सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( पञ्चम स्कन्धः ) का प्रथम , द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम अध्याय [ The first, second, third, fourth and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (fifth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( पञ्चम स्कन्धः ) का प्रथम , द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम अध्याय [ The first, second, third, fourth and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (fifth wing) ]



                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【प्रथम अध्याय:】१.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

"प्रियव्रत-चरित्र"
राजा परीक्षित ने पूछा ;- मुने! महाराज प्रियव्रत तो बड़े भगवद्भक्त और आत्माराम थे। उनकी गृहस्थाश्रम में कैसे रुचि हुई, जिसमें फँसने के कारण मनुष्य को अपने स्वरूप की विस्मृति होती है और वह कर्मबन्धन में बँध जाता है? विप्रवर! निश्चय ही ऐसे निःसंग महापुरुषों का इस प्रकार गृहस्थाश्रम में अभिनिवेश होना उचित नहीं है। इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं कि जिनका चित्त पुण्यकीर्ति श्रीहरि के चरणों की शीतला छाया का आश्रय लेकर शान्त हो गया है, उन महापुरुषों की कुटुम्बादि में कभी आसक्ति नहीं हो सकती।

ब्रह्मन्! मुझे इस बात का बड़ा सन्देह है कि महाराज प्रियव्रत ने स्त्री, घर और पुत्रादि में आसक्त रहकर भी किस प्रकार सिद्धि प्राप्त कर ली और क्योंकर उनकी भगवान् श्रीकृष्ण में अविचल भक्ति हुई।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! तुम्हारा कथन बहुत ठीक है। जिनका चित्त पवित्रकीर्ति श्रीहरि के परम मधुर चरणकमल-मकरन्द के रस में सराबोर हो गया है, वे किसी विघ्न-बाधा के कारण रुकावट आ जाने पर भी भगवद्भक्त परमहंसों के प्रिय श्रीवासुदेव भगवान् के कथा श्रवणरूपी परमकल्याणमय मार्ग को प्रायः छोड़ते नहीं।

राजन्! राजकुमार प्रियव्रत बड़े भवद्भक्त थे, श्रीनारद जी के चरणों की सेवा करने से उन्हें सहज में ही परमार्थतत्त्व का बोध हो गया था। वे ब्रह्मसत्र की दीक्षा- निरन्तर ब्रह्माभ्यास में जीवन बिताने का नियम लेने वाले ही थे कि उसी समय उनके पिता स्वायम्भुव मनु ने उन्हें पृथ्वीपालन के लिये शास्त्र में बताये हुए सभी श्रेष्ठ गुणों से पूर्णतया सम्पन्न देख राज्यशासन के लिये आज्ञा दी। किन्तु प्रियव्रत अखण्ड समाधियोग के द्वारा अपनी सारी इन्द्रियों और क्रियाओं को भगवान् वासुदेव के चरणों में ही समर्पण कर चुके थे। अतः पिता की आज्ञा किसी प्रकार उल्लंघन करने योग्य न होने पर भी, यह सोचकर कि राज्याधिकार पाकर मेरा आत्मस्वरूप स्त्री-पुत्रादि असत् प्रपंच से आच्छादित हो जायेगा- राज्य और कुटुम्ब की चिन्ता में फँसकर मैं परमार्थतत्त्व को प्रायः भूल जाऊँगा, उन्होंने उसे स्वीकार न किया।
आदिदेव स्वयम्भू भगवान् ब्रह्मा जी को निरन्तर इस गुणमय प्रपंच की वृद्धि का ही विचार रहता है। वे सारे संसार के जीवों का अभिप्राय जानते रहते हैं। जब उन्होंने प्रियव्रत की ऐसी प्रवृत्ति देखी, तब वे मूर्तिमान् चारों वेद और मरीचि आदि पार्षदों को साथ लिये अपने लोक से उतरे। आकाश में जहाँ-तहाँ विमानों पर चढ़े हुए इन्द्रादि प्रधान-प्रधान देवताओं ने उनका पूजन किया तथा मार्ग में टोलियाँ बाँधकर आये हुए सिद्ध, गन्धर्व, साध्य, चारण और मुनिजन ने स्तवन किया। इस प्रकार जगह-जगह आदर-सम्मान पाते वे साक्षात् नक्षत्रनाथ चन्द्रमा के समान गन्धमादन की घाटी को प्रकाशित करते हुए प्रियव्रत के पास पहुँचे। प्रियव्रत को आत्मविद्या का उपदेश देने के लिये वहाँ नारद जी भी आये हुए थे। ब्रह्मा जी के वहाँ पहुँचने पर उनके वाहन हंस को देखकर देवर्षि नारद जान गये कि हमारे पिता भगवान् ब्रह्मा जी पधारे हैं; अतः वे स्वयाम्भुव मनु और प्रियव्रत के सहित तुरंत खड़े हो गये और सबने उनको हाथ जोड़कर प्रणाम किया।

परीक्षित! नारद जी ने उनकी अनेक प्रकार से पूजा की और सुमधुर वचनों में उनके गुण और अवतार की उत्कृष्टता का वर्णन किया। तब आदिपुरुष भगवान् ब्रह्मा जी ने प्रियव्रत की ओर मन्द मुस्कान युक्त दयादृष्टि से देखते हुए इस प्रकार कहा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 11-19 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीब्रह्मा जी ने कहा ;- बेटा! मैं तुमसे सत्य सिद्धान्त की बात कहता हूँ, ध्यान देकर सुनो। तुम्हें अप्रमेय श्रीहरि के प्रति किसी प्रकार की दोषदृष्टि नहीं रखनी चाहिये। तुम्हीं क्या-हम, महादेव जी, तुम्हारे पिता स्वयाम्भुव मनु और तुम्हारे गुरु ये महर्षि नारद भी विवश होकर उन्हीं आज्ञा का पालन करते हैं। उनके विधान को कोई भी देहधारी न तो तप, विद्या, योगबल या बुद्धिबल से, न अर्थ या धर्म की शक्ति से और न स्वयं या किसी दूसरे की सहायता से ही टाल सकता है। प्रियवर! उसी अव्यक्त ईश्वर के दिये हुए शरीर को सब जीव जन्म, मरण, शोक, मोह, भय और सुख-दुःख का भोग करने तथा कर्म करने के लिये सदा धारण करते हैं।

वत्स! जिस प्रकार रस्सी से नथा हुआ पशु मनुष्यों का बोझ ढोता है, उसी प्रकार परमात्मा की वेदवाणीरूप बड़ी रस्सी में सत्त्वादि गुण, सात्त्विक आदि कर्म और उनके ब्राह्मणादि वाक्यों की मजबूत डोरी से जकड़े हुए हम सब लोग उन्हीं के इच्छानुसार कर्म में लगे रहते हैं और उसके द्वारा उनकी पूजा करते रहते हैं। हमारे गुण और कर्मों के अनुसार प्रभु ने हमें जिस योनि में डाल दिया है, उसी को स्वीकार करके, वे जैसी व्यवस्था करते हैं, उसी के अनुसार हम सुख या दुःख भोगते रहते हैं। हमें उनकी इच्छा का उसी प्रकार अनुसरण करना पड़ता है, जैसे किसी अंधे को आँख वाले पुरुष का।

मुक्त पुरुष भी प्रारब्ध का भोग करता हुआ भगवान् की इच्छा के अनुसार अपने शरीर को धारण करता ही है; ठीक वैसे ही जैसे मनुष्य की निद्रा टूट जाने पर भी स्वप्न में अनुभव किये हुए पदार्थों का स्मरण होता है। इस अवस्था में भी उसको अभिमान नहीं होता और विषयवासना के जिन संस्कारों के कारण दूसरा जन्म होता है, उन्हें वह स्वीकार नहीं करता। जो पुरुष इन्द्रियों के वशीभूत है, वह वन-वन में विचरण करता रहे तो भी उसे जन्म-मरण का भय बना ही रहता है; क्योंकि बिना जीते हुए मन और इन्द्रियरूपी उसके छः शत्रु कभी उसका पीछा नहीं छोड़ते।

जो बुद्धिमान् पुरुष इन्द्रियों को जीतकर अपनी आत्मा में ही रमण करता है, उसका गृहस्थाश्रम भी क्या बिगाड़ सकता है? जिसे इन छः शत्रुओं को जीतने की इच्छा हो, वह पहले घर में रहकर ही उनका अत्यन्त निरोध करते हुए उन्हें वश में करने का प्रयत्न करे। किले में सुरक्षित रहकर लड़ने वाला राजा अपने प्रबल शत्रुओं को भी जीत लेता है। फिर जब इन शत्रुओं का बल अत्यन्त क्षीण हो जाये, तब विद्वान् पुरुष इच्छानुसार विचर सकता है। तुम यद्यपि श्रीकमलनाभ भगवान् के चरणकमल की कलीरूप किले के आश्रित रहकर इन छहों शत्रुओं को जीत चुके हो, तो भी पहले उन पुराणपुरुष के दिये हुए भोगों को भोगो; इसके बाद निःसंग होकर अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो जाना।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 20-29 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- जब त्रिलोकी के गुरु श्रीब्रह्मा जी ने इस प्रकार कहा, तो परमभागवत प्रियव्रत ने छोटे होने के कारण नम्रता से सिर झुका लिया और ‘जो आज्ञा’ ऐसा कहकर बड़े आदरपूर्वक उनका आदेश शिरोधार्य किया। तब स्वयाम्भुव मनु ने प्रसन्न होकर भगवान् ब्रह्मा जी की विधिवत् पूजा की। इसके पश्चात् वे मन और वाणी के अविषय, अपने आश्रय तथा सर्वव्यवहारातीत परब्रह्म का चिन्तन करते हुए अपने लोक को चले गये। इस समय प्रियव्रत और नारद जी सरल भाव से उनकी ओर देख रहे थे।

मनु जी ने इस प्रकार ब्रह्मा जी की कृपा से अपना मनोरथ पूर्ण हो जाने पर देवर्षि नारद की आज्ञा से प्रियव्रत को सम्पूर्ण भूमण्डल की रक्षा का भार सौंप दिया और स्वयं विषयरूपी विषैले जल से भरे हुए गृहस्थाश्रमरूपी दुस्तर जलाशय की भोगेच्छा से निवृत्त हो गये। अब पृथ्वीपति महाराज प्रियव्रत भगवान् की इच्छा से राज्य शासन के कार्य में नियुक्त हुए। जो सम्पूर्ण जगत् को बन्धन से छुड़ाने में अत्यन्त समर्थ हैं, उन आदिपुरुष श्रीभगवान् के चरणयुगल का निरन्तर ध्यान करते रहने से यद्यपि उनके रागादि सभी मल नष्ट हो चुके थे और उनका हृदय भी अत्यन्त शुद्ध था, तथापि बड़ों का मान रखने के लिये वे पृथ्वी का शासन करने लगे।

तदनन्तर उन्होंने प्रजापति विश्वकर्मा की पुत्री बर्हिष्मती से विवाह किया। उससे उनके दस पुत्र हुए। वे सब उन्हीं के समान शीलवान्, गुणी, कर्मनिष्ठ, रूपवान् और पराक्रमी थे। उनसे छोटी ऊर्जस्वती नाम की एक कन्या भी हुई। पुत्रों के नाम आग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, महावीर, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, सवन, मेधातिथि, वीतिहोत्र और कवि थे। ये सब नाम अग्नि के भी हैं। इनमें कवि, महावीर और सवन- ये तीन नैष्ठिक ब्रह्मचारी हुए। इन्होंने बाल्यावस्था से आत्मविद्या का अभ्यास करते हुए अन्त में संन्यासाश्रम ही स्वीकार किया।

इन निवृत्तिपरायण महर्षियों ने संन्यासाश्रम में ही रहते हुए समस्त जीवों के अधिष्ठान और भवबन्धन से डरे हुए लोगों को आश्रय देने वाले भगवान् वासुदेव के परमसुन्दर चरणारविन्दों का निरन्तर चिन्तन किया। उससे प्राप्त हुए अखण्ड एवं प्रेष्ठ भक्तियोग से उनका अन्तःकरण सर्वथा शुद्ध हो गया और उसमें श्रीभगवान् का आविर्भाव हुआ। तब देहादि उपाधि की निवृत्ति हो जाने से उनकी आत्मा की सम्पूर्ण जीवों के आत्मभूत प्रत्यगात्मा में एकीभाव से स्थित हो गयी।

महाराज प्रियव्रत की दूसरी भार्या से उत्तम, तामस और रैवत- ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए, जो अपने नाम वाले मन्वन्तरों के अधिपति हुए। इस प्रकार कवि आदि तीन पुत्रों के निवृत्तिपरायण हो जाने पर राजा प्रियव्रत ने ग्यारह अर्बुद वर्षों तक पृथ्वी का शासन किया। जिस समय वे अपनी अखण्ड पुरुषार्थमयी आर वीर्यशालिनी भुजाओं से धनुष की डोरी खींचकर टंकार करते थे, उस समय डर के मारे सभी धर्मद्रोही न जाने कहाँ छिप जाते थे। प्राणप्रिया बर्हिष्मती के दिन-दिन बढ़ने वाले अमोह-प्रमोद और अभ्युत्थानादि क्रीड़ाओं के कारण तथा उसके स्त्री-जनोचित हाव-भाव, लज्जा से संकुचित मन्दाहास्य-युक्त चितवन और मन को भाने वाले विनोद आदि से महामना प्रियव्रत विवेकहीन व्यक्ति की भाँति आत्म-विस्मृत से होकर सब भोगों को भोगने लगे। किन्तु वास्तव में ये उनमें आसक्त नहीं थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 30-41 का हिन्दी अनुवाद)

एक बार इन्होंने जब यह देखा कि भगवान् सूर्य सुमेरु की परिक्रमा करते हुए लोकालोकपर्यन्त पृथ्वी के जितने भाग को आलोकित करते हैं, उसमें से आधा ही प्रकाश में रहता है और आधे में अन्धकार छाया रहता है, तो उन्होंने इसे पसंद नहीं किया। तब उन्होंने यह संकल्प लेकर कि ‘मैं रात को भी दिन बना दूँगा;’ सूर्य के समान ही वेगवान् एक ज्योतिर्मय रथ पर चढ़कर द्वितीय सूर्य की ही भाँति उनके पीछे-पीछे पृथ्वी की सात परिक्रमाएँ कर डालीं। भगवान् की उपासना से इनका अलौकिक प्रभाव बहुत बढ़ गया था। उस समय इनके रथ के पहियों से जो लीकें बनीं, वे ही सात समुद्र हुए; उनसे पृथ्वी में सात द्वीप हो गये। उनके नाम क्रमशः जम्बू, प्लक्ष, शाल्मलि, कुश, क्रौंच, शाक और पुष्कर द्वीप हैं। इनमें से पहले-पहले की अपेक्षा आगे-आगे के द्वीप का परिमाण दूना है और ये समुद्र के बाहरी भाग में पृथ्वी के चारों ओर फैले हुए हैं।

सात समुद्र क्रमशः खारे जल, ईख के रस, मदिरा, घी, दूध, मट्ठे और मीठे जल से भरे हुए हैं। ये सातों द्वीपों की खाइयों के समान हैं और परिमाण में अपने भीतर वाले द्वीप के बराबर हैं। इनमें से एक-एक क्रमशः अलग-अलग सातों द्वीपों को बाहर से घेरकर स्थित है। बर्हिष्मतीपति महाराज प्रियव्रत ने अपने अनुगत पुत्र आग्नीध्र, इध्मजिह्व, यज्ञबाहु, हिरण्यरेता, धृतपृष्ठ, मेधातिथि और वीतिहोत्र में से क्रमशः एक-एक को उक्त जम्बू आदि द्वीपों में से एक-एक का राजा बनाया। उन्होंने अपनी कन्या ऊर्जस्वती का विवाह शुक्राचार्य जी से किया; उसी से शुक्रकन्या देवयानी का जन्म हुआ।

राजन्! जिन्होंने भगवच्चरणारविन्दों की रज के प्रभाव से शरीर के भूख-प्यास, शोक-मोह और जरा-मृत्यु- इन छः गुणों को अथवा मन के सहित छः इन्द्रियों को जीत लिया है, उन भगवद्भक्तों का ऐसा पुरुषार्थ होना कोई आश्चर्य की बात नहीं हैं; क्योंकि वर्णबहिष्कृत चाण्डाल आदि नीच योनि का पुरुष भी भगवान् के नाम का केवल एक बार उच्चारण करने से तत्काल संसारबन्धन से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार अतुलनीय बल-पराक्रम से युक्त महाराज प्रियव्रत एक बार, अपने को देवर्षि नारद के चरणों की शरण में जाकर भी पुनः दैववश प्राप्त हुए प्रपंच में फँस जाने से आशान्त-सा देख, मन-ही-मन विरक्त होकर इस प्रकार कहने लगे। ‘ओह! बड़ा बुरा हुआ! मेरी विषयलोलुप इन्द्रियों ने मुझे इस अविद्याजनित विषम विषयरूप अन्धकूप में गिरा दिया। बस! बस! बहुत हो लिया। हाय! मैं तो स्त्री का क्रीड़ामृग ही बन गया! उसने मुझे बन्दर की भाँति नचाया! मुझे धिक्कार है! धिक्कार है!’ इस प्रकार उन्होंने अपने को बहुत कुछ बुरा-भला कहा।

परमाराध्य श्रीहरि की कृपा से उनकी विवेकवृत्ति जाग्रत् हो गयी। उन्होंने यह सारी पृथ्वी यथायोग्य अपने अनुगत पुत्रों को बाँट दी और जिसके साथ उन्होंने तरह-तरह के भोग भोगे थे, उस अपनी राजरानी को साम्राज्य लक्ष्मी के सहित मृतदेह के समान छोड़ दिया तथा हृदय में वैराग्य धारणकर भगवान् की लीलाओं का चिन्तन करते हुए उसके प्रभाव से श्रीनारद जी के बतलाये हुए मार्ग का पुनः अनुसरण करने लगे। महाराज प्रियव्रत के विषय में निम्नलिखित लोकोक्ति प्रसिद्ध है-

‘राजा प्रियव्रत ने जो कर्म किये, उन्हें सर्वशक्तिमान् ईश्वर के सिवा और कौन कर सकता है? उन्होंने रात्रि के अन्धकार को मिटाने का प्रयत्न करते हुए अपने रथ के पहियों से बनी हुई लीकों से ही सात समुद्र बना दिये। प्राणियों के सुभीते के लिये (जिससे उनमें परस्पर झगड़ा न हो) द्वीपों के द्वारा पृथ्वी के विभाग किये और प्रत्येक द्वीप में अलग-अलग नदी, पर्वत और वन आदि से उसकी सीमा निश्चित कर दी। वे भगवद्भक्त नारददादि के प्रेमी भक्त थे। उन्होंने पाताल लोक के, देवलोक के, मर्त्यलोक के तथा कर्म और योग शक्ति से प्राप्त हुए ऐश्वर्य को भी नरकतुल्य समझा था’।

                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【द्वितीय अध्याय:】२.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

"आग्नीध्र-चरित्र"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- पिता प्रियव्रत के इस प्रकार तपस्या में संलग्न हो जाने पर राजा आग्नीध्र उनकी आज्ञा का अनुसरण करते हुए जम्बू द्वीप की प्रजा का धर्मानुसार पुत्रवत् पालन करने लगे। एक बार वे पितृलोक की कामना से सत्पुत्र प्राप्ति के लिये पूजा की सब सामग्री जुटाकर सुरसुन्दरियों के क्रीड़ास्थल मन्दराचल की एक घाटी में गये और तपस्या में तत्पर होकर एकाग्रचित्त से प्रजापतियों के पति श्रीब्रह्मा जी की आराधना करने लगे। आदिदेव भगवान् श्रीब्रह्मा जी ने उनकी अभिलाषा जान ली। अतः अपनी सभा की गायिका पूर्वचित्ति नाम की अप्सरा को उनके पास भेज दिया। आग्नीध्र जी के आश्रम के पास एक अति रमणीय उपवन था। वह अप्सरा उसी में विचरने लगी। उस उपवन में तरह-तरह के सघन तरुवरों की शाखाओं पर स्वर्ण लताएँ फैली हुई थीं। उन पर बैठे हुए मयूरादि कई प्रकार के स्थलचारी पक्षियों के जोड़े सुमधुर बोली बोल रहे थे। उनकी षड्जादि स्वरयुक्त ध्वनि सुनकर सचेत हुए जलकुक्कुट, कारण्डव एवं कलहंस आदि जलपक्षी भाँति-भाँति से कूजने लगते थे। इससे वहाँ के कमलवन से सुशोभित निर्मल सरोवर गूँजने लगते थे।

पूर्वचित्ति की विलासपूर्ण सुललित गतिविधि और पादविन्यास की शैली से पद-पद पर उसके चरणनूपुरों की झनकार हो उठती थी। उसकी मनोहर ध्वनि सुनकर राजकुमार आग्नीध्र ने समाधियोग द्वारा मूँदे हुए अपने कमल-कली के समान सुन्दर नेत्रों को कुछ-कुछ खोलकर देखा तो पास ही उन्हें वह अप्सरा दिखायी दी। वह भ्रमरी के समान एक-एक फूल के पास जाकर उसे सूँघती थी तथा देवता और मनुष्यों के मन और नयनों को आह्लादित करने वाली अपनी विलासपूर्ण गति, क्रीड़ा-चापल्य, लज्जा एवं विनययुक्त चितवन, सुमधुर वाणी तथा मनोहर अंगावयवों से पुरुषों के हृदय में कामदेव के प्रवेश के लिये द्वार-सा बना देती थी। जब वह हँस-हँसकर बोलने लगती, तब ऐसा प्रतीत होता मानो उसके मुख से अमृतमय मादक मधु झर रहा है। उसके निःश्वास के गन्ध से मदान्ध होकर भौरे उसके मुखकमल को घेर लेते, तब वह उनसे बचने के लिये जल्दी-जल्दी पैर उठाकर चलती तो उसके कुचकलश, वेणी और करधनी हिलने से बड़े ही सुहावने लगते।

यह सब देखने से भगवान् कामदेव को आग्नीध्र के हृदय में प्रवेश करने का अवसर मिल गया और वे उनके अधीन होकर उसे प्रसन्न करने के लिये पागल की भाँति इस प्रकार कहने लगे- ‘मुनिवर्य! तुम कौन हो, इस पर्वत पर तुम क्या करना चाहते हो? तुम परमपुरुष श्रीनारायण की कोई माया तो नहीं हो? [भौंहों की ओर सनते करके-] सखे! तुमने ये बिना डोरी के दो धनुष क्यों धारण कर रखे हैं? क्या इनसे तुम्हारा कोई अपना प्रयोजन है अथवा इस संसारारण्य में मुझ-जैसे मतवाले मृगों का शिकार करना चाहते हो।

[कटाक्षों को लक्ष्य करके-] तुम्हारे ये दो बाण तो बड़े सुन्दर और पैने हैं। अहो! इनके कमलदल के पंख हैं, देखने में शान्त हैं और हैं भी पंखहीन। यहाँ वन में विचरते हुए तुम इन्हें किस पर छोड़ना चाहते हो? यहाँ तुम्हारा कोई सामना करने वाला नहीं दिखायी देता। तुम्हारा यह पराक्रम हम-जैसे जड़-बुद्धियों के लिये कल्याणकारी हो।

[भौंरों की ओर देखकर-] भगवन्! तुम्हारे चारों ओर जो ये शिष्यगण अध्ययन कर रहे हैं, वे तो निरन्तर रहस्ययुक्त सामगाम करते हुए मानो भगवान् की स्तुति कर रहे हैं और ऋषिगण जैसे वेद की शाखाओं का अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार ये सब तुम्हारी चोटी से झड़े हुए पुष्पों का सेवन कर रहे हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 10-19 का हिन्दी अनुवाद)

[नूपुरों के शब्द की ओर संकेत करके-] ब्रह्मन्! तुम्हारे चरणरूप पिंजड़ों में तो तीतर बन्द हैं, उनका शब्द तो सुनायी देता है; परन्तु रूप देखने में नहीं आता।

[करधनी सहित पीली साड़ी में अंग की कान्ति की उत्प्रेक्षा कर-] तुम्हारे नितम्बों पर यह कदम्ब-कुसुमों की-सी आभा कहाँ से आ गयी? इनके ऊपर तो अंगारों का मण्डल-सा भी दिखायी देता है। किन्तु तुम्हारा वल्कल-वस्त्र कहाँ है?

[कुकुममण्डित कुचों की ओर लक्ष्य करके-] द्विजवर! तुम्हारे इन दोनों सुन्दर सींगों में क्या भरा हुआ है? अवश्य ही इनमें बड़े अमूल्य रत्न भरे हैं, इसी से तो तुम्हारा मध्य भाग इतना कृश होने पर भी तुम इनका बोझ ढो रहे हो। यहाँ जाकर मेरी दृष्टि भी मानो अटक गयी है। और सुभग! इन सींगों पर तुमने यह लाल-लाल लेप-सा क्या लगा रखा है? इसकी गन्ध से तो मेरा सारा आश्रम महक उठा है।

मित्रवर! मुझे तो तुम अपना देश दिखा दो, जहाँ के निवासी अपने वक्षःस्थल पर ऐसे अद्भुत अवयव धारण करते हैं, जिन्होंने हमारे-जैसे प्राणियों के चिट्टों को क्षुब्ध कर दिया है तथा मुख में विचित्र हाव-भाव, सरसभाषण और अधरामृत-जैसी अनूठी वस्तुएँ रखते हैं।

‘प्रियवर! तुम्हारा भोजन क्या है, जिसके खाने से तुम्हारे मुख से हवन सामग्री की-सी सुगन्ध फैल रही है? मालूम होता है, तुम कोई विष्णु भगवान् की कला ही हो; इसीलिये तुम्हारे कानों में कभी पलक न मारने वाले मकर के आकर के दो कुण्डल हैं। तुम्हारा मुख एक सुन्दर सरोवर के समान है। उसमें तुम्हारे चंचल नेत्र भय से काँपती हुई दो मछलियों के समान, दन्तपंक्ति हंसों के समान और घुँघराली अलकावली भौरों के समान शोभायमान है। तुम सब अपने करकमलों से थपकी मारकर इस गेंद को उछालते हो, तब यह दिशा-विदिशाओं में जाती हुई मेरे नेत्रों को तो चंचल कर ही देती है, साथ-साथ मेरे मन में भी खलबली पैदा कर देती है। तुम्हारा बाँका जटाजूट खुल गया है, तुम इसे सँभालते क्यों नहीं? अरे, यह धूर्त वायु कैसा दुष्ट है जो बार-बार तुम्हारे नीवी-वस्त्र को उड़ा देता है।

तपोधन! तपस्वियों के तप को भ्रष्ट करने वाला यह अनूपरूप तुमने किस तप के प्रभाव से पाया है? मित्र! आओ, कुछ दिन मेरे साथ रहकर तपस्या करो। अथवा, कहीं विश्वविस्तार की इच्छा से ब्रह्मा जी ने ही तो मुझ पर कृपा नहीं की है। सचमुच, तुम ब्रह्मा जी की ही प्यारी देन हो; अब मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता। तुम में तो मेरे मन और नयन ऐसे उलझ गये हैं कि अन्यत्र जाना ही नहीं चाहते। सुन्दर सींगों वाली! तुम्हारा जहाँ मन हो, मुझे भी वहीं ले चलो; मैं तुम्हारा अनुचर हूँ और तुम्हारी ये मंगलमयी सखियाँ भी हमारे ही साथ रहें’।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! आग्नीध्र देवताओं के समान बुद्धिमान् और स्त्रियों को प्रसन्न करने में बड़े कुशल थे। उन्होंने इसी प्रकार की रतिचातुर्यमयी मीठी-मीठी बातों से उस अप्सरा को प्रसन्न कर लिया। वीर-समान में अग्रगण्य आग्नीध्र की बुद्धि, शील, रूप, अवस्था, लक्ष्मी और उदारता से आकर्षित होकर वह उन जम्बूद्वीपाधिपति के साथ कई हर्जर वर्षों तक पृथ्वी और स्वर्ग के भोग भोगती रही। तदनन्तर नृपवर आग्नीध्र ने उसके गर्भ से नाभि, किम्पुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्मय, कुरु, भद्राश्व और केतुमाल नाम के नौ पुत्र उत्पन्न किये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 20-23 का हिन्दी अनुवाद)

इस प्रकार नौ वर्ष में प्रतिवर्ष एक के क्रम से नौ पुत्र उत्पन्न कर पूर्वचित्ति उन्हें राजभवन में ही छोड़कर फिर ब्रह्मा जी की सेवा में उपस्थित हो गयी। ये आग्नीध्र के पुत्र माता के अनुग्रह से स्वभाव से ही सुडौल और सबल शरीर वाले थे।

आग्नीध्र ने जम्बू द्वीप के विभाग करके उन्हीं के समान नाम वाले नौ वर्ष (भूखण्ड) बनाये और उन्हें एक-एक पुत्र को सौंप दिया। तब वे सब अपने-अपने वर्ष का राज्य भोगने लगे।

महाराज आग्नीध्र दिन-दिन भोगों को भोगते रहने पर भी उनसे अतृप्त ही रहे। वे उस अप्सरा को ही परम पुरुषार्थ समझते थे। इसलिये उन्होंने वैदिक कर्मों के द्वारा उसी लोक को प्राप्त किया, जहाँ पितृगण अपन सुकृतों के अनुसार तरह-तरह के भोगों में मस्त रहते हैं। पिता के परलोक सिधारने पर नाभि आदि नौ भाइयों ने मेरु की मेरुदेवी, प्रतिरूपा, उग्रदंष्ट्री, लता, रम्या, श्यामा, नारी, भद्रा आदि देववीति नाम की नौ कन्याओं से विवाह किया।

                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【तृतीय अध्याय:】३.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा नाभिका चरित्र"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! आग्नीध्र के पुत्र नाभि के कोई सन्तान न थी, इसलिये उन्होंने अपनी भार्या मेरुदेवी के सहित पुत्र की कामना से एकाग्रतापूर्वक भगवान् यज्ञपुरुष का यजन किया। यद्यपि सुन्दर अंगों वाले श्रीभगवान् द्रव्य, देश, काल, मन्त्र, ऋत्विज्, दक्षिणा और विधि- इन यज्ञ के साधनों से सहज में नहीं मिलते, तथापि वे भक्तों पर तो कृपा करते ही हैं। इसलिये जब महाराज नाभि ने श्रद्धापूर्वक विशुद्ध भाव से उनकी आराधना की, तब उनका चित्त अपने भक्त का अभीष्ट कार्य करने के लिये उत्सुक हो गया। यद्यपि उनका स्वरूप सर्वथा स्वतन्त्र है, तथापि उन्होंने प्रवर्ग्यकर्म का अनुष्ठान होते समय उसे मन और नयनों को आनन्द देने वाले अवयवों से युक्त अति सुन्दर हृदयाकर्षक मूर्ति में प्रकट किया। उनके श्रीअंग में रेशमी पीताम्बर था, वक्षःस्थल पर सुमनोहर श्रीवत्स चिह्न सुशोभित था; भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म तथा गले में वनमाला और कौस्तुभ मणि की शोभा थी। सम्पूर्ण शरीर अंग-प्रत्यंग की कान्ति को बढ़ाने वाले किरणजालमण्डित मणिमय मुकुट, कुण्डल, कंकण, करधनी, हार, बाजूबंद और नूपुर आदि आभूषणों से विभूषित था। ऐसे परम तेजस्वी चतुर्भुजमूर्ति पुरुष विशेष को प्रकट हुआ देख ऋत्विज्, सदस्य और यजमान आदि सभी लोग ऐसे आह्लादित हुए, जैसे निर्धन पुरुष अपार धनराशि पाकर फूला नहीं समाता। फिर सभी ने सिर झुकाकर अत्यन्त आदरपूर्वक प्रभु की अर्ध्य द्वारा पूजा की और ऋत्विजों ने उनकी स्तुति की।

ऋत्विजों ने कहा ;- पूज्यतम! हम आपके अनुगत भक्त हैं, आप हमारे पुनः-पुनः पूजनीय हैं। किन्तु हम आपकी पूजा करना क्या जानें? हम तो बार-बार आपको नमस्कार करते हैं- इतना ही हमें महापुरुषों ने सिखाया है। आप प्रकृति और पुरुष से भी परे हैं। फिर प्राकृत गुणों के कार्यभूत इस प्रपंच में बुद्धि फँस जाने से आपके गुणगान में सर्वथा असमर्थ ऐसा कौन पुरुष है जो प्राकृत नाम, रूप एवं आकृति के द्वारा आपके स्वरूप का निरूपण कर सके? आप साक्षात् परमेश्वर हैं। आपके परममंगलमय गुण सम्पूर्ण जनता के दुःखों का दमन करने वाले हैं। यदि कोई उन्हें वर्णन करने का साहस भी करेगा, तो केवल उनके एक देश का ही वर्णन कर सकेगा।

किन्तु प्रभो! यदि आपके भक्त प्रेम-गद्गद वाणी से स्तुति करते हुए सामान्य जल, विशुद्ध पल्लव, तुलसी और दूब के अंकुर आदि सामग्री से ही आपकी पूजा करते हैं, तो भी आप सब प्रकार सन्तुष्ट हो जाते हैं। हमें तो अनुराग के सिवा इस द्रव्य-कालादि अनेकों अंगों वाले यज्ञ से भी आपका कोई प्रयोजन नहीं दिखलायी देता;। क्योंकि आपके स्वतः ही क्षण-क्षण में जो सम्पूर्ण पुरुषार्थों का फलस्वरूप परमानन्द सवभावतः ही निरन्तर प्रादुर्भूत होता है, आप साक्षात् उसके स्वरूप ही हैं। इस प्रकार यद्यपि आपको इन यज्ञादि से कोई प्रयोजन नहीं है, तथापि अनेक प्रकार की कामनाओं की सिद्धि चाहने वाले हम लोगों के लिये तो मनोरथसिद्धि का पर्याप्त साधन यही होना चाहिये।

आप ब्रह्मादि परमपरुषों की अपेक्षा भी परम श्रेष्ठ हैं। हम तो यह भी नहीं जानते कि हमारा परमकल्याण किसमें है, और न हमसे आपकी यथोचित पूजा ही बनी है; तथापि जिस प्रकार तत्त्वज्ञ पुरुष बिना बुलाये भी केवल करुणावश अज्ञानी पुरुषों के पास चले जाते हैं, उसी प्रकार आप भी हमें मोक्षसंज्ञक अपना परमपद और हमारी यज्ञदर्शकों के समान यहाँ प्रकट हुए हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 10-20 का हिन्दी अनुवाद)

पूज्यतम! हमें सबसे बड़ा वर तो आपने यही दे दिया कि ब्रह्मादि समस्त वरदायकों में श्रेष्ठ होकर भी आप राजर्षि नाभि की इस यज्ञशाला में साक्षात् हमारे नेत्रों के सामने प्रकट हो गये! अब हम और वर क्या माँगे?

प्रभो! आपके गुणगणों का गान परममंगलमय है। जिन्होंने वैराग्य से प्रज्वलित हुई ज्ञानाग्नि के द्वारा अपने अन्तःकरण के रागद्वेषादि सम्पूर्ण मलों को जला डाला है, अतएव जिनका स्वभाव आपके ही समान शान्त है, वे आत्माराम मुनिगण भी निरन्तर आपके गुणों का गान ही किया करते हैं। अतः हम आपसे यही वर माँगते हैं कि गिरने, ठोकर खाने, छींकने अथवा जँभाई लेने और संकटादि के समय एवं ज्वर और मरणादि की अवस्थाओं में आपका स्मरण न हो सकने पर भी किसी प्रकार आपके सकलकलिमल-विनाशक ‘भक्तवत्सल’, ‘दीनबन्धु’ आदि गुणद्योतक नामों का हम उच्चारण कर सकें।
इसके सिवा, कहने योग्य न होने पर भी एक प्रार्थना और है। आप साक्षात् परमेश्वर हैं; स्वर्ग-अपवर्ग आदि ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे आप न दे सकें। तथापि जैसे कोई कंगाल किसी धन लुटाने वाले परमउदार पुरुष के पास पहुँचकर भी उससे भूसा ही माँगे, उसी प्रकार हमारे यजमान ये राजर्षि नाभि सन्तान को ही परमपुरुषार्थ मानकर आपके ही समान पुत्र पाने के लिये आपकी आराधना कर रहे हैं। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। आपकी माया का पार कोई नहीं पा सकता और न वह किसी के वश में ही आ सकती है। जिन लोगों ने महापुरुषों के चरणों का आश्रय नहीं लिया, उनमें ऐसा कौन है जो उसके वश में नहीं होता, उसकी बुद्धि पर उसका परदा नहीं पड़ जाता और विषयरूप विष का वेग उसके स्वभाव को दूषित नहीं कर देता?

देवदेव! आप भक्तों के बड़े-बड़े काम कर देते हैं। हम मन्दमतियों ने कामनावश इस तुच्छ कार्य के लिये आपका आवाहन किया, यह आपका अनादर ही है। किन्तु आप समदर्शी हैं, अतः हम अज्ञानियों की इस धृष्टता को आप क्षमा करें।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! वर्षाधिपति नाभि के पूज्य ऋत्विजों ने प्रभु के चरणों की वन्दना करके जब पूर्वोक्त स्तोत्र से स्तुति की, तब देव श्रेष्ठ श्रीहरि ने करुणावश इस प्रकार कहा।

श्रीभगवान् ने कहा ;- ऋषियों! बड़े असमंजस की बात है। आप सब सत्यवादी महात्मा हैं, आपने मुझसे यह बड़ा दुर्लभ वर माँगा है कि राजर्षि नाभि के मेरे समान पुत्र हो। मुनियों! मेरे समान तो मैं ही हूँ, क्योंकि मैं अद्वितीय हूँ। तो भी ब्राह्मणों का वचन मिथ्या नहीं होना चाहिये, द्विजकुल मेरा ही तो मुख है। इसलिये मैं स्वयं ही अपनी अंशकला से आग्नीध्रनन्दन नाभि के यहाँ अवतार लूँगा, क्योंकि अपने समान मुझे कोई और दिखायी नहीं देता।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- महारानी मेरुदेवी के सुनते हुए उसके पति से इस प्रकार कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये।

विष्णुदत्त परीक्षित! उस यज्ञ में महर्षियों द्वारा इस प्रकार प्रसन्न किये जाने पर श्रीभगवान् महाराज नाभि का प्रिय करने के लिये उनके रनिवास में महारानी मेरुदेवी के गर्भ से दिगम्बर संन्यासी और ऊर्ध्वरेता मुनियों का धर्म प्रकट करने के लिये शुद्धसत्त्वमय विग्रह से प्रकट हुए।

                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【चतुर्थ अध्याय:】४.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

"ऋषभदेव जी का राज्यशासन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! नाभिनन्दन के अंग जन्म से ही भगवान् विष्णु के वज्र-अंकुश आदि चिह्नों से युक्त थे; समता, शान्ति, वैराग्य और ऐश्वर्य आदि महाविभूतियों के कारण उनका प्रभाव दिनोंदिन बढ़ता जाता था। यह देखकर मन्त्री आदि प्रकृतिवर्ग, प्रजा, ब्राह्मण और देवताओं की यह उत्कट अभिलाषा होने लगी कि ये ही पृथ्वी का शासन करें। उनके सुन्दर और सुडौल शरीर, विपुल कीर्ति, तेज, बल, ऐश्वर्य, यश, पराक्रम और शूरवीरता आदि गुणों के कारण महाराज नाभि ने उनका नाम ‘ऋषभ’ (श्रेष्ठ) रखा।

एक बार भगवान् इन्द्र ने ईर्ष्यावश उनके राज्य में वर्षा नहीं की। तब योगेश्वर भगवान् ऋषभ ने इन्द्र की मूर्खता पर हँसते हुए अपनी योगमाया के प्रभाव से अपने वर्ष अजनाभखण्ड में खूब जल बरसाया।

महाराज नाभि अपनी इच्छा के अनुसार श्रेष्ठ पुत्र पाकर अत्यन्त आनन्दमग्न हो गये और अपनी ही इच्छा से मनुष्य शरीर धारण करने वाले पुराणपुरुष श्रीहरि का सप्रेम लालन करते हुए, उन्हीं के लीला-विलास से मुग्ध होकर ‘वत्स! तात!’ ऐसा गद्गद-वाणी कहते हुए बड़ा सुख मानने लगे। जब उन्होंने देखा कि मन्त्रिमण्डल, नागरिक और राष्ट्र की जनता ऋषभदेव से बहुत प्रेम करती है, तो उन्होंने उन्हें धर्म मर्यादा की रक्षा के लिये राज्याभिषिक्त करके ब्राह्मणों की देख-रेख में छोड़ दिया। आप अपनी पत्नी मेरुदेवी के सहित बदरिकाश्रम को चले गये। वहाँ अहिंसावृत्ति से, जिससे किसी को उद्वेग न हो, ऐसी कौशलपूर्ण तपस्या और समाधियोग के द्वारा भगवान् वासुदेव के नर-नारायणरूप की आराधना करते हुए समय आने पर उन्हीं के स्वरूप में लीन हो गये।

पाण्डुनन्दन! राजा नाभि के विषय में यह लोकिक्ति प्रसिद्ध है-

राजर्षि नाभि के उदार कर्मों का आचरण दूसरा कौन पुरुष कर सकता है- जिनके शुद्ध कर्मों से सन्तुष्ट होकर साक्षात् श्रीहरि उनके पुत्र हो गये थे। महाराज नाभि के समान ब्राह्मण भक्त भी कौन हो सकता है-जिनकी दक्षिणादि से सन्तुष्ट हुए ब्राह्मणों ने अपने मन्त्रबल से उन्हें यज्ञशाला में साक्षात् श्रीविष्णु भगवान् के दर्शन करा दिये।

भगवान् ऋषभदेव ने अपने देश अजनाभखण्ड को कर्मभूमि मानकर लोक संग्रह के लिये कुछ काल गुरुकुल में वास किया। गुरुदेव को यथोचित दक्षिणा देकर गृहस्थ में प्रवेश करने के लिये उनकी आज्ञा ली। फिर लोगों को गृहस्थधर्म की शिक्षा देने के लिये देवराज इन्द्र की दी हुई उनकी कन्या जयन्ती से विवाह किया तथा श्रौत-स्मार्त्त दोनों प्रकार के शास्त्रोपदिष्ट कर्मों का आचरण करते हुए उसके गर्भ से अपने ही समान गुण वाले सौ पुत्र उत्पन्न किये। उनके महायोगी भरत जी सबसे बड़े और सबसे अधिक गुणवान् थे। उन्हीं के नाम से लोग इस अजनाभखण्ड को ‘भारतवर्ष’ कहने लगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 10-19 का हिन्दी अनुवाद)

उनसे छोटे कुशावर्त, इलावर्त, ब्रह्मावर्त्त, मलय, केतु, भद्रसेन, इंद्रस्पृक, विदर्भ और कीकट -ये नौ राजकुमार शेष नब्बे भाइयों से बड़े एवं श्रेष्ठ थे। उनसे छोटे कवि, हरि, अंतरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रमिल, चमस और करभाजन -ये नौ राजकुमार भावगत धर्म का प्रचार करने वाले बड़े भगवद्भक्त थे।

भगवान् की महिमा से महिमान्वित और परमशान्ति से पूर्ण इनका पवित्र चरित हम नारद-वसुदेव संवाद के प्रसंग से आगे (एकादश स्कन्ध में) कहेंगे। इनसे छोटे जयन्ती के इक्यासी पुत्र पिता की आज्ञा का पालन करने वाले, अति विनीत, महान् वेदज्ञ और निरन्तर यज्ञ करने वाले थे। वे पुण्यकर्मों का अनुष्ठान करने से शुद्ध होकर ब्राह्मण हो गये थे।

भगवान् ऋषभदेव, यद्यपि परम स्वतन्त्र होने के कारण स्वयं सर्वदा ही सब प्रकार की अनर्थ परम्परा से रहित, केवल आनन्दानुभवस्वरूप और साक्षात् ईश्वर ही थे, तो भी अज्ञानियों के समान कर्म करते हुए उन्होंने काल के अनुसार प्राप्त धर्म का आचरण करके उसका तत्त्व न जानने वाले लोगों को उसकी शिक्षा दी। साथ ही सम, शान्त, सुहृद् और कारुणिक रहकर धर्म, अर्थ, यश, सन्तान, भोग-सुख और मोक्ष का संग्रह करते हुए गृहस्थाश्रम में लोगों को नियमित किया। महापुरुष जैसा-जैसा आचरण करते हैं, दूसरे लोग उसी का अनुकरण करने लगते हैं। यद्यपि वे सभी धर्मों के साररूप वेद के गूढ़ रहस्य को जानते थे, तो भी ब्राह्मणों की बतलायी हुई विधि से साम-दानादि नीति के अनुसार ही जनता का पालन करते थे। उन्होंने शास्त्र और ब्राह्मणों के उपदेशानुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के उद्देश्य से द्रव्य, देश, काल, आयु, श्रद्धा और ऋत्विज् आदि से सुसम्पन्न सभी प्रकार के सौ-सौ यज्ञ किये। भगवान् ऋषभदेव के शासनकाल में इस देश का कोई भी पुरुष अपने लिये किसी से भी अपने प्रभु के प्रति दिन-दिन बढ़ने वाले अनुराग के सिवा और किसी वस्तु की कभी इच्छा नहीं करता था। यही नहीं, आकाशकुसुमादि अविद्यमान वस्तु की भाँति कोई किसी की वस्तु की ओर दृष्टिपात भी नहीं करता था।

एक बार भगवान् ऋषभदेव घूमते-घूमते ब्रह्मावर्त देश में पहुँचे। वहाँ बड़े-बड़े ब्रह्मर्षियों की सभा में उन्होंने प्रजा के सामने ही अपने समाहितचित्त तथा विनय और प्रेम के भार से सुसंयत पुत्रों को शिक्षा देने के लिये इस प्रकार कहा।

                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【पञ्चम अध्याय:】५.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

"ऋषभजी का अपने पुत्रों को उपदेश देना और स्वयं अवधूतवृत्ति ग्रहण करना"
श्रीऋषभदेव जी ने कहा ;- पुत्रो! इस मर्त्यलोक में यह मनुष्य शरीर दुःखमय विषयभोग प्राप्त करने के लिये ही नहीं है। ये भोग तो विष्ठाभोजी सूकर-कूकरादि को भी मिलते ही हैं। इस शरीर से दिव्य तप ही करना चाहिये, जिससे अन्तःकरण शुद्ध हो; क्योंकि इसी से अनन्त ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है। शास्त्रों ने महापुरुषों की सेवा को मुक्ति का और स्त्रीसंगी कामियों के संग को नरक का द्वार बताया है। महापुरुष वे ही हैं जो समानचित्त, परमशान्त, क्रोधहीन, सबके हितचिन्तक और सदाचारसम्पन्न हों अथवा मुझ परमात्मा के प्रेम को ही जो एकमात्र पुरुषार्थ मानते हों, केवल विषयों की ही चर्चा करने वाले लोगों में तथा स्त्री, पुत्र और धन आदि सामग्रियों से सम्पन्न घरों में जिनकी अरुचि हो और जो लौकिक कार्यों में केवल शरीर निर्वाह के लिये ही प्रवृत्त होते हों। मनुष्य अवश्य प्रमादवश कुकर्म करने लगता है, उसकी वह प्रवृत्ति इन्द्रियों को तृप्त करने के लिये ही होती है। मैं इसे अच्छा नहीं समझता, क्योंकि इसी के कारण आत्मा को यह असत् और दुःखदायक शरीर प्राप्त होता है।
जब तक जीव को आत्मतत्त्व की जिज्ञासा नहीं होती, तभी तक अज्ञानवश देहादि के द्वारा उसका स्वरूप छिपा रहता है। जब तक यह लौकिक-वैदिक कर्मों में फँसा रहता है, तब तक मन में कर्म की वासनाएँ भी बनी ही रहती हैं और इन्हीं से देहबन्धन की प्राप्ति होती है। इस प्रकार अविद्या के द्वारा आत्मस्वरूप के ढक जाने से कर्मवासनाओं के वशीभूत हुआ चित्त मनुष्य को फिर कर्मों में ही निवृत्त करता है। अतः जब तक उसको मुझ वासुदेव में प्रीति नहीं होती, तब तक वह देहबन्धन से छूट नहीं सकता। स्वार्थ में पागल जीव जब तक विवेक-दृष्टि का आश्रय लेकर इन्द्रियों की चेष्टाओं को मिथ्या नहीं देखता, तब तक आत्मस्वरूप की स्मृति को बैठने के कारण वह अज्ञानवश विषयप्रधान गृह आदि में आसक्त रहता है और तरह-तरह के क्लेश उठाता रहता है।

स्त्री और पुरुष इन दोनों का जो परस्पर दाम्पत्य-भाव है, इसी को पण्डितजन उनके हृदय की दूसरी स्थूल एवं दुर्भेद्य ग्रन्थि कहते हैं। देहाभिमानरूपी एक-एक सूक्ष्म ग्रन्थि तो उनमें अलग-अलग पहले से ही है। इसी के कारण जीव को देहेन्द्रियादि के अतिरिक्त घर, खेत, पुत्र, स्वजन और धन आदि में भी ‘मैं’ और ‘मेरेपन' का मोह हो जाता है। जिस समय कर्मवासनाओं के कारण पड़ी हुई इसकी यह दृढ़ हृदय-ग्रन्थि ढीली हो जाती है, उसी समय यह दाम्पत्य भाव से निवृत्त हो जाता है और संसार के हेतुभूत अहंकार को त्यागकर सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो परमपद प्राप्त कर लेता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 10-19 का हिन्दी अनुवाद)

पुत्रो! संसारसागर से पार होने में कुशल तथा धैर्य, उद्यम एवं सत्त्वगुणविशिष्ट पुरुष को चाहिये कि सबके आत्मा और गुरुस्वरूप मुझ भगवान् में भक्तिभाव रखने से, मेरे परायण रहने से, तृष्णा के त्याग से, सुख-दुःख आदि द्वन्दों के सहने से ‘जीव को सभी योनियों में दुःख ही उठाना पड़ता है’ इस विचार से, तत्त्वजिज्ञासा से, तप से, सकाम कर्म के त्याग से, मेरे ही लिये कर्म करने से, मेरी कथाओं का नित्यप्रति श्रवण करने से, मेरे भक्तों के संग और मेरे गुणों के कीर्तन से, वैर त्याग से, समता से, शान्ति से और शरीर तथा घर आदि में मैं-मेरेपन के भाव को त्यागने की इच्छा से, अध्यात्मशास्त्र के अनुशीलन से, एकान्त-सेवन से, प्राण, इन्द्रिय और मन के संयम से, शास्त्र और सत्पुरुषों के वचन में यथार्थ बुद्धि रखने से, पूर्ण ब्रह्मचर्य से, कर्तव्य कर्मों में निरन्तर सावधान रहने से, वाणी के संयम से, सर्वत्र मेरी ही सत्ता देखने से, अनुभवज्ञानरहित तत्त्व विचार से और योग साधन से अहंकाररूप अपने लिंग शरीर को लीन कर दे। मनुष्य को चाहिये कि वह सावधान रहकर अविद्या से प्राप्त इस हृदय ग्रन्थिरूप बन्धन को शास्त्रोक्त रीति से इन साधनों के द्वारा भलीभाँति काट डाले; क्योंकि यही कर्मसंस्कारों के रहने का स्थान है। तदनन्तर साधन का भी परित्याग कर दे।

जिसको मेरे लोक की इच्छा हो अथवा जो मेरे अनुग्रह की प्राप्ति को ही परम पुरुषार्थ मानता हो-वह राजा हो तो अपनी अबोध प्रजा को, गुरु अपने शिष्यों को और पिता अपने पुत्रों को ऐसी ही शिक्षा दे। अज्ञान के कारण यदि वे उस शिक्षा के अनुसार न चलकर कर्म को ही परम पुरुषार्थ मानते रहें, तो भी उन पर क्रोध न करके उन्हें समझा-बुझाकर कर्म में प्रवृत्त न होने दे। उन्हें विषयासक्तियुक्त काम्यकर्मों में लगाना तो ऐसा ही है, जैसे किसी अंधे मनुष्य को जान-बूझकर गढ़े में ढकेल देना। इससे भला, किस पुरुषार्थ की सिद्धि हो सकती है। अपना सच्चा कल्याण किस बात में है, इसको लोग नहीं जानते; इसी से वे तरह-तरह की भोग-कामनाओं में फँसकर तुच्छ क्षणिक सुख के लिये आपस में वैर ठान लेते हैं और निरन्तर विषय भोगों के लिये ही प्रयत्न करते रहते हैं। वे मूर्ख इस बात पर कुछ भी विचार नहीं करते कि इस वैर-विरोध के कारण नरक आदि घोर दुःखों की प्राप्ति होगी। गढ़े में गिरने के लिये उलटे रास्ते से जाते हुए मनुष्य को जैसे आँख वाला पुरुष उधर नहीं जाने देता, वैसे ही अज्ञानी मनुष्य को अविद्या में फँसकर दुःखों की ओर जाते देखकर कौन ऐसा दयालु और ज्ञानी पुरुष होगा, जो जान-बूझकर भी उसे उसी राह पर जाने दे या जाने के लिये प्रेरणा करे।

जो अपने प्रिय सम्बन्धी को भगवद्भक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फाँसी से नहीं छुड़ाता, वह गुरु गुरु नहीं है, स्वजन स्वजन नहीं, पिता पिता नहीं है, माता माता नहीं है, इष्टदेव इष्टदेव नहीं है और पति पति नहीं है। मेरे इस अवतार-शरीर का रहस्य साधारण जनों के लिये बुद्धिगम्य नहीं है। शुद्ध सत्त्व ही मेरा हृदय है और उसी में धर्म की स्थिति है, मैंने अधर्म को अपने से बहुत दूर पीछे की ओर ढकेल दिया है, इसी से सत्पुरुष मुझे ‘ऋषभ’ कहते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 20-28 का हिन्दी अनुवाद)

तुम सब मेरे उस शुद्ध सत्त्वमय हृदय से उत्पन्न हुए हो, इसलिये मत्सर छोड़कर अपने बड़े भाई भरत की सेवा करो। उसकी सेवा करना मेरी ही सेवा करना है और यही तुम्हारा प्रजा पालन भी है। अन्य सब भूतों की अपेक्षा वृक्ष अत्यन्त श्रेष्ठ हैं, उनसे चलने वाले जीव श्रेष्ठ हैं और उनमें भी कीटादि की अपेक्षा ज्ञानयुक्त पशु आदि श्रेष्ठ हैं। पशुओं से मनुष्य, मनुष्यों से प्रमथगण, प्रमथों से गन्धर्व, गन्धर्वों से सिद्ध और सिद्धों से देवताओं के अनुयायी किन्नरादि श्रेष्ठ हैं। उनसे असुर, असुरों से देवता और देवताओं से भी इन्द्र श्रेष्ठ हैं। इन्द्र से भी ब्रह्मा जी के पुत्र दक्षादि प्रजापति श्रेष्ठ हैं, ब्रह्मा जी के पुत्रों में रुद्र सबसे श्रेष्ठ हैं। वे ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुए हैं, इसलिये ब्रह्मा जी उनसे श्रेष्ठ हैं। वे भी मुझसे उत्पन्न हैं और मेरी उपासना करते हैं, इसलिये मैं उनसे भी श्रेष्ठ हूँ। परन्तु ब्राह्मण मुझसे भी श्रेष्ठ हैं, क्योंकि मैं उन्हें पूज्य मानता हूँ।

[सभा में उपस्थित ब्राह्मणों को लक्ष्य करके] विप्रगण! दूसरे किसी भी प्राणी को मैं ब्राह्मणों के समान भी नहीं समझता, फिर उनसे अधिक तो मान ही कैसे सकता हूँ। लोग श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों के मुख में जो अन्नादि आहुति डालते हैं, उसे मैं जैसी प्रसन्नता से ग्रहण करता हूँ, वैसे अग्निहोत्र में होम की हुई सामग्री को स्वीकार नहीं करता। जिन्होंने इस लोक में अध्ययनादि के द्वारा मेरी वेदरूपा अति सुन्दर और पुरातन मूर्ति को धारण कर रखा है तथा जो परम पवित्र सत्त्वगुण, शम, दम, सत्य, दया, तप, तितिक्षा और ज्ञानादि आठ गुणों से सम्पन्न है। मैं ब्रह्मादि से भी श्रेष्ठ और अनन्त हूँ तथा स्वर्ग-मोक्ष आदि देने की भी सामर्थ्य रखता हूँ; किन्तु अकिंचन भक्त ऐसे निःस्पृह होते हैं कि वे मुझसे भी कभी कुछ नहीं चाहते; फिर राज्यादि अन्य वस्तुओं की तो वे इच्छा ही कैसे कर सकते हैं?

पुत्रों! तुम सम्पूर्ण चराचर भूतों को मेरा ही शरीर समझकर शुद्ध बुद्धि से पद-पद पर उनकी सेवा करो, यही मेरी सच्ची पूजा है। मन, वचन, दृष्टि तथा अन्य इन्द्रियों की चेष्टाओं का साक्षात् फल मेरा इस प्रकार का पूजन ही है। इसके बिना मनुष्य अपने को महामोहमय कालपाश से छुड़ा नहीं सकता।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! ऋषभदेव जी के पुत्र यद्यपि स्वयं ही सब प्रकार से सुशिक्षित थे, तो भी लोगों को शिक्षा देने के उद्देश्य से महाप्रभावशाली परम सुहृद् भगवान् ऋषभ ने उन्हें इस प्रकार उपदेश दिया। ऋषभदेव जी के सौ पुत्रों में भरत सबसे बड़े थे। वे भगवान् के परम भक्त और भगवद्भक्तों के परायण थे। ऋषभदेव जी ने पृथ्वी का पालन करने के लिये उन्हें राजगद्दी पर बैठा दिया और स्वयं उपशमशील निवृत्तिपरायण महामुनियों के भक्त, ज्ञान और वैराग्यरूप परमहंसोचित्त धर्मों की शिक्षा देने के लिये बिलकुल विरक्त हो गये। केवल शरीर मात्र का परिग्रह रखा और सब कुछ घर पर रहते ही छोड़ दिया। अब वे वस्त्रों का भी त्याग करके सर्वथा दिगम्बर हो गये। उस समय उनके बाल बिखरे हुए थे। उन्मत्त का-सा वेष था। इस स्थिति में वे आह्वनीय (अग्निहोत्र की) अग्नियों को अपने में ही लीन करके संन्यासी हो गये और ब्रह्मावर्त देश से बाहर निकल गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 29-34 का हिन्दी अनुवाद)

वे सर्वथा मौन हो गये थे, कोई बात करना चाहता तो बोलते नहीं थे। जड़, अंधे, बहरे, गूँगे, पिशाच और पागलों की-सी चेष्टा करते हुए वे अवधूत बने जहाँ-तहाँ विचरने लगे। कभी नगरों और गावों में चले जाते तो कभी खानों, किसानों की बस्तियों, बगीचों, पहाड़ी गावों, सेना की छावनियों गोशालाओं, अहीरों की बस्तियों और यात्रियों के टिकने के स्थानों में रहते। कभी पहाड़ों, जंगलों और आश्रम आदि में विचरते। वे किसी भी रास्ते से निकलते तो जिस प्रकार वन में विचरने वाले हाथी को मक्खियाँ सताती हैं, उसी प्रकार मूर्ख और दुष्ट लोग उनके पीछे हो जाते और उन्हें तंग करते। कोई धमकी देते, कोई मारते, कोई पेशाब कर देते, कोई थूक देते, कोई ढेला मारते, कोई विष्ठा और धूल फेंकते, कोई अधोवायु छोड़ते और कोई खोटी-खरी सुनाकर उनका तिरस्कार करते। किन्तु वे इन सब बातों पर जरा भी ध्यान नहीं देते।

इसका कारण यह था कि भ्रम से सत्य कहे जाने वाले इस मिथ्या शरीर में उनकी अहंता-ममता तनिक भी नहीं थी। वे कार्य-कारणरूप सम्पूर्ण प्रपंच के साक्षी होकर अपने परमात्मस्वरूप में ही स्थित थे, इसलिये अखण्ड चित्तवृत्ति से अकेले ही पृथ्वी पर विचरते रहते थे। यद्यपि उनके हाथ, पैर, छाती, लम्बी-लम्बी बाँहें, कंधे, गले और मुख आदि अंगों की बनावट बड़ी ही सुकुमार थी; उनका स्वभाव से ही सुन्दर मुख स्वाभाविक मधुर मुस्कान से और भी मनोहर जान पड़ता था; नेत्र नवीन कमलदल के समान बड़े ही सुहावने, विशाल एवं कुछ लाली लिये हुए थे; उनकी पुतलियाँ शीतल एवं संतापहारिणी थीं। उन नेत्रों के कारण वे बड़े मनोहर जान पड़ते थे। कपोल, कान और नासिका छोटे-बड़े न होकर समान एवं सुन्दर थे तथा उनके अस्फुट हास्य युक्त मनोहर मुखारविन्द की शोभा को देखकर पुरनारियों के चित्त में कामदेव का संचार हो जाता था; तथापि उनके मुख के आगे जो भूरे रंग की लम्बी-लम्बी घुँघराली लटें लटकी रहती थीं, उनके महान् भार और अवधूतों के समान धूलिधूसरित देह के कारण वे ग्रहग्रस्त मनुष्य के समान जान पड़ते थे।

जब भगवान् ऋषभदेव ने देखा कि यह जनता योगसाधन में विघ्नरूप है और इससे बचने का उपाय बीभत्स वृत्ति से रहना ही है, तब उन्होंने अजगर वृत्ति धारण कर ली। वे लेटे-ही-लेटे खाने-पीने, चबाने और मल-मूत्र त्याग करने लगे। वे अपने त्यागे हुए मल में लोट-लोटकर शरीर को उससे सान लेते। (किन्तु) उनके मल में दुर्गन्ध नहीं थी, बड़ी सुगन्ध थी और वायु उस सुगन्ध को लेकर उनके चारों ओर दस योजन तक सारे देश को सुगन्धित कर देती थी। इसी प्रकार गौ, मृग और काकादि की वृत्तियों को स्वीकार कर वे उन्हीं के समान कभी चलते हुए, कभी खड़े-खड़े, कभी बैठे हुए और कभी लेटे-लेटे ही खाने-पीने और मल-मूत्र का त्याग करने लगते थे।

परीक्षित! परमहंसों को त्याग के आदर्श की शिक्षा देने के लिये इस प्रकार मोक्षपति भगवान् ऋषभदेव ने कई तरह की योगचर्याओं का आचरण किया। वे निरन्तर सर्वश्रेष्ठ महान् आनन्द का अनुभव करते रहते थे। उनकी दृष्टि में निरुपाधिरूप से सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा अपने आत्मस्वरूप भगवान् वासुदेव से किसी प्रकार का भेद नहीं था। इसलिये उनके सभी पुरुषार्थ पूर्ण हो चुके थे। उनके पास आकाशगमन, मनोजवित्व (मन की गति के समान ही शरीर का भी इच्छा करते ही सर्वत्र पहुँचा जाना), अन्तर्धान, परकायप्रवेश (दूसरे के शरीर में प्रवेश करना), दूर की बातें सुन लेना और दूर के दृश्य देख लेना आदि सब प्रकार की सिद्धियाँ अपने-आप ही सेवा करने को आयीं; परन्तु उन्होंने उनका मन से आदर या ग्रहण नहीं किया।

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