सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - पूर्वार्ध ) का इक्कीसवाँ , बाइसवाँ, तेइसवाँ, चौबीसवाँ व पच्चीसवाँ अध्याय [ TheTwenty-first, twenty-second, twenty-third, twenty-fourth and twenty-fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - पूर्वार्ध ) का इक्कीसवाँ , बाइसवाँ, तेइसवाँ, चौबीसवाँ व पच्चीसवाँ अध्याय [ TheTwenty-first, twenty-second, twenty-third, twenty-fourth and twenty-fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]



                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                      【इक्कीसवाँ अध्याय】२१. 


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकविंश अध्याय: श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद)

"वेणुगीत"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! शरद ऋतु के कारण वह वन बड़ा सुन्दर हो रहा था। जल निर्मल था और जलाशयों में खिले हुए कमलों की सुगन्ध से सनकर वायु मन्द-मन्द चल रही थी। भगवान श्रीकृष्ण ने गौओं और ग्वालबालों के साथ उस वन में प्रवेश किया। सुन्दर-सुन्दर पुष्पों से परिपूर्ण हरी-हरी वृक्ष-पंक्तियों में मतवाले भौंरे स्थान-स्थान पर गुनगुना रहे थे और तरह-तरह के पक्षी झुंड-के-झुंड अलग-अलग कलरव कर रहे थे, जिससे उस वन के सरोवर, नदियाँ और पर्वत-सब-के-सब गूँजते रहते थे।

मधुपति श्रीकृष्ण ने बलराम जी और ग्वालबालों के साथ उसके भीतर घुसकर गौओं को चराते हुए अपनी बाँसुरी पर बड़ी मधुर तान छेड़ी। श्रीकृष्ण की वह वंशी ध्वनि भगवान के प्रति प्रेमभाव को, उनके मिलन की आकांक्षा को जगाने वाली थी। वे एकान्त में अपनी सखियों से उनके रूप, गुण और वंशी ध्वनि के प्रभाव का वर्णन करने लगीं। व्रज की गोपियों ने वंशीध्वनि का माधुर्य आपस में वर्णन करना चाहा तो अवश्य; परन्तु वंशी का स्मरण होते ही उन्हें श्रीकृष्ण की मधुर चेष्टाओं की, प्रेमपूर्ण चितवन, भौहों के इशारे और मधुर मुस्कान आदि की याद हो आयी।

उनकी भगवान से मिलने की आकांक्षा और भी बढ़ गयी। उनका मन हाथ से निकल गया। वे मन-ही-मन वहाँ पहुँच गयीं, जहाँ श्रीकृष्ण थे। अब उनकी वाणी बोले कैसे? वे उसके वर्णन में असमर्थ हो गयीं। वे मन-ही-मन देखने लगीं कि श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ वृन्दावन में प्रवेश कर रहे हैं। उनके सिर पर मयूरपिच्छ है और कानों पर कनेर के पीले-पीले पुष्प; शरीर पर सुनहला पीताम्बर और गले में पाँच प्रकार के सुगन्धित पुष्पों की बनी वैजयन्ती माला है।

रंगमंच पर अभिनय करते हुए श्रेष्ठ नट का-सा क्या ही सुन्दर वेष है। बाँसुरी के छिद्रों को वे अपने अधरामृत से भर रहे हैं। उनके पीछे-पीछे ग्वालबाल उनकी लोकपावन कीर्ति का गान कर रहे हैं। इस प्रकार वैकुण्ठ से भी श्रेष्ठ वह वृन्दावन धाम उनके चरणचिह्नों से और भी रमणीय बन गया है।

परीक्षित! यह वंशीध्वनि जड़, चेतन-समस्त भूतों का मन चुरा लेती है। गोपियों ने उसे सुना और सुनकर उनका वर्णन करने लगीं। वर्णन करते-करते वे तन्मय हो गयीं और श्रीकृष्ण को पाकर आलिंगन करने लगीं।

गोपियाँ आपस में बातचीत करने लगीं - अरी सखी! हमने तो आँख वालों के जीवन की और उनकी आँखों की बस, यही - इतनी ही सफलता समझी है; और तो हमें कुछ मालूम ही नहीं है। वह कौन-सा लाभ है? वह यही है कि जब श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और गौरसुन्दर बलराम ग्वालबालों के साथ गायों को हाँककर वन में ले जा रहे हो या लौटकर व्रज में ला रहे हों, उन्होंने अपने अधरों पर मुरली धर रखी हो और प्रेमभरी तिरछी चितवन से हमारी ओर देख रहे हों, उस समय हम उनकी मुख-माधुरी का पान करती रहें।

अरी सखी! जब वे आम की नयी कोंपलें, मोरों के पंख, फूलों के गुच्छे, रंग-बिरंगे कमल और कुमुद की मालाएँ धारण कर लेते हैं, श्रीकृष्ण के साँवरे शरीर पर पीताम्बर और बलराम के गोरे शरीर पर नीलाम्बर फहराने लगता है, तब उनका वेष बड़ा ही विचित्र बन जाता है। ग्वालबालों की गोष्ठी में वे दोनों बीचो-बीच बैठ जाते हैं और मधुर संगीत की तान छेड़ देते हैं। मेरी प्यासी सखी! उस समय ऐसा जान पड़ता है मानों दो चतुर नट रंगमंच पर अभिनय कर रहे हों। मैं क्या बताऊँ कि उस समय उनकी कितनी शोभा होती है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकविंश अध्याय: श्लोक 9-13 का हिन्दी अनुवाद)

अरी गोपियों! यह वेणु पुरुष जाति का होने पर भी पूर्वजन्म में न जाने ऐसा कौन-सा साधन-भजन कर चुका है कि हम गोपियों की अपनी सम्पत्ति - दामोदर के अधरों की सुधा स्वयं ही इस प्रकार पिये जा रहा है कि हम लोगों के लिये थोडा-सा भी रस शेष नहीं रहेगा। इस वेणु को अपने रस से सींचने वाले हृदय आज कमलों के मिल रोमांचित हो रहे हैं और अपने वंश में भगवत्प्रेमी सन्तानों को देखकर श्रेष्ठ पुरुषों के समान वृक्ष भी इसके साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर आँखों से आनन्दाश्रु बहा रहे हैं।

अरी सखी! यह वृन्दावन वैकुण्ठलोक तक पृथ्वी की कीर्ति का विस्तार कर रहा है। क्योंकि यशोदानन्दन श्रीकृष्ण के चरणकमलों के चिह्नों से यह चिह्नित हो रहा है! सखि! जब श्रीकृष्ण अपनी मुनि जन मोहिनी मुरली बजाते हैं तब मोर मतवाले होकर उसकी ताल पर नाचने लगते हैं। यह देखकर पर्वत की चोटियों पर विचरने वाले सभी पशु-पक्षी चुपचाप - शान्त होकर खड़े रह जाते हैं।

अरी सखी! जब प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण विचित्र वेष धारण करके बाँसुरी बजाते हैं, जब मूढ़ बुद्धिवाली ये हिरनियाँ भी वंशी की तान सुनकर अपने पति कृष्णसार मृगों के साथ नन्दनन्दन के पास चली आती हैं और अपनी प्रेम भरी बड़ी-बड़ी आँखों से उन्हें निरखने लगती हैं। निरखती क्या हैं, अपनी कमल के समान बड़ी-बड़ी आँखें श्रीकृष्ण के चरणों पर निछावर कर देती हैं और श्रीकृष्ण की प्रेमभरी चितवन के द्वारा किया हुआ अपना सत्कार स्वीकार करती हैं।

वास्तव में उनका जीवन धन्य है! अरी सखी! हिरनियों की तो बात ही क्या है - स्वर्ग की देवियाँ जब युवतियों को आनन्दित करने वाले सौन्दर्य और शील के खजाने श्रीकृष्ण को देखती हैं और बाँसुरी पर उनके द्वारा गाया हुआ मधुर संगीत सुनतीं हैं, तब उनके चित्र-विचित्र आलाप सुनकर वे अपने विमान पर ही सुध-बुध खो बैठती हैं - मूर्च्छित हो जाती हैं।

यह कैसे मालूम हुआ सखी? सुनो तो, जब उनके हृदय में श्रीकृष्ण से मिलने की तीव्र आकांक्षा जग जाती है तब वे अपना धीरज खो बैठती हैं, बेहोश हो जाती हैं। उन्हें इस बात का भी पता नहीं चलता कि उनकी चोटियों में गुँथे हुए फूल पृथ्वी पर गिर रहे हैं। यहाँ तक कि उन्हें अपनी साड़ी का भी पता नहीं रहता, वह कमर से खिसककर जमीन पर गिर जाती है।

अरी सखी! तुम देवियों की बात क्या-क्या कह रही हो, इन गौओं को नहीं देखती? जब हमारे कृष्ण-प्यारे अपने मुख से बाँसुरी में स्वर भरते हैं और गौएँ उनका मधुर संगीत सुनती हैं, तब ये अपने दोनों कानों के दोने सम्हाल लेती हैं - खड़े कर लेती हैं और मानो उनसे अमृत पी रही हों, इस प्रकार उस संगीत का रस लेने लगती हैं? ऐसा क्यों होता है सखी?

अपने नेत्रों के द्वार से श्यामसुन्दर को हृदय में ले जाकर वे उन्हें वहीं विराजमान कर देती हैं और मन-ही-मन उनका आलिंगन करती हैं। देखती नहीं हो, उनके नेत्रों से आनन्द के आँसू छलकने लगते हैं! और उनके बछड़े, बछड़ों की तो दशा ही निराली हो जाती है। यद्यपि गायों के थनों से अपने-आप दूध झरता रहता है, वे जब दूध पीते-पीते अचानक ही वंशी ध्वनि सुनते हैं तब मुँह में लिया हुआ दूध का घूँट न उगले पाते हैं और न निगल पाते हैं। उनके हृदय में भी होता है भगवान का संस्पर्श और नेत्रों में छलकते होते हैं आनन्द के आँसू। वे ज्यों-के-त्यों ठिठके रह जाते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकविंश अध्याय: श्लोक 14-18 का हिन्दी अनुवाद)

अरी सखी! गौएँ और बछड़े तो हमारी घर की वस्तु हैं। उनकी बात तो जाने ही दो। वृन्दावन के पक्षियों को तुम नहीं हो! उन्हें पक्षी कहना ही भूल है! सच पूछो तो उनमें से अधिकांश बड़े-बड़े ऋषि-मुनि हैं। वे वृन्दावन के सुन्दर-सुन्दर वृक्षों की नयी और मनोहर कोंपलों वाली डालियों पर चुपचाप बैठ जाते हैं और आँखें बंद नहीं करते, निर्निमेष नयनों से श्रीकृष्ण की रूप-माधुरी तथा प्यार-भरी चितवन देख-देखकर निहाल होते रहते हैं, तथा कानों से अन्य सब प्रकार के शब्दों को छोड़कर केवल उन्हीं की मोहनी वाणी और वंशी का त्रिभुवन मोहन संगीत सुनते रहते हैं। मेरी प्यासी सखी! उनका जीवन कितना धन्य है!

अरी सखी! देवता, गौओं और पक्षियों की बात क्यों करती हो? वे तो चेतन हैं। इन जड़ नदियों को नहीं देखतीं? इसमें जो भँवर दीख रहे है, उनसे इनके हृदय से श्यामसुन्दर से मिलने की तीव्र आकांक्षा का पता चलता है? उसके वेग से ही तो इनका प्रवाह रुक गया है। इन्होंने भी प्रेमस्वरूप श्रीकृष्ण की वंशीध्वनि सुन ली है। देखो, देखो! ये अपनी तरंगों के हाथों से उनके चरण पकड़कर कमल के फूलों का उपहार चढ़ा रही हैं, और उनका आलिंगन कर रही हैं; मानो उसके चरणों पर अपना हृदय ही निछावर कर रही हैं।

अरी सखी! ये नदियाँ ये हमारी पृथ्वी की, हमारे वृन्दावन की वस्तुएँ हैं; तनिक इन बादलों को भी देखो! जब वे देखते हैं कि व्रजराजकुमार श्रीकृष्ण और बलराम जी ग्वालबालों के साथ धूप में गौएँ चरा रहे हैं और साथ-साथ बाँसुरी भी बजाते जा रहे हैं, तब उनके हृदय में प्रेम उमड़ आता है। वे उनके ऊपर मँडराने लगते हैं और वे श्यामघन अपने सखा घनश्याम के ऊपर अपने शरीर को ही छाता बनाकर तान देते हैं। इतना ही नहीं सखी! वे जब उनपर नन्हीं-नन्हीं फुहियों की वर्षा करने लगते हैं तब ऐसा जान पड़ता है कि वे उनके ऊपर सुन्दर-सुन्दर श्वेत कुसुम चढ़ा रहे हैं। नहीं सखी, उनके बहाने वे तो अपना जीवन ही निछावर कर देते हैं।

अरी भटू! हम तो वृन्दावन की इन भीलनियों को ही धन्य और कृतकृत्य मानती हैं। ऐसा क्यों सखी ? इसलिये कि इनके हृदय में बड़ा प्रेम है। जब ये हमारे कृष्ण-प्यारे को देखती हैं, तब इनके हृदय में भी उनसे मिलने की तीव्र आकांक्षा जाग उठती है। इनके हृदय में भी प्रेम की व्याधि लग लग जाती है। उस समय ये क्या उपाय करती हैं, यह भी सुन लो। हमारे प्रियतम की प्रेयसी गोपियाँ अपने वक्षःस्थलों पर जो केसर लगाती हैं, वह श्यामसुन्दर के चरणों में लगी होती है और वे जब वृन्दावन के घास-पात पर चलते हैं, तब उनमें भी लग जाती है। ये सौभाग्यवती भीलनियाँ उन्हें उन तनिकों पर से छुड़ाकर अपने स्तनों और मुखों पर मल लेतीं हैं और इस प्रकार अपने हृदय की प्रेम-पीड़ा शान्त करती हैं ।

अरी गोपियों! यह गिरिराज गोवर्धन तो भगवान के भक्तों में बहुत ही श्रेष्ठ है। धन्य हैं इसके भाग्य! देखती नहीं हो, हमारे प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण और नयनाभिराम बलराम के चरणकमलों का स्पर्श प्राप्त करके यह कितना आनन्दित रहता है। इसके भाग्य की सहारना कौन करे? यह तो उन दोनों का - ग्वालबालों और गौओं का बड़ा ही सत्कार करता है। स्नान-पान के लिये झरनों का जल देता है, गौओं के लिये सुन्दर हरी-हरी घास प्रस्तुत करता है, विश्राम करने के लिये कन्दराएँ और खाने के लिये कन्द-मूल फल देता है। वास्तव में यह धन्य है!

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकविंश अध्याय: श्लोक 19-20 का हिन्दी अनुवाद)

परी सखी! इन साँवरे-गोरे किशोरों की तो गति ही निराली है। जब वे सिरपर नोवना लपेटकर और कंधो पर फंदा रखकर गायों को एक वन से दूसरे वन में हाँककर ले जाते हैं, साथ में ग्वालबाल भी होते हैं और मधुर-मधुर संगीत गाते हुए बाँसुरी की तान छेड़ते हैं, उस समय मनुष्यों की तो बात ही क्या अन्य शरीरधारियों में भी चलने वाले चेतन पशु-पक्षी और जड़ नदी आदि तो स्थिर हो जाते हैं, तथा अचल-वृक्षों को भी रोमांच हो आता है। जादू भरी वंशी का और क्या चमत्कार सुनाऊँ।

परीक्षित! वृन्दावन विहारी श्रीकृष्ण की ऐसी-ऐसी एक नहीं, अनेक लीलाएँ हैं। गोपियाँ प्रति-दिन आपस में उनका वर्णन करतीं और तन्मय हो जातीं। भगवान लीलाएँ उनके हृदय में स्फुरित होने लगतीं।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                      【बाईसवाँ अध्याय】२२


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"चीरहरण"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अब हेमन्त ऋतु आयी। उसके पहले ही महीने में अर्थात मार्गशीर्ष में नन्दबाबा के व्रज की कुमारियाँ कात्यायनी देवी की पूजा और व्रत करने लगीं। वे केवल हविष्यान्न ही खाती थीं। राजन! वे कुमारी कन्याएँ पूर्व दिशा का क्षितिज लाल होते-होते यमुना जल में स्नान कर लेतीं और तटपर ही देवी की बालुकामयी मूर्ति बनाकर सुगन्धित चन्दन, फूलों के हार, भाँति-भाँति के नैवेद्य, धूप-दीप, छोटी-बड़ी भेँट की सामग्री, पल्लव, फल और चावल आदि से उनकी पूजा करतीं।

साथ ही ‘हे कात्यायनी! हे महामाये! हे महायोगिनी! हे सबकी एकमात्र स्वामिनी! आप नन्दनन्दन श्रीकृष्ण को हमारा पति बना दीजिये। देवि! हम आपके चरणों में नमस्कार करती हैं।’ - इस मन्त्र का जप करती हुई वे कुमारियाँ देवी की आराधना करतीं। इस प्रकार उन कुमारियों ने, जिनका मन श्रीकृष्ण पर निछावर हो चुका था, इस संकल्प के साथ एक महीने तक भद्रकाली की भली-भाँति पूजा की कि ‘नन्दन श्यामसुन्दर ही हमारे पति हों।' वे प्रतिदिन उषाकाल में ही नाम ले-लेकर एक-दूसरी सखी को पुकार लेतीं और परस्पर हाथ-में-हाथ डालकर ऊँचे स्वर से भगवान श्रीकृष्ण की लीला तथा नामों का गान करती हुई यमुना जल में स्नान करने के लिये जातीं।

