सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( षष्ठ स्कन्धः ) का सोलहवाँ , सत्रहवाँ, अठारहवाँ व उन्नीसवाँ व अध्याय [ The Sixteenth, seventeenth, eighteenth and Nineteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Sixth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( षष्ठ स्कन्धः ) का सोलहवाँ , सत्रहवाँ, अठारहवाँ व उन्नीसवाँ अध्याय [ The Sixteenth, seventeenth, eighteenth and Nineteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Sixth wing) ]


                           {षष्ठ स्कन्ध:}

                      【षोडश अध्याय:】१६.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"चित्रकेतु का वैराग्य तथा संकर्षणदेव के दर्शन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! तदनन्तर देवर्षि नारद ने मृत राजकुमार के जीवात्मा को शोकाकुल स्वजनों के सामने प्रत्यक्ष बुलाकर कहा।

देवर्षि नारद ने कहा ;- जीवात्मन्! तुम्हारा कल्याण हो। देखो, तुम्हारे माता-पिता, सुहृद्-सम्बन्धी तुम्हारे वियोग से अत्यन्त शोकाकुल हो रहे हैं। इसलिये तुम अपने शरीर में आ जाओ और शेष आयु अपने सगे-सम्बन्धियों के साथ ही रहकर व्यतीत करो। अपने पिता के दिये हुए भोगों को भोगो और राजसिंहासन पर बैठो।

जीवात्मा ने कहा ;- देवर्षि जी! मैं अपने कर्मों के अनुसार देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि योनियों में न जाने कितने जन्मों से भटक रहा हूँ। उनमें से ये लोग किस जन्म में मेरे माता-पिता हुए? विभिन्न जन्मों में सभी एक-दूसरे के भाई-बन्धु, नाती-गोती, शत्रु-मित्र, मध्यस्थ, उदासीन और द्वेषी होते रहते हैं। जैसे सुवर्ण आदि क्रय-विक्रय की वस्तुएँ एक व्यापारी से दूसरे के पास जाती-आती रहती हैं, वैसे ही जीव भी भिन्न-भिन्न योनियों में उत्पन्न होता रहता है। इस प्रकार विचार करने से पता लगता है कि मनुष्यों की अपेक्षा अधिक दिन ठहरने वाले सुवर्ण आदि पदार्थों का सम्बन्ध भी मनुष्यों के साथ स्थायी नहीं, क्षणिक ही होता है; और जब तक जिसका जिस वस्तु से सम्बन्ध रहता है, तभी तक उसकी उस वस्तु से ममता भी रहती है। जीव नित्य और अहंकार रहित है। वह गर्भ आकर जब तक जिस शरीर में रहता है, तभी तक उस शरीर को अपना समझता है। यह जीव नित्य अविनाशी, सूक्ष्म (जन्मादिरहित), सबका आश्रय और स्वयंप्रकाश है। इसमें स्वरूपतः जन्म-मृत्यु आदि कुछ भी नहीं हैं। फिर भी यह ईश्वररूप होने के कारण अपनी माया के गुणों से ही अपने-आपको विश्व के रूप में प्रकट कर देता है। इसका न तो कोई अत्यन्त प्रिय है और न अप्रिय, न अपना और न पराया। क्योंकि गुण-दोष (हित-अहित) करने वाले मित्र-शत्रु आदि की भिन्न-भिन्न बुद्धि-वृत्तियों का यह अकेला ही साक्षी हैं; वास्तव में यह अद्वितीय है। यह आत्मा कार्य-कारण का साक्षी और स्वतन्त्र है। इसलिये यह शरीर आदि के गुण-दोष अथवा कर्म फल को ग्रहण नहीं करता, सदा उदासीन भाव से स्थित रहता है।



श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- वह जीवात्मा इस प्रकार कहकर चला गया। उसके सगे-सम्बन्धी उसकी बात सुनकर अत्यन्त विस्मित हुए। उनका स्नेह-बन्धन कट गया और उसके मरने का शोक भी जाता रहा। इसके बाद जाति वालों ने बालक की मृत देह को ले जाकर तत्कालोचित संस्कार और्ध्वदैहिक क्रियाएँ पूर्ण कीं और उस दुस्त्यज स्नेह को छोड़ दिया, जिसके कारण शोक, मोह, भय और दुःख की प्राप्ति होती है।

परीक्षित! जिन रानियों ने बच्चे को विष दिया था, वे बालहत्या के कारण श्रीहीन हो गयी थीं और लज्जा के मारे आँख तक नहीं उठा सकती थीं। उन्होंने अंगिरा ऋषि के उपदेश को याद करके (मात्सर्यहीन हो) यमुना जी के तट पर ब्राह्मणों के आदेशानुसार बालहत्या का प्रायश्चित किया। परीक्षित! इस प्रकार अंगिरा और नारद जी के उपदेश के विवेकबुद्धि जाग्रत् हो जाने के कारण राजा चित्रकेतु घर-गृहस्थी के अँधेरे कुएँ से उसी प्रकार बाहर निकल पड़े, जैसे कोई हाथी तालाब के कीचड़ से निकल आये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 16-29 का हिन्दी अनुवाद)

उन्होंने यमुना जी में विधिपूर्वक स्नान करके तर्पण आदि धार्मिक क्रियाएँ कीं। तदनन्तर संयतेन्द्रिय और मौन होकर उन्होंने देवर्षि नारद और महर्षि अंगिरा के चरणों की वन्दना की। भगवान् नारद ने देखा कि चित्रकेतु जितेन्द्रिय, भगवद्भक्त और शरणागत हैं। अतः उन्होंने बहुत प्रसन्न होकर उन्हें इस विद्या का उपदेश किया।

(देवर्षि नारद ने यों उपदेश किया-) ‘ॐकार स्वरूप भगवन्! आप वासुदेव, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और संकर्षण के रूप में क्रमशः चित्त, बुद्धि, मन और अहंकार के अधिष्ठाता हैं। मैं आपके इस चतुर्व्यूहरूप का बार-बार नमस्कारपूर्वक ध्यान करता हूँ। आप विशुद्ध विज्ञानस्वरूप हैं। आपकी मूर्ति परमानन्दमयी है। आप अपने स्वरूपभूत आनन्द में ही मग्न और परमशान्त हैं। द्वैतदृष्टि आपको छू तक नहीं सकती। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। अपने स्वरूपभूत आनन्द की अनुभूति से ही मायाजनित राग-द्वेष आदि दोषों का तिरस्कार कर रखा है। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप सबकी समस्त इन्द्रियों के प्रेरक, परम महान् और विराट्स्वरूप हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। मन सहित वाणी आप तक न पहुँचकर बीच से ही लौट आती है। उसके उपरत हो जाने पर जो अद्वितीय, नामरूप रहित, चेतनमात्र और कार्य-कारण से परे की वस्तु रह जाती है-वह हमारी रक्षा करे।

यह कार्य-कारणरूप जगत् जिनसे उत्पन्न होता है, जिनमें स्थित है और जिनमें लीन होता है तथा जो मिट्टी की वस्तुओं में व्याप्त मृत्तिका के समान सबमें ओत-प्रोत हैं-उन परब्रह्मस्वरूप आपको मैं नमस्कार करता हूँ। यद्यपि आप आकाश के समान बाहर-भीतर एकरस व्याप्त हैं, तथापि आपको मन, बुद्धि और ज्ञानेन्द्रियाँ अपनी ज्ञानशक्ति से नहीं जान सकतीं और प्राण तथा कर्मेन्द्रियाँ अपनी क्रियारूप शक्ति से स्पर्श भी नहीं कर सकतीं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। शरीर, इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि जाग्रत् तथा स्वप्न अवस्थाओं में आपके चैतन्यांश से युक्त होकर ही अपना-अपना काम करते हैं तथा सुषुप्ति और मूर्च्छा की अवस्थाओं में आपके चैतन्यांश से युक्त न होने के कारण अपना-अपना काम करने में असमर्थ हो जाते हैं-ठीक वैसे ही जैसे लोहा अग्नि से तप्त होने पर जला सकता है, अन्यथा नहीं। जिसे ‘द्रष्टा’ कहते हैं, वह भी आपका ही एक नाम है; जाग्रत् आदि अवस्थाओं में आप उसे स्वीकार कर लेते हैं। वास्तव में आपसे पृथक् उनका कोई अस्तित्व नहीं है। ॐकारस्वरूप महाप्रभावशाली महाविभूतिपति भगवान् महापुरुष को नमस्कार है। श्रेष्ठ भक्तों का समुदाय अपने करकमलों की कलियों से आपके युगल चरणकमलों की सेवा में संलग्न रहता है। प्रभो! आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ’।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! देवर्षि नारद अपने शरणागत भक्त चित्रकेतु को इस विद्या का उपदेश करके महर्षि अंगिरा के साथ ब्रह्मलोक को चले गये। राजा चित्रकेतु ने देवर्षि नारद के द्वारा उपदिष्ट विद्या का उनके आज्ञानुसार सात दिन तक केवल जल पीकर बड़ी एकाग्रता के साथ अनुष्ठान किया। तदनन्तर उस विद्या के अनुष्ठान से सात रात के पश्चात् राजा चित्रकेतु को विद्याधरों का अखण्ड आधिपत्य प्राप्त हुआ। इसके बाद कुछ ही दिनों में इस विद्या के प्रभाव से उनका मन और भी शुद्ध हो गया। अब वे देवाधिदेव भगवान् शेषजी के चरणों के समीप पहुँच गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 30-40 का हिन्दी अनुवाद)

उन्होंने देखा कि भगवान् शेषजी सिद्धेश्वरों के मण्डल में विराजमान हैं। उनका शरीर कमलनाल के समान गौरवर्ण है। उस पर नीले रंग का वस्त्र फहरा रहा है। सिर पर किरीट, बाँहों में बाजूबंद, कमर में करधनी और कलाई में कंगन आदि आभूषण चमक रहे हैं। नेत्र रतनारे हैं और मुख पर प्रसन्नता छा रही है।

भगवान् शेष का दर्शन करते ही राजर्षि चित्रकेतु के सारे पाप नष्ट हो गये। उनका अन्तःकरण स्वच्छ और निर्मल हो गया। हृदय में भक्तिभाव की बाढ़ आ गयी। नेत्रों में प्रेम के आँसू छलक आये। शरीर का एक-एक रोम खिल उठा। उन्होंने ऐसी ही स्थिति में आदिपुरुष भगवान् शेष को नमस्कार किया। उनके नेत्रों से प्रेम के आँसू टप-टप गिरते जा रहे थे। इससे भगवान् शेष के चरण रखने की चौकी भीग गयी। प्रेमोद्रेक के कारण उनके मुँह से एक अक्षर भी न निकल सका। वे बहुत देर तक शेष भगवान् की कुछ भी स्तुति न कर सके। थोड़ी देर बाद उन्हें बोलने की कुछ-कुछ शक्ति प्राप्त हुई। उन्होंने विवेक बुद्धि से मन को समाहित किया और सम्पूर्ण इन्द्रियों की बाह्यवृत्ति को रोका। फिर उन जगद्गुरु की, जिनके स्वरूप का पांचरात्र आदि भक्तिशास्त्रों में वर्णन किया गया है, इस प्रकार स्तुति की।

चित्रकेतु ने कहा ;- अजित! जितेन्द्रिय एवं समदर्शी साधुओं ने आपको जीत लिया है। आपने भी अपने सौन्दर्य, माधुर्य, कारुण्य आदि गुणों से उनको अपने वश में कर लिया है। अहो, आप धन्य हैं! क्योंकि जो निष्कामभाव से आपका भजन करते हैं, उन्हें आप करुणापरवश होकर अपने-आपको भी दे डालते हैं। भगवन्! जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय आपके लीला-विलास हैं। विश्वनिर्माता ब्रह्मा आदि आपके अंश के भी अंश हैं। फिर भी वे पृथक्-पृथक् अपने को जगत्कर्ता मानकर झूठमूठ एक-दूसरे से स्पर्धा करते हैं। नन्हे-से नन्हे परमाणु से लेकर बड़े-से-बड़े महत्तत्त्वपर्यन्त सम्पूर्ण वस्तुओं के आदि, अन्त, मध्य में आप ही विराजमान हैं तथा स्वयं आप आदि, अन्त और मध्य से रहित हैं। क्योंकि किसी भी पदार्थ के आदि और अन्त में जो वस्तु रहती है, वही मध्य में भी रहती है। यह ब्रह्माणकोष, जो पृथ्वी आदि एक-से-एक दस गुने सात आवरणों से घिरा हुआ है, अपने ही समान दूसरे करोड़ों ब्राह्मणों के सहित आपमें एक परमाणु के समान घूमता रहता है और फिर भी उसे आपकी सीमा का पता नहीं हैं। इसिलये आप अनन्त हैं। जो नरपशु केवल विषय भोग ही चाहते हैं, वे आपका भजन न करके आपके विभूतिस्वरूप इन्द्रादि देवताओं की उपासना करते हैं।



प्रभो! जैसे राजकुल का नाश होने के पश्चात् उसके अनुयायियों की जीविका भी जाती रहती है, वैसे ही क्षुद्र उपास्यदेवों का नाश होने पर उनके दिये हुए भोग भी नष्ट हो जाते हैं।

परमात्मन्! आप ज्ञानस्वरूप और निर्गुण हैं। इसलिये आपके प्रति की हुई सकाम भावना भी अन्यान्य कर्मों के समान जन्म-मृत्युरूप फल देने वाली नहीं होती, जैसे भुने हुए बीजों से अंकुर नहीं उगते। क्योंकि जीव को जो सुख-दुःख आदि द्वन्द प्राप्त होते हैं, वे सत्त्वादि गुणों से ही होते हैं, निर्गुण से नहीं। हे अजित! जिस समय आपने विशुद्ध भागवत धर्म का उपदेश किया था, उसी समय आपने सबको जीत लिया। क्योंकि अपने पास कुछ भी संग्रह-परिग्रह न रखने वाले, किसी भी वस्तु में अहंता-ममता न करने वाले आत्माराम सनकादि परमर्षि भी परमसाम्य और मोक्ष प्राप्त करने के लिये उसी भागवत धर्म का आश्रय लेते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 41-65 का हिन्दी अनुवाद)

वह भागवत धर्म इतना शुद्ध है कि उसमें सकाम धर्मों के समान मनुष्यों की वह विषम बुद्धि नहीं होती कि ‘यह मैं हूँ, यह मेरा है, यह तू है और यह तेरा है।’ इसके विपरीत जिस धर्म के मूल में ही विषमता का बीज बो दिया जाता है, वह तो अशुद्ध, नाशवान् और अधर्म बहुल होता है। सकाम धर्म अपना और दूसरे का भी अहित करने वाला है। उससे अपना या पराया-किसी का कोई प्रयोजन और हित सिद्ध नहीं होता। प्रत्युत सकाम धर्म से जब अनुष्ठान करने वाले का चित्त दु:खता है, तब आप रुष्ट होते हैं और जब दूसरे का चित्त दु:खता है, तब वह धर्म नहीं रहता-अधर्म हो जाता है।

भगवन्! आपने जिस दृष्टि से भागवत धर्म का निरूपण किया है, वह कभी परमार्थ से विचलित नहीं होती। इसलिये जो संत पुरुष चर-अचर समस्त प्राणियों में समदृष्टि रखते हैं, वे ही उसका सेवन करते हैं। भगवन्! आपके दर्शन मात्र से ही मनुष्यों के सारे पाप क्षीण हो जाते हैं, यह कोई असम्भव बात नहीं है; क्योंकि आपका नाम एक बार सुनने से ही नीच चाण्डाल भी संसार से मुक्त हो जाता है। भगवन्! इस समय आपके दर्शनमात्र से ही मेरे अन्तःकरण का सारा मल धुल गया है, सो ठीक ही है। क्योंकि आपके अनन्य प्रेमी भक्त देवर्षि नारद जी ने जो कुछ कहा है, वह मिथ्या कैसे हो सकता है।

हे अनन्त! आप सम्पूर्ण जगत् के आत्मा हैं। अतएव संसार के प्राणी जो कुछ करते हैं, वह सब आप जानते ही रहते हैं। इसलिये जैसे जुगनू सूर्य को प्रकाशित नहीं कर सकता, वैसे ही परम गुरु आपसे मैं क्या निवेदन करूँ। भगवन! आपकी ही अध्यक्षता में सारे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं। कुयोगीजन भेददृष्टि के कारण आपका वास्तविक स्वरूप नहीं जान पाते। आपका स्वरूप वास्तव में अत्यन्त शुद्ध है। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आपकी चेष्टा से शक्ति प्राप्त करके ही ब्रह्मा आदि लोकपालगण चेष्टा करने में समर्थ होते हैं। आपकी दृष्टि से जीवित होकर ही ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों का ग्रहण करने में समर्थ होती हैं। यह भूमण्डल आपके सिर पर सरसों के दाने के समान जान पड़ता है। आप सहस्रशीर्षा भगवान् को बार-बार नमस्कार करता हूँ।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब विद्याधरों के अधिपति चित्रकेतु ने अनन्त भगवान् की इस प्रकार स्तुति की, तब उन्होंने प्रसन्न होकर उनसे कहा।

श्रीभगवान ने कहा ;- चित्रकेतो! देवर्षि नारद और महर्षि अंगिरा ने तुम्हें मेरे सम्बन्ध में जिस विद्या का उपदेश दिया है, उससे और मेरे दर्शन से तुम भलीभाँति सिद्ध हो चुके हो। मैं ही समस्त प्राणियों के रूप में हूँ, मैं ही उनका आत्मा हूँ और मैं ही पालनकर्ता भी हूँ। शब्दब्रह्म (वेद) और परब्रह्म दोनों ही मेरे सनातन रूप हैं। आत्मा कार्य-कारणात्मक जगत् में व्याप्त है और कार्य-कारणात्मक जगत आत्मा में स्थित है तथा इन दोनों में मैं अधिष्ठान रूप से व्याप्त हूँ और मुझमें ये दोनों कल्पित हैं। जैसे स्वप्न में सोया हुआ पुरुष स्वप्नान्तर होने पर समपूर्ण जगत् को अपने में ही देखता है और स्वप्नान्तर टूट जाने पर स्वप्न में ही जागता है तथा अपने को संसार के एक कोने में स्थित देखता है, परन्तु वास्तव में वह भी स्वप्न ही है, वैसे ही जीव की जाग्रत आदि अवस्थाएँ परमेश्वर की ही माया हैं-यों जानकर सबके साक्षी मायातीत परमात्मा का ही स्मरण करना चाहिये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 55-65 का हिन्दी अनुवाद)

सोया हुआ पुरुष जिसकी सहायता से अपनी निद्रा और उसके अतीन्द्रिय सुख का अनुभव करता है, वह ब्रह्म मैं ही हूँ; उसे तुम अपनी आत्मा समझो। पुरुष निद्रा और जागृति-इन दोनों अवस्थाओं का अनुभव करने वाला है। वह उन अवस्थाओं में अनुगत होने पर भी वास्तव में उनसे पृथक् है। वह सब अवस्थाओं में रहने वाला अखण्ड एक रस ज्ञान ही ब्रह्म है, वही परब्रह्म है। जब जीव मेरे स्वरूप को भूल जाता है, तब वह अपने को अलग मान बैठता है; इसी से उसे संसार के चक्कर में पड़ना पड़ता है और जन्म-पर-जन्म तथा मृत्यु-पर-मृत्यु प्राप्त होती है। यह मनुष्य योनि ज्ञान और विज्ञान का मूल स्त्रोत है। जो इसे पाकर भी अपने आत्मस्वरूप परमात्मा को नहीं जान लेता, उसे कहीं किसी भी योनि में शान्ति नहीं मिल सकती।

राजन्! सांसारिक सुख के लिये जो चेष्टाएँ की जाती हैं, उसमें श्रम है, क्लेश है और जिस परमसुख के उद्देश्य से वे की जाती हैं, उसके ठीक विपरीत परमदुःख देती हैं; किन्तु कर्मों से निवृत्त हो जाने में किसी प्रकार का भय नहीं है-यह सोचकर बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि किसी प्रकार के कर्म अथवा उनके फलों का संकल्प न करे। जगत् के सभी स्त्री-पुरुष इसलिये कर्म करते हैं कि उन्हें सुख मिले और उनका दुःखों से पिण्ड छूटे; परन्तु उन कर्मों से न तो दुःख दूर होता है और न उन्हें सुख की ही प्राप्ति होती है।

जो मनुष्य अपने को बहुत बड़ा बुद्धिमान् मानकर कर्म के पचड़ों में पड़े हुए हैं, उनको विपरीत फल मिलता है-यह बात समझ लेनी चाहिये; साथ ही यह भी जान लेना चाहिये कि आत्मा का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है, जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थाओं तथा इनके अभिमानियों से विलक्षण है। यह जानकर इस लोक में देखे और परलोक के सुने हुए विषय-भोगों से विवेक बुद्धि के द्वारा अपना पिण्ड छुड़ा ले और ज्ञान तथा विज्ञान में ही सन्तुष्ट रहकर मेरा भक्त हो जाये। जो लोग योग मार्ग का तत्त्व समझने में निपुण हैं, उनको भलीभाँति समझ लेना चाहिये कि जीव का सबसे बड़ा स्वार्थ और परमार्थ केवल इतना ही है कि वह ब्रह्म और आत्मा की एकता का अनुभव कर ले।



राजन्! यदि तुम मेरे इस उपदेश को सावधान होकर श्रद्धाभाव से धारण करोगे तो ज्ञान एवं विज्ञान से सम्पन्न होकर शीघ्र ही सिद्ध हो जाओगे।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! जगद्गुरु विश्वात्मा भगवान् श्रीहरि चित्रकेतु को इस प्रकार समझा-बुझाकर उनके सामने ही वहाँ से अन्तर्धान हो गये।

                           {षष्ठ स्कन्ध:}

                      【सप्तदश अध्याय:】१७.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"चित्रकेतु को पार्वती जी का शाप"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! विद्याधर चित्रकेतु, जिस दिशा में भगवान् संकर्षण अन्तर्धान हुए थे, उसे नमस्कार करके आकाश मार्ग से स्वच्छन्द विचरने लगे। महायोगी चित्रकेतु करोड़ों वर्षों तक सब प्रकार के संकल्पों को पूर्ण करने वाली सुमेरु पर्वत की घाटियों में विहार करते रहे। उनके शरीर का बल और इन्द्रियों की शक्ति अक्षुण्ण रही। बड़े-बड़े मुनि, सिद्ध, चारण उनकी स्तुति करते रहते। उनकी प्रेरणा से विद्याधरों की स्त्रियाँ उनके पास सर्वशक्तिमान् भगवान् के गुण और लीलाओं का गान करती रहतीं।

एक दिन चित्रकेतु भगवान् के दिये हुए तेजोमय विमान पर सवार होकर कहीं जा रहे थे। इसी समय उन्होंने देखा कि भगवान् शंकर बड़े-बड़े मुनियों की सभा में सिद्ध-चारणों के बीच बैठे हुए हैं और साथ ही भगवती पार्वती को अपनी गोद में बैठाकर एक हाथ से उन्हें आलिंगन किये हुए हैं, यह देखकर चित्रकेतु विमान पर चढ़े हुए ही उनके पास चले गये और भगवती पार्वती को सुना-सुनाकर जोर से हँसने और कहने लगे।

चित्रकेतु ने कहा ;- अहो! ये सारे जगत् के धर्म शिक्षक और गुरुदेव हैं। ये समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ हैं। इनकी यह दशा है कि भरी सभा में अपनी पत्नी को शरीर से चिपकाकर बैठे हुए हैं। जटाधारी, बहुत बड़े तपस्वी एवं ब्रह्मवादियों के सभापति होकर भी साधारण पुरुष के समान निर्लज्जता से गोद में स्त्री लेकर बैठे हैं। प्रायः साधारण पुरुष भी एकान्त में ही स्त्रियों के साथ उठते-बैठते हैं, परन्तु ये इतने बड़े व्रतधारी होकर भी उसे भरी सभा में लिये बैठे हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान् शंकर की बुद्धि अगाध है। चित्रकेतु का यह कटाक्ष सुनकर वे हँसने लगे, कुछ भी बोले नहीं। उस सभा में बैठे हुए उनके अनुयायी सदस्य भी चुप रहे। चित्रकेतु को भगवान् शंकर का प्रभाव नहीं मालूम था। इसी से वे उनके लिये बहुत कुछ बुरा-भला बक रहे थे। उन्हें इस बात का घमण्ड हो गया था कि ‘मैं जितेन्द्रिय हूँ।’

पार्वती जी ने उनकी यह धृष्टता देखकर क्रोध से कहा। 
पार्वती जी बोलीं ;- अहो! हम-जैसे दुष्ट और निर्लज्जों का दण्ड के बल पर शासन एवं तिरस्कार करने वाला प्रभु इस संसार में यही है क्या? जान पड़ता है कि ब्रह्मा जी, भृगु, नारद आदि उनके पुत्र, सनकादि परमर्षि, कपिलदेव और मनु आदि बड़े-बड़े महापुरुष धर्म का रहस्य नहीं जानते। तभी तो वे धर्म मर्यादा का उल्लंघन करने वाले भगवान् शिव को इस काम से नहीं रोकते। ब्रह्मा आदि समस्त महापुरुष जिनके चरणकमलों का ध्यान करते रहते हैं, उन्हीं मंगलों को मंगल बनाने वाले साक्षात् जगद्गुरु भगवान् का और उनके अनुयायी महात्माओं का इस अधम क्षत्रिय ने तिरस्कार किया है और शासन करने की चेष्टा की है। इसलिये यह ढीठ सर्वथा दण्ड का पात्र है। इसे अपने बड़प्पन का घमण्ड है। यह मूर्ख भगवान् श्रीहरि के उन चरणकमलों में रहने योग्य नहीं है, जिनकी उपासना बड़े-बड़े सत्पुरुष किया करते हैं।

[चित्रकेतु को सम्बोधन कर] अतः दुर्मते! तुम पापमय असुर योनि में जाओ। ऐसा होने से बेटा! तुम फिर कभी किसी महापुरुष का अपराध नहीं कर सकोगे।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब पार्वती जी ने इस प्रकार चित्रकेतु को शाप दिया, तब वे विमान से उतर पड़े और सिर झुकाकर उन्हें प्रसन्न करने लगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद)

चित्रकेतु ने कहा ;- माता पार्वती जी! मैं बड़ी प्रसन्नता से अपने दोनों हाथ जोड़कर आप का शाप स्वीकार करता हूँ। क्योंकि देवता लोग मनुष्यों के लिये जो कुछ कह देते हैं, वह उनके प्रारब्धानुसार मिलने वाले फल की पूर्व सूचना मात्र होती है।

देवि! यह जीव अज्ञान से मोहित हो रहा है और इसी कारण इस संसारचक्र में भटकता रहता है तथा सदा-सर्वदा सर्वत्र सुख और दुःख भोगता रहता है। माताजी! सुख और दुःख को देने वाला न तो अपना आत्मा है और न कोई दूसरा। जो अज्ञानी हैं, वे ही अपने को अथवा दूसरे को सुख-दुःख का कर्ता माना करते हैं। यह जगत् सत्त्व, रज आदि गुणों का स्वाभाविक प्रवाह है। इसमें क्या शाप, क्या अनुग्रह, क्या स्वर्ग, क्या नरक और क्या सुख, क्या दुःख। एकमात्र परिपूर्णतम भगवान् ही बिना किसी की सहायता के अपनी आत्मस्वरूपिणी माया के द्वारा समस्त प्राणियों की तथा उनके बन्धन, मोक्ष और सुख-दुःख की रचना करते हैं।

माताजी! भगवान् श्रीहरि सबमें सम और माया आदि मल से रहित हैं। उनका कोई प्रिय-अप्रिय, जाति-बन्धु, अपना-पराया नहीं है। जब उनका सुख में राग ही नहीं है, तब उनमें रागजन्य क्रोध तो हो ही कैसे सकता है। तथापि उनकी मायाशक्ति के कार्य पाप और पुण्य ही प्राणियों के सुख-दुःख, हित-अनहित, बन्ध-मोक्ष मृत्यु-जन्म और आवागमन के कारण बनते हैं। पतिप्राणा देवि! मैं शाप से मुक्त होने के लिए आपको प्रसन्न नहीं कर रहा हूँ। मैं तो यह चाहता हूँ कि आपको मेरी जो बात अनुचित प्रतीत हुई हो, उसके लिये क्षमा करें।



श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! विद्याधर चित्रकेतु भगवान् शंकर और पार्वती जी को इस प्रकार प्रसन्न करके उनके सामने ही विमान पर सवार होकर वहाँ से चले गये। इससे उन लोगों को बड़ा विस्मय हुआ। तब भगवान् शंकर ने देवता, ऋषि, दैत्य, सिद्ध और पार्षदों के सामने ही भगवती पार्वती जी से यह बात कही।

भगवान् शंकर ने कहा ;- सुन्दरि! दिव्यलीला-विहारी भगवान् के निःस्पृह और उदारहृदय दासानुदासों की महिमा तुमने अपनी आँखों देख ली। जो लोग भगवान् के शरणागत होते हैं, वे किसी से नहीं डरते। क्योंकि उन्हें स्वर्ग, मोक्ष और नरकों में भी एक ही वस्तु के-केवल भगवान् के ही समान भाव से दर्शन होते हैं। जीवों को भगवान् की लीला से ही देह का संयोग होने के कारण सुख-दुःख, जन्म-मरण और शाप-अनुग्रह आदि द्वन्द प्राप्त होते हैं। जैसे स्वप्न में भेद-भ्रम से सुख-दुःख आदि की प्रतीति होती है और जाग्रत्-अवस्था में भ्रमवश माला में ही सर्प बुद्धि हो जाती है- वैसे ही मनुष्य अज्ञानवश आत्मा में देवता, मनुष्य आदि का भेद तथा गुण-दोष आदि की कल्पना कर लेता है।

जिनके पास ज्ञान और वैराग्य का बल है और जो भगवान् वासुदेव के चरणों में भक्तिभाव रखते हैं, उनके लिये इस जगत् में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसे वे हेय या उपादेय समझकर राग-द्वेष करें। मैं, ब्रह्मा जी, सनकादि, नारद, ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु आदि मुनि और बड़े-बड़े देवता- कोई भी भगवान् की लीला का रहस्य नहीं जान पाते। ऐसी अवस्था में जो उनके नन्हे-से-नन्हे अंश हैं और अपने को उनसे अलग ईश्वर मान बैठे हैं, वे उनके स्वरूप जान ही कैसे सकते हैं?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: सप्तदश अध्यायः श्लोक 33-41 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान् को न कोई प्रिय है और न अप्रिय। उनका न कोई अपना है न पराया। वे सभी प्राणियों के आत्मा हैं, इसलिये सभी प्राणियों के प्रियतम हैं। प्रिये! यह परम भाग्यवान् चित्रकेतु उन्हीं का प्रिय अनुचर, शान्त और समदर्शी है और मैं भी भगवान् श्रीहरि का ही प्रिय हूँ। इसलिये तुम्हें भगवान् के प्यारे भक्त, शान्त, समदर्शी, महात्मा पुरुषों के सम्बन्ध में किसी प्रकार आश्चर्य नहीं करना चाहिये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान् शंकर का यह भाषण सुनकर भगवती पार्वती की चित्तवृत्ति शान्त हो गयी और उनका विस्मय जाता रहा। भगवान् के परम प्रेमी भक्त चित्रकेतु भी भगवती पार्वती को बदले में शाप दे सकते थे, परन्तु उन्होंने उन्हें शाप न देकर उनका शाप सिर चढ़ा लिया। यही साधु पुरुष का लक्षण है।

यही विद्याधर चित्रकेतु दानव योनि का आश्रय लेकर त्वष्टा के दक्षिणाग्नि से पैदा हुए। वहाँ इनका नाम वृत्रासुर हुआ और वहाँ भी ये भगवत्स्वरूप के ज्ञान एवं भक्ति से परिपूर्ण ही रहे। तुमने मुझसे पूछा था कि वृत्रासुर का दैत्ययोनि में जन्म क्यों हुआ और उसे भगवान् की ऐसी भक्ति कैसे प्राप्त हुई। उसका पूरा-पूरा विवरण मैंने तुम्हें सुना दिया।

महात्मा चित्रकेतु का यह पवित्र इतिहास केवल उनका ही नहीं, वह समस्त विष्णुभक्तों का माहात्म्य है; इसे जो सुनता है, वह समस्त बन्धनों से मुक्त हो जाता है। जो पुरुष प्रातःकाल उठकर मौन रहकर श्रद्धा के साथ भगवान् का स्मरण करते हुए इस इतिहास का पाठ करता है, उसे परमगति की प्राप्ति होती है।

                           {षष्ठ स्कन्ध:}

                      【अष्टादश अध्याय:】१८.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"अदिति और दिति की सन्तानों की तथा मरुद्गणों की उत्पत्ति का वर्णन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! सविता की पत्नी पृश्नि के गर्भ से आठ सन्तानें हुईं- सावित्री, व्याहृति, त्रयी, अग्निहोत्र, पशु, सोम, चातुर्मास्य और पंचमहायज्ञ। भग की पत्नी सिद्धि ने महिमा, विभु और प्रभु- ये तीन पुत्र और आशिष् नाम की एक कन्या उत्पन्न की। यह कन्या बड़ी सुन्दरी और सदाचारिणी थी।

धाता की चार पत्नियाँ थीं- कुहू, सिनीवाली, राका और अनुमति। उनसे क्रमशः सायं, दर्श, प्रातः और पूर्णमास- ये चार पुत्र हुए। धाता के छोटे भाई का नाम था-विधाता, उनकी पत्नी क्रिया थी। उससे पुरीष्य नाम के पाँच अग्नियों की उत्पत्ति हुई। वरुण जी की पत्नी का नाम चर्षणी था। उससे भृगु जी ने पुनः जन्म ग्रहण किया। इसके पहले वे ब्रह्मा जी के पुत्र थे।



महायोगी वाल्मीकि जी भी वरुण के पुत्र थे। वाल्मीक से पैदा होने के कारण ही उनका नाम वाल्मीकि पड़ गया था। उर्वशी को देखकर मित्र और वरुण दोनों का वीर्य स्खलित हो गया था। उसे उन लोगों ने घड़े में रख दिया। उसी से मुनिवर अगस्त्य और वसिष्ठ जी का जन्म हुआ। मित्र की पत्नी थी रेवती। उसके तीन पुत्र हुए- उत्सर्ग, अरिष्ट और पिप्पल।

प्रिय परीक्षित! देवराज इन्द्र की पत्नी थीं पुलोमनन्दिनी शची। उनसे हमने सुना है, उन्होंने तीन पुत्र उत्पन्न किये- जयन्त, ऋषभ और मीढ़वान। स्वयं भगवान् विष्णु ही (बलि पर अनुग्रह करने और इन्द्र का राज्य लौटाने के लिये) माया से वामन (उपेन्द्र) के रूप में अवतीर्ण हुए थे। उन्होंने तीन पग पृथ्वी माँगकर तीनों लोक नाप लिये थे। उनकी पत्नी का नाम था कीर्ति। उससे बृहच्छ्रलोक नाम का पुत्र हुआ। उसके सौभाग आदि कई सन्तानें हुईं। कश्यपनन्दन भगवान् वामन ने माता अदिति के गर्भ से क्यों जन्म लिया और इस अवतार में उन्होंने कौन-से गुण, लीलाएँ और पराक्रम प्रकट किये-इसका वर्णन मैं आगे (आठवें स्कन्ध में) करूँगा।

प्रिय परीक्षित! अब मैं कश्यप जी की दूसरी पत्नी दिति से उत्पन्न होने वाली उस सन्तान परम्परा का वर्णन सुनाता हूँ, जिसमें भगवान् के प्यारे भक्त श्रीप्रह्लाद जी और बलि का जन्म हुआ। दिति के दैत्य और दानवों के वन्दनीय दो ही पुत्र हुए-हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष। इनकी संक्षिप्त कथा मैं तुम्हें (तीसरे स्कन्ध में) सुना चुका हूँ।

हिरण्यकशिपु की पत्नी दानवी कयाधु थी। उसके पिता जम्भ ने उसका विवाह हिरण्यकशिपु से कर दिया। कयाधु के चार पुत्र हुए- संह्लाद, अनुह्लाद, ह्लाद और प्रह्लाद। इनकी सिंहीका नाम की एक बहिन भी थी। उसका विवाह विप्रचित्ति नामक दानव से हुआ। उससे राहु नामक पुत्र की उत्पत्ति हुई। यह वही राहु है, जिसका सिर अमृतपान के समय मोहिनीरूपधारी भगवान् ने चक्र से काट लिया था। संह्राद की पत्नी थी कृति। उससे पंचजन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। ह्राद की पत्नी थी धमनि। उसके दो पुत्र हुए- वातापि और इल्वल। इस इल्वल ने ही महर्षि अगस्त्य के आतिथ्य के समय वातापि को पकाकर उन्हें खिला दिया था। अनुह्राद की पत्नी सूर्म्या थी, उसके दो पुत्र हुए- बाष्कल और महिषासुर। प्रह्लाद का पुत्र था विरोचन। उसकी पत्नी देवी के गर्भ से दैत्यराज बलि का जन्म हुआ। बलि की पत्नी का नाम अशना था। उससे बाण आदि सौ पुत्र हुए। दैत्यराज बलि की महिमा गान करने योग्य है। उसे मैं आगे (आठवें स्कन्ध में) सुनाऊँगा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 18-33 का हिन्दी अनुवाद)

बलि का पुत्र बाणासुर भगवान् शंकर की आराधना करके उनके गणों का मुखिया बन गया। आज भी भगवान् शंकर उसके नगर की रक्षा करने के लिये उसके पास ही रहते हैं। दिति के हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष के अतिरिक्त उनचास पुत्र और थे। उन्हें मरुद्गण कहते हैं। वे सब निःसन्तान रहे। देवराज इन्द्र ने उन्हें अपने ही समान देवता बना लिया।

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! मरुद्गण ने ऐसा कौन-सा सत्कर्म किया था, जिसके कारण वे अपने जन्मजात असुरोसित भाव को छोड़ सके और देवराज इन्द्र के द्वारा देवता बना लिये गये? ब्रह्मन! मेरे साथ यहाँ की सभी ऋषिमण्डली यह बात जानने के लिये अत्यन्त उत्सुक हो रही है। अतः आप कृपा करके विस्तार से वह रहस्य बतलाइये।

सूत जी कहते हैं ;- शौनक जी! राजा परीक्षित का प्रश्न थोड़े शब्दों में बड़ा सारगर्भित था। उन्होंने बड़े आदर से पूछा भी था। इसलिये सर्वज्ञ श्रीशुकदेव जी महाराज ने बड़े ही प्रसन्न चित्त से उनका अभिनन्दन करके यों कहा।

श्रीशुकदेव जी कहने लगे ;- परीक्षित! भगवान् विष्णु ने इन्द्र का पक्ष लेकर दिति के दोनों पुत्र हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष को मार डाला। अतः दिति शोक की आग से उद्दीप्त क्रोध से जलकर इस प्रकार सोचने लगी- ‘सचमुच इन्द्र बड़ा विषयी, क्रूर और निर्दयी है। राम! राम! उसने अपने भाइयों को ही मरवा डाला। वह दिन कब होगा, जब मैं भी उस पापी को मरवाकर आराम से सौऊँगी। लोग राजाओं के, देवताओं के शरीर को ’प्रभु’ कहकर पुकारते हैं; परन्तु एक दिन वह कीड़ा, विष्ठा या राख का ढेर जो जाता है, इसके लिये जो दूसरे प्राणियों को सताता है, उसे अपने सच्चे स्वार्थ या परमार्थ का पता नहीं है; क्योंकि इससे तो नरक में जाना पड़ेगा। मैं समझती हूँ इन्द्र अपने शरीर को नित्य मानकर मतवाला हो रहा है। उसे अपने विनाश का पता ही नहीं है। अब मैं वह उपाय करूँगी, जिससे मुझे ऐसा पुत्र प्राप्त हो, जो इन्द्र का घमण्ड चूर-चूर कर दे’।

दिति अपने मन में ऐसा विचार करके सेवा-शुश्रूषा, विनय-प्रेम और जितेन्द्रियता आदि के द्वारा निरन्तर अपने पतिदेव कश्यप जी को प्रसन्न रखने लगी। वह अपने पतिदेव के हृदय का एक-एक भाव जानती रहती थी और परम प्रेमभाव, मनोहर एवं मधुर भाषण तथा मुस्कान भरी तिरछी चितवन से उनका मन अपनी ओर आकर्षित करती रहती थी। कश्यप जी महाराज बड़े विद्वान् और विचारवान् होने पर भी चतुर दिति की सेवा से मोहित हो गये और उन्होंने विवश होकर यह स्वीकार कर लिया कि ‘मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करूँगा।’ स्त्रियों के सम्बन्ध में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

सृष्टि के प्रभात में ब्रह्मा जी ने देखा कि सभी जीव असंग हो रहे हैं, तब उन्होंने अपने आधे शरीर से स्त्रियों की रचना की और स्त्रियों ने पुरुषों की मति अपनी ओर आकर्षित कर ली। हाँ, तो भैया! मैं कह रहा था कि दिति ने भगवान् कश्यप जी की बड़ी सेवा की। इससे वे उस पर बहुत ही प्रसन्न हुए। उन्होंने दिति का अभिनन्दन करते हुए उससे मुसकराकर कहा।

कश्यप जी ने कहा ;- अनिन्द्यसुन्दरी प्रिये! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो। पति के प्रसन्न हो जाने पर पत्नी के लिये लोक या परलोक में कौन-सी अभीष्ट वस्तु दुर्लभ है। शास्त्रों में यह बात स्पष्ट कही गयी है कि पति ही स्त्रियों का परमाराध्य इष्टदेव है। प्रिये! लक्ष्मीपति भगवान् वासुदेव ही समस्त प्राणियों के हृदय में विराजमान हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 34-47 का हिन्दी अनुवाद)

विभिन्न देवताओं के रूप में नाम और रूप के भेद से उन्हीं की कल्पना हुई है। सभी पुरुष-चाहे किसी भी देवता की उपासना करें-उन्हीं की उपासना करते हैं। ठीक वैसे ही स्त्रियों के लिये भगवान् ने पति का रूप धारण किया है। वे उनकी उसी रूप में पूजा करती हैं। इसलिये प्रिये! अपना कल्याण चाहने वाली पतिव्रता स्त्रियाँ अनन्य प्रेमाभाव से अपने पतिदेव की ही पूजा करती हैं; क्योंकि पतिदेव ही उनके परम प्रियतम आत्मा और ईश्वर हैं।

कल्याणी! तुमने बड़े प्रेमाभाव से, भक्ति से मेरी वैसी ही पूजा की है। अब मैं तुम्हारी सब अभिलाषाएँ पूर्ण कर दूँगा। असतियों के जीवन में ऐसा होना अत्यन्त दुर्लभ है।

दिति ने कहा ;- ब्रह्न्! इन्द्र ने विष्णु के हाथों मेरे दो पुत्र मरवाकर मुझे निपूती बना दिया है। इसलिये यदि आप मुझे मुँह माँगा वर देना चाहते हैं तो कृपा करके एक ऐसा अमर पुत्र दीजिये, जो इन्द्र को मार डाले।

परीक्षित! दिति की बात सुनकर कश्यप जी खिन्न होकर पछताने लगे। वे मन-ही-मन कहने लगे- ‘हाय! हाय! आज मेरे जीवन में बहुत बड़े अधर्म का अवसर आ पहुँचा। देखो तो सही, अब मैं इन्द्रियों के विषयों में सुख मानने लगा हूँ। स्त्रीरूपिणी माया ने मेरे चित्त को अपने वश में कर लिया है। हाय! हाय! आज मैं कितनी दीन-हीन अवस्था में हूँ। अवश्य ही अब मुझे नरक में गिरना पड़ेगा। इस स्त्री का कोई दोष नहीं है; क्योंकि इसने अपने जन्मजात स्वभाव का ही अनुसरण किया है। दोष मेरा है-जो मैं अपनी इन्द्रियों को अपने वश में न रख सका, अपने सच्चे स्वार्थ और परमार्थ को न समझ सका। मुझ मूढ़ को बार-बार धिक्कार है। सच है, स्त्रियों के चरित्र को कौन जानता है। इनका मुँह तो ऐसा होता है जैसे शरद् ऋतु का खिला हुआ कमल। बातें सुनने में ऐसी मीठी होती हैं, मानो अमृत घोल रखा हो। परन्तु हृदय, वह तो इतना तीखा होता है कि मानो छुरे की पैनी धार हो। इसमें सन्देह नहीं कि स्त्रियाँ अपनी लालसाओं की कठपुतली होती हैं। सच पूछो तो वे किसी से प्यार नहीं करतीं। स्वार्थवश वे अपने पति, पुत्र और भाई तक को मार डालती हैं या मरवा डालती हैं। अब तो मैं कह चुका हूँ कि जो तुम माँगोगी, दूँगा। मेरी बात झूठी नहीं होनी चाहिये। परन्तु इन्द्र भी वध करने योग्य नहीं है। अच्छा, अब इस विषय में मैं यह युक्ति करता हूँ’।

प्रिय परीक्षित! सर्वसमर्थ कश्यप जी ने इस प्रकार मन-ही-मन अपनी भर्त्सना करके दोनों बात बनाने का उपाय सोचा और फिर तनिक रुष्ट होकर दिति से कहा।

कश्यप जी बोले ;- कल्याणी! यदि तुम मेरे बतलाये हुए व्रत का एक वर्ष तक विधिपूर्वक पालन करोगी तो तुम्हें इन्द्र को मारने वाला पुत्र प्राप्त होगा। परन्तु यदि किसी प्रकार नियमों में त्रुटि हो गयी तो वह देवताओं का मित्र बन जायेगा।

दिति ने कहा ;- ब्रह्मन्! मैं उस व्रत का पालन करुँगी। आप बतलाइये कि मुझे क्या-क्या करना चाहिये, कौन-कौन से काम छोड़ देने चाहिये और कौन-से काम ऐसे हैं, जिनसे व्रत भंग नहीं होता।

कश्यप जी ने उत्तर दिया ;- प्रिये! इस व्रत में किसी भी प्राणी को मन, वाणी या क्रिया के द्वारा सताये नहीं, किसी को शाप या गाली न दे, झूठ न बोले, शरीर के नख और रोएँ न काटे और किसी भी अशुभ वस्तु का स्पर्श न करे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध:अष्टादश अध्यायः श्लोक 48-63 का हिन्दी अनुवाद)

जल में घुसकर स्नान न करे, क्रोध न करे, दुर्जनों से बातचीत न करे, बिना धुला वस्त्र न पहने और किसी की पहनी हुई माला न पहने। जूठा न खाये, भद्रकाली का प्रसाद या मांसयुक्त अन्न का भोजन न करे। शूद्र का लाया हुआ और रजस्वला का देखा हुआ अन्न भी न खाये और अंजलि से जलपान न करे। जूठे मुँह, बिना आचमन किये, सन्ध्या के समय, बाल खोले हुए, बिना श्रृंगार के, वाणी का संयम किये बिना और बिना चद्दर ओढ़े घर से बाहर न निकले। बिना पैर धोये, अपवित्र अवस्था में गीले पाँवों से, उत्तर या पश्चिम सिर करके, दूसरे के साथ, नग्नावस्था में तथा सुबह-शाम सोना नहीं चाहिये। इस प्रकार इन निषिद्ध कर्मों का त्याग करके सर्वदा पवित्र रहे, धुला वस्त्र धारण करे और सभी सौभाग्य के चिह्नों से सुसज्जित रहे। प्रातःकाल कलेवा करने के पहले ही गाय, ब्राह्मण, लक्ष्मी जी और भगवान् नारायण की पूजा करे। इसके बाद पुष्पमाला, चन्दनादि सुगन्धद्रव्य, नैवेद्य और आभूषणादि से सुहागिनी स्त्रियों की पूजा करे तथा पति की पूजा करके उसकी सेवा में संलग्न रहे और यह भावना करती रहे कि पति का तेज मेरी कोख में स्थित है।

प्रिये! इस व्रत का नाम ‘पुंसवन’ है। यदि एक वर्ष तक तुम इसे बिना किसी त्रुटि के पालन कर सकोगी तो तुम्हारी कोख से इन्द्रघाती पुत्र उत्पन्न होगा।

परीक्षित! दिति बड़ी मनस्वी और दृढ़ निश्चय वाली थी। उसने ‘बहुत ठीक’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। अब दिति अपनी कोख में भगवान् कश्यप का वीर्य और जीवन में उनका बतलाया हुआ व्रत धारण करके अनायास ही नियमों का पालन करने लगी। प्रिय परीक्षित! देवराज इन्द्र अपनी मौसी दिति का अभिप्राय जान बड़ी बुद्धिमानी से अपना वेष बदलकर दिति के आश्रम पर आये और उसकी सेवा करने लगे। वे दिति के लिये प्रतिदिन समय-समय पर वन से फूल-फल, कन्द-मूल, समिधा, कुश, पत्ते, दूब, मिट्टी और जल लाकर उसकी सेवा में समर्पित करते।

राजन्! जिस प्रकार बहेलिया हरिन को मारने के लिये हरिन की-सी सूरत बनाकर उसके पास जाता है, वैसे ही देवराज इन्द्र भी कपट वेष धारण करके व्रतपरायणा दिति के व्रत पालन की त्रुटि पकड़ने के लिये उसकी सेवा करने लगे। सर्वदा पैनी दृष्टि रखने पर भी उन्हें उसके व्रत में किसी प्रकार की त्रुटि न मिली और वे पूर्ववत् उसकी सेवा-टहल में लगे रहे। अब तो इन्द्र को बड़ी चिन्ता हुई। वे सोचने लगे- "मैं ऐसा कौन-सा उपाय करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो?"

दिति व्रत के नियमों का पालन करते-करते बहुत दुर्बल हो गयी थी। विधाता ने भी उसे मोह में डाल दिया। इसलिये एक दिन सन्ध्या के समय जूठे मुँह, बिना आचमन किये और बिना पैर धोये ही वह सो गयी। योगेश्वर इन्द्र ने देखा कि यह अच्छा अवसर हाथ लगा। वे योग बल से झटपट सोयी हुई दिति के गर्भ में प्रवेश कर गये। उन्होंने वहाँ जाकर सोने के समान चमकते हुए गर्भ के वज्र के द्वारा सात टुकड़े कर दिये। जब वह गर्भ रोने लगा, तब उन्होंने ‘मत रो, मत रो’ यह कहकर सातों टुकड़ों में से एक-एक के और भी सात टुकड़े कर दिये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 64-78 का हिन्दी अनुवाद)

राजन्! जब इन्द्र उनके टुकड़े-टुकड़े करने लगे, तब उन सबों ने हाथ जोड़कर इन्द्र से कहा- ‘देवराज! तुम हमें क्यों मार रहे हो? हम तो तुम्हारे भाई मरुद्गण हैं’। तब इन्द्र ने अपने भावी अनन्य प्रेमी पार्षद मरुद्गणों से कहा- ‘अच्छी बात है, तुम लोग मेरे भाई हो। अब मत डरो!’

परीक्षित! जैसे अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से तुम्हारा कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ, वैसे ही भगवान् श्रीहरि की कृपा से दिति का वह गर्भ वज्र के द्वारा टुकड़े-टुकड़े होने पर भी मरा नहीं। इसमें तनिक भी आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि जो मनुष्य एक बार भी आदिपुरुष भगवान् नारायण की आराधना कर लेता है, वह उनकी समानता प्राप्त कर लेता है; फिर दिति ने तो कुछ ही दिन कम एक वर्ष तक भगवान् की आराधना की थी। अब वे मरुद्गण इन्द्र के साथ मिलकर पचास हो गये। इन्द्र ने भी सौतेली माता के पुत्रों के साथ शत्रुभाव न रखकर उन्हें सोमपायी देवता बना लिया।

जब दिति की आँख खुली, तब उसने देखा कि उसके अग्नि समान तेजस्वी उनचास बालक इन्द्र के साथ हैं। इससे सुन्दर स्वभाव वाली दिति को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने इन्द्र को सम्बोधन करके कहा- ‘बेटा! मैं इस इच्छा से इस अत्यन्त कठिन व्रत का पालन कर रही थी कि तुम अदिति के पुत्रों को भयभीत करने वाला पुत्र उत्पन्न हो। मैंने केवल एक ही पुत्र के लिये संकल्प किया था, फिर ये उनचास पुत्र कैसे हो गये? बेटा इन्द्र! यदि तुम्हें इसका रहस्य मालूम हो, तो सच-सच मुझे बतला दो। झूठ न बोलना’।

इन्द्र ने कहा- माता! मुझे इस बात का पता चल गया था कि तुम किस उद्देश्य से व्रत कर रही हो। इसीलिये अपना स्वार्थ सिद्ध करने के उद्देश्य से मैं स्वर्ग छोड़कर तुम्हारे पास आया। मेरे मन में तनिक भी धर्म भावना नहीं थी। इसी से तुम्हारे व्रत में त्रुटि होते ही मैंने उस गर्भ के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। पहले मैंने उसके सात टुकड़े किये थे। तब वे सातों टुकड़े सात बालक बन गये। इसके बाद मैंने फिर एक-एक के सात-सात टुकड़े कर दिये। तब भी वे न मरे, बल्कि उनचास हो गये। यह परम आश्चर्यमयी घटना देखकर मैंने ऐसा निश्चय किया कि परमपुरुष भगवान् की उपासना की यह कोई स्वाभाविक सिद्धि है। जो लोग निष्काम भाव से भगवान् की आराधना करते हैं और दूसरी वस्तुओं की तो बात ही क्या, मोक्ष की भी इच्छा नहीं करते, वे ही अपने स्वार्थ और परमार्थ में निपुण हैं। भगवान् जदीश्वर सबके आराध्यदेव और अपने आत्मा ही हैं। वे प्रसन्न होकर अपने-आप तक का दान कर देते हैं। भला, ऐसा कौन बुद्धिमान् है, जो उसकी आराधना करके विषय भोगों का वरदान माँगे।

माताजी! ये विषय भोग तो नरक में भी मिल सकते हैं। मेरी स्नेहमयी जननी! तुम सब प्रकार मेरी पूज्या हो। मैने मूर्खतावश बड़ी दुष्टता का काम किया है। तुम मेरे अपराध को क्षमा कर दो। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम्हारा गर्भ खण्ड-खण्ड हो जाने से एक प्रकार मर जाने पर भी फिर से जीवित हो गया।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! दिति देवराज इन्द्र के शुद्धभाव से सन्तुष्ट हो गयी। उससे आज्ञा लेकर देवराज इन्द्र ने मरुद्गणों के साथ उसे नमस्कार किया और स्वर्ग में चले गये।

राजन! यह मरुद्गण का जन्म बड़ा ही मंगलमय है। इसके विषय में तुमने मुझसे जो प्रश्न किया था, उसका उत्तर समग्र रूप से मैंने तुम्हें दे दिया। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो?

                           {षष्ठ स्कन्ध:}

                      【एकोनविंश अध्याय:】१९.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"पुंसवन-व्रत की विधि"
राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! आपने अभी-अभी पुंसवन-व्रत का वर्णन किया है और कहा है कि उससे भगवान् विष्णु प्रसन्न हो जाते हैं। सो अब मैं उसकी विधि जानना चाहता हूँ।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! यह पुंसवन-व्रत समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। स्त्री को चाहिये कि वह अपने पतिदेव की आज्ञा लेकर मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा से इसका आरम्भ करे। पहले मरुद्गण के जन्म की कथा सुनकर ब्राह्मणों से आज्ञा ले। फिर प्रतिदिन सबेरे दाँतुन आदि से दाँत साफ करके स्नान करे, दो श्वेत वस्त्र धारण करे और आभूषण भी पहन ले। प्रातःकाल कुछ भी खाने से पहले ही भगवान् लक्ष्मी-नारायण की पूजा करे। (इस प्रकार प्रार्थना करे- ) ‘प्रभो! आप पूर्णकाम हैं। अतएव आपको किसी से भी कुछ लेना-देना नहीं है। आप समस्त विभूतियों के स्वामी और सकल-सिद्धि स्वरूप हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करती हूँ। मेरे आराध्यदेव! आप कृपा, विभूति, तेज, महिमा और वीर्य आदि समस्त गुणों से नित्ययुक्त हैं। इन्हीं भगों-ऐश्वर्यों से नित्ययुक्त रहने के कारण आपको भगवान् कहते हैं। आप सर्वशक्तिमान् हैं। माता लक्ष्मी जी! आप भगवान् की अर्द्धांगिनी और महामाया-स्वरूपिणी हैं। भगवान् के सारे गुण आप में निवास करते हैं। महाभाग्यवती जन्माता! आप मुझ पर प्रसन्न हों। मैं आपको नमस्कार करती हूँ’।

परीक्षित! इस प्रकार स्तुति करके एकाग्रचित्त से ‘ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महानुभावाय महाविभूतिपतये सह महाविभूतिभिर्बलिमुपहराणि।’

‘ओंकार स्वरूप, महानुभाव, समस्त महाविभूतियों के स्वामी भगवान् पुरुषोत्तम को और उनकी महाविभूतियों को मैं नमस्कार करती हूँ और उन्हें पूजोपहार की सामग्री समर्पण करती हूँ’- इस मन्त्र के द्वारा प्रतिदिन स्थिर चित्त से विष्णु भगवान् का आवाहन, अर्घ्य, पाद्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदि निवेदन करके पूजन करे। जो नैवेद्य बच रहे, उससे ‘ॐ नमो भगवते महापुरुषाय महाविभूतिपतये स्वाहा।’ ‘महान् ऐश्वर्यों के अधिपति भगवान् पुरुषोत्तम को नमस्कर है। मैं उन्हीं के लिये इस हविष्य का हवन कर रही हूँ।’- यह मन्त्र बोलकर अग्नि में बारह आहुतियाँ दे।

परीक्षित! जो सब प्रकार की सम्पत्तियों को प्राप्त करना चाहता हो, उसे चाहिये कि प्रतिदिन भक्तिभाव से भगवान् लक्ष्मीनारायण की पूजा करे; क्योंकि वे ही दोनों समस्त अभिलाषाओं के पूर्ण करने वाले एवं श्रेष्ठ वरदानी हैं। इसके बाद भक्तिभाव से भरकर बड़ी नम्रता से भगवान् को साष्टांग दण्डवत् करे। दस बार पूर्वोक्त मन्त्र का जप करे और फिर इस स्तोत्र का पाठ करे-

‘हे लक्ष्मीनारयण! आप दोनों सर्वव्यापक और सम्पूर्ण चराचर जगत् के अन्तिम कारण हैं- आपका और कोई कारण नहीं है। भगवन्! माता लक्ष्मी जी आपकी मायाशक्ति हैं। ये ही स्वयं अव्यक्त प्रकृति भी हैं। इनका पार पाना अत्यन्त कठिन है। प्रभो! आप ही इन महामाया के अधीश्वर हैं और आप ही स्वयं परमपुरुष हैं। आप समस्त यज्ञ हैं और ये हैं यज्ञ-क्रिया। आप फल के भोक्ता हैं और ये हैं उसको उत्पन्न करने वाली क्रिया। माता लक्ष्मी जी तीनों गुणों की अभिव्यक्ति हैं और आप उन्हें व्यक्त करने वाले और उनके भोक्ता हैं। आप समस्त प्राणियों के आत्मा हैं और लक्ष्मी जी शीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण हैं। माता लक्ष्मी जी नाम एवं रूप हैं और आप नाम-रूप दोनों के प्रकाशक तथा आधार हैं।



(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 14-28 का हिन्दी अनुवाद)

प्रभो! आपकी कीर्ति पवित्र है। आप दोनों ही त्रिलोकी के वरदानी परमेश्वर हैं। अतः मेरी बड़ी-बड़ी आशा-अभिलाषाएँ आपकी कृपा से पूर्ण हों’।

परीक्षित! इस प्रकार परम वरदानी भगवान् लक्ष्मी-नारायण की स्तुति करके वहाँ से नैवेद्य हटा दे और आचमन करा के पूजा करे। तदनन्तर भक्तिभावभरित हृदय से भगवान् की स्तुति करे और यज्ञावशेष को सूँघकर फिर भगवान् की पूजा करे। भगवान् की पूजा के बाद अपने पति को साक्षात भगवान समझकर परमप्रेम से उनकी प्रिय वस्तुएँ सेवा में उपस्थित करे। पति का भी यह कर्तव्य है कि वह आन्तरिक प्रेम से अपनी पत्नी के प्रिय पदार्थ ला-लाकर उसे दे और उसके छोड़े-बड़े सब प्रकार के काम करता रहे।

परीक्षित! पति-पत्नी में से एक भी कोई काम करता है, तो उसका फल दोनों को होता है। इसलिये यदि पत्नी (रजोधर्म आदि के समय) यह व्रत करने के अयोग्य हो जाये तो बड़ी एकाग्रता और सावधानी से पति को ही इसका अनुष्ठान करना चाहिये। यह भगवान विष्णु का व्रत है। इसका नियम लेकर बीच में कभी नहीं छोड़ना चाहिये। जो भी यह नियम ग्रहण करे, वह प्रतिदिन माला, चन्दन, नैवेद्य और आभूषण आदि से भक्तिपूर्वक ब्राह्मण और सुहागिनी स्त्रियों का पूजन करे तथा भगवान् विष्णु की भी पूजा करे। इसके बाद भगवान् को उनके धाम में पधरा दे, विसर्जन कर दे। तदनन्तर आत्मशुद्धि और समस्त अभिलाषाओं की पूर्ति के लिये पहले से ही उन्हें निवेदित किया हुआ प्रसाद ग्रहण करे।

साध्वी स्त्री इस विधि से बारह महीनों तक-पूरे साल भर इस व्रत का आचरण करके मार्गशीर्ष की अमावस्या को उद्यापन सम्बन्धी उपवास और पूजन आदि करे। उस दिन प्रातःकाल ही स्नान करके पूर्ववत् विष्णु भगवान् का पूजन करे और उसका पति पाकयज्ञ की विधि से घृतमिश्रित खीर की अग्नि में बारह आहुति दे। इसके बाद जब ब्राह्मण प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद दें, तो बड़े आदर से सिर झुकाकर उन्हें स्वीकार करे। भक्तिभाव से माथा टेककर उनके चरणों में प्रणाम करे और उनकी आज्ञा लेकर भोजन करे। पहले आचार्य को भोजन कराये, फिर मौन होकर भाई-बन्धुओं के साथ स्वयं भोजन करे। इसके बाद हवन से बची हुई घृतमिश्रित खीर अपनी पत्नी को दे। वह प्रसाद स्त्री को सत्पुत्र और सौभाग्य दान करने वाला होता है।

परीक्षित! भगवान् के इस पुंसवन-व्रत का जो मनुष्य विधिपूर्वक अनुष्ठान करता है, उसे यहीं उसकी मनचाही वस्तु मिल जाती है। स्त्री इस व्रत का पालन करके सौभाग्य, सम्पत्ति, सन्तान, यश और गृह प्राप्त करती है तथा उसका पति चिरायु हो जाता है। इस व्रत का अनुष्ठान करने वाली कन्या समस्त शुभ लक्षणों से युक्त पति प्राप्त करती है और विधवा इस व्रत से निष्पाप होकर वैकुण्ठ में जाती है। जिसके बच्चे मर जाते हों, वह स्त्री इसके प्रभाव से चिरायु पुत्र प्राप्त करती है। धनवती किन्तु अभागिनी स्त्री को सौभाग्य प्राप्त होता है और कुरुपता को श्रेष्ठ रूप मिल जाता है। रोगी इस व्रत के प्रभाव से रोग मुक्त होकर बलिष्ठ शरीर और श्रेष्ठ इन्द्रिय शक्ति प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य मांगलिक श्राद्ध कर्मों में इसका पाठ करता है, उसके पितर और देवता अनन्त तृप्ति लाभ करते हैं। वे सन्तुष्ट होकर हवन के समाप्त होने पर व्रती की समस्त इच्छाएँ पूर्ण कर देते हैं। ये सब तो सन्तुष्ट होते ही हैं, समस्त यज्ञों के एकमात्र भोक्ता भगवान् लक्ष्मी-नारायण भी सन्तुष्ट हो जाते हैं और व्रती की समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण कर देते हैं।

परीक्षित! मैंने तुम्हें मरुद्गण की आदरणीय और पुण्यप्रद जन्म-कथा सुनायी और साथ ही दिति के श्रेष्ठ पुंसवन-व्रत का वर्णन भी सुना दिया।

                      【षष्ठ स्कन्ध: समाप्त】
                         【 हरिः ॐ तत्सत्】


।। इस प्रकार  "श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध:" के 19 अध्याय समाप्त हुये ।।

(अब सप्तम स्कन्ध: प्रारम्भ होता है)

(नोट :- सभी स्कन्ध:  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें