सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( नवम स्कन्धः ) का ग्यारवाँ , बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँँ व पंद्रहवाँ अध्याय [ The Eleven, twelve, thirteenth, fourteenth and fifteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Ninth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( नवम स्कन्धः ) का ग्यारवाँ , बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँँ व पंद्रहवाँ अध्याय [ The Eleven, twelve, thirteenth, fourteenth and fifteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Ninth wing) ]



                           {नवम स्कन्ध:}

                      【ग्यारहवाँ अध्याय:】११.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"भगवान श्रीराम की शेष लीलाओं का वर्णन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान श्रीराम ने गुरु वसिष्ठ जी को अपना आचार्य बनाकर उत्तम सामग्रियों से युक्त यज्ञों के द्वारा अपने-आप ही अपने सर्वदेवस्वरूप स्वयंप्रकाश आत्मा का यजन किया। उन्होंने होता को पूर्व दिशा, ब्रह्मा को दक्षिण, अध्वर्यु को पश्चिम और उद्गाता को उत्तर दिशा दे दी। उनके बीच में जितनी भूमि बच रही थी, वह उन्होंने आचार्य को दे दी। उनका यह निश्चय था कि सम्पूर्ण भूमण्डल का एकमात्र अधिकारी निःस्पृह ब्राह्मण ही है। इस प्रकार सारे भूमण्डल दान करके उन्होंने अपने शरीर के वस्त्र और अलंकार ही अपने पास रखे। इसी प्रकार महारानी सीता जी के पास भी केवल मांगलिक वस्त्र और आभूषण ही बच रहे।

जब आचार्य आदि ब्राह्मणों ने देखा कि भगवान श्रीराम तो ब्राह्मणों को ही अपना इष्टदेव मानते हैं, उनके हृदय में ब्राह्मणों के प्रति अनन्त स्नेह है, तब उनका हृदय प्रेम से द्रवित हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर सारी पृथ्वी भगवान को लौटा दी और कहा- ‘प्रभो! आप सब लोकों के एकमात्र स्वामी हैं। आप तो हमारे हृदय के भीतर रहकर अपनी ज्योति से अज्ञानान्धकार का नाश कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में भला, आपने हमें क्या नहीं दे रखा है। आपका ज्ञान अनन्त है। पवित्र कीर्ति वाले पुरुषों में आप सर्वश्रेष्ठ हैं। उन महात्माओं को, जो किसी को किसी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुँचाते, आपने अपने चरणकमल दे रखे हैं। ऐसा होने पर भी आप ब्राह्मणों को अपना इष्टदेव मानते हैं। भगवन्! आपके इस राम रूप को हम नमस्कार करते हैं’।

परीक्षित! एक बार अपनी प्रजा की स्थिति जानने के लिये भगवान श्रीराम जी रात के समय छिपकर बिना किसी को बतलाये घूम रहे थे। उस समय उन्होंने किसी की यह बात सुनी। वह अपनी पत्नी से कह रहा था- ‘अरी! तू दुष्ट और कुलटा है। तू पराये घर में रह आयी है। स्त्री-लोभी राम भले ही सीता को रख लें, परन्तु मैं तुझे फिर नहीं रख सकता’। सचमुच सब लोगों को प्रसन्न रखना टेढ़ी खीर है। क्योंकि मूर्खों की तो कमी नहीं है। जब भगवान श्रीराम ने बहुतों के मुँह से ऐसी बात सुनी, तो वे लोकापवाद से कुछ भयभीत-से हो गये। उन्होंने श्रीसीता जी का परित्याग कर दिया और वे वाल्मीकि मुनि के आश्रम में रहने लगीं। सीता जी उस समय गर्भवती थीं। समय आने पर उन्होंने एक साथ ही दो पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम हुए- कुश और लव। वाल्मीकि मुनि ने उनके जात-कर्मादि संस्कार किये।

लक्ष्मण जी के दो पुत्र हुए- अंगद और चित्रकेतु। परीक्षित! इसी प्रकार भरत जी के भी दो ही पुत्र थे- तक्ष और पुष्कल तथा शत्रुघ्न के भी दो पुत्र हुए- सुबाहु और श्रुतसेन। भरत जी ने दिग्विजय में करोड़ों गन्धर्वों का संहार किया। उन्होंने उनका सब धन लाकर अपने बड़े भाई भगवान श्रीराम की सेवा में निवेदन किया। शत्रुघ्न ने मधुवन में मधु के पुत्र लवण नामक राक्षस को मारकर वहाँ मथुरा नाम की पुरी बसायी। भगवान श्रीराम के द्वारा निर्वासित सीता जी ने अपने पुत्रों को वाल्मीकि जी के हाथों में सौंप दिया और भगवान श्रीराम के चरणकमलों का ध्यान करती हुई वे पृथ्वीदेवी के लोक में चली गयीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद)

यह समाचार सुनकर भगवान श्रीराम ने अपने शोकावेश को बुद्धि के द्वारा रोकना चाहा, परन्तु परम समर्थ होने पर भी वे उसे रोक न सके। क्योंकि उन्हें जानकी जी के पवित्र गुण बार-बार स्मरण हो आया करते थे।

परीक्षित! यह स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध सब कहीं इसी प्रकार दुःख का कारण है। यह बात बड़े-बड़े समर्थ लोगों के विषय में भी ऐसी ही है, फिर गृहासक्त विषयी पुरुष के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है।

इसके बाद भगवान श्रीराम ने ब्रह्मचर्य धारण करके तेरह हजार वर्ष तक अखण्ड रूप से अग्निहोत्र किया। तदनन्तर अपना स्मरण करने वाले भक्तों के हृदय में अपने उन चरणकमलों को स्थापित करके, जो दण्डकवन के काँटों से बिंध गये थे, अपने स्वयं प्रकाश परमज्योतिर्मय धाम में चले गये। परीक्षित! भगवान के समान प्रतापशाली और कोई नहीं है, फिर उनसे बढ़कर तो हो ही कैसे सकता है। उन्होंने देवताओं की प्रार्थना से ही यह लीला-विग्रह धारण किया था। ऐसी स्थिति में रघुवंश-शिरोमणि भगवान श्रीराम के लिये यह कोई बड़े गौरव की बात नहीं है कि उन्होंने अस्त्र-शस्त्रों से राक्षसों को मार डाला या समुद्र पर पुल बाँध दिया। भला, उन्हें शत्रुओं को मारने के लिये बंदरों की सहायता की भी आवश्यकता थी क्या? यह सब उनकी लीला ही है।

भगवान श्रीराम का निर्मल यश समस्त पापों को नष्ट कर देने वाला है। वह इतना फैल गया है कि दिग्गजों का श्यामल शरीर भी उसकी उज्ज्वलता से चमक उठता है। आज भी बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि राजाओं की सभा में उसका गान करते रहते हैं। स्वर्ग के देवता और पृथ्वी के नरपति अपने कमनीय किरीटों से उनके चरणकमलों की सेवा करते रहते हैं। मैं उन्हीं रघुवंशशिरोमणि भगवान श्रीरामचन्द्र की शरण ग्रहण करता हूँ। जिन्होंने भगवान श्रीराम का दर्शन और स्पर्श किया, उनका सहवास अथवा अनुगमन किया-वे सब-के-सब तथा कोसल देश के निवासी भी उसी लोक में गये, जहाँ बड़े-बड़े योगी योग-साधना के द्वारा जाते हैं। जो पुरुष अपने कानों से भगवान श्रीराम का चरित्र सुनता है-उसे सरलता, कोमलता आदि गुणों की प्राप्ति होती है। परीक्षित! केवल इतना ही नहीं, वह समस्त कर्म-बन्धनों से मुक्त हो जाता है।

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवान श्रीराम स्वयं अपने भाइयों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करते थे? तथा भरत आदि भाई, प्रजाजन और अयोध्यावासी भगवान श्रीराम के प्रति कैसा बर्ताव करते थे?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- त्रिभुवनपति महाराज श्रीराम ने राजसिंहासन स्वीकार करने के बाद अपने भाइयों को दिग्विजय की आज्ञा दी और स्वयं अपने निजजनों को दर्शन देते हुए अपने अनुचरों के साथ वे पुरी की देख-रेख करने लगे। उस समय अयोध्यापुरी के मार्ग सुगन्धित जल और हाथियों के मदकणों से सिंचे रहते। ऐसा जान पड़ता, मानो यह नगरी अपने स्वामी भगवान श्रीराम को देखकर अत्यन मतवाली हो रही है। उसके महल, फाटक, सभा भवन, विहार और देवालय आदि में सुवर्ण के कलश रखे हुए थे और स्थान-स्थान पर पताकाएँ फहरा रही थीं। वह डंठल समेत सुपारी, केले के खंभे और सुन्दर वस्त्रों के पट्टों से सजायी हुई थी। दर्पण, वस्त्र और पुष्पमालाओं से तथा मांगलिक चित्रकारियों और बंदनवारों से सारी नगरी जगमगा रही थी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 29-36 का हिन्दी अनुवाद)

नगरवासी अपने हाथों में तरह-तरह की भेंटे लेकर भगवान् के पास आते और उनसे प्रार्थना करते कि ‘देव! पहले आपने ही वराह रूप से पृथ्वी का उद्धार किया था; अब आप इसका पालन कीजिये।

परीक्षित! उस समय जब प्रजा को मालूम होता कि बहुत दिनों के बाद भगवान् श्रीराम इधर पधारे हैं, तब सभी स्त्री-पुरुष उनके दर्शन की लालसा से घर-द्वार छोड़कर दौड़ पड़ते। वे ऊँची-ऊँची अटारियों पर चढ़ जाते और अतृप्त नेत्रों से कमलनयन भगवान् को देखते हुए उन पर पुष्पों की वर्षा करते। इस प्रकार प्रजा का निरिक्षण करके भगवान् फिर अपने महलों में आ जाते। उनके वे महल पूर्ववर्ती राजाओं के द्वारा सेवित थे। उनमें इतने बड़े-बड़े सब प्रकार के खजाने थे, जो कभी समाप्त नहीं होते थे। वे बड़ी-बड़ी बहुमूल्य बहुत-सी सामग्रियों से सुसज्जित थे।

महलों के द्वार तथा देहलियाँ मूँगे की बनी हुई थीं। उनमें जो खंभे थे, वे वैदूर्य मणि के थे। मरकत मणि के बड़े सुन्दर-सुन्दर फर्श थे, तथा स्फटिक मणि की दीवारें चमकती रहती थीं। रंग-बिरंगी मालाओं, पताकाओं, मणियों की चमक, शुद्ध चेतन के समान उज्ज्वल मोती, सुन्दर-सुन्दर भोग-सामग्री, सुगन्धित धूप-दीप तथा फूलों के गहनों से वे महल खूब सजाये हुए थे। आभूषणों को भूषित करने वाले देवताओं के समान स्त्री-पुरुष उसकी सेवा में लगे रहते थे।

परीक्षित! भगवान् श्रीराम आत्माराम जितेन्द्रिय पुरुषों के शिरोमणि थे। उसी महल में अपनी प्राणप्रिया प्रेममयी पत्नी श्रीसीता जी के साथ विहार करते थे। सभी स्त्री-पुरुष जिनके चरणकमलों का ध्यान करते रहते हैं, वे ही भगवान् श्रीराम बहुत वर्षों तक धर्म की मर्यादा का पालन करते हुए समयानुसार भोगों का उपभोग करते थे।

                           {नवम स्कन्ध:}

                      【बारहवाँ अध्याय:】१२.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"इक्ष्वाकु वंश के शेष राजाओं का वर्णन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! कुश का पुत्र हुआ अतिथि, उसका निषध, निषध का नभ, नभ का पुण्डरीक और पुण्डरीक का क्षेमधन्वा। क्षेमधन्वा का देवानीक, देवानीक का अनीह, अनीह का पारियात्र, पारियात्र का बलस्थल और बलस्थल का पुत्र हुआ वज्रनाभ। यह सूर्य का अंश था।

वज्रनाभ से खगण, खगण से विधृति और विधृति से हिरण्यनाभ की उत्पत्ति हुई। वह जैमिनि का का शिष्य और योगाचार्य था। कोसल देशवासी याज्ञवल्क्य ऋषि ने उसकी शिष्यता स्वीकार करके उससे अध्यात्म योग की शिक्षा ग्रहण की थी। वह योग हृदय की गाँठ काट देने वाला तथा परमसिद्धि देने वाला है।

हिरण्यनाभ का पुष्य, पुष्य का ध्रुवसन्धि, ध्रुवसन्धि और सुदर्शन, सुदर्शन का अग्निवर्ण, अग्निवर्ण का शीघ्र और शीघ्र का पुत्र हुआ मरु। मरु ने योग साधना से सिद्धि प्राप्त कर ली और वह इस समय भी कलाप नामक ग्राम में रहता है। कलियुग के अन्त में सूर्यवंश के नष्ट हो जाने पर वह उसे फिर से चलायेगा।

मरु से प्रसुश्रुत, उससे सन्धि और सन्धि से अमर्षण का जन्म हुआ। अमर्षण का महस्वान् और महस्वान का विश्वसाह्व। विश्वसाह्व का प्रसेनजित्, प्रसेनजित् का तक्षक और तक्षक का पुत्र बृहद्वल हुआ। परीक्षित! इसी बृहद्वल को तुम्हारे पिता अभिमन्यु ने युद्ध में मार डाला था।

परीक्षित! इक्ष्वाकु वंश में इतने नरपति हो चुके हैं। अब आने वालों के विषय में सुनो। बृहद्वल का पुत्र होगा बृहद्रण। बृहद्रण का उरुक्रिय, उसका वत्सवृद्ध, वत्सवृद्ध का प्रतिव्योम, प्रतिव्योम का भानु और भानु का पुत्र होगा सेनापति दिवाक। दिवाक का वीर सहदेव, सहदेव का बृहदश्व, बृहदश्व का भानुमान, भानुमान का प्रतीकाश्व और प्रतीकाश्व का पुत्र होगा सुप्रतीक। सुप्रतीक का मरुदेव, मरुदेव का सुनक्षत्र, सुनक्षत्र का पुष्कर, पुष्कर का अन्तरिक्ष, अन्तरिक्ष का सुतपा और उसका पुत्र होगा अमित्रजित्। अमित्रजित से बृहद्राज, बृहद्राज से बर्हि, बर्हि से कृतंजय, कृतंजय से रणंजय और उससे संजय होगा। संजय का शाक्य, उसका शुद्धोद और शोद्धोद का लांगल, लांगल का प्रसेनजित् और प्रसेनजित का पुत्र क्षुद्रक होगा। क्षुद्रक से रणक, रणक से सुरथ और सुरथ से इस वंश के अन्तिम राजा सुमित्र का जन्म होगा। ये सब बृहद्वल के वंशधर होंगे। इक्ष्वाकु का यह वंश सुमित्र तक ही रहेगा। क्योंकि सुमित्र के राजा होने पर कलियुग में यह वंश समाप्त हो जायेगा।

                           {नवम स्कन्ध:}

                      【तेरहवाँ अध्याय:】१३.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा निमि के वंश का वर्णन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इक्ष्वाकु के पुत्र थे निमि। उन्होंने यज्ञ आरम्भ करके महर्षि वसिष्ठ को ऋत्विज के रूप में वरण किया। वसिष्ठ जी ने कहा कि ‘राजन! इन्द्र अपने यज्ञ के लिये मुझे पहले ही वरण कर चुके हैं। उनका यज्ञ पूरा करके मैं तुम्हारे पास आऊँगा। तब तक तुम मेरी प्रतीक्षा करना।’ यह बात सुनकर राजा निमि चुप ही रहे और वसिष्ठ जी इन्द्र का यज्ञ कराने चले गये।

विचारवान निमि ने यह सोचकर कि जीवन तो क्षणभंगुर है, विलम्ब करना उचित न समझा और यज्ञ प्रारम्भ कर दिया। जब तक गुरु वसिष्ठ जी न लौटें, तब तक के लिये उन्होंने दूसरे ऋत्विजों को वरण कर लिया। गुरु वसिष्ठ जी जब इन्द्र का यज्ञ सम्पन्न करके लौटे तो उन्होंने देखा कि उनके शिष्य निमि ने उनकी बात न मानकर यज्ञ प्रारम्भ कर दिया है। उस समय उन्होंने शाप दिया कि ‘निमि को अपनी विचारशीलता और पांडित्य का बड़ा घमंड है, इसलिये इसका शरीरपात हो जाये’।

निमि की दृष्टि में गुरु वसिष्ठ का यह शाप धर्म के अनुकूल नहीं, प्रतिकूल था। इसलिये उन्होंने भी शाप दिया कि ‘आपने लोभवश अपने धर्म का आदर नहीं किया, इसलिये आपका शरीर भी गिर जाये’। यह कहकर आत्मविद्या में निपुण निमि ने अपने शरीर का त्याग कर दिया।

परीक्षित! इधर हमारे वृद्ध पितामह वसिष्ठ जी ने भी अपना शरीर त्यागकर मित्रावरुण के द्वारा उर्वशी के गर्भ से जन्म ग्रहण किया। राजा निमि के यज्ञ में आये हुए श्रेष्ठ मुनियों ने राजा के शरीर को सुगन्धित वस्तुओं में रख दिया। जब सत्रयाग की समाप्ति हुई और देवता लोग आये, तब उन लोगों ने उनसे प्रार्थना की- ‘महानुभावों! आप लोग समर्थ हैं। यदि आप प्रसन्न हैं तो राजा निमि का यह शरीर पुनः जीवित हो उठे।’ देवताओं ने कहा- ‘ऐसा ही हो।’ उस समय निमि ने कहा- ‘मुझे देह का बन्धन नहीं चाहिये। विचारशील मुनिजन अपनी बुद्धि को पूर्ण रूप से श्रीभगवान् में ही लगा देते हैं और उन्हीं के चरणकमलों का भजन करते हैं। एक-न-एक दिन यह शरीर अवश्य ही छूटेगा-इस भय से भीत होने के कारण वे इस शरीर का कभी संयोग ही नहीं चाहते; वे तो मुक्त ही होना चाहते हैं। अतः मैं अब दुःख, शोक और भय के मूल कारण इस शरीर को धारण करना नहीं चाहता। जैसे जल में मछली के लिये सर्वत्र ही मृत्यु के अवसर हैं, वैसे ही इस शरीर के लिये भी सब कहीं मृत्यु-ही-मृत्यु है’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 11-27 का हिन्दी अनुवाद)

देवताओं ने कहा ;- ‘मुनियों! राजा निमि बिना शरीर के ही प्राणियों के नेत्रों में अपनी इच्छा के अनुसार निवास करें। वे वहाँ रहकर सूक्ष्म शरीर से भगवान का चिन्तन करते रहें। पलक उठने और गिरने पर उनके अस्तित्व का पता चलता रहेगा। इसके बाद महर्षियों ने यह सोचकर कि ‘राजा के न रहने पर लोगों में अराजकता फैल जायेगी’ निमि के शरीर का मन्थन किया। उस मन्थन से एक कुमार उत्पन्न हुआ। जन्म लेने के कारण उसका नाम हुआ जनक। विदेह से उत्पन्न होने के कारण ‘विदेह’ और मन्थन से उत्पन्न होने के कारण उसी बालक का नाम ‘मिथिल’ हुआ। उसी ने मिथिलापुरी बसायी।

परीक्षित! जनक का उदावसु, उसका नन्दिवर्धन, नन्दिवर्धन का सुकेतु, उसका देवरात, देवरात का बृहद्रथ, बृहद्रथ का महावीर्य, महावीर्य का सुधृति, सुधृति का धृष्टकेतु, धृष्टकेतु का हर्यश्व और उसका मरु नामक पुत्र हुआ। मरु से प्रतीपक, प्रतीपक से कृतिरथ, कृतिरथ से देवमीढ, देवमीढ से विश्रुत और विश्रुत से महाधृति का जन्म हुआ। महाधृति का कृतिराज, कृतिराज का महारोमा, महारोमा का स्वर्णरोमा और स्वर्णरोमा का पुत्र हुआ ह्रस्वरोमा। इसी ह्रस्वरोमा के पुत्र महाराज सीरध्वज थे। वे जब यज्ञ के लिये धरती जोत रहे थे, तब उनके सीर (हल) के अग्रभाव (फाल) से सीता जी की उत्पत्ति हुई। इसी से उनका नाम ‘सीरध्वज’ पड़ा।

सीरध्वज के कुशध्वज, कुशध्वज के धर्मध्वज और धर्मध्वज के दो पुत्र हुए-कृतध्वज और मितध्वज। कृतध्वज के केशिध्वज और मितध्वज के खाण्डिक्य हुए। परीक्षित! केशिध्व्ज आत्मविद्या में बड़ा प्रवीण था। खाण्डिक्य था कर्मकाण्ड का मर्मज्ञ। वह केशिध्वज से भयभीत होकर भाग गया। केशिध्वज का पुत्र भानुमान और भानुमान का शतद्युम्न था। शतद्युम्न से शुचि, शुचि से सनद्वाज, सनद्वाज से ऊर्ध्वकेतु, ऊर्ध्वकेतु से अज, अज से पुरुजित, पुरुजित् से अरिष्टनेमि, अरिष्टनेमि से श्रुतायु, श्रुतायु से सुपार्श्वक, सुपार्श्वक से चित्ररथ और चित्ररथ से मिथिलापति क्षेमधि का जन्म हुआ। क्षेमधि से समरथ, समरथ से सत्यरथ, सत्यरथ से उपगुरु और उपगुरु से उपगुप्त नामक पुत्र हुआ। यह अग्नि का अंश था। उपगुप्त का वस्वनन्त, वस्वनन्त का युयुध, युयुध का सुभाषण, सुभाषण का श्रुत, श्रुत का जय, जय का विजय और विजय का ऋत नामक पुत्र हुआ। ऋत का शुनक, शुनक का वीतहव्य, वीतहव्य का धृति, धृति का बहुलाश्व, बहुलाश्व का कृति और कृति का पुत्र हुआ महावशी।

परीक्षित! ये मिथिल के वंश में उत्पन्न सभी नरपति ‘मैथिल’ कहलाते हैं। ये सब-के-सब आत्मज्ञान से सम्पन्न एवं गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से मुक्त थे। क्यों न हो, याज्ञवल्क्य आदि बड़े-बड़े योगेश्वरों की इन पर महान कृपा जो थी।

                           {नवम स्कन्ध:}

                      【चोदहवाँ अध्याय:】१४.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"चन्द्र वंश का वर्णन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अब मैं तुम्हें चन्द्रमा के पावन वंश का वर्णन सुनाता हूँ। इस वंश में पुरुरवा आदि बड़े-बड़े पवित्र कीर्ति राजाओं का कीर्तन किया जाता है।

सहस्रों सिर वाले विराट् पुरुष नारायण के नाभि-सरोवर के कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा जी के पुत्र हुए अत्रि। वे अपने गुणों के कारण ब्रह्मा जी के समान ही थे। उन्हीं अत्रि के नेत्रों से अमृतमय चन्द्रमा का जन्म हुआ। ब्रह्मा जी ने चन्द्रमा को ब्राह्मण, ओषधि और नक्षत्रों का अधिपति बना दिया। उन्होंने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की और राजसूय यज्ञ किया। इससे उनका घमंड बढ़ गया और उन्होंने बलपूर्वक बृहस्पति की पत्नी तारा को हर लिया। देवगुरु बृहस्पति ने अपनी पत्नी को लौटा देने के लिये उनसे बार-बार याचना की, परन्तु वे इतने मतवाले हो गये थे कि उन्होंने किसी प्रकार उनकी पत्नी को नहीं लौटाया। ऐसी परिस्थिति में उसके लिये देवता और दानवों में घोर संग्राम छिड़ गया।

शुक्राचार्य जी ने बृहस्पति जी के द्वेष से असुरों के साथ चन्द्रमा का पक्ष ले लिया और महादेव जी ने स्नेहवश समस्त भूतगणों के साथ अपने विद्यागुरु अंगिरा जी के पुत्र बृहस्पति का पक्ष लिया। देवराज इन्द्र ने भी समस्त देवताओं के साथ अपने गुरु बृहस्पति जी का ही पक्ष लिया। इस प्रकार तारा के निमित्त से देवता और असुरों का संहार करने वाला घोर संग्राम हुआ।

तदनन्तर अंगिरा ऋषि ने ब्रह्मा जी के पास जाकर यह युद्ध बंद कराने की प्रार्थना की। इस पर ब्रह्मा जी ने चन्द्रमा को बहुत डाँटा-फटकारा और तारा को उसके पति बृहस्पति जी के हवाले कर दिया। जब बृहस्पति जी को यह मालूम हुआ कि तारा तो गर्भवती है, तब उन्होंने कहा- ‘दुष्टे! मेरे क्षेत्र में यह तो किसी दूसरे का गर्भ है। इसे तू अभी त्याग दे, तुरन्त त्याग दे। डर मत, मैं तुझे जलाऊँगा नहीं। क्योंकि एक तो तू स्त्री है और दूसरे मुझे भी सन्तान की कामना है। देवी होने के कारण तू निर्दोष भी है ही’। अपने पति की बात सुनकर तारा अत्यन्त लज्जित हुई। उसने सोने के समान चमकता हुआ बालक अपने गर्भ से अलग कर दिया। उस बालक को देखकर बृहस्पति और चन्द्रमा दोनों ही मोहित हो गये और चाहने लगे कि यह हमें मिल जाये। अब वे एक-दूसरे से इस प्रकार जोर-जोर से झगड़ा करने लगे कि ‘यह तुम्हारा नहीं, मेरा है।’ ऋषियों और देवताओं ने तारा से पूछा कि ‘यह किसका लड़का है।’ परन्तु तारा ने लज्जावश कोई उत्तर न दिया। बालक ने अपनी माता की झूठी लज्जा से क्रोधित होकर कहा- ‘दुष्टे! तू बतलाती क्यों नहीं? तू अपना कुकर्म मुझे शीघ्र-से-शीघ्र बतला दे’। उसी समय ब्रह्मा जी ने तारा को एकान्त में बुलाकर बहुत कुछ समझा-बुझाकर पूछा। तब तारा ने धीरे से कहा कि ‘चन्द्रमा का।’ इसलिये चन्द्रमा ने उस बालक को ले लिया।

परीक्षित! ब्रह्मा जी ने उस बालक का नाम रखा ‘बुध’, क्योंकि उसकी बुद्धि बड़ी गम्भीर थी। ऐसा पुत्र प्राप्त करके चन्द्रमा को बहुत आनन्द हुआ। परीक्षित! बुध के द्वारा इला के गर्भ से पुरुरवा का जन्म हुआ। इसका वर्णन मैं पहले ही कर चुका हूँ।

एक दिन इन्द्र की सभा में देवर्षि नारद जी पुरुरवा के रूप, गुण, उदारता, शील-स्वभाव, धन-सम्पत्ति और पराक्रम का गान कर रहे थे। उन्हें सुनकर उर्वशी के हृदय में कामभाव का उदय हो आया और उससे पीड़ित होकर वह देवांगना पुरुरवा के पास चली आयी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद)

यद्यपि उर्वशी को मित्रावरुण के शाप से ही मृत्यु लोक में आना पड़ा था, फिर भी पुरुष शिरोमणि पुरुरवा मूर्तिमान् कामदेव के समान सुन्दर हैं-यह सुनकर सुर-सुन्दरी उर्वशी ने धैर्य धारण किया और वह उनके पास चली आयी। देवांगना उर्वशी को देखकर राजा पुरुरवा के नेत्र हर्ष से खिल उठे। उनके शरीर में रोमांच हो आया। उन्होंने बड़ी मीठी वाणी से कहा-

राजा पुरुरवा ने कहा ;- 'सुन्दरी! तुम्हारा स्वागत है। बैठो, मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ? तुम मेरे साथ विहार करो और हम दोनों का यह विहार, अनन्त काल तक चलता रहे।'

उर्वशी ने कहा ;- ‘राजन्! आप सौन्दर्य के मूर्तिमान् स्वरूप हैं। भला, ऐसी कौन कामिनी है जिसकी दृष्टि और मन आप में आसक्त न हो जाये? क्योंकि आपके समीप आकर मेरा मन रमण की इच्छा से अपना धैर्य खो बैठा है। राजन! जो पुरुष रूप-गुण आदि के कारण प्रशंसनीय होता है, वही स्त्रियों को अभीष्ट होता है। अतः मैं आपके साथ अवश्य विहार करूँगी। परन्तु मेरे प्रेमी महाराज! मेरी एक शर्त है। मैं आपको धरोहर के रूप में भेंड़ के दो बच्चे सौंपती हूँ। आप इनकी रक्षा करना। वीरशिरोमणे! मैं केवल घी खाऊँगी और मैथुन के अतिरिक्त और किसी भी समय आपको वस्त्रहीन न देख सकूँगी।’

परममनस्वी पुरुरवा ने ‘ठीक है’-ऐसा कहकर उसकी शर्त स्वीकार कर ली और फिर उर्वशी से कहा- ‘तुम्हारा यह सौन्दर्य अद्भुत है। तुम्हारा भाव अलौकिक है। यह तो सारी मनुष्य सृष्टि को मोहित करने वाला है। और देवि! कृपा करके तुम स्वयं यहाँ आयी हो। फिर कौन ऐसा मनुष्य है जो तुम्हारा सेवन न करेगा?'

परीक्षित! तब उर्वशी कामशास्त्रोक्त पद्धति से पुरुषश्रेष्ठ पुरुरवा के साथ विहार करने लगी। वे भी देवताओं की विहारस्थली चैत्ररथ, नन्दनवन आदि उपवनों में उसके साथ स्वच्छन्द विहार करने लगे। देवी उर्वशी के शरीर से कमल-केसर की-सी सुगन्ध निकला करती थी। उसके साथ राजा पुरुरवा ने बहुत वर्षों तक आनन्द-विहार किया। वे उसके मुख की सुरभि से अपनी सुध-बुध खो बैठते थे।

इधर जब इन्द्र ने उर्वशी को नहीं देखा, तब उन्होंने गन्धर्वों को उसे लाने के लिये भेजा और कहा- ‘उर्वशी के बिना मुझे यह स्वर्ग फीका जान पड़ता है’। वे गन्धर्व आधी रात के समय घोर अन्धकार में वहाँ गये और उर्वशी के दोनों भेड़ों को, जिन्हें उसने राजा के पास धरोहर रखा था, चुराकर चलते बने। उर्वशी ने जब गन्धर्वों द्वारा ले जाये जाते हुए अपने पुत्र समान प्यारे भेड़ों की ‘बें-बें’ सुनी, तब वह कह उठी कि ‘अरे, इस कायर को अपना स्वामी बनाकर मैं तो मारी गयी। यह नपुंसक अपने को बड़ा वीर मानता है। यह मेरे भेड़ों को भी न बचा सका। इसी पर विश्वास करने के कारण लुटेरे मेरे बच्चों को लूटकर लिये जा रहे हैं। मैं तो मर गयी। देखो तो सही, यह दिन में तो मर्द बनता है, और रात में स्त्रियों की तरह डरकर सोया रहता है’।

परीक्षित! जैसे कोई हाथी को अंकुश से बेध डाले, वैसे ही उर्वशी ने अपने वचन-बाणों से राजा को बींध दिया। राजा पुरुरवा को बड़ा क्रोध आया और हाथ में तलवार लेकर वस्त्रहीन अवस्था में ही वे उस ओर दौड़ पड़े।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 31-43 का हिन्दी अनुवाद)

गन्धर्वों ने उनके झपटते ही भेड़ों को तो वहीं छोड़ दिया और स्वयं बिजली की तरह चमकने लगे। जब राजा पुरुरवा भेड़ों को लेकर लौटे, तब उर्वशी ने उस प्रकाश में उन्हें वस्त्रहीन अवस्था में देख लिया। (बस, वह उसी समय उन्हें छोड़कर चली गयी)।

परीक्षित! राजा पुरुरवा ने जब अपने शयनागार में अपनी प्रियतमा उर्वशी को नहीं देखा तो वे अनमने हो गये। उनका चित्त उर्वशी में ही बसा हुआ था। वे उसके लिये शोक से विह्वल हो गये और उन्मत्त की भाँति पृथ्वी में इधर-उधर भटकने लगे।

एक दिन कुरुक्षेत्र में सरस्वती नदी के तट पर उन्होंने उर्वशी और उसकी पाँच प्रसन्नमुखी सखियों को देखा और बड़ी मीठी वाणी से कहा ;- ‘प्रिये! तनिक ठहर जाओ। एक बार मेरी बात मान लो। निष्ठुरे! अब आज तो मुझे सुखी किये बिना मत जाओ। क्षणभर ठहरो; आओ हम दोनों कुछ बातें तो कर लें। देवि! अब इस शरीर पर तुम्हारा कृपा-प्रसाद नहीं रहा, इसी से तुमने इसे दूर फेंक दिया है। अतः मेरा यह सुन्दर शरीर अभी ढेर हुआ जाता है और तुम्हारे देखते-देखते इसे भेड़िये और गीध खा जायेंगे’।

उर्वशी ने कहा ;- राजन! तुम पुरुष हो। इस प्रकार मत मरो। देखो, सचमुच ये भेड़िये तुम्हें खा न जायें। स्त्रियों की किसी के साथ मित्रता नहीं हुआ करती। स्त्रियों का हृदय और भेड़ियों का हृदय बिलकुल एक-जैसा होता है। स्त्रियाँ निर्दय होती हैं। क्रूरता तो उनमें स्वाभाविक ही रहती है। तनिक-सी बात में चिढ़ जाती हैं और अपने सुख के लिये बड़े-बड़े साहस के काम कर बैठती हैं, थोड़े-से स्वार्थ के लिये विश्वास दिलाकर अपने पति और भाई तक को मार डालती हैं। इनके हृदय में सौहार्द तो है ही नहीं। भोले-भाले लोगों को झूठ-मूठ का विश्वास दिलाकर फाँस लेती हैं और नये-नये पुरुष की चाट से कुलटा और स्वच्छन्दचारिणी बन जाती हैं तो फिर तुम धीरज धरो। तुम राजराजेश्वर हो। घबराओ मत। प्रति एक वर्ष के बाद एक रात तुम मेरे साथ रहोगे। तब तुम्हारे और भी सन्तानें होंगी।

राजा पुरुरवा ने देखा कि उर्वशी गर्भवती है, इसलिये वे अपनी राजधानी लौट आये। एक वर्ष के बाद फिर वहाँ गये। तब तक उर्वशी एक वीर पुत्र की माता हो चुकी थी। उर्वशी के मिलने से पुरुरवा को बड़ा सुख मिला और वे एक रात उसी के साथ रहे। प्रातःकाल जब वे विदा होने लगे, तब विरह के दुःख से वे अत्यन्त दीन हो गये। उर्वशी ने उनसे कहा- ‘तुम इन गन्धर्वों की स्तुति करो, ये चाहें तो तुम्हें मुझे दे सकते हैं।' तब राजा पुरुरवा ने गन्धर्वों की स्तुति की।

परीक्षित! राजा पुरुरवा की स्तुति से प्रसन्न होकर गन्धर्वों ने उन्हें एक अग्निस्थाली (अग्निस्थापन करने का पात्र) दी। राजा ने समझा यही उर्वशी है, इसलिये उसको हृदय से लगाकर वे एक वन से दूसरे वन में घूमते रहे। जब उन्हें होश आया, तब वे स्थाली को वन में छोड़कर अपने महल लौट आये एवं रात के समय उर्वशी का ध्यान करते रहे। इस प्रकार जब त्रेता युग का प्रारम्भ हुआ, तब उनके हृदय में तीनों वेद प्रकट हुए।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 44-49 का हिन्दी अनुवाद)

फिर वे उस स्थान पर गये, जहाँ उन्होंने वह अग्निस्थाली छोड़ी थी। अब उस स्थान पर शमीवृक्ष के गर्भ में एक पीपल का वृक्ष उग आया था, उसे देखकर उन्होंने उससे दो अरणियाँ (मन्थन काष्ठ) बनायीं। फिर उन्होंने उर्वशी लोक की कामना से नीचे की अरणि को उर्वशी, ऊपर की अरणि को पुरुरवा और बीच के काष्ठ को पुत्ररूप से चिन्तन करते हुए अग्नि प्रज्वलित करने वाले मन्त्रों से मन्थन किया।

उनके मन्थन से ‘जातवेदा’ नाम की अग्नि प्रकट हुई। राजा पुरुरवा ने अग्नि देवता को त्रयीविद्या के द्वारा आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि-इन तीनों भागों में विभक्त करके पुत्ररूप से स्वीकार कर लिया। फिर उर्वशी लोक की इच्छा से पुरुरवा ने उन तीनों अग्नियों द्वारा सर्वदेवस्वरूप इन्द्रियातीत यज्ञपति भगवान श्रीहरि का यजन किया।

परीक्षित! त्रेता के पूर्व सत्ययुग में एकमात्र प्रणव (ॐकार) ही वेद था। सारे वेद-शास्त्र उसी के अन्तर्भूत थे। देवता थे एकमात्र नारायण; और कोई न था। अग्नि भी तीन नहीं, केवल एक था और वर्ण भी केवल एक ‘हंस’ ही था।

परीक्षित! त्रेता के प्रारम्भ में पुरुरवा से ही वेदत्रयी और अग्नित्रयी का आविर्भाव हुआ। राजा पुरुरवा ने अग्नि को सन्तान रूप से स्वीकार करके गन्धर्व लोक की प्राप्ति की।

                           {नवम स्कन्ध:}

                      【पंद्रहवाँ अध्याय:】१५.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"ऋचीक, जमदग्नि और परशुराम जी का चरित्र"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! उर्वशी के गर्भ से पुरुरवा के छः पुत्र हुए- आयु, श्रुतायु, सत्यायु, रय, विजय और जय। श्रुतायु का पुत्र था वसुमान्, सत्यायु का श्रुतंजय, रय का एक और जय का अमित। विजय का भीम, भीम का कांचन, कांचन का होत्र और होत्र का पुत्र था जह्नु। ये जह्नु वही थे, जो गंगा जी को अपनी अंजलि में लेकर पी गये थे। जह्नु का पुत्र था पूरु, पूरु का बलाक और बलाक का अजक। अजक का कुश था। कुश के चार पुत्र थे- कुशाम्बु, तनय, वसु और कुशनाभ। इनमें से कुशाम्बु के पुत्र गाधि हुए।

परीक्षित! गाधि की कन्या का नाम था सत्यवती। ऋचीक ऋषि ने गाधि से उनकी कन्या माँगी। गाधि ने यह समझकर कि ये कन्या के योग्य वर नहीं है, ऋचीक से कहा- ‘मुनिवर! हम लोग कुशिक वंश के हैं। हमारी कन्या मिलनी कठिन है। इसलिये आप एक हजार ऐसे घोड़े लाकर मुझे शुल्क रूप में दीजिये, जिनका सारा शरीर तो श्वेत हो, परन्तु एक-एक कान श्याम वर्ण का हो’। जब गाधि ने यह बात कही, तब ऋचीक मुनि उनका आशय समझ गये और वरुण के पास जाकर वैसे ही घोड़े ले आये तथा उन्हें देकर सुन्दरी सत्यवती से विवाह कर लिया।

एक बार महर्षि ऋचीक से उनकी पत्नी और सास दोनों ने ही पुत्र प्राप्ति के लिये प्रार्थना की। महर्षि ऋचीक ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करके दोनों के लिये अलग-अलग मन्त्रों से चरु पकाया और स्नान करने के लिये चले गये। सत्यवती की माँ ने यह समझकर कि ऋषि ने अपनी पत्नी के लिये श्रेष्ठ चरु पकाया होगा, उससे वह चरु माँग लिया। इस पर सत्यवती ने अपना चरु तो माँ को दे दिया और माँ का चरु स्वयं खा गयी। जब ऋचीक मुनि को इस बात का पता चला, तब उन्होंने अपनी पत्नी सत्यवती से कहा कि ‘तुमने बड़ा अनर्थ कर डाला। अब तुम्हारा पुत्र तो लोगों को दण्ड देने वाला घोर प्रकृति का होगा और तुम्हारा भाई एक श्रेष्ठ ब्रह्मवेत्ता’। सत्यवती ने ऋचीक मुनि को प्रसन्न किया और प्रार्थना की कि ‘स्वामी! ऐसा नहीं होना चाहिये।'

तब उन्होंने कहा ;- ‘अच्छी बात है। पुत्र के बदले तुम्हारा पौत्र वैसा (घोर प्रकृति का) होगा।’ समय पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। सत्यवती समस्त लोकों को पवित्र करने वाली परमपुण्यमयी ‘कौशिकी’ नदी बन गयी। रेणु ऋषि की कन्या थी रेणुका। जमदग्नि ने उसका पाणिग्रहण किया। रेणुका के गर्भ से जमदग्नि ऋषि के वसुमान् आदि कई पुत्र हुए। उनमें से सबसे छोटे परशुराम जी थे। उनका यश सारे संसार में प्रसिद्ध है। कहते हैं कि हैहय वंश का अन्त करने के लिये स्वयं भगवान ने ही परशुराम के रूप में अंशावतार ग्रहण किया था। उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियहीन कर दिया। यद्यपि क्षत्रियों ने उनका थोडा-सा ही अपराध किया था-फिर भी वे लोग बड़े दुष्ट, ब्राह्मणों के अभक्त, रजोगुणी और विशेष करके तमोगुणी हो रहे थे। यही कारण था कि वे पृथ्वी के भार हो गये थे और इसी के फलस्वरूप भगवान परशुराम ने उनका नाश करके पृथ्वी का भार उतार दिया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 16-28 का हिन्दी अनुवाद)

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! अवश्य ही उस समय के क्षत्रिय विषयलोलुप हो गये थे; परन्तु उन्होंने परशुराम जी का ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया, जिसके कारण उन्होंने बार-बार क्षत्रियों के वंश का संहार किया?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! उन दिनों हैहय वंश का अधिपति था अर्जुन। वह एक श्रेष्ठ क्षत्रिय था। उसने अनेकों प्रकार की सेवा-शुश्रूषा करके भगवान नारायण के अंशावतार दत्तात्रेय जी को प्रसन्न कर लिया और उनसे एक हजार भुजाएँ तथा कोई शत्रु यद्ध में पराजित न कर सके-यह वरदान प्राप्त कर लिया। साथ ही इन्द्रियों का अबाध बल, अतुल सम्पत्ति, तेजस्विता, वीरता, कीर्ति और शारीरिक बल भी उसने उनकी कृपा से प्राप्त कर लिये थे। वह योगेश्वर हो गया था। उसमें ऐसा ऐश्वर्य था कि सूक्ष्म-से-सूक्ष्म, स्थूल-से-स्थूल रूप धारण कर लेता। सभी सिद्धियाँ उसे प्राप्त थीं। वह संसार में वायु की तरह सब जगह बेरोक-टोक विचरा करता।

एक बार गले में वैजयन्ती माला पहने सहस्रबाहु अर्जुन बहुत-सी सुन्दरी स्त्रियों के साथ नर्मदा नदी में जल-विहार कर रहा था। उस समय मदोन्मत्त सहस्रबाहु ने अपनी बाँहों से नदी का प्रवाह रोक दिया। दशमुख रावण का शिविर भी वहीं कहीं पास में था। नदी की धारा उलटी बहने लगी, जिससे उसका शिविर डूबने लगा। रावण अपने को बहुत बड़ा वीर तो मानता ही था, इसलिये सहस्रार्जुन का यह पराक्रम उससे सहन नहीं हुआ। जब रावण सहस्राबाहु अर्जुन के पास जाकर बुरा-भला कहने लगा, तब उसने स्त्रियों के सामने ही खेल-खेल में रावण को पकड़ लिया और अपनी राजधानी माहिष्मती में जाकर बंदर के समान कैद कर लिया। पीछे पुलस्त्य जी के कहने से सहस्राबाहु ने रावण को छोड़ दिया।

एक दिन सहस्रबाहु अर्जुन शिकार खेलने के लिये बड़े घोर जंगल में निकल गया था। दैववश वह जमदग्नि मुनि के आश्रम पर जा पहुँचा। परम तपस्वी जमदग्नि मुनि के आश्रम में कामधेनु रहती थी। उसके प्रताप से उन्होंने सेना, मन्त्री और वाहनों के साथ हैहयाधिपति का खूब स्वागत-सत्कार किया। वीर हैहयाधिपति ने देखा कि जमदग्नि मुनि का ऐश्वर्य तो मुझसे भी बढ़ा-चढ़ा है। इसलिये उसने उनके स्वागत-सत्कार को कुछ भी आदर न देकर कामधेनु को ही ले लेना चाहा। उसने अभिमानवश जमदग्नि मुनि से माँगा भी नहीं, अपने सेवकों को आज्ञा दी कि कामधेनु को छीन ले चलो। उसकी आज्ञा से उसके सेवक बछड़े के साथ ‘बाँ-बाँ’ डकराती हुई कामधेनु को बलपूर्वक माहिष्मतीपुरी ले गये। जब वे सब चले गये, तब परशुराम जी आश्रम पर आये और उसकी दुष्टता का वृतान्त सुनकर चोट खाये हुए साँप की तरह क्रोध से तिलमिला उठे। वे अपना भयंकर फरसा, तरकस, ढाल एवं धनुष लेकर बड़े वेग से उसके पीछे दौड़े-जैसे कोई किसी से न दबने वाला सिंह हाथी पर टूट पड़े।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 29-41 का हिन्दी अनुवाद)

सहस्राबाहु अर्जुन अभी अपने नगर में प्रवेश कर ही रहा था कि उसने देखा परशुराम जी महाराज बड़े वेग से उसी की ओर झपटे आ रहे हैं। उनकी बड़ी विलक्षण झाँकी थी। वे हाथ में धनुष-बाण और फरसा लिये हुए थे, शरीर पर काला मृगचर्म धारण किये हुए थे और उनकी जटाएँ सूर्य की किरणों के समान चमक रही थीं। उन्हें देखते ही उसने गदा, खड्ग, बाण, ऋष्टि, शतघ्नी और शक्ति आदि आयुधों से सुसज्जित एवं हाथी, घोड़े, रथ तथा पदातियों से युक्त अत्यन्त भयंकर सहस्र अक्षौहिणी सेना भेजी। भगवान् परशुराम ने बात-की-बात में अकेले ही उस सारी सेना को नष्ट कर दिया।

भगवान् परशुराम जी की गति मन और वायु के समान थी। बस, वे शत्रु की सेना काटते ही जा रहे थे। जहाँ-जहाँ वे अपने फरसे का प्रहार करते, वहाँ-वहाँ सारथि और वाहनों के साथ बड़े-बड़े वीरों की बाँहें, जाँघें और कंधे कट-कटकर पृथ्वी पर गिरते जाते थे। हैहयाधिपति अर्जुन ने देखा कि मेरी सेना के सैनिक, उनके धनुष, ध्वजाएँ और ढाल भगवान् परशुराम के फरसे और बाणों से कट-कटकर खून से लथपथ रणभूमि में गिर गये हैं, तब उसे बड़ा क्रोध आया और वह स्वयं भिड़ने के लिये आ धमका। उसने एक साथ ही अपनी हजार भुजाओं से पाँच सौ धनुषों पर बाण चढ़ायें और परशुराम जी पर छोड़े। परन्तु परशुराम जी तो समस्त शस्त्रधारियों के शिरोमणि ठहरे। उन्होंने अपने एक धनुष पर छोड़े हुए बाणों से ही एक साथ सबको काट डाला। अब हैहयाधिपति अपने हाथों से पहाड़ और पेड़ उखाड़कर बड़े वेग से युद्धभूमि में परशुराम जी की ओर झपटा। परन्तु परशुराम जी ने अपनी तीखी धार वाले फरसे से बड़ी फुर्ती के साथ उसकी साँपों के समान भुजाओं को काट डाला। जब उसकी बाँहें कट गयीं, तब उन्होंने पहाड़ की चोटी की तरह उसका ऊँचा सिर धड़ से अलग कर दिया। पिता के मर जाने पर उसके दस हजार लड़के डरकर भाग गये।

परीक्षित! विपक्षी वीरों के नाशक परशुराम जी ने बछड़े के साथ कामधेनु लौटा ली। वह बहुत ही दुःखी हो रही थी। उन्होंने उसे अपने आश्रम पर लाकर पिताजी को सौंप दिया और माहिष्मती में सहस्रबाहु ने तथा उन्होंने जो कुछ किया था, सब अपने पिताजी तथा भाइयों को कह सुनाया। (सब कुछ सुनकर )
जमदग्नि मुनि ने कहा ;- ‘हाय, हाय, परशुराम! तुमने बड़ा पाप किया। राम, राम! तुम बड़े वीर हो; परन्तु सर्वदेवमय नरदेव का तुमने व्यर्थ ही वध किया। बेटा! हम लोग ब्राह्मण हैं। क्षमा के प्रभाव से ही हम संसार में पूजनीय हुए हैं। और तो क्या, सबके दादा ब्रह्मा जी भी क्षमा के बल से ही ब्रह्मपद को प्राप्त हुए हैं। ब्राह्मणों की शोभा क्षमा के द्वारा ही सूर्य की प्रभा के समान चमक उठती है। सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि भी क्षमावानों पर ही शीघ्र प्रसन्न होते हैं। बेटा! सार्वभौम राजा का वध ब्राह्मण की हत्या से भी बढ़कर है। जाओ, भगवान् का स्मरण करते हुए तीर्थों का सेवन करके अपने पापों को धो डालो’।

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