सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( पञ्चम स्कन्धः ) का इक्कीसवाँ , बाइसवाँ, तेइसवाँ, चौबीसवाँ, पच्चीसवाँ व छब्बीसवाँ अध्याय [ TheTwenty-first, twenty-second, twenty-third, twenty-fourth, twenty-fifth and twenty-sixth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Fifth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( पञ्चम स्कन्धः ) का इक्कीसवाँ , बाइसवाँ, तेइसवाँ, चौबीसवाँ, पच्चीसवाँ व छब्बीसवाँ अध्याय [ TheTwenty-first, twenty-second, twenty-third, twenty-fourth, twenty-fifth and twenty-sixth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Fifth wing) ]



                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【एकविंश अध्याय:】२१.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"सूर्य के रथ और उसकी गति का वर्णन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! परिमाण और लक्षणों के सहित इस भूमण्डल का कुल इतना ही विस्तार है, सो हमने तुम्हें बता दिया। इसी के अनुसार विद्वान् लोग द्युलोक का भी परिमाण बताते हैं। जिस प्रकार चना-मटर आदि के दो दलों में से एक का स्वरूप जान लेने से दूसरे का भी जाना जा सकता है, उसी प्रकार भूर्लोक के परिमाण से ही द्युलोक का भी परिमाण जान लेना चाहिये। इन दोनों के बीच में अन्तरिक्षलोक है। यह इन दोनों का सन्धिस्थान है। इसके मध्यभाग में स्थित ग्रह और नक्षत्रों के अधिपति भगवान् सूर्य अपने ताप और प्रकाश से तीनों लोकों को तपाते और प्रकाशित करते रहते हैं। वे उत्तरायण, दक्षिणायन और विषुवत् नाम वाली क्रमशः मन्द, शीघ्र और समान गतियों से चलते हुए समयानुसार मकरादि राशियों में ऊँचे-नीचे और समान स्थानों में जाकर दिन-रात को बड़ा, छोटा या समान करते हैं।

जब सूर्य भगवान् मेष या तुला राशि पर आते हैं, तब दिन-रात समान हो जाते हैं; जब वृषादि पाँच राशियों में चलते हैं, तब प्रतिमास रात्रियों में एक-एक घड़ी कम होती जाती है और उसी हिसाब से दिन बढ़ते जाते हैं। जब वृश्चिकादि पाँच राशियों में चलते हैं, तब दिन और रात्रियों में इसके विपरीत परिवर्तन होता है। इस प्रकार दक्षिणायन आरम्भ होने तक दिन बढ़ते रहते हैं और उत्तरायण लगने तक रात्रियाँ। इस प्रकार पण्डितजन मानसोत्तर पर्वत पर सूर्य की परिक्रमा का मार्ग नौ करोड़, इक्यावन लाख योजन बताते हैं। उस पर्वत पर मेरु के पूर्व की ओर इन्द्र की देवधानी, दक्षिण में यमराज की संयमनी, पश्चिम में वरुण की निम्लोचनी और उत्तर में चन्द्रमा की विभावरी नाम की पुरियाँ हैं। इन पुरियों में मेरु के चारों ओर समय-समय पर सूर्योदय, मध्याह्न, सायंकाल और अर्धरात्रि होते रहते हैं; इन्हीं के कारण सम्पूर्ण जीवों की प्रवृत्ति या निवृत्ति होती है।

राजन्! जो लोग सुमेरु पर रहते हैं, उन्हें तो सूर्यदेव सदा मध्याह्नकालीन रहकर ही तपाते रहते हैं। वे अपनी गति के अनुसार अश्विनी आदि नक्षत्रों की ओर जाते हुए यद्यपि मेरु को बायीं रखकर चलते हैं तो भी सारे ज्योतिर्मण्डल को घुमाने वाली निरन्तर दायीं ओर बहती हुई प्रवह वायु द्वारा घुमा दिये जाने से वे उसे दायीं ओर रखकर चलते जान पड़ते हैं। जिस पुरी में सूर्य भगवान् का उदय होता है, उसके ठीक दूसरी ओर की पुरी में अस्त होते मालूम होंगे और जहाँ वे लोगों को पसीने-पसीने करके तपा रहे होंगे, उसके ठीक सामने की ओर आधी रात होने की कारण वे उन्हें निद्रावश किये होंगे। जिन लोगों के मध्याह्न के समय वे स्पष्ट दीख रहे होंगे, वे ही जब सूर्य सौम्यदिशा में पहुँच जायें, तब उनका दर्शन नहीं कर सकेंगे।

सूर्यदेव जब इन्द्र की पुरी से यमराज की पुरी को चलते हैं, तब पंद्रह घड़ी में वे सवा दो करोड़ और साढ़े बारह लाख योजन से कुछ–पचीस हजार योजन-अधिक चलते हैं। फिर इसी क्रम से वे वरुण और चन्द्रमा की पुरियों को पार करके पुनः इन्द्र की पुरी में पहुँचते हैं। इस प्रकार चन्द्रमा आदि अन्य ग्रह भी ज्योतिश्चक्र में अन्य नक्षत्रों के साथ-साथ उदित और अस्त होते रहते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 12-19 का हिन्दी अनुवाद)

इस प्रकार भगवान् सूर्य का वेदमय रथ एक मुर्हूत में चौंतीस लाख आठ सौ योजन के हिसाब से चलता हुआ इन चारों पुरियों में घूमता रहता है। इसका संवत्सर नाम का एक चक्र (पहिया) बतलाया जाता है। उसमें मासरूप बारह अरे हैं, ऋतुरूप छः नेमियाँ (हाल) हैं, तीन चौमासेरूप तीन नाभि (आँवन) हैं। इस रथ की धुरी का एक सिरा मेरु पर्वत की चोटी पर है और दूसरा मानसोत्तर पर्वत पर। इसमें लगा हुआ यह पहिया कोल्हू के पहिये के समान घूमता हुआ मानसोत्तर पर्वत के ऊपर चक्कर लगाता है। इस धुरी में-जिसका मूल भाग जुड़ा हुआ है, ऐसी एक धुरी और है। वह लंबाई में इससे चौथाई है। उसका ऊपरी भाग तैलयन्त्र के धुरे के समान ध्रुवलोक से लगा हुआ है।

इस रथ में बैठने का स्थान छत्तीस लाख योजन लंबा और नौ लाख योजन चौड़ा है। इसक जुआ भी छत्तीस लाख योजन ही लंबा है। उसमें अरुण नाम के सारथि ने गायत्री आदि छन्दों के-से नाम वाले सात घोड़े जोत रखे हैं, वे ही इस रथ पर बैठे हुए भगवान् सूर्य को ले चलते हैं।

सूर्यदेव के आगे उन्हीं की ओर मुँह करके बैठे हुए अरुण उनके सारथि का कार्य करते हैं। भगवान् सूर्य के आगे अँगूठे के पोरुए के बराबर आकार वाले वालखिल्यादि साठ हजार ऋषि स्वस्तिवाचन के लिये नियुक्त हैं। वे उनकी स्तुति करते रहते हैं। इनके अतिरिक्त ऋषि, गन्धर्व, अप्सरा, नाग, यक्ष, राक्षस और देवता भी-जो कुल मिलाकर चौदह हैं, किन्तु जोड़े से रहने के कारण सात गण कहे जाते हैं-प्रत्येक मास में भिन्न-भिन्न नामों वाले होकर अपने भिन्न-भिन्न कर्मों से प्रत्येक मास में भिन्न-भिन्न नाम धारण करने वाले आत्मस्वरूप भगवान् सूर्य की दो-दो मिलकर उपासना करते हैं।

इस प्रकार भगवान् सूर्य भूमण्डल के नौ करोड़, इक्यावन लाख योजन लंबे घेरे में से प्रत्येक क्षण में दो हजार दो योजन की दूरी पार कर लेते हैं।

                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【द्वाविंश अध्याय:】२२.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

"भिन्न-भिन्न ग्रहों की स्थिति और गति का वर्णन"
राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! आपने जो कहा कि यद्यपि भगवान् सूर्य राशियों की ओर जाते समय मेरु और ध्रुव को दायीं ओर रखकर चलते मालूम होते हैं, किन्तु वस्तुतः उनकी गति दक्षिणावर्त नहीं होती- इस विषय को हम किस प्रकार समझें?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! जैसे कुम्हार के घूमते हुए चाक पर बैठकर उसके साथ घूमती हुई चींटी आदि की अपनी गति उससे भिन्न ही है, क्योंकि वह भिन्न-भिन्न समय में उस चक्र के भिन्न-भिन्न स्थानों में देखी जाती है- उसी प्रकार नक्षत्र और राशियों से उपलक्षित कालचक्र में पड़कर ध्रुव और मेरु को दायें रखकर घूमने वाले सूर्य आदि ग्रहों की गति वास्तव में उससे भिन्न ही है; क्योंकि वे कालभेद से भिन्न-भिन्न राशि और नक्षत्रों में देख पड़ते हैं।

वेद और विद्वान् लोग भी जिनकी गति को जानने के लिये उत्सुक रहते हैं, वे साक्षात् आदि पुरुष भगवान् नारायण ही लोकों के कल्याण और कर्मों की शुद्धि के लिये अपने वेदमय विग्रह काल को बारह मासों में विभक्त कर वसन्तादि छः ऋतुओं में उनके यथायोग्य गुणों का विधान करते हैं। इस लोक में वर्णाश्रम धर्म का अनुसरण करने वाले पुरुष वेदत्रयी द्वारा प्रतिपादित छोटे-बड़े कर्मों से इन्द्रादि देवताओं के रूप में और योग के साधनों से अन्तर्यामीरूप में उनकी श्रद्धापूर्वक आराधना करके सुगमता से ही परमपद प्राप्त कर सकते हैं। भगवान् सूर्य सम्पूर्ण लोकों के आत्मा हैं। वे पृथ्वी और द्युलोक के मध्य में स्थित आकाश मण्डल के भीतर कालचक्र में स्थित होकर बारह मासों को भोगते हैं, जो संवत्सर के अवयव हैं और मेष आदि राशियों के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनमें से प्रत्येक मास चन्द्रमा से शुक्ल और कृष्ण दो पक्ष का, पितृमान से एक रात और एक दिन का तथा सौरमान से सवा दो नक्षत्र का बताया जाता है। जितने काल के सूर्यदेव इस संवत्सर का छठा भाग भोगते हैं, उसका वह अवयव ‘ऋतु’ कहा जाता है। आकाश में भगवान् सूर्य का जितना मार्ग है, उसका आधा वे जितने समय में पार कर लेते हैं, उसे एक ‘अयन’ कहते हैं तथा जितने समय में वे अपनी मन्द, तीव्र और समान गति से स्वर्ग और पृथ्वीमण्डल के सहित पूरे आकाश का चक्कर लगा जाते हैं, उसे अवान्तर भेद से संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर अथवा वत्सर कहते हैं।

इसी प्रकार सूर्य की किरणों से एक लाख योजन ऊपर चन्द्रमा है। उसकी चाल बहुत तेज है, इसलिये वह सब नक्षत्रों से आगे रहता है। यह सूर्य के एक वर्ष के मार्ग को एक मास में, एक मास के मार्ग को सवा दो दिनों में और एक पक्ष के मार्ग को एक ही दिन में तै कर लेता है। यह कृष्ण पक्ष में क्षीण होती हुई कलाओं से पितृगण के और शुक्ल पक्ष में बढ़ती हुई कलाओं से देवताओं के दिन-रात का विभाग करता है तथा तीस-तीस मुहूर्तों में एक-एक नक्षत्र को पार करता है। अन्नमय और अमृतमय होने के कारण यही समस्त जीवों का प्राण और जीवन है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 10-17 का हिन्दी अनुवाद)

ये जो सोलह कलाओं से युक्त मनोमय, अन्नमय, अमृतमय, पुरुषस्वरूप भगवान् चन्द्रमा हैं- ये ही देवता, पितर, मनुष्य, भूत, पशु, पक्षी, सरीसृप और वृक्षादि समस्त प्राणियों के प्राणों का पोषण करते हैं; इसलिये इन्हें ‘सर्वमय’ कहते हैं।

चन्द्रमा से तीन लाख योजन ऊपर अभिजित् के सहित अट्ठाईस नक्षत्र हैं। भगवान् ने इन्हें कालचक्र में नियुक्त कर रखा है, अतः ये मेरु को दायीं ओर रखकर घूमते रहते हैं। इनसे दो लाख योजन ऊपर शुक्र दिखायी देता है। यह सूर्य की शीघ्र, मन्द और समान गतियों के अनुसार उन्हीं के समान कभी आगे, कभी पीछे और कभी साथ-साथ रहकर चलता है। यह वर्षा करने वाला ग्रह है, इसलिये लोकों को प्रायः सर्वदा ही अनुकूल रहता है। इसकी गति से ऐसा अनुमान होता है कि यह वर्षा रोकने वाले ग्रहों को शान्त कर देता है।

शुक्र की गति के साथ-साथ बुध की भी व्याख्या हो गयी-शुक्र के अनुसार ही बुध की गति भी समझ लेनी चाहिये। यह चन्द्रमा का पुत्र शुक्र से दो लाख योजन ऊपर है। यह प्रायः मंगलकारी ही है; किन्तु जब सूर्य की गति का उल्लंघन करके चलता है, तब बहुत अधिक आँधी, बादल और सूखे के भय की सूचना देता है। इससे दो लाख योजन ऊपर मंगल है। वह यदि वक्रगति से न चले तो, एक-एक राशि को तीन-तीन पक्ष में भोगता हुआ बारहों राशियों को पार करता है। यह अशुभ ग्रह है और प्रायः अमंगल का सूचक है।

इसके ऊपर दो लाख योजन की दूरी पर भगवान् बृहस्पति जी हैं। ये यदि वक्रगति से न चलें, तो एक-एक राशि को एक-एक वर्ष में भोगते हैं। ये प्रायः ब्राह्मण कुल के लिये अनुकूल रहते हैं। बृहस्पति से दो लाख योजन ऊपर शनैश्चर दिखायी देते हैं। ये तीस-तीस महीने तक एक-एक राशि में रहते हैं। अतः इन्हें सब राशियों को पार करने में तीस वर्ष लग जाते हैं। ये प्रायः सभी के लिये अशान्तिकारक हैं। इनके ऊपर ग्यारह लाख योजन की दूरी पर कश्यपादि सप्तर्षि दिखायी देते हैं। ये सब लोकों की मंगल-कामना करते हुए भगवान् विष्णु के परमपद ध्रुवलोक की प्रदक्षिणा किया करते हैं।

                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【त्रयोविंश अध्याय:】२३.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

"शिशुमार चक्र का वर्णन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! सप्तर्षियों से तेरह लाख योजन के ऊपर ध्रुवलोक है। इसे भगवान् विष्णु का परमपद कहते हैं। यहाँ उत्तानपाद के पुत्र परमभगवद्भक्त ध्रुव जी विराजमान हैं। अग्नि, इन्द्र, प्रजापति कश्यप और धर्म-ये सब एक साथ अत्यन्त आदरपूर्वक इनकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं। अब भी कल्पपर्यन्त रहने वाले लोक इन्हीं के आधार स्थित हैं। इनका इस लोक का प्रभाव हम पहले (चौथे स्कन्ध में) वर्णन कर चुके हैं। सदा जागते रहने वाले अव्यक्तगति भगवान् काल के द्वारा जो ग्रह-नक्षत्रादि ज्योतिर्गण निरन्तर घुमाये जाते हैं, भगवान् ने ध्रुवलोक को ही उन सबके आधार स्तम्भरूप से नियुक्त किया है। अतः यह एक ही स्थान में रहकर सदा प्रकाशित होता है।

जिस प्रकर दायँ चलाने के समय अनाज को खूँदने वाले पशु छोटी, बड़ी और मध्यम रस्सी में बँधकर क्रमशः निकट, दूर और मध्य में रहकर खंभे के चारों ओर मण्डल बाँधकर घूमते रहते हैं, उसी प्रकार सारे नक्षत्र और ग्रहगण बाहर-भीतर के क्रम से इस कालचक्र में नियुक्त होकर ध्रुवलोक का ही आश्रय लेकर वायु की प्रेरणा से कल्प के अन्त तक घूमते रहते हैं। जिस प्रकार मेघ और बाज आदि पक्षी अपने कर्मों की सहायता से वायु के अधीन रहकर आकाश में उड़ते रहते हैं, उसी प्रकार ये ज्योतिर्गण भी प्रकृति और पुरुष के संयोगवश अपने-अपने कर्मों के अनुसार चक्कर काटते रहते हैं, पृथ्वी पर नहीं गिरते।

कोई-कोई पुरुष भगवान् की योगमाया के आधार पर स्थित इस ज्योतिश्चक्र का शिशुमार (सूँस) के रूप में वर्णन करते हैं। यह शिशुमार कुण्डली मारे हुए है और इनका मुख नीचे की ओर हैं। इसकी पूँछ के सिरे पर ध्रुव स्थित है। पूँछ के मध्य भाग में प्रजापति, अग्नि, इन्द्र और धर्म है। पूँछ की जड़ में धाता और विधाता हैं। इसके कटिप्रदेश में सप्तर्षि हैं। यह शिशुमार दाहिनी ओर को सिकुड़कर कुण्डली मारे हुए है। ऐसी स्थिति में अभिजित् से लेकर पुनर्वसुपर्यन्त जो उत्तरायण के चौदह नक्षत्र हैं, वे इसके दाहिने भाग में हैं और पुष्य से लेकर उत्तराषाढ़ापर्यन्त जो दक्षिणायन के चौदह नक्षत्र हैं, वे बायें भाग में हैं। लोक में भी जब शिशुमार कुण्डलाकार होता है, तब उसके दोनों ओर के अंगों की संख्या समान रहती है, उसी प्रकार यहाँ नक्षत्र-संख्या में भी समानता है। इसकी पीठ में अजवीथी (मूल, पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा नाम के तीन नक्षत्रों का समूह) है और उदर में आकाशगंगा है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 6-9 का हिन्दी अनुवाद)

राजन्! इसके दाहिने और बायें कटितटों में पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्र हैं, पीछे के दाहिने और बायें चरणों में आर्द्रा और आश्लेषा नक्षत्र हैं तथा दाहिने और बायें नथुनों में क्रमशः अभिजित् और उत्तराषाढ़ा हैं। इसी प्रकार दाहिने और बायें नेत्रों में श्रवण और पूर्वाषाढ़ा एवं दाहिने और बायें कानों में धनिष्ठा और मूल नक्षत्र हैं। मघा आदि दक्षिणायन के आठ नक्षत्र बायीं पसलियों में और विपरीत क्रम से मृगशिरा आदि उत्तरायण के आठ नक्षत्र दाहिनी पसलियों में हैं।

शतभिषा और ज्येष्ठा-ये दो नक्षत्र क्रमशः दाहिने और बायें कंधों की जगह हैं। इसकी ऊपर की थूथनी में अगस्त्य, नीचे की ठोड़ी में नक्षत्ररूप यम, मुखों में मंगल, लिंगप्रदेश में शनि, कुकुद् में बृहस्पति, छाती में सूर्य, हृदय में नारायण, मन में चन्द्रमा, नाभि में शुक्र, स्तनों में अश्विनीकुमार, प्राण और अपान में बुध, गले में राहु, समस्त अंगों में केतु और रोमों में सम्पूर्ण तारागण स्थित हैं।

राजन्! यह भगवान् विष्णु का सर्वदेवमय स्वरूप है। इसका नित्यप्रति सायंकाल के समय पवित्र और मौन होकर दर्शन करते हुए चिन्तन करना चाहिये तथा इस मन्त्र का जप करते हुए भगवान् की स्तुति करनी चाहिये- ‘सम्पूर्ण ज्योतिर्गणों के आश्रय कालचक्र स्वरूप, सर्वदेवाधिपति परमपुरुष परमात्मा का हम नमस्कारपूर्वक ध्यान करते हैं’।

ग्रह, नक्षत्र और ताराओं के रूप में भगवान् का आधिदैविक रूप प्रकाशित हो रहा है; वह तीनों समय उपर्युक्त मन्त्र का जप करने वाले पुरुषों के पाप नष्ट कर देता है। जो पुरुष प्रातः, मध्याह्न और सायं-तीनों काल उनके इस आधिदैविक स्वरूप का नित्यप्रति चिन्तन और वन्दन करता है, उसके उस समय किये हुए पाप तुरन्त नष्ट हो जाते हैं।


                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【चतुविंश अध्याय:】२४.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

"राहु आदि की स्थिति, अतलादि नीचे के लोकों का वर्णन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! कुछ लोगों का कथन है कि सूर्य से दस हजार योजन नीचे राहु नक्षत्रों के समान घूमता है। इसने भगवान् की कृपा से ही देवत्व और ग्रहत्व प्राप्त किया है, स्वयं यह सिंहिकापुत्र असुराधम होने के कारण किसी प्रकार इस पद के योग्य नहीं है। इसके जन्म और कर्मों का हम आगे वर्णन करेंगे।

सूर्य का जो यह अत्यन्त तपता हुआ मण्डल है, उसका विस्तार दस हजार योजन बतलाया जाता है। इसी प्रकार चन्द्रमण्डल का विस्तार बारह हजार योजन है और राहु का तेरह हजार योजन। अमृतपान के समय राहु देवता के वेष में सूर्य और चन्द्रमा के बीच में आकर बैठ गया था, उस समय सूर्य और चन्द्रमा ने इसका भेद खोल दिया था; उस वैर को याद करके यह अमावस्या और पूर्णिमा के दिन उन पर आक्रमण करता है। यह देखकर भगवान् ने सूर्य और चन्द्रमा की रक्षा के लिये उन दोनों के पास अपने प्रिय आयुध सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर दिया है। वह निरन्तर घूमता रहता है, इसलिये राहु उसके असह्य तेज से उद्विग्न और चकितचित्त होकर मुहूर्तमात्र उनके सामने टिककर फिर सहसा लौट आता है। उसके उतनी देर उनके सामने ठहरने को ही लोग ‘ग्रहण’ कहते हैं।

राहु से दस हजार योजन नीचे सिद्ध, चारण और विद्याधर आदि के स्थान हैं। उनके नीचे जहाँ तक वायु की गति है और बादल दिखायी देते हैं, अन्तरिक्ष लोक है। यह यक्ष, राक्षस, पिशाच, प्रेत और भूतों का विहार स्थल है। उससे नीचे सौ योजन की दूरी पर यह पृथ्वी है। जहाँ तक हंस, गिद्ध, बाज और गरुड़ आदि प्रधान-प्रधान पक्षी उड़ सकते हैं, वहीं तक इसकी सीमा है। पृथ्वी के विस्तार और स्थिति आदि का वर्णन तो हो ही चुका है। इसके अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल नाम के सात भू-विवर (भूगर्भस्थित बिल या लोक) हैं। ये एक के नीचे एक दस-दस हजार योजन की दूरी पर स्थित हैं और इनमें से प्रत्येक की लंबाई-चौड़ाई भी दस-दस हजार योजन ही है। ये भूमि के बिल भी एक प्रकार के स्वर्ग ही हैं। इनमें स्वर्ग से भी अधिक विषय भोग, ऐश्वर्य, आनन्द, सन्तान-सुख और धन-सम्पत्ति है। यहाँ के वैभवपूर्ण भवन, उद्यान और क्रीड़ास्थानों में दैत्य, दानव और नाग तरह-तरह की मायामयी क्रीड़ाएँ करते हुए निवास करते हैं। वे सब गार्हस्थ्य धर्म का पालन करने वाले हैं। उनके स्त्री, पुत्र, बन्धु, बान्धव और सेवक लोग उनसे बड़ा प्रेम रखते हैं और सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं। उनके भोगों में बाधा डालने की इन्द्रादि में भी सामर्थ्य नहीं है।

महाराज! इन बिलों में मायावी मय दानव की बनायी हुई अनेकों पुरियाँ शोभा से जगमगा रही हैं, जो अनेक जाति की सुन्दर-सुन्दर श्रेष्ठ मणियों से रचे हुए चित्र-विचित्र भवन, परकोटे, नगर द्वार, सभा भवन, मन्दिर, बड़े-बड़े आँगन और गृहों से सुशोभित हैं; तथा जिनकी कृत्रिम भूमियों (फर्शों) पर नाग और असुरों के जोड़े एवं कबूतर, तोता और मैना आदि पक्षी किलोल करते रहते हैं, ऐसे पातालधिपतियों के भव्य भवन उन पुरियों की शोभा बढ़ाते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 10-16 का हिन्दी अनुवाद)

वहाँ के बगीचे भी अपनी शोभा से देवलोक के उद्यानों की शोभा को मात करते हैं। उनमें अनेकों वृक्ष हैं, जिनकी सुन्दर डालियाँ फल-फूलों के गुच्छों और कोमल कोंपलों के भार से झुकी रहती हैं तथा जिन्हें तरह-तरह की लताओं ने अपने अंगपाश से बाँध रखा है। वहाँ जो निर्मल जल से भरे हुए अनेकों जलाशय हैं, उनमें विविध विहंगों के जोड़े विलास करते रहते हैं। इन वृक्षों और जलाशयों की सुषमा से वे उद्यान बड़ी शोभा पा रहे हैं। उन जलाशयों में रहने वाली मछलियाँ जब खिलवाड़ करती हुई उछलती हैं, तब उनका जल हिल उठता है। साथ ही जल के ऊपर उगे हुए कमल, कुमुद, कुवलय, कल्हार, नीलकमल, लालकमल और शतपत्र कमल आदि के समुदाय भी हिलने लगते हैं।

इन कमलों के वनों में रहने वाले पक्षी अविराम क्रीड़ा-कौतुक करते हुए भाँति-भाँति की बड़ी मीठी बोली बोलते रहते हैं, जिसे सुनकर मन और इन्द्रियों को बड़ा ही आह्लाद होता है। उस समय समस्त इन्द्रियों में उत्सव-सा छा जाता है। वहाँ सूर्य का प्रकाश नहीं जाता, इसलिये दिन-रात आदि काल विभाग का भी कोई खटका नहीं देखा जाता। वहाँ के सम्पूर्ण अन्धकार को बड़े-बड़े नागों के मस्तकों की मणियाँ ही दूर करती हैं। इन लोकों के निवासी जन ओषधि, रस, रसायन, अन्न, पान और स्नानादि का सेवन करते हैं, वे सभी पदार्थ दिव्य होते हैं; इन दिव्य वस्तुओं के सेवन से उन्हें मानसिक या शारीरिक रोग नहीं होते तथा झुर्रियां पड़ जाना, बाल पक जाना, बुढ़ापा आ जाना, देह का कान्तिहीन हो जाना, शरीर में से दुर्गन्ध आना, पसीना चूना, थकावट अथवा शिथिलता आना तथा आयु के साथ शरीर की अवस्थाओं का बदलना-ये कोई विकार नहीं होते। वे सदा सुन्दर, स्वस्थ, जवान और शक्तिसम्पन्न रहते हैं।

उन पुण्य पुरुषों की भगवान् के तेजरूप सुदर्शन चक्र के सिवा और किसी साधन से मृत्यु नहीं हो सकती। सुदर्शन चक्र के आते ही भय के कारण असुर रमणियों का गर्भपात हो जाता है। अतल लोक में मय दानव का पुत्र असुर बल रहता है। उसने छियानबे प्रकार की माया रची है। उनमें से कोई-कोई आज भी मायावी पुरुषों में पायी जाती हैं। उसने एक बार जँभाई ली थी, उस समय उसके मुख से स्वैरिणी (केवल अपने वर्ण के पुरुषों से रमण करने वाली), कामिनी (अन्य वर्णों के पुरुषों से भी समागम करने वाली) और पुंश्चली (अत्यन्त चंचल स्वभाव वाली)-तीन प्रकार की स्त्रियाँ उत्पन्न हुईं। ये उस लोक में रहने वाले पुरुषों को हाटक नाम रस पिलाकर सम्भोग करने में समर्थ बना लेती हैं और फिर उनके साथ अपनी हाव-भावमयी चितवन, प्रेममयी मुसकान, प्रेमालाप और आलिंगनादि के द्वारा यथेष्ट रमण करती हैं। उस हाटक-रस को पीकर मनुष्य मदान्ध-सा हो जाता है और अपने को दस हजार हाथियों के समान बलवान् समझकर ‘मैं ईश्वर हूँ, मैं सिद्ध हूँ’ इस प्रकार बढ़-बढ़कर बातें करने लगता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 17-25 का हिन्दी अनुवाद)

उसके नीचे वितल लोक में भगवान् हाटकेश्वर नामक महादेव जी अपने पार्षद भूतगणों के सहित रहते हैं। वे प्रजापति की सृष्टि की वृद्धि के लिये भवानी के साथ विहार करते रहते हैं। उन दोनों के तेज से वहाँ हाटकी नाम की एक श्रेष्ठ नदी निकली है। उसके जल को वायु से प्रज्वलित अग्नि बड़े उत्साह से पीता है। वह जो हाटक नाम का सोना थूकता है, उससे बने हुए आभूषणों को दैत्यराजों के अन्तःपुरों में स्त्री-पुरुष सभी धारण करते हैं।

वितल के नीचे सुतल लोक है। उसमें महायशस्वी पवित्र कीर्ति विरोचन पुत्र बलि रहते हैं। भगवान् ने इन्द्र का प्रिय करने के लिये अदिति के गर्भ से वटु-वामन रूप में अवतीर्ण होकर उनसे तीनों लोक छीन लिये थे। फिर भगवान् की कृपा से ही उनका इस लोक में प्रवेश हुआ। यहाँ उन्हें जैसी उत्कृष्ट सम्पत्ति मिली हुई है, वैसी इन्द्रादि के पास भी नहीं है। अतः वे उन्हीं पूज्यतम प्रभु की अपने धर्माचरण द्वारा आराधना करते हुए यहाँ आज भी निर्भयतापूर्वक रहते हैं।

राजन्! सम्पूर्ण जीवों के नियन्ता एवं आत्मस्वरूप परमात्मा भगवान् वासुदेव-जैसे पूज्यतम, पवित्रतम पात्र आने पर उन्हें परम श्रद्धा और आदर के साथ स्थिर चित्त से दिये हुए भूमिदान का यही कोई मुख्य फल नहीं है कि बलि को सुतल लोक का ऐश्वर्य प्राप्त हो गया। यह ऐश्वर्य तो अनित्य है। किन्तु वह भूमिदान तो साक्षात् मोक्ष का ही द्वार है। भगवान् का तो छींकने, गिरने और फिसलने के समय विवश होकर एक बार नाम लेने से भी मनुष्य सहसा कर्म-बन्धन को काट देता है, जबकि मुमुक्षु लोग इस कर्म बन्धन को योग साधन आदि अन्य अनेकों उपायों का आश्रय लेने पर बड़े कष्ट से कहीं काट पाते हैं। अतएव अपने संयमी भक्त और ज्ञानियों को स्वस्वरूप प्रदान करने वाले और समस्त प्राणियों के आत्मा श्रीभगवान् को आत्मभाव से किये हुए भूमिदान का यह फल नहीं हो सकता। भगवान् ने यदि बलि को उसके सर्वस्वदान के बदले अपनी विस्मृति कराने वाला यह मायामय भोग और ऐश्वर्य ही दिया तो उन्होंने उस पर यह कोई अनुग्रह नहीं किया।

जिस समय कोई और उपाय न देखकर भगवान् ने याचकों के छल से उसका त्रिलोकी का राज्य छीन लिया और उसके पास केवल उसका शरीर मात्र ही शेष रहने दिया, तब वरुण के पाशों में बाँधकर पर्वत की गुफा में डाल दिये जाने पर उसने कहा था- ‘खेद है, यह ऐश्वर्यशाली इन्द्र विद्वान् होकर भी अपना सच्चा स्वार्थ सिद्ध करने में कुशल नहीं है। इसने सम्मति लेने के लिये अनन्यभाव से बृहस्पति जी को अपना मन्त्री बनाया; फिर भी उनकी अवहेलना करके इसने श्रीविष्णु भगवान् से उनका दास्य न माँगकर उनके द्वारा मुझसे अपने लिये ये भोग ही माँगे। ये तीन लोक तो केवल एक मन्वन्तर तक ही रहते हैं, जो अनन्त काल का एक अवयव मात्र है। भगवान् के कैंकर्य के आगे भला, इन तुच्छ भोगों का क्या मूल्य है। हमारे पितामह प्रह्लाद जी ने-भगवान् के हाथों अपने पिता हिरण्यकशिपु के मारे जाने पर-प्रभु की सेवा का ही वर माँगा था। भगवान् देना भी चाहते थे, तो भी उनसे दूर करने वाला समझकर उन्होंने अपने पिता का निष्कण्टक राज्य लेना स्वीकार नहीं किया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 26-31 का हिन्दी अनुवाद)

बड़े महानुभाव थे। मुझ पर तो न भगवान् की कृपा ही है और न मेरी वासनाएँ ही शान्त हुई हैं; फिर मेरे-जैसा कौन पुरुष उनके पास पहुँचने का साहस कर सकता है?

राजन्! इस बलि का चरित हम आगे (अष्टम स्कन्ध में) विस्तार से कहेंगे। अपने भक्तों के प्रति भगवान् का हृदय दया से भरा रहता है। इसी से अखिल जगत् के परम पूजनीय गुरु भगवान् नारायण हाथ में गदा लिये सुतल लोक में राजा बलि के द्वार पर सदा उपस्थित रहते हैं। एक बार जब दिग्विजय करता हुआ घमंडी रावण वहाँ पहुँचा, तब उसे भगवान् ने अपने पैर के अँगूठे की ठोकर से ही लाखों योजन दूर फेंक दिया था।

सुतल लोक से नीचे तलातल है। वहाँ त्रिपुराधिती दानवराज मय रहता है। पहले तीनों लोको को शान्ति प्रदान करने के लिये भगवान् शंकर ने उसके तीनों पुर भस्म कर दिये थे। फिर उन्हीं की कृपा से उसे यह स्थान मिला। वह मायावियों का परम गुरु है और महादेव जी के द्वारा सुरक्षित है, इसलिये उसे सुदर्शन चक्र से भी कोई भय नहीं है। वहाँ के निवासी उसका बहुत आदर करते हैं। उसके नीचे महातल में कद्रु से उत्पन्न हुए अनेक सिरों वाले सर्पों का क्रोधवश नामक एक समुदाय रहता है। उनमें कुहक, तक्षक, कालिय और सुषेण आदि प्रधान हैं। उनके बड़े-बड़े फन हैं। वे सदा भगवान् के वाहन पक्षिराज गरुड़ जी से डरते रहते हैं; तो भी कभी-कभी अपने स्त्री, पुत्र, मित्र और कुटुम्ब के संग से प्रमत्त होकर विहार करने लगते हैं।

उसके नीचे रसातल में पणि नाम के दैत्य और दानव रहते हैं। ये निवातकवच, कालेय और हिरण्यपुरवासी भी कहलाते हैं। इनका देवताओं से विरोध है। ये जन्म से ही बड़े बलवान् और महान् साहसी होते हैं। किन्तु जिनका प्रभाव सम्पूर्ण लोकों में फैला हुआ है, उन श्रीहरि के तेज से बलाभिमान चूर्ण हो जाने के कारण ये सर्पों के समान लुक-छिपकर रहते हैं तथा इन्द्र की दूती सरमा के कहे हुए मन्त्रवर्णरूप[1] वाक्य के कारण सर्वदा इन्द्र से डरते रहते हैं।

रसातल के नीचे पाताल है। वहाँ शंख, कुलिक, महाशंख, श्वेत, धनजंय, ध्रितराष्ट्र, शंखचूड़, कम्बल, अश्वतर और देवदत्त आदि बड़े क्रोधी और बड़े-बड़े फनों वाले नाग रहते हैं। इनमें वासुकि प्रधान हैं। उनमें से किसी के पाँच, किसी के सात, किसी के दस, किसी के सौ और किसी के हजार सिर हैं। उनके फनों की दमकती हुई मणियाँ अपने प्रकाश से पाताल लोक का सारा अन्धकार नष्ट कर देती हैं।

                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【पञ्चविंश अध्याय:】२५.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चविंश स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

"श्रीसंकर्षणदेव का विवरण और स्तुति"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! पाताल लोक के नीचे तीस हजार योजन की दूरी पर अनन्त नाम से विख्यात भगवान् की तामसी नित्य कला है। यह अहंकाररूपा होने से द्रष्टा और दृश्य को खींचकर एक कर देती है, इसलिये पांचरात्र आगम के अनुयायी भक्तजन इसे ‘संकर्षण’ कहते हैं। इन भगवान् अनन्त के एक हजार मस्तक हैं। उनमें से एक पर रखा हुआ यह सारा भूमण्डल सरसों के दाने के समान दिखायी देता है। प्रलयकाल उपस्थित होने पर जब इन्हें इस विश्व का उपसंहार करने की इच्छा होती है, तब इनकी क्रोधवश घूमती हुई मनोहर भ्रुकुटियों के मध्यभाग से संकर्षण नामक रुद्र प्रकट होते हैं। उनकी व्यूहसंख्या ग्यारह है। वे सभी तीन नेत्रों वाले होते हैं और हाथ में तीन नोकों वाले शूल लिये रहते हैं।

भगवान् संकर्षण के चरणकमलों के गोल-गोल स्वच्छ और अरुणवर्ण नख मणियों की पंक्ति के समान देदीप्यमान हैं। जब अन्य प्रधान-प्रधान भक्तों के सहित अनेकों नागराज अनन्य भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम करते हैं, तब उन्हें उन नख मणियों में अपने कुण्डल कान्तिमण्डित कमनीय कपोलों वाले मनोहर मुखारविन्दों की मनमोहिनी झाँकी होती है और उनका मन आनन्द से भर जाता है। अनेकों नागराजों की कन्याएँ विविध कामनाओं से उनके अंगमण्डल पर चाँदी के खम्भों के समान सुशोभित उनकी वलयविलसित लंबी-लंबी श्वेतवर्ण सुन्दर भुजाओं पर अरगजा, चन्दन और कुंकुम पंक का लेप करती हैं। उस समय अंग स्पर्श से मथित हुए उनके हृदय में काम का संचार हो जाता है। तब वे उनके मदविह्वल सकरुण अरुण नयनकमलों से सुशोभित तथा प्रेममद से मुदित मुखारविन्द की ओर मधुर मनोहर मुस्कान के साथ सलज्जभाव से निहारने लगती हैं। वे अनन्त गुणों के सागर आदिदेव भगवान् अनन्त अपने अमर्ष (असहनशीलता) और रोष के वेग को रोके हुए वहाँ समस्त लोकों के कल्याण के लिये विराजमान हैं।

देवता, असुर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व, विद्याधर और मुनिगण भगवान् अनन्त का ध्यान किया करते हैं। उनके नेत्र निरन्तर प्रेममद से मुदित, चंचल और विह्वल रहते हैं। वे सुललित वचनामृत से अपने पार्षद और देवयूथपों को सन्तुष्ट करते रहते हैं। उनके अंग पर नीलाम्बर और कानों में केवल एक कुण्डल जगमगाता रहता है तथा उनका सुभग और सुन्दर हाथ हाल की मूठ पर रख रहता है। वे उदार लीलामय भगवान् संकर्षण गले में वैजयन्ती माला धारण किये रहते हैं, जो साक्षात् इन्द्र के हाथी ऐरावत के गले में पड़ी हुई सुवर्ण की श्रृंखला के समान जान पड़ती है। जिसकी कान्ति कभी फीकी नहीं पड़ती, ऐसी नवीन तुलसी की गन्ध और मधुर मकरन्द से उन्मत्त हुए भौंरे निरन्तर मधुर गुंजार करके उसकी शोभा बढ़ाते रहते हैं।

परीक्षित! इस प्रकार भगवान् अनन्त माहात्म्य-श्रवण और ध्यान करने से मुमुक्षुओं के हृदय में आविर्भूत होकर उनकी अनादिकालीन कर्मवासनाओं से ग्रथित सत्त्व, रज और तमोगुणात्मक अविद्यामयी हृदयग्रन्थि को तत्काल काट डालते हैं। उनके गुणों का एक बार ब्रह्मा जी के पुत्र भगवान् नारद ने तुम्बुरु गन्धर्व के साथ ब्रह्मा जी की सभा में इस प्रकार गान किया था।

जिनकी दृष्टि पड़ने से ही जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के हेतुभूत सत्त्वादि प्राकृत गुण अपने-अपने कार्य में समर्थ होते हैं, जिनका स्वरूप ध्रुव (अनन्त) और अकृत (अनादि) है तथा जो अकेले होते हुए ही इस नानात्मक प्रपंच को अपने में धारण किये हुए हैं-उन भगवान् संकर्षण के तत्त्व को कोई कैसे जान सकता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: पञ्चविंश अध्यायः श्लोक 10-15 का हिन्दी अनुवाद)

जिनमें यह कार्य-कारणरूप सारा प्रपंच भास रहा है तथा अपने निजजनों का चित्त आकर्षित करने के लिये की हुई जिनकी वीरतापूर्ण लीला को परम पराक्रमी सिंह ने आदर्श मानकर अपनाया है, उन उदारवीर्य संकर्षण भगवान् ने हम पर बड़ी कृपा करके यह विशुद्ध सत्त्वमय स्वरूप धारण किया है।

जिनके सुने-सुनाये नाम का कोई पीड़ित अथवा पतित पुरुष अकस्मात् अथवा हँसी में भी उच्चारण कर लेता है तो वह पुरुष दूसरे मनुष्यों के भी सारे पापों को तत्काल नष्ट कर देता है-ऐसे शेष भगवान् को छोड़कर मुमुक्षु पुरुष और किसका आश्रय ले सकता है?

यह पर्वत, नदी और समुद्रादि से पूर्ण सम्पूर्ण भूमण्डल उन सहस्रशीर्षा भगवान् के एक मस्तक पर एक रजःकण के समान रखा हुआ है। वे अनन्त हैं, इसलिये उनके पराक्रम का कोई परिमाण नहीं है। किसी के हजार जीभें हों, तो भी उन सर्वव्यापक भगवान् के पराक्रमों की गणना करने का साहस वह कैसे कर सकता है?

वास्तव में उनके वीर्य, अतिशय गुण और प्रभाव असीम हैं। ऐसे प्रभावशाली भगवान् अनन्त रसातल के मूल में अपनी ही महिमा में स्थित स्वतन्त्र हैं और सम्पूर्ण लोकों की स्थिति के लिये लीला से ही पृथ्वी को धारण किये हुए हैं।

राजन्! भोगों की कामना वाले पुरुषों की अपने कर्मों के अनुसार प्राप्त होने वाली भगवान् की रची हुई ये ही गतियाँ हैं। इन्हें जिस प्रकार मैंने गुरुमुख से सुना था, उसी प्रकार तुम्हें सुना दिया। मनुष्य को प्रवृत्तिरूप धर्म के परिणाम में प्राप्त होने वाली जो परस्पर विलक्षण ऊँची-नीची गतियाँ हैं, वे इतनी ही हैं; इन्हें तुम्हारे प्रश्न के अनुसार मैंने सुना दिया। अब बताओ और क्या सुनाऊँ?

                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【षड्-विंश अध्याय:】२६.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"नरकों की विभिन्न गतियों का वर्णन"
राजा परीक्षित ने पूछा ;- महर्षे! लोगों को जो ये ऊँची-नीची गतियाँ प्राप्त होती हैं, उनमें इतनी विभिन्नता क्यों है?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! कर्म करने वाले पुरुष सात्त्विक, राजस और तामस- तीन प्रकार के होते हैं तथा उनकी श्रद्धाओं में भी भेद रहता है। इस प्रकार स्वभाव और श्रद्धा के भेद से उनके कर्मों की गतियाँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं और न्यूनाधिक रूप में ये सभी गतियाँ सभी कर्ताओं को प्राप्त होती हैं। इसी प्रकार निषिद्ध कर्मरूप पाप करने वालों को भी उनकी श्रद्धा की असमानता के कारण समान फल नहीं मिलता। अतः अनादि अविद्या के वशीभूत होकर कामनापूर्वक किये हुए उन निषिद्ध कर्मों के परिणाम में जो हजारों तरह की नारकी गतियाँ होती हैं, उनका विस्तार से वर्णन करेंगे।

राजा परीक्षित् ने पूछ ;- भगवन्! आप जिनका वर्णन करना चाहते हैं, वे नरक इसी पृथ्वी के कोई देश विशेष हैं अथवा त्रिलोकी से बाहर या इसी के भीतर किसी जगह हैं?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! वे त्रिलोकी के भीतर ही हैं तथा दक्षिण की ओर पृथ्वी से नीचे जल के ऊपर स्थित हैं। इसी दिशा में अग्निष्वात्त आदि पितृगण रहते हैं, वे अत्यन्त एकाग्रतापूर्वक अपने वंशधरों के लिये मंगलकामना किया करते हैं। उन नरकलोक में सूर्य के पुत्र पितृराज भगवान् यम अपने सेवकों के सहित रहते हैं तथा भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन न करते हुए, अपने दूतों द्वारा वहाँ लाये हुए मृत प्राणियों को उनके दुष्कर्मों के अनुसार पाप का फल दण्ड देते हैं।

परीक्षित! कोई-कोई लोग नरकों की संख्या इक्कीस बताते हैं। अब हम नाम, रूप और लक्षणों के अनुसार उनका क्रमशः वर्णन करते हैं। उनके नाम ये हैं- तामिस्र, अन्धतामिस्र, रौरव, महारौरव, कुम्भीपाक, कालसूत्र, असिपत्रवन, सूकरमुख, अन्धकूप, कृमिभोजन, सन्दंश, तप्तसूर्मि, वज्रकण्टकशाल्मती, वैतरणी, पूयोद, प्राणरोध, विशसन, लालाभक्ष, सारमेयादन, अवीचि और अयःपान। इनके सिवा क्षारकर्दम, रक्षोगणभोजन, शूलप्रोत, दन्दशूक, अवटनिरोधन, पर्यावर्तन और सूचीमुख- ये सात और मिलाकर कुल अट्ठाईस नरक तरह-तरह की यातनाओं को भोगने के स्थान हैं।

जो पुरुष दूसरों के धन, सन्तान अथवा स्त्रियों का हरण करता है, उसे अत्यन्त भयानक यमदूत कालपाश में बाँधकर बलात् तामिस्र नरक में गिरा देते हैं। उस अन्धकारमय नरक में उसे अन्न-जल न देना, डंडे लगाना और भय दिखलाना आदि अनेक प्रकार के उपायों से पीड़ित किया जाता है। इससे अत्यन्त दुःखी होकर वह एकाएक मुर्च्छित हो जाता है। इसी प्रकार जो पुरुष किसी दूसरे को धोखा देकर उसकी स्त्री आदि को भोगता है, वह अन्धतामिस्र नरक में पड़ता है। वहाँ की यातनाओं में पड़कर वह जड़ से कटे हुए वृक्ष के समान, वेदना के मारे सारी सुध-बुध खो बैठता है और उसे कुछ भी नहीं सूझ पड़ता। इसी से इस नरक को अन्धतामिस्र कहते हैं।

जो पुरुष इस लोक में ‘यह शरीर ही मैं हूँ और ये स्त्री-धनादि मेरे हैं’ ऐसी बुद्धि से दूसरे प्राणियों से द्रोह करके निरन्तर अपने कुटुम्ब के ही पालन-पोषण में लगा रहता है, वह अपना शरीर छोड़ने पर अपने पाप के कारण स्वयं ही रौरव नरक में गिरता है। इस लोक में उसने जिन जीवों को जिस प्रकार कष्ट पहुँचाया होता है, परलोक में यमयातना का समय आने पर वे जीव ‘रुरु’ होकर उसे उसी प्रकार कष्ट पहुँचाते हैं। इसीलिय इस नरक का नाम ‘रौरव’ है। ‘रुरु’ सर्प से भी अधिक क्रूर स्वभाव वाले एक जीव का नाम है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 12-17 का हिन्दी अनुवाद)

ऐसा ही महारौरव नरक है। इसमें वह व्यक्ति जाता है, जो और किसी की परवा न कर केवल अपने ही शरीर का पालन-पोषण करता है। वहाँ कच्चा मांस खाने वाले रुरु इसे मांस के लोभ से काटते हैं। जो क्रूर मनुष्य इस लोक में पेट पालने के लिये जीवित पशु या पक्षियों को राँधता है, उस हृदयहीन, राक्षसों से भी गये-बीते पुरुष को यमदूत कुम्भीपाक नरक में ले जाकर खौलते हुए तैल में राँधते हैं।

जो मनुष्य इस लोक में माता-पिता, ब्राह्मण और वेद से विरोध करता है, उसे यमदूत कालसूत्र नरक में ले जाते हैं। इसका घेरा दस हजार योजन है। इसकी भूमि ताँबे की है। इसमें जो तपा हुआ मैदान है, वह ऊपर से सूर्य और नीचे से अग्नि के दाह से जलता रहता है। वहाँ पहुँचाया हुआ पापी जीव भूख-प्यास से व्याकुल हो जाता है और उसका शरीर बाहर-भीतर से जलने लगता है। उसकी बेचैनी यहाँ तक बढ़ती है कि वह कभी बैठता है, कभी लेटता है, कभी छटपटाने लगता है, कभी खड़ा होता है और कभी इधर-उधर दौड़ने लगता है। इस प्रकार उस नर-पशु के शरीर में जितने रोम होते हैं, उतने ही हजार वर्ष तक उसकी यह दुर्गति होती रहती है।

जो पुरुष किसी प्रकार की आपत्ति न आने पर भी अपने वैदिक मार्ग को छोड़कर अन्य पाखण्डपूर्ण धर्मों का आश्रय लेता है, उसे यमदूत असिपत्रवन नरक में ले जाकर कोड़ों से पीटते हैं। जब मार से बचने के लिये वह इधर-उधर दौड़ने लगता है, तब उसके सारे अंग तालवन के तलवार के समान पैने पत्तों से, जिनमें दोनों ओर धारें होती हैं, टूक-टूक होने लगते हैं। तब वह अत्यन्त वेदना से ‘हाय, मैं मरा!’ इस प्रकार चिल्लाता हुआ पद-पद पर मुर्च्छित होकर गिरने लगता है। अपने धर्म को छोड़कर पाखण्ड मार्ग में चलने से उसे इस प्रकार अपने कुकर्म का फल भोगना पड़ता है।

इस लोक में जो पुरुष राजा या राजकर्मचारी होकर किसी निरपराध मनुष्य को दण्ड देता है अथवा ब्राह्मण को शरीर दण्ड देता है, वह महापापी मरकर सूकरमुख नरक में गिरता है। वहाँ जब महाबली यमदूत उसके अंगों को कुचलते हैं, तब वह कोल्हू में पेरे जाते हुए गन्नों के समान पीड़ित होकर, जिस प्रकार इस लोक में उसके द्वारा सताये हुए निरपराध प्राणी रोते-चिल्लाते थे, उसी प्रकार कभी आर्त स्वर से चिल्लाता और कभी मुर्च्छित हो जाता है। जो पुरुष इस लोक में खटमल आदि जीवों की हिंसा करता है, वह उनसे द्रोह करने के कारण अन्धकूप नरक में गिरता है। क्योंकि स्वयं भगवान् ने ही रक्तपानादि उनकी वृत्ति बना दी है और उन्हें उसके कारण दूसरों को कष्ट पहुँचने का ज्ञान भी नहीं है; किन्तु मनुष्य की वृत्ति भगवान् ने विधि-निषेधपूर्वक बनायी है और उसे दूसरों के कष्ट का ज्ञान भी है। वहाँ वे पशु, मृग, पक्षी, साँप आदि रेंगने वाले जन्तु, मच्छर, जूँ, खटमल और मक्खी आदि जीव-जिनसे उसने द्रोह किया था-उसे सब ओर से काटते हैं। इससे उसकी निद्रा और शान्ति भंग हो जाती है और स्थान न मिलने पर भी वह बेचैनी के कारण उस घोर अन्धकार में इस प्रकार भटकता रहता है, जैसे रोगग्रस्त शरीर में जीव छटपटाता करता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 18-26 का हिन्दी अनुवाद)

जो मनुष्य इस लोक में बिना पंच महायज्ञ किये तथा जो कुछ मिले, उसे बिना किसी दूसरे को दिये स्वयं ही खा लेता है, उसे कौए के समान कहा गया है। वह परलोक में कृमिभोजन नामक निकृष्ट नरक में गिरता है। वहाँ एक लाख योजन लंबा-चौड़ा एक कीड़ों का कुण्ड है। उसी में उसे भी कीड़ा बनकर रहना पड़ता है और जब तक अपने पापों का प्रायश्चित न करने वाले उस पापी के-बिना दिये और बिना हवन किये खाने के-दोष का अच्छी तरह शोधन नहीं हो जाता, तब तक वह उसी में पड़ा-पड़ा कष्ट भोगता रहता है। वहाँ कीड़े उसे नोचते हैं और वह कीड़ों को खाता है।

राजन्! इस लोक में जो व्यक्ति चोरी या बरजोरी से ब्राह्मण के अथवा आपत्ति का समय न होने पर भी किसी दूसरे पुरुष के सुवर्ण और रत्नादि का हरण करता है, उसे मरने पर यमदूत सन्दंश नामक नरक में ले जाकर तपाये हुए लोहे के गोलों से दागते हैं और संड़सी से उसकी खाल नोचते हैं। इस लोक में यदि कोई पुरुष अगम्या स्त्री के साथ सम्भोग करता है अथवा कोई स्त्री अगम्य पुरुष से व्यभिचार करती है, तो यमदूत उसे तप्तसूर्मि नामक नरक में ले जाकर कीड़ों से पीटते हैं तथा पुरुष को तपाये हुए लोहे की स्त्री-मूर्ति से और स्त्री को तपायी हुई पुरुष-प्रतिमा से आलिंगन कराते हैं। जो पुरुष इस लोक में पशु आदि सभी के साथ व्यभिचार करता है, उसे मृत्यु के बाद यमदूत वज्रकण्टकशाल्मली नरक में गिराते हैं और वज्र के समान कठोर काँटों वाले सेमर के वृक्ष पर चढ़ाकर फिर नीचे की ओर खींचते हैं।

जो राजा या राजपुरुष इस लोक में श्रेष्ठ कुल में जन्म पाकर भी धर्म की मर्यादा का उच्छेद करते हैं, वे उस मर्यादातिक्रमण के कारण मरने पर वैतरणी नदी में पटके जाते हैं। यह नदी नरकों की खाई के समान है; उसमें मल, मूत्र, पीब, रक्त, केश, नख, हड्डी, चर्बी, मांस और मज्जा आदि गंदी चीजें भरी हुई हैं। वहाँ गिरने पर उन्हें इधर-उधर से जल के जीव नोचते हैं। किन्तु इससे उनका शरीर नहीं छूटता, पाप के कारण प्राण उसे वहन किये रहते हैं और वे उस दुर्गति को अपनी करनी का फल समझकर मन-ही-मन सन्तप्त होते रहते हैं। जो लोग शौच और आचार के नियमों का परित्याग कर तथा लज्जा को तिलांजलि देकर इस लोक में शूद्राओं के साथ सम्बन्ध गाँठकर पशुओं के समान आचरण करते हैं, वे भी मरने के बाद पीब, विष्ठा, मूत्र, कफ और मल से भरे हुए पूयोद नामक समुद्र में गिरकर उन अत्यन्त घृणित वस्तुओं को ही खाते हैं।

इस लोक में जो ब्राह्मणादि उच्च वर्ण के लोग कुत्ते या गधे पालते और शिकार आदि में लगे रहते हैं तथा शास्त्र के विपरीत पशुओं का वध करते हैं, मरने के पश्चात् वे प्राणरोध नरक में डाले जाते हैं और वहाँ यमदूत उन्हें लक्ष्य बनाकर बाणों से बींधते हैं। जो पाखण्डी लोग पाखण्डपूर्ण यज्ञों में पशुओं का वध करते हैं, उन्हें परलोक में वैशस (विशसन) नरक में डालकर वहाँ के अधिकारी बहुत पीड़ा देकर काटते हैं। जो द्विज कामातुर होकर अपनी स्वर्णा भार्या को वीर्यपान कराता है, उस पापी को मरने के बाद यमदूत वीर्य की नदी (लालभक्ष नामक नरक) में डालकर वीर्य पिलाते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: षड्-विंश अध्यायः श्लोक 27-33 का हिन्दी अनुवाद)

जो कोई चोर अथवा राजा या राजपुरुष इस लोक में किसी के घर में आग लगा देते हैं, किसी को विष दे देते हैं अथवा गाँवों या व्यापारियों की टोलियों को लूट लेते हैं, उन्हें मरने के पश्चात् सारमेयादन नामक नरक में वज्र की-सी दाढ़ों वाले सात सौ बीस यमदूत कुत्ते बनकर बड़े वेग से काटने लगते हैं। इस लोक में जो पुरुष किसी की गवाही देने में, व्यापार में अथवा दान के समय किसी भी तरह झूठ बोलता है, वह मरने पर आधारशून्य अवीचिमान् नरक में पड़ता है। वहाँ उसे सौ योजन ऊँचे पहाड़ के शिखर से निचे को सिर करके गिराया जाता है। उस नरक की पत्थर की भूमि जल के समान जान पड़ती है। इसीलिये इसका नाम अवीचिमान् है। वहाँ गिराये जाने से उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े हो जाने पर भी प्राण नहीं निकलते, इसलिये इसे बार-बार ऊपर ले जाकर पटका जाता है।

जो ब्राह्मण या ब्राह्मणी अथवा व्रत में स्थित और कोई भी प्रमादवश मद्यपान करता है तथा जो क्षत्रिय या वैश्य सोमपान करता है, उन्हें यमदूत अयःपान नाम के नरक में ले जाते हैं और उनकी छाती पर पैर रखकर उनके मुँह में आग से गलाया हुआ लोहा डालते हैं। जो पुरुष इस लोक में निम्न श्रेणी का होकर भी अपने को बड़ा मानने के कारण जन्म, तप, विद्या, आचार, वर्ण या आश्रम में अपने से बड़ों का विशेष सत्कार नहीं करता, वह जीता हुआ भी मरे के ही समान है। उसे मरने पर क्षारकर्दम नाम के नरक में नीचे को सिर करके गिराया जाता है और वहाँ उसे अनन्त पीड़ाएँ भोगनी पड़ती हैं।

जो पुरुष इस लोक में नरमेधादि के द्वारा भैरव, यक्ष, राक्षस आदि का यजन करते हैं और जो स्त्रियाँ पशुओं के समन पुरुषों को खा जाती हैं, उन्हें वे पशुओं की तरह मारे हुए पुरुष यमलोक में राक्षस होकर तरह-तरह की यातनाएँ देते हैं और रक्षोगण भोजन नामक नरक में कसाइयों के समान कुल्हाड़ी से काट-काटकर उसका लोहू पीते हैं तथा जिस प्रकार वे मांसभोजीपुरुष इस लोक में उनका मांस भक्षण करके आनन्दित होते थे, उसी प्रकार वे भी उनका रक्तपान करते और आनन्दित होकर नाचते-गाते हैं। इस लोक में जो लोग वन या गाँव के निरपराध जीवों को-जो सभी अपने प्राणों को रखना चाहते हैं-तरह-तरह के उपायों से फुसलाकर अपने पास बुला लेते हैं, फिर उन्हें काँटें से बेधकर या रस्सी से बाँधकर खिलवाड़ करते हुए तरह-तरह की पीड़ाएँ देते हैं, उन्हें भी मरने के पश्चात् यमयातनाओं के समय शूलप्रोत नामक नरक में शूलों से बेधा जाता है। उस समय जब उन्हें भूख-प्यास सताती है और कंक, बटेर आदि तीखी चोंचों वाले नरक के भयानक पक्षी नोचने लगते हैं, तब अपने किये हुए सारे पाप याद आ जाते हैं।

राजन्! इस लोक में जो सर्पों के समान उग्र स्वभावपुरुष दूसरे जीवों को पीड़ा पहुँचाते हैं, वे मरने पर दन्दशूक नाम के नरक में गिरते हैं। वहाँ पाँच-पाँच, सात-सात मुँह वाले सर्प उनके समीप आकर उन्हें चूहों की तरह निगल जाते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध षड्-विंश अध्यायः श्लोक 34-40 का हिन्दी अनुवाद)

जो व्यक्ति यहाँ दूसरे प्राणियों को अँधेरी खत्तियों, कोठों या गुफाओं में डाल देते हैं, उन्हें परलोक में यमदूत वैसे ही स्थानों में डालकर विषैली आग के धुएँ में घोंटते हैं। इसीलिये इस नरक को अवटनिरोधन कहते हैं। जो गृहस्थ अपने घर आये अतिथि-अथ्यागतों की ओर बार-बार क्रोध में भरकर ऐसी कुटिल दृष्टि से देखता है मानो उन्हें भस्म कर देगा, वह जब नरक में जाता है, तब उस पापदृष्टि के नेत्रों को गिद्ध, कंक, काक और बटेर आदि वज्र की-सी कठोर चोंचों वाले पक्षी बलात् निकाल लेते हैं। इस नरक को पर्यावर्तन कहते हैं।

इस लोक में जो व्यक्ति अपने को बड़ा धनवान् समझकर अभिमानवश सबको टेढ़ी नजर से देखता है और सभी पर सन्देह रखता है, धन के व्यय और नाश की चिन्ता से जिसके हृदय और मुँह सूखे रहते हैं; अतः तनिक भी चैन न मानकर जो यक्ष के समान धन की रक्षा में लगा रहता है तथा पैसा पैदा करने, बढ़ाने और बचाने में जो तरह-तरह के पाप करता रहता है, वह नराधम मरने पर सूचीमुख नरक में गिरता है। वहाँ उस अर्थपिशाच पापात्मा के सारे अंगों को यमराज के दूत दर्जियों के समान सूई-धागे से सीते हैं।

राजन्! यमलोक में इसी प्रकार के सैकड़ों-हजारों नरक हैं। उनमें जिनका यहाँ उल्लेख हुआ है और जिनके विषय में कुछ नहीं कहा गया, उन सभी में सब अधर्मपरायण जीव अपने कर्मों के अनुसार बारी-बारी से जाते हैं। इसी प्रकार धर्मात्मा पुरुष स्वर्गादि में जाते हैं। इस प्रकार नरक और स्वर्ग के भोग से जब इनसे अधिकांश पाप और पुण्य क्षीण हो जाते हैं, तब बाकी बचे हुए पुण्य-पापरूप कर्मों को लेकर ये फिर इसी लोक में जन्म लेने के लिये लौट आते हैं। इन धर्म और अधर्म दोनों से विलक्षण जो निवृत्ति मार्ग है, उसका तो पहले (द्वितीये स्कन्ध में) ही वर्णन हो चुका है। पुराणों में जिसका चौदह भुवन के रूप में वर्णन किया गया है, वह ब्रह्माण्डकोश इतना ही है। यह साक्षात् परमपुरुष श्रीनारायण का अपनी माया के गुणों से युक्त अत्यन्त स्थूल स्वरूप है। इसका वर्णन मैंने तुम्हें सुना दिया। परमात्मा भगवान् का उपनिषदों में वर्णित निर्गुणस्वरूप यद्यपि मन-बुद्धि की पहुँच के बाहर है तो भी जो पुरुष इस स्थूलरूप का वर्णन आदरपूर्वक पढ़ता, सुनता या सुनाता है, उसकी बुद्धि श्रद्धा और भक्ति के कारण शुद्ध हो जाती है और वह उस सूक्ष्मरूप का भी अनुभव कर सकता है।

यति को चाहिये कि भगवान् के स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के रूपों का श्रवण करके पहले स्थूलरूप में चित्त को स्थिर करे, फिर धीरे-धीरे वहाँ से हटाकर उसे सूक्ष्म में लगा दे।

परीक्षित! मैंने तुमसे पृथ्वी, उसके अन्तर्गत द्वीप, वर्ष, नदी, पर्वत, आकाश, समुद्र, पाताल, दिशा, नरक, ज्योतिर्गण और लोकों की स्थिति का वर्णन किया। यही भगवान् का अति अद्भुत स्थूल रूप है, जो समस्त जीव समुदाय का आश्रय है।


                      【पञ्चम स्कन्ध: समाप्त】
                         【 हरिः ॐ तत्सत्】


।। इस प्रकार  "श्रीमद्भागवत महापुराण: पञ्चम स्कन्ध:" के 26 अध्याय समाप्त हुये ।।

(अब षष्ठ स्कन्ध: प्रारम्भ होता है)

(नोट :- सभी स्कन्ध:  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

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