सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( चतुर्थ स्कन्धः ) का इक्कीसवाँ , बाइसवाँ, तेइसवाँ, चौबीसवाँ व पच्चीसवाँ अध्याय [ TheTwenty-first, twenty-second, twenty-third, twenty-fourth and twenty-fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (fourth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( चतुर्थ स्कन्धः ) का इक्कीसवाँ , बाइसवाँ, तेइसवाँ, चौबीसवाँ व पच्चीसवाँ अध्याय [ TheTwenty-first, twenty-second, twenty-third, twenty-fourth and twenty-fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (fourth wing) ]



                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【एकविंश अध्याय:】२१.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"महाराज पृथु का अपनी प्रजा को उपदेश"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! उस समय महाराज पृथु का नगर सर्वत्र मोतियों की लड़ियों, फूलों की मालाओं, रंग-बिरंगे वस्त्रों, सोने के दरवाजों और अत्यन्त सुगन्धित धूपों से सुशोभित था। उसकी गलियाँ, चौक और सड़कें चन्दन और अरगजे के जल से सींच दी गयी थीं तथा उसे पुष्प, अक्षत, फल, यवांकुर, खील और दीपक आदि मांगलिक द्रव्यों से सजाया गया गया। वह ठौर-ठौर पर रखे हुए फल-फूल के गुच्छों से युक्त केले के खंभों और सुपारी के पौधों से बड़ा ही मनोहर जान पड़ता था तथा सब ओर आम आदि वृक्षों के नवीन पत्तों की बंदनवारों से विभूषित था।

जब महाराज ने नगर में प्रवेश किया, तब दीपक, उपहार और अनेक प्रकार की मांगलिक सामग्री लिये हुए प्रजाजनों ने तथा मनोहर कुण्डलों से सुशोभित सुन्दरी कन्याओं ने उनकी अगवानी की। शंख और दुन्दुभि आदि बाजे बजने लगे, ऋत्विजगण वेदध्वनि करने लगे, वन्दीजनों ने स्तुतिगान आरम्भ कर दिया। यह सब देख और सुनकर भी उन्हें किसी प्रकार का अहंकार नहीं हुआ। इस प्रकार वीरवर पृथु ने राजमहल में प्रवेश किया। मार्ग में जहाँ-तहाँ पुरवासी और देशवासियों ने उनका अभिनन्दन किया। परमयशस्वी महाराज ने उन्हें प्रसन्नतापूर्वक अभीष्ट वर देकर सन्तुष्ट किया। महाराज पृथु महापुरुष और सभी के पूजनीय थे। उन्होंने इसी प्रकार के अनेकों उदार कर्म करते हुए पृथ्वी का शासन किया और अन्त में अपने विपुल यश का विस्तार कर भगवान् का परमपद प्राप्त किया।

सूत जी कहते हैं ;- मुनिवर शौनक जी! इस प्रकार भगवान् मैत्रेय के मुख से आदिराज पृथु का अनेक प्रकार के गुणों से सम्पन्न और गुणवानों द्वारा प्रशंसित विस्तृत सुयश सुनकर परम भागवत विदुर जी ने उनका अभिनन्दन करते हुए कहा।

विदुर जी बोले ;- ब्रह्मन्! ब्राह्मणों ने पृथु का अभिषेक किया। समस्त देवताओं ने उन्हें उपहार दिये। उन्होंने अपनी भुजाओं में वैष्णव तेज को धारण किया और उससे पृथ्वी का दोहन किया। उनके उस पराक्रम के उच्छिष्टरूप विषय भोगों से ही आज भी सम्पूर्ण राजा तथा लोकपालों के सहित समस्त लोक इच्छानुसार जीवन-निर्वाह करते हैं। भला, ऐसा कौन समझदार होगा जो उनकी पवित्र कीर्ति सुनना न चाहेगा। अतः अभी आप मुझे उनके कुछ और भी पवित्र चरित्र सुनाइये।

श्रीमैत्रे जी ने कहा ;- साधुश्रेष्ठ विदुर जी! महाराज पृथु गंगा और यमुना के मध्यवर्ती देश में निवास कर अपने पुण्यकर्मो के क्षय की इच्छा से प्रारब्धवश प्राप्त हुए भोगों को ही भोगते थे। ब्राह्मणवंश और भगवान् के सम्बन्धी विष्णुभक्तों को छोड़कर उनका सातों द्वीपों के सभी पुरुषों पर अखण्ड एवं अबाध शासन था।
एक बार उन्होंने एक महासत्र की दीक्षा ली; उस समय वहाँ देवताओं, ब्रह्मार्षियों और राजर्षियों का बहुत बड़ा समाज एकत्र हुआ। उस समाज में महाराज पृथु ने उन पूजनीय अतिथियों का यथायोग्य सत्कार किया और फिर उस सभा में, नक्षत्रमण्डल में चन्द्रमा के समान खड़े हो गये। उनका शरीर ऊँचा, भुजाएँ भरी और विशाल, रंग गोरा, नेत्र कमल के समान सुन्दर और अरुणवर्ण, नासिका सुघड़, मुख मनोहर, स्वरूप सौम्य, कंधे ऊँचे और मुस्कान से युक्त दन्तपंक्ति सुन्दर थी। उनकी छाती चौड़ी, कमर का पिछला भाग स्थूल और उदर पीपल के पत्ते के समान सुडौल तथा बल पड़े हुए होने से और भी सुन्दर जान पड़ता था। नाभि भँवर के समान गम्भीर थी, शरीर तेजस्वी था, जंघाएँ सुवर्ण के समान देदीप्यमान थीं तथा पैरों के पंजे उभरे हुए थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद)

उनके बाल बारीक, घुँघराले, काले और चिकने थे; गरदन शंख के समान उतार-चढ़ाव वाली तथा रेखाओं से युक्त थी और वे उत्तम बहुमूल्य धोती पहने और वैसी ही चादर ओढ़े थे। दीक्षा के नियमानुसार उन्होंने समस्त आभूषण उतार दिये थे; इसी से उनके शरीर के अंग-प्रत्यंग की शोभा अपने स्वाभाविक रूप में स्पष्ट झलक रही थी। वे शरीर पर कृष्णमृग का चर्म और हाथों में कुशा धारण किये हुए थे। इससे उनके शरीर की कान्ति और भी बढ़ गयी थी। वे अपने सारे नित्यकृत्य यथाविधि सम्पन्न कर चुके थे। राजा पृथु ने मानो सारी सभा को हर्ष से सराबोर करते हुए अपने शीतल एवं स्नेहपूर्ण नेत्रों से चारों ओर देखा और फिर अपना भाषण प्रारम्भ किया। उनका भाषण अत्यन्त सुन्दर, विचित्र पदों से युक्त, स्पष्ट, मधुर, गम्भीर एवं निश्शंक था। मानो उस समय वे सबका उपकार करने के लिये अपने अनुभव का ही अनुवाद कर रहे हों।

राजा पृथु ने कहा ;- सज्जनों! आपका कल्याण हो। आप महानुभाव, जो यहाँ पधारे हैं, मेरी प्रार्थना सुनें-जिज्ञासु पुरुषों को चाहिये कि संत-समाज में अपने निश्चय का निवेदन करें। इस लोक में मुझे प्रजाजनों का शासन, उनकी रक्षा, उनकी आजीविका का प्रबन्ध तथा उन्हें अलग-अलग अपनी मर्यादा रखने के लिये राजा बनाया गया है। अतः इनका यथावत् पालन करने से मुझे उन्हीं मनोरथ पूर्ण करने वाले लोकों की प्राप्ति होनी चाहिये, जो वेदवादी मुनियों के मतानुसार सम्पूर्ण कर्मों के साक्षी श्रीहरि के प्रसन्न होने पर मिलते हैं। जो राजा प्रजा को धर्ममार्ग की शिक्षा न देकर केवल उससे कर वसूल करने में लगा रहता है, वह केवल प्रजा के पाप का ही भागी होता है और अपने ऐश्वर्य से हाथ धो बैठता है। अतः प्रिय प्रजाजन! अपने इस राजा का परलोक में हित करने के लिये आप लोग परस्पर दोषदृष्टि छोड़कर हृदय से भगवान् को याद रखते हुए अपने-अपने कर्तव्य का पालन करते रहिये; क्योंकि आपका स्वार्थ भी इसी में है और इस प्रकार मुझ पर भी आपका बड़ा अनुग्रह होगा।

विशुद्धचित्त देवता, पितर और महर्षिगण! आप भी मेरी इस प्रार्थना का अनुमोदन कीजिये; क्योंकि कोई भी कर्म हो, मरने के अनन्तर उसके कर्ता, उपदेष्टा और समर्थक को उसका समान फल मिलता है। माननीय सज्जनों! किन्हीं श्रेष्ठ महानुभावों के मत में तो कर्मों का फल देने वाले भगवान् यज्ञपति ही हैं; क्योंकि इहलोक और परलोक दोनों ही जगह कोई-कोई शरीर बड़े तेजोमय देखे जाते हैं। मनु, उत्तानपाद, महीपति ध्रुव, राजर्षि प्रियव्रत, हमारे दादा अंग तथा ब्रह्मा, शिव, प्रह्लाद, बलि और इसी कोटि के अन्यान्य महानुभावों के मत में तो धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप चतुर्वर्ग तथा स्वर्ग और अपवर्ग के स्वाधीन नियामक, कर्म फलदातारूप से भगवान् गदाधर की आवश्यकता है ही। इस विषय में तो केवल मृत्यु के दौहित्र वेन आदि कुछ शोचनीय और धर्मविमूढ़ लोगों का ही मतभेद है। अतः उसका कोई विशेष महत्त्व नहीं हो सकता।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 31-43 का हिन्दी अनुवाद)

जिनके चरणकमलों की सेवा के लिये निरन्तर बढ़ने वाली अभिलाषा उन्हीं के चरणनख से निकली हुई गंगाजी के समान, संसारताप से संतप्त जीवों के समस्त जन्मों के संचित मनोमल को तत्काल नष्ट कर देती है, जिनके चरणतल का आश्रय लेने वाला पुरुष सब प्रकार के मानसिक दोषों को धो डालता तथा वैराग्य और तत्त्वसाक्षात्काररूप बल पाकर फिर इस दुःखमय संसार चक्र में नहीं पड़ता और जिनके चरणकमल सब प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं-उन प्रभु को आप लोग अपनी-अपनी आजीविका के उपयोगी वर्णाश्रमोचित अध्यापनादि कर्मों तथा ध्यान-स्तुति-पुजादि मानसिक, वाचिक एवं शारीरिक क्रियाओं के द्वारा भजें। हृदय में किसी प्रकार का कपट न रखें तथा यह निश्चय रखें कि हमें अपने-अपने अधिकारानुसार इसका फल अवश्य प्राप्त होगा।

भगवान् स्वरूपतः विशुद्ध विज्ञानघन और समस्त विशेषणों से रहित हैं; किन्तु इस कर्ममार्ग में जौ-चावल आदि विविध द्रव्य, शुक्लादि गुण, अवघात (कूटना) आदि क्रिया एवं मन्त्रों के द्वारा और अर्थ, आशय (संकल्प), लिंग (पदार्थ-शक्ति) तथा ज्योतिष्टोम आदि नामों से सम्पन्न होने वाले, अनेक विशेषण युक्त यज्ञ के रूप में प्रकाशित होते हैं। जिस प्रकार एक ही अग्नि भिन्न-भिन्न काष्ठों में उन्हीं के आकारादि के अनुरूप भासती है, उसी प्रकार वे सर्वव्यापक प्रभु परमानन्दस्वरूप होते हुए भी प्रकृति, काल, वासना और अदृष्टि से उत्पन्न हुए शरीर में विषयाकार बनी हुई बुद्धि में स्थित होकर उन यज्ञ-यागादि क्रियाओं के फलरूप से अनेक प्रकार के जान पड़ते हैं।

