सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - पूर्वार्ध ) का बत्तीसवाँ, तैतीसवाँ, चौतीसवाँ, पैंतीसवाँ व छत्तिसवाँ अध्याय [ Thirty-second, Thirty third, thirty-fourth, thirty-fifth and thirty-sixth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - पूर्वार्ध ) का बत्तीसवाँ, तैतीसवाँ, चौतीसवाँ, पैंतीसवाँ व छत्तिसवाँ अध्याय [ Thirty-second, Thirty third, thirty-fourth, thirty-fifth and thirty-sixth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]


                            {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                         【बत्तीसवाँ अध्याय】३२


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वात्रिंश अध्याय श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"भगवान का प्रकट होकर गोपियों को सांत्वना देना"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान की प्यारी गोपियाँ विरह के आवेश में इस प्रकार भाँति-भाँति से गाने और प्रलाप करने लगीं। अपने कृष्ण-प्यारे के दर्शन की लालसा से वे अपने को रोक न सकीं, करुणाजनक सुमधुर स्वर से फूट-फूटकर रोने लगीं। ठीक उसी समय उनके बीचो बीच भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उनका मुख कमल मन्द-मन्द मुस्कान से खिला हुआ था। गले में वनमाला थी, पीताम्बर धारण किये हुए थे। उनका यह रूप क्या था, सबके मन को मथ डालने वाले कामदेव के मन को भी मथने वाला था।

कोटि-कोटि कामों से भी सुन्दर परम मनोहर प्राणवल्लभ श्यामसुन्दर को आया देख गोपियों के नेत्र प्रेम और आनन्द से खिल उठे। वे सब-की-सब एक ही साथ इस प्रकार उठ खड़ी हुईं, मानो प्राणहीन शरीर में दिव्य प्राणों का संचार हो गया हो, शरीर के एक-एक अंग में नवीन चेतना - नूतन स्फूर्ति आ गयी हो। एक गोपी ने बड़े प्रेम और आनन्द से श्रीकृष्ण के करकमल को अपने दोनों हाथों में ले लिया और वह धीरे-धीरे उसे सहलाने लगी।

दूसरी गोपी ने उनके चन्दन चर्चित भुजदण्ड को अपने कंधे पर रख लिय। तीसरी सुन्दरी ने भगवान का चबाया हुआ पान अपने हाथों में ले लिया। चौथी गोपी, जिसके हृदय में भगवान के विरह से बड़ी जलन हो रही थी, बैठ गयी और उनके चरणकमलों को अपने वक्षःस्थल पर रख लिया। पाँचवी गोपी प्रणय कोप से विह्वल होकर, भौंहें चढ़ाकर, दाँतों से होठ दबाकर अपने कटाक्ष-बाणों से बींधती हुई उनकी और ताकने लगी। छठी गोपी अपने निर्निमेष नयनों से उनके मुखकमल का मकरन्द-रस पान करने लगी। परन्तु जैसे संत पुरुष भगवान के चरणों के दर्शन से कभी तृप्त नहीं होते, वैसे ही वह उनकी मुख-माधुरी का निरन्तर पान करते रहने पर भी तृप्त नहीं होती थी। सातवीं गोपी नेत्रों के मार्ग से भगवान को अपने हृदय में ले गयी और फिर उसने आँखें बंद कर लीं। अब मन-ही-मन भगवान का आलिंगन करने से उसका शरीर पुलकित हो गया, रोम-रोम खिल उठा और वह सिद्ध योगियों के समान परमानन्द में मग्न हो गयी।

परीक्षित! जैसे मुमुक्षुजन परम ज्ञानी संत पुरुष को प्राप्त करके संसार की पीड़ा से मुक्त हो जाते हैं, वैसे ही सभी गोपियों को भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन से परम आनन्द और परम उल्लास प्राप्त हुआ। उनके विरह के कारण गोपियों को जो दुःख हुआ था, उससे वे मुक्त हो गयीं और शान्ति के समुद्र में डूबने-उतराने लगीं।

परीक्षित! यों तो भगवान श्रीकृष्ण अच्युत और एकरस हैं, उनका सौन्दर्य और माधुर्य निरतिशय है; फिर भी विरह-व्यथा से मुक्त हुई गोपियों के बीच में उनकी शोभा और भी बढ़ गयी। ठीक वैसे ही, जैसे परमेश्वर अपने नित्य ज्ञान, बल आदि शक्तियों से सेवित होने पर और भी शोभायमान होता है।

इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने उन व्रजसुन्दरियों को साथ लेकर यमुना जी के पुलिन में प्रवेश किया। उस समय खिले हुए कुन्द और मन्दार के पुष्पों की सुरभि लेकर बड़ी ही शीतल और सुगन्धित मन्द-मन्द वायु चल रही थी और उसकी महक से मतवाले होकर भौंरे इधर-उधर मँडरा रहे थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वात्रिंश अध्याय श्लोक 12-18 का हिन्दी अनुवाद)

शरत पूर्णिमा के चन्द्रमा की चाँदनी अपनी निराली ही छटा दिखला रही थी। उसके कारण रात्रि के अन्धकार का तो कहीं पता ही न था, सर्वत्र आनन्द-मंगल का ही साम्राज्य छाया था। वह पुलिन क्या था, यमुना जी ने स्वयं अपनी लहरों के हाथों भगवान की लीला के लिये सुकोमल बालुका का रंगमंच बना रखा था।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन से गोपियों के हृदय में इतने आनन्द और इतने रस का उल्लास हुआ कि उनके हृदय की सारी आधि-व्याधि मिट गयी। जैसे कर्मकाण्ड की श्रुतियाँ उनका वर्णन करते-करते अन्त में ज्ञानकाण्ड का प्रतिपादन करने लगती हैं और फिर वे समस्त मनोरथों से ऊपर उठ जाती हैं, कृतकृत्य हो जाती हैं - वैसे ही गोपियाँ भी पूर्णकाम हो गयीं। अब उन्होंने अपने वक्षःस्थल पर लगी हुई रोली-केसर से चिह्नित ओढ़नी को अपने परम प्यारे सुहृद श्रीकृष्ण के विराजने के लिये बिछा दिया।

बड़े-बड़े योगेश्वरों अपने योगसाधन से पवित्र किये हुए हृदय में जिनके लिये आसन की कल्पना करते रहते हैं, किन्तु फिर भी अपने हृदय-सिंहासन पर बिठा नहीं पाते, वही सर्वशक्तिमान भगवान यमुना जी की रेती में गोपियों की ओढ़नी पर बैठ गये। सहस्र-सहस्र गोपियों के बीच में उनसे पूजित होकर भगवान बड़े ही शोभायमान हो रहे थे।

परीक्षित! तीनों लोकों में - तीनों कालों में जितना भी सौन्दर्य प्रकाशित होता है, वह सब तो भगवान के बिन्दुमात्र सौन्दर्य का आभास भर है। वे उनके एकमात्र आश्रय हैं। भगवान श्रीकृष्ण अपने इस अलौकिक सौन्दर्य के द्वारा उनके प्रेम और आकांक्षा को और भी उभाड़ रहे थे। गोपियों ने अपनी मन्द-मन्द मुसकान, विलासपूर्ण चितवन और तिरछी भौंहों से उनका सम्मान किया। किसी ने उनके चरणकमलों को अपनी गोद में रख लिया, तो किसी ने उनके करकमलों को। वे उनके संस्पर्श का आनन्द लेती हुई कभी-कभी कह उठती थीं ;- कितना सुकुमार है, कितना मधुर है! इसके बाद श्रीकृष्ण के छिप जाने से मन-ही-मन तनिक रूठकर उनके मुँह से ही उनका दोष स्वीकार कराने के लिये वे कहने लगीं।

गोपियों ने कहा ;- नटनागर! कुछ लोग तो ऐसे होते हैं, जो प्रेम करने वालों से ही प्रेम करते हैं और कुछ लोग प्रेम न करने वालों से भी प्रेम करते हैं। परन्तु कोई-कोई दोनों से ही प्रेम नहीं करते। प्यारे! इन तीनों में तुम्हें कौन-सा अच्छा लगता है?

