, रज और तम- ये तीनों गुण उसमें हैं ही नहीं। मन और वाणी से संकेत रूप में भी उसका निर्देश नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर समस्त श्रुतियों का विषय गुण ही है। (वे जिस विषय का वर्णन करती है उसके गुण, जाति, क्रिया अथवा रूढ़ि का ही निर्देश करती हैं) ऐसी स्थिति में श्रुतियाँ निर्गुण ब्रह्म का प्रतिपादन किस प्रकार करती हैं? क्योंकि निर्गुण वस्तु का स्वरूप तो उनकी पहुँच परे है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! (भगवान सर्वशक्तिमान् और गुणों के निधान हैं। श्रुतियाँ स्पष्टतः सगुण का ही निरूपण करती हैं, परन्तु विचार करने पर उनका तात्पर्य निगुण ही निकलता है। विचार करने के लिये ही) भगवान ने जीवों के लिये बुद्धि, इन्द्रिय, मन और प्राणों की सृष्टि की है। इनके द्वारा वे स्वेच्छा से अर्थ, धर्म और काम अथवा मोक्ष का अर्जन कर सकते हैं (प्राणों के द्वारा जीवन-धारण, श्रवणादि इन्द्रियों के द्वारा महावाक्य आदि का श्रवण, मन के द्वारा मनन और बुद्धि के द्वारा निश्चय करने पर श्रुतियों के तात्पर्य निर्गुण स्वरूप का साक्षात्कार हो सकता है। इसलिए श्रुतियाँ सगुण का प्रतिपादन करने पर भी वस्तुतः निर्गुणपरक हैं)। ब्रह्म का प्रतिपादन करने वाली उपनिषद का यही स्वरूप है। इसे पूर्वजों के भी पूर्वज सनकादि ऋषियों ने आत्मनिश्चय के द्वारा धारण किया है। जो भी मनुष्य इसे श्रद्धापूर्वक धारण करता है, वह बन्धन के कारण समस्त उपाधियों- अनात्मभावों से मुक्त होकर अपने परम कल्याणस्वरूप परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।

इस विषय में मैं तुम्हें गाथा सुनाता हूँ। उस गाथा के साथ स्वयं भगवान नारायण का सम्बन्ध है। वह गाथा देवर्षि नारद और ऋषिश्रेष्ठ नारायण का संवाद है।

एक समय की बात है, भगवान के प्यारे भक्त देवर्षि नारद जी विभिन्न लोकों में विचरण करते हुए सनातन ऋषि भगवान नारायण का दर्शन करने के लिये बदरिकाश्रम गये।

भगवान नारायण मनुष्यों के अभ्युदय (लौकिक कल्याण) और परम निःश्रेयस (भगवत्स्वरूप अथवा मोक्ष की प्राप्ति) के लिये इस भारत वर्ष में कल्प के प्रारम्भ से ही धर्म, ज्ञान और संयम के साथ महान् तपस्या कर रहे हैं। परीक्षित! एक दिन वे कलापग्रामवासी सिद्ध ऋषियों के बीच में बैठे हुए थे। उस समय नारद जी ने उन्हें प्रणाम करके बड़ी नम्रता से यही प्रश्न पूछा, जो तुम मुझसे पूछ रहे हो। भगवान नारायण ने ऋषियों की उस भरी सभा में नारद जी को उनके प्रश्न का उत्तर दिया और वह कथा सुनायी, जो पूर्वकालीन जनलोकनिवासियों में परस्पर वेदों के तात्पर्य और ब्रह्म के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार करते समय कही गयी थी।

भगवान नारायण ने कहा ;- नारद जी! प्राचीन काल की बात है। एक बार जनलोक में वहाँ रहने वाले ब्रह्मा के मानस पुत्र नैष्ठिक ब्रह्मचारी सनक, सनन्दन, सनातन आदि परमर्षियों का ब्रह्मसत्र (ब्रह्मविषयक विचार या प्रवचन) हुआ था। उस समय तुम मेरी श्वेतद्वीपाधिपति अनिरुद्ध-मूर्ति का दर्शन करने के लिये श्वेतद्वीप चले गये थे। उस समय वहाँ उस ब्रह्म के सम्बन्ध बड़ी ही सुन्दर चर्चा हुई थी, जिसके विचय में श्रुतियाँ भी मौन धारण कर लेतीं हैं, स्पष्ट वर्णन न करके तात्पर्यरूप से लक्षित कराती हुई उसी में सो जाती हैं। उस ब्रह्मसत्र में यही प्रश्न उपस्थित किया गया था, जो तुम मुझसे पूछ रहे हो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितम अध्याय श्लोक 11-16 का हिन्दी अनुवाद)

सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार- ये चारों भाई शास्त्रीय ज्ञान, तपस्या और शील-स्वभाव में समान हैं। उन लोगों की दृष्टि में शत्रु, मित्र और उदासीन एक से हैं। फिर ही उन्होंने अपने में से सनन्दन को तो वक्ता बना लिया और शेष भाई सुनने के लिये इच्छुक बनकर बैठ गये।

सनन्दन जी ने कहा ;- जिस प्रकार प्रातःकाल होने पर सोते हुए सम्राट् को जगाने के लिये अनुजीवी वंदीजन उसके पास आते हैं और सम्राट् के पराक्रम तथा सुयश का गान करके उसे जगाते हैं, वैसे ही जब परमात्मा अपने बनाये हुए सम्पूर्ण जगत् को अपने में लीन करके अपनी शक्तियों के सहित सोये रहते हैं; तब प्रलय के अन्त में श्रुतियाँ उनका प्रतिपादन करने वाले वचनों से उन्हें इस प्रकार जगाती हैं।

श्रुतियाँ कहती हैं ;- अजित! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं, आप पर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। आपकी जय हो, जय हो। प्रभो! आप स्वभाव से ही समस्त ऐश्वर्यों से पूर्ण हैं, इसलिए चराचर प्राणियों को फँसाने वाली माया ने दोष के लिये- जीवों के आनन्दादिमय सहज स्वरूप का आच्छादन करके उन्हें बन्धन में डालने के लिये ही सत्त्वादि गुणों को ग्रहण किया है। जगत में जितनी भी साधना, ज्ञान, क्रिया आदि शक्तियाँ हैं, उन सबको जगाने वाले आप ही हैं। इसलिए आपके मिटाये बिना यह माया मिट नहीं सकती। (इस विषय में यदि प्रमाण पूछा जाये, तो आपकी श्वासभूता श्रुतियाँ ही- हम ही प्रमाण हैं।) यद्यपि हम आपका स्वरूपतः वर्णन करने में असमर्थ हैं, परन्तु जब कहीं आप माया के द्वारा जगत् की सृष्टि करके सगुण हो जाते हैं या उसको निषेध करके स्वरूपस्थिति की लीला करते हैं अथवा अपना सच्चीदानन्दस्वरूप श्रीविग्रह प्रकट करके क्रीड़ा करते हैं, तभी हम यत्किंचित् आपका वर्णन करने में समर्थ होती है।

इसमें सन्देह नहीं कि हमारे द्वारा इन्द्र, वरुण आदि देवताओं का भी वर्णन किया जाता है, परन्तु हमारे (श्रुतियों के) सारे मन्त्र अथवा सही मन्त्रदृष्टा ऋषि प्रतीत होने वाले इस सम्पूर्ण जगत् को ब्रह्मस्वरूप ही अनुभव करते हैं। क्योंकि जिस समय यह सारा जगत् नहीं रहता, उस समय भी आप बच रहते हैं। जैसे घट, शराव (मिट्टी का प्याला- कसोरा) आदि सभी विकार मिट्टी से ही उत्पन्न और उसी में लीन होते हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति और प्रलय आप में ही होती है। तब क्या आप पृथ्वी के समान विकारी हैं? नहीं-नहीं, आप तो एकरस- निर्विकार हैं। इसी से तो यह जगत् आप में उत्पन्न नहीं, प्रतीत है। इसलिए जैसी घट, शराव आदि का वर्णन भी मिट्टी का ही वर्णन है, वैसे ही इन्द्र, वरुण आदि देवताओं का वर्णन भी आपका ही वर्णन है। यही कारण है कि विचारशील ऋषि, मन से जो कुछ सोचा जाता है और वाणी से जो कुछ कहा जाता है, उसे आप में ही स्थित, आपका ही स्वरूप देखते हैं। मनुष्य अपना पैर चाहे कहीं भी रखे- ईंट, पत्थर या काठ पर- होगा वह पृथ्वी पर ही; क्योंकि वे सब पृथ्वीस्वरूप ही हैं। इसलिए हम चाहे जिस नाम या जिस रूप का वर्णन करें, वह आपका ही नाम, आपका ही रूप है।

भगवन्! लोग सत्त्व, रज, तम- इन तीनों गुणों की माया से बने हुए अच्छे-बुरे भावों या अच्छी-बुरी क्रियाओं में उलझ जाया करते हैं, परन्तु आप तो उस मायानटी के स्वामी, उसको नचाने वाले हैं। इसीलिए विचारशील पुरुष आपकी लीला कथा के अमृतसागर में गोते लगाते रहते हैं और इस प्रकार अपने सारे पाप-ताप को धो-बहा देते हैं। क्यों न हो, आपकी लीला-कथा सभी जीवों के मायामल को नष्ट करने वाली जो है। पुरुषोत्तम! जिन महापुरुषों ने आत्मज्ञान के द्वारा अन्तःकरण के राग-द्वेष आदि और शरीर के कालकृत जरा-मरण आदि दोष मिटा दिये हैं और निरन्तर आपके उस स्वरूप की अनुभूति में मग्न रहते हैं, जो अखण्ड आनन्दस्वरूप है, उन्होंने अपने पाप-तापों को सदा के लिये शान्त, भस्म कर दिया है- इसके विषय में तो कहना ही क्या है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितम अध्याय श्लोक 17-20 का हिन्दी अनुवाद)

भगवन्! प्राणधारियों के जीवन की सफलता इसी में है कि वे आपका भजन-सेवन करें, आपकी आज्ञा का पालन करें; यदि वे ऐसा नहीं करते तो उनका जीवन व्यर्थ है और उनके शरीर में श्वास का चलना ठीक वैसा ही है, जैसा लुहार की धौंकनी में हवा का आना-जाना। महत्तत्त्व, अहंकार आदि ने आपके अनुग्रह से- आपके उनमें प्रवेश करने पर ही इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि की है। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय- इन पाँचों केशों में पुरुषरूप से रहने वाले, उनमें ‘मैं-मैं’ की स्फूर्ति करने वाले भी आप ही हैं। आपके ही अस्तित्व से उन कोशों के अस्तित्व का अनुभव होता है और उनके न रहने पर भी अन्तिम अवधिरूप से आप विराजमान रहते हैं। इस प्रकार सबमें अन्वित और सबकी अवधि होने पर भी आप असंग ही हैं। क्योंकि वास्तव में जो कुछ वृत्तियों के द्वारा अस्ति अथवा नास्ति के रूप में अनुभव होता है, उन समस्त कार्य-कारणों से आप परे हैं। ‘नेति-नेति’ के द्वारा इन सबका निषेध हो जाने पर भी आप ही शेष रहते हैं, क्योंकि आप उस निषेध के भी साक्षी हैं और वास्तव में आप ही एकमात्र सत्य हैं (इसलिये आपके भजन के बिना जीव का जीवन व्यर्थ ही है, क्योंकि वह इस महान् सत्य से वंचित है)

ऋषियों ने आपकी प्राप्ति के लिये अनेकों मार्ग माने हैं। उनमें जो स्थल दृष्टि वाले हैं, वे मणिपूरक चक्र में अग्निरूप से आपकी उपासना करते हैं। अरुणवंश के ऋषि समस्त नाड़ियों के निकलने के स्थान हृदय में आपके परम सूक्ष्मस्वरूप दहर ब्रह्म की उपासना करते हैं। प्रभो! हृदय से ही आपको प्राप्त करने का श्रेष्ठ मार्ग सुषुम्ना नाड़ी ब्रह्मरन्ध्र तक गयी हुई है। जो पुरुष उस ज्योतिर्मय मार्ग को प्राप्त कर लेता है और उससे ऊपर की ओर बढ़ता है, वह फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं पड़ता।

भगवन्! आपने ही देवता, मनुष्य और पशु-पक्षी आदि योनियाँ बनायी हैं। सदा-सर्वत्र सब रूपों में आप हैं ही, इसलिए कारणरूप से प्रवेश न करने पर भी आप ऐसे जान पड़ते हैं, मानो उसमें प्रविष्ट हुए हों। साथ ही विभिन्न आकृतियों का अनुकरण करके कहीं उत्तम, तो कहीं अधमरूप से प्रतीत होते हैं, जैसे आग छोटी-बड़ी लकड़ियों और कर्मों के अनुसार प्रचुर अथवा अल्प परिमाण में या उत्तम-अधमरूप में प्रतीत होती है। इसलिए संत पुरुष लौकिक-पारलौकिक कर्मों की दूकानदारी से, उनके फलों से विरक्त हो जाते हैं और अपनी निर्मल बुद्धि से सत्य-असत्य, आत्मा-अनात्मा को पहचानकर जगत् के झूठे रूपों में नहीं फँसते; आपके सर्वत्र एकरस, समभाव से स्थित सत्यस्वरूप का साक्षात्कार करते हैं।

प्रभो! जीव जिन शरीरों में रहता है, वे उसके कर्म के द्वारा निर्मित होते हैं और वास्तव में उन शरीरों के कार्य-कारणरूप आवरणों से वह रहित है, क्योंकि वस्तुतः उन आवरणों की सत्ता ही नहीं है। तत्त्वज्ञानी पुरुष ऐसा कहते हैं कि समस्त शक्तियों को धारण करने वाले आपका ही वह स्वरूप है। स्वरूप होने के कारण अंश न होने पर भी उसे अंश कहते हैं और निर्मित न होने पर भी निर्मित कहते हैं। इसी से बुद्धिमान पुरुष जीव के वास्तविक स्वरूप पर विचार करके परम विश्वास के साथ आपके चरणकमलों की उपासना करते हैं। क्योंकि आपके चरण ही समस्त वैदिक कर्मों के समर्पण स्थान और मोक्षस्वरूप हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितम अध्याय श्लोक 21-25 का हिन्दी अनुवाद)

भगवन्! परमात्मतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। उसी का ज्ञान कराने के लिये आप विविध प्रकार के अवतार ग्रहण करते हैं और उनके द्वारा ऐसी लीला करते हैं, जो अमृत के महासागर से भी मधुर और मादक होती है। जो लोग उसका सेवन करते हैं, उनकी सारी थकावट दूर हो जाती है, वे परमानन्द में मग्न हो जाते हैं। कुछ प्रेमी भक्त तो ऐसे होते हैं, जो आपकी लीला-कथाओं को छोड़कर मोक्ष की भी अभिलाषा नहीं करते- स्वर्ग आदि की तो बात ही क्या है। वे आपके चरणकमलों के प्रेमी परमहंसों के सत्संग में, जहाँ आपकी कथा होती है, इतना सुख मानते हैं कि उसके लिये इस जीवन में प्राप्त अपनी घर-गृहस्थी का भी परित्याग कर देते हैं।

प्रभो! यह शरीर आपकी सेवा का साधन होकर जब आपके पथ का अनुरागी हो जाता है, तब आत्मा, हितैषी, सुहृद और प्रिय व्यक्ति के समान आचरण करता है। आप जीव के सच्चे हितैषी, प्रियतम और आत्मा ही हैं और सदा-सर्वदा जीव को अपनाने के लिये तैयार भी रहते हैं। इतनी सुगमता होने पर तथा अनुकूल शरीर को पाकर भी लोग संख्यभाव आदि के द्वारा आपकी उपासना नहीं करते, आपमें नहीं रमते, बल्कि इस विनाशी आर असत् शरीर तथा उसके सम्बन्धियों में ही रम जाते हैं, उन्हीं की उपासना करने लगते हैं और इस प्रकार अपने आत्मा का हनन करते हैं, उसे अधोगति में पहुँचाते हैं। भला, यह कितने कष्ट की बात है। इसका फल यह होता है कि उनकी सारी वृत्तियाँ, सारी वासनाएँ शरीर आदि में लग जाती हैं और फिर उनके अनुसार उनको पशु-पक्षी आदि के न जाने कितने बुरे-बुरे शरीर ग्रहण करने पड़ते हैं और इस प्रकार अत्यन्त भयावह जन्म-मृत्युरूप संसार मीन भटकना पड़ता है।

प्रभो! बड़े-बड़े विचारशील योगी-यति अपने प्राण, मन और इन्द्रियों को वश में करके दृढ़ योगाभ्यास के द्वारा हृदय में आपकी उपासना करते हैं। परन्तु आश्चर्य की बात तो यह है कि उन्हें जिस पद की प्राप्ति होती है, उसी की प्राप्ति उन शत्रुओं को भी हो जाती है, जो आपसे वैर-भाव रखते हैं। क्योंकि स्मरण तो वे भी करते ही हैं। कहाँ तक कहें, भगवन्! वे स्त्रियाँ, जो अज्ञानवश आपको परिच्छिन्न मानती हैं और आपकी शेषनाग के समान मोटी, लम्बी तथा सुकुमार भुजाओं के प्रति कामभाव से आसक्त रहती हैं, जिस परम पद को प्राप्त करती हैं, वही पद हम श्रुतियों को भी प्राप्त होता है- यद्यपि हम आपको सदा-सर्वदा एकरस अनुभव करती हैं और आपके चरणारविन्द का मकरन्द रस पान करती रहती है। क्यों न हो, आप समदर्शी जो हैं। आपकी दृष्टि में उपासक के परिच्छिन्न या अपरिच्छिन्न भाव में कोई अन्तर नहीं है।

भगवन्! आप अनादि और अनन्त हैं। जिसका जन्म और मृत्यु काल से सीमित है, वह भला, आपको कैसे जान सकता है। स्वयं ब्रह्माजी, निवृत्तिपरायण सनकादि तथा प्रवृत्तिपरायण मरीचि आदि भी बहुत पीछे आपसे ही उत्पन्न हुए हैं। जिस समय आप सबको समेटकर सो जाते हैं, उस समय ऐसा कोई साधन नहीं रह जाता, जिससे उनके साथ ही सोया हुआ जीव आपको जान सके। क्योंकि उस समय न तो आकाशादि स्थूल जगत् रहता है और न तो महत्तत्त्वादि सूक्ष्म जगत्। इन दोनों से बने हुए शरीर और उनके निमित्त क्षण-मुहूर्त आदि काल के अंग भी नहीं रहते। उस समय कुछ भी नहीं रहता। यहाँ तक की शास्त्र भी आपमें ही समा जाते हैं (ऐसी अवस्था में आपको जानने की चेष्टा न करके आपका भजन ही सर्वोत्तम मार्ग है।)

प्रभो! कुछ लोग मानते हैं कि असत् जगत् की उत्पत्ति होती है और कुछ लोग कहते हैं कि सत्-रूप दुःखों का नाश होने पर मुक्ति मिलती है। दूसरे लोग आत्मा को अनेक मानते हैं, तो कई लोग कर्म के द्वारा प्राप्त होने वाले लोक और परलोकरूप व्यवहार को सत्य मानते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि ये सभी बातें भ्रममूलक हैं और वे आरोप करके ही ऐसा उपदेश करते हैं। पुरुष त्रिगुणमय है- इस प्रकार भेदभाव केवल अज्ञान से ही होता है और आप अज्ञान से सर्वथा परे हैं। इसलिये ज्ञानस्वरूप आप में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितम अध्याय श्लोक 26-29 का हिन्दी अनुवाद)

यह त्रिगुणात्मक जगत् मन की कल्पना मात्र है। केवल यही नहीं, परमात्मा और जगत से पृथक प्रतीत होने वाला पुरुष भी कल्पना मात्र ही है। इस प्रकार वास्तव में असत् होने पर भी अपने सत्य अधिष्ठान आपकी सत्ता के कारण यह सत्य-सा प्रतीत हो रहा है। इसलिये भोक्ता, भोग्य और दोनों के सम्बन्ध को सिद्ध करने वाली इन्द्रियाँ आदि जितना भी जगत् है, सबको आत्मज्ञानी पुरुष आत्मरूप से सत्य ही मानते हैं। सोने से बने हुए कड़े, कुण्डल आदि स्वर्णरूप ही तो हैं; इसलिए उनको इस रूप में जानने वाला पुरुष उन्हें छोड़ता नहीं, वह समझता है कि यह भी सोना है। इसी प्रकार यह जगत् आत्मा में ही कल्पित, आत्मा से ही व्याप्त है; इसलिये आत्मज्ञानी पुरुष इसे आत्मरूप ही मानते हैं।

भगवन्! जो लोग यह समझते हैं कि आप समस्त प्राणियों और पदार्थों के अधिष्ठान हैं, सबके आधार हैं और सर्वात्मभाव से आपका भजन-सेवन करते हैं, वे मृत्यु को तुच्छ समझकर उसके सिर पर लात मारते हैं अर्थात् उस पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। जो लोग आपसे विमुख हैं, वे चाहे जितने बड़े विद्वान हों, उन्हें आप कर्मों का प्रतिपादन करने वाली श्रुतियों से पशुओं के समान बाँध लेते हैं। इसके विपरीत जिन्होंने आपके साथ प्रेम का सम्बन्ध जोड़ रखा है, वे न केवल अपने को बल्कि दूसरों को भी पवित्र कर देते हैं- जगत के बन्धन से छुड़ा देते हैं। ऐसा सौभाग्य भला, आपसे विमुख लोगों को कैसे प्राप्त हो सकता है।

प्रभो! आप मन, बुद्धि और इन्द्रिय आदि करणों से- चिन्तन, कर्म आदि के साधनों से सर्वथा रहित हैं। फिर भी आप समस्त अन्तःकरण और बाह्य करणों की शक्तियों से सदा-सर्वदा सम्पन्न हैं। आप स्वतः सिद्ध ज्ञानवान्, स्वयंप्रकाश हैं; अतः कोई काम करने के लिये आपको इन्द्रियों की आवश्यकता नहीं है। जैसे छोटे-छोटे राजा अपनी-अपनी प्रजा से कर लेकर स्वयं अपने सम्राट् को कर देते हैं, वैसे ही मनुष्यों के पूज्य देवता और देवताओं के पूज्य ब्रह्मा आदि भी अपने अधिकृत प्राणियों से पूजा स्वीकार करते हैं और माया के अधीन होकर आपकी पूजा करते हैं। वे इस प्रकार आपकी पूजा करते हैं कि आपने जहाँ जो कर्म करने के लिये उन्हें नियुक्त कर दिया है, वे आपसे भयभीत रहकर वहीं वह काम करते रहते हैं।

नित्यमुक्त! आप मायातीत हैं, फिर भी जब अपने ईक्षण मात्र से- संकल्प मात्र के साथ क्रीड़ा करते हैं, तब आपका संकेत पाते ही जीवों के सूक्ष्म शरीर और उनके सुप्त कर्म-संस्कार जग जाते हैं और चराचर प्राणियों की उत्पत्ति होती है। प्रभो! आप परम दलालु हैं। आकाश के समान सबमें सम होने के कारण न तो कोई आपका अपना है और न तो पराया। वास्तव में तो आपके स्वरूप में मन और वाणी की गति ही नहीं है। आपमें कार्य कारणरूप प्रपंच का अभाव होने से बाह्य-दृष्टि से आप शून्य के समान ही जान पड़ते हैं, परन्तु उस दृष्टि के भी अधिष्ठान होने के कारण आप परम सत्य हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितम अध्याय श्लोक 30-32 का हिन्दी अनुवाद)

भगवन्! आप नित्य एकरस हैं। यदि जीव असंख्य हों और सब-के-सब नित्य एवं सर्वव्यापक हों, तब तो वे आपके समान ही हो जायँगे; उस हालत में वे शासित हैं और आप शासक- यह बात बन ही नहीं सकती, और तब आप उनका नियन्त्रण कर ही नहीं सकते। उनका नियन्त्रण आप तभी कर सकते हैं, जब वे आपसे उत्पन्न एवं आपकी अपेक्षा न्यून हों। इसमें सन्देह नहीं है कि सब-के-सब जीव तथा इनकी एकता या विभिन्नता आपसे ही उत्पन्न हुई है। इसलिये आप उनमें कारणरूप से रहते हुए भी उनके नियामक हैं। वास्तव में आप उनमें समरूप से स्थित हैं। परन्तु यह जाना नहीं जा सकता कि आपका वह स्वरूप कैसा है। क्योंकि जो लोग ऐसा समझते हैं कि हमने जान लिया, उन्होंने वास्तव में आपको नहीं जाना; उन्होंने तो केवल अपनी बुद्धि के विषय को जाना है, जिससे आप परे हैं और साथ ही मति के द्वारा जितनी वस्तुएँ जानी जाती हैं, वे मतियों की भिन्नता के कारण भिन्न-भिन्न होती हैं; इसलिए उनकी दुष्टता, एक मत के साथ दूसरे मत का विरोध प्रत्यक्ष ही है। अतएव आपका स्वरूप समस्त मतों के परे हैं।

स्वामिन! जीव आपसे उत्पन्न होता है, यह कहने का ऐसा अर्थ नहीं है कि आप परिणाम के द्वारा जीव बनते हैं। सिद्धान्त तो यह है कि प्रकृति और पुरुष दोनों ही अजन्मा हैं। अर्थात् उनका वास्तविक स्वरूप- जो आप हैं- कभी वृत्तियों के अन्दर उतरता नहीं, जन्म नहीं लेता। तब प्राणियों का जन्म कैसे होता है? अज्ञान के कारण प्रकृति को पुरुष और पुरुष को प्रकृति समझ लेने से, एक का दूसरे के साथ संयोग हो जाने से जैसे ‘बुलबुला’ नाम की कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, परन्तु उपादान-कारण जल और निमित्त-कारण वायु के संयोग से उसकी सृष्टि हो जाती है। प्रकृति में पुरुष और पुरुष में प्रकृति का अध्याय (एक-दूसरे की कल्पना) हो जाने के कारण ही जीवों के विविध नाम और गुण रख लिये जाते हैं। अन्त में जैसे समुद्र में नदियाँ और मधु में समस्त पुष्पों के रस समा जाते हैं, वैसे ही वे सब-के-सब उपाधिरहित आप में समा जाते हैं। (इसलिये जीवों की भिन्नता और उनका पृथक् अस्तित्व आपके द्वारा नियन्त्रित है। उनकी पृथक् स्वतन्त्रता और सर्व-व्यापकता आदि वास्तविक सत्य को न जानने के कारण ही मानी जाती है)

भगवन्! सभी जीव आपकी माया से भ्रम में भटक रहे हैं, अपने को आपसे पृथक् मानकर जन्म-मृत्यु का चक्कर काट रहे हैं। परन्तु बुद्धिमान पुरुष इस भ्रम को समझ लेते हैं और सम्पूर्ण भक्तिभाव से आपकी शरण ग्रहण करते हैं, क्योंकि आप जन्म-मृत्यु के चक्कर से छुड़ाने वाले हैं। यद्यपि शीत, ग्रीष्म और वर्षा- इन तीन भागों वाला काल चक्र आपका भ्रूविलास मात्र है, वह सभी को भयभीत करता है, परन्तु वह उन्हीं को बार-बार भयभीत करता है, परन्तु वह उन्हीं को बार-बार भयभीत करता है, जो आपकी शरण नहीं लेते। जो आपके शरणागत भक्त हैं, उन्हें भला, जन्म-मृत्यु रूप संसार का भय कैसे हो सकता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितम अध्याय श्लोक 33-35 का हिन्दी अनुवाद)

अजन्मा प्रभो! जिन योगियों ने अपनी इन्द्रियों और प्राणों को वश में कर लिया है, वे भी, जब गुरुदेव के चरणों की शरण न लेकर उच्छ्रिखल एवं अत्यन्त चंचल मन-तुरंग को अपने वश में करने का प्रयत्न करते हैं, तब अपने साधनों में सफल नहीं होते। उन्हें बार-बार खेद और सैकड़ों विपत्तियों का सामना करना पड़ता है, केवल श्रम और दुःख ही उनके हाथ लगता है। उनकी ठीक वही दशा होती है, जैसी समुद्र में बिना कर्णधार की नाव पर यात्रा करने वाले व्यापारियों की होती है (तात्पर्य यह कि जो मन को वश में करना चाहते हैं, उनके लिये कर्णधार-गुरु की अनिवार्य आवश्यकता है)

भगवन्! आप अखण्ड आनन्दस्वरूप और शरणागतों के आत्मा हैं। आपके रहते स्वजन, पुत्र, देह, स्त्री, धन, महल, पृथ्वी, प्राण और रथ आदि से क्या प्रयोजन है? जो लोग इस सत्य सिद्धान्त को न जानकार स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध से होने वाले सुखों में ही रम रहे हैं, उन्हें संसार में भला, ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो सुखी कर सके। क्योंकि संसार की सभी वस्तुएँ स्वभाव से ही विनाशी हैं, एक-न-एक दिन मटियामेट हो जाने वाली हैं और तो क्या, वे स्वरूप से ही सारहीन और सत्ताहीन हैं; वे भला, क्या सुख दे सकती हैं।

भगवन्! जो ऐश्वर्य, लक्ष्मी, विद्या, जाति, तपस्या आदि के घमंड से रहित हैं, वे संतपुरुष इस पृथ्वीतल पर परम पवित्र और सबको पवित्र करने वाले पुण्यमय सच्चे तीर्थस्थान हैं। क्योंकि उनके हृदय में आपके चरणारविन्द सर्वदा विराजमान रहते हैं और यही कारण है कि संत पुरुषों का चरणामृत समस्त पापों और तापों को सदा के लिये नष्ट कर देने वाला है। भगवन्! आप नित्य-आनन्दस्वरूप आत्मा ही हैं। जो एक बार भी आपको अपना मन समर्पित कर देते हैं-आपमें मन लगा देते हैं-वे उन देह-गेहों में कभी नहीं फँसते, जो जीव के विवेक, वैराग्य, धैर्य, क्षमा और शान्ति आदि गुणों का नाश करने वाले हैं। वे तो बस, आप में ही रम जाते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितम अध्याय श्लोक 36-38 का हिन्दी अनुवाद)

भगवन्! जैसे मिट्टी से बना हुआ घड़ा मिट्टीरूप ही होता है, वैसे ही सत् से बना हुआ जगत् भी सत् ही है- यह बात युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि कारण और कार्य का निर्देश ही उनके भेद का द्योतक है। यदि केवल भेद का निषेध करने के लिये ही ऐसा कहा जा रहा हो तो पिता और पुत्र में, दण्ड और घटनाश में कार्य-कारण-भाव होने पर भी वे एक दूसरे से भिन्न हैं। इस प्रकार कार्य-कारण की एकता सर्वत्र एक-सी नहीं देखी जाती। यदि कारण-शब्द से निमित्त-कारण न लेकर केवल उपादान-कारण लिया जाये- जैसे कुण्डल का सोना- तो भी कहीं-कहीं कार्य की असत्यता प्रमाणित होती हैं; जैसे रस्सी में साँप। यहाँ उपादान-कारण के सत्य होने पर भी उसका कार्य सर्प सर्वथा असत्य है। यदि यह कहा जाये कि प्रतीत होने वाले सर्प का उपादान-कारण केवल रस्सी नहीं है, उसके साथ अविद्या का- भ्रम मेल भी है, तो यह समझना चाहिये कि अविद्या और सत् वस्तु के संयोग से ही इस जगत् की उत्पत्ति हुई है। इसलिये जैसे रस्सी में प्रतीत होने वाला सर्प मिथ्या है, वैसे ही सत् वस्तु में अविद्या के सयोग से प्रतीत होने वाला नाम-रूपात्मक जगत् भी मिथ्या है। यदि केवल व्यवहार की सिद्धि के लिये ही जगत् की सत्ता अभीष्ट हो, तो उसमें कोई आपत्ति नहीं; क्योंकि वह पारमार्थिक सत्य न होकर केवल व्यावहारिक सत्य है। यह भ्रम व्यावहारिक जगत् में माने हुए काल की दृष्टि से अनादि है; और अज्ञानीजन बिना विचार किये पूर्व-पूर्व के भ्रम से प्रेरित होकर अन्धपरम्परा से इसे मानते चले आ रहे हैं। ऐसी स्थिति में कर्मफल को सत्य बतलाने वाली श्रुतियाँ केवल उन्हीं लोगों को भ्रम में डालती हैं, जो कर्म में जड़ हो रहे हैं और यह नहीं समझते कि इनका तात्पर्य कर्मफल की नित्यता बतलाने में नहीं, बल्कि उनकी प्रशंसा करके उन कर्मों में लगाने में है।

भगवन्! वास्तविक बात तो यह है कि यह जगत् उत्पत्ति के पहले नहीं था और प्रलय के बाद नहीं रहेगा; इससे यह सिद्ध होता है कि यह बीच में भी एकरस परमात्मा में मिथ्या ही प्रतीत हो रहा है। इसी से हम श्रुतियाँ इस जगत् का वर्णन ऐसी उपमा देकर करती है कि जैसे मिट्टी में घड़ा, लोहे में शस्त्र और सोने में कुण्डल आदि नाममात्र हैं, वास्तव में मिट्टी, लोहा और सोना ही हैं, सर्वथा मिथ्या और मन की कल्पना है। इसे नासमझ मूर्ख ही सत्य मानते हैं।

भगवन्! जब जीव माया से मोहित होकर अविद्या को अपना लेता है, उस समय उसके स्वरूपभूत आनन्दादि गुण ढक जाते हैं; वह गुणजन्य वृत्तियों, इन्द्रियों और देहों में फँस जाता है तथा उन्हीं को अपना आपा मानकर उनकी सेवा करने लगता है। अब उनकी जन्म-मृत्यु में अपनी जन्म-मृत्यु मानकर उनके चक्कर में पड़ जाता है। परन्तु प्रभो! जैसे साँप अपने केंचुल से कोई सम्बन्ध नहीं रखता, उसे छोड़ देता है- वैसे ही आप माया-अविद्या से कोई सम्बन्ध नहीं रखते, उसे सदा-सर्वदा छोड़े रहते हैं। इसी से आपके सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सदा-सर्वदा आपके साथ रहते हैं। अणिमा आदि अष्टसिद्धियों से युक्त परमैश्वर्य में आपकी स्थिति है। इसी से आपका ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य अपरिमित है, अनन्त है; वह देश, काल और वस्तुओं की सीमा से आबद्ध नहीं है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितम अध्याय श्लोक 39-44 का हिन्दी अनुवाद)

भगवन्! यदि मनुष्य योगी-यति होकर भी अपने हृदय की विषय-वासनाओं को उखाड़ नहीं फेंकते तो उन असाधकों के लिये आप हृदय में रहने पर भी वैसे ही दुर्लभ हैं, जैसे कोई अपने गले में मणि पहले हुए हो, परन्तु उसकी याद न रहने पर उसे ढूँढता फिरे इधर-उधर। जो साधक अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने में ही लगे रहते हैं, विषयों से विरक्त नहीं होते, उन्हें जीवन भर और जीवन के बाद भी दुःख-ही-दुःख भोगना पड़ता है। क्योंकि वे साधक नहीं, दम्भी हैं। एक तो अभी उन्हें मृत्यु से छुटकारा नहीं मिला है, लोगों को रिझाने, धन कमाने आदि के क्लेश उठाने पड़ रहे हैं, और दूसरे आपका स्वरूप न जानने के कारण अपने धर्म-कर्म का उल्लंघन करने से परलोक में नरक आदि प्राप्त होने का भय भी बना ही रहता है।

भगवन्! आपके वास्तविक स्वरूप को जानने वाला पुरुष आपके दिये हुए पुण्य और पाप-कर्मों के फल सुख एवं दुःखों को नहीं जानता, नहीं भोगता; वह भोग्य और भोक्तापन के भाव से ऊपर उठ जाता है। उस समय विधि-निषेध के प्रतिपादन शास्त्र भी उससे निवृत्त हो जाते हैं; क्योंकि वे देहाभिमानियों के लिये हैं। उनकी ओर तो उसका ध्यान ही नहीं जाता। जिसे आपके स्वरूप का ज्ञान नहीं हुआ है, वह भी यदि प्रतिदिन आपकी प्रत्येक युग में की हुई लीलाओं, गुणों का गान सुन-सुनकर उनके द्वारा आपको अपने हृदय में बैठा लेता है तो अनन्त, अचिन्त्य, दिव्यगुण गणों के निवासस्थान प्रभो! आपका वह प्रेमी भक्त भी पाप-पुण्यों के फल सुख-दुःखों और विधि-निषेधों से अतीत हो जाता है। क्योंकि आप ही उनकी मोक्षस्वरूप गति हैं। (परन्तु इन ज्ञानी और प्रेमियों का छोड़कर और सभी शास्त्र बन्धन में हैं तथा वे उसका उल्लंघन करने पर दुर्गति को प्राप्त होते हैं)

भगवन्! स्वर्गादि लोकों के अधिपति इन्द्र, ब्रह्मा प्रभृति भी आपकी थाह-आपका पार न पा सके; और आश्चर्य की बात तो यह है कि आप भी उसे नहीं जानते। क्योंकि जब अन्त है ही नहीं, तब कोई जानेगा कैसे? प्रभो! जैसे आकाश में हवा से धूल के नन्हें-नन्हें कण उड़ते रहते हैं, वैसे आप में काल के वेग से अपने से उत्तरोंत्तर दस गुने सात आवरणों के सहित असंख्य ब्राह्मण एक साथ घूमते रहते हैं। तब भला, आपकी सीमा कैसे मिले। हम श्रुतियाँ भी आपके स्वरूप का साक्षात् वर्णन नहीं कर सकतीं, आपके अतिरिक्त वस्तुओं का निषेध करते-करते अन्त में अपना भी निषेध कर देती हैं और आपमें ही अपनी सत्ता खोकर सफल हो जाती है।

भगवान नारायण ने कहा ;- देवर्षे! इस प्रकार सनकादि ऋषियों ने आत्मा और ब्रह्म की एकता बतलाने वाला उपदेश सुनकर आत्मस्वरूप को जाना और नित्य सिद्ध होने पर भी इस उपदेश से कृतकृत्य-से होकर उन लोगों ने सनन्दन की पूजा की।

नारद! सनकादि ऋषि-सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए थे, अतएव वे सबके पूर्वज हैं। उन आकाशगामी महात्माओं ने इस प्रकार समस्त वेद, पुराण और उपनिषदों का रस निचोड़ लिया है, यह सबका सार-सर्वस्व है। देवर्षे! तुम भी उन्हीं के समान ब्रह्मा के मानस-पुत्र हो-उनकी ज्ञान-सम्पत्ति के उत्तराधिकारी हो। तुम भी श्रद्धा के साथ इस ब्रह्मात्मविद्या को धारण करो और स्वच्छन्द भाव से पृथ्वी में विचरण करो। यह विद्या मनुष्यों की समस्त वासनाओं को भस्म कर देने वाली है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितम अध्याय श्लोक 45-50 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! देवर्षि नारद बड़े संयमी, ज्ञानी, पूर्णकाम और नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं। भगवान नारायण ने उन्हें जब इस प्रकार उपदेश किया, तब उन्होंने बड़ी श्रद्धा से उसे ग्रहण किया और उनसे यह कहा।

देवर्षि नारद ने कहा ;- भगवन्! आप सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण हैं। आपकी कीर्ति परम पवित्र है। आप समस्त प्राणियों के परम कल्याण- मोक्ष के लिये कमनीय कलावतार धारण किया करते हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

परीक्षित! इस प्रकार महात्मा देवर्षि नारद आदि ऋषि भगवान नारायण को और उनके शिष्यों को नमस्कार करके स्वयं मेरे पिता श्रीकृष्णद्वैपायन के आश्रम पर गये। भगवान वेदव्यास ने उनका यथोचित सत्कार किया। वे आसन स्वीकार करके बैठ गये, इसके बाद देवर्षि नारद ने जो कुछ भगवान नारायण के मुँह से सुना था, वह सब कुछ मेरे पिताजी को सुना दिया।

राजन्! इस प्रकार मैंने तुम्हें बतलाया कि मन-वाणी से अगोचर और समस्त प्राकृत गुणों से रहित परब्रह्म परमात्मा का वर्णन श्रुतियाँ किस प्रकार करती हैं और उसमें मन का कैसे प्रवेश होता है? यही तो तुम्हारा प्रश्न था।

परीक्षित! भगवान ही इस विश्व का संकल्प करते हैं तथा उसके आदि, मध्य और अन्त में स्थित रहते हैं। वे प्रकृति और जीव दोनों के स्वामी हैं। उन्होंने ही इसकी सृष्टि करके जीव के साथ इसमें प्रवेश किया है और शरीरों का निर्माण करके वे ही उनका नियन्त्रण करते हैं। जैसे गाढ़ निद्रा- सुषुप्ति में मग्न पुरुष अपने शरीर का अनुसन्धान छोड़ देता है, वैसे ही भगवान को पाकर यह जीव माया से मुक्त हो जाता है। भगवान ऐसे विशुद्ध, केवल चिन्मात्र तत्त्व हैं कि उनमें जगत् के कारण माया अथवा प्रकृति का रत्तीभर भी अस्तित्व नहीं है। वे ही वास्तव में अभय-स्थान हैं। उनका चिन्तन निरन्तर करते रहना चाहिये।


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【अठासीवाँ अध्याय】८८

                "शिव जी का संकटमोचन"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टाशीतितम अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! भगवान शंकर ने समस्त भोगों का परित्याग कर रखा है; परन्तु देखा यह जाता है कि जो देवता, असुर अथवा मनुष्य उनकी उपासना करते हैं, वे प्रायः धनी और भोग सम्पन्न हो जाते हैं। और भगवान विष्णु लक्ष्मीपति हैं, परन्तु उनकी उपासना करने वाले प्रायः धनी और भोग सम्पन्न नहीं होते। दोनों प्रभु त्याग और भोग की दृष्टि से एक-दूसरे से विरुद्ध स्वभाव वाले हैं, परंतु उनके उपासकों को उनके स्वरूप के विपरीत फल मिलता है। मुझे इस विषय में बड़ा सन्देह है कि त्यागी की उपासना से भोग और लक्ष्मीपति की उपासना से त्याग कैसे मिलता है? मैं आपसे यह जानना चाहता हूँ।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! शिव जी सदा अपनी शक्ति से युक्त रहते हैं। वे सत्त्व आदि गुणों से युक्त तथा अहंकार के अधिष्ठाता हैं। अहंकार के तीन भेद हैं- वैकारिक, तैजस और तामस। त्रिविध अहंकार से सोलह विकार हुए- दस इन्द्रियाँ, पाँच महाभूत और एक मन। अतः इन सबके अधिष्ठातृ-देवताओं में से किसी एक की उपासना करने पर समस्त ऐश्वर्यों की प्राप्ति हो जाती है। परन्तु परीक्षित! भगवान श्रीहरि तो प्रकृति से परे स्वयं पुरुषोत्तम एवं प्राकृत गुणरहित हैं। वे सर्वज्ञ तथा सबके अन्तःकरणों के साक्षी हैं। जो उनका भजन करता है, वह स्वयं ही गुणातीत हो जाता है। परीक्षित! जब तुम्हारे दादा धर्मराज युधिष्ठिर अश्वमेध यज्ञ कर चुके, तब भगवान से विविध प्रकार के धर्मों का वर्णन सुनते समय उन्होंने भी यही प्रश्न किया था। परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण सर्वशक्तिमान् परमेश्वर हैं। मनुष्यों के कल्याण के लिये ही उन्होंने यदुवंश में अवतार धारण किया था। राजा युधिष्ठिर का प्रश्न सुनकर और उनकी सुनने की इच्छा देखकर उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक इस प्रकार उत्तर दिया था।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- राजन्! जिस पर मैं कृपा करता हूँ, उसका सब धन धीरे-धीरे छीन लेता हूँ। जब वह निर्धन हो जाता है, तब उसके सगे-सम्बन्धी उसके दुःखाकुल चित्त की परवा न करके उसे छोड़ देते हैं। फिर वह धन के लिये उद्योग करने लगता है, तब मैं उसका प्रयत्न भी निष्फल कर देता हूँ। इस प्रकार बार-बार असफल होने के कारण जब धन कमाने से उसका मन विरक्त हो जाता है, उसे दुःख समझकर वह उधर से अपना मुँह मोड़ लेता है और मेरे प्रेमी भक्तों का आश्रय लेकर उनसे मेल-जोल करता है, तब मैं उस पर अपनी अहैतुक कृपा की वर्षा करता हूँ। मेरी कृपा से उसे परम सूक्ष्म अनन्त सच्चिदानन्दस्वरूप परब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार मेरी प्रसन्नता, मेरी आराधना बहुत कठिन है। इसी से साधारण लोग मुझे छोड़कर मेरे ही दूसरे रूप अन्यान्य देवताओं की आराधना करते हैं। दूसरे देवता आशुतोष हैं। वे झटपट पिघल पड़ते हैं और अपने भक्तों को साम्राज्य-लक्ष्मी दे देते हैं। उसे पाकर वे उच्छ्रंखल, प्रमादी और उन्मत्त हो उठाते हैं और अपने वरदाता देवताओं को भी भूल जाते हैं तथा उनका तिरस्कार कर बैठते हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! ब्रह्मा, विष्णु और महादेव- ये तीनों शाप और वरदान देने में समर्थ हैं; परन्तु इनमें महादेव और ब्रह्मा शीघ्र ही प्रसन्न या रुष्ट होकर वरदान अथवा शाप दे देते हैं। परन्तु विष्णु भगवान वैसे नहीं हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टाशीतितम अध्याय श्लोक 13-25 का हिन्दी अनुवाद)

इस विषय में महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। भगवान शंकर एक बार वृकासुर को वर देकर संकट में पड़ गये थे। परीक्षित! वृकासुर शकुनि का पुत्र था। उसकी बुद्धि बहुत बिगड़ी हुई थी। एक दिन कहीं जाते समय उसने देवर्षि नारद को देख लिया और उनसे पूछा कि- ‘तीनों देवताओं में झटपट प्रसन्न होने वाला कौन है?’

परीक्षित! देवर्षि नारद ने कहा ;- ‘तुम भगवान शंकर की आराधना करो। इससे तुम्हारा मनोरथ बहुत जल्दी पूरा हो जायेगा। वे थोड़े ही गुणों से शीघ्र-से-शीघ्र प्रसन्न और थोड़े ही अपराध से तुरन्त क्रोध कर बैठते हैं। रावण और बाणासुर ने केवल बंदीजनों के समान शंकर जी की कुछ स्तुतियाँ की थीं। इसी से वे उन पर प्रसन्न हो गये और उन्हें अतुलनीय ऐश्वर्य दे दिया। बाद में रावण के कैलास उठाने और बाणासुर के नगर की रक्षा का भार लेने से वे उनके लिये संकट में भी पड़ गये थे’।

नारद जी का उपदेश पाकर वृकासुर केदार क्षेत्र में गया और अग्नि को भगवान शंकर का मुख मानकर और शरीर का मांस काट-काटकर उसमें हवन करने लगा। इस प्रकार छः दिन तक उपासना करने पर भी जब उसे भगवान शंकर के दर्शन न हुए, तब उसे बड़ा दुःख हुआ। सातवें दिन केदार तीर्थ में स्नान करके उसने अपने भीगे बाल वाले मस्तक को कुल्हाड़े से काटकर हवन करना चाहा। परीक्षित! जैसे जगत् में कोई दुःखवश आत्महत्या करने जाता है तो हम लोग करुणावश उसे बचा लेते हैं, वैसे ही परम दयालु भगवान शंकर ने वृकासुर के आत्मघात के पहले ही अग्निकुण्ड से अग्निदेव के समान प्रकट होकर अपने दोनों हाथों से उसके दोनों हाथ पकड़ लिये और गला काटने से रोक दिया। उनका स्पर्श होते ही वृकासुर के अंग ज्यों-के-त्यों पूर्ण हो गये। भगवान शंकर ने वृकासुर से कहा- ‘प्यारे वृकासुर! बस करो, बस करो; बहुत हो गया। मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ। तुम मुँह माँगा वर माँग लो। अरे भाई! मैं तो अपने शरणागत भक्तों पर केवल जल चढ़ाने से ही सन्तुष्ट हो जाया करता हूँ। भला, तुम झूठ-मूठ अपने शरीर को क्यों पीड़ा दे रहे हो?’

