सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( चतुर्थ स्कन्धः ) का छब्बीसवाँ , सत्ताईसवाँ, अट्ठाईसवाँ, उनत्तीसवाँ तीसवाँ व इकिसवाँ अध्याय [ Twenty-sixth, twenty-seventh, twenty-Eight, twenty-ninth, thirtieth and Thirty-first chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (fourth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( चतुर्थ स्कन्धः ) का छब्बीसवाँ , सत्ताईसवाँ, अट्ठाईसवाँ, उनत्तीसवाँ, तीसवाँ व इकत्तीसवाँ अध्याय [ Twenty-sixth, twenty-seventh, twenty-Eight, twenty-ninth,  thirtieth and Thirty-first chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (fourth wing) ]


                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【षड्-विंश: अध्याय:】२६.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा पुरंजन का शिकार खेलने वन में जाना और रानी का कुपित होना"
श्रीनारद जी कहते हैं ;- राजन्! एक दिन राजा पुरंजन अपना विशाल धनुष, सोने का कवच और अक्षय तरकस धारण कर अपने ग्यारहवें सेनापति के साथ पाँच घोड़ों के शीघ्रगामी रथ में बैठकर पंचप्रस्थ नाम के वन में गया। उस रथ में दो ईषादण्ड (बंब), दो पहिये, एक धुरी, तीन ध्वजदण्ड, पाँच डोरियाँ, एक लगाम, एक सारथि, एक बैठने का स्थान, दो जुए, पाँच आयुध और सात आवरण थे। वह पाँच प्रकार की चालों से चलता था तथा उसका साज-बाज सब सुनहरा था। यद्यपि राजा के लिये अपनी प्रिया को क्षण भर भी छोड़ना कठिन था, किन्तु उस दिन उसे शिकार का ऐसा शौक लगा कि उसकी भी परवा न कर वह बड़े गर्व से धनुष-बाण चढ़ाकर आखेट करने लगा। इस समय आसुरीवृत्ति बढ़ जाने से उसका चित्त बड़ा कठोर और दयाशून्य हो गया था, इससे उसने अपने तीखे बाणों से बहुत-से निर्दोष जंगली जानवरों का वध कर डाला। जिसकी मांस में अत्यन्त आसक्ति हो, वह राजा केवल शास्त्रप्रदर्शित कर्मों के लिये वन में जाकर आवश्यकतानुसार अनिषिद्ध पशुओं का वध करे; व्यर्थ पशुहिंसा न करे। शास्त्र इस प्रकार उच्छ्रंखल प्रवृत्ति को नियन्त्रित करता है।

राजन्! जो विद्वान् इस प्रकार शास्त्रनियत कर्मों का आचरण करता है, वह उस कर्मानुष्ठान से प्राप्त हुए ज्ञान के कारणभूत कर्मों से लिप्त नहीं होता। नहीं तो, मनमाना कर्म करने से मनुष्य अभिमान के वशीभूत होकर कर्मों में बँध जाता है तथा गुण-प्रवाहरूप संसारचक्र में पड़कर विवेक-बुद्धि के नष्ट हो जाने से अधम योनियों में जन्म लेता है। पुरंजन के तरह-तरह के पंखों वाले बाणों से छिन्न-भिन्न होकर अनेकों जीव बड़े कष्ट के साथ प्राण त्यागने लगे। उसका वह निर्दयतापूर्ण जीव-संहार देखकर सभी दयालुपुरुष बहुत दुःखी हुए। वे इसे सह नहीं सके।

इस प्रकार वहाँ खरगोश, सूअर, भैंसे, नीलगाय, कृष्णमृग, साही तथा और भी बहुत-से मेध्य पशुओं का वध करते-करते राजा पुरंजन बहुत थक गया। तब वह भूख-प्यास से अत्यन्त शिथिल हो वन से लौटकर राजमहल में आया। वहाँ उसने यथायोग्य रीति से स्नान और भोजन से निवृत्त हो, कुछ विश्राम करके थकान दूर की। फिर गन्ध, चन्दन और माला आदि से सुसज्जित हो सब अंगों में सुन्दर-सुन्दर आभूषण पहने। तब उसे अपनी प्रिया की याद आयी। वह भोजनादि से तृप्त, हृदय में आनन्दित, मद से उन्मत्त और काम से व्यथित होकर अपनी सुन्दरी भार्या को ढूँढने लगा; किन्तु उसे वह कहीं भी दिखायी न दी।



प्राचीनबर्हि! तब उसने चित्त में कुछ उदास होकर अन्तःपुर की स्त्रियों से पूछा, ‘सुन्दरियों! अपनी स्वामिनी के सहित तुम सब पहले की ही तरह कुशल से हो न? क्या कारण है आज इस घर की सम्पत्ति पहले-जैसी सुहावनी नहीं जान पड़ती? घर में माता अथवा पतिपरायणा भार्या न हो, तो वह घर बिना पहिये के रथ के समान हो जाता है; फिर उसमे कौन बुद्धिमान् दीन पुरुषों के समान रहना पसंद करेगा। अतः बताओ, वह सुन्दरी कहाँ है, जो दुःख-समुद्र में डूबने पर मेरी विवेक-बुद्धि को पद-पद पर जाग्रत् करके मुझे उस संकट से उबार लेती है?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 17-26 का हिन्दी अनुवाद)

स्त्रियों ने कहा ;- नरनाथ! मालूम नहीं आज आपकी प्रिया ने क्या ठानी है। शत्रुदमन! देखिये, वे बिना बिछौने के पृथ्वी पर ही पड़ी हुई हैं।

श्रीनारद जी कहते हैं ;- राजन्! उस स्त्री के संग से राजा पुरंजन का विवेक नष्ट हो चुका था; इसलिये अपनी रानी को पृथ्वी पर अस्त-व्यस्त अवस्था में पड़ी देखकर वह अत्यन्त व्याकुल हो गया। उसने दुःखित हृदय से उसे मधुर वचनों द्वारा बहुत कुछ समझाया, किन्तु उसे अपनी प्रेयसी के अंदर अपने प्रति प्रणय-कोप का कोई चिह्न नहीं दिखायी दिया। वह मनाने में भी बहुत कुशल था, इसलिये अब पुरंजन ने उसे धीरे-धीरे मनाना आरम्भ किया। उसने पहले उसके चरण छुए और फिर गोद में बिठाकर बड़े प्यार से कहने लगा।

पुरंजन बोला ;- सुन्दरि! वे सेवक तो निश्चय ही बड़े अभागे हैं, जिनके अपराध करने पर स्वामी उन्हें अपना समझकर शिक्षा के लिये उचित दण्ड नहीं देते। सेवक को दिया हुआ स्वामी का दण्ड तो उस पर बड़ा अनुग्रह ही होता है। जो मूर्ख हैं, उन्हीं को क्रोध के कारण अपने हितकारी स्वामी के किये हुए उस उपकार का पता नहीं चलता।

सुन्दर दन्तावली और मनोहर भौहों से शोभा पाने वाली मनस्विनि! अब यह क्रोध दूर करो और एक बार मुझे अपना समझकर प्रणय-भार तथा लज्जा से झुका हुआ एवं मधुर मुसकानमयी चितवन से सुशोभित अपना मनोहर मुखड़ा दिखाओ। अहो! भ्रमरपंक्ति के समान नीली अलकावली, उन्नत नासिका और सुमधुर वाणी के कारण तुम्हारा वह मुखारविन्द कैसा मनमोहक जान पड़ता है।

वीरपत्नी! यदि किसी दूसरे ने तुम्हारा कोई अपराध किया हो तो उसे बताओ; यदि वह अपराधी ब्राह्मण कुल का नहीं है, तो मैं उसे अभी दण्ड देता हूँ। मुझे तो भगवान् के भक्तों को छोड़कर त्रिलोकी में अथवा उससे बाहर ऐसा कोई नहीं दिखायी देता जो तुम्हारा अपराध करके निर्भय और आनन्दपूर्वक रह सके। प्रिये! मैंने आज तक तुम्हारा मुख कभी तिलकहीन, उदास, मुरझाया हुआ, क्रोध के कारण डरावना, कान्तिहीन और स्नेहशून्य नहीं देखा; और न कभी तुम्हारे सुन्दर स्तनों को ही शोकाश्रुओं से भीगा तथा बिम्बाफलसदृश अधरों को स्निग्ध केसर की लीला से रहित देखा है। मैं व्यसनवश तुमसे बिना पूछे शिकार खेलने चला गया, इसलिये अवश्य अपराधी हूँ। फिर भी अपना समझकर तुम मुझ पर प्रसन्न हो जाओ; कामदेव के विषम बाणों से अधीर होकर जो सर्वदा अपने अधीन रहता है, उस अपने प्रिय पति को उचित कार्य के लिये भला और कौन कामिनी स्वीकार नहीं करती।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【 सप्तविंश अध्याय:】२७.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तविंश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"पुरंजनपुरी पर चण्डवेग की चढ़ाई तथा कालकन्या का चरित्र"
श्रीनारद जी कहते हैं ;- महाराज! इस प्रकार वह सुन्दरी अनेकों नखरों से पुरंजन को पूरी तरह अपने वश में कर उसे आनन्दित करती हुई विहार करने लगी। उसने अच्छी तरह स्नान कर अनेक प्रकार के मांगलिक श्रृंगार किये तथा भोजनादि से तृप्त होकर वह राजा के पास आयी। राजा ने उस मनोहर मुख वाली राजमहिषी का सादर अभिनन्दन किया। पुरंजनी ने राजा का आलिंगन किया और राजा ने उसे गले लगाया। फिर एकान्त में मन के अनुकूल रहस्य की बातें करते हुए वह ऐसा मोहित हो गया कि उस कामिनी में ही चित्त लगा रहने के कारण उसे दिन-रात के भेद से निरन्तर बीतते हुए काल की दुस्तर गति का भी कुछ पता न चला। मद से छका हुआ मनस्वी पुरंजन अपनी प्रिया की भुजा पर सिर रखे महामूल्य शय्या पर पड़ा रहता। उसे तो वह रमणी ही जीवन का परम फल जान पड़ती थी। आज्ञान से आवृत्त हो जाने के कारण उसे आत्मा अथवा परमात्मा का कोई ज्ञान न रहा।



राजन्! इस प्रकार कामातुर चित्त से उसके साथ विहार करते-करते राजा पुरंजन की जवानी आधे क्षण के समान बीत गयी। प्रजापते! उस पुरंजनी से राजा पुरंजन के ग्यारह सौ पुत्र और एक सौ दस कन्याएँ हुईं, जो सभी माता-पिता का सुयश बढ़ाने वाली और सुशीलता, उदारता आदि गुणों से सम्पन्न थीं। ये पौरंजनी नाम से विख्यात हुईं। इतने में भी उस सम्राट् की लंबी आयु का आधा भाग निकल गया। फिर पांचालराज पुरंजन ने पितृवंश की वृद्धि करने वाले पुत्रों का वधुओं के साथ और कन्याओं का उनके योग्य वरों के साथ विवाह कर दिया। पुत्रों में से प्रत्येक के सौ-सौ पुत्र हुए। उनसे वृद्धि को प्राप्त होकर पुरंजन का वंश सारे पांचाल देश में फैल गया। इन पुत्र, पौत्र गृह, कोश, सेवक और मन्त्री आदि में दृढ़ ममता हो जाने से वह इन विषयों में ही बँधा गया। फिर तुम्हारी तरह उसने भी अनेक प्रकार के भोगों की कामना से यज्ञ की दीक्षा ले तरह-तरह के पशुहिंसामय घोर यज्ञों से देवता, पितर और भूपतियों की आराधना की। इस प्रकार वह जीवन भर आत्मा का कल्याण करने वाले कर्मों की ओर से असावधान और कुटुम्बपालन में व्यस्त रहा। अन्त में वृद्धावस्था का वह समय आ पहुँचा, जो स्त्रीलंपट पुरुषों को बड़ा अप्रिय होता है।

राजन्! चण्डवेग नाम का एक गन्धर्वराज है। उसके अधीन तीन सा साठ महाबलवान् गन्धर्व रहते हैं। इनके साथ मिथुनभाव से स्थित कृष्ण और शुक्ल वर्ण की उतनी ही गंधार्वियाँ भी हैं। ये बारी-बारी से चक्कर लगाकर भोग-विलास की सामग्रियों से भरी-पूरी नगरी को लूटती रहती हैं। गन्धर्वराज चण्डवेग के उन अनुचरों ने जब राजा पुरंजन का नगर लूटना आरम्भ किया, तब उन्हें पाँच फन के सर्प प्रजागर ने रोका। यह पुरंजनपुरी की चौकसी कंरने वाला महाबलवान् सर्प सौ वर्ष तक अकेला ही उन सात सौ बीस गन्धर्व-गन्धर्वियों से युद्ध करता रहा। बहुत-से वीरों के साथ अकेले ही युद्ध करने के कारण अपने एकमात्र सम्बन्धी प्रजागर को बलहीन हुआ देख राजा पुरंजन को अपने राष्ट्र और नगर में रहने वाले अन्य बान्धवों के सहित बड़ी चिन्ता हुई।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तविंश अध्यायः श्लोक 18-30 का हिन्दी अनुवाद)

वह इतने दिनों तक पांचाल देश के उस नगर में अपने दूतों द्वारा लाये हुए कर को लेकर विषय-भोगों में मस्त रहता था। स्त्री के वशीभूत रहने के कारण इस अवश्यम्भावी भय का उसे पता ही न चला।

बर्हिष्मन्! इन्हीं दिनों काल की एक कन्या वर की खोज में त्रिलोकी में भटकती रही, फिर भी उसे किसी ने स्वीकार नहीं किया। वह कालकन्या (जरा) बड़ी भाग्यहीना थी, इसलिये लोग उसे ‘दुर्भगा’ कहते थे। एक बार राजर्षि पूरु ने पिता को अपना यौवन देने के लिये अपनी ही इच्छा से उसे वर लिया था, इससे प्रसन्न होकर उसने उन्हें राज्यप्राप्ति का वर दिया था।

एक दिन मैं ब्रह्मलोक से पृथ्वी पर आया, तो वह घूमती-घूमती मुझे भी मिल गयी। तब मुझे नैष्ठिक ब्रह्मचारी जानकर भी कामातुरा होने के कारण उसने वरना चाहा। मैंने उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। इस पर उसने अत्यन्त कुपित होकर मुझे यह दुःसह शाप दिया कि ‘तुमने मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं की, अतः तुम एक स्थान पर अधिक देर न ठहर सकोगे’। तब मेरी ओर से निराश होकर उस कन्या ने मेरी सम्मति से यवनराज भय के पास जाकर उसका पतिरूप से वरण किया और कहा, ‘वीरवर! आप यवनों में श्रेष्ठ हैं, मैं आपसे प्रेम करती हूँ और पति बनाना चाहती हूँ। आपके प्रति किया हुआ जीवों का संकल्प कभी विफल नहीं होता। जो मनुष्य लोक अथवा शास्त्र की दृष्टि से देने योग्य वस्तु का दान नहीं करता और जो शास्त्रदृष्टि से अधिकारी होकर भी ऐसा दान नहीं लेता, वे दोनों ही दुराग्रही और मूढ़ हैं, अतएव शोचनीय हैं। भद्र! इस समय मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुई हूँ, आप मुझे स्वीकार करके अनुगृहीत कीजिये। पुरुष का सबसे बड़ा धर्म दीनों पर दया करना ही है’।

कालकन्या की बात सुनकर यवनराज ने विधाता का एक गुप्त कार्य कराने की इच्छा से मुसकराते हुए उससे कहा- ‘मैंने योगदृष्टि से देखकर तेरे लिये एक पति निश्चय किया है। तू सबका अनिष्ट करने वाली है, इसलिये किसी को भी अच्छी नहीं लगती और इसी से लोग तुझे स्वीकार नहीं करते। अतः इस कर्मजनित लोक को तू अलक्षित होकर बलात् भोग। तू मेरी सेना लेकर जा; इसकी सहायता से तू सारी प्रजा का नाश करने में समर्थ होगी, कोई भी तेरा सामना न कर सकेगा। यह प्रज्वार नाम का मेरा भाई है और तू मेरी बहिन बन जा। तुम दोनों के साथ मैं अव्यक्त गति से भयंकर सेना लेकर सारे लोकों में विचरूँगा’।



                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【अष्टविंश अध्याय:】२८.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"पुरंजन को स्त्रीयोनि की प्राप्ति और अविज्ञात के उपदेश से उसका मुक्त होना"
श्रीनारद जी कहते हैं ;- राजन्! फिर भय नामक यवनराज के आज्ञाकारी सैनिक प्रज्वार और कालकन्या के साथ इस पृथ्वीतल पर सर्वत्र विचरने लगे। एक बार उन्होंने बड़े वेग से बूढ़े साँप से सुरक्षित और संसार की सब प्रकार की सुख-सामग्री से सम्पन्न पुरंजनपुरी को घेर लिया। तब, जिसके चंगुल में फँसकर पुरुष शीघ्र ही निःसार हो जाता है, वह कालकन्या बलात् उस पुरी की प्रजा को भोगने लगी। उस समय वे यवन भी कालकन्या के द्वारा भोगी जाती हुई उस पुरी में चारों ओर से भिन्न-भिन्न द्वारों से घुसकर उसका विध्वंस करने लगे। पुरी के इस प्रकार पीड़ित किये जाने पर उसके स्वामित्व का अभिमान रखने वाले तथा ममताग्रस्त, बहुकुटुम्बी राजा पुरंजन को भी नाना प्रकार के क्लेश सताने लगे।

कालकन्या के आलिंगन करने से उसकी सारी श्री नष्ट हो गयी तथा अत्यन्त विषयासक्त होने के कारण वह बहुत दीन हो गया, उसकी विवेकशक्ति नष्ट हो गयी। गन्धर्व और यवनों ने बलात् उसका सारा ऐश्वर्य लूट लिया। उसने देखा कि सारा नगर नष्ट-भ्रष्ट हो गया है; पुत्र, पौत्र, भृत्य, और अमात्य वर्ग प्रतिकूल होकर अनादर करने लगे हैं; स्त्री स्नेहशून्य हो गयी है, मेरी देह को कालकन्या ने वश में कर रखा है और पांचाल देश शत्रुओं के हाथ में पड़ कर भ्रष्ट हो गया है। यह सब देखकर राजा पुरंजन अपार चिन्ता में डूब गया और उसे उस विपत्ति से छुटकारा पाने का कोई उपाय न दिखायी दिया। कालकन्या ने जिन्हें निःसार कर दिया था, उन्हीं भोगों की लालसा से वह दीन था। अपनी पारलौकिकी गति और बन्धुजनों के स्नेह से वंचित रहकर उसका चित्त केवल स्त्री और पुत्र के लालन-पालन में ही लगा हुआ था।

ऐसी अवस्था में उनसे बिछुड़ने की इच्छा न होने पर भी उसे उस पुरी को छोड़ने के लिये बाध्य होना पड़ा; क्योंकि उसे गन्धर्व और यवनों ने घेर रखा था तथा कालकन्या ने कुचल दिया था। इतने में ही यवनराज भय के बड़े भाई प्रज्वार ने अपने भाई का प्रिय करने के लिये उस सारी पुरी में आग लगा दी। जब वह नगरी जलने लगी, तब पुरवासी, सेवकवृन्द, सन्तान वर्ग और कुटुम्ब की स्वामिनी के सहित कुटुम्बवत्सल पुरंजन को बड़ा दुःख हुआ। नगर को कालकन्या के हाथ में पड़ा देख उसकी रक्षा करने वाले सर्प को भी बड़ी पीड़ा हुई, क्योंकि उसके निवासस्थान पर भी यवनों ने अधिकार कर लिया था और प्रज्वार उस पर भी आक्रमण कर रहा था। जब उस नगर की रक्षा करने में वह सर्वथा असमर्थ हो गया, तब जिस प्रकार जलते हुए वृक्ष के कोटर में रहने वाला सर्प उससे निकल जाना चाहता है, उसी प्रकार उसने भी महान् कष्ट से काँपते हुए वहाँ से भोगने की इच्छा की। उसके अंग-प्रत्यंग ढीले पड़ गये थे तथा गन्धर्वों ने उसकी सारी शक्ति नष्ट कर दी थी; अतः जब यवन शत्रुओं ने उसे जाते देखकर रोक दिया, तब वह दुःखी होकर रोने लगा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 16-30 का हिन्दी अनुवाद)

गृहासक्त पुरंजन देह-गेहादि में मैं-मेरेपन का भाव रखने से अत्यन्त बुद्धिहीन हो गया था। स्त्री के प्रेमपाश में फँसकर वह बहुत दीन हो गया था। अब जब इनसे बिछुड़ने का समय उपस्थित हुआ, तब वह अपने पुत्री, पुत्र, पौत्र, पुत्रवधू, दामाद, नौकर और घर, खजाना तथा अन्यान्य जिन पदार्थों में उसकी ममता भर शेष थी (उनका भोग तो कभी का छूट गया था), उन सबके लिये इस प्रकार चिन्ता करने लगा। ‘हाय! मेरी भार्या तो बहुत घर-गृहस्थी वाली है; जब मैं परलोक को चला जाऊँगा, तब यह असहाय होकर किस प्रकार अपना निर्वाह करेगी? इसे इन बाल-बच्चों की चिन्ता ही खा जायगी। यह मेरे भोजन किये बिना भोजन नहीं करती थी और स्नान किये बिना स्नान नहीं करती थी, सदा मेरी ही सेवा में तत्पर रहती थी। मैं कभी रूठ जाता था तो यह बड़ी भयभीत हो जाती थी और झिड़कने लगता तो डर के मारे चुप रह जाती थी। मुझसे कोई भूल हो जाती तो यह मुझे सचेत कर देती थी। मुझमें इतना अधिक स्नेह है कि यदि मैं कभी परदेश चला जाता था तो यह विरहव्यथा से सूखकर काँटा हो जाती थी। यों तो यह वीरमाता है, तो भी मेरे पीछे क्या यह गृहस्थाश्रम का व्यवहार चला सकेगी? मेरे चले जाने पर एकमात्र मेरे ही सहारे रहने वाले ये पुत्र और पुत्री भी कैसे जीवन धारण करेंगे? ये तो बीच समुद्र में नाव टूट जाने से व्याकुल हुए यात्रियों के समान बिलबिलाने लगेंगे’।



यद्यपि ज्ञान दृष्टि से उसे शोक करना उचित न था, फिर भी अज्ञानवश राजा पुरंजन इस प्रकार दीनबुद्धि से अपने स्त्री-पुत्रादि के लिये शोकाकुल हो रहा था। इसी समय उसे पकड़ने के लिये वहाँ भय नामक यवनराज आ धमका। जब यवन लोग उसे पशु के समान बाँधकर अपने स्थान को ले चले, तब उसके अनुचरगण अत्यन्त आतुर और शोकाकुल होकर उसके साथ हो लिये। यवनों द्वारा रोका हुआ सर्प भी उस पुरी को छोड़कर इन सबके साथ ही चल दिया। उसके जाते ही सारा नगर छिन्न-भिन्न होकर अपने कारण में लीन हो गया। इस प्रकार महाबली यवनराज के बलपूर्वक खींचने पर भी राजा पुरंजन ने अज्ञानवश अपने हितैषी एवं पुराने मित्र अविज्ञात का स्मरण नहीं किया। उस निर्दय राजा ने जिन यज्ञपशुओं की बलि दे थी, वे उसकी दी हुई पीड़ा को याद करके उसे क्रोधपूर्वक कुठारों से काटने लगे। वह वर्षों तक विवेकहीन अवस्था में अपार अन्धकार में पड़ा निरन्तर कष्ट भोगता रहा। स्त्री की आसक्ति से उसकी यह दुर्गति हुई थी।

अन्त समय में भी पुरंजन को उसी का चिन्तन बना हुआ था। इसलिये दूसरे जन्म में वह नृपश्रेष्ठ विदर्भराज के यहाँ सुन्दरी कन्या होकर उत्पन्न हुआ। जब यह विदर्भनन्दिनी विवाह योग्य हुई, तब विदर्भराज ने घोषित कर दिया कि इसे सर्वश्रेष्ठ पराक्रमी वीर ही ब्याह सकेगा। तब शत्रुओं के नगरों को जीतने वाले पाण्ड्य नरेश महाराज मलयध्वज ने समरभूमि में समस्त राजाओं को जीतकर उसके साथ विवाह किया। उससे महाराज मलयध्वज ने एक श्यामलोचना कन्या और उससे छोटे सात पुत्र उत्पन्न किये, जो आगे चलकर द्रविड़ देश के सात राजा हुए।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 31-48 का हिन्दी अनुवाद)

फिर उनमें से प्रत्येक पुत्र के बहुत-बहुत पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके वंशधर इस पृथ्वी को मन्वन्तर के अन्त तक तथा उसके बाद भी भोगेंगे। राजा मलयध्वज की पहली पुत्री बड़ी व्रतशीला थी। उसके साथ अगस्त्य ऋषि का विवाह हुआ। उससे उनके दृढ़च्युत नाम का पुत्र हुआ और दृढ़च्युत के इक्ष्मवाह हुआ। अन्त में राजर्षि मलयध्वज पृथ्वी को पुत्रों में बाँटकर भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करने की इच्छा से मलय पर्वत पर चले गये। उस समय-चन्द्रिका जिस प्रकार चन्द्रदेव का अनुसरण करती है-उसी प्रकार मत्तलोचना वैदर्भी ने अपने घर, पुत्र और समस्त भोगों को तिलांजलि दे पाण्ड्य नरेश का अनुगमन किया। वहाँ चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी और वटोदका नाम की तीन नदियाँ थीं। उनके पवित्र जल में स्नान करके वे प्रतिदिन अपने शरीर और अन्तःकरण को निर्मल करते थे। वहाँ रहकर उन्होंने कन्द, बीज, मूल, फल, पुष्प, पत्ते, तृण और जल से ही निर्वाह करते हुए बड़ा कठोर तप किया। इससे धीरे-धीरे उनका शरीर बहुत सूख गया। महाराज मलयध्वज ने सर्वत्र समदृष्टि रखकर शीत-उष्ण, वर्षा-वायु, भूख-प्यास, प्रिय-अप्रिय और सुख-दुःखादि सभी द्वन्दों को जीत लिया। तप और उपासना से वासनाओं को निर्मूल कर तथा यम-नियमादि के द्वारा इन्द्रिय, प्राण और मन को वश में करके वे आत्मा में ब्रह्म भावना करने लगे।

इस प्रकार सौ दिव्य वर्षों तक स्थाणु के समान निश्चल भाव से एक ही स्थान पर बैठे रहे। भगवान् वासुदेव में सुदृढ़ प्रेम हो जाने के कारण इतने समय तक उन्हें शरीरादि का भी भान न हुआ। राजन्! गुरुस्वरूप साक्षात् श्रीहरि के उपदेश किये हुए तथा अपने अन्तःकरण में सब ओर स्फुरित होने वाले विशुद्ध विज्ञान दीपक से उन्होंने देखा कि अन्तःकरण की वृत्तिका प्रकाशक आत्मा स्वप्नावस्था की भाँति देहादि समस्त उपाधियों में व्याप्त तथा उनसे पृथक् भी है। ऐसा अनुभव करके वे सब ओर से उदासीन हो गये। फिर अपनी आत्मा को परब्रह्म में और परब्रह्म को आत्मा में अभिन्नता रूप से देखा और अन्त में इस अभेद चिन्तन को भी त्यागकर सर्वथा शान्त हो गये।

राजन्! इस समय पतिपरायणा वैदर्भी सब प्रकार के भोगों को त्यागकर अपने परमधर्मज्ञ पति मलयध्वज की सेवा बड़े प्रेम से करती थी। वह चीर-वस्त्र धारण किये रहती, व्रत उपवासादि के कारण उसका शरीर अत्यन्त कृश हो गया था और सिर के बाल आपस में उलझ जाने के कारण उनमें लटें पड़ गयी थीं। उस समय अपने पतिदेव के पास वह अंगारभाव को प्राप्त धूमरहित अग्नि के समीप अग्नि की शान्तशिखा के समान सुशोभित हो रही थी। उसके पति परलोकवासी हो चुके थे, परन्तु पूर्ववत् स्थिर आसन से विराजमान थे। इस रहस्य को न जानने के कारण वह उनके पास जाकर उनकी पूर्ववत् सेवा करने लगी। चरणसेवा करते समय जब उसे अपने पति के चरणों में गरमी बिलकुल नहीं मालूम हुई, तब तो वह झुंडी से बिछुड़ी हुई मृगी के समान चित्त में अत्यन्त व्याकुल हो गयी। उस बीहड़ वन में अपने को अकेली और दीन अवस्था में देखकर वह बड़ी शोककुल हुई और आँसुओं की धारा से स्तनों को भिगोती हुई बड़े जोर-जोर से रोने लगी। वह बोली, ‘राजेर्षे! उठिये, उठिये; समुद्र से घिरी हुई यह वसुन्धरा लुटेरों और अधर्मी राजाओं से भयभीत हो रही है, आप इसकी रक्षा कीजिये’।



(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टाविंश अध्यायः श्लोक 49-65 का हिन्दी अनुवाद)

पति के साथ वन में गयी हुई वह अबला इस प्रकार विलाप करती पति के चरणों में गिर गयी और रो-रोकर आँसू बहाने लगी। लकड़ियों की चिता बनाकर उसने उस पर पति का शव रखा और अग्नि जलाकर विलाप करते-करते स्वयं सती होने का निश्चय किया। राजन! इसी समय उसका पुराना मित्र एक आत्मज्ञानी ब्राह्मण वहाँ आया। उसने उस रोती हुई अबला को मधुर वाणी से समझाते हुए कहा।

ब्राह्मण ने कहा ;- तू कौन है? किसकी पुत्री है? और जिसके लिये तू शोक कर रही है, वह यह सोया हुआ पुरुष कौन है? क्या तुम मुझे नहीं जानती? मैं वही तेरा मित्र हूँ, जिसके साथ तू पहले विचरा करती थी। सखे! क्या तुम्हें अपनी याद आती है, किसी समय मैं तुम्हारा अविज्ञात नाम का सखा था? तुम पृथ्वी के भोग भोगने के लिये निवास-स्थान की खोज में मुझे छोड़कर चले गये थे। आर्य! पहले मैं और तुम एक-दूसरे के मित्र एवं मानस निवासी हंस थे। हम दोनों सहस्रों वर्षों तक बिना किसी निवास-स्थान के ही रहे थे, किन्तु मित्र! तुम विषय भोगों की इच्छा से मुझे छोड़कर यहाँ पृथ्वी पर चले आये। यहाँ घूमते-घूमते तुमने एक स्त्री का रचा हुआ स्थान देखा। उसमें पाँच बगीचे, नौ दरवाजे, एक द्वारपाल, तीन परकोटे, छः वैश्यकुल और पाँच बाजार थे। वह पाँच उपादान-कारणों से बना हुआ था और उसकी स्वामिनी एक स्त्री थी।

महाराज! इन्द्रियों के पाँच विषय उसके बगीचे थे, नौ इन्द्रिय-छिद्र द्वार थे; तेज, जल और अन्न-तीन परकोटे थे; मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ-छः वैश्यकुल थे; क्रियाशक्तिरूप कर्मेन्द्रियाँ ही बाजार थीं; पाँच भूत ही उसके कभी क्षीण न होने वाले उपादान कारण थे और बुद्धि शक्ति ही उसकी स्वामिनी थी। यह ऐसा नगर था, जिसमें प्रवेश करने पर पुरुष ज्ञानशून्य हो जाता है-अपने स्वरूप को भूल जाता है।

भाई! उस नगर में उसकी स्वामिनी के फंदे में पड़कर उसके साथ विहार करते-करते तुम भी अपने स्वरूप को भूल गये और उसी के संग से तुम्हारी यह दुर्दशा हुई है। देखो, तुम न तो विदर्भराज की पुत्री ही हो और न यह वीर मलयध्वज तुम्हारा पति ही। जिसने तुम्हें नौ द्वारों के नगर में बंद किया था, उस पुरंजनी के पति भी तुम नहीं हो। तुम पहले जन्म में अपने को पुरुष समझते थे और अब सती स्त्री मानते हो-यह सब मेरी ही फैलायी हुई माया है। वास्तव में तुम न पुरुष हो न स्त्री। हम दोनों तो हंस हैं; हमारा जो वास्तविक स्वरूप है, उसका अनुभव करो मित्र! जो मैं (ईश्वर) हूँ, वही तुम (जीव) हो। तुम मुझसे भिन्न नहीं हो और तुम विचारपूर्वक देखो, मैं भी वही हूँ जो तुम हो। ज्ञानी पुरुष हम दोनों में कभी थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं देखते। जैसे एक पुरुष अपने शरीर की परछाई को शीशे में और किसी व्यक्ति के नेत्र में भिन्न-भिन्न रूप से देकता है, वैसे ही-एक ही आत्मा विद्या और अविद्या की उपाधि के भेद से अपने को ईश्वर और जीव के रूप में दो प्रकार से देख रहा है। इस प्रकार जब हंस (ईश्वर) ने उसे सावधान किया, तब वह मानसरोवर का हंस (जीव) अपने स्वरूप में स्थित हो गया और उसे अपने मित्र के विछोह से भूला हुआ आत्मज्ञान फिर प्राप्त हो गया।

प्राचीनबर्हि! मैंने तुम्हें परोक्ष रूप से यह आत्मज्ञान का दिग्दर्शन कराया है; क्योंकि जगत्कर्ता जगदीश्वर को परोक्ष वर्णन ही अधिक प्रिय है।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【एकोनत्रिंश अध्याय:】२९.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"पुरंजनोपाख्यान का तात्पर्य"
राजा प्राचीनबर्हि ने कहा ;- भगवन्! मेरी समझ में आपके वचनों का अभिप्राय पूरा-पूरा नहीं आ रहा है। विवेकी पुरुष ही इनका तात्पर्य समझ सकते हैं, हम कर्ममोहित जीव नहीं।

श्रीनारद जी ने कहा ;- राजन्! पुरंजन (नगर का निर्माता) जीव है-जो अपने लिये एक, दो, तीन, चार अथवा बहुत पैरों वाला या बिना पैरों का शरीररूप पुर तैयार कर लेता है। उस जीव का सखा जो अविज्ञात नाम से कहा गया है, वह ईश्वर है; क्योंकि किसी भी प्रकार के नाम, गुण अथवा कर्मों से जीवों को उसका पता नहीं चलता। जीव ने जब सुख-दुःखरूप सभी प्राकृत विषयों को भोगने की इच्छा की, तब उसने दूसरे शरीरों की अपेक्षा नौ द्वार, दो हाथ और दो पैरों वाला मानव-देह ही पसंद किया। बुद्धि अथवा अविद्या को ही तुम पुरंजनी नाम की स्त्री जानो; इसी के कारण देह और इन्द्रिय आदि में मैं-मेरेपन का भाव उत्पन्न होता है और पुरुष इसी का आश्रय लेकर शरीर में इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता है।

दस इन्द्रियाँ ही उसके मित्र हैं, जिनसे कि सब प्रकार के ज्ञान और कर्म होते हैं। इन्द्रियों की वृत्तियाँ ही उसकी सखियाँ और प्राण-अपान-व्यान-उदान-समानरूप पाँच वृत्तियों वाला प्राण वायु ही नगर की रक्षा करने वाला पाँच फन का सर्प है। दोनों प्रकार की इन्द्रियों के नायक मन को ही ग्यारहवाँ महाबली योद्धा जानना चाहिये। शब्दादि पाँच विषय ही पांचाल देश हैं, जिसके बीच में वह नौ द्वारों वाला नगर बसा हुआ है। उस नगर में जो एक-एक स्थान पर दो-दो द्वार बताये गये थे-वे दो नेत्रगोलक, दो नासाछिद्र और दो कर्णछिद्र हैं। इनके साथ मुख, लिंग और गुदा-ये तीन और मिलाकर कुल नौ द्वार हैं; इन्हीं में होकर वह जीव इन्द्रियों के साथ बाह्य विषयों में जाता है। इसमें दो नेत्रगोलक, दो नासाछिद्र और एक मुख-ये पाँच पूर्व के द्वार हैं; दाहिने कान को दक्षिण का और बायें कान को उत्तर का द्वार समझना चाहिये। गुदा और लिंग-ये नीचे के दो छिद्र पश्चिम के द्वार हैं। खाद्यौता और आविर्मुखी नाम के जो दो द्वार एक स्थान पर बतलाये थे, वे नेत्रगोलक हैं तथा रूप विभ्राजित नाम का देश है, जिसका इन द्वारों से जीव चक्षु-इन्द्रिय की सहायता से अनुभव करता है।

दोनों नासाछिद्र ही नलिनी और नालिनी नाम के द्वार हैं और नासिका का विषय गन्ध ही सौरभ देश है तथा घ्राणेन्द्रिय अवधूत नाम का मित्र है। मुख मुख्य नाम का द्वार है। उसमें रहने वाला वागिन्द्रिय विपण है और रसनेन्द्रिय रसविद् (रसज्ञ) नाम का मित्र है। वाणी का व्यापार आपण है और तरह-तरह का अन्न बहूदन है तथा दाहिना कान पितृहू और बायाँ कान देवहू कहा गया है। कर्मकाण्डरूप प्रवृत्तिमार्ग का शास्त्र और उपासना काण्डरूप निवृत्तिमार्ग का शास्त्र ही क्रमशः दक्षिण और उत्तर पांचाल देश हैं। इन्हें श्रवणेन्द्रियरूप श्रुतधर की सहायता से सुनकर जीव क्रमशः पितृयान और देवयान मार्गों में जाता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद)

लिंग ही आसुरी नाम का पश्चिमी द्वार है, स्त्रीप्रसंग ग्रामक नाम का देश है और लिंग में रहने वाला उपस्थेन्द्रिय दुर्मद नाम का मित्र है। गुदा निर्ऋति नाम का पश्चिमी द्वार है। नरक वैशस नाम का देश है और गुदा में स्थित पायु-इन्द्रिय लुब्धक नाम का मित्र है। इनके सिवा दो पुरुष अंधे बताये गये थे, उनका रहस्य भी सुनो। वे हाथ और पाँव हैं; इन्हीं की सहायता से जीव क्रमशः सब काम करता और जहाँ-तहाँ जाता है। हृदय अन्तःपुर है, उसमें रहने वाला मन ही विषूची (विषूचीन) नाम का प्रधान सेवक है। जीव उस मन के सत्त्वादि गुणों के कारण ही प्रसन्नता, हर्षरूप विकार अथवा मोह को प्राप्त होता है।

बुद्धि (राजमहिषी पुरंजनी) जिस-जिस प्रकार स्वप्नावस्था में विकार को प्राप्त होती है और जाग्रत् अवस्था में इन्द्रियादि को विकृत करती है, उसके गुणों से लिप्त होकर आत्मा (जीव) भी उसी-उसी रूप में उसकी वृत्तियों का अनुकरण करने को बाध्य होता है-यद्यपि वस्तुतः वह उनका निर्विकार साक्षीमात्र ही है। शरीर ही रथ है। उसमें ज्ञानेन्द्रियरूप पाँच घोड़े जुते हुए हैं। देखने में संवत्सररूप काल के समान ही उसका अप्रतिहत वेग है, वास्तव में वह गतिहीन है। पुण्य और पाप-ये दो प्रकार के कर्म ही उसके पहिये हैं; तीन गण ध्वजा हैं, पाँच प्राण डोरियाँ हैं। मन बागडोर है, बुद्धि सारथि है, हृदय बैठने का स्थान है, सुख-दुःखादि द्वन्द जुए हैं, इन्द्रियों के पाँच विषय उसमें रखे हुए आयुध हैं और त्वचा आदि सात धातुएँ उसके आवरण हैं। पाँच कर्मेन्द्रियाँ उसकी पाँच प्रकार की गति हैं। इस रथ पर चढ़कर रथीरूप यह जीव मृगतृष्णा के समान मिथ्या विषयों की ओर दौड़ता है। ग्यारह इन्द्रियाँ उसकी सेना हैं तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा उन-उन इन्द्रियों के विषयों को अन्यायपूर्वक ग्रहण करना ही उसका शिकार खेलना है।

जिसके द्वारा काल का ज्ञान होता है, वह संवत्सर ही चण्डवेग नामक गन्धर्वराज है। उसके अधीन जो तीन सौ साठ गन्धर्व बताये गये थे, वे दिन हैं और तीन-तीन सौ साठ गन्धर्वियाँ रात्रि हैं। ये बारी-बारी से चक्कर लगाते हुए मनुष्य की आयु को हरते रहते हैं। वृद्धावस्था ही साक्षात् कालकन्या है, उसे कोई भी पुरुष पसंद नहीं करता। तब मृत्युरूप यवनराज ने लोक का संहार करने के लिये उसे बहिन मानकर स्वीकार कर लिया। आधि (मानसिक क्लेश) और व्याधि (रोगादि शारीरिक कष्ट) ही इस यवनराज के पैदल चलने वाले सैनिक हैं तथा प्राणियों को पीड़ा पहुँचाकर शीघ्र ही मृत्यु के मुख में ले जाने वाला शीत और उष्ण दो प्रकार का ज्वर ही प्रज्वार नाम का उसका भाई है।

इस प्रकार यह देहाभिमानी जीव अज्ञान से आच्छादित होकर अनेक प्रकार के आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक कष्ट भोगता हुआ सौ वर्ष तक मनुष्य शरीर में पड़ा रहता है। वस्तुतः तो वह निर्गुण है, किन्तु प्राण, इन्द्रिय और मन के धर्मों को अपने में आरोपित कर मैं-मेरेपन के अभिमान से बँधकर क्षुद्र विषयों का चिन्तन करता हुआ, तरह-तरह के कर्म करता रहता है। यह यद्यपि स्वयंप्रकाश है, तथापि जब तक सबके परमगुरु आत्मस्वरूप श्रीभगवान् के स्वरूप को नहीं जानता, तब तक प्रकृति के गुणों में ही बँधा रहता है। उन गुणों का अभिमानी होने से वह विवश होकर सात्त्विक, राजस और तामस कर्म करता है तथा उन कर्मों के अनुसार भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 30-44 का हिन्दी अनुवाद)

वह कभी तो सात्त्विक कर्मों के द्वारा प्रकाशबहुल स्वर्गादि लोक प्राप्त करता है, कभी राजसी कर्मों के द्वारा दुःखमय रजोगुणी लोकों में जाता है-और कभी तमोगुणी कर्मों के द्वारा शोकबहुल तमोमयी योनियों में जन्म लेता है। इस प्रकार अपने कर्म और गुणों के अनुसार देवयोनि, मनुष्ययोनि अथवा पशु-पक्षीयोनि में जन्म लेकर वह अज्ञानान्ध जीव कभी पुरुष, कभी स्त्री और कभी नपुंसक होता है। जिस प्रकार बेचारा भूख से व्याकुल कुत्ता दर-दर भटकता हुआ आपने प्रारब्धानुसार कहीं डंडा खाता है और कहीं भात खाता है, उसी प्रकार यह जीव चित्त में नाना प्रकार की वासनाओं को लेकर ऊँचे-नीचे मार्ग से ऊपर, नीचे अथवा मध्य के लोकों में भटकता हुआ अपने कर्मानुसार सुख-दुःख भोगता रहता है।

आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक- इन तीन प्रकार के दुःखों में से किसी भी एक से जीव का सर्वथा छुटकारा नहीं हो सकता। यदि कभी वैसा जान पड़ता है तो वह केवल तात्कालिक निवृत्ति ही है। वह ऐसी ही है, जैसे कोई सिर पर भारी बोझा ढोकर ले जाने वाला पुरुष उसे कंधे पर रख ले। इसी तरह सभी प्रतिक्रिया (दुःखनिवृत्ति) जाननी चाहिये-यदि किसी उपाय से मनुष्य एक प्रकार के दुःख से छुट्टी पाता है, तो दूसरा दुःख आकर उसके सिर पर सवार हो जाता है।

शुद्धहृदय नरेन्द्र! जिस प्रकार स्वप्न में होने वाला स्वप्नान्तर उस स्वप्न से सर्वथा छूटने का उपाय नहीं है, उसी प्रकार कर्मफल-भोग से सर्वथा छूटने का उपाय केवल कर्म नहीं हो सकता; क्योंकि कर्म और कर्मफल भोग दोनों ही अविद्यायुक्त होते हैं। जिस प्रकार स्वप्नावस्था में अपने मनोमय लिंग शरीर से विचरने वाले प्राणी को स्वप्न के पदार्थ न होने पर भी भासते हैं, उसी प्रकार ये दृश्य पदार्थ वस्तुतः न होने पर भी, जब तक अज्ञान-निद्रा नहीं टूटती, बने ही रहते हैं और जीव को जन्म-मरणरूप संसार से मुक्ति नहीं मिलती। (अतः इनकी आत्यन्तिक निवृत्ति का उपाय एकमात्र आत्मज्ञान ही है)

राजन्! जिस अविद्या के कारण परमार्थरूप आत्मा को यह जन्म-मरणरूप अनर्थ परम्परा प्राप्त हुई है, उसकी निवृत्ति गुरुस्वरूप श्रीहरि में सुदृढ़ भक्ति होने पर हो सकती है। भगवान् वासुदेव में एकाग्रतापूर्वक सम्यक् प्रकार से किया हुआ भक्तिभाव ज्ञान और वैराग्य का आविर्भाव कर देता है। राजर्षे! यह भक्तिभाव भगवान् की कथाओं के आश्रित रहता है। इसलिये जो श्रद्धापूर्वक उन्हें प्रतिदिन सुनता या पढ़ता है, उसे बहुत शीघ्र इसकी प्राप्ति हो जाती है। राजन्! जहाँ भाग्वाद्गुणों को कहने और सुनने में तत्पर विशुद्धचित्त भक्तजन रहते हैं, उस साधु-समाज में सब ओर महापुरुषों के मुख से निकले हुए श्रीमधुसूदन भगवान् के चरित्र शुद्ध अमृत की अनेकों नदियाँ बहती रहती हैं। जो लोग अतृप्त-चित्त से श्रवण में तत्पर अपने कर्णकुहरों द्वारा उस अमृत का छककर पान करते हैं, उन्हें भूख-प्यास, भय, शोक और मोह आदि कुछ भी बाधा नहीं पहुँचा सकते।



हाय! स्वभावतः प्राप्त होने वाले इन क्षुधा-पिपसादि विघ्नों से सदा घिरा हुआ जीव-समुदाय श्रीहरि के कथामृत-सिन्धु से प्रेम नहीं करता। साक्षात् प्रजापतियों के पति ब्रह्मा जी, भगवान् शंकर, स्वयाम्भुव मनु, दक्षादि प्रजापतिगण, सनकादि नैष्ठिक ब्रह्मचारी, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ और मैं- ये जितने ब्रह्मवादी मुनिगण हैं, समस्त वाङ्मय एक अधिपति होने पर भी तप, उपासना और समाधि के द्वारा ढूँढ-ढूँढकर हार गये, फिर भी उस सर्वसाक्षी परमेश्वर को आज तक न देख सके।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 45-54 का हिन्दी अनुवाद)

वेद भी अत्यन्त विस्तृत हैं, उसका पार पाना हँसी-खेल नहीं है। अनेकों महानुभाव उसकी आलोचना करके मन्त्रों में बताये हुए वज्र-हस्तत्त्वादि गुणों से युक्त इन्द्रादि देवताओं के रूप में, भिन्न-भिन्न कर्मों के द्वरा, यद्यपि उस परमात्मा का ही यजन करते हैं तथापि उसके स्वरूप को वे भी नहीं जानते। हृदय में बार-बार चिन्तन किये जाने पर भगवान् जिस समय जीव पर कृपा करते हैं, उसी समय वह लौकिक व्यवहार एवं वैदिक कर्म-मार्ग की बद्धमूल आस्था से छुट्टी पा जाता है।

बर्हिष्मन्! तुम इन कर्मों में परमार्थबुद्धि मत करो। ये सुनने में ही प्रिय जान पड़ते हैं, परमार्थ का तो स्पर्श भी नहीं करते। ये जो परमार्थवत् दीख पड़ते हैं, इसमें केवल अज्ञान ही कारण है। जो मलिनमति कर्मवादी लोग वेद को कर्मपरक बताते हैं, वे वास्तव में उसका मर्म नहीं जानते। इसका कारण यही है कि वे अपने स्वरूपभूत लोक (आत्मतत्त्व) को नहीं जानते, जहाँ साक्षात् श्रीजनार्दन भगवान् विराजमान हैं, पूर्व की ओर अग्रभाग वाले कुशाओं से सम्पूर्ण भूमण्डल को आच्छादित करके अनेकों पशुओं का वध करने से तुम बड़े कर्माभिमानी और उद्धत हो गये हो; किन्तु वास्तव में तुम्हें कर्म या उपासना-किसी के भी रहस्य का पता नहीं है। वास्तव में कर्म तो वही है, जिससे श्रीहरि को प्रसन्न किया जा सके और विद्या भी वही है, जिससे भगवान् में चित्त लगे।

श्रीहरि सम्पूर्ण देहधारियों में आत्मा, नियामक और स्वतन्त्र कारण हैं; अतः उनके चरणतल ही मनुष्यों के एकमात्र आश्रय हैं और उन्हीं से संसार में सबका कल्याण हो सकता है। 'जिससे किसी को अणुमात्र भी भय नहीं होता, वही उसका प्रियतम आत्मा है’ ऐसा जो पुरुष जानता है, वही ज्ञानी है और जो ज्ञानी है, वही गुरु एवं साक्षात् श्रीहरि है।



श्रीनारद जी कहते हैं ;- पुरुषश्रेष्ठ! यहाँ तक जो कुछ कहा गया है, उससे तुम्हारे प्रश्न का उत्तर हो गया। अब मैं एक भलीभाँति निश्चित किया हुआ गुप्त साधन बताता हूँ, ध्यान देकर सुनो। ‘पुष्पवाटिका में अपनी हरिनी के साथ विहार करता हुआ एक हरिन मस्त घूम रहा है, वह दूब आदि छोटे-छोटे अंकुरों को चर रहा है। उसके कान भौंरों के मधुर गुंजार में लग रहे हैं। उसके सामने ही दूसरे जीवों को मारकर अपना पेट पालने वाले भेड़िये ताक लगाये खड़े हैं और पीछे से शिकारी व्याध ने बींधने के लिये उस पर बाण छोड़ दिया है। परन्तु हरिन इतना बेसुध है कि उसे इसका कुछ पता नहीं है।’ एक बार इस हरिन की दशा पर विचार करो।

राजन्! इस रूपक का आशय सुनो। यह मृतप्राय हरिन तुम्हीं हो, तुम अपनी दशा पर विचार करो। पुष्पों की तरह ये स्त्रियाँ केवल देखने में सुन्दर हैं, इन स्त्रियों के रहने का घर ही पुष्पवाटिका है। इसमें रहकर तुम पुष्पों के मधु और गन्ध के समान क्षुद्र सकाम कर्मों के फलरूप, जीभ और जननेद्रिय को प्रिय लगने वाले भोजन तथा स्त्रीसंग आदि तुच्छ भोगो को ढूँढ रहे हो। स्त्रियों से घिरे रहते हो और अपने मन को तुमने उन्हीं में फँसा रखा है। स्त्री-पुत्रों का मधुर भाषण ही भौरों का मधुर गुंजार है, तुम्हारे कान उसी में अत्यन्त आसक्त हो रहे हैं। सामने ही भेड़ियों के झुंड के समान काल के अंश दिन और रात तुम्हारी आयु को हर रहे हैं, परन्तु तुम उनकी कुछ भी परवा न कर गृहस्थी के सुखों में मस्त हो रहे हो। तुम्हारे पीछे गुप-चुप लगा हुआ शिकारी काल अपने छिपे हुए बाण से तुम्हारे हृदय को दूर से ही बींध डालना चाहता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 55-65 का हिन्दी अनुवाद)

इस प्रकार अपने को मृग की-सी स्थिति में देखकर तुम अपने चित्त को हृदय के भीतर निरुद्ध करो और नदी की भाँति प्रवाहित होने वाली श्रवणेन्द्रिय की बाह्य वृत्ति को चित्त में स्थापित करो। (अन्तर्मुखी करो) जहाँ कामी पुरुषों की चर्चा होती रहती है, उस गृहस्थाश्रम को छोड़कर परमहंसों के आश्रय श्रीहरि को प्रसन्न करो और क्रमशः सभी विषयों से विरत हो जाओ।

राजा प्राचीनबर्हि ने कहा ;- भगवन्! आपने कृपा करके मुझे जो उपदेश दिया, उसे मैंने सुना और उस पर विशेषरूप से विचार भी किया। मुझे कर्म का उपदेश देने वाले इन आचार्यों को निश्चय ही इसका ज्ञान नहीं है; यदि ये इस विषय को जानते तो मुझे इसका उपदेश क्यों न करते।

विप्रवर! मेरे उपाध्यायों ने आत्मतत्त्व के विषय में मेरे हृदय में जो महान् संशय खड़ा कर दिया था, उसे आपने पूरी तरह से काट दिया। इस विषय में इन्द्रियों की गति न होने के कारण मन्त्रद्रष्टा ऋषियों को भी मोह हो जाता है। वेदवादियों का कथन जगह-जगह सुना जाता है कि ‘पुरुष इस लोक में जिसके द्वारा कर्म करता है, उस स्थूल शरीर को यहीं छोड़कर परलोक में कर्मों से ही बने हुए दूसरी देह से उनका फल भोगता है। किन्तु यह बात कैसे हो सकती है?’ (क्योंकि उन कर्मों का कर्ता स्थूल शरीर तो यहीं नष्ट हो जाता है।) इसके सिवा जो-जो कर्म यहाँ किये जाते हैं, वे तो दूसरे ही क्षण में अदृश्य हो जाते हैं; वे परलोक में फल देने के लिये किस प्रकार पुनः प्रकट हो सकते हैं?

श्रीनारद जी ने कहा ;- राजन्! (स्थूल शरीर तो लिंग शरीर के अधीन है, अतः कर्मों का उत्तरदायित्व उसी पर है) जिस मनःप्रधान लिंग की सहायता से मनुष्य कर्म करता है, वह तो मरने के बाद भी उसके साथ रहता ही है, अतः वह परलोक में अपरोक्ष रूप से स्वयं उसी के द्वारा उनका फल भोगता है। स्वप्नावस्था में मनुष्य इस जीवित शरीर का अभिमान तो छोड़ देता है, किन्तु इसी के समान अथवा इससे भिन्न प्रकार के पशु-पक्षी आदि शरीर से वह मन में संस्काररूप से स्थित कर्मों का फल भोगता रहता है। इस मन के द्वारा जीव जिन स्त्री-पुत्रादि को ‘ये मेरे हैं’ और देहादि को ‘यह मैं हूँ’ ऐसा कहकर मानता है, उनके किये हुए पाप-पुण्यादिरूप कर्मों को भी यह अपने ऊपर ले लेता है और उनके कारण इसे व्यर्थ ही फिर जन्म लेना पड़ता है। जिस प्रकार ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय दोनों की चेष्टाओं से उनके प्रेरक चित्त का अनुमान किया जाता है, उसी प्रकार चित्त की भिन्न-भिन्न प्रकार की वृत्तियों से पूर्वजन्म के कर्मो का भी अनुमान होता है। (अतः कर्म अदृष्टरूप से फल देने के लिये कालान्तर में मौजूद रहते हैं) कभी-कभी देखा जाता है कि जिस वस्तु का इस शरीर से कभी अनुभव नहीं किया-जिसे न कभी देखा, न सुना ही-उसका स्वप्न में, वह जैसी होती है, वैसा ही अनुभव हो जाता है।



राजन्! तुम निश्चय मानो कि लिंग देह के अभिमानी जीव को उसका अनुभव पूर्वजन्म में हो चुका है; उसकी मन में वासना भी नहीं हो सकती।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 66-77 का हिन्दी अनुवाद)

राजन्! तुम्हारा कल्याण हो। मन ही मनुष्य के पूर्वरूपों को तथा भावी शरीरादि को भी बता देता है और जिनका भावी जन्म होने वाला नहीं होता, उन तत्त्व-वेत्ताओं की विदेहमुक्ति का पता भी उनके मन से ही लग जाता है। कभी-कभी स्वप्न में देश, काल अथवा क्रिया सम्बन्धी ऐसी बातें भी देखी जाती हैं, जो पहले कभी देखी या सुनी नहीं गयीं। (जैसे पर्वत की चोटी पर समुद्र, दिन में तारे अथवा अपना सिर कटा दिखायी देना, इत्यादि) इनके दीखने में निद्रादोष को ही कारण मानना चाहिये। मन के सामने इन्द्रियों से अनुभव होने योग्य पदार्थ ही भोगरूप में बार-बार आते हैं और भोग समाप्त होने पर चले जाते हैं; ऐसा कोई पदार्थ नहीं आता, जिसका इन्द्रियों से अनुभव ही न हो सके। इसका कारण यही है कि सब जीव मन सहित हैं।

साधारणत: तो सब पदार्थों का क्रमशः ही भान होता है; किन्तु यदि किसी समय भगवच्चिन्तन में लगा हुआ मन विशुद्ध सत्त्व में स्थित हो जाये, तो उसमें भगवान् का संसर्ग होने से एक साथ समस्त विश्व का ही भान हो सकता है-जैसे राहु दृष्टि का विषय न होने पर भी प्रकाशात्मक चन्द्रमा के संसर्ग से दीखने लगता है। राजन्! जब तक गुणों का परिणाम एवं बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शब्दादि विषयों का संघात यह अनादि लिंग देह बना हुआ है, तब तक जीव के अंदर स्थूल देह के प्रति ‘मैं-मेरा’ इस भाव का अभाव नहीं हो सकता। सुषुप्ति, मूर्च्छा, अत्यन्त दुःख तथा मृत्यु और तीव्र ज्वरादि के समय भी इन्द्रियों की व्याकुलता के कारण ‘मैं’ और ‘मेरेपन’ की स्पष्ट प्रतीति नहीं होती; किन्तु उस समय भी उनका अभिमान तो बना ही रहता है। जिस प्रकार अमावास्या की रात्रि में चन्द्रमा रहते हुए भी दिखायी नहीं देता, उसी प्रकार युवावस्था में स्पष्ट प्रतीत होने वाला यह एकादश इन्द्रिय विशिष्ट लिंग शरीर गर्भावस्था और बाल्यकाल में रहते हुए भी इन्द्रियों का पूर्ण विकास न होने के कारण प्रतीत नहीं होता।

जिस प्रकार स्वप्न में किसी वस्तु का अस्तित्व न होने पर भी जागे बिना स्वप्नजनित अनर्थ की निवृत्ति नहीं होती-उसी प्रकार सांसारिक वस्तुएँ यद्यपि असत् हैं, तो भी अविद्यावश जीव उनका चिन्तन करता रहता है; इसलिये उसका जन्म-मरणरूप संसार से छुटकारा नहीं हो पाता। इस प्रकार पंचतन्मात्राओं से बना हुआ तथा सोलह तत्त्वों के रूप में विकसित यह त्रिगुणमय संघात ही लिंग शरीर है। यही चेतना शक्ति से युक्त होकर जीव कहा जाता है। इसी के द्वारा पुरुष भिन्न-भिन्न देहों को ग्रहण करता और त्यागता है तथा इसी से उसे हर्ष, शोक, भय, दुःख और सुख आदि का अनुभव होता है, जिस प्रकार जोंक, जब तक दूसरे तृण को नहीं पकड़ लेती, तब तक पहले को नहीं छोड़ती-उसी प्रकार जीव मरणकाल उपस्थित होने पर भी जब तक देहारम्भक कर्मों की समाप्ति होने पर दूसरा शरीर प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक पहले शरीर के अभिमान को नहीं छोड़ता।



राजन्! यह मनःप्रधान लिंग शरीर ही जीव के जन्मादि का कारण है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 78-85 का हिन्दी अनुवाद)

जीव जब इन्द्रियजनित भोगों का चिन्तन करते हुए बार-बार उन्हीं के लिये कर्म करता है, तब उन कर्मों के होते रहने से अविद्यावश वह देहादि के कर्मों में बँध जाता है। अतएव उस कर्मबन्धन से छुटकारा पाने के लिये सम्पूर्ण विश्व को भगवद्रूप देखते हुए सब प्रकार श्रीहरि का भजन करो। उन्हीं से इस विश्व की उत्पत्ति और स्थिति होती है तथा उन्हीं में लय होता है।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! भक्त श्रेष्ठ श्रीनारद जी ने राजा प्राचीनबर्हि को जीव और ईश्वर के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया। फिर वे उनसे विदा लेकर सिद्धलोक को चले गये। तब राजर्षि प्राचीनबर्हि ही प्रजापालन का भार अपने पुत्रों को सौंपकर तपस्या करने के लिये कपिलाश्रम को चले गये। वहाँ उन वीरवर ने समस्त विषयों की आसक्ति छोड़ एकाग्र मन से भक्तिपूर्वक श्रीहरि के चरणकमलों का चिन्तन करते हुए सारूप्यपद प्राप्त किया।

निष्पाप विदुर जी! देवर्षि नारद के परोक्ष रूप से कहे हुए इस आत्मज्ञान को जो पुरुष सुनेगा या सुनायेगा, वह शीघ्र ही लिंगदेह के बन्धन से छूट जायेगा। देवर्षि नारद के मुख के निकला हुआ यह आत्मज्ञान भगवान् मुकुन्द के यश से सम्बन्ध होने के कारण त्रिलोकी को पवित्र करने वाला, अन्तःकरण का शोधक तथा परमात्मपद को प्रकाशित करने वाला है। जो पुरुष इसकी कथा सुनेगा, वह समस्त बन्धनों से मुक्त हो जायेगा और फिर उसे इस संसार-चक्र में नहीं भटकना पड़ेगा।

विदुर जी! गृहस्थाश्रमी पुरंजन के रूपक से परोक्ष रूप में कहा हुआ यह अद्भुत आत्मज्ञान मैंने गुरु जी की कृपा से प्राप्त किया था। इसका तात्पर्य समझ लेने से बुद्धियुक्त जीव का देहाभिमान निवृत्त हो जाता है तथा उसका ‘परलोक में जीव किस प्रकार कर्मों का फल भोगता है’ यह संशय भी मिट जाता है।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【त्रिंश अध्याय:】३०.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रिंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"प्रचेताओं को श्रीविष्णु भगवान् का वरदान"
विदुर जी ने पूछा ;- ब्रह्मन्! आपने राजा प्राचीनबर्हि के जिन पुत्रों का वर्णन किया था, उन्होंने रुद्रगीत के द्वारा श्रीहरि की स्तुति करके क्या सिद्धि प्राप्त की? बार्हस्पत्य! मोक्षाधिपति श्रीनारायण के अत्यन्त प्रिय भगवान् शंकर का अकस्मात् सान्निध्य प्राप्त करके प्रचेताओं ने मुक्ति तो प्राप्त की ही होगी; इससे पहले इस लोक में अथवा परलोक में भी उन्होंने क्या पाया-वह बतलाने की कृपा करें।



श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;- विदुर जी! पिता के आज्ञाकारी प्रचेताओं ने समुद्र के अंदर खड़े रहकर रुद्रगीत के जपरूपी यज्ञ और तपस्या के द्वारा समस्त शरीरों के उत्पादक भगवान् श्रीहरि को प्रसन्न कर लिया। तपस्या करते-करते दस हजार वर्ष बीत जाने पर पुराणपुरुष श्रीनारायण अपनी मनोहर कान्ति द्वारा उनके तपस्याजनित क्लेश को शान्त करते हुए सौम्य विग्रह से उनके सामने प्रकट हुए। गरुड़ जी के कंधे पर बैठे हुए श्रीभगवान् ऐसे जान पड़ते थे, मानो सुमेरु के शिखर पर कोई श्याम घटा छायी हो। उनके श्रीअंग में मनोहर पीताम्बर और कण्ठ में कौस्तुभ मणि सुशोभित थी। अपनी दिव्य प्रभा से वे सब दिशाओं का अन्धकार दूर कर रहे थे।

चमकीले सुवर्णमय आभूषणों से युक्त उनके कमनीय कपोल और मनोहर मुखमण्डल की अपूर्व शोभा हो रही थी। उनके मस्तक पर झिलमिलाता हुआ मुकुट शोभायमान था। प्रभु की आठ भुजाओं में आठ आयुध थे; देवता, मुनि और पार्षदगण सेवा में उपस्थित थे तथा गरुड़ जी किन्नरों की भाँति साममय पंखों की ध्वनि से कीर्तिगान कर रहे थे। उनकी आठ लंबी-लंबी स्थूल भुजाओं के बीच में लक्ष्मी जी से स्पर्धा करने वाली वनमाला विराजमान थी। आदिपुरुष श्रीनारायण ने इस प्रकार पधारकर अपने शरणागत प्रचेताओं की ओर दयादृष्टि से निहारते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी में कहा।

श्रीभगवान् ने कहा ;- राजपुत्रों! तुम्हारा कल्याण हो। तुम सब में परस्पर बड़ा प्रेम है और स्नेहवश तुम एक ही धर्म का पालन कर रहे हो। तुम्हारे इस आदर्श सौहार्द से मैं बड़ा प्रसन्न हूँ। मुझसे वर मांगो। जो पुरुष सायंकाल के समय प्रतिदिन तुम्हारा स्मरण करेगा, उसका अपने भाइयों में अपने ही समान प्रेम होगा तथा समस्त जीवों के प्रति मित्रता का भाव हो जायेगा। जो लोग सायंकाल और प्रातःकाल एकाग्रचित्त से रुद्रगीता द्वारा मेरी स्तुति करेंगे, उनको मैं अभीष्ट वर और शुद्ध बुद्धि प्रदान करूँगा। तम लोगों ने बड़ी प्रसन्नता से अपने पिता की आज्ञा शिरोधार्य की है, इससे तुम्हारी कमनीय कीर्ति समस्त लोकों में फैल जायेगी। तुम्हारे एक बड़ा ही विख्यात पुत्र होगा। वह गुणों में किसी भी प्रकार ब्रह्मा जी से कम नहीं होगा तथा अपनी सन्तान से तीनों लोकों को पूर्ण कर देगा।

राजकुमारों! कण्डु ऋषि के तपोनाश के लिये इन्द्र की भेजी हुई प्रम्लोचा अप्सरा से एक कमलनयनी कन्या उत्पन्न हुई थी। उसे छोड़कर वह स्वर्गलोक को चली गयी। तब वृक्षों ने उस कन्या को लेकर पाला-पोसा। जब वह भूख से व्याकुल होकर रोने लगी, तब ओषधियों के राजा चन्द्रमा ने दयावश उसके मुँह में अपनी अमृतवर्षिणी तर्जनी अँगुली दे दी। तुम्हारे पिता आजकल मेरी सेवा (भक्ति) में लगे हुए हैं; उन्होंने तुम्हें सन्तान उत्पन्न करने की आज्ञा दी है। अतः तुम शीघ्र ही उस देवोपम सुन्दरी कन्या से विवाह कर लो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रिंश अध्यायः श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद)

तुम सब एक ही धर्म में तत्पर हो और तुम्हारा स्वभाव भी एक-सा ही है; इसलिये तुम्हारे ही समान धर्म और स्वभाव वाली वह सुन्दरी कन्या तुम सभी की पत्नी होगी तथा तुम सभी में उसका समान अनुराग होगा। तुम लोग मेरी कृपा से दस लाख दिव्य वर्षों तक पूर्ण बलवान् रहकर अनेकों प्रकार के पार्थिव और दिव्य भोग भोगोगे। अन्त में मेरी अविचल भक्ति से हृदय का समस्त वासनारूप मल दग्ध हो जाने पर तुम इस लोक तथा परलोक के नरकतुल्य भोगों से उपरत होकर मेरे परमधाम को जाओगे। जिन लोगों के कर्म भगवदर्पण बुद्धि से होते हैं और जिनका सारा समय मेरी कथा वार्ताओं में ही बीतता है, वे गृहस्थाश्रम में रहें तो भी घर उनके बन्धन का कारण नहीं होते। वे नित्यप्रति मेरी लीलाएँ सुनते रहते हैं, इसलिये ब्रह्मवादी वक्ताओं के द्वारा मैं ज्ञान-स्वरूप परब्रह्म उनके हृदय में नित्य नया-नया-सा भासता रहता हूँ और मुझे प्राप्त कर लेने पर जीवों को न मोह हो सकता है, न शोक और न हर्ष ही।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- भगवान् के दर्शनों से प्रचेताओं का रजोगुण-तमोगुण मल नष्ट हो चुका था। जब उनसे सकल पुरुषार्थों के आश्रय और सबके परम सुहृद् श्रीहरि ने इस प्रका कहा, तब वे हाथ जोड़कर गद्गद वाणी से कहने लगे।

प्रचेताओं ने कहा ;- प्रभो! आप भक्तों के क्लेश दूर करने वाले हैं, हम आपको नमस्कार करते हैं। वेद आपके उदार गुण और नामों का निरूपण करते हैं। आपके वेग मन और वाणी के वेग से भी बढ़कर हैं तथा आपका स्वरूप सभी इन्द्रियों की गति से परे हैं। हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। आप अपने स्वरूप में स्थित रहने के कारण नित्य शुद्ध और शान्त हैं, मनरूप निमित्त के कारण हमें आपमें यह मिथ्या द्वैत भास रहा है। वास्तव में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय के लिये आप माया के गुणों को स्वीकार करके ही ब्रह्मा, विष्णु और महादेव रूप धारण करते हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं। आप विशुद्ध सत्त्वरूप हैं, आपका ज्ञान संसार बन्धन को दूर कर देता है। आप ही समस्त भागवतों के प्रभु वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण हैं, आपको नमस्कार है। आपकी ही नाभि से ब्रह्माण्डरूप कमल प्रकट हुआ था, आपके कण्ठ में कमलकुसुमों की माला सुशोभित है तथा आपके चरण कमल के समान कोमल हैं; कमलनयन! आपको नमस्कार है। आप कमलकुसुम की केसर के समान स्वच्छ पीताम्बर धारण किये हुए हैं, समस्त भूतों के आश्रयस्थान हैं तथा सबके साक्षी हैं; हम आपको नमस्कार करते हैं।

भगवन्! आपका यह स्वरूप सम्पूर्ण क्लेशों की निवृत्ति करने वाला है; हम अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेषादि क्लेशों से पीड़ितों के सामने आपने इसे प्रकट किया है। इससे बढ़कर हम पर और क्या कृपा होगी। अमंगलहारी प्रभो! दीनों पर कृपा करने वाले समर्थ पुरुषों को इतनी ही कृपा करनी चाहिये कि समय-समय पर उन दीनजनों को ‘ये हमारे हैं’ इस प्रकार स्मरण कर लिया करें। इसी से उनके आश्रितों का चित्त शान्त हो जाता है। आप तो क्षुद्र-से-क्षुद्र प्राणियों के भी अन्तःकरणों में अन्तर्यामी रूप से विराजमान रहते हैं। फिर आपके उपासक हम लोग जो-जो कामनाएँ करते हैं, हमारी उन कामनाओं को आप क्यों न जान लेंगे। जगदीश्वर! आप मोक्ष का मार्ग दिखाने वाले और स्वयं पुरुषार्थस्वरूप हैं। आप हम पर प्रसन्न हैं, इससे बढ़कर हमें और क्या चाहिये। बस, हमारा अभीष्ट वर तो आपकी प्रसन्नता ही है। तथापि, नाथ! हम एक वर आप से अवश्य माँगते हैं। प्रभो! आप प्रकृति आदि से परे हैं और आपकी विभूतियों का भी कोई अन्त नहीं हैं; इसलिये आप ‘अनन्त’ कहे जाते हैं।



(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रिंश अध्यायः श्लोक 32-47 का हिन्दी अनुवाद)

यदि भ्रमर को अनायास ही कल्पवृक्ष मिल जाये, तो क्या वह किसी दूसरे वृक्ष का सेवन करेगा? तब आपकी चरण शरण में आकर अब हम क्या-क्या माँगे। हम आपसे केवल यही माँगते हैं कि जब तक आपकी माया से मोहित होकर हम अपने कर्मानुसार संसार में भ्रमते रहें, तब तक जन्म-जन्म में हमें आपके प्रेमी भक्तों का संग प्राप्त होता रहे। हम तो भगवद्भक्तों के क्षण भर के संग के सामने स्वर्ग और मोक्ष को भी कुछ नहीं समझते; फिर मानवी भोगों की तो बात ही क्या है। भगवद्भक्तों के समाज में सदा-सर्वदा भगवान् की मधुर-मधुर कथाएँ होती रहती हैं, जिनके श्रवणमात्र से किसी प्रकार का वैर विरोध या उद्वेग नहीं रहता। अच्छे-अच्छे कथा-प्रसंगों द्वारा निष्काम भाव से संन्यासियों के एकमात्र आश्रय साक्षात् श्रीनारायणदेव का बार-बार गुणगान होता रहता है। आपके वे भक्तजन तीर्थों को पवित्र करने के उद्देश्य से पृथ्वी पर पैदल ही विचरते रहते हैं। भला, उनका समागम संसार से भयभीत हुए पुरुषों को कैसे रुचिकर न होगा।

भगवन्! आपके प्रिय सखा भगवान् शंकर के क्षण भर के समागम से ही आज हमें आपका साक्षात् दर्शन प्राप्त हुआ है। आप जन्म-मरणरूप दुःसाध्य रोग के श्रेष्ठतम वैध्य हैं, अतः अब हमने आपका ही आश्रय लिया है। प्रभो! हमने समाहित चित्त से जो कुछ अध्ययन किया है, निरन्तर सेवा-शुश्रूषा करके गुरु, ब्राह्मण और वृद्धजनों को प्रसन्न किया है तथा दोषबुद्धि त्यागकर श्रेष्ठ पुरुष, सुहृद्गण, बन्धुवर्ग एवं समस्त प्राणियों की वन्दना की है और अन्नादि को त्यागकर दीर्घकाल तक जल में खड़े रहकर तपस्या की है, वह सब आप सर्वव्यापक पुरुषोत्तम के सन्तोष का कारण हो–यही वर माँगते हैं। स्वामिन्! आपकी महिमा का पार न पाकर भी स्वयाम्भुव मनु, स्वयं ब्रह्मा जी, भगवान् शंकर तथा तप और ज्ञान से शुद्धचित्त हुए अन्य पुरुष निरन्तर आपकी स्तुति करते रहते हैं। अतः हम भी अपनी बुद्धि के अनुसार आपका यशोगान करते हैं। आप सर्वत्र समान शुद्ध स्वरूप और परमपुरुष हैं। आप सत्त्वमूर्ति भगवान् वासुदेव को हम नमस्कार करते हैं।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! प्रचेताओं के इस प्रकार स्तुति करने पर शरणागतवत्सल श्रीभगवान् ने प्रसन्न होकर कहा- ‘तथास्तु’। अप्रतिहत प्रभाव श्रीहरि की मधुर मूर्ति के दर्शनों से सभी प्रचेताओं के नेत्र तृप्त नहीं हुए थे, इसलिये वे उन्हें जाने देना नहीं चाहते थे; तथापि वे अपने परमधाम को चले गये। इसके पश्चात् प्रचेताओं ने समुद्र के जल से बाहर निकल कर देखा कि सारी पृथ्वी को ऊँचे-ऊँचे वृक्षों ने ढक दिया है, जो मानो स्वर्ग का मार्ग रोकने के लिये ही इतने बढ़ गये थे। यह देखकर वे वृक्षों पर बड़े कुपित हुए। तब उन्होंने पृथ्वी को वृक्ष, लता आदि से रहित कर देने के लिये अपने मुख से प्रचण्ड वायु और अग्नि को छोड़ा, जैसे कालाग्नि रुद्र प्रलयकाल में छोड़ते हैं। जब ब्रह्मा जी ने देखा कि वे सारे वृक्षों को भस्म कर रहे हैं, तब वे वहाँ आये और प्राचीनबर्हि के पुत्रों को उन्होंने युक्तिपूर्वक समझाकर शान्त किया। फिर जो कुछ वृक्ष वहाँ बचे थे, उन्होंने डरकर ब्रह्मा जी के कहने से वह कन्या लाकर प्रचेताओं को दी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रिंश अध्यायः श्लोक 48-51 का हिन्दी अनुवाद)

प्रचेताओं ने भी ब्रह्मा जी के आदेश से उस मारिषा नाम की कन्या से विवाह कर लिया। इसी के गर्भ से ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष ने, श्रीमहादेव जी की अवज्ञा के कारण अपना पूर्व शरीर त्यागकर जन्म लिया।

इन्हीं दक्ष ने चाक्षुष मन्वन्तर आने पर, जब कालक्रम से पूर्वसर्ग नष्ट हो गया, भगवान् की प्रेरणा से इच्छानुसार नवीन प्रजा उत्पन्न की। इन्होंने जन्म लेते ही अपनी कान्ति से समस्त तेजस्वियों का तेज छीन लिया।

ये कर्म करने में बड़े दक्ष (कुशल) थे, इसी से इनका नाम ‘दक्ष’ हुआ। इन्हें ब्रह्मा जी ने प्रजापतियो के नायक के पद पर अभिषिक्त कर सृष्टि की रक्षा के लिये नियुक्त किया और इन्होंने मरीचि आदि दूसरे प्रजापतियों को अपने-अपने कार्य में नियुक्त किया।


                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【एकत्रिंश अध्याय:】३१.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकत्रिंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"प्रचेताओं को श्रीनारद जी का उपदेश और उनका परमपद-लाभ"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! दस लाख वर्ष बीत जाने पर जब प्रचेताओं को विवेक हुआ, तब उन्हें भगवान् के वाक्यों की याद आयी और वे अपनी भार्या मारिषा को पुत्र के पास छोड़कर तुरंत घर से निकल पड़े। वे पश्चिम दिशा में समुद्र के तट पर- जहाँ जाजलि मुनि ने सिद्धि प्राप्त की थी- जा पहुँचे और जिससे ‘समस्त भूतों में एक ही आत्मतत्त्व विराजमान है’ ऐसा ज्ञान होता है, उस आत्मविचाररूप ब्रह्मसत्र का संकल्प करके बैठ गये। उन्होंने प्राण, मन, वाणी और दृष्टि को वश में किया तथा शरीर को निश्चेष्ट, स्थिर और सीधा रखते हुए आसन को जीतकर चित्त को विशुद्ध परब्रह्म में लीन कर दिया। ऐसी स्थिति में उन्हें देवता और असुर दोनों के ही वन्दनीय श्रीनारद जी ने देखा।

नारद जी को आया देख प्रचेतागण खड़े हो गये और प्रणाम करके आदर-सत्कारपूर्वक देश-कालानुसार उनकी विधिवत् पूजा की। जब नारद जी सुखपूर्वक बैठ गये, तब वे कहने लगे।

प्रचेताओं ने कहा ;- देवर्षे! आपका स्वागत है, आज बड़े भाग्य से हमें आपका दर्शन हुआ। ब्रह्मन्! सूर्य के समान आपका घूमना-फिरना भी ज्ञानालोक से समस्त जीवों को अभय-दान देने के लिये ही होता है।

प्रभो! भगवान् शंकर और श्रीविष्णु भगवान् ने हमें जो उपदेश दिया था, उसे गृहस्थी में आसक्त रहने के कारण हम लोग प्रायः भूल गये हैं। अतः आप हमारे हृदयों में उस परमार्थतत्त्व का साक्षात्कार कराने वाले अध्यात्म ज्ञान को फिर प्रकाशित कर दीजिये, जिससे हम सुगमता से ही इस दुस्तर संसार-सागर से पार हो जायें।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- भगवन्मय श्रीनारद जी का चित्त सर्वदा भगवान् श्रीकृष्ण में ही लगा रहता है। वे प्रचेताओं के इस प्रकार पूछने पर उनसे कहने लगे।

श्रीनारद जी ने कहा ;- राजाओं! इस लोक में मनुष्य का वही जन्म, वही कर्म, वही आयु, वही मन और वही वाणी सफल है, जिसके द्वारा सर्वात्मा सर्वेश्वर श्रीहरि का सेवन किया जाता है। जिनके द्वारा अपने स्वरूप का साक्षात्कार कराने वाले श्रीहरि को प्राप्त न किया जाये, उन माता-पिता की पवित्रता से, यज्ञोपवीत-संस्कार से एवं यज्ञदीक्षा से प्राप्त होने वाले उन तीन प्रकार के श्रेष्ठ जन्मों में, वेदोक्त कर्मों से, देवताओं के समान दीर्घ आयु से, शास्त्रज्ञान से, तप से, वाणी की चतुराई से, अनेक प्रकार की बातें याद रखने की शक्ति से, तीव्र बुद्धि से, बल से, इन्द्रियों की पटुता से, योग से, सांख्य (आत्मानात्म विवेक) से, संन्यास और वेदाध्ययन से तथा व्रत-वैराग्यादि अन्य कल्याण-साधनों से भी पुरुष का क्या लाभ है? वास्तव में समस्त कल्याणों की अवधि आत्मा ही है और आत्मज्ञान प्रदान करने वाले श्रीहरि ही सम्पूर्ण प्राणियों की प्रिय आत्मा हैं। जिस प्रकार वृक्ष की जड़ सींचने से उसके तना, शाखा, उपशाखा आदि सभी का पोषण हो जाता है और जैसे भोजन द्वारा प्राणों को तृप्त करने से समस्त इन्द्रियाँ पुष्ट होती हैं, उसी प्रकार श्रीभगवान् की पूजा ही सबकी पूजा है। जिस प्रकार वर्षाकाल में जल सूर्य के ताप से उत्पन्न होता है और ग्रीष्म-ऋतु में उसी की किरणों में पुनः प्रवेश कर जाता है तथा जैसे समस्त चराचर भूत पृथ्वी से उत्पन्न होते हैं और फिर उसी में मिल जाते हैं, उसी प्रकार चेतना-चेतनात्मक यह समस्त प्रपंच श्रीहरि से ही उत्पन्न होता है और उन्हीं में लीन हो जाता है।



(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकत्रिंश अध्यायः श्लोक 16-25 का हिन्दी अनुवाद)

वस्तुतः यह विश्वात्मा श्रीभगवान् का वह शास्त्र प्रसिद्ध सर्वोपाधिरहित स्वरूप ही है। जैसे सूर्य की प्रभा उससे भिन्न नहीं होती, उसी प्रकार कभी-कभी गन्धर्व-नगर के समान स्फुरित होने वाला यह जगत् भगवान् से भिन्न नहीं है; तथा जैसे जाग्रत् अवस्था में इन्द्रियाँ क्रियाशील रहती हैं किन्तु सुषुप्ति में उनकी शक्तियाँ लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार यह जगत् सर्गकाल में भगवान् से प्रकट हो जाता है और कल्पान्त होने पर उन्हीं में लीन हो जाता है। स्वरूपतः तो भगवान् में द्रव्य, क्रिया और ज्ञानरूपी त्रिविध अहंकार के कार्यों की तथा उनके निमित्त से होने वाले भेदभ्रम की सत्ता है ही नहीं।

नृपतिगण! जैसे बादल, अन्धकार और प्रकाश- ये क्रमशः आकाश से प्रकट होते हैं और उसी में लीन हो जाते हैं; किन्तु आकाश इनसे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार ये सत्त्व, रज, और तमोमयी शक्तियाँ कभी परब्रह्म से उत्पन्न होती हैं और कभी उसी में लीन हो जाती हैं। इसी प्रकार इनका प्रवाह चलता रहता है; किन्तु इससे आकाश के समान असंग परमात्मा में कोई विकार नहीं होता। अतः तुम ब्रह्मादि समस्त लोकपालों के भी अधीश्वर श्रीहरि अपने से अभिन्न मानते हुए भजो; क्योंकि वे ही समस्त देहधारियों के एकमात्र आत्मा हैं। वे ही जगत् के निमित्तकारण काल, उपादान कारण प्रधान और नियन्ता पुरुषोत्तम हैं तथा अपनी काल शक्ति से वे ही इस गुणों के प्रवाहरूप प्रपंच का संहार कर देते हैं। वे भक्तवत्सल भगवान् समस्त जीवों पर दया करने से, जो कुछ मिल जाये उसी में सन्तुष्ट रहने से तथा समस्त इन्द्रियों को विषयों से निवृत्त करके शान्त करने से शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं। पुत्रैषणा आदि सब प्रकार की वासनाओं के निकल जाने से जिनका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है, उन संतों के हृदय में उनके निरन्तर बढ़ते हुए चिन्तन से खिंचकर अविनाशी श्रीहरि आ जाते हैं और अपनी भक्ताधीनता को चरितार्थ करते हुए हृदयाकाश की भाँति वहाँ से हटते नहीं।

भगवान् तो अपने को (भगवान् को) ही सर्वस्व मानने वाले निर्धन पुरुषों पर ही प्रेम करते हैं; क्योंकि वे परम रसज्ञ हैं-उन अकिंचनों की अनन्याश्रया अहैतु की भक्ति में कितना माधुर्य होता है, इसे प्रभु अच्छी तरह जानते हैं। जो लोग अपने शास्त्रज्ञान, धन, कुल और कर्मों के मद से उन्मत्त होकर, ऐसे निष्किंचन साधुजनों का तिरस्कार करते हैं, उन दुर्बुद्धियों की पूजा तो प्रभु स्वीकार ही नहीं करते। भगवान् स्वरूपानन्द से ही परिपूर्ण हैं, उन्हें निरन्तर अपनी सेवा में रहने वाली लक्ष्मी जी तथा उनकी इच्छा करने वाले नरपति और देवताओं की भी कोई परवा नहीं है। इतने पर भी वे अपने भक्तों के तो अधीन ही रहते हैं। अहो! ऐसे करुणा-सागर श्रीहरि को कोई भी कृतज्ञ पुरुष थोड़ी देर के लिये भी कैसे छोड़ सकता है?



श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! भगवान् नारद ने प्रचेताओं को इस उपदेश के साथ-साथ और भी बहुत-सी भगवत्सम्बन्धी बातें सुनायीं। इसके पश्चात् वे ब्रह्मलोक को चले गये। प्रचेतागण भी उनके मुख से सम्पूर्ण जगत् के पापरूपी मल को दूर करने वाले भगवच्चरित्र सुनकर भगवान् के चरणकमलों का ही चिन्तन करने लगे और अन्त में भगवद्धाम को प्राप्त हुए। इस प्रकार आपने जो मुझसे श्रीनारद जी और प्रचेताओं के भगवत्कथा सम्बन्धी संवाद के विषय में पूछा था, वह मैंने आपको सुना दिया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकत्रिंश अध्यायः श्लोक 26-31 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! यहाँ तक स्वायम्भुव मनु के पुत्र उत्तानपाद के वंश का वर्णन हुआ, अब प्रियव्रत के वंश का विवरण भी सुनो।

राजा प्रियव्रत ने श्रीनारद जी से आत्मज्ञान का उपदेश पाकर भी राज्य भोग किया था तथा अन्त में इस सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने पुत्रों में बाँटकर वे भगवान् के परमधाम को प्राप्त हुए थे।

राजन्! इधर श्रीमैत्रेय जी के मुख से यह भगवद्गुणानुवाद युक्त पवित्र कथा सुनकर विदुर जी प्रेममग्न हो गये, भक्तिभाव का उर्द्रेक होने से उनके नेत्रों से पवित्र आँसुओं की धारा बहने लगी तथा उन्होंने हृदय में भगवच्चरणों का स्मरण करते हुए अपना मस्तक मुनिवर मैत्रेय जी के चरणों पर रख दिया।

विदुर जी कहने लगे ;- महायोनिन्! आप बड़े ही करुणामय हैं। आज आपने मुझे अज्ञानान्धकार के उस पार पहुँचा दिया है, जहाँ अकिंचनों के सर्वस्व श्रीहरि विराजते हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- मैत्रेय जी को उपर्युक्त कृतज्ञतासूचक वचन कहकर तथा प्रणाम कर विदुर जी ने उनसे आज्ञा ली और फिर शान्तचित्त होकर अपने बन्धुजनों से मिलने के लिये वे हस्तिनापुर चले गये।

राजन्! जो पुरुष भगवान् के शरणागत परमभागवत राजाओं का यह पवित्र चरित्र सुनेगा, उसे दीर्घ आयु, धन, सुयश, क्षेम, सद्गति और ऐश्वर्य की प्राप्ति होगी।

                      【चतुर्थ स्कन्ध: समाप्त】
                         【 हरिः ॐ तत्सत्】


।। इस प्रकार  "श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध:" के 31 अध्याय समाप्त हुये ।।

(अब पञ्चम स्कन्ध: प्रारम्भ होता है)

(नोट :- सभी स्कन्ध:  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

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