सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( नवम स्कन्धः ) का इक्कीसवाँ , बाइसवाँ, तेइसवाँ व चौबीसवाँ अध्याय [ TheTwenty-first, twenty-second, twenty-third and twenty-fourth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Ninth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( नवम स्कन्धः ) का इक्कीसवाँ , बाइसवाँ, तेइसवाँ व चौबीसवाँ अध्याय [ TheTwenty-first, twenty-second, twenty-third and twenty-fourth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Ninth wing) ]



                           {नवम स्कन्ध:}

                      【इकिसवाँ अध्याय:】२१.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"भरत वंश का वर्णन, राजा रन्तिदेव की कथा"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! वितथ अथवा भरद्वाज का पुत्र था मन्यु। मन्यु के पाँच पुत्र हुए- बृहत्क्षत्र, जय, महावीर्य, नर और गर्ग। नर का पुत्र था संकृति। संकृति के दो पुत्र हुए- गुरु और रन्तिदेव। परीक्षित! रन्तिदेव का निर्मल यश इस लोक और परलोक में सब जगह गाया जाता है। रन्तिदेव आकाश के समान बिना उद्योग के ही दैववश प्राप्त वस्तु का उपभोग करते और दिनोंदिन उनकी पूँजी घटती जाती। जो कुछ मिल जाता, उसे भी दे डालते और स्वयं भूखे रहते। वे संग्रह-परिग्रह, ममता से रहित और बड़े धैर्यशाली थे और अपने कुटुम्ब के साथ दुःख भोग रहे थे। एक बार तो लगातार अड़तालीस दिन ऐसे बीत गये कि उन्हें पानी तक पीने को न मिला। उनचासवें दिन प्रातःकाल ही उन्हें कुछ घी, खीर, हलवा और जल मिला। उनका परिवार बड़े संकट में था। भूख और प्यास के मारे वे लोग काँप रहे थे। परन्तु ज्यों ही उन लोगों ने भोजन करना चाहा, त्यों ही एक ब्राह्मण अतिथि के रूप में आ गया। रन्तिदेव सबमें श्रीभगवान् के ही दर्शन करते थे। अतएव उन्होंने बड़ी श्रद्धा से आदरपूर्वक उसी अन्न में से ब्राह्मण को भोजन कराया। ब्राह्मण देवता भोजन करके चले गये।

परीक्षित! अब बचे हुए अन्न को रन्तिदेव ने आपस में बाँट लिया और भोजन करना चाहा। उसी समय एक दूसरा शूद्र-अतिथि आ गया। रन्तिदेव ने भगवान् का स्मरण करते हुए उस बचे हुए अन्न में से भी कुछ भाग शूद्र के रूप में आये अतिथि को खिला दिया। जब शूद्र खा-पीकर चला गया, तब कुत्तों को लिये हुए एक और अतिथि आया। उसने कहा- ‘राजन्! मैं और मेरे ये कुत्ते बहुत भूखे हैं। हमें कुछ खाने को दीजिये’। रन्तिदेव ने अत्यन्त आदरभाव से, जो कुछ बच रहा था, सब-का-सब उसे दे दिया और भगवन्मय होकर उन्होंने कुत्ते और कुत्तों के स्वामी के रूप में आये हुए भगवान् को नमस्कार किया।

अब केवल जल ही बच रहा था और वह भी केवल एक मनुष्य के पीने भर का था। वे उसे आपस में बाँटकर पीना ही चाहते थे कि एक चाण्डाल और आ पहुँचा। उसने कहा- ‘मैं अत्यन्त नीच हूँ। मुझे जल पिला दीजिये। चाण्डाल की वह करुणापूर्ण वाणी जिसके उच्चारण में भी वह अत्यन्त कष्ट पा रहा था, सुनकर रन्तिदेव दया से अत्यन्त सन्तप्त हो उठे और ये अमृतमय वचन कहते लगे- ‘मैं भगवान् से आठों सिद्धियों से युक्त परमगति नहीं चाहता। और तो क्या, मैं मोक्ष की भी कामना नहीं करता। मैं चाहता हूँ तो केवल यही कि मैं सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में स्थित हो जाऊँ और उनका सारा दुःख मैं ही सहन करूँ, जिससे और किसी भी प्राणी को दुःख न हो। यह दीन प्राणी जल पी करके जीना चाहता था। जल दे देने से इसके जीवन की रक्षा हो गयी। अब मेरी भूख-प्यास की पीड़ा, शरीर की शिथिलता, दीनता, ग्लानि, शोक, विषाद और मोह-ये सब-के-सब जाते रहे। मैं सुखी हो गया’।



इस प्रकार कहकर रन्तिदेव ने वह बचा हुआ जल भी उस चाण्डाल को दे दिया। यद्यपि जल के बिना वे स्वयं मर रहे थे, फिर भी स्वभाव से ही उनका हृदय इतना करुणापूर्ण था कि वे अपने को रोक न सके। उनके धैर्य की भी कोई सीमा है?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 15-36 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! ये अतिथि वास्तव में भगवान् की रची हुई माया के ही विभिन्न रूप थे। परीक्षा पूरी हो जाने पर अपने भक्तों की अभिलाषा पूर्ण करने वाले त्रिभुवनस्वामी ब्रह्मा, विष्णु और महेश-तीनों उनके सामने प्रकट हो गये। रन्तिदेव ने उनके चरणों में नमस्कार किया। उन्हें कुछ लेना तो था नहीं। भगवान् की कृपा से वे आसक्ति और स्पृहा से भी रहित हो गये तथा परम प्रेममय भक्तिभाव से अपने मन को भगवान् वासुदेव में तन्मय कर दिया। कुछ भी माँगा नहीं। परीक्षित! उन्हें भगवान् के सिवा और किसी भी वस्तु की इच्छा तो थी नहीं, उन्होंने अपने मन को पूर्ण रूप से भगवान् में लगा दिया। इसलिये त्रिगुणमयी माया जागने पर स्वप्न-दृश्य के समान नष्ट हो गयी। रन्तिदेव के अनुयायी भी उसके संग के प्रभाव के योगी हो गये और सब भगवान के ही आश्रित परमभक्त बन गये।

मन्युपुत्र गर्ग से शिनी और शिनी से गार्ग्य का जन्म हुआ। यद्यपि गार्ग्य क्षत्रिय था, फिर भी उससे ब्राह्मण वंश चला। महावीर्य का पुत्र था दुरितक्षय। दुरितक्षय के तीन पुत्र हुए- त्रय्यारुणि, कवि और पुष्पकारुणि। ये तीनों ब्राह्मण हो गये। बृहत्क्षत्र का पुत्र हुआ हस्ती, उसी ने हस्तिनापुर बसाया था। हस्ती के तीन पुत्र थे- अजमीढ, द्विमीढ और पुरुमीढ। अजमीढ के पुत्रों में प्रियमेध आदि ब्राह्मण हुए। इन्हीं अजमीढ के एक पुत्र का नाम था बृहदिषु। बृहदिषु का पुत्र हुआ बृहद्धनु, बृहद्धनु का बृहत्काय और बृहत्काय का जयद्रथ हुआ। जयद्रथ का पुत्र हुआ विशद और विशद का सेनजित्। सेनजित् के चार पुत्र हुई- रिचिराश्व, दृढ़हनु, काश्य और वत्स। रिचिराश्व का पुत्र पार था और पार का पृथुसेन। पार के दूसरे पुत्र का नाम नीप था। उसके सौ पुत्र थे। इसी नीप ने (छाया)[1] शुक की कन्या कृत्वी से विवाह किया था। उससे ब्रह्मदत्त नामक पुत्र हुआ। ब्रह्मदत्त बड़ा योगी था। उसने अपनी पत्नी सरस्वती के गर्भ से विष्वक्सेन नामक पुत्र उत्पन्न किया। इसी विष्वक्सेन ने जैगीषव्य उपदेश के योगशास्त्र की रचना की। विष्वक्सेन का पुत्र था उद्क्स्वन और उदक्स्वन का भल्लाद। ये सब बृहदिषु के वंशज हुए।

द्विमीढ का पुत्र था यवीनर, यवीनर का कृतिमान, कृतिमान् का सत्यधृति, सत्यधृति का दृढ़नेमि और दृढ़नेमि का पुत्र सुपार्श्व हुआ। सुपार्श्व से सुमति, सुमति से सन्नतिमान् और सन्नतिमान् से कृति का जन्म हुआ। उसने हिरण्यनाभ से योगविद्या प्राप्त की थी और ‘प्राच्यसाम’ नामक ऋचाओं की छः सहिंताएँ कही थीं। कृति का पुत्र नीप था, नीप का उग्रायुध, उग्रायुध का क्षेम्य, क्षेम्य का सुवीर और सुवीर का पुत्र था रिपुंजय। रिपुंजय का पुत्र था बहुरथ। द्विमीढ के भाई पुरुमीढ को कोई सन्तान न हुई। अजमीढ की दूसरी पत्नी का नाम था नलिनी। उसके गर्भ से नील का जन्म हुआ। नील का शान्ति, शान्ति का सुशान्ति, सुशान्ति का पुरुज, पुरुज का अर्क और अर्क का पुत्र भर्म्याश्व। भर्म्याश्व के पाँच पुत्र थे- मुद्गल, यवीनर, बृहदिषु, काम्पिल्य और संजय। भर्म्याश्व ने कहा- ‘ये मेरे पुत्र पाँच देशों का शासन करने में समर्थ (पंच अलम्) हैं।' इसलिये ये ‘पंचाल’ नाम से प्रसिद्ध हुए। इनमें मुद्गल से ‘मौद्गल्य’ नामक ब्राह्मण गोत्र की प्रवृत्ति हुई।

भर्म्याश्व के पुत्र मद्गल से यमज (जुड़वाँ) सन्तान हुईं। उनमें पुत्र का नाम था दिवोदास और कन्या का अहल्या। अहल्या का विवाह महर्षि गौतम से हुआ। गौतम के पुत्र हुए शतानन्द। शतानन्द का पुत्र सत्यधृति था, वह धनुर्विद्या में अत्यन्त निपुण था। सत्यधृति के पुत्र का नाम था शरद्वान्। एक दिन उर्वशी को देखने से शरद्वान् का वीर्य मूँज के झाड़ पर गिर पड़ा, उससे एक शुभ लक्षण वाले पुत्र-पुत्री का जन्म हुआ। महाराज शान्तनु की उस पर दृष्टि पड़ गयी, क्योंकि वे उधर शिकार खेलने के लिये गये हुए थे। उन्होंने दयावश दोनों को उठा लिया। उनमें जो पुत्र था, उसका नाम कृपाचार्य हुआ और जो कन्या थी, उसका नाम हुआ कृपी। यही कृपी द्रोणाचार्य की पत्नी हुई।



                           {नवम स्कन्ध:}

                      【बाईसवाँ अध्याय:】२२.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"पांचाल, कौरव और मगध देशीय राजाओं के वंश का वर्णन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! दिवोदास का पुत्र था मित्रेयु। मित्रेयु के चार पुत्र हुए- च्यवन, सुदास, सहदेव और सोमक। सोमक के सौ पुत्र थे, उनमें सबसे बड़ा जन्तु और सबसे छोटा पृषत था। पृषत के पुत्र द्रुपद थे, द्रुपद के द्रौपदी नाम की पुत्री और धृष्टद्युम्न आदि पुत्र हुए। धृष्टद्युम्न का पुत्र था धृष्टकेतु।

भर्म्याश्व के वंश में उत्पन्न हुए ये नरपति ‘पांचाल’ कहलाये। अजमीढ का दूसरा पुत्र था ऋक्ष। उनके पुत्र हुए संवरण। संवरण का विवाह सूर्य की कन्या तपती से हुआ। उन्हीं के गर्भ से कुरुक्षेत्र के स्वामी कुरु का जन्म हुआ। कुरु के चार पुत्र हुए- परीक्षित, स्धन्वा, जह्नु और निषधाश्व। सुधन्वा से सुहोत्र, सुहोत्र से च्यवन, च्यवन से कृती, कृती से उपरिचरवसु और उपरिचरवसु से बृहद्रथ आदि कई पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें बृहद्रथ, कुशाम्ब, मत्स्य, प्रत्यग्र और चेदिप आदि चेदि देश के राजा हुए। बृहद्रथ का पुत्र था कुशाग्र, कुशाग्र का ऋषभ, ऋषभ का सत्यहित, सत्यहित का पुष्पवान और पुष्पवान् के जहु नामक पुत्र हुआ। बृहद्रथ की दूसरी पत्नी के गर्भ से एक शरीर के दो टुकड़े उत्पन्न हुए। उन्हें माता ने बाहर फेंकवा दिया। तब जरा नाम की राक्षसी ने ‘जियो, जियो’ इस प्रकार कहकर खेल-खेल में उन दोनों टुकड़ों को जोड़ दिया। उसी जोड़े हुए बालक का नाम हुआ जरासन्ध।

जरासन्ध का सहदेव, सहदेव का सोमापि और सोमापि का पुत्र हुआ श्रुतश्रवा। कुरु के ज्येष्ठ पुत्र परीक्षित के कोई सन्तान न हुई। जह्नु का पुत्र था सुरथ। सुरथ का विदूरथ, विदूरथ का सार्वभौम, सार्वभौम का जयसेन, जयसेन का राधिक और राधिक का पुत्र हुआ अयुत। अयुत का क्रोधन, क्रोधन का देवातिथि, देवातिथि का ऋष्य, ऋष्य का दिलीप और दिलीप का पुत्र प्रतीप हुआ। प्रतीप के तीन पुत्र थे- देवापि, शान्तनु और बाह्लीक। देवापि अपना पैतृक राज्य छोड़कर वन में चला गया। इसलिये उसके छोटे भाई शान्तनु राजा हुए।

पूर्वजन्म में शान्तनु का नाम महाभिष था। इस जन्म में भी वे अपने हाथों से जिसे छू देते थे, वह बूढ़े से जवान हो जाता था। उसे परमशान्ति मिल जाती थी। इसी करामात के कारण उनका नाम ‘शान्तनु’ हुआ। एक बार शान्तनु के राज्य में बारह वर्ष तक इन्द्र ने वर्षा नहीं की। इस पर ब्राह्मणों ने शान्तनु से कहा कि ‘तुमने अपने बड़े भाई देवापि से पहले ही विवाह, अग्निहोत्र और राजपद को स्वीकार कर लिया, अतः तुम परिवेत्ता[1] हो; इसी से तुम्हारे राज्य में वर्षा नहीं होती। अब यदि तुम अपने नगर और राष्ट्र की उन्नति चाहते हो, तो शीघ्र-से-शीघ्र अपने बड़े भाई को राज्य लौटा दो’।

जब ब्राह्मणों ने शान्तनु से इस प्रकार कहा, तब उन्होंने वन में जाकर अपने बड़े भाई देवापि से राज्य स्वीकार करने का अनुरोध किया। परन्तु शान्तनु के मन्त्री अश्वमरात ने पहले से ही उनके पास कुछ ऐसे ब्राह्मण भेज दिये थे, जो वेद को दूषित करने वाले वचनों से देवापि को वेदमार्ग से विचलित कर चुके थे। इसका फल यह हुआ कि देवापि वेदों के अनुसार गृहस्थाश्रम स्वीकार करने की जगह उसकी निन्दा करने लगे। इसलिये वे राज्य के अधिकार से वंचित हो गये और तब शान्तनु के राज्य में वर्षा हुई। देवापि इस समय भी योग साधना कर रहे हैं और योगियों के प्रसिद्ध निवास स्थाल कलापग्राम में रहते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 18-32 का हिन्दी अनुवाद)

जब कलियुग में चन्द्र वंश का नाश हो जायेगा, तब सत्ययुग के प्रारम्भ में वे फिर उसकी स्थापना करेंगे। शान्तनु के छोटे भाई बाह्लीक का पुत्र हुआ सोमदत्त। सोमदत्त के तीन पुत्र हुए- भूरि, भूरिश्रवा और शल। शान्तनु के द्वारा गंगाजी के गर्भ से नैष्ठिक ब्रह्मचारी भीष्म का जन्म हुआ। वे समस्त धर्मज्ञों के सिरमौर, भगवान् के परम प्रेमी भक्त और परम ज्ञानी थे। वे संसार के समस्त वीरों के अग्रगण्य नेता थे। औरों की तो बात ही क्या, उन्होंने अपने गुरु भगवान् परशुराम को भी युद्ध में सन्तुष्ट कर दिया था।



शान्तनु के द्वारा दाशराज की कन्या के गर्भ से दो पुत्र हुए- चित्रांगद और विचित्रवीर्य। चित्रांगद और चित्रांगद नामक गन्धर्व ने मार डाला। इसी दाशराज की कन्या सत्यवती से पराशर जी के द्वारा मेरे पिता, भगवान् के कलावतार स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास जी अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने वेदों की रक्षा की।

परीक्षित! मैंने उन्हीं से इस श्रीमद्भागवत पुराण का अध्ययन किया था। यह पुराण परम गोपनीय-अत्यन्त रहस्यमय है। इसी से मेरे पिता भगवान् व्यास जी ने अपने पैल आदि शिष्यों को इसका अध्ययन नहीं कराया, मुझे ही इसके योग्य अधिकारी समझा। एक तो मैं उनका पुत्र था और दूसरे शान्ति आदि गुण भी मुझमें विशेष रूप से थे। शान्तनु के दूसरे पुत्र विचित्रवीर्य ने काशिराज की कन्या अम्बिका और अम्बालिका से विवाह किया। उन दोनों को भीष्म जी स्वयंर से बलपूर्वक ले आये थे। विचित्रवीर्य अपनी दोनों पत्नियों में इतना आसक्त हो गया कि उसे राजयक्ष्मा रोग हो गया और उसकी मृत्यु हो गयी। माता सत्यवती के कहने से भगवान व्यास जी ने अपने सन्तानहीन भाई की स्त्रियों से धृतराष्ट्र और पाण्डु दो पुत्र उत्पन्न किये। उनकी दासी से तीसरे पुत्र विदुर जी हुए।

परीक्षित! धृतराष्ट्र की पत्नी थी गान्धारी। उसके गर्भ से सौ पुत्र हुए, उनमें सबसे बड़ा था दुर्योधन। कन्या का नाम था दुःशला। पाण्डु की पत्नी थी कुन्ती। शापवश पाण्डु स्त्री-सहवास नहीं कर सकते थे। इसलिये उनकी पत्नी कुन्ती के गर्भ से धर्म, वायु और इन्द्र के द्वारा क्रमशः युधिष्ठिर, भीमसेन और अर्जुन नाम के तीन पुत्र उत्पन्न हुए। ये तीनों-के-तीनों महारथी थे। पाण्डु की दूसरी पत्नी का नाम था माद्री। दोनों अश्विनीकुमारों के द्वारा उसके गर्भ से नकुल और सहदेव का जन्म हुआ। परीक्षित! इन पाँच पाण्डवों के द्वारा द्रौपदी के गर्भ से तुम्हारे पाँच चाचा उत्पन्न हुए। इसमें से युधिष्ठिर के पुत्र का नाम था प्रतिविन्ध्य, भीमसेन का पुत्र था श्रुतसेन, अर्जुन का श्रुतकीर्ति, नकुल का शतानीक और सहदेव का श्रुतकर्मा।

इसके सिवा युधिष्ठिर के पौरवी नाम की पत्नी से देवक और भीमसेन के हिडिम्बा से घटोत्कच और काली से सर्वगत नाम के पुत्र हुए। सहदेव के पर्वतकुमारी विजया से सुहोत्र और नकुल के करेणुमती से निरमित्र हुआ। अर्जुन द्वारा नागकन्या उलूपी के गर्भ से इरावान और मणिपुर नरेश की कन्या से बभ्रुवाहन का जन्म हुआ। बभ्रुवाहन अपने नाना का ही पुत्र माना गया, क्योंकि पहले से ही यह बात तय हो चुकी थी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 33-49 का हिन्दी अनुवाद)

अर्जुन की सुभद्रा नाम की पत्नी से तुम्हारे पिता अभिमन्यु का जन्म हुआ। वीर अभिमन्यु ने सभी अतिरथियों को जीत लिया था। अभिमन्यु के द्वारा उत्तरा के गर्भ से तुम्हारा जन्म हुआ। परीक्षित! उस समय कुरु वंश का नाश हो चुका था। अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से तुम भी जल ही चुके थे, परन्तु भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्रभाव से तुम्हें उस मृत्यु से जीता-जागता बचा लिया।

परीक्षित! तुम्हारे पुत्र तो सामने ही बैठे हुए हैं, इनके नाम हैं- जनमेजय, श्रुतसेन, भीमसेन और उग्रसेन। ये सब-के-सब बड़े पराक्रमी हैं।

जब तक्षक के काटने से तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी, तब इस बात को जानकर जनमेजय बहुत क्रोधित होगा और यह सर्प-यज्ञ की आग में सर्पों का हवन करेगा। यह कावषेय तुर को पुरोहित बनाकर अश्वमेध यज्ञ करेगा और सब ओर से सारी पृथ्वी पर विजय प्राप्त करके यज्ञों के द्वारा भगवान् की आराधना करेगा।

जनमेजय का पुत्र होगा शतानीक। वह याज्ञवल्क्य ऋषि से तीनों वेद और कर्मकाण्ड की तथा कृपाचार्य से अस्त्र विद्या की शिक्षा प्राप्त करेगा एवं शौनक जी से आत्मज्ञान का सम्पादन करके परमात्मा को प्राप्त होगा। शतानीक का सहस्रनीक, सहस्रनीक का अश्वमेधज, अश्वमेधज का असीमकृष्ण और असीमकृष्ण का पुत्र होगा नेमिचक्र। जब हस्तिनापुर गंगाजी में बह जायेगा, तब वह कौशाम्बीपुरी में सुखपूर्वक निवास करेगा। नेमिचक्र का पुत्र होगा चित्ररथ, चित्ररथ का कविरथ, कविरथ का वृष्टिमान्, वृष्टिमान् का राजा सुषेण, सुषेण का सुनीथ, सुनीथ का नृचक्षु, नृचक्षु का सुखीनल, सुखीनल का परिप्लव, परिप्लव का सुनय, सुनय का मेधावी, मेधावी का नृपंजय, नृपंजय का दूर्व और दूर्व का पुत्र तिमी होगा। तिमी से बृहद्रथ, बृहद्रथ से सुदास, सुदास से शतानीक, शतानीक से दुर्दमन, दुर्दमन से वहीनर, वहीनर से दण्डपाणि, दण्डपाणि से तिमी और निमि से राजा क्षेमक का जन्म होगा।



इस प्रकार मैंने तुम्हें ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों उत्पत्ति स्थान सोम वंश का वर्णन सुनाया। बड़े-बड़े देवता और ऋषि इस वंश का सत्कार करते हैं। यह वंश कलियुग में राजा क्षेमक के साथ ही समाप्त हो जायेगा। अब मैं भविष्य में होने वाले मगध देश के राजाओं का वर्णन सुनाता हूँ।

जरासन्ध के पुत्र सहदेव से मार्जारि, मार्जारि से श्रुतश्रवा, श्रुतश्रवा से अयुतायु और अयुतायु से निरमित्र नामक पुत्र होगा। निरमित्र के सुनक्षत्र, सुनक्षत्र के बृहत्सेन, बृहत्सेन के कर्मजित्, कर्मजित् के सृतंजय, सृतंजय के विप्र और विप्र के पुत्र का नाम होगा शुचि। शुचि से क्षेम, क्षेम से सुव्रत, सुव्रत से धर्मसूत्र, धर्मसूत्र से शम, शम से द्युमत्सेन, द्युमत्सेन से सुमति और सुमति से सुबल का जन्म होगा। सुबल का सुनीथ, सुनीथ का सत्यजित, सत्यजित का विश्वजित और विश्वजित का पुत्र रिपुंजय होगा। ये सब बृहद्रथ वंश के राजा होंगे। इसका शासनकाल एक हजार वर्ष के भीतर ही होगा।

                           {नवम स्कन्ध:}

                      【तेइसवाँ अध्याय:】२३.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

"अनु, द्रह्यु, तुर्वसु और यदु के वंश का वर्णन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! ययातिनन्दन अनु के तीन पुत्र हुए- सभानर, चक्षु और परोक्ष। सभानर के कालनर, कालनर का सृंजय, सृंजय का जनमेजय, जनमेजय का महाशील, महाशील का पुत्र हुआ महामना। महामना के दो पुत्र हुए- उशीनर एवं तितिक्षु। उशीनर के चार पुत्र थे- शिबि, वन, शमी और दक्ष। शिबि के चार पुत्र हुए- बृषादर्भ, सुवीर, मद्र और कैकय। उशीनर के भाई तितिक्षु के रुशद्रथ, रुशद्रथ के हेम, हेम के सुतपा और सुतपा के बलि नामक पुत्र हुआ।

राजा बलि की पत्नी के गर्भ से दीर्घतमा मुनि ने छः पुत्र उत्पन्न किये- अंग, वंग, कलिंग, सुह्म, पुण्ड्र और अन्ध्र। इन लोगों ने अपने-अपने नाम से पूर्व दिशा में छः देश बसाये। अंग का पुत्र हुआ खनपान, खनपान का दिविरथ, दिविरथ का धर्मरथ और धर्मरथ का चित्ररथ। यह चित्ररथ ही रोमपाद के नाम से प्रसिद्ध था। इसके मित्र थे अयोध्यापति महाराज दशरथ। रोमपाद को कोई सन्तान न थी। इसलिये दशरथ ने उन्हें अपनी शान्ता नाम की कन्या गोद दे दी। शान्ता का विवाह ऋष्यश्रृंग मुनि से हुआ। ऋष्यश्रृंग विभाण्डक ऋषि के द्वारा हरिणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।

एक बार राजा रोमपाद के राज्य में बहुत दिनों तक वर्षा नहीं हुई। तब गणिकाएँ अपने नृत्य, संगीत, वाद्य, हाव-भाव आलिंगन और विविध उपहारों से मोहित करके ऋष्यश्रृंग को वहाँ ले आयीं। उनके आते ही वर्षा हो गयी। उन्होंने ही इन्द्र देवता का यज्ञ कराया, तब सन्तानहीन राजा रोमपाद को भी पुत्र हुआ और पुत्रहीन दशरथ ने भी उन्हीं के प्रयत्न से चार पुत्र प्राप्त किये। रोमपाद का पुत्र हुआ चतुरंग और चतुरंग का पृथुलाक्ष। पृथुलाक्ष के बृहद्रथ, बृहत्कर्मा और बृहद्भानु-तीन पुत्र हुए। बृहद्रथ का पुत्र हुआ बृहन्मना और बृहन्मना का जयद्रथ।

जयद्रथ की पत्नी का नाम था सम्भूति। उसके गर्भ से विजय का जन्म हुआ। विजय का धृति, धृति का धृतव्रत, धृतव्रत का सत्कर्मा, सत्कर्मा का पुत्र था अधिरथ। अधिरथ को कोई सन्तान न थी। किसी दिन वह गंगा तट पर क्रीड़ा कर रहा था कि देखा एक पिटारी में नन्हा-सा शिशु बहा चला जा रहा है। वह बालक कर्ण था, जिसे कुन्ती ने कन्यावस्था में उत्पन्न होने के कारण उस प्रकार बहा दिया था। अधिरथ ने उसी को अपना पुत्र बना लिया।

परीक्षित! राजा कर्ण के पुत्र का नाम था वृषसेन। ययाति के पुत्र द्रह्यु से बभ्रु का जन्म हुआ। बभ्रु का सेतु, सेतु का आरब्ध, आरब्ध का गान्धार, गान्धार का धर्म, धर्म का धृत, धृत का दुर्मना और दुर्मना का पुत्र प्रचेता हुआ। प्रचेता के सौ पुत्र हुए, ये उत्तर दिशा में म्लेच्छों के राजा हुए। ययाति के पुत्र तुर्वसु का वह्नि, वह्नि का भर्ग, भर्ग का भानुमान्, भानुमान् का त्रिभानु, त्रिभानु का उदारबुद्धि करन्धम और करन्धम का पुत्र हुआ मरुत। मरुत सन्तानहीन था। इसलिये उसने पूरुवंशी दुष्यन्त को अपना पुत्र बनाकर रखा था। परन्तु दुष्यन्त राज्य की कामना से अपने ही वंश में लौट गये। परीक्षित! अब मैं राजा ययाति के बड़े पुत्र यदु के वंश का वर्णन करता हूँ।

परीक्षित! महाराज यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है। जो मनुष्य इसका श्रवण करेगा, वह समस्त पापों से मुक्त हो जायेगा। इस वंश में स्वयं भगवान् परब्रह्म श्रीकृष्ण ने मनुष्य के-से रूप में अवतार लिया था। यदु के चार पुत्र थे- सहस्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु। सहस्रजित से शतजित का जन्म हुआ। शतजित के तीन पुत्र थे- महाहय, वेणुहय और हैहय। हैहय का धर्म, धर्म का नेत्र, नेत्र का कुन्ति, कुन्ति का सोहंजि, सोहंजि का महिष्मान और महिष्मान का पुत्र भद्रसेन हुआ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद)

भद्रसेन के दो पुत्र थे- दुर्मद और धनक। धनक के चार पुत्र हुए- कृतवीर्य, कृताग्नि, कृतवर्मा और कृतौजा। कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था। वह सातों द्वीप का एकछत्र सम्राट् था। उसने भगवान् के अंशावतार श्रीदत्तात्रेय जी से योग विद्या और अणिमा-लघिमा आदि बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। इसमें सन्देह नहीं कि संसार का कोई भी सम्राट् यज्ञ, दान, तपस्या, योग शस्त्रज्ञान, पराक्रम और विजय आदि गुणों में कृतवीर्य अर्जुन की बराबरी नहीं कर सकेगा। सहस्रबाहु अर्जुन पचासी हजार वर्ष तक छहों इन्द्रियों से अक्षय विषयों का भोग करता रहा। इस बीच में न तो उसके शरीर का बल ही क्षीण हुआ और न तो कभी उसने यही स्मरण किया कि मेरे धन का नाश हो जायेगा। उसके धन के नाश की तो बात ही क्या है, उसका ऐसा प्रभाव था कि उसके स्मरण से दूसरों का खोया हुआ धन भी मिल जाता था। उसके हजार पुत्रों में से केवल पाँच ही जीवित रहे। शेष सब परशुराम जी की क्रोधाग्नि में भस्म हो गये। बचे हुए पुत्रों के नाम थे- जयध्वज, शूरसेन, वृषभ, मधु और ऊर्जित।

जयध्वज के पुत्र का नाम था तालजंघ। तालजंघ के सौ पुत्र हुए। वे ‘तालजंघ’ नामक क्षत्रिय कहलाये। महर्षि और्व की शक्ति से राजा सगर ने उनका संहार कर डाला। उन सौ पुत्रों में सबसे बड़ा था वीतिहोत्र। वीतिहोत्र का पुत्र मधु हुआ। मधु के सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़ा था वृष्णि। परीक्षित! इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यदुनन्दन क्रोष्टु के पुत्र का नाम था वृजिनवान। वृजिनवान का पुत्र श्वाहि, श्वाहि का रुशेकु, रुशेकु का चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था शशबिन्दु। वह परम योगी, महान् भोगैश्वर्य-सम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी था। वह चौदह रत्नों[1] का स्वामी, चक्रवर्ती और युद्ध में अजेय था। परम यशस्वी शशबिन्दु की दस हजार पत्नियाँ थीं। उनमें से एक-एक के लाख-लाख सन्तान हुई थीं। इस प्रकार उसके सौ करोड़-एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुईं। उनमें पृथुश्रवा आदि छः पुत्र प्रधान थे। पृथुश्रवा के पुत्र का नाम था धर्म। धर्म का पुत्र उशना हुआ। उसने सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे। उशना का पुत्र हुआ रुचक। रुचक के पाँच पुत्र हुए, उनके नाम सुनो।

पुरुजित्, रुक्म, रुक्मेषु, पृथु और ज्यामघ। ज्यामघ की पत्नी का नाम था शैब्या। ज्यामघ के बहुत दिनों तक कोई सन्तान न हुई, परन्तु उसने अपनी पत्नी के भय से दूसरा विवाह नहीं किया। एक बार वह अपने शत्रु के घर से भोज्या नाम की कन्या हर लाया। जब शैब्या ने पति के रथ पर उस कन्या को देखा, तब वह चिढ़कर अपने पति से बोली- ‘कपटी! मेरे बैठने की जगह पर आज किसे बैठाकर लिये आ रहे हो?’ ज्यामघ ने कहा- ‘यह तो तुम्हारी पुत्रवधू है।’ शैब्या ने मुसकराकर अपने पति से कहा- ‘मैं तो जन्म से ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है। फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है?’ ज्यामघ ने कहा- ‘रानी! तुमको जो पुत्र होगा, उसकी ये पत्नी बनेगी’। राजा ज्यामघ के इस वचन का विश्वेदेव और पितरों ने अनुमोदन किया। फिर क्या था, समय पर शैब्या को गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर बालक उत्पन्न किया। उसका नाम हुआ विदर्भ। उसी ने शैब्या की साध्वी पुत्रवधू भोज्या से विवाह किया।

                           {नवम स्कन्ध:}

                      【इकिसवाँ अध्याय:】२४.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

"विदर्भ के वंश का वर्णन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! राजा विदर्भ की भोज्या नामक पत्नी से तीन पुत्र हुए- कुश, क्रथ और रोमपाद। रोमपाद विदर्भ वंश में बहुत ही श्रेष्ठ पुरुष हुए। रोमपाद का पुत्र बभ्रु, बभ्रु का कृति, कृति का उशिक और उशिक का चेदि। राजन! इस चेदि के वंश में ही दमघोष और शिशुपाल आदि हुए। क्रथ का पुत्र हुआ कुन्ति, कुन्ति का धृष्टि, धृष्टि का निर्वृति, निर्वृति का दशार्ह और दशार्ह का व्योम। व्योम का जीमूत, जीमूत का विकृति, विकृति का भीमरथ, भीमरथ का नवरथ और नवरथ का दशरथ। दशरथ से शकुनि, शकुनि से करम्भि, करम्भि से देवरात, देवरात से देवक्षत्र, देवक्षत्र से मधु, मधु से कुरुवश और कुरुवश से अनु हुए। अनु से पुरुहोत्र, पुरुहोत्र से आयु और आयु से सात्वत का जन्म हुआ।

परीक्षित! सात्वत के सात पुत्र हुए- भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवावृध, अन्धक और महाभोज। भजमान की दो पत्नियाँ थीं, एक से तीन पुत्र हुए- निम्लोचि, किंकिण और धृष्टि। दूसरी पत्नी से भी तीन पुत्र हुए- शताजित, सहस्रजित् और अयुताजित। देवावृध के पुत्र का नाम था बभ्रु। देवावृध और बभ्रु के सम्बन्ध में यह बात कही जाती है- ‘हमने दूर से जैसा सुन रखा था, अब वैसा ही निकट से देखते भी हैं। बभ्रु मनुष्यों में श्रेष्ठ है और देवावृध देवताओं के समान है। इसका कारण यह है कि बभ्रु और देवावृध से उपदेश लेकर चौदह हजार पैंसठ मनुष्य परम पद को प्राप्त कर चुके हैं।’ सात्वत के पुत्रों में महाभोज भी बड़ा धर्मात्मा था। उसी के वंश में भोजवंशी यादव हुए।

परीक्षित! वृष्णि के दो पुत्र हुए- सुमित्र और युधाजित्। युधाजित् के शिनि और अनमित्र-ये दो पुत्र थे। अनमित्र से निम्न का जन्म हुआ। सत्रजित् और प्रसेन नाम से प्रसिद्ध यदुवंशी निम्न के ही पुत्र थे। अनमित्र का एक और पुत्र था, जिसका नाम था शिनि। शिनि से ही सत्यक का जन्म हुआ। इसी सत्यक के पुत्र युयुधान थे, जो सात्यकि के नाम से प्रसिद्ध हुए। सात्यकि का जय, जय का कुणि और कुणि का पुत्र युगन्धर हुआ। अनमित्र के तीसरे पुत्र का नाम वृष्णि था। वृष्णि के दो पुत्र हुए- श्वफल्क और चित्ररथ। श्वफल्क की पत्नी का नाम था गान्दिनी। उनमें सबसे श्रेष्ठ अक्रूर के अतिरिक्त बारह पुत्र उत्पन्न हुए- आसंग, सारमेय, मृदुर, मृदुविद्, गिरि, धर्मवृद्ध, सुकर्मा, क्षेत्रोपेक्ष, अरिमर्दन, शत्रुघ्न, गन्धमादन और प्रतिबाहु। इनके एक बहिन भी थी, जिसका नाम था सुचीरा। अक्रूर के दो पुत्र थे- देववान् और उपदेव। श्वफल्क के भाई चित्ररथ के पृथु विदूरथ आदि बहुत-से पुत्र हुए-जो वृष्णिवंशियों में श्रेष्ठ माने जाते हैं।

सात्वत के पुत्र अन्धक के चार पुत्र हुए- कुकुर, भजमान, शुचि और कम्बलबर्हि। उनमें कुकुर का पुत्र वह्नि, वह्नि का विलोमा, विलोमा का कपोतरोमा और कपोतरोमा का अनु हुआ। तुम्बुरु गन्धर्व के साथ अनु की बड़ी मित्रता थी। अनु का पुत्र अन्धक, अन्धक का दुन्दुभि, दुन्दुभि का अरिद्योत, अरिद्योत का पुनर्वसु और पुनर्वसु के आहुक नाम का एक पुत्र तथा आहुकी नाम की एक कन्या हुई। आहुक के दो पुत्र हुए- देवक और उग्रसेन। देवक के चार पुत्र हुए- देववान्, उपदेव, सुदेव और देववर्धन। इनकी सात बहिनें भी थीं- धृत, देवा, शान्तिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी। वसुदेव जी ने इन सबके साथ विवाह किया था।



(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 24-41 का हिन्दी अनुवाद)

उग्रसेन के नौ लड़के थे- कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान। उग्रसेन के पाँच कन्याएँ भी थीं- कंसा, कंसवती, कंका, शूरभू और राष्ट्रपालिका। इनका विवाह देवभाग आदि वसुदेव जी के छोटे भाइयों से हुआ था।

चित्ररथ के पुत्र विदूरथ से शूर, शूर से भजमान, भजमान से शिनि, शिनि से स्वयम्भोज और स्वयम्भोज से हृदीक हुए। हृदीक से तीन पुत्र हुए- देवबाहु, शतधन्वा और कृतवर्मा। देवमीढ के पुत्र शूर की पत्नी का नाम था मारिषा। उन्होंने उसके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये- वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक। ये सब-के-सब बड़े पुण्यात्मा थे। वसुदेव जी के जन्म के समय देवताओं के नगारे और नौबत स्वयं ही बजने लगे थे। अतः वे ‘आनन्ददुन्दुभि’ भी कहलाये। वे ही भगवान् श्रीकृष्ण के पिता हुए। वसुदेव आदि की पाँच बहनें भी थीं- पृथा (कुन्ती), श्रुतदेवा, श्रुतकीर्ति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी।

वसुदेव के पिता शूरसेन के एक मित्र थे- कुन्तिभोज। कुन्तिभोज के कोई सन्तान न थी। इसलिये शूरसेन ने उन्हें पृथा नाम की अपनी सबसे बड़ी कन्या गोद दे दी। पृथा ने दुर्वासा ऋषि को प्रसन्न करके उनसे देवताओं को बुलाने की विद्या सीख ली। एक दिन उस विद्या के प्रभाव की परीक्षा लेने के लिये पृथा ने परम पवित्र भगवान् सूर्य का आवाहन किया। उसी समय भगवान् सूर्य वहाँ आ पहुँचे। उन्हें देखकर कुन्ती का हृदय विस्मय से भर गया। उसने कहा- ‘भगवन! मुझे क्षमा कीजिये। मैंने तो परीक्षा करने के लिये ही इस विद्या का प्रयोग किया था। अब आप पधार सकते हैं’।

सूर्यदेव ने कहा ;- ‘देवि! मेरा दर्शन निष्फल नहीं हो सकता। इसलिय हे सुन्दरी! अब मैं तुझसे एक पुत्र उत्पन्न करना चाहता हूँ। हाँ, अवश्य ही तुम्हारी योनि दूषित न हो, इसका उपाय मैं कर दूँगा।' यह कहकर भगवान सूर्य ने गर्भ स्थापित कर दिया और इसके बाद वे स्वर्ग चले गये। उसी समय उससे एक बड़ा सुन्दर एवं तेजस्वी शिशु उत्पन्न हुआ। वह देखने में दूसरे सूर्य के समान जान पड़ता था। पृथा लोकनिन्दा से डर गयी। इसलिये उसने बड़े दुःख से उस बालक को नदी के जल में छोड़ दिया। परीक्षित! उसी पृथा का विवाह तुम्हारे परदादा पाण्डु से हुआ था, जो वास्तव में बड़े सच्चे वीर थे।

परीक्षित! पृथा की छोटी बहिन श्रुतदेवा का विवाह करुष देश के अधिपति वृद्धशर्मा से हुआ था। उसके गर्भ से दन्तवक्त्र का जन्म हुआ। यह वही दन्तवक्त्र है, जो पूर्व जन्म में सनकादि ऋषियों के शाप से हिरण्याक्ष हुआ था। कैकय देश के राजा धृष्टकेतु ने श्रुतकीर्ति से विवाह किया था। उससे सन्तर्दन आदि पाँच कैकय राजकुमार हुए। राजाधिदेवी का विवाह जयसेन से हुआ था। उसके दो पुत्र हुए- विन्द और अनुविन्द। वे दोनों ही अवन्ती के राजा हुए। चेदिराज दमघोष ने श्रुतश्रवा का पाणिग्रहण किया। उसका पुत्र था शिशुपाल, जिसका वर्णन मैं पहले (सप्तम स्कन्ध में) कर चुका हूँ। वसुदेव जी के भाइयों में से देवभाग की पत्नी कंसा के गर्भ से दो पुत्र हुए- चित्रकेतु और बृहद्बल। देवश्रवा की पत्नी कंसवती से सुवीर और इषुमान नाम के दो पुत्र हुए। आनक की पत्नी कंका के गर्भ से भी दो पुत्र हुए- सत्यजित और पुरुजित।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 42-61 का हिन्दी अनुवाद)

सृंजय ने अपनी पत्नी राष्ट्रपालिका के गर्भ से वृष और दुर्मर्षण आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। इसी प्रकार श्यामक ने शूरभूमि (शूरभू) नाम की पत्नी से हरिकेश और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र उत्पन्न किये। मिश्रकेशी अप्सरा के गर्भ से वत्सक के भी वृक आदि कई पुत्र हुए। वृक ने दुर्वाक्षी के गर्भ से तक्ष, पुष्कर और शाल आदि कई पुत्र उत्पन्न किये। शमीक की पत्नी सुदामिनी ने भी सुमित्र और अर्जुनपाल आदि कई बालक उत्पन्न किये। कंक की पत्नी कर्णिका के गर्भ से दो पुत्र हुए- ऋतधाम और जय।

आनकदुन्दुभि वसुदेव जी की पौरवी, रोहिणी, भद्रा, मदिरा, रोचना, इला और देवकी आदि बहुत-सी पत्नियाँ थीं। रोहिणी के गर्भ से वसुदेव जी के बलराम, गद, सारण, दुर्मद, विपुल, ध्रुव और कृत आदि पुत्र हुए थे। पौरवी के गर्भ से उनके बारह पुत्र हुए- भूत, सुभद्र, भद्रवाह, दुर्मद और भद्र आदि। नन्द, उपनन्द, कृतक, शूर आदि मदिरा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। कौसल्या ने एक ही वंश-उजागर पुत्र उत्पन्न किया था। उसका नाम था केशी। उसने रोचना से हस्त और हेमांगद आदि तथा इला से उरुवल्क आदि प्रधान यदुवंशी पुत्रों को जन्म दिया।

परीक्षित! वसुदेव जी के धृतदेवा के गर्भ से विपृष्ठ नाम का एक ही पुत्र हुआ और शान्तिदेवा से श्रम और प्रतिश्रुत आदि कई पुत्र हुए। उपदेवा के पुत्र कल्पवर्ष आदि दस राजा हुए और श्रीदेवा के वसु, हंस, सुवंश आदि छः पुत्र हुए। देवरक्षिता के गर्भ से गद आदि नौ पुत्र हुए तथा स्वयं धर्म ने आठ वसुओं को उत्पन्न किया था, वैसे ही वसुदेव जी ने सहदेवा के गर्भ से पुरुविश्रुत आदि आठ पुत्र उत्पन्न किये। परम उदार वसुदेव जी ने देवकी के गर्भ से भी आठ पुत्र उत्पन्न किये, जिसमें सात के नाम हैं- कीर्तिमान, सुषेण, भद्रसेन, ऋजु, संमर्दन, भद्र और शेषावतार श्रीबलराम जी। उन दोनों के आठवें पुत्र स्वयं श्रीभगवान् ही थे। परीक्षित! तुम्हारी परासौभाग्यवती दादी सुभद्रा भी देवकी जी की ही कन्या थीं।

जब-जब संसार में धर्म का ह्रास और पाप की वृद्धि होती है, तब-तब सर्वशक्तिमान भगवान श्रीहरि अवतार ग्रहण करते हैं। परीक्षित! भगवान् सब के द्रष्टा और वास्तव में असंग आत्मा ही हैं। इसलिये उनकी आत्मस्वरूपिणी योगमाया के अतिरिक्त उनके जन्म अथवा कर्म का और कोई भी कारण नहीं है। उनकी माया का विलास ही जीव के जन्म, जीवन और मृत्यु का कारण है। और उनका अनुग्रह ही माया को अलग करके आत्मस्वरूप को प्राप्त करने वाला है। जब असुरों ने राजाओं का वेष धारण कर लिया और कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके वे सारी पृथ्वी को रौंदने लगे, तब पृथ्वी का भार उतारने के लिये भगवान् मधुसूदन बलराम जी के साथ अवतीर्ण हुए। उन्होंने ऐसी-ऐसी लीलाएँ कीं, जिनके सम्बन्ध में बड़े-बड़े देवता मन से अनुमान भी नहीं कर सकते-शरीर से करने की बात तो अलग रही। पृथ्वी का भार तो उतरा ही, साथ ही कलियुग में पैदा होने वाले भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये भगवान् ने ऐसे परम पवित्र यश का विस्तार किया, जिसका गान और श्रवण करने से ही उनके दुःख, शोक और अज्ञान सब-के-सब नष्ट हो जायेंगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्विंश अध्यायः श्लोक 62-67 का हिन्दी अनुवाद)

उनका यश क्या है, लोगों को पवित्र करने वाला श्रेष्ठ तीर्थ है। संतों के कानों के लिये तो वह साक्षात् अमृत ही है। एक बार भी यदि कान की अंजलियों से उसका आचमन कर लिया जाता है, तो कर्म की वासनाएँ निर्मूल हो जाती हैं।

परीक्षित! भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशार्ह, कुरु, सृंजय और पाण्डुवंशी वीर निरन्तर भगवान की लीलाओं की आदरपूर्वक सराहना करते रहते थे। उनका श्यामल शरीर सर्वांगसुन्दर था। उन्होंने उस मनोहर विग्रह से तथा अपनी प्रेमभरी मुसकान, मधुर चितवन, प्रसादपूर्ण वचन और पराक्रमपूर्ण लीला के द्वारा सारे मनुष्य लोक को आनन्द में सराबोर कर दिया था। भगवान् के मुखकमल की शोभा तो निराली ही थी। मकराकृति कुण्डलों से उनके कान बड़े कमनीय मालूम पड़ते थे। उनकी आभा से कपोलों का सौन्दर्य और भी खिल उठता था। जब वे विलास के साथ हँस देते, तो उनके मुख पर निरन्तर रहने वाले आनन्द में मानो बाढ़-सी आ जाती। सभी नर-नारी अपने नेत्रों के प्यालों से उनके मुख की माधुरी का निरन्तर पान करते रहते, परन्तु तृप्त नहीं होते। वे उसका रस ले-लेकर आनन्दित तो होते ही, परन्तु पलकें गिरने से उनके गिराने वाले निमि पर खीझते भी।



लीला पुरुषोत्तम भगवान अवतीर्ण हुए मथुरा में वसुदेव जी के घर, परन्तु वहाँ वे रहे नहीं, वहाँ से गोकुल में नन्दबाबा के घर चले गये। वहाँ अपना प्रयोजन-जो ग्वाल, गोपी और गौओं को सुखी करना था-पूरा करके मथुरा लौट आये। व्रज में, मथुरा में तथा द्वारका में रहकर अनेकों शत्रुओं का संहार किया। बहुत-सी स्त्रियों से विवाह करके हजारों पुत्र उत्पन्न किये। साथ ही लोगों में अपने स्वरूप का साक्षात्कार कराने वाली अपनी वाणीस्वरूप श्रुतियों की मर्यादा स्थापित करने के लिये अनेक यज्ञों के द्वारा स्वयं अपना ही यजन किया। कौरव और पाण्डवों के बीच उत्पन्न हुए आपस के कलह से उन्होंने पृथ्वी का बहुत-सा भार हलका कर दिया और युद्ध में अपनी दृष्टि से ही राजाओं की बहुत-सी अक्षौहिणियों को ध्वंस करके संसार में अर्जुन की जीत का डंका पिटवा दिया। फिर उद्धव को आत्मतत्त्व का उपदेश किया और इसके बाद वे अपने परमधाम को सिधार गये।


                      【नवम स्कन्ध: समाप्त】

                         【 हरिः ॐ तत्सत्】


।। इस प्रकार  "श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध:" के  24 अध्याय समाप्त हुये ।।

(अब दशम स्कन्ध: प्रारम्भ होता है)

(नोट :- सभी स्कन्ध:  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

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