एक दिन सब कुमारियों ने प्रतिदिन की भाँति यमुना जी के तट पर जाकर अपने-अपने वस्त्र उतार दिये और भगवान श्रीकृष्ण के गुणों का गान करती हुईं बड़े आनन्द से जल-क्रीडा करने लगीं। परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शंकर आदि योगेश्वरों के भी ईश्वर हैं। उनसे गोपियों की अभिलाषा छिपी न रही। वे उनका अभिप्राय जानकार अपने सखा ग्वालबालों के साथ उन कुमारियों की साधना सफल करने के लिये यमुना-तट पर गये।

उन्होंने अकेले ही उन गोपियों के सारे वस्त्र उठा लिये और बड़ी फुर्ती से वे एक कदम्ब के वृक्ष पर चढ़ गये। साथी ग्वालबाल ठठा-ठठाकर हँसने लगे और स्वयं श्रीकृष्ण भी हँसते हुए गोपियों से हँसी की बात कहने लगे - ‘अरी कुमारियों! तुम यहाँ आकर इच्छा हो, तो अपने-अपने वस्त्र ले जाओ। मैं तुम लोगों से सच-सच कहता हूँ। हँसी बिल्कुल नहीं करता। तुम लोग व्रत करते-करते दुबली हो गयी हो। ये मेरे सखा ग्वालबाल जानते हैं कि मैंने कभी कोई झूठी बात नहीं कही है। सुन्दरियों! तुम्हारी इच्छा हो तो अलग-अलग आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो, या सब एक साथ ही आओ। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है।

भगवान की यह हँसी-मसखरी देखकर गोपियों का हृदय प्रेम से सराबोर हो गया। वे तनिक सकुचाकर एक-दूसरी की ओर देखने और मुस्कुराने लगीं। जल से बाहर नहीं निकलीं। जब भगवान ने हँसी-हँसी में यह बात कई तब उनके विनोद से कुमारियों का चित्त और भी उनकी ओर खिंच गया। वे ठंडे पानी में कण्ठ तक डूबी हुई थीं और उनका शरीर थर-थर काँप रहा था। उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा - ‘प्यारे श्रीकृष्ण! तुम ऐसी अनीति मत करो। हम जानती हैं कि तुम नन्दबाबा के लाड़ले लाल हो। हमारे प्यारे हो। सारे व्रजवासी तुम्हारी सराहना करते रहते हैं। देखो, हम जाड़े के मारे ठिठुर रही हैं। तुम हमें हमारे वस्त्र दे दो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 15-25 का हिन्दी अनुवाद)

प्यारे श्यामसुन्दर! हम तुम्हारी दासी हैं। तुम तो धर्म का मर्म भलीभाँति जानते हो। हमें कष्ट मत दो। हमारे वस्त्र हमें दे दो; नहीं तो हम जाकर नन्दबाबा से कह देंगी’।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- कुमारियों! तुम्हारी मुस्कान पवित्रता और प्रेम से भरी है। देखो, जब तुम अपने को मेरी दासी स्वीकार करती हो और मेरी आज्ञा का पालन करना चाहती हो तो यहाँ आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो। परीक्षित! वे कुमारियाँ ठण्ड से ठिठुर रहीं थीं, काँप रहीं थी। भगवान की ऐसी बात सुनकर वे अपने दोनों हाथों से गुप्त अंगों को छिपाकर यमुना जी से बाहर निकलीं। उस समय ठंड उन्हें बहुत ही सता रही थी।

उनके इस शुद्ध भाव से वह बहुत ही प्रसन्न हुए। उनको अपने पास आयी देखकर उन्होंने गोपियों के वस्त्र अपने कंधे पर रख लिये और बड़ी प्रसन्नता से मुस्काते हुए बोले ;- ‘अरी गोपियों! तुमने जो व्रत लिया था, उसे अच्छी तरह निभाया है - इसमें संदेह नहीं। परन्तु इस अवस्था में वस्त्रहीन होकर तुमने जल में स्नान किया है, इससे तो जल के अधिष्ठातृ देवता वरुण का तथा यमुना जी का अपराध हुआ है।

अतः अब इस दोष की शान्ति के लिये तुम अपने हाथ जोड़कर सर से लगाओ और उन्हें झुककर प्रणाम करो, तदनन्तर अपने-अपने वस्त्र ले जाओ। भगवान श्रीकृष्ण की बात सुनकर व्रजकुमारियों ने ऐसा ही समझा कि वास्तव में वस्त्रहीन होकर स्नान करने से हमारे व्रत में त्रुटि आ गयी। अतः उसकी निर्विघ्न पूर्ति के लिये उन्होंने समस्त कर्मों के साक्षी श्रीकृष्ण को नमस्कार किया। क्योंकि उन्हें करने से ही हमारी सारी त्रुटियाँ और अपराधों का मार्जन हो जाता है।

जब यशोदानन्दन भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि सब-की-सब कुमारियाँ मेरी आज्ञा के अनुसार प्रणाम कर रही हैं, तब वे बहुत ही प्रसन्न हुए। उनके हृदय में करुणा उमड़ आयी और उन्होंने उनके वस्त्र दे दिये। प्रिय परीक्षित! श्रीकृष्ण ने कुमारियों से छ्ल भरी बातें कीं, उनका लज्जा-संकोच छुड़ाया, हँसी की और उन्हें कठपुतलियों के समान नचाया; यहाँ तक कि उनके वस्त्र-तक हर लिये। फिर भी वे उनसे रुष्ट नहीं हुईं, उनकी इन चेष्टाओं को दोष नहीं माना, बल्कि अपने प्रियतम के संग से वे और भी प्रसन्न हुईं। परीक्षित! गोपियों ने अपने-अपने वस्त्र पहन लिये। परन्तु श्रीकृष्ण ने उनके चित्त को इस प्रकार अपने वश में कर रखा था कि वे वहाँ से एक पग भी न चल सकी। अपने प्रियतम के समागम के लिये सजकर वे उन्हीं की ओर लजीली चितवन से निहारती रहीं।

भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि उन कुमारियों ने उनके चरणकमलों में स्पर्श की कामना से ही व्रत धारण किया है और उनके जीवन का यही एकमात्र संकल्प है। तब गोपियों के प्रेम के अधीन होकर ऊखल-तक में बँध जाने वाले भगवान ने उनसे कहा - ‘मेरी परम प्रेयसी कुमारियों! मैं तुम्हारा यह संकल्प जानता हूँ कि तुम मेरी पूजा करना चाहती हो। मैं तुम्हारी इस अभिलाषा का अनुमोदन करता हूँ, तुम्हारा यह संकल्प सत्य होगा। तुम मेरी पूजा कर सकोगी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय: श्लोक 26-38 का हिन्दी अनुवाद)

जिन्होंने अपना मन और प्राण मुझे समर्पित कर रखा है उनकी कामनाएँ उन्हें सांसारिक भोगों की ओर ले जाने में समर्थ नहीं होतीं। ठीक वैसे ही, जैसे भुने या उबाले हुए बीज फिर अंकुर के रूप में उगने के योग्य नहीं रह जाते। इसलिये कुमारियों! अब तुम अपने-अपने घर लौट जाओ। तुम्हारी साधना सिद्ध हो गई है। तुम आने वाली शरद ऋतु की रात्रियों में मेरे साथ विहार करोगी। सतियो! इसी उद्देश्य से तो तुम लोगों ने यह व्रज और कात्यायनी देवी की पूजा की थी’।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान की यह आज्ञा पाकर वे कुमारियाँ भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करतीं हुईं जाने की इच्छा न होने पर भी बड़े कष्ट से व्रज में गयीं। अब उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो चुकी थीं। प्रिय परीक्षित! एक दिन भगवान श्रीकृष्ण बलराम जी और ग्वालबालों के साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावन से बहुत दूर निकल गये ।

ग्रीष्म ऋतु थी। सूर्य की किरणें बहुत ही प्रखर हो रही थीं। परन्तु घने-घने वृक्ष भगवान श्रीकृष्ण के ऊपर छत्ते का काम कर रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने वृक्षों को छाया करते देख स्तोककृष्ण, अंशु, श्रीदामा, सुबल, अर्जुनल, विशाल, ऋषभ, तेजस्वी, देवप्रस्थ और वरुथप आदि ग्वालों को सम्बोधन करके कहा -

‘मेरे प्यारे मित्रों! देखो, ये वृक्ष कितने भाग्यवान हैं! इनका सारा जीवन केवल दूसरों की भलाई करने के लिये ही है। ये स्वयं तो हवा के झोंके, वर्षा, धूप और पाला - सब कुछ सकते हैं, परन्तु हम लोगों की उनसे रक्षा करते हैं ।

मैं कहता हूँ कि इन्हीं का जीवन सबसे श्रेष्ठ है। क्योंकि इनके द्वारा सब प्राणियों को सहारा मिलता है, उनका जीवन-निर्वाह होता है। जैसे किसी सज्जन पुरुष के घर से कोई याचक ख़ाली हाथ नहीं लौटता, वैसे ही इन वृक्षों से भी सभी को कुछ-न-कुछ मिल ही जाता है।

ये अपने पत्ते, फूल, फल, छाया, जड़, छाल, लकड़ी, गन्ध, गोंद, राख, कोयला, अंकुर और कोंपलों से भी लोगों की कामना पूर्ण करते हैं।

मेरे प्यारे मित्रों! संसार में प्राणी तो बहुत हैं; परन्तु उनके जीवन की सफलता इतने में ही है कि जहाँ तक हो सके अपने धन से, विवेक-विचार से, वाणी से और प्राणों से भी ऐसे ही कर्म किये जायँ, जिनसे दूसरों की भलाई हो।

परीक्षित! दोनों ओर से वृक्ष नयी-नयी कोंपलों, गुच्छों, फल-फूलों और पत्तों से लद रहे थे। उनकी डालियाँ पृथ्वी तक झुकी हुई थीं। इस प्रकार भाषण करते हुए भगवान श्रीकृष्ण उन्हीं के बीच से यमुना तट पर निकल आये। राजन! यमुना जी का जल बड़ा ही मधुर, शीतल और स्वच्छ था। उन लोगों ने पहले गौओं को पिलाया और इसके बाद स्वयं भी जी भरकर स्वादु जल का पान किया।

परीक्षित! जिस समय यमुना जी के तट पर हरे-भरे उपवन में बड़ी स्वतन्त्रता से अपनी गौएँ चरा रहे थे, उसी समय कुछ भूखे ग्वालों ने भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी के पास आकर यह बात कही।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                      【तेइसवाँ अध्याय】२३


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"यज्ञ पत्नियों पर कृपा"
ग्वालबालों ने कहा ;- नयनाभिराम बलराम! तुम बड़े पराक्रमी हो। हमारे चितचोर श्यामसुन्दर! तुमने बड़े-बड़े दुष्टों का संहार किया है। उन्हीं दुष्टों के समान यह भूख भी हमें सता रही है। अतः तुम दोनों इसे भी बुझाने का कोई उपाय करो।

श्री शुकदेव जी ने कहा ;- परीक्षित! जब ग्वालबालों ने देवकीनन्दन भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार प्रार्थना की तब उन्होंने मथुरा की अपनी भक्त ब्राह्मण पत्नियों पर अनुग्रह करने के लिये यह बात कही -

‘मेरे प्यारे मित्रों! यहाँ से थोड़ी ही दूर पर वेदवादी ब्राह्मण स्वर्ग की कामना से आंगिरस नाम का यज्ञ कर रहे हैं। तुम उनकी यज्ञशाला में जाओ ग्वालबालों मेरे भेजने से वहाँ जाकर तुम लोग मेरे बड़े भाई भगवान श्रीकृष्ण बलराम जी का और मेरा नाम लेकर कुछ थोडा-सा भात-भोजन की सामग्री माँग लाओ’ जब भगवान ने ऐसी आज्ञा दी, तब ग्वालबाल उन ब्राह्मणों की यज्ञशाला में गये और उनसे भगवान की आज्ञा के अनुसार ही अन्न माँगा।

पहले उन्होंने पृथ्वी पर गिरकर दण्डवत प्रणाम किया और फिर हाथ जोड़कर कहा ;- ‘पृथ्वी के मूर्तिमान देवता ब्राह्मणों! आपका कल्याण हो! आपसे निवेदन है कि हम व्रज के ग्वाले हैं। भगवान श्रीकृष्ण और बलराम की आज्ञा से हम आपके पास आये हैं। आप हमारी बात सुनें। भगवान बलराम और श्रीकृष्ण गौएँ चराते हुए यहाँ से थोड़े ही दूर पर आये हुए हैं। उन्हें इस समय भूख लगी है और वे चाहते हैं कि आप लोग उन्हें थोडा-सा भात दे दें।

ब्राह्मणों! आप धर्म का मर्म जानते हैं। यदि आपकी श्रद्धा हो, तो उन भोजनार्थियों के लिये कुछ भात दे दीजिये। सज्जनों! जिस यज्ञदीक्षा में पशुबलि होती है, उसमें और सौत्रामणी यज्ञ में दीक्षित पुरुष का अन्न नहीं खाना चाहिये। इनके अतिरिक्त और किसी भी समय किसी भी यज्ञ में दीक्षित पुरुष का भी अन्न खाने में में कोई दोष नहीं है।

परीक्षित! इस प्रकार भगवान के अन्न माँगने की बात सुनकर भी उन ब्राह्मणों ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। वे चाहते थे स्वर्गादि तुच्छ फल और उनके लिये बड़े-बड़े कर्मों में उलझे हुए थे। सच पूछो तो वे ब्राह्मण ज्ञान की दृष्टि से थे बालक की, परन्तु अपने को बड़ा ज्ञानवृद्ध मानते थे।

परीक्षित! देश, काल अनेक प्रकार की सामग्रियाँ, भिन्न-भिन्न कर्मों में विनियुक्त मन्त्र, अनुष्ठान की पद्धति, ऋत्विज-ब्रह्मा आदि यज्ञ कराने वाले, अग्नि, देवता, यजमान, यज्ञ, और धर्म - इन सब रूपों में एकमात्र भगवान ही प्रकट हो रहे हैं। वे ही इन्द्रियातीत परब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ग्वालबालों के द्वारा भात माँग रहे हैं। परन्तु इन मूर्खों ने, जो अपने को शरीर ही माने बैठे हैं, भगवान को भी एक साधारण मनुष्य ही माना और उनका सम्मान नहीं किया।

परीक्षित! जब उन ब्राह्मणों ने ‘हाँ’ या ‘ना’ - कुछ नहीं कहा, तब ग्वालबालों की आशा टूट गयी; वे लौट आये और वहाँ की सब बात उन्होंने श्रीकृष्ण तथा बलराम से कह दी। उनकी बात सुनकर सारे जगत के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने ग्वालबालों को समझाया कि संसार में असफलता तो बार-बार होती ही है, उससे निराश नहीं होना चाहिये; बार-बार प्रयत्न करते रहने से सफलता मिल ही जाती है।’

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 14- 23 का हिन्दी अनुवाद)

फिर उनसे कहा ;- ‘मेरे प्यारे ग्वालबालों! इस बार तुम लोग उनकी पत्नियों के पास जाओ और उनसे कहो कि राम और श्याम यहाँ आये हैं। तुम जितना चाहोगे उतना भोजन वे तुम्हें देंगी। वे मुझसे बड़ा प्रेम करती हैं। उनका मन सदा-सर्वदा मुझमें लगा रहता है।'

अबकी बार ग्वालबाल पत्नीशाला में गये। वहाँ जाकर देखा तो ब्राह्मणों की पत्नियाँ सुन्दर-सुन्दर वस्त्र और गहनों से सज-धजकर बैठी हैं। उन्होंने द्विजपत्नियों को प्रणाम करके बड़ी नम्रता से यह बात कही ;- ‘आप विप्रपत्नियों को हम नमस्कार करते हैं। आप कृपा करके हमारी बात सुनें। भगवान श्रीकृष्ण यहाँ से थोड़ी ही दूर पर आये हुए हैं और उन्होंने ही हमें आपके पास भेजा है। वे ग्वालबाल और बलराम जी के साथ गौएँ चराते हुए इधर बहुत दूर आ गये हैं। इस समय उन्हें और उनके साथियों को भूख लगी है। आप उनके लिये कुछ भोजन दे दें।'

परीक्षित! वे ब्राह्मणियाँ बहुत दिनों से भगवान की मनोहर लीलाएँ सुनती थीं। उनका मन उनमें लग चुका था। वे सदा-सर्वदा इस बात के लिये उत्सुक रहतीं कि किसी प्रकार श्रीकृष्ण के दर्शन हो जायँ। श्रीकृष्ण के आने की बात सुनते ही वे उतावली हो गयीं। उन्होंने बर्तनों में अत्यन्त स्वादिष्ट और हितकर भक्ष्य, भोज्य, लह्य और चोष्य - चारों प्रकार की भोजन-सामग्री ले ली तथा भाई-बन्धु, पति-पुत्रों के रोकते रहने पर भी अपने प्रियतम भगवान श्रीकृष्ण के पास जाने के लिये घर से निकल पड़ी - ठीक वैसे ही, जैसे नदियाँ समुद्र के लिये। क्यों न हो; न जाने कितने दिनों से पवित्रकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के गुण, लीला, सौन्दर्य और माधुर्य आदि का वर्णन सुन-सुनकर उन्होंने उनके चरणों पर अपना हृदय निछावर कर दिया था।

ब्राह्मण पत्नियों ने जाकर देखा कि यमुना के तटपर नये-नये कोंपलों से शोभायमान अशोक-वन में ग्वालबालों से घिरे हुए बलरामजी के साथ श्रीकृष्ण इधर-उधर घूम रहे हैं।

उनके साँवले शरीर पर सुनहला पीताम्बर झिलमिला रहा है। गले में वनमाला लटक रही है। मस्तक पर मोरपंख का मुकुट है। अंग-अंग में रंगीन धातुओं से चित्रकारी कर रखी है। नये-नये कोंपलों के गुच्छे शरीर में लगाकर नट का-सा वेष बना रखा है। एक हाथ अपने सखा ग्वालबाल के कंधे पर रखे हुए हैं और दूसरे हाथ से कमल का फूल नचा रहे हैं। कानों में कमल कुण्डल हैं, कपोलों पर घुँघराली अलकें लटक रही हैं और मुखकमल मन्द-मन्द मुस्कान की रेखा से प्रफुल्लित हो रहा है।

परीक्षित! अब तक अपने प्रियतम श्यामसुन्दर के गुण और लीलाएँ अपने कानों से सुन-सुनकर उन्होंने अपने मन को उन्हीं के प्रेम में रँग में डाला था, उसी में सराबोर कर दिया था। अब नेत्रों के मार्ग से उन्हें भीतर ले जाकर बहुत देर तक वे मन-ही-मन उनका आलिंगन करती रहीं और इस प्रकार उन्होंने अपने हृदय की जलन शान्त की - ठीक वैसे ही, जैसे जाग्रत और स्वप्न-अवस्थाओं की वृत्तियाँ ‘यह मैं, यह मेरा’ इस भाव से जलती रहती हैं, परन्तु सुषुप्ति-अवस्था में उसके अभिमानी प्राज्ञ को पाकर उसी में लीन हो जाती हैं और उनकी सारी जलन मिट जाती है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 24-33 का हिन्दी अनुवाद)

प्रिय परीक्षित! भगवान सबके हृदय की बात जानते हैं, सबकी बुद्धियों के साक्षी है। उन्होंने जब देखा कि ये ब्राह्मण पत्नियाँ अपने भाई-बन्धु और पति-पुत्रों के रोकने पर भी सब सगे-सम्बन्धियों और विषयों की आशा छोड़कर केवल मेरे दर्शन की लालसा से ही मेरे पास आयी हैं, तब उन्होंने उनसे कहा। उस समय उनके मुखारविन्द पर हास्य की तरंगें अठखेलियाँ कर रही थीं।

भगवान ने कहा ;- ‘महाभाग्यवती देवियों! तुम्हारा स्वागत है। आओ, बैठो, कहो, हम तुम्हारा क्या स्वागत करें? तुम लोग हमारे दर्शन की इच्छा से यहाँ आयी हो, यह तुम्हारे-जैसे प्रेमपूर्ण हृदयवालों के योग्य ही है। इसमें सन्देह नहीं कि संसार में अपनी सच्ची भलाई को समझने वाले जितने भी बुद्धिमान पुरुष हैं, वे अपने प्रियतम के समान ही मुझसे प्रेम करते हैं और ऐसा प्रेम करते हैं जिसमें किसी प्रकार की कामना नहीं रहती, जिसमें किसी प्रकार का व्यवधान, संकोच, छिपावा, दुविधा या द्वैत नहीं होता। प्राण, बुद्धि, मन, शरीर, स्वजन, स्त्री, पुत्र और धन आदि संसार की सभी वस्तुएँ जिसके लिये और जिसकी सन्निधि से प्रिय लगती हैं, उस आत्मा से, परमात्मा से, मुझ श्रीकृष्ण से बढ़कर और कौन प्यारा हो सकता है। इसलिये तुम्हारा आना उचित ही है। मैं तुम्हारे प्रेम का अभिनन्दन करता हूँ। परन्तु अब तुम लोग मेरा दर्शन कर चुकीं। अब अपने यज्ञशाला में लौट जाओ। तुम्हारे पति ब्राह्मण गृहस्थ हैं। वे तुम्हारे साथ मिलकर ही अपना यज्ञ पूर्ण कर सकेंगे।'

ब्राह्मण पत्नियों ने कहा ;- अन्तर्यामी श्यामसुन्दर! आपकी यह बात निष्ठुरता से पूर्ण है। आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। श्रुतियाँ कहती हैं कि जो एक बार भगवान को प्राप्त हो जाता है, उसे फिर संसार में नहीं लौटना पड़ता। आप अपनी यह वेदवाणी सत्य कीजिये। हम अपने समस्त सगे-सम्बन्धियों की आज्ञा का उल्लंघन करके आपके चरणों में इसलिये आयी हैं कि आपके चरणों से गिरी हुई तुलसी की माला अपने केशों में धारण करें। स्वामी! अब हमारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धु और स्वजन-सम्बन्धी हमें स्वीकार नहीं करेंगे; फिर दूसरों की तो बात ही क्या है। वीरशिरोमणे! अब हम आपके चरणों में आ पड़ी हैं। हमें और किसी का सहारा नहीं है। इसलिये अब हमें दूसरों की शरण में न जाना पड़े, ऐसी व्यवस्था कीजिये।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- देवियों! तुम्हारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धु - कोई भी तुम्हारा तिरस्कार नहीं करेंगे। उनकी तो बात ही क्या, सारा संसार तुम्हारा सम्मान करेगा। इसका कारण है, अब तुम मेरी हो गयी हो, मुझसे युक्त हो गयी हो। देखो न, ये देवता मेरी बात का अनुमोदन कर रहे हैं। देवियों! इस संसार में मेरा अंग-संग ही मनुष्यों में मेरी प्रीति या अनुराग का कारण नहीं है। इसलिये तुम जाओ, अपना मन मुझमें लगा दो। तुम्हें बहुत शीघ्र मेरी प्राप्ति हो जायगी।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब भगवान ने इस प्रकार कहा, तब वे ब्राह्मण पत्नियाँ यज्ञशाला में लौट गयीं। उन ब्राह्मणों ने अपनी स्त्रियों में तनिक भी दोषदृष्टि नहीं की। उनके साथ मिलकर अपना यज्ञ पूरा किया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 34-43 का हिन्दी अनुवाद)

उन स्त्रियों में से एक को आने के समय ही उसके पति ने बलपूर्वक रोक लिया था। इस पर उस ब्राह्मण पत्नी ने भगवान के वैसे ही स्वरूप का ध्यान किया, जैसा कि बहुत दिनों से सुन रखा था। जब उसका ध्यान जम गया, तब मन-ही-मन भगवान का आलिंगन करके उसके कर्म के द्वारा बने हुए अपने शरीर को छोड़ दिया। इधर भगवान श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणियों के लाये हुए उस चार प्रकार के अन्न से पहले ग्वालबालों को भोजन कराया और फिर उन्होंने स्वयं भी भोजन किया।

परीक्षित! इस प्रकार लीलामनुष्य भगवान श्रीकृष्ण ने मनुष्य की-सी लीला की और अपने सौन्दर्य, माधुर्य, वाणी तथा कर्मों से गौएँ, ग्वालबालों और गोपियों को आनन्दित किया और स्वयं भी उनके अलौकिक प्रेमरस का आस्वादन करके आनन्दित हुए।

परीक्षित! इधर जब ब्राह्मणों को यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान हैं, तब उन्हें बड़ा पछतावा हुआ। वे सोचने लगे कि जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम की आज्ञा का उल्लंघन करके हमने बड़ा भारी अपराध किया है। वे तो मनुष्य की-सी लीला करते हुए भी परमेश्वर ही हैं।

जब उन्होंने देखा कि हमारी पत्नियों के हृदय तो भगवान के लिए अलौकिक प्रेम है और हम लोग उससे बिलकुल रीते हैं, तब वे पछता-पछताकर अपनी निन्दा करने लगे। वे कहते लगे - हाय! हम भगवान श्रीकृष्ण से विमुख हैं। बड़े ऊँचे कुल में हमारा जन्म हुआ, गायत्री ग्रहण करके हम द्विजाति हुए, वेदाध्ययन करके हमने बड़े-बड़े यज्ञ किये; परन्तु वह सब किस काम का? धिक्कार है! धिक्कार है! हमारी विद्या व्यर्थ गयी, हमारे व्रत बुरे सिद्ध हुए। हमारी इस बहुज्ञता को धिक्कार है!

ऊँचे वंश में जन्म लेना, कर्मकाण्ड में निपुण होना किसी काम न आया। इन्हें बार-बार धिक्कार है। निश्चय ही, भगवान की माया बड़े-बड़े योगियों को भी मोहित कर लेती है। तभी तो हम कहलाते हैं मनुष्यों के गुरु और ब्राह्मण, परन्तु अपने सच्चे स्वार्थ और परमार्थ के विषय में बिलकुल भूले हुए हैं। कितने आश्चर्य की बात है! देखो तो सही - यद्यपि ये स्त्रियाँ हैं, तथापि जगद्गुरु भगवान श्रीकृष्ण में इनका कितना अगाध प्रेम है, अखण्ड अनुराग है! उसी से इन्होंने गृहस्थी की वह बहुत बड़ी फाँसी भी काट डाली, जो मृत्यु के साथ भी नहीं कटती।

इनके न तो द्विजाति के योग्य यज्ञोपवीत आदि संस्कार हुए हैं और न तो इन्होंने गुरुकुल में ही निवास किया है। न इन्होंने तपस्या की है और न तो आत्मा के सम्बन्ध में ही कुछ विवेक-विचार किया है। उनकी बात तो दूर रही, इनमें न तो पूरी पवित्रता है और न तो शुभकर्म ही। फिर भी समस्त योगेश्वरों के ईश्वर पुण्यकीर्ति भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में इनका दृढ़ प्रेम है। और हमने अपने संस्कार किये हैं, गुरुकुल में निवास किया है, तपस्या की है, आत्मानुसंधान किया है, पवित्रता का निर्वाह किया है तथा अच्छे-अच्छे कर्म किये हैं; फिर भी भगवान के चरणों में हमारा प्रेम नहीं है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 44-52 का हिन्दी अनुवाद)

सच्ची बात यह है कि हम लोग गृहस्थी के काम-धंधों में मतवाले हो गये थे, अपनी भलाई और बुराई को बिलकुल भूल गये थे। अहो, भगवान की कितनी कृपा है! भक्तवत्सल प्रभु ने ग्वालबालों को भेजकर उनके वचनों से हमें चेतावनी दी, अपनी याद दिलायी। भगवान स्वयं पूर्ण काम हैं और कैवल्यमोक्ष पर्यन्त जितनी भी कामनाएँ होती हैं, उनको पूर्ण करने वाले हैं। यदि हमें सचेत नहीं करना होता तो उनका हम-सरीखे क्षुद्र जीवों से प्रयोजन ही क्या हो सकता था?

अवश्य ही उन्होंने इसी उद्देश्य से माँगने का बहाना बनाया। अन्यथा उन्हें माँगने की भला क्या आवश्यकता थी? स्वयं लक्ष्मी अन्य सब देवताओं को छोड़कर और अपनी चंचलता, गर्व आदि दोषों का परित्याग कर केवल एक बार उनके चरणकमलों का स्पर्श पाने के लिये सेवा करती रहती हैं। वे ही प्रभु किसी से भोजन की याचना करें, यह लोगों को मोहित करने के लिये नहीं तो और क्या है?

देश, काल, पृथक-पृथक सामग्रियाँ, उन-उन कर्मों में विनियुक्त मन्त्र, अनुष्ठान की पद्धति, ऋत्विज, अग्नि, देवता, यज्ञमान, यज्ञ और धर्म - सब भगवान के ही स्वरूप हैं। वे ही योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान विष्णु स्वयं श्रीकृष्ण के रूप में यदुवंशियों में अवतीर्ण हुए हैं, यह बात हमने सुन रखी थी; परन्तु हम इतने मूढ़ हैं कि उन्हें पहचान न सके। यह सब होने पर भी हम धन्याति धन्य हैं, हमारे अहोभाग्य हैं। तभी तो हमें वैसी पत्नियाँ प्राप्त हुई हैं। उनकी भक्ति से हमारी बुद्धि भी भगवान श्रीकृष्ण के अविचल प्रेम से युक्त हो गयी है।

प्रभो! आप अचिन्त्य और अनन्त ऐश्वर्यों के स्वामी हैं! श्रीकृष्ण! आपका ज्ञान अबाध है। आपकी ही माया से हमारी बुद्धि मोहित हो रही है और हम कर्मों के पचड़े में भटक रहे हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं। वे आदि पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण हमारे इस अपराध को क्षमा करें। क्योंकि हमारी बुद्धि उनकी माया से मोहित हो रही है और हम उनके प्रभाव को न जानने वाले अज्ञानी हैं।

परीक्षित! उन ब्राह्मणों ने श्रीकृष्ण का तिरस्कार किया था। अतः उन्हें अपने अपराध की स्मृति से बड़ा पश्चाताप हुआ और उनके हृदय में श्रीकृष्ण-बलराम के दर्शन की बड़ी इच्छा भी हुई; परन्तु कंस के डर के मारे वे उनका दर्शन करने न जा सके।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                      【 चौबीसवाँअध्याय】२४


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"इंद्रयज्ञ-निवारण"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण बलराम जी के साथ वृन्दावन में रहकर अनेकों प्रकार की लीलाएँ कर रहे थे। उन्होंने एक दिन देखा कि वहाँ के सब गोप इन्द्र-यज्ञ करने की तैयारी कर रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण सबके अन्तर्यामी और सर्वज्ञ हैं। उनसे कोई बात छिपी नहीं थी, वे सब जानते थे। फिर भी विनयावनत होकर उन्होंने नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपों ने पूछा - ‘पिताजी! आप लोगों के सामने यह कौन-सा बड़ा भारी काम, कौन-सा उत्सव आ पहुँचा है? इसका फल क्या है? किस उद्देश्य से, कौन लोग, किन साधनों के द्वारा यह यज्ञ किया करते हैं?

पिताजी! आप मुझे यह अवश्य बतलाइये। आप मेरे पिता हैं और मैं आपका पुत्र। ये बातें सुनने के लिये मुझे बड़ी उत्कण्ठा भी है। पिताजी! जो संत पुरुष सबकी अपनी आत्मा मानते हैं, जिनकी दृष्टि में अपने और पराये का भेद नहीं है, जिनका न कोई मित्र है, न शत्रु और न उदासीन - उनके पास छिपाने की तो कोई होती ही नहीं। परन्तु यदि ऐसी स्थिति न हो तो रहस्य की बात शत्रु की भाँति उदासीन से भी नहीं करनी चाहिये। मित्र तो अपने समान ही कहा गया है, इसलिये उससे कोई बात छिपायी नहीं जाती। यह संसारी मनुष्य समझे-बेसमझे अनेकों प्रकार के कर्मों का अनुष्ठान करता है। उनमें से समझ-बुझकर करने वाले पुरुषों के कर्म जैसे सफल होते हैं, वैसे बेसमझ के नहीं। अतः इस समय आप लोग जो क्रियायोग करने जा रहे हैं, वह सुहृदों के साथ विचारित-शास्त्रसम्मत है अथवा लौकिक ही है - मैं यह सब जानना चाहता हूँ; आप कृपा करके स्पष्ट रूप से बतलाइये।'

नन्दबाबा ने कहा ;- बेटा! भगवान इन्द्र वर्षा करने वाले मेघों के स्वामी हैं। ये मेघ उन्हीं के अपने रूप हैं। वे समस्त प्राणियों को तृप्त करने वाला एवं जीवनदान करने वाल जल बरसाते हैं। मेरे प्यारे पुत्र! हम और दूसरे लोग भी उन्हीं मेघपति भगवान इन्द्र की यज्ञों द्वारा पूजा किया करते हैं। जिन सामग्रियों से यज्ञ होता है, वे भी उनके बरसाये हुए शक्तिशाली जल से ही उत्पन्न होती हैं। उनका यज्ञ करने के बाद जो कुछ बच रहता है, उसी अन्न से हम सब मनुष्य अर्थ, धर्म और कामरूप त्रिवर्ग की सिद्धि के लिये अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। मनुष्यों के खेती आदि प्रयत्नों के फल देने वाले इन्द्र ही हैं। यह धर्म हमारी कुल परम्परा से चला आया है। जो मनुष्य काम, लोभ, भय अथवा द्वेषवश ऐसे परम्परागत धर्म को छोड़ देता है, उसका कभी मंगल नहीं होता।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! ब्रह्मा, शंकर आदि के भी शासन करने वाले केशव भगवान ने नन्दबाबा और दूसरे व्रजवासियों की बात सुनकर इन्द्र को क्रोध दिलाने के लिये अपने पिता नन्दबाबा से कहा।

श्री भगवान ने कहा ;- पिताजी! प्राणी अपने कर्म के अनुसार ही पैदा होता होता और कर्म से ही मर जाता है। उसे उसके कर्म के अनुसार ही सुख-दुःख, भय और मंगल के निमित्तों की प्राप्ति होती है।

यदि कर्मों को ही सब कुछ न मानकर उनसे भिन्न जीवों के कर्म का फल देने वाला ईश्वर माना भी जाय तो वह कर्म करने वालों को ही उनके कर्म के अनुसार फल दे सकता है। कर्म न करने वालों पर उसकी प्रभुता नहीं चल सकती।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद)

जब सब प्राणी अपने-अपने कर्मों कही फल भोग रहे हैं, तब हमें इन्द्र की क्या आवश्यकता है? पिताजी! जब वे पूर्वसंस्कार के अनुसार प्राप्त होने वाले मनुष्यों के कर्म-फल को बादल ही नहीं सकते - तब उनसे प्रयोजन? मनुष्य अपने स्वभाव के अधीन है। वह उसी का अनुसरण करता है। यहाँ तक कि देवता, असुर, मनुष्य आदि को लिये हुए यह सारा जगत स्वभाव में ही स्थित है। जीव अपने कर्मों के अनुसार उत्तम और अधम शरीरों को ग्रहण करता और छोड़ता रहता है। अपने कर्मों के अनुसार ही ‘यह शत्रु है, यह मित्र है, यह उदासीन है’ - ऐसा व्यवहार करता है।

कहाँ तक कहूँ, कर्म ही गुरु है और कर्म ही ईश्वर। इसलिये पिताजी! मनुष्य को चाहिये कि पूर्व-संस्कारों के अनुसार अपने वर्ण तथा आश्रम के अनुकूल धर्मों का पालन करता हुआ कर्म का ही आदर करे। जिसके द्वारा मनुष्य की जीविका सुगमता से चलती है, वही उसका इष्टदेव होता है। जैसे अपने विवाहित पति को छोड़कर जार पति का सेवन करने वाली व्यभिचारिणी स्त्री कभी शान्ति लाभ नहीं करती, वैसे ही जो मनुष्य अपनी आजीविका चलाने वाले एक देवता को छोड़कर किसी दूसरे की उपासना करते हैं, उससे उन्हें कभी सुख नहीं मिलता।

ब्राह्मण वेदों के अध्ययन-अध्यापन से, क्षत्रिय पृथ्वी पालन से, वैश्य वार्तावृति से और शूद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा से अपनी जीविका का निर्वाह करें। वैश्यों की वार्तावृत्ति चार प्रकार की है - कृषि, वाणिज्य, गोरक्षा और ब्याज लेना। हम लोग उन चारों में से एक केवल गोपालन ही सदा से करते आये हैं। पिताजी! इस संसार स्थिति, उत्पत्ति और अन्त में के कारण क्रमशः सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण हैं। यह विविध प्रकार का सम्पूर्ण जगत स्त्री-पुरुष के संयोग से रजोगुण के द्वारा उत्पन्न होता है। उसी रजोगुण की प्रेरणा से मेघगण सब कहीं जल बरसाते हैं। उसी से अन्न और अन्न से ही सब जीवों की जीविका चलती है। इसमें भला इन्द्र का क्या लेना-देना है? वह भला, क्या कर सकता है?

पिता जी! न तो हमारे पास किसी देश का राज्य है और न तो बड़े-बड़े नगर ही हमारे अधीन हैं। हमारे पास गाँव या घर भी नहीं हैं। हम तो सदा के वनवासी हैं, वन और पहाड़ ही हमारे घर हैं। इसलिये हम लोग गौओं, ब्राह्मणों और गिरिराज का यजन करने की तैयारी करें। इन्द्र-यज्ञ के लिये जो सामग्रियाँ इकट्ठी की गयी हैं, उन्हीं से इस यज्ञ का अनुष्ठान होने होने दें। अनेकों प्रकार के पकवान - खीर, हलवा, पुआ, पूरी आदि से लेकर मूँग की दाल तक बनाये जायँ। व्रज का सारा दूध एकत्र कर लिया जाय।

वेदवादी ब्राह्मणों के द्वारा भली-भाँति हवन करवाया जाय तथा उन्हें अनेकों प्रकार के अन्न, गौएँ और दक्षिणाएँ दी जायँ। और भी, चाण्डाल, पतित तथा कुत्तों तक को यथायोग्य वस्तुएँ देकर गायों को चारा दिया जाय और फिर गिरिराज को भोग लगाया जाय। इसके बाद खूब प्रसाद खा-पीकर, सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहनकर गहनों से सज-सजा लिया जाय और चन्दन लगाकर गौ, ब्राह्मण, अग्नि तथा गिरिराज गोवर्धन की प्रदक्षिणा की जाय। पिताजी! मेरी तो ऐसी ही सम्मति है। यदि आप-लोगों को रुचे तो ऐसा ही कीजिये। ऐसा यज्ञ गौ, ब्राह्मण और गिरिराज को तो प्रिय होगा ही; मुझे भी बहुत प्रिय है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 31-38 का हिन्दी अनुवाद)

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! कालात्मा भगवान की इच्छा थी कि इन्द्र का घमण्ड चूर-चूर कर दें। नन्दबाबा आदि गोपों ने उनकी बात सुनकर बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार कर ली। भगवान श्रीकृष्ण ने जिसे प्रकार का यज्ञ करने को कहा था, वैसा ही यज्ञ उन्होंने प्रारम्भ किया। पहले ब्राह्मणों से स्वस्ति वाचन कराकर उसी सामग्री से गिरिराज और ब्राह्मणों को सादर भेंट दीं तथा गौओं को हरी-हरी घास खिलायीं।

इसके बाद नन्दबाबा आदि गोपों ने गौओं को आगे करके गिरिराज की प्रदक्षिणा की। ब्राह्मणों का आशीर्वाद प्राप्त करके वे और गोपियाँ भलीभाँति श्रृंगार करके और बैलों से जुती गाड़ियों पर सवार होकर भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं का गान करती हुई गिरिराज की परिक्रमा करने लगीं। भगवान श्रीकृष्ण गोपों को विश्वास दिलाने के लिये गिरिराज के ऊपर एक दूसरा विशाल शरीर धारण करके प्रकट हो गये, तथा ‘मैं गिरिराज हूँ।' इस प्रकार कहते हुए सारी सामग्री आरोगने लगे।

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने उस स्वरूप को दूसरे व्रजवासियों के साथ स्वयं भी प्रणाम किया और कहने लगे - ‘देखो, कैसा आश्चर्य है! गिरिराज ने साक्षात प्रकट होकर हम पर कृपा की है। ये चाहे जैसा रूप धारण कर सकते हैं। जो वनवासी जीव इनका निरादर करते हैं, उन्हें ये नष्ट कर डालते हैं। आओ, अपना और गौओं का कल्याण करने के लिये इन गिरिराज को हम नमस्कार करें।' इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की प्रेरणा से नन्दबाबा आदि बड़े-बड़े गोपों ने गिरिराज, गौ और ब्राह्मणों का विधिपूर्वक पूजन किया तथा फिर श्रीकृष्ण के साथ सब व्रज में लौट आये ।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                      【पच्चीसवाँ अध्याय】२५


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचविंश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"गोवर्धन धारण"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब इन्द्र को पता लगा कि मेरी पूजा बंद कर दी गयी है, तब वे नन्दबाबा आदि गोपों पर बहुत ही क्रोधित हुए। परन्तु उनके क्रोध करने से होता क्या, उन गोपों के रक्षक तो स्वयं श्रीकृष्ण थे। इन्द्र को अपने पद का बड़ा घमण्ड था, वे समझते थे कि मैं ही त्रिलोकी का ईश्वर हूँ।

उन्होंने क्रोध से तिलमिलाकर प्रलय करने वाले मेघों के सांवर्तक नामक गण को व्रज पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी और कहा - ‘ओह, इन जंगली ग्वालों को इतना घमण्ड! सचमुच यह धन का ही नशा है। भला देखो तो सही, एक साधारण मनुष्य कृष्ण के बल पर उन्होंने मुझ देवराज का अपमान कर डाला।

जैसे पृथ्वी पर बहुत-से मन्दबुद्धि पुरुष भवसागर से पार जाने के सच्चे साधन ब्रह्मविद्या को तो छोड़ देते हैं और नाममात्र की टूटी हुई नाव से - कर्ममय यज्ञों से इस घोर संसार-सागर को पार करना चाहते हैं। कृष्ण बकवादी,, नादान, अभिमानी और मूर्ख होने पर भी अपने को बहुत बड़ा ज्ञानी समझता है। वह स्वयं मृत्यु का ग्रास है। फिर भी उसी का सहारा लेकर इन अहीरों ने मेरी अवहेलना की है।

एक तो ये यों ही धन के नशे में चूर हो रहे थे; दूसरे कृष्ण ने इनको और बढ़ावा दे दिया है। अब तुम लोग जाकर इनके इस धन के घमण्ड और हेकड़ी को धूल में मिला दो तथा उनके पशुओं का संहार कर डालो। मैं भी तुम्हारे पीछे-पीछे ऐरावत हाथी पर चढ़कर नन्द के व्रज का नाश करने के लिये महापराक्रमी मरूद्गणों के साथ आता हूँ।'

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इन्द्र ने इस प्रकार प्रलय के मेघों को आज्ञा दी और उनके बन्धन खोल दिये। अब वे बड़े वेग से नन्दबाबा के व्रज पर चढ़ आये और मूसलाधार पानी बरसाकर सारे व्रज को पीड़ित करने लगे। चारों और बिजलियाँ चमकने लगीं, बादल आपस में टकराकर कड़कने लगे और प्रचण्ड आँधी की प्रेरणा से वे बड़े-बड़े ओले बरसाने लगे।

इस प्रकार जब दल-के-दल बादल बार-बार आ-आकार खंभे के समान मोटी-मोटी धाराएँ गिराने लगे, तब व्रजभूमि का कोना-कोना पानी से भर गया और कहाँ नीचा है, कहाँ ऊँचा - इसका पता चलना कठिन हो गया। इस प्रकार मूसलाधार वर्षा तथा झंझावत के झपाटे से जब एक-एक पशु ठिठुरने और काँपने लगा, ग्वाल और ग्वालिनें भी ठण्ड के मारे अत्यन्त व्याकुल हो गयीं, तब वे सब-के-सब भगवान श्रीकृष्ण की शरण में आये।

मूसलाधार वर्षा से सताये जाने के कारण सबने अपने-अपने सिर और बच्चों की निहुककर अपने शरीर के नीचे छिपा था और वे काँपते-काँपते भगवान की चरण शरण में पहुँचे और बोले - ‘प्यारे श्रीकृष्ण! तुम बड़े भाग्यवान हो। अब तो कृष्ण! केवल तुम्हारे ही भाग्य से हमारी रक्षा होगी। प्रभो! इस सारे गोकुल के एकमात्र स्वामी, एकमात्र रक्षक तुम्हीं हो। भक्तवत्सल! इन्द्र के क्रोध से अब तुम्हीं हमारी रक्षा कर सकते हो।' भगवान ने देखा कि वर्षा और ओलों की मार से पीड़ित होकर सब बेहोश हो रहे हैं। वे समझ गये कि यह सारी करतूत इन्द्र की है। उन्होंने ही क्रोधवश ऐसा किया है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचविंश अध्यायः श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद)

वे मन-ही-मन कहने लगे ;- ‘हमने इन्द्र का यज्ञ भंग कर दिया है, इसी से वे व्रज का नाश करने के लिये बिना ऋतु के ही यह प्रचण्ड वायु और ओलों के साथ घनघोर वर्षा कर रहे हैं। अच्छा, मैं अपनी योगमाया से इनका भलीभाँति जवाब दूँगा। ये मूर्खतावश अपने को लोकपाल मानते हैं, इनके ऐश्वर्य और धन का घमण्ड तथा अज्ञान मैं चूर-चूर कर दूँगा। देवता लोग तो सत्त्वप्रधान होते हैं। इनमें अपने ऐश्वर्य और पद का अभिमान न होना चाहिये। अतः यह उचित ही है कि इस सत्त्वगुण से च्युत दुष्ट देवताओं का मैं मान भंग कर दूँ। इससे अन्त में उन्हें शान्ति ही मिलेगी। यह सारा व्रज मेरे आश्रित है, मेरे द्वारा स्वीकृत है और एकमात्र मैं ही इनका रक्षक हूँ। अतः मैं अपनी योगमाया से इनकी रक्षा करूँगा। संतों की रक्षा करना तो मेरा व्रत ही है। अब उसके पालन का अवसर आ पहुँचा है।’[1]

इस प्रकार कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में एक ही हाथ से गिरिराज गोवर्धन को उखाड़ लिया और जैसे छोटे-छोटे बालक बरसाती छत्ते के पुष्प को उखाड़कर हाथ में रख लेते हैं, वैसे ही उन्होंने उस पर्वत को धारण कर लिया।

इसके बाद भगवान ने गोपों ने कहा ;- ‘माताजी, पिताजी और व्रजवासियों! तुम लोग अपनी गौओं और सब सामग्रियों के साथ इस पर्वत के गड्ढ़े में आकर आराम से बैठ जाओ। देखो, तुम लोग ऐसी शंका न करना कि मेरे हाथ से यह पर्वत गिर पड़ेगा। तुम लोग तनिक भी मत डरो। इस आँधी-पानी के डर से तुम्हें बचाने के लिये ही मैंने यह युक्ति रची है।' जब भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार सबको आश्वासन दिया - ढाढ़स बँधाया, तब सब-के-सब ग्वाल अपने-अपने गोधन, छकड़ों, आश्रितों, पुरोहितों और भृत्यों को अपने-अपने साथ लेकर सुभीत के अनुसार गोवर्धन के गड्ढ़े में आ घुसे।

भगवान श्रीकृष्ण ने सब व्रजवासियों के देखते-देखते भूख-प्यास की पीड़ा, आराम-विश्राम की आवश्यकता आदि सब कुछ भुलाकर सात दिन तक लगाकर उस पर्वत को उठाये रखा। वे एक डग भी वहाँ से इधर-उधर नहीं हुए। श्रीकृष्ण की योगमाया का यह प्रभाव देखकर इन्द्र के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। अपना संकल्प पूरा न होने के कारण उनकी सारी हेकड़ी बंद हो गयी, वे भौंचक्के-से रह गये। इनके बाद उन्होंने मेघों को अपने-आप वर्षा करने से रोक दिया।

जब गोवर्धनधारी भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि वह भयंकर आँधी और घनघोर वर्षा बंद हो गयी, आकाश से बादल छँट गये और सूर्य दीखने लगे, तब उन्होंने गोपों से कहा - ‘मेरे प्यारे गोपों! अब तुम लोग निडर हो जाओ और अपनी स्त्रियों, गोधन और बच्चों के साथ बाहर निकल आओ। देखो, अब आँधी-पानी बंद हो गया तथा नदियों का पानी भी उतर गया।' भगवान की ऐसी आज्ञा पाकर अपने-अपने गोधन, स्त्रियों, बच्चों और बूढ़ों को साथ ले तथा अपनी सामग्री छकड़ों पर लादकर धीरे-धीरे सब लोग बाहर निकल आये। सर्वशक्तिमान भगवान श्रीकृष्ण ने भी सब प्राणियों के देखते-देखते खेल-खेल में ही गिरिराज को पूर्ववत उसके स्थान पर रख दिया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचविंश अध्यायः श्लोक 29-33 का हिन्दी अनुवाद)

ब्रजवासियों का हृदय प्रेम के आवेग से भर रहा था। पर्वत को रखते ही वे भगवान श्रीकृष्ण के पास दौड़ आये। कोई उन्हें हृदय से लगाने और कोई चूमने लगा। सबने उनका सत्कार किया। बड़ी-बूढ़ी गोपियों ने बड़े आनन्द और स्नेह से दही, चावल, जल आदि से उनका मंगल-तिलक किया और उन्मुक्त हृदय से शुभ आशीर्वाद दिये।

यशोदा रानी, रोहिणी जी, नन्दबाबा और बलवानों में श्रेष्ठ बलराम जी ने स्नेहातुर होकर श्रीकृष्ण को हृदय से लगा लिया तथा आशीर्वाद दिये। परीक्षित! उस समय आकाश में स्थित देवता, साध्य, सिद्ध, गन्धर्व और चारण आदि प्रसन्न होकर भगवान की स्तुति करते हुए उन पर फूलों की वर्षा करने लगे। राजन! स्वर्ग में देवता लोग शंख और नौबत बजाने लगे। तुम्बुरु आदि गन्धर्वराज भगवान की मधुर लीला का गान करने लगे। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण ने व्रज की यात्रा की। उनके बगल में बलराम जी चल रहे थे और उनके प्रेमी ग्वालबाल उनकी सेवा कर रहे थे। उनके साथ ही प्रेममयी गोपियाँ भी अपने हृदय को आकर्षित करने वाले, उसमें प्रेम जगाने वाले भगवान की गोवर्धन-धारण आदि लीलाओं का गान करती हुई बड़े आनन्द से ब्रज में लौट आयीं।

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