सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( पञ्चम स्कन्धः ) का ग्यारवाँ , बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँँ व पंद्रहवाँ अध्याय [ The Eleven, twelve, thirteenth, fourteenth and fifteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Fifth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( पञ्चम स्कन्धः ) का ग्यारवाँ , बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँँ व पंद्रहवाँ अध्याय [ The Eleven, twelve, thirteenth, fourteenth and fifteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Fifth wing) ]



                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【एकादश अध्याय:】११.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा रहूगण को भरत जी का उपदेश"
जड भरत ने कहा ;- राजन्! तुम अज्ञानी होने पर भी पण्डितों के समान ऊपर-ऊपर की तर्क-वितर्क युक्त बात कह रहे हो। इसलिये श्रेष्ठ ज्ञानियों में तुम्हारी गणना नहीं हो सकती। तत्त्वज्ञानी पुरुष इस अविचार सिद्ध स्वामी-सेवक आदि व्यवहार को तत्त्वविचार के समय सत्य रूप से स्वीकार नहीं करते। लौकिक व्यवहार के समान ही वैदिक व्यवहार भी सत्य नहीं है, क्योंकि वेद वाक्य भी अधिकतर गृहस्थजनोचित यज्ञ विधि के विस्तार में ही व्यस्त हैं, राग-द्वेषादि दोषों से रहित विशुद्ध तत्त्वज्ञानी की पूरी-पूरी अभिव्यक्ति प्रायः उनमें भी नहीं हुई है। जिसे गृहस्थोचित यज्ञादि कर्मों से प्राप्त होने वाला स्वर्गादि सुख स्वप्न के समान हेय नहीं जान पड़ता, उसे तत्त्वज्ञान कराने में साक्षात् उपनिषद्-वाक्य भी समर्थ नहीं है।

जब तक मनुष्य का मन सत्त्व, रज अथवा तमोगुण के वशीभूत रहता है, तब तक वह बिना किसी अंकुश के उसकी ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों से शुभाशुभ कर्म कराता रहता है। यह मन वासनामय, विषयासक्त, गुणों से प्रेरित, विकारी और भूत एवं इन्द्रियरूप सोलह कलाओं में मुख्य है। यही भिन्न-भिन्न नामों से देवता और मनुष्यादि रूप धारण करके शरीररूप उपाधियों के भेद से जीव की उत्तमता और अधमता का कारण होता है। यह मायामय मन संसार चक्र में छलने वाला है, यही अपनी देह के अभिमानी जीव से मिलकर उसे कालचक्र से प्राप्त हुए सुख-दुःख और इनसे व्यतिरिक्त मोहरूप अवश्यम्भावी फलों की अभिव्यक्ति करता है। जब तक यह मन रहता है, तभी तक जाग्रत् और स्वप्नावस्था का व्यवहार प्रकाशित होकर जीव का दृश्य बनता है। इसलिये पण्डितजन मन को ही त्रिगुणमय अधम संसार का और गुणातीत परमोत्कृष्ट मोक्ष पद का कारण बताते हैं।

विषयासक्त मन जीव को संसार-संकट में डाल देता है, विषयहीन होने पर वही उसे शान्तिमय मोक्ष पद प्राप्त करा देता है। जिस प्रकार घी से भीगी हुई बत्ती को खाने वाले दीपक से तो धुंएँ वाली शिखा निकलती रहती है और जब घी समाप्त हो जाता है-उसी प्रकार विषय और कर्मों से आसक्त हुआ मन तरह-तरह की वृत्तियों का आश्रय लिये रहता है और इनसे मुक्त होने पर वह अपने तत्त्व में लीन हो जाता है।

वीरवर! पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक अहंकार- ये ग्यारह मन की वृत्तियाँ हैं तथा पाँच प्रकार के कर्म, पाँच तन्मात्र और एक शरीर- ये ग्यारह उनके आधारभूत विषय कहे जाते हैं। गन्ध, रूप, स्पर्श, रस और शब्द- ये पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं; मलत्याग, सम्भोग, गमन, भाषण और लेना-देना आदि व्यापार- ये पाँच कर्मेन्द्रियों के विषय हैं तथा शरीर को ‘यह मेरा है’ इस प्रकार स्वीकार करना अहंकार का विषय है। कुछ लोग अहंकार को मन की बारहवीं वृत्ति और उसके आश्रय शरीर को बारहवाँ विषय मानते हैं। ये मन की ग्यारह वृतियाँ द्रव्य (विषय), स्वभाव, आशय (संस्कार), कर्म और काल के द्वारा सैकड़ों, हजारों और करोड़ों भेदों में परिणत हो जाती हैं। किन्तु इनकी सत्ता क्षेत्रज्ञ आत्मा की सत्ता से ही है, स्वतः या परस्पर मिलकर नहीं है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 12-17 का हिन्दी अनुवाद)

ऐसा होने पर भी मन से क्षेत्रज्ञ का कोई सम्बन्ध नहीं है। यह तो जीव की ही माया निर्मित उपाधि है। यह प्रायः संसार बन्धन में डालने वाले अविशुद्ध कर्मों में ही प्रवृत्त रहता है। इसकी उपर्युक्त वृत्तियाँ प्रवाह रूप से नित्य ही रहती हैं; जाग्रत् और स्वप्न के समय वे प्रकट हो जाती हैं और सुषुप्ति में छिप जाती हैं। इन दोनों ही अवस्थाओं में क्षेत्रज्ञ, जो विशुद्ध चिन्मात्र है, मन की इन वृत्तियों को साक्षी रूप से देखता रहता है।

यह क्षेत्रज्ञ परमात्मा सर्वव्यापक, जगत् का आदिकारण, परिपूर्ण, अपरोक्ष, स्वयं प्रकाश, अजन्मा, ब्रह्मादि का भी नियन्ता और अपने अधीन रहने वाले माया के द्वारा सबके अन्तःकरणों में रहकर जीवों को प्रेरित करने वाला समस्त भूतों का आश्रयरूप भगवान् वासुदेव हैं। जिस प्रकार वायु सम्पूर्ण स्थावर-जंगम प्राणियों में प्राणरूप से प्रविष्ट होकर उन्हें प्रेरित करती है, उसी प्रकार वह परमेश्वर भगवान् वासुदेव सर्वसाक्षी आत्मस्वरूप से इस सम्पूर्ण प्रपंच में ओत-प्रोत है।

राजन्! जब तक मनुष्य ज्ञानोदय के द्वारा इस माया का तिरस्कार कर, सबकी आसक्ति छोड़कर तथा काम-क्रोधादि छः शत्रुओं को जीतकर आत्मतत्त्व को नहीं जान लेता और जब तक वह आत्मा के उपाधिरूप मन को संसार-दुःख का क्षेत्र नहीं समझता, तब तक वह इस लोक में यों ही भटकता रहता है, क्योंकि चित्त उसके शोक, मोह, रोग, लोभ और वैर आदि के संस्कार तथा ममता की वृद्धि करता रहता है। यह मन ही तुम्हारा बड़ा बलवान् शत्रु है। तुम्हारी उपेक्षा करने से इसकी शक्ति और भी बढ़ गयी है। यह यद्यपि स्वयं तो सर्वथा मिथ्या है, तथापि इसने तुम्हारे आत्मस्वरूप को आच्छादित कर रखा है। इसलिये तुम सावधान होकर श्रीगुरु और हरि के चरणों की उपासना के अस्त्र से इसे मार डालो।

                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【द्वादश अध्याय:】१२


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद)

"रहूगण का प्रश्न और भरत जी का समाधान"
राजा रहूगण ने कहा ;- भगवन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आपने जगत् का उद्धार करने के लिये ही यह देह धारण की है। योगेश्वर! अपने परमानन्दमयस्वरूप का अनुभव करके आप इस स्थूल शरीर से उदासीन हो गये हैं तथा एक जड ब्राह्मण के वेष से अपने नित्यज्ञानमयस्वरूप को जनसाधारण की दृष्टि से ओझल किये हुए हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ।

ब्रह्मन्! जिस प्रकार ज्वर से पीड़ित रोगी के लिये मीठी ओषधि और धूप से तपे हुए पुरुष के लिये शीतल जल अमृत तुल्य होता है, उसी प्रकार मेरे लिये, जिसकी विवेक बुद्धि को देहाभिमानरूप विषैले सर्प ने डस लिया है, आपके वचन अमृतमय ओषधि के समान हैं।

देव! मैं आपसे अपने संशयों की निवृत्ति तो पीछे कराऊँगा। पहले तो इस समय आपने जो अध्यात्म-योगमय उपदेश दिया है, उसी को सरल करके समझाइये, उसे समझने की मुझे बड़ी उत्कण्ठा है।

योगेश्वर! आपने जो यह कहा कि भार उठाने की क्रिया तथा उससे जो श्रमफल होता है, वे दोनों ही प्रत्यक्ष होने पर भी केवल व्यवहार मूल के ही हैं, वास्तव में सत्य नहीं है-वे तत्त्व विचार के सामने कुछ भी नहीं ठहरते-सो इस विषय में मेरा मन चक्कर खा रहा है, आपके इस कथन का मर्म मेरी समझ में नहीं आया रहा है।

जड भरत ने कहा ;- पृथ्वीपते! यह देह पृथ्वी का विकार है, पाषाणादि से इसका क्या भेद है? जब यह किसी कारण से पृथ्वी पर चलने लगता है, तब इसके भारवाही आदि नाम पड़ जाते हैं। इसके दो चरण हैं; उनके ऊपर क्रमशः टखने, पिंडली, घुटने, जाँघ, कमर, वक्षःस्थल, गर्दन और कंधे आदि अंग हैं। कंधों के ऊपर लकड़ी की पालकी रखी हुई है; उसमें भी सौवीरराज नाम का एक पार्थिव विकार ही है, जिसमें आत्मबुद्धिरूप अभिमान करने से तुम ‘मैं सिन्धु देश का राजा हूँ’ इस प्रबल मद से अंधे हो रहे हो। किन्तु इसी से तुम्हारी श्रेष्ठता सिद्ध नहीं होती, वास्तव में तो तुम बड़े क्रूर और धृष्ट ही हो। तुमने इन बेचारे दीन-दुःखिया कहारों को बेगार में पकड़कर पालकी में जोत रखा है और फिर महापुरुषों की सभा में बढ़-बढ़कर बातें बनाते हो कि मैं लोकों की रक्षा करने वाला हूँ। यह तुम्हें शोभा नहीं देता। हम देखते हैं कि सम्पूर्ण चराचर भूत सर्वदा पृथ्वी से ही उत्पन्न होते हैं और पृथ्वी में ही लीन होते हैं, अतः उनके क्रियाभेद के कारण जो अलग-अलग नाम पड़ गये हैं-बताओ तो, उनके सिवा व्यवहार का और क्या मूल है?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 9-16 का हिन्दी अनुवाद)

इस प्रकार ‘पृथ्वी’ शब्द का व्यवहार भी मिथ्या ही है; वास्तविक नहीं है; क्योंकि यह अपने उपादान कारण सूक्ष्म परमाणुओं में लीन हो जाती है और जिनके मिलने से पृथ्वीरूप कार्य की सिद्धि होती है, वे परमाणु अविद्यावश मन से ही कल्पना किये हुए हैं। वास्तव में उनकी भी सत्ता नहीं है। इसी प्रकार और भी जो कुछ पतला-मोटा, छोटा-बड़ा, कार्य-कारण तथा चेतन और अचेतन आदि गुणों से युक्त द्वैत-प्रपंच है-उसे भी द्रव्य, स्वभाव, आशय, काल और कर्म आदि नामों वाली भगवान् की माया का ही कार्य समझो।

विशुद्ध परमार्थरूप, अद्वितीय तथा भीतर-बाहर के भेद से रहित परिपूर्ण ज्ञान ही सत्य वस्तु है। वह सर्वान्तर्वर्ती और सर्वथा निर्विकार है। उसी का नाम ‘भगवान्’ है और उसी को पण्डितजन ‘वासुदेव’ कहते हैं।

रहूगण! महापुरुषों के चरणों की धूलि से अपने को नहलाये बिना केवल तप, यज्ञादि वैदिक कर्म, अन्नादि के दान, अतिथि सेवा, दीन सेवा आदि गृहस्थोचित, धर्मानुष्ठान, वेदाध्ययन अथवा जल, अग्नि या सूर्य की उपासना आदि किसी भी साधन से यह परमात्मज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि महापुरुषों के समाज में सदा पवित्रकीर्ति श्रीहरि के गुणों की चर्चा होती रहती है, जिससे विषयवार्ता तो पास ही नहीं फटकने पाती और जब भगवत्कथा का नित्यप्रति सेवन किया जाता है, तब वह मोक्षाकांक्षी पुरुष की शुद्ध बुद्धि को भगवान् वासुदेव में लगा देती है।

पूर्वजन्म में मैं भरत नाम का राजा था। एहिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों से विरक्त होकर भगवान् की आराधना में ही लगा रहता था, तो भी एक मृग में आसक्ति हो जाने से मुझे परमार्थ से भ्रष्ट होकर अगले जन्म में मृग बनना पड़ा। किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना के प्रभाव से उस मृगयोनि में भी मेरी पूर्वजन्म की स्मृति लुप्त नहीं हुई। इसी से अब मैं जनसंसर्ग से डरकर सर्वदा असंग भाव से गुप्तरूप से ही विचरता रहता हूँ। सारांश यह है कि विरक्त महापुरुषों के सत्संग से प्राप्त ज्ञानरूप खड्ग के द्वारा मनुष्य को इस लोक में ही अपने मोह बन्धन को काट डालना चाहिये। फिर श्रीहरि की लीलाओं के कथन और श्रवण से भगवत्स्मृति बनी रहने के कारण वह सुगमता से ही संसारमार्ग को पार करके भगवान् को प्राप्त कर सकता है।

                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【त्रयोदश अध्याय:】१३.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

"भवाटवी का वर्णन और रहूगण का संशय नाश"
जड भरत ने कहा ;- राजन्! यह जीवसमूह सुखरूप धन में आसक्त देश-देशान्तर में घूम-फिरकर व्यापार करने वाले व्यापारियों के दल के समान है। इसे माया ने दुस्तर प्रवृत्ति मार्ग में लगा दिया है; इसलिये इसकी दृष्टि सात्त्विक, राजस, तापस भेद से नाना प्रकार के कर्मों पर ही जाती है। उन कर्मों में भटकता-भटकता यह संसाररूप जंगल में पहुँच जाता है। वहाँ इसे तनिक भी शान्ति नहीं मिलती।

महाराज! उस जंगल में छः डाकू हैं। इस वणिक्-समाज का नायक बड़ा दुष्ट है। उसके नेतृत्व में जब यह वहाँ पहुँचता है, तब ये लुटेरे बलात् इसका सब माल-मत्ता लूट लेते हैं तथा भेड़िये जिस प्रकार भेड़ों के झुंड में घुसकर उन्हें खींच ले जाते हैं, उसी प्रकार इसके साथ रहने वाले गीदड़ ही इसे असावधान देखकर इसके धन को इधर-उधर खींचने लगते हैं। वह जंगल बहुत-सी लता, घास और झाड़-झंखाड़ के कारण बहुत दुर्गम हो रहा है। उसमें तीव्र डांस और मच्छर इसे चैन नहीं लेने देते। वहाँ इसे कभी तो गन्धर्व नगर दीखने लगता है और कभी-कभी चमचमाता हुआ अति चंचल अगिया-बेताल आँखों के सामने आ जाता है। यह वणिक्-समुदाय इस वन में निवासस्थान, जल और धनादि में आसक्त होकर इधर-उधर भटकता रहता है।

कभी बवंडर से उठी हुई धूल के द्वारा जब सारी दिशाएँ धूमाच्छादित-सी हो जाती हैं और इसकी आँखों में भी धूल भर जाती है, तो इसे दिशाओं का ज्ञान भी नहीं रहता। कभी इसे दिखायी न देने वाले झींगुरों का कर्णकटु शब्द सुनायी देता है, कभी उल्लुओं की बोली से इसका चित्त व्यथित हो जाता है। कभी इसे भूख सताने लगती है तो यह निन्दनीय वृक्षों का ही सहारा टटोलने लगता है और कभी प्यास से व्याकुल होकर मृगतृष्णा की ओर दौड़ लगाता है। कभी जलहीन नदियों की ओर जाता है, कभी अन्न न मिलने पर आपस में एक-दूसरे से भोजन प्राप्ति की इच्छा करता है, कभी दावानल में घुसकर अग्नि से झुलस जाता है और कभी यक्ष लोग इसके प्राण खींचने लगते हैं तो यह खिन्न होने लगता है। कभी अपने से अधिक बलवान् लोग इसका धन छीन लेते हैं, तो यह दुःखी होकर शोक और मोह से अचेत हो जाता है और कभी गन्धर्व नगर में पहुँचकर घड़ी भर के लिये सब दुःख भूलकर ख़ुशी मनाने लगता है। कभी पर्वतों पर चढ़ना चाहता है तो काँटें और कंकंडों द्वारा पैर चलनी हो जाने से उदास हो जाता है। कुटुम्ब बहुत बढ़ जाता है और उदर पूर्ति का साधन नहीं होता तो भूख की ज्वाला से सन्तप्त होकर अपने ही बन्धु-बान्धवों पर खीझने लगता है।

कभी अजगर सर्प का ग्रास बनकर वन में फेंके हुए मुर्दे के समान पड़ा रहता है। उस समय इसे कोई सुध-बुध नहीं रहती। कभी दूसरे विषैले जन्तु इसे काटने लगते हैं तो उनके विष के प्रभाव से अंधा होकर किसी अंधे कुएँ में गिर पड़ता और घोर दुःखमय अन्धकार में बेहोश पड़ा रहता है। कभी मधु खोजने लगता है तो मक्खियाँ इसके नाक में दम कर देती हैं और इसका सारा अभिमान नष्ट हो जाता है। यदि किसी प्रकार अनेकों कठिनाइयों का सामना करके वह मिल भी गया तो बलात् दूसरे लोग उसे छीन लेते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 11-20 का हिन्दी अनुवाद)

कभी शीत, घाम, आँधी और वर्षा से अपनी रक्षा करने में असमर्थ हो जाता है। कभी आपस में थोडा-बहुत व्यापार करता है, तो धन के लोभ में दूसरों को धोखा देकर उनसे वैर ठान लेता है। कभी-कभी उस संसार वन में इसका धन नष्ट हो जाता है तो इसके पास शय्या, आसन, रहने के लिये स्थान और सैर-सपाटे के लिये सवारी आदि भी नहीं रहते। तब दूसरों से याचना करता है; माँगने पर भी दूसरे से जब उसे अभिलषित वस्तु नहीं मिलती, तब परायी वस्तुओं पर अनुचित दृष्टि रखने के कारण इसे बड़ा तिरस्कार सहना पड़ता है। इस प्रकार व्यावहारिक सम्बन्ध के कारण एक-दूसरे से द्वेषभाव बढ़ जाने पर भी वह वणिक्-समूह आपस में विवाहादि सम्बन्ध स्थापित करता है और फिर इस मार्ग में तरह-तरह के कष्ट और धन क्षय आदि संकटों को भोगते-भोगते मृतकवत् हो जाता है। साथियों में से जो-जो मरते जाते हैं, उन्हें जहाँ-का-तहाँ छोड़कर नवीन उत्पन्न हुओं को साथ लिये वह बनिजारों का समूह बराबर आगे ही बढ़ता रहता है।

वीरवर! उनमें से कोई प्राणी न तो आज तक वापस लौटा है और न किसी ने इस संकटपूर्ण मार्ग को पार करके परमानन्दमय योग की ही शरण ली है। जिन्होंने बड़े-बड़े दिक्पालों को जीत लिया है, वे धीर-वीर पुरुष भी पृथ्वी में ‘यह मेरी है’ ऐसा अभिमान करके आपस में वैर ठानकर संग्राम भूमि में जूझ जाते हैं। तो भी उन्हें भगवान् विष्णु का वह अविनाशी पद नहीं मिलता, जो वैरहीन परमहंसों को प्राप्त होता है।

इस भवाटवी में भटकने वाला यह बनिजारों का दल कभी किसी लता की डालियों का आश्रय लेता है और उस पर रहने वाले मधुरभाषी पक्षियों के मोह में फँस जाता है। कभी सिंहों के समूह से भय मानकर बगुला, कंक और गिद्धों से प्रीति करता है। जब उनसे धोखा उठाता है, तब हंसों की पंक्ति में प्रवेश करना चाहता है; किन्तु उसे उनका आचार नहीं सुहाता, इसलिये वानरों में मिलकर उनके जाति स्वभाव के अनुसार दाम्पत्य सुख में रत रहकर विषय भोगों से इन्द्रियों को तृप्त करता रहता है और एक-दूसरे का मुख देखते-देखते अपनी आयु की अवधि को भूल जाता है। वहाँ वृक्षों में क्रीड़ा करता हुआ पुत्र और स्त्री के स्नेहपाश में बँध जाता है। इसमें मैथुन की वासना इतनी बढ़ जाती है कि तरह-तरह के दुर्व्यवहारों से दीन होने पर भी यह विवश होकर अपने बन्धन को तोड़ने का साहस नहीं कर सकता। कभी असावधानी से पर्वत की गुफा में गिरने लगता है तो उसमें रहने वाले हाथी से डरकर किसी लता के सहारे लटका रहता है।

शत्रुदमन! यदि किसी प्रकार इसे उस आपत्ति से छुटकारा मिल जाता है, तो यह फिर अपने गोल में मिल जाता है। जो मनुष्य माया की प्रेरणा से एक बार इस मार्ग में पहुँच जाता है, उसे भटकते-भटकते अन्त तक अपने परम पुरुषार्थ का पता नहीं लगता।

रहूगण! तुम भी इसी मार्ग में भटक रहे हो, इसलिये अब प्रजा को दण्ड देने का कार्य छोड़कर समस्त प्राणियों के सुहृद् हो जाओ और विषयों में अनासक्त होकर भगवत्सेवा से तीक्ष्ण किया हुआ ज्ञानरूप खड्ग लेकर इस मार्ग को पार कर लो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 21-26 का हिन्दी अनुवाद)

राजा रहूगण ने कहा ;- अहो! समस्त योनियों में यह मनुष्य जन्म ही श्रेष्ठ है। अन्यान्य लोकों में प्राप्त होने वाले देवादि उत्कृष्ट जन्मों से भी क्या लाभ है, जहाँ भगवान् हृषीकेश के पवित्र यश से शुद्ध अन्तःकरण वाले आप-जैसे महात्माओं का अधिकाधिक समागम नहीं मिलता। आपके चरणकमलों की रज का सेवन करने से जिनके सारे पाप-ताप नष्ट हो गये हैं, उन महानुभावों को भगवान् विशुद्ध भक्ति प्राप्त होना कोई विचित्र बात नहीं है। मेरा तो आपके दो घड़ी के सत्संग से ही सारा कुतर्क मूलक अज्ञान नष्ट हो गया है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- उत्तरानन्दन! इस प्रकार उन परम प्रभावशाली ब्रह्मर्षि पुत्र ने अपना अपमान करने वाले सिन्धु नरेश रहूगण को भी अत्यन्त करुणावश आत्मतत्त्व का उपदेश दिया। तब राजा रहूगण ने दीनभाव से उनके चरणों की वन्दना की। फिर वे परिपूर्ण समुद्र के समान शान्तचित्त और उपरतेन्द्रिये होकर पृथ्वी पर विचरने लगे। उनके सत्संग से परमात्मतत्त्व का ज्ञान पाकर सौवीरपति रहूगण ने भी अन्तःकरण में अविद्यावश आरोपित देहात्म बुद्धि को त्याग दिया।

राजन्! जो लोग भगवदाश्रित अनन्य भक्तों की शरण ले लेते हैं, उनका ऐसा ही प्रभाव होता है-उनके पास अविद्या ठहर नहीं सकती।

राजा परीक्षित ने कहा ;- महाभागवत मुनिश्रेष्ठ! आप परम विद्वान् हैं। आपने रूपकादि के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से जीवों के जिस संसाररूप मार्ग का वर्णन किया है, उस विषय की कल्पना विवेकी पुरुषों की बुद्धि ने की है; वह अल्पबुद्धि वाले पुरुषों की समझ में सुगमता से नहीं आ सकता। अतः मेरी प्रार्थना है कि इस दुर्बोध विषय को रूपक का स्पष्टीकरण करने वाले शब्दों से खोलकर समझाइये।

                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【चतुर्दश अध्याय:】१४.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 1-6 का हिन्दी अनुवाद)

"भवाटवी का स्पष्टीकरण"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! देहाभिमानी जीवों के द्वारा सत्त्वादि गुणों के भेद से शुभ, अशुभ और मिश्र- तीन प्रकार के कर्म होते रहते हैं। उन कर्मों के द्वारा ही निर्मित नाना प्रकार के शरीरों के साथ होने वाला जो संयोग-वियोगादिरूप अनादि संसार जीव को प्राप्त होता है, उसके अनुभव के छः द्वार हैं- मन और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ। उनसे विवश होकर यह जीव समूह मार्ग भूलकर भयंकर वन में भटकते हुए धन के लोभी बनिजारों के समान परसमर्थ भगवान् विष्णु के आश्रित रहने वाली माया की प्रेरणा से बीहड़ वन के समान दुर्गम मार्ग में पड़कर संसार-वन में जा पहुँचाता है। यह वन श्मशान के समान अत्यन्त अशुभ है। इसमें भटकते हुए उसे अपने शरीर से किये हुए कर्मों का फल भोगना पड़ता है। यहाँ अनेकों विघ्नों के कारण उसे अपने व्यापार में सफलता भी नहीं मिलती; तो भी यह उसके श्रम को शान्त करने वाले श्रीहरि एवं गुरुदेव के चरणारविन्द-मकरन्द-मधु के रसिक भक्त-भ्रमरों के मार्ग का अनुसरण नहीं करता। इस संसार-वन में मन सहित छः इन्द्रियाँ ही अपने कर्मों की दृष्टि से डाकुओं के समान हैं।

पुरुष बहुत-सा कष्ट उठाकर जो धन कमाता है, उसका उपयोग धर्म में होना चाहिये; वही धर्म यदि साक्षात् भगवान् परमपुरुष की आराधना के रूप होता है तो उसे परलोक में निःश्रेयस का हेतु बतलाया गया है। किन्तु जिस मनुष्य का बुद्धिरूप सारथि विवेकहीन होता है और मन वश में नहीं होता, उसके उस धर्मोपयोगी धन को ये मन सहित छः इन्द्रियाँ देखना, स्पर्श करना, सुनना, स्वाद लेना, सूँघना, संकल्प-विकल्प करना और निश्चय करना- इन वृत्तियों के द्वारा गृहस्थोचित विषय भोगों में फँसाकर उसी प्रकार लूट लेती है, जिस प्रकार बेईमान मुखिया का अनुगमन करने वाले एवं असावधान बनिजारों के दल का धन चोर-डाकू लूट ले जाते हैं।

ये ही नहीं, उस संसार-वन में रहने वाले उसके कुटुम्बी भी- जो नाम से तो स्त्री-पुत्रादि कहे जाते हैं, किन्तु कर्म जिनके साक्षात् भेड़ियों और गीदड़ों के समान होते हैं- उस अर्थलोलुप कुटुम्बी के धन को उसकी इच्छा न रहने पर भी उसके देखते-देखते इस प्रकार छीन ले जाते हैं, जैसे भेड़िये गड़रियों से सुरक्षित भेड़ों को उठा ले जाते हैं। जिस प्रकार यदि किसी खेत के बीजों को अग्नि द्वारा जला न दिया गया हो, तो प्रतिवर्ष जोतने पर भी खेती का समय आने पर वह फिर झाड़-झंखाड़, लता और तृण आदि से गहन हो जाता है- उसी प्रकार यह गृहस्थाश्रम भी कर्मभूमि है, इसमें भी कर्मों का सर्वथा उच्छेद कभी नहीं होता, क्योंकि यह घर कामनाओं की पिटारी है। उस गृहस्थाश्रम में आसक्त हुए व्यक्ति के धनरूप बाहरी प्राणों को डांस और मच्छरों के समान नीच पुरुषों से तथा टिड्डी, पक्षी, चोर और चूहे आदि से क्षति पहुँचती रहती है। कभी इस मार्ग में भटकते-भटकते यह अविद्या, कामना और कर्मों से कलुषित हुए अपने चित्त से दृष्टिदोष के कारण इस मर्त्य-लोक को, गन्धर्व नगर के समान असत् है, सत्य समझने लगता है। फिर खान-पान और स्त्री-प्रसंगादि व्यसनों में फँसकर मृगतृष्णा के समान मिथ्या विषयों की ओर दौड़ने लगता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 7-19 का हिन्दी अनुवाद)

कभी बुद्धि के रजोगुण से प्रभावित होने पर सारे अनर्थों की जड़ अग्नि के मल रूप सोने को ही सुख का साधन समझकर उसे पाने के लिये लालायित हो इस प्रकार दौड़-धूप करने लगता है, जैसे वन में जाड़े से ठिठुरता हुआ पुरुष अग्नि के लिये व्याकुल होकर उल्मुक पिशाच की (अगिया बेताल की) ओर उसे आग समझकर दौड़े। कभी इस शरीर को जीवित रखने वाले घर, अन्न-जल और धन आदि में अभिनिवेश करके इस संसारारण्य में इधर-उधर दौड़-धूप करता रहता है। कभी बवंडर के समान आँखों में धूल झोंक देने वाली स्त्री गोद में बैठा लेती है, तो तत्काल रागान्ध-सा होकर सत्पुरुषों की मर्यादा का भी विचार नहीं करता। उस समय नेत्रों में रजोगुण की धूल भर जाने से बुद्धि ऐसी मलिन हो जाती है कि अपने कर्मों के साक्षी दिशाओं के देवताओं को भी भुला देता है। कभी अपने-आप ही एकाध बार विषयों का मिथ्यात्व जान लेने पर भी अनादिकाल से देह में आत्मबुद्धि रहने से विवेक-बुद्धि नष्ट हो जाने के कारण उन मरुमरीचिकातुल्य विषयों की ओर ही फिर दौड़ने लगता है। कभी प्रत्यक्ष शब्द करने वाले उल्लू के समान शत्रुओं की और परोक्ष रूप से बोलने वाले झींगुरों के समान राजा की अति कठोर एवं दिल को दहला देने वाली डरावनी डाँट-डपट से इसके कान और मन को बड़ी व्यथा होती है।

पूर्व पुण्य क्षीण हो जाने पर यह जीवित ही मुर्दे के समान हो जाता है; और जो कारस्कर एवं काकतुण्ड आदि जहरीले फलों वाले पाप वृक्षों, इसी प्रकार की दूषित लताओं और विषैले कुओं के समान हैं तथा जिनका धन इस लोक और परलोक दोनों के ही काम में नहीं आता और जो जीते हुए भी मुर्दे के समान हैं-उन कृपण पुरुषों का आश्रय लेता है। कभी असत् पुरुषों के संग से बुद्धि बिगड़ जाने के कारण सुखी नदी में गिरकर दुःखी होने के समान इस लोक और परलोक में दुःख देने वाले पाखण्ड में फँस जाता है। जब दूसरों को सताने से उसे अन्न भी नहीं मिलता, तब वह अपने सगे पिता-पुत्रों को अथवा पिता या पुत्र आदि का एक तिनका भी जिनके पास देखता है, उनको फाड़ खाने के लिये तैयार हो जाता है।