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- मेरी प्रिय सखियों! जो प्रेम करने पर प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्योग स्वार्थ को लेकर है। लेन-देन मात्र है। न तो उनमें सौहार्द है और न तो धर्म। उनका प्रेम केवल स्वार्थ के लिये ही है; इसके अतिरिक्त उनका और कोई प्रयोजन नहीं है। सुन्दरियों! जो लोग प्रेम न करने वाले से भी प्रेम करते हैं - जैसे स्वभाव से ही करुणाशील सज्जन और माता-पिता - उनका हृदय सौहार्द से, हितैषिता से भरा रहता है और सच पूछो, तो उनके व्यवहार में निश्छल सत्य एवं पूर्ण धर्म भी है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वात्रिंश अध्याय श्लोक 19-22 का हिन्दी अनुवाद)

कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो प्रेम करने वालों से भी प्रेम नहीं करते, न प्रेम करने वालों का तो उनके सामने कोई प्रश्न नहीं है। ऐसे लोग चार प्रकार के होते हैं।

एक तो वे, जो अपने स्वरूप में ही मस्त रहते हैं - जिनकी दृष्टि में कभी द्वैत भासता ही नहीं। दूसरे वे, जिन्हें द्वैत तो भासता है, परन्तु जो कृतकृत्य हो चुके हैं; उनका किसी से कोई प्रयोजन ही नहीं है। तीसरे वे हैं, जो जानते ही नहीं कि हमसे कौन प्रेम करता है; और चौथे वे हैं, जो जान-बूझकर अपना हित करने वाले परोपकारी गुरुतुल्य लोगों से भी द्रोह करते हैं, उनको सताना चाहते है।

गोपियों! मैं तो प्रेम करने-वालों से भी प्रेम का वैसा व्यवहार नहीं करता, जैसा करना चाहिये। मैं ऐसा केवल इसलिये करता हूँ कि उनकी चित्तवृति और भी मुझमें लगे, निरन्तर लगी ही रहे। जैसे निर्धन पुरुष को कभी बहुत-सा धन मिल जाय और फिर खो जाय तो उसका हृदय खोये हुए धन की चिन्ता से भर जाता है, वैसे ही मैं भी मिल-मिलकर छिप-छिप जाता हूँ।

गोपियों! इसमें सन्देह नहीं कि तुम लोगों ने मेरे लिये लोक-मर्यादा, वेदमार्ग और अपने सगे-सम्बन्धियों को भी छोड़ दिया है। ऐसी स्थिति में तुम्हारी मनोवृत्ति और कहीं न जाय, अपने सौन्दर्य और सुहाग की चिन्ता न करने लगे, मुझमे ही लगी रहे - इसलिये परोक्ष रूप से तुम लोगों से प्रेम करता हुआ ही मैं छिप गया था। इसलिये तुम लोग मेरे प्रेम में दोष मत निकालो।

तुम सब मेरी प्यारी और मैं तुम्हारा प्यारा हूँ। मेरी प्यारी गोपियों! तुमने मेरे लिये घर-गृहस्थी की उन बेड़ियों को तोड़ डाला है, जिन्हें बड़े-बड़े योगी-यति भी नहीं तोड़ पाते। मुझसे तुम्हारा यह मिलन, यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और सर्वथा निर्दोष है। यदि मैं अमर शरीर से - अमर जीवन से अनन्त काल तक तुम्हारे प्रेम, सेवा और त्याग का बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता। मैं जन्म-जन्म के लिये तुम्हारा ऋणी हूँ। तुम अपने सौम्य स्वभाव से, प्रेम से मुझे उऋण सकती हो। परन्तु मैं तो तुम्हारा ऋणी ही हूँ।

                            {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                         【तैतीसवाँ अध्याय】३३


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:त्रास्त्रिंश अध्याय श्लोक 1- 9 का हिन्दी अनुवाद)

"महारास"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- राजन! गोपियाँ भगवान की इस प्रकार प्रेम भरी सुमधुर वाणी सुनकर जो कुछ विरहजन्य ताप शेष था, उससे भी मुक्त हो गयीं और सौन्दर्य-माधुर्यनिधि प्राण प्यारे के अंग-संग से सफल-मनोरथ हो गयीं। भगवान श्रीकृष्ण की प्रेयसी और सेविका गोपियाँ एक-दूसरे की बाँह-में-बाँह डाले खड़ी थीं। उन स्त्रीरत्नों के साथ यमुना जी के पुलिन पर भगवान ने अपनी रसमयी रासक्रीडा प्रारम्भ की।

सम्पूर्ण योगों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण दो-दो गोपियों के बीच में प्रकट हो गये और उनके गले में अपना हाथ डाल दिया। इस प्रकार एक गोपी और एक श्रीकृष्ण, यही क्रम था। सभी गोपियाँ ऐसा अनुभव करती थीं कि हमारे प्यारे तो हमारे ही पास हैं। इस प्रकार सहस्र-सहस्र गोपियों से शोभायमान भगवान श्रीकृष्ण का दिव्य रासोत्सव प्रारम्भ हुआ। उस समय आकाश में शत-शत विमानों की भीड़ लग गयी। सभी देवता अपनी-अपनी पत्नियों के साथ वहाँ आ पहुँचे। रासोत्सव के दर्शन की लालसा से, उत्सुकता से उनका मन उनके वश में नहीं था।

स्वर्ग की दिव्य दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं। स्वर्गीय पुष्पों की वर्षा होने लगी। गन्धर्वगण अपनी-अपनी पत्नियों के साथ भगवान के निर्मल यश का गान करने लगे। रासमण्डल में सभी गोपियाँ अपने प्रियतम श्यामसुन्दर के साथ नृत्य करने लगीं। उनकी कलाइयों के कंगन, पैरों के पायजेब और करधनी के छोटे-छोटे घुँघरु एक साथ बज उठे। असंख्य गोपियाँ थीं, इसलिये यह मधुर ध्वनि भी बड़े ही जोर की हो रही थी। यमुना जी की रमणरेती पर व्रज सुन्दरियों के बीच में भगवान श्रीकृष्ण की बड़ी अनोखी शोभा हुई।

ऐसा जान पड़ता था, मानो अगणित पीली-पीली दमकती हुई सुवर्ण-मणियों के बीच में ज्योतिर्मयी नीलमणि चामल रही हो। नृत्य के समय गोपियाँ तरह-तरह से ठुमुक-ठुमुककर अपने पाँव कभी आगे बढ़ातीं और कभी पीछे हटा लेतीं। कभी गति के अनुसार धीरे-धीरे पाँव रखतीं, तो कभी बड़े वेग से; कभी चाक की तरह घूम जातीं, कभी अपने हाथ उठा-उठाकर भाव बतातीं, तो कभी विभिन्न प्रकार से उन्हें चमकतीं। कभी बड़े कलापूर्ण ढंग से मुस्करातीं, तो कभी भौंहें मटकातीं। नाचते-नाचते उनकी पतली कमर ऐसी लचक जाती थी, मानो टूट गयी हो।


झुकने, बैठने, उठने और चलने की फुर्ती से उनके स्तन हिल रहे थे तथा वस्त्र उड़े जा रहे थे। कानों के कुण्डल हिल-हिलकर कपोलों पर आ जाते थे। नाचने के परिश्रम से उनके मुँह पर पसीने की बूँदे झलकने लगी थीं। केशों की चोटियाँ कुछ ढीली पद गयी थीं। नीवीं की गाँठे खुली जा रही थीं। इस प्रकार नटवर नन्दलाल की पेम प्रेयसी गोपियाँ उनके साथ गा-गाकर नाच रहीं थीं।

परीक्षित! उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो बहुत-से श्रीकृष्ण तो साँवले-साँवले मेघ-मण्डल हैं और उनके बीच-बीच में चमकती हुई गोरी गोपियाँ बिजली हैं। उनकी शोभा असीम थी। गोपियों का जीवन भगवान की रति है, प्रेम है। वे श्रीकृष्ण से सटकर नाचते-नाचते ऊँचे स्वर से मधुर गान कर रही थीं। श्रीकृष्ण का संस्पर्श पा-पाकर और भी आनन्दमग्न हो रही थीं। उनके राग-रागिनियों से पूर्ण गान से यह सारा जगत अब भी गूँज रहा है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रास्त्रिंश अध्याय श्लोक 10-19 का हिन्दी अनुवाद)

कोई गोपी भगवान के साथ-उनके स्वर में स्वर मिलाकर गा रही थी। वह श्रीकृष्ण के स्वर की अपेक्षा और भी ऊँचे स्वर से राग अलापने लगी। उनके विलक्षण और उत्तम स्वर को सुनकर वे बहुत ही प्रसन्न हुए और वाह-वाह करके उनकी प्रशंसा करने लगे। उसी राग को एक दूसरी सखी ने ध्रुपद में गाया। उसका भी भगवान ने बहुत सम्मान किया।

एक गोपी नृत्य करते-करते थक गयी। उसकी कलाइयों से कंगन और चोटियों से बेला के फूल खिसकने लगे। तब उसने अपने बगल में ही खड़े मुरलीमनोहर श्यामसुन्दर के कंधे को अपनी बांह से कसकर पकड़ लिया। भगवान श्रीकृष्ण अपना एक हाथ दूसरी गोपी के कंधे पर रख रखा था। वह स्वभाव से तो कमल के समान सुगन्ध से युक्त था ही, उस पर बड़ा सुंगधित चन्दन का लेप भी था। उसकी सुगन्ध से वह गोपी पुलकित हो गयी, उसका रोम-रोम खिल उठा। उसने झटसे उसे चूम लिया।

एक गोपी नृत्य कर रही थी। नाचने के कारण उसके कुण्डल हिल रहे थे, उनकी छटा से उसके कपोल और भी चमक रहे थे। उसने अपने कपोलों को भगवान श्रीकृष्ण के कपोल से सटा दिया और भगवान ने उसके मुँह में अपना चबाया हुआ पान दे दिया। कोई गोपी नुपुर और करधनी के घुँघरुओं को झंकारती हुई नाच और गा रही थी। वह जब बहुत थक गयी, तब उसने अपने बगल में ही खड़े श्यामसुन्दर के शीतल करकमलों को आने दोनों स्तनों पर रख लिया।

परीक्षित! गोपियों का सौभाग्य लक्ष्मी जी से भी बढ़कर है। लक्ष्मी जी के परम प्रियतम एकान्त वल्लभ भगवान श्रीकृष्ण को अपने परम प्रियतम के रूप में पाकर गोपियाँ गान करती हुईं उनके साथ विहार करने लगीं। भगवान श्रीकृष्ण ने उनके गलों को अपने भुजपाश में बाँध रख था, उस समय गोपियों की बड़ी अपूर्व शोभा थी। उनके कानों में कमल के कुण्डल शोभायमान थे। घुँघराली अलकें कपोलों पर लटक रही थीं। पसीने की बूँदें झलकने से उनके मुख की छटा निराली ही हो गयी थी। वे रासमण्डल में भगवान श्रीकृष्ण के साथ नृत्य कर रही थीं। उनके कंगन और पायजेबों के बाजे बज रहे थे। भौंरे उनके ताल-सुर में अपना सुर मिलाकर गा रहे थे। और उनके जूड़ों तथा चोटियों में गुँथे हुए फूल गिरते जा रहे थे।

परीक्षित! जैसे नन्हा-सा शिशु निर्विकार भाव से अपनी परछाई के साथ खेलता है, वैसे ही रमारमण भगवान श्रीकृष्ण कभी उन्हें अपने हृदय से लगा लेते, कभी हाथ ने उनका अंगस्पर्श करते, कभी प्रेमभरी तिरछी चितवन से उनकी ओर देखते तो कभी लीला से उन्मुक्त हँसी हँसने लगते। इस प्रकार उन्होंने व्रजसुन्दारियों के साथ क्रीड़ा की, विहार किया।

परीक्षित! भगवान के अंगों का संस्पर्श प्राप्त करके गोपियों की इन्द्रियाँ प्रेम और आनन्द से विह्वल हो गयीं। उनके केश बिखर गये। फूलों के हार टूट गये और गहने अस्त-व्यस्त हो गये। वे अपने केश, वस्त्र और कंचुकी को भी पूर्णतया सँभालने में असमर्थ हो गयीं। भगवान श्रीकृष्ण की यह रासक्रीडा देखकर स्वर्ग की देवांगनाएँ भी मिलन की कामना से मोहित हो गयीं और समस्त तारों तथा ग्रहों के साथ चन्द्रमा चकित, विस्मित हो गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रास्त्रिंश अध्याय श्लोक 20-26 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! यद्यपि भगवान आत्माराम हैं - उन्हें अपने अतिरिक्त और किसी की भी आवश्यकता नहीं है - फिर भी उन्होंने जितनी गोपियाँ थीं, उतने ही रूप धारण किये और खेल-खेल में उनके साथ इस प्रकार विहार किया। जब बहुत देर तक गान और नृत्य आदि विहार करने के कारण गोपियाँ थक गयीं, तब करुणामय भगवान श्रीकृष्ण ने बड़े प्रेम से स्वयं अपने सुखद करकमलों के द्वारा उनके मुँह पोंछे।

परीक्षित! भगवान के करकमल और नख स्पर्श के गोपियों को बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने अपने उन कपोलों के सौन्दर्य से, जिनपर सोने के कुण्डल झिल-मिला रहे थे और घुँघराले अलकें लटक रहीं थीं, तथा उस प्रेमभरी चितवन से, जो सुधा से भी मीठी मुस्कान से उज्ज्वल हो रही थी, भगवान श्रीकृष्ण का सम्मान किया और प्रभु की परम पवित्र लीलाओं का गान करने लगीं। इसके बाद जैसे थका हुआ गजराज किनारों को तोड़ता हुआ हथिनियों के साथ जल में घुसकर क्रीडा करता है, वैसे ही लोक और वेद की मर्यादा का अतिक्रमण करने वाले भगवान ने अपनी थकान दूर करने के लिये गोपियों के साथ जलक्रीडा करने के उद्देश्य से यमुना के जल में प्रवेश किया। उस समय भगवान की वनमाला गोपियों के अंग की रगड़ से कुछ कुचल-सी गयी थी और उनके वक्षःस्थल की केसर से वह रँग भी गयी थी। उसके चारों ओर गुनगुनाते हुए भौंरें उनके पीछे-पीछे इस प्रकार चल रहे थे, मानों गन्धर्वराज उनकी कीर्ति का गान करते हुए पीछे-पीछे चल रहे हों।

परीक्षित! यमुना जल में गोपियों ने प्रेमभरी चितवन से भगवान की ओर देख-देखकर तथा हँस-हँसकर उन पर इधर-उधर से जल की खूब बौछारें डालीं। जल उलीच-उलीचकर उन्हें खूब नहलाया। विमानों पर चढ़े हुए देवता पुष्पों की वर्षा करके उनकी स्तुति करने लगे। इस प्रकार यमुना जल में स्वयं आत्माराम भगवान श्रीकृष्ण ने गजराज के समान जलविहार किया। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण व्रज युवतियों और भौंरों की भीड़ से घिरे हुए यमुना तट के उपवन में गये। वह बड़ा ही रमणीय था। उसके चारों ओर जल और स्थल में बड़ी सुन्दर सुगन्ध वाले फूल खिले हुए थे। उनकी सुवास लेकर मन्द-मन्द वायु चल रही थी। उसमें भगवान इस प्रकार विचरण करने लगे, जैसे मदमत्त गजराज हथिनियों के झुंड के साथ घूम रहा हो।

परीक्षित! शरद की वह रात्रि जिसके रूप में अनेक रात्रियाँ पूंजीभूत हो गयी थीं, बहुत ही सुन्दर थी। चारों ओर चन्द्रमा की बड़ी सुन्दर चाँदनी छिटक रही थी। काव्यों में शरद ऋतु की जिन रस-सामग्रियों का वर्णन मिलता है, उन सभी से वह युक्त थी। उसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी प्रेयसी गोपियों के साथ यमुना के पुलिन, यमुना जी और उनके उपवन में विहार किया। यह बात स्मरण रखनी चाहिये कि भगवान सत्यसंकल्प हैं। यह सब उनके चिन्मय संकल्प की ही चिन्मयी लीला है। और उन्होंने इस लीला में कामभाव को, उसकी चेष्टाओं को तथा उसकी क्रिया को सर्वथा अपने अधीन कर रखा था, उन्हें अपने-आपमें क़ैद कर रखा था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रास्त्रिंश अध्याय श्लोक 27-37 का हिन्दी अनुवाद)

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन! भगवान श्रीकृष्ण सारे जगत के एकमात्र स्वामी हैं। उन्होंने अपने अंश बलराम जी के सहित पूर्णरूप में अवतार ग्रहण किया था। उनके अवतार का उद्देश्य ही यह था कि धर्म की स्थापना हो और अधर्म का नाश। ब्रह्मन! वे धर्म मर्यादा के बनाने वाले, उपदेश करने वाले और रक्षक थे। फिर उन्होंने स्वयं धर्म के विपरीत परस्त्रियों का स्पर्श कैसे किया। मैं मानता हूँ कि भगवान श्रीकृष्ण पूर्णकाम थे, उन्हें किसी भी वस्तु की कामना नहीं थी, फिर भी उन्होंने किस अभिप्राय से यह निन्दनीय कर्म किया? परम ब्रह्मचारी मुनीश्वर! आप कृपा करके मेरा यह सन्देह मिलाइये।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- सूर्य, अग्नि आदि ईश्वर[1] कभी-कभी धर्म का उल्लंघन और साहस का काम करते देखे जाते हैं। परन्तु उन कामों से उन तेजस्वी पुरुषों को कोई दोष नहीं होता। देखो, अग्नि सब कुछ खा जाता है, परन्तु उन पदार्थों के दोष से लिप्त नहीं होता। जिन लोगों में ऐसी सामर्थ्य नहीं है, उन्हें मन से भी वैसी बात कभी नहीं सोचनी चाहिये, शरीर से करना तो दूर रहा। यदि मूर्खतावश कोई ऐसा काम कर बैठे, तो उसका नाश हो जाता है।

भगवान शंकर ने हलाहल विष पी लिया था, दूसरा कोई पिये तो वह जलकर भस्म हो जायगा। इसलिये इस प्रकार के जो शंकर आदि ईश्वर हैं, अपने अधिकार के अनुसार उनके वचन को ही सत्य मानना और उसी के अनुसार आचरण करना चाहिये। उनके आचरण का अनुकरण तो कहीं-कहीं ही किया जाता है। इसलिये बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि उनका जो आचरण उनके उपदेश के अनुकूल हो, उसी को जीवन में उतारें।

परीक्षित! वे सामर्थ्यवान पुरुष अहंकारहीन होते हैं, शुभ कर्म करने में उनका कोई सांसारिक स्वार्थ नहीं होता और अशुभ कर्म करने में अनर्थ नहीं होता। वे स्वार्थ और अनर्थ से ऊपर उठे होते हैं। जब उन्हीं के सम्बन्ध में ऐसी बात है तब जो पशु, पक्षी, मनुष्य, देवता आदि समस्त चराचर जीवों के एकमात्र प्रभु सर्वेश्वर भगवान हैं, उनके साथ मानवीय शुभ और अशुभ का सम्बन्ध कैसे जोड़ा जा सकता है।

जिनके चरणकमलों के रज का सेवन करके भक्तजन तृप्त हो जाते हैं, जिनके साथ योग प्राप्त करके उसके प्रभाव से योगीजन अपने सारे कर्मबन्धन काट डालते हैं और विचारशील ज्ञानीजन जिनके तत्त्व का विचार करके तत्त्वरूप हो जाते हैं तथा समस्त कर्म-बंधनों से मुक्त होकर स्वच्छंद विचरते हैं, वे ही भगवान अपने भक्तों की इच्छा से अपना चिन्मय श्रीविग्रह प्रकट करते हैं; तब भला, उनमें कर्मबन्धन की कल्पना कैसे हो सकती है। गोपियों के, उनके पतियों के और सम्पूर्ण शरीरधारियों के अन्तःकारणों में जो आत्मारूप से विराजमान हैं, जो सबके साक्षी और परमपति हैं, वही तो अपना दिव्य-चिन्मय श्रीविग्रह प्रकट करके यह लीला कर रहे हैं।

भगवान जीवों पर कृपा करने के लिये ही अपने को मनुष्य रूप में प्रकट करते हैं और ऐसी लीलाएँ करते हैं, जिन्हें सुनकर जीव भगवत्परायण हो जायँ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रास्त्रिंश अध्याय श्लोक 38-40 का हिन्दी अनुवाद)

व्रजवासी गोपों ने भगवान श्रीकृष्ण में तनिक भी दोषबुद्धि नहीं की। वे उनकी योगमाया से मोहित होकर ऐसा समझ रहे थे कि हमारी पत्नियाँ हमारे पास ही हैं। ब्रह्मा की रात्रि के बराबर वह रात्रि बीत गयी। ब्रह्ममुहूर्त आया। यद्यपि गोपियों की इच्छा अपने घर लौटने की नहीं थी, फिर भी भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से वे अपने-अपने घर चली गयीं। क्योंकि वे अपनी प्रत्येक चेष्टा से, प्रत्येक संकल्प से केवल भगवान को ही प्रसन्न करना चाहती थीं।

परीक्षित! जो धीर पुरुष व्रज युवतियों के साथ भगवान श्रीकृष्ण के इस चिन्मय रास-विलास का श्रद्धा के साथ बार-बार श्रवण और वर्णन करता है, उसे भगवान के चरणों में परा भक्ति की प्राप्ति होती है और वह बहुत ही शीघ्र अपने हृदय के रोग - कामविकार से छुटकारा पा जाता है। उसका कामभाव सर्वदा के लिये नष्ट हो जाता है।

                            {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                         【चौतीसवाँ अध्याय】३४


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुस्त्रिंश अध्याय श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"सुदर्शन और शंखचूड़ का उद्धार"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! एक बार नन्दबाबा आदि गोपों ने शिवरात्रि के अवसर पर बड़ी उत्सुकता, कौतूहल और आनन्द से भरकर बैलों से जुती हुई गाड़ियों पर सवार होकर अम्बिका वन की यात्रा की। राजन! वहाँ उन लोगों ने सरस्वती नदी में स्नान किया और सर्वान्तर्यामी पशुपति भगवान शंकर जी का तथा भगवती अम्बिका जी का बड़ी भक्ति से अनेक प्रकार की सामग्रियों के द्वारा पूजन किया। वहाँ उन्होंने आदरपूर्वक गौएँ, सोना, वस्त्र, मधु और मधुर अन्न ब्राह्मणों को दिये तथा उनको खिलाया-पिलाया। वे केवल यही चाहते थे कि इनसे देवाधिदेव भगवान शंकर हम पर प्रसन्न हों। उस दिन परम भाग्यवान नन्द-सुनन्द आदि गोपों ने उपवास कर रखा था, इसलिये वे लोग केवल जल पीकर रात के समय सरस्वती नदी के तट पर ही बेखट के सो गये।

उस अम्बिका वन में एक बड़ा भारी अजगर रहता था। उस दिन वह भूखा भी बहुत था। दैववश वह उधर से ही आ निकला और उसने सोये हुए नन्द जी को पकड़ लिया। अजगर के पकड़ लेने पर नन्दराय जी चिल्लाने लगे - ‘बेटा कृष्ण! कृष्ण! दौड़ो, दौड़ो! देखो बेटा! यह अजगर मुझे निगल रहा है। मैं तुम्हारी शरण में हूँ। जल्दी मुझे इस संकट से बचाओ।' नन्दबाबा का चिल्लाना सुनकर सब-के-सब गोप एकाएक उठ खड़े हुए और उन्हें अजगर के मुँह में देखकर घबड़ा गये। अब वे लुकाठियों से उस अजगर को मारने लगे। किन्तु लुकाठियों से मारे जाने और जलने पर भी अजगर ने नन्दबाबा को छोड़ा नहीं।

इतने में ही भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण ने वहाँ पहुँचकर अपने चरणों से उस अजगर को छू दिया। भगवान के श्रीचरणों का स्पर्श होते ही अजगर के सारे अशुभ भस्म हो गये और वह उसी क्षण अजगर का शरीर छोड़कर विद्याधरार्चित सर्वांगसुन्दर रूपवान बन गया। उस पुरुष के शरीर से दिव्य ज्योति निकल रही थी। वह सोने के हार पहने हुए था। जब वह प्रणाम करने के बाद हाथ जोड़कर भगवान के सामने खड़ा हो गया, तब उन्होंने उससे पूछा - ‘तुम कौन हो? तुम्हारे अंग-अंग से सुन्दरता फूटी पड़ती है। तुम देखने में बड़े अद्भुत जान पड़ते हो। तुम्हें यह अत्यन्त निन्दनीय अजगर योनि क्यों प्राप्त हुई थी? अवश्य ही तुम्हें विवश होकर इसमें आना पड़ा होगा।'

अजगर के शरीर से निकला हुआ पुरुष बोला - भगवन! मैं पहले विद्याधर था। मेरा नाम था सुदर्शन। मेरे पास सौन्दर्य तो था ही, लक्ष्मी भी बहुत थी। इससे मैं विमान पर चढ़कर यहाँ-से-वहाँ घूमता रहता था। एक दिन मैंने अंगिरा गोत्र के कुरूप ऋषियों को देखा। अपने सौन्दर्य के घमण्ड से मैंने उनकी हँसी उड़ायी। मेरे इस अपराध से कुपित होकर उन लोगों ने मुझे अजगर योनि में जाने का शाप दे दिया। यह मेरे पापों का ही फल था। उन कृपालु ऋषियों ने अनुग्रह के लिये ही मुझे शाप दिया था क्योंकि यह उसी का प्रभाव है कि आज चराचर के गुरु स्वयं आपने अपने चरणकमलों से मेरा स्पर्श किया है, इससे मेरे सारे अशुभ नष्ट हो गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुस्त्रिंश अध्याय श्लोक 15-26 का हिन्दी अनुवाद)

समस्त पापों का नाश करने वाले प्रभो! जो लोग जन्म-मृत्यु रूप संसार से भयभीत होकर आपके चरणों की शरण ग्रहण करते हैं, उन्हें आप समस्त भयों से मुक्त कर देते हैं। अब मैं आपके श्रीचरणों के स्पर्श से शाप छूट गया हूँ और अपने लोक में लोक में जाने की अनुमति चाहता हूँ। भक्तवत्सल! महायोगेश्वर पुरुषोत्तम! मैं आपकी शरण में हूँ। इन्द्रादि समस्त लोकेश्वरों के परमेश्वर! स्वयंप्रकाश परमात्मन! मुझे आज्ञा दीजिये। अपने स्वरूप में नित्य-निरन्तर एकरस रहने वाले अच्युत! आपके दर्शनमात्र से मैं ब्राह्मणों के शाप से मुक्त हो गया, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि जो पुरुष आपके नामों का उच्चारण करता है, वह अपने-आपको और समस्त श्रोताओं को भी तुरन्त पवित्र कर देता है। फिर मुझे तो आपने स्वयं अपने चरणकमलों से स्पर्श किया है। तब भला, मेरी मुक्ति में क्या संदेह हो सकता है? इस प्रकार सुदर्शन ने भगवान श्रीकृष्ण से विनती की, परिक्रमा की और प्रणाम किया। फिर उनसे आज्ञा लेकर वह अपने लोक में चला गया और नन्दबाबा इस भारी संकट से छूट गये। राजन! जब व्रजवासियों ने भगवान श्रीकृष्ण का यह अद्भुत प्रभाव देखा, तब उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। उन लोगों ने उस क्षेत्र में जो नियम ले रखे थे, उनके पूर्ण करके वे बड़े आदर और प्रेम से श्रीकृष्ण की उस लीला का गान करते हुए पुनः व्रज में लौट आये।

एक दिन की बात है, अलौकिक कर्म करने वाले भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी रात्रि के समय वन में गोपियों के साथ विहार कर रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण निर्मल पीताम्बर और बलराम जी नीलाम्बर धारण किये हुए थे। दोनों के गले में फूलों के सुन्दर-सुन्दर हार लटक रहे थे तथा शरीर के अंगराग, सुगन्धित चन्दन लगा हुआ था और सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहने हुए थे। गोपियाँ बड़े प्रेम और आनन्द से ललित स्वर में उन्हीं के गुणों का गान कर रही थीं। अभी-अभी सायंकाल हुआ था। आकाश में तारे उग आये थे और चाँदनी छिटक रही थी।

बेला के सुन्दर गन्ध से मतवाले होकर भौंरे इधर-उधर गुनगुना रहे थे तथा जलाशय में खिली हुई कुमुदिनी का सुगन्ध लेकर वायु मन्द-मन्द चल रही थी। उस समय उनका सम्मान करते हुए भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी ने एक ही साथ मिलकर राग अलापा। उनका राग आरोह-अवरोह स्वरों के चढ़ाव-उतार से बहुत ही सुन्दर लग रहा था। वह जगत के समस्त प्राणियों के मन और कानों का आनन्द से भर देने वाला था। उनका वह गान सुन्दर गोपियाँ मोहित हो गयीं।

परीक्षित! उन्हें अपने शरीर की भी सुधि नहीं रही कि वे उस पर से खिसकते हुए वस्त्रों और चोटियों से बिखरते हुए पुष्पों को सँभाल सकें। जिस समय बलराम और श्याम दोनों भाई इस प्रकार स्वच्छंद विहार कर रहे थे और उन्मत्त की भाँति गा रहे थे, उसी समय वहाँ शँखचूड नामक एक यक्ष आया। वह कुबेर का अनुचर था। परीक्षित! दोनों भाइयों के देखते-देखते वह उन गोपियों को लेकर बेखटके उत्तर की ओर भाग चला। जिनके एकमात्र स्वामी भगवान श्रीकृष्ण ही हैं, वे गोपियाँ उस समय रो-रोकर चिल्लाने लगीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुस्त्रिंश अध्याय श्लोक 27-32 का हिन्दी अनुवाद)

दोनों भाइयों ने देखा कि जैसे कोई डाकू गौओं को लूट ले जाय, वैसे ही यह यक्ष हमारी प्रेयसियों को लिये जा रहा है और वे ‘हा कृष्ण! हा राम!’ पुकारकर रो-पीट रही हैं। उसी समय दोनों भाई उसकी ओर दौड़ पड़े। ‘डरो मत, डरो मत’ इस प्रकार अभयवाणी कहते हुए हाथ में शालका वृक्ष लेकर बड़े वेग से क्षण भर में ही उस नीच यक्ष के पास पहुँच गये। यक्ष ने देखा कि काल और मृत्यु के समान ये दोनों भाई मेरे पास आ पहुँचे। तब वह मूढ़ घबड़ा गया।

उसने गोपियों को वहीं छोड़ दिया, स्वयं प्राण बचाने के लिये भागा। तब स्त्रियों की रक्षा करने के लिये बलराम जी तो वहीं खड़े रहे गये, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण जहाँ-जहाँ वह भागकर गया, उसके पीछे-पीछे दौड़ते गये। वे चाहते थे कि उसके सिर की चूड़ामणि निकाल लें। कुछ ही दूर जाने पर भगवान ने उसे पकड़ लिया और उस दुष्ट के सिर पर कसकर एक घूँसा ज़माया और चूड़ामणि के साथ उसका सिर भी धड़ से अलग कर दिया। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण शंखचूड को मारकर और वह चमकीली मणि लेकर लौट आये तथा सब गोपियों के सामने ही उन्होंने बड़े प्रेम से वह मणि बड़े भाई बलराम जी को दे दी।

                            {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                         【पैतीसवाँ अध्याय】३५


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचत्रिंश अध्याय श्लोक 1-7 का हिन्दी अनुवाद)

"युगल गीत"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण के गौओं को चराने के लिये प्रतिदिन वन में चले जाने पर उनके साथ गोपियों का चित्त भी चला जाता था। उनका मन श्रीकृष्ण का चिन्तन करता रहता और वे वाणी से उनकी लीलाओं का गान करती रहतीं। इस प्रकार वे बड़ी कठिनाई से अपना दिन बितातीं।

गोपियाँ आपस में कहतीं ;- अरी सखी! अपने प्रेमीजनों को प्रेम वितरण करने वाले और द्वेष करने वालों तक को मोक्ष दे देने वाले श्यामसुन्दर नटनागर जब अपने बायें कपोल को बायीं बाँह की लटका देते हैं और अपनी भौंहें नचाते हुए बाँसुरी को अधरों से लगाते हैं तथा अपनी सुकुमार अंगुलियों को उसके छेदों पर फिराते हुए मधुर तान छेड़ते हैं, उस समय सिद्धिपत्नियाँ आकाश में अपने पति सिद्धिगणों के साथ विमानों पर चढ़कर आ जाती हैं और उस तान को सुनकर अत्यन्त ही चकित तथा विस्मित हो जाती हैं। पहले तो उन्हें अपने पतियों के साथ रहने पर भी चित्त की यह दशा देखकर लज्जा मालूम होती है; परन्तु क्षण भर में ही उनका चित्त कामबाण से बिंध जाता है, वे विवश और अचेत हो जाती हैं। उन्हें इस बात की सुधि नहीं रहती कि उनकी नीवी खुल गयी है और उनके वस्त्र खिसक गये हैं।

अरी गोपियों! तुम यह आश्चर्य की बात सुनो! ये नन्दनन्दन कितने सुन्दर हैं। जब वे हँसते हैं तब हास्य रेखाएँ हार का रूप धारण कर लेती हैं, शुभ्र मोती-सी चमकने लगती हैं। अरी वीर! उनके वक्षःस्थल पर लहराते हुए हार में हास्य की किरणें चमकने लगती हैं। उनके वक्षःस्थल पर जो श्रीवत्स की सुनहली रेखा है, वह तो ऐसी जान पड़ती है, मानो श्याम मेघ पर बिजली ही स्थिर रूप से बैठ गयी है। वे जब दुःखीजनों के सुख देने के लिये, विरहियों के मृतक शरीर में प्राणों का संचार करने के लिये बाँसुरी बजाते हैं, तब व्रज के झुंड-के-झुंड बैल, गौएँ और हिरन उनके पास ही दौड़ आते हैं।

केवल आते ही नहीं, सखी! दाँतों से चबाया हुआ घास का ग्रास उनके मुँह में ज्यों-का-त्यों पड़ा रह जाता है, वे उसे न निगल पाते और न तो उगल ही जाते हैं। दोनों कान खड़े करके इस प्रकार स्थिरभाव से खड़े हो जाते हैं, मानो सो गये हैं या केवल भीत पर लिखे हुए चित्र हैं। उनकी ऐसी दशा होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि यह बाँसुरी की तान उनके चित्त चुरा लेती है।

हे सखि! जब वे नन्द के लाड़ले लाल अपने सिर पर मोरपंख का मुकुट बाँध लेते हैं, घुँघराली अलकों में फूल के गुच्छे खोंस लेते हैं, रंगीन धातुओं से अपना अंग-अंग रंग लेते हैं और नये-नये पल्लवों से ऐसा वेष सजा लेते हैं, जैसे कोई बहुत बड़ा पहलवान हो और फिर बलराम जी तथा ग्वालबालों के साथ बाँसुरी में गौओं का नाम ले-लेकर उन्हें पुकारते है; उस समय प्यारी सखियों! नदियों की गति भी रुक जाती है। वे चाहती हैं कि वायु उड़ाकर हमारे प्रियतम के चरणों की धूलि हमारे पास पहुँचा दे और उसे पाकर हम निहाल हो जायँ, परन्तु सखियों! वे भी हमारे ही जैसी मन्दभागिनी हैं। जैसे नन्दनन्दन श्रीकृष्ण का आलिंगन करते समय हमारी भुजाएँ काँप जाती है और जड़ता रूप संचारी भाव का उदय हो जाने से हम अपने हाथों को हिला भी नहीं पातीं, वैसे ही वे भी प्रेम के कारण काँपने लगती हैं। दो-चार बार अपनी तरंगरूप भुजाओं को काँपते-काँपते उठाती तो अवश्य हैं, परन्तु फिर विवश होकर स्थिर हो जाती हैं, प्रेमावेश से स्तंभित हो जाती हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचत्रिंश अध्याय श्लोक 8-13 का हिन्दी अनुवाद)

अरी वीर! जैसे देवता लोग अनन्त और अचिन्त्य ऐश्वर्यों के स्वामी भगवान नारायण की शक्तियों का गान करते हैं, वैसे ही ग्वालबाल अनन्तसुन्दर नटनागर श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करते रहते हैं। वे अचिन्त्य ऐश्वर्य-सम्पन्न श्रीकृष्ण जब वृन्दावन में विहार करते हैं और बाँसुरी बजाकर गिरिराज गोवर्धन की तराई में चरती हुई गौओं को नाम ले-लेकर पुकारते हैं, उस समय वन के वृक्ष और लताएँ फूल और फलों से लद जाती हैं, उनके भार से डालियाँ झुककर धरती छूने लगती हैं, मानो प्रणाम कर रही हों, वे वृक्ष और लताएँ अपने भीतर भगवान विष्णु की अभिव्यक्ति सूचित करती हुई-सी प्रेम से फूल उठती हैं, उनका रोम-रोम खिल जाता है और सब-की-सब मधु धाराएँ ऊँड़ेलने लगती हैं।

अरी सखी! जितनी भी वस्तुएँ संसार में या उसके बाहर देखने योग्य हैं, उनमें सबसे सुन्दर, सबसे मधुर, सबके शिरोमणि हैं - ये हमारे मनमोहन। उनके साँवले ललाट पर केसर की खौर कितनी फबती है - बस, देखती ही जाओ! गले में घुटनों तक लटकती हुई वनमाला, उसमें पिरोयी हुई तुलसी की दिव्य गन्ध और मधुर मधु से मतवाले होकर झुंड-के-झुंड भौंरें बड़े मनोहर एवं उच्च स्वर से गुंजार करते रहते हैं। हमारे नटनागर श्यामसुन्दर भौंरों की उस गुनगुनाहट का आदर करते हैं और उन्हीं के स्वर में स्वर मिलाकर अपनी बाँसुरी फूँकने लगते हैं। उस समय सखि! उस मुनिजन मोहन संगीत को सुनकर सरोवर में रहने वाले सारस-हंस आदि पक्षियों का भी चित्त उनके हाथ से निकल जाता है, छिन जाता है। वे विवश होकर प्यारे श्यामसुन्दर के पास आ बैठते हैं तथा आँखें मूँद, चुपचाप, चित्त एकाग्र करके उनकी आराधना करने लगते हैं - मानो कोई विहंगमवृत्ति के रसिक परमहंस ही हों, भला कहो तो यह कितने आश्चर्य की बात है!

अरी व्रजदेवियों! हमारे श्यामसुन्दर जब पुष्पों के कुण्डल बनाकर अपने कानों में धारण कर लेते हैं और बलराम जी के साथ गिरिराज के शिखरों पर खड़े होकर सारे जगत को हर्षित करते हुए बाँसुरी बजाने लगते हैं - बाँसुरी क्या बजाते हैं, आनन्द में भरकर उसकी ध्वनि के द्वारा सारे विश्व का आलिंगन करने लगते हैं - उस समय श्याम मेघ बाँसुरी की तान के साथ मन्द-मन्द गरजने लगता है। उसके चित्त में इस बात की शंका बनी रहती है कि कहीं मैं जोर से गर्जना कर उठूँ और वह कहीं बाँसुरी की तान के विपरीत पड़ जाय, उसमें बेसुरापन ले आये, तो मुझसे महात्मा श्रीकृष्ण का अपराध हो जायगा।

सखी! वह इतना ही नहीं करता; वह सब देखता है कि हमारे सखा घनश्याम को घाम लग रहा है, तब वह उनके ऊपर आकर छाया कर लेता है, उनका छत्र बन जाता है। अरी वीर! वह तो प्रसन्न होकर बड़े प्रेम से उनके ऊपर अपना जीवन ही निछावर कर देता है - नन्हीं-नन्ही फुहियों के रूप में ऐसा बरसने लगता है, मानो दिव्य पुष्पों की वर्षा कर रहा हो। कभी-कभी बादलों की ओट में छिपकर देवता-लोग भी पुष्पवर्षा कर जाया करते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचत्रिंश अध्याय श्लोक 14-21 का हिन्दी अनुवाद)

सती शिरोमणि यशोदाजी! तुम्हारे सुन्दर कुँवर ग्वालबालों के साथ खेल खेलने में बड़े निपुण हैं। रानी जी! तुम्हारे लाड़ले लाल सबके प्यारे तो हैं ही, चतुर भी बहुत हैं। देखो, उन्होंने बाँसुरी बजाना किसी से सीखा नहीं। अपने ही अनेकों प्रकार राग-रागिनियाँ उन्होंने निकाल लीं। जब वे अपने बिम्बाफल सदृश लाल-लाल अधरों पर बाँसुरी रखकर ऋषभ, निषाद आदि स्वरों की अनेक जातियाँ बजाने लगते हैं, उस समय वंशी की परम मोहिनी और नयी तान सुनकर ब्रह्मा, शंकर और इन्द्र आदि बड़े-बड़े देवता भी - जो सर्वज्ञ हैं - उसे नहीं पहचान पाते। वे इतने मोहित हो जाते हैं कि उनका चित्त तो उनके रोकने पर भी उनके हाथ से निकल कर वंशीध्वनि में तल्लीन हो ही जाता है, सिर भी झुक जाता है, और वे अपनी सुध-बुध खोकर उसी में तन्मय हो जाते हैं।

अरी वीर! उनके चरण कमलों में ध्वजा, वज्र, कमल, अंकुश आदि के विचित्र और सुन्दर-सुन्दर चिह्न हैं। जब व्रजभूमि गौओं के खुर से खुद जाती है, तब वे अपने सुकुमार चरणों से उसकी पीड़ा मिटाते हुए गजराज के समान मन्दगति से आते हैं और बाँसुरी भी बजाते रहते हैं। उनकी वह वंशीध्वनि, उनकी वह चाल और उनकी वह विलासभरी चितवन हमारे हृदय में प्रेम के, मिलन की आकांक्षा का आवेग बढ़ा देती है। हम उस समय इतनी मुग्ध, इतनी मोहित हो जाती हैं कि हिल-डोल तक नहीं सकतीं, मानों हम जड़ वृक्ष हों! हमें तो इस बात का भी पता नहीं चलता कि हमारा जूडा खुल गया है या बँधा है, हमारे शरीर पर का वस्त्र उतर गया है या है।

अरी वीर! उनके गले में मणियों की माला बहुत ही भली मालूम होती है। तुलसी की मधुर गन्ध उन्हें बहुत प्यारी है। इसी से तुलसी की माला को तो वे कभी छोड़ते ही नहीं, सदा धारण किये रहते हैं। जब वे श्यामसुन्दर उस मणियों की माला से गौओं की गिनती करते-करते किसी प्रेमी सखा के गले में बाँह डाल देते हैं और भाव बता-बताकर बाँसुरी बजाते हुए गाने लगते हैं, उस समय बजती हुई उस बाँसुरी के मधुर स्वर से मोहित होकर कृष्णसार मृगों की पत्नी हिरनियाँ भी अपना चित्त उनके चरणों पर निछावर कर देती हैं और जैसे हम गोपियाँ अपने घर-गृहस्थी की आशा-अभिलाषा छोड़कर गुणसागर नागर नन्दनन्दन को घेरे रहतीं हैं, वैसे ही वे भी उनके पास दौड़ आती हैं और वहीं एकटक देखती हुई खड़ी रह जाती हैं, लौटने का नाम भी नहीं लेतीं।

नन्दरानी यशोदा जी! वास्तव में तुम बड़ी पुण्यवती हो। तभी तो तुम्हें ऐसे पुत्र मिले हैं। तुम्हारे वे लाड़ले लाल बड़े प्रेमी हैं, उनका चित्त बड़ा कोमल है। वे प्रेमी सखाओं को तरह-तरह से हास-परिहास के द्वारा सुख पहुँचाते हैं। कुन्दकली का हार-पहनकर जब वे अपने को विचित्र वेष में सजा लेते हैं और ग्वालबाल तथा गौओं के साथ यमुना जी के तट पर खेलने लगते हैं, उस समय मलयज चन्दन के समान शीतल और सुगन्धित स्पर्श से मन्द-मन्द अनुकूल बहकर वायु तुम्हारे लाल की सेवा करती हैं और गन्धर्व आदि उपदेवता वंदीजनों के समान गा-बजाकर उन्हें संतुष्ट करते हैं तथा अनेकों प्रकार की भेंटें देते हुए सब ओर से घेरकर उनकी सेवा करते हैं ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचत्रिंश अध्याय श्लोक 22-26 का हिन्दी अनुवाद)

अरी सखी! श्यामसुन्दर व्रज की गौओं से बड़ा प्रेम करते हैं। इसीलिये तो उन्होंने गोवर्धन धारण किया था। अब वे सब गौओं को लौटाकर आते ही होंगे; देखो, सायंकाल हो चला है। तब इतनी देर क्यों होती है, सखी ? रास्ते में बड़े-बड़े ब्रह्मा आदि वयोवृद्ध और शंकर आदि ज्ञानवृद्ध उनके चरणों की वन्दना जो करने लगते हैं। अब गौओं के पीछे-पीछे बाँसुरी बजाते हुए वे आते ही होंगे। ग्वालबाल उनकी कीर्ति का गान कर रहे होंगे। देखो न, यह क्या आ रहे हैं। गौओं के खुरों से उड़-उड़कर बहुत-सी धूल वनमाला पर पड़ गयी है। वे दिन भर जंगलों में घूमते-घूमते थक गये हैं। फिर भी अपनी इस शोभा से हमारी आँखों को कितना सुख, कितना आनन्द दे रहे हैं। देखो, ये यशोदा की कोख से प्रकट हुए सबको आह्लादित करने वाले चन्द्रमा हम प्रेमीजनों की भलाई के लिये, हमारी आशा-अभिलाषाओं को पूर्ण करने के लिये ही हमारे पास चले आ रहे हैं।

सखी! देखो कैसा सौन्दर्य है! मदभरी आँखें कुछ चढ़ी हुई हैं। कुछ-कुछ ललाई लिये हुए कैसी भली जान पड़ती हैं। गले में वनमाला लहरा रही है। सोने के कुण्डलों की कान्ति से वे अपने कोमल कपोलों को अलंकृत कर रहे हैं। इसी से मुँह पर अध पके बेर के समान कुछ पीलापन जान पड़ता है और रोम-रोम से विशेष करके मुखकमल से प्रसन्नता फूटी पड़ती है। देखो, अब वे अपने सखा ग्वालबालों का सम्मान करके उन्हें विदा कर रहे हैं। देखो, देखो सखी! व्रज-विभूषण श्रीकृष्ण गजराज के समान मदभरी चाल से इस सन्ध्या वेला में हमारी ओर आ रहे हैं। अब व्रज में रहने वाली गौओं का, हम लोगों का दिनभर का असह्य विरह-ताप मिटाने के लिये उदित होने वाले चन्द्रमा की भाँति ये हमारे प्यारे श्यामसुन्दर समीप चले आ रहे हैं।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! बड़भागिनी गोपियों का मन श्रीकृष्ण में ही लगा रहता था। वे श्रीकृष्णमय हो गयी थीं। जब भगवान श्रीकृष्ण दिन में गौओं को चराने के लिये वन में चले जाते, तब वे उन्हीं का चिन्तन करतीं रहतीं और अपनी-अपनी सखियों के साथ अलग-अलग उन्हीं की लीलाओं का गान करके उसी में रम जाती। इस प्रकार उनके दिन बीत जाते।

                            {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                         【छत्तीसवाँ अध्याय】३६


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्त्रिंश अध्याय श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"अरिष्टासुर का उध्दार और कंस का श्री अक्रूर जी को व्रज मेंं भेजना"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जिस समय भगवान श्रीकृष्ण व्रज में प्रवेश कर रहे थे और वहाँ आनन्दोत्सव की धूम मची हुई थी, उसी समय अरिष्टासुर नाम का एक दैत्य बैल का रूप धारण करके आया। उसका ककुद (कंधे का पुट्ठा) या थुआ और डील-डौल दोनों ही बहुत बड़े-बड़े थे। वह अपने खुरों को इतने जोर से पटक रहा था कि उससे धरती काँप रही थी। वह बड़े जोर से गर्ज रहा था और पैरों से धूल उछालता जाता थ। पूँछ खड़ी किये हुए था और सींगों से चाहरदीवारी, खेतों की मेड़ आदि तोड़ता जाता था। बीच-बीच में बार-बार मूतता और गोबर छोड़ता जाता था। आँखें फाड़कर इधर-उधर दौड़ रहा था।

परीक्षित! उसके जोर से हँकड़ने से - निष्ठुर गर्जना से भयवश स्त्रियों और गौओं के तीन-चार महीने के गर्भ स्रवित हो जाते थे और पाँच-छः महीने के गिर जाते थे। और तो क्या कहूँ, उसके कुकुद को पर्वत समझकर बादल उस पर आकर ठहर जाते थे। परीक्षित! उस तीखे सींगवाले बैल को देखकर गोपियाँ और गोप सभी भयभीत हो गये। पशु तो इतने डर गये कि अपने रहने का स्थान छोड़कर भाग ही गये। उस समय सभी व्रजवासी ‘श्रीकृष्ण! श्रीकृष्ण! हमें इस भय से बचाओ’ इस प्रकार पुकारते हुए भगवान श्रीकृष्ण की शरण में आये। भगवान ने देखा कि हमारा गोकुल अत्यन्त भयातुर हो रहा है। तब उन्होंने ‘डरने की कोई बात नहीं है’ - यह कहकर सबको ढाढ़स बँधाया और फिर वृषासुर को ललकारा, ‘अरे मूर्ख! महादुष्ट! तू इन गौओं और ग्वालों को क्यों डरा रहा है? इससे क्या होगा। देख, तुझ-जैसे दुरात्मा दुष्टों के बल का घमंड चूर-चूर कर देने वाला यह मैं हूँ।’

इस प्रकार ललकार कर भगवान ने ताल ठोकी और उसे क्रोधित करने के लिये वे अपने एक सखा के गले में बाँह डालकर खड़े हो गये। भगवान श्रीकृष्ण की इस चुनौती से वह क्रोध के मारे तिलमिला उठा और अपने खुरों से बड़े जोर से धरती खोदता हुआ श्रीकृष्ण की ओर झपटा। उस समय उसकी उठायी हुई पूँछ के धक्के से आकाश के बादल तितर-बितर होने लगे। उसने अपने तीखे सींग आगे कर लिये। लाल-लाल आँखों से टकटकी लगाकर श्रीकृष्ण की ओर टेढ़ी नज़र से देखता हुआ वह उनपर इतने वेग से टूटा, मानो इन्द्र के हाथ से छोड़ा हुआ वज्र हो।

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने दोनों हाथों से उसके दोनों सींग पकड़ लिये और जैसे एक हाथी अपने से भिड़ने वाले दूसरे हाथी को पीछे हटा देता है, वैसे ही उन्होंने उसे अठारह पग पीछे ठेलकर गिरा दिया। भगवान के इस प्रकार ठेल देने पर वह फिर तुरंत ही उठ खड़ा हुआ और क्रोध से अचेत होकर लंबी-लंबी साँस छोड़ता हुआ फिर उन पर झपटा। उस समय उसका सारा शरीर पसीने से लथपथ हो रहा था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्त्रिंश अध्याय श्लोक 13-26 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान ने जब देखा कि वह अब मुझ पर प्रहार करना ही चाहता है, तब उन्होंने उनके सींग पकड़ लिये और उसे लात मारकर ज़मीन पर गिरा दिया और फिर पैरों से दबाकर इस प्रकार उसका कचूमर निकाला, जैसे कोई गीला कपड़ा निचोड़ रहा हो। इसके बाद उसी का सींग उखाड़कर उसको खूब पीटा, जिससे वह पड़ा ही रहा गया।

परीक्षित! इस प्रकार वह दैत्य मुँह से खून उगलता और गोबर-मूत करता हुआ पैर पटकने लगा। उसकी आँखें उलट गयीं और उसने बड़े कष्ट के साथ प्राण छोड़े। अब देवता लोग भगवान पर फूल बरसा-बरसाकर उनकी स्तुति करने लगे। जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार बैल के रूप में आने-वाले अरिष्टासुर को मार डाला, तब सभी गोप उनकी प्रशंसा करने लगे। उन्होंने बलराम जी के साथ गोष्ठ में प्रवेश किया और उन्हें देख-देखकर गोपियों के नयन-मन आनन्द से भर गये।

परीक्षित! भगवान की लीला अत्यन्त अद्भुत है। इधर जब उन्होंने अरिष्टासुर को मार डाला, तब भगवन्मय नारद, जो लोगों को शीघ्र-से-शीघ्र भगवान का दर्शन कराते रहते हैं, कंस के पास पहुँचा। उन्होंने उससे कहा - ‘कंस! जो कन्या तुम्हारे हाथ से छूटकर आकाश में चली गयी, वह तो यशोदा की पुत्री थी। और व्रज में जो श्रीकृष्ण हैं, वे देवकी के पुत्र हैं। वहाँ जो बलराम जी हैं, वे रोहिणी के पुत्र हैं। वसुदेव ने तुमसे डरकर अपने मित्र नन्द के पास उन दोनों को रख दिया है। उन्होंने ही तुम्हारे अनुचर दैत्यों का वध किया है।’ यह बात सुनते ही कंस की एक-एक इन्द्रिय क्रोध के मारे काँप उठी।

उसने वसुदेव जी को मार डालने के तुरंत तीखी तलवार उठा ली, परन्तु नारद जी ने रोक दिया। जब कंस को यह मालूम हो गया कि वसुदेव के लड़के ही हमारी मृत्यु के कारण हैं, तब उसने देवकी और वसुदेव दोनों ही पति-पत्नी को हथकड़ी और बेड़ी से जकड़कर फिर जेल में डाल दिया। जब देवर्षि नारद चले गये, तब कंस ने केशी को बुलाया और कहा - ‘तुम व्रज में जाकर बलराम और कृष्ण को मार डालो।’ वह चला गया।

इसके बाद कंस ने मुष्टिक, चाणूर, शल, तोशल आदि पहलवानों, मन्त्रियों और महावतों को बुलाकर कहा - ‘वीरवर चाणूर और मुष्टिक! तुम लोग ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनो। वसुदेव के दो पुत्र बलराम और कृष्ण नन्द के व्रज में रहते हैं। उन्हीं के हाथ से मेरी मृत्यु बतलायी जाती है। अतः जब वे यहाँ आवें, तब तुमलोग उन्हें कुश्ती लड़ने-लड़ाने के बहाने मार डालना। अब तुम लोग भाँति-भाँति के मंच बनाओ और उन्हें अखाड़े के चारों ओर गोल-गोल सजा दो। उन पर बैठकर नगरवासी और देश की दूसरी प्रजा इस स्वच्छंद दंगल को देखें।

महावत! तुम बड़े चतुर हो। देखो भाई! तुम दंगल के घेरे के फाटक पर ही अपने कुवलयापीड हाथी को रखना और जब मेरे शत्रु उधर से निकलें, तब उसी के द्वारा उन्हें मरवा डालना। इसी चतुर्दशी को विधिपूर्वक धनुष यज्ञ प्रारम्भ कर दो और उसकी सफलता के लिये वरदानी भूतनाथ भैरव को बहुत-से पवित्र पशुओं की बलि चढाओ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्त्रिंश अध्याय श्लोक 27-38 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! कंस तो केवल स्वार्थ-साधन का सिद्धान्त जानता था। इसलिये उसने मन्त्री, पहलवान और महावत को इस प्रकार आज्ञा देकर श्रेष्ठ यदुवंशी अक्रूर को बुलवाया और उनका हाथ अपने हाथ में लेकर बोला - ‘अक्रूर जी! आप तो बड़े उदार दानी हैं। सब तरह से मेरे आदरणीय हैं। आज आप मेरा एक मित्रोचित काम कर दीजिये; क्योंकि भोजवंशी और वृष्णिवंशी यादवों में आपसे बढ़कर मेरी भलाई करने वाला दूसरा को नहीं है। यह काम बहुत बड़ा है, इसलिये मेरे मित्र! मैंने आपका आश्रय लिया है। ठीक वैसे हो, जैसे इन्द्र समर्थ होने पर भी विष्णु का आश्रय लेकर अपना स्वार्थ साधता रहता है।

आप नन्दराय के व्रज में जाइये। वहाँ वसुदेव जी की दो पुत्र हैं। उन्हें इसी रथ पर चढ़ाकर यहाँ ले आइये। बस, अब इस काम में देर नहीं होनी चाहिये। सुनते हैं, विष्णु के भरोसे जीने वाले देवताओं ने उन दोनों को मेरी मृत्यु का कारण निश्चित किया है। इसलिये आप उन दोनों को तो ले ही आइये, साथ ही नन्द आदि गोपों को भी बड़ी-बड़ी भेंटों के साथ ले आइये। यहाँ आने पर मैं उन्हें अपने काल समान कुवलयापीड हाथी से मरवा डालूँगा। यदि वे कदाचित उस हाथी से बच गये, तो मैं अपने वज्र के समान मजबूत और फुर्तीले पहलवान मुष्टिक-चाणूर आदि से उन्हें मरवा डालूँगा।

उनके मारे जाने पर वसुदेव आदि वृष्णि, भोज और दशार्हवंशी उनके भाई-बन्धु शोकाकुल हो जायँगे। फिर उन्हें मैं अपने हाथों मार डालूँगा। मेरा पिता उग्रसेन यों तो बूढ़ा हो गया है, परन्तु अभी उसको राज्य का लोभ बना हुआ है। यह सब कर चुकने के बाद मैं उसको, उसके भाई देवक को और दूसरे भी जो-जो मुझसे द्वेष करने वाले हैं - उन सबको तलवार के घाट उतार दूँगा।

मेरे मित्र अक्रूर जी! फिर तो मैं होऊँगा और आप होंगे तथा होगा होगा इस पृथ्वी का अकण्टक राज्य। जरासन्ध हमारे बड़े-बूढ़े ससुर हैं और वानर राज द्विविद मेरे प्यारे सखा हैं। शम्बरासुर, नरकासुर और बाणासुर - ये तो मुझसे मित्रता करते ही हैं, मेरा मुँह देखते रहते हैं; इन सबकी सहायता से मैं देवताओं के पक्षपाती नरपतियों को मारकर पृथ्वी का अकण्टक राज्य भोगूँगा। यह सब अपनी गुप्त बातें मैंने आपको बतला दीं। अब आप जल्दी-से-जल्दी बलराम और कृष्ण को यहाँ ले आइये। अभी तो वे बच्चे ही हैं। उनको मार डालने में क्या लगता है? उनसे केवल इतनी ही बात कहियेगा कि वे लोग धनुष यज्ञ के दर्शन और यदुवंशियों की राजधानी मथुरा की शोभा देखने के लिये यहाँ आ जायँ।'

अक्रूर जी ने कहा ;- महाराज! आप अपनी मृत्यु, अपना अरिष्ट दूर करना चाहते हैं, इसलिये आपका ऐसा सोचना ठीक ही है। मनुष्य को चाहिये कि चाहे सफलता हो या असफलता, दोनों के प्रति समभाव रखकर अपना काम करता जाए। फल तो प्रयत्न से नहीं, दैवी प्रेरणा से मिलते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षट्त्रिंश अध्याय श्लोक 39-40 का हिन्दी अनुवाद)

मनुष्य बड़े-बड़े मनोरथों के पुल बाँधता रहता है, परन्तु वह यह नहीं जानता कि दैव ने, प्रारब्ध ने इसे पहले से ही नष्ट कर रखा है। यही कारण है कि कभी प्रारब्ध के अनुकूल होने पर प्रयत्न सफल हो जाता है तो वह हर्ष से फूल उठता है और प्रतिकूल होने पर विफल हो जाता है तो शोकग्रस्त हो जाता है। फिर भी मैं आपकी आज्ञा का पालन तो कर ही रहा हूँ।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- कंस ने मन्त्रियों और अक्रूर जी को इस प्रकार की आज्ञा देकर सबको विदा कर दिया। तदनन्तर वह अपने महल में चला गया और अक्रूर जी अपने घर लौट आये।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें