सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - पूर्वार्ध ) का छब्बीसवाँ , सत्ताईसवाँ, अट्ठाईसवाँ, उनत्तीसवाँ, तीसवाँ व इकत्तीसवाँ अध्याय [ Twenty-sixth, twenty-seventh, twenty-Eight, twenty-ninth, thirtieth and Thirty-first chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - पूर्वार्ध ) का छब्बीसवाँ , सत्ताईसवाँ, अट्ठाईसवाँ, उनत्तीसवाँ, तीसवाँ व इकत्तीसवाँ अध्याय [ Twenty-sixth, twenty-seventh, twenty-Eight, twenty-ninth,  thirtieth and Thirty-first chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]


                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                       【छब्बीसवाँ अध्याय:】२६.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षड्विंशोऽध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"नन्दबाबा से गोपों की श्रीकृष्ण के प्रभाव के विषय में बातचीत"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! व्रज के गोप भगवान श्रीकृष्ण के ऐसे अलौकिक कर्म देखकर बड़े आश्चर्य में पड़ गये। उन्हें भगवान की अनन्त शक्ति का तो पता था नहीं, वे इकट्ठे होकर आपस में इस प्रकार कहने लगे - ‘इस बालक के ये कर्म बड़े अलौकिक हैं। इसका हमारे जैसे गँवार ग्रामीणों में जन्म लेना तो इसके लिये बड़ी निन्दा की बात है। यह भला, कैसे उचित हो सकता है। जैसे गजराज कोई कमल उखाड़कर उसे ऊपर उठा ले और धारण करे, वैसे ही इस नन्हें-से सात वर्ष के बालक ने एक ही हाथ से गिरिराज गोवर्धन को उखाड़ लिया और खेल-खेल में सात दिनों तक उठाये रखा।

यह साधारण मनुष्य के लिये भला कैसे सम्भव है? जब यह नन्हा-सा बच्चा था, उस समय बड़ी भयंकर राक्षसी पूतना आयी और इसने आँख बंद किये-किये ही उसका स्तन तो पिया ही, प्राण भी पी डाले - ठीक वैसे ही, जैसे काल शरीर की आयु को को निगल जाता है। जिस समय यह केवल तीन महीने का था और छकड़े के नीचे सोकर रो रहा था, उस समय रोते-रोते इसने ऐसा पाँव उछाला कि उसकी ठोकर से वह बड़ा भारी छकड़ा उलटकर गिर ही पड़ा।

उस समय तो यह एक ही वर्ष का था, जब दैत्य बवंडर के रूप में इसे बैठे-बैठे आकाश में उड़ा ले गया था। तुम सब जानते ही हो कि इसने उस तृणावर्त दैत्य को गला घोंटकर मार डाला। उस दिन की बात तो सभी जानते हैं कि माखनचोरी करने पर यशोदा रानी ने इसे ऊखल से बाँध दिया था। यह घुटनों के बल बकैयाँ खींचते-खींचते उन दोनों विशाल अर्जुन वृक्षों के बीच में से निकल गया और उन्हें उखाड़ ही डाला।

जब यह ग्वालबाल और बलराम जी के साथ बछड़ों को चराने के लिये वन में गया हुआ था उस समय इसको मार डालने के लिये एक दैत्य बगुले के रूप में आया और इसने दोनों हाथों से उसके दोनों ठोर पकड़कर उसे तिनके की तरह चीर डाला। जिस समय इसको मार डालने की इच्छा से एक दैत्य बछड़े के रूप में बछड़ों के झुंड में घुस गया था उस समय इसने उस दैत्य को खेल-ही-खेल में मार डाला और उसे कैथ के पेड़ों पर पटककर उन पेड़ों को भी गिरा दिया।

इसने बलराम जी के साथ मिलकर गधे के रूप में रहनेवाले धेनुकासुर तथा उसके भाई-बंधुओं को मार डाला और पके हुए फलों से पूर्ण तालवन को सबके लिये उपयोगी और मंगलमय बना दिया। इसी ने बलशाली बलराम जी के द्वारा क्रूर प्रलम्बासुर को मरवा डाला तथा दावानल से गौओं और ग्वालबालों को उबार लिया।

यमुना जल में रहने वाला कालिय नाग कितना विषैला था? परन्तु इसने उसका भी मान मर्दन कर उसे बलपूर्वक दह से निकाल दिया और यमुना जी का जल सदा के लिये विषरहित - अमृतमय बना दिया। नन्द जी! हम यह भी देखते हैं कि तुम्हारे इस साँवले बालक पर हम सभी व्रजवासियों का अनन्त प्रेम है और इसका भी हम पर स्वाभाविक ही स्नेह है। क्या आप बतला सकते हैं कि इसका क्या कारण है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षड्विंशो अध्याय श्लोक 14-25 का हिन्दी अनुवाद)

भला, कहाँ तो यह सात वर्ष का नन्हा-सा बालक और कहाँ इतने बड़े गिरिराज को सात दिनों तक उठाये रखना! व्रजराज! इसी से तो तुम्हारे पुत्र के सम्बन्ध में हमें बड़ी शंका हो रही है।

नन्दबाबा ने कहा ;- गोपों! तुम लोग सावधान होकर मेरी बात सुनो। मेरे बालक के विषय में तुम्हारी शंका दूर हो जाय। क्योंकि महर्षि गर्ग ने इस बालक को देखकर इसके विषय में ऐसा ही कहा था। ‘तुम्हारा यह बालक प्रत्येक युग में शरीर ग्रहण-करता है। विभिन्न युगों में इसने श्वेत, रक्त और पीत - ये भिन्न-भिन्न रंग स्वीकार किये थे। इस बार यह कृष्णवर्ण हुआ है। नन्द जी! यह तुम्हारा पुत्र पहले कहीं वसुदेव के घर भी पैदा हुआ था, इसलिये इस रहस्य को जानने वाले लोग ‘इसका नाम श्रीमान वासुदेव है’ - ऐसा कहते हैं। तुम्हारे पुत्र के गुण और कर्मों के अनुरूप और भी बहुत-से नाम हैं तथा बहुत-से रूप। मैं तो उन नामों को जानता हूँ, परन्तु संसार के साधारण लोग नहीं जानते। यह तुम लोगों का परम कल्याण करेगा, समस्त गोप और गौओं को यह बहुत ही आनन्दित करेगा। इसकी सहायता से तुम लोग बड़ी-बड़ी विपत्तियों को बड़ी सुगमता से पार लोगे।

‘व्रजराज! पूर्वकाल में एक बार पृथ्वी में कोई राजा नहीं रह गया था। डाकुओं ने चारों और लूट-खसोट मचा रखी थी। तब तुम्हारे इसी पुत्र ने सज्जन पुरुषों की रक्षा की और इससे बल पाकर उन लोगों ने लुटेरों पर विजय प्राप्त की।

नन्द बाबा! जो तुम्हारे इस साँवले शिशु से प्रेम करते हैं, वे बड़े भाग्यवान हैं। जैसे विष्णु भगवान के करकमलों की छत्रछाया में रहने वाले देवताओं को असुर नहीं जीत सकते, वैसे ही इससे प्रेम करने वालों को बाहरी या भीतरी - किसी भी प्रकार के शत्रु नहीं जीत सकते। नन्द जी! चाहे जिस दृष्टि से देखें - गुण से, ऐश्वर्य और सौन्दर्य से, कीर्ति और प्रभाव से तुम्हारा बालक स्वयं भगवान नारायण के ही समान है, अतः इस बालक के अलौकिक कार्यों को देखकर आश्चर्य न करना चाहिये।'

गोपों! मुझे स्वयं गर्गाचार्य जी यह आदेश देकर अपने घर चले गये। तब से मैं अलौकिक और परम सुखद कर्म करने वाले इस बालक को भगवान नारायण का ही अंश मानता हूँ। जब व्रजवासियों ने नन्द बाबा के मुख से गर्ग जी की यह बात सुनी, तब उनका विस्मय जाता रहा। क्योंकि अब वे अमित तेजस्वी श्रीकृष्ण के प्रभाव को पूर्णरूप से देख और सुन चुके थे। आनन्द में भरकर उन्होंने नन्दबाबा और श्रीकृष्ण की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

जिस समय अपना यज्ञ भंग हो जाने के कारण इन्द्र क्रोध के मारे आग-बबूला हो गये थे और मूसलाधार वर्षा करने लगे थे, उस समय वज्रपात, ओलों की बौछार और प्रचण्ड आँधी से स्त्री, पशु तथा ग्वाले अत्यन्त पीड़ित हो गये थे। अपनी शरण में रहने वाले व्रजवासियों की यह दशा देखकर भगवान का हृदय करुणा से भर आया। परन्तु फिर एक नयी लीला करने के विचार से वे तुरंत ही मुस्काने लगे। जैसे कोई नन्हा-सा निर्बल बालक खेल-खेल में ही बरसाती छत्ते का पुष्प उखाड़ ले, वैसे ही उन्होंने एक हाथ से ही गिरिराज गोवर्धन को उखाड़कर धारण कर लिया और सारे व्रज की रक्षा की। इन्द्र का मद चूर करने वाले वे ही भगवान गोविन्द हम पर प्रसन्न हों।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                     【सत्ताईसवाँ अध्याय:】२७.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तविंश अध्याय श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

"श्रीकृष्ण का अभिषेक"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब भगवान श्रीकृष्ण ने गिरिराज गोवर्धन को धारण करके मूसलधार वर्षा से व्रज को बचा लिया, तब उनके पास गोलोक से कामधेनु और स्वर्ग से देवराज इन्द्र आये। भगवान का तिरस्कार करने के कारण इन्द्र बहुत ही लज्जित थे। इसलिये उन्होंने एकान्त-स्थान में भगवान के पास जाकर अपने सूर्य के समान तेजस्वी मुकुट से उनके चरणों का स्पर्श किया। परम तेजस्वी भगवान श्रीकृष्ण का प्रभाव देख-सुनकर इन्द्र का यह घमंड जाता रहा कि मैं ही तीनों लोकों का स्वामी हूँ। अब उन्होंने हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की।

इन्द्र ने कहा ;- भगवान! आपका स्वरूप परम शान्त, ज्ञानमय, रजोगुण तथा तमोगुण से रहित एवं विशुद्ध अप्राकृत सत्त्वमय है। यह गुणों के प्रवाहरूप से प्रतीत होने वाला प्रपंच केवल मायामय है; क्योंकि आपका स्वरूप न जानने के कारण ही आप में इसकी प्रतीति होती है। जब आपका सम्बन्ध अज्ञान और उसके कारण प्रतीत होने वाले देहादि से है ही नहीं, फिर उन देह आदि की प्राप्ति के कारण तथा उन्हीं से होने वाले लोभ-क्रोध आदि दोष तो आपमें हो ही कैसे सकते हैं?

प्रभो! इन दोषों का होना तो अज्ञान का लक्षण है। इस प्रकार यद्यपि अज्ञान और उससे होने वाले जगत से आपका कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर भी धर्म की रक्षा और दुष्टों का दमन करने के लिये आप अवतार ग्रहण करते हैं और निग्रह-अनुग्रह भी करते हैं। आप जगत के पिता, गुरु और स्वामी हैं। आप जगत का नियन्त्रण करने के लिये दण्ड धारण किये हुए दुस्तर काल हैं। आप अपने भक्तों की लालसा पूर्ण करने के लिये स्वच्छन्दता से लीला-शरीर प्रकट करते हैं और जो लोग हमारी तरह अपने को ईश्वर मान बैठते हैं, उनका मान-मर्दन करते हुए अनेकों प्रकार की लीलाएँ करते हैं।

प्रभो! जो मेरे-जैसे अज्ञानी और अपने को जगत का ईश्वर मानने वाले हैं, वे जब देखते हैं कि बड़े-बड़े भय के अवसरों पर भी आप निर्भय रहते हैं, तब वे अपना घमंड छोड़ देते हैं और गर्वरहित होकर संतपुरुषों के द्वारा सेवित भक्तिमार्ग का आश्रय लेकर आपका भजन करते हैं। प्रभो! आपकी एक-एक चेष्टा दुष्टों के लिये दण्डविधान है। प्रभो! मैंने ऐश्वर्य के मद से चूर होकर आपका अपराध किया है; क्योंकि मैं आपकी शक्ति और प्रभाव के सम्बन्ध में बिलकुल अनजान था।

परमेश्वर! आप कृपा करके मुझ मूर्ख अपराधी का यह अपराध क्षमा करें और ऐसी कृपा करें कि मुझे फिर कभी ऐसे दुष्ट अज्ञान का शिकार न होना पड़े। स्वयंप्रकाश, इन्द्रियातीत परमात्मन! आपका यह अवतार इसलिये हुआ है कि जो असुर-सेनापति केवल अपना पेट पालने में ही लग रहे हैं और पृथ्वी के लिये बड़े भारी भार के कारण बन रहे हैं, उनका वध करके उन्हें मोक्ष दिया जाय और जो आपके चरणों के सेवक हैं - आज्ञाकारी भक्तजन हैं, उनका अभ्युदय हो - उनकी रक्षा हो। भगवन! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप सर्वान्तर्यामी पुरुषोत्तम तथा सर्वात्मा वासुदेव हैं। आप यदुवंशियों के एकमात्र स्वामी, भक्तवत्सल एवं सबके चित्त को आकर्षित करने वाले हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तविंश अध्याय श्लोक 11-24 का हिन्दी अनुवाद)

आपने जीवों के समान कर्मवश होकर नहीं, स्वन्त्रता से अपने भक्तों की तथा अपनी इच्छा के अनुसार शरीर स्वीकार किया है। आपका यह शरीर ही विशुद्ध-ज्ञानस्वरूप है। आप सब कुछ हैं, सबके कारण हैं और सबके आत्मा हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ। भगवन! मेरे अभिमान का अन्त नहीं है और मेरा क्रोध भी बहुत ही तीव्र, मेरे वश के बाहर है। जब मैंने देखा कि मेरा यज्ञ तो नष्ट कर दिया गया, तब मैंने मूसलाधार वर्षा और आँधी के द्वारा सारे व्रजमण्डल को नष्ट कर देना चाहा। परन्तु प्रभो! आपने मुझ पर बहुत ही अनुग्रह किया। मेरी चेष्टा व्यर्थ होने से मेरे घमंड जड़ उखड गयी। आप मेरे स्वामी हैं, गुरु हैं और मेरे आत्मा हैं। मैं आपकी शरण में हूँ।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब देवराज इन्द्र ने भगवान श्रीकृष्ण की इस प्रकार स्तुति की, तब उन्होंने हँसते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी से इन्द्र को सम्बोधन करके कहा -

श्री भगवान ने कहा ;- इन्द्र! तुम ऐश्वर्य और धन-सम्पत्ति के मद से पूरे-पूरे मतवाले हो रह थे। इसलिये तुम पर अनुग्रह करके ही मैंने तुम्हारा यज्ञ भंग किया है। यह इसलिये कि अब तुम मुझे नित्य-निरन्तर स्मरण रख सको। जो ऐश्वर्य और धन-सम्पत्ति के मद से अंधा हो जाता है, वह यह नहीं देखता कि मैं कालरूप परमेश्वर हाथ में दण्ड लेकर उसके सिर पर सवार हूँ। मैं जिस पर अनुग्रह करना चाहता हूँ, उसे ऐश्वर्य भ्रष्ट कर देता हूँ। इन्द्र! तुम्हारा मंगल हो। अब तुम अपनी राजधानी अमरावती में जाओ और मेरी आज्ञा का पालन करो। अब कभी घमंड न करना। नित्य-निरन्तर मेरी सन्निधिका, मेरे संयोग का अनुभव करते रहना और अपने अधिकार के अनुसार उचित रीति से मर्यादा का पालन करना।

परीक्षित! भगवान इस प्रकार आज्ञा दे ही रहे थे कि मनस्विनी कामधेनु ने अपनी सन्तानों के साथ गोपवेषधारी परमेश्वर श्रीकृष्ण की वन्दना की और उनको सम्बोधित करके कहा-

कामधेनु ने कहा ;- सच्चिदानंदस्वरूप श्रीकृष्ण! आप महायोगी - योगेश्वर हैं। आप स्वयं विश्व हैं, विश्व के परम कारण हैं, अच्युत हैं। सम्पूर्ण विश्व के स्वामी आपको अपने रक्षक के रूप में प्राप्त कर हम सनाथ हो गयी। आप जगत के स्वामी हैं, परन्तु हमारे तो परम पूजनीय आराध्यदेव ही हैं। प्रभो! इन्द्र त्रिलोकी के इन्द्र हुआ करें, परन्तु इन्द्र तो आप ही हैं। अतः आप ही गौ, ब्राह्मण, देवता और साधुजनों की रक्षा के लिये हमारे इन्द्र बन जाइये। हम गौएँ ब्रह्मा जी की प्रेरणा से आपको अपना इन्द्र मानकर अभिषेक करेंगी। विश्वात्मन! आपने पृथ्वी का भार उतारने के लिये ही अवतार धारण किया है।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण से ऐसा कहकर कामधेनु अपने दूध से और देव माताओं की प्रेरणा से देवराज इन्द्र ने ऐरावत की सूँड के द्वारा लाये हुए आकाशगंगा के जल से देवर्षियों के साथ यदुनाथ श्रीकृष्ण का अभिषेक किया और उन्हें ‘गोविन्द’ नाम से सम्बोधित किया। उस समय वहाँ नारद, तुम्बुरु आदि गन्धर्व, विद्याधर, सिद्ध और चरण पहले से ही आ गये थे। वे समस्त संसार के पाप-ताप को मिटा देने वाले भगवान के लोकमलापह यश गान करने लगे और अप्सराएँ आनन्द से भरकर नृत्य करने लगीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तविंश अध्याय श्लोक 25-28 का हिन्दी अनुवाद)

मुख्य-मुख्य देवता भगवान की स्तुति करके उन पर नन्दन वन के दिव्य पुष्पों की वर्षा करने लगे। तीनों लोकों में परमानन्द की बाढ़ आ गयी और गौओं के स्तनों से आप-ही-आप इतना दूध गिरा कि पृथ्वी गीली हो गयी। वृक्षों से मधुधारा बहने लगी। बिना जोते-बोये पृथ्वी में अनेकों प्रकार की औषधियाँ, अन्न पैदा हो गये। पर्वतों में छिपे हुए मणि-माणिक्य स्वयं ही बाहर निकल आये।

परीक्षित! श्रीकृष्ण का अभिषेक होने पर जो जीव स्वभाव से ही क्रूर हैं, वे भी वैरहीन हो गये, उसमें भी परस्पर मित्रता हो गयी। इन्द्र ने इस प्रकार गौ और गोकुल के स्वामी 'श्रीगोविन्द' का अभिषेक किया और उनसे अनुमति प्राप्त होने पर देवता, गन्धर्व आदि के साथ स्वर्ग की यात्रा की।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                     【अठाइसवाँ अध्याय:】२८.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टाविंश अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"वरूण लोक से नन्दजी को छुड़ाकर लाना "
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! नन्दबाबा ने कार्तिक शुक्ल एकादशी का उपवास किया और भगवान की पूजा की तथा उसी दिन रात में द्वादशी लगने पर स्नान करने के लिये यमुना-जल में प्रवेश किया। नन्दबाबा को यह मालूम नहीं था कि यह असुरों की वेला है, इसलिये वे रात के समय ही यमुनाजल में घुस गये। उस समय वरुण के सेवक एक असुर ने उन्हें पकड़ लिया और वह अपने स्वामी के पास ले गया।