कभी दावानल के समान प्रिय विषयों से शून्य एवं परिणाम में दुःखमय घर में पहुँचता है, तो वहाँ इष्टजनों के वियोगादि से उसके शोक की आग भड़क उठती है; उससे सन्तप्त होकर वह बहुत ही खिन्न होने लगता है। कभी काल के समान भयंकर राजकुलरूप राक्षस इसके परम प्रिय धनरूप प्राणों को हर लेता है, तो यह मरे हुए के समान निर्जीव हो जाता है। कभी मनोरथ के पदार्थों के समान अत्यन्त असत् पिता-पितामह आदि सम्बन्धों को सत्य समझकर उनके सहवास से स्वप्न के समान क्षणिक सुख का अनुभव करता है। गृहस्थाश्रम के लिये जिस कर्मविधि का महान् विस्तार किया गया है, उसका अनुष्ठान किसी पर्वत की कड़ी चढ़ाई के समान ही है। लोगों को उस ओर प्रवृत्त देखकर उनकी देखा-देखी जब यह भी उसे पूरा करने का प्रयत्न करता है, तब तरह-तरह की कठिनाइयों से क्लेशित होकर काँटे और कंकडों से भरी भूमि में पहुँच हुए व्यक्ति के समान दुःखी हो जाता है। कभी पेट की असह्य ज्वाला से अधीर होकर अपने कुटुम्ब पर ही बिगड़ने लगता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 20-29 का हिन्दी अनुवाद)

फिर जब निद्रारूप अजगर के चंगुल में फँस जाता है, तब अज्ञानरूप घोर अन्धकार में डूबकर सूने वन में फेंके हुए मुर्दे के समान सोया पड़ा रहता है। उस समय इसे किसी बात की सुधि नहीं रहती। कभी दुर्जनरूप काटने वाले जीव इतना काटते-तिरस्कार करते हैं कि इसके गर्वरूप दाँत, जिनसे यह दूसरों को काटता था, टूट जाते हैं। तब इसे अशान्ति के करना नींद भी नहीं आती तथा मर्मवेदना के कारण क्षण-क्षण में विवेक-शक्ति क्षीण होते रहने से अन्त में अंधे की भाँति यह नरकरूप अंधे कुएँ में जा गिरता है। कभी विषय सुखरूप मधु कणों ढूँढते-ढूँढते जब यह लुक-छिपकर परस्त्री या परधन को उड़ाना चाहता है, तब उनके स्वामी या राजा के हाथ से मारा जाकर ऐसे नरक में जा गिरता है जिसका ओर-छोर नहीं है। इसी से ऐसा कहते हैं कि प्रवृत्तिमार्ग में रहकर किये हुए लौकिक और वैदिक दोनों ही प्रकार के कर्म जीव को संसार की ही प्राप्ति कराने वाले हैं।

यदि किसी प्रकार राजा आदि के बन्धन से छूट भी गया, तो अन्याय से अपहरण किये हुए उन स्त्री और धन को देवदत्त नाम का कोई दूसरा व्यक्ति छीन लेता है और उससे विष्णुमित्र नाम का कोई तीसरा व्यक्ति झटक लेता है। इस प्रकार वे भोग एक पुरुष से दूसरे पुरुष के पास जाते रहते हैं, एक स्थान पर नहीं ठहरते। कभी-कभी शीत और वायु आदि अनेकों आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दुःख की स्थितियों के निवारण करने में समर्थ न होने से यह अपार चिन्ताओं के कारण उदास हो जाता है। कभी परस्पर लेन-देन का व्यवहार करते समय किसी दूसरे का थोड़ा सा-दमड़ी भर अथवा इससे भी कम धन चुरा लेता है तो इस बईमानी के कारण उससे वैर ठन जाता है। राजन्! इस मार्ग में पूर्वोक्त विघ्नों के अतिरिक्त सुख-दुःख, राग-द्वेष भय, अभिमान, प्रमाद, उन्माद, शोक, मोह, लोभ, मात्सर्य, ईर्ष्या, अपमान, क्षुधा-पिपासा, आधि-व्याधि, जन्म, जरा और मृत्यु आदि और भी अनेकों विघ्न हैं। (इस विघ्न बहुल मार्ग में इस प्रकार भटकता हुआ यह जीव) किसी समय देवमायारूपिणी स्त्री के बाहुपाश में पड़कर विवेकहीन हो जाता है। तब उसी के लिये विहार भवन आदि बनवाने की चिन्ता में ग्रस्त रहता है तथा उसी के आश्रित रहने वाले पुत्र, पुत्री और अन्यान्य स्त्रियों के मीठे-मीठे बोल, चितवन और चेष्टाओं में आसक्त होकर, उन्हीं में चित्त फँस जाने से वह इन्द्रियों का दास अपार अन्धकारमय नरकों में गिरता है।

कालचक्र साक्षात् भगवान् विष्णु का आयुध है। वह परमाणु से लेकर द्विपरार्धपर्यन्त क्षण-घटी आदि अवयवों से युक्त है। वह निरन्तर सावधान रहकर घूमता रहता है, जल्दी-जल्दी बदलने वाली बाल्य, यौवन आदि अवस्थयाएँ ही उसका वेग हैं। उसके द्वारा वह ब्रह्मा से लेकर क्षुद्रातिक्षुद्र तृणपर्यन्त सभी भूतों का निरन्तर संहार करता रहता है। कोई भी उसकी गति में बाधा नहीं डाल सकता। उससे भय मानकर भी जिनका यह कालचक्र निज आयुध है, उन साक्षात् भगवान् यज्ञपुरुष की आराधना छोड़कर यह मन्दमति मनुष्य पाखण्डियों के चक्कर में पड़कर उनके कंक, गिद्ध, बगुला और बटेर के समान आर्यशास्त्र बहिष्कृत देवताओं का आश्रय लेता है-जिनका केवल वेदबाह्य अप्रामाणिक आगमों ने ही उल्लेख किया है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 30-40 का हिन्दी अनुवाद)

ये पाखण्डी तो स्वयं ही धोखे में हैं; जब यह भी उनकी ठगाई में आकर दुःखी होता है, तब ब्राह्मणों की शरण लेता है। किन्तु उपनयन-संस्कार के अनन्तर श्रौत-स्मार्त्त कर्मों से भगवान् यज्ञपुरुष की अराधना करना आदि जो उनका शास्त्रोक्त आचार है, वह इसे अच्छा नहीं लगता; इसलिये वेदोक्त आचार के अनुकूल अपने में शुद्धि न होने के कारण यह कर्मशून्य शूद्र कुल में प्रवेश करता है, जिसका स्वभाव वानरों के समान केवल कुटुम्ब पोषण और स्त्री सेवन करना ही है। वहाँ बिना रोक-टोक स्वच्छन्द विहार करने से इसकी बुद्धि अत्यन्त दीन हो जाती है और एक-दूसरे का मुख देखना आदि विषय-भोगों में फँसकर इसे अपने मृत्युकाल का भी स्मरण नहीं होता। वृक्षों के समान जिनका लौकिक सुख ही फल है-उन घरों में ही सुख मानकर वानरों की भाँति स्त्री-पुत्रादि में आसक्त होकर यह अपना सारा समय मैथुनादि विषय-भोगों में ही बिता देता है। इस प्रकार प्रवृत्तिमार्ग में पड़कर सुख-दुःख भोगता हुआ यह जीव रोगरूपी गिरी-गुहा में फँसकर उनमें रहने वाले मृत्युरूप हाथी से डरता रहता है।

कभी-कभी शीत, वायु आदि अनेक प्रकार के आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक दुःखों की निवृत्ति करने में जब असफल हो जाता है, तब उस समय अपार विषयों की चिन्ता से यह खिन्न हो उठता है। कभी आपस में क्रय-विक्रय आदि व्यापार करने पर बहुत कंजूसी करने से इसे थोड़ा-सा धन हाथ लग जाता है। कभी धन नष्ट हो जाने से जब इसके पास सोने, बैठने और खाने आदि की भी कोई सामग्री नहीं रहती, तब अपने अभीष्ट भोग न मिलने से यह उन्हें चोरी आदि बुरे उपायों से पाने का निश्चय करता है। इससे इसे जहाँ-तहाँ दूसरों के हाथ से बहुत अपमानित होना पड़ता है। इस प्रकार धन की आसक्ति से परस्पर वैरभाव बढ़ जाने पर भी यह अपनी पूर्व वासनाओं से विवश होकर आपस में विवाहादि सम्बन्ध करता और छोड़ता रहता है।

इस संसारमार्ग में चलने वाला यह जीव अनेक प्रकार के क्लेश और विघ्न-बाधाओं से बाधित होने पर भी मार्ग में जिस पर जहाँ आपत्ति आती है अथवा जो कोई मर जाता है; उसे जहाँ-का-तहाँ छोड़ देता है; तथा नये जन्मे हुओं को साथ लगाता है, कभी किसी के लिये शोक करता है, किसी का दुःख देखकर मुर्च्छित हो जाता है, किसी के वियोग होने की आशंका से भयभीत हो उठता है, किसी से झगड़ने लगता है, कोई आपत्ति आती है तो रोने-चिल्लाने लगता है, कहीं मन के अनुकूल बात हो गयी तो प्रसन्नता के मारे फूला नहीं समाता, कभी गाने लगता है और कभी उन्हीं के लिये बँधने में भी नहीं हिचकता। साधुजन इसके पास कभी नहीं आते, यह साधु संग से सदा वंचित रहता है। इस प्रकार यह निरन्तर आगे ही बढ़ रहा है। जहाँ से इसकी यात्रा आरम्भ हुई है और जिसे इस मार्ग की अन्तिम अवधि कहते हैं, उस परमात्मा के पास यह अभी तक नहीं लौटा है। परमात्मा तक तो योगशास्त्र की भी गति नहीं है; जिन्होंने सब प्रकार के दण्ड (शासन) का त्याग कर दिया है, वे निवृत्तिपरायण संयतात्मा मुनिजन ही उसे प्राप्त कर पाते हैं। जो दिग्गजों को जीतने वाले और बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले राजर्षि हैं, उनकी भी वहाँ तक गति नहीं है। वे संग्रामभूमि में शत्रुओं का सामना करके केवल प्राण परित्याग ही करते हैं तथा जिसमें ‘यह मेरी है’, ऐसा अभिमान करके वैर ठाना था-उस पृथ्वी में ही अपना शरीर छोड़कर स्वयं परलोक को चले जाते हैं। इस संसार से वे भी पार नहीं होते।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 41-46 का हिन्दी अनुवाद)

अपने पुण्य कर्मरूप लता का आश्रय लेकर यदि किसी प्रकार यह जीव इन आपत्तियों से अथवा नरक से छुटकारा पा भी जाता है, तो फिर इसी प्रकार संसारमार्ग में भटकता हुआ इस जनसमुदाय में मिल जाता है। यही दशा स्वर्गादि ऊर्ध्वलोकों में जाने वालों की भी है।

राजन्! राजर्षि भरत के विषय में पण्डितजन ऐसा कहते हैं- ‘जैसे गरुड़ जी की होड़ कोई मक्खी नहीं कर सकती, उसी प्रकार राजर्षि महात्मा भरत के मार्ग का कोई अन्य राजा मन से भी अनुसरण नहीं कर सकता। उन्होंने पुण्यकीर्ति श्रीहरि में अनुरक्त होकर अति मनोहर स्त्री, पुत्र, मित्र और राज्यादि को युवावस्था में ही विष्ठा के सामन त्याग दिया था; दूसरों के लिये तो इन्हें त्यागना बहुत ही कठिन है।

उन्होंने अति दुस्त्यज पृथ्वी, पुत्र, स्वजन, सम्पत्ति और स्त्री की तथा जिसके लिये बड़े-बड़े देवता भी लालायित रहते हैं, किन्तु जो स्वयं उनकी दयादृष्टि के लिये उन पर दृष्टिपात करती रहती थी-उस लक्ष्मी की भी, लेशमात्र इच्छा नहीं की। यह सब उनके लिये उचित ही था; क्योंकि जिन महानुभावों का चित्त भगवान् मधुसूदन की सेवा में अनुरक्त हो गया है, उनकी दृष्टि में मोक्षपद भी अत्यन्त तुच्छ है। उन्होंने मृग शरीर छोड़ने की इच्छा होने पर उच्चस्वर से कहा था कि धर्म की रक्षा करने वाले, धर्मानुष्ठान में निपुण, योगगम्य, सांख्य के प्रतिपाद्य, प्रकृति के अधीश्वर यज्ञमूर्ति सर्वान्तर्यामी श्रीहरि को नमस्कार है’।

राजन्! राजर्षि भरत के पवित्र गुण और कर्मों की भक्तजन भी प्रशंसा करते हैं। उनका यह चरित्र बड़ा कल्याणकारी, आयु और धन की वृद्धि करने वाला, लोक में सुयश बढ़ाने वाला और अन्त में स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला है। जो पुरुष इसे सुनता या सुनाता है और इसका अभिनन्दन करता है, उनकी सारी कामनाएँ स्वयं ही पूर्ण हो जाती हैं; दूसरों से उसे कुछ भी नहीं माँगना पड़ता।

                           {पञ्चम स्कन्ध:}

                      【पञ्चदशं  अध्याय:】१५.

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: पञ्चदशं अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

"भरत के वंश का वर्णन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! भरत जी का पुत्र सुमति था, यह पहले कहा जा चुका है। उसने ऋषभदेव जी के मार्ग का अनुसरण किया। इसीलिये कलियुग में बहुत-से पाखण्डी अनार्य पुरुष अपनी दुष्ट बुद्धि से वेदविरुद्ध कल्पना करके उसे देवता मानेंगे। उसकी पत्नी वृद्धसेना से देवताजित् नामक पुत्र हुआ। देवताजित् के असुरी के गर्भ से देवद्युम्न, देवद्युम्न के धेनुमती से परमेष्ठी और उसके सुवर्चला के गर्भ से प्रतीह नाम का पुत्र हुआ। इसने अन्य पुरुषों को आत्मविद्या का उपदेश कर स्वयं शुद्धचित्त होकर परमपुरुष श्रीनारायण का साक्षात् अनुभव किया था।

प्रतीह की भार्या सुवर्चला के गर्भ से प्रतिहर्ता, प्रस्तोता और उद्गाता नाम के तीन पुत्र हुए। ये यज्ञादि कर्मों में बहुत निपुण थे। इनमें प्रतिहर्ता की भार्या स्तुति थी। उसके गर्भ से अज और भूमा नाम के दो पुत्र हुए। भूमा के ऋषिकुल्या से उद्गीथ, उसके देवकुल्या से प्रस्ताव और प्रस्ताव के नियुत्सा के गर्भ से विभु नाम का पुत्र हुआ। विभु के रति के उदर से पृथुषेण, पृथुषेण के आकूति से नक्त और नक्त के द्रुति के गर्भ से उदारकीर्ति राजर्षिप्रवर गय का जन्म हुआ। ये जगत् की रक्षा के लिये सत्त्वगुण को स्वीकार करने वाले साक्षात् भगवान् विष्णु के अंश माने जाते थे। संयमादि अनेकों गुणों के कारण इनकी महापुरुषों में गणना की जाती है।

महाराज गय ने प्रजा के पालन, पोषण, रंजन, लाड़-चाव और शासनादि करके तथा तरह-तरह के यज्ञों का अनुष्ठान करके निष्काम भाव से केवल भगवत्प्रीति के लिये अपने धर्मों का आचरण किया। इससे उनके सभी कर्म सर्वश्रेष्ठ परमपुरुष परमात्मा श्रीहरि के अर्पित होकर परमार्थरूप बन गये थे। इससे तथा ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों के चरणों की सेवा से उन्हें भक्तियोग की प्राप्ति हुई। तब निरन्तर भगवच्चिन्तन करके उन्होंने अपना चित्त शुद्ध किया और देहादि अनात्म वस्तुओं से अहं भाव हटाकर वे अपने आत्मा को ब्रह्मरूप अनुभव करने लगे। यह सब होने पर भी वे निरभिमान होकर पृथ्वी का पालन करते रहे।

परीक्षित! प्राचीन इतिहास को जानने वाले महात्माओं ने राजर्षि गय के विषय में यह गाथा कही है। ‘अहो! अपने कर्मों से महाराज गय की बराबरी और कौन राजा कर सकता है? वे साक्षात् भगवान् की कला ही थे। उन्हें छोड़कर और कौन इस प्रकार यज्ञों का विधिवत् अनुष्ठान करने वाला, मनस्वी, बहुज्ञ, धर्म की रक्षा करने वाला, लक्ष्मी का प्रिय पात्र, साधु समाज का शिरोमणि और सत्पुरुषों का सच्चा सेवक हो सकता है?’

सत्यसंकल्प वाली परमसाध्वी श्रद्धा, मैत्री और दया आदि दक्ष कन्याओं ने गंगा आदि नदियों के सहित बड़ी प्रसन्नता से उनका अभिषेक किया था तथा उनकी इच्छा न होने पर भी वसुन्धरा ने, गौ जिस प्रकार बछड़े के स्नेह के पिन्हाकर दूध देती है, उसी प्रकार उनके गुणों पर रीझकर प्रजा को धन-रत्नादि सभी अभीष्ट पदार्थ दिये थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: पञ्चदशं अध्यायः श्लोक 11-16 का हिन्दी अनुवाद)

उन्हें कोई कामना न थी, तब भी वेदोक्त कर्मों ने उनको सब प्रकार के भोग दिये, राजाओं ने युद्ध स्थल में उनके बाणों से सत्कृत होकर नाना प्रकार की भेंटें दीं तथा ब्राह्मणों ने दक्षिणादि धर्म से सन्तुष्ट होकर उन्हें परलोक में मिलने वाले अपने धर्मफल का छठा अंश दिया। उनके यज्ञ में बहुत अधिक सोमपान करने से इन्द्र उन्मत्त हो गये थे, तथा उनके अत्यन्त श्रद्धा तथा विशुद्ध और निश्चल भक्तिभाव से समर्पित किये हुए यज्ञफल को भगवान् यज्ञपुरुष से साक्षात् प्रकट होकर ग्रहण किया था। जिनके तृप्त होने से ब्रह्मा जी से लेकर देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी, वृक्ष एवं तृणपर्यन्त सभी जीव तत्काल तृप्त हो जाते हैं-वे विश्वात्मा श्रीहरि नित्य तृप्त होकर भी राजर्षि गय के यज्ञ के तृप्त हो गये थे। इसलिये उनकी बराबरी कोई दूसरा व्यक्ति कैसे कर सकता है?

महाराज गय के गयन्ती के गर्भ से चित्ररथ, सुगति और अवरोधन नामक तीन पुत्र हुए। उनमें चित्ररथ की पत्नी ऊर्णा से सम्राट् का जन्म हुआ। सम्राट् के उत्कला से मरीचि और मरीचि के बिन्दुमती से बिन्दुमान् नामक पुत्र हुआ। उसके सरघा से मधु, मधु के सुमना से वीरव्रत और वीरव्रत के भोजा से मन्थु और प्रमन्थु नाम के दो पुत्र हुए। उनमें से मन्थु के सत्या के गर्भ से भौवन, भौवन के दूषणा के उदर से त्वष्टा, त्वष्टा के विरोचना से विरज और विरज के विषूची नाम की भार्या से शतचित् आदि सौ पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ। विरज के विषय में यह श्लोक प्रसिद्ध है- ‘जिस प्रकार भगवान् विष्णु देवताओं की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार इस प्रियव्रत वंश को इसमें सबसे पीछे उत्पन्न हुए राजा विरज ने अपने सुयश से विभूषित किया था’।

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