सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - पूर्वार्ध ) का प्रथम , द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम अध्याय [ The first, second, third, fourth and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - पूर्वार्ध ) का प्रथम , द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम अध्याय [ The first, second, third, fourth and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]


                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                      【प्रथम अध्याय:】१.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: प्रथम अध्याय: श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

"भगवान के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन, वसुदेव-देवकी का विवाह और कंस के द्वारा देवकी के छः पुत्रों की हत्या"

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन! आपने चन्द्रवंश और सूर्यवंश के विस्तार तथा दोनों वंशों के राजाओं का अत्यंत अद्भुत चरित्र वर्णन किया है। भगवान के परम प्रेमी मुनिवर! आपने स्वभाव से ही धर्मप्रेमी यदुवंश का भी विशद वर्णन किया। अब कृपा करके उसी वंश में अपने अंश श्री बलराम जी के साथ अवतीर्ण हुए भगवान श्रीकृष्ण का परम पवित्र चरित्र भी हमें सुनाइये। भगवान श्रीकृष्ण समस्त प्राणियों के जीवनदाता एवं सर्वात्मा हैं। उन्होंने यदुवंश में अवतार लेकर जो-जो लीलायें कीं, उनका विस्तार से हम लोगों को श्रवण कराइये। जिनकी तृष्णा की प्यास सर्वदा के लिए बुझ चुकी हैं, वे जीवन मुक्त महापुरुष जिसका पूर्ण प्रेम से अतृप्त रहकर गान किया करते हैं, मुमुक्षुजनों के लिए जो भवरोग की रामबाण औषध है तथा विषयी लोगों के लिए भी उनके कान और मन को परम आह्लाद देने वाला है, भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के ऐसे सुन्दर, सुखद, रसीले, गुणानुवाद से पशुघाती अथवा आत्मघाती मनुष्य के अतिरिक्त और ऐसा कौन है जो विमुख हो जाय, उससे प्रीति न करे ? (श्रीकृष्ण तो मेरे कुलदेव ही हैं।)

जब कुरुक्षेत्र में महाभारत-युद्ध हो रहा था और देवताओं को भी जीत लेने वाले भीष्म पितामह आदि अतिरथियों से मेरे दादा पाण्डवों का युद्ध हो रहा था, उस समय कौरवों की सेना उनके लिए अपार समुद्र के सामान थी - जिसमें भीष्म आदि वीर बड़े-बड़े मच्छों को भी निगल जाने वाले तिमिंगिल मच्छों की भाँति भय उत्पन्न कर रहे थे। परन्तु मेरे स्वनामधन्य पितामह भगवान श्रीकृष्ण के चरण कमलों की नौका का आश्रय लेकर उस समुद्र को अनायास ही पार कर गए - ठीक वैसे ही जैसे कोई मार्ग में चलता हुआ स्वभाव से ही बछड़े के खुर का गड्ढा पार कर जाय। महाराज! मेरा यह शरीर - जो आपके सामने है तथा जो कौरव और पाण्डव दोनों ही वंशों का एकमात्र सहारा था, अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से जल चुका था। उस समय मेरी माता जब भगवान की शरण में गयीं, तब उन्होंने हाथ में चक्र लेकर मेरी माता के गर्भ में प्रवेश किया और मेरी रक्षा की।[1] वे समस्त शरीरधारियों के भीतर आत्मारूप से रहकर अमृत्व का दान कर रहे हैं और बाहर काल रूप से रह कर मृत्यु का।[2] मनुष्य के रूप में प्रतीत होना, यह तो उनकी एक लीला है। आप उन्हीं के ऐश्वर्य और माधुर्य से परिपूर्ण लीलाओं का वर्णन कीजिये।

भगवन! आपने अभी बतलाया था कि बलराम जी रोहिणी के पुत्र थे। इसके बाद देवकी के पुत्रों में भी आपने उनकी गणना की। दूसरा शरीर धारण किये बिना दो माताओं का पुत्र होना कैसे सम्भव है? असुरों को मुक्ति देने वाले और भक्तों को प्रेम वितरण करने वाले भगवान श्रीकृष्ण अपने वात्सल्य-स्नेह से भरे हुए पिता का घर छोड़कर ब्रज में क्यों चले गये? यदुवंश शिरोमणि भक्त वत्सल प्रभु ने नन्द आदि गोप-बंधुओं के साथ कहाँ-कहाँ निवास किया? ब्रह्मा और शंकर का भी शासन करने वाले प्रभु ने ब्रज में तथा मधुपुरी में रहकर कौन-कौन सी लीलाएँ कीं? और महाराज! उन्होंने अपनी माँ के भाई मामा कंस को अपने हाथों क्यों मार डाला? वह मामा होने के कारण उनके द्वारा मारे जाने योग्य तो नहीं था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: प्रथम अध्याय: श्लोक 11-22 का हिन्दी अनुवाद)

मनुष्याकार सच्चिदानन्दमय विग्रह प्रकट करके द्वारकापुरी में यदुवंशियों के साथ उन्होंने कितने वर्षों तक निवास किया? और उन सर्वशक्तिमान प्रभु की पत्नियाँ कितनी थीं? मुने! मैंने श्रीकृष्ण की जितनी लीलाएँ पूछी हैं और जो नहीं पूछीं हैं, वे सब आप मुझे विस्तार से सुनाइये; क्योंकि आप सब कुछ जानते हैं और मैं बड़ी श्रद्धा के साथ उन्हें सुनना चाहता हूँ। भगवन! अन्न की तो बात ही क्या, मैंने जल का भी परित्याग कर दिया है। फिर भी वह असह्य भूख-प्यास मुझे तनिक भी नहीं सता रही है; क्योंकि मैं आपके मुखकमल से झरती हुई भगवान की सुधामयी लीला-कथा का पान कर रहा हूँ।

सूत जी कहते हैं ;- शौनक जी! भगवान के प्रेमियों में अग्रगण्य एवं सर्वज्ञ श्री शुकदेव जी महाराज ने परीक्षित का ऐसा समीचीन प्रश्न सुनकर उनका अभिनन्दन किया और भगवान श्रीकृष्ण की उन लीलाओं का वर्णन प्रारम्भ किया, जो समस्त कलिमलों को सदा के लिए धो डालती है।
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- भगवान की लीला-रस के रसिक राजर्षे! तुमने जो कुछ निश्चय किया है, वह बहुत ही सुन्दर और आदरणीय है; क्योंकि सबके हृदयाराध्य श्रीकृष्ण की लीला-कथा श्रवण करने में तुम्हें सहज एवं सुदृढ़ प्रीति प्राप्त हो गयी है। भगवान श्रीकृष्ण की कथा के सम्बन्ध में प्रश्न करने से ही वक्ता, प्रश्नकर्ता और श्रोता तीनों ही पवित्र हो जाते हैं - जैसे गंगा जी का जल या भगवान शालिग्राम का चरणामृत सभी को पवित्र कर देता है। परीक्षित! उस समय लाखों दैत्यों के दल ने घमंडी राजाओं का रूप धारण कर अपने भारी भार से पृथ्वी को आक्रान्त कर रखा था। उससे त्राण पाने के लिए वह ब्रह्मा जी की शरण में गयी।

पृथ्वी ने उस समय गौ का रूप धारण कर रखा था। उसके नेत्रों से आँसू बह-बहकर मुँह पर आ रहे थे। उसका मन तो खिन्न था ही, शरीर भी बहुत कृश हो गया था। वह बड़े करुण स्वर से रँभा रही थी। ब्रह्मा जी के पास जाकर उसने उन्हें अपनी पूरी कष्ट-कहानी सुनायी। ब्रह्मा जी ने बड़ी सहानुभूति के साथ उसकी दुःख-गाथा सुनी। उसके बाद वे भगवान शंकर, स्वर्ग के अन्य प्रमुख देवता तथा गौ के रूप में आयी हुई पृथ्वी को अपने साथ लेकर क्षीर सागर के तट पर गये। भगवान देवताओं के भी आराध्यदेव हैं। वे अपने भक्तों की समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं और उनके समस्त क्लेशों को नष्ट कर देते हैं। वे ही जगत के एक मात्र स्वामी हैं। क्षीर सागर के तट पर पहुँच कर ब्रह्मा आदि देवताओं ने ‘पुरुषसूक्त’ के द्वारा परम पुरुष सर्वान्तर्यामी प्रभु की स्तुति की। स्तुति करते-करते ब्रह्मा जी समाधिस्थ हो गए। उन्होंने समाधि-अवस्था में आकाशवाणी सुनी। इसके बाद जगत के निर्माणकर्ता ब्रह्मा जी ने देवताओं से कहा - ‘देवताओं! मैंने भगवान की वाणी सुनी है। तुम लोग भी उसे मेरे द्वारा अभी सुन लो और फिर वैसा ही करो। उसके पालन में विलम्ब नहीं होना चाहिए। भगवान को पृथ्वी के कष्ट का पहले से ही पता है। वे ईश्वरों के भी ईश्वर हैं। अतः अपनी कालशक्ति के द्वारा पृथ्वी का भार हरण करते हुए वे जब तक पृथ्वी पर लीला करें, तब तक तुम लोग भी अपने-अपने अंशों के साथ यदुकुल में जन्म लेकर उनकी लीला में सहयोग दो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: प्रथम अध्याय: श्लोक 23-39 का हिन्दी अनुवाद)

वसुदेव जी के घर स्वयं पुरुषोत्तम भगवान प्रकट होंगे। उनकी और उनकी प्रियतमा की सेवा के लिए देवांगनाएँ जन्म ग्रहण करें। स्वयंप्रकाश भगवान शेष भी, जो भगवान की कला होने कारण अनंत हैं और जिनके सहस्र मुख हैं, भगवान के प्रिय कार्य करने के लिए उनसे पहले ही उनके बड़े भाई के रूप में अवतार ग्रहण करेंगे। भगवान की वह ऐश्वर्यशालिनी योगमाया भी, जिसने सारे जगत को मोहित कर रखा है, उनकी आज्ञा से उनकी लीला के कार्य सम्पन्न करने के लिए अंशरूप से अवतार ग्रहण करेंगी।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! प्रजापतियों के स्वामी भगवान ब्रह्मा जी ने देवताओं को इस प्रकार आज्ञा दी और पृथ्वी को समझा-बुझा कर ढाढ़स बंधाया। इसके बाद वे अपने परम धाम को चले गए। प्राचीन काल में यदुवंशी राजा थे सूरसेन। वे मथुरापुरी में रहकर माथुरमण्डल और शूरसेनमण्डल का राज्यशासन करते थे। उसी समय से मथुरा ही समस्त यदुवंशी नरपतियों की राजधानी हो गयी थी। भगवान श्रीहरि सर्वदा यहाँ विराजमान रहते हैं। एक बार मथुरा में शूर के पुत्र वसुदेव जी विवाह करके अपनी नव-विवाहिता पत्नी देवकी के साथ घर जाने के लिए रथ पर सवार हुए। उग्रसेन का लड़का था कंस। उसने अपनी चचेरी बहिन देवकी को प्रसन्न करने के लिए उसके रथ के घोड़ों की रास पकड़ ली। वह स्वयं ही रथ हाँकने लगा, यद्यपि उसके साथ सैकड़ों सोने के बने हुए रथ चल रहे थे।

देवकी के पिता थे देवक। अपनी पुत्री पर उनका बड़ा प्रेम था। कन्या को विदा करते समय उन्होंने उसे सोने के हारों से अलंकृत चार सौ हाथी, पंद्रह हज़ार घोड़े, अठारह सौ रथ तथा सुन्दर-सुन्दर दासियाँ दहेज में दीं। विदाई के समय वर-वधू के मंगल के लिए एक ही साथ शंख, तुरही, मृदंग और दुन्दुभियाँ बजने लगीं। मार्ग में जिस समय घोड़ों की रास पकड़कर कंस रथ हाँक रहा था, उस समय आकाशवाणी ने उसे सम्बोधन करके कहा - ‘अरे मूर्ख! जिसको तू रथ में बैठाकर लिए जा रहा है, उसकी आठवें गर्भ की संतान तुझे मार डालेगी।' कंस बड़ा पापी था। उसकी दुष्टता की सीमा नही थी। वह भोजवंश का कलंक ही था। आकाशवाणी सुनते ही उसने तलवार खींच ली और अपनी बहिन की चोटी पकड़कर उसे मारने के लिए तैयार हो गया। वह अत्यन्त क्रूर तो था ही, पाप-कर्म करते-करते निर्लज्ज भी हो गया था। उसका यह काम देखकर महात्मा वसुदेवजी उसको शांत करते हुए बोले -
वसुदेव जी ने कहा ;- 'राजकुमार! आप भोजवंश के होनहार वंशधर तथा अपने कुल की कीर्ति बढ़ाने वाले हैं। बड़े-बड़े शूरवीर आपके गुणों की सराहना करते हैं। इधर यह तो एक स्त्री, दूसरे आपकी बहिन और तीसरे यह विवाह का शुभ अवसर! ऐसी स्थिति में आप इसे कैसे मार सकते हैं ? वीरवर! जो जन्म लेते हैं, उनके शरीर के साथ ही मृत्यु भी उत्पन्न होती है। आज हो या सौ वर्ष के बाद- जो प्राणी है, उसकी मृत्यु होगी ही। जब शरीर का अंत हो जाता है, तब जीव अपने कर्म के अनुसार दूसरे शरीर को ग्रहण करके अपने पहले शरीर को छोड़ देता है। उसे विवश होकर ऐसा करना पड़ता है।'

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: प्रथम अध्याय: श्लोक 40-49 का हिन्दी अनुवाद)

जैसे चलते समय मनुष्य एक पैर जमाकर ही दूसरा पैर उठाता है जैसे जोंक किसी अगले तिनके को पकड़ लेती है, तब पहले के पकड़े हुए तिनके को छोड़ती है - वैसे जीव भी अपने कर्म के अनुसार किसी शरीर को प्राप्त करने के बाद ही इस शरीर को छोड़ता है। जैसे कोई पुरुष जाग्रत-अवस्था में राजा के ऐश्वर्य को देखकर और इन्द्रादि के ऐश्वर्य को सुनकर उसकी अभिलाषा करने लगता है और उसका चिन्तन करते-करते उन्हीं बातों में घुल-मिलकर एक हो जाता है तथा स्वप्न में अपने को राजा या इन्द्र के रूप में अनुभव करने लगता है, साथ ही अपने दरिद्रावस्था के शरीर को भूल जाता है। कभी-कभी जाग्रत अवस्था में ही मन-ही-मन उन बातों का चिन्तन करते-करते तन्मय हो जाता है और उसे स्थूल शरीर की सुधि नहीं रहती। वैसे ही जीव कर्मकृत कामना और कामनाकृत कर्म के वश होकर दूसरे शरीर को प्राप्त हो जाता है और अपने पहले शरीर को भूल जाता है।

जीव का मन अनेक विकारों का पुंज है। देहान्त के समय वह अनेक जन्मों के संचित और प्रारब्ध कर्मों की वासनाओं के अधीन होकर माया के द्वारा रचे हुए अनेक पांचभौतिक शरीरों में से जिस किसी शरीर के चिन्तन में तल्लीन हो जाता है और मान बैठता है कि 'यह मैं हूँ', उसे वही शरीर ग्रहण करके जन्म लेना पड़ता है। जैसे सूर्य, चन्द्रमा आदि चमकीली वस्तुएँ जल से भरे हुए घड़ों में या तेल आदि तरल पदार्थों में प्रतिबिम्बित होती हैं और हवा के झोंके से उनके जल आदि में हिलने-डोलने पर उनमें प्रतिबिम्बित वस्तुएँ भी चंचल जान पड़ती हैं - वैसे ही जीव अपने स्वरूप के अज्ञान द्वारा रचे हुए शरीर में राग करके उन्हें अपना आप मान बैठता है और मोहवश उनके आने-जाने को अपना आना-जाना मानने लगता है। इसलिए जो अपना कल्याण चाहता है, उसे किसी से द्रोह नहीं नहीं करना चाहिए; क्योंकि जीव कर्म के अधीन हो गया है और जो किसी से भी द्रोह करेगा, उसको इस जीवन में शत्रु से और जीवन के बाद परलोक से भयभीत होना ही पड़ेगा ।
कंस! यह आपकी छोटी बहिन अभी बच्ची और बहुत दीन है। यह तो आपकी कन्या के सामान है। इस पर, अभी-अभी इसका विवाह हुआ है, विवाह के मंगलचिह्न भी इसके शरीर से नहीं उतरे हैं। ऐसी दशा में आप-जैसे दीनवत्सल पुरुष को इस बेचारी का वध करना उचित नहीं है।
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इस प्रकार वसुदेवजी ने प्रशंसा आदि सामनीति और भय आदि भेदनीति से कंस को बहुत समझाया। परन्तु वह क्रूर तो राक्षसों का अनुयायी हो रहा था; इसलिए उसने अपने घोर संकल्प को नहीं छोड़ा। वसुदेव जी ने कंस का विकट हठ देखकर यह विचार किया कि किसी प्रकार यह समय तो टाल ही देना चाहिए। तब वे इस निश्चय पर पहुँचे। ‘बुद्धिमान पुरुष को, जहाँ तक उसकी बुद्धि और बल साथ दें, मृत्यु को टालने का प्रयत्न करना चाहिए। प्रयत्न करने पर भी वह न टल सके, तो फिर प्रयत्न करने वाले का कोई दोष नहीं रहता। इसलिए इस मृत्युरूप कंस को अपने पुत्र दे देने की प्रतिज्ञा करके मैं इस दीन देवकी को बचा लूँ। यदि मेरे लड़के होंगे तब तक यह कंस स्वयं नहीं मर जायगा, तब क्या होगा?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: प्रथम अध्याय: श्लोक 50-61 का हिन्दी अनुवाद)

सम्भव है, उल्टा ही हो। मेरा लड़का ही इसे मार डाले! क्योंकि विधाता के विधान का पार पाना बहुत कठिन है। मृत्यु सामने आकर भी टल जाती है और टली हुई भी लौट आती है। जिस समय वन में आग लगती है, उस समय कौन-सी लकड़ी जले और कौन-सी न जले, दूर की जल जाय और पास की बची रहे - इन सब बातों में अदृष्ट के सिवा और कोई कारण नहीं होता। वैसे ही किस प्राणी का कौन-सा शरीर बना रहेगा और किस हेतु से कौन-सा शरीर नष्ट हो जायेगा - इस बात का पता लगा लेना बहुत ही कठिन है। अपनी बुद्धि के अनुसार ऐसा निश्चय करके वसुदेव जी ने बहुत सम्मान के साथ पापी कंस की बड़ी प्रशंसा की। परीक्षित! कंस बड़ा क्रूर और निर्ल्लज था; अतः ऐसा करते समय वसुदेव जी के मन में बड़ी पीड़ा भी हो रही थी। फिर भी उन्होंने ऊपर से अपने मुखकमल को प्रफुल्लित करके हँसते हुए कहा।

वसुदेवजी ने कहा ;- 'सौम्य! आपको देवकी से तो कोई भय है नहीं, जैसा कि आकाशवाणी ने कहा है। भय है पुत्रों से, सो इसके पुत्र मैं आपको लाकर सौंप दूँगा।'

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! कंस जानता था कि वसुदेव जी के वचन झूठे नहीं होते और इन्होंने जो कुछ कहा है, वह युक्तिसंगत भी है। इसलिए उसने अपनी बहिन देवकी को मारने का विचार छोड़ दिया। इससे वसुदेव जी बहुत प्रसन्न हुए और उसकी प्रशंसा करके अपने घर चले आये। देवकी बड़ी सती-साध्वी थी। सारे देवता उसके शरीर में निवास करते थे। समय आने पर देवकी के गर्भ से प्रतिवर्ष एक-एक करके आठ पुत्र तथा एक कन्या उत्पन्न हुई। पहले पुत्र का नाम था कीर्तिमान। वसुदेव जी ने उसे लाकर कंस को दे दिया। ऐसा करते समय उन्हें कष्ट तो अवश्य हुआ, परन्तु उससे भी बड़ा कष्ट उन्हें इस बात का था कि कहीं उनके वचन झूठे न हो जायँ।
परीक्षित! सत्यसन्ध पुरुष बड़े-से-बड़ा कष्ट भी सह लेते हैं, ज्ञानियों को किसी बात की अपेक्षा नहीं होती, नीच पुरुष बुरे-से-बुरे काम भी कर सकते हैं और जो जितेन्द्रिये हैं - जिन्होंने भगवान को हृदय में धारण कर रखा है, वे सब कुछ त्याग सकते हैं। जब कंस ने देखा कि वसुदेव जी का अपने पुत्रों के जीवन और मृत्यु में समान भाव है एवं वे सत्य में पूर्ण निष्ठावान भी हैं, तब वह प्रसन्न हुआ और उनसे हँसकर बोला ;- वसुदेवजी! आप इस नन्हे-से सुकुमार बालक को ले जाइये। इससे मुझे कोई भय नहीं है, क्योंकि आकाशवाणी ने तो ऐसा कहा था कि देवकी के आठवें गर्भ से उत्पन्न सन्तान के द्वारा मेरी मृत्यु होगी।
वसुदेवजी ने कहा ;- ‘ठीक है’ और उस बालक को लेकर वापस लौट आये। परन्तु उन्हें मालूम था कि कंस बड़ा दुष्ट है और उसका मन उसके हाथ में नहीं है। वह किसी भी क्षण बदल सकता है। इसलिए उन्होंने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: प्रथम अध्याय: श्लोक 62-69 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! इधर भगवान नारद कंस के पास आये और उससे बोले कि ‘कंस! ब्रज में रहने वाले नन्द आदि गोप, उनकी स्त्रियाँ, वसुदेव आदि वृष्णिवंशी यादव, देवकी आदि यदुवंश की स्त्रियाँ और नन्द, वसुदेव दोनों के सजातीय बन्धु-बान्धव और सगे-सम्बन्धी सब-के-सब देवता हैं; जो इस समय तुम्हारी सेवा कर रहे हैं, वे भी देवता ही हैं। उन्होंने यह भी बतलाया कि दैत्यों के कारण पृथ्वी का भार बढ़ गया है, इसलिए देवताओं की ओर से अब उनके वध की तैयारी की जा रही है।
जब देवर्षि नारद इतना कहकर चले गये, तब कंस को यह निश्चय हो गया कि यदुवंशी देवता हैं और देवकी के गर्भ से विष्णु भगवान ही मुझे मारने के लिए पैदा होने वाले हैं। इसलिए उसने देवकी और वसुदेव को हथकड़ी-बेड़ी से जकड़ कर क़ैद में डाल दिया और उन दोनों से जो-जो पुत्र होते गए, उन्हें मारता गया। उसे हर बार यह शंका बनी रहती कि कहीं विष्णु ही उस बालक के रूप में न आ गया हो।

परीक्षित! पृथ्वी में यह बात प्रायः देखी जाती है कि अपने प्राणों का ही पोषण करने वाले लोभी राजा अपने स्वार्थ के लिए माता-पिता भाई-बन्धु और अपने अत्यन्त हितैषी इष्ट-मित्रों की भी हत्या कर डालते हैं। कंस जानता था कि मैं पहले कालनेमि असुर था और विष्णु ने मुझे मार डाला था। इससे उसने यदुवंशियों से घोर विरोध ठान लिया। कंस बड़ा बलवान था। उसने यदु, भोज और अन्धक वंश के अधिनायक अपने पिता उग्रसेन को क़ैद कर लिया और शूरसेन- का राज्य वह स्वयं करने लगा।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                      【द्वितीय अध्याय:】२.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वितीय अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"भगवान का गर्भ-प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ-स्तुति"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! कंस एक तो स्वयं ही बड़ा बली था और दूसरे मगध नरेश जरासन्ध की उसे बहुत बड़ी सहायता प्राप्त थी। तीसरे उसके साथ थे - प्रलम्बासुर, बकासुर, चाणूर, तृणावर्त, अघासुर, मुष्टिक, अरिष्टासुर, द्विविद, पूतना, केशी, धेनुक, बाणासुर और भौमासुर आदि बहुत से दैत्य राजा उसके सहायक थे। उनको साथ लेकर वह यदुवंशियों को नष्ट करने लगा।

वे लोग भयभीत होकर कुरु, पंचाल, केकय, शाल्व, विदर्भ, ,निषध, विदेह और कोसल आदि देशों में जा बसे। कुछ लोग ऊपर-ऊपर से उसके मन के अनुसार काम करते हुए उसकी सेवा में लगे रहे। जब कंस ने एक-एक करके देवकी के छः बालक मार डाले, तब देवकी के सातवें गर्भ में भगवान के अंशस्वरूप श्रीशेष जी, जिन्हें अनंत कहते हैं, पधारे। आनन्दस्वरूप शेष जी के गर्भ में आने के कारण देवकी को स्वाभाविक ही हर्ष हुआ। परन्तु कंस शायद इसे भी मार डाले, इस भय से उनका शोक भी बढ़ गया ।

विश्वात्मा भगवान ने देखा कि मुझे ही अपना स्वामी और सर्वस्व मानने वाले यदुवंशी कंस के द्वारा बहुत ही सताये जा रहे हैं। तब उन्होंने अपनी योगमाया को यह आदेश दिया - 'देवि ! कल्याणी ! तुम ब्रज में जाओ ! वह प्रदेश ग्वालों और गौओं से सुशोभित है। वहाँ नन्दबाबा के गोकुल में वसुदेव की पत्नी रोहिणी निवास करती है। उसकी और भी पत्नियाँ कंस से डरकर गुप्त स्थानों में रह रहीं हैं। इस समय मेरा वह अंश जिसे शेष कहते हैं, देवकी के उदर में गर्भ रूप से स्थित है। उसे वहाँ से निकालकर तुम रोहिणी के पेट में रख दो, कल्याणी! अब मैं अपने समस्त ज्ञान, बल आदि अंशों के साथ देवकी का पुत्र बनूँगा और तुम नन्दबाबा की पत्नी यशोदा के गर्भ से जन्म लेना। तुम लोगों को मुँह माँगे वरदान देने में समर्थ होओगी। मनुष्य तुम्हें अपनी समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली जानकर धूप-दीप, नैवेद्य एवं अन्य प्रकार की सामग्रियों से तुम्हारी पूजा करेंगे। पृथ्वी में लोग तुम्हारे लिए बहुत से स्थान बनायेंगे और दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्या, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा और अम्बिका आदि बहुत से नामों से पुकारेंगे। देवकी के गर्भ से खींचे जाने के कारण शेष जी को लोग संसार में ‘संकर्षण’ कहेंगे, लोकरंजन करने के कारण ‘राम’ कहेंगे और बलवानों में श्रेष्ठ होने कारण ‘बलभद्र’ भी कहेंगे।'

जब भगवान ने इस प्रकार आदेश दिया, तब योगमाया ने ‘जो आज्ञा’, ऐसा कहकर उनकी बात शिरोधार्य की और उनकी परिक्रमा करके वे पृथ्वी-लोक में चली आयीं तथा भगवान ने जैसा कहा था वैसे ही किया। जब योगमाया ने देवकी का गर्भ ले जाकर रोहिणी के उदर में रख दिया, तब पुरवासी बड़े दुःख के साथ आपस में कहने लगे ;- 'हाय ! बेचारी देवकी का यह गर्भ तो नष्ट ही हो गया।'
भगवान भक्तों को अभय करने वाले हैं। वे सर्वत्र सब रूप में हैं, उन्हें कहीं आना-जाना नहीं है। इसलिए वे वसुदेव जी के मन में अपनी समस्त कलाओं के साथ प्रकट हो गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वितीय अध्याय: श्लोक 17-26 का हिन्दी अनुवाद)

उसमें विद्यमान रहने पर भी अपने को अव्यक्त से व्यक्त कर दिया। भगवान की ज्योति को धारण करने के कारण वसुदेव सूर्य के सामान तेजस्वी हो गये, उन्हें देखकर लोगों की आँखें चौंधियां जातीं। कोई भी अपने बल, वाणी प्रभाव से उन्हें दबा नहीं सकता था। भगवान के उस ज्योतिर्मय अंश को, जो जगत का परम मंगल करने वाला है, वसुदेव जी के द्वारा आधान किये जाने पर देवी देवकी ने ग्रहण किया। जैसे पूर्व दिशा चन्द्रदेव को धारण करती है, वैसे ही शुद्ध सत्त्व से संपन्न देवी देवकी ने विशुद्ध मन से सर्वात्मा एवं आत्मस्वरूप भगवान को धारण किया। भगवान सारे जगत के निवास स्थान हैं। देवकी उनका भी निवास स्थान बन गयी। परन्तु घड़े आदि के भीतर बंद किये हुए दीपक का और अपनी विद्या दूसरे को न देने वाले ज्ञानखल की श्रेष्ठ विद्या का प्रकाश जैसे चारों ओर नहीं फैलता, वैसे ही कंस के कारागार में बंद देवकी की भी उतनी शोभा नहीं हुई। देवकी के गर्भ में भगवान विराजमान हो गये थे। उसके मुख पर पवित्र मुस्कान थी और उसके शरीर की कान्ति से बंदीगृह जगमगाने लगा था।

जब कंस ने उसे देखा, तब वह मन-ही-मन कहने लगा - अबकी बार मेरे प्राणों के ग्राहक विष्णु ने इसके गर्भ में अवश्य ही प्रवेश किया है; क्योंकि इससे पहले देवकी कभी ऐसी न थी। अब इस विषय में शीघ्र-से-शीघ्र मुझे क्या करना चाहिए? देवकी को मारना तो ठीक न होगा; क्योंकि वीर पुरुष स्वार्थवश अपने पराक्रम को कलंकित नहीं करते। एक तो यह स्त्री है, दूसरे बहिन और तीसरे गर्भवती है। इसको मारने से तो तत्काल ही मेरी कीर्ति, लक्ष्मी और आयु नष्ट हो जायेगी। वह मनुष्य तो जीवित रहने पर भी मरा हुआ ही है, जो अत्यंत क्रूरता का व्यवहार करता है। उसकी मृत्यु के बाद लोग उसे गाली देते हैं। इतना ही नही, वह देहाभिमानियों के योग्य घोर नरक में भी अवश्य जाता है। यद्यपि कंस देवकी को मार सकता था, किन्तु स्वयं ही वह इस अत्यन्त क्रूरता के विचार से निवृत हो गया अब भगवान के प्रति दृढ़ वैर का भाव मन में गाँठकर उनके जन्म की प्रतीक्षा करने लगा। वह उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते और चलते-फिरते-सर्वदा ही श्रीकृष्ण के चिन्तन में लगा रहता। जहाँ उसकी आँख पड़ती, जहाँ कुछ खड़का होता, वहाँ उसे श्रीकृष्ण दीख जाते। इस प्रकार उसे सारा जगत ही श्रीकृष्णमय दीखने लगा।

परीक्षित ! भगवान शंकर और ब्रह्मा जी कंस के क़ैदखाने में आये। उनके साथ नारद आदि ऋषि भी थे। वे लोग सुमधुर वचनों से सबकी अभिलाषा पूर्ण करने वाले श्रीहरि की इस प्रकार स्तुति करने लगे - 'प्रभो ! आप सत्यसंकल्प हैं। सत्य ही आपकी प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन है। सृष्टि के पूर्व, प्रलय के पश्चात और संसार की स्थिति के समय - इन असत्य अवस्थाओं में भी आप सत्य हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच दृश्यमान सत्यों के आप ही कारण हैं और उनमें अन्तर्यामी रूप से विराजमान भी हैं। आप इस दृश्यमान जगत के परमार्थस्वरूप हैं। आप ही मधुर वाणी और समदर्शन के प्रवर्तक हैं। भगवन! आप बस, सत्यस्वरूप ही हैं। हम सब आपकी शरण में आये हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वितीय अध्याय: श्लोक 27-33 का हिन्दी अनुवाद)

यह संसार क्या है-

  • एक सनातन वृक्ष। इस वृक्ष का आश्रय है - प्रकृति।
  • इसके दो फल हैं - सुख और दुःख;
  • तीन जड़ें हैं - सत्त्व, रज और तम;
  • चार रस हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष।
  • इसके जानने के पाँच प्रकार हैं- श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका।
  • इसके छः स्वभाव हैं - पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना और नष्ट हो जाना ।
  • इस वृक्ष की छाल हैं सात धातुएँ - रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र।
  • आठ शाखाएँ हैं - पाँच महाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार।
  • इसमें मुख आदि नवों द्वार खोड़र हैं।
  • प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय - ये दस प्राण ही इसके दस पत्ते हैं।
  • इस संसार रूपी वृक्ष पर दो पक्षी हैं - जीव और ईश्वर।
इस संसार रूप वृक्ष की उत्पत्ति के आधार एकमात्र आप ही हैं। आपमें ही इसका प्रलय होता है और आपके ही अनुग्रह से इसकी रक्षा भी होती है। जिनका चित्त आपकी माया से आवृत हो रहा है, इस सत्य को समझने की शक्ति खो बैठा है - वे ही उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने वाले ब्रह्मादि देवताओं को अनेक देखते हैं। तत्त्वज्ञानी पुरुष तो सबके रूप में केवल आपका ही दर्शन करते हैं। आप ज्ञानस्वरूप आत्मा हैं। चराचर जगत के कल्याण के लिए ही अनेकों रूप धारण करते हैं। आपके वे रूप विशुद्ध अप्राकृत सत्त्वमय होते हैं और संत पुरुषों को बहुत सुख देते हैं। साथ ही दुष्टों को उनकी दुष्टता का दण्ड भी देते हैं। उनके लिए अमंगलमय भी होते हैं। कमल के सामान कोमल अनुग्रह भरे नेत्रों वाले प्रभो ! कुछ बिरले लोग ही आपके समस्त पदार्थों और प्राणियों के आश्रयस्वरूप रूप में पूर्ण एकाग्रता से अपना चित्त लगा पाते हैं और आपके चरणकमल रूपी जहाज का आश्रय लेकर इस संसार सागर को बछड़े के खुर के गड्ढे के समान अनायास ही पार कर जाते हैं। क्यों न हो, अब तक के संतों ने इसी जहाज से संसार-सागर को पार जो किया है।

परम प्रकाशस्वरूप परमात्मन! आपके भक्तजन सारे जगत के निष्कपट प्रेमी, सच्चे हितैषी होते हैं। वे स्वयं तो इस भयंकर और कष्ट से पार करने योग्य संसार सागर को पार कर ही जाते हैं, किन्तु औरों के कल्याण के लिए भी वे यहाँ आपके चरण-कमलों की नौका स्थापित कर जाते हैं। वास्तव में सत्पुरुषों पर आपकी महान कृपा है। उनके लिये आप अनुग्रहस्वरूप ही हैं। कमलनयन! जो लोग आपके चरणकमलों की शरण नहीं लेते तथा आपके प्रति भक्तिभाव से रहित होने के कारण जिनकी बुद्धि भी शुद्ध नहीं है, वे अपने को झूठ-मूठ मुक्त मानते हैं। वास्तव में तो वे बद्ध ही हैं। वे यदि बड़ी तपस्या और साधना का कष्ट उठाकर किसी प्रकार ऊँचे-से-ऊँचे पद पर भी पहुँच जायँ, तो भी वहाँ से नीचे गिर जाते हैं। परन्तु भगवन! जो आपके अपने निज जन हैं, जिन्होंने आपके चरणों में अपनी सच्ची प्रीति जोड़ रखी है, वे कभी उन ज्ञानाभिमानियों की भाँति अपने साधन मार्ग से गिरते नहीं। प्रभो! वे बड़े-बड़े विघ्न डालने वालों की सेना के सरदारों के सर पर पैर रखकर निर्भय विचरते हैं, कोई भी विघ्न उनके मार्ग में रुकावट नहीं डाल सकते; क्योंकि उनके रक्षक आप जो हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वितीय अध्याय: श्लोक 34-42 का हिन्दी अनुवाद)

आप संसार की स्थिति के लिये समस्त देहधारियों को परम कल्याण प्रदान करने वाला विशुद्ध सत्त्वमय, सच्चिदानन्दमय, परम दिव्य मंगल-विग्रह प्रकट करते हैं। उस रूप के प्रकट होने से ही आपके भक्त वेद, कर्मकाण्ड, अष्टांगयोग, तपस्या और समाधि के द्वारा आपकी आराधना करेंगे? प्रभो! आप सबके विधाता हैं। यदि आपका यह विशुद्ध सत्त्वमय निज स्वरूप न हो, तो अज्ञान और उसके द्वारा होने वाले भेदभाव को नष्ट करने वाला अपरोक्ष ज्ञान ही किसी को न हो। जगत में दिखने वाले तीनों गुण आपके हैं और आपके द्वारा ही प्रकाशित होते हैं, यह सत्य है। परन्तु इन गुणों की प्रकाशक वृत्तियों से आपके स्वरूप का केवल अनुमान ही होता है, वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार नहीं होता। भगवन! मन और वेद-वाणी के द्वारा केवल आपके स्वरूप का अनुमान मात्र होता है। क्योंकि आप उनके द्वारा दृश्य नहीं; उनके साक्षी हैं। इसलिए आपके गुण, जन्म और कर्म आदि के द्वारा आपके नाम और रूप का निरूपण नहीं किया जा सकता। फिर भी प्रभो! आपके भक्तजन उपासना आदि क्रियायोगों के द्वारा आपका साक्षात्कार तो करते ही हैं।

जो पुरुष आपके मंगलमय नामों और रूपों का श्रवण, कीर्तन, स्मरण और ध्यान करता है और आपके चरणकमलों की सेवा में ही अपना चित्त लगाये रहता है - उसे फिर जन्म-मृत्यु-रूप संसार के चक्र में नहीं आना पड़ता है। सम्पूर्ण दुःखों को हरने वाले भगवन आप सर्वेश्वर हैं। यह पृथ्वी तो आपका चरणकमल ही है। आपके अवतार से इसका भार दूर हो गया। धन्य हैं! प्रभो! हमारे लिए यह बड़े सौभाग्य की बात है कि हम लोग आपके सुन्दर-सुन्दर चिह्नों से युक्त चरणकमलों के द्वारा विभूषित पृथ्वी को देखेंगे और स्वर्गलोक को भी आपकी कृपा से कृतार्थ देखेंगे।

प्रभो! आप अजन्मा हैं। यदि आपके जन्म के कारण के सम्बन्ध में हम कोई तर्क न करें, तो यही कह सकते हैं कि यह आपका लीला-विनोद है। ऐसा कहने का कारण यह है कि आप तो द्वैत के लेश से रहित सर्वाधिष्ठानस्वरूप हैं और इस जगत की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय अज्ञान के द्वारा आप में आरोपित हैं। प्रभो! आपने जैसे अनेकों बार मत्स्य, हयग्रीव, कच्छप, नृसिंह, वराह, हंस, राम, परशुराम और वामन अवतार धारण करके हम लोगों की और तीनों लोकों की रक्षा की है - वैसे ही आप इस बार भी पृथ्वी का भार हरण कीजिये। यदुनन्दन! हम आपके चरणों में वन्दना करते हैं। देवकीजी को संबोधित करके - 'माताजी! यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आपकी कोख में हम सबका कल्याण करने के लिये स्वयं भगवान पुरुषोत्तम अपने ज्ञान, बल आदि अंशों के साथ पधारे हैं। अब आप कंस से तनिक भी मत डरिये। अब तो वह कुछ ही दिनों का मेहमान है। आपका पुत्र यदुवंश की रक्षा करेगा।'

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! ब्रह्मादि देवताओं ने इस प्रकार भगवान की स्तुति की। उनका रूप ‘यह है’ इस प्रकार निश्चित रूप से तो कहा नहीं जा सकता, सब अपनी-अपनी मति के अनुसार उनका निरूपण करते हैं। इसके बाद ब्रह्मा जी और शंकर जी को आगे करके देवगण स्वर्ग में चले गये।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                      【तृतीय अध्याय:】३.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: तृतीय अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"भगवान श्रीकृष्ण का प्राकट्य"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अब समस्त शुभ गुणों से युक्त बहुत सुहावना समय आया। रोहिणी नक्षत्र था। आकाश के सभी नक्षत्र, ग्रह और तारे शान्त-सौम्य हो रहे थे, दिशाऐं स्वच्छ, प्रसन्न थीं। निर्मल आकाश में तारे जगमगा रहे थे। पृथ्वी के बड़े-बड़े नगर, छोटे-छोटे गाँव, अहीरों की बस्तियाँ और हीरे आदि की खानें मंगलमय हो रहीं थीं। नदियों का जल निर्मल हो गया था। रात्रि के समय भी सरोवरों में कमल खिल रहे थे। वन में वृक्षों की पत्तियाँ रंग-बिरंगे पुष्पों के गुच्छों से लद गयीं थीं। कहीं पक्षी चहक रहे थे, तो कहीं भौंरे गुनगुना रहे थे। उस समय परम पवित्र और शीतल-मंद-सुगन्ध वायु अपने स्पर्श से लोगों को सुखदान करती हुई बह रही थी। ब्राह्मणों के अग्निहोत्र की कभी न बुझने वाली अग्नियाँ जो कंस के अत्याचार से बुझ गयीं थीं, वे इस समय अपने-आप जल उठीं। संत पुरुष पहले से ही चाहते थे कि असुरों की बढ़ती न होने पाये। अब उनका मन सहसा प्रसन्नता से भर गया। जिस समय भगवान के आविर्भाव का अवसर आया, स्वर्ग में देवताओं की दुन्दुभियाँ अपने-आप बज उठीं। किन्नर और गन्धर्व मधुर स्वर में गाने लगे तथा सिद्ध और चारण भगवान के मंगलमय गुणों की स्तुति करने लगे। विद्याधरियाँ अप्सराओं के साथ नाचने लगीं। बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि आनन्द से भरकर पुष्पों को वर्षा करने लगे, जल से भरे हुए बादल समुद्र के पास जाकर धीरे-धीरे गर्जना करने लगे।

जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाले जनार्दन के अवतार का समय था निशीथ। चारों ओर अन्धकार का साम्राज्य था। उसी समय सबके हृदय में विराजमान भगवान विष्णु देवरूपिणी देवकी के गर्भ से प्रकट हुए, जैसे पूर्व दिशा में सोलहों कलाओं से पूर्ण चन्द्रमा का उदय हो गया हो। वसुदेव जी ने देखा, उनके सामने एक अद्भुत बालक है। उसके नेत्र कमल के समान कोमल और विशाल हैं। चार सुन्दर हाथों में शंख, गदा, चक्र और कमल लिये हुए है। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न - अत्यन्त सुन्दर सुवर्णमयी रेखा है। गले में कौस्तुभमणि झिलमिला रही है। वर्षाकालीन मेघ के समान परम सुन्दर श्यामल शरीर पर मनोहर पीताम्बर फहरा रहा है। बहुमूल्य वैदूर्यमणि के किरीट और कुण्डल की कान्ति से सुन्दर-सुन्दर घुँघराले बाल सूर्य की किरणों के सामान चमक रहे हैं। कमर में चमचमाती करधनी की लड़ियाँ लटक रहीं हैं। बाँहों में बाजूबंद और कलाईयों में कंकण शोभायमान हो रहे हैं। इन सब आभूषणों से सुशोभित बालक के अंग-अंग से अनोखी छटा छिटक रही है।

जब वसुदेव जी ने देखा कि मेरे पुत्र के रूप में स्वयं भगवान ही आये हैं, तब पहले तो उन्हें असीम आश्चर्य हुआ; फिर आनन्द से उनकी आँखें खिल उठी। उनका रोम-रोम परमानन्द में मग्न हो गया। श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाने की उतावली में उन्होंने उसी समय ब्राह्मणों के लिए दस हज़ार गायों का संकल्प कर दिया। परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण अपनी अंगकांति से सूतिका गृह को जगमग कर रहे थे। जब वसुदेव जी को यह निश्चय हो गया कि ये तो परम पुरुष परमात्मा ही हैं, तब भगवान का प्रभाव जान लेने से उनका सारा भय जाता रहा। अपनी बुद्धि स्थिर करके उन्होंने भगवान के चरणों में अपना सर झुका दिया और फिर हाथ जोड़कर वे उनकी स्तुति करने लगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: तृतीय अध्याय: श्लोक 13-23 का हिन्दी अनुवाद)

वसुदेव जी ने कहा ;- मैं समझ गया कि आप प्रकृति से अतीत साक्षात पुरुषोत्तम हैं। आपका स्वरूप है- केवल अनुभव और केवल आनन्द। आप समस्त बुद्धियों के एकमात्र साक्षी हैं। आप ही सर्ग के आदि में अपनी प्रकृति से इस त्रिगुणमय जगत की सृष्टि करते हैं। फिर उसमें प्रविष्ट न होने पर भी आप प्रविष्ट के समान जान पड़ते हैं। जैसे जब तक महत्त्व आदि कारण-तत्त्व पृथक-पृथक रहते हैं तब तक उनकी शक्ति भी पृथक होती है; जब वे इन्द्रियादि सोलह विकारों के साथ मिलते हैं, तभी इस ब्रह्माण्ड की रचना करते हैं और इसे उत्पन्न करके इसी में अनुप्रविष्ट-से-जान पड़ते हैं; परन्तु सच्ची बात तो यह है कि वे किसी भी पदार्थ में प्रवेश नहीं करते।

ऐसा होने का कारण यह है कि उनसे बनी हुई जो भी वस्तु हैं, उनमें वे पहले से ही विद्यमान रहते हैं। ठीक वैसे ही बुद्धि के द्वारा केवल गुणों के लक्षणों का ही अनुमान किया जाता है और इन्द्रियों के द्वारा केवल गुणमय विषयों का ही ग्रहण होता है। यद्यपि आप उनमें रहते हैं, फिर भी उन गुणों के ग्रहण से आपका ग्रहण नहीं होता। इसका कारण यह है कि आप सब कुछ हैं, सबके अन्तर्यामी हैं और परमार्थ सत्य, आत्मस्वरूप हैं। गुणों का आवरण आपको ढक नहीं सकता। इसलिए आपमें न बाहर है न भीतर। फिर आप किसमें प्रवेश करेंगे? जो अपने इन दृश्य गुणों को अपने से पृथक मानकर सत्य समझता है, वह अज्ञानी है। क्योंकि विचार करने पर ये देह-गेह आदि पदार्थ वाग्विलास के सिवा और कुछ नही सिद्ध होते। विचार के द्वारा जिस वस्तु का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता, बल्कि जो बाधित हो जाती है, उसको सत्य मानने वाला पुरुष बुद्धिमान कैसे हो सकता है?

प्रभो! कहते हैं कि आप स्वयं समस्त क्रियाओं, गुणों और विकारों से रहित हैं। फिर भी इस जगत की सृष्टि, स्थिति और प्रलय आपसे ही होते हैं। यह बात परम ऐश्वर्यशाली परब्रह्म परमात्मा आपके लिए असंगत नहीं है। क्योंकि तीनों गुणों के आश्रय आप ही हैं, इसलिए उन गुणों के कार्य आदि का आपमें ही आरोप किया जाता है। आप ही तीनों लोकों की रक्षा करने के लिए अपनी माया से सत्त्वमय शुक्लवर्ण धारण करते हैं, उत्पत्ति के लिए रजःप्रधान रक्तवर्णी और प्रलय के समय तमोगुण प्रधान कृष्णवर्ण स्वीकार करते हैं।

प्रभो! आप सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। इस संसार की रक्षा के लिए ही आपने मेरे घर अवतार लिया है। आजकल कोटि-कोटि असुर सेनापतियों ने राजा का नाम धारण कर रखा है और अपने अधीन बड़ी-बड़ी सेनाएँ कर रखी हैं। आप उन सब का संहार करेंगे। देवताओं के भी आराध्यदेव प्रभो! यह कंस बड़ा दुष्ट है। इसे जब मालूम हुआ कि आपका अवतार हमारे घर होने वाला है, तब उसने आपके भय से आपके भाइयों को मार डाला। अभी उसके दूत आपके अवतार का समाचार उसे सुनायेंगे और वह अभी-अभी हाथ में शस्त्र लेकर दौड़ा आयेगा।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इधर देवकी ने देखा कि मेरे पुत्र में तो पुरुषोत्तम भगवान के सभी लक्षण मौजूद हैं। पहले तो उन्हें कंस से कुछ भय मालूम हुआ, परन्तु फिर वे बड़े पवित्र भाव से मुस्कराती हुई स्तुति करने लगीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: तृतीय अध्याय: श्लोक 24-36 का हिन्दी अनुवाद)

माता देवकी ने कहा ;- प्रभो! वेदों ने आपके जिस रूप को अव्यक्त और सबका कारण बतलाया है, जो ब्रह्म, ज्योतिस्वरूप, समस्त गुणों से रहित और विकारहीन हैं, जिसे विशेषणरहित - अनिर्वचनीय, निष्क्रिय एवं केवल विशुद्ध सत्ता के रूप में कहा गया है - वही बुद्धि आदि के प्रकाशक विष्णु आप स्वयं हैं। जिस समय ब्रह्मा की पूरी आयु - दो परार्थ समाप्त हो जाते हैं, काल शक्ति के प्रभाव से सारे लोक नष्ट हो जाते हैं, पंच महाभूत अहंकार में, अहंकार महत्तत्त्व में और महत्तत्त्व प्रकृति में लीन हो जाता है, उस समय एकमात्र आप ही शेष रह जाते हैं, इसी से आपका एक नाम ‘शेष’ भी है। प्रकृति के एकमात्र सहायक प्रभो! निमेष से लेकर वर्षपर्यंत अनेक विभागों में विभक्त जो काल है, जिसकी चेष्टा से यह सम्पूर्ण विश्व सचेष्ट हो रहा है और जिसकी कोई सीमा नहीं है, वह आपकी लीला मात्र है। आप सर्वशक्तिमान और परम कल्याण के आश्रय हैं। मैं आपकी शरण लेती हूँ।

प्रभो! यह जीव मृत्युग्रस्त हो रहा है। यह मृत्युरूप कराल व्याल से भयभीत होकर सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों में भटकता रहा है; परन्तु इसे कभी कहीं भी ऐसा स्थान न मिल सका, जहाँ यह निर्भय होकर रहे। आज बड़े भाग्य से इसे आपके चरणारविन्दों की शरण मिल गयी। अतः अब यह स्वस्थ होकर सुख की नींद सो रहा है। औरों की बात ही क्या, स्वयं मृत्यु भी इससे भयभीत होकर भाग गयी है।

प्रभो! आप हैं भक्त्तभयहारी। और हम लोग इस दुष्ट कंस से बहुत ही भयभीत हैं। अतः आप हमारी रक्षा कीजिये। आपका यह चतुर्भुज दिव्यरूप ध्यान की वस्तु है। इसे केवल मांस-मज्जामय शरीर पर ही दृष्टि रखने वाले देहाभिमानी पुरुषों के सामने प्रकट मत कीजिये। मधुसूदन! इस पापी कंस को यह बात मालूम न हो कि आपका जन्म मेरे गर्भ से हो रहा है। मेरा धैर्य टूट रहा है। आपके लिए मैं कंस से बहुत डर रही हूँ। विश्वात्मन! आपका यह रूप अलौकिक है। आप शंख, चक्र, गदा और कमल की शोभा से युक्त अपना यह चतुर्भुज रूप छिपा लीजिये। प्रलय के समय आप इस सम्पूर्ण विश्व को अपने शरीर में वैसे ही स्वाभाविक रूप से धारण करते हैं, जैसे कोई मनुष्य अपने शरीर में रहने वाले छिद्ररूप आकाश को। वही परम पुरुष परमात्मा आप मेरे गर्भवासी हुए, यह आपकी अद्भुत मनुष्य-लीला नहीं तो और क्या?

श्री भगवान ने कहा ;- देवि! स्वायम्भुव मन्वन्तर में जब तुम्हारा पहला जन्म हुआ था, उस समय तुम्हारा नाम था पृश्र्नि और ये वसुदेव सुतपा नाम के प्रजापति थे। तुम दोनों के हृदय बड़े शुद्ध थे। जब ब्रह्मा जी ने तुम दोनों को संतान उत्पन्न करने की आज्ञा दी, तब तुम लोगों ने इन्द्रियों का दमन करके उत्कृष्ट तपस्या की। तुम दोनों ने वर्षा, वायु, घाम, शीत, उष्ण आदि काल के विभिन्न गुणों को सहन किया और प्राणायाम के द्वारा अपने मन के मैल धो डाले। तुम दोनों कभी सूखे पत्ते खा लेते और कभी हवा पीकर ही रह जाते। तुम्हारा चित्त बड़ा शांत था। इस प्रकार तुम लोगों ने मुझ से अभीष्ट वस्तु प्राप्त करने की इच्छा से मेरी आराधना की। मुझ में चित्त लगाकर ऐसा परम दुष्कर और घोर तप करते-करते देवताओं के बारह हज़ार वर्ष बीत गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: तृतीय अध्याय: श्लोक 37-50 का हिन्दी अनुवाद)

'पुण्यमयी देवि! उस समय मैं तुम दोनों पर प्रसन्न हुआ। क्योंकि तुम दोनों ने तपस्या, श्रद्धा और प्रेममयी भक्ति से अपने हृदय में नित्य-निरन्तर मेरी भावना की थी। उस समय तुम दोनों की अभिलाषा पूर्ण करने के लिए वर देने वालों का राजा मैं इसी रूप से तुम्हारे सामने प्रकट हुआ। जब मैंने कहा कि ‘तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो’, तब तुम दोनों ने मेरे जैसा पुत्र माँगा। उस समय तक विषय-भोगों से तुम लोगों का कोई सम्बन्ध नहीं हुआ था। तुम्हारे कोई सन्तान भी न थी। इसलिए मेरी माया से मोहित होकर तुम दोनों ने मुझ से मोक्ष नहीं माँगा। तुम्हें मेरे जैसा पुत्र होने का वर प्राप्त हो गया और मैं वहाँ से चला गया। अब सफल मनोरथ होकर तुम लोग विषयों का भोग करने लगे। मैंने देखा कि संसार में शील-स्वभाव, उदारता तथा अन्य गुणों में मेरे जैसा दूसरा कोई नहीं है; इसलिए मैं ही तुम दोनों का पुत्र हुआ और उस समय मैं ‘पृश्र्निगर्भ’ के नाम से विख्यात हुआ।

फिर दूसरे जन्म में तुम हुईं अदिति और वसुदेव हुए कश्यप। उस समय भी मैं तुम्हारा पुत्र हुआ। मेरा नाम था ‘उपेन्द्र’। शरीर छोटा होने के कारण लोग मुझे ‘वामन’ भी कहते थे। सती देवकी! तुम्हारे इस तीसरे जन्म में भी मैं उसी रूप से फिर तुम्हारा पुत्र हुआ हूँ । मेरी वाणी सर्वदा सत्य होती है।

मैंने तुम्हें अपना यह रूप इसलिये दिखला दिया है कि तुम्हें मेरे पूर्व अवतारों का स्मरण हो जाय। यदि मैं ऐसा नहीं करता, तो केवल मनुष्य-शरीर से मेरे अवतार की पहचान नहीं हो पाती। तुम दोनों मेरे प्रति पुत्रभाव तथा निरन्तर ब्रह्मभाव रखना। इस प्रकार वात्सल्य-स्नेह और चिन्तन के द्वारा तुम्हें मेरे परम पद की प्राप्ति होगी।'

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- भगवान इतना कहकर चुप हो गये। अब उन्होंने अपनी योगमाया से पिता-माता के देखते-देखते तुरंत एक साधारण शिशु का रूप धारण कर लिया। तब वसुदेव जी ने भगवान की प्रेरणा से अपने पुत्र को लेकर सूतिका गृह से बाहर निकलने की इच्छा की। उसी समय नन्दपत्नी यशोदा के गर्भ से उस योगमाया का जन्म हुआ, जो भगवान की शक्ति होने के कारण उनके समान ही जन्म-रहित है। उसी योगमाया ने द्वारपाल और पुरवासियों की समस्त इन्द्रिय वृत्तियों की चेतना हर ली, वे सब-के-सब अचेत होकर सो गए।

बंदीगृह के सभी दरवाजे बंद थे। उनमें बड़े-बड़े किवाड़, लोहे की जंजीरें और ताले जड़े हुए थे। उनके बाहर जाना बड़ा ही कठिन था; परन्तु वसुदेव जी भगवान श्रीकृष्ण को गोद में लेकर ज्यों ही उनके निकट पहुँचे, त्यों ही वे सब दरवाजे आप-से-आप खुल गए । ठीक वैसे ही, जैसे सूर्योदय होते ही अन्धकार दूर हो जाता है। उस समय बादल धीरे-धीरे गरज कर जल की फुहारें छोड़ रहे थे। इसलिए शेषजी अपने फनों से जल को रोकते हुए भगवान के पीछे-पीछे चलने लगे ।

उन दिनों बार-बार वर्षा होती रहती थी, इस से यमुना जी बहुत बढ़ गयी थीं। उनका प्रवाह गहरा और तेज हो गया था। तरल तरंगों के कारण जल पर फेन-ही-फेन हो रहा था। सैकड़ों भयानक भँवर पड़ रहे थे। जैसे सीतापति भगवान श्रीराम जी को समुद्र ने मार्ग दे दिया था, वैसे ही यमुना जी ने भगवान को मार्ग दे दिया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: तृतीय अध्याय: श्लोक 51-53 का हिन्दी अनुवाद)

वसुदेव जी ने नन्दबाबा के गोकुल में जाकर देखा कि सब-के-सब गोप नींद में अचेत पड़े हुए हैं। उन्होंने अपने पुत्र को यशोदा जी की शैय्या पर सुला दिया और उनकी नवजात कन्या लेकर वे बंदीगृह में लौट आये। जेल में पहुँचकर वसुदेव जी ने उस कन्या को देवकी की शैय्या पर सुला दिया और अपने पैरों में बेड़ियाँ डाल लीं तथा पहले की तरह वे बंदीगृह में बंद हो गये।

उधर नन्दपत्नी यशोदा जी को इतना तो मालूम हुआ कि कोई सन्तान हुई है, परन्तु वे यह न जान सकीं कि पुत्र है या पुत्री। क्योंकि एक तो उन्हें बड़ा परिश्रम हुआ था और दूसरे योगमाया ने उन्हें अचेत कर दिया था ।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                      【चतुर्थ अध्याय:】४.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"कंस के हाथ से छूटकर योगमाया का आकाश में जाकर भविष्यवाणी करना"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब वसुदेव जी लौट आये, तब नगर के बाहरी और भीतरी सब दरवाजे अपने-आप पहले की तरह बंद हो गये। इसके बाद नवजात शिशु के रोने की ध्वनि सुनकर द्वारपालों की नींद टूटी। वे तुरंत भोजराज कंस के पास गये और देवकी को सन्तान होने की बात कही। कंस तो बड़ी आकुलता और घबराहट के साथ इसी बात की प्रतीक्षा कर रहा था। द्वारपालों की बात सुनते ही झटपट पलँग से उठ खड़ा हुआ और बड़ी शीघ्रता से सूतिका गृह की ओर झपटा। इस बार तो मेरे काल का ही जन्म हुआ है, यह सोच कर वह विह्वल हो रहा था और यही कारण है कि उसे इस बात का भी ध्यान न रहा कि उसके बाल बिखरे हुए हैं। रास्ते में कई जगह वह लड़खड़ाकर गिरते-गिरते बचा।

बंदीगृह पहुँचने पर सती देवकी ने बड़े दुःख और करुणा के साथ अपने भाई कंस से कहा ;- ‘मेरे हितैषी भाई! यह कन्या तो तुम्हारी पुत्रवधू के सामान है, स्त्री जाति की है, तुम्हें स्त्री की हत्या कदापि नहीं करनी चाहिए। भैया! तुमने द्वेषवश मेरे बहुत-से अग्नि के समान तेजस्वी बालक मार डाले। अब केवल यही एक कन्या बची है, इसे तो मुझे दे दो। अवश्य ही मैं तुम्हारी छोटी बहिन हूँ। मेरे बहुत-से बच्चे मर गये हैं, इसलिए मैं अत्यन्त दीन हूँ। मेरे प्यारे और समर्थ भाई! तुम मुझ मन्दभागिनी को यह अंतिम सन्तान अवश्य दे दो।'

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! कन्या को अपनी गोद में छिपा कर देवकी जी ने अत्यन्त दीनता के साथ रोते-रोते याचना की। परन्तु कंस बड़ा दुष्ट था। उसने देवकी जी को झिड़ककर उनके हाथ से वह कन्या छीन ली। अपनी उस नन्हीं-सी नवजात भान्जी के पैर पकड़कर कंस ने उसे बड़े ज़ोर से एक चट्टान पर दे मारा। स्वार्थ ने उसके हृदय से सौहार्द को समूल उखाड़ फेंका था। परन्तु श्रीकृष्ण की वह छोटी बहिन साधारण कन्या तो थी नहीं, देवी थी; उसके हाथ से छूटकर तुरंत आकाश में चली गयी और अपने बड़े-बड़े आठ हाथों में आयुध लिये हुए दीख पड़ी। वह दिव्य माला, वस्त्र, चन्दन और मणिमय आभूषणों से विभूषित थी। उसके हाथों में धनुष, त्रिशूल, बाण, ढाल, तलवार, शंख, चक्र और गदा - ये आठ आयुध थे। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, अप्सरा, किन्नर और नागगण बहुत-सी भेंट की सामग्री समर्पित करके उसकी स्तुति करने लगे।

उस समय देवी ने कंस से कहा ;- ‘रे मूर्ख! मुझे मारने से तुझे क्या मिलेगा? तेरे पूर्वजन्म का शत्रु तुझे मारने के लिए किसी स्थान पर पैदा हो चुका है। अब तू व्यर्थ निर्दोष बालकों की हत्या न किया कर। कंस से इस प्रकार कहकर भगवती योगमाया वहाँ से अन्तर्धान हो गयीं और पृथ्वी के अनेक स्थानों में विभिन्न नामों से प्रसिध्द हुईं।

देवी की यह बात सुनकर कंस को असीम आश्चर्य हुआ। उसने उसी समय देवकी और वसुदेव को कैद से छोड़ दिया और बड़ी नम्रता से उनसे कहा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 15-27 का हिन्दी अनुवाद)

मेरी प्यारी बहिन और बहनोई जी- हाय-हाय! मैं बड़ा पापी हूँ। राक्षस जैसे अपने ही बच्चों को मार डालता है वैसे ही मैंने तुम्हारे बहुत-से लड़के मार डाले। इस बात का मुझे बड़ा खेद है। मैं इतना दुष्ट हूँ कि करुणा का तो मुझमें लेश भी नहीं है। मैंने अपने भाई-बन्धु और हितैषियों तक का त्याग कर दिया। पता नहीं, अब मुझे किस नरक में जाना पड़ेगा।

वास्तव में तो मैं ब्रह्मघाती के सामान जीवित होने पर भी मुर्दा ही हूँ। केवल मनुष्य ही झूठ नहीं बोलते, विधाता भी झूठ बोलते हैं। उन्हीं पर विश्वास करके मैंने अपनी बहिन के बच्चे मार डाले। ओह! मैं कितना पापी हूँ। तुम दोनों महात्मा हो। अपने पुत्रों के लिए शोक मत करो। उन्हें तो कर्म का ही फल मिला है। सभी प्राणी प्रारब्ध के अधीन हैं। इसी से वे सदा-सर्वदा एक साथ नहीं रह सकते। जैसे मिट्टी के बने हुए पदार्थ बनते और बिगड़ते रहते हैं, परन्तु मिट्टी में कोई अदल-बदल नहीं होती, वैसे ही शरीर का तो बनना-बिगड़ना होता ही रहता है, परन्तु आत्मा पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। जो लोग तत्त्व को नहीं जानते, वे इस अनात्मा शरीर को ही आत्मा मान बैठते हैं। यही उल्टी बुद्धि अथवा अज्ञान है। इसी के कारण जन्म और मृत्यु होते हैं और जब तक यह अज्ञान नहीं मिटता, तब तक दुःख-सुख रूप संसार से छुटकारा नहीं मिलता।

मेरी प्यारी बहिन! यद्यपि मैंने तुम्हारे पुत्रों को मार डाला है, फिर भी तुम उनके लिये शोक न करो क्योंकि सभी प्राणियों को विवश होकर अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है। अपने स्वरूप को जानने के कारण जीव जब तक यह मानता रहता है कि ‘मैं मारने वाला हूँ, या मारा जाता हूँ’, तब तक शरीर के जन्म और मृत्यु का अभिमान करने वाला वह अज्ञानी बाध्य और बाधक-भाव को प्राप्त होता है। अर्थात यह दूसरों को दुःख देता है और स्वयं दुःख भोगता है। मेरी यह दुष्टता, तुम दोनों क्षमा करो; क्योंकि तुम बड़े ही साधु स्वभाव और दीनों के रक्षक हो। ऐसा कहकर कंस ने अपनी बहिन देवकी और वसुदेव जी के चरण पकड़ लिये। उसकी आँखों से आँसू बह-बहकर मुँह तक आ रहे थे।

इसके बाद उसने योगमाया के वचनों पर विश्वास करके देवकी और वसुदेव को क़ैद से छोड़ दिया और वह तरह-तरह से उनके प्रति अपना प्रेम प्रकट करने लगा। जब देवकी जी ने देखा कि भाई कंस को पश्चाताप हो रहा है, तब उन्होंने उसे क्षमा कर दिया। वे उसके पहले अपराधों को भूल गयीं और वसुदेव जी ने हँसकर कंस से कहा- ‘मनस्वी कंस! आप जो कहते हैं, वह ठीक वैसा ही है। जीव अज्ञान के कारण ही शरीर आदि को ‘मैं’ मान बैठते हैं। इसी से अपने पराये का भेद हो जाता है। और यह भेददृष्टि हो जाने पर तो वे शोक, हर्ष, भय, द्वेष, लोभ, मोह और मद से अन्धे हो जाते हैं। फिर तो उन्हें इस बात का पता ही नहीं रहता कि सबके प्रेरक भगवान ही एक भाव से दूसरे भाव का, एक वस्तु से दूसरी वस्तु का नाश करा रहे हैं।'

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 28-41 का हिन्दी अनुवाद)

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब वसुदेव और देवकी ने इस प्रकार प्रसन्न होकर निष्कपट भाव से कंस के साथ बातचीत की, तब उनसे अनुमति लेकर वह अपने महल में चला गया।

वह रात्रि बीत जाने पर कंस ने अपने मन्त्रियों को बुलाया और योगमाया ने जो कुछ कहा था, वह सब उन्हें कह सुनाया। कंस के मन्त्री पूर्णतया नीति निपुण नहीं थे। दैत्य होने के कारण स्वभाव से ही वे देवताओं के प्रति शत्रुता का भाव रखते थे। अपने स्वामी कंस की बात सुनकर वे देवताओं पर और भी चिढ़ गये और कंस से कहने लगे। भोजराज! यदि ऐसी बात है तो हम आज ही बड़े-बड़े नगरों में, छोटे-छोटे गाँवों में, अहीरों की बस्तियों में और दूसरे स्थानों में जितने बच्चे हुए हैं, वे चाहे दस दिन से अधिक के हों या कम के, सबको आज ही मार डालेंगे। समरभीरु देवगण युद्धोद्योग करके ही क्या करेंगे? वे तो आपके धनुष की टंकार सुनकर ही सदा-सर्वदा घबराये रहते हैं।

जिस समय युद्धभूमि में आप चोट-पर-चोट करने लगते हैं, बाण-वर्षा से घायल होकर अपने प्राणों की रक्षा के लिए समरांगण छोड़कर देवता लोग पलायन-परायण होकर इधर-उधर भाग जाते हैं। कुछ देवता तो अपने अस्त्र-शस्त्र जमीन पर डाल देते हैं और हाथ जोड़कर आपके सामने अपनी दीनता प्रकट करने लगते हैं। कोई-कोई अपनी चोटी के बाल तथा कच्छ खोलकर आपकी शरण में आकर कहते हैं- 'हम भयभीत हैं, हमारी रक्षा कीजिये। आप उन शत्रुओं को नहीं मारते जो अस्त्र-शस्त्र भूल गये हों, जिनका रथ टूट गया हो, जो डर गये हों, जो लोग युद्ध छोड़कर अन्यमनस्क हो गये हों, जिनका धनुष टूट गया हो या जिन्होंने युद्ध से अपना मुख मोड़ लिया हो, उन्हें भी आप नहीं मारते।'

देवता तो बस वहीं वीर बनते हैं, जहाँ कोई लड़ाई-झगड़ा न हो। रणभूमि के बाहर वे बड़ी-बड़ी डींग हाँकते हैं। उनसे तथा एकान्तवासी विष्णु, वनवासी शंकर, अल्पवीर्य इन्द्र और तपस्वी ब्रह्मा से भी हमें क्या भय हो सकता है? फिर भी देवताओं की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, ऐसी हमारी राय है क्योंकि हैं तो वे शत्रु ही। इसलिए उनकी जड़ उखाड़ फेंकने के लिए आप हम जैसे विश्वासपात्र सेवकों को नियुक्त कर दीजिये।

जब मनुष्य के शरीर में रोग हो जाता है और उसकी चिकित्सा नहीं की जाती, उपेक्षा कर दी जाती है, तब रोग अपनी जड़ जमा लेता है और फिर वह असाध्य हो जाता है अथवा जैसे इन्द्रियों की उपेक्षा कर देने पर उनका दमन असंभव हो जाता है, वैसे ही यदि पहले शत्रु की उपेक्षा कर दी जाय और वह अपना पाँव जमा ले, तो फिर उसको हराना कठिन हो जाता है। देवताओं की जड़ है विष्णु और वह वहाँ रहता है, जहाँ सनातन धर्म है। सनातन धर्म की जड़ है - वेद, गौ, ब्राह्मण, तपस्या और वे यज्ञ, जिसमें दक्षिणा दी जाती है। इसलिए भोजराज! हमलोग वेदवादी ब्राह्मण, तपस्वी, याज्ञिक और यज्ञ के लिए घी आदि हविष्य पदार्थ देने वाली गायों का पूर्णरूप से नाश कर डालेंगे। ब्राह्मण, गौ, वेद, तपस्या, सत्य, इन्द्रियदमन, मनोनिग्रह, श्रद्धा, दया, तितिक्षा और यज्ञ विष्णु के शरीर हैं ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्थ अध्याय: श्लोक 42-46 का हिन्दी अनुवाद)

वह विष्णु ही सारे देवताओं का स्वामी तथा असुरों का प्रधान द्वेषी है। परन्तु वह किसी गुफ़ा में छिपा रहता है। महादेव, ब्रह्मा और सारे देवताओं की जड़ वही है। उसको मार डालने का उपाय यह है कि ऋषियों को मार डाला जाय।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! एक तो कंस की बुद्धि स्वयं ही बिगड़ी हुई थी, फिर उसे मन्त्री ऐसे मिले थे, जो उससे भी बढ़कर दुष्ट थे। इस प्रकार उनसे सलाह करके काल के फन्दे में फँसे हुए असुर कंस ने यही ठीक समझा कि ब्राह्मणों को ही मार डाला जाय। उसने हिंसा प्रेमी राक्षसों को संत पुरुषों की हिंसा करने का आदेश दे दिया। वे इच्छानुसार रूप धारण कर सकते थे। जब वे इधर-उधर चले गये, तब कंस ने अपने महल में प्रवेश किया। उन असुरों की प्रकृति थी रजोगुणी। तमोगुण के कारण उनका चित्त उचित और अनुचित के विवेक से रहित हो गया था। उनके सर पर मौत नाच रही थी। यही कारण है कि उन्होंने संतों से द्वेष किया।

परीक्षित! जो लोग महान संत पुरुषों का अनादर करते हैं, उनका यह कुकर्म उनकी आयु, लक्ष्मी, कीर्ति, धर्म, लोक-परलोक विषय-भोग और सब-के-सब कल्याण के साधनों को नष्ट कर देता है।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                      【पञ्चम अध्याय:】५.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"गोकुल में भगवान का जन्म महोत्सव"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! नन्दबाबा बड़े मनस्वी और उदार थे। पुत्र का जन्म होने पर तो उनका हृदय विलक्षण आनन्द से भर गया। उन्होंने स्नान किया और पवित्र होकर सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये। फिर वेदज्ञ ब्राह्मणों को बुला कर स्वस्तिवाचन और अपने पुत्र का जातकर्म-संस्कार करवाया। साथ ही देवता और पितरों की विधिपूर्वक पूजा भी करवायी। उन्होंने ब्राह्मणों को वस्त्र और आभूषणों से सुसज्जित दो लाख गायें दान कीं। रत्नों और सुनहरे वस्त्रों से ढके हुए तिल के सात पहाड़ दान किये। समय से, स्नान से, प्रक्षालन से, संस्कारों से, तपस्या से, यज्ञ से, दान से, और संतोष से द्रव्य शुद्ध होते हैं। परन्तु आत्मा की शुद्धि तो आत्मज्ञान से ही होती है।

उस समय ब्राह्मण, सूत, मागध और वंदीजन मंगलमय आशीर्वाद देने तथा स्तुति करने लगे। गायक गाने लगे। भेरी और दुन्दुभियाँ बार-बार बजने लगीं। ब्रजमण्डल के सभी घरों के द्वार, आँगन और भीतरी भाग झाड़-बुहार दिये गये, उनमें सुगन्धित जल का छिड़काव किया गया; उन्हें चित्र-विचित्र, ध्वजा-पताका, पुष्पों की मालाओं, रंग-बिरंगे वस्त्र और पल्लवों की बन्दनवारों से सजाया गया। गाय, बैल और बछड़ों के अंगों में हल्दी-तेल का लेप कर दिया गया और उन्हें गेरू आदि रंगीन धातुएँ, मोरपंख, फूलों के हार, तरह-तरह के सुन्दर वस्त्र और सोने की जंजीरों से सजा दिया गया। परीक्षित! सभी ग्वाल बहुमूल्य वस्त्र, गहने, अँगरखे और पगड़ियों से सुसज्जित होकर और अपने हाथों में भेंट की बहुत-सी सामग्रियाँ ले-लेकर नन्दबाबा के घर आये।

यशोदा जी के पुत्र हुआ है, यह सुनकर गोपियों को भी बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने सुन्दर-सुन्दर वस्त्र, आभूषण और अंजन आदि से अपना श्रृंगार किया। गोपियों के मुखकमल बड़े ही सुन्दर जान पड़ते थे। उन पर लगी हुई कुमकुम ऐसी लगती मानो कमल की केसर हो। उनके नितम्ब बड़े-बड़े थे। वे भेंट की सामग्री ले-लेकर जल्दी-जल्दी यशोदा जी के पास चलीं। उस समय उनके पयोधर हिल रहे थे।

गोपियों के कानों में चमकती हुई मणियों के कुण्डल झिलमिला रहे थे। गले में सोने के हार जगमगा रहे थे। वे बड़े सुन्दर-सुन्दर रंग-बिरंगे वस्त्र पहने हुए थीं। मार्ग में उनकी चोटियों में गुँथे हुए फूल बरसते जा रहे थे। हाथों में जड़ाऊ कंगन अलग ही चमक रहे थे। उनके कानों के कुण्डल, पयोधर और हार हिलते जाते थे। इस प्रकार नन्दबाबा के घर जाते समय उनकी शोभा बड़ी अनूठी जान पड़ती थी। नन्दबाबा के घर जाकर वे नवजात शिशु को आशीर्वाद देतीं ‘यह चिरजीवी हो, भगवन! इसकी रक्षा करो।’ और लोगों पर हल्दी-तेल से मिला हुआ पानी छिड़क देतीं तथा ऊँचे स्वर से मंगलगान करतीं थीं।

भगवान श्रीकृष्ण समस्त जगत के एकमात्र स्वामी हैं। उनके ऐश्वर्य, माधुर्य, वात्सल्य - सभी अनन्त हैं। वे जब नन्दबाबा के ब्रज में प्रकट हुए, उस समय उनके जन्म का महान उत्सव मनाया गया। उनमें बड़े-बड़े विचित्र और मंगलमय बाजे बजाये जाने लगे। आनन्द से मतवाले होकर गोपगण एक-दूसरे पर दही, दूध, घी और पानी उड़ेलने लगे। एक-दूसरे के मुँह पर मक्खन मलने लगे और मक्खन फेंक-फेंककर आनन्दोत्सव मनाने लगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचम अध्याय: श्लोक 15-27 का हिन्दी अनुवाद)

नन्दबाबा स्वाभाव से ही परम उदार और मनस्वी थे। उन्होंने गोपों को बहुत-से वस्त्र, आभूषण और गायें दीं। सूत-मागध-वंदीजन नृत्य, वाद्य आदि विद्याओं से अपना जीवन-निर्वाह करने वालों तथा दूसरे गुणीजनों को भी नन्दबाबा ने प्रसन्नतापूर्वक उनकी मुँह माँगी वस्तुऐं देकर उनका यथोचित सत्कार किया। यह सब करने में उनका उद्देश्य यही था कि इन कर्मों से भगवान विष्णु प्रसन्न हों और मेरे इस नवजात शिशु का मंगल हो। नन्दबाबा के अभिनन्दन करने पर परम सौभाग्यवती रोहिणी जी दिव्य वस्त्र, माला और गले के भाँति-भाँति के गहनों से सुसज्जित होकर गृहस्वामिनियों की भाँति आने-जाने वाली स्त्रियों का सत्कार करती हुईं विचर रहीं थीं। परीक्षित! उसी दिन से नन्दबाबा के ब्रज में सब प्रकार की ऋद्धि-सिद्धियाँ अठखेलियाँ करने लगीं और भगवान श्रीकृष्ण के निवास तथा अपने स्वाभाविक गुणों के कारण वह लक्ष्मीजी का क्रीड़ास्थल बन गया ।

परीक्षित! कुछ दिनों के बाद नन्दबाबा ने गोकुल की रक्षा का भार दूसरे गोपों को सौंप दिया और वे स्वयं कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये। जब वसुदेवजी को यह मालूम हुआ कि हमारे भाई नन्दजी मथुरा आये हैं और राजा कंस को उसका कर भी दे चुके हैं, तब वे जहाँ नन्दबाबा ठहरे हुए थे, वहाँ गये। वसुदेवजी को देखते ही नन्द जी सहसा उठकर खड़े हो गए मानों मृतक शरीर में प्राण आ गया हो। उन्होंने बड़े प्रेम से अपने प्रियतम वसुदेवजी को दोनों हाथों से पकड़कर हृदय से लगा लिया। नन्दबाबा उस समय प्रेम से विह्वल हो रहे थे। परीक्षित! नन्दबाबा ने वसुदेवजी का बड़ा स्वागत-सत्कार किया। वे आदरपूर्वक आराम से बैठ गये। उस समय उनका चित्त अपने पुत्र में लग रहा था।

वे नन्दबाबा से कुशलमंगल पूछकर कहने लगे(वसुदेवजी ने कहा)- ‘भाई! तुम्हारी अवस्था ढल चली थी और अब तक तुम्हें कोई संतान नहीं हुई थी। यहाँ तक कि अब तुम्हें सन्तान की कोई आशा भी न थी। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि अब तुम्हें सन्तान प्राप्त हो गयी। यह भी बड़े आनन्द का विषय है कि आज हम लोगों का मिलना हो गया। अपने प्रेमियों का मिलना भी बड़ा दुर्लभ है। इस संसार का चक्र ही ऐसा है। इसे तो एक प्रकार का पुनर्जन्म ही समझना चाहिए। जैसे नदी के प्रबल प्रवाह में बहते हुए बेड़े और तिनके सदा एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही सगे-सम्बन्धी और प्रेमियों का भी एक स्थान पर रहना सम्भव नहीं है - यद्यपि वह सबको प्रिय लगता है। क्योंकि सबके प्रारब्ध कर्म अलग-अलग होते हैं। आजकल तुम जिस महावन में अपने भाई-बन्धु और स्वजनों के साथ रहते हो, उसमें जल, घास और लता-पत्रादि तो भरे-पूरे हैं न? वह वन पशुओं के लिए अनुकूल और सब प्रकार के रोगों से बचा है? भाई! मेरा लड़का अपनी माँ (रोहिणी) के साथ तुम्हारे ब्रज में रहता है। उसका लालन-पालन तुम और यशोदा करते हो, इसलिए वह तो तुम्हीं को अपने पिता-माता मानता होगा। वह अच्छी तरह है न?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचम अध्याय: श्लोक 28-32 का हिन्दी अनुवाद)

मनुष्य के लिए वे ही धर्म, अर्थ और काम शास्त्रविहित हैं, जिनसे उसके स्वजनों को सुख मिले। जिनसे केवल अपने को ही सुख मिलता है; किन्तु अपने स्वजनों को दुःख मिलता है, वे धर्म, अर्थ और काम हितकारी नहीं हैं।

नन्दबाबा ने कहा ;- भाई वसुदेव! कंस ने देवकी के गर्भ से उत्पन्न तुम्हारे कई पुत्र मार डाले। अन्त में एक सबसे छोटी कन्या बच रही थी, वह भी स्वर्ग सिधार गयी। इसमें संदेह नहीं कि प्राणियों का सुख-दुःख भाग्य पर ही अवलम्बित हैं। भाग्य ही प्राणी का एकमात्र आश्रय है। जो जान लेता है कि जीवन के सुख-दुःख का कारण भाग्य ही है, वह उनके प्राप्त होने पर मोहित नहीं होता ।

वसुदेवजी ने कहा ;- भाई! तुमने राजा कंस को उसका सालाना कर चुका दिया। हम दोनों मिल भी चुके। अब तुम्हें यहाँ अधिक दिन नहीं ठहरना चाहिए, क्योंकि आजकल गोकुल में बड़े-बड़े उत्पात हो रहे हैं।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब वसुदेव जी ने इस प्रकार कहा, तब नन्द आदि गोपों ने उनसे अनुमति लेकर, बैलों से जुते हुए छकड़ों पर सवार होकर गोकुल की यात्रा की।

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