नन्दबाबा के खो जाने से व्रज के सारे गोप ‘श्रीकृष्ण! अब तुम्हीं अपने पिता को ला सकते हो; बलराम! अब तुम्हारा ही भरोसा है’ - इस प्रकार कहते हुए रोने-पीटने लगे। भगवान श्रीकृष्ण सर्वशक्तिमान हैं एवं सदा से ही अपने भक्तों का भय भगाते आये हैं। जब उन्होंने व्रजवासियों का रोना-पीटना सुना और यह जाना कि पिता जी को वरुण का कोई सेवक ले गया है, तब वे वरुण जी के पास गये। जब लोकपाल वरुण ने देखा कि समस्त जगत के अंतरिन्द्रिय और बहिरिन्द्रियों के प्रवर्तक भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही उनके यहाँ पधारे हैं, तब उन्होंने उनकी बहुत बड़ी पूजा की। भगवान के दर्शन से उनका रोम-रोम आनन्द से खिल उठा। इसके बाद उन्होंने भगवान से निवेदन किया।

वरुण जी ने कहा ;- प्रभो! आज मेरा शरीर धारण करना सफल हुआ। आज मुझे सम्पूर्ण पुरुषार्थ प्राप्त हो गया; क्योंकि आज मुझे आपके चरणों की सेवा का शुभ अवसर प्राप्त हुआ है। भगवान! जिन्हें भी आपके चरणकमलों की सेवा का सुअवसर मिला, वे भवसागर से पार हो गये। आप भक्तों के भगवान, वेदान्तियों के ब्रह्म और योगियों के परमात्मा हैं। आपके स्वरूप में विभिन्न लोकसृष्टियों की कल्पना करने वाली माया नहीं है - ऐसा श्रुति कहती है।

मैं आपको नमस्कार करता हूँ। प्रभो! मेरा यह सेवक बड़ा मूढ़ और अनजान है। वह अपने कर्तव्य को भी नहीं जानता। वही आपके पिताजी को ले आया है, आप कृपा करके उसका अपराध क्षमा कीजिये। गोविन्द! मैं जानता हूँ कि आप अपने पिता के प्रति बड़ा प्रेमभाव रखते हैं। ये आपके पिता हैं। इन्हें आप ले जाइये। परन्तु भगवन! आप सबके अन्तर्यामी, सबके साक्षी हैं। इसलिये विश्वविमोहन श्रीकृष्ण! आप मुझ दास पर भी कृपा कीजिये।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मा आदि ईश्वरों के भी ईश्वर हैं। लोकपाल वरुण ने इस प्रकार उनकी स्तुति करके उन्हें प्रसन्न किया। इसके बाद भगवान अपने पिता नन्द जी को लेकर व्रज में चले आये और व्रजवासी भाई-बन्धुओं को आनन्दित किया। नन्दबाबा ने वरुणलोक में लोकपाल के इन्द्रियातीत ऐश्वर्य और सुख-सम्पत्ति को देखा तथा यह भी देखा कि वहाँ के निवासी उनके पुत्र श्रीकृष्ण के चरणों में झुक-झुककर प्रणाम कर रहे हैं। उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने व्रज में आकर अपने जाति-भाइयों को सब बातें कह सुनायीं।

परीक्षित! भगवान के प्रेमी गोप यह सुनकर ऐसा समझने लगे कि अरे, ये तो स्वयं भगवान हैं। तब उन्होंने मन-ही-मन बड़ी उत्सुकता से विचार किया कि क्या कभी जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण हम लोगों को भी अपना वह मायातीत स्वधाम, जहाँ केवल इनके प्रेमी-भक्त ही जा सकते हैं, दिखलायेंगे।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण स्वयं सर्वदर्शी हैं। भला, उनसे यह बात कैसे छिपी रहती? वे अपने आत्मीय गोपों की यह अभिलाषा जान गये और उनका संकल्प सिद्ध करने के लिये कृपा से भरकर इस प्रकार सोचने लगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टाविंश अध्याय श्लोक 13-17 का हिन्दी अनुवाद)

‘इस संसार में जीव अज्ञानवश शरीर में आत्मबुद्धि करके भाँति-भाँति की कामना और उनकी पूर्ति के लिये नाना प्रकार के कर्म करता है। फिर उनके फलस्वरूप देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि ऊँची-नीची योनियों में भटकता फिरता है, अपनी असली गति को - आत्मस्वरूप को नहीं पहचान पाता।

परम दयालु भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सोचकर उन गोपों को मयान्धकार से अतीत अपना परमधाम दिखलाया।

भगवान ने पहले उनको उस ब्रह्म का साक्षात्कार करवाया जिसका स्वरूप सत्य, ज्ञान, अनन्त, सनातन और ज्योतिःस्वरूप है तथा समाधिनिष्ठ गुणातीत पुरुष ही जिसे देख पाते हैं।

जिस जलाशय में अक्रूर को भगवान ने अपना स्वरूप दिखलाया था, उसी ब्रह्मस्वरूप ब्रह्महृद में डुबकी लगायी। वे ब्रह्महृद में प्रवेश कर गये। तब भगवान ने उसमें से उनको निकालकर अपने परमधाम का दर्शन कराया। उस दिव्य भगवत्स्वरूप लोक को देखकर नन्द आदि गोप परमानन्द में मग्न हो गये। वहाँ उन्होंने देखा कि सारे वेद मूर्तिमान होकर भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति कर रहे हैं। यह देखकर वे सब-के-सब परम विस्मित हो गये।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                     【उन्नतिसवाँ अध्याय:】२९


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्याय श्लोक 1-6 का हिन्दी अनुवाद)

"रासलीला का आरम्भ"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! शरद् ऋतु थी। उसके कारण बेला, चमेली आदि सुगन्धित पुष्प खिलकर महँ-महँ महक रहे थे। भगवान ने चीरहरण के समय गोपियों को जिन रात्रियों का संकेत किया था, वे सब-की-सब पुंजीभूत होकर एक ही रात्रि के रूप में उल्लसित हो रही थीं। भगवान ने उन्हें देखा, देखकर दिव्य बनाया। गोपियाँ तो चाहती ही थीं। अब भगवान ने भी अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमाया के सहारे उन्हें निमित्त बनाकर रसमयी रासक्रीडा करने का संकल्प किया। अमना होने पर भी उन्होंने अपने प्रेमियों की इच्छा पूर्ण करने के लिये मन स्वीकार किया।

भगवान के संकल्प करते ही चन्द्रदेव ने प्राची दिशा के मुखमण्डल पर अपने शीतल किरणरुपी करकमलों से लालिमा की रोली-केसर मल दी, जैसे बहुत दिनों के बाद अपनी प्राणप्रिया पत्नी के पास आकर उसके प्रियतम पति ने उसे आनन्दित करने के लिये ऐसा किया हो! इस प्रकार चन्द्रदेव ने उदय होकर न केवल पूर्व दिशा का, प्रत्युत संसार के समस्त चर-अचर प्राणियों का सन्ताप-जो दिन में शरत्कालीन प्रखर सूर्य-रश्मियों के कारण बढ़ गया था - दूर कर दिया।

उस दिन चन्द्रदेव का मण्डल अखण्ड था। पूर्णिमा की रात्रि थी। वे नूतन केश के समान लाल-लाल हो रहे थे, कुछ संकोच मिश्रित अभिलाषा से युक्त जान पड़ते थे। उनका मुखमण्डल लक्ष्मी जी के समान मालूम हो रहा था। उनकी कोमल किरणों से सारा वन अनुराग के रंग में रंग गया था। वन के कोने-कोने में उन्होंने अपनी चाँदनी के द्वारा अमृत का समुद्र उड़ेल दिया था। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने दिव्य उज्ज्वल रस के उद्दीपन की पूरी सामग्री से उन्हें और उस वन को देखकर अपनी बाँसुरी पर व्रजसुन्दरियों के मन को हरण करने वाली काम बीज ‘क्लीं’ की अस्पष्ट एवं मधुर तान छेड़ी।

भगवान का यह वंशीवादन भगवान के प्रेम को, उनके मिलन की लालसा को अत्यन्त उकसाने वाला - बढ़ाने वाला था। यों तो श्यामसुन्दर ने पहले से ही गोपियों के मन को अपने वश में कर रखा था। अब तो उनके मन की सारी वस्तुएँ - भय, संकोच, धैर्य, मर्यादा आदि की वृत्तियाँ थी - छीन लीं। वंशीध्वनि सुनते ही उनकी विचित्र गति हो गयी। जिन्होंने एक साथ साधना की थी श्रीकृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने के लिये, वे गोपियाँ भी एक-दूसरे से अपनी चेष्टा को छिपाकर जहाँ वे थे, वहाँ के लिये चल पड़ी। परीक्षित! वे इतने वेग से चली थीं कि उनके कानों के कुण्डल झोंके खा रहे थे।

वंशी ध्वनि सुनकर जो गोपियाँ दूध दुह रही थीं, वे अत्यन्त उत्सुकतावश दूध दुहना छोड़कर चल पड़ीं। जो चूल्हे पर दूध औटा रही थी, वे उफनता हुआ दूध छोड़कर और जो लपसी पका रही थीं वे पकी हुई लपसी बिना उतारे ही ज्यों-की-त्यों छोड़कर चल दीं। जो भोजन परस रहीं थीं वे परसना छोड़कर, जो छोटे-छोटे बच्चों को दूध पिला रहीं थीं वे दूध पिलाना छोड़कर, जो पतियों की सेवा-शुश्रूषा कर रही थीं वे सेवा-शुश्रूषा छोड़कर और जो स्वयं भोजन कर रही थीं वे भोजन करना छोड़कर अपने कृष्ण प्यारे के पास चल पड़ी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनत्रिंशोऽध्यायः श्लोक 7-14 का हिन्दी अनुवाद)

कोई-कोई गोपी अपने शरीर में अंगराग चन्दन और उबटन लगा रही थी और कुछ आँखों में अंजन लगा रही थीं। वे उन्हें छोड़कर तथा उलटे-पलटे वस्त्र धारणकर श्रीकृष्ण के पास पहुँचने के लिये चल पड़ी। पिता और पतियों ने, भाई और जाति-बंधुओं ने उन्हें रोका, उनकी मंगलमयी प्रेमयात्रा में विघ्न डाला। परन्तु वे इतनी मोहित हो गयी थीं कि रोकने पर भी न रुकीं, न रुक सकीं। रुकती कैसे? विश्वविमोहन श्रीकृष्ण ने उनके प्राण, मन और आत्मा सब कुछ का अपहरण जो कर लिया था।

परीक्षित! उस समय कुछ गोपियाँ घरों के भीतर थीं। उन्हें बाहर निकलने का मार्ग ही न मिला। तब उन्होंने अपने नेत्र मूँद लिये और बड़ी तन्मयता से श्रीकृष्ण के सौन्दर्य, माधुर्य और लीलाओं का ध्यान करने लगीं। परीक्षित! अपने परम प्रियतम श्रीकृष्ण के असह्य विरह की तीव्र वेदना से उनके हृदय में इतनी व्यथा - इतनी जलन हुई कि उनमें जो कुछ अशुभ संस्कारों का लेशमात्र अवशेष था, वह भस्म हो गया। इसके बाद तुरंत ही ध्यान लग गया।

ध्यान में उनके सामने भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हुए। उन्होंने मन-ही-मन बड़े प्रेम से, बड़े आवेग से उनका आलिंगन किया। उस समय उन्हें इतना सुख, इतनी शान्ति मिली कि उनके सब-के-सब पुण्य के संस्कार एक साथ ही क्षीण हो गये। परीक्षित! यद्यपि उनका उस समय श्रीकृष्ण के प्रति जारभाव भी था; तथापि कहीं सत्य वस्तु भी भाव की अपेक्षा रखती है? उन्होंने जिनका आलिंगन किया, चाहे किसी भी भाव किया हो, वे स्वयं परमात्मा ही तो थे। इसलिये उन्होंने पाप और पुण्य रूप कर्म के परिणाम से बने हुए गुणमय शरीर का परित्याग कर दिया। इस शरीर से भोगे जाने वाले कर्मबन्धन तो ध्यान के समय छिन्न-भिन्न हो चुके थे।

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन! गोपियाँ तो भगवान श्रीकृष्ण को केवल अपना परम प्रियतम ही मानती थीं। उनका उसमें ब्रह्मभाव नहीं था। इस प्रकार उनकी दृष्टि प्राकृत गुणों में ही आसक्त देखती है। ऐसी स्थिति में उनके लिये गुणों के प्रवाह रूप इस संसार की निवृति कैसे संभव हुई।

श्री शुकदेव जी ने कहा ;- परीक्षित! मैं तुमसे पहले ही कह चुका हूँ कि चेदिराज शिशुपाल भगवान के प्रति द्वेषभाव रखने पर भी अपने प्राकृत शरीर को छोडकर अप्राकृत शरीर से उनका पार्षद हो गया। ऐसी स्थिति में जो समस्त प्रकृति और उसके गुणों से अतीत भगवान श्रीकृष्ण की प्यारी हैं और उनसे अन्यन्य प्रेम करती हैं, वे गोपियों उन्हें प्राप्त हो जायँ - इसमें कौन-सी आश्चर्य की बात है।

परीक्षित! वास्तव में भगवान प्रकृति सम्बन्धी वृद्धि-विनाश, प्रमाण-प्रमेय और गुण-गुणी भाव से रहित हैं। वे अचिन्त्य अनन्त अप्राकृत परम कल्याणस्वरूप का गुणों के एकमात्र आश्रय हैं। उन्होंने यह जो अपने को तथा अपनी लीला को प्रकट किया है, उसका प्रयोजन केवल इतना ही है कि जीव उसके सहारे अपना परम कल्याण सम्पादन करे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्याय श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद)

इसलिये भगवान से केवल सम्बन्ध हो जाना चाहिये। वह सम्बन्ध चाहे जैसा हो - काम का हो, क्रोध का हो या भय का हो; स्नेह, नातेदारी या सौहार्द का हो। चाहे जिस भाव से भगवान में नित्य-निरन्तर अपनी वृत्तियाँ जोड़ दी जायँ, वे भगवान से ही जुड़ती हैं। इसलिये वृत्तियाँ भगवन्मय हो जाती हैं और उस जीव को भगवान की ही प्राप्ति होती है।

परीक्षित! तुम्हारे-जैसी परम भागवत भगवान का रहस्य जानने वाले भक्तों को श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में ऐसा सन्देह नहीं करना चाहिये। योगेश्वरों के भी ईश्वर अजन्मा भगवान के लिये भी यह कोई आश्चर्य की बात है? अरे! उनके संकल्पमात्र से - भौंहों के इशारे से सारे जगत का परम कल्याण हो सकता है। जब भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि व्रज की अनुपम विभूतियाँ गोपियाँ मेरे बिलकुल पास आ गयी हैं, तब उन्होंने अपनी विनोद भरी वाक् चातुरी से उन्हें मोहित करते हुए कहा - क्यों न हो - भूत, भविष्य और वर्तमान काल के जितने वक्ता हैं, उसमें वे ही तो सर्वश्रेष्ठ हैं।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- महाभाग्यवती गोपियों! तुम्हारा स्वागत है। बतलाओ, तुम्हें प्रसन्न करने के लिये मैं कौन-सा काम करूँ? व्रज में तो सब कुशल-मंगल है न? कहो, इस समय यहाँ आने की क्या आवश्यकता पड़ गयी? सुन्दरी गोपियों! रात का समय है, यह स्वयं ही बड़ा भयावना होता है और इसमें बड़े-बड़े भयावने जीव-जन्तु इधर-उधर घूमते रहते हैं। अतः तुम सब तुरन्त व्रज में लौट जाओ। रात के समय घोर जंगल में स्त्रियों को नहीं रुकना चाहिये। तुम्हें न देखकर तुम्हारे माँ-बाप, पति-पुत्र और भाई-बन्धु ढूँढ रहे होंगे। उन्हें भय में न डालो।

तुम लोगों ने रंग-बिरंगे पुष्पों से लदे हुए इस वन की शोभा को देखा। पूर्ण चन्द्रमा की कोमल रश्मियों से यह रंगा हुआ है, मानो उन्होंने अपने हाथों चित्रकारी की हो; और यमुना जी के जल का स्पर्श करके बहने वाले शीतल समीर की मन्द-मन्द गति से हिलते हुए ये वृक्षों के पत्ते तो इस वन की शोभा को और भी बढ़ा रहे हैं। परन्तु अब तो तुम लोगों ने यह सब कुछ देख लिया। अब देर मत करो, शीघ्र-से-शीघ्र व्रज में लौट जाओ। तुम लोग कुलीन स्त्री हो और स्वयं भी सती हो; जाओ, अपने पतियों की और सतियों की सेवा-शुश्रूषा करो।

देखो, तुम्हारे घर के नन्हे-नन्हे बच्चे और गौओं के बछड़े रो-रंभा रहे हैं; उन्हें दूध पिलाओ, गौएँ दुहो। अथवा यदि मेरे प्रेम से परवश होकर तुम लोग यहाँ आयी हो तो इसमें कोई अनुचित बात नहीं हुई, यह तो तुम्हारे योग्य ही है; क्योंकि जगत के पशु-पक्षी तक मुझसे प्रेम करते हैं, मुझे देखकर प्रसन्न होते हैं। कल्याणी गोपियों! स्त्रियों का परम धर्म यही है कि वे पति और उसके भाई-बन्धुओं की निष्कपटभाव से सेवा करें और सन्तान का पालन-पोषण करें। जिन स्त्रियों को उत्तम लोक प्राप्त करने की अभिलाषा हो, वे पातकी को छोड़कर और किसी प्रकार भी प्रकार के पति का परित्याग न करें। भले ही वह बुरे स्वभाव-वाला, भाग्यहीन, वृद्ध, मूर्ख, रोगी या निर्धन ही क्यों न हो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्याय श्लोक 26-33 का हिन्दी अनुवाद)

कुलीन स्त्रियों के लिये जार पुरुष की सेवा सब तरह से निन्दनीय ही है। इससे उनका परलोक बिगड़ता है, स्वर नहीं मिलता, इस लोक में अपयश होता है। यह कुकर्म स्वयं तो अत्यन्त तुच्छ, क्षणिक है ही; इसमें प्रत्यक्ष - वर्तमान में भी कष्ट-ही-कष्ट है। मोक्ष आदि की तो बात ही कौन करे, यह साक्षात परम भय - नरक आदि का हेतु है। गोपियों! मेरी लीला और गुणों के श्रवण से, रूप के दर्शन से, उन सबके कीर्तन और ध्यान से मेरे प्रति अनन्य प्रेम की प्राप्ति होती है, वैसे प्रेम की प्राप्ति पास रहने से नहीं होती। इसलिये तुम लोग अभी अपने-अपने घर लौट जाओ।


श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण का यह अप्रिय भाषण सुनकर गोपियाँ उदास, खिन्न हो गयीं। उनकी आशा टूट गयी। वे चिन्ता के अथाह एवं अपार समुद्र के में डूबने-उतराने लगीं। उनके बिम्बाफल के समान लाल-लाल अधर शोक के कारण चलने वाली लम्बी और गरम सांस से सूख गये। उन्होंने अपने मुँह नीचे की ओर लटका लिये, वे पैर के नखों से धरती कुरेदने लगीं। नेत्रों से दुःख के आंसू बह-बहकर काजल के साथ वक्षःस्थल पर पहुँचने और वहाँ लगी हुई केशर को धोने लगे।

उनका हृदय दुःख से इतना भर गया कि वे कुछ बोल न सकीं, चुपचाप खड़ी रह गयीं। गोपियों ने अपने प्यारे श्यामसुन्दर के लिये सारी कामनाएँ, सारे भोग छोड़ दिये थे। श्रीकृष्ण में उनका अनन्य अनुराग, परम प्रेम था। जब उन्होंने अपने प्रियतम श्रीकृष्ण की यह निष्ठुरता से भारी बात सुनी, जो बड़ी ही अप्रिय-सी मालूम हो रही थी, तब उन्हें बड़ा दुःख हुआ। आँखें रोते-रोते लाल हो गयीं, आंसुओं के मारे रूंध गयीं। उन्होंने धीरज धारण करके अपनी आँखों के आँसू पोंछे और फिर प्रणयकोप के कारण वे गद्गद वाणी से कहने लगीं।


गोपियों ने कहा ;- प्यारे श्रीकृष्ण! तुम घट-घट व्यापी हो। हमारे हृदय की बात जानते हो। तुम्हें इस प्रकार निष्ठुरता भरे वचन नहीं कहने चाहिये। हम सब कुछ छोड़कर केवल तुम्हारे चरणों में ही प्रेम करती हैं। इसमें सन्देह नहीं कि तुम स्वतन्त्र और हठीले हो। तुम पर हमारा कोई वश नहीं है। फिर भी तुम अपनी और से, जैसे आदि पुरुष भगवान नारायण कृपा करके अपने मुमुक्षु भक्तों से प्रेम करते हैं, वैसे ही हमें स्वीकार कर लो। हमारा त्याग मत करो।

प्यारे श्यामसुन्दर! तुम सब धर्मों का रहस्य जानते हो। तुम्हारा यह कहना कि ‘अपने पति, पुत्र और भाई-बंधुओं की सेवा करना ही स्त्रियों का स्वधर्म है’ - अक्षरशः ठीक है। परन्तु इस उपदेश के अनुसार हमें तुम्हारी ही सेवा करनी चाहिये; क्योंकि तुम्हीं सब उपदेशों के पद हो; साक्षात भगवान हो। तुम्हीं समस्त शरीरधारियों के सुहृद हो, आत्मा हो और परम प्रियतम हो। आत्मज्ञान में निपुण महापुरुष तुमसे ही प्रेम करते हैं, क्योंकि तुम नित्य प्रिय एवं अपने ही आत्मा हो। अनित्य एवं दुःखद पति-पुत्रादि से क्या प्रयोजन है? परमेश्वर! इसलिये हम पर प्रसन्न होओ। कृपा करो। कमलनयन! चिरकाल से तुम्हारे प्रति पाली-पोसी-आशा-अभिलाषा की लहलहाती लता का छेदन मत करो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्याय श्लोक 34-39 का हिन्दी अनुवाद)

मनमोहन! अब तक हमारा चित्त घर के काम-धंधों में लगता था। इसी से हमारे हाथ भी उसमें रमे हुए थे। परन्तु तुमने हमारे देखते-देखते हमारा वह चित लूट लिया। इसमें तुम्हें कोई कठिनाई भी नहीं उठानी पड़ी, तुम तो सुखस्वरूप हो न! परन्तु अब तो हमारी गति-मति निराली ही हो गयी है। हमारे ये पैर तुम्हारे चरण कमलों को छोड़कर एक पग भी हटने के लिये तैयार नहीं हैं, नहीं हट रहे हैं। फिर हम व्रज में कैसे जायँ? और यदि वहाँ जायँ भी तो करें क्या?

प्राणवल्लभ! हमारे प्यारे सखा! तुम्हारी मन्द-मन्द मधुर मुस्कान, प्रेम भरी चितवन और मनोहर संगीत ने हमारे हृदय में तुम्हारे प्रेम और मिलन की आग धधका दी है। उसे तुम अपने अधरों की रसधार से बुझा दो। नहीं तो प्रियतम! हम सच कहतीं हैं, तुम्हारी विरह व्यथा की आग से हम अपने-अपने शरीर जला देंगी और ध्यान के द्वारा तुम्हारे चरणकमलों को प्राप्त करेंगी।

प्यारे कमलनयन! तुम वनवासियों के प्यारे और वे भी तुमसे बहुत प्रेम करते हैं। इससे प्रायः तुम उन्हीं के पास रहते हो। यहाँ तक कि तुम्हारे जिन चरणकालों की सेवा का अवसर स्वयं लक्ष्मी जी को कभी-कभी ही मिलता है, उन्हीं चरणों का स्पर्श हमें प्राप्त हुआ। जिस दिन यह सौभाग्य हमें मिला और तुमने हमें स्वीकार करके आनन्दित दिया, उसी दिन से हम और किसी के सामने एक क्षण के लिये भी ठहरने में असमर्थ हो गयी हैं - पति-पुत्रादि को की सेवा तो दूर रही।

हमारे स्वामी! जिन लक्ष्मी जी का कृपा कटाक्ष प्राप्त करने के लिये बड़े-बड़े देवता तपस्या करते रहते हैं, वही लक्ष्मी जी तुम्हारे वक्षःस्थल में बिना किसी की प्रतिद्वंद्विता के स्थान प्राप्त कर लेने पर भी अपनी सौत तुलसी के साथ तुम्हारे चरणों की रज पाने की अभिलाषा किया करती हैं। अब तक के सभी भक्तों ने उस चरणरज का सेवन किया है। उन्हीं के समान हम भी तुम्हारी उसी चरणरज की शरण में आयी हैं।

भगवन! अब तक जिसने भी तुम्हारे चरणों की शरण की, उसके सारे कष्ट तुमने मिटा दिये। अब तुम हम पर कृपा करो। हमें भी अपने प्रसाद का भाजन बनाओ। हम तुम्हारी सेवा करने की आशा-अभिलाषा से घर, गाँव, कुटुम्ब - सब कुछ छोड़कर तुम्हारे युगल चरणों की शरण में आयी हैं। प्रियतम! वहाँ तो तुम्हारी आराधना के लिये अवकाश ही नहीं है। पुरुषभूषण! पुरुषोत्तम! तुम्हारी मधुर मुस्कान और चारू चितवन ने हमारे हृदय में प्रेम की - मिलन की आकांक्षा की आग धधका दी है; हमारा रोम-रोम उससे जल रहा है। तुम हमें अपनी दासी के रूप में स्वीकार कर लो। हमें अपनी सेवा का अवसर दो।

प्रियतम! तुम्हारा सुन्दर मुखकमल, जिस पर घुँघराली अलकें झलक रही हैं; तुम्हारे ये कमनीय कपोल, जिन पर सुन्दर-सुन्दर कुण्डल अपना अनन्त सौन्दर्य बिखेर रहे हैं; तुम्हारे ये मधुर अधर, जिनकी सुधा सुधा को भी लजाने वाली है; तुम्हारी यह नयन मनोहारी चितवन, जो मन्द-मन्द मुस्कान से उल्लसित हो रही है; तुम्हारी ये दोनों भुजाएँ, जो शरणागतों को अभयदान देने में अत्यन्त उदार हैं और तुम्हारा यह वक्षःस्थल, जो लक्ष्मी जी का - सौन्दर्य की एकमात्र देवी का नित्य क्रीडास्थल है, देखकर हम सब तुम्हारी दासी हो गयी हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्याय श्लोक 40-48 का हिन्दी अनुवाद)

प्यारे श्यामसुन्दर! तीनों लोकों में भी और ऐसी कौन-सी स्त्री है, जो मधुर-मधुर पद और आरोह-अवरोह-क्रम से विविध प्रकार की मूर्च्छानाओं से युक्त तुम्हारी वंशी की तान सुनकर तथा इस त्रिलोकसुन्दर मोहिनी मूर्ति को - जो अपने एक बूँद सौन्दर्य से त्रिलोकी को सौन्दर्य का दान करती है एवं जिसे देखकर गौ, पक्षी, वृक्ष और हिरन भी रोमांचित, पुलकित हो जाते हैं - अपने नेत्रों से निहारकर आर्य-मर्यादा से विचलित न हो जाय, कुल-कान और लोकलज्जा को त्यागकर तुममें अनुरक्त न हो जाय। हमसे यह बात छिपी नहीं है कि जैसे भगवान नारायण देवताओं की रक्षा करते हैं, वैसे ही तुम व्रजमण्डल का भय और दुःख मिटाने के लिये ही प्रकट हुए हो! और यह भी स्पष्ट ही है कि दीन-दुखियों पर तुम्हारा बड़ा प्रेम, बड़ी कृपा है। प्रियतम! हम भी बड़ी दुःखिन हैं। तुम्हारे मिलन की आकांक्षा की आग से हमारा वक्षःस्थल जल रहा है। तुम अपनी इन दासियों के वक्षःस्थल और सिर पर अपने कोमल कर कमल रखकर इन्हें अपना लो; हमें जीवनदान दो।


श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शिवादि योगेश्वरों के भी ईश्वर हैं। जब उन्होंने गोपियों की व्यथा और व्याकुलता से भरी वाणी सुनी, तब उनका हृदय दया से भर गया और यद्यपि वे आत्माराम हैं - अपने-आपमें ही रमण करते रहते हैं, उन्हें अपने अतिरिक्त और किसी भी बाह्य वस्तु की अपेक्षा नहीं है, फिर भी उन्होंने हँसकर उनके साथ क्रीडा प्रारम्भ की।

भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी भाव-भंगी और चेष्टाएँ गोपियों के अनुकूल कर दीं; फिर भी वे अपने स्वरूप में ज्यों-के-त्यों एकरस स्थित थे, अच्युत थे। जब वे खुलकर हँसते, तब उनके उज्ज्वल-उज्ज्वल दाँत कुंदकली के समान जान पड़ते थे। उनकी प्रेम भरी चितवन से और उनके दर्शन के आनन्द से गोपियों का मुखकमल प्रफुल्लित हो गया। वे उन्हें चारों और से घेरकर खड़ी हो गयीं। उस समय श्रीकृष्ण की ऐसी शोभा हुई, मानो अपनी पत्नी तारिकाओं से घिरे हुए चन्द्रमा ही हों।

गोपियों के शत-शत यूथों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण वैजयन्ती माला पहले वृन्दावन को शोभायमान करते हुए विचरण करने लगे। कभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के गुण और लीलाओं का गान करतीं, तो कभी श्रीकृष्ण गोपियों के प्रेम और सौन्दर्य के गीत गाने लगते। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ यमुनाजी के पावन पुलिन पर, जो कपूर के समान चमकीली बालू से जगमगा रहा था, पदार्पण किया।

वह यमुना जी की तरंल तरंगों के स्पर्श के शीतल और कुमुदिनी की सहज सुगन्ध से सुवासित वायु के द्वारा सेवित हो रहा था। उस आनन्दप्रद पुलिन पर भगवान ने गोपियों के साथ क्रीडा की। हाथ फैलाना, आलिंगन करना, गोपियों के हाथ दबाना, उनकी चोटी, जाँघ, नीवी और स्तन आदि का स्पर्श करना, विनोद करना, नख-क्षत करना, विनोदपूर्ण चितवन से देखना और मुस्काना - इन क्रियाओं के द्वारा गोपियों के दिव्य कामरस को, परमोज्ज्वल प्रेमभाव को उत्तेजित करते हुए भगवान श्रीकृष्ण उन्हें क्रीडा द्वारा आनन्दित करने लगे।


उदार शिरोमणि सर्वव्यापक भगवान श्रीकृष्ण ने जब इस प्रकार गोपियों का सम्मान किया, तब स्त्रियों में हम ही सर्वश्रेष्ठ हैं, हमारे समान और कोई नहीं है। वे कुछ मानवती हो गयीं। जब भगवान ने देखा कि इन्हें तो अपने सुहाग का कुछ गर्व हो आया है और अब मान भी करने लगी हैं, तब वे उनका गर्व शान्त करने के लिये तथा उनका मान दूर कर प्रसन्न करने के लिये वही - उनके बीच में ही अन्तर्धान हो गये।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                     【तीसवाँ अध्याय:】३०


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:त्रिंश अध्याय श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

"श्रीकृष्ण के विरहमें गोपियों की दशा"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान सहसा अंतर्धान हो गये। उन्हें न देखकर व्रज युवतियों की वैसी ही दशा हो गयी, जैसे यूथपति गजराज के बिना हथिनियों की होती है। उनका हृदय विरह की ज्वाला से जलने लगा। भगवान श्रीकृष्ण की मदोन्मत्त गजराज की-सी चाल, प्रेमभरी मुस्कान, विलासभरी चितवन, मनोरम प्रेमालाप, भिन्न-भिन्न प्रकार की लीलाओं तथा श्रृंगार-रस की भाव-भंगियों ने उनके चित्त को चुरा लिया था। वे प्रेम की मतवाली गोपियाँ श्रीकृष्णमय हो गयीं और फिर श्रीकृष्ण की विभिन्न चेष्टाओं का अनुकरण करने लगीं।

अपने प्रियतम श्रीकृष्ण की चाल-ढाल, हास-विलास और चितवन-बोलन आदि में श्रीकृष्ण की प्यारी गोपियाँ उनके समान ही बन गयीं; उनके शरीर में भी वही गति-मति, वही भाव-भंगी उतर आयी। वे अपने को सर्वथा भूलकर श्रीकृष्ण-स्वरूप हो गयीं और उन्हीं के लीला-विलास का अनुकरण करती हुई ‘मैं श्रीकृष्ण ही हूँ’ - इस प्रकार कहने लगीं। वे सब परस्पर मिलकर ऊँचे स्वर से उन्हीं के गुणों का गान करने लगीं और मतवाली होकर एक वन से दूसरे वन में, एक झाड़ी से दूसरी झाड़ी में जा-जाकर श्रीकृष्ण को ढूँढने लगीं।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण कहीं दूर थोड़े ही गये थे। वे तो समस्त जड़-चेतन पदार्थों में तथा उनके बाहर भी आकाश के समान एकरस स्थित ही हैं। वे वहीं थे, उन्हीं में थे, परन्तु उन्हें न देखकर गोपियाँ वनस्पतियों से - पेड़-पौधों से उनका पता पूछने लगीं। ‘हे पीपल, पाकर और बरगद! नन्दनन्दन श्यामसुन्दर अपनी प्रेम भरी मुस्कान और चितवन से हमारा मन चुराकर चले गये हैं। क्या तुम लोगों ने उन्हें देखा है? कुरबक, अशोक, नागकेशर, पुन्नाग और चम्पा! बलराम जी के छोटे भाई, जिनकी मुस्कान - मात्र से बड़ी-बड़ी मनिनियों का मानमर्दन हो जाता है इधर आये थे क्या?’

अब उन्होंने स्त्रीजाति के पौधों से कहा ;- ‘बहिन तुलसी! तुम्हारा हृदय तो बड़ा कोमल है, तुम तो सभी लोगों का कल्याण चाहती हो। भगवान के चरणों में तुम्हारा प्रेम तो है ही, वे भी तुमसे बहुत प्यार करते हैं। तभी तो भौंरों के मँडराते रहने पर भी वे तुम्हारी माला नहीं उतारते, सर्वदा पहले रहते हैं। क्या तुमने अपने परम प्रियतम श्यामसुन्दर को देखा है?

प्याली मालती! मल्लिके! जाती और जूही! तुम लोगों ने कदाचित हमारे प्यारे माधव को देखा होगा। क्या वे अपने कोमल करों से स्पर्श करके तुम्हें आनन्दित करते हुए इधर से गये हैं?’ ‘रसाल, प्रियाल, कटहल, पीतशाल, कचनार, जामुन, आक, बेल, मौलसिरी, आम, कदम्ब और नीम तथा अन्यान्य यमुना के तट पर विराजमान सुखी तरुवरों! तुम्हारा जन्म-जीवन केवल परोपकार के लिये है। श्रीकृष्ण के बिना हमारा जीवन सूना हो रहा है। हम बेहोश हो रही हैं। तुम हमें उन्हें पाने का मार्ग बता दो।'

‘भगवान की प्रेयसी पृथ्वीदेवी! तुमने ऐसी कौन-सी तपस्या की है कि श्रीकृष्ण के चरणकमलों का स्पर्श प्राप्त करके तुम आनन्द से भर रही हो और तृण-लता आदि के रूप में अपना रोमांच प्रकट कर रही हो? तुम्हारा यह उल्लास-विलास श्रीकृष्ण के चरणस्पर्श के कारण है अथवा वामनावतार में विश्वरूप धारण करके उन्होंने तुम्हें जो नापा था, उसके कारण है? कहीं उनसे भी पहले वराह भगवान के अंग-संग के कारण तो तुम्हारी यह दशा नहीं हो रही है?’

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिंश अध्याय श्लोक 11-22 का हिन्दी अनुवाद)

‘अरी सखी! हिरनियों! हमारे श्यामसुन्दर के अंग-संग से सुषमा-सौन्दर्य की धारा बहती रहती है, वे कहीं अपनी प्राणप्रिया के साथ तुम्हारे नयनों को परमानन्द का दान करते हुए इधर से ही तो नहीं गये हैं? देखो, देखो; यहाँ कुलपति श्रीकृष्ण की कुन्दकली की माला की मनोहर गन्ध आ रही है, जो उनकी परम प्रेयसी के अंग-संग से लगे हुए कुच-कुंकुम से अनुरंजित रहती है।’

‘तरुवरों! उनकी माला की तुलसी में ऐसी सुगन्ध है कि उसकी गन्ध के लोभी मतवाले भौंरे प्रत्येक क्षण उस पर मँडराते रहते हैं। उनके एक हाथ में लीला कमल होगा और दूसरा हाथ अपनी प्रेयसी के कंधे पर रखे होंगे। हमारे प्यारे श्यामसुन्दर इधर से विचरते हुए अवश्य गये होंगे। जान पड़ता है, तुम लोग उन्हें प्रणाम करने के लिये ही झुके हो। परन्तु उन्होंने अपनी प्रेमभरी चितवन से भी तुम्हारी वन्दना का अभिनन्दन किया है या नहीं?’ ‘अरी सखी! इन लताओं से पूछो। ये अपने पति वृक्षों को भुजपाश में बाँधकर आलिंगन किये हुए हैं, इससे क्या हुआ? इनके शरीर में जो पुलक है, रोमांच है, वह तो भगवान के नखों के स्पर्श से ही है। अहो! इनका कैसा सौभाग्य है?’

परीक्षित! इस प्रकार मतवाली गोपियाँ प्रलाप करती हुई भगवान श्रीकृष्ण को ढूंढ़ते-ढूंढ़ते कातर हो रही थीं। अब और भी गाढ़ आवेश हो जाने के कारण वे भगवन्मय होकर भगवान की विभिन्न लीलाओं का अनुकरण करने लगीं। एक पूतना बन गयी, तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसका स्तन पीने लगीं। कोई छकड़ा बन गयीं, तो किसी ने बालकृष्ण बनकर रोते हुए उसे पैर की ठोकर मारकर उलट दिया। कोई सखी बालकृष्ण बनकर बैठ गयी तो कोई तृणावर्त दैत्य का रूप धारण कर उसे हर ले गयी। कोई गोपी पाँव घसीट-घसीटकर घुटनों के बल बकैयाँ चलने लगी और उस समय उसके पायजेब रुनझुन-रुनझुन बोलने लगी।

एक बनी कृष्ण, तो दूसरी बनी बलराम, और बहुत-सी गोपियाँ ग्वालबालों के रूप में हो गयीं। एक गोपी बन गयी वत्सासुर, तो दूसरी बनी बकासुर। तब तो गोपियों ने अलग-अलग श्रीकृष्ण बनकर वत्सासुर और बकासुर बनी हुई गोपियों को मारने की लीला की। जैसे श्रीकृष्ण वन में करते थे, वैसे ही एक गोपी बाँसुरी बजा-बजाकर दूर गये हुए पशुओं को बुलाने का खेल-खेलने लगी। तब दूसरी गोपियाँ ‘वाह-वाह’ करके उसकी प्रशंसा करने लगीं।

एक गोपी अपने को श्रीकृष्ण समझकर दूसरी सखी के गले में बाँह डालकर चलती और गोपियों से कहने लगती - ‘मित्रों! मैं श्रीकृष्ण हूँ। तुम लोग मेरी यह मनोहर चाल देखो।' कोई गोपी श्रीकृष्ण बनकर कहती - ‘अरे व्रजवासियों! तुम आँधी-पानी से मत डरो। मैंने उससे बचने का उपाय निकाल लिया है।’ ऐसा कहकर गोवर्धन उठाकर ऊपर तान लेती।

परीक्षित! एक गोपी बनी कालिय नाग, तो दूसरी श्रीकृष्ण बनकर उसके सिर पर पैर रखकर चढ़ी-चढ़ी बोलने लगी - ‘रे दुष्ट साँप! तू यहाँ से चला जा। मैं दुष्टों का दमन करने के लिये ही उत्पन्न हुआ हूँ।' इतने में ही एक गोपी बोली - ‘अरे ग्वालों! देखो, वन में बड़ी भयंकर आग लगी है। तुम लोग जल्दी-से-जल्दी अपनी आँखें मूँद लो, मैं अनायास ही तुम लोगों की रक्षा कर लूँगा।'

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:त्रिंश अध्याय श्लोक 23-35 का हिन्दी अनुवाद)

एक गोपी यशोदा बनी और दूसरी बनी श्रीकृष्ण। यशोदा ने फूलों की माला से श्रीकृष्ण को ऊखल में बाँध दिया। अब वह श्रीकृष्ण बनी हुई सुन्दरी गोपी हाथों से मुँह ढ़ककर भय की नक़ल करने लगी।

परीक्षित! इस प्रकार लीला करते-करते गोपियाँ वृन्दावन के वृक्ष और लता आदि से फिर भी श्रीकृष्ण का पता पूछने लगीं। इसी समय उन्होंने एक स्थान पर भगवान के चरणचिह्न देखे। वे आपस में कहने लगीं - अवश्य ही ये चरणचिह्न उदारशिरोमणि नन्दनन्दन श्यामसुन्दर के हैं; क्योंकि इनमें ध्वजा, कमल, व्रज, अंकुश और जौ आदि के चिह्न स्पष्ट ही दीख रहे हैं।' उन चरणचिह्नों के द्वारा व्रजवल्लभ भगवान को ढूँढती हुई गोपियाँ आगे बढ़ी, तब उन्हें श्रीकृष्ण के साथ किसी व्रजयुवती के भी चरणचिह्न दीख पड़े।

उन्हें देखकर वे व्याकुल हो गयीं। और आपस में कहने लगीं - ‘जैसे हथिनी अपने प्रियतम गजराज के साथ गयी हो, वैसे ही नन्दनन्दन श्यामसुन्दर के साथ उनके कंधे पर हाथ रखकर चलने वाली किस बड़भागिनी के ये चरणचिह्न हैं? अवश्य ही सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण की ‘आराधिका’ होगी। इसीलिये इस पर प्रसन्न होकर हमारे प्राणप्यारे श्यामसुन्दर ने हमें छोड़ दिया है और इसे एकान्त में ले गये हैं।

प्यारी सखियों! भगवान श्रीकृष्ण अपने चरणकमल से जिस रज का स्पर्श कर देते हैं, व धन्य हो जाती है, उसके अहोभाग्य हैं! क्योंकि ब्रह्मा, शंकर और लक्ष्मी आदि भी अपने अशुभ नष्ट करने के लिये उस रज को अपने सिरपर धारण करते हैं।’ ‘अरी सखी! चाहे कुछ भी हो - यह जो सखी हमारे सर्वस्व श्रीकृष्ण को एकान्त में ले जाकर अकेले ही उनकी अधर-सुधा का रस पी रही है, इस गोपी के उभरे हुए चरणचिह्न तो हमारे हृदय में बड़ा ही क्षोभ उत्पन्न कर रहे हैं।' यहाँ उस गोपी के पैर नहीं दिखायी देते। मालूम होता है, यहाँ प्यारे श्यामसुन्दर ने देखा होगा कि मेरी प्रेयसी के सुकुमार चरणकमलों में घास की नोंक गड़ती होगी; इसलिये उन्होंने उसे अपने कंधे पर चढ़ा लिया होगा।

सखियों! यहाँ देखो, प्यारे श्रीकृष्ण के चरणचिह्न अधिक गहरे - बालू में धँसे हुए हैं। इससे सूचित होता है कि यहाँ वे किसी भारी वस्तु को उठाकर हेल हैं, उसी के बोझ से उनके पैर जमीन में धँस गये हैं। हो-न-हो यहाँ उस कामी ने अपनी प्रियतमा को अवश्य कंधे पर चढ़ाया होगा। देखो-देखो, यहाँ परमप्रेमी वल्लभ ने फूल चुनने के लिये अपनी प्रेयसी को नीचे उतार दिया है और यहाँ परम प्रियतम श्रीकृष्ण ने अपनी प्रेयसी के लिये फूल चुने हैं।

उचक-उचक कर फूल तोड़ने के कारण यहाँ उनके पंजे तो धरती में गड़े हुए हैं और एड़ी का पता ही नहीं है। परम प्रेमी श्रीकृष्ण ने कामी पुरुष के समान यहाँ अपनी प्रेयसी के केश सँवारे हैं। देखो, अपने चुने हुए फूलों को प्रेयसी की चोटी में गूँथने के लिये वे यहाँ अवश्य ही बैठे रहे होंगे।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण आत्माराम हैं। वे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट और पूर्ण हैं। जब वे अखण्ड हैं, उनमें दूसरा कोई है ही नहीं, तब उनमें काम की कल्पना कैसे हो सकती है? फिर भी उन्होंने कामियों की दीनता-स्त्रीपरवशता और स्त्रियों की कुटिलता दिखलाते हुए वहाँ उस गोपी के साथ एकान्त में क्रीडा की थी - एक खेल रचा था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिंशोऽध्यायः श्लोक 36-45 का हिन्दी अनुवाद)

इस प्रकार गोपियाँ मतवाली-सी होकर - अपनी सुधबुध खोकर एक दूसरों को भगवान श्रीकृष्ण के चरण चिह्न दिखलाती हुई वन-वन में भटक रही थीं। इधर भगवान श्रीकृष्ण दूसरी गोपियों को वन में छोड़कर जिस भाग्यवती गोपी को एकान्त में ले गये थे, उसने समझा कि ‘मैं ही समस्त गोपियों में श्रेष्ठ हूँ। इसीलिये तो हमारे प्यारे श्रीकृष्ण दूसरी गोपियों को छोड़कर, जो उन्हें इतना चाहती हैं, केवल मेरा ही मान करते हैं। मुझे ही आदर दे रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मा और शंकर के भी शासक हैं। वह गोपी वन में जाकर अपने प्रेम और सौभाग्य के मद से मतवाली हो गयी और उन्हीं श्रीकृष्ण से कहने लगी - ‘प्यारे! मुझसे अब तो और नहीं चला जाता। मेरे सुकुमार पाँव थक गये हैं। अब तुम जहाँ चलना चाहो, मुझे अपने कंधे पर चढ़ाकर ले चलो।'

अपनी प्रियतमा की यह बात सुन्दर श्यामसुन्दर ने कहा - ‘अच्छा प्यारी! तुम अब मेरे कंधे पर चढ़ लो।' यह सुनकर वह गोपी ज्यों ही उनके कंधे पर चढ़ने चली, त्यों ही श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और वह सौभाग्वती गोपी रोने-पछताने लगी। ‘हा नाथ! हा रमण! हा प्रेष्ठ! हा महाभुज! तुम कहाँ हो! कहाँ हो!! मेरे सखा! मैं तुम्हारी दीन-हीन दासी हूँ। शीघ्र ही मुझे अपने सान्निध्य का अनुभव कराओ, मुझे दर्शन दो।'

परीक्षित! गोपियाँ भगवान के चरणचिह्नों के सहारे उनके जाने का मार्ग ढूँढती-ढूँढती वहाँ जा पहुँची। थोड़ी दूर से ही उन्होंने देखा कि उन्होंने देखा कि उनकी सखी अपने प्रियतम के वियोग से दुःखी होकर अचेत हो गयी है। जब उन्होंने उसे जगाया, तब उसने भगवान श्रीकृष्ण से उसे जो प्यार और सम्मान प्राप्त हुआ था, वह उनको सुनाया। उसने यह भी कहा कि ‘मैंने कुटिलतावश उनका अपमान किया, इसी से वे अन्तर्धान हो गये।’ उसकी बात सुनकर गोपियों के आश्चर्य की सीमा न रही।

इसके बाद वन में जहाँ तक चंद्रदेव की चाँदनी छिटक रही थी, वहाँ तक वे उन्हें ढूँढती हुई गयीं। परन्तु जब उन्होंने देखा कि आगे घना अन्धकार है - घोर जंगल है - हम ढूँढती जायँगी तो श्रीकृष्ण और भी उसके अन्दर घुस जायँगे, तब वे उधर से लौट आयीं। परीक्षित! गोपियों का मन श्रीकृष्णमय हो गया था। उनकी वाणी से कृष्ण चर्चा के अतिरिक्त और कोई बात नहीं निकलती थी। उनके शरीर से केवल श्रीकृष्ण के लिये और केवल श्रीकृष्ण की चेष्टाएँ हो रही थीं।

कहाँ तक कहूँ; उनका रोम-रोम, उनकी आत्मा श्रीकृष्णमय हो रही थी। वे केवल उनके गुणों और लीलाओं का ही गान कर रही थीं और उनमें इतनी तन्मय हो रही थीं कि उन्हें अपने शरीर की भी सुध नहीं थी, फिर घर की याद कौन करता? गोपियों का रोम-रोम इस बात की प्रतीक्षा और आकांक्षा कर रहा था कि जल्दी-से-जल्दी श्रीकृष्ण आयें। श्रीकृष्ण की ही भावना में डूबी हुईं गोपियाँ यमुना जी के पावन पुलिन पर - रमण रेती में लौट आयीं और एक साथ मिलकर श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगीं।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                       【इकत्तीसवाँ अध्याय:】३१


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकत्रिंश अध्याय श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद)

"गोपिका गीत"
गोपियाँ विरहावेश में गाने लगीं ;- ‘प्यारे! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोकों से भी व्रज की महिमा बढ़ गयी है। तभी तो सौन्दर्य और मृदुलता की देवी लक्ष्मी जी अपना निवास स्थान वैकुण्ठ छोड़कर यहाँ नित्य-निरन्तर निवास करने लगी हैं, इसकी सेवा करने लगी हैं। परन्तु प्रियतम! देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे हैं, वन-वन में भटक कर तुम्हें ढूँढ रही हैं।

हमारे प्रेमपूर्ण हृदय के स्वामी! हम तुम्हारी बिना मोल की दासी हैं। तुम शरत्कालीन जलाशय में सुन्दर-से-सुन्दर सरसिज की कर्णिका के सौन्दर्य को चुराने वाले नेत्रों से हमें घायल कर चुके हो। हमारे मनोरथ पूर्ण करने वाले प्राणेश्वर! क्या नेत्रों से मारना वध नहीं है? अस्त्रों से हत्या करना ही वध है? पुरुषशिरोमणे! यमुना जी के विषैले जल से होने वाली मृत्यु, अजगर के रूप में खाने वाले अघासुर, इन्द्र की वर्षा, आँधी, बिजली, दावानल, वृषभासुर और व्योमासुर आदि से एवं भिन्न-भिन्न अवसरों पर सब प्रकार के भयों से तुमने बार-बार हम लोगों की रक्षा की है।

तुम केवल यशोदानन्दन ही नहीं हो; समस्त शरीरधारियों के हृदय में रहने वाले उनके साक्षी हो, अन्तर्यामी हो। सखे! ब्रह्मा जी की प्रार्थना से विश्व की रक्षा करने के लिये तुम यदुवंश में अवतीर्ण हुए हो। अपने प्रेमियों की अभिलाषा पूर्ण करने वालों में अग्रगण्य यदुवंश शिरोमणे! जो लोग जन्म-मृत्यु रूप संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें तुम्हारे करकमल अपनी छत्र-छाया में लेकर अभय कर देते हैं। हमारे प्रियतम! सबकी लालसा-अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाला वही करकमल, जिससे तुमने लक्ष्मी जी का हाथ पकड़ा है, हमारे सिर पर रख दो।

व्रजवासियों के दुःख दूर करने वाले वीरशिरोमणि श्यामसुन्दर! तुम्हारी मन्द-मन्द मुस्कान की एक उज्ज्वल रेखा ही तुम्हारे प्रेमीजनों के सारे मान-मद को चूर-चूर कर देने के लिये पर्याप्त है। हमारे प्यारे सखा! हमसे रूठो मत, प्रेम करो। हम तो तुम्हारी दासी हैं, तुम्हारे चरणों पर निछावर हैं। हम अबलाओं को अपना वह परम सुन्दर साँवला-साँवला मुखकमल दिखलाओ।

तुम्हारे चरणकमल शरणागत प्राणियों के सारे पापों को नष्ट कर देते हैं। वे समस्त सौन्दर्य-माधुर्य की खान हैं और स्वयं लक्ष्मी जी उनकी सेवा करती रहती हैं। तुम उन्हीं चरणों से हमारे बछड़ों के पीछे-पीछे चलते हो और हमारे लिये उन्हें सांप के फणों तक पर रखने में भी तुमने संकोच नहीं किया। हमारा हृदय तुम्हारी विरह व्यथा की आग से जल रहा है तुम्हारी मिलन की आकांक्षा हमें सता रही है। तुम अपने वे ही चरण हमारे वक्षःस्थल पर रखकर हमारे हृदय की ज्वाला को शान्त कर दो।

कमलनयन! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है! उसका एक-एक पद, एक-एक शब्द, एक-एक अक्षर मधुरातिमधुर है। बड़े-बड़े विद्वान उसमें रम जाते हैं। उस पर अपना सर्वस्व निछावर कर देते हैं। तुम्हारी उसी वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी दासी गोपियाँ मोहित हो रही हैं। दानवीर! अब तुम अपना दिव्य अमृत से भी मधुर अधर-रस पिलाकर हमें जीवन-दान दो, छका दो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकत्रिंश अध्याय श्लोक 9-16 का हिन्दी अनुवाद)

प्रभो! तुम्हारी लीला कथा भी अमृतस्वरूप है। विरह से सताये हुए लोगों के लिये तो वह जीवन सर्वस्व ही है। बड़े-बड़े ज्ञानी महात्माओं - भक्त कवियों ने उसका गान किया है, वह सारे पाप-ताप तो मिटती ही है, साथ ही श्रवण मात्र से परम मंगल - परम कल्याण का दान भी करती है। वह परम सुन्दर, परम मधुर और बहुत विस्तृत भी हैं। जो तुम्हारी उस लीला-कथा का गान करते हैं, वास्तव में भूलोक में वे ही सबसे बड़े दाता हैं।

प्यारे! एक दिन वह था, जब तुम्हारी प्रेम भरी हँसी और चितवन तथा तुम्हारी तरह-तरह की क्रीडाओं का ध्यान करके हम आनन्द में मग्न हो जाया करतीं थीं। उनका ध्यान भी परम मंगलदायक है, उसके बाद तुम मिले। तुमने एकान्त में हृदयस्पर्शी ठिठोलियाँ की, प्रेम की बातें कहीं। हमारे कपटी मित्र! अब वे सब बातें याद आकर हमारे मन को क्षुब्ध किये देती हैं।

हमारे प्यारे स्वामी! तुम्हारे चरण कमल से भी सुकोमल और सुन्दर हैं। जब तुम गौओं को चराने के लिये व्रज से निकलते हो तब यह सोचकर कि तुम्हारे वे युगल चरण कंकड़, तिनके और कुश-काँटे गड़ जाने से कष्ट पाते होंगे, हमारा मन बेचैन हो जाता है। हमें बड़ा दुःख होता है। दिन ढलने पर जब तुम वन से घर लौटते हो, तो हम देखती हैं कि तुम्हारे मुखकमल पर नीली-नीली अलकें लटक रही हैं और गौओं के खुर से उड़-उड़कर घनी धूल पड़ी हुई।

हमारे वीर प्रियतम! तुम अपना वह सौन्दर्य हमें दिखा-दिखाकर हमारे हृदय में मिलन की आकांक्षा - प्रेम उत्पन्न करते हो। प्रियतम! एकमात्र तुम्हीं हमारे सारे दुःखों को मिटाने वाले हो। तुम्हारे चरण कमल शरणागत भक्तों की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले हैं। स्वयं लक्ष्मी जी उनकी सेवा करती हैं और पृथ्वी के तो वे भूषण ही हैं। आपत्ति के समय एकमात्र उन्हीं का चिन्तन करना उचित है, जिससे सारी आपत्तियाँ कट जाती हैं।

कुंजविहारी! तुम अपने वे परम कल्याणस्वरूप चरण कमल हमारे वक्षःस्थल पर रखकर हृदय की व्यथा शान्त कर दो। वीरशिरोमणे! तुम्हारा अधरामृत मिलन के सुख को - आकांक्षा को बढ़ाने वाला है। वह विरहजन्य समस्त शोक-सन्ताप को नष्ट कर देता है। यह गाने वाली बाँसुरी भली-भाँति उसे चूमती रहती है। जिन्होंने एक बार उसे पी लिया, उन लोगों को फिर दूसरों और दूसरों की आसक्तियों का स्मरण भी नहीं होता। हमारे वीर! अपना वही अधरामृत हमें वितरण करो, पिलाओ।

प्यारे! दिन के समय जब तुम वन में विहार करने के लिये जाते हो, तब तुम्हें देखे बिना हमारे लिये एक-एक क्षण युग के समान हो जाता है और जब तुम सन्ध्या के समय लौटते हो तथा घुँघराली अलकों से युक्त तुम्हारा परम सुन्दर मुखारविन्द हम देखतीं हैं, उस समय पलकों का गिरना हमारे लिये भार हो जाता है और ऐसा जान पड़ता है कि इन नेत्रों की पलकों को बनाने वाला विधाता मूर्ख है। प्यारे श्यामसुन्दर! हम अपने पति-पुत्र, भाई-बन्धु और कुल-परिवार का त्यागकर, उनकी इच्छा और आज्ञाओं का उल्लंघन करके तुम्हारे पास आयी हैं। हम तुम्हारी एक-एक चाल जानती हैं, संकेत समझती हैं और तुम्हारे मधुर गान की गति समझकर, उसी से मोहित होकर यहाँ आयी हैं। कपटी! इस प्रकार रात्रि के समय आयी हुई युवतियों को तुम्हारे सिवा और कौन छोड़ सकता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकत्रिंश अध्याय श्लोक 17-19 का हिन्दी अनुवाद)

प्यारे! एकान्त में तुम मिलन की आकांक्षा, प्रेम-भाव को जगाने वाली बातें करते थे। ठिठोली करके हमें छेड़ते थे। तुम प्रेमभरी चितवन से हमारी ओर देखकर मुसकरा देते थे और हम देखती थीं तुम्हारा वह विशाल वक्षःस्थल, जिस पर लक्ष्मी जी नित्य-निरन्तर निवास करती हैं। तबसे अब तक निरन्तर हमारी लालसा बढती ही जा रही है और मन अधिकाधिक मुग्ध होता जा रहा है।

प्यारे! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति व्रज-वनवासियों के सम्पूर्ण दुःख-ताप को नष्ट करने वाली और विश्व का पूर्ण मंगल करने के लिये है। हमारा हृदय तुम्हारे प्रति लालसा से भर रहा है। कुछ थोड़ी-सी ऐसी औषधि दो, जो तुम्हारे निजजनों के हृदयरोग को सर्वथा निर्मूल कर दे। तुम्हारे चरण कमल से भी सुकुमार हैं। उन्हें हम अपने कठोर स्तनों पर भी डरते-डरते बहुत धीरे से रखती है कि कहीं उन्हें चोट न लग जाय। उन्हीं चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगन में छिपे-छिपे भटक रहे हो! क्या कंकड़, पत्थर आदि की चोट लगने से उनमें पीड़ा नहीं होती? हमें तो इसकी सम्भावना मात्र से ही चक्कर आ रहा है। हम अचेत होती जा रही हैं। श्रीकृष्ण! श्यामसुन्दर! प्राणनाथ! हमारा जीवन तुम्हारे लिये है, हम तुम्हारे लिये जी रही हैं, हम तुम्हारी हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें