सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( नवम स्कन्धः ) का सोलहवाँ , सत्रहवाँ, अठारहवाँ, उन्नीसवाँ व बीसवाँ अध्याय [ The Sixteenth, seventeenth, eighteenth, Nineteenth and twentieth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Ninth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( नवम स्कन्धः ) का सोलहवाँ , सत्रहवाँ, अठारहवाँ, उन्नीसवाँ व बीसवाँ अध्याय [ The Sixteenth, seventeenth, eighteenth, Nineteenth and twentieth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Ninth wing) ]


                           {नवम स्कन्ध:}

                      【सोलहवाँ अध्याय:】१६.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"परशुराम जी के द्वारा क्षत्रिय संहार और विश्वामित्र जी के वंश की कथा"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अपने पिता की यह शिक्षा भगवान परशुराम ने ‘जो आज्ञा’ कहकर स्वीकार की। इसके बाद वे एक वर्ष तक तीर्थ यात्रा करके अपने आश्रम पर लौट आये।

एक दिन की बात है, परशुराम जी की माता रेणुका गंगा तट पर गयी हुई थीं। वहाँ उन्होंने देखा कि गन्धर्वराज चित्ररथ कमलों की माला पहने अप्सराओं के साथ विहार कर रहा है। वे जल लाने के लिये नदी तट पर गयी थीं, परन्तु वहाँ जलक्रीड़ा करते हुए गन्धर्व को देखने लगीं और पतिदेव के हवन का समय हो गया है-इस बात को भूल गयीं। उनका मन कुछ-कुछ चित्ररथ की ओर खिंच भी गया था। हवन का समय बीत गया, यह जानकर वे महर्षि जमदग्नि के शाप से भयभीत हो गयीं और तुरंत वहाँ से आश्रम पर चली आयीं। वहाँ जल का कलश महर्षि के सामने रखकर हाथ जोड़ खड़ी हो गयीं। जमदग्नि मुनि ने अपनी पत्नी का मानसिक व्यभिचार जान लिया और
क्रोध करके कहा ;- ‘मेरे पुत्रों! इस पापिनी को मार डालो।’ परन्तु उनके किसी भी पुत्र ने उनकी वह आज्ञा स्वीकार नहीं की। इसके बाद पिता की आज्ञा से परशुराम जी ने माता के साथ सब भाइयों को मार डाला। इसका कारण था। वे अपने पिताजी के योग और तपस्या का प्रभाव भलीभाँति जानते थे।

परशुराम जी के इस काम से सत्यवतीनन्दन महर्षि जमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए और
उन्होंने कहा ;- ‘बेटा! तुम्हारी जो इच्छा हो, वर माँग लो।’
परशुराम जी ने कहा ;- ‘पिताजी! मेरी माता और सब भाई जीवित हो जायें तथा उन्हें इस बात की याद न रहे कि मैंने उन्हें मारा था’। परशुराम जी के इस प्रकार कहते ही जैसे कोई सोकर उठे, सब-के-सब अनायास ही सकुशल उठ बैठे। परशुराम जी ने अपने पिताजी का तपोबल जानकर ही तो अपने सुहृदों का वध किया था।

परीक्षित! सहस्रबाहु अर्जुन के जो लड़के परशुराम जी से हारकर भाग गये थे, उन्हें अपने पिता के वध की याद निरन्तर बनी रहती थी। कहीं एक क्षण के लिये भी उन्हें चैन नहीं मिलता था।

एक दिन की बात है, परशुराम जी अपने भाइयों के साथ आश्रम से बाहर वन की ओर गये हुए थे। यह अवसर पाकर वैर साधने के लिये सहस्रबाहु के लड़के वहाँ आ पहुँचे। उस समय महर्षि जमदग्नि अग्निशाला में बीते हुए थे और अपनी समस्त वृत्तियों से पवित्रकीर्ति भगवान् के ही चिन्तन में मग्न हो रहे थे। उन्हें बाहर की कोई सुध न थी। उसी समय उन पापियों ने जमदग्नि ऋषि को मार डाला। उन्होंने पहले से ही ऐसा पापपूर्ण निश्चय कर रखा था। परशुराम की माता रेणुका बड़ी दीनता से उनसे प्रार्थना कर रही थीं, परन्तु उन सबों ने उनकी एक न सुनी। वे बलपूर्वक महर्षि जमदग्नि का सिर काटकर ले गये। परीक्षित! वास्तव में वे नीच क्षत्रिय अत्यन्त क्रूर थे। सती रेणुका दुःख और शोक से आतुर हो गयीं। वे अपने हाथों अपनी छाती और सिर पीट-पीटकर जोर-जोर से रोने लगीं- ‘परशुराम! बेटा परशुराम! शीघ्र आओ’। परशुराम जी ने बहुत दूर से माता का ‘हा राम!’ यह करुण-क्रन्दन सुन लिया। वे बड़ी शीघ्रता से आश्रम पर आये और वहाँ आकर देखा कि पिताजी मार डाले गये हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! उस समय परशुराम जी को बड़ा दुःख हुआ। साथ ही क्रोध, असहिष्णुता, मानसिक पीड़ा और शोक के वेग से वे अत्यन्त मोहित हो गये। ‘हाय पिता जी! आप तो बड़े महात्मा थे। पिता जी! आप तो धर्म के सच्चे पुजारी थे। आप हम लोगों को छोड़कर स्वर्ग चले गये’। इस प्रकार विलाप कर उन्होंने पिता का शरीर तो भाइयों को सौंप दिया और स्वयं हाथ से फरसा उठाकर क्षत्रियों को संहार कर डालने का निश्चय किया।

परीक्षित! परशुराम जी ने माहिष्मती नगरी में जाकर सहस्रबाहु अर्जुन के पुत्रों के सिरों से नगर के बीचों-बीच एक बड़ा भारी पर्वत खड़ा कर दिया। उस नगर की शोभा तो उन ब्रह्मघाती नीच क्षत्रियों के कारण ही नष्ट हो चुकी थी। उनके रक्त से एक बड़ी भयंकर नदी बह निकली, जिसे देखकर ब्राह्मणद्रोहियों का हृदय भय से काँप उठता था। भगवान् ने देखा कि वर्तमान क्षत्रिय अत्याचारी हो गये हैं। इसलिये राजन! उन्होंने अपने पिता के वध को निमित्त बनाकर इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रियहीन कर दिया और कुरुक्षेत्र के समन्तपंचक में ऐसे-ऐसे पाँच तालाब बना दिये, जो रक्त के जल से भरे हुए थे। परशुराम जी ने अपने पिता जी का सिर लाकर उनके धड़ से जोड़ दिया और यज्ञों द्वारा सर्वदेवमय आत्मस्वरूप भगवान् का यजन किया। यज्ञों में उन्होंने पूर्व दिशा होता को, दक्षिण दिशा ब्रह्मा को, पश्चिम दिशा अध्वर्यु को और उत्तर दिशा सामगान करने वाले उद्गाता को दे दी।

इसी प्रकार अग्निकोण आदि विदिशाएँ ऋत्विजों को दीं, कश्यप जी को मध्यभूमि दी, उपद्रष्टा को आर्यावर्त दिया तथा दूसरे सदस्यों को अन्यान्य दिशाएँ प्रदान कर दीं। इसके बाद यज्ञान्त-स्नान करके वे समस्त पापों से मुक्त हो गये और ब्रह्मनदी सरस्वती के तट पर मेघरहित सूर्य के समान शोभायमान हुए। महर्षि जमदग्नि को स्मृतिरूप संकल्पमय शरीर की प्राप्ति हो गयी। परशुराम जी से सम्मानित होकर वे सप्तर्षियों के मण्डल में सातवें ऋषि हो गये।

परीक्षित! कमललोचन जमदग्निनन्दन भगवान् परशुराम आगामी मन्वन्तर में सप्तर्षियों के मण्डल में रहकर वेदों का विस्तार करेंगे। वे आज भी किसी को किसी प्रकार का दण्ड न देते हुए शान्त चित्त से महेन्द्र पर्वत पर निवास करते हैं। वहाँ सिद्ध, गन्धर्व और चारण उनके चरित्र का मधुर स्वर से गान करते रहते हैं। सर्वशक्तिमान् विश्वात्मा भगवान् श्रीहरि ने इस प्रकार भृगुवंशियों में अवतार ग्रहण करके पृथ्वी के भारभूत राजाओं का बहुत बार वध किया।

महाराज गाधि के पुत्र हुए प्रज्वलित अग्नि के समान परमतेजस्वी विश्वामित्र। उन्होंने अपने तपोबल से क्षत्रियत्व का भी त्याग करके ब्रह्मतेज प्राप्त कर लिया। परीक्षित! विश्वामित्र जी के सौ पुत्र थे। उनमें बिचले पुत्र का नाम था मधुच्छन्दा। इसलिये सभी पुत्र ‘मधुच्छन्दा’ के ही नाम से विख्यात हुए। विश्वामित्र जी ने भृगुवंशी अजीगर्त के पुत्र अपने भानजे शुनःशेप को, जिसका एक नाम देवरात भी था, पुत्ररूप में स्वीकार कर लिया और अपने पुत्रों से कहा कि ‘तुम लोग इसे अपना बड़ा भाई मानो’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 31-37 का हिन्दी अनुवाद)

यह वही प्रसिद्ध भृगुवंशी शुनःशेप था, जो हरिश्चंद्र के यज्ञ में यज्ञपशु के रूप में मोल लेकर लाया गया था। विश्वामित्र जी ने प्रजापति वरुण आदि देवताओं की स्तुति करके उसे पाशबन्धन से छुड़ा लिया था। देवताओं के यज्ञ में यही शुनःशेप देवताओं द्वारा विश्वामित्र जी को दिया गया था; अतः ‘देवैः रातः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार गाधिवंश में यह तपस्वी देवरात के नाम से विख्यात हुआ।

विश्वामित्र जी के पुत्रों में जो बड़े थे, उन्हें शुनःशेप को बड़ा भाई मानने की बात अच्छी न लगी। इस पर विश्वामित्र जी ने क्रोधित होकर उन्हें शाप दे दिया कि ‘दुष्टों! तुम सब म्लेच्छ हो जाओ’।

इस प्रकार जब उनचास भाई म्लेच्छ हो गये, तब विश्वामित्र जी के बिचले पुत्र मधुच्छन्दा ने अपने से छोटे पचासों भाइयों के साथ कहा- ‘पिताजी! आप हम लोगों को जो आज्ञा करते हैं, हम उसका पालन करने के लिये तैयार हैं’।

यह कहकर मधुच्छन्दा ने मन्त्रद्रष्टा शुनःशेप को बड़ा भाई स्वीकार कर लिया और कहा कि ‘हम सब तुम्हारे अनुयायी-छोटे भाई हैं।’ तब विश्वामित्र जी ने अपने इन आज्ञाकारी पुत्रों से कहा- ‘तुम लोगों ने मेरी बात मानकर मेरे सम्मान की रक्षा की है, इसलिये तुम लोगों-जैसे सुपुत्र प्राप्त करके मैं धन्य हुआ। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हें भी सुपुत्र प्राप्त होंगे। मेरे प्यारे पुत्रों! यह देवरात शुनःशेप भी तुम्हारे ही गोत्र का है। तुम लोग इसकी आज्ञा में रहना।’

परीक्षित! विश्वामित्र जी के अष्टक, हारीत, जय और क्रतुमान आदि और भी पुत्र थे। इस प्रकार विश्वामित्र जी की सन्तानों से कौशिक गोत्र में कई भेद हो गये और देवरात को बड़ा भाई मानने के कारण उसका प्रवर ही दूसरा हो गया।

                           {नवम स्कन्ध:}

                      【सत्रहवाँ अध्याय:】१७.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"क्षत्रवृद्ध, रजि आदि राजाओं के वंश का वर्णन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! राजेन्द्र पुरूरवा का एक पुत्र था आयु। उसके पाँच लड़के हुए- नहुष, क्षत्रवृद्ध, रजि, शक्तिशाली रम्भ और अनेना। अब क्षत्रवृद्ध का वंश सुनो।

क्षत्रवृद्ध के पुत्र थे सुहोत्र। सुहोत्र के तीन पुत्र हुए- काश्य, कुश और गृत्समद। गृत्समद का पुत्र हुआ शुनक। इसी शुनक के पुत्र ऋग्वेदियों में श्रेष्ठ मुनिवर शौनक जी हुए। काश्य का पुत्र काशि, काशि का राष्ट्र, राष्ट्र का दीर्घतमा और दीर्घतमा के धन्वन्तरि। यही आयुर्वेदों के प्रवर्तक हैं। ये यज्ञभाग के भोक्ता और भगवान् वासुदेव के अंश हैं। इनके स्मरण मात्र से ही सब प्रकार के रोग दूर हो जाते हैं। धन्वन्तरि का पुत्र हुआ केतुमान् और केतुमान् का भीमरथ। भीमरथ का दिवोदास और दिवोदास का द्युमान-जिसका एक नाम प्रतर्दन भी है। यही द्युमान् शत्रुजित्, वत्स, ऋतध्वज और कुवलयाश्व के नाम से भी प्रसिद्ध है। द्युमान् के ही पुत्र अलर्क आदि हुए।

परीक्षित! अलर्क के सिवा और किसी राजा ने छाछठ हजार (66,000) वर्ष तक युवा रहकर पृथ्वी का राज्य नहीं भोग। अलर्क का पुत्र हुआ सन्तति, सन्तति का सुनीथ, सुनीथ का सुकेतन, सुकेतन का धर्मकेतु और धर्मकेतु का सत्यकेतु। सत्यकेतु से धृष्टकेतु, धृष्टकेतु से राजा सुकुमार, सुकुमार से वीतिहोत्र, वीतिहोत्र से भर्ग और भर्ग से राजा भार्गभूमि का जन्म हुआ। ये सब-के-सब क्षत्रवृद्ध के वंश में काशिउत्पन्न नरपति हुए। रम्भ के पुत्र का नाम था रभस, उससे गम्भीर और गम्भीर से अक्रिय का जन्म हुआ। अक्रिय की पत्नी से ब्राह्मण वंश चला। अब अनेना का वंश सुनो।

अनेना का पुत्र था शुद्ध, शुद्ध का शुचि, शुचि का त्रिककुद और त्रिककुद का धर्मसारथि। धर्मसारथि के पुत्र थे शान्तरय। शान्तरय आत्मज्ञानी होने के कारण कृतकृत्य थे, उन्हें सन्तान की आवश्यकता न थी। परीक्षित! आयु के पुत्र रजि के अत्यन्त तेजस्वी पाँच सौ पुत्र थे।

देवताओं की प्रार्थना से रजि ने दैत्यों का वध करके इन्द्र को स्वर्ग का राज्य दिया। परन्तु वे अपने प्रह्लाद आदि शत्रुओं से भयभीत रहते थे, इसलिये उन्होंने वह स्वर्ग फिर रजि को लौटा दिया और उनके चरण पकड़कर उन्हीं को अपनी रक्षा का भार भी सौंप दिया। जब रजि की मृत्यु हो गयी, तब इन्द्र के माँगने पर भी रजि के पुत्रों ने स्वर्ग नहीं लौटाया। वे स्वयं ही यज्ञों का भाग भी ग्रहण करने लगे। तब गुरु बृहस्पति जी ने इन्द्र की प्रार्थना से अभिचार विधि से हवन किया। इससे वे धर्म के मार्ग से भ्रष्ट हो गये। इन्द्र ने अनायास ही उन सब रजि के पुत्रों को मार डाला। उनमें से कोई ही न बचा।

क्षत्रवृद्ध के पौत्र कुश से प्रति, प्रति से संजय और संजय से जय का जन्म हुआ। जय से कृत, कृत से राजा हर्यवन, हर्यवन से सहदेव, सहदेव से हीन और हीन से जयसेन नामक पुत्र हुआ। जयसेन का संकृति, संकृति का पुत्र हुआ महारथी वीरशिरोमणि जय। क्षत्रवृद्ध की वंश-परम्परा में इतने ही नरपति हुए। अब नहुष वंश का वर्णन सुनो।

                           {नवम स्कन्ध:}

                      【अठारहवाँ अध्याय:】१८.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"ययाति-चरित्र"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जैसे शरीरधारियों के छः इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही नहुष के छः पुत्र थे। उनके नाम थे- यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति और कृति। नहुष अपने बड़े पुत्र यति को राज्य देना चाहते थे। परन्तु उसने स्वीकार नहीं किया; क्योंकि वह राज्य पाने का परिणाम जानता था। राज्य एक ऐसी वस्तु है कि जो उसके दाव-पेंच और प्रबन्ध आदि में भीतर प्रवेश कर जाता है, वह अपने आत्मस्वरूप को नहीं समझ सकता। जब इन्द्र पत्नी शची से सहवास करने की चेष्टा करने के कारण नहुष को ब्राह्मणों ने इन्द्रपद से गिरा दिया और अजगर बना दिया, तब राजा के पद पर ययाति बैठे। ययाति ने अपने चार छोटे भाइयों को चार दिशाओं में नियुक्त कर दिया और स्वयं शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा को पत्नी के रूप में स्वीकार करके पृथ्वी की रक्षा करने लगा।

राजा परीक्षित ने पूछा ;- 'भगवन्! भगवान् शुक्राचार्य जी तो ब्राह्मण थे और ययाति क्षत्रिय। फिर ब्राह्मण-कन्या और क्षत्रिय-वर का प्रतिलोम (उलटा) विवाह कैसे हुआ?'

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन! दानवराज वृषपर्वा की एक बड़ी मानिनी कन्या थी। उसका नाम था शर्मिष्ठा। वह एक दिन अपनी गुरुपुत्री देवयानी और हजारों सखियों के साथ अपनी राजधानी के श्रेष्ठ उद्यान में टहल रही थी। उस उद्यान में सुन्दर-सुन्दर पुष्पों से लदे हुए अनेकों वृक्ष थे। उसमें एक बड़ा ही सुन्दर सरोवर था। सरोवर में कमल खिले हुए थे और उन पर बड़े ही मधुर स्वर से भौंरे गुंजार कर रहे थे। उसकी ध्वनि से सरोवर का तट गूँज रहा था। जलाशय के पास पहुँचने पर उन सुन्दरी कन्याओं ने अपने-अपने वस्त्र तो घाट पर रख दिये और उस तालाब में प्रवेश करके वे एक-दूसरे पर जल उलीच-उलीचकर क्रीड़ा करने लगीं।

उसी समय उधर से पार्वती जी के साथ बैल पर चढ़े हुए भगवान् शंकर आ निकले। उनको देखकर सब-की-सब कन्याएँ सकुचा गयीं और उन्होंने झटपट सरोवर से निकलकर अपने-अपने वस्त्र पहन लिये। शीघ्रता के कारण शर्मिष्ठा ने अनजान में देवयानी के वस्त्र को अपना समझकर पहन लिया। इस पर देवयानी क्रोध के मारे आग-बबूला हो गयी।
उसने कहा ;- ‘अरे, देखो तो सही, इस दासी ने कितना अनुचित काम कर डाला! राम-राम, जैसे कुतिया यज्ञ का हविष्य उठा ले जाये, वैसे ही इसने मेरे वस्त्र पहन लिये हैं। जिन ब्राह्मणों ने अपने तपोबल से इस संसार की सृष्टि की है, जो परमपुरुष परमात्मा के मुखरूप हैं, जो अपने हृदय में निरन्तर ज्योतिर्मय परमात्मा को धारण किये रहते हैं और जिन्होंने सम्पूर्ण प्राणियों के कल्याण के लिये वैदिक मार्ग का निर्देश किया है, बड़े-बड़े लोकपाल तथा देवराज इन्द्र-ब्रह्मा आदि भी जिनके चरणों की वन्दना और सेवा करते हैं-और तो क्या, लक्ष्मी जी के एकमात्र आश्रय परापावन विश्वात्मा भगवान् भी जिनकी वन्दना और स्तुति करते हैं-उन्हीं ब्राह्मणों में हम सबसे श्रेष्ठ भृगुवंशी हैं और इसका पिता प्रथम तो असुर है, फिर हमारा शिष्य है। इस पर भी इस दुष्टा ने जैसे शूद्र वेद पढ़ ले, उसी तरह हमारे कपड़ों को पहन लिया है’।

जब देवयानी इस प्रकार गाली देने लगी, तब शर्मिष्ठा क्रोध से तिलमिला उठी। वह चोट खायी हुई नागिन के समान लंबी साँस लेने लगी। उसने अपने दाँतों से होठ दबाकर कहा- 'भिखारिन! तू इतना बहक रही है। तुझे कुछ अपनी बात का भी पता है? जैसे कौए और कुत्ते हमारे दरवाजे पर रोटी के टुकड़ों के लिये प्रतीक्षा करते हैं, वैसे ही क्या तुम भी हमारे घरों की ओर नहीं ताकती रहतीं’। शर्मिष्ठा ने इस प्रकार बड़ी कड़ी-कड़ी बात कहकर गुरुपुत्री देवयानी का तिरस्कार किया और क्रोधवश उसके वस्त्र छीनकर उसे कुएँ में ढकेल दिया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 18-30 का हिन्दी अनुवाद)

शर्मिष्ठा के चले जाने के बाद संयोगवश शिकार खेलते हुए राजा ययाति उधर आ निकले। उन्हें जल की आवश्यकता थी, इसलिये कुएँ में पड़ी हुई देवयानी को उन्होंने देख लिया। उस समय वह वस्त्रहीन थी। इसलिये उन्होंने अपना दुपट्टा उसे दे दिया और दया करके अपने हाथ से उसका हाथ पकड़कर उसे बाहर निकाल लिया।

देवयानी ने प्रेम भरी वाणी से वीर ययाति से कहा- ‘वीरशिरोमणे राजन्! आज आपने मेरा हाथ पकड़ा है। अब जब आपने मेरा हाथ पकड़ लिया, तब कोई दूसरा इसे न पकड़े। वीरश्रेष्ठ! कूएँ में गिर जाने पर मुझे जो आपका अचानक दर्शन हुआ है, यह भगवान् का ही किया हुआ सम्बन्ध समझना चाहिये। इसमें हम लोगों की या और किसी मनुष्य की कोई चेष्टा नहीं है। वीरश्रेष्ठ! पहले मैंने बृहस्पति के पुत्र कच को शाप दे दिया था, इस पर उसने भी मुझे शाप दे दिया। इसी कारण ब्राह्मण मेरा पाणिग्रहण नहीं कर सकता’।

ययाति को शास्त्र प्रतिकूल होने के कारण यह सम्बन्ध अभीष्ट तो न था; परन्तु उन्होंने देखा कि प्रारब्ध ने स्वयं ही मुझे यह उपहार दिया है और मेरा मन भी इसकी ओर खिंच रहा है। इसलिये ययाति ने उसकी बात मान ली। वीर राजा ययाति जब चले गये, तब देवयानी रोटी-पीटती अपने पिता शुक्राचार्य के पास पहुँची और शर्मिष्ठा ने जो कुछ किया था, वह सब उन्हें कह सुनाया। शर्मिष्ठा के व्यवहार से भगवान् शुक्राचार्य जी का भी मन उचट गया। वे पुरोहिताई की निन्दा करने लगे। उन्होंने सोचा कि इसकी अपेक्षा तो खेत या बाजार में से कबूतर की तरह कुछ बीनकर खा लेना अच्छा है। अतः अपनी कन्या देवयानी को साथ लेकर वे नगर से निकल पड़े।

जब वृषपर्वा को यह मालूम हुआ तो उनके मन में यह शंका हुई कि गुरु जी कहीं शत्रुओं की जीत न करा दें, अथवा मुझे शाप न दे दें। अतएव वे उनको प्रसन्न करने के लिये पीछे-पीछे गये और रास्ते में उनके चरणों पर सिर के बल गिर गये। भगवान शुक्राचार्य जी का क्रोध तो आधे ही क्षण का था। उन्होंने वृषपर्वा से कहा- ‘राजन्! मैं अपनी पुत्री देवयानी को नहीं छोड़ सकता। इसलिये इसकी जो इच्छा हो, तुम पूरी कर दो। फिर मुझे लौट चलने में कोई आपत्ति न होगी’। जब वृषपर्वा ने ‘ठीक है’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली, तब देवयानी ने अपने मन की बात कही। उसने कहा- ‘पिताजी मुझे जिस किसी को दे दें और मैं जहाँ कहीं जाऊँ, शर्मिष्ठा अपनी सहेलियों के साथ मेरी सेवा के लिये वहीं चले’। शर्मिष्ठा ने अपने परिवार वालों का संकट और उनके कार्य का गौरव देखकर देवयानी की बात स्वीकार कर ली। वह अपनी एक हजार सहेलियों के साथ दासी के समान उसकी सेवा करने लगी। शुक्राचार्य जी ने देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ कर दिया और शर्मिष्ठा को दासी के रूप में देकर उनसे कह दिया- ‘राजन! इसको अपनी सेज पर कभी न आने देना’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 31-44 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! कुछ ही दिनों बाद देवयानी पुत्रवती हो गयी। उसको पुत्रवती देखकर एक दिन शर्मिष्ठा ने भी अपने ऋतुकाल में देवयानी के पति ययाति से एकान्त में सहवास की याचना की। शर्मिष्ठा की पुत्र के लिये प्रार्थना धर्म संगत है- यह देखकर धर्मज्ञ राजा ययाति ने शुक्राचार्य की बात याद रहने पर भी यही निश्चय किया कि समय पर प्रारब्ध के अनुसार जो होना होगा, हो जायेगा।

देवयानी के दो पुत्र हुए- यदु और तुर्वसु तथा वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा के तीन पुत्र हुए- द्रुह्यु, अनु और पूरु। जब मानिनी देवयानी को यह मालूम हुआ कि शर्मिष्ठा को भी मेरे पति के द्वारा ही गर्भ रहा था, तब वह क्रोध से बेसुध होकर अपने पिता के घर चली गयी। कामी ययाति ने मीठी-मीठी बातें, अनुनय-विनय और चरण दबाने आदि के द्वारा देवयानी को मनाने की चेष्टा की, उसके पीछे-पीछे वहाँ तक गये भी; परन्तु मना न सके। शुक्राचार्य जी ने भी क्रोध में भरकर ययाति से कहा- ‘तू अत्यन्त स्त्री लम्पट, मन्द बुद्धि और झूठा है। जा, तेरे शरीर में वह बुढ़ापा आ जाये, जो मनुष्यों को कुरूप कर देता है’।

ययाति ने कहा ;- ‘ब्रह्मन्! आपकी पुत्री के साथ विषय-भोग करते-करते अभी मेरी तृप्ति नहीं हुई है। इस शाप से तो आपकी पुत्री का भी अनिष्ट ही है।’ इस पर शुक्राचार्य जी ने कहा- ‘अच्छा जाओ; जो प्रसन्नता से तुम्हें अपनी जवानी दे दे, उससे अपना बुढ़ापा बदल लो’। शुक्राचार्य जी ने जब ऐसी व्यवस्था दे दी, तब अपनी राजधानी में आकर ययाति ने अपने बड़े पुत्र यदु से कहा- ‘बेटा! तुम अपनी जवानी मुझे दे दो और अपने नाना का दिया हुआ यह बुढ़ापा तुम स्वीकार कर लो। क्योंकि मेरे प्यारे पुत्र! मैं अभी विषयों से तृप्त नहीं हुआ हूँ। इसलिये तुम्हारी आयु लेकर मैं कुछ वर्षों तक और आनन्द भोगूँगा’।

यदु ने कहा ;- ‘पिताजी! बिना समय के ही प्राप्त हुआ आपका बुढ़ापा लेकर तो मैं जीना भी नहीं चाहता। क्योंकि कोई भी मनुष्य जब तक विषय-सुख का अनुभव नहीं कर लेता, तब तक उसे उससे वैराग्य नहीं होता’।

परीक्षित! इसी प्रकार तुर्वसु, द्रुह्यु और अनु ने भी पिता की आज्ञा अस्वीकार कर दी। सच पूछो तो उन पुत्रों को धर्म का तत्त्व मालूम नहीं था। वे इस अनित्य शरीर को ही नित्य मान बैठे थे। अब ययाति ने अवस्था में सबसे छोटे किन्तु गुणों में बड़े अपने पुत्र पूरु को बुलाकर पूछा और कहा- ‘बेटा! अपने बड़े भाइयों के समान तुम्हें तो मेरी बात नहीं टालनी चाहिये’।

पूरु ने कहा ;- ‘पिताजी! पिता की कृपा से मनुष्य को परम पद की प्राप्ति हो सकती है। वास्तव में पुत्र का शरीर पिता का ही दिया हुआ है। ऐसी अवस्था में ऐसा कौन है, जो इस संसार में पिता के उपकारों का बदला चुका सके? उत्तम पुत्र तो वह है जो पिता के मन की बात बिना कहे ही कर दे। कहने पर श्रद्धा के साथ आज्ञा पालन करने वाले पुत्र को मध्यम कहते हैं। जो आज्ञा प्राप्त होने पर भी अश्रद्धा से उसका पालन करे, वह अधम पुत्र है और जो किसी प्रकार भी पिता की आज्ञा का पालन नहीं करता, उसको तो पुत्र कहना ही भूल है। वह तो पिता का मल-मूत्र ही है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 45-51 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! इस प्रकार कहकर पूरु ने बड़े आनन्द से अपने पिता का बुढ़ापा स्वीकार कर लिया। राजा ययाति भी उसकी जवानी लेकर पूर्ववत् विषयों का सेवन करने लगे। वे सातों द्वीपों के एकच्छत्र सम्राट् थे। पिता के समान भलीभाँति प्रजा का पालन करते थे। उनकी इन्द्रियों में पूरी शक्ति थी और वे यथावसर यथाप्राप्त विषयों का यथेच्छ उपभोग करते थे।

देवयानी उनकी प्रियतमा पत्नी थी। वह अपने प्रियतम ययाति को अपने मन, वाणी, शरीर और वस्तुओं के द्वारा दिन-दिन और भी प्रसन्न करने लगी और एकान्त में सुख देने लगी। राजा ययाति ने समस्त वेदों के प्रतिपाद्य सर्वदेवस्वरूप यज्ञपुरुष भगवान श्रीहरि का बहुत-से बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञों से यजन किया। जैसे आकाश में दल-के-दल बादल दीखते हैं और कभी नहीं भी दीखते, वैसे ही परमात्मा के स्वरूप में यह जगत् स्वप्न, माया और मनोराज्य के समान कल्पित है। यह कभी अनेक नाम और रूपों के रूप में प्रतीत होता है और कभी नहीं भी।

वे परमात्मा सबके हृदय में विराजमान हैं। उनका स्वरूप सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। उन्हीं सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापी भगवान् श्रीनारायण को अपने हृदय में स्थापित करके राजा ययाति ने निष्काम भाव से उनका यजन किया। इस प्रकार एक हजार वर्ष तक उन्होंने अपनी उच्छ्रंखल इन्द्रियों के साथ मन को जोड़कर उसके प्रिय विषयों को भोगा। परन्तु इतने पर भी चक्रवर्ती सम्राट् ययाति की भोगों की तृप्ति न हो सकी।

                           {नवम स्कन्ध:}

                      【उन्नीसवाँ अध्याय:】१९.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"ययाति का गृहत्याग"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! राजा ययाति इस प्रकार स्त्री के वश में होकर विषयों का उपभोग करते रहे। एक दिन जब अपने अधःपतन पर दृष्टि गयी, तब उन्हें बड़ा वैराग्य हुआ और उन्होंने अपनी प्रियपत्नी देवयानी से इस गाथा का गान किया- ‘भृगुनन्दिनी! तुम यह गाथा सुनो। पृथ्वी में मेरे ही समान विषयीं का यह इतिहास है। ऐसे ही ग्रामवासी विषयी पुरुषों के सम्बन्ध में वनवासी जितेन्द्रिय पुरुष दुःख के साथ विचार किया करते हैं कि इनका कल्याण कैसे होगा? एक था बकरा। वह वन में अकेला ही अपने को प्रिय लगने वाली वस्तुएँ ढूँढ़ता हुआ घूम रहा था। उसने देखा कि अपने कर्मवश एक बकरी कूएँ में गिर पड़ी है। वह बकरा बड़ा कामी था। वह सोचने लगा कि इस बकरी को किस प्रकार कूएँ से निकाला जाये। उसने अपने सींग से कूएँ के पास की धरती खोद डाली और रास्ता तैयार कर लिया। जब वह सुन्दरी बकरी कूएँ से निकली तो उसने उस बकरे से ही प्रेम करना चाहा। वह दाढ़ी-मूँछमण्डित बकरा हृष्ट-पुष्ट, जवान, बकरियों को सुख देने वाला, विहार कुशल और बहुत प्यारा था। जब दूसरी बकरियों ने देखा कि कूएँ में गिरी हुई बकरी ने उसे अपना प्रेमपात्र चुन लिया है, तब उन्होंने भी उसी को अपना पति बना लिया। वे तो पहले से ही पति की तलाश में थीं। उस बकरे के सिर पर कामरूप पिशाच सवार था। वह अकेला ही बहुत-सी बकरियों के साथ विहार करने लगा और अपनी सब सुध-बुध खो बैठा।

जब उसकी कूएँ से निकाली हुई प्रियतमा बकरी ने देखा कि मेरा पति तो अपनी दूसरी प्रियतमा बकरी से विहार कर रहा है तो उसे बकरे की यह करतूत सहन न हुई। उसने देखा कि यह तो बड़ा कामी है, इसके प्रेम का कोई भरोसा नहीं है और यह मित्र के रूप में शत्रु का काम कर रहा है। अतः वह बकरी उस इन्द्रियलोलुप बकरे को छोड़कर बड़े दुःख से अपने पालने वाले के पास चली गयी। वह दीनकामी बकरा उसे मनाने के लिये ‘में-में’ करता हुआ उसके पीछे-पीछे चला। परन्तु उसे मार्ग में मना न सका।

उस बकरी का स्वामी एक ब्राह्मण था। उसने क्रोध में आकर बकरे के लटकते हुए अण्डकोष को काट दिया। परन्तु फिर उस बकरी का ही भला करने के लिये फिर से उसे जोड़ भी दिया। उसे इस प्रकार के बहुत-से उपाय मालूम थे। प्रिये! इस प्रकार अण्डकोष जुड़ जाने पर वह बकरा फिर कूएँ से निकली हुई बकरी के साथ बहुत दिनों तक विषय भोग करता रहा, परन्तु आज तक उसे सन्तोष न हुआ। सुन्दरी! मेरी भी यही दशा है। तुम्हारे प्रेमपाश में बँधकर मैं भी अत्यन्त दीन हो गया। तुम्हारी माया से मोहित होकर मैं अपने-आपको भी भूल गया हूँ।

‘प्रिये! पृथ्वी में जितने भी धान्य (चावल, जौ आदि), सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैं-वे सब-के-सब मिलकर भी उस पुरुष के मन को सन्तुष्ट नहीं कर सकते जो कामनाओं के प्रहार से जर्जर हो रहा है। विषयों के भोगने से भोगवासना कभी शान्त नहीं हो सकती। बल्कि जैसे घी की आहुति डालने पर आग और भड़क उठती है, वैसे ही भोग वासनाएँ भी भोगों से प्रबल हो जाती हैं। जब मनुष्य किसी भी प्राणी और किसी भी वस्तु के साथ राग-द्वेष का भाव नहीं रखता, तब वह समदर्शी हो जाता है तथा उसके लिये सभी दिशाएँ सुखमयी बन जाती हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 16-29 का हिन्दी अनुवाद)

विषयों की तृष्णा ही दुःखों का उद्गम स्थान है। मन्द बुद्धि लोग बड़ी कठिनाई से उसका त्याग कर सकते हैं। शरीर बूढ़ा हो जाता है, पर तृष्णा नित्य नवीन ही होती जाती है। अतः जो अपना कल्याण चाहता है, उसे शीघ्र-से-शीघ्र इस तृष्णा (भोग-वासना) का त्याग कर देना चाहिये। और तो क्या-अपनी मां, बहिन और कन्या के साथ भी अकेले एक आसन पर सटकर नहीं बैठना चाहिये। इन्द्रियाँ इतनी बलवान् हैं कि वे बड़े-बड़े विद्वानों को भी विचलित कर देती हैं।

विषयों का बार-बार सेवन करते-करते एक हजार वर्ष पूरे हो गये, फिर भी क्षण-प्रति-क्षण उन भोगों की लालसा बढ़ती ही जा रही है। इसलिये मैं अब भोगों की वासना-तृष्णा का परित्याग करके अपना अन्तःकरण परमात्मा के प्रति समर्पित कर दूँगा और शीत-उष्ण, सुख-दुःख आदि के भावों से ऊपर उठकर अहंकार से मुक्त हो हरिनों के साथ वन में विचरूँगा। लोक-परलोक दोनों के ही भोग असत् हैं, ऐसा समझकर न तो उनका चिन्तन करना चाहिये और न भोग ही। समझना चाहिये कि उनके चिन्तन से ही जन्म-मृत्युरूप संसार की प्रप्ति होती है और उनके भोग से तो आत्मनाश ही हो जाता है। वास्तव में इनके रहस्य को जानकर इनसे अलग रहने वाला ही आत्मज्ञानी है’।

परीक्षित! ययाति ने अपनी पत्नी से इस प्रकार कहकर पूरु की जवानी उसे लौटा दी और उससे अपना बुढ़ापा ले लिया। यह इसलिये कि अब उनके चित्त में विषयों की वासना नहीं रह गयी थी। इसके बाद उन्होंने दक्षिण-पूर्व दिशा में द्रुह्यु, दक्षिण में यदु, पश्चिम में तुवर्सु और उत्तर में अनु को राज्य दे दिया। सारे भूमण्डल की समस्त सम्पत्तियों के योग्यतम पात्र पूरु को अपने राज्य पर अभिषिक्त करके तथा बड़े भाइयों को उसके अधीन बनाकर वे वन में चले गये। यद्यपि राजा ययाति ने बहुत वर्षों तक इन्द्रियों से विषयों का सुख भोगा था-परन्तु जैसे पाँख निकल आने पर पक्षी अपना घोंसला छोड़ देता है, वैसे ही उन्होंने एक क्षण में ही सब कुछ छोड़ दिया। वन में जाकर राजा ययाति ने समस्त आसक्तियों से छुट्टी पा ली। आत्म-साक्षात्कार के द्वारा उनका त्रिगुणमय लिंग शरीर नष्ट हो गया। उन्होंने माया-मल से रहित परब्रह्म परमात्मा वासुदेव में मिलकर वह भागवती गति प्राप्त की, जो बड़े-बड़े भगवान के प्रेमी संतों को प्राप्त होती है।

जब देवयानी ने वह गाथा सुनी, तो उसने समझा कि ये मुझे निवृत्ति मार्ग के लिये प्रोत्साहित कर रहे हैं। क्योंकि स्त्री-पुरुष में परस्पर प्रेम के कारण विरह होने पर विकलता होती है, यह सोचकर ही इन्होंने यह बात हँसी-हँसी में कही है। स्वजन-सम्बन्धियों का-जो ईश्वर के अधीन है-एक स्थान पर इकठ्ठा हो जाना वैसा ही है, जैसा प्याऊ पर पथिकों का। यह सब भगवान की माया का खेल और स्वप्न के सरीखा ही है। ऐसा समझकर देवयानी ने सब पदार्थों की आसक्ति त्याग दी और अपने मन को भगवान श्रीकृष्ण में तन्मय करके बन्धन के हेतु लिंग शरीर का परित्याग कर दिया-वह भगवान को प्राप्त हो गयी। उसने भगवान को नमस्कार करके कहा- ‘समस्त जगत् के रचयिता, सर्वान्तर्यामी, सबके आश्रयस्वरूप सर्वशक्तिमान् भगवान वासुदेव को नमस्कार है। जो परमशान्त और अनन्त तत्त्व हैं, उसे मैं नमस्कार करती हूँ’।

                           {नवम स्कन्ध:}

                      【बीसवाँ अध्याय:】२०.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"पूरु के वंश, राजा दुष्यन्त और भरत के चरित्र का वर्णन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अब मैं राजा पूरु के वंश का वर्णन करूँगा। इसी वंश में तुम्हारा जन्म हुआ है। इसी वंश के वंशधर बहुत-से राजर्षि और ब्रह्मर्षि भी हुए हैं। पूरु का पुत्र हुआ जनमेजय। जनमेजय का प्रचिन्वान, प्रचिन्वान का प्रवीर, प्रवीर का नमस्यु और नमस्यु का पुत्र हुआ चारुपद। चारुपद से सुद्यु, सुद्यु से बहुगव, बहुगव से संयाति, संयाति से अहंयाति और अहंयाति से रौद्राश्व हुआ।

परीक्षित! जैसे विश्वात्मा प्रधान प्राण से दस इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही घृताची अप्सरा के गर्भ से रौद्राश्व के दस पुत्र हुए- ऋतेयु, कुक्षेयु, स्थण्डिलेयु, कृतेयु, जलेयु, सन्ततेयु, धर्मेयु, सत्येयु, व्रतेयु और सबसे छोटा वनेयु। परीक्षित! उनमें से ऋतेयु का पुत्र रन्तिभार हुआ और रन्तिभार के तीन पुत्र हुए- सुमति, ध्रुव, और अप्रतिरथ। अप्रतिरथ के पुत्र का नाम था कण्व। कण्व का पुत्र मेधातिथि हुआ। इसी मेधातिथि से प्रस्कण्व आदि ब्राह्मण उत्पन्न हुए। सुमति का पुत्र रैभ्य हुआ, इसी रैभ्य का पुत्र दुष्यन्त था।

एक बार दुष्यन्त वन में अपने कुछ सैनिकों के साथ शिकार खेलने के लिये गये हुए थे। उधर ही वे कण्व मुनि के आश्रम पर जा पहुँचे। उस आश्रम पर देवमाया के समान मनोहर एक स्त्री बैठी हुई थी। उसकी लक्ष्मी के समान अंगकान्ति से वह आश्रम जगमगा रहा था। उस सुन्दरी को देखते ही दुष्यन्त मोहित हो गये और उससे बातचीत करने लगे। उसको देखने से उनको बड़ा आनन्द मिला। उनके मन में काम वासना जाग्रत् हो गयी। थकावट दूर करने के बाद उन्होंने बड़ी मधुर वाणी से मुसकराते हुए उससे पूछा- ‘कमलदल के समान सुन्दर नेत्रों वाली देवि! तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो? मेरे हृदय को अपनी ओर आकर्षित करने वाली सुन्दरी! तुम इस निर्जन वन में रहकर क्या करना चाहती हो? सुन्दरी! मैं स्पष्ट समझ रहा हूँ कि तुम किसी क्षत्रिय की कन्या हो। क्योंकि पुरुवंशियों का चित्त कभी अधर्म की ओर नहीं झुकता’।

शकुन्तला ने कहा ;- ‘आपका कहना सत्य है। मैं विश्वामित्र जी की पुत्री हूँ। मेनका अप्सरा ने मुझे वन में छोड़ दिया था। इस बात के साक्षी हैं मेरा पालन-पोषण करने वाले महर्षि कण्व। वीरशिरोमणे! मैं आपकी क्या सेवा करूँ? कमलनयन! आप यहाँ बैठिये और हम जो कुछ आपका स्वागत-सत्कार करें, उसे स्वीकार कीजिये। आश्रम में कुछ नीवार (तिन्नी का भात) है। आपकी इच्छा हो तो भोजन कीजिये और जँचे तो यहीं ठहरिये’।

दुष्यन्त ने कहा ;- ‘सुन्दरी! तुम कुशिक वंश में उत्पन्न हुई हो, इसलिये इस प्रकार का आतिथ्य सत्कार तुम्हारे योग्य ही है। क्योंकि राजकन्याएँ स्वयं ही अपने योग्य पति को वरण कर लिया करती हैं। शकुन्तला की स्वीकृति मिल जाने पर देश, काल और शास्त्र की आज्ञा को जानने वाले राजा दुष्यन्त ने गान्धर्व-विधि से धर्मानुसार उसके साथ विवाह कर लिया। राजर्षि दुष्यन्त का वीर्य अमोघ था। रात्रि में वहाँ रहकर दुष्यन्त ने शकुन्तला का सहवास किया और दूसरे दिन सबेरे वे अपनी राजधानी में चले गये। समय आने पर शकुन्तला को एक पुत्र उत्पन्न हुआ। महर्षि कण्व ने वन में ही राजकुमार के जातकर्म आदि संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न किये। वह बालक बचपन में ही इतना बलवान था कि बड़े-बड़े सिंहों को बलपूर्वक बाँध लेता और उनसे खेला करता।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 19-33 का हिन्दी अनुवाद)

वह बालक भगवान का अंशावतार था। उसका बल-विक्रम अपरिमित था। उसे अपने साथ लेकर रमणीरत्न शकुन्तला अपने पति के पास गयी। जब राजा दुष्यन्त ने अपनी निर्दोष पत्नी और पुत्र को स्वीकार नहीं किया, तब जिसका वक्ता नहीं दीख रहा था और जिसे सब लोगों ने सुना, ऐसी आकाशवाणी हुई- ‘पुत्र उत्पन्न करने में माता तो केवल धौंकनी के समान है। वास्तव में पुत्र पिता का ही है। क्योंकि पिता ही पुत्ररूप में उत्पन्न होता है। इसलिये दुष्यन्त! तुम शकुन्तला का तिरस्कार न करो, अपने पुत्र का भरण-पोषण करो। राजन्! वंश की वृद्धि करने वाला पुत्र अपने पिता को नरक से उबार लेता है। शकुन्तला का कहना बिलकुल ठीक है। इस गर्भ को धारण कराने वाले तुम्हीं हो’।

परीक्षित! पिता दुष्यन्त की मृत्यु हो जाने के बाद वह परमयशस्वी बालक चक्रवर्ती सम्राट हुआ। उसका जन्म भगवान् के अंश से हुआ था। आज भी पृथ्वी पर उसकी महिमा का गान किया जाता है। उसके दाहिने हाथ में चक्र का चिह्न था और पैरों में कमलकोष का। महाभिषेक की विधि से राजाधिराज के पद पर उसका अभिषेक हुआ। भरत बड़ा शक्तिशाली राजा था। भरत ने ममता के पुत्र दीर्घतमा मुनि को पुरोहित बनाकर गंगा तट पर गंगासागर से लेकर गंगोत्री-पर्यन्त पचपन पवित्र अश्वमेध यज्ञ किये और इसी प्रकार यमुना तट पर भी प्रयाग से लेकर यमुनोत्री तक उन्होंने अठहत्तर अश्वमेध यज्ञ किये। इन सभी यज्ञों में उन्होंने धनराशि का दान किया था। दुष्यन्तकुमार भरत का यज्ञीय अग्निस्थापन बड़े ही उत्तम गुण वाले स्थान में किया गया था। उस स्थान में भरत ने इतनी गौएँ दान दी थीं कि एक हजार ब्राह्मणों में प्रत्येक ब्राह्मण को एक-एक बद्व (13084) गौएँ मिली थीं।

इस प्रकार राजा भरत ने उन यज्ञों में एक सौ तैतीस (55+78) घोड़े बाँधकर (133 यज्ञ करके) समस्त नरपतियों को असीम आश्चर्य में डाल दिया। इन यज्ञों के द्वारा इस लोक में तो राजा भरत को परम यश मिला ही, अन्त में उन्होंने माया पर भी विजय प्राप्त की और देवताओं के परमगुरु भगवान् श्रीहरि को प्राप्त कर लिया। यज्ञ में एक कर्म होता है ‘मष्णार’। उसमें भरत ने सुवर्ण से विभूषित, श्वेत दाँतों वाले तथा काले रंग के चौदह लाख हाथी दान किये। भरत ने जो महान कर्म किया, वह न तो पहले कोई राजा कर सका था और न तो आगे ही कोई कर सकेगा। क्या कभी कोई हाथ से स्वर्ग को छू सकता है? भरत ने दिग्विजय के समय किरात, हूण, यवन, अन्ध्र, कंक, खश, शक और म्लेच्छ आदि समस्त ब्राह्मणद्रोही राजाओं को मार डाला।

पहले युग में बलवान् असुरों ने देवताओं पर विजय प्राप्त कर ली थी और वे रसातल में रहने लगे थे। उस समय वे बहुत-सी देवांगनाओं को रसातल में ले गये थे। राजा भरत ने फिर से उन्हें छुड़ा दिया। उसके राज्य में पृथ्वी और आकाश प्रजा की सारी आवश्यकताएँ पूर्ण कर देते थे। भरत ने सत्ताईस हजार वर्ष तक समस्त दिशाओं का एकछत्र शासन किया। अन्त में सार्वभौम सम्राट् भरत ने यही निश्चय किया कि लोकपालों को भी चकित कर देने वाला ऐश्वर्य, सार्वभौम सम्पत्ति, अखण्ड शासन और यह जीवन भी मिथ्या ही है। यह निश्चय करके वे संसार से उदासीन हो गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 34-39 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! विदर्भराज की तीन कन्याएँ सम्राट् भरत की पत्नियाँ थीं। वे उनका बड़ा आदर भी करते थे, परन्तु जब भरत ने उनसे कह दिया कि तुम्हारे पुत्र मेरे अनुरूप नहीं हैं, तब वे डर गयीं कि कहीं सम्राट् हमें त्याग न दें। इसलिये उन्होंने अपने बच्चों को मार डाला। इस प्रकार सम्राट भरत का वंश वितथ अर्थात् विच्छिन्न होने लगा। तब उन्होंने सन्तान के लिये ‘मरुत्स्तोम’ नाम का यज्ञ किया। इससे मरुद्गणों ने प्रसन्न होकर भरत को भरद्वाज नाम का पुत्र दिया।

भरद्वाज की उत्पत्ति का प्रसंग यह है कि एक बार बृहस्पति जी ने अपने भाई उतथ्य की गर्भवती पत्नी से मैथुन करना चाहा। उस समय गर्भ में जो बालक (दीर्घतमा) था, उसने मना किया। किन्तु बृहस्पति जी ने उसकी बात पर ध्यान न दिया और उसे ‘तू अंधा हो जा’ यह शाप देकर बलपूर्वक गर्भाधान कर दिया। उतथ्य की पत्नी ममता इस बात से डर गयी कि कहीं मेरे पति मेरा त्याग न कर दें। इसलिये उसने बृहस्पति जी के द्वारा होने वाले लड़के को त्याग देना चाहा।

उस समय देवताओं ने गर्भस्थ शिशु के नाम का निर्वचन करते हुए यह कहा। बृहस्पति जी कहते हैं कि ‘अरी मूढ़े! यह मेरा औरस और मेरे भाई का क्षेत्रज-इस प्रकार दोनों का पुत्र (द्वाज) है; इसलिये तू डर मत, इसका भरण-पोषण कर (भर)।’

इस पर ममता ने कहा ;- ‘बृहस्पते! यह मेरे पति का नहीं, हम दोनों का ही पुत्र है; इसलिये तुम्हीं इसका भरण-पोषण करो।’

इस प्रकार आपस में विवाद करते हुए माता-पिता दोनों ही इसको छोड़कर चले गये। इसलिये इस लड़के नाम ‘भरद्वाज’ हुआ। देवताओं के द्वारा नाम का ऐसा निर्वचन होने पर भी ममता ने यही समझा कि मेरा यह पुत्र वितथ अर्थात् अन्याय से पैदा हुआ है। अतः उसने उस बच्चे को छोड़ दिया। अब मरुद्गणों ने उसका पालन किया और जब राजा भरत का वंश नष्ट होने लगा, तब उसे लाकर उनको दे दिया। यही वितथ (भरद्वाज) भरत का दत्तक पुत्र हुआ।

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