सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( षष्ठ स्कन्धः ) का प्रथम , द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम अध्याय [ The first, second, third, fourth and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Sixth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( षष्ठ स्कन्धः ) का प्रथम , द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम अध्याय [ The first, second, third, fourth and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Sixth wing) ]



                           {षष्ठ स्कन्ध:}

                      【प्रथम अध्याय:】१.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"अजामिलोपाख्यान का प्रारम्भ"
राजा परीक्षित ने कहा ;- भगवन्! आप पहले (द्वितीय स्कन्ध में) निवृत्ति मार्ग का वर्णन कर चुके हैं तथा यह बतला चुके हैं कि उसके द्वारा अर्चिरादि मार्ग से जीव क्रमशः ब्रह्मलोक में पहुँचता है और फिर ब्रह्मा के साथ मुक्त हो जाता है।

मुनिवर! इसके सिवा आपने उस प्रवृत्ति मार्ग का भी (तृतीय स्कन्ध में) भलीभाँति वर्णन किया है, जिससे त्रिगुणमय स्वर्ग आदि लोकों की प्राप्ति होती है और प्रकृति का सम्बन्ध न छूटने के करना जीवों को बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में आना पड़ता है। आपने यह भी बतलाया कि अधर्म करने से अनेक नरकों की प्राप्ति होती है और (पाँचवें स्कन्ध में) उनका विस्तार से वर्णन भी किया। (चौथे स्कन्ध में) आपने उस प्रथम मन्वन्तर का वर्णन किया, जिसके अधिपति स्वयाम्भुव मनु थे। साथ ही (चौथे और पाँचवें स्कन्ध में) प्रियव्रत और उत्तानपाद के वंशों तथा चरित्रों का एवं द्वीप, वर्ष, समुद्र, पर्वत, नदी, उद्यान और विभिन्न द्वीपों के वृक्षों का भी निरूपण किया। भूमण्डल की स्थिति, उसके द्वीप-वर्षादि विभाग, उनके लक्षण तथा परिमाण, नक्षत्रों की स्थिति, अतल-वितल आदि भू-विवर (सात पाताल) और भगवान् ने इन सबकी जिस प्रकार सृष्टि की उनका वर्णन भी सुनाया।

महाभाग! अब मैं वह उपाय जानना चाहता हूँ, जिसके अनुष्ठान से मनुष्यों को अनेकानेक भयंकर यातनाओं से पूर्ण नरकों में न जाना पड़े। आप कृपा करके उसका उपदेश कीजिये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- मनुष्य मन, वाणी और शरीर से पाप करता है। यदि वह उन पापों का इसी जन्म में प्रायश्चित न कर ले, तो मरने के बाद उसे अवश्य ही उन भयंकर यातनापूर्ण नरकों में जाना पड़ता है, जिनका वर्णन मैंने तुम्हें (पाँचवें स्कन्ध के अन्त में) सुनाया है। इसलिये बड़ी सावधानी और सजगता के साथ रोग एवं मृत्यु के पहले ही शीघ्र-से-शीघ्र पापों की गुरुता और लघुता पर विचार करके उनका प्रायश्चित कर डालना चाहिये, जैसे मर्मज्ञ चिकित्सक रोगों का कारण और उनकी गुरुता-लघुता जानकर झटपट उनकी चिकित्सा कर डालता है।

राजा परीक्षित ने कहा ;- भगवन्! मनुष्य राजदण्ड, समाजदण्ड आदि लौकिक और शास्त्रोक्त नरकगमन आदि पारलौकिक कष्टों से यह जानकर भी कि पाप उसका शत्रु है, पाप वासनाओं से विवश होकर बार-बार वैसे ही कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है। ऐसी अवस्था में उसके पापों का प्रायश्चित कैसे सम्भव है? मनुष्य कभी तो प्रायश्चित आदि के द्वारा पापों से छुटकारा पा लेता है, कभी फिर उन्हें ही करने लगता है। ऐसी स्थिति में मैं समझता हूँ कि जैसे स्नान करने के बाद धूल डाल लेने के कारण हाथी का स्नान व्यर्थ हो जाता है, वैसे ही मनुष्य का प्रायश्चित करना भी व्यर्थ ही है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- वस्तुतः कर्म के द्वारा ही कर्म का निर्बीजनाश नहीं होता; क्योंकि कर्म का अधिकारी अज्ञानी है। अज्ञान रहते पाप वासनाएँ सर्वथा नहीं मिट सकतीं। इसलिये सच्चा प्रायश्चित तो तत्त्वज्ञान ही है। जो पुरुष केवल सुपथ्य का ही सेवन करता है, उसे रोग अपने वश में नहीं कर सकते। वैसे ही परीक्षित! जो पुरुष नियमों का पालन करता है, वह धीरे-धीरे पाप वासनाओं से मुक्त हो कल्याणप्रद तत्त्वज्ञान प्राप्त करने में समर्थ होता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 13-26 का हिन्दी अनुवाद)

जैसे बाँसों के झुरमुट में लगी आग बाँसों को जला डालती है, वैसे ही धर्मज्ञ और श्रद्धावान् धीर पुरुष तपस्या, ब्रह्मचर्य, इन्द्रियदमन, मन की स्थिरता, दान, सत्य, बाहर-भीतर की पवित्रता तथा यम एवं नियम-इन नौ साधनों से मन, वाणी और शरीर द्वारा किये गये बड़े-से-बड़े पापों को भी नष्ट कर देते हैं। भगवान् की शरण में रहने वाले भक्तजन, जो बिरले ही होते हैं, केवल भक्ति के द्वारा अपने सारे पापों को उसी प्रकार भस्म कर देते हैं, जैसे सूर्य कुहरे को।

परीक्षित! पापी पुरुष की जैसी शुद्धि भगवान् को आत्मसमर्पण करने से और उनके भक्तों का सेवन करने से होती है, वैसी तपस्या आदि के द्वारा नहीं होती। जगत् में यह भक्ति का पंथ ही सर्वश्रेष्ठ, भयरहित और कल्याणस्वरूप है; क्योंकि इस मार्ग पर भगवत्परायण, सुशील साधुजन चलते हैं। परीक्षित! जैसे शराब से भरे घड़े को नदियाँ पवित्र नहीं कर सकतीं, वैसे ही बड़े-बड़े प्रायश्चित बार-बार किये जाने पर भी भाग्वाद्विमुख मनुष्य को पवित्र करने में असमर्थ हैं। जिन्होंने अपने भगवद्गुणानुरागी मन-मधुकर को भगवान् श्रीकृष्ण के चरणारविन्द-मकरन्द का एक बार पान करा दिया, उन्होंने सारे प्रायश्चित कर लिये। वे स्वप्न में भी यमराज और उनके पाशधारी दूतों को नहीं देखते। फिर नरक की तो बात ही क्या है।
परीक्षित! इस विषय में महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। उसमें भगवान् विष्णु और यमराज के दूतों का संवाद है। तुम मुझसे उसे सुनो।

कान्यकुब्ज नगर (कन्नौज) में एक दासीपति ब्राह्मण रहता था। उसका नाम था अजामिल। दासी के संसर्ग से दूषित होने के कारण उसका सदाचार नष्ट हो चुका था। वह पतित कभी बटोहियों को बाँधकर उन्हें लूट लेता, कभी लोगों को जुए में छल से हरा देता, किसी का धन धोखा-धड़ी से ले लेता तो किसी का चुरा लेता। इस प्रकार अत्यन्त निन्दनीय वृत्ति का आश्रय लेकर वह कुटुम्ब का पेट भरता था और दूसरे प्राणियों को बहुत ही सताता था। परीक्षित! इसी प्रकार वह वहाँ रहकर दासी के बच्चों का लालन-पालन करता रहा। इस प्रकार उसकी आयु का बहुत बड़ा भाग-अट्ठासी वर्ष बीत गया। बूढ़े अजामिल के के दस पुत्र थे। उनमें सबसे छोटे का नाम था ‘नारायण’। माँ-बाप उससे बहुत प्यार करते थे। वृद्ध अजामिल ने अत्यन्त मोह के कारण अपना सम्पूर्ण हृदय अपने बच्चे नारायण को सौंप दिया था। वह अपने बच्चे की तोतली बोली सुन-सुनकर तथा बाल सुलभ खेल देख-देखकर फूला नहीं समाता था। अजामिल बालक के स्नेह-बन्धन में बँध गया था। जब वह खाता तब उसे भी खिलाता, जब पानी पीता तो उसे भी पिलाता। इस प्रकार वह अतिशय मूढ़ हो गया था, उसे इस बात का पता ही न चला कि मृत्यु मेरे सिर पर आ पहुँची है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 27-43 का हिन्दी अनुवाद)

वह मूर्ख इसी प्रकार अपना जीवन बिता रहा था कि मृत्यु का समय आ पहुँचा। अब वह अपने पुत्र बालक नारायण के सम्बन्ध में ही सोचने-विचारने लगा। इतने में ही अजामिल ने देखा कि उसे ले जाने के लिये अत्यन्त भयावने तीन यमदूत आये हैं। उनके हाथों में फाँसी है, मुँह टेढ़े-टेढ़े हैं और शरीर के रोएँ खड़े हुए हैं। उस समय बालक नारायण वहाँ से कुछ दूरी पर खेल रहा था। यमदूतों को देखकर अजामिल अत्यन्त व्याकुल हो गया और उसने बहुत ऊँचे स्वर से पुकारा- ‘नारायण!’। भगवान् के पार्षदों ने देखा कि यह मरते समय हमारे स्वामी भगवान् नारायण का नाम ले रहा है, उनके नाम का कीर्तन कर रहा है; अतः वे बड़े वेग से झटपट वहाँ आ पहुँचे। उस समय यमराज के दूत दासीपति अजामिल के शरीर में से उसके सूक्ष्म शरीर को खींच रहे थे। विष्णुदूतों ने बलपूर्वक रोक दिया।

उनके रोकने पर यमराज के दूतों ने उनसे कहा ;- ‘अरे, धर्मराज की आज्ञा का निषेध करने वाले तुम लोग हो कौन? तुम किसके दूत हो, कहाँ से आये हो और इसे ले जाने से हमें क्यों रोक रहे हो? क्या तुम लोग कोई देवता, उपदेवता अथवा सिद्धश्रेष्ठ हो? हम देखते हैं कि तुम सब लोगों के नेत्र कमलदल के समान कोमलता से भरे हैं, तुम पीले-पीले रेशमी वस्त्र पहने हो, तुम्हारे सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल और गलों में कमल के हार लहरा रहे हैं। सबकी नयी अवस्था है, सुन्दर-सुन्दर चार-चार भुजाएँ हैं, सभी के करकमलों में धनुष, तरकश, तलवार, गदा, शंख, चक्र, कमल आदि सुशोभित हैं। तुम लोगों की अंगकान्ति से दिशाओं का अन्धकार और प्राकृत प्रकाश भी दूर हो रहा है। हम धर्मराज के सेवक हैं। हमें तुम लोग क्यों रोक रहे हो?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब यमदूतों ने इस प्रकार कहा, तब भगवान् नारायण के आज्ञाकारी पार्षदों ने हँसकर मेघ के समान गम्भीर वाणी से उनके प्रति यों कहा।

भगवान् के पार्षदों ने कहा ;- यमदूतो! यदि तुम लोग सचमुच धर्मराज के आज्ञाकारी हो तो हमें धर्म का लक्षण और धर्म का तत्त्व सुनाओ। दण्ड किस प्रकार दिया जाता है? दण्ड का पात्र कौन है? मनुष्यों में सभी पापाचारी दण्डनीय हैं अथवा उनमें से कुछ ही?

यमदूतों ने कहा ;- वेदों ने जिन कर्मों का विधान किया है, वे धर्म हैं और जिनका निषेध किया है, वे अधर्म हैं। वेद स्वयं भगवान् के स्वरूप हैं। वे उनके स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास एवं स्वयं प्रकाश ज्ञान हैं-ऐसा हमने सुना है। जगत् के राजोमय, सत्त्वमय और तमोमय-सभी पदार्थ, सभी प्राणी अपने परम आश्रय भगवान् में ही स्थित रहते हैं। वेद ही उनके गुण, नाम, कर्म और रूप आदि के अनुसार उनका यथोचित विभाजन करते हैं। जीव शरीर अथवा मनोवृत्तियों से जितने कर्म करता है, उसके साक्षी रहते हैं-सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रियाँ, चन्द्रमा, सन्ध्या, रात, दिन, दिशाएँ, जल, पृथ्वी, काल और धर्म। इनके द्वारा अधर्म का पता चल जाता है और तब दण्ड के पात्र का निर्णय होता है। पाप कर्म करने वाले सभी मनुष्य अपने-अपने कर्मों के अनुसार दण्डनीय होते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 44-56 का हिन्दी अनुवाद)

निष्पाप पुरुषों! जो प्राणी कर्म करते हैं, उनका गुणों से सम्बन्ध रहता ही है। इसीलिये सभी से कुछ पाप और कुछ पुण्य होते ही हैं और देहवान् होकर कोई भी पुरुष कर्म किये बिना रह ही नहीं सकता। इस लोक में जो मनुष्य जिस प्रकार का और जितना अधर्म या धर्म करता है, वह परलोक में उसका उतना और वैसा ही फल भोगता है।

देवशिरोमणियो! सत्त्व, रज और तम-इन तीन गुणों के भेद के कारण इस लोक में भी तीन प्रकार के प्राणी दीख पड़ते हैं-पुण्यात्मा, पापात्मा और पुण्य-पाप दोनों से युक्त अथवा सुखी, दुःखी और सुख-दुःख दोनों से युक्त; वैसे ही परलोक में भी उनकी त्रिविधता का अनुमान किया जाता है। वर्तमान समय ही भूत और भविष्य का अनुमान करा देता है। वैसे ही वर्तमान जन्म के पाप-पुण्य भी भूत और भविष्य-जन्मों के पाप-पुण्य का अनुमान करा देते हैं। हमारे स्वामी अजन्मा भगवान् सर्वज्ञ यमराज सबके अन्तःकरणों में ही विराजमान हैं। इसलिये वे अपने मन से ही सबके पूर्व रूपों को देख लेते हैं। वे साथ ही उनके भावी स्वरूप का भी विचार कर लेते हैं। जैसे सोया हुआ अज्ञानी पुरुष स्वप्न के समय प्रतीत हो रहे कल्पित शरीर को ही अपना वास्तविक शरीर समझता है, सोये हुए अथवा जागने वाले शरीर को भूल जाता है, वैसे ही जीव भी अपने पूर्व जन्मों की याद भूल जाता है और वर्तमान शरीर के सिवा पहले और पिछले शरीरों के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानता।

सिद्धपुरुषो! जीव इस शरीर में पाँच कर्मेन्द्रियों से लेना-देना, चलना-फिरना आदि काम करता है, पाँच ज्ञानेन्द्रियों से रूप-रस आदि पाँच विषयों का अनुभव करता है और सोलहवें मन के साथ सत्रहवाँ वह स्वयं मिलकर अकेले ही मन, ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय-इन तीनों के विषयों को भोगता है। जीव का यह सोलह कला और सत्त्वादि तीन गुणों वाला लिंग शरीर अनादि है। यही जीव को बार-बार हर्ष, शोक, भय और पीड़ा देने वाले जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालता है। जो जीव अज्ञानवश काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर-इन छः शत्रुओं पर विजय प्राप्त नहीं कर लेता, उसे इच्छा न रहते हुए भी विभिन्न वासनाओं के अनुसार अनेकों कर्म करने पड़ते हैं। वैसी स्थिति में वह रेशम के कीड़े के समान अपने को कर्म के जाल में जकड़ लेता है और इस प्रकार अपने हाथों मोह का शिकार बन जाता है। कोई शरीरधारी जीव बिना कर्म किये कभी एक क्षण भी नहीं रह सकता। प्रत्येक प्राणी के स्वाभाविक गुण बलपूर्वक विवश करके उससे कर्म कराते हैं। जीव अपने पूर्वजन्मों के पाप-पुण्यमय संस्कारों के अनुसार स्थूल और सूक्ष्म शरीर प्राप्त करता है। उसकी स्वाभाविक एवं प्रबल वासनाएँ कभी उसे माता के-जैसा (स्त्रीरूप) बना देती हैं, तो कभी पिता के-जैसा (पुरुषरूप)। प्रकृति का संसर्ग होने से ही पुरुष अपने को अपने वास्तविक स्वरूप के विपरीत लिंग शरीर मान बैठा है। यह विपर्यय भगवान् के भजन से शीघ्र ही दूर हो जाता है।

देवताओं! आप जानते ही हैं कि यह अजामिल बड़ा शास्त्रज्ञ था। शील, सदाचार और सद्गुणों का तो यह खजाना ही था। ब्रह्मचारी, विनयी, जितेन्द्रिय, सत्यनिष्ठ, मन्त्रवेत्ता और पवित्र भी था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 57-68 का हिन्दी अनुवाद)

इसने गुरु, अग्नि, अतिथि और वृद्ध पुरुषों की सेवा की थी। अहंकार तो इसमें था ही नहीं। यह समस्त प्राणियों का हित चाहता, उपकार करता, आवश्यकता के अनुसार ही बोलता और किसी के गुणों में दोष नहीं ढूँढता था।

एक दिन यह ब्राह्मण अपने पिता के आदेशानुसार वन में गया और वहाँ से फल-फूल, समिधा तथा कुश लेकर घर के लिये लौटा। लौटते समय इसने देखा कि एक भ्रष्ट शूद्र, जो बहुत कामी और निर्लज्ज है, शराब पीकर किसी वेश्या के साथ विहार कर रहा है। वेश्या भी शराब पीकर मतवाली हो रही है। नशे के कारण उसकी आँखें नाच रही हैं, वह अर्द्धनग्न अवस्थाओं में हो रही है। वह शूद्र उस वेश्या के साथ कभी गाता, कभी हँसता और कभी तरह-तरह की चेष्टाएँ करके उसे प्रसन्न करता है।

निष्पाप पुरुषो! शूद्र की भुजाओं में अंगरागादि कामोद्दीपक वस्तुएँ लगी हुई थीं और वह उनसे उस कुलटा का आलिंगन कर रहा था। अजामिल उन्हें इस अवस्था में देखकर सहसा मोहित और काम के वश हो गया। यद्यपि अजामिल ने अपने धैर्य और ज्ञान के अनुसार अपने कामवेग से विचलित मन को रोकने की बहुत-बहुत चेष्टाएँ कीं, परन्तु पूरी शक्ति लगा देने पर भी वह अपने मन को रोकने में असमर्थ रहा। उस वेश्या को निमित्त बनाकर काम-पिशाच ने अजामिल के मन को ग्रस लिया। इसकी सदाचार और शास्त्रसम्बन्धी चेतना नष्ट हो गयी। अब यह मन-ही-मन उसी वेश्या का चिन्तन करने लगा और अपने धर्म से विमुख हो गया।

अजामिल सुन्दर-सुन्दर वस्त्र-आभूषण आदि वस्तुएँ, जिनसे वह प्रसन्न होती, ले आता। यहाँ तक कि इसने अपने पिता की सारी सम्पत्ति देकर भी उसी कुलटा को रिझाया। यह ब्राह्मण उसी प्रकार की चेष्टा करता, जिससे वह वेश्या प्रसन्न हो। उस स्वच्छन्दचारिणी कुलटा की तिरछी चितवन ने इसके मन को ऐसा लुभा लिया कि इसने अपने कुलीन नवयुवती और विवाहिता पत्नी तक का परित्याग कर दिया। इसके पाप की भी भला कोई सीमा है। यह कुबुद्धि न्याय से, अन्याय से जैसे भी जहाँ कहीं भी धन मिलता, वहीं से उठा लाता। उस वेश्या के बड़े कुटुम्ब का पालन करने में ही यह व्यस्त रहता।

इस पापी ने शास्त्राज्ञा का उल्लंघन करके स्वच्छन्द आचरण किया है। यह सत्पुरुषों के द्वारा निन्दित है। इसने बहुत दिनों तक वेश्या के मल-समान अपवित्र अन्न से अपना जीवन व्यतीत किया है, इसका सारा जीवन ही पापमय है। इसने अब तक अपने पापों का कोई प्रायश्चित भी नहीं किया है। इसलिये अब हम इस पापी को दण्डपाणि भगवान् यमराज के पास ले जायँगे। वहाँ यह अपने पापों का दण्ड भोगकर शुद्ध हो जायगा।

                           {षष्ठ स्कन्ध:}

                      【द्वितीय अध्याय:】२.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"विष्णुदूतों द्वारा भागवतधर्म-निरूपण और अजामिल का परमधाम गमन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान् के नीतिनिपुण एवं धर्म का मर्म जानने वाले पार्षदों ने यमदूतों का यह अभिभाषण सुनकर उनसे इस प्रकार कहा।

भगवान् के पार्षदों ने कहा ;- यमदूतों! यह बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि धर्मज्ञों की सभा में अधर्म प्रवेश कर रह है, क्योंकि वहाँ निरपराध और अदण्डनीय व्यक्तियों को व्यर्थ ही दण्ड दिया जाता है। जो प्रजा के रक्षक हैं, शासक हैं, समदर्शी और परोपकारी हैं- यदि वे ही प्रजा के प्रति विषमता का व्यवहार करने लगें तो फिर प्रजा किसकी शरण लेगी?

सत्पुरुष जैसा आचरण करते हैं, साधारण लोग भी वैसा ही करते हैं। वे अपने आचरण के द्वारा जिस कर्म को धर्मानुकूल प्रमाणित कर देते हैं, लोग उसी का अनुकरण करने लगते हैं। साधारण लोग पशुओं के समान धर्म और अधर्म का स्वरूप न जानकर किसी सत्पुरुष पर विश्वास कर लेते हैं, उसकी गोद में सिर रखकर निर्भय और निश्चिन्त सो जाते हैं। वही दयालु सत्पुरुष, जो प्राणियों का अत्यन्त विश्वासपात्र है और जिसे मित्रभाव से अपना हितैषी समझकर उन्होंने आत्मसमर्पण का दिया है, उन अज्ञानी जीवों के साथ कैसे विश्वासघात कर सकता है?

यमदूतों! इसने कोटि-कोटि जन्मों की पाप-राशि का पूरा-पूरा प्रायश्चित कर लिया है। क्योंकि इसने विवश होकर ही सही, भगवान् के परम कल्याणमय (मोक्षप्रद) नाम का उच्चारण तो किया है। जिस समय इसने ‘नारायण’ इन चार अक्षरों का उच्चारण किया, उसी समय केवल उतने से ही इस पापी के समस्त पापों का प्रायश्चित हो गया। चोर, शराबी, मित्रद्रोही, ब्रह्मघाती, गुरुपत्नीगामी, ऐसे लोगों का संसर्गी; स्त्री, राजा, पिता और गाय को मारने वाला, चाहे जैसा और चाहे जितना बड़ा पापी हो, सभी के लिये यही-इतना ही सबसे बड़ा प्रायश्चित है कि भगवान् के नामों का उच्चारण किया जाये; क्योंकि भगवन्नामों के उच्चारण से मनुष्य की बुद्धि भगवान् के गुण, लीला और स्वरूप में रम जाती है और स्वयं भगवान् की उसके प्रति आत्मीय बुद्धि हो जाती है।

बड़े-बड़े ब्रह्मवादी ऋषियों ने पापों के बहुत-से प्रायश्चित- कृच्छ्र, चान्द्रायण आदि व्रत बतलाये हैं; परन्तु उन प्रायश्चितों से पापी की वैसी जड़ से शुद्धि नहीं होती, जैसी भगवान् के नामों का, उनसे गुम्फित पदों का उच्चारण करने से होती है। क्योंकि वे नाम पवित्रकीर्ति भगवान् के गुणों का ज्ञान कराने वाले हैं। क्योंकि भगवान् के नाम अनन्त हैं; सब नामों का उच्चारण सम्भव ही नहीं है। तात्पर्य यह है कि भगवान् के एक नाम का उच्चारण करने मात्र से सब पापों की निवृत्ति हो जाती है। पूर्ण विश्वास न होने तथा नामोच्चारण के पश्चात् भी पाप करने के कारण ही उसका अनुभव नहीं होता। यदि प्रायश्चित करने के बाद भी मन फिर से कुमार्ग में- पाप की ओर दौड़े, तो वह चरम सीमा का- पूरा-पूरा प्रायश्चित नहीं है। इसलिये जो लोग ऐसा प्रायश्चित करना चाहें कि जिससे पाप कर्मों और वासनाओं की जड़ ही उखड़ जाये, उन्हें भगवान् के गुणों का गान करना चाहिये; क्योंकि उससे चित्त सर्वथा शुद्ध हो जाता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 13-19 का हिन्दी अनुवाद)

इसलिये यमदूतो! तुम लोग अजामिल को मत ले जाओ। इसने सारे पापों का प्रायश्चित कर लिया है, क्योंकि इसने मरते समय भगवान् के नाम का उच्चारण किया है। बड़े-बड़े महात्मा पुरुष यह बात जानते हैं कि संकेत में (किसी दूसरे अभिप्राय से), परिहास में, तान अलापने में अथवा किसी की अवहेलना करने में भी यदि कोई भगवान् के नामों का उच्चारण करता है तो, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य गिरते समय, पैर फिसलते समय, अंग-भंग होते समय और साँप के डंसते, आग में जलते तथा चोट लगते समय भी विवशता से ‘हरि-हरि’ कहकर भगवान् के नाम का उच्चारण कर लेता है, वह यमयातना का पात्र नहीं रह जाता। महर्षियों ने जान-बूझकर बड़े पापों के लिये बड़े और छोटे पापों के लिये छोटे प्रायश्चित बतलाये हैं। इसमें सन्देह नहीं कि उन तपस्या, दान, जप आदि प्रायश्चितों के द्वारा वे पाप नष्ट हो जाते हैं। परन्तु उन पापों से मलिन हुआ उसका हृदय शुद्ध नहीं होता। भगवान् के चरणों की सेवा से वह भी शुद्ध हो जाता है।

यमदूतो! जैसे जान या अनजान ईंधन से अग्नि का स्पर्श हो जाये तो वह भस्म हो ही जाता है, वैसे ही जान-बूझकर या अनजान में भगवान् के नामों का संकीर्तन करने से मनुष्य के सारे पाप भस्म हो जाते हैं। जैसे कोई परम शक्तिशाली अमृत को उसका गुण न जानकर अनजान में पी ले तो भी वह अवश्य ही पीने वाले को अमर बना देता है, वैसे ही अनजान में उच्चारण करने पर भी भगवान् का नाम[2] अपना फल देकर ही रहता है। (वस्तुशक्ति श्रद्धा की अपेक्षा नहीं करती)

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! इस प्रकार भगवान् के पार्षदों ने भागवत-धर्म का पूरा-पूरा निर्णय सुना दिया और अजामिल को यमदूतों के पाश से छुड़ाकर मृत्यु के मुख से बचा लिया।

प्रिय परीक्षित! पार्षदों की यह बात सुनकर यमदूत यमराज के पास गये और उन्हें यह सारा वृतान्त ज्यों-का-त्यों सुना दिया। अजालिम यमदूतों के फंदे से छूटकर निर्भय और स्वस्थ हो गया। उसने भगवान् के पार्षदों के दर्शनजनित आनन्द में मग्न होकर उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया। निष्पाप परीक्षित! भगवान् के पार्षदों ने देखा कि अजामिल कुछ कहना चाहता है, तब वे सहसा उसके सामने ही वहीं अन्तर्धान हो गये। इस अवसर पर अजामिल ने भगवान् के पार्षदों से विशुद्ध भागवत-धर्म और यमदूतों के मुख से वेदोक्त सगुण (प्रवृत्ति विषयक) धर्म का श्रवण किया था।

सर्वपापहारी भगवान् की महिमा सुनने से अजामिल के हृदय में शीघ्र ही भक्ति का उदय हो गया। अब उसे अपने पापों को याद करके बड़ा पश्चाताप होने लगा। (अजामिल मन-ही-मन सोचने लगा-) ‘अरे, मैं कैसा इन्द्रियों का दास हूँ। मैंने एक दासी के गर्भ से पुत्र उत्पन्न करके अपना ब्राह्मणत्व नष्ट कर दिया। यह बड़े दुःख की बात है। धिक्कार है! मुझे बार-बार धिक्कार है! मैं संतों के द्वारा निन्दित हूँ, पापात्मा हूँ! मैंने अपने कुल में कलंक का टीका लगा दिया। हाय-हाय, मैंने अपनी सती एवं अबोध पत्नी का परित्याग कर दिया और शराब पीने वाली कुलटा का संसर्ग किया। मैं कितना नीच हूँ! मेरे माँ-बाप बूढ़े और तपस्वी थे। वे सर्वथा असहाय थे, उनकी सेवा-शुश्रूषा करने वाला और कोई नहीं था। मैंने उनका भी परित्याग कर दिया। ओह! मैं कितना कृतघ्न हूँ। मैं अब अवश्य ही अत्यन्त भयावने नरक में गिरूँगा, जिसमें गिरकर धर्मघाती पापात्मा कामी पुरुष अनेकों प्रकार की यमयातना भोगते हैं।

मैंने अभी जो अद्भुत दृश्य देखा, क्या वह स्वप्न है? अथवा जाग्रत् अवस्था का ही प्रत्यक्ष अनुभव है? अभी-अभी जो हाथों में फंदा लेकर मुझे खींच रहे थे, वे कहाँ चले गये? अभी-अभी वे मुझे अपने फंदों में फँसाकर पृथ्वी के नीचे ले जा रहे थे, परन्तु चार अत्यन्त सुन्दर सिद्धों ने आकर मुझे छुड़ा लिया। वे अब कहाँ चले गये। यद्यपि मैं इस जन्म का महापापी हूँ, फिर भी मैंने पूर्वजन्मों में अवश्य ही शुभ कर्म किये होंगे; तभी तो मुझे इन श्रेष्ठ देवताओं के दर्शन हुए। उनकी स्मृति से मेरा हृदय अब भी आनन्द से भर रहा है।

मैं कुलटागामी और अत्यन्त अपवित्र हूँ। यदि पूर्वजन्म में मैंने पुण्य न किये होते, तो मरने के समय मेरी जीभ भगवान् के मनोमोहक नाम का उच्चारण कैसे कर पाती? कहाँ तो मैं महाकपटी, पापी, निर्लज्ज और ब्रह्मतेज को नष्ट करने वाला तथा कहाँ भगवान् का वह परम मंगलमय ‘नारायण’ नाम! (सचमुच मैं तो कृतार्थ हो गया)। अब मैं अपने मन, इन्द्रिय और प्राणों को वश में करके ऐसा प्रयत्न करूँगा कि फिर अपने को घोर अन्धकारमय नरक में न डालूँ। अज्ञानवश मैंने अपने को शरीर समझकर उसके लिये बड़ी-बड़ी कामनाएँ कीं और उनकी पूर्ति के लिये अनेकों कर्म किये। उन्हीं का फल है यह बन्धन। अब मैं इसे काटकर समस्त प्राणियों का हित करूँगा, वासनाओं को शान्त कर दूँगा, सबसे मित्रता का व्यवहार करूँगा, दुःखियों पर दया करूँगा और पूरे संयम के साथ रहूँगा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 37-49 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान् की माया ने स्त्री का रूप धारण करके मुझ अधम को फाँस लिया और क्रीड़ामृग की भाँति मुझे बहुत नाच नचाया। अब मैं अपने-आपको उस माया से मुक्त करूँगा। मैंने सत्य वस्तु परमात्मा को पहचान लिया है; अतः अब मैं शरीर आदि में ‘मैं’ तथा ‘मेरे’ का भाव छोड़कर भगवन्नाम के कीर्तन आदि से अपने मन को शुद्ध करूँगा और उसे भगवान् में लगाऊँगा।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! उन भगवान् के पार्षद महात्माओं का केवल थोड़ी ही देर के लिये सत्संग हुआ था। इतने से ही अजामिल के चित्त में संसार के प्रति तीव्र वैराग्य हो गया। वे सबसे सम्बन्ध और मोह को छोड़कर हरद्वार चले गये। उस देवस्थान में जाकर वे भगवान् के मन्दिर में आसन से बैठ गये और उन्होंने योगमार्ग का आश्रय लेकर अपनी सारी इन्द्रियों को विषयों से हटाकर मन में लीन कर लिया और मन को बुद्धि में मिला दिया। इसके बाद आत्मचिन्तन के द्वारा उन्होंने बुद्धि को विषयों से पृथक् कर लिया तथा भगवान् के धाम अनुभवस्वरूप परब्रह्म में जोड़ दिया।

इस प्रकार जब अजामिल की बुद्धि त्रिगुणमयी प्रकृति से ऊपर उठकर भगवान् के स्वरूप में स्थित हो गयी, तब उन्होंने देखा कि उनके सामने वे ही चारों पार्षद, जिन्हें उन्होंने पहले देखा था, खड़े हैं। अजामिल ने सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया। उनका दर्शन पाने के बाद उन्होंने उस तीर्थस्थान में गंगा के तट पर अपना शरीर त्याग दिया और तत्काल भगवान् के पार्षदों का स्वरूप प्राप्त कर दिया। अजामिल भगवान् के पार्षदों के साथ स्वर्णमय विमान पर आरूढ़ होकर आकाश मार्ग से भगवान् लक्ष्मीपति के निवास स्थान वैकुण्ठ को चले गये।

परीक्षित! अजामिल ने दासी का सहवास करके सारा धर्म-कर्म चौपट कर दिया था। वे अपने निन्दित कर्म के कारण पतित हो गये थे। नियमों से च्युत हो जाने के कारण उन्हें नरक में गिराया जा रहा था। परन्तु भगवान् के एक नाम का उच्चारण करने मात्र से वे उससे तत्काल मुक्त हो गये। जो लोग इस संसार बन्धन से मुक्त होना चाहते हैं, उनके लिये अपने चरणों के स्पर्श से तीर्थों को भी तीर्थ बनाने वाले भगवान् के नाम से बढ़कर और कोई साधन नहीं है; क्योंकि नाम का आश्रय लेने से मनुष्य का मन फिर कर्म के पचड़ों में नहीं पड़ता। भगवन्नाम के अतिरिक्त और किसी प्रायश्चित का आश्रय लेने पर रजोगुण और तमोगुण से ग्रस्त ही रहता है तथा पापों का पूरा-पूरा नाश भी नहीं होता।

परीक्षित! यह इतिहास अत्यन्त गोपनीय और समस्त पापों का नाश करने वाला है। जो पुरुष श्रद्धा और भक्ति के साथ इसका श्रवण-कीर्तन करता है, वह नरक में कभी नहीं जाता। यमराज के दूत तो आँख उठाकर उसकी ओर देख तक नहीं सकते। उस पुरुष का जीवन चाहे पापमय ही क्यों न रहा हो, वैकुण्ठलोक में उसकी पूजा होती है। परीक्षित! देखो-अजामिल-जैसे पापी ने मृत्यु के समय पुत्र के बहाने भगवान् नाम का उच्चारण किया। उसे भी वैकुण्ठ की प्राप्ति हो गयी। फिर जो लोग श्रद्धा के साथ भगवन्नाम का उच्चारण करते हैं, उनकी तो बात ही क्या है।

                           {षष्ठ स्कन्ध:}

                      【तृतीय अध्याय:】३.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"यम और यमदूतों का संवाद"
राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! देवाधिदेव धर्मराज के वश में सारे जीव हैं और भगवान् के पार्षदों ने उन्हीं की आज्ञा भंग कर दी तथा उनके दूतों को अपमानित कर दिया। जब उनके दूतों ने यमपुरी में जाकर उनसे अजामिल का वृतान्त कह सुनाया, तब सब कुछ सुनकर उन्होंने अपने दूतों से क्या कहा? ऋषिवर! मैंने पहले यह बात कभी नहीं सुनी कि किसी ने किसी भी कारण से धर्मराज के शासन का उल्लंघन किया हो। भगवन्! इस विषय में लोग बहुत सन्देह करेंगे और उसका निवारण आपके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं कर सकता, ऐसा मेरा निश्चय है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब भगवान् के पार्षदों ने यमदूतों का प्रयत्न विफल कर दिया, तब उन लोगों ने संयमनीपुरी के स्वामी एवं अपने शासक यमराज के पास जाकर निवेदन किया।

यमदूतों ने कहा ;- प्रभो! संसार के जीव तीन प्रकार के कर्म करते हैं- पाप, पुण्य अथवा दोनों से मिश्रित। इन जीवों को उन कर्मों का फल देने वाले शासक संसार में कितने हैं? यदि संसार में दण्ड देने वाले बहुत-से शासक हों, तो किसे सुख मिले और किसे दुःख- इसकी व्यवस्था एक-सी न हो सकेगी। संसार में कर्म करने वालों के अनेक होने के कारण यदि उनके शासक भी अनेक हों, तो उन शासकों का शासकापना नाममात्र के सामन्त होते हैं। इसलिये हम तो ऐसा समझते हैं कि अकेले आप ही समस्त प्राणियों और उनके स्वामियों के भी अधीश्वर हैं। आप ही मनुष्यों के पाप और पुण्य के निर्णायक, दण्डदाता और शासक हैं।

प्रभो! अब तक संसार में कहीं भी आपके द्वारा नियत किये हुए दण्ड की अवहेलना नहीं हुई थी; किन्तु इस समय चार अद्भुत सिद्धों ने आपकी आज्ञा का उल्लंघन कर दिया है। प्रभो! आपकी आज्ञा से हम लोग एक पापी को यातनागृह की ओर ले जा रहे थे, परन्तु उन्होंने बलपूर्वक आपके फंदे काटकर उसे छुड़ा दिया। हम आपसे उनका रहस्य जानना चाहते हैं। यदि आप हमें सुनने का अधिकारी समझें तो कहें। प्रभो! बड़े ही आश्चर्य की बात हुई कि इधर तो अजामिल के मुँह से ‘नारायण!’ यह शब्द निकला और उधर वे ‘डरो मत, डरो मत!’ कहते हुए झटपट वहाँ आ पहुँचे।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- जब दूतों ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब देवशिरोमणि प्रजा के शासक भगवान् यमराज ने प्रसन्न होकर श्रीहरि के चरणकमलों का स्मरण करते हुए उनसे कहा।

यमराज ने कहा ;- दूतो! मेरे अतिरिक्त एक और ही चराचर जगत् के स्वामी हैं। उन्हीं में यह सम्पूर्ण जगत् सूत में वस्त्र के समान ओत-प्रोत है। उन्हीं के अंश, ब्रह्मा, विष्णु और शंकर इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय करते हैं। उन्हीं ने इस सारे जगत् को नथे हुए बैल के समान अपने अधीन कर रखा है। मेरे प्यारे दूतों! जैसे किसान अपने बैलों को पहले छोटी-छोटी रस्सियों में बाँधकर फिर उन रस्सियों को एक बड़ी आड़ी रस्सी में बाँध देते हैं, वैसे ही जगदीश्वर भगवान् ने भी ब्रह्माणादि वर्ण और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमरूप छोटी-छोटी नाम की रस्सियों में बाँधकर फिर सब नामों को वेदवाणीरूप बड़ी रस्सी में बाँध रखा है। इस प्रकार सारे जीव नाम एवं कर्मरूप बन्धन में बँधे हुए भयभीत होकर उन्हें ही अपना सर्वस्व भेंट कर रहे हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद)

दूतों! मैं, इन्द्र, निर्ऋति, वरुण, चन्द्रमा, अग्नि, शंकर, वायु, सूर्य, ब्रह्मा, बारहों आदित्य, विश्वेदेवता, आठों वसु, साध्य, उनचास मरुत्, सिद्ध, ग्यारहों रुद्र, रजोगुण एवं तमोगुण से रहित भृगु आदि प्रजापति और बड़े-बड़े देवता- सब-के-सब सत्त्वप्रधान होने पर भी उनकी माया के अधीन हैं तथा भगवान् कब, क्या किस रूप में करना चाहते हैं- इस बात को नहीं जानते। तब दूसरों की तो बात ही क्या है। दूतो! जिस प्रकार घट, पट आदि रूपवान् पदार्थ अपने प्रकाशक नेत्र को नहीं देख सकते-वैसे ही अन्तःकरण में अपने साक्षी रूप से स्थित परमात्मा को कोई भी प्राणी इन्द्रिय, मन, प्राण, हृदय या वाणी आदि किसी भी साधन के द्वारा नहीं जान सकता। वे प्रभु सबके स्वामी और स्वयं परम स्वतन्त्र हैं। उन्हीं मायापति पुरुषोत्तम के दूत उन्हीं के समान परम मनोहर रूप, गुण और स्वभाव से सम्पन्न होकर इस लोक में प्रायः विचरण किया करते हैं।

विष्णु भगवान् के सुरपूजित एवं परम अलौकिक पार्षदों का दर्शन बड़ा दुर्लभ है। वे भगवान् के भक्तजनों को उनके शत्रुओं से, मुझसे और अग्नि आदि सब विपत्तियों से सर्वथा सुरक्षित रखते हैं। स्वयं भगवान् ने ही धर्म की मर्यादा का निर्माण किया है। उसे न तो ऋषि जानते हैं और न देवता या सिद्धगण ही। ऐसी स्थिति में मनुष्य, विद्याधर, चारण और असुर आदि तो जान ही कैसे सकते हैं। भगवान् के द्वारा निर्मित भागवतधर्म परमशुद्ध और अत्यन्त गोपनीय है। उसे जानना बहुत ही कठिन है। जो उसे जान लेता है, वह भगवत्स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।

दूतों! भागवतधर्म का रहस्य हम बारह व्यक्ति ही जानते हैं- ब्रह्मा जी, देवर्षि नारद, भगवान् शंकर, सनत्कुमार, कपिलदेव, स्वयाम्भुव मनु, प्रह्लाद, जनक, भीष्म पितामह, बलि, शुकदेव जी और मैं (धर्मराज)। इस जगत् में जीवों के लिये बस, यही सबसे बड़ा कर्तव्य-परम धर्म है कि वे नाम-कीर्तन आदि उपायों से भगवान् के चरणों में भक्तिभाव प्राप्त कर लें। प्रिय दूतों! भगवान् के नामोच्चारण की महिमा तो देखो, अजामिल जैसा पापी भी एक बार नामोच्चारण करने मात्र से मृत्युपाश से छुटकारा पा गया। भगवान् के गुण, लीला और नामों का भलीभाँति कीर्तन मनुष्यों के पापों का सर्वथा विनाश कर दे, यह कोई उसका बहुत बड़ा फल नहीं है, क्योंकि अत्यन्त पापी अजामिल ने मरने के समय चंचलचित्त से अपने पुत्र का नाम ‘नारायण’ उच्चारण किया। उस नामाभासमात्र से ही उसके सारे पाप तो क्षीण हो ही गये, मुक्ति की प्राप्ति भी हो गयी। बड़े-बड़े विद्वानों की बुद्धि कभी भगवान् की माया से मोहित हो जाती है। वे कर्मों के मीठे-मीठे फलों का वर्णन करने वाली अर्थवादरूपिणी वेदवाणी में ही मोहित हो जाते हैं और यज्ञ-यागादि बड़े-बड़े कर्मों में ही संलग्न रहते हैं तथा इस सुगमातिसुगम भगवन्नाम की महिमा को नहीं जानते। यह कितने खेद की बात है।

प्रिय दूतों! बुद्धिमान् पुरुष ऐसा विचार कर भगवान् अनन्त में ही सम्पूर्ण अन्तःकरण से अपना भक्तिभाव स्थापित करते हैं। वे मेरे दण्ड के पात्र नहीं हैं। पहली बात तो यह है कि वे पाप करते ही नहीं, परन्तु यदि कदाचित् संयोगवश कोई पाप बन भी जाये, तो उसे भगवान् का गुणगान तत्काल नष्ट कर देता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 27-35 का हिन्दी अनुवाद)

जो समदर्शी साधु भगवान् को ही अपना साध्य और साधन दोनों समझकर उन पर निर्भर हैं, बड़े-बड़े देवता और सिद्ध उनके पवित्र चरित्रों का प्रेम से गान करते रहते हैं। मेरे दूतों! भगवान् की गदा उनकी सदा रक्षा करती रहती है। उनके पास तुम लोग कभी भूलकर भी मत फटकना। उन्हें दण्ड देने की सामर्थ्य न हममें है और न साक्षात् काल में ही। बड़े-बड़े परमहंस दिव्य रस के लोभ से सम्पूर्ण जगत् और शरीर आदि से भी अपनी अहंता-ममता हटाकर, अकिंचन होकर निरन्तर भगवान् मुकुन्द के पादारविन्द का मकरन्द-रस पान करते रहते हैं। जो दुष्ट उस दिव्य रस से विमुख हैं और नरक के दरवाजे घर-गृहस्थी की तृष्णा का बोझा बाँधकर उसे ढो रहे हैं, उन्हीं को मेरे पास बार-बार लाया करो।

जिनकी जीभ भगवान् के गुणों और नामों का उच्चारण नहीं करती, जिनका चित्त उनके चरणारविन्दों का चिन्तन नहीं करता और जिनका सिर एक बार भी भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में नहीं झुकता, उन भगवत्सेवा-विमुख पापियों को ही मेरे पास लाया करो। आज मेरे दूतों ने भगवान् के पार्षदों का अपराध करके स्वयं भगवान् का ही तिरस्कार किया है। यह मेरा ही अपराध है। पुराणपुरुष भगवान् नारायण हम लोगों का यह अपराध क्षमा करें। हम अज्ञानी होने पर भी हैं उनके निजजन और उनकी आज्ञा पाने के लिये अंजलि बाँधकर सदा उत्सुक रहते हैं। अतः परम महिमान्वित भगवान् के लिये यही योग्य है कि वे क्षमा कर दें। मैं उन सर्वान्तर्यामी एकरस अनन्त प्रभु को नमस्कार करता हूँ।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इसलिये तुम ऐसा समझ लो कि बड़े-से-बड़े पापों का सर्वोत्तम, अन्तिम और पाप-वासनाओं को भी निर्मूल कर डालने वाला प्रायश्चित यही है कि केवल भगवान् के गुणों, लीलाओं और नामों का कीर्तन किया जाये। इसी से संसार का कल्याण हो सकता है। जो लोग बार-बार भगवान् के उदार और कृपापूर्ण चरित्रों का श्रवण-कीर्तन करते हैं, उनके हृदय में प्रेममयी भक्ति का उदय हो जाता है। उस भक्ति से जैसी आत्मशुद्धि होती है, वैसी कृच्छ्र-चान्द्रायण आदि व्रतों से नहीं होती। जो मनुष्य भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के चरणारविन्द-मकरन्द-रस का लोभी भ्रमर है, वह स्वभाव से ही माया के आपातरम्य, दुःखद और पहले से ही छोड़े हुए विषयों में फिर नहीं रमता। किन्तु जो लोग उस दिव्य रस से विमुख हैं, कामनाओं ने जिनकी विवेकबुद्धि पर पानी फेर दिया है, वे अपने पापों का मार्जन करने के लिये पुनः प्रायश्चितरूप कर्म ही करते हैं। इससे होता यह है कि उनके कर्मों की वासना मिटती नहीं और वे फिर वैसे ही दोष कर बैठते है।

परीक्षित! जब यमदूतों ने अपने स्वामी धर्मराज के मुख से इस प्रकार भगवान् की महिमा सुनी और उसका स्मरण किया, तब उनके आश्चर्य की सीमा न रही। तभी से वे धर्मराज की बात पर विश्वास करके अपने नाश की आशंका से भगवान् के आश्रित भक्तों के पास नहीं जाते और तो क्या, वे उनकी ओर आँख उठाकर देखने में भी डरते हैं।

प्रिय परीक्षित! यह इतिहास परम गोपनीय-अत्यन्त रहस्यमय है। मलय पर्वत पर विराजमान भगवान् अगस्त्य जी ने श्रीहरि की पूजा करते समय मुझे यह सुनाया था।

                           {षष्ठ स्कन्ध:}

                      【चतुर्थ अध्याय:】४.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"दक्ष के द्वारा भगवान् की स्तुति और भगवान् का प्रादुर्भाव"
राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! आपने संक्षेप से (तीसरे स्कन्ध में) इस बात का वर्णन किया कि स्वयाम्भुव मन्वन्तर में देवता, असुर, मनुष्य, सर्प और पशु-पक्षी आदि की सृष्टि कैसे हुई। अब मैं उसी का विस्तार जानना चाहता हूँ। प्रकृति आदि कारणों के भी परम कारण भगवान् अपनी जिस शक्ति से जिस प्रकार उसके बाद की सृष्टि करते हैं, उसे जानने की भी मेरी इच्छा है।

सूत जी कहते हैं ;- शौनकादि ऋषियो! परमयोगी व्यासनन्दन श्रीशुकदेव जी ने राजर्षि परीक्षित का यह सुन्दर प्रश्न सुनकर उनका अभिनन्दन किया और इस प्रकार कहा।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजा प्राचीनबर्हि के दस लड़के-जिनका नाम प्रचेता था-जब समुद्र से बाहर निकले, तब उन्होंने देखा कि हमारे पिता के निवृत्तिपरायण हो जाने से सारी पृथ्वी पेड़ों से घिर गयी है। उन्हें वृक्षों पर बड़ा क्रोध आया। उनके तपोबल ने तो मानो क्रोध की आग में आहुति ही डाल दी। बस, उन्होंने वृक्षों को जला डालने के लिये अपने मुख से वायु और अग्नि की सृष्टि की।

परीक्षित! जब प्रचेताओं की छोड़ी हुई अग्नि और वायु उन वृक्षों को जलाने लगी, तब वृक्षों के राजाधिराज चन्द्रमा ने उनका क्रोध शान्त करते हुए इस प्रकार कहा- ‘महाभाग्यवान् प्रचेताओं! ये वृक्ष बड़े दीन हैं। आप लोग इनसे द्रोह मत कीजिये; क्योंकि आप तो प्रजा की अभिवृद्धि करना चाहते हैं और सभी जानते हैं कि आप प्रजापति हैं। महात्मा प्रचेताओं! प्रजापतियों के अधिपति अविनाशी भगवान् श्रीहरि ने सम्पूर्ण वनस्पतियों और ओषधियों को प्रजा के हितार्थ उनके खान-पान के लिये बनाया है। संसार में पंखों से उड़ने वाले चर प्राणियों के भोजन फल-पुष्पादि अचर पदार्थ हैं। पैर से चलने वालों के घास-तृणादि बिना पैर वाले पदार्थ भोजन हैं; हाथ वालों के वृक्ष-लता आदि बिना हाथ वाले और दो पैर वाले मनुष्यादि के लिये धान, गेहूँ आदि अन्न भोजन हैं। चार पैर वाले बैल, ऊँट आदि खेती प्रभृति के द्वारा अन्न की उत्पत्ति में सहायक हैं।