अहो! इस पृथ्वीतल पर मेरे जो प्रजाजन यज्ञ-भोक्ताओं के अधीश्वर सर्वगुरु श्रीहरि का एकनिष्ठ भाव से अपने-अपने धर्मों के द्वारा निरन्तर पूजन करते हैं, वे मुझ पर बड़ी कृपा करते हैं। सहनशीलता, तपस्या और ज्ञान इन विशिष्ट विभूतियों के कारण वैष्णव और ब्राह्मणों के वंश स्वभावतः ही उज्ज्वल होते हैं। उन पर राजकुल का तेज, धन, ऐश्वर्य आदि समृद्धियों के कारण अपना प्रभाव न डाले। ब्रह्मादि समस्त महापुरुषों में अग्रगण्य, ब्राह्मण भक्त, पुराणपुरुष श्रीहरि ने भी निरन्तर इन्हीं के चरणों की वन्दना करके अविचल लक्ष्मी और संसार को पवित्र करने वाली कीर्ति प्राप्त की है। आप लोग भगवान् के लोक संग्रहरूप धर्म का पालन करने वाले हैं तथा सर्वान्तर्यामी स्वयंप्रकाश ब्राह्मण प्रिय श्रीहरि विप्रवंश की सेवा करने से ही परम सन्तुष्ट होते हैं, अतः आप सभी को सब प्रकार से विनयपूर्वक ब्राह्मण कुल की सेवा करनी चाहिये। इनकी नित्य सेवा करने से शीघ्र ही चित्त शुद्ध हो जाने के कारण मनुष्य स्वयं ही (ज्ञान और अभ्यास आदि के बिना ही) परम शान्तिरूप मोक्ष प्राप्त कर लेता है। अतः लोक में इन ब्राह्मणों से बढ़कर दूसरा कौन है जो हविष्यभोजी देवताओं का मुख हो सके?

उपनिषदों के ज्ञानपरक वचन एकमात्र जिनमें ही गतार्थ होते हैं, वे भगवान् अनन्त इन्द्रादि यज्ञीय देवताओं के नाम से तत्त्वज्ञानियों द्वारा ब्राह्मणों के मुख में श्रद्धापूर्वक हवन किये हुए पदार्थ को जैसे चाव से ग्रहण करते हैं, वैसे ही चेतनाशून्य अग्नि में होमे हुए द्रव्य को नहीं ग्रहण करते। सभ्यगण! जिस प्रकार स्वच्छ दर्पण में प्रतिबिम्ब का भान होता है-उसी प्रकार जिससे इस सम्पूर्ण प्रपंच का ठीक-ठीक ज्ञान होता है, उस नित्य, शुद्ध और सनातन ब्रह्म (वेद) को जो परमार्थ-तत्त्व की उपलब्धि के लिये श्रद्धा, तप, मंगलमय आचरण, स्वाध्यायविरोधी वार्तालाप के त्याग तथा संयम और समाधि के अभ्यास द्वारा धारण करते हैं, उन ब्राह्मणों के चरणकमलों की धूलि को मैं आयु पर्यन्त अपने मुकुट पर धारण करूँ; क्योंकि उसे सर्वदा सिर पर चढ़ाते रहने से मनुष्य के सारे पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं और सम्पूर्ण गुण उसकी सेवा करने लगते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 44-52 का हिन्दी अनुवाद)

उस गुणवान्, शीलसम्पन्न, कृतज्ञ और गुरुजनों की सेवा करने वाले पुरुष के पास सारी सम्पदाएँ अपने-आप आ जाती हैं। अतः मेरी तो यही अभिलाषा है कि ब्राह्मण कुल, गोवंश और भक्तों के सहित श्रीभगवान् मुझ पर प्रसन्न रहें।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- महाराज पृथु का यह भाषण सुनकर देवता, पितर और ब्राह्मण आदि सभी साधुजन बड़े प्रसन्न हुए और ‘साधु! साधु!’ यों कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे। उन्होंने कहा, ‘पुत्र के द्वारा पिता पुण्यलोकों को प्राप्त कर लेता है’ यह श्रुति यथार्थ है; पापी वेन ब्राह्मणों के शाप से मारा गया था; फिर भी इनके पुण्यबल से उसका नरक से निस्तार हो गया।

इसी प्रकार हिरण्यकशिपु भी भगवान् की निन्दा करने के कारण नरकों में गिरने वाला ही था कि अपने पुत्र प्रह्लाद के प्रभाव से उन्हें पार कर गया।

वीरवर पृथु जी! आप तो पृथ्वी के पिता ही हैं और सब लोकों के एकमात्र स्वामी श्रीहरि में भी आपकी ऐसी अविचल भक्ति है, इसलिये आप अनन्त वर्षों तक जीवित रहें। आपका सुयश बड़ा पवित्र है; आप उदारकीर्ति ब्राह्मण्यदेव श्रीहरि की कथाओं का प्रचार करते हैं। हमारा बड़ा सौभाग्य है; आज आपको अपने स्वामी के रूप में पाकर हम अपने को भगवान् के ही राज्य में समझते हैं।
स्वामिन्! अपने आश्रितों को इस प्रकार का श्रेष्ठ उपदेश देना आपके लिये कोई आश्चर्य की बात नहीं है; क्योंकि अपनी प्रजा के ऊपर प्रेम रखना तो करुणामय महापुरुषों का स्वभाव ही होता है। हम लोग प्रारब्धवश विवेकहीन होकर संसारारण्य में भटक रहे थे; सो प्रभो! आज आपने हमें इस अज्ञानान्धकार के पार पहुँचा दिया। आप शुद्ध सत्त्वमय परम पुरुष हैं, जो ब्राह्मण जाति में प्रविष्ट होकर क्षत्रियों की और क्षत्रिय जाति में प्रविष्ट होकर ब्राह्मणों की तथा दोनों जातियों में प्रतिष्ठित होकर सारे जगत् की रक्षा करते हैं। हमारा आपको नमस्कार है।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【द्वाविंश अध्याय:】२२.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"महाराज पृथु को सनकादिका उपदेश"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- जिस समय प्रजाजन परमपराक्रमी पृथ्वीपाल पृथु की इस प्रकार प्रार्थना कर रहे थे, उसी समय वहाँ सूर्य के समान तेजस्वी चार मुनीश्वर आये। राजा और उनके अनुचरों ने देखा तथा पहचान लिया कि वे सिद्धेश्वर अपनी दिव्य कान्ति से सम्पूर्ण लोकों को पाप निर्मुक्त करते हुए आकाश से उतरकर आ रहे हैं। राजा के प्राण सनकादिकों का दर्शन करते ही, जैसे विषयी जीव विषयों की ओर दौड़ता है, उनकी ओर चल पड़े- मानो उन्हें रोकने के लिये ही वे अपने सदस्यों और अनुयायियों के साथ एकाएक उठकर खड़े हो गये। जब वे मुनिगण अर्ध्य स्वीकार कर आसन पर विराज गये, तब शिष्टाग्रणी पृथु ने उनके गौरव से प्रभावित हो विनयवश गरदन झुकाये हुए उनकी विधिवत् पूजा की। फिर उनके चरणोदक को अपने सिर के बालों पर छिड़का। इस प्रकार शिष्टाजनोचित आचार का आदर तथा पालन करके उन्होंने यही दिखाया कि सभी सत्पुरुषों को ऐसा व्यवहार करना चाहिये। सनकादि मुनीश्वर भगवान् शंकर के अग्रज हैं। सोने के सिंहासन पर वे ऐसे सुशोभित हुए, जैसे अपने-अपने स्थानों पर अग्नि देवता। महाराज पृथु ने बड़ी श्रद्धासंयम के साथ प्रेमपूर्वक उनसे कहा।

पृथु जी ने कहा ;- मंगलमूर्ति मुनीश्वरों! आपके दर्शन तो योगियों को भी दुर्लभ हैं; मुझसे ऐसा क्या पुण्य बना है जिससे स्वतः आपका दर्शन प्राप्त हुआ। जिस पर ब्राह्मण अथवा अनुचरों के सहित श्रीशंकर या विष्णु भगवान् प्रसन्न हों, उसके लिये इहलोक और परलोक में कौन-सी वस्तु दुर्लभ है। इस दृश्य-प्रपंच के कारण महत्त्वादि यद्यपि सर्वगत हैं, तो भी वे सर्वसाक्षी आत्मा को नहीं सकते; इसी प्रकार यद्यपि आप समस्त लोकों में विचरते रहते हैं, तो भी अनधिकारी लोग आपको देख नहीं पाते। जिनके घरों में आप-जैसे पूज्य पुरुष उनके जल, तृण, पृथ्वी, गृहस्वामी अथवा सेवकादि किसी अन्य पदार्थ को स्वीकार कर लेते हैं, वे गृहस्थ धनहीन होने पर भी धन्य हैं। जिन घरों में कभी भगवद्भक्तों के परम पवित्र चरणोदक के छींटे नहीं पड़े, वे सब प्रकार की ऋषि-सिद्धियों से भरे होने पर भी ऐसे वृक्षों के समान है कि जिन पर साँप रहते हैं।

मुनीश्वरों! आपका स्वागत है। आप लोग तो बाल्यावस्था से ही मुमुक्षुओं के मार्ग का अनुसरण करते हुए एकाग्रचित्त से ब्रह्मचर्यादि महान् व्रतों का बड़ी श्रद्धापूर्वक आचरण कर रहे हैं। स्वामियों! हम लोग अपने कर्मों के वशीभूत होकर विपत्तियों के क्षेत्ररूप इस संसार में पड़े हुए केवल इन्द्रियसम्बन्धी भोगों को ही परम पुरुषार्थ मान रहे हैं; सो क्या हमारे निस्तार का भी कोई उपाय है। आप लोगों से कुशल प्रश्न करना उचित नहीं है, क्योंकि आप निरन्तर आत्मा में रमण करते हैं। आपमें यह कुशल है और यह अकुशल है- इस प्रकार की वृत्तियाँ कभी होती ही नहीं। आप संसारानल से सन्तप्त जीवों के परम सुहृद् हैं, इसलिये आपमें विश्वास करके मैं यह पूछना चाहता हूँ कि इस संसार में मनुष्य का किस प्रकार सुगमता से कल्याण हो सकता है? यह निश्चय है कि जो आत्मवान् (धीर) पुरुषों में ‘आत्मा’ रूप से प्रकाशित होते हैं और उपासकों के हृदय में अपने स्वरूप को प्रकट करने वाले हैं, वे अजन्मा भगवान् नारायण ही अपने भक्तों पर कृपा करने के लिये आप-जैसे सिद्ध पुरुषों के रूप में इस पृथ्वी पर विचरा करते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- राजा पृथु के ये युक्तियुक्त, गम्भीर, परिमित और मधुर वचन सुनकर श्रीसनत्कुमार जी बड़े प्रसन्न हुए और कुछ मुसकराते हुए कहने लगे।

श्रीसनत्कुमार जी ने कहा ;- महाराज! आपने सब कुछ जानते हुए भी समस्त प्राणियों के कल्याण की दृष्टि से बड़ी अच्छी बात पूछी है। सच है, साधुपुरुषों की बुद्धि ऐसी ही हुआ करती है। सत्पुरुषों का समागम श्रोता और वक्ता दोनों का ही अभिमत होता है, क्योंकि उसके प्रश्नोत्तर सभी का कल्याण करते हैं।

राजन्! श्रीमधुसूदन भगवान् के चरणकमलों के गुणानुवाद में अवश्य ही आपकी अविचल प्रीति है। हर किसी को इसका प्राप्त होना बहुत कठिन है और प्राप्त हो जाने पर यह हृदय के भीतर रहने वाले उस वासनारूप मल को सर्वथा नष्ट कर देती है, जो और किसी उपाय से जल्दी नहीं छुटता। शास्त्र जीवों के कल्याण के लिये भलीभाँति विचार करने वाले हैं; उनमें आत्मा से भिन्न देहादि के प्रति वैराग्य तथा अपने आत्मस्वरूप निर्गुण ब्रह्म में सुदृढ़ अनुराग होना- यही कल्याण का साधन निश्चित किया गया है। शास्त्रों का यह भी कहना है कि गुरु और शास्त्रों के वचनों में विश्वास रखने से, भागवत धर्मों का आचरण करने से, तत्त्वजिज्ञासा से, ज्ञानयोग की निष्ठा से, योगेश्वर श्रीहरि की उपासना से, नित्यप्रति पुण्यकीर्ति श्रीभगवान् की पावन कथाओं को सुनने से, जो लोग धन और इन्द्रियों के भोगों में ही रत हैं उनकी गोष्ठी में प्रेम न रखने से, उन्हें प्रिय लगने वाले पदार्थों का आसक्तिपूर्वक संग्रह न करने से, भगवद्पुराणमृत का पान करने के सिवा अन्य समय आत्मा में ही सन्तुष्ट रहते हुए एकान्तसेवन में प्रेम रखने से, किसी भी जीव को कष्ट न देने से, निवृत्तिनिष्ठा से, आत्महित का अनुसन्धान करते रहने से, श्रीहरि के पवित्र चरित्ररूप श्रेष्ठ अमृत का आस्वादन करने से, निष्कामभाव से यम-नियमों का पालन करने से, कभी किसी की निन्दा न करने से, योगक्षेम के लिये प्रयत्न न करने से, शीतोष्णदि द्वन्दों को सहन करने से, भक्तजनों के कानों को सुख देने वाले श्रीहरि के गुणों का बार-बार वर्णन करने से और बढ़ते हुए भक्तिभाव से मनुष्य का कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण जड़ प्रपंच से वैराग्य हो जाता है और आत्मस्वरूप निर्गुण परब्रह्म में अनायास ही उसकी प्रीति हो जाती है।

परब्रह्म में सुदृढ़ प्रीति हो जाने पर पुरुष सद्गुरु की शरण लेता है; फिर ज्ञान और वैराग्य के प्रबल वेग के कारण वासनाशून्य हुए अपने अविद्यादि पाँच प्रकार के क्लेशों से युक्त अहंकारात्मक अपने लिंग शरीर को वह उसी प्रकार भस्म कर देता है, जैसे अग्नि लकड़ी से प्रकट होकर फिर उसी को जला डालती है। इस प्रकार लिंग देह का नाश हो जाने पर वह उसके कर्तृत्वादि सभी गुणों से मुक्त हो जाता है। फिर तो जैसे स्वप्नावस्था में तरह-तरह के पदार्थ देखने पर भी उससे जग पड़ने पर उनमें से कोई चीज दिखायी नहीं देती, उसी प्रकार वह पुरुष शरीर के बाहर दिखायी देने वाले घट-पटादि और भीतर अनुभव होने वाले सुख-दुःखादि को भी नहीं देखता। इस स्थिति के प्राप्त होने से पहले ये पदार्थ ही जीवात्मा और परमात्मा के बीच में रहकर उनका भेद कर रहे थे। जब तक अन्तःकरणरूप उपाधि रहती है, तभी तक पुरुष को जीवात्मा, इन्द्रियों के विषय और इन दोनों का सम्बन्ध कराने वाले अहंकार का अनुभव होता है; इसके बाद नहीं।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 29-41 का हिन्दी अनुवाद)

बाह्य जगत् में भी देखा जाता है कि जल, दर्पण आदि निमित्तों के रहने पर ही अपने बिम्ब और प्रतिबिम्ब का भेद दिखायी देता है, अन्य समय नहीं। जो लोग विषयचिन्तन में लगे रहते हैं, उनकी इन्द्रियाँ विषयों में फँस जाती हैं तथा मन को भी उन्हीं की ओर खींच ले जाती हैं। फिर तो जैसे जलाशय के तीर पर उगे हुए कुशादि अपनी जड़ों से उसका जल खींचते रहते हैं, उसी प्रकार वह इन्द्रियासक्त मन बुद्धि की विचारशक्ति को क्रमशः हर लेता है। विचारशक्ति के नष्ट हो जाने पर पूर्वापर की स्मृति जाती रहती है और स्मृति का नाश हो जाने पर ज्ञान नहीं रहता। इस ज्ञान के नाश को ही पण्डितजन ‘अपने-आप अपना नाश करना’ कहते हैं। जिसके उद्देश्य से अन्य सब पदार्थों में प्रियता का बोध होता है- उस आत्मा का अपने द्वारा ही नाश होने से जो स्वार्थ हानि होती है, उससे बढ़कर लोक में जीव की और कोई हानि नहीं है।

धन और इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करना मनुष्य के सभी पुरुषार्थों का नाश करने वाला हैं; क्योंकि इनकी चिन्ता से वह ज्ञान और विज्ञान से भ्रष्ट होकर वृक्षादि स्थावर योनियों में जन्म पता है। इसलिये जिसे अज्ञानान्धकार से पार होने की इच्छा हो, उस पुरुष को विषयों में आसक्ति कभी नहीं करनी चाहिये; क्योंकि यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्रप्ति में बड़ी बाधक है। इन चार पुरुषार्थों में भी सबसे श्रेष्ठ मोक्ष ही माना जाता है; क्योंकि अन्य तीन पुरुषार्थों में सर्वदा काल का भय लगा रहता है। प्रकृति में गुणक्षोभ होने के बाद जितने भी उत्तम और अधम भाव- पदार्थ प्रकट हुए हैं, उनमें कुशल से रह सके ऐसा कोई भी नहीं है। काल भगवान् उन सभी के कुशालों को कुचलते रहते हैं।

अतः राजन्! जो भगवान् देह, इन्द्रिय, प्राण, बुद्धि और अहंकार से आवृत्त सभी स्थावर-जंगम प्राणियों के हृदयों में जीव के नियामक अन्तर्यामी आत्मारूप से सर्वत्र साक्षात् प्रकाशित हो रहे हैं- उन्हें तुम ‘वह मैं ही हूँ’ ऐसा जानो। जिस प्रकार माला का ज्ञान हो जाने पर उसमें सर्पबुद्धि नहीं रहती, उसी प्रकार विवेक होने पर जिसका कहीं पता नहीं लगता, ऐसा यह मायामय प्रपंच जिसमें कार्य-कारणरूप से प्रतीत हो रहा है और जो स्वयं कर्मफल कलुषित प्रकृति से परे है, उस नित्यमुक्त, निर्मल और ज्ञानस्वरूप परमात्मा को मैं प्राप्त हो रहा हूँ। संत-महात्मा जिनके चरणकमलों के अंगुलिदल हृदयग्रन्थि को, जो कर्मों से गठित है, इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर डालते हैं कि समस्त इन्द्रियों का प्रत्याहार करके अपने अन्तःकरण को निर्विषय करने वाले संन्यासी भी वैसा नहीं कर पाते। तुम उन सर्वाश्रय भगवान् वासुदेव का भजन करो। जो लोग मन और इन्द्रियरूप मगरों से भरे हुए इस संसार सागर को योगादि दुष्कर साधनों से पार करना चाहते हैं, उनका उस पार पहुँचना कठिन ही है; क्योंकि उन्हें कर्णधाररूप श्रीहरि का आश्रय नहीं है। अतः तुम तो भगवान् के आराधनीय चरणकमलों को नौका बनाकर अनायास ही इस दुस्तर समुद्र को पार कर लो।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! ब्रह्मा जी के पुत्र आत्मज्ञानी सनत्कुमार जी से इस प्रकार आत्मतत्त्व का उपदेश पाकर महाराज पृथु ने उनकी बहुत प्रशंसा करते हुए कहा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 42-63 का हिन्दी अनुवाद)

राजा पृथु ने कहा ;- भगवन्! दीनदयाल श्रीहरि ने मुझ पर पहले कृपा की थी, उसी को पूर्ण करने के लिये आप लोग पधारे हैं। आप लोग बड़े ही दयालु हैं। जिस कार्य के लिये आप लोग पधारे थे, उसे आप लोगों ने अच्छी तरह सम्पन्न कर दिया। अब, इसके बदले में मैं आप लोगों को क्या दूँ ? मेरे पास तो शरीर और इसके साथ जो कुछ है, वह सब महापुरुषों का ही प्रसाद है।

ब्रह्मन्! प्राण, स्त्री, पुत्र सब प्रकार की सामग्रियों से भरा हुआ भवन, राज्य, सेना, पृथ्वी और कोश- यह सब कुछ आप ही लोगों का है, अतः आपके ही श्रीचरणों में अर्पित है। वास्तव में तो सेनापतित्व, राज्य, दण्डविधान और सम्पूर्ण लोकों के शासन का अधिकार वेद-शास्त्रों के ज्ञाता ब्राह्मणों को ही है। ब्राह्मण अपना ही खाता है, अपना ही पहनता है और अपनी ही वस्तु दान देता है। दूसरे- क्षत्रिय आदि तो उसी की कृपा से अन्न खाने को पाते हैं। आप लोग वेद के पारगामी हैं, आपने अध्यात्मतत्त्व का विचार करके हमें निश्चित रूप से समझा दिया है कि भगवान् के प्रति इस प्रकार की अभेद-शक्ति ही उनकी उपलब्धि का प्रधान साधन है। आप लोग परम कृपालु हैं। अतः अपने इस दीनोद्धाररूप कर्म से ही सर्वदा सन्तुष्ट रहें। आपके इस उपकार का बदला कोई क्या दे सकता है? उसके लिये प्रयत्न करना भी अपनी हँसी कराना ही है।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! फिर आदिराज पृथु ने आत्मज्ञानियों में श्रेष्ठ सनकादि की पूजा की और वे उनके शील ही प्रशंसा करते हुए सब लोगों के सामने ही आकाशमार्ग से चले गये। महात्माओं में अग्रगण्य महाराज पृथु उनके आत्मोपदेश पाकर चित्त की एकाग्रता से आत्मा में ही स्थित रहने के कारण अपने को कृतकृत्य-सा अनुभव करने लगे। वे ब्रह्मार्पण-बुद्धि से समय, स्थान, शक्ति, न्याय और धन के अनुसार सभी कर्म करते थे। इस प्रकार एकाग्रचित्त से समस्त कर्मों का फल परमात्मा को अर्पण करके आत्मा को कर्मों का साक्षी एवं प्रकृति से अतीत देखने के कारण वे सर्वथा निर्लिप्त रहे। जिस प्रकार सूर्यदेव सर्वत्र प्रकाश करने पर भी वस्तुओं के गुण-दोष से निर्लेप रहते हैं, उसी प्रकार सार्वभौम साम्राज्य लक्ष्मी से सम्पन्न और गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी अहंकारशून्य होने के कारण वे इन्द्रियों के विषयों में आसक्त नहीं हुए।

इस प्रकार आत्मनिष्ठा में स्थित होकर सभी कर्तव्यकर्मों का यथोचित रीति से अनुष्ठान करते हुए उन्होंने अपनी भार्या अर्चि के गर्भ से अपने अनुरूप पाँच पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम विजिताश्व, धूम्रकेश, हर्यक्ष, द्रविण और वृक थे। महाराज पृथु भगवान् के अंश थे। वे समय-समय पर, जब-जब आवश्यक होता था, जगत् के प्राणियों की रक्षा के लिये अकेले ही समस्त लोकपालों के गुण धारण कर लिया करते थे। अपने उदार मन, प्रिय और हितकर वचन, मनोहर मूर्ति और सौम्य गुणों के द्वारा प्रजा का रंजन करते रहने से दूसरे चन्द्रमा के समान उनका ‘राजा’ यह नाम सार्थक हुआ। सूर्य जिस प्रकार गरमी में पृथ्वी का जल खींचकर वर्षाकाल में उसे पुनः पृथ्वी पर बरसा देता है तथा अपनी किरणों से सबको ताप पहुँचाता है, उसी प्रकार वे कररूप से प्रजा का धन लेकर उसे दुष्कालादि के समय मुक्तहस्त से प्रजा के हित में लगा देते थे तथा सब पर अपना प्रभाव जमाये रखते थे। वे तेज में अग्नि के समान दुर्धर्ष, इन्द्र के समान अजेय, पृथ्वी के समान क्षमाशील और स्वर्ग के समान मनुष्यों की समस्त कामनाएँ पूर्ण करने वाले थे। समय-समय पर प्रजाजनों को तृप्त करने के लिये वे मेघ के समान उनके अभीष्ट अर्थों को खुले हाथ से लुटाते रहते थे। वे समुद्र के समान गम्भीर और पर्वतराज सुमेरु के समान धैर्यवान् भी थे।

महाराज पृथु दुष्टों का दमन करने में यमराज के समान, आश्चर्यपूर्ण वस्तुओं के संग्रह में हिमालय के समान, कोश की समृद्धि करने में कुबेर के समान और धन को छिपाने में वरुण के समान थे। शारीरिक बल, इन्द्रियों की पटुता तथा पराक्रम में सर्वत्र गतिशील वायु के समान और तेज की असह्ता में भगवान् शंकर के समान थे। सौन्दर्य में कामदेव के समान, उत्साह में सिंह के समान, वात्सल्य में मनु के समान और मनुष्यों के आधिपत्य में सर्वसमर्थ ब्रह्मा जी के समान थे। ब्रह्मविचार में बृहस्पति, इन्द्रियजय में साक्षात् श्रीहरि तथा गौ, ब्राह्मण, गुरुजन एवं भगवद्भक्तों की भक्ति, लज्जा, विनय, शील एवं परोपकार आदि गुणों में अपने ही समान (अनुपम) थे। लोग त्रिलोकी में सर्वत्र उच्च स्वर से उनकी कीर्ति का गान करते थे, इससे वे स्त्रियों तक के कानों में वैसे ही प्रवेश पाये हुए थे, जैसे सत्पुरुषों के हृदय में श्रीराम।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【त्रयोविंश अध्याय:】२३.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा पृथु की तपस्या और परलोक गमन"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- इस प्रकार महामनस्वी प्रजापति पृथु ने स्वयमेव अन्नादि तथा पुर-ग्रामदि सर्ग की व्यवस्था करके स्थावर-जगम सभी की आजीविका का सुभीता कर दिया तथा साधुजनोचित धर्मों का खूब पालन किया। ‘मेरी अवस्था कुछ ढल गयी है और जिसके लिये मैंने इस लोक में जन्म लिया था, उस प्रजा रक्षणरूप ईश्वराज्ञा का पालन भी हो चुका है; अतः अब मुझे अन्तिम पुरुषार्थ- मोक्ष के लिये प्रयत्न करना चाहिये’ यह सोचकर उन्होंने अपने विरह में रोती हुई अपनी पुत्रीरूपा पृथ्वी का भार पुत्रों को सौंप दिया और सारी प्रजा को बिलखती छोड़कर वे अपनी पत्नीसहित अकेले ही तपोवन को चल दिये। वहाँ भी वे वानप्रस्थ आश्रम के नियमानुसार उसी प्रकार कठोर तपस्या में लग गये, जैसे पहले गृहस्थाश्रम में अखण्ड व्रतपूर्वक पृथ्वी को विजय करने में लगे थे।

कुछ दिन तो उन्होंने कन्द-मूल-फल खाकर बिताये, कुछ काल सूखे पत्ते खाकर रहे, फिर कुछ पखवाड़ों तक जल पर ही रहे और इसके बाद केवल वायु से ही निर्वाह करने लगे। वीरवर पृथु मुनिवृत्ति से रहते थे। गर्मियों में उन्होंने पंचाग्नियों का सेवन किया, वर्षा ऋतु में खुले मैदान में रहकर अपने शरीर पर जल की धाराएँ सहीं और जाड़े में गले तक जल में खड़े रहे। वे प्रतिदिन मिट्टी की वेदी पर ही शयन करते थे। उन्होंने शीतोष्णदि सब प्रकार के द्वन्दों को सहा तथा वाणी और मन का संयम करके ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए प्राणों को अपने अधीन किया। इस प्रकार श्रीकृष्ण की आराधना करने के लिये उन्होंने उत्तम तप किया। इस क्रम से उनकी तपस्या बहुत पुष्ट हो गयी और उसके प्रभाव से कर्ममल नष्ट हो जाने के कारण उनका चित्त सर्वथा शुद्ध हो गया। प्राणायाम के द्वारा मन और इन्द्रियों के निरुद्ध हो जाने से उनका वासनाजनित बन्धन गया। तब, भगवान् सनत्कुमार ने उन्हें जिस परमोत्कृष्ट अध्यात्मयोग की शिक्षा दी थी, उसी के अनुसार राजा पृथु पुरुषोत्तम श्रीहरि की आराधना करने लगे। इस तरह भगवत्परायण होकर श्रद्धापूर्वक सदाचार का पालन करते हुए निरन्तर साधन करने से परब्रह्म परमात्मा में उनकी अनन्यभक्ति हो गयी।

इस प्रकार भगवदुपासना से अन्तःकरण शुद्ध-सात्त्विक हो जाने पर निरन्तर भगवच्चितन के प्रभाव के प्रभाव से प्राप्त हुई इस अनन्य भक्ति से उन्हें वैराग्यसहित प्राप्त हुई और फिर उस तीव्र ज्ञान के द्वारा उन्होंने जीव के उपाधिभूत अहंकार को नष्ट कर दिया, जो सब प्रकार के संशय-विपर्यय का आश्रय है। इसके पश्चात् देहात्मबुद्धि की निवृत्ति और परमात्मस्वरूप श्रीकृष्ण की अनुभूति होने पर अन्य सब प्रकार की सिद्धि आदि से भी उदासीन हो जाने के कारण उन्होंने उस तत्त्वज्ञान के लिये भी प्रयत्न करना छोड़ दिया, जिसकी सहायता से पहले अपने जीवकोश का नाश किया था, क्योंकि जब तक साधन को योगमार्ग के द्वारा श्रीकृष्ण-कथामृत में अनुराग नहीं होता, तब तक केवल योगसाधना से उसका मोहजनित प्रमाद दूर नहीं होता- भ्रम नहीं मिटता। फिर जब अन्तकाल उपस्थित हुआ तो वीरवर पृथु ने अपने चित्त को दृढ़तापूर्वक परमात्मा में स्थिर कर ब्रह्मभाव में स्थित हो अपना शरीर त्याग दिया। उन्होंने एड़ी से गुदा के द्वार को रोककर प्राणवायु को धीरे-धीरे मूलाधार से ऊपर की ओर उठाते हुए उसे क्रमशः नाभि, हृदय, वक्षःस्थल, कण्ठ और मस्तक में स्थित किया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद)

फिर उसे और ऊपर की ओर ले जाते हुए क्रमशः ब्रह्मरन्ध्र में स्थिर किया। अब उन्हें किसी प्रकार के सांसारिक भोगों की लालसा नहीं रही। फिर यथास्थान विभाग करके प्राणवायु को समष्टि वायु में, पार्थिव शरीर को पृथ्वी में और शरीर के तेज को समष्टि तेज में लीन कर दिया। हृदयाकाशादि देहावच्छिन्न आकाश को महाकाश में और शरीरगत रुधिरादि जलीय अंश को समष्टि जल में लीन किया। इसी प्रकार फिर पृथ्वी को जल में, जल को तेज में, तेज को वायु में और वायु को आकाश में लीन किया। तदनन्तर मन को [सविकल्प ज्ञान में जिनके अधीन वह रहता है, उन] इन्द्रियों में, इन्द्रियों को उनके कारणरूप तन्मात्राओं में और सूक्ष्मभूतों (तन्मात्राओं) के कारण अहंकार के द्वारा आकाश, इन्द्रिय और तन्मात्राओं को उसी अहंकार में लीन कर, अहंकार को महत्ततत्त्व में लीन किया। फिर सम्पूर्ण गुणों की अभिव्यक्ति करने वाले उस महत्तत्त्व को मायोपाधिक जीव में स्थित किया। तदनन्तर उस मायारूप जीव की उपाधि को भी उन्होंने ज्ञान और वैराग्य के प्रभाव से अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूप में स्थित होकर त्याग दिया।

महाराज पृथु की पत्नी महारानी अर्चि भी उनके साथ वन को गयी थीं। वे बड़ी सुकुमारी थीं, पैरों से भूमि का स्पर्श करने योग्य भी नहीं थीं। फिर भी उन्होंने अपने स्वामी के व्रत और नियमादि का पालन करते हुए उनकी खूब सेवा की और मुनिवृत्ति के अनुसार कन्द-मूल आदि से निर्वाह किया। इससे यद्यपि वे बहुत दुर्बल हो गयी थीं, तो भी प्रियतम के करस्पर्श से सम्मानित होकर उसी में आनन्द मानने के कारण उन्हें किसी प्रकार कष्ट नहीं होता था।

अब पृथ्वी के स्वामी और अपने प्रियतम महाराज पृथु कि देह को जीवन के चेतना आदि सभी धर्मों से रहित देख उस सती ने कुछ देर विलाप किया। फिर पर्वत के ऊपर चिता बनाकर उसे उस चिता पर रख दिया। इसके बाद उस समय के सारे कृत्य कर नदी के जल में स्नान किया। अपने परम पराक्रमी पति को जलांजलि दे आकाशस्थित देवताओं की वन्दना की तथा तीन बार चिता की परिक्रमा कर पतिदेव के चरणों का ध्यान करती हुई अग्नि में प्रवेश कर गयी। परमसाध्वी अर्चि को इस प्रकार अपने पति वीरवर पृथु का अनुगमन करते देख सहस्रों वरदायिनी देवियों ने अपने-अपने पतियों के साथ उनकी स्तुति की। वहाँ देवताओं के बाजे बजने लगे। उस समय उस मन्दराचल के शिखर पर वे देवांगनाएँ पुष्पों की वर्षा करती हुई आपस में इस प्रकार कहने लगीं।
देवियों ने कहा ;- अहो! यह स्त्री धन्य है! इसने अपने पति राजराजेश्वर पृथु की मन-वाणी-शरीर से ठीक उसी प्रकार सेवा की है, जैसे श्रीलक्ष्मी जी यज्ञेश्वर भगवान् विष्णु की करती हैं। अवश्य ही अपने अचिन्त्य कर्म के प्रभाव से यह सती हमें भी लाँघकर अपने पति के साथ उच्चतर लोकों को जा रही है। इस लोक में कुछ ही दिनों का जीवन होने पर भी जो लोग भगवान् के परमपद की प्राप्ति कराने वाला आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, उनके लिये संसार में कौन पदार्थ है। अतः जो पुरुष बड़ी कठिनता से भूलोक में मोक्ष का साधनस्वरूप मनुष्य-शरीर पाकर भी विषयों में आसक्त रहता है, वह निश्चय ही आत्मघाती है; हाय! हाय! वह ठगा गया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 29-39 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! जिस समय देवांगनाएँ इस प्रकार स्तुति कर रही थीं, भगवान् के जिस परमधाम को आत्मज्ञानियों में श्रेष्ठ भगवत्प्राण महाराज पृथु गये, महारानी अर्चि भी उसी पतिलोक को गयीं। परम भागवत पृथु जी ऐसे ही प्रभावशाली थे। उनके चरित बड़े उदार हैं, मैंने तुम्हारे सामने उनका वर्णन किया।

जो पुरुष इस परम पवित्र चरित्र को श्रद्धापूर्वक (निष्काम भाव से) एकाग्रचित्त से पढ़ता, सुनता अथवा सुनाता है-वह भी महाराज पृथु के पद-भगवान् के परमधाम को प्राप्त होता है। इसका सकाम भाव से पाठ करने से ब्राह्मण ब्रह्मतेज प्राप्त करता है, क्षत्रिय पृथ्वीपति हो जाता है, वैश्य व्यापारियों में प्रधान हो जाता है और शूद्र में साधुता आ जाती है। स्त्री हो अथवा पुरुष-जो कोई उसे आदरपूर्वक तीन बार सुनता है, वह सन्तानहीन हो तो पुत्रवान्, धनहीन हो तो महाधनी, कीर्तिहीन हो तो यशस्वी और मूर्ख हो तो पण्डित हो जाता है। यह चरित मनुष्यमात्र का कल्याण करने वाला और अमंगल को दूर करने वाला है।

यह धन, यश और आयु की वृद्धि करने वाला, स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला और कलियुग के दोषों का नाश करने वाला है। यह धर्मादि चतुर्वर्ग की प्राप्ति में भी बड़ा सहायक है; इसलिये जो लोग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को भलीभाँति सिद्ध करना चाहते हों, उन्हें इसका श्रद्धापूर्वक श्रवण करना चाहिये। जो राजा विजय के लिये प्रस्थान करते समय इसे सुनकर जाता है, उसके आगे आ-आकर राजा लोग उसी प्रकार भेंटें रखते हैं, जैसे पृथु के सामने रखते थे। मनुष्य को चाहिये कि अन्य सब प्रकार कि आसक्ति छोड़कर भगवान् में विशुद्ध निष्काम भक्ति-भाव रखते हुए महाराज पृथु के इस निर्मल चरित को सुने, सुनावे और पढ़े।

विदुर जी! मैंने भगवान् के माहात्म्य को प्रकट करने वाला यह पवित्र चरित्र तुम्हें सुना दिया। इसमें प्रेम करने वाला पुरुष महाराज पृथु की-सी गति पाता है। जो पुरुष इस पृथु-चरित का प्रतिदिन आदरपूर्वक निष्काम भाव से श्रवण और कीर्तन करता है; उसका जिनके चरण संसार सागर को पार करने के लिये नौका के समान हैं, उन श्रीहरि में सुदृढ़ अनुराग हो जाता है।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【चतुर्विंश अध्याय:】२४.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"पृथु की वंश परम्परा और प्रचेताओं को भगवान् रुद्र का उपदेश"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! महाराज पृथु के बाद उनके पुत्र परमयशस्वी विजिताश्व राजा हुए। उनका अपने छोटे भाइयों पर बड़ा स्नेह था, इसलिये उन्होंने चारों को एक-एक दिशा का अधिकार सौंप दिया। राजा विजिताश्व ने हर्यक्ष को पूर्व, धूम्रकेश को दक्षिण, वृक को पश्चिम और द्रविण को उत्तर दिशा का राज्य दिया। उन्होंने इन्द्र से अन्तर्धान होने की शक्ति प्राप्त की थी, इसलिये उन्हें ‘अन्तर्धान’ भी कहते थे। उनकी पत्नी का नाम शिखण्डिनी था। उससे उनके तीन सुपुत्र हुए। उनके नाम पावक, पवमान और शुचि थे।

पूर्वकाल में वसिष्ठ जी का शाप होने से उपर्युक्त नाम के अग्नियों ने ही उनके रूप में जन्म लिया था। आगे चलकर योगमार्ग से ये फिर अग्निरूप हो गये। अन्तर्धान के नभस्वती नाम की पत्नी से एक और पुत्र-रत्न हविर्धान प्राप्त हुआ। महाराज अन्तर्धान बड़े उदार पुरुष थे। जिस समय इन्द्र उनके पिता के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा हरकर ले गये थे, उन्होंने पता लग जाने पर भी उनका वध नहीं किया था। राजा अन्तर्धान ने कर लेना, दण्ड देना, जुरमाना वसूल करना आदि कर्तव्यों को बहुत कठोर एवं दूसरों के लये कष्टदायक समझकर एक दीर्घकालीन यज्ञ में दीक्षित होने के बहाने अपना राज-काज छोड़ दिया। यज्ञकार्य में लगे रहने पर भी उन आत्मज्ञानी राजा ने भक्त भयंजन पूर्णतम परमात्मा की आराधना करके सुदृढ़ समाधि के द्वारा भगवान् के दिव्य लोक को प्राप्त किया।

विदुर जी! हविर्धान की पत्नी हविर्धानी ने बर्हिषद्, गय, शुक्ल, कृष्ण, सत्य और जितव्रत नाम के छः पुत्र पैदा किये। कुरुश्रेष्ठ विदुर जी! इनमें हविर्धान के पुत्र महाभाग बर्हिषद् यज्ञादि कर्मकाण्ड और योगाभ्यास में कुशल थे। उन्होंने प्रजापति का पद प्राप्त किया। उन्होंने एक स्थान के बाद दूसरे स्थान में लगातार इतने यज्ञ किये कि यह सारी भूमि पूर्व की ओर अग्रभाग करके फैलाये हुए कुशों से पट गयी थी (इसी से आगे चलकर वे ‘प्राचीनबर्हि’ नाम से विख्यात हुए)।

राजा प्राचीनबर्हि ने ब्रह्मा जी के कहने से समुद्र की कन्या शतद्रुति से विवाह किया था। सर्वांगसुन्दरी किशोरी शतद्रुति सुन्दर वस्त्राभूषणों से सज-धजकर विवाह-मण्डप में जब भाँवर देने के लिये घूमने लगी, तब स्वयं अग्निदेव भी मोहित होकर उसे वैसे ही चाहने लगे जैसे शुकी को चाहा था। नवविवाहिता शतद्रुति ने अपने नूपुरों की झनकार से ही दिशा-विदिशाओं के देवता, असुर, गन्धर्व, मुनि, सिद्ध, मनुष्य और नाग-सभी को वश में कर लिया था। शतद्रुति के गर्भ से प्राचीनबर्हि के प्रचेता नाम के दस पुत्र हुए। वे सब बड़े ही धर्मज्ञ तथा एक-से नाम और आचरण वाले थे। जब पिता ने उन्हें सन्तान उत्पन्न करने का आदेश दिया, तब उन सब ने तपस्या करने के लिये समुद्र में प्रवेश किया। वहाँ दस हजार वर्ष तक तपस्या करते हुए उन्होंने तप का फल देने वाले श्रीहरि की आराधना की। घर से तपस्या करने के लिये जाते समय मार्ग में श्रीमहादेव जी ने उन्हें दर्शन देकर कृपापूर्वक इस जिस तत्त्व का उपदेश दिया था, उसी का वे एकाग्रतापूर्वक ध्यान, जप और पूजन करते रहे।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद)

विदुर जी ने पूछा ;- ब्रह्मन्! मार्ग में प्रचेताओं का श्रीमहादेव जी के साथ किस प्रकार समागम हुआ और उन पर प्रसन्न होकर भगवान् शंकर ने उन्हें क्या उपदेश किया, वह सारयुक्त बात आप कृपा करके मुझसे कहिये। ब्रह्मर्षे! शिव जी के साथ समागम होना तो देहधारियों के लिय बहुत कठिन है। औरों की तो बात ही क्या है-मुनिजन भी सब प्रकार की आसक्ति छोड़कर उन्हें पाने के लिये उनका निरन्तर ध्यान ही किया करते हैं, किन्तु सहज में पाते नहीं। यद्यपि भगवान् शंकर आत्माराम हैं, उन्हें अपने लिये न कुछ करना है, न पाना, तो भी इस लोकसृष्टि की रक्षा के लिये वे अपनी घोररूपा शक्ति (शिवा) के साथ सर्वत्र विचरते रहते हैं।

श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;- विदुर जी! साधुस्वभाव प्रचेतागण पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर तपस्या में चित्त लगा पश्चिम की ओर चल दिये। चलते-चलते उन्होंने समुद्र के समान विशाल एक सरोवर देखा। वह महापुरुषों के चित्त के समान बड़ा ही स्वच्छ था तथा उसमें रहने वाले मत्स्यादि जलजीव भी प्रसन्न जान पड़ते थे। उसमें नीलकमल, लालकमल, रात में, दिन में और सायंकाल में खिलने वाले कमल तथा इन्दीवर आदि अन्य कई प्रकार के कमल सुशोभित थे। उसके तटों पर हंस, सारस, चकवा और कारण्डव आदि जलपक्षी चहक रहे थे। उसके चारों ओर तरह-तरह के वृक्ष और लताएँ थीं, उन पर मतवाले भौंरे गूँज रहे थे। उसकी मधुर ध्वनि से हर्षित होकर मानो उन्हें रोमांच हो रहा था। कमलकोश के परागपुंज वायु के झरोकों से चारों ओर उड़ रहे थे। मानो वहाँ कोई उत्सव हो रहा है। वहाँ मृदंग, पणव आदि बाजों के साथ अनेकों दिव्य राग-रागिनियों के क्रम से गायन की मधुर ध्वनि सुनकर उन राजकुमारों को बड़ा आश्चर्य हुआ। इतने में ही उन्होंने देखा कि देवाधिदेव भगवान् शंकर अपने अनुचरों के सहित उस सरोवर से बाहर आ रहे हैं। उनका शरीर तपी हुई सुवर्णराशि के समान कान्तिमान् है, कण्ठ नीलवर्ण है तथा तीन विशाल नेत्र हैं। वे अपने भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये उद्यत हैं। अनेकों गन्धर्व उनका सुयश गा रहे हैं। उनका सहसा दर्शन पाकर प्रचेताओं को बड़ा कुतूहल हुआ और उन्होंने शंकर जी के चरणों में प्रणाम किया। तब शरणागत भयहारी धर्मवत्सल भगवान् शंकर ने अपने दर्शन से प्रसन्न हुए उन धर्मज्ञ और शीलसम्पन्न राजकुमारों से प्रसन्न होकर कहा।

श्रीमहादेव जी बोले ;- तुम लोग राजा प्राचीनबर्हि के पुत्र हो, तुम्हारा कल्याण हो। तुम जो कुछ करना चाहते हो, वह भी मुझे मालूम है। इस समय तुम लोगों पर कृपा करने के लिये ही मैंने तुम्हें इस प्रकार दर्शन दिया है। जो व्यक्ति अव्यक्त प्रकृति तथा जीवसंज्ञकपुरुष-इन दोनों के नियामक भगवान् वासुदेव की साक्षात् शरण लेता है, वह मुझे परम प्रिय है। अपने वर्णाश्रम धर्म का भलीभाँति पालन करने वाला पुरुष सौ जन्म के बाद ब्रह्मा के पद को प्राप्त होता है और इससे भी अधिक पुण्य होने पर वह मुझे प्राप्त होता है। परन्तु जो भगवान् का अनन्य भक्त है, वह तो मृत्यु के बाद ही सीधे भगवान् विष्णु के उस सर्वप्रपंचातीत परमपद को प्राप्त हो जाता है, जिसे रुद्ररूप में स्थित मैं तथा अन्य आधिकारिक देवता अपने-अपने अधिकार की समाप्ति के बाद प्राप्त करेंगे। तुम लोग भगवद्भक्त होने के नाते मुझे भगवान् के समान ही प्यारे हो। इसी प्रकार भगवान् के भक्तों को भी मुझसे बढ़कर और कोई कभी प्रिय नहीं होता। अब मैं तुम्हें एक बड़ा ही पवित्र, मंगलमय और कल्याणकारी स्तोत्र सुनाता हूँ। इसका तुम लोग शुद्धभाव से जप करना।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 32-46 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- तब नारायणपरायण करुणार्द्रहृदय भगवान् शिव ने अपने सामने हाथ जोड़े खड़े हुए उन राजपुत्रों को यह स्तोत्र सुनाया।

भगवान् रुद्र स्तुति करने लगे ;- भगवन्! आपका उत्कर्ष उच्चकोटि के आत्मज्ञानियों के कल्याण के लिये-निजानन्द लाभ के लिये है, उससे मेरा भी कल्याण हो। आप सर्वदा अपने निरतिशय परमानन्दस्वरूप में ही स्थित रहते हैं, ऐसे सर्वात्मक आत्मस्वरूप आपको नमस्कार है। आप पद्मनाभ (समस्त लोकों के आदिकारण) हैं; भूतसूक्ष्म (तन्मात्र) और इन्द्रियों के नियन्ता, शान्त, एकरस और स्वयंप्रकाश वासुदेव (चित्त के अधिष्ठाता) भी आप ही हैं; आपको नमस्कार है। आप ही सूक्ष्म (अव्यक्त), अनन्त और मुखाग्नि के द्वारा सम्पूर्ण लोकों का संहार करने वाले अहंकार के अधिष्ठाता संकर्षण तथा जगत् के प्रकृष्ट ज्ञान के उद्गमस्थान बुद्धि के अधिष्ठाता प्रद्युम्न हैं; आपको नमस्कार है। आप ही इन्द्रियों के स्वामी, मनस्तत्त्व के अधिष्ठाता भगवान् अनिरुद्ध हैं; आपको बार-बार नमस्कार है। आप अपने तेज से जगत् को व्याप्त करने वाले सूर्यदेव हैं, पूर्ण होने के कारण आपमें वृद्धि और क्षय नहीं होता; आपको नमस्कार है।
आप स्वर्ग और मोक्ष के द्वार तथा निरन्तर पवित्र हृदय में रहने वाले हैं, आपको नमस्कार है। आप ही सुवर्णरूप वीर्य से युक्त और चातुर्होत्र कर्म के साधन तथा विस्तार करने वाले अग्निदेव हैं; आपको नमस्कार है। आप पितर और देवताओं के पोषक सोम हैं तथा तीनों वेदों के अधिष्ठाता हैं; हम आपको नमस्कार करते हैं, आप ही समस्त प्राणियों को तृप्त करने वाले सर्वरस (जल) रूप हैं; आपको नमस्कार है। आप समस्त प्राणियों के देह, पृथ्वी और विराट्स्वरूप हैं तथा त्रिलोकी की रक्षा करने वाले मानसिक, एन्द्रियिक और शारीरिक शक्तिस्वरूप वायु (प्राण) हैं; आपको नमस्कार है। आप ही अपने गुण शब्द के द्वारा-समस्त पदार्थों का ज्ञान कराने वाले तथा बाहर-भीतर का भेद करने वाले आकाश हैं तथा आप ही महान् पुण्यों से प्राप्त होने वाले परम तेजोमय स्वर्ग-वैकुण्ठादि लोक हैं; आपको पुनः-पुनः नमस्कार है। आप पितृलोक की प्राप्ति कराने वाले प्रवृत्ति-कर्मरूप और देवलोक की प्राप्ति के साधन निवृत्ति-कर्मरूप हैं तथा आप ही अधर्म के फलस्वरूप दुःखदायक मृत्यु हैं; आपको नमस्कार है।

नाथ! आप ही पुराणपुरुष तथा सांख्य और योग के अधीश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं; आप सब प्रकार की कामनाओं की पूर्ति के कारण, साक्षात् मन्त्रमूर्ति और महान् धर्मस्वरूप हैं; आपकी ज्ञानशक्ति किसी भी प्रकार कुण्ठित होने वाली नहीं है; आपको नमस्कार है, नमस्कार है। आप ही कर्ता, करण और कर्म- तीनों शक्तियों के एकमात्र आश्रय हैं; आप ही अहंकार के अधिष्ठाता रुद्र हैं; आप ही ज्ञान और क्रियास्वरूप हैं तथा आपसे ही परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी-चार प्रकार की वाणी की अभिव्यक्ति होती है; आपको नमस्कार है।

प्रभो! हमें आपके दर्शनों की अभिलाषा है; अतः आपके भक्तजन जिसका पूजन करते हैं और जो आपके निजजनों को अत्यन्त प्रिय है, अपने उस अनूप रूप की आप हमें झाँकी कराइये। आपका वह रूप अपने गुणों से समस्त इन्द्रियों को तृप्त करने वाला है। वह वर्षाकालीन मेघ के समान स्निग्ध श्याम और सम्पूर्ण सौन्दर्यों का सार-सर्वस्व है। सुन्दर चार विशाल भुजाएँ, महामनोहर मुखारविन्द, कमलदल के समान नेत्र, सुन्दर भौंहें, सुघड़ नासिका, मनमोहिनी दन्तपंक्ति, अमोल कपोलयुक्त मनोहर मुखमण्डल और शोभावाली समान कर्ण-युगल हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 47-59 का हिन्दी अनुवाद)

प्रीतिपूर्ण उन्मुक्त हास्य, तिरछी चितवन, काली-काली घुँघराली अलकें, कमलकुसुम की केसर के समान फहराता हुआ पीताम्बर, झिलमिलाते हुए कुण्डल, चमचमाते हुए मुकुट, कंकण, हार, नूपुर और मेखला आदि विचित्र आभूषण तथा शंख, चक्र, गदा, पद्म, वनमाला और कौस्तुभ मणि के कारण उसकी अपूर्व शोभा है। उसके सिंह के समान स्थूल कंधे हैं-जिन पर हार, केयूर एवं कुण्डलादि की कान्ति झिलमिलाती रहती है-तथा कौस्तुभ मणि की कान्ति से सुशोभित मनोहर ग्रीवा है। उसका श्यामल वक्षःस्थल श्रीवत्स-चिह्न के रूप में लक्ष्मी जी का नित्य निवास होने के कारण कसौटी की शोभा को भी मात करता है। उसका त्रिवली से सुशोभित, पीपल के पत्ते के समान सुडौल उदर श्वास के आने-जाने से हिलता हुआ बड़ा ही मनोहर जान पड़ता है। उसमें जो भँवर के समान चक्करदार नाभि है, वह इतनी गहरी है कि उससे उत्पन्न हुआ यह विश्व मानो फिर उसी में लीन होना चाहता है। श्यामवर्ण कटिभाग में पीताम्बर और सुवर्ण की मेखला शोभायमान है। समान और सुन्दर चरण, पिंडली, जाँघ और घुटनों के कारण आपका दिव्य विग्रह बड़ा ही सुघड़ जान पड़ता है।

आपके चरणकमलों की शोभा शरद्-ऋतु के कमल-दल की कान्ति का भी तिरस्कार करती है। उनके नखों से जो प्रकाश निकलता है, वह जीवों के हृदयान्धकार को तत्काल नष्ट कर देता है। हमें आप कृपा करके भक्तों के भयहारी एवं आश्रयस्वरूप उसी रूप का दर्शन कराइये। जगद्गुरो! हम अज्ञानवृत प्राणियों को अपनी प्राप्ति का मार्ग बतलाने वाले आप ही हमारे गुरु हैं।

प्रभो! चित्तशुद्धि की अभिलाषा रखने वाले पुरुष को आपके इस रूप का निरन्तर ध्यान करना चाहिये; इसकी भक्ति ही स्वधर्म का पालन करने वाले पुरुष को अभय करने वाले पुरुष को अभय करने वाली है। स्वर्ग का शासन करने वाला इन्द्र भी आपको ही पाना चाहता है तथा विशुद्ध आत्मज्ञानियों की गति भी आप ही हैं। इस प्रकार आप सभी देहधारियों के लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं; केवल भक्तिमान् पुरुष ही आपको पा सकते हैं। सत्पुरुषों के लिये भी दुर्लभ अनन्य भक्ति से भगवान् को प्रसन्न करके, जिनकी प्रसन्नता किसी अन्य साधना से दुःसाध्य है, ऐसा कौन होगा जो उनके चरणतल के अतिरिक्त और कुछ चाहेगा।
जो काल अपने अदम्य उत्साह और पराक्रम से फड़कती हुए भौह के इशारे से सारे संसार को संहार कर डालता है, वह भी आपके चरणों की शरण में गये हुए प्राणी पर अपना अधिकार नहीं मानता। ऐसे भगवान् के प्रेमी भक्तों का यदि आधे क्षण के लिये भी समागम हो जाये तो उसके सामने मैं स्वर्ग और मोक्ष को कुछ नहीं समझता; फिर मर्त्यलोक के तुच्छ भोगों की तो बात ही क्या है। प्रभो! आपके चरण सम्पूर्ण पापराशि को हर लेने वाले हैं। हम तो केवल यही चाहते हैं कि जिन लोगों ने आपकी कीर्ति और तीर्थ (गंगाजी) में आन्तरिक और बाह्य स्नान करके मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार के पापों को धो डाला है तथा जो जीवों के प्रति दया, राग-द्वेषरहित चित्त तथा सरलता आदि गुणों से युक्त हैं, उन आपके भक्तजनों का संग हमें सदा प्राप्त होता रहे। यही हम पर आपकी बड़ी कृपा होगी। जिस साधक का चित्त भक्तियोग से अनुगृहीत एवं विशुद्ध होकर न तो बाह्य विषयों में भटकता है और न अज्ञान-गुहरूप प्रकृति में ही लीन होता है, वह अनायास ही आपके स्वरूप का दर्शन पा जाता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 60-68 का हिन्दी अनुवाद)

जिसमें यह सारा जगत् दिखायी देता है और जो स्वयं सम्पूर्ण जगत् में भास रहा है, वह आकाश के समान विस्तृत और परम प्रकाशमय ब्रह्मतत्त्व आप ही हैं।

भगवन्! आपकी माया अनेक प्रकार के रूप धारण करती है। इसी के द्वारा आप इस प्रकार जगत् की रचना, पालन और संहार करते हैं जैसे यह कोई सद्वस्तु हो। किन्तु इससे आपमें किसी प्रकार का विकार नहीं आता। माया के कारण दूसरे लोगों में ही भेदबुद्धि उत्पन्न होती है, आप परमात्मा पर वह अपना प्रभाव डालने में असमर्थ होती है। आपको तो हम परम स्वतन्त्र ही समझते हैं। आपका स्वरूप पंचभूत, इन्द्रिय और अन्तःकरण के प्रेरकरूप से उपलक्षित होता है।

जो कर्मयोगी पुरुष सिद्धि प्राप्त करने के लिये तरह-तरह के कर्मों द्वारा आपके इस सगुण साकार स्वरूप का श्रद्धापूर्वक भलीभाँति पूजन करते हैं, वे ही वेद और शास्त्रों के सच्चे मर्मज्ञ हैं। प्रभो! आप ही अद्वितीय आदि पुरुष हैं। सृष्टि के पूर्व आपकी मायाशक्ति सोयी रहती है। फिर उसी के द्वारा सत्त्व, रज और तमरूप गुणों का भेद होता है और इसके बाद उन्हीं गुणों से महत्तत्त्व, अहकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, देवता, ऋषि और समस्त प्राणियों से युक्त इस जगत् की उत्पत्ति होती है। फिर आप अपनी ही मायाशक्ति से रचे हुए इन जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज भेद से चार प्रकार के शरीरों में अंशरूप से प्रवेश कर जाते हैं और जिस प्रकार मधुमक्खियाँ अपने ही उत्पन्न किये हुए मधु का आस्वादन करती हैं, उसी प्रकार वह आपका अंश उन शरीरों में रहकर इन्द्रियों के द्वारा तुच्छ विषयों को भोगता है। आपके उस अंश को ही पुरुष जीव कहते हैं।

प्रभो! आपका तत्त्वज्ञान प्रत्यक्ष से नहीं अनुमान से होता है। प्रलयकाल उपस्थित होने पर कालस्वरूप आप ही अपने प्रचण्ड एवं असह्य वेग से पृथ्वी आदि भूतों को अन्य भूतों से विचलित कराकर समस्त लोकों का संहार कर देते हैं-जैसे वायु अपने असहनी एवं प्रचण्ड झोंकों से मेघों के द्वारा ही मेघों को तितर-बितर करके नष्ट कर डालती है।

भगवन्! यह मोहग्रस्त जीव प्रमादवश हर समय इसी चिन्ता में रहता है कि ‘अमुक कार्य करना है’। इसका लोभ बढ़ गया है और इसे विषयों की ही लालसा बनी रहती है। किन्तु आप सदा ही सजग रहते हैं; भूख से जीभ लपलपाता हुआ सर्प जैसे चूहे को चट कर जाता है, उसी प्रकार अपने कालस्वरूप से उसे सहसा लील जाते हैं। आपकी अवहेलना करने के कारण अपनी आयु को व्यर्थ मानने वाला ऐसा कौन विद्वान् होगा, जो आपके चरणकमलों को बिसारेगा? इसकी पूजा तो काल की आशंका से ही हमारे पिता ब्रह्मा जी और स्वयाम्भुव आदि चौदह मनुओं ने भी बिना कोई विचार किये केवल श्रद्धा से ही की थी। ब्रह्मन्! इस प्रकार सारा जगत् रुद्ररूप काल के भय से व्याकुल है। अतः परमात्मन्! इस तत्त्व को जानने वाले हम लोगों के तो इस समय आप ही सर्वथा भयशून्य आश्रय हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 69-79 का हिन्दी अनुवाद)

राजकुमारों! तुम लोग विशुद्ध भाव से स्वधर्म का आचरण करते हुए भगवान् में चित्त लगाकर मेरे कहे हुए इस स्तोत्र का जप करते रहो; भगवान् तुम्हारा मंगल करेंगे। तुम लोग अपने अन्तःकरण में स्थित उन सर्वभूतान्तर्यामी परमात्मा श्रीहरि का ही बार-बार स्तवन और चिन्तन करते हुए पूजन करो।

मैंने तुम्हें यह योगादेश नाम का स्तोत्र सुनाया है। तुम लोग इसे मन से धारण कर मुनिव्रत का आचरण करते हुए इसका एकाग्रता से आदरपूर्वक अभ्यास करो। यह स्तोत्र पूर्वकाल में जगद्विस्तार के इच्छुक प्रजापतियों के पति भगवान् ब्रह्मा जी ने प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा वाले हम भृगु आदि अपने पुत्रो को सुनाया था। जब हम प्रजापतियों को प्रजा का विस्तार करने की आज्ञा हुई, तब इसी के द्वारा हमने अपना अज्ञान निवृत्त करके अनेक प्रकार की प्रजा उत्पन्न की थी। अब भी जो भगवत्परायण पुरुष इसका एकाग्रचित्त से नित्यप्रति जप करेगा, उसका शीघ्र ही कल्याण हो जायेगा।
इस लोक में सब प्रकार के कल्याण-साधनों में मोक्षदायक ज्ञान ही सबसे श्रेष्ठ है। ज्ञान-नौका पर चढ़ा हुआ पुरुष अनायास ही इस दुस्तर संसार सागर को पार कर लेता है। यद्यपि भगवान् की आराधना बहुत कठिन है-किन्तु मेरे कहे हुए इस स्तोत्र का जो श्रद्धापूर्वक पाठ करेगा, वह सुगमता से ही उनकी प्रसन्नता प्राप्त कर लेगा। भगवान् ही सम्पूर्ण कल्याण साधनों के एकमात्र प्यारे-प्राप्तव्य हैं। अतः मेरे गाये हुए इस स्तोत्र के गान से उन्हें प्रसन्न करके वह स्थिरचित्त होकर उनसे जो कुछ चाहेगा, प्राप्त कर लेगा। जो पुरुष उषःकाल में उठकर इसे श्रद्धापूर्वक हाथ जोड़कर सुनता या सुनाता है, वह सब प्रकार के कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाता है।

राजकुमारों! मैंने तुम्हें जो यह परमपुरुष परमात्मा का स्तोत्र सुनाया है, इसे एकाग्रचित्त से जपते हुए तुम महान् तपस्या करो। तपस्या पूर्ण होने पर इसी से तुम्हें अभीष्ट फल प्राप्त हो जायेगा।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【पञ्चाविंश अध्याय:】२५.

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"पुरंजनोपाख्यान का प्रारम्भ"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! इस प्रकार भगवान् शंकर ने प्रचेताओं को उपदेश दिया। फिर प्रचेताओं ने शंकर जी की बड़े भक्तिभाव से पूजा की। इसके पश्चात् वे उन राजकुमारों के सामने ही अन्तर्धान हो गये। सब-के-सब प्रचेता जल में खड़े रहकर भगवान् रुद्र के बताये स्तोत्र का जप करते हुए दस हजार वर्ष तक तपस्या करते रहे। इन दिनों राजा प्राचीनबर्हि का चित्त कर्मकाण्ड में बहुत रम गया था। उन्हें अध्यात्मविद्या-विशारद परम कृपालु नारद जी ने उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि ‘राजन्! इन कर्मों के द्वारा तुम अपना कौन-सा कल्याण करना चाहते हो? दुःख के अत्यान्तिक नाश और पमानन्द की प्राप्ति का नाम कल्याण है; वह तो कर्मों से नहीं मिलता।

राजा ने कहा ;- महाभाग नारद जी! मेरी बुद्धि कर्म में फँसी हुई है, इसलिये मुझे परम कल्याण का कोई पता नहीं है। आप मुझे विशुद्ध ज्ञान का उपदेश दीजिये, जिससे मैं कर्मबन्धन से छूट जाऊँ। जो पुरुष कपटधर्ममय गृहस्थाश्रम में ही रहता हुआ पुत्र, स्त्री और धन को ही परम पुरुषार्थ मानता है, वह अज्ञानवश संसारारण्य में ही भटकता रहने के कारण उस परम कल्याण को प्राप्त नहीं कर सकता।

श्रीनारद जी ने कहा ;- देखो, देखो, राजन्! तुमने यज्ञ में निर्दयतापूर्वक जिन हजारों पशुओं की बलि दी है- उन्हें आकाश में देखो। ये सब तुम्हारे द्वारा प्राप्त हुई पीड़ाओं को याद करते हुए बदला लेने के लिये तुम्हारी बाट देख रहे हैं। जब तुम मरकर परलोक में जाओगे, तब ये अत्यन्त क्रोध में भरकर तुम्हें अपने लोहे के-से सींगों से छेदेंगे। अच्छा, इस विषय में मैं तुम्हें एक प्राचीन उपाख्यान सुनाता हूँ। वह राजा पुरंजन का चरित्र है, उसे तुम मुझसे सावधान होकर सुनो।

राजन्! पूर्वकाल में पुरंजन नाम का एक बड़ा यशस्वी राजा था। उसका अविज्ञात नामक एक मित्र था। कोई भी उसकी चेष्टाओं को समझ नहीं सकता था। राजा पुरंजन अपने रहने योग्य स्थान की खोज में सारी पृथ्वी में घूमा; फिर भी जब उसे कोई अनुरूप स्थान न मिला, तब वह कुछ उदास-सा हो गया। उसे तरह-तरह के भोगों की लालसा थी; उन्हें भोगने के लिये उसने संसार में जितने नगर देखे, उनमें से कोई भी उसे ठीक न जँचा।

एक दिन उसने हिमालय के दक्षिण तटवर्ती शिखरों पर कर्मभूमि भारतखण्ड में एक नौ द्वारों का नगर देखा। वह सब प्रकार के सुलक्षणों से सपन्न था। सब ओर से परकोटों, बगीचों, अटारियों, खाइयों, झरोखों और राजद्वारों से सुशोभित था और सोने, चाँदी तथा लोहे के शिखरों वाले विशाल भवनों से खचाखच भरा था। उसके महलों की फर्शें नीलम, स्फटिक, वैदूर्य, मोती, पन्ने और लालों की बनी हुई थीं। अपनी कान्ति के कारण वह नागों की राजधानी भोगवतीपुरी के समान जान पड़ता था। उसमें जहाँ-तहाँ अनेकों सभा-भवन, चौराहे, सड़कें, क्रीड़ाभवन, बाजार, विश्राम-स्थान, ध्वजा-पताकाएँ और मूँगे के चबूतरे सुशोभित थे। उस नगर के बाहर दिव्य वृक्ष और लताओं से पूर्ण एक सुन्दर बाग़ था; उसके बीच में एक सरोवर सुशोभित था। उसके आस-पास अनेकों पक्षी भाँति-भाँति की बोली बोल रहे थे तथा भौंरे गुंजार कर रहे थे। सरोवर के तट पर जो वृक्ष थे, उनकी डालियाँ और पत्ते शीतल झरनों के जलकणों से मिली हुई वासन्ती वायु के झरोकों से हिल रहे थे और इस प्रकार वे तटवर्ती भूमि की शोभा बढ़ा रहे थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 19-31 का हिन्दी अनुवाद)

वहाँ के वन्य पशु भी मुनिजनोचित अहिंसादि व्रतों का पालन करने वाले थे, इसलिये उनसे किसी को कोई कष्ट नहीं पहुँचता था। वहाँ बार-बार जो कोकिल की कुहू-ध्वनि होती थी, उससे मार्ग में चलने वाले बटोहियों को ऐसा भ्रम होता था, मानो यह बगीचा विश्राम करने के लिये उन्हें बुला रहा है।

राजा पुरंजन ने उस अद्भुत वन में घूमते-घूमते एक सुन्दरी को आते देखा, जो अकस्मात् उधर चली आयी थी। उसके साथ दस सेवक थे, जिनमें से प्रत्येक सौ-सौ नायिकाओं का पति था। एक पाँच फन वाला साँप उसका द्वारपाल था, वही उसकी सब ओर से रक्षा करता था। वह सुन्दरी भोली-भाली किशोरी थी और विवाह के लिये श्रेष्ठ-पुरुष की खोज में थी। उसकी नासिका, दन्तपंक्ति, कपोल और मुख बहुत सुन्दर थे। उसके समान कानों में कुण्डल झिलमिला रहे थे। उसका रंग साँवला था। कटि प्रदेश सुन्दर था। वह पीले रंग की साड़ी और सोने की करधनी पहने हुए थी तथा चलते समय चरणों से नूपुरों की झनकार करती जाती थी। अधिक क्या, वह साक्षात् कोई देवी-सी जान पड़ती थी। वह गजगामिनी बाला किशोरावस्था की सूचना देने वाले अपने गोल-गोल समान और परस्पर सटे हुए स्तनों को लज्जावश बार-बार अंचल से ढकती जाती थी। उसकी प्रेम से मटकती भौंह और प्रेमपूर्ण तिरछी चितवन के बाण से घायल होकर वीर पुरंजन ने लज्जायुक्त मुस्कान से और भी सुन्दर लगने वाली उस देवी से मधुर वाणी में कहा- ‘कमलदललोचने! मुझे बताओ तुम कौन हो, किसकी कन्या हो?

