सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( चतुर्थ स्कन्धः ) का सोलहवाँ , सत्रहवाँ, अठारहवाँ, उन्नीसवाँ व बीसवाँ अध्याय [ The Sixteenth, seventeenth, eighteenth, Nineteenth and twentieth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (fourth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( चतुर्थ स्कन्धः ) का सोलहवाँ , सत्रहवाँ, अठारहवाँ, उन्नीसवाँ व बीसवाँ अध्याय [ The Sixteenth, seventeenth, eighteenth, Nineteenth and twentieth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (fourth wing) ]


                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【षोडश अध्याय:】१६.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"वन्दीजन द्वारा महाराज पृथु की स्तुति"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- महाराज पृथु ने जब इस प्रकार कहा, तब उनके वचनामृत का आस्वादन करके सूत आदि गायक लोग बड़े प्रसन्न हुए। फिर वे मुनियों की प्रेरणा से उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे। ‘आप साक्षात् देवप्रवर श्रीनारायण ही हैं’, जो अपनी माया से अवतीर्ण हुए हैं; हम आपकी महिमा का वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं। आपने जन्म तो राजा वेन के मृतक शरीर से लिया है, किन्तु आपके पौरुषों का वर्णन करने में साक्षात् ब्रह्मादि की बुद्धि भी चकरा जाती है। तथापि आपके कथामृत के आस्वादन में आदर-बुद्धि रखकर मुनियों के उपदेश के अनुसार उन्हीं की प्रेरणा से हम आपके परम प्रशंसनीय कर्मों का कुछ विस्तार करना चाहते हैं, आप साक्षात् श्रीहरि के कलावतार हैं और आपकी कीर्ति बड़ी उदार है।

‘ये धर्मधारियों में श्रेष्ठ महाराज पृथु लोक को धर्म में प्रवृत्त करके धर्ममर्यादा की रक्षा करेंगे तथा उसके विरोधियों को दण्ड देंगे। ये अकेले ही समय-समय पर प्रजा के पालन, पोषण और अनुरंजन आदि कार्य के अनुसार अपने शरीर में भिन्न-भिन्न लोकपालों की मूर्ति को धारण करेंगे तथा यज्ञ आदि के प्रचार द्वरा स्वर्गलोक और वृष्ठि की व्यवस्था द्वारा भूलोक- दोनों का ही हित साधन करेंगे। ये सूर्य के समान अलौकिक, महिमान्वित, प्रतापवान् और समदर्शी होंगे। जिस प्रकार सूर्य देवता आठ महीने तपते रहकर जल खींचते हैं और वर्षा-ऋतु में उसे उड़ेल देते हैं, उसी प्रकार ये कर आदि के द्वारा कभी धन-संचय करेंगे और कभी उसका प्रजा के हित के लिये व्यय कर डालेंगे। ये बड़े दयालु होंगे। यदि कभी कोई दीनपुरुष इनके मस्तक पर पैर भी रख देगा, तो भी ये पृथ्वी के समान उसके इस अनुचित व्यवहार को सदा सहन करेंगे।
कभी वर्षा न होगी और प्रजा के प्राण संकट में पड़ जायेंगे, तो ये राजवेषधारी श्रीहरि इन्द्र की भाँति जल बरसाकर अनायास ही उसकी रक्षा कर लेंगे। ये अपने अमृतमय मुखचन्द्र की मनोहर मुस्कान और प्रेमभरी चितवन से सम्पूर्ण लोकों को आनन्दमग्न कर देंगे। इनकी गति को कोई समझ न सकेगा, इनके कार्य भी गुप्त होंगे तथा उन्हें सम्पन्न करने का ढंग भी बहुत गम्भीर होगा। इनका धन सदा सुरक्षित रहेगा। ये अनन्त माहात्म्य और गुणों के एकमात्र आश्रय होंगे। इस प्रकार मनस्वी पृथु साक्षात् वरुण के ही समान होंगे।

‘महाराज पृथु वेनरूप अरणि के मन्थन से प्रकट हुए अग्नि के समान हैं। शत्रुओं के लिये ये अत्यन्त दुर्धर्ष और दुःसह होंगे। ये उनके समीप रहने पर भी, सेनादि से सुरक्षित रहने के कारण, बहुत दूर रहने वाले-से होंगे। शत्रु कभी इन्हें हरा न सकेंगे। जिस प्रकार प्राणियों के भीतर रहने वाला प्राणरूप सूत्रात्मा शरीर के भीतर-बाहर के समस्त व्यापारों को देखते रहने पर भी उदासीन रहता है, उसी प्रकार ये गुप्तचरों के द्वारा प्राणियों के गुप्त और प्रकट सभी प्रकार के व्यापार देखते हुए भी अपनी निन्दा और स्तुति आदि के प्रति उदासीनवत् रहेंगे। ये धर्ममार्ग में स्थित रहकर अपने शत्रु के पुत्र को भी, दण्डनीय न होने पर, कोई न दण्ड ने देंगे और दण्डनीय होने पर तो अपने पुत्र को भी दण्ड देंगे। भगवान् सूर्य मानसोत्तर पर्वत तक जितने प्रदेश को अपनी किरणों से प्रकाशित करते हैं, उस सम्पूर्ण क्षेत्र में इनका निष्कण्टक राज्य रहेगा। ये अपने कार्यों से सब लोकों को सुख पहुँचावेंगे- उनका रंजन करेंगे; इससे उन मनोरंजनात्मक व्यापारों के कारण प्रजा इन्हें ‘राजा’ कहेगी। ये बड़े दृशसंकल्प, सत्यप्रतिज्ञ, ब्राह्मण भक्त, वृद्धों की सेवा करने वाले, शरणागतवत्सल, सब प्राणियों को मान देने वाले और दीनों पर दया करने वाले होंगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 17-27 का हिन्दी अनुवाद)

ये परस्त्री में माता के समान भक्ति रखेंगे, पत्नी को अपने आधे अंग के समान मानेंगे, प्रजा पर पिता के समान प्रेम रखेंगे और और ब्रह्मवादियों के सेवक होंगे। दूसरे प्राणी इन्हें उतना ही चाहेंगे, जितना अपने शरीर को। ये सुहृदों के आनन्द को बढ़ायेंगे। ये सर्वदा वैराग्यवान् पुरुषों से विशेष प्रेम करेंगे और दुष्टों को दण्डपाणि यमराज के समान सदा दण्ड देने के लिये उद्यत रहेंगे।

‘तीनों गुणों के अधिष्ठाता और निर्विकार साक्षात् श्रीनारायण ने ही इनके रूप में अपने अंश से अवतार लिया है, जिनमें पण्डित लोग अविद्यावश प्रतीत होने वाले इस नानात्व को मिथ्या ही समझते हैं। ये अद्वितीय वीर और एकच्छत्र सम्राट् होकर अकेले ही उदयाचलपर्यन्त समस्त भूमण्डल की रक्षा करेंगे तथा अपने जयशील रथ पर चढ़कर धनुष हाथ में लिये सूर्य के समान सर्वत्र प्रदक्षिणा करेंगे। उस समय जहाँ-तहाँ सभी लोकपाल और पृथ्वीपाल इन्हें भेंटे समर्पण करेंगे, उनकी स्त्रियाँ इनका गुणगान करेंगी और इन आदिराज को साक्षात् श्रीहरि ही समझेंगी।

ये प्रजापालक राजाधिराज होकर प्रजा के जीवन-निर्वाह के लिये गोरूपधारिणी पृथ्वी का दोहन करेंगे और इन्द्र के समान अपने धनुष के कोनों से बातों-की-बात में पर्वतों को तोड़-फोड़कर पृथ्वी को समतल कर देंगे। रणभूमि में कोई भी इनका वेग नहीं सह सकेगा। जिस समय वे जंगल में पूँछ उठाकर विचरते हुए सिंह के समान अपने ‘आजगव’ धनुष का टंकार करते हुए भूमण्डल में विचरेंगे, उस समय सभी दुष्टजन इधर-उधर छिप जायेंगे। ये सरस्वती के उद्गम स्थान पर सौ अश्वमेध यज्ञ करेंगे। तब अन्तिम यज्ञानुष्ठान के समय इन्द्र इनके घोड़े को हरकर ले जायेंगे। अपने महल के बगीचे में इनकी एक बार भगवान् सनत्कुमार से भेंट होगी। अकेले उनकी भक्तिपूर्वक सेवा करके ये उस निर्मल ज्ञान को प्राप्त करेंगे, जिससे परब्रह्म की प्राप्ति होती है।

इस प्रकार जब इनके पराक्रम जनता के सामने आ जायेंगे, अब ये परमपराक्रमी महाराज जहाँ-तहाँ अपने चरित्र की ही चर्चा सुनेंगे। इनकी आज्ञा का विरोध कोई भी न कर सकेगा तथा ये सारी दिशाओं को जीतकर और अपने तेज से प्रजा के क्लेशरूप काँटे को निकालकर सम्पूर्ण भूमण्डल के शासक होंगे। उस समय देवता और असुर भी इनके विपुल प्रभाव का वर्णन करेंगे’।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【सप्तदश अध्याय:】१७.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"महाराज पृथु का पृथ्वी पर कुपित होना और पृथ्वी के द्वारा उनकी स्तुति करना"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- इस प्रकार जब वन्दीजन ने महराज पृथु के गुण और कर्मों का बखान करके उनकी प्रशंसा की, तब उन्होंने भी उनकी बड़ाई करके तथा उन्हें मनचाही वस्तुएँ देकर सन्तुष्ट किया। उन्होंने ब्राह्मणादि चारों वर्णों, सेवकों, मन्त्रियों, पुरोहितों, पुरवासियों, देशवासियों, भिन्न-भिन्न व्यवसायियों तथा अन्यान्य आज्ञानुवर्तियों का भी सत्कार किया।

विदुर जी ने पूछा ;- ब्रह्मन्! पृथ्वी तो अनेक रूप धारण कर सकती है, उसने गौ का रूप ही क्यों धारण किया? और जब महाराज पृथु ने उसे दुहा, तब बछड़ा कौन बना? और दुहने का पात्र क्या हुआ? पृथ्वी देवी तो पहले स्वभाव से ही ऊँची-नीची थी। उसे उन्होंने समतल किस प्रकार किया और इन्द्र उनके यज्ञसम्बन्धी घोड़े को क्यों हर ले गये? ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ भगवान् सनत्कुमार जी से ज्ञान और विज्ञान प्राप्त करके वे राजर्षि किस गति को प्राप्त हुए? पृथुरूप से सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने ही अवतार ग्रहण किया था; अतः पुण्यकीर्ति श्रीहरि के उस पृथु-अवतार से सम्बन्ध रखने वाले जो और भी पवित्र-चरित्र हों, वे सभी आप मुझसे कहिये। मैं आपका और श्रीकृष्णचन्द्र का बड़ा अनुरक्त भक्त हूँ।

श्रीसूत जी कहते हैं ;- जब विदुर जी ने भगवान् वासुदेव की कथा कहने के लिये इस प्रकार प्रेरणा की, तब श्रीमैत्रेय जी प्रसन्नचित्त से उनकी प्रशंसा करते हुए कहने लगे।

श्रीमैत्रेय जी ने कहा ;- विदुर जी! ब्राह्मणों ने महाराज पृथु का राज्याभिषेक करके उन्हें प्रजा का रक्षक उद्घोषित किया। इन दिनों पृथ्वी अन्नहीन हो गयी थी, इसलिये भूख के कारण प्रजाजनों के शरीर सूखकर काँटे हो गये थे। ‘राजन्! जिस प्रकार कोटर में सुलगती हुई आग से पेड़ जल जाता है, उसी प्रकार हम पेट की भीषण ज्वाला से जले जा रहे हैं। आप शरणागतों की रक्षा करने वाले हैं और हमारे अन्नदाता प्रभु बनाये गये हैं, इसलिये हम आपकी शरण में आये हैं। आप समस्त लोकों की रक्षा करने वाले हैं, आप ही हमारी जीविका के भी स्वामी हैं। अतः राजराजेश्वर! आप हम क्षुधापीड़ितों को शीघ्र ही अन्न देने का प्रबन्ध कीजिये; ऐसा न हो कि अन्न मिलने से पहले ही हमारा अन्त हो जाये’।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- कुरुवर! प्रजा का करुणक्रन्दन सुनकर महाराज पृथु बहुत देर तक विचार करते रहे। अन्त में उन्हें अन्नाभाव का कारण मालूम हो गया। ‘पृथ्वी ने स्वयं ही अन्न एवं औषधादि को अपने भीतर छिपा लिया है’ अपनी बुद्धि से इस बात का निश्चय करके उन्होंने अपना धनुष उठाया और त्रिपुरविनाशक भगवान् शंकर के समान अत्यन्त क्रोधित होकर पृथ्वी को लक्ष्य बनाकर बाण चढ़ाया। उन्हें शस्त्र उठाये देख पृथ्वी काँप उठी और जिस प्रकार व्याध के पीछा करने पर हरिणी भागती है, उसी प्रकार वह डरकर गौ का रूप धारण करके भागने लगी। यह देखकर महाराज पृथु की आँखें क्रोध से लाल हो गयीं। वे जहाँ-तहाँ पृथ्वी गयी, वहाँ-वहाँ धनुष पर बाण चढ़ाये उसके पीछे लगे रहे। दिशा, विदिशा, स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्ष में जहाँ-जहाँ भी वह दौड़कर जाती, वहीं उसे महाराज पृथु हथियार उठाये अपने पीछे दिखायी देते। जिस प्रकार मनुष्य को मृत्यु से कोई नहीं बचा सकता, उसी प्रकार उसे त्रिलोकी में वेनपुत्र पृथु से बचाने वाला कोई भी न मिला।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 18-36 का हिन्दी अनुवाद)

तब वह अत्यन्त भयभीत होकर दुःखित चित्त से पीछे की ओर लौटी और महाभाग पृथु जी से कहने लगी- ‘धर्म के तत्त्व को जानने वाले शरणागतवत्सल राजन्! आप तो सभी प्राणियों की रक्षा करने में तत्पर हैं, आप मेरी भी रक्षा कीजिये। मैं अत्यन्त दीन और निरपराध हूँ, आप मुझे क्यों मरना चाहते हैं? इसके सिवा आप तो धर्मज्ञ माने जाते हैं; फिर मुझ स्त्री का वध आप कैसे कर सकेंगे? स्त्रियाँ कोई अपराध करें, तो साधारण जीव भी उन पर हाथ नहीं उठाते; फिर आप जैसे करुणामय और दीनवत्सल तो ऐसा कर ही कैसे सकते हैं? मैं तो सुदृढ़ नौका के समान हूँ, सारा जगत् मेरे ही आधार पर स्थित हैं। मुझे तोड़कर आप अपने को और अपनी प्रजा को जल के ऊपर कैसे रखेंगे?

महाराज पृथु ने कहा ;- पृथ्वी! तू मेरी आज्ञा का उल्लंघन करने वाली है। तू यज्ञ में देवतारूप से भाग लेती है, किन्तु उसके बदले में हमें अन्न नहीं देती; इसलिये आज मैं तुझे मार डालूँगा। तू जो प्रतिदिन हरी-हरी घास खा जाती है और अपने थन का दूध नहीं देती- ऐसी दुष्टता करने पर तुझे दण्ड देना अनुचित नहीं कहा जा सकता। तू नासमझ है, तूने पूर्वकाल में ब्रह्मा जी के उत्पन्न किये हुए अन्नादि के बीजों को अपने में लीन कर लिया है, और अब मेरी भी परवा न करके उन्हें अपने गर्भ से निकालती नहीं। अब मैं अपने बाणों से तुझे छिन्न-भिन्न कर तेरे मेदे से इन क्षुधातुर और दीन प्रजाजनों का करुण-क्रन्दन शान्त करूँगा। जो दुष्ट अपना ही पोषण करने वाला तथा अन्य प्राणियों के प्रति निर्दय हो- वह पुरुष, स्त्री अथवा नपुंसक कोई भी हो- उसे मारना राजाओं के लिये न मारने के ही समान है। तू बड़ी गर्वीली और मदोन्मत्ता है; इस समय माया से ही यह गौ का रूप बनाये हुए है। मैं बाणों से तेरे टुकड़े-टुकड़े करके अपने योगबल से प्रजा को धारण करूँगा।
इस समय पृथु काल की भाँति क्रोधमयी मूर्ति धारण किये हुए थे। उनके ये शब्द सुनकर धरती काँपने लगी और उसने अत्यन्त विनीतभाव से हाथ जोड़कर कहा।

पृथ्वी ने कहा ;- आप साक्षात् परमपुरुष हैं तथा अपनी माया से अनेक प्रकार के शरीर धारणकर गुणमय जान पड़ते हैं; वास्तव में आत्मानुभव के द्वारा आप अधिभूत, अध्यात्म और अधिदैवसम्बन्धी अभिमान और उससे उत्पन्न हुए राग-द्वेषादि से सर्वथा रहित हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करती हूँ। आप सम्पूर्ण जगत् के विधाता हैं; आपने ही यह त्रिगुणात्मक सृष्टि रची है और मुझे समस्त जीवों का आश्रय बनाया है। आप सर्वथा स्वतन्त्र हैं। प्रभो! अब आप ही अस्त्र-शस्त्र लेकर मुझे मारने को तैयार हो गये, तब मैं और किसकी शरण में जाऊँ?

कल्प के आरम्भ में आपने-अपने आश्रित रहने वाली अनिर्वचिया माया से ही इस चराचर जगत् की रचना की थी और उस माया के ही द्वारा आप इसका पालन करने के लिये तैयार हुए हैं। आप धर्मपरायण हैं; फिर भी मुझ गोरूपधारिणी को किस प्रकार मारना चाहते हैं? आप एक होकर भी मायावश अनेक रूप जान पड़ते हैं तथा आपने स्वयं ब्रह्मा को रचकर उनसे विश्व की रचना करायी है। आप साक्षात् सर्वेश्वर हैं, आपकी लीलाओं को अजितेन्द्रिय लोग कैसे जान सकते हैं? उनकी बुद्धि तो आपकी दुर्जय माया से विक्षिप्त हो रही है। आप ही पंचभूत, इन्द्रिय, उनके अधिष्ठातृ देवता, बुद्धि और अहंकाररूप अपनी शक्तियों के द्वारा क्रमशः जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहार करते हैं। भिन्न-भिन्न कार्यों के लिये समय-समय पर आपकी शक्तियों का आविर्भाव-तिरोभाव हुआ करता है। आप साक्षात् परमपुरुष और जगाद्विधाता हैं, आपको मेरा नमस्कार है।

अजन्मा प्रभो! आप ही अपने रचे हुए भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरणरूप जगत् की स्थिति के लिये आदिवराह रूप होकर मुझे रसातल से जल के बाहर लाये थे। इस प्रकार एक बार तो मेरा उद्धार करके आपने धराधर नाम पाया था; आज वही आप वीरमूर्ति से जल के ऊपर नौका के समान स्थित मेरे ही आश्रय रहने वाली प्रजा की रक्षा करने के अभिप्राय से पैने-पैने बाण चढ़ाकर दूध न देने के अपराध में मुझे मारना चाहते हैं। इस त्रिगुणात्मक सृष्टि की रचना करने वाली आपकी माया से मेरे-जैसे साधारण जीवों के चित्त मोहग्रस्त हो रहे हैं। मुझ-जैसे लोग तो आपके भक्तों की लीलाओं का भी आशय नहीं समझ सकते, फिर आपकी किसी क्रिया का उद्देश्य न समझें तो इसमें आश्चर्य ही क्या है। अतः जो इन्द्रिय-संयमादि के द्वारा वीरोचित यज्ञ का विस्तार करते हैं, ऐसे आपके भक्तों को भी नमस्कार है।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【अष्टदश अध्याय:】१८.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"पृथ्वी-दोहन"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! इस समय महाराज पृथु के होठ क्रोध से काँप रहे थे। उनकी इस प्रकार स्तुति कर पृथ्वी ने अपने हृदय को विचारपूर्वक समाहित किया और डरते-डरते उनसे कहा। ‘प्रभो! आप अपना क्रोध शान्त कीजिये और मैं जो प्रार्थना करती हूँ, उसे ध्यान देकर सुनिये।

बुद्धिमान् पुरुष भ्रमर के समान सभी जगह से सार ग्रहण कर लेते हैं। तत्त्वदर्शी मुनियों ने इस लोक और परलोक में मनुष्यों का कल्याण करने के लिये कृषि, अग्निहोत्र आदि बहुत-से उपाय निकाले और काम में लिये हैं। उन प्राचीन ऋषियों के बताये हुए उपायों का इस समय भी जो पुरुष श्रद्धापूर्वक भलीभाँति आचरण करता है, वह सुगमता से अभीष्ट फल प्राप्त कर लेता है। परन्तु जो अज्ञानी पुरुष उनका अनादर करके अपने मनःकल्पित उपायों का आश्रय लेता है, उसके सभी उपाय और प्रयत्न बार-बार निष्फल होते रहते हैं।

राजन्! पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने जिन धान्य आदि को उत्पन्न किया था, मैंने देखा कि यम-नियमादि व्रतों का पालन न करने वाले दुराचारी लोग ही उन्हें खाये जा रहे हैं। लोकरक्षक! आप लोगों ने मेरा पालन और आदर करना छोड़ दिया; इसलिये सब लोग चोरों के समान हो गये हैं। इसी से यज्ञ के लिये ओषधियों को मैंने अपने में छिपा लिया। अब अधिक समय हो जाने से अवश्य ही वे धान्य मेरे उदर में जीर्ण हो गये हैं; आप उन्हें पूर्वाचार्यो के बतलाये हुए उपाय से निकाल लीजिये। लोकपालक वीर! यदि आपको समस्त प्राणियों के अभीष्ट एवं बल की वृद्धि करने वाले अन्न की आवश्यकता है तो आप मेरे योग्य बछड़ा, दोहनपात्र और दुहने वाले की व्यवस्था कीजिये; मैं उस बछड़े के स्नेह से पिन्हाकर दूध के रूप में आपको सभी अभीष्ट वस्तुएँ दे दूँगी।
राजन्! एक बात और है; आपको मुझे समतल करना होगा, जिससे कि वर्षा-ऋतु बीत जाने पर भी मेरे ऊपर इन्द्र का बरसाया हुआ जल सर्वत्र बना रहे-मेरे भीतर की आर्द्रता सूखने न पावे। यह आपके लिये बहुत मंगलकारक होगा’।

पृथ्वी के कहे हुए ये प्रिय और हितकारी वचन स्वीकार कर महाराज पृथु ने स्वयाम्भुव मनु को बछड़ा बना अपने हाथ में ही समस्त धान्यों को दुह लिया। पृथु के समान अन्य विज्ञजन भी सब जगह से सार ग्रहण कर लेते हैं, अतः उन्होंने भी पृथु जी के द्वारा वश में की हुई वसुन्धरा से अपनी-अपनी अभीष्ट वस्तुएँ दुह लीं। ऋषियों ने बृहस्पति जी को बछड़ा बनाकर इन्द्रिय (वाणी, मन और श्रोत्र) रूप पात्र में पृथ्वीदेवी से वेदरूप पवित्र दूध दुहा। देवताओं ने इन्द्र को बछड़े के रूप में कल्पना कर सुवर्णमय पात्र में अमृत, वीर्य (मनोबल), ओज (इन्द्रियबल) और शारीरिक बलरूप दूध दुहा। दैत्य और दानवों ने असुरश्रेष्ठ प्रह्लाद जी को वत्स बनाकर लोहे के पात्र में मदिरा और आसव (ताड़ी आदि) रूप दूध दुहा। गन्धर्व और अप्सराओं ने विश्वावसु को बछड़ा बनाकर कमलरूप पात्र में संगीतमाधुर्य और सौन्दर्य रूप दूध दुहा। श्राद्ध के अधिष्ठाता महाभाग पितृगण ने अर्यमा नाम के पित्रीश्वर को वत्स बनाया तथा मिट्टी के कच्चे पात्र में श्रद्धापूर्वक कव्य (पितरों को अर्पित किया जाने वाला अन्न) रूप दूध दुहा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 19-32 का हिन्दी अनुवाद)

फिर कपिलदेव जी को बछड़ा बनाकर आकाशरूप पात्र में सिद्धों ने अणिमादि अष्टसिद्धि तथा विद्याधरों ने आकाशगमन आदि विद्याओं को दुहा।

किम्पुरुषादि अन्य मायावियों ने मय दानव को बछड़ा बनाया तथा अन्तर्धान होना, विचित्र रूप धारण कर लेना आदि संकल्पमयी मायाओं को दुग्ध रूप से दुहा।

इसी प्रकार यक्ष-राक्षस तथा भूत-पिशाचादि मांसाहारियों ने भूतनाथ रुद्र को बछड़ा बनाकर कपालरूप पात्र में रुधिरासवरूप दूध दुहा।

बिना फन वाले साँप, फन वाले साँप, नाग और बिच्छू आदि विषैले जन्तुओं ने तक्षक को बछड़ा बनाकर मुखरूप पात्र में विषरूप दूध दुहा। पशुओं ने भगवान् रुद्र के वाहन बैल को वत्स बनाकर वनरूप पात्र में तृणरूप दूध दुहा। बड़ी-बड़ी दाढ़ों वाले मांसभक्षी जीवों ने सिंहरूप बछड़े के द्वारा अपने शरीररूप पात्र में कच्चा मांसरूप दूध दुहा तथा गरुड़ जी को वत्स बनाकर पक्षियों ने कीट-पतंगादि चर और फलादि अचर पदार्थों को दुग्ध रूप से दुहा। वृक्षों ने वट को वत्स बनाकर अनेक प्रकार का रसरूप दूध दुहा और पर्वतों ने हिमालयरूप बछड़े के द्वारा अपने शिखररूप पात्रों में अनेक प्रकार की धातुओं को दुहा।

पृथ्वी तो सभी अभीष्ट वस्तुओं को देने वाली है और इस समय वह पृथु जी के अधीन थी। अतः उससे सभी ने अपनी-अपनी जाति के मुखिया को बछड़ा बनाकर अलग-अलग पात्रों में भिन्न-भिन्न प्रकार के पदार्थों को दूध के रूप में दुह लिया।

कुरुश्रेष्ठ विदुर जी! इस प्रकार पृथु आदि सभी अन्न-भोजियों ने भिन्न-भिन्न दोहन-पात्र और वत्सों के द्वारा अपने-अपने विभिन्न अन्नरूप दूध पृथ्वी से दुहे। इससे महाराज पृथु ऐसे प्रसन्न हुए कि सर्वकामदुहा पृथ्वी के प्रति उनका पुत्री के समान स्नेह हो गया और उसे उन्होंने अपनी कन्या के रूप में स्वीकार कर लिया। फिर राजाधिराज पृथु ने अपने धनुष की नोक से पर्वतों को फोड़कर इस सारे भूमण्डल को प्रायः समतल कर दिया। वे पिता के समान अपनी प्रजा के पालन-पोषण की व्यवस्था में लगे हुए थे। उन्होंने इस समतल भूमि में प्रजावर्ग के लिये जहाँ-तहाँ यथायोग्य निवासस्थानों का विभाग किया। अनेकों गाँव, कस्बें, नगर, दुर्ग, अहीरों की बस्ती, पशुओं के रहने के स्थान, छावनियाँ, खानें, किसानों के गाँव और पहाड़ों की तलहटी के गाँव बसाये। महाराज पृथु से पहले इस पृथ्वीतल पर पुर-ग्रामादि का विभाग नहीं था; सब लोग अपने-अपने सुभीते के अनुसार बेखटे जहाँ-तहाँ बस जाते थे।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【एकोनविंश अध्याय:】१९.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"महाराज पृथु के सौ अश्वमेध यज्ञ"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! महाराज मनु के ब्रह्मावर्त क्षेत्र में, जहाँ सरस्वती नदी पूर्वमुखी होकर बहती है, राजा पृथु ने सौ अश्वमेध यज्ञों की दीक्षा ली। यह देखकर भगवान् इन्द्र को विचार हुआ कि इस प्रकार तो पृथु के कर्म मेरे कर्मों की अपेक्षा भी बढ़ जायेंगे। इसलिये वे उनके यज्ञमहोत्सव को सहन न कर सके।

महाराज पृथु के यज्ञ में सबके अन्तरात्मा सर्वलोकपूज्य जगदीश्वर भगवान् हरि ने यज्ञेश्वर रूप से साक्षात् दर्शन दिया था। उनके साथ ब्रह्मा, रुद्र तथा अपने-अपने अनुचरों के सहित लोकपालगण भी पधारे थे। उस समय गन्धर्व, मुनि और अप्सराएँ प्रभु की कीर्ति गा रहे थे। सिद्ध, विद्याधर, दैत्य, दानव, यक्ष, सुनन्द-नन्दादि भगवान् के प्रमुख पार्षद और जो सर्वदा भगवान् की सेवा के लिये उत्सुक रहते हैं- वे कपिल, नारद, दत्तात्रेय एवं सनकादि योगेश्वर भी उनके साथ आये थे।

भारत! उस यज्ञ में यज्ञसामग्रियों को देने वाली भूमि ने कामधेनुरूप होकर यजमान की सारी कामनाओं को पूर्ण किया था। नदियाँ दाख और ईख आदि सब प्रकार के रसों को बहा लाती थीं तथा जिनके मधु चूता रहता था- ऐसे बड़े-बड़े वृक्ष दूध, दही, अन्न और घृत आदि तरह-तरह की सामग्रियों समर्पण करते थे। समुद्र बहुत-सी रत्नराशियाँ, पर्वत भक्ष्य, भोज्य, चोष्य और लेह्य- चार प्रकार के अन्न तथा लोकपालों के सहित सम्पूर्ण लोक तरह-तरह के उपहार उन्हें समपर्ण करते थे।

महाराज पृथु तो एकमात्र श्रीहरि को ही अपना प्रभु मानते थे। उनकी कृपा से उस यज्ञानुष्ठान में उनका बड़ा उत्कर्ष हुआ। किन्तु यह बात देवराज इन्द्र को सहन न हुई और उन्होंने उसमें विघ्न डालने की भी चेष्टा की। जिस समय महाराज पृथु अन्तिम यज्ञ द्वारा भगवान् यज्ञपति की आराधना कर रहे थे, इन्द्र ने ईर्ष्यावश गुप्तरूप से उनके यज्ञ का घोड़ा हर लिया। इन्द्र ने अपनी रक्षा के लिये कवचरूप से पाखण्ड वेष धारण कर लिया था, जो अधर्म में धर्म का भ्रम उत्पन्न करने वाला है- जिसका आश्रय लेकर पापी पुरुष भी धर्मात्मा-सा जान पड़ता है। इस वेष में वे घोड़े को लिये बड़ी शीघ्रता से आकाश मार्ग से जा रहे थे कि उन पर भगवान् अत्रि की दृष्टि पड़ गयी। उनके कहने से महाराज पृथु का महारथी पुत्र इन्द्र को मारने के लिये उनके पीछे दौड़ा और बड़े क्रोध से बोला, ‘अरे खड़ा रहा! खड़ा रह’। इन्द्र सिर पर जटाजूट और शरीर में भस्म धारण किये हुए थे। उनका ऐसा वेष देखकर पृथुकुमार ने उन्हें मूर्तिमान् धर्म समझा, इसलिये उन पर बाण नहीं छोड़ा। जब वह इन्द्र पर वार किये बिना ही लौट आया, तब महर्षि अत्रि ने पुनः उसे इन्द्र को मारने के लिये आज्ञा दी- ‘वत्स! इस देवताधम इन्द्र ने तुम्हारे यज्ञ में विघ्न डाला है, तुम इसे मार डालो’।

अत्रि मुनि के इस प्रकार उत्साहित करने पर पृथुकुमार क्रोध में भर गया। इन्द्र बड़ी तेजी से आकाश में जा रहे थे। उनके पीछे वह इस प्रकार दौड़ा, जैसे रावण के पीछे जटायु। स्वर्गपति इन्द्र उसे पीछे आते देख, उस वेष और घोड़े को छोड़कर वहीं अन्तर्धान हो गये और वह वीर अपना यज्ञपशु लेकर पिता की यज्ञशाला में लौट आया। शक्तिशाली विदुर जी! उसके इस अद्भुत पराक्रम को देखकर महर्षियों ने उसका नाम विजिताश्व रखा।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 19-32 का हिन्दी अनुवाद)

यज्ञपशु को चषाल और यूप में[1] बाँध दिया गया था। शक्तिशाली इन्द्र ने घोर अन्धकार फैला दिया और उसी में छिपकर वे फिर उस घोड़े को उसकी सोने की जंजीर समेत ले गये। अत्रि मुनि ने फिर उन्हें आकाश में तेजी से जाते दिखा दिया, किन्तु उनके पास कपाल और खट्वांग देखकर पृथुपुत्र ने उनके मार्ग में कोई बाधा न डाली। तब अत्रि ने राजकुमार को फिर उकसाया और उसने गुस्से में भरकर इन्द्र को लक्ष्य बनाकर अपना बाण चढ़ाया। यह देखते ही देवराज उस वेष और घोडों को छोड़कर वहीं अन्तर्धान हो गये। वीर विजिताश्व अपना घोड़ा लेकर पिता की यज्ञशाला में लौट गया। तब से इन्द्र के उस निन्दित वेष को मन्दबुद्धि पुरुषों ने ग्रहण कर लिया। इन्द्र ने अश्वहरण की इच्छा से जो-जो रूप धारण किये थे, वे पाप के खण्ड होने के कारण पाखण्ड कहलाये। यहाँ ‘खण्ड’ शब्द चिह्न का वाचक है। इस प्रकार पृथु के यज्ञ का विध्वंस करने के लिये यज्ञपशु चुराते समय इन्द्र ने जिन्हें कई बार ग्रहण करके त्यागा था, उन ‘नग्न’, ‘रक्ताम्बर’ तथा ‘कापालिक’ आदि पाखण्डपूर्ण आचारों में मनुष्यों की बुद्धि प्रायः मोहित हो जाती है; क्योंकि ये नास्तिकमत देखने में सुन्दर हैं और बड़ी-बड़ी युक्तियों से अपने पक्ष का समर्थन करते हैं। वास्तव में उपधर्ममात्र हैं। लोग भ्रमवश धर्म मानकर उनमें आसक्त हो जाते हैं।

इन्द्र की इस कुचाल का पता लगने पर परम पराक्रमी महाराज पृथु को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने अपना धनुष उठाकर उस पर बाण चढ़ाया। उस समय क्रोधावेश के कारण उनकी ओर देखा नहीं जाता था। जब ऋत्विजों ने देखा कि असह्य पराक्रमी महाराज पृथु इन्द्र का वध करने को तैयार हैं, तब उन्हें रोकते हुए कहा, ‘राजन्! आप तो बड़े बुद्धिमान् हैं, यज्ञदीक्षा ले लेने पर शास्त्रविहित यज्ञपशु को छोड़कर और किसी का वध करना उचित नहीं है। इस यज्ञ कार्य में विघ्न डालने वाला आपका शत्रु इन्द्र तो आपके सुयश से ही ईर्ष्यावश निस्तेज हो रहा है। हम अमोघ आवाहन-मन्त्रों द्वारा उसे यहीं बुला लेते हैं और बलात् अग्नि में हवन किये देते हैं’।

विदुर जी! यजमान से इस प्रकार सलाह करके उसके याजकों ने क्रोधपूर्वक इन्द्र का आवाहन किया। वे स्रुवा द्वारा आहुति डालना ही चाहते थे कि ब्रह्मा जी ने वहाँ आकर उन्हें रोक दिया। वे बोले, ‘याजको! तुम्हें इन्द्र का वध नहीं करना चाहिये, यह यज्ञसंज्ञक इन्द्र तो भगवान् की ही मूर्ति है। तुम यज्ञ द्वारा जिन देवताओं की आराधना कर रहे हो, वे इन्द्र के ही तो अंग हैं और उसे तुम यज्ञ द्वारा मारना चाहते हो। पृथु के इस यज्ञानुष्ठान में विघ्न डालने के लिये इन्द्र ने जो पाखण्ड फैलाया है, वह धर्म का उच्छेदन करने वाला है। इस बात पर तुम ध्यान दो, अब उससे अधिक विरोध मत करो; नहीं तो वह और भी पाखण्ड मार्गों का प्रचार करेगा। अच्छा, परमयशस्वी महाराज पृथु के निन्यानबे ही यज्ञ रहने दो।’

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 33-42 का हिन्दी अनुवाद)

फिर राजर्षि पृथु से कहा, ‘राजन्! आप तो मोक्षधर्म के जानने वाले हैं; अतः अब आपको इन यज्ञानुष्ठानों की आवश्यकता नहीं है। आपका मंगल हो! आप और इन्द्र-दोनों की पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीहरि के शरीर हैं; इसलिये अपने ही स्वरूपभूत इन्द्र के प्रति आपको क्रोध नहीं करना चाहिये। आपका यह यज्ञ निर्विघ्न समाप्त नहीं हुआ-इसके लिये आप चिन्ता न करें। हमारी बात आप आदरपूर्वक स्वीकार कीजिये। देखिये, जो मनुष्य विधाता के बिगाड़े हुए काम को बनाने का विचार करता है, उसका मन अत्यन्त क्रोध में भरकर भयंकर मोह में फँस जाता है। बस, इस यज्ञ को बंद कीजिये। इसी के कारण इन्द्र के चलाये हुए पाखण्डों से धर्म का नाश हो रहा है; क्योंकि देवताओं में बड़ा दुराग्रह होता है।

जरा देखिये तो, जो इन्द्र घोड़े को चुराकर आपके यज्ञ में विघ्न डाल रहा था, उसी के रचे हुए इन मनोहर पाखण्डों की ओर सारी जनता खिंचती चली जा रही है। आप साक्षात् विष्णु के अंश हैं। वेन के दुराचार से धर्म लुप्त हो रहा था, उस समयोचित धर्म की रक्षा के लिये ही आपने उसके शरीर से अवतार लिया है। अतः प्रजापालक पृथु जी! अपने इस अवतार का उद्देश्य विचार कर आप भृगु आदि विश्वरचयिता मुनीश्वरों का संकल्प पूर्ण कीजिये। यह प्रचण्ड पाखण्ड-पथरूप इन्द्र की माया अधर्म की जननी है। आप इसे नष्ट कर डालिये’।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- लोकगुरु भगवान् ब्रह्मा जी के इस प्रकार समझाने पर प्रबल पराक्रमी महराज पृथु ने यज्ञ का आग्रह छोड़ दिया और इन्द्र के साथ प्रीतिपूर्वक सन्धि भी कर ली। इसके पश्चात् जब वे यज्ञान्त स्नान करके निवृत्त हुए, तब उनके यज्ञों से तृप्त हुए देवताओं ने उन्हें अभीष्ट वर दिये। आदिराज पृथु ने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दक्षिणाएँ दीं तथा ब्राह्मणों ने उनके सत्कार से सन्तुष्ट होकर उन्हें अमोघ आशीर्वाद दिये। वे कहने लगे, ‘महाबाहो! आपके बुलाने से जो पितर, देवता, ऋषि और मनुष्यादि आये थे, उन सभी का आपने दान-मान से खूब सत्कार किया’।

                           {चतुर्थ स्कन्ध:}

                      【विंश अध्याय:】२०.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"महाराज पृथु की यज्ञशाला में श्रीविष्णु भगवान् का प्रादुर्भाव"
श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! महाराज पृथु के निन्यानबे यज्ञों से यज्ञभोक्ता यज्ञेश्वर भगवान् विष्णु को भी बड़ा सन्तोष हुआ। उन्होंने इन्द्र के सहित वहाँ उपस्थित होकर उनसे कहा।

श्रीभगवान् ने कहा ;- राजन! (इन्द्र ने) तुम्हारे सौ अश्वमेध पूरे करने के संकल्प में विघ्न डाला है। अब ये तुमसे क्षमा चाहते हैं, तुम इन्हें क्षमा कर दो।

नरदेव! जो श्रेष्ठ मानव साधु और सद्बुद्धि-सम्पन्न होते हैं, वे दूसरे जीवों से द्रोह नहीं करते; क्योंकि यह शरीर ही आत्मा नहीं है। यदि तुम-जैसे लोग भी मेरी माया से मोहित हो जायें, तो समझना चाहिये कि बहुत दिनों तक की हुई ज्ञानीजनों की सेवा से केवल श्रम ही हाथ लगा। ज्ञानवान् पुरुष इस शरीर को अविद्या, वासना और कर्मों का ही पुतला समझकर इसमें आसक्त नहीं होता। इस प्रकार जो इस शरीर में ही आसक्त नहीं है, यह विवेकी पुरुष इससे उत्पन्न हुए घर, पुत्र और धन आदि में भी किस प्रकार ममता रख सकता है। यह आत्मा एक, शुद्ध, स्वयंप्रकाश, निर्गुण, गुणों का आश्रयस्थान, सर्वव्यापक, आवरणशून्य, सबका साक्षी एवं अन्य आत्मा से रहित है; अतएव शरीर से भिन्न है। जो पुरुष इस देहस्थित आत्मा को इस प्रकार शरीर से भिन्न जानता है, वह प्रकृति से सम्बन्ध रखते हुए भी उसके गुणों से लिप्त नहीं होता; क्योंकि उसकी स्थिति मुझ परमात्मा में रहती है।

राजन्! जो पुरुष किसी प्रकार की कामना न रखकर अपने वर्णाश्रम के धर्मों द्वारा नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक मेरी आराधना करता है, उसका चित्त धीरे-धीरे शुद्ध हो जाता है। चित्त शुद्ध होने पर उसका विषयों से सम्बन्ध नहीं रहता तथा उसे तत्त्वज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। फिर तो वह मेरी समतारूप स्थिति को प्राप्त हो जाता है। यही परम शान्ति, ब्रह्म अथवा कैवल्य है। जो पुरुष यह जानता है कि शरीर, ज्ञान, क्रिया और मन का साक्षी होने पर भी कूटस्थ आत्मा उनसे निर्लिप्त ही रहता है, वह कल्याणमय मोक्षपद प्राप्त कर लेता है।

राजन्! गुणप्रवाहरूप आवाहन तो भूत, इन्द्रिय, इन्द्रियाभिमानी देवता और चिदाभास- इन सबकी समष्टिरूप परिच्छिन्न लिंग शरीर का ही हुआ करता है; इसका सर्वसाक्षी आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है। मुझमें दृढ़ अनुराग रखने वाले बुद्धिमान् पुरुष सम्पत्ति और विपत्ति प्राप्त होने पर कभी हर्ष-शोकादि विकारों के वशीभूत नहीं होते। इसलिये वीरवर! तुम उत्तम, मध्यम और अधम पुरुषों में समान भाव रखकर सुख-दुःख को भी एक-सा समझो तथा मन और इन्द्रियों को जीतकर मेरे ही द्वारा जुटाये हुए मन्त्री आदि समस्त राजकीय पुरुषों की सहायता से सम्पूर्ण लोकों की रक्षा करो। राजा का कल्याण प्रजा पालन में ही है। इससे उसे परलोक में प्रजा के पुण्य का छठा भाग मिलता है। इसके विपरीत जो राजा प्रजा की रक्षा तो नहीं करता; किंतु उससे कर वसूल करता जाता है, उसका सारा पुण्य तो प्रजा छीन लेती है और बदले में उसे प्रजा के पाप का भागी होना पड़ता है। ऐसा विचार कर यदि तुम श्रेष्ठ ब्राह्मणों की सम्मति और पूर्वपरम्परा से प्राप्त हुए धर्म को ही मुख्यतः अपना लो और कहीं भी आसक्त न होकर इस पृथ्वी का न्यायपूर्वक पालन करते रहो तो सब लोग तुमसे प्रेम करेंगे और कुछ ही दिनों में तुम्हें घर बैठे ही सनकादि सिद्धों के दर्शन होंगे।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद)

राजन्! तुम्हारे गुणों ने और स्वभाव ने मुझको वश में कर लिया है। अतः तुम्हे जो इच्छा हो, मुझसे वर माँग लो। उन क्षमा आदि गुणों से रहित यज्ञ, तप अथवा योग के द्वारा मुझको पाना सरल नहीं है, मैं तो उन्हीं के हृदय में रहता हूँ जिनके चित्त में समता रहती है।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! सर्वलोकगुरु श्रीहरि के इस प्रकार कहने पर जगद्विजयी महाराज पृथु ने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की

देवराज इन्द्र अपने कर्म से लज्जित होकर उनके चरणों पर गिरना ही चाहते थे कि राजा ने उन्हें प्रेमपूर्वक हृदय से लगा लिया और मनोमालिन्य निकाल दिया। फिर महाराज पृथु ने विश्वात्मा भक्तवत्सल भगवान् का पूजन किया और क्षण-क्षण में उमड़ते हुए भक्तिभाव में निमग्न होकर प्रभु के चरणकमल पकड़ लिये। श्रीहरि वहाँ से जाना चाहते थे; किन्तु पृथु के प्रति जो उनका वात्सल्यभाव था, उसने उन्हें रोक लिया। वे अपने कमलदल के समान नेत्रों से उनकी ओर देखते ही रह गये, वहाँ से जा न सके।

आदिराज महाराज पृथु भी नेत्रों में जल भर आने के कारण न तो भगवान् का दर्शन ही कर सके और न तो कण्ठ गद्गद हो जाने से कुछ बोल ही सके। उन्हें हृदय से आलिगन कर पकड़े रहे और हाथ जोड़े ज्यों-के-त्यों खड़े रह गये। प्रभु अपने चरणकमलों से पृथ्वी को स्पर्श किये खड़े थे; उनका कराग्रभाग गरुड़ जी के ऊँचे कंधे पर रखा हुआ था। महाराज पृथु नेत्रों के आँसू पोंछकर अतृप्त दृष्टि से उनकी ओर देखते हुए इस प्रकार कहने लगे।

महाराज पृथु बोले ;- मोक्षपति प्रभो! आप वर देने वाले ब्रह्मादि देवताओं को भी वर देने में समर्थ हैं। कोई भी बुद्धिमान् पुरुष आपसे देहाभिमानियों के भोगने योग्य विषयों को कैसे माँग सकता है? वे तो नारकी जीवों को भी मिलते ही हैं। अतः मैं इन तुच्छ विषयों को आपसे नहीं माँगता। मुझे तो उस मोक्षपद की भी इच्छा नहीं है, जिसमें महापुरुषों के हृदय से उनके मुख द्वारा निकला हुआ आपके चरणकमलों का मकरन्द नहीं है-जहाँ आपकी कीर्ति-कथा सुनने का सुख नहीं मिलता। इसलिये मेरी तो यही प्रार्थना है कि आप मुझे दस हजार कान दे दीजिये, जिनसे मैं आपके लीलागुणों को सुनता ही रहूँ।

पुण्यकीर्ति प्रभो! आपके चरणकमल-मकरन्दरूपी अमृत-कणों को लेकर महापुरुषों के मुख से जो वायु निकलती है, उसी में इतनी शक्ति होती है कि वह तत्त्व को भूले हुए हम कुयोगियों को पुनः तत्त्वज्ञान करा देती है। अतएव हमें दूसरे वरों की कोई आवश्यकता नहीं है।
उत्तम कीर्ति वाले प्रभो! सत्संग में आपके मंगलमय सुयश को दैववश एक बार भी सुन लेने पर कोई पशुबुद्धिपुरुष भले ही तृप्त हो जाये; गुणग्राही उसे कैसे छोड़ सकता है? सब प्रकार के पुरुषार्थों की सिद्धि के लिये स्वयं लक्ष्मी जी भी आपके सुयश को सुनना चाहती हैं। अब लक्ष्मी जी के समान मैं भी अत्यन्त उत्सुकता से आप सर्वगुणधाम पुरुषोत्तम की सेवा ही करना चाहता हूँ। किन्तु ऐसा न हो कि एक ही पति की सेवा प्राप्त करने की होड़ होने के कारण आपके चरणों में ही मन को एकाग्र करने वाले हम दोनों में कलह छिड़ जाये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 28-38 का हिन्दी अनुवाद)

जगदीश्वर! जगज्जननी लक्ष्मी जी के हृदय में मेरे प्रति विरोधभाव होने की संभावना तो है ही; क्योंकि जिस आपके सेवाकार्य में उनका अनुराग है, उसी के लिये मैं भी लालायित हूँ। किन्तु आप दीनों पर दया करते हैं, उनके तुच्छ कर्मों को भी बहुत करके मानते हैं। इसलिये मुझे आशा है कि हमारे झगड़े में भी आप मेरा ही पक्ष लेंगे। आप तो अपने स्वरूप में ही रमण करते हैं; आपको भला, लक्ष्मी जी से भी क्या लेना है। इसी से निष्काम महात्मा ज्ञान हो जाने के बाद भी आपके भजन करते हैं। आप में माया के कार्य अहंकारदि का सर्वथा अभाव है।

भगवन्! मुझे तो आपके चरणकमलों का निरन्तर चिन्तन करने के सिवा सत्पुरुषों का कोई और प्रयोजन ही नहीं जान पड़ता। मैं भी बिना किसी इच्छा के आपका भजन करता हूँ, आपने जो मुझसे कहा कि ‘वर माँग’ सो आपकी इस वाणी को तो मैं संसार को मोह में डालने वाली ही मानता हूँ। यही क्या, आपकी वेदरूपा वाणी ने भी तो जगत् को बाँध रखा है। यदि उस वेदवाणीरूप रस्सी से लोग बँधे न होते, तो वे मोहवश सकाम कर्म क्यों करते?

प्रभो! आपकी माया से ही मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप आपसे विमुख होकर अज्ञानवश अन्य स्त्री-पुत्रादि की इच्छा करता है। फिर भी जिस प्रकार पिता पुत्र की प्रार्थना कि अपेक्षा न रखकर अपने-आप ही पुत्र का कल्याण करता है, उसी प्रकार आप भी हमारी इच्छा की अपेक्षा न करके हमारे हित के लिये स्वयं ही प्रयत्न करें।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- आदिराज पृथु के इस प्रकार स्तुति करने पर सर्वसाक्षी श्रीहरि ने उनसे कहा, ‘राजन्! तुम्हारी मुझमे भक्ति हो। बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम्हारा चित्त इस प्रकार मुझमें लगा हुआ है। ऐसा होने पर तो पुरुष सहज में ही मेरी उस माया को पार कर लेता है, जिसको छोड़ना या जिसके बन्धन से छूटना अत्यन्त कठिन है। अब तुम सावधानी से मेरी आज्ञा का पालन करते रहो। प्रजापालक नरेश! जो पुरुष मेरी आज्ञा का पालन करता है, उसका सर्वत्र मंगल होता है’।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं ;- विदुर जी! इस प्रकार भगवान् ने राजर्षि पृथु के सारगर्भित वचनों का आदर किया। फिर पृथु ने उनकी पूजा की और प्रभु उन पर सब प्रकार कृपा कर वहाँ से चलने को तैयार हुए। महाराज पृथु ने वहाँ जो देवता, ऋषि, पितर, गंधर्व, सिद्ध, चारण, नाग, किन्नर, अप्सरा, मनुष्य और पक्षी आदि अनेक प्रकार के प्राणी एवं भगवान् के पार्षद आये थे, उन सभी का भगवदबुद्धि से भक्तिपूर्वक वाणी और धन के द्वारा हाथ जोड़कर पूजन किया। इसके बाद वे सब अपने-अपने स्थानों को चले गये। भगवान् अच्युत भी राजा पृथु एवं उनके पुरोहितों का चित्त चुराते हुए अपने धाम को सिधारे। तदनन्तर अपना स्वरूप दिखाकर अन्तर्धान हुए अव्यक्तस्वरूप देवाधिदेव भगवान् को नमस्कार करके राजा पृथु भी अपनी राजधानी में चले आये।

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