सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - पूर्वार्ध ) का सोलहवाँ , सत्रहवाँ, अठारहवाँ, उन्नीसवाँ व बीसवाँ अध्याय [ The Sixteenth, seventeenth, eighteenth, Nineteenth and twentieth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - पूर्वार्ध ) का सोलहवाँ , सत्रहवाँ, अठारहवाँ, उन्नीसवाँ व बीसवाँ अध्याय [ The Sixteenth, seventeenth, eighteenth, Nineteenth and twentieth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]


                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                        【सोलहवाँ अध्याय:】१६.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षोडश अध्याय: श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

"कालिय पर कृपा"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि महाविषधर कालिय नाग ने यमुनाजी का जल विषैला कर दिया है। तब यमुना जी को शुद्ध करने के विचार से उन्होंने वहाँ से सर्प को निकाल दिया।

राजा परीक्षित ने पूछा ;- ब्रह्मन्! भगवान श्रीकृष्ण ने यमुना जी के अगाध जल में किस प्रकार उस सर्प का दमन किया? फिर कालिय नाग तो जलचर जीव नहीं था, ऐसी दशा में वह अनेक युगों तक जल में क्यों और कैसे रहा? सो बतलाइये। ब्रह्मस्वरूप महात्मन! भगवान अनन्त हैं। वे अपनी लीला प्रकट करके स्वच्छन्द विहार करते हैं। गोपालरूप से उन्होंने जो उदार लीला की है, वह तो अमृतस्वरूप है। भला, उसके सेवन से कौन तृप्त हो सकता है?

श्री शुकदेव जी ने कहा ;- परीक्षित! यमुना जी में कालिय नाग का एक कुण्ड था। उसका जल विष की गर्मी से खौलता रहता था। यहाँ तक कि उसके ऊपर उड़ने वाले पक्षी भी झुलसकर उसमें गिर जाया करते थे उसके विषैले जल की उत्ताल तरंगों का स्पर्श करके तथा उसकी छोटी-छोटी बूँदे लेकर जब वायु बाहर आती और तट के घास-पात, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि का स्पर्श करती, तब वे उसी समय मर जाते थे।

परीक्षित! भगवान का अवतार तो दुष्टों का दमन करने के लिये होता ही है। जब उन्होंने देखा कि उस साँप के विष का वेग बड़ा प्रचण्ड (भयंकर) है और वह भयानक विष ही उसका महान बल है तथा उसके कारण मेरे विहार का स्थान यमुना जी भी दूषित हो गयी हैं, तब भगवान श्रीकृष्ण अपनी कमर का फेंटा कसकर एक बहुत ऊँचे कदम्ब के वृक्ष पर चढ़ गये और वहाँ से ताल ठोककर उस विषैले जल में कूद पड़े।
यमुना जी का जल साँप के विष के कारण पहले से ही खौल रहा था। उसकी तरंगें लाल-पीली और अत्यन्त भयंकर उठ रहीं थीं। पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के कूद पड़ने से उसका जल और भी उछलने लगा। उस समय तो कालियदह का जल इधर-उधर उछलकर चार सौ हाथ तक फ़ैल गया। अचिन्त्य अनन्त बलशाली भगवान श्रीकृष्ण के लिये इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

प्रिय परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण कालियादह में कूदकर अतुल बलशाली मतवाले गजराज के समान जल उछालने लगे। इस प्रकार जल-क्रीड़ा करने पर उनकी भुजाओं की टक्कर से जल में बड़े ज़ोर का शब्द होने लगा। आँख से ही सुनने वाले कालिय नाग ने वह आवाज सुनी और देखा कि कोई मेरे निवास स्थान का तिरस्कार कर रहा है। उसे यह सहन न हुआ। वह चिढ़कर भगवान श्रीकृष्ण के सामने आ गया।

उसने देखा कि सामने एक साँवला - सलोना बालक है। वर्षाकालीन मेघ के समान अत्यन्त सुकुमार शरीर है, उसमें लगकर आँखें हटने का नाम ही नहीं लेतीं। उसके वक्षःस्थल पर एक सुनहली रेखा - श्रीवत्स का चिह्न है और वह पीले रंग का वस्त्र धारण किये हुए हैं। बड़े मधुर एवं मनोहर मुख पर मन्द-मन्द मुस्कान अत्यन्त शोभायमान हो रही है। चरण इतने सुकुमार और सुन्दर हैं, मानो कमल की गद्दी हो। इतना आकर्षक रूप होने पर भी जब कालिय नाग ने देखा कि बालक तनिक भी न डरकर इस विषैले जल में मौज से खेल रहा है, तब उसका क्रोध और भी बढ़ गया। उसने श्रीकृष्ण को मर्मस्थानों में डसकर अपने शरीर के बन्धन से उन्हें जकड़ लिया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षोडश अध्याय: श्लोक 10-20 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान श्रीकृष्ण नागपाश में बँधकर निश्चेष्ट हो गये। यह देखकर उनके प्यारे सखा ग्वालबाल बहुत ही पीड़ित हुए और उसी समय दुःख, पश्चाताप और भय से मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। क्योंकि उन्होंने अपने शरीर, सुहृद, धन-सम्पत्ति, स्त्री, पुत्र, भोग और कामनाएँ - सब कुछ भगवान श्रीकृष्ण को ही समर्पित कर रखा था।

गाय, बैल, बछिया और बछड़े बड़े दुःख से डकराने लगे। श्रीकृष्ण की ओर ही उनकी टकटकी बँध रही थी। वे डरकर इस प्रकार खड़े हो गये, मानो रो रहे हों। उस समय उनका शरीर हिलता-डोलता तक न था।

इधर ब्रज में पृथ्वी, आकाश और शरीरों में बड़े भयंकर-भयंकर तीनों प्रकार के उत्पात उठ खड़े हुए, जो इस बात की सूचना दे रहे थे कि बहुत ही शीघ्र कोई अशुभ घटना घटने वाली है। नन्दबाबा आदि गोपों ने पहले तो उन अशकुनों को देखा और पीछे से यह जाना कि आज श्रीकृष्ण बिना बलराम के ही गाय चराने चले गये। वे भय से व्याकुल हो गये। वे भगवान का प्रभाव नहीं जानते थे। इसलिये उन अशकुनों को देखकर उनके मन में यह बात आयी कि आज तो श्रीकृष्ण की मृत्यु ही हो गयी होगी। वे उसी क्ष दुःख, शोक और भय से आतुर हो गये। क्यों न हों, श्रीकृष्ण ही उनके प्राण, अन और सर्वस्व जो थे।

प्रिय परीक्षित! ब्रज के बालक, वृद्ध और स्त्रियों का स्वभाव गायों-जैसा ही वात्सल्यपूर्ण था। वे मन में ऐसी बात आते ही अत्यन्त दीन हो गये और अपने प्यारे कन्हैया को देखने की उत्कट लालसा से घर-द्वार छोड़कर निकल पड़े। बलराम जी स्वयं भगवान के स्वरूप और सर्वशक्तिमान हैं। उन्होंने जब ब्रजवासियों को इतना कातर और इतना आतुर देखा, तब उन्हें हँसी आ गयी। परन्तु वे कुछ बोले नहीं, चुप ही रहे। क्योंकि वे अपने छोटे भाई श्रीकृष्ण का प्रभाव भलीभाँति जानते थे। ब्रजवासी अपने प्यारे श्रीकृष्ण को ढूँढने लगे। कोई अधिक कठिनाई न हुई; क्योंकि मार्ग में उन्हें भगवान के चरणचिह्न मिलते जाते थे। जौ, कमल, अंकुश आदि से युक्त होने के कारण उन्हें पहचान होती जाती थी। इस प्रकार वे यमुना-तट की ओर जाने लगे ।

परीक्षित! मार्ग में गौओं और दूसरों के चरणचिह्नों के बीच-बीच में भगवान के चरणचिह्न भी दीख जाते थे। उनमें कमल, जौ, अंकुश, वज्र और ध्वजा के चिह्न बहुत ही स्पष्ट थे। उन्हें देखते हुए वे बहुत शीघ्रता से चले। उन्होंने दूर से ही देखा कि कालिय नाग के शरीर से बँधे हुए श्रीकृष्ण चेष्टाहीन हो रहे हैं। कुण्ड के किनारे पर ग्वालबाल अचेत हुए पड़े हैं और गौएँ, बैल, बछड़े आदि बड़े आर्तस्वर से डकरा रहे हैं।

यह सब देखकर वे सब गोप अत्यन्त व्याकुल और अन्त में मूर्च्छित हो गये। गोपियों का मन अनन्त गुणगुणनिलय भगवान श्रीकृष्ण के प्रेम के रंग में रँगा हुआ था। वे तो नित्य-निरन्तर भगवान के सौहार्द, उनकी मधुर मुसकान, प्रेमभरी चितवन तथा मीठी वाणी का ही स्मरण करती रहती थीं। जब उन्होंने देखा कि हमारे प्रियतम श्यामसुन्दर को काले साँप ने जकड़ रखा है, तब तो उनके हृदय में बड़ा ही दुःख और बड़ी ही जलन हुई। अपने प्राणवल्लभ जीवन सर्वस्व के बिना उन्हें तीनों लोक सूने दीखने लगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षोडश अध्याय: श्लोक 21-28 का हिन्दी अनुवाद)

माता यशोदा तो अपने लाड़ले लाल के पीछे कालियदह में कूदने ही जा रही थी; परन्तु गोपियों ने उन्हें पकड़ लिया। उनके हृदय में भी वैसी ही पीड़ा थी। उनकी आँखों से भी आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। सबकी आँखों से भी आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। सबकी आँखें श्रीकृष्ण के मुख कमल पर लगी थीं। जिनके शरीर में चेतना थी, वे ब्रजमोहन श्रीकृष्ण की पूतना-वध आदि की प्यारी-प्यारी ऐश्वर्य लीलाएँ कह-कह कर यशोदा जी को धीरज बँधाने लगीं। किन्तु अधिकांश तो मुर्दे की तरह पड़ ही गयी थीं।

परीक्षित! नन्दबाबा आदि ने जीवन-प्राण तो श्रीकृष्ण ही थे। वे श्रीकृष्ण के लिये कालियदह में घुसने लगे। यह देखकर श्रीकृष्ण का प्रभाव जानने वाले भगवान बलराम जी ने किन्हीं को समझा-बुझाकर, किन्हीं को बलपूर्वक और किन्हीं को उनके हृदयों में प्रेरणा करके रोक दिया।

परीक्षित! यह साँप के शरीर से बँध जाना तो श्रीकृष्ण की मनुष्यों-जैसी एक लीला थी। जब उन्होंने देखा कि ब्रज के सभी लोग स्त्री और बच्चों के साथ मेरे लिये इस प्रकार अत्यन्त दुःखी हो रहे हैं और सचमुच मेरे सिवा इनका कोई दूसरा सहारा भी नहीं है, तब वे एक मुहूर्त तक सर्प के बन्धन में रहकर बाहर निकल आये। भगवान श्रीकृष्ण ने उस समय अपना शरीर फुलाकर खूब मोटा कर लिया। इससे साँप का शरीर टूटने लगा। वह अपना नागपाश छोड़कर अलग खड़ा हो गया और क्रोध से आग बबूला हो अपने फण ऊँचा करके फुफकारें मारने लगा।

घात मिलते ही श्रीकृष्ण पर चोट करने के लिये वह उनकी ओर टकटकी लगाकर देखने लगा। उस समय उसके नथुनों से विष की फुहारें निकल रही थीं। उसकी आँखें स्थिर थीं और इतनी लाल-लाल हो रही थीं, मानो भट्ठी पर तपाया हुआ खपड़ा हो। उसके मुँह से आग की लपटें निकल रही थीं। उस समय कालिय नाग अपनी दुहरी जीभ लपलपाकर अपने होंठों के दोनों किनारों को चाट रहा था और अपनी कराल आँखों से विष की ज्वाला उगलता जा रहा था।

अपने वाहन गरुड़ के समान भगवान श्रीकृष्ण उसके साथ खेलते हुए पैतरा बदलने लगे और वह साँप भी उनपर चोट करने का दाँव देखता हुआ पैतरा बदलने लगा। इस प्रकार पैतरा बदलते-बदलते उसका बल क्षीण हो गया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसके बड़े-बड़े सिरों को तनिक दबा दिया और उछलकर उन पर सवार हो गये। कालिय नाग के मस्तकों पर बहुत-सी लाल-लाल मणियाँ थीं। उनके स्पर्श से भगवान के सुकुमार तलुओं की लालिमा और भी बढ़ गयी।

नृत्य-गान आदि समस्त कलाओं के आदिप्रवर्तक भगवान श्रीकृष्ण उसके सिरों पर कलापूर्ण नृत्य करने लगे। भगवान के प्यारे भक्त गन्धर्व, सिद्ध, देवता, चारण और देवांगनाओं ने जब देखा कि भगवान नृत्य करना चाहते हैं, तब वे बड़े प्रेम से मृदंग, ढोल, नगारे आदि बाजे बजाते हुए, सुन्दर-सुन्दर गीत गाते हुए, पुष्पों की वर्षा करते हुए और अपने को निछावर करते हुए भेट ले-लेकर उसी समय भगवान के पास आ पहुँचे।

परीक्षित! कालिय नाग के एक सौ एक सिर थे। वह अपने जिस सिर को नहीं झुकता था, उसी को प्रचण्ड दण्डधारी भगवान अपने पैरों कि चोट से कुचल डालते। उससे कालिय नाग की जीवन शक्ति क्षीण हो चली, वह मुँह और नथनों से खून उगलने लगा। अन्त में चक्कर काटते-काटते वह बेहोश हो गया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षोडश अध्याय: श्लोक 29-37 का हिन्दी अनुवाद)

तनिक भी चेत होता तो वह अपनी आँखों से विष उगलने लगता और क्रोध के मारे जोर-जोर से फुफकारें मारने लगता। इस प्रकार वह अपने सिरों में से जिस सिर का ऊपर उठाता, उसी को नाचते हुए भगवान श्रीकृष्ण अपने चरणों की ठोक से झुकाकर रौंद डालते। उस समय पुराण-पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के चरणों पर जो खून की बूँदे पड़ती थीं, उनसे ऐसा मालूम होता, मानो रक्त-पुष्पों से उनकी पूजा की जा रही हो।

परीक्षित! भगवान के इस अद्भुत ताण्डव-नृत्य से कालिय के फण रूप छत्ते छिन्न-भिन्न हो गये। उसका एक-एक अंग चूर-चूर हो गया और मुँह से खून की उलटी होने लगी। अब उसे सारे जगत के आदि शिक्षक पुराण पुरुष भगवान नारायण की स्मृति हुई। वह मन-ही-मन भगवान की शरण में गया। भगवान श्रीकृष्ण के उदर में सम्पूर्ण विश्व है। इसलिये उनके भारी बोझ से कालिय नाग के शरीर की एक-एक गाँठ ढीली पड़ गयी। उनकी एडियों की चोट से उसके छत्र के समान फण छिन्न-भिन्न हो गये।

अपने पति की यह दशा देखकर उसकी पत्नियाँ भगवान की शरण में आयीं। वे अत्यन्त आतुर हो रही थीं। भय के मारे उनके वस्त्राभूषण अस्त-व्यस्त हो रहे थे और केश की चोटियाँ भी बिखर रही थीं। उस समय उन साध्वी नागपत्नियों के चित्त में बड़ी घबराहट थी। अपने बालकों को आगे करके वे पृथ्वी पर लोट गयीं और हाथ जोड़कर उन्होंने समस्त प्राणियों के एकमात्र स्वामी भगवान श्रीकृष्ण को प्रणाम किया। भगवान श्रीकृष्ण को शरणागतवत्सल जानकर अपने अपराधी पति को छुड़ाने की इच्छा से उन्होंने उनकी शरण ग्रहण की।

नाग पत्नियों ने कहा ;- प्रभो! आपका यह अवतार ही दुष्टों को दण्ड देने के लिये हुआ है। इसलिये इस अपराधी को दण्ड देना सर्वथा उचित है। आपकी दृष्टि में शत्रु और पुत्र का कोई भेदभाव नहीं है। इसलिये आप जो किसी को दण्ड देते हैं, वह उसके पापों का प्रायश्चित कराने और उसका परम कल्याण करने के लिये ही। आपने हम लोगों पर यह बड़ा ही अनुग्रह किया। यह तो आपका कृपा-प्रसाद ही है, क्योंकि आप जो दुष्टों को दण्ड देते हैं, उससे उनके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। इस सर्प के अपराधी होने में तो कोई संदेह ही नहीं है। यदि यह अपराधी न होता तो इसे सर्प की योनि ही क्यों मिलती? इसलिये हम सच्चे हृदय से आपके इस क्रोध को भी आपका अनुग्रह ही समझती हैं।

अवश्य ही पूर्वजन्म में इसने स्वयं मान रहित होकर और दूसरों का सम्मान करते हुए कोई बहुत बड़ी तपस्या की है। अथवा सब जीवों पर दया करते हुए इसने कोई बहुत बड़ा धर्म किया है तभी तो आप इसके ऊपर संतुष्ट हुए हैं। क्योंकि सर्व-जीवनस्वरूप आपकी प्रसन्नता का यही उपाय है।

भगवन! हम नहीं समझ पातीं कि यह इसकी किस साधना का फल है, जो यह आपके चरण कमलों की धूल का स्पर्श पाने का अधिकारी हुआ है। आपके चरणों की रज इतनी दुर्लभ है कि उसके लिये आपकी अर्धांगिनी लक्ष्मी जी को भी बहुत दिनों तक समस्त भोगों का त्याग करके नियमों का पालन करते हुए तपस्या करनी पड़ी थी।

प्रभो! जो आपके चरणों की धूल की शरण ले लेते हैं, वे भक्तजन स्वर्ग का राज्य या पृथ्वी की बादशाही नहीं चाहते। न वे रसातल का ही राज्य चाहते और न तो ब्रह्मा का पद ही लेना चाहते हैं। उन्हें अणिमादि योग-सिद्धियों की भी चाह नहीं होती। यहाँ तक कि वे जन्म-मृत्यु से छुडाने वाले कैवल्य-मोक्ष की भी इच्छा नहीं करते।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षोडश अध्याय: श्लोक 38-47 का हिन्दी अनुवाद)

स्वामी! यह नागराज तमोगुणी योनि में उत्पन्न हुआ है और अत्यन्त क्रोधी है। फिर भी इसे आपकी वह परम पवित्र चरण रज प्राप्त हुई, जो दूसरों के लिये सर्वथा दुर्लभ है; तथा जिसको प्राप्त करने की इच्छा-मात्र से ही संसार चक्र में पड़े हुए जीव को संसार के वैभव-सम्पत्ति की तो बात ही क्या - मोक्ष की भी प्राप्ति हो जाती है।

प्रभो! हम आपको प्रणाम करती हैं। आप अनन्त एवं अचिन्त्य ऐश्वर्य के नित्य निधि हैं। आप सबके अन्तःकरणों में विराजमान होने पर भी अनन्त हैं। आप समस्त प्राणियों और पदार्थों के आश्रय तथा सब पदार्थों के रूप में भी विद्यमान हैं। आप प्रकृति से परे स्वयं परमात्मा हैं। आप सब प्रकार के ज्ञान और अनुभवों के खजाने हैं। आपकी महिमा और शक्ति अनन्त है। आपका स्वरूप अप्राकृत - दिव्य चिन्मय है, प्राकृतिक गुणों एवं विकारों का आप कभी स्पर्श ही नहीं करते।

आप ही ब्रह्मा हैं, हम आपको नमस्कार कर रही हैं। आप प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न करने वाले काल हैं, कालशक्ति के आश्रय हैं और काल के क्षण-कल्प आदि समस्त अवयवों के साक्षी हैं। आप विश्वरूप होते हुए भी उससे अलग रहकर उसके दृष्टा हैं। आप उसके बनाने वाले निमित्तकारण तो हैं ही, उसके रूप में बनने वाले उपादान कारण भी हैं।

प्रभो! पंचभूत, उसकी मात्राएँ, इन्द्रियाँ, प्राण, मन, बुद्धि और इन सबका खजाना चित्त - ये सब आप ही हैं। तीनों गुण और उनके कार्यों में होने वाले अभिमान के द्वारा आपने अपने साक्षात्कार को छिपा रखा है। आप देश, काल और वस्तुओं की सीमा से बाहर - अनन्त हैं। सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और कार्य-कारणों के समस्त विकारों में भी एकरस, विकाररहित और सर्वज्ञ हैं। ईश्वर हैं कि नहीं हैं, सर्वज्ञ हैं कि अल्पज्ञ इत्यादि अनेक मतभेदों के अनुसार आप उन-उन मतवादियों को उन्हीं-उन्हीं रूपों में दर्शन देते हैं।

समस्त शब्दों के अर्थ के रूप में तो आप हैं ही, शब्दों के रूप में भी हैं तथा उन दोनों का सम्बन्ध जोड़ने वाली शक्ति भी आप ही हैं। हम आपको नमस्कार करती हैं। प्रयक्ष-अनुमान आदि जितने भी प्रमाण हैं, उनको प्रमाणित करने वाले मूल आप ही हैं। समस्त शास्त्र आपसे ही निकले हैं और आपका ज्ञान स्वतःसिद्ध है। आप ही मन को लगाने की विधि के रूप में और उसको सब कहीं से हटा लेने की आज्ञा के रूप में प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग हैं। इन दोनों के मूल वेद भी स्वयं आप ही हैं। हम आपको बार-बार नमस्कार करती हैं।

आप शुद्धस्त्वमय वसुदेव के पुत्र वासुदेव, संकर्षण एवं प्रद्युम्न और अनिरुद्ध भी हैं। इस प्रकार चतुर्व्यूह के रूप में आप भक्तों तथा यादवों के स्वामी हैं। श्रीकृष्ण! हम आपको नमस्कार करती हैं। आप अंतःकरण और उसकी वृत्तियों के प्रकाशक हैं और उन्हीं के द्वारा अपने-आपको ढक रखते हैं। उन अंतःकरण और वृत्तियों के द्वारा ही आपके स्वरूप का कुछ-कुछ संकेत भी मिलता है। आप उन गुणों और उनकी वृत्तियों के साक्षी तथा स्वयंप्रकाश हैं। हम आपको नमस्कार करती हैं। आप मूलप्रकृति में नित्य विहार करते रहते हैं। समस्त स्थूल और सूक्ष्म जगत की सिद्धि आपसे ही होती है। हृषिकेश! आप मननशील आत्माराम हैं। मौन ही आपका स्वभाव है। आपको नमस्कार है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षोडश अध्याय: श्लोक 48-59 का हिन्दी अनुवाद)

आप स्थूल, सूक्ष्म समस्त गतियों के जानने वाले तथा सबके साक्षी हैं। आप नाम रूपात्मक विश्वप्रपंच के निषेध की अवधि तथा उसके अधिष्ठान होने के कारण विश्वरूप भी हैं। आप विश्व के अध्यास तथा अपवाद साक्षी हैं एवं अज्ञान के द्वारा उसकी सत्यत्त्वभ्रान्ति एवं स्वरूप ज्ञान के द्वारा उसकी आत्यन्तिक निवृत्ति के भी कारण हैं। आपको हमारा नमस्कार है।

प्रभो! यद्यपि कर्तापन न होने के कारण आप कोई भी कर्म नहीं करते, निष्क्रिय हैं - तथापि अनादि कालशक्ति को स्वीकार करके प्रकृति के गुणों के द्वारा आप इस विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय की लीला करते हैं। क्योंकि आपकी लीलाएँ अमोघ हैं। आप सत्यसंकल्प हैं। इसलिये जीवों के संस्कार रूप से छिपे हुए स्वभावों को अपनी दृष्टि से जाग्रत कर देते हैं।

त्रिलोकी में तीन प्रकार की योनियाँ हैं - सत्त्वगुण प्रधान शान्त, रजोगुण प्रधान अशान्त और तमोगुण प्रधान मूढ। वे सब-की-सब आपकी लीला-मूर्तियाँ हैं। फिर भी इस समय आपको सत्त्वगुण प्रधान शान्तजन ही विशेष प्रिय हैं। क्योंकि आपका यह अवतार और ये लीलाएँ साधुजनों की रक्षा तथा धर्म की रक्षा एवं विस्तार के लिये ही हैं। शान्तात्मन्! स्वामी को एक बार अपनी प्रजा का अपराध सह लेना चाहिये। यह मूढ़ है, आपको पहचानता नहीं हैं, इसलिये इसे क्षमा कर दीजिये। भगवन! कृपा कीजिये; अब यह सर्प मरने ही वाला है। साधु पुरुष सदा से ही हम अबलाओं पर दया करते आये हैं। अतः आप हमें हमारे प्राण स्वरूप पतिदेव को दे दीजिये। हम आपकी दासी हैं। हमें आप आज्ञा दीजिये, आपकी क्या सेवा करें? क्योंकि जो श्रद्धा के साथ आपकी आज्ञाओं का पालन - आपकी सेवा करता है, वह सब प्रकार के भयों से छुटकारा पा जाता है।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान के चरणों की ठोकरों से कालिय नाग के फण छिन्न-भिन्न हो गये थे। वह बेसुध हो रहा था। जब नागपत्नियों ने इस प्रकार भगवान की स्तुति की, तब उन्होंने दया करके उसे छोड़ दिया। धीरे-धीरे कालिय नाग की इन्द्रियों और प्राणों में कुछ-कुछ चेतना आ गयी। वह बड़ी कठिनता से श्वास लेने लगा और थोड़ी देर के बाद बड़ी दीनता से हाथ जोड़कर भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार बोला।

कालिय नाग ने कहा ;- नाथ! हम जन्म से ही दुष्ट, तमोगुणी और बहुत दिनों के बाद भी बदला लेने वाले - बड़े क्रोधी जीव हैं। जीवों के लिये अपना स्वभाव छोड़ देना बहुत कठिन है। इसी के कारण संसार के लोग नाना प्रकार के दुराग्रहों में फँस जाते हैं। विश्वविधाता! आपने ही गुणों के भेद से इस जगत में नाना प्रकार के स्वभाव, वीर्य, बल, योनि, बीज, चित्त और आकृतियों का निर्माण किया है।

भगवन्! आपकी ही सृष्टि में हम सर्प भी हैं। हम जन्म से ही बड़े क्रोधी होते हैं। हम इस माया के चक्कर में स्वयं मोहित हो रहे हैं। फिर अपने प्रयत्न से इस दुस्त्यज माया का त्याग कैसे करें। आप सर्वज्ञ और सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं। आप ही हमारे स्वभाव और इस माया के कारण हैं। अब आप अपनी इच्छा से - जैसा ठीक समझें - कृपा कीजिये या दण्ड दीजिये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षोडश अध्याय: श्लोक 60-67 का हिन्दी अनुवाद)

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- कालिय नाग की बात सुनकर लीला-मनुष्य भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - ‘सर्प! अब तुझे यहाँ नहीं रहना चाहिये। तू अपने जाति-भाई, पुत्र और स्त्रियों के साथ शीघ्र ही यहाँ से समुद्र में चला जा। अब गौएँ और मनुष्य यमुना-जल का उपभोग करें। जो मनुष्य दोनों समय तुझको दी हुई मेरी इस आज्ञा का स्मरण तथा कीर्तन करे, उसे साँपों से कभी भय न हो। मैंने इस कालिय दह में क्रीड़ा की है। इसलिये जो पुरुष इसमें स्नान करके जल से देवता और पितरों का तर्पण करेगा, एवं उपवास करके मेरा स्मरण करता हुआ मेरी पूजा करेगा - वह सब पापों से मुक्त हो जायगा। मैं जानता हूँ कि तू गरुड़ के भय से रमणक द्वीप छोड़कर इस दह में आ बसा था। अब तेरा शरीर मेरे चरणचिह्नों से अंकित हो गया है। इसलिये जा, अब गरुड़ तुझे खायेंगे नहीं।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- भगवान श्रीकृष्ण की एक-एक लीला अद्भुत है। उनकी ऐसी आज्ञा पाकर कालिय नाग और उसकी पत्नियों ने आनन्द से भरकर बड़े आदर से उनकी पूजा की।

उन्होंने दिव्य वस्त्र, पुष्पमाला, मणि, बहुमूल्य आभूषण, दिव्य गन्ध, चन्दन और अति उत्तम कमलों की माला से जगत के स्वामी गरुडध्वज भगवान श्रीकृष्ण का पूजन करके उन्हें प्रसन्न किया। इसके बाद बड़े प्रेम और आनन्द से उनकी परिक्रमा की, वन्दना की और उनसे अनुमति ली। तब अपनी पत्नियों, पुत्रों और बन्धु-बान्धवों के साथ रमणक द्वीप की, जो समुद्र में सर्पों के रहने का एक स्थान है, यात्रा की। लीला-मनुष्य भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से यमुना जी का जल केवल विषहीन ही नहीं, बल्कि उसी समय अमृत के समान मधुर हो गया।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                        【सत्रहवाँ अध्याय:】१७


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तदश अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"कालिय के कालिय दह में आने की कथा तथा भगवान का व्रजवासियों को दावानल से बचाना"
राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन! कालिय नाग ने नागों के निवास स्थान रमणक द्वीप को क्यों छोड़ा था? और उस अकेले ने ही गरुड़ जी का कौन-सा अपराध किया था?

श्री शुकदेव जी ने कहा ;- परीक्षित! पूर्वकाल में गरुड़ जी को उपहार स्वरूप प्राप्त होने वाले सर्पों ने यह नियम कर लिया था कि प्रत्येक मास में निर्दिष्ट वृक्ष के नीचे गरुड़ को एक सर्प की भेंट दी जाय।

इस नियम के अनुसार प्रत्येक अमावस्या को सारे सर्प अपनी रक्षा के लिये महात्मा गरुड़ जी को अपना-अपना भाग देते रहते थे। उन सर्पों में कद्रू का पुत्र कालिय नाग अपने विष और बल के घमण्ड से मतवाला हो रहा था। उसने गरुड़ का तिरस्कार करके स्वयं तो बलि देना दूर रहा - दूसरे साँप जो गरुड़ को बलि देते, उसे भी खा लेता।

परीक्षित! यह सुनकर भगवान के प्यारे पार्षद शक्तिशाली गरुड़ को बड़ा क्रोध आया। इसलिये उन्होंने कालिय नाग को मार डालने के विचार से बड़े वेग से उस पर आक्रमण किया। विषधर कालिय नाग ने जब देखा कि गरुड़ बड़े वेग से मुझ पर आक्रमण करने आ रहे हैं, तब वह अपने एक सौ एक फण फैलाकर डसने के लिए उनपर टूट पड़ा। उसके पास शस्त्र थे केवल दाँत, इसलिये अपने दाँतों से गरुड़ को डस लिया। उस समय वह अपनी भयावनी जीभें लपलपा रहा था, उसकी साँस लंबी चल रही थी और आँखें बड़ी डरावनी जान पड़ती थीं।

ताक्षर्यनन्दन गरुड़ जी विष्णु भगवान के वाहन हैं और उनका वेग तथा पराक्रम भी अतुलनीय है। कालिय नाग की यह ढिठाई देखकर उनका क्रोध और भी बढ़ गया तथा उन्होंने अपने शरीर से झटककर फ़ेंक दिया एवं अपने सुनहले बायें पंख से कालिय नाग पर बड़े जोर से प्रहार किया। उनके पंख की चोट से कालिय नाग घायल हो गया। वह घबड़ाकर वहाँ से भगा और यमुना जी के इस कुण्ड में चला आया।

यमुना जी का यह कुण्ड गरुड़ के लिये अगम्य था। साथ ही वह इतना गहरा था कि उसमें दूसरे लोग भी नहीं जा सकते थे। इसी स्थान पर एक दिन क्षुधातुर गरुड़ ने तपस्वी सौभरि के मना करने पर भी अपने अभीष्ट भक्ष्य मत्स्य को बलपूर्वक पकड़कर खा लिया। अपने मुखिया मत्स्यराज के मारे जाने के कारण मछलियों को बड़ा कष्ट हुआ। वे अत्यन्त दीन और व्याकुल हो गयीं। उनकी यह दशा देखकर महर्षि सौभरि को बड़ी दया आयी। उन्होंने उस कुण्ड में रहने-वाले सब जीवों की भलाई के लिये गरुड़ को यह शाप दे दिया। ‘यदि गरुड़ फिर कभी इस कुण्ड में घुसकर मछलियों को खायेंगे, तो उसी क्षण प्राणों से हाथ धो बैठेंगे। मैं यह सत्य-सत्य कहता हूँ।'

परीक्षित! महर्षि सौभरि के इस शाप की बात कालिय नाग के सिवा और कोई साँप नहीं जानता था। इसलिये वह गरुड़ के भय से वहाँ रहने लगा था और अब भगवान श्रीकृष्ण ने उसे निर्भय करके वहाँ से रमण द्वीप में भेज दिया।

परीक्षित! इधर भगवान श्रीकृष्ण दिव्य माला, गन्ध, वस्त्र, महामूल्य मणि और सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित हो उस कुण्ड से बाहर निकले।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तदश अध्याय: श्लोक 14-25 का हिन्दी अनुवाद)

उनको देखकर सब-के-सब व्रजवासी इस प्रकार उठ खड़े हुए, जैसे प्राणों को पाकर इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं। सभी गोपों का हृदय आनन्द से भर गया। वे बड़े प्रेम और प्रसन्नता से अपने कन्हैया को हृदय से लगाने लगे। परीक्षित! यशोदा रानी, रोहिणी जी, नन्दबाबा, गोपी और गोप - सभी श्रीकृष्ण को पाकर सचेत हो गये। उनका मनोरथ सफल हो गया। बलराम जी तो भगवान का प्रभाव जानते ही थे। वे श्रीकृष्ण को हृदय लगाकर हँसने लगे। पर्वत, वृक्ष, गाय, बैल, बछड़े - सब-के-सब आनन्दमग्न हो गये।

गोपों के कुलगुरु ब्राह्मणों ने अपनी पत्नियों के साथ नन्दबाबा के पास आकर कहा ;- ‘नन्दजी! तुम्हारे बालक को कालिय नाग ने पकड़ लिया था। सो छूटकर आ गया। यह बड़े सौभाग्य की बात है! श्रीकृष्ण के मृत्यु के मुख से लौट आने के उपलक्ष्य में तुम ब्राह्मणों को दान करो।’ परीक्षित! ब्राह्मणों की बात सुनकर नन्दबाबा को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने बहुत-सा सोना और गौएँ ब्राह्मणों को दान दीं। परम सौभाग्यवती देवी यशोदा ने भी काल के गाल से बचे हुए अपने लाल को गोद में लेकर हृदय से चिपका लिया। उनकी आँखों से आनन्द के आँसुओं की बूँदें बार-बार टपकी पड़ती थीं।

राजेन्द्र! व्रजवासी और गौएँ सब बहुत ही थक गये थे। ऊपर से भूख-प्यास भी लग रही थी। इसलिये उस रात वे व्रज में नहीं गये, वहीं यमुना जी के तटपर सो रहे। गर्मी के दिन थे, उधर का वन सूख गया था। आधी रात के समय उसमें आग लग गयी। उस आग ने सोये हुए व्रजवासियों को चारों ओर से घेर लिया और वह उन्हें जलाने लगी।

आग की आँच लगने पर व्रजवासी घबड़ाकर उठ खड़े हुए और लीला-मनुष्य भगवान श्रीकृष्ण की शरण में गये। उन्होंने कहा - ‘प्यारे श्रीकृष्ण! श्यामसुंदर! महाभाग्यवान बलराम! तुम दोनों का बल-विक्रम अनन्त है। देखो, देखो, यह भयंकर आग तुम्हारे सगे-सम्बन्धी हम स्वजनों को जलाना ही चाहती है। तुममें सब सामर्थ्य है। हम तुम्हारे सुहृद हैं, इसलिये इस प्रलय की अपार आग से हमें बचाओ। प्रभो! हम मृत्यु से नहीं डरते, परन्तु तुम्हारे अकुतोभय चरणकमल छोड़ने में हम असमर्थ हैं। भगवान अनन्त हैं; वे अनन्त शक्तियों को धारण करते हैं, उन जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने जब देखा कि मेरे स्वजन इस प्रकार व्याकुल हो रहे हैं तब वे उस भयंकर आग को पी गये।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                        【अठारहवाँ अध्याय:】१८


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टादश अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"प्रलम्बासुर-उद्धार"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अब आनन्दित स्वजन सम्बन्धियों से घिरे हुए एवं उनके मुख से अपनी कीर्ति का गान सुनते हुए श्रीकृष्ण ने गोकुलमण्डित गोष्ठ में प्रवेश किया। इस प्रकार अपनी योगमाया से ग्वाल का-वेष बनाकर राम और श्याम व्रज में क्रीड़ा कर रहे थे। उन दिनों ग्रीष्म ऋतु थी। यह शरीरधारियों को बहुत प्रिय नहीं है।
परन्तु वृन्दावन के स्वाभाविक गुणों से वहाँ वसन्त की ही छटा छिटक रही थी। इसका कारण था, वृन्दावन में परम मधुर भगवान श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और बलराम जी निवास जो करते थे। झींगुरों की तीखी झंकार झरनों के मधुर झर-झरने छिप गयी थी। उन झरनों से सदा-सर्वदा बहुत ठंडी जल की फुहियाँ उड़ा करती थीं, जिनसे वहाँ के वृक्षों की हरियाली देखते ही बनती थी ।

जिधर देखिये, हरी-हरी दूब से पृथ्वी हरी-हरी हो रही है। नदी, सरोवर एवं झरनों की लहरों का स्पर्श करके जो वायु चलती थी उसमें लाल-पीले-नीले तुरंत के खिले हुए, देर के खिले हुए - कह्लार, उत्पल आदि अनेकों प्रकार के कमलों का पराग मिला हुआ होता था। इस शीतल, मन्द और सुगन्ध वायु के कारण वनवासियों को गर्मी का किसी प्रकार का क्लेश नहीं सहना पड़ता था। न दावाग्नि का ताप लगता था और न तो सूर्य का घाम ही।

नदियों में अगाध जल भरा हुआ था। बड़ी-बड़ी लहरें उनके तटों को चूम जाया करतीं थीं। वे उनके पुलिनों से टकरातीं और उन्हें स्वच्छ बना जातीं। उनके कारण आस-पास की भूमि गीली बनी रहती और सूर्य की अत्यन्त उग्र तथा तीखी किरणें भी वहाँ की पृथ्वी और हरी-भरी घास को नहीं सुखा सकती थीं; चारों ओर हरियाली छा रही थी।

उस वन में वृक्षों की पाँत-की-पाँत फूलों से लद रही थी। जहाँ देखिये, वहीं से सुन्दरता फूटी पड़ती थी। कहीं रंग-बिरंगे पक्षी चहक रहे हैं, तो कहीं तरह-तरह के हिरन चौकड़ी भर रहे हैं। कहीं मोर कूक रहे हैं, तो कहीं भौंरे गुंजार कर रहे हैं। कहीं कोयलें कुहक रही हैं तो कहीं सारस अलग ही अपना अलाप छेड़े हुए हैं। ऐसा सुन्दर वन देखकर श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और गौरसुन्दर बलराम जी ने उसमें विहार करने की इच्छा की। आगे-आगे गौएँ चलीं, पीछे-पीछे ग्वालबाल और बीच में अपने बड़े भाई के साथ बाँसुरी बजाते हुए श्रीकृष्ण।

राम, श्याम और ग्वालबालों ने नव पल्लवों, मोर-पंख के गुच्छों, सुन्दर-सुन्दर पुष्पों के हारों और गेरू आदि रंगीन धातुओं से अपने को भाँति-भाँति से सजा लिया। फिर कोई आनन्द में मग्न होकर नाचने लगा तो कोई ताल ठोंककर कुश्ती लड़ने लगा और किसी-किसी ने राग अलापना शुरु कर दिया। जिस समय श्रीकृष्ण नाचने लगते, उस समय कुछ ग्वालबाल गाने लगते और कुछ बाँसुरी तथा सींग बजाने लगते। कुछ हथेली से ही ताल देते, तो कुछ ‘वाह-वाह’ करने लगते।

परीक्षित! उस समय नट जैसे अपने नायक की प्रशंसा करते हैं, वैसे ही देवता लोग ग्वालबालों का रूप धारण करके वहाँ आते और गोप जाति में जन्म लेकर छिपे हुए बलराम और श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगते। घुँघराली अलकों वाले श्याम और बलराम कभी एक-दूसरे का हाथ पकड़कर कुम्हार के चाक की तरह चक्कर काटते-घुमरी-परेता खेलते। कभी एक-दूसरे से अधिक फाँद जाने की इच्छा से कूदते-कूँडी डाकते, कभी कहीं होड़ लगाकर ढेले फेंकते तो कभी ताल ठोंक-ठोंककर रस्साकसी करते-एक दल दूसरे डाल के विपरीत रस्सी पकड़कर खींचता और कभी कहीं एक-दूसरे से कुश्ती लड़ते-लड़ाते। इस प्रकार तरह-तरह के खेल खेलते।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टादश अध्याय: श्लोक 13-26 का हिन्दी अनुवाद)

कभी एक-दूसरे पर बेल, जायफल या आँवले के फल हाथ में लेकर फेंकते। कभी एक-दूसरे की आँख बंद करके छिप जाते और वह पीछे से ढूँढता - इस प्रकार आँख मिचौनी खेलते। कभी एक-दूसरे को छूने के लिये बहुत दूर-दूर तक दौड़ते रहते और कभी पशु-पक्षियों की चेष्टाओं का अनुकरण करते। कहीं मेढ़कों की तरह फुदक-फुदककर चलते तो कभी मुँह बना-बनाकर एक-दूसरे की हँसी उड़ाते। कहीं रस्सियों से वृक्षों पर झूला डालकर झूलते तो कभी दो बालकों को खड़ा कराकर उनकी बाँहों के बल-पर ही लटकने लगते। कभी किसी राजा की नक़ल करने लगते।इस प्रकार राम और श्याम वृन्दावन की नदी, पर्वत, घाटी, कुंज, वन और सरोवरों में वे सभी खेल खेलते जो साधारण बच्चे संसार में खेला करते हैं।
एक दिन जब बलराम और श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ उस वन में गौएँ चरा रहे थे तब ग्वाल के वेष में प्रलम्ब नाम का एक असुर आया। उनकी इच्छा थी कि मैं श्रीकृष्ण और बलराम को हर ले जाऊँ। भगवान श्रीकृष्ण सर्वज्ञ हैं। वे उसे देखते ही पहचान गये। फिर भी उन्होंने उसका मित्रता का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। वे मन-ही-मन यह सोच रहे थे कि किस युक्ति से इसका वध करना चाहिये। ग्वालबालों में सबसे बड़े खिलाड़ी, खेलों के आचार्य श्रीकृष्ण ही थे।

उन्होंने सब ग्वालबालों को बुलाकर कहा ;- मेरे प्यारे मित्रों! आज हम लोग अपने को उचित रीति से दो दलों में बाँट लें और फिर आनन्द से खेलें। उस खेल में ग्वालबालों ने बलराम और श्रीकृष्ण को नायक बनाया। कुछ श्रीकृष्ण के साथी बन गये और कुछ बलराम के। फिर उन लोगों ने तरह-तरह से ऐसे बहुत-से खेल खेले, जिनमें एक दल के लोग दूसरे दल के लोगों को अपनी पीठ पर चढ़ाकर एक निर्दिष्ट स्थान पर ले जाते थे। जीतने वाला दल चढ़ता था और हारने वाला दल ढोता थ। इस प्रकार एक-दूसरे की पीठ पर चढ़ते-चढ़ाते श्रीकृष्ण आदि ग्वालबाल गौएँ चराते हुए भाण्डीर नामक वट के पास पहुँच गये ।

परीक्षित! एक बार बलराम जी के दल वाले श्रीदामा, वृषभ आदि ग्वालबालों ने खेल में बाजी मार ली। तब श्रीकृष्ण आदि उन्हें अपनी पीठ पर चढ़ाकर ढ़ोने लगे। हारे हुए श्रीकृष्ण ने श्रीदामा को अपनी पीठ पर चढ़ाया, भद्रसेन ने वृषभ को प्रलम्ब ने बलराम जी को। दानवपुंगव प्रलम्ब ने देखा कि श्रीकृष्ण तो बड़े बलवान हैं, उन्हें मैं नहीं हरा सकूँगा।

अतः वह उन्हीं के पक्ष में हो गया और बलराम जी को लेकर फुर्ती से भाग चला, और पीठ पर से उतारने के लिये जो स्थान नियत था, उससे आगे निकल गया। बलराम जी बड़े भारी पर्वत के समान बोझवाले थे। उनको लेकर प्रलम्बासुर दूर तक न जा सका, उसकी चाल रुक गयी। तब उसने अपना स्वाभाविक दैत्यरूप धारण कर लिया। उसके काले शरीर पर सोने के गहने चमक रहे थे और गौरसुन्दर बलराम जी को धारण करने के कारण उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो बिजली से युक्त काला बादल चन्द्रमा को धारण किये हुए हो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टादश अध्याय: श्लोक 27-32 का हिन्दी अनुवाद)

उसकी आँखें आग की तरह धधक रही थीं और दाढ़े भौंहों तक पहुँची हुई बड़ी भयावनी थीं। उसके लाल-लाल बाल इस तरह बिखर रहे थे, मानो आग की लपटें उठ रही हों। उसके हाथ और पाँवों में कड़े, सिपर मुकुट और कानों में कुण्डल थे। उनकी कान्ति से वह बड़ा अद्भुत लग रहा था!

उस भयानक दैत्य को बड़े वेग से आकाश में जाते देख पहले तो बलरामजी कुछ घबड़ा-से गये। परन्तु दूसरे ही क्षण अपने स्वरूप की याद आते ही उनका भय जाता रहा। बलराम जी ने देखा कि जैसे चोर किसी का धन चुराकर ले जाय, वैसे ही यह शत्रु मुझे चुराकर आकाश-मार्ग से लिये जा रहा है। उस समय जैसे इन्द्र ने पर्वतों पर वज्र चलाया था, वैसे ही उन्होंने क्रोध करके उसके सिर पर एक घूँसा कस कर जमाया। घूँसा लगना था कि उसका सिर चूर-चूर हो गया। वह मुँह से खून उगलने लगा, चेतना जाती रही और बड़ा भयंकर शब्द करता हुआ इन्द्र के द्वारा वज्र से मारे हुए पर्वत के समान वह उसी समय प्राणहीन होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा।

बलराम जी परम बलशाली थे। जब ग्वालबालों ने देखा कि उन्होंने प्रलम्बासुर को मार डाला, तब उनके आश्चर्य की सीमा रही। वे बार-बार ‘वाह-वाह’ करने लगे। ग्वालबालों का चित्त प्रेम से विह्वल हो गया। वे उनके लिये शुभकामनाओं की वर्षा करने लगे और मानो मरकर लौट आयें हों, इस भाव से आलिंगन करके प्रशंसा करने लगे। वस्तुतः बलरामजी इसके योग्य ही थे।

प्रलम्बासुर मूर्तिमान पाप था। उसकी मृत्यु से देवताओं को बड़ा सुख मिला। वे बलराम जी पर फूल बरसाने लगे और ‘बहुत अच्छा किया, बहुत अच्छा किया’ इस प्रकार कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                        【उन्नीसवाँ अध्याय:】१९


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"गौओं और गोपों को दावानल से बचाना"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! उस समय जब ग्वालबाल खेल-कूद में लग गये, तब उनकी गौएँ बेरोक-टोक चरती हुई बहुत दूर निकल गयीं और हरी-हरी घास के लोभ से एक गहन वन में घुस गयीं। उसकी बकरियाँ, गायें और भैंसे एक वन से दूसरे वन में होती हुई आगे बढ़ गयीं तथा गर्मी के ताप से व्याकुल हो गयीं। वे बेसुध-सी होकर अन्त में डकराती हुई मुंजाटवी[1]में घुस गयीं। जब श्रीकृष्ण, बलराम आदि ग्वालबालों ने देखा कि हमारे पशुओं का तो कहीं पता-ठिकाना ही नहीं है, तब उन्हें अपने खेल-कूद पर बड़ा पछतावा हुआ और वे बहुत कुछ खोज-बीन करने पर भी अपनी गौओं का पता न लगा सके।

गौएँ ही तो व्रजवासियों की जीविका का साधन थीं। उनके न मिलने से वे अचेत-से हो रहे थे। अब वे गौओं के खुर और दाँतो से कटी हुई घास तथा पृथ्वी पर बने हुए खुरों के चिह्नों से उनका पता लगाते हुए आगे बढ़े। अन्त में उन्होंने देखा कि उनकी गौएँ मुंजाटवी में रास्ता भूलकर डकरा रही हैं। उन्हें पाकर वे लौटाने की चेष्टा करने लगे। उस समय वे एकदम थक गये थे और उन्हें प्यास भी बड़े जोर से लगी हुई थी। इससे वे व्याकुल हो रहे थे। उनकी यह दशा देखकर भगवान श्रीकृष्ण अपनी मेघ के समान गम्भीर वाणी से नाम ले-लेकर गौओं को पुकारने लगे। गौएँ अपने नाम की ध्वनि सुनकर बहुत हर्षित हुईं। वे भी उत्तर में हुंकारने और रँभाने लगीं।
परीक्षित! इस प्रकार भगवान उन गायों को पुकार ही रहे थे कि उस वन में सब ओर अकस्मात दावाग्नि लग गयी, जो वनवासी जीवों का काल ही होती है। साथ ही बड़े जोर की आँधी भी चलकर उस अग्नि के बढ़ने में सहायता देने लगी। इससे सब ओर फैली हुई वह प्रचण्ड अग्नि अपनी भयंकर लपटों से समस्त चराचर जीवों को भस्मसात करने लगी।

जब ग्वालों और गौओं ने देखा कि दावनल चारों ओर से हमारी ही ओर बढ़ता आ रहा है, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गये और मृत्यु के भय से डरे हुए जीव जिस प्रकार भगवान की शरण में आते हैं, वैसे ही वे श्रीकृष्ण और बलरामजी के शरणापन्न होकर उन्हें पुकारते हुए बोले - ‘महावीर श्रीकृष्ण! प्यारे श्रीकृष्ण! परम बलशाली बलराम! हम तुम्हारे शरणागत हैं। देखो, इस समय हम दावानल से जलना ही चाहते हैं। तुम दोनों हमें इससे बचाओ। श्रीकृष्ण! जिनके तुम्हीं भाई-बन्धु और सब कुछ हो, उन्हें तो किसी प्रकार का कष्ट नहीं होना चाहिये। सब धर्मों के ज्ञाता श्यामसुन्दर! तुम्हीं हमारे एकमात्र रक्षक एवं स्वामी हो; हमें केवल तुम्हारा ही भरोसा है।'

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- अपने सखा ग्वालबालों के ये दीनता से भरे वचन सुन्दर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- ‘डरो मत, तुम अपनी आँखें बंद कर लो।'

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 12-16 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान की आज्ञा सुनकर उन ग्वालबालों ने कहा ‘बहुत अच्छा’ और अपनी आँखें मूँद लीं। तब योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने उस भयंकर आग को अपने मुँह में पी लिया। इसके बाद जब ग्वालबालों ने अपनी-अपनी आँखें खोलकर देखा तब अपने को भाण्डीर वट पास पाया। इस प्रकार अपने-आपको और गौओं को दावानल बचा देख वे ग्वालबाल बहुत ही विस्मित हुए। श्रीकृष्ण की इस योगसिद्धि तथा योगमाया के प्रभाव को एवं दावानल से अपनी रक्षा को देखकर उन्होंने यही समझा कि श्रीकृष्ण कोई देवता हैं।

परीक्षित! सायंकाल होने पर बलराम जी के साथ भगवान श्रीकृष्ण ने गौएँ लौटायीं और वंशी बजाते हुए उनके पीछे-पीछे व्रज की यात्रा की। उस समय ग्वालबाल उनकी स्तुति करते आ रहे थे। इधर व्रज में गोपियों को श्रीकृष्ण के बिना एक-एक क्षण सौ-सौ युग के समान हो रहा था। जब भगवान श्रीकृष्ण लौटे तब उनका दर्शन करके वे परमानन्द में मग्न हो गयीं।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                        【बीसवाँ अध्याय:】२०


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: विंश अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"वर्षा और शरद ऋतु का वर्णन"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! ग्वालबालों ने घर पहुँचकर अपनी माँ, बहिन आदि स्त्रियों से श्रीकृष्ण और बलराम ने जो कुछ अद्भुत कर्म किये थे - दावानल से उनको बचाना, प्रलम्ब को मारना इत्यादि - सबका वर्णन किया। बड़े-बड़े बूढ़े गोप और गोपियाँ भी राम और श्याम की अलौकिक लीलाएँ सुनकर विस्मित हो गयीं। वे सब ऐसा मानने लगे कि ‘श्रीकृष्ण और बलराम के वेष में कोई बहुत बड़े देवता ही व्रज में पधारे है।'

इसके बाद वर्षा ऋतु का शुभागमन हुआ। इस ऋतु में सभी प्रकार के प्राणियों की बढ़ती हो जाती है। उस समय सूर्य और चन्द्रमा पर बार-बार प्रकाशमय मण्डल बैठने लगे। बादल, वायु, चमक, कड़क आदि से आकाश क्षुब्ध-सा दीखने लगा। आकाश में नीले और घने बादल घिर आते, बिजली कौंधने लगती, बार-बार गड़गड़ाहट सुनायी पड़ती; सूर्य, चन्द्रमा और तारे ढके रहते। इससे आकाश की ऐसी शोभा होती, जैसे ब्रह्मस्वरूप होने पर भी गुणों से ढक जाने पर जीव की होती है।

सूर्य ने राजा की तरह पृथ्वीरूप प्रजा से आठ महीने तक जल का कर ग्रहण किया था, अब समय आने पर वे अपनी किरण-करों से फिर उसे बाँटने लगे। जैसे दयालु पुरुष जब देखते हैं कि प्रजा बहुत पीड़ित हो रही है, तब वे दयापरवश होकर अपने जीवन-प्राण तक निछावर कर देते हैं - वैसे ही बिजली की चमक से शोभायमान घनघोर बादल तेज हवा की प्रेरणा से प्राणियों के कल्याण के लिये अपने जीवनस्वरूप जल को बरसाने लगे।

जेठ-अषाढ़ की गर्मी से पृथ्वी सूख गयी थी। अब वर्षा के जल से सिंचकर वह फिर हरी-भरी हो गयी - जैसे सकामभाव से तपस्या करते समय पहले तो शरीर दुर्बल हो जाता है, परन्तु जब उसका फल मिलता है तब हृष्ट-पुष्ट हो जाता है। वर्षा के सायंकाल में बादलों से घना अँधेरा छा जाने पर ग्रह और तारों का प्रकाश तो नहीं दिखलायी पड़ता, परन्तु जुगनू चमकने लगते हैं - जैसे कलियुग में पाप की प्रबलता हो जाने से पाखण्ड मतों का प्रचार हो जाता है और वैदिक सम्प्रदाय लुप्त हो जाते हैं।

जो मेढ़क पहले चुपचाप सो रहे थे, अब वे बादलों की गरज सुनकर टर्र-टर्र करने लगे - जैसे नित्य-नियम से निवृत होने पर गुरु के आदेशानुसार ब्रह्मचारी लोग वेदपाठी करने लगते हैं। छोटी-छोटी नदियाँ, जो जेठ-अषाढ़ में बिलकुल सूखने को आ गयी थीं, वे अब उमड़-घुमड़कर अपने घेरे से बाहर बहने लगीं - जैसे अजितेंद्रिये पुरुष के शरीर और धन सम्पत्तियों का कुमार्ग में उपयोग होने लगता है।

पृथ्वी पर कहीं-कहीं हरी-हरी घास की हरियाली थी, तो कहीं-कहीं बीरबहूटियों की लालिमा और कहीं-कहीं बरसाती छत्तों[1] के कारण वह सफ़ेद मालूम देती थी। इस प्रकार उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो किसी राजा की रंग-बिरंगी सेना हो। सब खेत अनाजों से भरे-पूरे लहलहा रहे थे। उन्हें देखकर किसान तो मारे आनन्द के फूले न समाते थे, परन्तु सब कुछ प्रारब्ध के अधीन है - यह बात न जानने वाले धनियों के चित्त में बड़ी जलन हो रही थी कि अब हम इन्हें अपने पंजे में कैसे रख सकेंगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: विंश अध्याय: श्लोक 13-25 का हिन्दी अनुवाद)

नये बरसाती जल के सेवन से सभी जलचर और थलचर प्राणियों की सुन्दरता बढ़ गयी थी, जैसे भगवान की सेवा करने से बाहर और भीतर के दोनों ही रूप सुघड़ हो जाते हैं। वर्षा-ऋतु में हवा के झोंकों से समुद्र एक तो यों ही उत्ताल तरंगों से युक्त हो रहा था, अब नदियों के संयोग से वह और भी क्षुब्ध हो उठा - ठीक वैसे ही जैसे वासनायुक्त योगी का चित्त विषयों का सम्पर्क होने पर कामनाओं के उभार से भर जाता है।

मूसलधार वर्षा की चोट खाते रहने पर भी पर्वतों को कोई व्यथा नहीं होती थी - जैसे दुःखों की भरमार होने पर भी उन पुरुषों को किसी प्रकार की व्यथा नहीं होती, जिन्होंने अपना चित्त भगवान को ही समर्पित कर रखा है। जो मार्ग कभी साफ नहीं किये जाते थे, वे घास से ढक गये और उनको पहचानना कठिन हो गया - जैसे जब द्विजाति वेदों का अभ्यास नहीं करते, तब कालक्रम से वे उन्हें भूल जाते हैं।

यद्यपि बादल बड़े लोकोपकारी हैं, फिर भी बिजलियाँ उनमें स्थिर नहीं रहतीं - ठीक वैसे ही, जैसे चपल अनुराग वाली कामिनी स्त्रियाँ गुणी पुरुषों के पास भी स्थिर स्वभाव से नहीं रहतीं। आकाश मेघों के गर्जन-तर्जन से भर रहा था। उसमें निर्गुण इन्द्रधनुष की वैसी ही शोभा हुई, जैसी सत्त्व-रज आदि गुणों के क्षोभ से होने वाले विश्व के बखेड़े में निर्गुण ब्रह्म की। यद्यपि चन्द्रमा की उज्ज्वल चाँदनी से बादलों का पता चलता था, फिर भी उन बादलों ने ही चन्द्रमा को ढककर शोभाहीन भी बना दिया था - ठीक वैसे ही, जैसे पुरुष के आभास से आभासित होने वाला अहंकार ही उसे ढककर प्रकाशित नहीं होने देता।

बादलों के शुभागमन से मोरों का रोम-रोम खिल रहा था, वे अपनी कुहक और नृत्य के द्वारा आनन्दोत्सव मना रहे थे - ठीक वैसे ही, जैसे गृहस्थी के जंजाल में फँसे हुए लोग, जो अधिकतर तीनों तापों से जलते और घबराते रहते हैं, भगवान के भक्तों के शुभागमन से आनन्द-मग्न हो जाते हैं। जो वृक्ष जेठ-अषाढ़ में सूख गये थे, वे अब अपनी जड़ों से जल पीकर पत्ते, फूल तथा डालियों से खूब सज-धज गये - जैसे सकामभाव से तपस्या करने वाले पहले तो दुर्बल हो जाते हैं, परन्तु कामना पूरी होने पर मोटे-तगड़े हो जाते हैं।

परीक्षित! तालाबों के तट, काँटे-कीचड़ और जल के बहाव के कारण प्रायः अशान्त ही रहते थे, परन्तु सारस एक क्षण के लिये भी उन्हें नहीं छोड़ते थे - जैसे अशुद्ध हृदय वाले विषयी पुरुष काम-धंधों की झंझट से कभी छुटकारा नहीं पाते, फिर भी घरों में ही पड़े रहते हैं। वर्षा ऋतु में इन्द्र की प्रेरणा से मूसलधार वर्षा होती है, इससे नदियों के बाँध और खेतों की मेड़ें टूट-फूट जाती हैं - जैसे कलियुग में पाखण्डियों के तरह-तरह के मिथ्या मतवादों से वैदिक मार्ग की मार्ग की मर्यादा ढीली पड़ जाती है।

वायु की प्रेरणा से घने बादल प्राणियों के लिये अमृतमय जल की वर्षा करने लगते हैं - जैसे ब्राह्मणों की प्रेरणा से धनी लोग समय-समय पर दान के द्वारा प्रजा की अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं। वर्षा ऋतु में विन्दावन इसी प्रकार शोभायमान और पके हुए खजूर तथा जामुनों से भर रहा था। उसी वन में विहार करने के लिये श्याम और बलराम ने ग्वालबाल और गौओं के साथ प्रवेश किया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: विंश अध्याय: श्लोक 26-38 का हिन्दी अनुवाद)

गौएँ अपने थनों के भारी भार के कारण बहुत ही धीरे-धीरे चल रही थीं। जब भगवान श्रीकृष्ण उनका नाम लेकर पुकारते, तब वे प्रेमपरवश होकर जल्दी-जल्दी दौड़ने लगतीं। उस समय उनके थनों से दूध की धारा गिरती जाती थी। भगवान ने देखा कि वनवासी भील और भीलनियाँ आनन्दमग्न हैं। वृक्षों की पंक्तियाँ मधुधारा उडेल रही हैं। पर्वतों से झर-झर करते हुए झरने झर रहे हैं। उनकी आवाज बड़ी सुरीली जान पड़ती है और साथ ही वर्षा होने पर छिपने के लिये बहुत-सी गुफाएँ भी हैं।

जब वर्षा होने लगती तब श्रीकृष्ण कभी किसी वृक्ष की गोद में या खोड़र में जा छिपते। कभी-कभी किसी गुफ़ा में ही जा बैठते और कभी कन्द-मूल-फल खाकर ग्वालों के साथ खेलते रहते। कभी जल के पास ही किसी चट्टान पर बैठ जाते और बलराम जी तथा ग्वालबालों के साथ मिलकर घर से लाया हुआ दही-भात, दाल-शाक आदि के साथ खाते। वर्षा ऋतु में बैल, बछड़े और थनों के भारी भार से थकी हुई गौएँ थोड़ी ही देर में भरपेट घास चर लेतीं और हरी-भरी घास पर बैठकर ही आँख मूँदकर जुगाली करती रहतीं। वर्षा ऋतु की सुन्दरता अपार थी। वह सभी प्राणियों को सुख पहुँचा रही थी। इसमें संदेह नहीं कि वह ऋतु, गाय, बैल, बछड़े - सब-के-सब भगवान की लीला के ही विलास थे। फिर भी उन्हें देखकर भगवान बहुत प्रसन्न होते और बार-बार प्रशंसा करते।

इस प्रकार श्याम और बलराम बड़े आनन्द से व्रज में निवास कर रहे थे। इसी समय वर्षा बीतने पर शरद ऋतु आ गयी। अब आकाश में बादल नहीं रहे, जल निर्मल हो गया, वायु बड़ी धीमी गति से चलने गयी। शरद ऋतु में कमलों की उत्पत्ति से जलाशयों के जल ने अपनी सहज स्वच्छता प्राप्त पर ली - ठीक वैसे ही, जैसे योगभ्रष्ट पुरुषों का चित्त फिर से योग का सेवन करने से निर्मल हो जाता है।

शरद ऋतु ने आकाश के बादल, वर्षा-काल के बढ़े हुए जीव, पृथ्वी की कीचड़ और जल के मटमैलेपन को नष्ट कर दिया - जैसे भगवान की भक्ति, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासियों के सब प्रकार के कष्टों और अशुभों का झटपट नाश कर देती है। बादल अपने सर्वस्व जल का दान करके उज्ज्वल कान्ति से सुशोभित होने लगे - ठीक वैसे ही, जैसे लोक-परलोक, स्त्री-पुत्र और धन-सम्पत्ति सम्बन्धी चिन्ता और कामनाओं का परित्याग कर देने पर संसार के बन्धन से छूटे हुए परम शान्त संन्यासी शोभायमान होते हैं।

अब पर्वतों से कहीं-कहीं झरने-झरते थे और कहीं-कहीं वे अपने कल्याणकारी जल को नहीं भी बहाते थे - जैसे ज्ञानी पुरुष समय पर अपने अमृतमय ज्ञान का दान किसी अधिकारी को कर देते हैं और किसी-किसी को नहीं भी करते। छोटे-छोटे गड्ढ़ों में भरे हुए जल के जलचर यह नहीं जानते कि इस गड्ढ़े का जल दिन-पर-दिन सूखता जा रहा है - जैसे कुटुम्ब के भरण-पोषण में भूले हुए मूढ़ यह नहीं जानते कि हमारी आयु क्षण-क्षण क्षीण हो रही है। थोड़े जल में रहने वाले प्राणियों को शरदकालीन सूर्य की प्रखर किरणों से बड़ी पीड़ा होने लगी - जैसे अपनी इन्द्रियों के वश में रहने वाले कृपण एवं दरिद्र कुटुम्बी को तरह-तरह के ताप सताते ही रहते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: विंश अध्याय: श्लोक 39-49 का हिन्दी अनुवाद)

पृथ्वी धीरे-धीरे अपना कीचड़ छोड़ने लगी और घास-पात धीरे-धीरे अपनी कचाई छोड़ने लगे - ठीक वैसे ही, जैसे विवेकसम्पन्न साधक धीरे-धीरे शरीर आदि अनात्म पदार्थों में से ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ यह अहंता और ममता छोड़ देते हैं। शरद ऋतु में समुद्र का जल स्थिर, गम्भीर और शान्त हो गया - जैसे मन के निःसंकल्प हो जाने पर आत्माराम पुरुष कर्मकाण्ड का झमेला छोड़कर शान्त हो जाता है।

किसान खेतों की मेड़ मजबूत करके जल का बहना रोकने लगे - जैसे योगीजन अपनी इन्द्रियों को विषयों की ओर जाने से रोककर, प्रत्याहार करके उनके द्वारा क्षीण होते हुए ज्ञान की रक्षा करते हैं। शरद ऋतु में दिन के समय बड़ी कड़ी धूप होती, लोगों को बहुत कष्ट होता; परन्तु चन्द्रमा रात्रि एक समय लोगों का सारा सन्ताप वैसे ही हर लेते - जैसे देहाभिमान से होने वाले दुःख को ज्ञान और भग्वद्विरह से होने वाले गोपियों के दुःख को श्रीकृष्ण नष्ट कर देते हैं।

जैसे वेदों के अर्थ को स्पष्ट रूप से जानने वाला सत्त्वगुणी चित्त अत्यन्त शोभायमान होता है, वैसे ही शरद ऋतु में रात के समय मेघों से रहित निर्मल आकाश तारों की ज्योति से जगमगाने लगा ।

परीक्षित! जैसे पृथ्वीतल में यदुवंशियों के बीच यदुपति भगवान श्रीकृष्ण की शोभा होती है, वैसे ही आकाश में तारों के बीच पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होने लगा। फूलों से लदे हुए वृक्ष और लताओं में होकर बड़ी ही सुन्दर वायु बहती; वह न अधिक ठंडी होती और न अधिक गरम। उस वायु के स्पर्श से सब लोगों की जलन तो मिट जाती, परन्तु गोपियों की जलन और भी बढ़ जाती; क्योंकि उनका चित्त उनके हाथ में नहीं था, श्रीकृष्ण ने उसे चुरा लिया था। शरद ऋतु में गौएँ, हिरनियाँ, चिड़ियाँ और नारियाँ ऋतुमती-संतानोत्पत्ति की कामना से युक्त हो गयीं तथा सांड, हिरन, पक्षी और पुरुष उनका अनुसरण करने लगे - ठीक वैसे ही, जैसे समर्थ पुरुष के द्वारा की हुई क्रियाओं का अनुसरण उनके फल करते हैं।

परीक्षित! जैसे राजा के शुभागमन से डाकू चोरों के सिवा और सब लोग निर्भय हो जाते हैं, वैसे ही सूर्योदय के कारण कुमुदिनी (कुँई या कोईं) के अतिरिक्त और सभी प्रकार के कमल खिल गये। उस समय बड़े-बड़े शहरों और गाँवों में नवान्नप्राशन और इन्द्रसम्बन्धी उत्सव होने लगे। खेतों में अनाज पक गये और पृथ्वी भगवान श्रीकृष्ण तथा बलराम जी की उपस्थिति से अत्यन्त सुशोभित होने लगी। साधना करके सिद्ध हुए पुरुष जैसे समय आने पर अपने देव आदि शरीरों को प्राप्त होते हैं, वैसे ही वैश्य, संन्यासी, राजा और स्नातक - जो वर्षा के कारण एक स्थान पर रुके हुए थे - वहाँ से चलकर अपने-अपने अभीष्ट काम-काज में लग गये।

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