सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( सप्तम स्कन्धः ) का प्रथम , द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम अध्याय [ The first, second, third, fourth and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Seventh wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( सप्तम स्कन्धः ) का प्रथम , द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम अध्याय [ The first, second, third, fourth and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Seventh wing) ]



                           {सप्तम स्कन्ध:}

                      【प्रथम अध्याय:】१.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"नारद-युधिष्ठिर-संवाद और जय-विजय की कथा"
राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! भगवान् तो स्वभाव से ही भेदभाव से रहित हैं-सम हैं, समस्त प्राणियों के प्रिय और सुहृद् हैं; फिर उन्होंने, जैसे कोई साधारण मनुष्य भेदभाव से अपने मित्र का पक्ष ले और शत्रुओं का अनिष्ट अरे, उसी प्रकार इन्द्र के लिये दैत्यों का वध क्यों किया? वे स्वयं परिपूर्ण कल्याणस्वरूप हैं, इसीलिये उन्हें देवताओं से कुछ लेना-देना नहीं है तथा निर्गुण होने के कारण दैत्यों से कुछ वैर-विरोध और उद्वेग भी नहीं है। भगवत्प्रेम के सौभाग्य से सम्पन्न महातमन्! हमारे चित्त में भगवान् के समत्व आदि गुणों के सम्बन्ध में बड़ा भारी सन्देह हो रहा है। आप कृपा करके उसे मिटाइये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- महाराज! भगवान् के अद्भुत चरित्र के सम्बन्ध में तुमने बड़ा सुन्दर प्रश्न किया; क्योंकि ऐसे प्रसंग प्रह्लाद आदि भक्तों की महिमा से परिपूर्ण होते हैं, जिसके श्रवण से भगवान् की भक्ति बढ़ती है। इस परम पुण्यमय प्रसंग को नारदादि महात्मागण बड़े प्रेम से गाते रहते हैं। अब मैं अपने पिता श्रीकृष्ण-द्वैपायन मुनि को नमस्कार करके भगवान् की लीला-कथा का वर्णन करता हूँ। वास्तव में भगवान् निर्गुण, अजन्मा, अव्यक्त और प्रकृति से परे हैं। ऐसे होने पर भी अपनी माया के गुणों को स्वीकार करके वे बाध्य-बाधक भाव को अर्थात् मरने और मारने वाले दोनों के परस्पर-विरोधी रूपों को ग्रहण करते हैं। सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण- ये प्रकृति के गुण हैं, परमात्मा के नहीं।

परीक्षित! इन तीनों गुणों की भी एक साथ ही घटती-बढ़ती नहीं होती। भगवान् समय-समय के अनुसार गुणों को स्वीकार करते हैं। सत्त्वगुण की वृद्धि के समय देवता और ऋषियों का, रजोगुण की वृद्धि के समय दैत्यों का और तमोगुण की वृद्धि के समय वे यक्ष एवं राक्षसों को अपनाते और उनका अभ्युदय करते हैं। जैसे व्यापक अग्नि काष्ठ आदि भिन्न-भिन्न आश्रयों में रहने पर भी उनसे अलग नहीं जान पड़ती, परन्तु मन्थन करने पर वह प्रकट हो जाती है-वैसे ही परमात्मा सभी शरीरों में रहते हैं, अलग नहीं जान पड़ते। परन्तु विचारशील पुरुष हृदय मन्थन करके-उनके अतिरिक्त सभी वस्तुओं का बोध करके अन्ततः अपने हृदय में ही अन्तर्यामीरूप से उन्हें प्राप्त कर लेते हैं। जब परमेश्वर अपने लिये शरीरों का निर्माण करना चाहते हैं, तब अपनी माया से रजोगुण की अलग सृष्टि करते हैं। जब वे विचित्र योनियों में रमण करना चाहते हैं, तब सत्त्वगुण की सृष्टि करते हैं और जब वे शयन करना चाहते हैं, तब तमोगुण को बढ़ा देते हैं। परीक्षित! भगवान् सत्य संकल्प हैं। वे ही जगत् की उत्पत्ति के निमित्त भूत, प्रकृति और पुरुष के सहकारी एवं आश्रयकाल की सृष्टि करते हैं। इसलिये वे काल के अधीन नहीं, काल ही उनके अधीन है।

राजन्! वे काल स्वरूप ईश्वर जब सत्त्वगुण की वृद्धि करते हैं, तब सत्त्वमय देवताओं का बल बढ़ाते हैं और तभी वे परमयशस्वी देवप्रिय परमात्मा देवविरोधी, रजोगुणी एवं तमोगुणी दैत्यों का संहार करते हैं। वस्तुतः वे सम ही हैं। राजन्! इसी विषय में देवर्षि नारद ने बड़े प्रेम से एक इतिहास कहा था। यह उस समय की बात है, जब राजसूय यज्ञ में तुम्हारे दादा युधिष्ठिर ने उनसे इस सम्बन्ध में एक प्रश्न किया था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 13-27 का हिन्दी अनुवाद)

उस महान् राजसूय यज्ञ में राजा युधिष्ठिर ने अपनी आँखों के सामने बड़ी आश्चर्यजनक घटना देखी कि चेदिराज शिशुपाल सबके देखते-देखते भगवान् श्रीकृष्ण में समा गया। वहीं देवर्षि नारद भी बैठे हुए थे। इस घटना से आश्चर्यचकित होकर राजा युधिष्ठिर ने बड़े-बड़े मुनियों से भरी हुई सभा में; उस यज्ञमण्डप में ही देवर्षि नारद से यह प्रश्न किया।

युधिष्ठिर ने पूछा ;- अहो! यह तो बड़ी विचित्र बात है। परमतत्त्व भगवान् श्रीकृष्ण में समा जाना तो बड़े-बड़े अनन्य भक्तों के लिये भी दुर्लभ है; फिर भगवान् से द्वेष करने वाले शिशुपाल को यह गति कैसे मिली? नारदजी! इसका रहस्य हम सभी जानना चाहते हैं। पूर्वकाल में भगवान् की निन्दा करने के कारण ऋषियों ने राजा वेन को नरक में डाल दिया था। यह दमघोष का लड़का पापात्मा शिशुपाल और दुर्बुद्धि दन्तवक्त्र-दोनों ही जब से तुतलाकर बोलने लगे थे, तब से अब तक भगवान् से द्वेष ही करते रहे हैं। अविनाशी परब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण को ये पानी पी-पीकर गाली देते हैं। परन्तु इसके फलस्वरूप न तो इनकी जीभ में कोढ़ ही हुआ और न इन्हें घोर अन्धकारमय नरक की ही प्राप्ति हुई। प्रत्युत जिन भगवान् की प्राप्ति अत्यन्त कठिन है, उन्हीं में ये दोनों सबके देखते-देखते अनायास ही लीन हो गये-इसका क्या कारण है? हवा के झोंके से लड़खड़ाती हुई दीपक की लौ के समान मेरी बुद्धि इस विषय में बहुत आगा-पीछा कर रही है। आप सर्वज्ञ हैं, अतः इस अद्भुत घटना का रहस्य समझाइये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- सर्वसमर्थ देवर्षि नारद राजा के ये प्रश्न सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने युधिष्ठिर को सम्बोधित करके भरी सभा में सबके सुनते हुए यह कथा कही।

नारद जी ने कहा ;- युधिष्ठिर! निन्दा, स्तुति, सत्कार और तिरस्कार-इस शरीर के ही तो होते हैं। इस शरीर की कल्पना प्रकृति और पुरुष का ठीक-ठीक विवेक न होने के कारण ही हुई है। जब इस शरीर को ही अपना आत्मा मान लिया जाता है, तब ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’ ऐसा भाव बन जाता है। यही सारे भेदभाव का मूल है। इसी के कारण ताड़ना और दुर्वचनों से पीड़ा होती है। जिस शरीर में अभिमान हो जाता है कि ‘यह मैं हूँ’, उस शरीर के वध से प्राणियों को अपना वध जान पड़ता है। किन्तु भगवान् में तो जीवों के समान ऐसा अभिमान है नहीं; क्योंकि वे सर्वात्मा हैं, अद्वितीय हैं। वे जो दूसरों को दण्ड देते हैं-वह भी उनके कल्याण के लिये ही, क्रोधवश अथवा द्वेषवश नहीं। तब भगवान् के सम्बन्ध में हिंसा की कल्पना तो की ही कैसे जा सकती है। इसलिये चाहे सुदृढ़ वैरभाव से या वैरहीन भक्तिभाव से, भय से, स्नेह से अथवा कामना से-कैसे भी हो, भगवान् में अपना मन पूर्ण रूप से लगा देना चाहिये। भगवान् की दृष्टि से इन भावों में कोई भेद नहीं है।

युधिष्ठिर! मेरा तो ऐसा दृढ़ निश्चय है कि मनुष्य वैरभाव से भगवान् में जितना तन्मय हो जाता है, उतना भक्तियोग से नहीं होता। भृंगी कीड़े को लाकर भीत पर अपने छिद्र में बंद कर देता है और वह भय तथा उद्वेग से भृंगी का चिन्तन करते-करते उसके-जैसा ही हो जाता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 28-47 का हिन्दी अनुवाद)

