सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( पञ्चम स्कन्धः ) का सोलहवाँ , सत्रहवाँ, अठारहवाँ, उन्नीसवाँ व बीसवाँ अध्याय [ The Sixteenth, seventeenth, eighteenth, Nineteenth and twentieth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Fifth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( पञ्चम स्कन्धः ) का सोलहवाँ , सत्रहवाँ, अठारहवाँ, उन्नीसवाँ व बीसवाँ अध्याय [ The Sixteenth, seventeenth, eighteenth, Nineteenth and twentieth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Fifth wing) ]


                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【षोडश अध्याय:】१६.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"भुवनकोश का वर्णन"
राजा परीक्षित ने कहा ;- मुनिवर! जहाँ तक सूर्य का प्रकाश है और जहाँ तक तारागण के सहित चन्द्रदेव दीख पड़ते हैं, वहाँ तक आपने भूमण्डल का विस्तार बतलाया है। उसमें भी आपने बतलाया कि महाराज प्रियव्रत के रथ के पहियों की सात लीकों से सात समुद्र बन गये थे, जिनके कारण इस भूमण्डल में सात द्वीपों का विभाग हुआ। अतः भगवन्! अब मैं इन सबका परिमाण और लक्षणों के सहित पूरा विवरण जानना चाहता हूँ। क्योंकि जो मन भगवान् के इस गुणमय स्थूल विग्रह में लग सकता है, उसी का उनके वासुदेव संज्ञक स्वयं प्रकाश निर्गुण ब्रह्मरूप सूक्ष्मतम स्वरूप में भी लगना सम्भव है। अतः गुरुवर! इस विषय का विशद रूप से वर्णन करने की कृपा कीजिये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- महाराज! भगवान् की माया के गुणों का इतना विस्तार है कि यदि कोई पुरुष देवताओं के समान आयु पा ले, तो भी मन या वाणी से इसका अन्त नहीं पा सकता। इसिलये हम नाम, रूप, परिमाण और लक्षणों के द्वारा मुख्य-मुख्य बातों को लेकर ही इस भूमण्डल की विशेषताओं का वर्णन करेंगे। यह जम्बू द्वीप- जिसमें हम रहते हैं, भूमण्डलरूप कमल के कोशस्थानीय जो सात द्वीप हैं, उनमें सबसे भीतर का कोश है। इसका विस्तार एक लाख योजन है और यह कमलपत्र के समान गोलाकार है। इसमें नौ-नौ हजार योजन विस्तार वाले नौ वर्ष हैं, जो इनकी सीमाओं का विभाग करने वाले आठ पर्वतों से बँटे हुए हैं। इनके बीचों-बीच इलावृत नाम का दसवाँ वर्ष है, जिसके मध्य में कुल पर्वतों का राजा मेरु पर्वत है। वह मानो भूमण्डलरूप कमल की कर्णिका ही है। वह ऊपर से नीचे तक सारा-का-सारा सुवर्णमय है और एक लाख योजन ऊँचा है। उसका विस्तार शिखर पर बत्तीस हजार और तलैटी में सोलह हजार योजन है तथा सोलह हजार योजन ही वह भूमि के भीतर घुसा हुआ है अर्थात् भूमि के बाहर उसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन है।

इलावृत वर्ष के उत्तर में क्रमशः नील, श्वेत और श्रृंगवान् नाम के तीन पर्वत हैं- जो रम्यक, हिरण्मय और कुरु नाम के वर्षों की सीमा बाँधते हैं। वे पूर्व से पश्चिम तक खारे पानी के समुद्र तक फैले हुए हैं। उनमें से प्रत्येक की चौड़ाई दो हजार योजन है तथा लम्बाई में पहले की अपेक्षा पिछला क्रमशः दशमांश से कुछ अधिक कम है, चौड़ाई और ऊँचाई तो सभी की समान है। इसी प्रकार इलावृत के दक्षिण की ओर एक के बाद एक निषध, हेमकूट और हिमालय नाम के तीन पर्वत हैं। नीलादि पर्वतों के समान ये भी पूर्व-पश्चिम की ओर फैले हुए हैं और दस-दस हजार योजन ऊँचे हैं। इनसे क्रमशः हरिवर्ष, किम्पुरुष और भारतवर्ष की सीमाओं का विभाग होता है। इलावृत के पूर्व और पश्चिम की ओर-उत्तर में नील पर्वत और दक्षिण में निषध पर्वत तक फैले हुए गन्धमादन और माल्यवान् नाम के दो पर्वत हैं। इनकी चौड़ाई दो-दो हजार योजन है और ये भद्राश्व एवं केतुमाल नामक दो वर्षों की सीमा निश्चित करते हैं। इनके सिवा मन्दर, मेरुमन्दर, सुपार्श्व और कुमुद- ये चार दस-दस हजार योजन ऊँचे और उतने ही चौड़े पर्वत मेरु पर्वत की आधारभूता थूनियों के समान बने हुए हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 12-25 का हिन्दी अनुवाद)

इन चारों के ऊपर इनकी ध्वजाओं के समान क्रमशः आम, जामुन, कदम्ब और बड़ के चार पेड़ हैं। इनमें से प्रत्येक ग्यारह सौ योजन ऊँचा है और इतना ही इनकी शाखाओं का विस्तार है। इनकी मोटाई सौ-सौ योजन है।

भरतश्रेष्ठ! इन पर्वतों पर चार सरोवर भी हैं-जो क्रमशः दूध, मधु, ईख के रस और मीठे जल से भरे हुए हैं। इनका सेवन करने वाले यक्ष-किन्नरादि उपदेवों को स्वभाव से ही योगसिद्धियाँ प्राप्त हैं। इन पर क्रमशः नन्दन, चैत्ररथ, वैभ्राजक और सर्वतोभद्र नाम के चार दिव्य उपवन भी हैं। इनमें प्रधान-प्रधान देवगण अनेकों सुरसुन्दरियों के नायक बनकर साथ-साथ विहार करते हैं। उस समय गन्धर्वादि उपदेवगण इनकी महिमा का बखान किया करते हैं। मन्दराचल की गोद में जो ग्यारह सौ योजन ऊँचा देवताओं का आम्रवृक्ष है, उससे गिरी शिखर के समान बड़े-बड़े और अमृत के समान स्वादिष्ट फल गिरते हैं। वे जब फटते हैं, तब उनसे बड़ा सुगन्धित और मीठा लाल-लाल रस बहने लगता है। वही अरुणोदा नाम की नदी में परिणत हो जाता है। यह नदी मन्दराचल के शिखर से गिरकर अपने जल से इलावृत वर्ष के पूर्वी-भाग को सींचती है।

श्रीपार्वती जी की अनुचरी यक्षपत्नियाँ इस जल का सेवन करती हैं। इससे उनके अंगों से ऐसी सुगन्ध निकलती है कि उन्हें सपर्श करके बहने वाली वायु उनके चारों ओर दस-दस योजन तक सारे देश को सुगन्ध से भर देती है। इसी प्रकार जामुन के वृक्ष से हाथी के समान बड़े-बड़े प्रायः बिना गुठली के फल गिरते हैं। बहुत ऊँचे से गिरने के कारण वे फट जाते हैं। उनके रस से जम्बू नाम की नदी प्रकट होती है, जो मरुमन्दर पर्वत के दस हजार योजन ऊँचे शिखर से गिरकर इलावृत के दक्षिण भू-भाग को सींचती है। उस नदी के दोनों किनारों की मिट्टी उस रस से भीगकर जब वायु और सूर्य से संयोग से सूख जाती है, तव वही देवलोक को विभूषित करने वाला जाम्बूनद नाम का सोना बन जाती है। इसे देवता और गन्धर्वादि अपनी तरुणी स्त्रियों के सहित मुकुट, कंकण और करधनी आदि आभूषणों के रूप में धारण करते हैं।

सुपार्श्व पर्वत पर जो विशाल कदम्ब वृक्ष है, उसके पाँच कोटरों से मधु की पाँच धाराएँ निकलती हैं; उनकी मोटाई पाँच पुर से जितनी है। ये सुपार्श्व के शिखर से गिरकर इलावृत वर्ष के पश्चिमी भाग को अपनी सुगन्ध से सुवासित करती हैं। जो लोग इनका मधुपान करते हैं, उनके मुख से निकली हुई वायु अपने चारों ओर सौ-सौ योजन इसकी महक फैला देती है। इसी प्रकार कुमुद पर्वत पर जो शतवल्श नाम का वट वृक्ष है, उसकी जटाओं से नीचे की ओर बहने वाले अनेक नद निकलते हैं, वे सब इच्छानुसार भोग देने वाले हैं। उनसे दूध, दही, मधु, घृत, गुड़, अन्न, वस्त्र, शय्या, आसन और आभूषण आदि सभी पदार्थ मिल सकते हैं। ये सब कुमुद के शिखर से गिरकर इलावृत के उत्तरी भाग को सींचते हैं। इनके दिये हुए पदार्थों का उपभोग करने से वहाँ की प्रजा की त्वचा में झुर्रियाँ पड़ जाना, बाल पक जाना, थकान होना, शरीर में पसीना आना तथा दुर्गन्ध निकलना, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, सर्दी-गरमी की पीड़ा, शरीर का कान्तिहीन हो जाना तथा अंगों का टूटना आदि कष्ट कभी नहीं सताते और उन्हें जीवन पर्यन्त पूरा-पूरा सुख प्राप्त होता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 26-29 का हिन्दी अनुवाद)

राजन्! कमल की कर्णिका के चारों ओर जैसे केसर होता है-उसी प्रकार मेरु के मूल देश में उसके चारों ओर कुरंग, कुरर, कुसुम्भ, वैकंक, त्रिकुट, शिशिर, पतंग, रुचक, निषध, शिनीवास, कपिल, शंख, वैदूर्य, जारूधि, हंस, ऋषभ, नाग, कालंजर और नारद आदि बीस पर्वत और हैं।

इनके सिवा मेरु के पूर्व की ओर जठर और देवकूट नाम के दो पर्वत हैं, जो अठारह-अठारह हजार योजन लंबे तथा दो-दो हजार योजन चौड़े और ऊँचे हैं।

इसी प्रकार पश्चिम की ओर पवन और पारियात्र, दक्षिण की ओर कैलास और करवीर तथा उत्तर की ओर त्रिश्रृंग और मकर नाम के पर्वत हैं। इन आठ पहाड़ों से चारों ओर घिरा हुआ सुवर्णगिरि मेरु अग्नि के समान जगमगाता रहता है। कहते हैं, मेरु के शिखर पर बीचोंबीच भगवान् ब्रह्मा जी की सुवर्णमयी पुरी है-जो आकार में समचौरस तथा करोड़ योजन विस्तार वाली है। उसके नीचे पूर्वादि आठ दिशा और उपदिशाओं में उनके अधिपति इन्द्रादि आठ लोकपालों की आठ पुरियाँ हैं। वे अपने-अपने स्वामी के अनुरूप उन्हीं-उन्हीं दिशाओं में हैं तथा परिमाण में ब्रह्मा जी की पुरी से चौथाई हैं।

                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【सप्तदश अध्याय:】१७.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

"गंगा जी का विवरण और भगवान् शंकरकृत संकर्षणदेव की स्तुति"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! जब राजा बलि की यज्ञशाला में साक्षात् यज्ञमूर्ति भगवान् विष्णु ने त्रिलोकी को नापने के लिए अपना पैर फैलाया, तब उनके बायें अँगूठे के नख से ब्रह्माण्डकटाह का ऊपर का भाग फट गया। उस छिद्र में होकर जो ब्रह्माण्ड से बाहर के जल की धारा आयी, वह उस चरणकमल को धोने से उसमें लगी हुई केसर के मिलने से लाल हो गयी। उस निर्मल धारा का स्पर्श होते ही संसार के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, किन्तु वह सर्वथा निर्मल ही रहती है। पहले किसी और नाम से न पुकारकर उसे ‘भगवदत्पदी’ ही कहते थे। वह धारा हजारों युग बीतने पर स्वर्ग के शिरोभाग में स्थित ध्रुवलोक में उतरी, जिसे ‘विष्णुपद’ भी कहते हैं।

वीरव्रत परीक्षित! उस ध्रुवलोक में उत्तानपाद के पुत्र परम भागवत ध्रुवजी रहते हैं। वे नित्यप्रति बढ़ते हुए भक्तिभाव से ‘यह हमारे कुल देवता का चरणोंदक है’ ऐसा मानकर आज भी उस जल को बड़े आदर से सिर पर चढ़ाते हैं। उस समय प्रेमोवेश के कारण उनका हृदय अत्यन्त गद्गद हो जाता है, उत्कण्ठावश बरबस मुँदे हुए दोनों नयनकमलों से निर्मल आँसुओं की धारा बहने लगती है और शरीर में रोमांच हो आता है। इसके पश्चात् आत्मनिष्ठ सप्तर्षिगण उनका प्रभाव जानने के कारण ‘यही तपस्या की आत्यन्तिक सिद्धि है’ ऐसा मानकर उसे आज भी इस प्रकार आदरपूर्वक अपने जटाजूट पर वैसे ही धारण करते हैं, जैसे मुमुक्षुजन प्राप्त हुई मुक्ति को। यों ये बड़े ही निष्काम हैं; सर्वात्मा भगवान् वासुदेव की निश्चल भक्ति को ही अपना परम धन मानकर इन्होंने अन्य सभी कामनाओं को त्याग दिया है, यहाँ तक कि आत्मज्ञान को भी ये उसके सामने कोई चीज नहीं समझते। वहाँ से गंगाजी करोड़ों विमानों से घिरे हुए आकाश में होकर उतरती हैं और चन्द्रमण्डल को आप्लावित करती मेरु के शिखर पर ब्रह्मपुरी में गिरती हैं। वहाँ ये सीता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्रा नाम से चार धाराओं में विभक्त हो जाती हैं तथा अलग-अलग चारों दिशाओं में बहती हुई अन्त में नद-नदियों के अधीश्वर समुद्र में गिर जाती हैं।

इनमें सीता ब्रह्मपुरी से गिरकर केसराचलों के सर्वोच्च शिखरों में होकर नीचे की ओर बहती गन्धमादन के शिखरों पर गिरती है और भद्राश्ववर्ष को प्लावित कर पूर्व की ओर खारे समुद्र में मिल जाती है। इसी प्रकार चक्षु माल्यवान् के शिखर पर पहुँचकर वहाँ से बरोक-टोक केतुमाल वर्ष में बहती पश्चिम की ओर क्षार समुद्र में जा मिलती है। भद्रा मेरु पर्वत के शिखर से उत्तर की ओर गिरती है तथा एक पर्वत से दूसरे पर्वत पर जाती अन्त में श्रृंगवान् के शिखर से गिरकर उत्तर कुरु देश में होकर उत्तर की ओर बहती हुई समुद्र में मिल जाती है।

अलकनन्दा ब्रह्मपुरी से दक्षिण की ओर गिरकर अनेकों गिरिशिखरों को लाँघती हेमकूट पर्वत पर पहुँचती है, वहाँ से अत्यन्त तीव्र वेग से हिमालय के शिखरों को चीरती हुई भारतवर्ष में आती है और फिर दक्षिण की ओर समुद्र में जा मिलती है। इसमें स्नान करने के लिये आने वाले पुरुषों को पद-पद पर अश्वमेध और राजसूय आदि यज्ञों का फल भी दुर्लभ नहीं है। प्रत्येक वर्ष में मेरु आदि पर्वतों से निकली हुई और भी सैकड़ों नद-नदियाँ हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 11-19 का हिन्दी अनुवाद)

इन सब वर्षों में भारतवर्ष ही कर्मभूमि है। शेष आठ वर्ष तो स्वर्गवासी पुरुषों के स्वर्गभोग से बचे हुए पुण्यों को भोगने के स्थान हैं। इसलिये इन्हें भूलोक के स्वर्ग भी कहते हैं। वहाँ के देवतुल्य मनुष्यों की मानवी गणना के अनुसार दस हजार वर्ष की आयु होती है। उनमें दस हजार हाथियों का बल होता है तथा उनके वज्रसदृश सुदृढ़ शरीर में जो शक्ति, यौवन और उल्लास होते हैं-उनके कारण वे बहुत समय तक मैथुन आदि विषय भोगते रहते हैं। अन्त में जब भोग समाप्त होने पर उनकी आयु का केवल एक वर्ष रह जाता है, तब उनकी स्त्रियाँ गर्भ धारण करती हैं। इस प्रकार वहाँ सर्वदा त्रेतायुग के समान समय बना रहता है। वहाँ ऐसे आश्रम, भवन और वर्ष, पर्वतों की घाटियाँ हैं, जिनके सुन्दर वन-उपवन सभी ऋतुओं के फूलों के गुच्छे, फल और नूतन पल्लवों की शोभा के भार से झुकी हुई डालियों और लताओं वाले वृक्षों से सुशोभित हैं; वहाँ निर्मल जल से भरे हुए ऐसे जलाशय भी हैं; जिनमें तरह-तरह के नूतन कमल खिले रहते हैं और उन कमलों की सुगन्ध से प्रमुदित होकर राजहंस, जलमुर्ग, कारण्डव, सारस और चकवा आदि पक्षी, मतवाले भौंरे मधुर-मधुर गुंजार करते रहते हैं।

इन आश्रमों, भवनों, घाटियों तथा जलाशयों में वहाँ के देवेश्वरगण परम सुन्दरी देवांगनाओं के साथ उनके कामोन्माद सूचक हास-विलास और लीला-कटाक्षों से मन और नेत्रों के आकृष्ट हो जाने के कारण जलक्रीड़ादि नाना प्रकार के खेल करते हुए स्वच्छन्द विहार करते हैं तथा उनके प्रधान-प्रधान अनुचरगण अनेक प्रकार की सामग्रियों से उनका आदर-सत्कार करते रहते हैं। इन नवों वर्षों में परमपुरुष भगवान् नारायण वहाँ के पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिये इस समय भी अपनी विभिन्न मूर्तियों से विराजमान रहते हैं।

इलावृत वर्ष में एकमात्र भगवान् शंकर ही पुरुष हैं। श्रीपार्वती जी के शाप को जानने वाला कोई दूसरा पुरुष वहाँ प्रवेश नहीं करता; क्योंकि वहाँ जो जाता है, वही स्त्रीरूप हो जाता है। इस प्रसंग का हम आगे (नवम स्कन्ध में) वर्णन करेंगे। वहाँ पार्वती एवं उनकी अरबों-खरबों दासियों से सेवित भगवान् शंकर परमपुरुष परमात्मा की वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और संकर्षण संयज्ञ चतुर्व्यूह-मूर्तियों में से अपनी कारणरूपा संकर्षण नाम की तमःप्रधान चौथी मूर्ति का ध्यानस्थित मनोमय विग्रह के रूप में चिन्तन करते हैं और इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए इस प्रकार स्तुति करते हैं
भगवान् शंकर कहते हैं ;- ‘ॐ जिनसे सभी गुणों की अभिव्यक्ति होती है, उन अनन्त और अव्यक्तमूर्ति ओंकारस्वरूप परमपुरुष श्रीभगवान् को नमस्कार है।’ ‘भजनीय प्रभो! आपके चरणकमल भक्तों को आश्रय देने वाले हैं तथा आप स्वयं सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के परम आश्रय हैं। भक्तों के सामने आप अपना भूतभावनस्वरूप पूर्णतया प्रकट कर देते हैं तथा उन्हें संसारबन्धन से भी मुक्त कर देते हैं, किन्तु अभक्तों को उस बन्धन में डालते रहते हैं। आप ही सर्वेश्वर हैं, मैं आपका भजन करता हूँ।

प्रभो! हम लोग क्रोध के आवेग को नहीं जीत सके हैं तथा हमारी दृष्टि तत्काल पाप से लिप्त हो जाती है। परन्तु आप तो संसार का नियमन करने के लिये निरन्तर साक्षीरूप से उसके सारे व्यापारों को देखते रहते हैं। तथापि हमारी तरह आपकी दृष्टि पर उन मायिक विषयों तथा चित्त की वृत्तियों का नाममात्र को भी प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसी स्थिति में अपने मन को वश में करने की इच्छा वाला कौन पुरुष आपका आदर न करेगा?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 20-24 का हिन्दी अनुवाद)

आप जिन पुरुषों को मधु-आसवादि पाने के कारण अरुण नयन और मतवाले जान पड़ते हैं, वे माया के वशीभूत होकर ही ऐसा मिथ्या दर्शन करते हैं तथा आपके चरणस्पर्श से ही चित्त चंचल हो जाने के कारण नागपत्नियाँ लज्जावश आपकी पूजा करने में असमर्थ हो जाती हैं।

वेदमन्त्र आपको जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय का कारण बताते हैं; परन्तु आप स्वयं इन तीनों विकारों से रहित हैं; इसलिये आपको ‘अनन्त’ कहते हैं। आपके सहस्र मस्तकों पर यह भूमण्डल सरसों के दाने के समान रखा हुआ है, आपको तो यह भी नहीं मालूम होता कि वह कहाँ स्थित है। जिनसे उत्पन्न हुआ मैं अहंकाररूप अपने त्रिगुणमय तेज से देवता, इन्द्रिय और भूतों की रचना करता हूँ-वे विज्ञान के आश्रय भगवान् ब्रह्मा जी भी आपके ही महत्तत्त्वसंयज्ञ प्रथम गुणमय स्वरूप हैं।

महात्मन्! महत्तत्त्व, अहंकार-इन्द्रियाभिमानी देवता, इन्द्रियाँ और पंचभूत आदि हम सभी डोरी में बँधे हुए पक्षी के समान आपकी क्रियाशक्ति के वशीभूत रहकर आपकी ही कृपा से इस जगत् की रचना करते हैं। सत्त्वादि गुणों की सृष्टि से मोहित हुआ यह जीव आपकी ही रची हुई तथा कर्मबन्धन में बाँधने वाली माया को कदाचित् जान भी लेता है, किन्तु उससे मुक्त होने का उपाय उसे सुगमता से नहीं मालूम होता। इस जगत् की उत्पत्ति और प्रलय भी आपके ही रूप हैं। ऐसे आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ’।

                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【अष्टादश अध्याय:】१८.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

"भिन्न-भिन्न वर्षों का वर्णन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! भद्राश्व वर्ष में धर्मपुत्र भद्रश्रवा और उनके मुख्य-मुख्य सेवक भगवान् वासुदेव की हयग्रीवसंज्ञक धर्ममयी प्रिय मूर्ति को अत्यन्त समाधि निष्ठा के द्वारा हृदय में स्थापित कर इस मन्त्र का जप करते हुए इस प्रकार स्तुति करते हैं।

भद्रश्रवा और उनके सेवक कहते हैं ;- ‘चित्त को विशुद्ध करने वाले ओंकारस्वरूप भगवान् धर्म को नमस्कार हैं’।

अहो! भगवान् की लीला बड़ी विचित्र है, जिसके कारण यह जीव सम्पूर्ण लोकों का संहार करने वाले काल को देखकर भी नहीं देखता और तुच्छ विषयों का सेवन करने के लिये पापमय विचारों की उधेड़-बुन में लगा हुआ अपने ही हाथों अपने पुत्र और पितादि की लाश को जलाकर भी स्वयं जीते रहने की इच्छा करता है। विद्वान् लोग जगत् को नश्वर बताते हैं और सूक्ष्मदर्शी आत्मज्ञानी ऐसा ही देखते भी हैं; तो भी जन्मरहित प्रभो! आपकी माया से लोग मोहित हो जाते हैं। आप अनादि हैं तथा आपके कृत्य बड़े विस्मयजनक हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

परमात्मन्! आप अकर्ता और माया के आवरण से रहित हैं तो भी जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय- ये आपके ही कर्म माने गये हैं। सो ठीक ही है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि सर्वात्मरूप से आप ही सम्पूर्ण कार्यों के कारण हैं और अपने शुद्धस्वरूप में इस कार्य-कारण भाव से सर्वथा अतीत हैं। आपका विग्रह मनुष्य और घोड़े का संयुक्त रूप है। प्रलयकाल में जब तमःप्रधान दैत्यगण वेदों को चुरा ले गये थे, तब ब्रह्मा जी के प्रार्थना करने पर आपने उन्हें रसातल से लाकर दिया। ऐसे अमोघ लीला करने वाले सत्यसंकल्प आपको मैं नमस्कार करता हूँ।

हरिवर्षखण्ड में भगवान् नृसिंह रूप से रहते हैं। उन्होंने यह रूप जिस कारण से धारण किया था, उसका आगे (सप्तम स्कन्ध में) वर्णन किया जायेगा। भगवान् के उस प्रिय रूप की महाभागवत प्रह्लाद जी उस वर्ष के अन्य पुरुषों के सहित निष्काम एवं अनन्य भक्तिभाव से उपासना करते हैं। ये प्रह्लाद जी महापुरुषोंचित गुणों से सम्पन्न हैं तथा इन्होंने अपने शील और आचरण से दैत्य और दानवों के कुल को पवित्र कर दिया है। वे इस मन्त्र तथा स्तोत्र का जप-पाठ करते हैं। ‘ओंकारस्वरूप भगवान् श्रीनृसिंहदेव को नमस्कार है। आप अग्नि आदि तेजों के भी तेज हैं, आपको नमस्कार है। हे वज्रनख! हे वज्रदंष्ट्र! आप हमारे समीप प्रकट होइये, प्रकट होइये; हमारी कर्म-वासनाओं को जला डालिये, जला डालिये। हमारे अज्ञानरूप अन्धकार को नष्ट कीजिये, नष्ट कीजिये। ॐ स्वाहा। हमारे अन्तःकरण में अभयदान देते हुए प्रकाशित होइये। ॐ क्ष्रौम्’। ‘नाथ! विश्व का कल्याण हो, दुष्टों की बुद्धि शुद्ध हो, सब प्राणियों में परस्पर सद्भावना हो, सभी एक-दूसरे का हितचिन्तन करें, हमारा मन शुभ मार्ग में प्रवृत्त हो और हम सबकी बुद्धि निष्काम-भाव से भगवान् श्रीहरि में प्रवेश करे।

प्रभो! घर, स्त्री, पुत्र, धन और भाई-बन्धुओं में हमारी आसक्ति न हो; यदि हो तो केवल भगवान् के प्रेमी भक्तों में ही। जो संयमी पुरुष केवल शरीर-निर्वाह के योग्य अन्नादि से सन्तुष्ट रहता है, उसे जितनी शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है, वैसी इन्द्रिय-लोलुप पुरुष को नहीं होती।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 11-20 का हिन्दी अनुवाद)

उन भगवद्भक्तों के संग से भगवान् के तीर्थतुल्य पवित्र चरित्र सुनने को मिलते हैं, जो उनकी असाधारण शक्ति एवं प्रभाव के सूचक होते हैं। उनका बार-बार सेवन करने वालों के कानों के रास्ते से भगवान् हृदय में प्रवेश कर जाते हैं और उनके सभी प्रकार के दैहिक और मानसिक मलों को नष्ट कर देते हैं। फिर भला, उन भगवद्भक्तों का संग कौन न करना चाहेगा? जिस पुरुष की भगवान् में निष्काम भक्ति है, उसके हृदय में समस्त देवता धर्म-ज्ञानादि सम्पूर्ण सद्गुणों के सहित सदा निवास करते हैं। किन्तु जो भगवान् का भक्त नहीं है, उसमें महापुरुषों के वे गुण आ ही कहाँ से सकते हैं? वह तो तरह-तरह के संकल्प करके निरन्तर तुच्छ बाहरी विषयों की ओर ही दौड़ता रहता है।

जैसे मछलियों को जल अत्यन्त प्रिय-उनके जीवन का आधार होता है, उसी प्रकार साक्षात् श्रीहरि ही समस्त देहधारियों के प्रियतम आत्मा हैं। उन्हें त्यागकर यदि कोई महत्त्वाभिमानी पुरुष घर में आसक्त रहता है तो उस दशा में स्त्री-पुरुषों का बड़प्पन केवल आयु को लेकर ही माना जाता है; गुण की दृष्टि से नहीं। अतः असुरगण! तुम तृष्णा, राग, विषाद, क्रोध, अभिमान, इच्छा, भय, दीनता और मानसिक सन्ताप के मूल तथा जन्म-मरणरूप संसारचक्र का वहन करने वाले गृह आदि को त्यागकर भगवान् नृसिंह के निर्भय चरणकमलों का आश्रय लो’।

केतुमाल वर्ष में लक्ष्मी जी का तथा संवत्सर नामक प्रजापति के पुत्र और पुत्रियों का प्रिय करने के लिये भगवान् कामदेवरूप से निवास करते हैं। उन रात्रि की अभिमानी देवतारूप कन्याओं और दिवसाभिमानी देवतारूप पुत्रों की संख्या मनुष्य की सौ वर्ष की आयु के दिन और रात के बराबर अर्थात् छत्तीस-छत्तीस हजार वर्ष है और वे ही उस वर्ष के अधिपति हैं। वे कन्याएँ परमपुरुष श्रीनारायण के श्रेष्ठ अस्त्र सुदर्शन चक्र के तेज से डर जाती हैं; इसलिये प्रत्येक वर्ष के अन्त में उनके गर्भ नष्ट होकर गिर जाते हैं। भगवान् अपने सुललित गति-विलास से सुशोभित मधुर-मधुर मन्द-मुसकान से मनोहर लीलापूर्ण चारु चितवन से कुछ उलझ के हुए सुन्दर-सुन्दर भ्रूमण्डल की छबीली छटा के द्वारा वदनारविन्द राशि-राशि सौन्दर्य ऊँडेलकर सौन्दर्यदेवी श्रीलक्ष्मी को अत्यन्त आनन्दित करते और स्वयं भी आनन्दित होते रहते हैं। श्रीलक्ष्मी जी परम समाधियोग के द्वारा भगवान् के उस मायामय स्वरूप की रात्रि के समय प्रजापति संवत्सर की कन्यायों सहित और दिन में उनके पतियों के सहित आराधना और वे इस मन्त्र का जप करती हुई भगवान् की स्तुति करती हैं।

‘जो इन्द्रियों के नियन्ता और सम्पूर्ण श्रेष्ठ वस्तुओं के आकर हैं, क्रियाशक्ति, ज्ञानशक्ति और संकल्प-अध्यवसाय आदि चित्त के धर्मों तथा उनके विषयों के अधीश्वर हैं, ग्यारह इन्द्रिय और पाँच विषय-इन सोलह कलाओं से युक्त हैं, वेदोक्त कर्मों से प्राप्त होते हैं तथा अन्नमय, अमृतमय और सर्वमय हैं-उन मानसिक, ऐन्द्रियक एवं शारीरिक बल स्वरूप परमसुन्दर भगवान् कामदेव को ‘ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं’ इन बीजमन्त्रों के सहित सब ओर से नमस्कार है’।

‘भगवन्! आप इन्द्रियों के अधीश्वर हैं। स्त्रियाँ तरह-तरह के कठोर व्रतों से आपकी ही आराधना करके अन्य लौकिक पतियों की इच्छा किया करती हैं। किन्तु वे उनके प्रिय पुत्र, धन और आयु की रक्षा नहीं कर सकते; क्योंकि वे स्वयं ही परतन्त्र हैं। सच्चा पति (रक्षा करने वाला या ईश्वर) वही है, जो स्वयं सर्वथा निर्भय हो और दूसरे भयभीत लोगों की सब प्रकार से रक्षा कर सके। ऐसे पति एकमात्र आप ही हैं; यदि एक से अधिक ईश्वर माने जायें, तो उन्हें एक-दूसरे से भय होने की सम्भावना है। अतएव आप अपनी प्राप्ति से बढ़कर और किसी लाभ को नहीं मानते।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 21-32 का हिन्दी अनुवाद)

भगवन्! जो स्त्री आपके चरणकमलों का पूजन ही चाहती है और किसी वस्तु की इच्छा नहीं करती-उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं; किन्तु जो किसी एक कामना को लेकर आपकी उपासना करती है, उसे आप केवल वही वस्तु देते हैं। और जब भोग समाप्त होने पर वह नष्ट हो जाती है तो उसके लिये उसे सन्तप्त होना पड़ता है।

अजित! मुझे पाने के लिये इन्द्रिय-सुख के अभिलाषी ब्रह्मा और रुद्र आदि समस्त सुरासुरगण घोर तपस्या करते रहते हैं; किन्तु आपके चरणकमलों का आश्रय लेने वाले भक्त के सिवा मुझे कोई पा नहीं सकता; क्योंकि मेरा मन तो आपमें ही लगा रहता है।

अच्युत! आप अपने जिस वन्दनीय करकमल को भक्तों के मस्तक पर रखते हैं, उसे मेरे सिर पर भी रखिये। वरेण्य! आप मुझे केवल श्रीलांछन रूप से अपने वक्षःस्थल में ही धारण करते हैं; सो आप सर्वसमर्थ हैं, आप अपनी माया से जो लीलाएँ करते हैं, उनका रहस्य कौन जान सकता है? रम्यकवर्ष में भगवान् ने वहाँ के अधिपति मनु को पूर्वकाल में अपना परमप्रिय मत्स्यरूप दिखाया था। मनु जी इस समय भी भगवान् के उसी रूप की बड़े भक्तिभाव से उपासना करते हैं और इस मन्त्र का जप करते हुए स्तुति करते हैं- ‘सत्त्वप्रधान मुख्य प्राण सूत्रात्मा तथा मनोबल, इन्द्रियबल और शरीरबल ओंकार पद के अर्थ सर्वश्रेष्ठ भगवान् महामत्स्य को बार-बार नमस्कार है’।

प्रभो! नट जिस प्रकार कठपुतलियों को नचाता है, उसी प्रकार आप ब्राह्मणादि नामों की डोरी से सम्पूर्ण विश्व को अपने अधीन करके नचा रहे हैं। अतः आप ही सबके प्रेरक हैं। आपको ब्रह्मादि लोकपालगण भी नहीं देख सकते; तथापि आप समस्त प्राणियों के भीतर प्राणरूप से और बाहर वायुरूप से निरन्तर संचार करते रहते हैं। वेद ही आपका महान् शब्द हैं।

एक बार इन्द्रादि इन्द्रियाभिमानी देवताओं को प्राणस्वरूप आपसे डाह हुआ। तब आपके अलग हो जाने पर वे अलग-अलग अथवा आपस में मिलकर भी मनुष्य, पशु, स्थावर-जंगम आदि जितने शरीर दिखाई देते हैं-उनमें से किसी की बहुत यत्न करने पर भी रक्षा नहीं कर सके।

अजन्मा प्रभो! आपने मेरे सहित समस्त औषध और लताओं की आश्रयरूपा इस पृथ्वी को लेकर बड़ी-बड़ी उत्ताल तरंगों से युक्त प्रलयकालीन समुद्र में बड़े उत्साह से विहार किया था। आप संसार के समस्त प्राणसमुदाय के नियन्ता हैं; मेरा आपको नमस्कार है’।

हिरण्मय वर्ष में भगवान् कच्छप रूप धारण करके रहते हैं। वहाँ के निवासियों के सहित पितृराज अर्यमा भगवान् की उस प्रियतम मूर्ति की उपासना करते हैं और इस मन्त्र को निरन्तर जपते हुए स्तुति करते हैं- 'जो सम्पूर्ण सत्त्वगुण से युक्त हैं, जल में विचरते रहने के कारण जिनके स्थान का कोई निश्चय नहीं है तथा जो काल की मर्यादा के बाहर हैं, उन ओंकारस्वरूप सर्वव्यापक सर्वाधार भगवान् कच्छप को बार-बार नमस्कार है’।

भगवन्! अनेक रूपों में प्रतीत होने वाला यह दृश्यप्रपंच यद्यपि मिथ्या ही निश्चय होता है, इसलिये इसकी वस्तुतः कोई संख्या नहीं है; तथापि यह माया से प्रकाशित होने वाला आपका ही रूप है। ऐसे अनिर्वचनीय रूप आपको मेरा नमस्कार है। एकमात्र आप ही जरायुज, स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जंगम, स्थावर, देवता, ऋषि, पितृगण, भूत, इन्द्रिय, स्वर्ग, आकाश, पृथ्वी, पर्वत, नदी, समुद्र, द्वीप, ग्रह और तारा आदि विभिन्न नामों से प्रसिद्ध हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 33-39 का हिन्दी अनुवाद)

आप असंख्य नाम, रूप और आकृतियों से युक्त हैं; कपिलादि विद्वानों ने जो आप में चौबीस तत्त्वों की संख्या निश्चित की है- वह जिस तत्त्वदृष्टि का उदय होने पर निवृत्त हो जाती है, वह भी वस्तुतः आपका ही स्वरूप है। ऐसे सांख्यसिद्धान्तस्वरूप आपको मेरा नमस्कार है’।

उत्तर कुरुवर्ष में भगवान् यज्ञपुरुष वराह मूर्ति धारण करके विराजमान हैं। वहाँ के निवासियों के सहित साक्षात् पृथ्वी देवी उनकी अविचल भक्तिभाव से उपासना करती और इस परमोत्कृष्ट मन्त्र का जप करती हुई स्तुति करती हैं- ‘जिनका तत्त्व मन्त्रों से जाना जाता है, जो यज्ञ और क्रतुरूप हैं तथा बड़े-बड़े यज्ञ जिनके अंग हैं- उन ओंकारस्वरूप शुक्लकर्ममय त्रियुगमूर्ति पुरुषोत्तम भगवान् वराह को बार-बार नमस्कार है’।

‘ऋत्विज्गण जिस प्रकार अरणिरूप काष्ठ खण्डों में छिपी हुई अग्नि को मन्थन द्वारा प्रकट करते हैं, उसी प्रकार कर्मासक्ति एवं कर्मफल की कामनाओं से छिपे हुए जिनके रूप को देखने की इच्छा से परम प्रवीण पण्डितजन अपने विवेकयुक्त मनरूप मन्थन काष्ठ से शरीर एवं इन्द्रियादि को बिलो डालते हैं। इस प्रकार मन्थन करने पर अपने स्वरूप को प्रकट करने वाले आपको नमसकर है।

विचार तथा यम-नियमादि योगांगों के साधन से जिनकी बुद्धि निश्चयात्मिक हो गयी है- वे महापुरुष द्रव्य (विषय), क्रिया (इन्द्रियों के व्यापार), हेतु (इन्द्रियाधिष्ठाता देवता), अयन (शरीर), ईश, काल और कर्ता (अहंकार) आदि माया के कार्यों को देखकर जिनके वास्तविक स्वरूप का निश्चय करते हैं और ऐसे मायिक आकृतियों से रहित आपको बार-बार नमस्कार है। जिस प्रकार लोहा जड होने पर भी चुम्बक की सन्निधिमात्र से चलने-फिरने लगता है, उसी प्रकार जिन सर्वसाक्षी की इच्छामात्र से- जो अपने लिये नहीं, बल्कि समस्त प्राणियों के लिए होती है- प्रकृति अपने गुणों के द्वारा जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करती रहती है; ऐसे सम्पूर्ण गुणों एवं कर्मों के साक्षी आपको नमस्कार है।

आप जगत् के कारणभूत आदि सूकर हैं। जिस प्रकार एक हाथी दूसरे हाथी को पछाड़ देता है, उसी प्रकार गजराज के समान क्रीड़ा करते हुए आप युद्ध में अपने प्रतिद्वन्दी हिरण्याक्ष दैत्य को दलित करके मुझे अपनी दाढ़ों की नोक पर रख कर रसातल से प्रलयपयोधि के बाहर निकले थे। मैं आप सर्वशक्तिमान् प्रभु को बार-बार नमस्कार करती हूँ’।

                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【एकोनविंंश अध्याय:】१९.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

"किम्पुरुष और भारतवर्ष का वर्णन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! किम्पुरुषवर्ष में श्रीलक्ष्मण जी के बड़े भाई, आदिपुरुष सीताहृदयाभिराम भगवान् श्रीराम के चरणों की सन्निधि के रसिक परमभागवत श्रीहनुमान जी अन्य किन्नरों के सहित अविचल भक्तिभाव से उनकी उपासना करते हैं। वहाँ अन्य गन्धर्वों के सहित आर्ष्टिषेण उनके स्वामी भगवान् राम की परम कल्याणमयी गुणगाथा गाते रहते हैं। श्रीहनुमान जी उसे सुनते हैं और स्वयं भी इस मन्त्र का जप करते हुए इस प्रकार उनकी स्तुति करते हैं- ‘हम ॐकारस्वरूप पवित्र कीर्ति भगवान् श्रीराम को नमस्कार करते हैं। आपमें सत्पुरुषों के लक्षण, शील और आचरण विद्यमान हैं; आप बड़े ही संयतचित्त, लोकाराधन तत्पर, साधुता की परीक्षा के लिये कसौटी के समान और अत्यन्त ब्राह्मण भक्त हैं। ऐसे महापुरुष महाराज राम को हमारा पुनः-पुनः प्रणाम है’।

‘भगवन्! आप विशुद्ध बोधस्वरूप, अद्वितीय, अपने स्वरूप के प्रकाश से गुणों के कार्यरूप जाग्रदादि सम्पूर्ण अवस्थाओं का निरास करने वाले, सर्वान्तरात्मा, परमशान्त, शुद्ध बुद्धि से ग्रहण किये जाने योग्य, नाम-रूप से रहित और अहंकार शून्य हैं; मैं आपकी शरण में हूँ।

प्रभो! आपका मनुष्यावतार केवल राक्षसों के वध के लिये ही नहीं है, इसका मुख्य उद्देश्य तो मनुष्यों को शिक्षा देना है। अन्यथा, अपने स्वरूप में ही रमण करने वाले साक्षात् जगदात्मा जगदीश्वर को सीता जी के वियोग में इतना दुःख कैसे हो सकता था। आप धीर पुरुषों के आत्मा और प्रियतम भगवान् वासुदेव हैं; त्रिलोकी की किसी भी वस्तु में आपकी आसक्ति नहीं है। आप न तो सीता जी के लिये मोह को ही प्राप्त हो सकते हैं और न लक्ष्मण जी का त्याग ही कर सकते हैं। आपके ये व्यापार केवल लोक शिक्षा के लिये ही हैं।

लक्ष्मणाग्रज! उत्तम कुल में जन्म, सुन्दरता, वाकचातुरी, बुद्धि और श्रेष्ठ योनि-इनमें से कोई भी गुण आपकी प्रसन्नता का कारण नहीं हो सकता, यह बात दिखाने के लिये ही आपने इन सब गुणों से रहित हम वनवासी वानरों से मित्रता की है। देवता, असुर, वानर अथवा मनुष्य-कोई भी हो, उसे सब प्रकार से श्रीरामरूप आपका ही भजन करना चाहिये; क्योंकि आप नर रूप में साक्षात् श्रीहरि ही हैं और थोड़े किये को भी बहुत अधिक मानते हैं। आप ऐसे आश्रितवत्सल हैं कि जब स्वयं दिव्यधाम को सिधारे थे, तब समस्त उत्तर कोसलवासियों को भी अपने साथ ही ले गये थे’।

भारतवर्ष में भी भगवान् दयावश नर-नारायणरूप धारण करके संयमशील पुरुषों पर अनुग्रह करने के लिये अव्यक्त रूप से कल्प के अन्त तक तप करते रहते हैं। उनकी यह तपस्या ऐसी है कि जिससे धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, शान्ति और उपरति की उत्तरोत्तर वृद्धि होकर अन्त में आत्मस्वरूप की उपलब्धि हो सकती है। हाँ भगवान् नारद जी स्वयं श्रीभगवान् के ही कहे हुए सांख्य और योगशास्त्र के सहित भगवन्महिमा को प्रकट करने वाले पांचरात्र दर्शन का सावर्णी मुनि को उपदेश करने के लिये भारतवर्ष की वर्णाश्रम-धर्मावलम्बिनी प्रजा के सहित अत्यन्त भक्तिभाव से भगवान् श्रीनर-नारायण की उपासना करते और इस मन्त्र का जप तथा स्तोत्र को गाकर उनकी स्तुति करते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 11-21 का हिन्दी अनुवाद)

‘ओंकारस्वरूप, अहंकार से रहित, निर्धर्नों के धन, शान्तस्वभाव ऋषिप्रवर भगवान् नर-नारायण को नमस्कार है। वे परमहंसों के परमगुरु और आत्मारामों के अधीश्वर हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है। यह गाते हैं- ‘जो विश्व की उत्पत्ति आदि में उनके कर्ता होकर भी कर्तृत्व के अभिमान से नहीं बँधते, शरीर में रहते हुए भी उसके धर्म भूख-प्यास आदि के वशीभूत नहीं होते तथा द्रष्टा होने पर भी जिनकी दृष्टि दृश्य के गुण-दोषों से दूषित नहीं होती-उन असंग एवं विशुद्ध साक्षिस्वरूप भगवान् नर-नारायण को नमस्कार है।

योगेश्वर! हिरण्यगर्भ भगवान् ब्रह्मा जी ने योग साधन की सबसे बड़ी कुशलता यही बतलायी है कि मनुष्य अन्तकाल में देहाभिमान को छोड़कर भक्तिपूर्वक आपके प्राकृत गुणरहित स्वरूप में अपना मन लगावे। लौकिक और पारलौकिक भोगों के लालची मूढ़ पुरुष जैसे पुत्र, स्त्री और धन की चिन्ता करके मौत से डरते हैं-उसी प्रकार यदि विद्वान् को भी इस निन्दनीय शरीर के छूटने का भय ही बना रहा, तो उसका ज्ञान प्राप्ति के लिये किया हुआ प्रयत्न केवल श्रम ही है। अतः अधोक्षज! आप हमें अपना स्वाभाविक प्रेमरूप भक्तियोग प्रदान कीजिये, जिससे कि प्रभो! इस निन्दनीय शरीर में आपकी माया के कारण बद्धमूल हुई दुर्भेद्य अहंता-ममता को हम तुरंत काट डालें’।

राजन्! इस भारतवर्ष में भी बहुत-से पर्वत और नदियाँ हैं-जैसे मलय, मंगलप्रस्थ, मैनाक, त्रिकूट, ऋषभ, कूटक, कोल्लक, सह्य, देवगिरी, ऋष्यमूक, श्रीशैल, वेंकट, महेन्द्र, वारिधार, विन्ध्य, शुक्तिमान्, ऋक्षगिरी, पारियात्र, द्रोण, चित्रकूट, गोवर्धन, रैवतक, कुकुभ, नील, गोकामुख, इन्द्रकील और कामगिरि आदि। इसी प्रकार और भी सैकड़ों-हजारों पर्वत हैं। उनके तट प्रान्तों से निकलने वाले नद और नदियाँ भी अगणित हैं। ये नदियाँ अपने नामों से ही जीव को पवित्र कर देती हैं और भारतीय प्रजा इन्हीं के जल में स्नानादि करती है। उनमें से मुख्य-मुख्य नदियाँ ये हैं- चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी, अवटोदा, कृतमाला, वैहायसी, कावेरी, वेणी, पयस्विनी, शर्करावर्ता, तुंगभद्रा, कृष्णा, वेण्या, भीमरथी, गोदावरी, निर्विन्ध्या, पयोष्णी, तापी, रेवा, सुरसा, नर्मदा, चर्मण्वती, सिन्धु, अन्ध और शोण नाम के नद, महानदी, वेदस्मृति, ऋषिकुल्या, त्रिमासा, कौशिकी, मन्दाकिनी, यमुना, सरस्वती, दृषद्वती, गोमती, सरयू, रोधस्वती, सप्तवती, सुषोमा, शतद्रू, चन्द्रभागा, मरूद्वृधा, वितस्ता, असिक्नी और विश्वा।

इस वर्ष में जन्म लेने वाले पुरुषों को ही अपने किये हुए सात्त्विक, राजस और तामस कर्मों के अनुसार क्रमशः नाना प्रकार की दिव्य, मानुष और नार की योनियाँ प्राप्त होती हैं; क्योंकि कर्मानुसार सब जीवों को सभी योनियाँ प्राप्त हो सकती हैं। इसी वर्ष में अपने-अपने वर्ण के लिये नियत किये हुए धर्मों का विधिवत् अनुष्ठान करने से मोक्ष तक की प्राप्ति हो सकती है।

परीक्षित! सम्पूर्ण भूतों के आत्मा, रागादि दोषों से रहित, अनिर्वचनीय, निराधार परमात्मा भगवान् वासुदेव में अनन्य एवं अहैतुक भक्तिभाव ही यह मोक्ष पद है। यह भक्तिभाव तभी प्राप्त होता है, जब अनेक प्रकार की गतियों को प्रकट करने वाली अविद्यारूप हृदय की ग्रन्थि कट जाने पर भगवान् के प्रेमी भक्तों का संग मिलता है। देवता भी भारतवर्ष में उत्पन्न हुए मनुष्यों की इस प्रकार महिमा गाते हैं- ‘अहा! जिन जीवों ने भारतवर्ष में भगवान् की सेवा के योग्य मनुष्य-जन्म प्राप्त किया है, उन्होंने ऐसा क्या पुण्य किया है? अथवा इन पर स्वयं श्रीहरि ही प्रसन्न हो गये हैं? इस परम सौभाग्य के लिये तो निरन्तर हम भी तरसते रहते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 22-31 का हिन्दी अनुवाद)

हमें बड़े कठोर यज्ञ, तप, व्रत और दानादि करके जो तुच्छ स्वर्ग का अधिकार प्राप्त हुआ है-इससे क्या लाभ है? यहाँ तो इन्द्रियों के भोगों की अधिकता से कारण स्मृतिशक्ति छिन जाती है, अतः कभी श्रीनारायण के चरणकमलों की स्मृति होती ही नहीं। यह स्वर्ग तो क्या-जहाँ के निवासियों की एक-एक कल्प की आयु होती है, किन्तु जहाँ से फिर संसारचक्र में लौटना पड़ता है, उन ब्रह्मलोकादि की अपेक्षा भी भारतभूमि में थोड़ी आयु वाले होकर जन्म लेना अच्छा है; क्योंकि यहाँ धीर पुरुष एक क्षण में ही अपने इस मर्त्य शरीर से किये हुए सम्पूर्ण कर्म श्रीभगवान् को अर्पण करके उनका अभयपद प्राप्त कर सकता है।

‘जहाँ भगवत्कथा की अमृतमयी सरिता नहीं बहती, जहाँ उसके उद्गमस्थान भगवद्भक्त साधुजन निवास नहीं करते और जहाँ नृत्य-गीतादि के साथ बड़े समारोह से भगवान् यज्ञपुरुष की पूजा-अर्चा नहीं की जाती-वह चाहे ब्रह्मलोक ही क्यों न हो, उसका सेवन नहीं करना चाहिये। जिन जीवों ने इस भारतवर्ष में ज्ञान (विवेक बुद्धि), तदनुकुल कर्म तथा उस कर्म के उपयोगी द्रव्यादि सामग्री से सम्पन्न मनुष्य जन्म पाया है, वे यदि आवागमन के चक्र से निकलने का प्रयत्न नहीं करते, तो व्याध की फाँसी से छूटकर भी फलादि के लोभ से उसी वृक्ष पर विहार करने वाले वनवासी पक्षियों के समान फिर बन्धन में पड़ जाते हैं।

‘अहो! इन भारतवासियों का कैसा सौभाग्य है। जब ये यज्ञ में भिन्न-भिन्न देवताओं के उद्देश्य से अलग-अलग भाग रखकर विधि, मन्त्र और द्रव्यादि के योग से श्रद्धापूर्वक उन्हें हवि प्रदान करते हैं, तब इस प्रकार इन्द्रादि भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाने पर सम्पूर्ण कामनाओं के पूर्ण करने वाले स्वयं पूर्णकाम श्रीहरि ही प्रसन्न होकर उस हवि को ग्रहण करते हैं।

यह ठीक है कि भगवान् सकाम पुरुषों के माँगने पर उन्हें अभीष्ट पदार्थ देते हैं, किन्तु यह भगवान् का वास्तविक दान नहीं है; क्योंकि उन वस्तुओं को पा लेने पर भी मनुष्य के मन में पुनः कामनाएँ होती ही रहती हैं। इसके विपरीत जो उनका निष्काम भाव से भजन करते हैं, उन्हें तो वे साक्षात् अपने चरणकमल ही दे देते हैं-जो अन्य समस्त इच्छाओं को समाप्त कर देने वाले हैं। अतः अब तक स्वर्गसुख भोग लेने के बाद हमारे पूर्वकृत यज्ञ, प्रवचन और शुभ कर्मों से यदि कुछ भी पुण्य बचा हो, तो उसके प्रभाव से हमें इस भारतवर्ष में भगवान् की स्मृति से युक्त मनुष्य जन्म मिले; क्योंकि श्रीहरि अपना भजन करने वाले का सब प्रकार से कल्याण करते हैं’।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! राजा सगर के पुत्रों ने अपने यज्ञ के घोड़े को ढूँढ़ते हुए इस पृथ्वी को चारो ओर से खोदा था। उससे जम्बू द्वीप के अन्तर्गत ही आठ उपद्वीप और बन गये, ऐसा कुछ लोगों का कथन है। वे स्वर्णप्रस्थ, चन्द्रशुक्ल, आवर्तन, रमणक, मन्दरहरिण, पांचजन्य, सिंहल और लंका हैं।

भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार जैसा मैंने गुरुमुख से सुना था, ठीक वैसा ही तुम्हें यह जम्बू द्वीप के वर्षो का विभाग सुना दिया।

                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【विंश अध्याय:】२०.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"अन्य छः द्वीपों तथा लोकालोक पर्वत का वर्णन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! अब परिमाण, लक्षण और स्थिति के अनुसार प्लक्षादि अन्य द्वीपों के वर्ष विभाग का वर्णन किया जाता है। जिस प्रकार मेरु पर्वत जम्बू द्वीप से घिरा हुआ है, उसी प्रकार जम्बू द्वीप भी अपने ही समान परिमाण और विस्तार वाले खारे जल के समुद्र से परिवेष्टित है। फिर खाई जिस प्रकार बाहर के उपवन से घिरी रहती है, उसी प्रकार क्षार समुद्र भी अपने से दूने विस्तार वाले प्लक्ष द्वीप से घिरा हुआ है। जम्बू द्वीप में जितना बड़ा जामुन का पेड़ है, उतने ही विस्तार वाला यहाँ सुवर्णमय प्लक्ष (पाकर) का भी वृक्ष है। उसी के कारण इसका नाम प्लक्ष द्वीप हुआ है। यहाँ सात जिह्वाओं वाले अग्नि देव विराजते हैं। इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रत पुत्र महाराज इध्मजिह्व थे। उन्होंने इसको सात वर्षों में विभक्त किया और उन्हें उन वर्षों के समान ही नाम वाले अपने पुत्रों को सौंप दिया तथा स्वयं अध्यात्म योग का आश्रय लेकर उपरत हो गये। इन वर्षों के नाम शिव, यवस, सुभद्र, शान्त, क्षेम, अमृत और अभय हैं। इनमें भी सात पर्वत और सात नदियाँ ही प्रसिद्ध हैं।

वहाँ मणिकूट, वज्रकूट, इन्द्रसेन, ज्योतिष्मान्, सुपर्ण, हिरण्यष्ठीव और मेघमाल- ये सात मर्यादा पर्वत हैं तथा अरुणा, नृम्णा, आंगिरसी, सावित्री, सुप्रभाता, ऋतम्भरा और सत्यम्भरा- ये सात महानदियाँ हैं। वहाँ हंस, पतंग, ऊर्ध्वायन और सत्यांग नाम के चार वर्ण हैं। उक्त नदियों के जल में स्नान करने से इनके रजोगुण-तमोगुण क्षीण होते रहते हैं। इनकी आयु एक हजार वर्ष की होती है। इनके शरीरों में देवताओं की भाँति थकावट, पसीना आदि नहीं होता और संतानोत्पत्ति भी उन्हीं के समान होती है। ये त्रयीविद्या के द्वारा तीनों वेदों में वर्णन किये हुए स्वर्ग के द्वारभूत आत्मस्वरूप भगवान् सूर्य की उपासना करते हैं। वे कहते हैं कि ‘जो सत्य (अनुष्ठान योग्य धर्म) और ऋत (प्रतीत होने वाले धर्म), वेद और शुभाशुभ फल के अधिष्ठाता हैं-उन पुराणपुरुष विष्णु स्वरूप भगवान् सूर्य की हम शरण में जाते हैं’।

प्लक्ष आदि पाँच द्वीपों में सभी मनुष्यों को जन्म से ही आयु, इन्द्रिय, मनोबल, इन्द्रियबल, शारीरिक बल, बुद्धि और पराक्रम समान रूप से सिद्ध रहते हैं। प्लक्ष द्वीप अपने ही समान विस्तार वाले इक्षुरस के समुद्र से घिरा हुआ है। उसके आगे उससे दुगुने परिमाण वाला शाल्मली द्वीप है, जो उतने ही विस्तार वाले मदिरा के सागर से घिरा है। प्लक्ष द्वीप के पाकर के पेड़ के बराबर उसमें शाल्मती (सेमर) का वृक्ष है। कहते हैं, यही वृक्ष अपने वेदमय पंखों से भगवान् की स्तुति करने वाले पक्षिराज भगवान् गरुड़ का निवास स्थान है तथा यही इस द्वीप के नामकरण का हेतु है। इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रत पुत्र महाराज यज्ञबाहु थे। उन्होंने इसके सुरोचन, सौमनस्य, रमणक, देववर्ष, पारिभद्र, आप्यायन और अविज्ञान नाम से सात विभाग किये और इन्हें इन्हीं नाम वाले अपने पुत्रों को सौंप दिया। इनमें भी सात वर्ष पर्वत और सात नदियाँ प्रसिद्ध हैं। पर्वतों के नाम स्वरस, शतश्रृंग, वामदेव, कुन्द, मुकुन्द, पुष्पवर्ष और सहस्रश्रुति हैं तथा नदियाँ अनुमति, सिनीवाली, सरस्वती, कुहू, रजनी, नन्दा और राका हैं। इन वर्षों में रहने वाले श्रुतधर, वीर्यधर, वसुन्धर और इषन्धर, नाम के चार वर्ण वेदमय आत्मस्वरूप भगवान् चन्द्रमा की वेदमन्त्रों से उपासना करते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 12-23 का हिन्दी अनुवाद)

(और कहते हैं-) ‘जो कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष में अपनी किरणों से विभाग करके देवता, पितर और सम्पूर्ण प्राणियों को अन्न देते हैं, वे चन्द्र देव हमारे राजा (रंजन करने वाले) हों’।

इसी प्रकार मदिरा के समुद्र से आगे उससे दूने परिमाण वाला कुशद्वीप है। पूर्वोक्त द्वीपों के समान यह भी अपने ही समान विस्तार वाले घृत के समुद्र से घिरा हुआ है। इसमें भगवान् का रचा हुआ एक कुशों का झाड़ है, उसी से इन द्वीप का नाम निश्चित हुआ है। वह दूसरे अग्नि देव के समान अपनी कोमल शिखाओं की कान्ति से समस्त दिशाओं को प्रकाशित करता रहता है।

राजन्! इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रत पुत्र महाराज हिरण्यरेता थे। उन्होंने इसके सात विभाग करके उनमें से एक-एक अपने सात पुत्र वसु, वसुदान, दृढ़रुचि, नाभिगुप्त, स्तुत्यव्रत, विवक्त और वामदेव को दे दिया और स्वयं तप करने चले गये। उनकी सीमाओं को निश्चय करने वाले सात पर्वत हैं और सात ही नदियाँ हैं। पर्वतों के नाम चक्र, चतुःश्रृंग, कपिल, चित्रकूट, देवानीक, ऊर्ध्वरोमा और द्रविण हैं। नदियों के नाम हैं- रसकुल्या, मधुकुल्या, मित्रविन्दा, श्रुतिविन्दा, देवगर्भा, घृतच्युता और मन्त्रमाला। इनके जल में स्नान करके कुशद्वीपवासी कुशल, कोविद, अभियुक्त और कुलक वर्ण के पुरुष अग्निस्वरूप भगवान् हरि का यज्ञादि कर्मकौशल के द्वारा पूजन करते हैं। (तथा इस प्रकार स्तुति करते हैं-) ‘अग्ने! परब्रह्म को साक्षात् हवि पहुँचाने वाले हैं; अतः भगवान् के अंगभूत देवताओं के यजन द्वारा आप उन परम पुरुष का ही यजन करें’।

राजन्! फिर घृतसमुद्र से आगे उससे द्विगुण परिमाण वाला क्रौंचद्वीप है। जिस प्रकार कुशद्वीप घृतसमुद्र से घिरा हुआ है, उसी प्रकार यह अपने ही समान विस्तार वाले दूध के समुद्र से घिरा हुआ है। यहाँ क्रौंच नाम का एक बहुत बड़ा पर्वत है, उसी के कारण इसका नाम क्रौंचद्वीप हुआ है। पूर्वकाल में श्रीस्वामी कार्तिकेय जी के शस्त्र प्रहार से इनका कटिप्रदेश और लता-निकुंजादि क्षत-विक्षत हो गये थे, किन्तु क्षीर समुद्र से सींचा जाकर और वरुणदेव से सुरक्षित होकर यह फिर निर्भय हो गया। इस द्वीप के अधिपति प्रियव्रत पुत्र महाराज घृतपृष्ठ थे। वे बड़े ज्ञानी थे। उन्होंने इस को सात वर्षों में विभक्त कर उनमें उन्हीं के समान नाम वाले अपने सात उत्तराधिकारी पुत्रों को नियुक्त किया और स्वयं सम्पूर्ण जीवों के अन्तरात्मा, परम मंगलमय कीर्तिशाली भगवान् श्रीहरि के पवन पादारविन्दों की शरण ली।

महाराज घृतपृष्ठ के आम, मधुरुह, मेघपृष्ठ, सुधामा, भ्राजिष्ठ, लोहितार्ण और वनस्पति- ये सात पुत्र थे। उनके वर्षों में सात वर्ष पर्वत और सात ही नदियाँ कही जाती हैं। पर्वतों के नाम शुक्ल, वर्धमान, भोजन, उपबर्हिण, नन्द, नन्दन और सर्वतोभद्र हैं तथा नदियों के नाम हैं- अभया, अमृतौघा, आर्यका, तीर्थवती, वृत्तिरूपपवती, पवित्रवती और शुक्ला। इनके पवित्र और निर्मल जल का सेवन करने वाले वहाँ के पुरुष, ऋषभ, द्रविण और देवक नामक चार वर्ण वाले निवासी जल से भरी हुई अंजलि के द्वारा आपोदेवता (जल के देवता) की उपासना करते हैं। (और कहते हैं-) ‘हे जल देवता! तुम्हें परमात्मा से सामर्थ्य प्राप्त है। तुम भूः, भुवः और स्वः- तीनों लोकों को पवित्र करते हो; क्योंकि स्वरूप से ही पापों का नाश करने वाले हो। हम अपने शरीर से तुम्हारा स्पर्श करते हैं, तुम हमारे अंगों को पवित्र करो’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 24-36 का हिन्दी अनुवाद)

इसी प्रकार क्षीर समुद्र से आगे उसके चारों ओर बत्तीस लाख योजन विस्तार वाला शाकद्वीप है, जो अपने ही समान परिमाण वाले मट्ठे के समुद्र से घिरा हुआ है। इसमें शाक नाम का एक बहुत बड़ा वृक्ष है, वही इस क्षेत्र के नाम का कारण है। उसकी अत्यन्त मनोहर सुगन्ध से सारा द्वीप महकता रहता है। मेधातिथि नामक उसके अधिपति भी राजा प्रियव्रत के ही पुत्र थे। उन्होंने भी अपने द्वीप को सात वर्षों में विभक्त किया और उनमें उन्हीं के समान नाम वाले अपने पुत्र पुरोजव, मनोजव, पवमान, धूम्रानीक, चित्ररेफ, बहुरूप और विश्वधार को अधिपति रूप से नियुक्त कर स्वयं भगवान् अनन्त में दत्तचित्त हो तपोवन को चले गये। इन वर्षों में भी सात मर्यादा पर्वत और सात नदियाँ ही हैं। पर्वतों के नाम ईशान, ऊरुश्रृंग, बलभद्र, शतकेसर, सहस्रस्रोत, देवपाल और महानस हैं तथा नदियाँ अनघा, आयुर्दा, उभयस्पृष्टि, अपराजिता, पंचपदी, सहस्रस्रुति और निजधृति हैं।

उस वर्ष के ऋतव्रत, सत्यव्रत, दानव्रत और अनुव्रत नामक पुरुष प्राणायाम द्वारा अपने रजोगुण-तमोगुण को क्षीण कर महान् समाधि के द्वारा वायुरूप श्रीहरि की आराधना करते हैं। (और इस प्रकार उनकी स्तुति करते हैं-) ‘जो प्राणादि वृत्तिरूप अपनी ध्वजाओ के सहित प्राणियों के भीतर प्रवेश करके उनका पालन करते हैं तथा सम्पूर्ण दृश्य जगत् जिनके अधीन है, वे साक्षात् अन्तर्यामी वायु भगवान् हमारी रक्षा करें’।

इसी तरह मट्ठे के समुद्र से आगे उसके चारों ओर उससे दुगुने विस्तार वाला पुष्करद्वीप है। वह चारों ओर से अपने ही समान विस्तार वाले मीठे जल के समुद्र से घिरा है। वहाँ अग्नि की शिखा के समान देदीप्यमान लाखों स्वर्णमय पंखड़ियों वाला एक बहुत बड़ा पुष्कर (कमल) है, जो ब्रह्मा जी का आसन माना जाता है। उस द्वीप के बीचोंबीच उसके पूर्वीय और पश्चिमी विभागों की मर्यादा निश्चित करने वाला मानसोत्तर नाम का एक ही पर्वत है। यह दस हजार योजन ऊँचा और उतना ही लम्बा है। इसके ऊपर चारों दिशाओं में इन्द्रादि लोकपालों की चार पुरियाँ हैं। इन पर मेरु पर्वत के चारों ओर घूमने वाले सूर्य के रथ का संवत्सररूप पहिया देवताओं के दिन और रात अर्थात् उत्तरायण और दक्षिणायन के क्रम से सर्वदा घूमा करता है। उस द्वीप का अधिपति प्रियव्रत पुत्र वीतिहोत्र भी अपने पुत्र रमणक और धातकि को दोनों वर्षों का अधिपति बनाकर स्वयं अपने बड़े भाइयों के समान भगवत्सेवा में ही तत्पर रहने लगा था। वहाँ के निवासी ब्रह्मारूप भगवान् हरि की ब्रह्म सालोक्यादि की प्राप्ति कराने वाले कर्मों से आराधना करते हुए इस प्रकार स्तुति करते हैं- ‘जो साक्षात् कर्मफल रूप हैं और एक परमेश्वर में ही जिनकी पूर्ण स्थिति है तथा जिनकी सब लोग पूजा करते हैं, ब्रह्मज्ञान के साधनरूप उन अद्वितीय और शान्तस्वरूप ब्रह्म मूर्ति भगवान् को मेरा नमस्कार है’।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! इसके आगे लोकालोक नाम का पर्वत है। यह पृथ्वी के सब ओर सूर्य आदि के द्वारा प्रकाशित और अप्रकाशित प्रदेशों के बीच में उनका विभाग करने के लिये स्थित है। मेरु से लेकर मानसोत्तर पर्वत तक जितना अन्तर है, उतनी ही भूमि शुद्धोदक समुद्र के उस ओर है। उसके आगे सुवर्णमयी भूमि है, जो दर्पण के समान स्वच्छ है। इसमें गिरी हुई कोई वस्तु फिर नहीं मिलती, इसलिये वहाँ देवताओं के अतिरिक्त और कोई प्राणी नहीं रहता। लोकालोक पर्वत सूर्य आदि से प्रकाशित और अप्रकाशित भूभागों के बीच में है, इससे इसका यह नाम पड़ा है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 37-46 का हिन्दी अनुवाद)

उसे परमात्मा ने त्रिलोकी के बाहर उसके चारों ओर सीमा के रूप में स्थापित किया है। यह इतना ऊँचा और लम्बा है कि इसके एक ओर से तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाली सूर्य से लेकर ध्रुवपर्यन्त समस्त ज्योतिर्मण्डल की किरणें दूसरी ओर नहीं जा सकतीं।

विद्वानों ने प्रमाण, लक्षण और स्थिति के अनुसार सम्पूर्ण लोकों का इतना ही विस्तार बतलाया है। यह समस्त भूगोल पचास करोड़ योजन है। इसका चौथाई भाग (अर्थात् साढ़े बारह करोड़ योजन विस्तार वाला) यह लोकालोक पर्वत है। इसके ऊपर चारों दिशाओं में समस्त संसार के गुरु स्वयम्भू श्रीब्रह्मा जी ने सम्पूर्ण लोकों की स्थिति के लिये ऋषभ, पुष्करचूड, वामन और अपराजित नाम के चार गजराज नियुक्त किये हैं। इन दिग्गजों की और अपने अंशस्वरूप इन्द्रादि लोकपालों की विविध शक्तियों की वृद्धि तथा समस्त लोकों के कल्याण के लिये परम ऐश्वर्य के अधिपति सर्वान्तर्यामी परमपुरुष श्रीहरि अपने विष्वक्सेन आदि पार्षदों के सहित इस पर्वत पर सब ओर विराजते हैं। वे अपने विशुद्ध सत्त्व (श्रीविग्रह) को जो धर्म, ज्ञान वैराग्य और ऐश्वर्य आदि आठ महासिद्धियों से सम्पन्न है धारण किये हुए हैं। उनके करकमलों में शंख-चक्रादि आयुध सुशोभित हैं।

इस प्रकार योगमाया से रचे हुए विविध लोकों की व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिये वे इसी लीलामयरूप से कल्प के अन्त तक वहाँ सब ओर रहते हैं। लोकालोक के अन्तरवर्ती भूभाग का जितना विस्तार है, उसी से उसके दूसरी ओर के अलोक प्रदेश के परीमाण की भी व्याख्या समझ लेनी चाहिये। उसके आगे तो केवल योगेश्वरों की ही ठीक-ठीक गति हो सकती है।

राजन्! स्वर्ग और पृथ्वी के बीच में जो ब्रह्माण्ड का केन्द्र है, वही सूर्य की स्थिति है। सूर्य और ब्रह्माण्ड गोलक के बीच में सब ओर से पच्चीस करोड़ योजन का अन्तर है। सूर्य इस मृत अर्थात् मरे हुए (अचेतन) अण्ड में वैराज रूप से विराजते हैं, इसी से इनका नाम ‘मार्तण्ड’ हुआ है। ये ‘हिरण्यमय (ज्योतिर्मय) ब्रह्माण्ड से प्रकट हुए हैं, इसलिये इन्हें 'हिरण्यगर्भ’ भी कहते हैं। सूर्य के द्वारा ही दिशा, आकाश, द्युलोक (अन्तरिक्ष लोक), भूर्लोक, स्वर्ग और मोक्ष के प्रदेश, नरक और रसातल तथा अन्य समस्त भोगों का विभाग होता है। सूर्य ही देवता, त्रिर्यक्, मनुष्य, सरीसृप और लता-वृक्षादि समस्त जीव समूहों के आत्मा और नेत्रेन्द्रिय के अधिष्ठाता हैं।

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