परीक्षित! अत्यन्त पापी वृकासुर ने समस्त प्राणियों को भयभीत करने वाला यह वर माँगा कि ‘मैं जिसके सिर पर हाथ रख दूँ, वही मर जाये’। परीक्षित! उसकी यह याचना सुनकर भगवान रुद्र पहले तो कुछ अनमने-से हो गये, फिर हँसकर कह दिया- ‘अच्छा, ऐसा ही हो।’ ऐसा वर देकर उन्होंने मानो साँप को अमृत पिला दिया।

भगवान शंकर के इस प्रकार कह देने पर वृकासुर के मन में यह लालसा हो आयी कि ‘मैं पार्वती जी को ही हर लूँ।’ वह असुर शंकर जी के वर की परीक्षा के लिये उन्हीं के सिर पर हाथ रखने का उद्योग करने लगा। अब तो शंकर जी अपने दिये हुए वरदान से ही भयभीत हो गये। वह उनका पीछा करने लगा और वे उससे डरकर काँपते हुए भागने लगे। वे पृथ्वी, स्वर्ग और दिशाओं के अन्त तक दौड़ते गये; परन्तु फिर भी उसे पीछा करते देखकर उत्तर की ओर बढ़े। बड़े-बड़े देवता इस संकट को टालने का कोई उपाय न देखकर चुप रह गये। अन्त में वे प्राकृतिक अंधकार से परे परम प्रकाशमय वैकुण्ठ-लोक में गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टाशीतितम अध्याय श्लोक 26-40 का हिन्दी अनुवाद)

वैकुण्ठ में स्वयं भगवान नारायण निवास करते हैं। एकमात्र वे ही उन संन्यासियों की परम गति हैं जो सारे जगत् को अभयदान करके शान्तभाव में स्थित हो गये हैं। वैकुण्ठ में जाकर जीव को फिर लौटना नहीं पड़ता।

भक्तभयहारी भगवान ने देखा कि शंकर जी तो बड़े संकट में पड़े हुए हैं। तब वे अपनी योगमाया से ब्रह्मचारी बनकर दूर से ही धीरे-धीरे वृकासुर की ओर आने लगे। भगवान ने मूँज की मेखला, काला मृगचर्म, दण्ड और रुद्राक्ष की माला धारण कर रखी थी। उनके एक-एक अंग से ऐसी ज्योति निकल रही थी, मानो आग धधक रही हो। वे हाथ में कुश लिये हुए थे। वृकासुर को देखकर उन्होंने बड़ी नम्रता से झुककर प्रणाम किया।

ब्रह्मचारी-वेषधारी भगवान ने कहा ;- शकुनिनन्दन वृकासुर जी! आप स्पष्ट ही बहुत थके-से जान पड़ते हैं। आज आप बहुत दूर से आ रहे हैं क्या? तनिक विश्राम तो कर लीजिये। देखिये, यह शरीर ही सारे सुखों की जड़ है। इसी से सारी कामनाएँ पूरी होती हैं। इसे अधिक कष्ट न देना चाहिये। आप तो सब प्रकार से समर्थ हैं। इस समय आप क्या करना चाहते हैं? यदि मेरे सुनने योग्य कोई बात हो तो बतलाइये। क्योंकि संसार में देखा जाता है कि लोग सहायकों के द्वारा बहुत-से काम बना लिया करते हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान के एक-एक शब्द से अमृत बरस रहा था। उनके इस प्रकार पूछने पर पहले तो उसने तनिक ठहरकर अपनी थकावट दूर की; उसके बाद क्रमशः अपनी तपस्या, वरदान-प्राप्ति तथा भगवान शंकर के पीछे दौड़ने की बात शुरू से कह सुनायी।

श्रीभगवान ने कहा ;- ‘अच्छा, ऐसी बात है? तब तो भाई! हम उसकी बात पर विश्वास नहीं करते। आप नहीं जानते हैं क्या? वह तो दक्ष प्रजापति के शाप से पिशाचभाव को प्राप्त हो गया है। आजकल वही प्रेतों और पिशाचों का सम्राट् है। दानवराज! आप इतने बड़े होकर ऐसी छोटी-छोटी बातों पर विश्वास कर लेते हैं? आप यदि अब भी उसे जगद्गुरु मानते हों और उसकी बात पर विश्वास करते हों तो झटपट अपने सिर पर हाथ रखकर परीक्षा कर लीजिये। दानवशिरोमणे! यदि किसी प्रकार शंकर की बात असत्य निकले तो उस असत्यवादी को मार डालिये, जिससे फिर कभी झूठ न बोल सके।

परीक्षित! भगवान ने ऐसी मोहित करने वाली अद्भुत और मीठी बात कही कि उसकी विवेक-बुद्धि जाती रही। उस दुर्बुद्धि ने भूलकर अपने ही सिर पर हाथ रख लिया। बस, उसी क्षण उसका सिर फट गया और वह वहीं धरती पर गिरा पड़ा, मानो उस पर बिजली गिर पड़ी हो। उस समय आकाश में देवता लोग ‘जय-जय, नमो-नमः, साधु-साधु!’ के नारे लगाने लगे। पापी वृकासुर की मृत्यु से देवता, ऋषि, पितर और गन्धर्व अत्यन्त प्रसन्न होकर पुष्पों की वर्षा करने लगे और भगवान शंकर उस विकट संकट से मुक्त हो गये। अब भगवान पुरुषोत्तम ने भयमुक्त शंकर जी से कहा कि ‘देवाधिदेव! बड़े हर्ष की बात है कि इस दुष्ट को इसके पापों ने ही नष्ट कर दिया। परमेश्वर! भला, ऐसा कौन प्राणी है जो महापुरुषों का अपराध करके कुशल से रह सके? फिर स्वयं जगद्गुरु विश्वेश्वर! आपका अपराध करके तो कोई सकुशल रह ही कैसे सकता है?’

भगवान अनन्त शक्तियों के समुद्र हैं। उनकी एक-एक शक्ति मन और वाणी की सीमा के परे है। संकट से छुड़ाने की यह लीला जो कोई कहता या सुनता है, वह संसार के बन्धनों और शत्रुओं के भय से मुक्त हो जाता है।


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【नवासीवाँ अध्याय】८९

"भृगु जी के द्वारा त्रिदेवों की परीक्षा तथा भगवान का मरे हुए ब्राह्मण-बालकों को वापस लाना"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनवतितम अध्याय श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! एक बार सरस्वती नदी के पावन तट पर यज्ञ प्रारम्भ करने के लिये बड़े-बड़े ऋषि-मुनि एकत्र होकर बैठे। उन लोगों में इस विषय पर वाद-विवाद चला कि ब्रह्मा, शिव और विष्णु में सबसे बड़ा कौन है?

परीक्षित! उन लोगों ने यह बात जानने के लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिव की परीक्षा लेने के उद्देश्य से ब्रह्मा के पुत्र भृगु जी को उनके पास भेजा। महर्षि भृगु सबसे पहले ब्रह्मा जी की सभा में गये। उन्होंने ब्रह्मा जी के धैर्य आदि की परीक्षा करने के लिये न उन्हें नमस्कार किया न तो उनकी स्तुति ही की। इस पर ऐसा मालूम हुआ कि ब्रह्मा जी अपने तेज से दहक रहे हैं। उन्हें क्रोध आ गया। परन्तु जब समर्थ ब्रह्मा जी ने देखा कि यह तो मेरा पुत्र ही है, तब अपने मन में उठे हुए क्रोध को भीतर-ही-भीतर विवेकबुद्धि से दबा लिया; ठीक वैसे ही, जैसे कोई अरणि-मन्थन से उत्पन्न अग्नि को जल से बुझा दे।

वहाँ से महर्षि भृगु कैलास में गये। देवाधिदेव भगवान शंकर ने जब देखा कि मेरे भाई भृगु जी आये हैं, तब उन्होंने बड़े आनन्द से खड़े होकर उनका आलिंगन करने के लिये भुजाएँ फैला दीं, परन्तु महर्षि भृगु ने उनसे आलिंगन करना स्वीकार न किया और कहा- ‘तुम लोक और वेद की मर्यादा का उल्लंघन करते हो, इसलिये मैं तुमसे नहीं मिलता।’ भृगु जी की यह बात सुनकर भगवान शंकर क्रोध के मारे तिलमिला उठे। उनकी आँखें चढ़ गयीं। उन्होंने त्रिशूल उठाकर महर्षि भृगु को मारना चाहा। परन्तु उसी समय भगवती सती ने उनके चरणों पर गिरकर बहुत अनुनय-विनय की और किसी प्रकार उनका क्रोध शान्त किया।

अब महर्षि भृगु जी भगवान विष्णु के निवासस्थान वैकुण्ठ में गये। उस समय भगवान विष्णु लक्ष्मी जी की गोद में अपना सिर रखकर लेते हुए थे। भृगु जी ने जाकर उनके वक्षःस्थल पर एक लात कसकर जमा दी। भक्तवत्सल भगवान विष्णु लक्ष्मी जी के साथ उठ बैठे और झटपट अपनी शैय्या से नीचे उतरकर मुनि को सिर झुकाया, प्रणाम किया। 

भगवान ने कहा ;- ब्रह्मन्! आपका स्वागत है, आप भले पधारे। इस आसन पर बैठकर कुछ क्षण विश्राम कीजिये। प्रभो! मुझे आपके शुभागमन का पता न था। इसी से मैं आपकी अगवानी न कर सका। मेरा अपराध क्षमा कीजिये। महामुने! आपके चरणकमल अत्यन्त कोमल हैं।’ यों कहकर भृगु जी के चरणों को भगवान अपने हाथों से सहलाने लगे और बोले- ‘महर्षे! आपके चरणों का जल तीर्थों को भी तीर्थ बनाने वाला है। आप उससे वैकुण्ठलोक, मुझे और मेरे अन्दर रहने वाले लोकपालों को पवित्र कीजिये। भगवन्! आपके चरणकमलों के स्पर्श से मेरे सारे पाप धुल गये। आज मैं लक्ष्मी का एकमात्र आश्रय हो गया। अब आपके चरणों से चिह्नित मेरे वक्षःस्थल पर लक्ष्मी सदा-सर्वदा निवास करेंगी’।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- जब भगवान ने अत्यन्त गम्भीर वाणी से इस प्रकार कहा, तब भृगु जी परम सुखी और तृप्त हो गये। भक्ति के उद्रेक से उनका गला भर आया, आँखों में आँसू छलक आये और वे चुप हो गये।

परीक्षित! भृगु जी वहाँ से लौटकर ब्रह्मवादी मुनियों के सत्संग में आये और उन्हें ब्रह्मा, शिव और विष्णु भगवान के यहाँ जो कुछ अनुभव हुआ था, वह सब कह सुनाया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनवतितम अध्याय श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद)

भृगु जी का अनुभव सुनकर सभी ऋषियों-मुनियों को बड़ा विस्मय हुआ, उनका सन्देह दूर हो गया। तब से वे भगवान विष्णु को ही सर्वश्रेष्ठ मानने लगे; क्योंकि वे ही शान्ति और अभय के उद्गमस्थान हैं। भगवान विष्णु से ही साक्षात् धर्म, ज्ञान, वैराग्य, आठ प्रकार के ऐश्वर्य और चित्त को शुद्ध करने वाला यश प्राप्त होता है। शान्त, समचित्त, अकिंचन और सबको अभय देने वाले साधु-मुनियों की वे ही एक मात्र परम गति हैं। ऐसा सारे शास्त्र कहते हैं। उनकी प्रिय मूर्ति है सत्त्व और इष्टदेव हैं ब्राह्मण। निष्काम, शान्त और निपुणबुद्धि (विवेकसम्पन्न) पुरुष उनका भजन करते हैं। भगवान की गुणमयी माया ने राक्षस, असुर और देवता- उनकी ये तीन मूर्तियाँ बना दी हैं। इनमें सत्त्वमयी देवमूर्ति ही उनकी प्राप्ति का साधन है। वे स्वयं ही समस्त पुरुषार्थस्वरूप हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! सरस्वती-तट के ऋषियों ने अपने लिये नहीं, मनुष्यों का संशय मिटाने के लिये ही ऐसी युक्ति रची थी। पुरुषोत्तम भगवान के चरणकमलों की सेवा करके उन्होंने उनका परमपद प्राप्त किया।

सूत जी कहते हैं ;- शौनकादि ऋषियों! भगवान पुरुषोत्तम की यह कमनीय कीर्ति-कथा जन्म-मृत्युरूप संसार के भय को मिटाने वाली है। यह व्यासनन्दन भगवान श्रीशुकदेव जी के मुखारविन्द से निकली हुई सुरभिमयी मधुमयी सुधाधारा है। इस संसार के लंबे पथ का जो बटोही अपने कानों के दोनों से इसका निरन्तर पान करता रहता है, उसकी सारी थकावट, जो जगत् में इधर-उधर भटकने से होती है, दूर हो जाती है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! एक दिन की बात है, द्वारकापुरी में किसी ब्राह्मणी के गर्भ से एक पुत्र पैदा हुआ, परन्तु वह उसी समय पृथ्वी का स्पर्श होते ही मर गया। ब्राह्मण अपने बालक का मृत शरीर लेकर राजमहल के द्वार पर गया और वहाँ उसे रखकर अत्यन्त आतुरता और दुःखी मन से विलाप करता हुआ यह कहने लगा- ‘इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मणद्रोही, धूर्त, कृपण और विषयी राजा के कर्म दोष से ही मेरे बालक की मृत्यु हुई है। जो राजा हिंसापरायण, दुःशील और अजितेन्द्रिय होता है, उसे राजा मानकर सेवा करने वाली प्रजा दरिद्र होकर दुःख-पर-दुःख भोगती रहती है और उसके सामने संकट-पर-संकट आते रहते हैं।

परीक्षित! इसी प्रकार अपने दूसरे और तीसरे बालक के पैदा होते ही मर जाने पर वह ब्राह्मण लड़के की लाश राजमहल के दरवाजे पर डाल गया और वही बात कह गया। नवें बालक के मरने पर जब वह वहाँ आया, तब उस समय भगवान श्रीकृष्ण के पास अर्जुन भी बैठे हुए थे। उन्होंने ब्राह्मण की बात सुनकर उससे कहा- ‘ब्रह्मन्! आपके निवासस्थान द्वारका में कोई धनुषधारी क्षत्रिय नहीं है क्या? मालूम होता है कि ये यदुवंशी ब्राह्मण हैं और प्रजापालन का परित्याग करके किसी यज्ञ में बैठे हुए हैं। जिनके राज्य में धन, स्त्री अथवा पुत्रों से वियुक्त होकर ब्राह्मण दुःखी होते हैं, वे क्षत्रिय नहीं हैं, क्षत्रिय के वेष में पेट पालने वाले नट हैं। उनका जीवन व्यर्थ है। भगवन्! मैं समझता हूँ कि आप स्त्री-पुरुष अपने पुत्रों की मृत्यु से दीन हो रहे हैं। मैं आपकी सन्तान की रक्षा करूँगा। यदि मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी न कर सका तो आग में कूदकर जल मरूँगा और इस प्रकार मेरे पाप का प्रायश्चित हो जायगा’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनवतितम अध्याय श्लोक 31-46 का हिन्दी अनुवाद)

ब्राह्मण ने कहा ;- अर्जुन! यहाँ बलराम जी, भगवान श्रीकृष्ण, धनुर्धरशिरोमणि प्रद्युम्न, अद्वितीय योद्धा अनिरुद्ध भी जब मेरे बालकों की रक्षा करने में समर्थ नहीं हैं; इन जगदीश्वरों के लिये भी यह काम कठिन हो रहा है; तब तुम इसे कैसे करना चाहते हो ? सचमुच यह तुम्हारी मुर्खता है। हम तुम्हारी इस बात पर बिलकुल विश्वास नहीं करते।

अर्जुन ने कहा ;- ब्रह्मन्! मैं बलराम, श्रीकृष्ण अथवा प्रद्युम्न नहीं हूँ। मैं हूँ अर्जुन, जिसका गाण्डीव नामक धनुष विश्वविख्यात है। ब्राह्मणदेवता! आप मेरे बल-पौरुष का तिरस्कार मत कीजिये। आप जानते नहीं, मैं अपने पराक्रम से भगवान शंकर को सन्तुष्ट कर चुका हूँ। भगवन्! मैं आपसे अधिक क्या कहूँ, मैं युद्ध में साक्षात् मृत्यु को भी जीतकर आपकी सन्तान ला दूँगा।

परीक्षित! जब अर्जुन ने उस ब्राह्मण को इस प्रकार विश्वास दिलाया, तब वह लोगों से उनके बल-पौरुष का बखान करता हुआ बड़ी प्रसन्नता से अपने घर लौट गया। प्रसव का समय निकट आने पर ब्राह्मण आतुर होकर अर्जुन के पास आया और कहने लगा- ‘इस बार तुम मेरे बच्चे को मृत्यु से बचा लो’। यह सुनकर अर्जुन ने शुद्ध जल से आचमन किया, तथा भगवान शंकर को नमस्कार किया। फिर दिव्य अस्त्रों का स्मरण किया और गाण्डीव धनुष पर डोरी चढ़ाकर उसे हाथ में ले लिया। अर्जुन ने बाणों को अनेक प्रकार के अस्त्र-मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके प्रसव गृह को चारों ओर से घेर दिया। इस प्रकार उन्होंने सूतिकागृह के ऊपर-नीचे, अगल-बगल बाणों का एक पिंजड़ा-सा बना दिया। इसके बाद ब्राह्मणी के गर्भ से एक शिशु पैदा हुआ, जो बार-बार रो रहा था। परन्तु देखते-ही-देखते वह सशरीर आकाश में अन्तर्धान हो गया। अब वह ब्राह्मण भगवान श्रीकृष्ण के सामने ही अर्जुन की निन्दा करने लगा। वह बोला- ‘मेरी मूर्खता तो देखो, मैंने इस नपुंसक की डींगभरी बातों पर विश्वास कर लिया। भला, जिसे प्रद्युम्न, अनिरुद्ध यहाँ तक कि बलराम और भगवान श्रीकृष्ण भी न बचा सके, उसकी रक्षा करने में और कौन समर्थ है? मिथ्यावादी अर्जुन को धिक्कार है। अपने मुँह अपनी बड़ाई करने वाले अर्जुन के धनुष को धिक्कार है। इसकी दुर्बुद्धि तो देखो! यह मूढ़तावश उस बालक को लौटा लाना चाहता है, जिसे प्रारब्ध ने हमसे अलग कर दिया है’।

जब वह ब्राह्मण इस प्रकार उन्हें भला-बुरा कहने लगा, तब अर्जुन योगबल से तत्काल संयमनीपुरी में गये, जहाँ भगवान यमराज निवास करते हैं। वहाँ उन्हें ब्राह्मण का बालक नहीं मिला। फिर वे शस्त्र लेकर क्रमशः इन्द्र, अग्नि, निरृति, सोम, वायु और वरुण आदि की पुरियों में, अतलादि नीचे के लोकों में, स्वर्ग से ऊपर के महार्लोंकादि में एवं अन्यान्य स्थानों में गये। परन्तु कहीं भी उन्हें ब्राह्मण का बालक न मिला। उनकी प्रतिज्ञा पूरी न हो सकी। अब उन्होंने अग्नि में प्रवेश करने का विचार किया। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें ऐसा करने से रोकते हुए कहा- ‘भाई अर्जुन! तुम अपने आप अपना तिरस्कार मत करो। मैं तुम्हें ब्राह्मण के सब बालक अभी दिखाये देता हूँ। आज जो लोग तुम्हारी निन्दा कर रहे हैं, वे ही फिर हम लोगों की निर्मल कीर्ति की स्थापना करेंगे’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनवतितम अध्याय श्लोक 47-57 का हिन्दी अनुवाद)

सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार समझा-बुझाकर अर्जुन के साथ अपने दिव्य रथ पर सवार हुए और पश्चिम दिशा को प्रस्थान किया। उन्होंने सात-सात पर्वतों वाले सात द्वीप, सात समुद्र और लोकालोक-पर्वत को लाँघकर घोर अन्धकार में प्रवेश किया।

परीक्षित! वह अन्धकार इतना घोर था कि उसमें शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नाम के चारों घोड़े अपना मार्ग भूलकर इधर-उधर भटकने लगे। उन्हें कुछ सूझता ही न था। योगेश्वरों के भी परमेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने घोड़ों की यह दशा देखकर अपने सहस्र-सहस्र सूर्यों के समान तेजस्वी चक्र को आगे चलने की आज्ञा दी।

सुदर्शन चक्र अपने ज्योतिर्मय तेज से स्वयं भगवान के द्वारा उत्पन्न उस घने एवं महान् अन्धकार को चीरता हुआ मन के समान तीव्र गति से आगे-आगे चला। उस समय वह ऐसा जान पड़ता था, मानो भगवान राम का बाण धनुष से छूटकर राक्षसों की सेना में प्रवेश कर रहा हो। इस प्रकार सुदर्शन चक्र के द्वारा बतलाये हुए मार्ग से चलकर रथ अन्धकार की अन्तिम सीमा पर पहुँचा। उस अन्धकार के पार सर्वश्रेष्ठ पारावाररहित व्यापक परम ज्योति जगमगा रही थी। उसे देखकर अर्जुन की आँखें चौंधिया गयीं और उन्होंने विवश होकर अपने नेत्र बंद कर लिये।

इसके बाद भगवान के रथ ने दिव्य जलराशि में प्रवेश किया। बड़ी तेज आँधी चलने के कारण उस जल में बड़ी-बड़ी तरंगें उठ रही थीं, जो बहुत ही भली मालूम होती थीं। वहाँ एक बड़ा सुन्दर महल था। उसमें मणियों के सहस्र-सहस्र खंभे चमक-चमक कर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे और उसके चारों ओर बड़ी उज्ज्वल ज्योति फैल रही थी। उसी महल में भगवान शेषजी विराजमान थे। उनका शरीर अत्यन्त भयानक और अद्भुत था। उनके सहस्र सिर थे और प्रत्येक फण पर सुन्दर-सुन्दर मणियाँ जगमगा रही थीं। प्रत्येक सिर में दो-दो नेत्र थे और वे बड़े ही भयंकर थे। उनका सम्पूर्ण शरीर कैलास के समान श्वेतवर्ण का था और गला तथा जीभ नीले रंग की थी।

परीक्षित! अर्जुन ने देखा कि शेष भगवान की सुखमयी शय्या पर सर्वव्यापक महान् प्रभावशाली परम पुरुषोत्तम भगवान विराजमान हैं। उनके शरीर की कान्ति वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल है। अत्यन्त सुन्दर पीला वस्त्र धारण किये हुए हैं। मुख पर प्रसन्नता खेल रही है और बड़े-बड़े नेत्र बहुत ही सुहावने लगते हैं। बहुमूल्य मणियों से जटित मुकुट और कुण्डलों की कान्ति से सहस्रों घुँघराली अलकें चमक रही हैं। लंबी-लंबी, सुन्दर आठ भुजाएँ हैं; गले में कौस्तुभ मणि हैं; वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न है और घुटनों तक वनमाला लटक रही है। अर्जुन ने देखा कि उनके नन्द-सुनन्द आदि अपने पार्षद, चक्र-सुदर्शन आदि अपने मूर्तिमान् आयुध तथा पुष्टि, श्री, कीर्ति और अजा- ये चारों शक्तियाँ एवं सम्पूर्ण ऋद्धियाँ ब्रह्मादि लोकपालों के अधीश्वर भगवान की सेवा कर रही हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनवतितम अध्याय श्लोक 58-66 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ने अपने ही स्वरूप श्रीअनन्त भगवान को प्रणाम किया। अर्जुन उनके दर्शन से कुछ भयभीत हो गये थे; श्रीकृष्ण के बाद उन्होंने भी उनको प्रणाम किया और वे दोनों हाथ जोड़कर खड़े हो गये। अब ब्रह्मादि लोकपालों के स्वामी भूमा पुरुष ने मुसकुराते हुए मधुर एवं गम्भीर वाणी से कहा- ‘श्रीकृष्ण और अर्जुन! मैंने तुम दोनों को देखने के लिये ही ब्राह्मण के बालक अपने पास मंगा लिये थे। तुम दोनों ने धर्म की रक्षा के लिये मेरी कलाओं के साथ पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया है; पृथ्वी के भाररूप दैत्यों का संहार करके शीघ्र-से-शीघ्र तुम लोग फिर मेरे पास लौट आओ। तुम दोनों ऋषिवर नर और नारायण हो। यद्यपि तुम पूर्णकाम और सर्वश्रेष्ठ हो, फिर भी जगत् की स्थिति और लोकसंग्रह के लिये धर्म का आचरण करो’।

जब भगवान भूमा पुरुष ने श्रीकृष्ण और अर्जुन को इस प्रकार आदेश दिया, तब उन दोनों ने उसे स्वीकार करके उन्हें नमस्कार किया और बड़े आनन्द के साथ ब्राह्मण-बालकों को लेकर जिस रास्ते से, जिस प्रकार आये थे, उसी से वैसे ही द्वारका लौट आये।

ब्राह्मण के बालक अपनी आयु के अनुसार बड़े-बड़े हो गये थे। उनका रूप और आकृति वैसी ही थी, जैसी उनके जन्म के समय थी। उन्हें भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन ने उनके पिता को सौंप दिया।

भगवान विष्णु के उस परमधाम को देखकर अर्जुन के आश्चर्य सीमा न रही। उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि जीवों में जो कुछ बल-पौरुष है, वह सब भगवान श्रीकृष्ण की ही कृपा का फल है।

परीक्षित! भगवान ने और भी ऐसी अनेकों ऐश्वर्य और वीरता से परिपूर्ण लीलाएँ कीं। लोकदृष्टि में साधारण लोगों के समान सांसारिक विषयों का भोग किया और बड़े-बड़े महाराजाओं के समान श्रेष्ठ-श्रेष्ठ यज्ञ किये। भगवान श्रीकृष्ण ने आदर्श महापुरुषों का-सा आचरण करते हुए ब्राह्मण आदि समस्त प्रजावर्गों के सारे मनोरथ पूर्ण किये, ठीक वैसे ही, जैसे इन्द्र प्रजा के लिये समयानुसार वर्षा करते हैं। उन्होंने बहुत-से अधर्मी राजाओं को स्वयं मार डाला और बहुतों को अर्जुन आदि के द्वारा मरवा डाला। इस प्रकार धर्मराज युधिष्ठिर आदि धार्मिक राजाओं से उन्होंने अनायास ही सारी पृथ्वी में धर्ममर्यादा की स्थापना करा दी।


                          {दशम स्कन्ध:} (उत्तरार्ध)

                       【नब्बेवाँ अध्याय】९०


             "भगवान श्रीकृष्ण के लीला-विहार का वर्णन"

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: नवतितम अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! द्वारका नगरी की छटा अलौकिक थी। उसकी सड़कें, मद चूते हुए मतवाले हाथियों, सुसज्जित योद्धाओं, घोड़ों और स्वर्णमय रथों की भीड़ से सदा-सर्वदा भरी रहती थीं। जिधर देखिये, उधर ही हरे-भरे उपवन और उद्यान लहरा रहे हैं। पाँत-के-पाँत वृक्ष फूलों से लदे हुए हैं। उन पर बैठकर भौंरे गुनगुना रहे हैं और तरह-तरह के पक्षी कलरव कर रहे हैं। वह नगरी सब प्रकार की सम्पत्तियों से भरपूर थी। जगत् के श्रेष्ठ वीर यदुवंशी उसका सेवन करने में अपना सौभाग्य मानते थे। वहाँ की स्त्रियाँ सुन्दर वेष-भूषा से विभूषित थीं और उनके अंग-अंग से जवानी की छटा छिटकती रहती थी। वे जब अपने महलों में गेंद आदि के खेल खेलतीं और उनका कोई अंग कभी दीख जाता तो ऐसा जान पड़ता, मानो बिजली चमक रही है। लक्ष्मीपति भगवान की यही अपनी नगरी द्वारका थी। इसी में वे निवास करते थे।

भगवान श्रीकृष्ण सोलह हजार से अधिक पत्नियों के एकमात्र प्राण-वल्लभ थे। उन पत्नियों के अलग-अलग महल भी परम ऐश्वर्य से सम्पन्न थे। जितनी पत्नियाँ थीं, उतने ही अद्भुत रूप धारण करके वे उनके साथ विहार करते थे। सभी पत्नियों के महलों में सुन्दर-सुन्दर सरोवर थे। उनका निर्मल जल खिले हुए नीले, पीले, श्वेत, लाल आदि भाँति-भाँति के कमलों के पराग से मंहकता रहता था। उसमें झुंड-के-झुंड हंस, सारस आदि सुन्दर-सुन्दर पक्षी चहकते रहते थे। भगवान श्रीकृष्ण उन जलाशयों में तथा कभी-कभी नदियों के जल में भी प्रवेश कर अपनी पत्नियों के साथ जल-विहार करते थे। भगवान के साथ विहार करने वाली पत्नियाँ जब उन्हें अपने भुजपाश में बाँध लेतीं, आलिंगन करतीं, तब भगवान के श्रीअंगों में उनके वक्षःस्थल की केसर लग जाती थी। उस समय गन्धर्व उनके यश का गान करने लगते और सूत, मागध एवं वन्दीजन बड़े आनन्द से मृदंग, ढोल, नगारे और वीणा आदि बाजे बजाने लगते।

भगवान की पत्नियाँ कभी-कभी हँसते-हँसते पिचकारियों से उन्हें भिगो देती थीं। वे भी उनको तर कर देते। इस प्रकार भगवान अपनी पत्नियों के साथ क्रीड़ा करते; मानो यक्षराज कुबेर यक्षिणियों के साथ विहार कर रहे हों। उस समय भगवान की पत्नियों के वक्षःस्थल और जंघा आदि अंग वस्त्रों के भीग जाने के कारण उसमें से झलकने लगते। उनकी बड़ी-बड़ी चोटियों और जूड़ों में से गुँथे हुए फूल गिरने लगते, वे उन्हें भिगोते-भिगोते पिचकारी छीन लेने के लिये उनके पास पहुँच जातीं और इसी बहाने अपने प्रियतम का आलिंगन कर लेतीं। उनके स्पर्श से पत्नियों के हृदय में प्रेम-भाव की अभिवृद्धि हो जाती, जिससे उनका मुखकमल खिल उठता। ऐसे अवसरों पर उनकी शोभा और भी बढ़ जाया करती।

उस समय भगवान श्रीकृष्ण की वनमाला उन रानियों के वक्षः स्थल पर लगी हुई केसर के रंग के रँग जाती। विहार में अत्यन्त मग्न हो जाने के कारण घुँघराली अलकें उन्मुक्त भाव से लहराने लगतीं। वे अपनी रानियों को बार-बार भिगो देते और रानियाँ भी उन्हें सराबोर कर देतीं। भगवान श्रीकृष्ण उनके साथ इसी प्रकार विहार करते, मानो कोई गजराज हथिनियों से घिरकर उनके साथ क्रीड़ा कर रहा हो।

 भगवान श्रीकृष्ण और उनकी पत्नियाँ क्रीड़ा करने के बाद अपने-अपने वस्त्राभूषण उतारकर उन नटों और नर्तकियों को दे देते, जिनकी जीविका केवल गाना-बजाना ही है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: नवतितम अध्याय श्लोक 13-20 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! भगवान इसी प्रकार उनके साथ विहार करते रहते। उनकी चाल-ढाल, बातचीत, चितवन-मुसकान, हास-विलास और आलिंगन आदि से रानियों की चित्तवृत्ति उन्हीं की ओर खिंची रहती। उन्हें और किसी बात का स्मरण ही न होता। परीक्षित! रानियों के जीवन-सर्वस्व, उनके एकमात्र हृदयेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ही थे। वे कमलनयन श्यामसुन्दर के चिन्तन में इतनी मग्न हो जातीं कि कई देर तक चुप हो रहतीं और फिर उन्मत्त के समान असम्बद्ध बातें कहने लगतीं। कभी-कभी तो भगवान श्रीकृष्ण की उपस्थिति में ही प्रेमोन्माद के कारण उनके विरह का अनुभव करने लगतीं। और न जाने क्या-क्या कहने लगतीं। मैं उनकी बात तुम्हें सुनाता हूँ।

रानियाँ कहतीं ;- अरी कुररी! अब तो बड़ी रात हो गयी है। संसार में सब ओर सन्नाटा छा गया है। देख, इस समय स्वयं भगवान अपना अखण्ड बोध छिपाकर सो रहे हैं और तुझे नींद नहीं आती? तू इस तरह रात-रात भर जगकर विलाप क्यों कर रही है? सखी! कहीं कमलनयन भगवान के मधुर हास्य और लीलाभरी उदार (स्वीकृतिसूचक) चितवन से तेरा हृदय भी हमारी ही तरह बिंध तो नहीं गया है?

अरी चकवी! तूने रात के समय अपने नेत्र क्यों बंद कर लिये हैं? क्या तेरे पतिदेव कहीं विदेश चले गये हैं कि तू इस प्रकार करुण स्वर से पुकार रही है? हाय-हाय! तू बड़ी दुःखिनी है। परन्तु हो-न-हो तेरे हृदय में भी हमारे ही समान भगवान की दासी होने का भाव जग गया है। क्या अब तू उनके चरणों पर चढ़ायी हुई पुष्पों की माला अपनी चोटियों में धारण करना चाहती है?

अहो समुद्र! तुम निरन्तर गरजते ही रहते हो। तुम्हें नींद नहीं आती क्या? जान पड़ता है कि तुम्हें सदा जागने रहने का रोग लग गया है। परन्तु नहीं-नहीं, हम समझ गयीं, हमारे प्यारे श्यामसुन्दर ने तुम्हारे धैर्य, गाम्भीर्य आदि स्वाभाविक गुण छीन लिये हैं। क्या इसी से तुम हमारे ही समान ऐसी व्याधि के शिकार हो गये हो, जिसकी कोई दवा नहीं है?

चन्द्रदेव! तुम्हें बहुत बड़ा रोग राजयक्ष्मा हो गया है। इसी से तुम इतने क्षीण हो रहे हो। अरे राम-राम, अब तुम अपनी किरणों से अँधेरा भी नहीं हटा सकते! क्या हमारी भाँति हमारे प्यारे श्यामसुन्दर की मीठी-मीठी रहस्य की बातें भूल जाने के कारण तुम्हारी बोलती बंद हो गयी है? क्या उसी की चिन्ता से तुम मौन हो रहे हो?

मलयानिल! हमने तेरा क्या बिगाड़ा है, जो तू हमारे हृदय में काम का संचार कर रहा है? अरे तू नहीं जानता क्या? भगवान की तिरछी चितवन से हमारा हृदय तो पहले ही घायल हो गया है।

श्रीमन् मेघ! तुम्हारे शरीर का सौन्दर्य तो हमारे प्रियतम-जैसा ही है। अवश्य ही तुम यदुवंशशिरोमणि भगवान के परम प्यारे हो। तभी तो तुम हमारी ही भाँति प्रेमपाश में बँधकर उनका ध्यान कर रहे हो। देखो-देखो! तुम्हारा हृदय चिन्ता से भर रहा है, तुम उनके लिये अत्यन्त उत्कण्ठित हो रहे हो। तभी तो बार-बार उनकी याद करके हमारी ही भाँति आँसू की धारा बहा रहे हो। श्यामघन! सचमुच घनश्याम से नाता जोड़ना घर बैठे पीड़ा मोल लेना है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: नवतितम अध्याय श्लोक 21-28 का हिन्दी अनुवाद)

री कोयल! तेरा गला बड़ा ही सुरीला है, मीठी बोली बोलने वाले हमारे प्राणप्यारे के समान ही मधुर स्वर से तू बोलती है। सचमुच तेरी बोली में सुधा घोली हुई है, जो प्यारे के विरह से मरे हुए प्रेमियों को जिलाने वाली है। तू ही बता, इस समय हम तेरा क्या प्रिय करें?

प्रिय पर्वत! तुम तो बड़े उदार विचार के हो। तुमने ही पृथ्वी को भी धारण कर रखा है। न तुम हिलते-डोलते हो और न कुछ कहते-सुनते हो। जान पड़ता है कि किसी बड़ी बात की चिन्ता में मग्न हो रहे हो। ठीक है, ठीक है; हम समझ गयीं। तुम हमारी ही भाँति चाहते हो कि अपने स्तनों के समान बहुत-से शिखरों पर मैं भी भगवान श्यामसुन्दर के चरण-कमल धारण करूँ।

समुद्रपत्नी नदियों! यह ग्रीष्म ऋतु है। तुम्हारे कुण्ड सूख गये हैं। अब तुम्हारे अंदर खिले हुए कमलों का सौन्दर्य नहीं दीखता। तुम बहुत दुबली-पतली हो गयी हो। जान पड़ता है, जैसे हम अपने प्रियतम श्यामसुन्दर की प्रेमभरी चितवन न पाकर अपना हृदय खो बैठी हैं और अत्यन्त दुबली-पतली हो गयी हैं, वैसे ही तुम भी मेघों के द्वारा अपने प्रियतम समुद्र का जल न पाकर ऐसी दीन-हीन हो गयी हो।

हंस! आओ, आओ! भले आये, स्वागत है। आसन पर बैठो; लो दूध पियो। प्रिय हंस! श्यामसुन्दर की कोई बात तो सुनाओ। हम समझती हैं कि तुम उनके दूत हो। किसी के वश में न होने वाले श्यामसुन्दर सकुशल तो हैं न? अरे भाई! उनकी मित्रता तो बड़ी अस्थिर है, क्षणभंगुर है। एक बात तो बतलाओ, उन्होंने हमसे कहा था कि तुम्हीं हमारी परम प्रियतमा हो। क्या अब उन्हें यह बात याद है? जाओ, जाओ; हम तुम्हारी अनुनय-विनय नहीं सुनतीं। जब वे हमारी परवा नहीं करते, तो हम उनके पीछे क्यों मरें? क्षुद्र के दूत! हम उनके पास नहीं जातीं। क्या कहा? वे हमारी इच्छा पूर्ण करने के लिये ही आना चाहते हैं, अच्छा! तब उन्हें तो यहाँ बुला लाना, हमसे बातें कराना, परन्तु कहीं लक्ष्मी को साथ न ले आना। तब क्या वे लक्ष्मी को छोड़कर यहाँ नहीं आना चाहते? यह कैसी बात है? क्या स्त्रियों में लक्ष्मी ही एक ऐसी हैं, जिनका भगवान में अनन्य प्रेम है? क्या हमने से कोई एक भी वैसी नहीं है?

परीक्षित! श्रीकृष्ण-पत्नियाँ योगेश्वरेश्वर भगवान श्रीकृष्ण में ही अनन्य प्रेम-भाव रखतीं थीं। इसी से उन्होंने परमपद प्राप्त किया। भगवान श्रीकृष्ण की लीलाएँ अनेकों प्रकार से अनेकों गीतों द्वारा गान की गयी हैं। वे इतनी मधुर, इतनी मनोहर हैं कि उनके सुनने मात्र से स्त्रियों का मन बलात् उनकी ओर खिंच जाता है। फिर जो स्त्रियाँ उन्हें अपने नेत्रों से देखतीं थीं, उनके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है। जिन बड़भागिनी स्त्रियों ने जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण को अपना पति मानकर परम प्रेम से उनके चरणकमलों को सहलाया, उन्हें नहलाया-धुलाया, खिलाया-पिलाया, तरह-तरह से उनकी सेवा की, उनकी तपस्या का वर्णन तो भला, किया ही कैसे जा सकता है।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण सत्पुरुषों के एकमात्र आश्रय हैं। उन्होंने वेदोक्त धर्म का बार-बार आचरण करके लोगों को यह बात दिखला दी कि घर ही धर्म, अर्थ और काम-साधन का स्थान है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: नवतितम अध्याय श्लोक 29-46 का हिन्दी अनुवाद)

इसीलिए वे गृहस्थोचित श्रेष्ठ धर्म का आश्रय लेकर व्यवहार कर रहे थे।

परीक्षित! मैं तुमने कह ही चुका हूँ कि उनकी रानियों की संख्या थीं सोलह हजार एक सौ आठ। उन श्रेष्ठ स्त्रियों में से रुक्मिणी आदि आठ पटरानियों और उनके पुत्रों का तो मैं पहले ही क्रम से वर्णन कर चुका हूँ। उनके अतिरिक्त भगवान श्रीकृष्ण की और जितनी पत्नियाँ थीं, उनसे भी प्रत्येक के दस-दस पुत्र उत्पन्न किये। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि भगवान सर्वशक्तिमान् और सत्यसंकल्प हैं। भगवान के परम पराक्रमी पुत्रों में अठारह तो महारथी थे, जिनका यश सारे जगत् में फैला हुआ था। उनके नाम मुझसे सुनो।

प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, दीप्तिमान्, भानु, साम्ब, मधु, बृहद्भानु, चित्रभानु, वृक, अरुण, पुष्कर, वेदबाहु, श्रुतदेव, सुनन्दन, चित्रबाहु, विरूप, कवि और न्यग्रोध। राजेन्द्र! भगवान श्रीकृष्ण के इन पुत्रों में भी सबसे श्रेष्ठ रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न जी थे। वे सभी गुणों में अपने पिता के समान ही थे। महारथी प्रद्युम्न ने रुक्मी की कन्या से अपना विवाह किया था। उसी के गर्भ से अनिरुद्ध जी का जन्म हुआ। उसमें दस हजार हाथियों का बल था। रुक्मी के दौहित्र अनिरुद्ध जी ने अपने नाना की पोती से विवाह किया। उसके गर्भ से वज्र का जन्म हुआ। ब्राह्मणों के शाप से पैदा हुए मूसल के द्वारा यदुवंश का नाश हो जाने पर एकमात्र वे ही बच रहे थे। वज्र के पुत्र हैं प्रतिबाहु, प्रतिबाहु के सुबाहु, सुबाहु के शान्तसेन और शान्तसेन के शतसेन।

परीक्षित! इस वंश में कोई भी पुरुष ऐसा न हुआ जो बहुत-सी सन्तान वाला न हो तथा जो निर्धन, अल्पायु और अल्पशक्ति हो। वे सभी ब्राह्मण के भक्त थे। परीक्षित! यदुवंश में ऐसे-ऐसे यशस्वी और पराक्रमी पुरुष हुए हैं, जिनकी गिनती भी हजारों वर्षों में पूरी नहीं हो सकती। मैंने ऐसा सुना है कि यदुवंश के बालकों को शिक्षा देने के लिये तीन करोड़ अट्ठासी लाख आचार्य थे। ऐसी स्थिति में महात्मा यदुवंशियों की संख्या तो बतायी ही कैसे जा सकती है। स्वयं महाराज उग्रसेन के साथ एक नील (10000000000000) के लगभग सैनिक रहते थे।

परीक्षित! प्राचीन काल में देवासुर संग्राम के समय बहुत-से भयंकर असुर मारे गये थे। वे ही मनुष्यों में उत्पन्न हुए और बाद में घमंड से जनता को सताने लगे। उनका दमन करने के लिये भगवान की आज्ञा से देवताओं ने ही यदुवंश में अवतार लिया था। परीक्षित! उनके कुलों की संख्या एक सौ एक थी। वे सब भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना स्वामी एवं आदर्श मानते थे। जो यदुवंशी उनके अनुयायी थे, उनकी सब प्रकार से उन्नति हुई। यदुवंशियों का चित्त इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण में लगा रहता था कि उन्हें सोने-बैठने, घूमने-फिरने, बोलने-खेलने और नहाने-धोने आदि कामों में अपने शरीर की भी सुधि न रहती थी। वे जानते ही न थे कि हमारा शरीर क्या कर रहा है। उनकी समस्त शारीरिक क्रियाएँ यन्त्र की भाँति अपने-आप होती रहती थीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: नवतितम अध्याय श्लोक 47-50 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! भगवान का चरणधोवन गंगा जी अवश्य ही समस्त तीर्थों में महान् एवं पवित्र हैं। परन्तु जब स्वयं परमतीर्थ स्वरूप भगवान ने ही यदुवंश में अवतार ग्रहण किया, तब तो गंगाजल की महिमा अपने-आप ही उनके सुयशतीर्थ की अपेक्षा कम हो गयी। भगवान के स्वरूप की यह कितनी बड़ी महिमा है कि उनसे प्रेम करने वाले भक्त और द्वेष करने वाले शत्रु दोनों ही उनके स्वरूप को प्राप्त हुए।

जिस लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये बड़े-बड़े देवता यत्न करते रहते हैं, वे ही भगवान की सेवा में नित्य-निरन्तर लगी रहती हैं। भगवान का नाम एक बार सुनने अथवा उच्चारण करने से ही सारे अमंगलों को नष्ट कर देता है। ऋषियों के वंशजों में जितने भी धर्म प्रचलित हैं, सबके संस्थापक भगवान श्रीकृष्ण ही हैं। वे अपने हाथ में काल-स्वरूप चक्र लिये रहते हैं। परीक्षित! ऐसी स्थिति में पृथ्वी का भार उतार देते हैं, यह कौन बड़ी बात है। भगवान श्रीकृष्ण ही समस्त जीवों के आश्रयस्थान हैं। यद्यपि वे सदा-सर्वदा सर्वत्र उपस्थित ही रहते हैं, फिर भी कहने के लिये उन्होंने देवकी जी के गर्भ से जन्म लिया है। यदुवंशी वीर पार्षदों के रूप में उनकी सेवा करते रहते हैं। उन्होंने अपने भुजबल से अधर्म का अन्त कर दिया है। परीक्षित! भगवान स्वभाव से ही चराचर जगत् का दुःख मिटाते रहते हैं। उनकी मन्द-मन्द मुस्कान से युक्त सुन्दर मुखारविन्द व्रजस्त्रियों और पुरस्त्रियों के हृदय में प्रेम-भाव का संचार करता रहता है। वास्तव में सारे जगत् पर वही विजयी हैं। उन्हीं की जय हो! जय हो!

परीक्षित! प्रकृति से अतीत परमात्मा ने अपने द्वारा स्थापित धर्म-मर्यादा की रक्षा के लिये दिव्य लीला-शरीर ग्रहण किया और उनके अनुरूप अनेकों अद्भुत चरित्रों का अभिनय किया। उनका एक-एक कर्म स्मरण करने वालों के कर्मबन्धनों को काट डालने वाला है। जो यदुवंशशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की सेवा का अधिकार प्राप्त करना चाहे, उसे उनकी लीलाओं का ही श्रवण करना चाहिये। परीक्षित! जब मनुष्य प्रतिक्षण भगवान श्रीकृष्ण की मनोहारिणी लीला-कथाओं का अधिकाधिक श्रवण, कीर्तन और चिन्तन करने लगता है, तब उसकी भक्ति उसे भगवान के परमधाम में पहुँचा देती है। यद्यपि काल की गति के परे पहुँच जाना बहुत ही कठिन है, परन्तु भगवान के धाम में काल की दाल नहीं गलती। वह वहाँ तक पहुँच ही नहीं पाता। उसी धाम की प्राप्ति के लिये अनेक सम्राटों ने अपना राजपाट छोड़कर तपस्या करने के उद्देश्य से जगल की यात्रा की है। इसलिए मनुष्य को उनकी लीला-कथा का ही श्रवण करना चाहिये।

                      【दशम स्कन्ध: समाप्त】

                         【 हरिः ॐ तत्सत्】


।। इस प्रकार  "श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:" के  90 अध्याय समाप्त हुये ।।

(अब एकादश (११) स्कन्ध: प्रारम्भ होता है)

(नोट :- सभी स्कन्ध:  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )


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