यही बात भगवान् श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में भी है। लीला के द्वारा मनुष्य मालूम पड़ते हुए ये सर्वशक्तिमान् भगवान् ही तो हैं। इनसे वैर करने वाले भी इनका चिन्तन करते-करते पापरहित होकर इन्हीं को प्राप्त हो गये। एक नहीं, अनेकों मनुष्य काम से, द्वेष से, भय से और स्नेह से अपने मन को भगवान् में लगाकर एवं अपने सारे पाप धोकर उसी प्रकार भगवान् को प्राप्त हुए हैं, जैसे भक्त भक्ति से। महाराज! गोपियों ने भगवान् से मिलन के तीव्र काम अर्थात् प्रेम से, कंस ने भय से, शिशुपाल-दन्तवक्त्र आदि राजाओं ने द्वेष से, यदुवंशियों ने परिवार के सम्बन्ध से, तुम लोगों ने स्नेह से और हम लोगों ने भक्ति से अपने मन को भगवान् में लगाया है। भक्तों के अतिरिक्त जो पाँच प्रकार के भगवान् का चिन्तन करने वाले हैं, उनमें जो राजा वेन की तो किसी में ही गणना नहीं होती (क्योंकि उसने किसी भी प्रकार से भगवान् में मन नहीं लगाया था)। सारांश यह कि चाहे जैसे हो, अपना मन भगवान् श्रीकृष्ण में तन्मय कर देना चाहिये। महाराज! फिर तुम्हारे जैसे मौसेरे भाई शिशुपाल और दन्तवक्त्र दोनों ही विष्णु भगवान् के मुख्य पार्षद थे। ब्राह्मणों के शाप से इन दोनों को अपने पद से च्युत होना पड़ा था।

राजा युधिष्ठिर ने पूछा ;- नारद जी! भगवान् के पार्षदों को भी प्रभावित करने वाला वह शाप किसने दिया था? वह कैसा था? भगवान् के अनन्य प्रेमी फिर जन्म-मृत्युमय संसार में आयें, यह बात तो कुछ अविश्वसनीय-सी मालूम पड़ती है। वैकुण्ठ के रहने वाले लोग प्राकृत शरीर, इन्द्रिय और प्राणों से रहित होते हैं। उनका प्राकृत शरीर से सम्बन्ध किस प्रकार हुआ, यह बात आप अवश्य सुनाइये।

नारद जी ने कहा ;- एक दिन ब्रह्मा के मानसपुत्र सनकादि ऋषि तीनों लोकों में स्वच्छन्द विचरण करते हुए वैकुण्ठ में जा पहुँचे। यों तो वे सबसे प्राचीन हैं, परन्तु जान पड़ते हैं ऐसे मानो पाँच-छः बरस के बच्चे हों। वस्त्र भी नहीं पहनते। उन्हें साधारण बालक समझकर द्वारपालों ने उनको भीतर जाने से रोक दिया। इस पर वे क्रोधित-से हो गये और द्वारपालों को यह शाप दिया कि ‘मूर्खों! भगवान् विष्णु के चरण तो रजोगुण और तमोगुण से रहित हैं। तुम दोनों इनके समीप निवास करने योग्य नहीं हो। इसलिये शीघ्र ही तुम यहाँ से पापमयी असुर योनि में जाओ’। उनके इस प्रकार शाप देते ही जब वे वैकुण्ठ से नीचे गिरने लगे, तब उन कृपालु महात्माओं ने कहा- ‘अच्छा, तीन जन्मों में इस शाप को भोगकर तुम लोग फिर इसी वैकुण्ठ में आ जाना’।

युधिष्ठिर! वे ही दोनों दिति के पुत्र हुए। उनसे बड़े का नाम हिरण्यकशिपु था और उससे छोटे का हिरण्याक्ष। दैत्य और दानवों के समाज में यही दोनों सर्वश्रेष्ठ थे। विष्णु भगवान् ने नृसिंह का रूप धारण करके हिरण्यकशिपु को और पृथ्वी का उद्धार करने के समय वराह अवतार ग्रहण करके हिरण्याक्ष को मारा। हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को भगवत्प्रेमी होने कारण मार डालना चाहा और इसके लिये उन्हें बहुत-सी यातनाएँ दीं। परन्तु प्रह्लाद सर्वात्मा भगवान् के परम प्रिय हो चुके थे, समदर्शी हो चुके थे। उनके हृदय में अटल शान्ति थी। भगवान् के प्रभाव से वे सुरक्षित थे। इसलिये तरह-तरह से चेष्टा करने पर भी हिरण्यकशिपु उनको मार डालने में समर्थ न हुआ। युधिष्ठिर! वे ही दोनों विश्रवा मुनि के द्वारा केशिनी (कैकसी) के गर्भ से राक्षसों के रूप में पैदा हुआ। उनका नाम था रावण और कुम्भकर्ण। उनके उत्पातों से सब लोकों में आग-सी लग गयी थी। उस समय भी भगवान् ने उन्हें शाप से छुड़ाने के लिये रामरूप से उनका वध किया। युधिष्ठिर! मार्कण्डेय मुनि के मुख से तुम भगवान् श्रीराम का चरित्र सुनोगे। वे ही दोनों जय-विजय इस जन्म में तुम्हारी मौसी के लड़के शिशुपाल और दन्तवक्त्र के रूप में क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए थे। भगवान् श्रीकृष्ण के चक्र का स्पर्श प्राप्त हो जाने से उनके सारे पाप नष्ट हो गये और वे सनकादि के शाप से मुक्त हो गये। वैरभाव के कारण निरन्तर ही वे भगवान् श्रीकृष्ण का चिन्तन किया करते थे। उसी तीव्र तन्मयता के फलस्वरूप वे भगवान् को प्राप्त हो गये और पुनः उनके पार्षद होकर उन्हीं के समीप चले गये।

युधिष्ठिर जी ने पूछा ;- भगवन्! हिरण्यकशिपु ने अपने स्नेहभाजन पुत्र प्रह्लाद से इतना द्वेष क्यों किया? फिर प्रह्लाद तो महात्मा थे। साथ ही यह भी बतलाइये कि किस साधन से प्रह्लाद भगवन्मय हो गये।

                           {सप्तम स्कन्ध:}

                      【द्वितीय अध्याय:】२.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"हिरण्याक्ष का वध होने पर हिरण्यकशिपु का अपनी माता और कुटुम्बियों को समझाना"
नारद जी ने कहा ;- युधिष्ठिर! जब भगवान् ने वराहावतार धारण करके हिरण्याक्ष को मार डाला, तब भाई के इस प्रकार मारे जाने पर हिरण्यकशिपु रोष से जल-भुन गया और शोक से सन्तप्त हो उठा। वह क्रोध से काँपता हुआ अपने दाँतों से बार-बार होठ चबाने लगा। क्रोध से दहकती हुई आँखों की आग के धुएँ से धूमिल हुए आकाश की ओर देखता हुआ वह कहने लगा।

उस समय विकराल दाढ़ों, आग उगलने वाली उग्र दृष्टि और चढ़ी हुई भौंहों के कारण उसका मुँह देखा न जाता था। भरी सभा में त्रिशूल उठाकर उसने द्विमूर्धा, त्र्यक्ष, शम्बर, शतबाहु, हयग्रीव, नमुचि, पाक, इल्वल, विप्रचित्ति, पुलोमा और शकुन आदि को सम्बोधन करके कहा- ‘दैत्यों और दानवों! तुम सब लोग मेरी बात सुनो और उसके बाद जैसे मैं कहता हूँ, वैसे करो। तुम्हें यह ज्ञात है कि मेरे क्षुद्र शत्रुओं ने मेरे परम प्यारे और हितैषी भाई को विष्णु से मरवा डाला है। यद्यपि वह देवता और दैत्य दोनों के प्रति समान है, तथापि दौड़-धूप और अनुनय-विनय करके देवताओं ने उसे अपने पक्ष में कर लिया है। यह विष्णु पहले तो बड़ा शुद्ध और निष्पक्ष था, परन्तु अब माया से वराह आदि रूप धारण करने लगा है और अपने स्वभाव से च्युत हो गया है। बच्चे की तरह जो उसकी सेवा करे, उसी की ओर हो जाता है। उसका चित्त स्थिर नहीं है। अब मैं अपने इस शूल से उसका गला काट डालूँगा और उसके खून की धारा से अपने रुधिरप्रेमी भाई का तर्पण करूँगा। तब कहीं मेरे हृदय की पीड़ा शान्त होगी। उस मायावी शत्रु के नष्ट होने पर, पेड़ की जड़ कट जाने पर डालियों की तरह सब देवता अपने-आप सूख जायेंगे। क्योंकि उनका जीवन तो विष्णु ही है।

इसलिये तुम लोग इसी समय पृथ्वी पर जाओ। आजकल वहाँ ब्राह्मण और क्षत्रियों की बहुत बढ़ती हो गयी है। वहाँ जो लोग तपस्या, यज्ञ, स्वाध्याय, व्रत और दानादि शुभ कर्म कर रहे हों, उन सबको मार डालो। विष्णु की जड़ है द्विजातियों का धर्म-कर्म; क्योंकि यज्ञ और धर्म ही उसके स्वरूप हैं। देवता, ऋषि, पितर, समस्त प्राणी और धर्म का वही परम आश्रय है। जहाँ-तहाँ ब्राह्मण, गाय, वेद, वर्णाश्रम और धर्म-कर्म हों, उन-उन देशों में तुम लोग जाओ, उन्हें जला दो, उजाड़ डालो’।

दैत्य तो स्वभाव से ही लोगों को सताकर सुखी होते हैं। दैत्यराज हिरण्यकशिपु की आज्ञा उन्होंने बड़े आदर से सिर झुकाकर स्वीकार की और उसी के अनुसार जनता का नाश करने लगे। उन्होंने नगर, गाँव, गौओं के रहने के स्थान, बगीचे, खेत, टहलने के स्थान, ऋषियों के आश्रम, रत्न आदि की खानें, किसानों की बस्तियाँ, तराई के गाँव, अहीरों की बस्तियाँ और व्यापार के केन्द्र बड़े-बड़े नगर जला डाले। कुछ दैत्यों ने खोदने के शस्त्रों से बड़े-बड़े पुल, परकोटे और नगर के फाटकों को तोड़-फोड़ डाला तथा दूसरों ने कुल्हाड़ियों से फले-फूले, हरे-भरे पेड़ काट डाले। कुछ दैत्यों ने जलती हुई लकड़ियों से लोगों के घर जला दिये। इस प्रकार दैत्यों ने निरीह प्रजा का बड़ा उत्पीड़न किया। उस समय देवता लोग स्वर्ग छोड़कर छिपे रूप से पृथ्वी में विचरण करते थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद)

युधिष्ठिर! भाई की मृत्यु से हिरण्यकशिपु को बड़ा दुःख हुआ था। जब उसने उसकी अन्त्येष्टि क्रिया से छुट्टी पा ली, तब शकुनि, शम्बर, धृष्ट, भूतसन्तापन, वृक, कालनाभ, महानाभ, हरिश्मश्रु और उत्कच अपने इन भतीजों को सान्त्वना दी। उनकी माता रुषाभानु को और अपनी माता दिति को देश-काल के अनुसार मधुर वाणी से समझाते हुए कहा।

हिरण्यकशिपु ने कहा ;- मेरी प्यारी माँ, बहू और पुत्रो! तुम्हें वीर हिरण्याक्ष के लिये किसी प्रकार का शोक नहीं करना चाहिये। वीर पुरुष तो ऐसा चाहते ही हैं कि लड़ाई के मैदान में अपने शत्रु के सामने उसके दाँत खट्टे करके प्राण त्याग करें; वीरों के लिये ऐसी ही मृत्यु श्लाघनीय होती है। देवि! जैसे प्याऊ पर बहुत-से लोग इकट्ठे हो जाते हैं, परन्तु उनका मिलना-जुलना थोड़ी देर के लिये ही होता है-वैसे ही अपने कर्मों के फेर से दैववश जीव भी मिलते और बिछुड़ते हैं। वास्तव में आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, सर्वगत, सर्वज्ञ और देह-इन्द्रिय आदि से पृथक् है। वह अपनी अविद्या से ही देह आदि की सृष्टि करके भोगों के साधन सूक्ष्म शरीर को स्वीकार करता है। जैसे हिलते हुए पानी के साथ उसमें प्रतिबिम्बित होने वाले वृक्ष भी हिलते-से जान पड़ते हैं और घुमायी जाती हुई आँख के साथ सारी पृथ्वी ही घूमती-सी दिखायी देती है।

कल्याणी! वैसे ही विषयों के कारण मन भटकने लगता है और वास्तव में निर्विकार होने पर भी उसी के समान आत्मा भी भटकता हुआ-सा जान पड़ता है। उसका स्थूल और सूक्ष्म-शरीरों से कोई भी सम्बन्ध नहीं है, फिर भी वह सम्बन्धी-सा जान पड़ता है। सब प्रकार से शरीर रहित आत्मा को शरीर समझ लेना-यही तो अज्ञान है। इसी से प्रिय अथवा अप्रिय वस्तुओं का मिलना और बिछुड़ना होता है। इसी से कर्मों के साथ सम्बन्ध हो जाने के कारण संसार में भटकना पड़ता है। जन्म, मृत्यु, अनेकों प्रकार के शोक, अविवेक, चिन्ता और विवेक की विस्मृति-सबका कारण यह अज्ञान ही है। इस विषय में महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास मरे हुए मनुष्य के सम्बन्धियों के साथ यमराज की बातचीत है। तुम लोग ध्यान से उसे सुनो।

उशीनर देश में एक बड़ा यशस्वी राजा था। उसका नाम था सुयज्ञ। लड़ाई में शत्रुओं ने उसे मार डाला। उस समय उसके भाई-बन्धु उसे घेरकर बैठ गये। उसका जड़ाऊ कवच छिन्न-भिन्न हो गया था। गहने और मालाएँ तहस-नहस हो गयी थीं। बाणों की मार से कलेजा फट गया था। शरीर खून से लथपथ था। बाल बिखर गये थे। आँखें धँस गयी थीं। क्रोध के मारे दाँतों से उसके होठ दबे हुए थे। कमल के समान मुख धूल से ढक गया था। युद्ध में उसके शस्त्र और बाँहें कट गयी थीं। रानियों को दैववश अपने पतिदेव उशीनर नरेश की यह दशा देखकर बड़ा दुःख हुआ। वे ‘हा नाथ! हम अभागिनें तो बेमौत मारी गयीं।’ यों कहकर बार-बार जोर से छाती पीटती हुई अपने स्वामी के चरणों के पास गिर पड़ीं। वे जोर-जोर से इतना रोने लगीं कि उनके कुच-कुंकुम से मिलकर बहते हुए लाल-लाल आँसुओं से प्रियतम के पादपद्म पखार दिये। उनके केश और गहने इधर-उधर बिखर गये। वे करुण-क्रन्दन के साथ विलाप कर रही थीं, जिसे सुनकर मनुष्यों के हृदय में शोक का संचार हो जाता था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 33-43 का हिन्दी अनुवाद)

‘हाय! विधाता बड़ा क्रूर है। स्वामिन्! उसी ने आज आपको हमारी आँखों से ओझल कर दिया। पहले तो आप समस्त देशवासियों के जीवनदाता थे। आज उसी ने आपको ऐसा बना दिया कि आप हमारा शोक बढ़ा रहे हैं।

पतिदेव! आप हमसे बड़ा प्रेम करते थे, हमारी थोड़ी-सी सेवा को भी बड़ी करके मानते थे। हाय! अब आपके बिना हम कैसे रह सकेंगी। हम आपके चरणों की चेरी हैं। वीरवर! आप जहाँ जा रहे हैं, वहीं चलने की हमें भी आज्ञा दीजिये’। वे अपने पति की लाश पकड़कर इसी प्रकार विलाप करती रहीं। उस मुर्दे को वहाँ से दाह के लिये जाने देने की उनकी इच्छा नहीं होती थी। इतने में ही सूर्यास्त हो गया। उस समय उशीनर राजा के सम्बन्धियों ने जो विलाप किया था, उसे सुनकर वहाँ स्वयं यमराज बालक के वेष में आये और उन्होंने उन लोगों से कहा।

यमराज ने कहा ;- बड़े आश्चर्य की बात है। ये लोग तो मुझसे सयाने हैं। बराबर लोगों का मरना-जीना देखते हैं, फिर भी इतने मूढ़ हो रहे हैं। अरे! यह मनुष्य जहाँ से आया था, वहीं चला गया। इन लोगों को भी एक-न-एक दिन वहीं जाना है। फिर झूठमूठ ये लोग इतना शोक क्यों करते हैं? हम तो तुमसे लाख गुने अच्छे हैं, परम धन्य हैं; क्योंकि हमारे माँ-बाप ने हमें छोड़ दिया है। हमारे शरीर में पर्याप्त बल भी नहीं है, फिर भी हमें कोई चिन्ता नहीं है। भेड़िये आदि हिंसक जन्तु हमारा बाल भी बाँका नहीं कर पाते। जिसने गर्भ में रक्षा की थी, वही इस जीवन में भी हमारी रक्षा करता रहता है। देवियों! जो अविनाशी ईश्वर अपनी मौज से इस जगत् को बनाता है, रखता है और बिगाड़ देता है-उस प्रभु का यह एक खिलौना मात्र है। वह इस चराचर जगत् को दण्ड या पुरस्कार देने में समर्थ है। भाग्य अनुकूल हो तो रास्ते में गिरी हुई वस्तु भी ज्यों-की-त्यों पड़ी रहती है। परन्तु भाग्य के प्रतिकूल होने पर घर के भीतर तिजोरी में रखी हुई वस्तु भी खो जाती है। जीव बिना किसी सहारे के दैव की दयादृष्टि से जंगल में भी बहुत दिनों तक जीवित रहता है, परन्तु दैव के विपरीत होने पर घर में सुरक्षित रहने पर भी मर जाता है।
रानियों! सभी प्राणियों की मृत्यु अपने पूर्वजन्मों की कर्मवासना के अनुसार समय पर होती है और उसी के अनुसार उनका जन्म भी होता है। परन्तु आत्मा शरीर से अत्यन्त भिन्न है, इसलिये वह उसमें रहने पर भी उसके जन्म-मृत्यु आदि धर्मों से अछूता ही रहता है। जैसे मनुष्य अपने मकान को अपने से अलग और मिट्टी का समझता है, वैसे ही यह शरीर भी अलग और मिट्टी का है। मोहवश वह इसे अपना समझ बैठता है। जैसे बुलबुले आदि पानी के विकार, घड़े आदि मिट्टी के विकार और गहने आदि स्वर्ण के विकार समय पर बनते हैं, रूपान्तरित होते हैं तथा नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही इन्हीं तीनों के विकार से बना हुआ यह शरीर भी समय पर बन-बिगड़ जाता है।

जैसे काठ में रहने वाली व्यापक अग्नि स्पष्ट ही उससे अलग है, जैसे देह में रहने पर भी वायु का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है, जैसे आकाश सब जगह एक-सा रहने पर भी किसी के दोष-गुण से लिप्त नहीं होता-वैसे ही समस्त देहेन्द्रियों में रहने वाला और उनका आश्रय आत्मा भी उनसे अलग और निर्लिप्त है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 44-52 का हिन्दी अनुवाद)

मूर्खों! जिसके लिये तुम सब शोक कर रहे हो, वह सुयज्ञ नाम का शरीर तो तुम्हारे सामने पड़ा है। तुम लोग इसी को देखते थे। इसमें जो सुनने वाला और बोलने वाला था, वह तो कभी किसी को नहीं दिखायी पड़ता था। फिर आज भी नहीं दिखायी दे रहा है, तो शोक क्यों?

(तुम्हारी यह मान्यता कि ‘प्राण ही बोलने या सुनने वाला था, सो निकल गया’ मूर्खतापूर्ण है; क्योंकि सुषुप्ति के समय प्राण तो रहता है, पर न वह बोलता है न सुनता है।) शरीर में सब इन्द्रियों की चेष्टा का हेतुभूत जो महाप्राण है, वह प्रधान होने पर भी बोलने या सुनने वाला नहीं है; क्योंकि वह जड है। देह और इन्द्रियों के द्वारा सब पदार्थों का द्रष्टा जो आत्मा है, वह शरीर और प्राण दोनों से पृथक् है। यद्यपि वह परिच्छिन्न नहीं है, व्यापक है-फिर भी पंचभूत, इन्द्रिय और मन से युक्त नीचे-ऊँचे (देव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि) शरीरों को ग्रहण करता और अपने विवेक बल से मुक्त भी जो जाता है। वास्तव में वह इन सबसे अलग है। जब तक वह पाँच प्राण, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, बुद्धि और मन-इन सत्रह तत्त्वों से बने हुए लिंग शरीर से युक्त रहता है, तभी तक कर्मों से बँधा रहता है और इस बन्धन के कारण ही माया से होने वाले मोह और क्लेश बराबर उसके पीछे पड़े रहते हैं।

प्रकृति के गुणों और उनसे बनी हुई वस्तुओं को सत्य समझना अथवा कहना झूठमूठ का दुराग्रह है। मनोरथ के समय की कल्पित और स्वप्न के समय की दीख पड़ने वाली वस्तुओं के समान इन्द्रियों के द्वारा जो कुछ ग्रहण किया जाता है, सब मिथ्या है। इसलिये शरीर और आत्मा का तत्त्व जानने वाले पुरुष न तो अनित्य शरीर के लिये शोक करते हैं और न नित्य आत्मा के लिये ही। परन्तु ज्ञान की दृढ़ता न होने के कारण जो लोग शोक करते रहते हैं, उनका स्वभाव बदलना बहुत कठिन है।

किसी जंगल में एक बहेलिया रहता था। वह बहेलिया क्या था, विधाता ने मानो उसे पक्षियों के कालरूप में ही रच रखा था। जहाँ-कहीं भी वह जाल फैला देता और ललचाकर चिड़ियों को फँसा लेता। एक दिन उसने कुलिंग पक्षी के एक जोड़े को चारा चुगते देखा। उनमें से उस बहेलिये ने मादा पक्षी को तो शीघ्र ही फँसा लिया। कालवश वह जाल के फंदों में फँस गयी। नर पक्षी को अपनी मादा की विपत्ति को देखकर बड़ा दुःख हुआ। वह बेचारा उसे छुड़ा तो सकता न था, स्नेह से उस बेचारी के लिये विलाप करने लगा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 53-61 का हिन्दी अनुवाद)

उसने कहा ;- ‘यों तो विधाता सब कुछ कर सकता है। परन्तु है वह बड़ा निर्दयी। यह मेरी सहचरी एक तो स्त्री है, दूसरे मुझ अभागे के लिये शोक करती हुई बड़ी दीनता से छटपटा रही है। इसे लेकर वह करेगा क्या। उसकी मौज हो तो मुझे ले जाये। इसके बिना मैं अपना यह अधुरा विधुर जीवन, जो दीनता और दुःख से भरा हुआ है, लेकर क्या करूँगा। अभी मेरे अभागे बच्चों के पर भी नहीं जमे हैं। स्त्री के मर जाने पर उन मातृहीन बच्चों को मैं कैसे पालूँगा? ओह! घोंसले में वे अपनी माँ की बाट देख रहे होंगे’।

इस तरह वह पक्षी बहुत-सा विलाप करने लगा। आँसुओं के मारे उसका गला रूँध गया था। तब तक काल की प्रेरणा से पास ही छिपे हुए उसी बहेलिये ने ऐसा बाण मारा कि वह भी वहीं पर लोट गया। मूर्ख रानियों! तुम्हारी भी यही दशा होने वाली है। तुम्हें अपनी मृत्यु तो दीखती नहीं और इसके लिये रो-पीट रही हो। यदि तुम लोग सौ बरस तक इसी तरह शोकवश छाती पीटती रहो, तो भी अब तुम इसे नहीं पा सकोगी।

हिरण्यकशिपु ने कहा ;- उस छोटे से बालक की ऐसी ज्ञान पूर्ण बातें सुनकर सब-के-सब दंग रह गये। उशीनर-नरेश के भाई-बन्धु और स्त्रियों ने यह बात समझ ली कि समस्त संसार और इसके सुख-दुःख अनित्य एवं मिथ्या हैं। यमराज यह उपाख्यान सुनाकर वहीं अन्तर्धान हो गये। भाई-बन्धुओं ने भी सुयज्ञ की अन्त्येष्टि-क्रिया की। इसलिये तुम लोग भी अपने लिये या किसी दूसरे के लिये शोक मत करो। इस संसार में कौन अपना है और कौन अपने से भिन्न? क्या अपना है और क्या पराया? प्राणियों को अज्ञान के कारण ही यह अपने-पराये का दुराग्रह हो रहा है, इस भेद-बुद्धि का और कोई कारण नहीं है।

नारद जी ने कहा ;- युधिष्ठिर! अपनी पुत्रवधू के साथ दिति ने हिरण्यकशिपु की यह बात सुनकर उसी क्षण पुत्रशोक का त्याग कर दिया और अपना चित्त परमतत्त्वस्वरूप परमात्मा में लगा दिया।

                           {सप्तम स्कन्ध:}

                      【तृतीय अध्याय:】३.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"हिरण्यकशिपु की तपस्या और वर प्राप्ति"
नारद जी ने कहा ;- युधिष्ठिर! अब हिरण्यकशिपु ने यह विचार किया कि ‘मैं अजेय, अजर, अमर और संसार का एकछत्र सम्राट् बन जाऊँ, जिससे कोई मेरे सामने खड़ा तक न हो सके।’ इसके लिये वह मन्दराचल की एक घाटी में जाकर अत्यन्त दारुण तपस्या करने लगा। वहाँ हाथ ऊपर उठाकर आकाश की ओर देखता हुआ वह पैर के अँगूठे के बल पृथ्वी पर खड़ा हो गया। उसकी जटाएँ ऐसी चमक रही थीं, जैसे प्रलयकाल के सूर्य की किरणें। जब वह इस प्रकार तपस्या में संलग्न हो गया, तब देवता लोग अपने-अपने स्थानों और पदों पर पुनः प्रतिष्ठित हो गये।

बहुत दिनों तक तपस्या करने के बाद उसकी तपस्या की आग धूएँ के साथ सिर से निकलने लगी। वह चारों ओर फैल गयी और ऊपर-नीचे तथा अगल-बगल के लोकों को जलाने लगी। उसकी लपट से नदी और समुद्र खौलने लगे। द्वीप और पर्वतों के सहित पृथ्वी डगमगाने लगी। ग्रह और तारे टूट-टूटकर गिरने लगे तथा दसों-दिशाओं में मानो आग लग गयी। हिरण्यकशिपु की उस तमोमयी आग की लपटों से स्वर्ग के देवता भी जलने लगे। वे घबराकर स्वर्ग से ब्रह्मलोक में गये और ब्रह्मा जी से प्रार्थना करने लगे- ‘हे देवताओं के भी आराध्यदेव जगत्पति ब्रह्मा जी! हम लोग हिरण्यकशिपु के तप की ज्वाला से जल रहे हैं। अब हम स्वर्ग में नहीं रह सकते। हे अनन्त! हे सर्वाध्यक्ष! यदि आप उचित समझें तो अपनी सेवा करने वाली जनता का नाश होने के पहले ही यह ज्वाला शान्त कर दीजिये। भगवन्! आप सब कुछ जानते ही हैं, फिर भी हम अपनी ओर से आपसे यह निवेदन कर देते हैं कि वह किस अभिप्राय से यह घोर तपस्या कर रहा है।

सुनिये, उसका विचार है कि ‘जैसे ब्रह्मा जी अपनी तपस्या और योग के प्रभाव से इस चराचर जगत् की सृष्टि करके सब लोकों से ऊपर सत्यलोक में विराजते हैं, वैसे ही मैं भी अपनी उग्र तपस्या और योग के प्रभाव से वही पद और स्थान प्राप्त कर लूँगा। क्योंकि समय असीम है और आत्मा नित्य है। एक जन्म में नहीं, अनेक जन्म; एक युग में न सही, अनेक युगों में। अपनी तपस्या की शक्ति से मैं पाप-पुण्यादि के नियमों को पलटकर इस संसार में ऐसा उलट-फेर कर दूँगा, जैसा पहले कभी नहीं था। वैष्णवादि पदों में तो रखा ही क्या है। क्योंकि कल्प के अन्त में उन्हें भी काल के गाल में चला जाना पड़ता है।’ हमने सुना है कि ऐसा हठ करके ही वह घोर तपस्या में जुटा हुआ है। आप तीनों लोकों के स्वामी हैं। अब आप जो उचित समझें, वही करें।

ब्रह्मा जी! आपका यह सर्वश्रेष्ठ परमेष्ठि-पद ब्राह्मण एवं गौओं की वृद्धि, कल्याण, विभूति, कुशल और विजय के लिये है। (यदि यह हिरण्यकशिपु के हाथ में चला गया, तो सज्जनों पर संकटों का पहाड़ टूट पड़ेगा)।’

युधिष्ठिर! जब देवताओं ने भगवान् ब्रह्मा जी से इस प्रकार निवेदन किया, तब वे भृगु और दक्ष आदि प्रजापतियों के साथ हिरण्यकशिपु के आश्रम पर गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद)

वहाँ जाने पर पहले तो वे उसे देख ही न सके; क्योंकि दीमक की मिट्टी, घास और बाँसों से उसका शरीर ढक गया था। चीटियाँ उसकी मेदा, त्वचा, मांस और खून चाट गयी थीं। बादलों से ढके हुए सूर्य के समान वह अपनी तपस्या के तेज से लोकों को तपा रहा था। उसको देखकर ब्रह्मा जी भी विस्मित हो गये। उन्होंने हँसते हुए कहा।

ब्रह्मा जी ने कहा ;- बेटा हिरण्यकशिपु! उठो, उठो। तुम्हारा कल्याण हो। कश्यपनन्दन! अब तुम्हारी तपस्या सिद्ध हो गयी। मैं तुम्हें वर देने के लिये आया हूँ। तुम्हारी जो इच्छा हो, बेखट के माँग लो। मैंने तुम्हारे हृदय का अद्भुत बल देखा। अरे, डाँसों ने तुम्हारी देह खा डाली है। फिर भी तुम्हारे प्राण हड्डियों के सहारे टिके हुए हैं। ऐसी कठिन तपस्या न तो पहले किसी ऋषि ने की थी और न आगे ही कोई करेगा। भला ऐसा कौन है जो देवताओं के सौ वर्ष तक बिना पानी के जीता रहे।

बेटा हिरण्यकशिपु! तुम्हारा यह काम बड़े-बड़े धीर पुरुष भी कठिनता से कर सकते हैं। तुमने इस तपोनिष्ठा से मुझे अपने वश में कर लिया है। दैत्यशिरोमणे! इसी से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें जो कुछ मांगो, दिये देता हूँ। तुम हो मरने वाले और मैं हूँ अमर! अतः तुम्हें मेरा यह दर्शन निष्फल नहीं हो सकता।

नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! इतना कहकर ब्रह्मा जी ने उसके चींटियों से खाये हुए शरीर पर अपने कमण्डलु का दिव्य एवं अमोघ प्रभावशाली जल छिड़क दिया। जैसे लकड़ी के ढेर में से आग जल उठे, वैसे ही वह जल छिड़कते ही बाँस और दीमकों की मिट्टी के बीच से उठ खड़ा हुआ। उस समय उसका शरीर सब अवयवों से पूर्ण एवं बलवान् हो गया था, इन्द्रियों में शक्ति आ गयी थी और मन सचेत हो गया था। सारे अंग वज्र के समान कठोर एवं तपाये हुए सोने की तरह चमकीले हो गये थे। वह नवयुवक होकर उठ खड़ा हुआ। उसने देखा कि आकाश में हंस पर चढ़े हुए ब्रह्मा जी खड़े हैं। उन्हें देखकर उसे बड़ा आनन्द हुआ। अपना सिर पृथ्वी पर रखकर उसने उनको नमस्कार किया। फिर अंजलि बाँधकर नम्रभाव से खड़ा हुआ और बड़े प्रेम से अपने निर्निमेष नयनों से उन्हें देखता हुआ गद्गद वाणी से स्तुति करने लगा। उस समय उसके नेत्रों में आनन्द के आँसू उमड़ रहे थे और सारा शरीर पुलकित हो रहा था।

हिरण्यकशिपु ने कहा ;- कल्प के अन्त में यह सारी सृष्टि काल के द्वारा प्रेरित तमोगुण से, घने अन्धकार से ढक गयी थी। उस समय स्वयंप्रकाशस्वरूप आपने अपने तेज से पुनः इसे प्रकट किया। आप ही अपने त्रिगुणमयरूप से इसकी रचना, रक्षा और संहार करते हैं। आप रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण के आश्रय हैं। आप ही सबसे परे और महान् हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आप ही जगत् के मूल कारण हैं। ज्ञान और विज्ञान आपकी मूर्ति हैं। प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि विकारों के द्वारा आपने अपने को प्रकट किया है। आप मुख्य प्राण सूत्रात्मा के रूप से चराचर जगत् को अपने नियन्त्रण में रखते हैं। आप ही प्रजा के रक्षक भी हैं। भगवन्! चित्त, चेतना, मन और इन्द्रियों के स्वामी आप ही हैं। पंचभूत, शब्दादि विषय और उनके संस्कारों के रचयिता भी महत्तत्त्व के रूप में आप ही हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 30-38 का हिन्दी अनुवाद)

जो वेद होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा और उद्गाता-इन ऋत्विजों से होने वाले यज्ञ का प्रतिपादन करते हैं, वे आपके ही शरीर हैं। उन्हीं के द्वारा अग्निष्टोम आदि सात यज्ञों का आप विस्तार करते हैं। आप ही सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा हैं। क्योंकि आप अनादि, अनन्त, अपार, सर्वज्ञ और अन्तर्यामी हैं। आप ही काल हैं। आप प्रतिक्षण सावधान रहकर अपने क्षण, लव आदि विभागों के द्वारा लोगों की आयु क्षीण करते रहते हैं। फिर भी आप निर्विकार हैं। क्योंकि आप ज्ञानस्वरूप, परमेश्वर, अजन्मा, महान् और सम्पूर्ण जीवों के जीवनदाता अन्तरात्मा हैं।

प्रभो! कार्य, कारण, कल और अचल ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो आपसे भिन्न हो। समस्त विद्या और कलाएँ आपके शरीर हैं। आप त्रिगुणमयी माया से अतीत स्वयं ब्रह्म हैं। यह स्वर्णमय ब्रह्माण्ड आपके गर्भ में स्थित है। आप इसे अपने में से ही प्रकट करते हैं।

प्रभो! यह व्यक्त ब्रह्माण्ड आपका स्थूल शरीर है। इससे आप इन्द्रिय, प्राण और मन के विषयों का उपभोग करते हैं। किन्तु उस समय भी आप अपने परम ऐश्वर्यमय स्वरूप में ही स्थित रहते हैं। वस्तुतः आप पुराणपुरुष, स्थूल-सूक्ष्म से परे ब्रह्मस्वरूप ही हैं। आप अपने अनन्त और अव्यक्त स्वरूप से सारे जगत् में व्याप्त हैं। चेतन और अचेतन दोनों ही आपकी शक्तियाँ हैं। भगवन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

प्रभो! आप समस्त वरदाताओं में श्रेष्ठ हैं। यदि आप मुझे अभीष्ट वर देना चाहते हैं, तो ऐसा वर दीजिये कि आपके बनाये हुए किसी भी प्राणी से-चाहे वह मनुष्य हो या पशु, प्राणी हो या अप्राणी, देवता हो या दैत्य अथवा नागादि किसी से भी मेरी मृत्यु न हो। भीतर-बाहर, दिन में, रात्रि में, आपके बनाये प्राणियों के अतिरिक्त और भी किसी जीव से, अस्त्र-शस्त्र से, पृथ्वी या आकाश में-कहीं भी मेरी मृत्यु न हो। युद्ध में कोई मेरा सामना न कर सके। मैं समस्त प्राणियों का एकच्छत्र सम्राट् होऊँ। इन्द्रादि समस्त लोकपालों में जैसी आपकी महिमा है, वैसी ही मेरी भी हो। तपस्वियों और योगियों को जो अक्षय ऐश्वर्य प्राप्त है, वही मुझे भी दीजिये।

                           {सप्तम स्कन्ध:}

                      【चतुर्थ अध्याय:】४.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: अथ चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"हिरण्यकशिपु के अत्याचार और प्रह्लाद के गुणों का वर्णन"
नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! जब हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा जी से इस प्रकार के अत्यन्त दुर्लभ वर माँगे, तब उन्होंने उसकी तपस्या से प्रसन्न होने के कारण उसे वे वर दे दिये।

ब्रह्मा जी ने कहा ;- बेटा! तुम जो वर मुझसे माँग रहे हो, वे जीवों के लिये बहुत ही दुर्लभ हैं; परन्तु दुर्लभ होने पर भी मैं तम्हें वे सब वर दिये देता हूँ।

नारद जी कहते हैं ;- ब्रह्मा जी के वरदान कभी झूठे नहीं होते। वे समर्थ एवं भगवदरूप ही हैं। वरदान मिल जाने के बाद हिरण्यकशिपु ने उनकी पूजा की। तत्पश्चात् प्रजापतियों से अपनी स्तुति सुनते हुए वे अपने लोक को चले गये। ब्रह्मा जी से वर प्राप्त करने पर हिरण्यकशिपु का शरीर सुवर्ण के समान कान्तिमान् एवं हृष्ट-पुष्ट हो गया। वह अपने भाई की मृत्यु का स्मरण करके भगवान् से द्वेष करने लगा। उस महादैत्य ने समस्त दिशाओं, तीनों लोकों तथा देवता, असुर, नरपति, गन्धर्व, गरुड़, सर्प, सिद्ध, चारण, विद्याधर, ऋषि, पितरों के अधिपति, मनु, यक्ष, राक्षस, पिशाचराज, प्रेत, भूतपति एवं समस्त प्राणियों के राजाओं को जीतकर अपने वश में कर लिया। यहाँ तक कि उस विश्व-विजयी दैत्य ने लोकपालों की शक्ति और स्थान भी छीन लिये।

अब वह नन्दन वन आदि दिव्य उद्यानों के सौन्दर्य से युक्त स्वर्ग में ही रहने लगा था। स्वयं विश्वकर्मा का बनाया हुआ इन्द्र का भवन ही उसका निवासस्थान था। उस भवन में तीनों लोकों का सौन्दर्य मूर्तिमान् होकर निवास करता था। वह सब प्रकार की सम्पत्तियों से सम्पन्न था। उस महल में मूँगे की सीढ़ियाँ, पन्ने की गचें, स्फटिकमणि की दीवारें, वैदूर्यमणि के खंभे और माणिक की कुर्सियाँ थीं। रंग-बिरंगे चँदोवे तथा दूध के फेन के समान शय्याएँ, जिन पर मोतियों की झालरें लगी हुई थीं, शोभायमान हो रही थीं। सर्वांगसुन्दरी अप्सराएँ अपने नूपुरों से रुन-झुन ध्वनि करती हुई रत्नमय भूमि पर इधर-उधर टहला करती थीं और कहीं-कहीं उसमें अपना सुन्दर मुख देखने लगती थीं। उस महेन्द्र के महल में महाबली और महामनस्वी हिरण्यकशिपु सब लोकों को जीतकर, सबका एकच्छत्र सम्राट् बनकर बड़ी स्वतन्त्रता से विहार करने लगा। उसका शासन इतना कठोर था कि उससे भयभीत होकर देव-दानव उसके चरणों की वन्दना करते रहते थे।

युधिष्ठिर! वह उत्कट गन्ध वाली मदिरा पीकर मतवाला रहा करता था। उसकी आँखें लाल-लाल और चढ़ी हुई रहतीं। उस समय तपस्या, योग, शारीरिक और मानसिक बल का वह भंडार था। ब्रह्मा, विष्णु और महादेव के सिवा और सभी देवता अपने हाथों में भेंट ले-लेकर उसकी सेवा में लगे रहते। जब वह अपने पुरुषार्थ से इन्द्रासन पर बैठ गया, तब युधिष्ठिर! विश्वावसु, तुम्बुरु तथा हम सभी लोग उसके सामने गान करते थे। गन्धर्व, सिद्ध, ऋषिगण, विद्याधर और अप्सराएँ बार-बार उसकी स्तुति करती थीं।

युधिष्ठिर! वह इतना तेजस्वी था कि वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वाले पुरुष जो बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञ करते, उनके यज्ञों की आहुति वह स्वयं छीन लेता। पृथ्वी के सातों द्वीपों में उसका अखण्ड राज्य था। सभी जगह बिना ही जोते-बोये धरती से अन्न पैदा होता था। वह जो कुछ चाहता, अन्तरिक्ष से उसे मिल जाता तथा आकाश उसे भाँति-भाँति की आश्चर्यजनक वस्तुएँ दिखा-दिखाकर उसका मनोरंजन करता था।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद)

इसी प्रकार खारे पानी, सुरा, घृत, इक्षुरस, दधि, दुग्ध और मीठे पानी के समुद्र भी अपनी पत्नी नदियों के साथ तरंगों के द्वारा उसके पास रत्नराशि पहुँचाया करते थे। पर्वत अपनी घाटियों के रूप में उसके लिये खेलने का स्थान जुटाते और वृक्ष सब ऋतुओं में फूलते-फलते। वह अकेला ही सब लोकपालों के विभिन्न गुणों को धारण करता। इस प्रकार दिग्विजयी और एकच्छत्र सम्राट् होकर वह अपने को प्रिय लगने वाले विषयों का स्वच्छन्द उपभोग करने लगा। परन्तु इतने विषयों से भी उसकी तृप्ति न हो सकी। क्योंकि अन्ततः वह इन्द्रियों का दास ही तो था।

युधिष्ठिर! इस रूप में भी वह भगवान् का वही पार्षद है, जिसे सनकादिकों ने शाप दिया था। वह ऐश्वर्य के मद से मतवाला हो रहा था तथा घमंड में चूर होकर शास्त्रों की मर्यादा का उल्लंघन कर रहा था। देखते-ही-देखते उसके जीवन का बहुत-सा समय बीत गया। उसके कठोर शासन से सब लोक और लोकपाल घबरा गये। जब उन्हें और कहीं किसी का आश्रय न मिला, तब उन्होंने भगवान् की शरण ली। (उन्होंने मन-ही-मन कहा-) ‘जहाँ सर्वात्मा जगदीश्वर श्रीहरि निवास करते हैं और जिसे प्राप्त करके शान्त एवं निर्मल संन्यासी महात्मा फिर लौटते नहीं, भगवान् के उस परमधाम को हम नमस्कार करते हैं’। इस भाव से अपनी इन्द्रियों का संयम और मन को समाहित करके उन लोगों ने खाना-पीना और सोना छोड़ दिया तथा निर्मल हृदय से भगवान् की आराधना की।

एक दिन उन्हें मेघ के समान गम्भीर आकाशवाणी सुनायी पड़ी। उसकी ध्वनि से दिशाएँ गूँज उठीं। साधुओं को अभय देने वाली वह वाणी यों थी-‘श्रेष्ठ देवताओं! डरो मत। तुम सब लोगों का कल्याण हो। मेरे दर्शन से प्राणियों को परम कल्याण की प्राप्ति हो जाती है। इस नीच दैत्य की दुष्टता का मुझे पहले से ही पता है। मैं इसको मिटा दूँगा। अभी कुछ दिनों तक समय की प्रतीक्षा करो। कोई भी प्राणी जब देवता, वेद, गाय, ब्राह्मण, साधु, धर्म और मुझसे द्वेष करने लगता है, तब शीघ्र ही उसका विनाश हो जाता है। जब यह अपने वैरहीन, शान्त और महात्मा पुत्र प्रह्लाद से द्रोह करेगा-उसका अनिष्ट करना चाहेगा, तब वर के कारण शक्तिसम्पन्न होने पर भी इसे मैं अवश्य मार डालूँगा।’

नारद जी कहते हैं ;- सबके हृदय में ज्ञान का संचार करने वाले भगवान् ने जब देवताओं को यह आदेश दिया, तब वे उन्हें प्रणाम करके लौट आये। उनका सारा उद्वेग मिट गया और उन्हें ऐसा मालूम होने लगा कि हिरण्यकशिपु मर गया।

युधिष्ठिर! दैत्यराज हिरण्यकशिपु के बड़े ही विलक्षण चार पुत्र थे। उनमें प्रह्लाद यों तो सबसे छोटे थे, परन्तु गुणों में सबसे बड़े थे। वे बड़े संत सेवी थे। ब्राह्मण भक्त, सौम्य स्वभाव, सत्य प्रतिज्ञ एवं जितेन्द्रिय थे तथा समस्त प्राणियों के साथ अपने ही समान समता का बर्ताव करते और सबके एकमात्र प्रिय और सच्चे हितैषी थे। बड़े लोगों के चरणों में सेवक की तरह झुककर रहते थे। ग़रीबों पर पिता के समान स्नेह रखते थे। बराबरी वालों से भाई के समान प्रेम करते और गुरुजनों में भगवद्भाव रखते थे। विद्या, धन, सौन्दर्य और कुलीनता से सम्पन्न होने पर भी घमंड और हेकड़ी उन्हें छू तक नहीं गयी थी।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 33-46 का हिन्दी अनुवाद)

बड़े-बड़े दुःखों में भी वे तनिक भी घबराते न थे। लोक-परलोक के विषयों को उन्होंने देखा-सुना तो बहुत था, परन्तु वे उन्हें निःसार और असत्य समझते थे। इसलिये उनके मन में किसी भी वस्तु की लालसा न थी। इन्द्रिय, प्राण, शरीर और मन उनके वश में थे। उनके चित्त में कभी किसी पाकर की कामना नहीं उठती थी। जन्म से असुर होने पर भी उनमें आसुरी सम्पत्ति का लेश भी नहीं था। जैसे भगवन के गुण अनन्त हैं, वैसे ही प्रह्लाद के श्रेष्ठ गुणों की भी कोई सीमा नहीं है। महात्मा लोग सदा से उनका वर्णन करते और उन्हें अपनाते आये हैं। तथापि वे आज भी ज्यों-के-त्यों बने हुए हैं।

युधिष्ठिर! यों तो देवता उनके शत्रु हैं; परन्तु फिर भी भक्तों का चरित्र सुनने के लिये जब उन लोगों की सभा होती है, तब वे दूसरे भक्तों को प्रह्लाद के समान कहकर उनका सम्मान करते हैं। फिर आप-जैसे अजातशत्रु भगवद्भक्त उनका आदर करेंगे, इसमें तो सन्देह ही क्या है। उनकी महिमा का वर्णन करने के लिये अगणित गुणों के कहने-सुनने की आवश्यकता नहीं। केवल ही एक गुण भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में स्वाभाविक, जन्मजात प्रेम उनकी महिमा को प्रकट करने के लिये पर्याप्त है।

युधिष्ठिर! प्रह्लाद बचपन में ही खेल-कूद छोड़कर भगवान् के ध्यान में जडवत् तन्मय हो जाया करते। भगवान् श्रीकृष्ण के अनुग्रहरूप ग्रह ने उनके हृदय को इस प्रकार खींच लिया था कि उन्हें जगत् की कुछ सुध-बुध ही न रहती। उन्हें ऐसा जान पड़ता कि भगवान् मुझे अपनी गोद में लेकर आलिंगन कर रहे हैं। इसलिये उन्हें सोते-बैठते, खाते-पीते, चलते-फिरते और बातचीत करते समय भी इन बातों का ध्यान बिलकुल न रहता। कभी-कभी भगवान् मुझे छोड़कर चले गये, इस भावना में उनका हृदय इतना डूब जाता कि वे जोर-जोर से रोने लगते। कभी मन-ही-मन उन्हें अपने सामने पाकर आनन्दोद्रेक से ठठाकर हँसने लगते। कभी उनके ध्यान के मधुर आनन्द का अनुभव करके जोर से गाने लगते। वे कभी उत्सुक हो बेसुरा चिल्ला पड़ते। कभी-कभी लोक-लज्जा का त्याग करके प्रेम में छककर नाचने भी लगते थे। कभी-कभी उनकी लीला के चिन्तन में इतने तल्लीन हो जाते कि उन्हें अपनी याद ही न रहती, उन्हीं का अनुकरण करने लगते। कभी भीतर-ही-भीतर भगवान् का कोमल संस्पर्श अनुभव करके आनन्द में मग्न हो जाते और चुपचाप शान्त होकर बैठ रहते। उस समय उनका रोम-रोम पुलकित हो उठता। अधखुले नेत्र अविचल प्रेम और आनन्द के आँसुओं से भरे रहते। भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की यह भक्ति अकिंचन भगवत्प्रेमी महात्माओं के संग से ही प्राप्त होती है। इसके द्वारा वे स्वयं तो परमानन्द में मग्न रहते ही थे; जिन बेचारों का मन कुसंग के कारण अत्यन्त दीन-हीन हो रहा था, उन्हें भी बार-बार शान्ति प्रदान करते थे। युधिष्ठिर! प्रह्लाद भगवान् के परमप्रेमी भक्त, परम भाग्यवान् और ऊँची कोटि के महात्मा थे। हिरण्यकशिपु ऐसे साधुपुत्र को भी अपराधी बतलाकर उनका अनिष्ट करने की चेष्टा करने लगा।

युधिष्ठिर ने पूछा ;- नारद जी! आपका व्रत अखण्ड है। अब हम आपसे यह जानना चाहते हैं कि हिरण्यकशिपु ने पिता होकर भी ऐसे शुद्धहृदय महात्मा पुत्र से द्रोह क्यों किया। पिता तो स्वभाव से ही अपने पुत्रों से प्रेम करते हैं। यदि पुत्र कोई उलटा काम करता है, तो वे उसे शिक्षा देने के लिये ही डाँटते हैं, शत्रु की तरह वैर-विरोध तो नहीं करते। फिर प्रह्लाद जी-जैसे अनुकूल, शुद्ध हृदय एवं गुरुजनों में भगवद्भाव करने वाले पुत्रों से भला, कोई द्वेष कर ही कैसे सकता है। नारद जी! आप सब कुछ जानते हैं। हमें यह जानकर बड़ा कौतूहल हो रहा है कि पिता ने द्वेष के कारण पुत्र को मार डालना चाहा। आप कृपा करके मेरा यह कौतूहल शान्त कीजिये।

                           {सप्तम स्कन्ध:}

                      【पंचम अध्याय:】५.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"हिरण्यकशिपु के द्वारा प्रह्लाद के वध का प्रयत्न"
नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! दैत्यों ने भगवान् श्रीशुक्राचार्य जी को अपना पुरोहित बनाया था। उनके दो पुत्र थे- शण्ड और अमर्क। वे दोनों राजमहल के पास ही रहकर हिरण्यकशिपु के द्वारा भेजे हुए नीति निपुण बालक प्रह्लाद को और दूसरे पढ़ाने योग्य दैत्य-बालकों को राजनीति, अर्थनीति आदि पढ़ाया करते थे। प्रह्लाद गुरु जी का पढ़ाया हुआ पाठ सुन लेते थे और उसे ज्यों-का-त्यों उन्हें सुना भी दिया करते थे। किन्तु वे उसे मन से अच्छा नहीं समझते थे। क्योंकि उस पाठ का मूल आधार था अपने और पराये का झूठा आग्रह।

युधिष्ठिर! एक दिन हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को बड़े प्रेम से गोद में लेकर पूछा- ‘बेटा! बताओ तो सही, तुम्हें कौन-सी बात अच्छी लगती है?'

प्रह्लाद जी ने कहा ;- "पिताजी! संसार के प्राणी ‘मैं’ और ‘मेरे’ के झूठे आग्रह में पड़कर सदा ही अत्यन्त उद्विग्न रहते हैं। ऐसे प्राणियों के लिये मैं यही ठीक समझता हूँ कि वे अपने अधःपतन के मूल कारण, घास से ढके हुए अँधेरे कुएँ के समान इस घर को छोड़कर वन में चले जायँ और भगवान् श्रीहरि की शरण ग्रहण करें।"

नारद जी कहते हैं ;- प्रह्लाद जी के मुँह से शत्रुपक्ष की प्रशंसा से भरी बात सुनकर हिरण्यकशिपु ठठाकर हँस पड़ा। उसने कहा- ‘दूसरों के बहकाने से बच्चों की बुद्धि यों ही बिगड़ जाया करती है। जान पड़ता है गुरु जी एक घर पर विष्णु के पक्षपाती कुछ ब्राह्मण वेष बदलकर रहते हैं। बालक की भलीभाँति देख-रेख की जाये, जिससे अब इसकी बुद्धि बहकने ने पाये।'

जब दैत्यों ने प्रह्लाद को गुरु जी के घर पहुँचा दिया, तब पुरोहितों ने उनको बहुत पुचकारकर और फुसलाकर बड़ी वाणी से पूछा- 'बेटा प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो। ठीक-ठीक बतलाना। देखो, झूठ न बोलना। यह तुम्हारी बुद्धि उलटी कैसे हो गयी? और किसी बालक की बुद्धि तो ऐसी नहीं हुई। कुलनन्दन प्रह्लाद! बताओ तो बेटा! हम तुम्हारे गुरुजन यह जानना चाहते हैं कि तुम्हारी बुद्धि स्वयं ऐसी हो गयी या किसी ने सचमुच तुमको बहका दिया है?'

प्रह्लाद ने कहा ;- "जिन मनुष्यों की बुद्धि मोह से ग्रस्त हो रही है, उन्हीं को भगवान् की माया से यह झूठा दुराग्रह होता देखा गया है कि यह ‘अपना’ है और यह ‘पराया’। उन मायापति भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ। वे भगवान् ही जब कृपा करते हैं, तब मनुष्यों की पाशविक बुद्धि नष्ट होती है। इस पशु बुद्धि के कारण ही तो ‘यह मैं हूँ और यह मुझसे भिन्न है’ इस प्रकार का झूठा भेदभाव पैदा होता है। वही परमात्मा यह आत्मा है। अज्ञानी लोग अपने और पराये का भेद करके उसी का वर्णन किया करते हैं। उनका न जानना भी ठीक ही है; क्योंकि उसके तत्त्व को जानना बहुत कठिन है और ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े वेदज्ञ भी उसके विषय में मोहित हो जाते हैं। वही परमात्मा आप लोगों के शब्दों में मेरी बुद्धि ‘बिगाड़’ रहा है। गुरुजी! जैसे चुम्बक के पास लोहा स्वयं खिंच आता है, वैसे ही चक्रपाणि भगवान् की स्वच्छन्द इच्छाशक्ति से मेरा चित्त भी संसार से अलग होकर उनकी ओर बरबस खिंच जाता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद)

नारद जी कहते हैं ;- परमज्ञानी प्रह्लाद अपन गुरु जी से इतना कहकर चुप हो गये। पुरोहित बेचारे राजा के सेवक एवं पराधीन थे। वे डर गये। उन्होंने क्रोध से प्रह्लाद को झिड़क दिया और कहा- ‘अरे, कोई मेरा बेंत तो लाओ। यह हमारी कीर्ति में कलंक लगा रहा है। इस दुर्बुद्धि कुलांगार को ठीक करने के लिये चौथा उपाय दण्ड ही उपयुक्त होगा। दैत्यवंश के चन्दनवन में यह काँटेदार बबूल कहाँ से पैदा हुआ? जो विष्णु इस वन की जड़ काटने में कुल्हाड़े का काम करते हैं, यह नादान बालक उन्हीं की बेंट बन रहा है; सहायक हो रहा है। इस प्रकार गुरु जी ने तरह-तरह से डाँट-डपटकर प्रह्लाद को धमकाया और अर्थ, धर्म एवं काम सम्बन्धी शिक्षा दी।

कुछ समय के बाद जब गुरु जी ने देखा कि प्रह्लाद ने साम, दान, भेद और दण्ड के सम्बन्ध की सारी बातें जान ली हैं, तब वे उन्हें उनकी मा के पास ले गये। माता ने बड़े लाड़-प्यार से उन्हें नहला-धुलाकर अच्छी तरह गहने कपड़ों से सजा दिया। इसके बाद वे उन्हें हिरण्यकशिपु के पास ले गये। प्रह्लाद अपने पिता में चरणों में लोट गये। हिरण्यकशिपु ने उन्हें आशीर्वाद दिया और दोनों हाथों से उठाकर बहुत देर तक गले से लगाये रखा। उस समय दैत्यराज का हृदय आनन्द से भर रहा था।

युधिष्ठिर! हिरण्यकशिपु ने प्रसन्नमुख प्रह्लाद को अपनी गोद में बैठाकर उनका सिर सूँघा। उनके नेत्रों से प्रेम के आँसूं गिर-गिरकर प्रह्लाद के शरीर को भिगोने लगे। उसने अपने पुत्र से पूछा।

हिरण्यकशिपु ने कहा ;- चिरंजीव बेटा प्रह्लाद! इतने दिनों में तुमने गुरु जी से जो शिक्षा प्राप्त की है, उसमें से कोई अच्छी-सी बात हमें सुनाओ।

प्रह्लाद जी ने कहा ;- "पिताजी! विष्णु भगवान् की भक्ति के नौ भेद हैं- भगवान् के गुण-लीला-नाम आदि का श्रवण, उन्हीं का कीर्तन, उनके रूप-नाम आदि का स्मरण, उनके चरणों की सेवा, पूजा-अर्चा, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन। यदि भगवान् के प्रति समर्पण के भाव से यह नौ प्रकार की भक्ति की जाये, तो मैं उसी को उत्तम अध्ययन समझता हूँ।"

प्रह्लाद की यह बात सुनते ही क्रोध के मारे हिरण्यकशिपु के ओठ फड़कने लगे। उसने गुरुपुत्र से कहा- 'रे नीच ब्राह्मण! यह तेरी कैसी करतूत है; दुर्बुद्धि! तूने मेरी कुछ भी परवाह न करके इस बच्चे को कैसी निस्सार शिक्षा दे दी? अवश्य ही तू हमारे शत्रुओं के आश्रित है। संसार में ऐसे दुष्टों की कमी नहीं है, जो मित्र का बाना धारण कर छिपे-छिपे शत्रु का काम करते हैं। परन्तु उनकी कलई ठीक वैसे ही खुल जाती है, जैसे छिपकर पाप करने वालों का पाप समय पर रोग के रूप में प्रकट होकर उनकी पोल खोल देता है।'

गुरुपुत्र ने कहा ;- 'इन्द्रशत्रो! आपका पुत्र जो कुछ कह रहा है, वह मेरे या और किसी के बहकाने से नहीं कह रहा है। राजन्! यह तो इसकी जन्मजात स्वाभाविक बुद्धि है। आप क्रोध शान्त कीजिये। व्यर्थ में हमें दोष न लगाइये।'

नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! जब गुरु जी ने ऐसा उत्तर दिया, तब हिरण्यकशिपु ने फिर प्रह्लाद से पूछा- ‘क्यों रे! यदि तुझे ऐसी अहित करने वाली खोटी बुद्धि गुरुमुख से नहीं मिली तो बता, कहाँ से प्राप्त हुई?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 30-41 का हिन्दी अनुवाद)

प्रह्लाद ने कहा ;- पिताजी! संसार के लोग तो पिसे हुए को पीस रहे हैं, चबाये हुए को चबा रहे हैं। उनकी इन्द्रियाँ वश में न होने के कारण वे भोगे हुए विषयों को ही फिर-फिर भोगने के लिये संसाररूप नरक की ओर जा रहे हैं। ऐसे गृहासक्त पुरुषों की बुद्धि अपने-आप किसी के सिखाने से अथवा अपने ही जैसे लोगों के संग से भगवान् श्रीकृष्ण में नहीं लगती। जो इन्द्रियों से दीखने वाले बाह्य विषयों को परम इष्ट समझकर मूर्खतावश अन्धों के पीछे अन्धों की तरह गड्ढ़े में गिरने के लिये चले जा रहे हैं और वेदवाणीरूप रस्सी के-काम्यकर्मों के दीर्घ बन्धन में बँधे हुए हैं, उनको यह बात मालूम नहीं कि हमारे स्वार्थ और परमार्थ भगवान् विष्णु ही हैं-उन्हीं की प्राप्ति से हमें सब पुरुषार्थों की प्राप्ति हो सकती है। जिनकी बुद्धि भगवान् के चरणकमलों का स्पर्श कर लेती है, उनके जन्म-मृत्युरूप अनर्थ का सर्वथा नाश हो जाता है। परन्तु जो लोग अकिंचन भगवत्प्रेमी महात्माओं के चरणों की धूल में स्नान नहीं कर लेते, उनकी बुद्धि काम्यकर्मों का पूरा सेवन करने पर भी भगवच्चरणों का स्पर्श नहीं कर सकती।

प्रह्लाद जी इतना कहकर चुप हो गये। हिरण्यकशिपु ने क्रोध के मारे अन्धा होकर उन्हें अपनी गोद से उठाकर भूमि पर पटक दिया। प्रह्लाद की बात को वह सह न सका। रोष के मारे उसके नेत्र लाल हो गये।
वह कहने लगा ;- ‘दैत्यों! इसे यहाँ से बाहर ले जाओ और तुरंत मार डालो। यह मार ही डालने योग्य है। देखो तो सही- जिसने इसके चाचा को मार डाला, अपने सुहृद्-स्वजनों को छोड़कर यह नीच दास के समान उसी विष्णु के चरणों की पूजा करता है। हो-न-हो, इसके रूप में मेरे भाई को मारने वाला विष्णु ही आ गया है। अब यह विश्वास के योग्य नहीं है। पाँच बरस की अवस्था में ही जिसने अपने माता-पिता के दुस्त्यज वात्सल्य स्नेह को भुला दिया- वह कृतघ्न भला विष्णु का ही क्या हित करेगा। कोई दूसरा भी यदि औषध के समान भलाई करे तो वह एक प्रकार से पुत्र ही है। पर यदि अपना पुत्र भी अहित करने लगे तो रोग के समान वह शत्रु है। अपने शरीर के ही किसी अंग से सारे शरीर को हानि होती हो तो उसको काट डालना चाहिये। क्योंकि उसे काट देने से शेष शरीर सुख से जी सकता है। यह स्वजन का बाना पहनकर मेरा कोई शत्रु ही आया है। जैसे योगी की भोग लोलुप इन्द्रियाँ उसका अनिष्ट करती हैं, वैसे ही यह मेरा अहित करने वाला है। इसलिये खाने, सोने, बैठने आदि के समय किसी भी उपाय से इसे मार डालो’।

जब हिरण्यकशिपु ने दैत्यों को इस प्रकार आज्ञा दी, तब तीखी दाढ़, विकराल वदन, लाल-लाल दाढ़ी-मूँछ एवं केशों वाले दैत्य हाथों में त्रिशूल ले-लेकर ‘मारो, काटो’- इस प्रकार बड़े जोर से चिल्लाने लगे। प्रह्लाद चुपचाप बैठे हुए थे और दैत्य उनके सभी मर्मस्थानों में शूल से घाव कर रहे थे। उस समय प्रह्लाद जी का चित्त उन परमात्मा में लगा हुआ था, जो मन-वाणी के अगोचर, सर्वात्मा, समस्त शक्तियों के आधार एवं परब्रह्म हैं। इसलिये उनके सारे प्रहार ठीक वैसे ही निष्फल हो गये, जैसे भाग्यहीनों के बड़े-बड़े उद्योग-धंधे व्यर्थ होते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 42-57 का हिन्दी अनुवाद)

युधिष्ठिर! जब शूलों की मार से प्रह्लाद के शरीर पर कोई असर नहीं हुआ, तब हिरण्यकशिपु को बड़ी शंका हुई। अब वह प्रह्लाद को मार डालने के लिये बड़े हठ से भाँति-भाँति के उपाय करने लगा। उसने उन्हें बड़े-बड़े मतवाले हाथियों से कुचलवाया, विषधर साँपों से डंसवाया, पुरोहितों से कृत्या राक्षसी उत्पन्न करायी, पहाड़ की चोटी से नीचे डलवा दिया, शम्बरासुर से अनेकों प्रकार की माया का प्रयोग करवाया, अँधेरी कोठरियों में बंद करा दिया, विष पिलाया और खाना बंद कर दिया। बर्फीली जगह, दहकती हुई आग और समुद्र में बारी-बार से डलवाया, आँधी में छोड़ दिया तथा पर्वतों के नीचे दबवा दिया; परन्तु इनमें से किसी भी उपाय से वह अपने पुत्र निष्पाप प्रह्लाद का बाल भी बाँका न कर सका। अपनी विवशता देखकर हिरण्यकशिपु को बड़ी चिन्ता हुई। उसे प्रह्लाद को मारने के लिये और कोई उपाय नहीं सूझ पड़ा। वह सोचने लगा- ‘इसे मैंने बहुत कुछ बुरा-भला कहा, मार डालने के बहुत-से उपाय किये। परन्तु यह मेरे द्रोह और दुर्व्यवहारों से बिना किसी की सहायता से अपने प्रभाव से ही बचता गया। यह बालक होने पर भी समझदार है और मेरे पास ही निःशंक भाव से रहता है। हो-न-हो इसमें कुछ सामर्थ्य अवश्य है। जैसे शुनः-शेप[1] अपने पिता की करतूतों से उसका विरोधी हो गया था, वैसे ही यह भी मेरे किये अपकारों को न भूलेगा। न तो यह किसी से डरता है और न इसकी मृत्यु ही होती है। इसकी शक्ति की थाह नहीं है। अवश्य ही इसके विरोध से मेरी मृत्यु होगी। सम्भव है, न भी हो’।

इस प्रकार सोच-विचार करते-करते उसका चेहरा कुछ उतर गया। शुक्राचार्य के पुत्र शण्ड और अमर्क ने जब देखा कि हिरण्यकशिपु तो मुँह लटकाकर बैठा हुआ है, तब उन्होंने एकान्त में जाकर उससे यह बात कही- ‘स्वामी! आपने अकेले ही तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली। आपके भौंहें टेढ़ी करने पर ही लोकपाल काँप उठते हैं। हमारे देखने में तो आपके लिये चिन्ता की कोई बात नहीं है। भला, बच्चों के खिलवाड़ में भी भलाई-बुराई सोचने की कोई बात है। जब तक हमारे पिता शुक्राचार्य जी नहीं आ जाते, तब तक यह डरकर कहीं भाग न जाये। इसलिये उसे वरुण पाशों से बाँध रखिये। प्रायः ऐसा होता है कि अवस्था की वृद्धि के साथ-साथ और गुरुजनों की सेवा से बुद्धि सुधर जाया करती है’।

हिरण्यकशिपु ने ‘अच्छा, ठीक है’ कहकर गुरुपुत्रों की सलाह मान ली और कहा कि ‘इसे उन धर्मों का उपदेश करना चाहिये, जिनका पालन गृहस्थ नरपति किया करते हैं’।

युधिष्ठिर! इसके बाद पुरोहित उन्हें लेकर पाठशाला में गये और क्रमशः धर्म, अर्थ और काम- इन तीन पुरुषार्थों की शिक्षा देने लगे। प्रह्लाद वहाँ अत्यन्त नम्र सेवक की भाँति रहते थे। परन्तु गुरुओं की वह शिक्षा प्रह्लाद को अच्छी न लगी। क्योंकि गुरु जी उन्हें केवल अर्थ, धर्म और काम की ही शिक्षा देते थे। यह शिक्षा केवल उन लोगों के लिये है, जो राग-द्वेष आदि द्वन्द और विषय भोगों में रस ले रहे हों।

एक दिन गुरु जी गृहस्थी के काम से कहीं बाहर चले गये थे। छुट्टी मिल जाने के कारण समवयस्क बालकों ने प्रह्लाद जी को खेलने के लिये पुकारा। प्रह्लाद जी परम ज्ञानी थे, उनका प्रेम देखकर उन्होंने उन बालकों को ही बड़ी मधुर वाणी से पुकारकर अपने पास बुला लिया। उनसे उनके जन्म-मरण की गति भी छिपी नहीं थी। उन पर कृपा करके हँसते हुए-से उन्हें उपदेश करने लगे। युधिष्ठिर! वे सब अभी बालक ही थे, इसलिये राग-द्वेषपरायण विषय भोगी पुरुषों के उपदेशों से और चेष्टाओं से उनकी बुद्धि अभी दूषित नहीं हुई थी। इसी से, और प्रह्लाद के प्रति आदर-बुद्धि होने से उन सबने अपनी खेल-कूद सामग्रियों को छोड़ दिया तथा प्रह्लाद जी के पास जाकर उनके चारों ओर बैठ गये और उनके उपदेश में मन लगाकर बड़े प्रेम से एकटक उनकी ओर देखने लगे। भगवान् के परमप्रेमी भक्त प्रह्लाद का हृदय उनके प्रति करुणा और मैत्री के भाव से भर गया तथा वे उनसे कहने लगे।

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