साध्वी! इस समय आ कहाँ से रही हो, भीरु! इस पुरी के समीप तुम क्या करना चाहती हो? सुभ्रु! तुम्हारे साथ इस ग्यारहवें महान् शुरवीर से संचालित ये दस सेवक कौन हैं और ये सहेलियाँ तथा तुम्हारे आगे चलने वाला यह सर्प कौन है? सुन्दरि! तुम साक्षात् लज्जादेवी हो अथवा उमा, रमा और ब्राह्मणी में से कोई हो? यहाँ वन में मुनियों की तरह एकान्तवास करके क्या अपने पतिदेव को खोज रही हो? तुम्हारे प्राणनाथ तो ‘तुम उनके चरणों की कामना करती हो’, इतने से ही पूर्णकाम हो जायेंगे। अच्छा, यदि तुम साक्षात् कमलादेवी हो, तुम तुम्हारे हाथ का कीड़ाकमल कहाँ गिर गया।

सुभगे! तुम इनमें से कोई हो नहीं; क्योंकि तुम्हारे चरण पृथ्वी का स्पर्श कर रहे हैं। अच्छा, यदि तुम कोई मानवी ही हो, तो लक्ष्मी जी जिस प्रकार भगवान् विष्णु के साथ वैकुण्ठ की शोभा बढाती हैं, उसी प्रकार तुम मेरे साथ इस श्रेष्ठ पुरी को अलंकृत करो। देखो, मैं बड़ा ही वीर और पराक्रमी हूँ। परंतु आज तुम्हारे कटाक्षों ने मेरे मन को बेकाबू कर दिया है। तुम्हारी लजीली और रतिकाम से भरी मुस्कान के साथ भौंहों के संकेत पाकर यह शक्तिशाली कामदेव मुझे पीड़ित कर रहा है। इसलिये सुन्दरि! अब तुम्हें मुझ पर कृपा करनी चाहिये। शुचिस्मिते! सुन्दर भौहें और सुघड़ नेत्रों से सुशोभित तुम्हारा मुखारविन्द इन लंबी-लंबी काली अलकावलियों से घिरा हुआ है; तुम्हारे मुख से निकले हुए वाक्य बड़े ही मीठे और मन हरने वाले हैं, परंतु वह मुख तो लाज के मारे मेरी ओर होता ही नहीं। जरा ऊँचा करके अपने उस सुन्दर मुखड़े का मुझे दर्शन तो कराओ’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 32-47 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीनारद जी कहा ;- वीरवर! जब राजा पुरंजन ने अधीर-से होकर इस प्रकार याचना की, तब उस बाला ने भी हँसते हुए उसका अनुमोदन किया। वह भी राजा को देखकर मोहित हो चुकी थी। वह कहने लगी, ‘नरश्रेष्ठ! हमें अपने उत्पन्न करने वाले का ठीक-ठीक पता नहीं है और न हम अपने या किसी दूसरे के नाम या गोत्र को ही जानती हैं। वीरवर! आज हम सब इस पुरी में हैं- इसके सिवा मैं और कुछ नहीं जानती; मुझे इसका भी पता नहीं है कि हमारे रहने के लिये यह पुरी किसने बनायी है।
प्रियवर! ये पुरुष मेरे सखा और स्त्रियाँ मेरी सहेलियाँ हैं तथा जिस समय मैं सो जाती हूँ, यह सर्प जागता हुआ इस पुरी की रक्षा करता रहता है। शत्रुदमन! आप यहाँ पधारे, यह मेरे लिये सौभाग्य की बात है। आपका मंगल हो। आपको विषय-भोगों-की इच्छा है, उसकी पूर्ति के लिये मैं अपने साथियों सहित सभी प्रकार के भोग प्रस्तुत करती रहूँगी। प्रभो! इस नौ द्वारों वाली पुरी में मेरे प्रस्तुत किये हुए इच्छित भोगों को भोगते हुए आप सैकड़ों वर्षों तक निवास कीजिये। भला, आपको छोड़कर मैं और किसके साथ रमण करुँगी? दूसरे लोग तो न रति सुख को जानते हैं, न विहित भोगों को ही भोगते हैं, न परलोक का ही विचार करते हैं और न कल क्या होगा- इसका ही ध्यान रखते हैं, अतएव पशुतुल्य हैं। अहो! इस लोक में गृहस्थाश्रम में ही धर्म, अर्थ, काम, सन्तान-सुख, मोक्ष, सुयश और स्वर्गादि दिव्य लोकों की प्राप्ति हो सकती है। संसारत्यागी यतिजन तो इन सबकी कल्पना भी नहीं कर सकते।

महापुरुषों का कथन है कि इस लोक में पितर, देव, ऋषि, मनुष्य तथा सम्पूर्ण प्राणियों के और अपने भी कल्याण का आश्रय एकमात्र गृहस्थाश्रम ही है। वीरशिरोमणे! लोक में मेरी-जैसी कौन स्त्री होगी, जो स्वयं प्राप्त हुए आप-जैसे सुप्रसिद्ध, उदारचित्त और सुन्दर पति को वरण न करेगी। महाबाहो! इस पृथ्वी पर आपकी साँप-जैसी गोलाकार सुकोमल भुजाओं में स्थान पाने के लिये किस कामिनी का चित्त न ललचावेगा? आप तो अपनी मधुर मुसकानमयी करुणापूर्ण दृष्टि से हम-जैसी अनाथाओं के मानसिक सन्ताप को शान्त करने के लिये ही पृथ्वी में विचर रहे हैं’।

श्रीनारद जी कहते हैं ;- राजन्! उन स्त्री-पुरुषों ने इस प्रकार एक-दूसरे की बात का समर्थन कर फिर सौ वर्षों तक उस पुरी में रहकर आनन्द भोगा। गायक लोग सुमधुर स्वर में जहाँ-तहाँ राजा पुरंजन की कीर्ति गाया करते थे। जब ग्रीष्म-ऋतु आती, तब वह अनेकों स्त्रियों के साथ सरोवर में घुसकर जलक्रीड़ा करता। उस नगर में जो नौ द्वार थे, उनमें से सात नगरी के ऊपर और दो नीचे थे। उस नगर का जो कोई राजा होता, उसके पृथक्-पृथक् देशों में जाने के लिये ये द्वार बनाये गये थे। राजन्! इनमें से पाँच पूर्व, एक दक्षिण, एक उत्तर और दो पश्चिम की ओर थे। उनके नामों का वर्णन करता हूँ। पूर्व की ओर खाद्योत और आविर्मुखी नाम के दो द्वार एक ही जगह बनाये गये थे। उनमें होकर राजा पुरंजन अपने मित्र द्युमान् के साथ विभ्राजित नामक देश को जाया करता था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: पञ्चाविंश अध्यायः श्लोक 48-62 का हिन्दी अनुवाद)

इसी प्रकार उस ओर नलिनी और नालिनी नाम के द्वार और भी एक ही जगह बनाये गये थे। उनसे होकर वह अवधूत के साथ सौरभ नामक देश को जाता था। पूर्व दिशा की ओर मुख्या नाम का जो पाँचवाँ द्वार था, उसमें होकर वह रसज्ञ और विपन के साथ क्रमशः बहूदन और आपण नाम के देशों को जाता था। पुरी के दक्षिण की ओर जो पितृहू नाम का द्वार था, उसमें होकर राजा पुरंजन श्रुतधर के साथ दक्षिण पांचाल देश को जाता था। उत्तर की ओर जो देवहू नाम का द्वार था, उससे श्रुतधर के ही साथ वह उत्तर पांचाल देश को जाता था। पश्चिम दिशा में आसुरि नाम का दरवाजा था, उसमें होकर वह दुर्मद के साथ ग्रामक देश को जाता था तथा निर्ऋति नाम का जो दूसरा पश्चिम द्वार था, उससे लुब्धक के साथ वह वैशस नाम के देश को जाता था। इस नगर के निवासियों में निर्वाक् और पेशस्कृत्-ये दो नागरिक अन्धे थे। राजा पुरंजन आँख वाले नागरिकों का अधिपति होने पर भी इन्हीं की सहायता से जहाँ-तहाँ जाता और सब प्रकार के कार्य करता था।

जब कभी अपने प्रधान सेवक विषूचीन के साथ अन्तःपुर में जाता, तब उसे स्त्री और पुत्रों के कारण होने वाले मोह, प्रसन्नता एवं हर्ष आदि विकारों का अनुभव होता। उसका चित्त तरह-तरह के कर्मों में फँसा हुआ था और काम-परवश होने के कारण वह मूढ़ रमणी के द्वारा ठगा गया था। उसकी रानी जो-जो काम करती थी, वही वह भी करने लगता था। वह जब मद्यपान करती, तब वह भी मदिरा पीता और मद से उन्मत्त हो जाता था; जब वह भोजन करती, तब आप भी वही वस्तु चबाने लगता था। इसी प्रकार कभी उसके गाने पर गाने लगता, रोने पर रोने लगता, हँसने पर हँसने लगता और बोलने पर बोलने लगता। वह दौड़ती तो आप भी दौड़ने लगता, खड़ी होती तो आप भी खड़ा हो जाता, सोती तो आप भी उसी के साथ सो जाता और बैठती तो आप भी बैठ जाता। कभी वह सुनने लगती तो आप भी सुनने लगता, देखती तो देखने लगता, सूँघती तो सूँघने लगता और किसी चीज को छूती तो आप भी छूने लगता। कभी उसकी प्रिया शोकाकुल होती तो आप भी अत्यन्त दीन के समान व्याकुल हो जाता; जब वह प्रसन्न होती, आप भी प्रसन्न हो जाता और उसके आनन्दित होने पर आप भी आनन्दित हो जाता। (इस प्रकार) राजा पुरंजन अपनी सुन्दरी रानी के द्वारा ठगा गया। सारा प्रकृतिवर्ग-परिकर ही उसको धोखा देने लगा। वह मूर्ख विवश होकर इच्छा न होने पर भी खेल के लिए घर पर पाले हुए बंदर के समान अनुकरण करता रहता।

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