निष्पाप प्रेचाताओं! आपके पिता और देवाधिदेव भगवान् ने आप लोगों को यह आदेश दिया है कि प्रजा की सृष्टि करो। ऐसी स्थिति में आप वृक्षों को जला डालें, यह कैसे उचित हो सकता है। आप लोग अपना क्रोध शान्त करें और अपने पिता, पितामह, प्रपितामह आदि के द्वारा सेवित सत्पुरुषों के मार्ग का अनुसरण करें। जैसे माँ-बाप बालकों की, पलकें नेत्रों की, पति पत्नी की, गृहस्थ भिक्षुकों की और ज्ञानी अज्ञानियों की रक्षा करते हैं और उनका हित चाहते हैं- वैसे ही प्रजा की रक्षा और हित का उत्तरदायी राजा होता है। प्रचेताओं! समस्त प्राणियों के हृदय में सर्वशक्तिमान् भगवान् आत्मा के रूप में विराजमान हैं। इसलिये आप लोग सभी को भगवान् का निवास स्थान समझें। यदि आप ऐसा करेंगे तो भगवान् को प्रसन्न कर लेंगे। जो पुरुष हृदय के उबलते हुए भयंकर क्रोध को आत्मविचार के द्वारा शरीर में ही शान्त कर लेता है, बाहर नहीं निकलने देता, वह कालक्रम से तीनों गुणों पर विजय प्राप्त कर लेता है।

प्रचेताओं! इन दीन-हीन वृक्षों को और न जलाइए; जो कुछ बच रहे हैं, उनकी रक्षा कीजिये। इससे आपका कल्याण होगा। इस श्रेष्ठ कन्या का पालन इन वृक्षों ने ही किया है, इसे आप लोग पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिये’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! वनस्पतियों के राजा चन्द्रमा ने प्रचेताओं को इस प्रकार समझा-बुझाकर उन्हें प्रम्लोचा अप्सरा की सुन्दरी कन्या दे दी और वे वहाँ से चले गये। प्रचेताओं ने धर्मानुसार उसका पाणिग्रहण किया। उन्हीं प्रचेताओं के द्वारा उस कन्या के गर्भ से प्राचेतस् दक्ष की उत्पत्ति हुई। फिर दक्ष की प्रजा-सृष्टि से तीनों लोक भर गये। इनका अपनी पुत्रियों पर बड़ा प्रेम था। इन्होंने जिस प्रकार अपने संकल्प और वीर्य से विविध प्राणियों की सृष्टि की, वह मैं सुनाता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो।

परीक्षित! पहले प्रजापति दक्ष ने जल, थल और आकाश में रहने वाले देवता, असुर एवं मनुष्य आदि प्रजा की सृष्टि अपने संकल्प से ही की। जब उन्होंने देखा कि वह सृष्टि बढ़ नहीं रही है, तब उन्होंने विन्ध्याचल के निकटवर्ती पर्वतों पर जाकर बड़ी घोर तपस्या की। वहाँ एक अत्यन्त श्रेष्ठ तीर्थ है, उसका नाम है- अघमर्षण। वह सारे पापों को धो बहाता है। प्रजापति दक्ष उस तीर्थ में त्रिकाल स्नान करते और तपस्या के द्वारा भगवान् की आराधना करते। प्रजापति दक्ष ने इंद्रियातीत भगवान की 'हंसगुह्य' नामक स्तोत्र से स्तुति की थी। उसी से भगवान उन पर प्रसन्न हुए थे। मैं तुम्हें वह स्तुति सुनाता हूँ।

दक्ष प्रजापति ने इस प्रकार स्तुति की- भगवन्! आपकी अनुभूति, आपकी चित्त-शक्ति अमोघ है। आप जीव और प्रकृति से परे, उनके नियन्ता और उन्हें सत्तास्फूर्ति देने वाले हैं। जिन जीवों ने त्रिगुणमयी सृष्टि को ही वास्तविक सत्य समझ रखा है, वे आपके स्वरूप का साक्षात्कार नहीं कर सके हैं; क्योंकि आप तक किसी भी प्रमाण की पहुँच नहीं है-आपकी कोई अवधि, कोई सीमा नहीं है। आप स्वयं प्रकाश और परात्पर हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। यों तो जीव और ईश्वर एक-दूसरे के सखा हैं तथा इसी शरीर में इकट्ठे ही निवास करते हैं; परन्तु जीव सर्वशक्तिमान् आपके सख्यभाव को नहीं जानता-ठीक वैसे ही, जैसे रूप, रस, गन्ध आदि विषय अपने प्रकाशित करने वाली नेत्र, घ्राण आदि इन्द्रियवृत्तियों को नहीं जानते। क्योंकि आप जीव और जगत् के द्रष्टा हैं, दृश्य नहीं। महेश्वर! मैं आपके श्रीचरणों में नमस्कार करता हूँ।

देह, प्राण, इन्द्रिय, अन्तःकरण की वृत्तियाँ, पंचमहाभूत और उनकी तन्मात्राएँ- ये सब जड़ होने के कारण अपने को और अपने से अतिरिक्त को भी नहीं जानते। परन्तु जीव इन सबको और इनके कारण सत्त्व, रज और तम-इन तीन गुणों को भी जानता है। परन्तु वह भी दृश्य अथवा ज्ञेयरूप से आपको नहीं जान सकता। क्योंकि आप ही सबके ज्ञाता और अनन्त हैं। इसलिये प्रभो! मैं तो केवल आपकी स्तुति करता हूँ। जब समाधिकाल में प्रमाण, विकल्प और विपर्यरूप विविध ज्ञान और स्मरणशक्ति का लोप हो जाने से इस नाम-रूपात्मक जगत् का निरूपण करने वाला मन उपरत हो जाता है, उस समय बिना मन के भी केवल सच्चिदानन्दमयी अपनी स्वरूप स्थिति के द्वारा आप प्रकाशित होते रहते हैं।

प्रभो! आप शुद्ध हैं और शुद्ध हृदय-मन्दिर ही आपका निवास स्थान है। आपको मेरा नमस्कार है। जैसे याज्ञिक लोग काष्ठ में छिपे हुए अग्नि को ‘सामिधेनी’ नाम के पन्द्रह मन्त्रों के द्वारा प्रकट करते हैं, वैसे ही ज्ञानी पुरुष अपनी सत्ताईस शक्तियों के भीतर गूढ़भाव से छिपे हुए आपको अपनी शुद्ध बुद्धि के द्वारा हृदय में ही ढूँढ निकालते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 28-35 का हिन्दी अनुवाद)

जगत् में जितनी भिन्नताएँ देख पड़ती हैं, वे सब माया की ही हैं। माया का निषेध कर देने पर केवल परमसुख के साक्षात्कारस्वरूप आप ही अवशेष रहते हैं। परन्तु जब विचार करने लगते हैं, तब आपके स्वरूप में माया की उपलब्धि-निर्वचन नहीं हो सकता। अर्थात् माया भी आप ही हैं। अतः सारे नाम और सारे रूप आपके ही हैं।

प्रभो! आप मुझ पर प्रसन्न होइये। मुझे आत्मप्रसाद से पूर्ण कर दीजिये। प्रभो! जो कुछ वाणी से कहा जाता है अथवा जो कुछ मन, बुद्धि और इन्द्रियों से ग्रहण किया जाता है, वह आपका स्वरूप नहीं है; क्योंकि वह तो गुणरूप है और आप गुणों की उत्पत्ति और प्रलय के अधिष्ठान हैं। आपमें केवल उनकी प्रतीतिमात्र है।

भगवन्! आपमें ही यह सारा जगत् स्थित है; आपसे ही निकला है और आपने-और किसी के सहारे नहीं-अपने-आप से ही इसका निर्माण किया है। यह आपका ही है और आपके लिये ही है। इसके रूप में बनने वाले भी आप हैं और बनाने वाले भी आप ही हैं। बनने-बनाने की विधि भी आप ही हैं। आप ही सबसे काम लेने वाले भी हैं। जब कार्य और कारण का भेद नहीं था, तब भी आप स्वयंसिद्ध स्वरूप से स्थित थे। इसी से आप सबके कारण भी हैं। सच्ची बात तो यह है कि आप जीव-जगत के भेद और स्वगत भेद से सर्वथा रहित एक, अद्वितीय हैं। आप स्वयं ब्रह्म हैं। आप मुझ पर प्रसन्न हों।

प्रभो! आपकी ही शक्तियाँ वादी-प्रतिवादियों के विवाद और संवाद (ऐकमत्य) का विषय होती हैं और उन्हें बार-बार मोह में डाल दिया करती हैं। आप अनन्त अप्राकृत कल्याण-गुणगणों से युक्त एवं स्वयं अनन्त हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। भगवन्! उपासक लोग कहते हैं कि हमारे प्रभु हस्त-पादादि से युक्त साकार-विग्रह हैं और सांख्यवादी कहते हैं कि भगवान् हस्त-पादादि विग्रह से रहित-निराकार हैं। यद्यपि इस प्रकार वे एक ही वस्तु के दो परस्पर विरोधी धर्मों का वर्णन करते हैं, परन्तु फिर भी उसमें विरोध नहीं है। क्योंकि दोनों एक ही परमवस्तु में स्थित हैं। बिना आधार के हाथ-पैर आदि का होना सम्भव नहीं और निषेध की भी कोई-न-कोई अवधि होनी ही चाहिये। आप वही आधार और निषेध की अवधि हैं। इसलिये आप साकार, निराकार दोनों से ही अविरुद्ध सम परब्रह्म हैं।

प्रभो! आप अनन्त हैं। आपका न तो कोई प्राकृत नाम है और न कोई प्राकृत रूप; फिर भी जो आपके चरणकमलों का भजन करते हैं, उन पर अनुग्रह करने के लिये आप अनेक रूपों में प्रकट होकर अनेकों लीलाएँ करते हैं तथा उन-उन रूपों एवं लीलाओं के अनुसार अनेकों नाम धारण कर लेते हैं। परमात्मन्! आप मुझ पर कृपा-प्रसाद कीजिये। लोगों की उपासनाएँ प्रायः साधारण कोटि की होती हैं। अतः आप सबके हृदय में रहकर उनकी भावना के अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के रूप में प्रतीत होते रहते हैं-ठीक वैसे ही जैसे हवा गन्ध का आश्रय लेकर सुगन्धित प्रतीत होती है; परन्तु वास्तव में सुगन्धित नहीं होती। ऐसे सबकी भावनाओं का अनुसरण करने वाले प्रभु मेरी अभिलाषा पूर्ण करें।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! विन्ध्याचल के अघमर्षण तीर्थ में जब प्रजापति दक्ष ने इस प्रकार स्तुति की, तब भक्तवत्सल भगवान् उनके सामने प्रकट हुए।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 36-54 का हिन्दी अनुवाद)

उस समय भगवान् गरुड़ के कंधों पर चरण रखे हुए थे। विशाल एवं हृष्ट-पुष्ट आठ भुजाएँ थीं; उनके चक्र, शंख, तलवार, ढाल, बाण, धनुष ,पाश और गदा धारण किये हुए। वर्षाकालीन मेघ के समन श्यामल शरीर पर पीताम्बर फहरा रहा था। मुखमण्डल प्रफुल्लित था। नेत्रों से प्रमाद की वर्षा हो रही थी। घुटनों तक वनमाला लटक रही थी। वक्षःस्थल पर सुनहरी रेखा-श्रीवत्स चिह्न और गले में कौस्तुभ मणि जगमगा रही थी। बहुमूल्य किरीट, कंगन, मकराकृत कुण्डल, करधनी, अँगूठी, कड़े, नूपुर और बाजूबंद अपने-अपने स्थान पर सुशोभित थे।

त्रिभुवनपति भगवान् ने त्रैलोक्यविमोहन रूप धारण कर रखा था। नारद, नन्द, सुनन्द आदि पार्षद उनके चारों ओर खड़े थे। इन्द्र आदि देवेश्वरगण स्तुति कर रहे थे तथा सिद्ध, गन्धर्व और चारण भगवान् के गुणों का गान कर रहे थे। यह अत्यन्त आश्चर्यमय और अलौलिक रूप देखकर दक्ष प्रजापति कुछ सहम गये। प्रजापति दक्ष ने आनन्द से भरकर भगवान् के चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। जैसे झरनों के जल से नदियाँ भर जाती हैं, वैसे ही परमानन्द के उद्रेक से उनकी एक-एक इन्द्रिय भर गयी और आनन्द परवश हो जाने के कारण वे कुछ भी बोल न सके।

परीक्षित! प्रजापति दक्ष अत्यन्त नम्रता से झुककर भगवान् के सामने खड़े हो गये। भगवान् सबके हृदय की बात जानते ही हैं, उन्होंने दक्ष प्रजापति की भक्ति और प्रजावृद्धि की कामना देखकर उनसे यों कहा।

श्रीभगवान् ने कहा ;- परम भाग्यवान् दक्ष! अब तुम्हारी तपस्या सिद्ध हो गयी, क्योंकि मुझ पर श्रद्धा करने से तुम्हारे हृदय में मेरे प्रति परम प्रेमभाव का उदय हो गया है। प्रजापते! तुमने इस विश्व की वृद्धि के लिये तपस्या की है, इसलिये मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। क्योंकि यह मेरी ही इच्छा है कि जगत् के समस्त प्राणी अभिवृद्ध और समृद्ध हों। ब्रह्मा, शंकर, तुम्हारे जैसे प्रजापति, स्वयाम्भुव आदि मनु तथा इन्द्रादि देवेश्वर-ये सब मेरी विभूतियाँ हैं और सभी प्राणियों की अभिवृद्धि करने वाले हैं।

ब्रह्मन्! तपस्या मेरा हृदय है, विद्या शरीर है, कर्म आकृति है, यज्ञ अंग हैं, धर्म मन है और देवता प्राण हैं। जब यह सृष्टि नहीं थी, तब केवल मैं ही था और वह भी निष्क्रिय रूप में। बाहर-भीतर कहीं भी और कुछ न था। न तो कोई द्रष्टा था और न दृश्य। मैं केवल ज्ञानस्वरूप और अव्यक्त था। ऐसा समझ लो, मानो सब ओर सुषुप्ति-ही-सुषुप्ति छा रही हो। प्रिय दक्ष! मैं अनन्त गुणों का आधार एवं स्वयं अनन्त हूँ। जब गुणमयी माया के क्षोभ से यह ब्रह्माण्ड-शरीर प्रकट हुआ, तब इसमें अयोनिज आदि पुरुष ब्रह्मा उत्पन्न हुए। जब मैंने उनमे शक्ति और चेतना का संचार किया, तब देवशिरोमणि ब्रह्मा सृष्टि करने के लिये उद्यत हुए। परन्तु उन्होंने अपने को सृष्टि कार्य में असमर्थ-सा पाया। उस समय मैंने उन्हें आज्ञा दी कि तप करो। तब उन्होंने घोर तपस्या की और उस तपस्या के प्रभाव से पहले-पहल तुम नौ प्रजापतियों की सृष्टि की।

प्रिय दक्ष! देखो, यह पंचजन प्रजापति की कन्या असिक्नी है। इसे तुम अपनी पत्नी के रूप में ग्रहण करो। अब तुम गृहस्थोचित स्त्री सहवासरूप धर्म को स्वीकार करो। यह असिक्नी भी उसी धर्म को स्वीकार करेगी। तब तुम इसके द्वारा बहुत-सी प्रजा उत्पन्न कर सकोगे। प्रजापते! अब तक तो मानसी सृष्टि होती थी, परन्तु अब तुम्हारे बाद सारी प्रजा मेरी माया से स्त्री-पुरुष के संयोग से ही उत्पन्न होगी तथा मेरी सेवा में तत्पर रहेगी।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- विश्व के जीवनदाता भगवान् श्रीहरि यह कहकर दक्ष के सामने ही इस प्रकार अन्तर्धान हो गये, जैसे स्वप्न में देखी हुई वस्तु स्वप्न टूटते ही लुप्त हो जाती है।

                           {षष्ठ स्कन्ध:}

                      【पञ्चम अध्याय:】५.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"श्रीनारद जी के उपदेश से दक्षपुत्रों की विरक्ति तथा नारद जी को दक्ष का शाप"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान् के शक्ति संचार से दक्ष प्रजापति परम समर्थ हो गये थे। उन्होंने पंचजन की पुत्री असिक्नी से हर्यश्व नाम के दस हजार पुत्र उत्पन्न किये।

राजन्! दक्ष के ये सभी पुत्र एक आचरण और एक स्वभाव के थे। जब उनके पिता दक्ष ने उन्हें सन्तान उत्पन्न करने की आज्ञा दी, तब वे तपस्या करने के विचार से पश्चिम दिशा की ओर गये। पश्चिम दिशा में सिन्धु नदी और समुद्र के संगम पर 'नारायण-सर' नाम का एक महान् तीर्थ है। बड़े-बड़े मुनि और सिद्ध पुरुष वहाँ निवास करते हैं। नारायण-सर में स्नान करते ही हर्यश्वों के अन्तःकरण शुद्ध हो गये, उनकी बुद्धि भागवत धर्म में लग गयी। फिर भी अपने पिता दक्ष की आज्ञा से बँधे होने कारण वे उग्र तपस्या ही करते रहे।

जब देवर्षि नारद ने देखा कि भागवत धर्म में रुचि होने पर भी ये प्रजा वृद्धि के लिये ही तत्पर हैं, तब उन्होंने उनके पास आकर कहा- ‘अरे हर्यश्वो! तुम प्रजापति हो तो क्या हुआ। वास्तव में तो तुम लोग मूर्ख ही हो। बतलाओं तो, जब तुम लोगों ने पृथ्वी का अन्त ही नहीं देखा, तब सृष्टि कैसे करोगे? बड़े खेद की बात है! देखो- एक ऐसा देश है, जिसमें एक ही पुरुष है। एक ऐसा बिल है, जिससे बाहर निकलने का रास्ता ही नहीं है। एक ऐसी स्त्री है, जो बहुरूपिणी है। एक ऐसा पुरुष है, जो व्यभिचारिणी का पति है। एक ऐसी नदी है, जो आगे-पीछे दोनों ओर बहती है। एक ऐसा विचित्र घर है, जो पचीस पदार्थों से बना है। एक ऐसा हंस है, जिसकी कहानी बड़ी विचित्र है। एक ऐसा चक्र है, जो छुरे एवं वज्र से बना हुआ है और अपने-आप में घूमता रहता है। मूर्ख हर्यश्वो! जब तक तुम लोग अपने सर्वज्ञ पिता के उचित आदेश को समझ नहीं लोग और इन उपर्युक्त वस्तुओं को देख नहीं लोगे, तब तक उनके आज्ञानुसार सृष्टि कैसे कर सकोगे?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! हर्यश्व जन्म से ही बड़े बुद्धिमान् थे, वे देवर्षि नारद की यह पहेली, ये गूढ़ वचन सुनकर अपनी बुद्धि से स्वयं ही विचार करने लगे- (देवर्षि नारद का कहना तो सच है) यह लिंग शरीर ही जिसे साधरणतः जीव कहते हैं, पृथ्वी है और यही आत्मा का अनादि बन्धन है। इसका अन्त (विनाश) देखे बिना मोक्ष के अनुपयोगी कर्मों में लगे रहने से क्या लाभ है? सचमुच ईश्वर एक ही है। वह जाग्रत् आदि तीनों अवस्थाओं और उनके अभिमानियों से भिन्न, उनका साक्षी तुरीय है। वही सबका आश्रय है, परन्तु उसका आश्रय कोई नहीं है। वही भगवान् हैं। उस प्रकृति आदि से अतीत, नित्यमुक्त परमात्मा को देखे बिना भगवान् के प्रति असमर्पित कर्मों से जीव को क्या लाभ है? जैसे मनुष्य बिल रूप पाताल में प्रवेश करके वहाँ से नहीं लौट पाता- वैसे ही जीव जिसको प्राप्त होकर फिर संसार में नहीं लौटता, जो स्वयं अन्तर्ज्योतिःस्वरूप है, उस परमात्मा को जाने बिना विनाशवान् स्वर्ग आदि फल देने वाले कर्मों को करने से क्या लाभ है?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद)

यह अपनी बुद्धि ही बहुरूपिणी और सत्त्व, रज आदि गुणों को धारण करने वाली व्यभिचारिणी स्त्री के समान है। इस जीवन में इसका अन्त जाने बिना-विवेक प्राप्त किये बिना अशान्ति को अधिकाधिक बढ़ाने वाले कर्म करने का प्रयोजन ही क्या है? यह बुद्धि ही कुलटा स्त्री के समान है। इसके संग से जीवरूप पुरुष का ऐश्वर्य-इसकी स्वतन्त्रता नष्ट हो गयी है। इसी के पीछे-पीछे वह कुलटा स्त्री के पति की भाँति न जाने कहाँ-कहाँ भटक रहा है। इसकी विभिन्न गतियों, चालों को जाने बिना ही विवेकरहित कर्मों से क्या सिद्धि मिलेगी?

माया ही दोनों ओर बहने वाली नदी है। यह सृष्टि भी करती है और प्रलय भी। जो लोग इससे निकलने के लिये तपस्या, विद्या आदि तट का सहारा लेने लगते हैं, उन्हें रोकने के लिये क्रोध, अहंकार आदि के रूप में वह और भी वेग से बहने लगती है। जो पुरुष उसके वेग से विवश अनभिज्ञ है, वह मायिक कर्मों से क्या लाभ उठावेगा? ये पचीस तत्त्व ही एक अद्भुत घर हैं। पुरुष उनका आश्चर्यमय आश्रय है। वही समस्त कार्य-करणात्मक जगत् का अधिष्ठाता है। यह बात न जानकर सच्चा स्वातन्त्र्य प्राप्त किये बिना झूठी स्वतन्त्रता से किये जाने वाले कर्म व्यर्थ ही हैं। भगवान् का स्वरूप बतलाने वाला शस्त्र हंस के समान नीर-क्षीर-विवेकी है। वह बन्ध-मोक्ष, चेतन और जड़ को अलग-अलग करके दिखा देता है। ऐसे अध्यात्म शास्त्ररूप हंस का आश्रय छोड़कर उसे जाने बिना बहिर्मुख बनाने वाले कर्मों से लाभ ही क्या है?

यह काल ही एक चक्र है। यह निरन्तर घूमता रहता है। इसकी धार छुरे और वज्र के समान तीखी है और यह सारे जगत् को अपनी ओर खींच रहा है। इसको रोकने वाला कोई नहीं, यह परम स्वतन्त्र है। यह बात न जानकर कर्मों के फल को नित्य समझकर जो लोग सकामभाव से उनका अनुष्ठान करते हैं, उन्हें उन अनित्य कर्मों से क्या लाभ होगा? शास्त्र ही पिता है; क्योंकि दूसरा जन्म शास्त्र के द्वारा ही होता है और उसका आदेश कर्मों में लगना नहीं, उनसे निवृत्त होना है। इसे जो नहीं जानता, वह गुणमय शब्द आदि विषयों पर विश्वास कर लेता है। अब वह कर्मों से निवृत्त होने की आज्ञा का पालन भला कैसे कर सकता है?’

परीक्षित! हर्यश्वों ने एक मत से यही निश्चय किया और नारद जी की परिक्रमा करके वे उस मोक्ष पथ के पथिक बन गये, जिस पर चलकर फिर लौटना नहीं पड़ता। इसके बाद देवर्षि नारद स्वरब्रह्म में-संगीत लहरी में अभिव्यक्त हुए, भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के चरणकमलों में अपने चित्त को अखण्ड रूप से स्थिर करके लोक-लोकान्तरों में विचरने लगे।

परीक्षित! जब दक्ष प्रजापति को मालूम हुआ कि मेरे शीलवान् पुत्र नारद के उपदेश से कर्यव्यच्युत हो गये हैं, तब वे शोक से व्याकुल हो गये। उन्हें बड़ा पश्चाताप हुआ। सचमुच अच्छी सन्तान का होना भी शोक का ही कारण है। ब्रह्मा जी ने दक्ष प्रजापति को बड़ी सान्त्वना दी। तब उन्होंने पंचजन-नन्दिनी असिक्नी के गर्भ से एक हजार पुत्र और उत्पन्न किये। उनका नाम था शबलाश्व। वे भी अपने पिता दक्ष प्रजापति की आज्ञा पाकर प्रजा सृष्टि के उद्देश्य तप करने के लिये उसी नारायण सरोवर पर गये, जहाँ जाकर उनके बड़े भाइयों ने सिद्धि प्राप्त की थी। शबलाश्वों ने वहाँ जाकर उस सरोवर में स्नान किया। स्नान मात्र से ही उनके अन्तःकरण के सारे मल धुल गये। अब वे परब्रह्मस्वरूप प्रणव का जप करते हुए महान् तपस्या में लग गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 27-44 का हिन्दी अनुवाद)

कुछ महीनों तक केवल जल और कुछ महीनों तक केवल हवा पीकर ही उन्होंने ‘हम नमस्कारपूर्वक ओंकारस्वरूप भगवान् नारायण का ध्यान करते हैं, जो विशुद्धचित्त में निवास करते हैं, सबके अन्तर्यामी हैं तथा सर्वव्यापक एवं परमहंसस्वरूप हैं'- इस मन्त्र का अभ्यास करते हुए मन्त्राधिपति भगवान् की आराधना की।

परीक्षित! इस प्रकार दक्ष के पुत्र शबलाश्व प्रजासृष्टि के लिये तपस्या में संलग्न थे। उनके पास भी देवर्षि नारद आये और उन्होंने पहले के समान ही कूट वचन कहे। उन्होंने कहा- ‘दक्ष प्रजापति के पुत्रो! मैं तुम लोगों को जो उपदेश देता हूँ, उसे सुनो। तुम लोग तो अपने भाइयों से बड़ा प्रेम करते हो। इसलिये उनके मार्ग का अनुसन्धान करो। जो धर्मज्ञ भाई अपने बड़े भाइयों के श्रेष्ठ मार्ग का अनुसरण करता है, वही सच्चा भाई है। वह पुण्यवान् पुरुष परलोक में मरुद्गणों के साथ आनन्द भोगता है।
परीक्षित! शबलाश्वों को इस प्रकार उपदेश देकर देवर्षि नारद वहाँ से चले गये और उन लोगों ने भी अपने भाइयों के मार्ग का ही अनुगम किया; क्योंकि नारद जी का दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता। वे उस पथ के पथिक बने, जो अन्तर्मुखी वृत्ति से प्राप्त होने योग्य, अत्यन्त सुन्दर और भगवत्प्राप्ति के अनुकूल है। वे बीती हुई रात्रियों के समान न तो उस मार्ग से अब तक लौटे हैं और न लौटेंगे ही।

दक्ष प्रजापति ने देखा कि आजकल बहुत-से अपशकुन हो रहे हैं। उनके चित्त में पुत्रों के अनिष्ट की आशंका हो आयी। इतने में ही उन्हें मालूम हुआ कि पहले की भाँति अबकी बार भी नारद जी ने मेरे पुत्रों को चौपट कर दिया। उन्हें अपने पुत्रों की कर्तव्यच्युति से बड़ा शोक हुआ और वे नारद जी पर बड़े क्रोधित हुए। उनके मिलने पर क्रोध के मारे दक्ष प्रजापति के होठ फड़कने लगे और वे आवेश में भरकर नारद जी से बोले।

दक्ष प्रजापति ने कहा ;- ओ दुष्ट! तुमने झूठमूठ साधुओं का बाना पहन रखा है। हमारे भोले-भोले बालकों को भिक्षुकों का मार्ग दिखाकर तुमने हमारा बड़ा अपकार किया है। अभी उन्होंने ब्रह्मचर्य से ऋषि-ऋण, यज्ञ से देव-ऋण और पुत्रोत्पत्ति से पितृ-ऋण नहीं उतारा। उन्हें अभी कर्म फल की नश्वरता के सम्बन्ध में भी कुछ विचार नहीं था। परन्तु पापात्मन्! तुमने उनके दोनों लोकों का सुख चौपट कर दिया। सचमुच तुम्हारे हृदय में दया का नाम भी नहीं है। तुम इस प्रकार बच्चों की बुद्धि बिगाड़ते फिरते हो। तुमने भगवान् के पार्षदों में रहकर उनकी कीर्ति में कलंक ही लगाया। सचमुच तुम बड़े निर्लज्ज हो।

मैं जानता हूँ कि भगवान् के पार्षद सदा-सर्वदा दुःखी प्राणियों पर दया करने के लिये व्यग्र रहते हैं। परन्तु तुम प्रेम भाव का विनाश करने वाले हो। तुम उन लोगों से भी वैर करते हो, जो किसी से वैर नहीं करते। यदि तुम ऐसा समझते हो कि वैराग्य से ही स्नेहपाश-विषयासक्ति का बन्धन कट सकता है, तो तुम्हारा यह विचार ठीक नहीं हैं; क्योंकि तुम्हारे जैसे झूठमूठ वैराग्य का स्वाँग भरने वालों से किसी को वैराग्य नहीं हो सकता। नारद! मनुष्य विषयों का अनुभव किये बिना उनकी कटुता नहीं जान सकता। इसलिये उनकी दुःखरूपता का अनुभव होने पर स्वयं जैसा वैराग्य होता है, वैसा दूसरों के बहकाने से नहीं होता। तुम तो हमारी वंश परम्परा का उच्छेद करने पर ही उतारू हो रहे हो। तुमने फिर हमारे साथ वही दुष्टता का व्यवहार किया। इसलिये मूढ़! जाओ, लोक-लोकान्तरों में भटकते रहो। कहीं भी तुम्हारे लिये ठहरने को ठौर नहीं होगी।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! संतशिरोमणि देवर्षि नारद ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर दक्ष का शाप स्वीकार कर लिया। संसार में बस, साधुता इसी का नाम है कि बदला लेने की शक्ति रहने पर भी दूसरे का किया हुआ अपकार सह लिया जाये।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें