सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - पूर्वार्ध ) का ग्यारवाँ , बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँँ व पंद्रहवाँ अध्याय [ The Eleven, twelve, thirteenth, fourteenth and fifteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - पूर्वार्ध ) का ग्यारवाँ , बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँँ व पंद्रहवाँ अध्याय [ The Eleven, twelve, thirteenth, fourteenth and fifteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]


                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                      【ग्यारहवाँ अध्याय:】११.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकादशो अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"गोकुल से वृन्दावन जाना तथा वत्सासुर और बकासुर का उद्धार"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! वृक्षों के गिरने से जो भयंकर शब्द हुआ था, उसे नन्दबाबा आदि गोपों ने भी सुना। उनके मन में यह शंका हुई कहीं बिजली तो नहीं गिरी! सब-के-सब भयभीत होकर वृक्षों के पास आ गये। वहाँ पहुँचने पर उन लोगों ने देखा कि दोनों अर्जुन के वृक्ष गिरे हुए हैं। यद्यपि वृक्ष गिरने का कारण स्पष्ट था - वहीं उनके सामने ही रस्सी से बँधा बालक ऊखल खींच रहा था, परन्तु वे समझ न सके।'

यह किसका काम है, ऐसी आश्चर्यजनक दुर्घटना कैसे घट गयी?’ - यह सोचकर वे कातर हो गये, उनकी बुद्धि भ्रमित हो गयी ।
वहाँ कुछ बालक खेल रहे थे। 
उन्होंने कहा ;- ‘अरे, इसी कन्हैया का तो काम है। यह दोनों वृक्षों के बीच में से होकर निकल रहा था। ऊखल तिरछा हो जाने पर दूसरी ओर से इसने उसे खींचा और वृक्ष गिर पड़े। हमने तो इसमें से निकलते हुए दो पुरुष भी देखे हैं। परन्तु गोपों ने बालकों की बात नहीं मानी।
वे कहने लगे ;- ‘एक नन्हा-सा बच्चा इतने बड़े वृक्षों को उखाड़ डाले, यह कभी सम्भव नहीं है।’ किसी-किसी के चित्त में श्रीकृष्ण की पहले की लीलाओं का स्मरण करके सन्देह भी हो आया। नन्दबाबा ने देखा, उनका प्राणों से प्यारा बच्चा रस्सी से बँधा हुआ ऊखल घसीटता जा रहा है। वे हँसने लगे और जल्दी से जाकर उन्होंने रस्सी की गाँठ खोल दी।

सर्वशक्तिमान भगवान कभी-कभी गोपियों के फुसलाने से साधारण बालकों समान नाचने लगते। कभी भोले-भाले अनजान बालक की तरह गाने लगते। वे उनके हाथ की कठपुतली - उनके सर्वथा अधीन हो गये। वे कभी उनकी आज्ञा से पीढ़ा ले आते, तो कभी दुसेरी आदि तौलने के बटखरे उठा लाते। कभी खडाऊं ले आते, तो कभी अपने प्रेमी भक्तों को आनन्दित करने के लिए पहलवानों की भाँति ताल ठोंकने लगते। इस प्रकार सर्वशक्तिमान भगवान अपनी बाल-लीलाओं से ब्रजवासियों को आन्दनित करते और संसार में जो लोग उनके रहस्य को जानने-वाले हैं, उनको यह दिखलाते कि मैं अपने सेवकों के वश में हूँ।

एक दिन कोई फल बेचने वाली आकर पुकार उठी - ‘फल लो फल! यह सुनते ही समस्त कर्म और उपासनाओं के फल देने वाले भगवान अच्युत फल खरीदने के लिए अपनी छोटी-सी अँजुली में अनाज लेकर दौड़ पड़े। उनकी अँजुली में अनाज तो रास्ते में ही बिखर गया, पर फल बेचने वाली ने उनके दोनों हाथ फल से भर दिये। इधर भगवान ने भी उसकी फल रखने वाली टोकरी रत्नों से भर दी।

तदन्तर एक दिन यमलार्जुन वृक्ष को तोड़ने वाले श्रीकृष्ण और बलराम बालकों के साथ खेलते-खेलते यमुना तट पर चले गये और खेल में ही रम गये, तब रोहिणी देवी ने उन्हें पुकारा ‘ओ कृष्ण! ओ बलराम! जल्दी आओ’। परन्तु रोहिणी के पुकारने पर भी वे आये नहीं; क्योंकि उनका मन खेल में लग गया था। जब बुलाने पर भी वे दोनों बालक नहीं आये, तब रोहिणी जी ने वात्सल्य स्नेहमयी यशोदा जी को भेजा। श्रीकृष्ण और बलराम ग्वाल बालकों के साथ बहुत देर से खेल रहे थे, यशोदा जी ने जाकर उन्हें पुकारा। उस समय पुत्र के प्रति वात्सल्य स्नेह के कारण उनके स्तनों में से दूध चुचुआ रहा था ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकादश अ‍ॅ अध्यायः श्लोक 15-27 का हिन्दी अनुवाद)

यशोदा ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगीं ;- ‘मेरे प्यारे कन्हैया! ओ कृष्ण! कमलनयन! श्यामसुन्दर! बेटा! आओ, अपनी माँ का दूध पी लो। खेलते-खेलते थक गये हो बेटा! अब बस करो। देखो तो सही, तुम भूख से दुबले हो रहे हो। मेरे प्यारे बेटा राम! तुम तो समूचे कुल को आनन्द देने वाले हो। अपने छोटे भाई को लेकर जल्दी आ जाओ तो! देखो भाई! आज तुमने बहुत सबेरे कलेऊ किया था। अब तो तुम्हें कुछ खाना चाहिये। बेटा बलराम! ब्रजराज भोजन करने के लिए बैठ गये है; परन्तु अभी तक तुम्हारी बाट देख रहे हैं। आओ, अब हमें आनन्दित करो। बालकों! अब तुम लोग भी अपने-अपने घर जाओ। बेटा! देखो तो सही, तुम्हारा एक-एक अंग धूल से लथपथ हो रहा है। आओ, जल्दी से स्नान कर लो। आज तुम्हारा जन्म नक्षत्र है। पवित्र होकर ब्राह्मणों को गोदान करो। देखो-देखो! तुम्हारे साथियों को उनकी माताओं ने नहला-धुलाकर, मींज-पोंछकर कैसे सुन्दर-सुन्दर गहने पहना दिये हैं। अब तुम भी नहा-धोकर, खा-पीकर, पहन-ओढ़कर तब खेलना।'

परीक्षित! माता यशोदा का सम्पूर्ण मन-प्राण प्रेम-बन्धन से बँधा हुआ था। वे चराचर जगत के शिरोमणि भगवान को अपना पुत्र समझतीं और इस प्रकार कहकर एक हाथ से बलराम तथा दूसरे हाथ से श्रीकृष्ण को पकड़कर अपने घर ले आयीं। इसके बाद उन्होंने पुत्र के मंगल के लिए जो कुछ करना था, वह बड़े प्रेम से किया।

जब नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपों ने देखा कि महावन में तो बड़े-बड़े उत्पात होने लगे हैं, तब वे लोग इकट्ठे होकर ‘अब ब्रजवासियों को क्या करना चाहिए’ - इस विषय पर विचार करने लगे। उनमें से एक गोप का नाम था उपनन्द। वे अवस्था में तो बड़े थे ही, ज्ञान में भी बड़े थे। उन्हें इस बात का पता था कि किस समय किस स्थान पर किस वस्तु से कैसा व्यवहार करना चाहिए। साथ ही वे यह भी चाहते थे कि राम और श्याम सुखी रहें, उन पर कोई विपत्ति न आवे।

उन्होंने कहा ;- ‘भाइयों! अब यहाँ ऐसे बड़े-बड़े उत्पात होने लगे हैं, जो बच्चों के लिए तो बहुत ही अनिष्टकारी हैं। इसलिए यदि हम लोग गोकुल और गोकुलवासियों का भला चाहते हैं, तो हमें यहाँ से अपना डेरा-डंडा उठाकर कूच कर देना चाहिये। देखो, यह सामने बैठा हुआ नन्दराय का लाड़ला सबसे पहले तो बच्चों के लिए कालस्वरूपिणी हत्यारी पूतना के चंगुल से किसी प्रकार छूटा। इसके बाद भगवान की दूसरी कृपा यह हुई कि इसके ऊपर इतना बड़ा छकड़ा गिरते-गिरते बचा। बवंडररूपधारी दैत्य ने तो इसे आकाश में ले जाकर बड़ी भारी विपत्ति (मृत्यु के मुख) में ही डाल दिया था, परन्तु वहाँ से जब वह चट्टान पर गिरा, तब भी हमारे कुल के देवेश्वरों ने ही इस बालक की रक्षा की। यमलार्जुन वृक्षों के गिरने के समय उसके बीच में आकर भी यह या और कोई बालक न मरा। इससे भी यही समझना चाहिये कि भगवान ने हमारी रक्षा की। इसलिए जब तक कोई बहुत बड़ा अनिष्टकारी अरिष्ट हमें और हमारे ब्रज को नष्ट न कर दे, तब तक ही हम लोग अपने बच्चों को लेकर अनुचरों के साथ यहाँ से अन्यत्र चले चलें।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 28-40 का हिन्दी अनुवाद)

‘वृन्दावन’ नाम का एक वन है। उसमें छोटे-छोटे और भी बहुत-से नये-नये हरे-भरे वन हैं। वहाँ बड़ा ही पवित्र पर्वत, घास और हरी भरी लता वनस्पतियाँ हैं। हमारे पशुओं के लिये तो वह बहुत ही हितकारी है। गोप, गोपी और गायों के लिये वह केवल सुविधा का ही नहीं, सवाल करने योग्य स्थान है। सो यदि तुम सब लोगों को यह बात जँचती हो तो आज ही हम लोग वहाँ के लिए कूच कर दें। देर न करें, गाड़ी-छकड़े जोतें और पहले गायों को, जो हमारी एकमात्र सम्पत्ति हैं, वहाँ भेज दें।'

उपनन्द की बात सुनकर सभी गोपों ने एक स्वर से कहा - ‘बहुत ठीक, बहुत ठीक।’ इस विषय में किसी का भी मतभेद न था। सब लोगों ने अपनी झुंड की झुंड गायें इकट्ठी कीं और छकड़ों पर घर की सब सामग्री लादकर वृन्दावन की यात्रा की। परीक्षित! ग्वालों ने बूढ़ों, बच्चों, स्त्रियों और सब सामग्रियों को छकड़ों पर चढ़ा दिया और स्वयं उनके पीछे-पीछे धनुष-बाण लेकर बड़ी सावधानी से चलने लगे। उन्होंने गौ और बछड़ों को तो सबसे आगे कर लिया और उनके पीछे-पीछे सिगी और तुरही ज़ोर-ज़ोर से बजाते हुए चले।

उनके साथ ही-साथ पुरोहित लोग भी चल रहे थे। गोपियाँ अपने-अपने वक्षःस्थल पर नयी केसर लगाकर, सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहनकर, गले में सोने के हार धारण किये हुए रथों पर सवार थीं और बड़े आनन्द से भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं के गीत गाती जाती थीं। यशोदा रानी और रोहिणी जी भी वैसे ही सज-धजकर अपने-अपने प्यारे पुत्र श्रीकृष्ण तथा बलराम के साथ एक छकड़े पर शोभायमान हो रही थीं। वे अपने दोनों बालकों की तोतली बोली सुन-सुनकर भी अघाती न थीं, और-और सुनना चाहतीं थीं।

वृन्दावन बड़ा ही सुन्दर वन है। चाहे कोई भी ऋतु हो, वहाँ सुख-ही-सुख है। उसमें प्रवेश करके ग्वालों ने अपने छकड़ों को अर्द्धचन्द्राकर मण्डल बाँधकर खड़ा कर दिया और अपने गोधन के रहने योग्य स्थान बना लिया। परीक्षित! वृन्दावन का हरा-भरा वन, अत्यन्त मनोहर गोवर्धन पर्वत और यमुना नदी के सुन्दर-सुन्दर पुलियों को देखकर भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी के हृदय में उत्तम प्रीति का उदय हुआ।

राम और श्याम दोनों ही अपनी तोतली बोली और अत्यन्त मधुर बालोचित लीलाओं से गोकुल की ही तरह वृन्दावन में भी ब्रजवासियों को आनन्द देते रहे। थोड़े ही दिनों में समय आने पर वे बछड़े चराने लगे। दूसरे ग्वालबालों के साथ खेलने के लिये बहुत-सी सामग्री लेकर वे घर से निकल पड़ते और गोष्ठ[1] के पास ही अपने बछड़ों को चराते। श्याम और राम कहीं बाँसुरी बजा रहे हैं, तो कहीं गुलेल या ढेलवाँस से ढेले या गोलियाँ फेंक रहे हैं। किसी समय अपने पैरों के घुँघरु पर तान छेड़ रहे हैं तो कहीं बनावटी गाय और बैल बनकर खेल रहे हैं। एक ओर देखिये तो साँड़ बन-बनकर हँकड़ते हुए आपस में लड़ रहे हैं तो दूसरी ओर मोर, कोयल, बन्दर आदि पशु-पक्षियों की बोलियाँ निकाल रहे हैं। परीक्षित! इस प्रकार सर्वशक्तिमान भगवान साधारण बालकों के समान खेलते रहते।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 41-52 का हिन्दी अनुवाद)

एक दिन की बात है, श्याम और बलराम अपने प्रेमी सखा ग्वालबालों के साथ यमुना तट पर बछड़े चरा रहे थे। उसी समय उन्हें मारने की नीयत से एक दैत्य आया। भगवान ने देखा कि वह बनावटी बछड़े का रूप धारण कर बछड़ों के झुंड में मिल गया है। वे आँखों के इशारे से बलराम जी को दिखाते हुए धीरे-धीरे उसके पास पहुँच गये। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानों वे दैत्य को तो पहचानते नहीं और उस हट्टे-कट्टे सुन्दर बछड़े पर मुग्ध हो गये हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने पूँछ के साथ उसके दोनों पिछले पैर पकड़कर आकाश में घुमाया और मर जाने पर कैथ के वृक्ष पर पटक दिया। उसका लम्बा-तगड़ा दैत्य शरीर बहुत-से कैथ के वृक्षों को गिराकर स्वयं भी गिर पड़ा। यह देखकर ग्वालबालों के आश्चर्य की सीमा न रही। वे ‘वाह-वाह’ करके प्यारे कन्हैया की प्रशंसा करने लगे। देवता भी बड़े आनन्द से फूलों की वर्षा करने लगे।

परीक्षित! जो सारे लोकों के एकमात्र रक्षक हैं, वे ही श्याम और बलराम अब वत्स्पाल बने हुए हैं। वे तड़के ही उठकर कलेवे की सामग्री ले लेते और बछड़ों को चराते हुए एक वन से दूसरे वन में घूमा करते। एक दिन की बात है, सब ग्वालबाल अपने झुंड-के-झुंड बछड़ों को पानी पिलाने के लिए जलाशय के तट पर ले गये। उन्होंने पहले बछड़ों को जल पिलाया और फिर स्वयं भी पिया।

ग्वालबालों ने देखा कि वहाँ एक बहुत बड़ा जीव बैठा हुआ है। वह ऐसा मालूम पड़ता था, मानों इन्द्र के वज्र से कटकर कोई पहाड़ का टुकड़ा गिरा हुआ है। ग्वालबाल उसे देखकर डर गये। वह ‘बक’ नाम का एक बड़ा भारी असुर था, जो बगुले का रूप धर के वहाँ आया था। उसकी चोंच बड़ी तीखी थी और वह स्वयं बड़ा बलवान था। उसने झपटकर कृष्ण को निगल लिया।

जब बलराम आदि बालकों ने देखा कि वह बड़ा भारी बगुला श्रीकृष्ण को निगल गया, तब उनकी वही गति हुई जो प्राण निकल जान पर इन्द्रियों की होती हैं। वे अचेत हो गये।
     परीक्षित! श्रीकृष्ण लोकपितामह ब्रह्मा के भी पिता हैं। वे लीला से ही गोपाल-बालक बने हुए हैं। जब वे बगुले के तालु के नीचे पहुँचे, तब वे आग के समान उसका तालु जलाने लगे। अतः उस दैत्य ने श्रीकृष्ण के शरीर पर बिना किसी प्रकार का घाव किये ही झटपट उन्हें उगल दिया और फिर बड़े क्रोध से अपनी कठोर चोंच से उन पर चोट करने के लिए टूट पड़ा।

कंस का सखा बकासुर अभी भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण पर झपट ही रहा था कि उन्होंने अपने दोनों हाथों से उसके दोनों ठोर पकड़ लिये और ग्वालबालों के देखते-देखते खेल-ही-खेले में उसे वैसे ही चीर डाला, जैसे कोई वीरान को चीर डाले। इससे देवताओं को बड़ा आनन्द हुआ। सभी देवता भगवान श्रीकृष्ण पर नंदनवन के बेला, चमेली आदि के फूल बरसाने लगे तथा नगारे, शंख आदि बजाकर एवं स्त्रोतों के द्वारा उनको प्रसन्न करने लगे। यह सब देखकर सब-के-सब ग्वालबाल आश्चर्यचकित हो गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकादशो ऽध्यायः श्लोक 53-59 का हिन्दी अनुवाद)

जब बलराम आदि बालकों ने देखा कि श्रीकृष्ण बगुले के मुँह से निकलकर हमारे पास आ गये हैं, तब उन्हें ऐसा आनन्द हुआ, मानो प्राणों के संचार से इन्द्रियाँ सचेत और आनन्दित हो गयीं हों। सब ने भगवान को अलग-अलग गले लगाया। इसके बाद अपने-अपने बछड़े हाँककर सब ब्रज में आये और वहाँ उन्होंने उन्होंने घर के लोगों से सारी घटना कह सुनायी।

परीक्षित! बकासुर के वध की घटना सुनकर अब-के-सब गोपी-गोप आश्चर्यचकित हो गये। उन्हें ऐसा जान पड़ा, जैसे कन्हैया साक्षात मृत्यु के मुख से ही लौटे हों। वे बड़ी उत्सुकता, प्रेम और आदर से श्रीकृष्ण को निहारने लगे। उनके नेत्रों की प्यास बढ़ती ही जाती थी, किसी प्रकार उन्हें तृप्ति न होती थी।

वे आपस में कहने लगे ;- ‘हाय! हाय!! यह कितने आशचर्य की बात है। इस बालक को कई बार मृत्यु के मुँह में जाना पड़ा। परन्तु जिन्होंने इसका अनिष्ट करना चाहा, उन्हीं का अनिष्ट हुआ। क्योंकि उन्होंने पहले से दूसरों का अनिष्ट किया था। यह सब होने पर भी वे भयंकर असुर इसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाते। आते हैं इसे मार डालने की नीयत से, किन्तु आग पर गिरकर पतंगों की तरह उल्टे स्वयं स्वाहा हो जाते हैं।

सच है, ब्रह्मवेत्ता महात्माओं के वचन कभी झूठे नहीं होते। देखो न, महात्मा गर्गाचार्य ने जितनी बातें कही थीं, सब-की-सब सोलहों आने ठीक उतर रहीं हैं।' नन्दबाबा आदि गोपगण इसी प्रकार बड़े आनन्द से अपने श्याम और राम की बातें किया करते। वे उनमें इतने तन्मय रहते कि उन्हें संसार के दुःख-संकटों का कुछ पता ही न चलता।

इसी प्रकार श्याम और बलराम ग्वालबालों के साथ कभी आँखमिचौनी खेलते, तो कभी पुल बाँधते। कभी बंदरों की भाँति उछलते-कूदते, तो कभी और कोई विचित्र खेल करते। इस प्रकार के बालोचित खेलों से उन दोनों ने ब्रज में अपनी बाल्यावस्था व्यतीत की।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                      【बारहवाँ अध्याय:】१२.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"अघासुर का उद्धार"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! एक दिन नन्दनन्दन श्यामसुन्दर वन में ही कलेवा करने के विचार से बड़े तड़के उठ गये और सिंगी बाजे की मधुर मनोहर ध्वनि से अपने साथी ग्वालबालों को मन की बात जनाते हुए उन्हें जगाया और बछड़ों को आगे करके वे ब्रज मण्डल से निकल पड़े। श्रीकृष्ण के साथ ही उनके प्रेमी सहस्रों ग्वालबाल सुन्दर छीके, बेंत, सिंगी और बाँसुरी लेकर तथा अपने सहत्रों बछड़ों को आगे करके बड़ी प्रसन्नता से अपने-अपने घरों से चल पड़े। उन्होंने श्रीकृष्ण के अगणित बछड़ों में अपने-अपने बछड़े मिला दिये और स्थान-स्थान पर बालोचित खेल खेलते हुए विचरने लगे। यद्यपि सब-के-सब ग्वालबाल काँच, घुँघची, मणि और सुवर्ण के गहने-पहने हुए थे, फिर भी उन्होंने वृन्दावन के लाल-पीले-हरे फलों से, नयी-नयी कोंपलों से, गुच्छों से, रंग-बिरंगे फूलों और मोरपंखों से तथा गेरू आदि रंगीन धातुओं से अपने को सजा लिया। कोई किसी का छीका चुरा लेता, तो कोई किसी की बेंत या बाँसुरी। जब उन वस्तुओं के स्वामी को पता चलता, तब उन्हें लेनेवाला किसी दूसरे के पास दूर फ़ेंक देता, दूसरा तीसरे के और तीसरा और भी दूर फ़ेंक देता। फिर वे हँसते हुए उन्हें लौटा देते।

यदि श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण वन की शोभा देखने के लिए कुछ आगे बढ़ जाते, तो ‘’पहले मैं छुऊँगा, पहले मैं छुऊँगा’ - इस प्रकार आपस में होड़ लगाकर सब-के-सब उनकी ओर दौड़ पड़ते और उन्हें छू-छूकर आनन्दमग्न हो जाते। कोई बाँसुरी बजा रहा है, तो कोई सिंगी ही फूँक रहा है। कोई-कोई भौरों के साथ गुनगुना रहे हैं, तो बहुत-से कोयलों के स्वर में स्वर मिलाकर ‘कुहू-कुहू’ कर रहे हैं। एक ओर कुछ ग्वालबाल आकाश में उड़ते हुए पक्षियों की छाया के साथ दौड़ लगा रहे हैं, तो दूसरी ओर कुछ हंसों की चाल की नक़ल करते हुए उनके साथ सुन्दर गति से चल रहे हैं। कोई बगुले के पास उसी के समान आँख मूँदकर बैठ रहे हैं, तो कोई मोरों को नाचते देख उन्हीं की तरह नाच रहे हैं। कोई-कोई बंदरों की पूँछ पकड़कर खींच रहे हैं, तो दूसरे उनके साथ इस पेड़ से इस पेड़ पर चढ़ रहे हैं। कोई-कोई उनके साथ मुँह बना रहे हैं, तो दूसरे उनके साथ एक डाल से दूसरी डाल पर छलांग लगा रहे हैं।

बहुत-से ग्वालबाल तो नदी के कछार में छपका खेल रहे हैं और उसमें फुदकते हुए मेंढ़कों के साथ स्वयं भी फुदक रहे हैं। कोई पानी में अपनी परछाईं देखकर उसकी हँसी कर रहे हैं, तो दूसरे शब्द की प्रतिध्वनि को ही बुरा-भला कह रहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण ज्ञानी संतों के लिए स्वयं ब्रह्मानंद के मूर्तिमान अनुभव हैं। दास्य भाव से युक्त भक्तों के लिए वे उनके आराध्य देव, परम ऐश्वर्यशाली परमेश्वर हैं और माया-मोहित विषयान्धों के लिए वे केवल एक मनुष्य-बालक हैं।

उन्हीं भगवान के साथ वे महान पुण्यात्मा ग्वालबाल तरह-तरह के खेल-खेल रहें हैं। बहुत जन्मों तक श्रम और कष्ट उठाकर उन्होंने अपनी इन्द्रियों और अंतःकरण को वश में कर लिया है, उन योगियों के लिए भी भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की रज अप्राप्य है। वही भगवान स्वयं जिन ब्रजवासी ग्वालबालों की आँखों के सामने रहकर सदा खेल खेलते हैं, उनके सौभाग्य की महिमा इससे अधिक क्या कही जाय।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 13-23 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! इसी समय अघासुर नाम का महान दैत्य आ धमका। उससे श्रीकृष्ण और ग्वालबालों की सुखमयी क्रीडा देखी न गयी। उसके हृदय में जलन होने लगी। वह इतना भयंकर था कि अमृतपान करके अमर हुए देवता भी उससे अपने जीवन की रक्षा करने के लिए चिन्तित रहा करते थे और इस बात की बाट देखते रहते थे कि किसी प्रकार से इसकी मृत्यु का अवसर आ जाय। अघासुर पूतना और बकासुर का छोटा भाई तथा कंस का भेजा था। वह श्रीकृष्ण, श्रीदामा आदि ग्वालबालों को देखकर मन-ही-मन सोचने लगा कि ‘यही मेरे सगे भाई और बहिन को मारने वाला है। इसलिए आज मैं इन ग्वालबालों के साथ इसे मार डालूँगा। जब से सब मरकर मेरे उन दोनों भाई-बहिनों के मृत तर्पण की तिलांजलि बन जायँगे, तब ब्रजवासी अपने-आप मरे-जैसे हो जायँगे। सन्तान ही प्राणियों के प्राण हैं। जब प्राण ही न रहेंगे, तब शरीर कैसे रहेगा? इसकी मृत्यु से ब्रजवासी अपने-आप मर जायँगे।'

ऐसा निश्चय करके वह दुष्ट दैत्य अजगर का रूप धारण कर मार्ग में लेट गया। उसका वह अजगर-शरीर एक योजन लंबे बड़े पर्वत के समान विशाल एवं मोटा था। वह बहुत ही अद्भुत था। उसकी नीयत सब बालकों को निगल जाने की थी, इसलिए उसने गुफा से समान अपना बहुत बड़ा मुँह फाड़ रखा था। उसका नीचे का होंठ पृथ्वी से और ऊपर का होंठ बादलों से लग रहा था। उस के जबड़े कन्दराओं के समान थे और दाढ़े पर्वत के शिखर-सी जान पड़ती थीं। मुँह के भीतर घोर-अन्धकार था। जीभ एक चौड़ी लाल सड़क-सी दीखती थी। सांस आँधी के सामान थी और आँखें दावानल के समान दहक रही थीं।

अघासुर का ऐसा रूप देखकर बालकों ने समझा कि यह भी वृन्दावन की कोई शोभा है। वे कौतुहलवश खेल-ही-खेल में उत्प्रेक्षा करने लगे कि यह मानो अजगर का खुला हुआ मुँह है।
कोई कहता ;- 'मित्रो! भला बतलाओ तो, यह जो हमारे सामने कोई जीव-सा बैठा है, यह हमें निगलने के लिए खुले हुए किसी अजगर के मुँह-जैसा नहीं है?’

दूसरे ने कहा ;- ‘सचमुच सूर्य की किरणें पड़ने से ये जो बादल लाल-लाल हो गये हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों ठीक-ठीक उसका ऊपरी होंठ ही हो। और इन्हीं बादलों की परछाईं से यह जो नीचे की भूमि कुछ लाल-लाल दीख रही है, वही इसका नीचे का होंठ जान पड़ता है।'

तीसरे ग्वाल बालक ने कहा ;- ‘हाँ, सच तो है। देखो तो सही, क्या ये दायीं और बायीं ओर की गिरी-कन्दराएँ अजगर के जबड़ों की होड़ नहीं करतीं? और ये ऊँची-ऊँची शिखर पंक्तियाँ तो साफ़-साफ़ इसकी दाढ़े मालूम पड़ती हैं।'

चौथे ने कहा ;- ‘अरे भाई! यह लम्बी-चौड़ी सड़क तो ठीक अजगर की जीभ-सरीखी मालूम पड़ती है और इन गिरीश्रृंगों के बीच का अन्धकार तो उसके मुँह के भीतरी भाग को भी मात करता है।'

किसी दूसरे ग्वालबाल ने कहा ;- ‘देखो, देखो! ऐसा जान पड़ता है कि कहीं इधर जंगल में आग लगी है। इसी से यह गरम और तीखी हवा आ रही है। परन्तु अजगर की सांस के साथ इसका क्या ही मेल बैठ गया है और उसी आग में जले हुए प्राणियों की दुर्गन्ध ऐसी जान पड़ती है मानो अजगर के पेट में मरे हुए जीवों के मांस की ही दुर्गन्ध हो।'

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 24-32 का हिन्दी अनुवाद)

तब उन्हीं में से एक ने कहा ;- ‘यदि हम लोग इसके मुँह में घुस जायँ, तो क्या हमें निगल जायगा? अजी! यह क्या निगलेगा। कहीं ऐसा करने की ढिठाई की तो एक क्षण में यह भी बकासुर के समान नष्ट हो जायगा। हमारा कन्हैया इसको छोड़ेगा थोड़े ही।’ इस प्रकार कहते हुए वे ग्वालबाल बकासुर को मारने वाले श्रीकृष्ण का सुन्दर मुख देखते और ताली पीट-पीटकर हँसते हुए अघासुर के मुँह में घुस गये। उन अनजान बच्चों की आपस में हुई भ्रमपूर्ण बातें सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा कि ‘अरे, इन्हें तो सच्चा सर्प भी झूठा प्रतीत होता है!’

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण जान गये कि यह राक्षस है। भला, उनसे क्या छिपा रहता? वे तो समस्त प्राणियों के हृदय में ही निवास करते हैं। अब उन्होंने यह निश्चय किया कि अब अपने सखा ग्वालबालों को उसके मुँह में जाने से बचा लें। भगवान इस प्रकार सोच ही रहे थे कि सब-के-सब ग्वालबाल बछड़ों के साथ उस असुर के पेट में चले गये। परन्तु अघासुर ने अभी उन्हें निगला नहीं, इसका कारण था कि अघासुर अपने बकासुर और बहिन पूतना के वध की याद करके इस बात की बाट देख रहा था कि उनको मारने वाले श्रीकृष्ण भी मुँह में आ जायँ, तब सबको एक साथ ही निगल जाऊँ।

भगवान श्रीकृष्ण सबको अभय देने वाले हैं। जब उन्होंने देखा कि ये बेचारे ग्वालबाल - जिनका एकमात्र रक्षक मैं ही हूँ - मेरे हाथ से निकल गये और जैसे कोई तिनका उड़कर आग में गिर पड़े, वैसे ही अपने-आप मृत्यु रूप अघासुर की जठराग्नि के ग्रास बन गये, तब दैव की इस विचित्र लीला पर भगवान को बड़ा विस्मय हुआ उनका हृदय दया से द्रवित हो गया।

वे सोचने लगे कि ‘अब मुझे क्या करना चाहिये? ऐसा कौन-सा उपाय है, जिससे इस दुष्ट की मृत्यु भी हो जाय और इन संत-स्वभाव भोले-भाले बालकों की हत्या भी न हो? ये दोनों काम कैसे हो सकते हैं ?’ परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण भूत, भविष्य, वर्तमान - सबको प्रत्यक्ष देखते रहते हैं। उसके लिये उह उपाय जानना कोई कठिन न था।

वे अपना कर्तव्य निश्चय करके स्वयं उसके मुँह में घुस गये। उस समय बादलों में छिपे हुए देवता भयवश ‘हाय-हाय’ पुकार उठे और अघासुर के हितैषी कंस आदि राक्षस हर्ष प्रकट करने लगे। अघासुर बछड़ों और ग्वालबालों के सहित भगवान श्रीकृष्ण को अपनी दाढ़ों से चबाकर चूर-चूर कर डालना चाहता था। परन्तु उसी समय अविनाशी श्रीकृष्ण ने देवताओं की ‘हाय-हाय’ सुनकर उसके गले में अपने शरीर को बड़ी फुर्ती से बढ़ा लिया। इसके बाद भगवान ने अपने शरीर को इतना बड़ा कर लिया कि उसका गला रूँध गया। आँखें उलट गयीं। वह व्याकुल होकर बहुत ही छटपटाने लगा। सांस रुककर सारे शरीर में भर गयी और अन्त में उसके प्राण ब्रह्मरन्ध्र फोड़कर निकल गये। उसी मार्ग से प्राणों के साथ उसकी इन्द्रियाँ भी शरीर से बाहर हो गयीं। उसी समय भगवान मुकुन्द ने अपनी अमृतमयी दृष्टि से मरे हुए बछड़ों और ग्वालबालों को जिला दिया और उन सबको साथ लेकर वे अघासुर के मुँह के बाहर निकल आये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 33-41 का हिन्दी अनुवाद)

उस अजगर के स्थूल शरीर के एक अत्यन्त अद्भुत और महान ज्योति निकली, उस समय उस ज्योति के प्रकाश से दसों दिशाएँ प्रज्वलित हो उठीं। वह थोड़ी देर तक तो आकाश में स्थित होकर भगवान के निकलने की प्रतीक्षा करती रही। जब वे बाहर निकल आये, तब वह सब देवताओं के देखते-देखते उन्हीं में समा गयीं। उस समय देवताओं ने फूल बरसाकर, अप्सराओं ने नाचकर, गन्धर्वों ने गाकर, विद्याधरों ने बाजे बजाकर, ब्राह्मणों ने स्तुति-पाठकर और पार्षदों ने जय-जयकार के नारे लगाकर बड़े आनन्द से भगवान श्रीकृष्ण का अभिनन्दन किया। क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने अघासुर को मारकर उन सबका बहुत बड़ा काम किया था।

उन अद्भुत स्तुतियों, सुन्दर बाजों, मंगलमय गीतों, जय-जयकार और आनन्दोत्सवों की मंगलध्वनि ब्रह्मा-लोक के पास पहुँच गयी। जब ब्रह्मा जी ने वह ध्वनि सुनी, तब वे बहुत ही शीघ्र अपने वाहन पर चढ़कर वहाँ आये और भगवान श्रीकृष्ण की यह महिमा देखकर आश्चर्यचकित हो गये।

परीक्षित! जब वृन्दावन में अजगर वह चाम सूख गया, तब वह ब्रजवासियों के लिए बहुत दिनों तक खेलने की एक अद्भुत गुफ़ा-सी बना रहा। यह जो भगवान ने अपने ग्वालबालों को मृत्यु के मुख से बचाया था और अघासुर को मोक्ष-दान किया था, वह लीला भगवान ने अपने कुमार अवस्था में अर्थात पाँचवें वर्ष में ही की थी। ग्वालबालों ने उसे उसी समय देखा भी था, परन्तु गौगण्ड अवस्था अर्थात छठे वर्ष में अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर ब्रज में उसका वर्णन किया।

अघासुर मूर्तिमान अघ (पाप) ही था। भगवान के स्पर्शमात्र उसके सारे पाप धुल गये और उसे उस सारुप्य-मुक्ति की प्राप्ति हुई, जो पापियों को कभी मिल नहीं सकती। परन्तु यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि मनुष्य-बालक की-सी लीला रचने वाले ये वे ही परमपुरुष परमात्मा हैं, जो व्यक्त-अव्यक्त और कार्य-कारण रूप समस्त जगत के एकमात्र विधाता हैं। भगवान श्रीकृष्ण के किसी एक अंग की भावनिर्मित प्रतिमा यदि ध्यान के द्वारा एक बार भी हृदय में बैठा ली जाय तो वह सालोक्य, सामीप्य आदि गतिका दान करती हैं, जो भगवान के बड़े-बड़े भक्तों को मिलती है। भगवान आत्मानन्द के नित्य साक्षातस्वरूप हैं। माया उनके पास तक नहीं फटक पाती। वे ही स्वयं अघासुर के शरीर में प्रवेश कर गये। क्या अब भी उसकी सद्गति के विषय में कोई संदेह है?

सूत जी कहते हैं ;- शौनकादि ऋषियों! यदुवंश शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने ही राजा परीक्षित को जीवन दान दिया था। उन्होंने जब अपने रक्षक एवं जीवन सर्वस्व का यह विचित्र चरित्र सुना, तब उन्होंने फिर श्री शुकदेव जी महाराज से उन्हीं की पवित्र लीला के सम्बन्ध में प्रश्न किया। इसका कारण यह था कि भगवान की अमृतमयी लीला ने परीक्षित के चित्त को अपने वश में कर रखा था ।

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन! आपने कहा था कि ग्वालबालों ने भगवान की दी हुई पाँचवें वर्ष की लीला ब्रज में छठे वर्ष में जाकर कही। अब इस विषय में आप कृपा करके यह बतलाइये कि एक समय की लीला दूसरे समय में वर्तमानकालीन कैसे हो सकती है?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वादश अ‍ध्यायः श्लोक 42-44 का हिन्दी अनुवाद)

महायोगी गुरुदेव! मुझे इस आश्चर्यपूर्ण रहस्य को जानने के लिए बड़ा कौतूहल हो रहा है। आप कृपा करके बतलाइये। अवश्य ही इसमें भगवान श्रीकृष्ण की विचित्र घटनाओं को घटित करने वाली माया का कुछ-न-कुछ काम होगा। क्योंकि और किसी प्रकार ऐसा नहीं हो सकता। गुरुदेव! यद्यपि क्षत्रियोचित धर्म ब्राह्मण सेवा से विमुख होने के कारण मैं अपराधी नाममात्र का क्षत्रिय हूँ, तथापि हमारा अहोभाग्य है कि हम आपके मुखारविन्द से निरन्तर झरते हुए परम पवित्र मधुमय श्रीकृष्ण लीलामृत का बार-बार पान कर रहे हैं।

सूतजी कहते हैं ;- भगवान के परम प्रेमी भक्तों में श्रेष्ठ शौनक जी! जब राजा परीक्षित ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब श्री शुकदेव जी को भगवान की वह लीला स्मरण हो आयी और उनकी समस्त इन्द्रियाँ तथा अंतःकरण विवश होकर भगवान की नित्यलीला में खिंच गये। कुछ समय के बाद धीरे-धीरे श्रम और कष्ट से उन्हें बाह्यज्ञान हुआ। तब वे परीक्षित से भगवान की लीला का वर्णन करने लगे।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                      【तेरहवाँ अध्याय:】१३.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"ब्रह्मा जी का मोह और उसका नाश"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! तुम बड़े भाग्यवान हो। भगवान के प्रेमी भक्तों में तुम्हारा स्थान श्रेष्ठ है। तभी तो तुमने इतना सुन्दर प्रश्न किया है। यों तो तुम्हें बार-बार भगवान की लीला-कथाएँ सुनने को मिलती हैं, फिर भी तुम उनके सम्बन्ध में प्रश्न करके उन्हें और भी सरस और भी नूतन बना देते हो। रसिक संतों की वाणी, कान और हृदय भगवान की लीला के गान, श्रवण और चिन्तन के लिये ही होते हैं, उनका यह स्वभाव ही होता है कि वे क्षण-प्रतिक्षण भगवान की लीलाओं को अपूर्व रसमयी और नित्य-नूतन अनुभव करते रहें। ठीक वैसे ही, जैसे लम्पट पुरुषों को स्त्रियों की चर्चा में नया-नया रस जान पड़ता है।

परीक्षित! तुम एकाग्र चित्त से श्रवण करो। यद्यपि भगवान की यह लीला अत्यन्त रहस्यमयी है, फिर भी मैं तुम्हें सुनाता हूँ। क्योंकि दयालु आचार्यगण अपने प्रेमी शिष्य को गुप्त रहस्य भी बतला दिया करते हैं। यह तो मैं तुमसे कह ही चुका हूँ कि भगवान श्रीकृष्ण ने अपने साथी ग्वालबालों को मृत्युरूप अघासुर के मुँह से बचा लिया। इसके बाद वे उन्हें यमुना जी के पुलिन पर ले आये और उनसे कहने लगे ;- ‘मेरे प्यारे मित्रों! यमुना जी का यह पुलिन अत्यन्त रमणीय है। देखो तो सही, यहाँ की बालू कितनी कोमल और स्वच्छ है। हम लोगों के लिए खेलने की तो यहाँ सभी सामग्री विद्यमान है। देखो, एक ओर रंग-बिरंगे कमल खिले हुए हैं और उनकी सुगन्ध से खिंचकर भौंरे गुंजार कर रहे हैं; तो दूसरी ओर सुन्दर-सुन्दर पक्षी बड़ा ही मधुर कलरव कर रहे हैं, जिसकी प्रतिध्वनि से सुशोभित वृक्ष इस स्थान की शोभा बढ़ा रहे हैं। अब हम लोगों को यहाँ भोजन कर लेना चाहिए; क्योंकि दिन बहुत चढ़ आया है और हम लोग भूख से पीड़ित हो रहे हैं। बछड़े पानी पीकर समीप ही धीरे-धीरे हरी-हरी घास चरते रहें।'

ग्वालबालों ने एक स्वर से कहा ;- ‘ठीक है, ठीक है!’ उन्होंने बछड़ों को पानी पिलाकर हरी-हरी घास में छोड़ दिया और अपने-अपने छीके खोल-खोलकर भगवान के साथ बड़े आनन्द से भोजन करने लगे। सबके बीच में भगवान श्रीकृष्ण बैठ गये। उनके चारों ओर ग्वालबालों ने बहुत-सी मण्डलाकार पंक्तियाँ बना लीं और एक-से-एक सटकर बैठ गये। सबके मुँह श्रीकृष्ण की ओर थे और सबकी आँखें आनन्द से खिल रहीं थीं। वन-भोजन के समय श्रीकृष्ण के साथ बैठे हुए ग्वालबाल ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो कमल की कर्णिका के चारों ओर उसकी छोटी-बड़ी पंखुड़ियाँ सुशोभित हो रही हों। कोई पुष्प तो कोई पत्ते और कोई-कोई पल्लव, अंकुर, फल, छीके, छाल एवं पत्थरों के पात्र बनाकर भोजन करने लगे।

भगवान श्रीकृष्ण और ग्वालबाल सभी परस्पर अपनी-अपनी भिन्न-भिन्न रुचि का प्रदर्शन करते। कोई किसी को हँसा देता, तो कोई स्वयं ही हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाता। इस प्रकार वे सब भोजन करने लगे। उन्होंने मुरली को तो कमर की फेंट में आगे की ओर खोंस लिया था। सींगी और बेंत बगल में दबा लिये थे। बायें हाथ में बड़ा ही मधुर घृत मिश्रित दही-भात का ग्रास था और अँगुलियों में अदरक, नीबू आदि के अचार-मुरब्बे दबा रखे थे। ग्वालबाल उनको चारों ओर से घेरकर बैठे हुए थे और वे स्वयं सबके बीच में बैठकर अपनी विनोद भरी बातों से अपने साथी ग्वालबालों को हँसाते जा रहे थे। जो समस्त यज्ञों के एकमात्र भोक्ता हैं, वे ही भगवान ग्वालबालों के साथ बैठकर इस प्रकार बाल-लीला करते हुए भोजन कर रहे थे और स्वर्ग के देवता आश्चर्यचकित होकर यह अद्भुत लीला देख रहे थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 12-22 का हिन्दी अनुवाद)

भरतवंश शिरोमणे! इस प्रकार भोजन करते-करते ग्वालबाल भगवान की इस रसमयी लीला में तन्मय हो गये। उसी समय उनके बछड़े हरी-हरी घास के लालच से घोर जंगल में बड़ी दूर निकल गये। जब ग्वालबालों का ध्यान उस ओर गया, तब वे भयभीत हो गये। उस समय अपने भक्तों के भय को भगा देने वाले श्री भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - ‘मेरे प्यारे मित्रों! तुम लोग भोजन करना बंद मत करो। मैं बछड़ों को लिये आता हूँ।' ग्वालबालों से इस प्रकार कहकर भगवान श्रीकृष्ण हाथ में दही-भात का कौर लिये ही पहाड़ों, गुफाओं, कुंजों एवं अन्यान्य भयंकर स्थानों में अपने तथा साथियों के बछड़ों को ढूंढने चल दिये।

परीक्षित! ब्रह्मा जी पहले से ही आकाश में उपस्थित थे। प्रभु के प्रभाव से अघासुर का मोक्ष देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा कि लीला से मनुष्य-बालक बने हुए भगवान श्रीकृष्ण कोई और मनोहर महिमामयी लीला देखनी चाहिये। ऐसा सोचकर उन्होंने पहले तो बछड़ों को और भगवान श्रीकृष्ण के चले जाने पर ग्वाल-बालों को भी, अन्यत्र ले जाकर रख दिया और स्वयं अन्तर्धान हो गये। अन्ततः वे जड़ कमल की ही तो सन्तान हैं। भगवान श्रीकृष्ण बछड़े न मिलने पर यमुना जी पुलिन पर लौट आये, परन्तु यहाँ क्या देखते हैं कि ग्वालबाल भी नहीं हैं।

तब उन्होंने वन में घूम-घूमकर चारों ओर उन्हें ढूंढा। परन्तु जब वे ग्वालबाल और बछड़े उन्हें कहीं न मिले, तब वे तुरन्त जान गये कि यह सब ब्रह्मा की करतूत है। वे तो सारे विश्व के एकमात्र ज्ञाता हैं। अब भगवान श्रीकृष्ण ने बछड़ों और ग्वालबालों की माताओं को तथा ब्रह्मा जी को भी आनन्दित करने के लिए अपने-आप को ही बछड़ों और ग्वालबालों - दोनों के रूप में बना लिया। क्योंकि वे ही सम्पूर्ण विश्व के कर्ता सर्वशक्तिमान ईश्वर हैं।

परीक्षित! वे बालक और बछड़े संख्या में जितने थे, जितने छोटे-छोटे उनके शरीर थे, उनके हाथ-पैर जैसे-जैसे थे, उनके पास जितनी और जैसी छड़ियाँ, सिगी, बाँसुरी, पत्ते और छीके थे, जैसे और जितने वस्त्राभूषण थे, उनके शील, स्वाभाव, गुण, नाम, रूप और अवस्थाएँ जैसी थीं, जिस प्रकार खाते-पीते और चलते थे, ठीक वैसे ही और उतने ही रूपों में सर्वस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गये। उस समय ‘यह सम्पूर्ण जगत विष्णु रूप है’ - यह वेदवाणी मानो मूर्तिमती होकर प्रकट हो गयी। सर्वात्मा भगवान स्वयं ही बछड़े बन गये और स्वयं ही ग्वालबाल। अपने आत्मस्वरूप बछड़ों को अपने आत्मस्वरूप ग्वालबालों के द्वारा घेरकर अपने ही साथ अनेकों प्रकार के खेल खेलते हुए उन्होंने ब्रज में प्रवेश किया।

परीक्षित! जिस ग्वालबाल के जो बछड़े थे, उन्हें उसी ग्वालबाल के रूप से अलग-अलग ले जाकर उसकी बाखल में घुसा दिया और विभिन्न बालकों के रूप में उनके भिन्न-भिन्न घरों में चले गये। ग्वालबालों की माताएँ बाँसुरी की तान सुनते ही जल्दी से दौड़ आयीं। ग्वालबाल बने हुए परब्रह्म श्रीकृष्ण को अपने बच्चे समझकर हाथों से उठाकर उन्होंने जोर से हृदय से लगा लिया। वे अपने स्तनों से वात्सल्य-स्नेह की अधिकता के कारण सुधा से भी मधुर और आसव से भी मादक चुचुआता हुआ दूध उन्हें पिलाने लगीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रयोदश अ‍ध्यायः श्लोक 23-33 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! इसी प्रकार प्रतिदिन संध्या समय भगवान श्रीकृष्ण उन ग्वालबालों के रूप में वन से लौट आते और अपनी बाल सुलभ लीलाओं से माताओं को आनन्दित करते। वे माताएँ उन्हें उबटन लगातीं, नहलातीं, चन्दन का लेप करतीं और अच्छे-अच्छे वस्त्रों तथा गहनों से सजातीं। दोनों भौंहों के बीच डीठ से बचाने के लिए काजल का डिठौना लगा देतीं तथा भोजन करातीं और तरह-तरह से बड़े लाड़-प्यार से उनका लालन-पालन करतीं। ग्वालिनों के समान गौएँ भी जब जंगलों में से चरकर जल्दी-जल्दी लौटतीं और उनकी हुंकार सुनकर उनके प्यारे बछड़े दौड़ कर उसके पास आ जाते, अब वे बार-बार उन्हें अपनी जीभ से चाटतीं और अपना दूध पिलातीं।

उस समय स्नेह की अधिकता के कारण उनके थनों से स्वयं ही दूध की धारा बहने लगती। इन गायों और ग्वालिनों का मातृभाव पहले-जैसा ही ऐश्वर्य ज्ञानरहित और विशुद्ध था। हाँ, अपने असली पुत्रों की अपेक्षा इस समय उनका स्नेह अवश्य अधिक था। इसी प्रकार भगवान भी उनके पहले पुत्रों के समान ही पुत्रभाव दिखला रहे थे, परन्तु भगवान में उन बालकों के जैसा मोह का भाव नहीं था कि मैं इनका पुत्र हूँ। अपने-अपने बालकों के प्रति ब्रज-वासियों की स्नेह लता दिन-प्रतिदिन एक वर्ष तक धीरे-धीरे बढ़ती ही गयी। यहाँ तक कि पहले श्रीकृष्ण में उनका जैसा असीम और अपूर्व प्रेम था, वैसा ही अपने इन बालकों के प्रति भी हो गया। इस प्रकार सर्वात्मा श्रीकृष्ण बछड़े ग्वालबालों के बहाने गोपाल बनकर अपने बालक रूप से वत्सरूप का पालन करते हुए एक वर्ष तक वन और गोष्ठ में क्रीडा करते रहे।

जब एक वर्ष पूरा होने में पाँच-छः रातें शेष थीं, तब एक दिन भगवान श्रीकृष्ण बलराम जी के साथ बछड़ों को चराते हुए वन में गये। उस समय गौएँ गोवर्धन की चोटी पर घास चर रहीं थीं। वहाँ उन्होंने ब्रज के पास ही चरते हुए बहुत दूर अपने बछड़ों को देखा। बछड़ों को देखते ही गौओं का वात्सल्य-स्नेह उमड़ आया। वे अपने-आप की सुध-बुध खो बैठीं और ग्वालों के रोकने की कुछ भी परवा न कर जिस मार्ग से वे न जा सकते थे, उस मार्ग से हुंकार करती हुई बड़े वेग से दौड़ पड़ीं। उस समय उनके थनों से दूध बहता जाता था और उनकी गरदन सिकुड़कर डील से मिल गयी थीं। वे पूँछ तथा सिर उठाकर इतने वेग से दौड़ रहीं थीं कि मालूम होता था मानो उनके दो ही पैर हैं।

जिन गौओं के और भी बछड़े हो चुके थे, वे भी गोवर्धन के नीचे अपने पहले बछड़ों के पास दौड़ आयीं और उन्हें स्नेहवश अपने-आप बहता हुआ दूध पिलाने लगीं। उस समय वे अपने बच्चों का एक-एक अंग ऐसे चाव से चाट रहीं थीं, मानों उन्हें अपने पेट में रख लेंगी। गोपों ने उन्हें रोकने का बहुत कुछ प्रयत्न किया, परन्तु उनका सारा प्रयत्न व्यर्थ रहा। उन्हें अपनी विफलता पर कुछ लज्जा और गायों पर बड़ा क्रोध आया। जब वे बहुत कष्ट उठाकर उस कठिन मार्ग से उस स्थान पर पहुँचे, तब उन्होंने बछड़ों के साथ अपने बालकों को भी देखा। अपने बच्चों को देखते ही उनका हृदय प्रेमरस से सराबोर हो गया। बालकों के प्रति अनुराग की बाढ़ आ गयी, उनका क्रोध न जाने कहाँ हवा हो गया। उन्होंने अपने-अपने बालकों को गोद में उठाकर हृदय से लगा लिया और उनका मस्तक सूँघकर अत्यन्त आनन्दित हुए।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रयोदश अ‍ध्यायः श्लोक 34-44 का हिन्दी अनुवाद)

बूढ़े गोपों को अपने बालकों के आलिंगन से परम आनन्द प्राप्त हुआ। वे निहाल हो गये। फिर बड़े कष्ट से उन्हें छोड़कर धीरे-धीरे वहाँ से गये। जाने के बाद भी बालकों के और उनके आलिंगन के स्मरण से उनके नेत्रों से प्रेम के आँसू बहते रहे।

बलराम जी ने देखा कि ब्रजवासी गोप, गौएँ और ग्वालिनों की उन सन्तानों पर भी, जिन्होंने अपनी माँ का दूध पीना छोड़ दिया है, क्षण-प्रतिक्षण प्रेम-सम्पत्ति और उसके अनुरूप उत्कंठा बढती जा रही है, तब वे विचार में पड़ गये, क्योंकि उन्हें इसका कारण मालूम न था। ‘यह कैसी विचित्र बात है! सर्वात्मा श्रीकृष्ण में ब्रजवासियों का और मेरा जैसा अपूर्व स्नेह है, वैसा ही इन बालकों और बछड़ों पर ही बढ़ता जा रहा है। यह कौन-सी माया है? कहाँ से आयी है? यह किसी देवता की है, मनुष्य की है अथवा असुरों की?

परन्तु क्या ऐसा भी सम्भव है? नहीं-नहीं, यह तो मेरे प्रभु की माया है। और किसी की माया में ऐसी सामर्थ्य नहीं, जो मुझे भी मोहित कर ले।' बलराम जी ने ऐसा विचार करके ज्ञानदृष्टि से देखा, तो उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि इन सब बछड़ों और ग्वालबालों के रूप में केवल श्रीकृष्ण-ही-श्रीकृष्ण हैं।
तब उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा ;- ‘भगवन! ये ग्वालबाल और बछड़े न देवता हैं और न तो कोई ऋषि ही। इन भिन्न-भिन्न रूपों का आश्रय लेने पर भी आप अकेले ही इन रूपों में प्रकाशित हो रहे हैं। कृपया स्पष्ट करके थोड़े में ही यह बतला दीजिये कि आप इस प्रकार बछड़े, बालक, सिंगी, रस्सी आदि के रूप में अलग-अलग क्यों प्रकाशित हो रहे हैं?’ तब भगवान ने ब्रह्मा की सारी करतूत सुनायी और बलराम जी ने सब बातें जान लीं।

परीक्षित! तब तक ब्रह्मा जी ब्रह्मलोक से ब्रज में लौट आये। उनके कालमान से अब तक केवल एक त्रुटि समय व्यतीत हुआ था। उन्होंने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण ग्वालबाल और बछड़ों के साथ एक साल से पहले की भाँति ही क्रीडा कर रहे हैं। वे सोचने लगे - ‘गोकुल में जितने भी ग्वालबाल और बछड़े थे, वे तो मेरी मायामयी शैय्या पर सो रहे हैं - उनको तो मैंने अपनी माया से अचेत कर दिया था; वे तब से अब तक सचेत नहीं हुए। तब मेरी माया से मोहित ग्वालबाल और बछड़ों के अतिरिक्त ये उतने ही दूसरे बालक तथा बछड़े कहाँ से आ गये, जो एक साल से भगवान के साथ खेल रहे हैं?

ब्रह्मा जी ने दोनों स्थानों पर दोनों को देखा और बहुत देर तक ध्यान करके अपनी ज्ञानदृष्टि से उनका सहस्य खोलना चाहा; परन्तु इन दोनों में कौन-से पहले के ग्वालबाल हैं और कौन-से पीछे बना लिये गये हैं, इसमें से कौन सच्चे हैं और कौन बनावटी - यह बात वे किसी प्रकार न समझ सके। भगवान श्रीकृष्ण की माया में तो सभी मुग्ध हो रहे हैं, परन्तु कोई भी माया-मोह भगवान का स्पर्श नहीं कर सकता। ब्रह्मा जी उन्हीं भगवान श्रीकृष्ण को अपनी माया से मोहित करने चले थे। किन्तु उनको मोहित करना तो दूर रहा, वे अजन्मा होने पर भी अपनी ही माया से अपने-आप मोहित हो गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 45-56 का हिन्दी अनुवाद)

जिस प्रकार रात के घोर अन्धकार में कुहरे के अन्धकार का और दिन के प्रकाश में जुगनू के प्रकाश का पता नहीं चलता, वैसे ही जब क्षुद्र पुरुष महापुरुषों पर अपनी माया का प्रयोग करते हैं, तब वह उनका तो कुछ बिगाड़ नहीं सकती, अपना ही प्रभाव खो बैठती है। ब्रह्मा जी विचार कर ही रहे थे कि उनके देखते-देखते उसी क्षण सभी ग्वालबाल और बछड़े श्रीकृष्ण के रूप में दिखायी पड़ने लगे। सब-के-सब सजल जलधर के समान श्यामवर्ण, पीताम्बरधारी, शंख, चक्र, गदा और पद्म से युक्त - चतुर्भुज। सबके सिर पर मुकुट, कानों में कुण्डल और कण्ठों में मनोहर हार तथा वनमालाएँ शोभायमान हो रहीं थीं।

उनके वक्षःस्थल पर सुवर्ण की सुनहली रेखा - श्रीवत्स, बाहुओं में बाजूबंद, कलाइयों में शंखाकार रत्नों से जड़े कंगन, चरणों में नुपुर और कड़े, कमर में करधनी तथा अँगुलियों में अंगूठियाँ जगमगा रहीं थीं। वे नख से शिख तक समस्त अंगों में कोमल और नूतन तुलसी की मालाएँ, जो उन्हें बड़े भाग्यशाली भक्तों ने पहनायी थीं, धारण किये हुए थे। उनकी मुस्कान चाँदनी के समान उज्ज्वल थी और रतनारे नेत्रों की कटाक्षपूर्ण चितवन बड़ी ही मधुर थी। ऐसा जान पड़ता था मानो वे इस दोनों के द्वारा सत्त्वगुण और रजोगुण को स्वीकार करके भक्तजनों के हृदय में शुद्ध लालसाएँ जगाकर उनको पूर्ण कर रहे हैं।

ब्रह्मा जी ने यह भी देखा कि उन्हीं के जैसे दूसरे ब्रह्मा से लेकर तृण तक सभी चराचर जीव मूर्तिमान होकर नाचते-गाते अनेक प्रकार की पूजा-सामग्री से अलग-अलग भगवान के उन सब रूपों की उपासना कर रहे हैं। उन्हें अलग-अलग अणिमा-महिमा आदि सिद्धियाँ, माया-विद्या आदि विभूतियाँ और महत्तत्त्व आदि चौबीसों तत्त्व चारों ओर से घेरे हुए है। प्रकृति में क्षोभ उत्पन्न करने वाला काल, उसके परिणाम का कारण स्वभाव, वासनाओं को जगाने वाला संस्कार, कामनाएँ, कर्म, विषय और फल - सभी मूर्तिमान होकर भगवान के प्रत्येक रूप की उपासना कर रहें हैं। भगवान की सत्ता और महत्ता के सामने उन सभी की सत्ता और महत्ता अपना अस्तित्व खो बैठी थी।

ब्रह्मा जी ने यह भी देखा कि वे सभी भूत, भविष्यत और वर्तमान काल के द्वारा सीमित नहीं हैं, त्रिकालाबाधित सत्य हैं। वे सब-के-सब स्वयं प्रकाश और केवल अनन्त आनन्द स्वरूप हैं। उनमें जड़ता अथवा चेतना का भेदभाव नहीं है। वे सब-के-सब एक-रस हैं। यहाँ तक कि उपनिषद्दर्शी तत्त्वज्ञानियों की दृष्टि भी उनकी अनन्त महिमा का स्पर्श नहीं कर सकती। इस प्रकार ब्रह्मा जी ने एक साथ ही देखा कि वे सब-के-सब उन परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण के ही स्वरूप हैं, जिनके प्रकाश से यह सारा जगत प्रकाशित हो रहा है।

यह अत्यन्त आश्चर्यमय दृश्य देखकर ब्रह्मा जी तो चकित रह गये। उनकी ग्यारहों इन्द्रियाँ क्षुब्ध एवं स्तब्ध रह गयीं। वे भगवान के तेज से निस्तेज होकर मौन हो गये। उस समय वे ऐसे स्तब्ध होकर खड़े रह गये, मानो ब्रज के अधिष्ठातृ-देवता के पास एक पुतली खड़ी हो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 57-64 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! भगवान का स्वरूप तर्क से परे है। उसकी महिमा असाधारण है। वह स्वयं प्रकाश, आनन्दस्वरूप और माया से अतीत है। वेदान्त भी साक्षात रूप से उनका वर्णन करने में असमर्थ हैं, इसलिए उससे भिन्न का निषेध करके आनन्दस्वरूप ब्रह्म का किसी प्रकार कुछ संकेत करता है। यद्यपि ब्रह्मा जी समस्त विद्याओं के अधिपति हैं, तथापि भगवान के दिव्यस्वरूप को वे तनिक भी न समझ सके कि यह क्या है। यहाँ तक कि वे भगवान के उन महिमामय रूपों को देखने में भी असमर्थ हो गये। उनकी आँखें मुँद गयीं। भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा के इस मोह और असमर्थता को जानकर बिना किसी प्रयास के तुरंत अपनी माया का परदा हटा दिया। इससे ब्रह्मा जी को बाह्यज्ञान हुआ। वे मानो मरकर फिर जी उठे।

सचेत होकर उन्होंने ज्यों-त्यों करके बड़े कष्ट से अपने नेत्र खोले। तब कहीं उन्हें अपना शरीर और यह जगत दिखायी पड़ा। फिर ब्रह्मा जी जब चारों ओर देखने लगे, तब पहले दिशाएँ और उसके बाद तुरंत ही उनके सामने वृन्दावन दिखायी पड़ा। वृन्दावन सबके लिए एक-सा प्यारा है। जिधर देखिये, उधर ही जीवों को जीवन देने वाले फल और फूलों से लदे हुए, हरे-हरे पत्तों से लहलहाते हुए वृक्षों की पाँतें शोभा पा रही हैं। भगवान श्रीकृष्ण की लीलाभूमि होने के कारण वृन्दावन धाम में क्रोध, तृष्णा आदि दोष प्रवेश नहीं कर सकते और वहाँ स्वभाव से ही परस्पर दुस्त्य्ज बैर रखने वाले मनुष्य और पशु-पक्षी भी प्रेमी मित्रों के सामान हिल-मिलकर एक साथ रहते हैं।

ब्रह्मा जी ने वृन्दावन का दर्शन करने के बाद देखा कि अद्वितीय परब्रह्म गोपवंश के बालक का-सा नाट्य कर रहा है। एक होने पर भी उसके सखा हैं, अनन्त होने पर भी वह इधर-उधर घूम रहा है और उसका ज्ञान अगाध होने पर भी वह अपने ग्वालबाल और बछड़ों को ढूँढ रहा है। ब्रह्मा जी ने देखा कि जैसे भगवान श्रीकृष्ण पहले अपने हाथ में दही-भात का कौर लिये उन्हें ढूंढ रहे थे, वैसे ही अब भी अकेले ही उनकी खोज में लगे हैं। भगवान को देखते ही ब्रह्मा जी अपने वाहन हंस पर से कूद पड़े और सोने के समान चमकते हुए अपने शरीर से पृथ्वी पर दण्ड की भाँति गिर पड़े। उन्होंने अपने चारों मुकुटों के अग्रभाग से भगवान के चरण-कमलों का स्पर्श करके नमस्कार किया और आनन्द के आँसुओं की धारा से उन्हें नहला दिया।

वे भगवान श्रीकृष्ण की पहले देखी हुई महिमा का बार-बार स्मरण करते, उनके चरणों पर गिरते और उठ-उठकर फिर-फिर गिर पड़ते। इसी प्रकार बहुत देर तक वे भगवान के चरणों में ही पड़े रहे। फिर धीरे-धीरे उठे और अपने नेत्रों के आँसू पोंछे। प्रेम और मुक्ति के एकमात्र उद्गम भगवान को देखकर उनका सिर झुक गया। वे काँपने लगे। अंजलि बाँधकर बड़ी नम्रता और एकाग्रता के साथ गद्गद वाणी से वे भगवान की स्तुति करने लगे।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                      【चोदहवाँ अध्याय:】१४.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 1-6 का हिन्दी अनुवाद)

"ब्रह्मा जी के द्वारा भगवान की स्तुति"
ब्रह्मा जी ने स्तुति की ;- प्रभो! एकमात्र आप ही स्तुति करने योग्य हैं। मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ। आपका यह शरीर वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल है, इस पर स्थिर बिजली के समान झिलमिल-झिलमिल करता हुआ पीताम्बर शोभा पाता है आपके गले में घुँघची की माला, कानों में मकराकृति कुण्डल तथा सिर पर मोर पंखों का मुकुट है, इन सबकी कान्ति से आपके मुख पर अनोखी छटा छिटक रही है। वक्षःस्थल पर लटकती हुई वनमाला और नन्ही-सी हथेली पर दही-भात का कौर। बगल में बेंत और सिंगी तथा कमर की फेंट में में आपकी पहचान बताने वाली बाँसुरी शोभा पा रही है।

आपके कमल-से सुकोमल परम सुकुमार चरण और यह गोपाल-बालक का सुमधुर वेष। स्वयं-प्रकाश परमात्मन! आपका यह श्रीविग्रह भक्तों की लालसा-अभिलाषा पूर्ण करने वाला है। यह आपकी चिन्मयी इच्छा का मूर्तिमान स्वरूप मुझ पर आपका साक्षात कृपा-प्रसाद है। मुझे अनुगृहीत करने के लिए ही आपने इसे प्रकट किया है। कौन कहता है कि यह पंचभूतों की रचना है? प्रभो! यह तो अप्राकृत शुद्ध सत्त्वमय है। मैं या और कोई समाधि लगाकर भी आपके इस सच्चिदानन्द-विग्रह की महिमा नहीं जान सकता। फिर आत्मा-नन्दानुभवस्वरूप साक्षात आपकी ही महिमा को तो कोई एकाग्र मन से भी कैसे जान सकता है।

प्रभो! जो लोग ज्ञान के लिए प्रयत्न न करके अपने स्थान में ही स्थित रहकर केवल सत्संग करते हैं और आपके प्रेमी संत पुरुषों के द्वारा गयी हुई आपकी लीला-कथा का, जो उन लोगों के पास रहने से अपने-आप सुनने को मिलती है, शरीर, वाणी और मन से विनयावनत होकर सेवन करते हैं - यहाँ तक कि उसे ही अपना जीवन बना लेते हैं, उसके बिना जी ही नहीं सकते - प्रभो! यद्यपि आप पर त्रिलोकी में कोई कभी विजय नहीं प्राप्त कर सकता, फिर भी वे आप पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, आप उनके प्रेम के अधीन हो जाते हैं। भगवन! आपकी भक्ति सब प्रकार से कल्याण का मूलस्त्रोत - उद्गम है। जो लोग उसे छोड़कर केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिये श्रम उठाते और दुःख भोगते हैं, उनको बस क्लेश-ही-क्लेश हाथ लगता है, और कुछ नहीं - जैसे थोथी भूसी कूटनेवाले को केवल श्रम ही मिलता है, चावल नहीं।

हे अच्युत! हे अनन्त! इस लोकों में पहले भी बहुत-से योगी हो गये हैं। जब उन्हें योगादि के द्वारा आपकी प्राप्ति न हुई, तब उन्होंने अपने लौकिक और वैदिक समस्त कर्म आपके चरणों में समर्पित कर दिये। उन समर्पित कर्मों से तथा आपकी लीला-कथा से उन्हें आपकी भक्ति प्राप्त हुई। उस भक्ति से ही आपके स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके उन्होंने बड़ी सुगमता से आपके परमपद की प्राप्ति कर ली। हे अनन्त! आपके सगुण-निर्गुण दोनों स्वरूपों का ज्ञान कठिन होने पर भी निर्गुण स्वरूप की महिमा इन्द्रियों का प्रत्याहार करके शुद्धान्तःकरण से जानी जा सकती है। (जानने की प्रक्रिया यह है कि) विशेष आकर के परित्यागपूर्वक आत्माकार अन्तःकरण का साक्षात्कार किया जाय। यह आत्माकार घट-पटादि रूप के समान ज्ञेय नहीं है, प्रत्युत आवरण का भंगमात्र है। यह साक्षात्कार ‘यह ब्रह्म है’, ‘मैं ब्रह्म को जानता हूँ’ इस प्रकार नहीं, किन्तु स्वयंप्रकाश रूप से ही होता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः श्लोक 7-13 का हिन्दी अनुवाद)

परन्तु भगवन! जिन समर्थ पुरुषों ने अनेक जन्मों तक परिश्रम करके पृथ्वी का एक-एक परमाणु, आकाश के हिमकण तथा उसमें चमकने वाले नक्षत्र एवं तारों तक को गिन डाला है - उसमें भी भला, ऐसा कौन हो सकता है जो आपके सगुण स्वरूप के अनन्त गुणों को गिन सके? प्रभो! आप केवल संसार के कल्याण के लिये ही अवतीर्ण हुए हैं। सो भगवन! आपकी महिमा का ज्ञान तप बड़ा ही कठिन है। इसलिये जो पुरुष क्षण-क्षण पर बड़ी उत्सुकता से आपकी कृपा का ही भली-भाँति अनुभव करता रहता है और प्रारब्ध के अनुसार जो कुछ सुख या दुःख प्राप्त होता है उसे निर्विकार मन से भोग लेता है, एवं जो प्रेमपूर्ण हृदय, गद्गद वाणी और पुलकित शरीर से अपने को आपके चरणों में समर्पित करता रहता है - इस प्रकार जीवन व्यतीत करने वाला पुरुष ठीक वैसे ही आपके परम पद का अधिकारी हो जाता है, जैसे अपने पिता की सम्पत्ति का पुत्र!

प्रभो! मेरी कुटिलता तो देखिये। आप अनन्त आदिपुरुष परमात्मा और मेरे-जैसे बड़े-बड़े मायावी भी आपकी माया के चक्र में हैं। फिर भी मैंने आप पर अपनी माया फैलाकर अपना ऐश्वर्य देखना चाहा! प्रभो! मैं आपके सामने हूँ ही क्या। क्या आग के सामने चिनगारी की भी कुछ गिनती है? भगवन! मैं रजोगुण से उत्पन्न हुआ हूँ। आपके स्वरूप को मैं ठीक-ठाक नहीं जानता। इसी से अपने को आपसे अलग संसार का स्वामी माने बैठा था। मैं अजन्मा जगत्कर्ता हूँ - इस मायाकृत मोह के घने अन्धकार से मैं अन्धा हो रहा था। इसलिये आप यह समझकर कि ‘यह मेरे ही अधीन है - मेरा भृत्य है, इस पर कृपा करनी चाहिए’, मेरा अपराध क्षमा कीजिये।

मेरे स्वामी! प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी रूप आवरणों से घिरा हुआ यह ब्रह्माण्ड ही मेरा शरीर है। और आपके एक-एक रोम के छिद्र में ऐसे-ऐसे अगणित ब्रह्माण्ड उसी प्रकार उड़ते-पड़ते रहते हैं, जैसे झरोखे की जाली में से आने वाली सूर्य की किरणों में रज के छोटे-छोटे परमाणु उड़ते हुए दिखायी पड़ते हैं। कहाँ अपने परिमाण से साढ़े तीन हाथ के शरीर वाला अत्यन्त क्षुद्र मैं, और कहाँ आपकी अनन्त महिमा। वृत्तियों की पकड़ में न आने वाले परमात्मन! जब बच्चा माता के पेट में रहता है, तब अज्ञानवश अपने हाथ-पैर पीटता है; परन्तु क्या माता उसे अपराध समझती है या उसके लिये वह कोई अपराध होता है? ‘है’ और ‘नहीं है’ - इन शब्दों से कही जाने वाली कोई भी वस्तु ऐसी है क्या, जो आपकी कोख के भीतर न हो? श्रुतियाँ कहती हैं कि जिस समय तीनों लोक प्रलयकालीन जल में लीन थे, उस समय उस जल में स्थित श्रीनारायण के नाभि कमल से ब्रह्मा का जन्म हुआ। उनका यह कहना किसी प्रकार असत्य नहीं हो सकता। तब आप भी बतलाइये, प्रभो! क्या मैं आपका पुत्र नहीं हूँ?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः श्लोक 14-22 का हिन्दी अनुवाद)

प्रभो! आप समस्त जीवों के आत्मा हैं। इसलिये आप नारायण हैं। आप समस्त जगत के और जीवों के अधीश्वर हैं, इसलिए भी नारायण हैं। आप समस्त लोकों के साक्षी हैं, इसलिए भी नारायण  हैं। नर से उत्पन्न होने वाले जल में निवास करने के कारण जिन्हें नारायण कहा जाता है, वे भी आपके एक अंश ही हैं। वह अंशरूप से दीखना भी सत्य नहीं हैं, आपकी माया ही है।

भगवन! यदि आपका विराट स्वरूप सचमुच उस समय जल में ही था तो मैंने उसी समय क्यों नहीं देखा, जबकि मैं कमलनाल के मार्ग से उसे सौ वर्ष तक जल में ढूंढ़ता रहा? फिर मैंने जब तपस्या की, तब उसी समय मेरे हृदय में उसका दर्शन कैसे हो गया? और फिर कुछ ही क्षणों में वह पुनः क्यों नहीं दीखा, अंतर्धयान क्यों गया? माया का नाश करने वाले प्रभो! दूर की बात कौन करे - अभी इसी अवतार में आपने इस बाहर दीखने वाले जगत को अपने पेट में ही दिखला दिया, जिसे देखकर माता यशोदा चकित हो गयी थीं। इससे यही सिद्ध होता है कि यह सम्पूर्ण विश्व केवल आपकी माया-ही-माया है जब आपके सहित यह सम्पूर्ण विश्व जैसा बाहर दीखता है वैसा ही आपके उदर में भी दीखा, तब क्या यह सब आपकी माया के बिना ही आप में प्रतीत हुआ? अवश्य ही आपकी लीला है।

उस दिन की बात जाने दीजिये, आज की ही लीजिये। क्या आज आपने मेरे सामने अपने अतिरिक्त सम्पूर्ण विश्व को अपनी माया का खेल नहीं दिखलाया है? पहले आप अकेले थे। फिर सम्पूर्ण ग्वालबाल, बछड़े और छड़ी-छीके भी आप ही हो गये। उसके बाद मैंने देखा कि आपके वे सब रूप चतुर्भुज हैं और मेरे सहित सब-के-सब तत्त्व उनकी सेवा कर रहे हैं। आपने अलग-अलग उतने ही ब्रह्माण्डों का रूप भी धारण कर लिया था, परन्तु अब आप केवल अपरिमित अद्वितीय ब्रह्मरूप से ही शेष रह गये हैं।

जो लोग अज्ञानवश आपके स्वरूप को नहीं जानते, उन्हीं को आप प्रकृति में स्थित जीव के रूप से प्रतीत होते हैं और उन पर अपनी माया का परदा डालकर सृष्टि के समय मेरे (ब्रह्मा) रूप से, पालन के समय अपने (विष्णु) रूप से और संहार के समय रुद्र के रूप में प्रतीत होते हैं। प्रभो! आप सारे जगत के स्वामी और विधाता हैं। अजन्मा होने पर भी आप देवता, ऋषि, मनुष्य, पशु-पक्षी और जलचर आदि योनियों में अवतार ग्रहण करते हैं, इसलिए कि इन रूपों के द्वारा दुष्ट पुरुषों का घमण्ड तोड़ दें और सत्पुरुषों पर अनुग्रह करें।

भगवन आप अनन्त परमात्मा और योगेश्वर हैं। जिस समय आप अपनी योगमाया का विस्तार करके लीला करने लगते हैं, उस समय त्रिलोकी में ऐसा कौन है, जो यह जान सके कि आपकी लीला कहाँ, किसलिये, कब और कितनी होती है। इसलिए यह सम्पूर्ण जगत स्वप्न के समान असत्य, अज्ञानरूप और दुःख-पर-दुःख देने वाला है। आप परमानन्द, परम ज्ञानस्वरूप एवं अनन्त हैं। यह माया से उत्पन्न एवं विलीन होने पर भी आपमें आपकी सत्ता से सत्य के समान प्रतीत होता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः श्लोक 23-31 का हिन्दी अनुवाद)

प्रभो! आज ही एकमात्र सत्य हैं। क्योंकि आप सबके आत्मा जो हैं। आप पुराण पुरुष होने के कारण समस्त जन्मादि विकारों से रहित हैं। आप स्वयं प्रकाश है; इसलिये देश, काल और वस्तु - जो पर प्रकाश हैं - किसी प्रकार आपको सीमित नहीं कर सकते। आप उनके भी आदि प्रकाशक हैं। आप अविनाशी होने के कारण नित्य हैं। आपका आनन्द अखण्डित है। आपमें न तो किसी प्रकार का मल है और न अभाव। आप पूर्ण, एक हैं। समस्त उपाधियों से मुक्त होने के कारण आप अमृतस्वरूप हैं। आपका यह ऐसा स्वरूप समस्त जीवों का ही अपना स्वरूप है।

जो गुरु रूप सूर्य से तत्त्वज्ञान रूप दिव्य दृष्टि प्राप्त करके उससे आपको अपने स्वरूप के रूप में साक्षात्कार कर लेते हैं, वे इस झूठे संसार-सागर को मानो पार कर जाते हैं। जो पुरुष परमात्मा को आत्मा के रूप में नहीं जानते, उन्हें उस अज्ञान के कारण ही इस नाम रूपात्मक निखिल प्रपंच की उत्पत्ति का भ्रम हो जाता है। किन्तु ज्ञान होते ही इसका आत्यन्तिक प्रलय हो जाता है। जैसे रस्सी के भ्रम के कारण ही साँप की प्रतीति होती है और भ्रम के निवृत होते ही उसकी निवृति हो जाती है।

संसार-सम्बन्धी बन्धन और उससे मोक्ष - ये दोनों ही नाम अज्ञान से कल्पित हैं। वास्तव में ये अज्ञान के ही दो नाम हैं। ये सत्य और ज्ञानस्वरूप परमात्मा से भिन्न अस्तित्व नहीं रखते। जैसे सूर्य में दिन और रात का भेद नहीं है, वैसे ही विचार करने पर अखण्ड चित्स्वरूप केवल शुद्ध आत्मतत्त्व में न बन्धन है और न तो मोक्ष। भगवन! कितने आश्चर्य की बात है कि आप हैं अपने आत्मा, पर लोग आपको पराया मानते हैं। और शरीर आदि हैं पराये, किन्तु उनको आत्मा मान बैठते हैं। और इसके बाद आपको कहीं अलग ढूंढ़ने लगते हैं।

भला, अज्ञानी जीवों का यह कितना बड़ा अज्ञान है। हे अनन्त! आप तो सबके अंतःकरण में ही विराजमान हैं। इसलिये सन्त लोग आपके अतिरिक्त जो कुछ प्रतीत हो रहा है, उसका परित्याग करते हुए अपने भीतर ही आपको ढूंढ़ते हैं। क्योंकि यद्यपि रस्सी में साँप नहीं है, फिर भी उस प्रतीयमान साँप को मिथ्या निश्चय किये बिना भला, कोई सत्पुरुष सच्ची रस्सी को कैसे जान सकता है? अपने भक्तजनों के हृदय में स्वयं स्फुरित होने वाले भगवन! आपके ज्ञान का स्वरूप और महिमा ऐसी ही है, उससे अज्ञान कल्पित जगत का नाश हो जाता है।

फिर भी जो पुरुष आपके युगल चरण कमलों का तनिक-सा भी कृपा-प्रसाद प्राप्त कर लेता है, उससे अनुगृहीत हो जाता है - वही आपकी सच्चिदानन्दमयी महिमा का तत्त्व जान सकता है। दूसरा कोई भी ज्ञान-वैराग्यादि साधन रूप अपने प्रयत्न से बहुत काल तक कितना भी अनुसन्धान करता रहे, वह आपकी महिमा का यथार्थ ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता।

इसलिये भगवन! मुझे इस जन्म में, दूसरे जन्म में अथवा किसी पशु-पक्षी आदि के जन्म में भी ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो कि मैं आपके दासों में से कोई एक दास हो जाऊँ और फिर आपके चरणकमलों की सेवा करूँ। मेरे स्वामी! जगत के बड़े-बड़े यज्ञ सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर अब तक आपको पूर्णतः तृप्त न कर सके। परन्तु आपने ब्रज की गायों और ग्वालिनों के बछड़े एवं बालक बनकर उनके स्तनों का अमृत-सा दूध बड़े उमंग से पिया है। वास्तव में उन्हीं का जीवन सफल है, वे ही अत्यन्त धन्य हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः श्लोक 32-38 का हिन्दी अनुवाद)

अहो, नन्द आदि ब्रजवासी गोपों के धन्य भाग्य हैं। वास्तव में उनका अहोभाग्य है। क्योंकि परमानन्द स्वरूप सनातन परिपूर्ण ब्रह्म आप उनके अपने सगे-सम्बन्धी और सुहृद हैं। हे अच्युत! इन ब्रजवासियों के सौभाग्य की महिमा तो अलग रही - मन आदि ग्यारह इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवताओं के रूप में रहने वाले महादेव आदि हम लोग बड़े ही भाग्यवान हैं। क्योंकि इन ब्रजवासियों की मन आदि ग्यारह इन्द्रियों को प्याले बनाकर हम आपके चरण कमलों का अमृत से भी मीठा, मदिरा से भी मादक, मधुर मकरकन्द रस पान करते रहते हैं। जब उसका एक-एक इन्द्रिय से पान करके हम धन्य-धन्य हो रहे हैं, तब समस्त इन्द्रियों से उसका सेवन करने वाले ब्रजवासियों की तो बात ही क्या है।

प्रभो! इस ब्रजवासी के किसी वन में और विशेष करके गोकुल में किसी भी योनि में जन्म हो जाय, यही हमारे लिये बड़े सौभाग्य की बात होगी! क्योंकि यहाँ जन्म हो जाने पर आपके किसी-न-किसी प्रेमी के चरणों की धूलि अपने ऊपर पड़ ही जायगी। प्रभो! आपके प्रेमी ब्रजवासियों का सम्पूर्ण जीवन आपका ही जीवन है। आप ही उनके जीवन के एकमात्र सर्वस्व हैं। किसी वन में और विशेष करके गोकुल में किसी भी योनि में जन्म हो जाय, यही हमारे लिये बड़े सौभाग्य की बात होगी! क्योंकि यहाँ जन्म हो जाने पर आपके किसी-न-किसी प्रेमी के चरणों की धूलि अपने ऊपर पड़ ही जायगी।

प्रभो! आपके प्रेमी ब्रजवासियों का सम्पूर्ण जीवन आपका ही जीवन है। आप ही उनके जीवन के एकमात्र सर्वस्व हैं। इसलिए उनके चरणों की धूलि मिलना आपके ही चरणों की धूलि मिलना है और आपके चरणों की धूलि को तो श्रुतियाँ भी अनादि काल से अब तक ढूंढ़ ही रही हैं। देवताओं के भी आराध्य देव प्रभो! इन ब्रजवासियों को इनकी सेवा के बदले में आप क्या फल देंगे? सम्पूर्ण फलों के फलस्वरूप! आपसे बढ़कर और कोई फल तो है ही नहीं, यह सोचकर मेरा चित्त मोहित हो रहा है। आप उन्हें अपना स्वरूप भी देकर उऋण नहीं सकते। क्योंकि आपके स्वरूप को तो उस पूतना ने भी अपने सम्बन्धियों - अघासुर, बकासुर आदि के साथ प्राप्त कर लिया, जिसका केवल वेश ही साध्वी स्त्री का था, पर जो हृदय से महान क्रूर थी। फिर, जिन्होंने अपने घर, धन, स्वजन, प्रिय, शरीर, पुत्र, प्राण और मन - सब कुछ आपके ही चरणों में समर्पित कर दिया है, जिनका सब कुछ आपके ही लिये है, उन ब्रजवासियों को भी वही फल देकर आप कैसे उऋण हो सकते हैं।

सच्चिदानन्दस्वरूप श्यामसुन्दर! तभी तक राग-द्वेष आदि चोरों के समान सर्वस्व अपहरण करते रहते हैं, तभी तक घर और उसके सम्बन्धी क़ैद की तरह सम्बन्ध के बन्धनों में बाँध रखते हैं और तभी तक मोह पैर की बेड़ियों की तरह जकड़े रखता है - जब तक जीव आपका नहीं हो जाता। प्रभो! आप विश्व के बखेड़े से सर्वथा रहित हैं, फिर भी अपने शरणागत भक्तजनों को अनन्त आनन्द वितरण करने के लिए पृथ्वी में अवतार लेकर विश्व के समान ही लीला-विलास का विस्तार करते हैं। मेरे स्वामी! बहुत कहने की आवश्यकता नहीं - जो लोग आपकी महिमा जानते हैं, वे जानते रहें; मेरे मन, वाणी और शरीर तो आपकी महिमा जानने में सर्वथा असमर्थ हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः श्लोक 39-48 का हिन्दी अनुवाद)

सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप सबके साक्षी हैं। इसलिये आप सब कुछ जानते हैं। आप समस्त जगत के स्वामी हैं। यह सम्पूर्ण प्रपंच आपमें ही स्थित है। आपसे मैं और क्या कहूँ? अब आप मुझे स्वीकार कीजिये। मुझे अपने लोक में जाने की आज्ञा दीजिये। सबके मन-प्राण को अपनी रूप-माधुरी से आकर्षित करवाले श्यामसुन्दर! आप यदुवंशरूपी कमल को विकसित करने वाले सूर्य हैं। प्रभो! पृथ्वी, देवता, ब्राह्मण और पशुरूप समुद्र की अभिवृद्धि करने वाले चन्द्रमा भी आप ही हैं। आप पाखण्डियों के धर्मरूप रात्रि का घोर अन्धकार नष्ट करने के लिये सूर्य और चन्द्रमा दोनों के ही समान हैं। पृथ्वी पर रहने वाले राक्षसों के नष्ट करने वाले आप चन्द्रमा, सूर्य आदि समस्त देवताओं के भी परम पूजनीय हैं। भगवन! मैं अपने जीवन भर, महाकल्प पर्यंत आपको नमस्कार ही करता रहूँ।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! संसार के रचयिता ब्रह्मा जी ने इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति की। इसके बाद उन्होंने तीन बार परिक्रमा करके उनके चरणों में प्रणाम किया और फिर अपने गंतव्य स्थान सत्यलोक में चले गये। ब्रह्माजी ने बछड़ों और ग्वालबालों को पहले ही यथास्थान पहुँचा दिया था। भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा जी को विदा कर दिया और बछड़ों को लेकर यमुना जी के पुलिन पर आये, जहाँ वे अपने सखा ग्वालबालों को पहले छोड़ गये थे।

परीक्षित! अपने जीवनसर्वस्व - प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण के वियोग में यद्यपि एक वर्ष बीत गया था, तथापि उन ग्वालबालों को वह समय आधे क्षण के समान जान पड़ा। क्यों न हो, वे भगवान की विश्व-विमोहिनी योगमाया से मोहित जो हो गये थे। जगत के सभी जीव उसी माया से मोहित होकर शास्त्र और आचार्यों के बार-बार समझाने पर भी अपने आत्मा को निरन्तर भूले गए हैं। वास्तव में उस माया की ऐसी ही शक्ति है। भला, उससे मोहित होकर जीव यहाँ क्या-क्या नहीं भूल जाते हैं?

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण को देखते ही ग्वालबालों ने बड़ी उतावली से कहा - ‘भाई! तुम भले आये। स्वागत है, स्वागत! अभी तो हमने तुम्हारे बिना एक कौर भी नहीं खाया है। आओ, इधर आओ; आनन्द से भोजन करो। तब हँसते हुए भगवान ने ग्वालबालों के साथ भोजन किया और उन्हें अघासुर के शरीर का ढाँचा दिखाते हुए वन से ब्रज में लौट आये।

श्रीकृष्ण के सिर पर मोरपंख का मनोहर मुकुट और घुँघराले बालों में सुन्दर-सुन्दर महँ-महँ महँकते हुए पुष्प गुँथ रहे थे। नयी-नयी रंगीन धातुओं से श्याम शरीर पर चित्रकारी की हुई थी। वे चलते समय रास्ते में उच्च स्वर से कभी बाँसुरी, कभी पत्ते और कभी सिंगी बजाकर वाद्योत्सव में मग्न हो रहे हैं। पीछे-पीछे ग्वालबाल उनकी लोकपावन कीर्ति का गान करते जा रहे हैं। कभी वे नाम ले-लेकर अपने बछड़ों को पुकारते, तो कभी उनके साथ लाड़-लड़ाने लगते। मार्ग के दोनों ओर गोपियाँ खड़ी हैं; जब वे कभी तिरछे नेत्रों से उनकी नज़र में नज़र मिला देते हैं, तब गोपियाँ आनन्द-मुग्ध हो जाती है। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने गोष्ठ में प्रवेश किया। परीक्षित! उसी दिन बालकों ने ब्रज में जाकर कहा कि ‘आज यशोदा मैया के लाड़ले नन्दनन्दन ने वन में एक बड़ा भारी अजगर मार डाला है और उससे हम लोगों की रक्षा की है।'

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: चतुर्दशोऽध्यायः श्लोक 49-61 का हिन्दी अनुवाद)

राजा परीक्षित ने कहा ;- ब्रह्मन्! ब्रजवासियों के लिये श्रीकृष्ण अपने पुत्र नहीं थे, दूसरे के पुत्र थे। फिर उनका श्रीकृष्ण के प्रति इतना प्रेम कैसे हुआ? ऐसा प्रेम तो उनका अपने बालकों पर भी पहले कभी नहीं हुआ था! आप कृपा करके बतलाइये, इसका क्या कारण है?

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- राजन! संसार के सभी प्राणी अपने आत्मा से ही सबसे बढ़कर प्रेम करते हैं। पुत्र से, धन से या और किसी से जो प्रेम होता है - वह तो इसलिये कि वे वस्तुएँ अपने आत्मा को प्रिय लगती हैं। राजेन्द्र! यही कारण है कि सभी प्राणियों का अपने आत्मा के प्रति जैसा प्रेम होता है, वैसा अपने कहलाने वाले पुत्र, धन और गृह आदि में होता।

नृपश्रेष्ठ! जो लोग देह को आत्मा मानते हैं, वे भी अपने शरीर से जितना प्रेम करते हैं, उतना प्रेम शरीर के सम्बन्धी पुत्र-मित्र आदि से नहीं करते। जब विचार के द्वारा यह मालूम हो जाता है कि ‘यह शरीर मैं नहीं हूँ, यह शरीर मेरा है’ तब इस शरीर से भी आत्मा के समान प्रेम नहीं रहता। यही कारण है कि इस देह के जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर भी जीने की आशा प्रबल रूप से बनी रहती है। इससे यह बात सिद्ध होती है कि सभी प्राणी अपने आत्मा से ही सबसे बढ़कर प्रेम करते हैं और उसी के लिये इस सारे चराचर जगत से भी प्रेम करते हैं।

इन श्रीकृष्ण को ही तुम सब आत्माओं का आत्मा समझो। संसार के कल्याण के लिये ही योगमाया का आश्चर्य लेकर वे यहाँ देहधारी के समान जान पड़ते हैं। जो लोग भगवान श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप को जानते हैं, उनके लिये तो इस जगत में जो कुछ भी चराचर पदार्थ हैं, अथवा इससे परे परमात्मा, ब्रह्म, नारायण आदि जो भगवत्स्वरूप हैं, सभी श्रीकृष्णस्वरूप ही हैं। श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई प्राकृत-अप्राकृत वस्तु है ही नहीं। सभी वस्तुओं का अन्तिम रूप अपने कारण में स्थित होता है। उस कारण के भी परम कारण है भगवान श्रीकृष्ण। तब भला बताओ, किस वस्तु को श्रीकृष्ण से भिन्न बतलायें। जिन्होंने पुण्यकीर्ति मुकुन्द मुरारी के पद पल्लव की नौका का आश्रय लिया है, जो कि सत्पुरुषों का सर्वस्व है, उनके लिये यह भव सागर बछड़े के खुर के गड्ढे के समान है। उन्हें परमपद की प्राप्ति हो जाती है और उनके लिये विपत्तियों का निवास स्थान - यह संसार नहीं रहता।

परीक्षित! तुमने मुझसे पूछा था कि भगवान के पाँचवें वर्ष की लीला ग्वालबालों ने छठे वर्ष में कैसे कही, उसका सारा रहस्य मैंने तुम्हें बतला दिया। भगवान श्रीकृष्ण की ग्वालबालों के साथ वनक्रीडा, अघासुर को मारना, हरी-हरी घास से युक्त भूमि पर बैठकर भोजन करना, अप्राकृत रूपधारी बछड़ों और ग्वालबालों का प्रकट होना और ब्रह्मा जी के द्वारा की हुई इस महान स्तुति को जो मनुष्य सुनता और कहता है - उसको धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। परीक्षित! इस प्रकार श्रीकृष्ण और बलराम ने कुमार-अवस्था के अनुरूप आँखमिचौनी, सेतु-बन्धन, बन्दरों की भाँति उछलना-कूदना आदि अनेकों लीलाएँ करके अपनी कुमार-अवस्था ब्रज में ही त्याग दी।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                      【पंद्रहवाँ अध्याय:】१५.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचदश अध्याय: श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद)

"धेनुकासुर का उद्धार और ग्वालबालों को कालियनाग के विष से बचाना"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अब बलराम और श्रीकृष्ण ने पौंगण्ड-अवस्था में अर्थात छठे वर्ष में प्रवेश किया था। अब उन्हें गौएँ चराने की स्वीकृति मिल गयी। वे अपने सखा ग्वालबालों के साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावन में जाते और अपने चरणों से वृन्दावन को अत्यन्त पावन करते। यह वन गौओं एक लिये हरी-हरी घास से युक्त एवं रंग-बिरंगे पुष्पों की खान हो रहा था। आगे-आगे गौएँ, उनके पीछे-पीछे बाँसुरी बजाते हुए श्यामसुन्दर, तदनन्तर बलराम और फिर श्रीकृष्ण के यश का गान करते हुए ग्वालबाल - इस प्रकार विहार करने के लिये उन्होंने उस वन में प्रवेश किया। उस वन में कहीं तो भौरें बड़ी मधुर गुंजार कर रहे थे, कहीं झुंड-के-झुंड हिरन चौकड़ी भर रहे थे और कहीं सुन्दर-सुन्दर पक्षी चहक रहे थे। बड़े ही सुन्दर-सुन्दर सरोवर थे, जिनका जल महात्माओं के हृदय के समान स्वच्छ और निर्मल था।

उनमें खिले हुए कमलों के सौरभ से सुवासित होकर शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु उस वन की सेवा कर रही थी। इतना मनोहर था वह वन कि उसे देखकर भगवान ने मन-ही-मन उसमें विहार करने का संकल्प किया। पुरुषोत्तम भगवान ने देखा कि बड़े-बड़े वृक्ष फल और फूलों के भार से झुककर अपनी डालियों और नूतन कोंपलों की लालिमा से उनके चरणों का स्पर्श कर रहे हैं, तब उन्होंने बड़े आनन्द से कुछ मुस्काते हुए-से अपने बड़े भाई बलरामजी से कहा।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- देव शिरोमणे! यों तो बड़े-बड़े देवता आपके चरणकमलों की पूजा करते है; परन्तु देखिये तो, ये वृक्ष भी अपनी डालियों से सुन्दर पुष्प और फलों की सामग्री लेकर आपके चरण कमलों में झुक रहे हैं, नमस्कार कर रहे हैं। क्यों न हो, इन्होंने इसी सौभाग्य के लिये तथा अपना दर्शन एवं श्रवण करने वालों के अज्ञान का नाश करने के लिये ही तो वृन्दावन धाम में वृक्ष-योनि ग्रहण की है। इनका जीवन धन्य है। आदिपुरुष! यद्यपि आप इस वृन्दावन में अपने ऐश्वर्यरूप को छिपाकर बालकों की-सी लीला कर रहें हैं, फिर भी आप आपके श्रेष्ठ भक्त मुनिगण अपने इष्टदेव को पहचानकर यहाँ भी प्रायः भौरों के रूप में आपके भुवन-पावन यश का निरन्तर गान करते हुए आपके भजन में लगे रहते हैं। वे एक क्षण के लिये भी आपको नहीं छोड़ना चाहते।

भाईजी! वास्तव में आप ही स्तुति करने योग्य हैं। देखिये, आपको अपने घर आया देख ये मोर आपके आपके दर्शनों से आनन्दित होकर नाच रहे हैं। हिरनियाँ मृगनयनी गोपियों के समान अपनी प्रेमभरी तिरछी चितवन से आपके प्रति प्रेम प्रकट कर रही हैं, आपको प्रसन्न कर रही हैं। ये कोयलें अपनी मधुर कुहू-कुहू ध्वनि से आपका कितना सुन्दर स्वागत कर रही हैं! वे वनवासी होने पर भी धन्य हैं। क्योंकि सत्पुरुषों का स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे घर आये अतिथि को अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु भेंट कर देते हैं। आज यहाँ की भूमि अपनी हरी-हरी घास के साथ आपके चरणों का स्पर्श प्राप्त करके धन्य हो रही है। यहाँ के वृक्ष, लताएँ और झाड़ियाँ आपकी अँगुलियों का स्पर्श पाकर अपना अहोभाग्य मान रही हैं। आपकी दया भरी चितवन से नदी, पर्वत, पशु, पक्षी - सब कृतार्थ हो रहे हैं और ब्रज की गोपियाँ आपके वक्षःस्थल का स्पर्श प्राप्त करके, जिसके लिये स्वयं लक्ष्मी भी लालायित रहती हैं, धन्य-धन्य हो रही हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचदश अध्याय: श्लोक 9-22 का हिन्दी अनुवाद)

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इस प्रकार परम सुन्दर वृन्दावन को देखकर भगवान श्रीकृष्ण बहुत ही आनन्दित हुए। वे अपने सखा ग्वालबालों के साथ गोवर्धन की तराई में, यमुना तट पर गौओं को चराते हुए अनेकों प्रकार की लीलायें करने लगे। एक ओर ग्वालबाल भगवान श्रीकृष्ण के चरित्रों की मधुर तान छेड़े रहते हैं, तो दूसरी ओर बलराम जी के साथ वनमाला पहने हुए श्रीकृष्ण मतवाले भौंरों की सुरीली गुनगुनाहट में अपना स्वर मिलाकर मधुर संगीत अलापने लगते हैं।

कभी-कभी श्रीकृष्ण कूजते हुए राजहंसों के साथ स्वयं भी कूजने लगते हैं और कभी नाचते हुए मोरों के साथ स्वयं भी ठुमुक-ठुमुक नाचने लगते हैं और ऐसा नाचते हैं कि मयूर को उपहासास्पद बना देते हैं। कभी मेघ के समान गम्भीर वाणी से दूर गये हुए पशुओं को उनका नाम ले-लेकर बड़े प्रेम से पुकारते हैं। उनके कण्ठ की मधुर ध्वनि सुनकर गायों और ग्वालबालों का चित्त भी अपने वश में नहीं रहता।

कभी चकोर, क्रोंच (कराँकुल), चकवा, भरदूल और मोर आदि पक्षियों की-सी बोली बोलते तो कभी बाघ, सिंह आदि की गर्जना से डरे हुए जीवों के समान स्वयं भी भयभीत की-सी लीला करते। जब बलराम जी खेलते-खेलते थककर किसी ग्वालबाल की गोद के तकिये पर सर रखकर लेट जाते, तब श्रीकृष्ण उसके पैर दबाने लगते, पंखा झलने लगते और इस प्रकार अपने बड़े भाई की थकावट दूर करते। जब ग्वालबाल नाचने-लगते अथवा ताल ठोंक-ठोंककर एक-दूसरे से कुश्ती लड़ने लगते, तब श्याम और राम दोनों दोनों भाई हाथ में हाथ डालकर खड़े हो जाते और हँस-हँसकर ‘वाह-वाह’ करते।

कभी-कभी स्वयं श्रीकृष्ण भी ग्वालबालों के साथ कुश्ती लड़ते-लड़ते थक जाते तथा किसी सुन्दर वृक्ष के नीचे कोमल पल्लवों की सेज पर किसी ग्वालबाल की गोद में सिर रखकर लेट जाते। परीक्षित! उस समय कोई-कोई पुण्य के मूर्तिमान स्वरूप ग्वालबाल महात्मा श्रीकृष्ण के चरण दबाने लगते और दूसरे निष्पाप बालक उन्हें बड़े-बड़े पत्तों या अँगोछियों से पंखा झलने लगते। किसी-किसी के हृदय में प्रेम की धारा उमड़ आती तो वह धीरे-धीरे उदय शिरोमणि परम मनस्वी श्रीकृष्ण की लीलाओं के अनुरूप उनके मन को प्रिय लगने वाले मनोहर गीत गाने लगता।

भगवान ने इस प्रकार अपनी योगमाया से अपने ऐश्वर्यमय स्वरूप को छिपा रखा था। वे ऐसी लीलाएँ करते, जो ठीक-ठाक गोपबालकों की-सी ही मालूम पड़तीं। स्वयं भगवती लक्ष्मी जिनके चरण कमलों की सेवा संलग्न रहती हैं, वे ही भगवान इन ग्रामीण बालकों के साथ बड़े प्रेम से ग्रामीण खेल खेला करते थे। परीक्षित! ऐसा होने पर भी कभी-कभी उनकी ऐश्वर्यमयी लीलाएँ भी प्रकट हो जाया करतीं।

बलराम जी और श्रीकृष्ण के सखाओं में एक प्रधान गोप-बालक थे श्रीदामा। एक दिन उन्होंने तथा सुबल और स्तोक कृष्ण आदि ग्वालबालों ने श्याम और राम से बड़े प्रेम के साथ कहा - ‘हमलोगों को सर्वदा सुख पहुँचाने वाले बलरामजी! आपके बाहुबल की तो कोई थाह ही नहीं है। हमारे मनमोहन श्रीकृष्ण! दुष्टों को नष्ट कर डालना तो तुम्हारा स्वाभाव ही है। यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक बड़ा भारी वन है। बस, उसमें पाँत-के-पाँत ताड़ के वृक्ष भरे पड़े हैं। वहाँ बहुत-से ताड़ के फल पक-पकाकर गिरते रहते हैं और बहुत-से पहले के गिरे हुए भी हैं। परन्तु वहाँ धेनुक नाम का एक दुष्ट दैत्य रहता है। उसने उन फलों पर रोक लगा रखी है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचदश अध्याय: श्लोक 23-37 का हिन्दी अनुवाद)

बलराम जी और भैया श्रीकृष्ण! वह दैत्य गधे के रूप में रहता है। वह स्वयं तो बड़ा बलवान है ही, उसके साथी और भी बहुत-से उसी के समान बलवान दैत्य उसी रूप में रहते हैं। मेरे शत्रुघाती भैया! उस दैत्य ने अब तक न जाने कितने मनुष्य खा डाले हैं! यही कारण है कि उसके डर के मारे मनुष्य उसका सेवन नहीं करते और पशु-पक्षी भी उस जंगल में नहीं जाते। उसके फल हैं तो बड़े सुगन्धित, परन्तु हमने कभी नहीं खाये। देखो न, चारों ओर उन्हीं की मन्द-मन्द सुगन्ध फ़ैल रही है। तनिक-सा ध्यान देने से उसका रस मिलने लगता है। श्रीकृष्ण! उनकी सुगन्ध से हमारा मन मोहित हो गया है और उन्हें पाने के लिये मचल रहा है। तुम हमें वे फल अवश्य खिलाओ। दाऊ दादा! हमें उन फलों की बड़ी उत्कट अभिलाषा है। आपको रुचे तो वहाँ अवश्य चलिये।

अपने सखा ग्वालबालों की यह बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों हँसे और फिर उन्हें प्रसन्न करने के लिये उनके साथ तालवन के लिये चल पड़े। उस वन में पहुँचकर बलराम जी ने अपनी बाँहों से उड़ ताड़ के पेड़ों को पकड़ लिया और मतवाले हाथी के बच्चे के समान उन्हें बड़े जोर से हिलाकर बहुत-से फल नीचे गिरा दिये। जब गधे के रूप में रहने वाले दैत्य ने फलों के गिरने का शब्द सुना, तब वह पर्वतों के साथ सारी पृथ्वी को कँपाता हुआ उनकी ओर दौड़ा। वह बड़ा बलवान था। उसने बड़े वेग से बलराम जी के सामने आकर अपने पिछले पैरों से उनकी छाती में दुलत्ती मारी और इसके बाद वह दुष्ट बड़े जोर से रेंकता हुआ वहाँ से हट गया। राजन! वह गधा क्रोध में भरकर फिर रेंकता हुआ दूसरी बार बलराम जी के पास पहुँचा और उनकी ओर पीठ करके फिर बड़े क्रोध में अपने पिछले पैरों की दुलत्ती चलायी। बलराम जी ने अपने एक ही हाथ से उसके दोनों पैर पकड़ लिये और उसे आकाश में घुमाकर एक ताड़ के पेड़ पर दे मारा। घुमाते समय उस गधे के प्राण पखेरू उड़ गये थे।

उसके गिरने की चोट से वह महान ताड़ का वृक्ष - जिसका ऊपरी भाग बहुत विशाल था - स्वयं तो तड़तड़ाकर गिर ही पड़ा, सटे हुए दूसरे वृक्ष को भी उसने तोड़ डाला। उसने तीसरे को, तीसरे ने चौथे को - इस प्रकार एक-दूसरे को गिराते हुए बहुत-से टाल वृक्ष गिर पड़े। बलराम जी के लिये तो यह एक खेल था। परन्तु उनके द्वारा फेंके हुए गधे के शरीर से चोट खा-खाकर वहाँ सब-के-सब ताड़ हिल गये। ऐसा जान पड़ा, मानो सबको झंझावात ने झकझोर दिया हो। भगवान बलराम स्वयं जगदीश्वर हैं। उनमें यह सारा संसार ठीक वैसे ही ओत-प्रोत है, जैसे सूतों में वस्त्र। तब भला, उनके लिये यह कौन आश्चर्य की बात है। उस समय धेनुकासुर के भाई-बन्धु अपने भाई के मारे जाने से क्रोध के मारे आगबबूला हो गये। सब-के-सब गधे बलराम जी और श्रीकृष्ण पर बड़े वेग से टूट पड़े। राजन! उनमें से जो-जो पास आया, उसी-उसी को बलराम जी और श्रीकृष्ण ने खेल-खेल में ही पिछले पैर पकड़कर तालवृक्षों पर दे मारा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: पंचदश अध्याय: श्लोक 38-52 का हिन्दी अनुवाद)

उस समय वह भूमि ताड़ के फलों से पट गयी और टूटे हुए वृक्ष तथा दैत्यों के प्राणहीन शरीरों से भर गयी। जैसे बादलों से आकाश ढक गया हो, उस भूमि की वैसी ही शोभा होने लगी। बलराम जी और श्रीकृष्ण की यह मंगलमयी लीला देखकर देवतागण उन पर फूल बरसाने लगे और बाजे बजा-बजाकर स्तुति करने लगे। जिस दिन धेनुकासुर मरा, उसी दिन से लोग निडर होकर उस वन के तालफल खाने लगे तथा पशु भी स्वच्छन्दता के साथ घास चरने लगे।

इसके बाद कमल दल लोचन भगवान श्रीकृष्ण बड़े भाई बलराम जी के साथ ब्रज में आये। उस समय उनके साथी ग्वालबाल उनके पीछे-पीछे चलते हुए उनकी स्तुति करते जाते थे। क्यों न हो; भगवान की लीलाओं का श्रवण-कीर्तन ही सबसे बढ़कर पवित्र जो है। उस समय श्रीकृष्ण की घुँघराली अल्कों पर गौओं के खुरों से उड़-उड़कर धूलि पड़ी हुई थी, सिरपर मोरपंख का मुकुट था और बालों में सुन्दर-सुन्दर जंगली पुष्प गुँथे हुए थे।

उनके नेत्रों में मधुर चितवन और मुखपर मनोहर मुस्कान थी। वे मधुर-मधुर मुरली बजा रहे थे और साथी ग्वालबाल उनकी ललित कीर्ति का गान कर रहे थे। वंशी की ध्वनि सुनकर बहुत-सी गोपियाँ एक साथ ही ब्रज से बाहर निकल आयीं। उनकी आँखें न जाने कब से श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये तरस रही थीं। गोपियों ने अपने नेत्ररूप भ्रमरों से भगवान के मुखारविन्द का मकरन्द-रस पान करके दिन-भर के विरह की जलन शान्त की और भगवान ने भी उनकी लाजभरी हँसी तथा विनय से युक्त प्रेम भरी तिरछी चितवन का सत्कार स्वीकार करके ब्रज में प्रवेश किया।

उधर यशोदा मैया और रोहिणी जी का हृदय वात्सल्य स्नेह से उमड़ रहा था। उन्होंने श्याम और राम के घर पहुँचते ही उनकी इच्छा के अनुसार तथा समय के अनुरूप पहले से ही सोच-सँजोकर रखी हुई वस्तुएँ उन्हें खिलायीं-पिलायीं और पहनायीं। माताओं ने तेल-उबटन आदि लगाकर स्नान कराया। इससे उनकी दिनभर घूमने-फिरने की मार्ग की थकान दूर हो गयी। फिर उन्होंने सुन्दर वस्त्र पहनाकर दिव्य पुष्पों की माला पहनायी तथा चन्दन लगाया तत्पश्चात दोनों भाइयों ने माताओं का परोसा हुआ स्वादिष्ट अन्न भोजन किया। उसके बाद बड़े लाड़-प्यार से दुलार-दुलार कर यशोदा और रोहिणी ने उन्हें सुन्दर शैय्या पर सुलाया। श्याम और राम बड़े आराम से सो गये।

भगवान श्रीकृष्ण इस प्रकार वृन्दावन में अनेकों लीलाएँ करते। एक दिन अपने सखा ग्वालबालों के साथ वे यमुना-तट पर गये। राजन! उस दिन बलरामजी उनके साथ नहीं थे। उस समय जेठ-आषाढ़ के घाम से गौएँ और ग्वालबाल अत्यन्त पीड़ित हो रहे थे। प्यास से उनका कण्ठ सूख रहा था। इसलिये उन्होंने यमुना जी का विषैला जल पी लिया।

परीक्षित! होनहार के वश उन्हें इस बात का ध्यान ही नहीं रहा था। उस विषैले जल के पीते ही सब गौएँ और ग्वालबाल प्राणहीन होकर यमुना जी के तट पर गिर पड़े। उन्हें ऐसी अवस्था में देखकर योगेश्वरों के भी ईश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी अमृत बरसाने वाली दृष्टि से उन्हें जीवित कर दिया। उनके स्वामी और सर्वस्व तो एकमात्र श्रीकृष्ण ही थे।

परीक्षित! चेतना आने पर वे सब यमुना जी के तटपर उठ खड़े हुए और आश्चर्यचकित होकर एक-दूसरे की ओर देखने लगे। राजन! अन्त में उन्होंने यही निश्चय किया कि हम लोग विषैला जल पी लेने के कारण मर चुके थे, परन्तु हमारे श्रीकृष्ण ने अपनी अनुग्रहभरी दृष्टि से हमें देखकर हमें फिर से जिला दिया है।

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