सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( षष्ठ स्कन्धः ) का ग्यारवाँ , बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँँ व पंद्रहवाँ अध्याय [ The Eleven, twelve, thirteenth, fourteenth and fifteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Sixth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( षष्ठ स्कन्धः ) का ग्यारवाँ , बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँँ व पंद्रहवाँ अध्याय [ The Eleven, twelve, thirteenth, fourteenth and fifteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Sixth wing) ]



                           {षष्ठ स्कन्ध:}

                      【एकादश अध्याय:】११.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"वृत्रासुर की वीरवाणी और भगवत्प्राप्ति"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! असुर सेना भयभीत होकर भाग रही थी। उसके सैनिक इतने अचेत हो रहे थे कि उन्होंने अपने स्वामी के धर्मानुकूल वचनों पर भी ध्यान न दिया। वृत्रासुर ने देखा कि समय की अनुकूलता के कारण देवता लोग असुरों की सेना को खदेड़ रहे हैं और वह इस प्रकार छिन्न-भिन्न हो रही है, मानो बिना नायक की हो।

राजन्! यह देखकर वृत्रासुर असहिष्णुता और क्रोध के मारे तिलमिला उठा। उसने बलपूर्वक देवसेना को आगे बढ़ने से रोक दिया और उन्हें डाँटकर ललकारते हुए कहा- ‘क्षुद्र देवताओं! रणभूमि में पीठ दिखलाने वाले कायर असुरों पर पीछे से प्रहार करने में क्या लाभ है। ये लोग तो अपने माँ-बाप के मल-मूत्र हैं। परन्तु अपने को शूरवीर मानने वाले तुम्हारे-जैसे पुरुषों के लिये भी तो डरपोकों को मारना कोई प्रशंसा की बात नहीं है और न इससे तुम्हें स्वर्ग ही मिल सकता है। यदि तुम्हारे मन में युद्ध करने की शक्ति और उत्साह है तथा अब जीवित रहकर विषय-सुख भोगने की लासला नहीं है, तो क्षण भर मेरे सामने डट जाओ और युद्ध का मजा चख लो’।

परीक्षित! वृत्रासुर बड़ा बली था। वह अपने डील-डौल से ही शत्रु देवताओं को भयभीत करने लगा। उसने क्रोध में भरकर इतने जोर का सिंहनाद किया कि बहुत-से लोग तो उसे सुनकर ही अचेत हो गये। वृत्रासुर की भयानक गर्जना से सब-के-सब देवता मुर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े, मानो उन पर बिजली गिर गयी हो। अब जैसे मदोन्मत्त गजराज नरकट का वन रौंद डालता है, वैसे ही रण बाँकुरा वृत्रासुर हाथ में त्रिशूल लेकर भय से नेत्र बंद किये पड़ी हुई देव सेना को पैरों से कुचलने लगा। उसके वेग से धरती डगमगाने लगी।

वज्रपाणि देवराज इन्द्र उसकी यह करतूत सह न सके। जब वह उनकी ओर झपटा, तब उन्होंने और भी चिढ़कर अपने शत्रु पर एक बहुत बड़ी गदा चलायी। अभी वह असह्य गदा वृत्रासुर के पास पहुँची भी न थी कि उसने खेल-ही खेल में बायें हाथ से उसे पकड़ लिया। राजन्! परमपराक्रमी वृत्रासुर ने क्रोध से आग-बबूला होकर उसी गदा से इन्द्र के वाहन ऐरावत के सिर पर बड़े जोर से गरजते हुए प्रहार किया। उसके इस कार्य की सभी लोग बड़ी प्रशंसा करने लगे। वृत्रासुर की गदा के आघात से ऐरावत हाथी वज्राहत पर्वत के समान तिलमिला उठा। सिर फट जाने से वह अत्यन्त व्याकुल हो गया और खून उगलता हुआ इन्द्र को लिये हुए अट्ठाईस हाथ पीछे हट गया। देवराज इन्द्र अपने वाहन ऐरावत के मुर्च्छित हो जाने से स्वयं भी विषादग्रस्त हो गये। यह देखकर युद्ध धर्म के मर्मज्ञ वृत्रासुर ने उनके ऊपर फिर से गदा नहीं चलायी। तब तक इन्द्र ने अपने अमृतस्रावी हाथ के स्पर्श से घायल ऐरावत की व्यथा मिटा दी और वे फिर रणभूमि में आ डटे।

परीक्षित! जब वृत्रासुर ने देखा कि मेरे भाई विश्वरूप का वध करने वाला शत्रु इन्द्र युद्ध के लिये हाथ में वज्र लेकर फिर सामने आ गया है, तब उसे उनके उस क्रूर पापकर्म का स्मरण हो आया और वह शोक और मोह से युक्त हो हँसता हुआ उनसे कहने लगा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 14-24 का हिन्दी अनुवाद)

वृत्रासुर बोला ;- आज मेरे लिये बड़े सौभाग्य का दिन है कि तुम्हारे-जैसा शत्रु-जिसने विश्वरूप के रूप में ब्राह्मण, अपने गुरु एवं मेरे भाई की हत्या की है-मेरे सामने खड़ा है। अरे दुष्ट! अब शीघ्र-से-शीघ्र मैं तेरे पत्थर के समान कठोर हृदय को अपने शूल से विदीर्ण करके भाई से उऋण होऊँगा। अहा! यह मेरे लिये कैसे आनन्द की बात होगी। इन्द्र! तूने मेरे आत्मवेत्ता और निष्पाप बड़े भाई के, जो ब्राह्मण होने के साथ ही यज्ञ में दीक्षित और तुम्हारा गुरु था, विश्वास दिलाकर तलवार से तीनों सिर उतार लिये-ठीक वैसे ही जैसे स्वर्गकामी निर्दय मनुष्य यज्ञ में पशु का सिर काट डालता है। दया, लज्जा, लक्ष्मी और कीर्ति तुझे छोड़ चुकी है। तूने ऐसे-ऐसे नीच कर्म किये हैं, जिनकी निन्दा मनुष्यों की तो बात ही क्या-राक्षस तक करते हैं। आज मेरे त्रिशूल से तेरा शरीर टूक-टूक हो जायेगा। बड़े कष्ट से तेरी मृत्यु होगी। तेरे-जैसे पापी को आग भी नहीं जलायेगी, तुझे तो गीध नोंच-नोंचकर खायेंगे। ये अज्ञानी देवता तेरे-जैसे नीच और क्रूर के अनुयायी बनकर मुझ पर शस्त्रों से प्रहार कर रहे हैं। मैं अपने तीखे त्रिशूल से उनकी गरदन काट डालूँगा और उनके द्वारा गुणों के सहित भैरवादि भूतनाथों को बलि चढ़ाऊँगा।

वीर इन्द्र! यह भी सम्भव है कि तू मेरी सेना को छिन्न-भिन्न करके अपने वज्र से मेरा सिर काट ले। तब तो मैं अपने शरीर की बलि पशु-पक्षियों को समर्पित करके, कर्म-बन्धन से मुक्त हो महापुरुषों की चरणरज का आश्रय ग्रहण करूँगा-जिस लोक में महापुरुषों जाते हैं, वहाँ पहुँच जाऊँगा। देवराज! मैं तेरे सामने खड़ा हूँ, तेरा शत्रु हूँ; अब तू मुझ पर अपना अमोघ वज्र क्यों नहीं छोड़ता? तू यह सन्देह न कर कि जैसे तेरी गदा निष्फल हो गयी, कृपण पुरुष से की हुई याचना के समान यह वज्र भी वैसे ही निष्फल हो जायेगा।

इन्द्र! तेरा यह वज्र श्रीहरि के तेज और दधीचि ऋषि की तपस्या से शक्तिमान् हो रहा है। विष्णु भगवान् ने मुझे मारने के लिये तुझे आज्ञा भी दी है। इसलिये अब तू उसी वज्र से मुझे मार डाल। क्योंकि जिस पक्ष में भगवान् श्रीहरि हैं, उधर ही विजय, लक्ष्मी और सारे गुण निवास करते हैं। देवराज! भगवान् संकर्षण के आज्ञानुसार मैं अपने मन को उनके चरणकमलों में लीन कर दूँगा। तेरे वज्र का वेग मुझे नहीं, मेरे विषय-भोगरूप फंदे को काट डालेगा और मैं शरीर त्यागकर मुनिजनोचित गति प्राप्त करूँगा। जो पुरुष भगवान् से अनन्य प्रेम करते हैं-उनके निजजन हैं-उन्हें वे स्वर्ग, पृथ्वी अथवा रसातल की सम्पत्तियाँ नहीं देते। क्योंकि उनसे परमानन्द की उपलब्धि होती ही नहीं; उलटे द्वेष, उद्वेग, अभिमान, मानसिक पीड़ा, कलह, दुःख और परिश्रम ही हाथ लगते हैं।

इन्द्र! हमारे स्वामी अपने भक्त के अर्थ, धर्म एवं काम सम्बन्धी प्रयास को व्यर्थ कर दिया करते हैं और सच पूछो तो इसी से भगवान् की कृपा का अनुमान होता है। क्योंकि उनका ऐसा कृपा-प्रसाद अकिंचन भक्तों के लिये ही अनुभवगम्य है, दूसरों के लिये तो अत्यन्त दुर्लभ ही है। (भगवान् को प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए वृत्रासुर ने प्रार्थना की-) ‘प्रभो! आप मुझ पर ऐसी कृपा कीजिये कि अनन्य भाव से आपके चरणकमलों के आश्रित सेवकों की सेवा करने का अवसर मुझे अगले जन्म में भी प्राप्त हो। प्राणवल्लभ! मेरा मन आपके मंगलमय गुणों का स्मरण करता रहे, मेरी वाणी उन्हीं का गान करे और शरीर आपकी सेवा में ही सलंग्न रहे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 25-27 का हिन्दी अनुवाद)

सर्वसौभाग्यनिधे! मैं आपको छोड़कर स्वर्ग, ब्रह्मलोक, भूमण्डल का साम्राज्य, रसातल का एकच्छत्र राज्य, योग की सिद्धियाँ-यहाँ तक कि मोक्ष भी नहीं चाहता।

जैसे पक्षियों के पंखहीन बच्चे अपनी माँ की बाट जोहते रहते हैं, जैसे भूखे बछड़े अपनी माँ का दूध पीने के लिये आतुर रहते हैं और जैसे वियोगिनी पत्नी अपने प्रवासी प्रियतम से मिलने के लिये उत्कण्ठित रहती है-वैसे ही कमलनयन! मेरा मन आपके दर्शन के लिये छटपटा रहा है।

प्रभो! मैं मुक्ति नहीं चाहता। मेरे कर्मों के फलस्वरूप मुझे बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में भटकना पड़े, इसकी परवा नहीं। परन्तु मैं जहाँ-जहाँ जाऊँ, जिस-जिस योनि में जन्मूँ, वहाँ-वहाँ भगवान् के प्यारे भक्तजनों से मेरी प्रेम-मैत्री बनी रहे।

स्वामिन्! मैं केवल यही चाहता हूँ कि जो लोग आपकी माया से देह-गेह और स्त्री-पुत्र आदि में आसक्त हो रहे हैं, उनके साथ मेरा कभी किसी प्रकार का भी सम्बन्ध न हो’।

                           {षष्ठ स्कन्ध:}

                      【द्वादश अध्याय:】१२.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"वृत्रासुर का वध"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! वृत्रासुर रणभूमि में अपना शरीर छोड़ना चाहता था, क्योंकि उसके विचार से इन्द्र पर विजय प्राप्त करके स्वर्ग पाने की अपेक्षा मरकर भगवान् को प्राप्त करना श्रेष्ठ था। इसलिये जैसे प्रलयकालीन जल में कैटभासुर भगवान् विष्णु पर चोट करने के लिये दौड़ा था, वैसे ही वह भी त्रिशूल उठाकर इन्द्र पर टूट पड़ा। वीर वृत्रासुर ने प्रलयकालीन अग्नि की लपटों के समान तीखी नोकों वाले त्रिशूल को घुमाकर बड़े वेग से इन्द्र पर चलाया और अत्यन्त क्रोध से सिंहनाद करके बोला- ‘पापी इन्द्र! अब तू बच नहीं सकता’।

इन्द्र ने यह देखकर कि वह भयंकर त्रिशूल ग्रह और उल्का के समान चक्कर काटता हुआ आकाश में आ रहा है, किसी प्रकार की अधीरता नहीं प्रकट की और उस त्रिशूल के साथ ही वासुकि नाग के समान वृत्रासुर की विशाल भुजा अपने सौ गाँठों वाले वज्र से काट डाली। एक बाँह कट जाने पर वृत्रासुर को बहुत क्रोध हुआ। उसने वज्रधारी इन्द्र के पास जाकर उनकी ठोड़ी में और गजराज ऐरावत पर परिघ से ऐसा प्रहार किया कि उनके हाथ से वह वज्र गिर पड़ा। वृत्रासुर के इस अत्यन्त अलौकिक कार्य को देखकर देवता, असुर, चारण, सिद्धगण आदि सभी प्रशंसा करने लगे। परन्तु इन्द्र का संकट देखकर वे ही लोग बार-बार ‘हाय-हाय!’ कहकर चिल्लाने लगे।

परीक्षित! वह वज्र इन्द्र के हाथ से छूटकर वृत्रासुर के पास ही जा पड़ा था। इसलिये लज्जित होकर इन्द्र ने उसे फिर नहीं उठाया। तब वृत्रासुर ने कहा- ‘इन्द्र! तुम वज्र उठाकर अपने शत्रु को मार डालो। यह विषाद करने का समय नहीं है। (देखो- ) सर्वज्ञ, सनातन, आदिपुरुष भगवान् ही जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करने में समर्थ हैं। उनके अतिरिक्त देहाभिमानी और युद्ध के लिये उत्सुक आततायियों को सर्वदा जय ही नहीं मिलती। वे कभी जीतते हैं तो कभी हारते हैं। ये सब लोक और लोकपाल जाल में फँसे हुए पक्षियों की भाँति जिसकी अधीनता में विवश होकर चेष्टा करते हैं, वह काल ही सबकी जय-पराजय का कारण है। वही काल मनुष्य के मनोबल, इन्द्रियबल, शरीरबल, प्राण जीवन और मृत्यु के रूप में स्थित है। मनुष्य उसे न जानकर जड़ शरीर को ही जय-पराजय आदि का कारण समझता है।

इन्द्र! जैसे काठ की पुतली और यन्त्र का हरिण नचाने वाले के हाथ में होते हैं, वैसे ही तुम समस्त प्राणियों को भगवान् के अधीन समझो। भगवान् के कृपा-प्रसाद के बिना पुरुष, प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार, पंचभूत, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण-चतुष्टय- ये कोई भी इस विश्व की उत्पत्ति आदि करने में समर्थ नहीं हो सकते। जिसे इस बात का पता नहीं है कि भगवान् ही सबका नियन्त्रण करते हैं, वही इस परतन्त्र जीव को स्वतन्त्र कर्ता-भोक्ता मान बैठता है। वस्तुतः स्वयं भगवान् ही प्राणियों के द्वारा प्राणियों की रचना और उन्हीं के द्वारा उनका संहार करते हैं। जिस प्रकार इच्छा न होने पर भी समय विपरीत होने से मनुष्य को मृत्यु और अपयश आदि प्राप्त होते हैं- वैसे ही समय की अनुकूलता होने पर इच्छा न होने पर भी उसे आयु, लक्ष्मी, यश और ऐश्वर्य आदि भोग भी मिल जाते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 14-26 का हिन्दी अनुवाद)

इसलिये यश-अपयश, जय-पराजय, सुख-दुःख, जीवन-मरण- इनमें से किसी एक की इच्छा-अनिच्छा न रखकर सभी परिस्थियों में समभाव से रहना चाहिये- हर्ष-शोक के वशीभूत नहीं होना चाहिये। सत्त्व, रज और तम- ये तीनों गुण प्रकृति के हैं, आत्मा के नहीं; अतः जो पुरुष आत्मा को उनका साक्षीमात्र जानता है, वह उनके गुण-दोष से लिप्त नहीं होता।

देवराज इन्द्र! मुझे भी तो देखो; तुमने मेरा हाथ और शस्त्र काटकर एक प्रकार से मुझे परास्त कर दिया है, फिर भी मैं तुम्हारे प्राण लेने के लिये यथाशक्ति प्रयत्न कर ही रहा हूँ। यह युद्ध क्या है, एक जुए का खेल। इसमें प्राण की बाजी लगती है, बाणों के पासे डाले जाते हैं और वाहन ही चौसर हैं। इसमें पहले से यह बात नहीं मालूम होती कि कौन जीतेगा कौन हारेगा।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! वृत्रासुर के ये सत्य एवं निष्कपट वचन सुनकर इन्द्र ने उनका आदर किया और अपना वज्र उठा लिया। इसके बाद बिना किसी प्रकार का आश्चर्य किये मुसकराते हुए वे कहने लगे।

देवराज इन्द्र ने कहा ;- अहो दानवराज! सचमुच तुम सिद्ध पुरुष हो। तभी तो तुम्हारा धैर्य, निश्चय और भगवद्भाव इतना विलक्षण है। तुमने समस्त प्राणियों के सुहृद् आत्मस्वरूप जगदीश्वर की अनन्यभाव से भक्ति की है। अवश्य ही तुम लोगों को मोहित करने वाली भगवान् की माया को पार कर गये हो। तभी तो तुम असुरोचित भाव छोड़कर महापुरुष हो गये हो। अवश्य ही यह बड़े आश्चर्य की बात है कि तुम रजोगुणी प्रकृति के हो तो भी विशुद्ध सत्त्वस्वरूप भगवान् वासुदेव में तुम्हारी बुद्धि दृढ़ता से लगी हुई है। जो परमकल्याण के स्वामी भगवान् श्रीहरि के चरणों में प्रेममय भक्तिभाव रखता है, उसे जगत् के भोगों की क्या आवश्यकता है। जो अमृत के समुद्र में विहार कर रहा है, उसे क्षुद्र गड्ढ़ों के जल से प्रयोजन ही क्या हो सकता है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इस प्रकार योद्धाओं में श्रेष्ठ महापराक्रमी देवराज इन्द्र और वृत्रासुर धर्म का तत्त्व जानने की अभिलाषा से एक-दूसरे के साथ बातचीत करते हुए आपस में युद्ध करने लगे।

राजन्! अब शत्रुसूदन वृत्रासुर ने बायें हाथ से फौलाद का बना हुआ एक बहुत भयावना परिघ उठाकर आकाश में घुमाया और उससे इन्द्र पर प्रहार किया। किन्तु देवराज इन्द्र ने वृत्रासुर का वह परिघ तथा हाथी की सूँड़ के समान लंबी भुजा अपने सौ गाँठों वाले वज्र से एक साथ ही काट गिरायी। जड़ से दोनों भुजाओं के कट जाने पर वृत्रासुर के बायें और दायें कंधों से खून की धारा बहने लगी। उस समय वह ऐसा जान पड़ा, मानो इन्द्र के वज्र की चोट से पंख कट जाने पर कोई पर्वत ही आकाश से गिरा हो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 27-35 का हिन्दी अनुवाद)

अब पैरों से चलने-फिरने वाले पर्वतराज के समान अत्यन्त दीर्घकाय वृत्रासुर ने अपनी ठोड़ी को धरती से और ऊपर के होठ को स्वर्ग से लगाया तथा आकाश के समन गहरे मुँह, साँप के समान भयावनी जीभ एवं मृत्यु के समान कराल दाढ़ों से मानो त्रिलोकी को निगलता, अपने पैरों की चोट से पृथ्वी को रौंदता और प्रबल वेग से पर्वतों को उलटता-पलटता वह इन्द्र के पास आया और उन्हें उनके वाहन ऐरावत हाथी के सहित इस प्रकार लील गया, जैसे कोई परम पराक्रमी और अत्यन्त बलवान् अजगर हाथी को निगल जाये।

प्रजापतियों और महर्षियों के साथ देवताओं ने जब देखा कि वृत्रासुर इन्द्र को निगल गया, तब तो वे अत्यन्त दुःखी हो गये तथा ‘हाय-हाय! बड़ा अनर्थ हो गया।’ यों कहकर विलाप करने लगे।

बल दैत्य का संहार करने वाले देवराज इन्द्र ने महापुरुष-विद्या (नारायण कवच) से अपने को सुरक्षित कर रखा था और उनके पास योगमाया का बल था ही। इसलिये वृत्रासुर के निगल लेने पर-उसके पेट में पहुँचकर भी वे मरे नहीं। उन्होंने अपने वज्र से उसकी कोख फाड़ डाली और उसके पेट से निकलकर बड़े वेग से उसका पर्वत-शिखर के समान ऊँचा सिर काट डाला। सूर्यादि ग्रहों की उत्तरायण-दक्षिणायनरूप गति में जितना समय लगता है, उतने दिनों में अर्थात् एक वर्ष में वृत्रवध का योग उपस्थित होने पर घूमते हुए उस तीव्र वेगशाली वज्र ने उसकी गरदन को सब ओर से काटकर भूमि पर गिरा दिया। उस समय आकाश में दुन्दुभियाँ बजने लगीं। महर्षियों के साथ गन्धर्व, सिद्ध आदि वृत्रघाती इन्द्र का पराक्रम सूचित करने वाले मन्त्रों से उनकी स्तुति करके बड़े आनन्द के साथ उन पर पुष्पों की वर्षा करने लगे।

शत्रुदमन परीक्षित! उस समय वृत्रासुर के शरीर से उसकी आत्मज्योति बाहर निकली और इन्द्र आदि सब लोगों के देखते-देखते सर्वलोकातीत भगवान् के स्वरूप में लीन हो गयी।

                           {षष्ठ स्कन्ध:}

                      【त्रयोदश अध्याय:】१३.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"इन्द्र पर ब्रह्महत्या का आक्रमण"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- महादानी परीक्षित! वृत्रासुर की मृत्यु से इन्द्र के अतिरिक्त तीनों लोक और लोकपाल तत्क्षण परम प्रसन्न हो गये। उनका भय, उनकी चिन्ता जाती रही। युद्ध समाप्त होने पर देवता, ऋषि, पितर, भूत, दैत्य और देवताओं के अनुचर गन्धर्व आदि इन्द्र से बिना पूछे ही अपने-अपने लोक को लौट गये। इसके पश्चात् ब्रह्मा, शंकर और इन्द्र आदि भी चले गये।

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! मैं देवराज इन्द्र की अप्रसन्नता का कारण सुनना चाहता हूँ। जब वृत्रासुर के वध से सभी देवता सुखी हुए, तब इन्द्र को दुःख होने का क्या कारण था?
श्रीशुकदेव जी ने कहा ;- परीक्षित! जब वृत्रासुर के पराक्रम से सभी देवता और ऋषि-महर्षि अत्यन्त भयभती हो गये, तब उन लोगों ने उसके वध के लिये इन्द्र से प्रार्थना की; परन्तु वे ब्रह्महत्या के भय से उसे मारना नहीं चाहते थे। देवराज इन्द्र ने उन लोगों से कहा- देवताओं और ऋषियों! मुझे विश्वरूप के वध से जो ब्रह्महत्या लगी थी, उसे तो स्त्री, पृथ्वी, जल और वृक्षों ने कृपा करके बाँट लिया। अब यदि मैं वृत्र का वध करूँ तो उसकी हत्या से मेरा छुटकारा कैसे होगा?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- देवराज इन्द्र की बात सुनकर ऋषियों ने उनसे कहा- ‘देवराज! तुम्हारा कल्याण हो, तुम तनिक भी भय मत करो। क्योंकि हम अश्वमेध यज्ञ कराकर तुम्हें सारे पापों से मुक्त कर देंगे। अश्वमेध यज्ञ के द्वारा सबके अन्तर्यामी सर्वशक्तिमान् परमात्मा नारायणदेव की आराधना करके तुम सम्पूर्ण जगत् का वध करने के पाप से भी मुक्त हो सकोगे; फिर वृत्रासुर के वध की तो बात ही क्या है। देवराज! भगवान् के नाम-कीर्तनमात्र से ही ब्राह्मण, पिता, गौ, माता, आचार्य आदि की हत्या करने वाले महापापी, कुत्ते का मांस खाने वाले चाण्डाल और कसाई भी शुद्ध हो जाते हैं। हम लोग ‘अश्वमेध’ नामक महायज्ञ का अनुष्ठान करेंगे। उसके द्वारा श्रद्धापूर्वक भगवान् की आराधना करके तुम ब्रह्मापर्यन्त समस्त चराचर जगत् की हत्या के भी पाप से लिप्त नहीं होगे। फिर इस दुष्ट को दण्ड देने के पाप से छूटने की तो बात ही क्या है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इस प्रकार ब्राह्मणों से प्रेरणा प्राप्त करके देवराज इन्द्र ने वृत्रासुर का वध किया था। अब उसके मारे जाने पर ब्रह्महत्या इन्द्र के पास आयी। उसके कारण इन्द्र को बड़ा क्लेश, बड़ी जलन सहनी पड़ी। उन्हें एक क्षण के लिए भी चैन नहीं पड़ता था। सच है, जब किसी संकोची सज्जन पर कलंक लग जाता है, तब उसके धैर्य आदि गुण भी उसे सुखी नहीं कर पाते। देवराज इन्द्र ने देखा कि ब्रह्महत्या साक्षात् चाण्डाली के समान उनके पीछे-पीछे दौड़ी आ रही है। बुढ़ापे के कारण उसके सारे अंग काँप रहे हैं और क्षय रोग उसे सता रहा है। उसके सारे वस्त्र खून से लथपथ हो रहे हैं। वह अपने सफ़ेद-सफ़ेद बालों को बिखेरे ‘ठहर जा! ठहर जा!’ इस प्रकार चिल्लाती आ रही है। उसके श्वास के साथ मछली की-सी दुर्गन्ध आ रही है, जिसके कारण मार्ग भी दूषित होता जा रहा है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 14-23 का हिन्दी अनुवाद)

राजन! देवराज इन्द्र उसके भय से दिशाओं और आकाश में भागते फिरे। अन्त में कहीं भी शरण न मिलने के कारण उन्होंने पूर्व और उत्तर कोने में स्थित मानसरोवर में शीघ्रता से प्रवेश किया। देवराज इन्द्र मानसरोवर के कमलनाल के तन्तुओं में एक हजार वर्षों तक छिपकर निवास करते रहे और सोचते रहे कि ब्रह्महत्या से मेरा छुटकारा कैसे होगा। इतने दिनों तक उन्हें भोजन के लिये किसी प्रकार की सामग्री न मिल सकी। क्योंकि वे अग्नि देवता के मुख से भोजन करते हैं और अग्नि देवता जल के भीतर कमल तन्तुओं में जा नहीं सकते थे।

जब तक देवराज इन्द्र कमलतन्तुओं में रहे, तब तक अपनी विद्या, तपस्या और योगबल के प्रभाव से राजा नहुष स्वर्ग का शासन करते रहे। परन्तु जब उन्होंने सम्पत्ति और ऐश्वर्य के मद से अंधे होकर इन्द्रपत्नी शची के साथ अनाचार करना चाहा, तब शची ने उनसे ऋषियों का अपराध करवाकर उन्हें शाप दिला दिया-जिससे वे साँप हो गये। तदनन्तर जब सत्य के परमपोषक भगवान का ध्यान करने से इन्द्र के पाप नष्टप्राय हो गये, तब ब्राह्मणों के बुलवाने पर वे पुनः स्वर्गलोक में गये। कमलवनविहारिणी विष्णुपत्नी लक्ष्मी जी इन्द्र की रक्षा कर रही थीं और पूर्वोक्त दिशा के अधिपति रुद्र ने पाप को पहले ही निस्तेज कर दिया था, जिससे वह इन्द्र पर आक्रमण नहीं कर सका।

परीक्षित! इन्द्र के स्वर्ग में आ जाने पर ब्रह्मर्षियों ने वहाँ आकर भगवान् की आराधना के लिये इन्द्र को अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा दी, उनसे अश्वमेध यज्ञ कराया। जब वेदवादी ऋषियों ने उनसे अश्वमेध यज्ञ कराया तथा देवराज इन्द्र ने उस यज्ञ के द्वारा सर्वदेवस्वरूप पुरुषोत्तम भगवान् की आराधना की, तब भगवान की आराधना के प्रभाव से वृत्रासुर के वध की वह बहुत बड़ी पाप राशि इस प्रकार भस्म हो गयी, जैसे सूर्योदय से कुहरे का नाश हो जाता है। जब मरीचि आदि मुनीश्वरों ने उनसे विधिपूर्वक अश्वमेध यज्ञ कराया, तब उसके द्वारा सनातन पुरुष यज्ञपति भगवान की आराधना करके इन्द्र सब पापों से छूट गये और पूर्ववत फिर पूजनीय हो गये।

परीक्षित! इस श्रेष्ठ आख्यान में इन्द्र की विजय, उनकी पापों से मुक्ति और भगवान के प्यारे भक्त वृत्रासुर का वर्णन हुआ है। इसमें तीर्थों को भी तीर्थ बनाने वाले भगवान् के अनुग्रह आदि गुणों का संकीर्तन है। यह सारे पापों को धो बहाता है और भक्ति को बढ़ाता है। बुद्धिमान् पुरुषों को चाहिये कि वे इस इन्द्र सम्बन्धी आख्यान को सदा-सर्वदा पढ़ें और सुनें। विशेषतः पर्वों के अवसर पर तो अवश्य ही इसका सेवन करें। यह धन और यश को बढ़ाता है, सारे पापों से छुड़ाता है, शत्रु पर विजय प्राप्त कराता है तथा आयु और मंगल की अभिवृद्धि करता है।

                           {षष्ठ स्कन्ध:}

                      【चतुर्दश अध्याय:】१४.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"वृत्रासुर का पूर्व चरित्र"
राजा परीक्षित ने कहा ;- भगवन्! वृत्रासुर का स्वभाव तो बड़ा रजोगुणी-तमोगुणी था। वह देवताओं को कष्ट पहुँचाकर पाप भी करता ही था। ऐसी स्थिति में भगवान् नारायण के चरणों में उसकी सुदृढ़ भक्ति कैसे हुई? हम देखते हैं, प्रायः शुद्ध सत्त्वमय देवता और पवित्रहृदय ऋषि भी भगवान् की परमप्रेममयी अनन्य भक्ति से वंचित ही रह जाते हैं। सचमुच भगवान् की भक्ति बड़ी दुर्लभ है।

भगवन्! इस जगत् के प्राणी पृथ्वी के धूलिकणों के समान ही असंख्य हैं। उसमें से कुछ मनुष्य आदि श्रेष्ठ जीव ही अपने कल्याण की चेष्टा करते हैं।

ब्रह्मन्! उसमें भी संसार से मुक्ति चाहने वाले तो बिरले ही होते हैं और मोक्ष चाहने वाले हजारों में मुक्ति या सिद्धि लाभ तो कोई-सा ही कर पाता है।

महामुने! करोड़ों सिद्ध एवं मुक्त पुरुषों में भी वैसे शान्तचित्त महापुरुष का मिलना तो बहुत ही कठिन है, जो एकमात्र भगवान् के ही परायण हो। ऐसी अवस्था में वह वृत्रासुर, जो सब लोगों को सताता था और बड़ा पापी था, उस भयंकर युद्ध के अवसर पर भगवान् श्रीकृष्ण में अपनी वृत्तियों को इस प्रकार दृढ़ता से लगा सका-इसका क्या कारण है? प्रभो! इस विषय में हमें बहुत अधिक सन्देह है और सुनने का बड़ा कौतूहल भी है। अहो, वृत्रासुर का बल-पौरुष कितना महान् था कि उसने रणभूमि में देवराज इन्द्र को भी सन्तुष्ट कर दिया।

सूत जी कहते हैं ;- शौनकादि ऋषियों! भगवान् शुकदेव जी ने परम श्रद्धालु राजर्षि परीक्षित का यह श्रेष्ठ प्रश्न सुनकर उनका अभिनन्दन करते हुए यह बात कही।

श्रीशुकदेव जी ने कहा ;- परीक्षित! तुम सावधान होकर यह इतिहास सुनो। मैंने इसे अपने पिता व्यास जी, देवर्षि नारद और महर्षि देवल के मुँह से भी विधिपूर्वक सुना है।

प्राचीन काल की बात है, शूरसेन देश में चक्रवर्ती सम्राट् महाराज चित्रकेतु राज्य करते थे। उनके राज्य में पृथ्वी स्वयं ही प्रजा के इच्छा के अनुसार अन्न-रस दे दिया करती थी। उनके एक करोड़ रानियाँ थीं और ये स्वयं सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ भी थे। परन्तु उन्हें उनमें से किसी के भी गर्भ से कोई सन्तान न हुई। यों महाराज चित्रकेतु को किसी बात की कमी न थी। सुन्दरता, उदारता, युवावस्था, कुलीनता, विद्या, ऐश्वर्य और सम्पत्ति आदि सभी गुणों से वे सम्पन्न थे। फिर भी उनकी पत्नियाँ बाँझ थीं, इसलिये उन्हें बड़ी चिन्ता रहती थी। वे सारी पृथ्वी के एकछत्र सम्राट् थे, बहुत-सी सुन्दरी रानियाँ थीं तथा सारी पृथ्वी उनके वश में थी। सब प्रकार की सम्पत्तियाँ उनकी सेवा में उपस्थित थीं, परन्तु वे सब वस्तुएँ उन्हें सुखी न कर सकीं।

एक दिन शाप और वरदान देने में समर्थ अंगिरा ऋषि स्वच्छन्द रूप से विभिन्न लोकों में विचरते हुए राजा चित्रकेतु के महल में पहुँच गये। राजा ने प्रत्युथान और अर्ध्य आदि से उनकी विधिपूर्वक पूजा की। आतिथ्य-सत्कार हो जाने के बाद जब अंगिरा ऋषि सुखपूर्वक आसन पर विराज गये, तब राजा चित्रकेतु भी शान्तभाव से उनके पास ही बैठ गये। महाराज! महर्षि अंगिरा ने देखा कि यह राजा बहुत विनयी है और मेरे पास पृथ्वी पर बैठकर मेरी भक्ति कर रहा है। तब उन्होंने चित्रकेतु को सम्बोधित करके उसे आदर देते हुए यह बात कही।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 17-30 का हिन्दी अनुवाद)

अंगिरा ऋषि ने कहा ;- राजन! तुम अपनी प्रकृतियों-गुरु, मन्त्री, राष्ट्र, दुर्ग, कोष, सेना और मित्र के साथ सकुशल तो हो न? जैसे जीव महत्तत्त्वादि सात आवरणों से घिरा रहता है, वैसे ही राजा भी इन सात प्रकृतियों से घिरा रहता है। उनके कुशल से ही राजा की कुशल है। नरेन्द्र! जिस प्रकार राजा अपनी उपर्युक्त प्रकृतियों के अनुकूल रहने पर ही राज्य सुख भोग सकता है, वैसे ही प्रकृतियाँ भी अपनी रक्षा का भार राजा पर छोड़कर सुख और समृद्धि लाभ कर सकती हैं।

राजन! तुम्हारी रानियाँ, प्रजा, मन्त्री (सलाहकार), सेवक, व्यापारी, अमात्य (दीवान), नागरिक, देशवासी, मण्डलेश्वर राजा और पुत्र तुम्हारे वश में तो हैं न? सच्ची बात तो यह है कि जिसका मन अपने वश में है, उसके ये सभी वश में होते हैं। इतना ही नहीं, सभी लोक और लोकपाल भी बड़ी सावधानी से उसे भेंट देकर उसकी प्रसन्नता चाहते हैं। परन्तु मैं देख रहा हूँ कि तुम स्वयं सतुष्ट नहीं हो। तुम्हारी कोई कामना अपूर्ण है। तुम्हारे मुँह पर किसी आन्तरिक चिन्ता के चिह्न झलक रहे हैं। तुम्हारे इस असन्तोष का कारण कोई और है या स्वयं तुम्हीं हो?

परीक्षित! महर्षि अंगिरा यह जानते थे कि राजा के मन में किस बात की चिन्ता है। फिर भी उन्होंने उनसे चिन्ता के सम्बन्ध में अनेकों प्रश्न पूछे। चित्रकेतु को सन्तान की कामना थी। अतः महर्षि के पूछने पर उन्होंने विनय से झुककर निवेदन किया।

सम्राट् चित्रकेतु ने कहा ;- भगवन्! जिन योगियों के तपस्या, ज्ञान, धारणा, ध्यान और समाधि के द्वारा सारे पाप नष्ट हो चुके हैं-उनके लिये प्राणियों के बाहर या भीतर की ऐसी कौन-सी बात है, जिसे वे न जानते हों। ऐसा होने पर भी जब आप सब कुछ जान-बूझकर मुझसे मेरे मन की चिन्ता पूछ रहे हैं, तब मैं आपकी आज्ञा और प्रेरणा से अपनी चिन्ता आपके चरणों में निवेदन करता हूँ। मुझे पृथ्वी का साम्राज्य, ऐश्वर्य और सम्पत्तियाँ, जिनके लिये लोकपाल भी लालायित रहते हैं, प्राप्त हैं। परन्तु सन्तान न होने के कारण मुझे इन सुख भोगों से उसी प्रकार तनिक भी शान्ति नहीं मिल रही है, जैसे भूखे-प्यासे प्राणी को अन्न-जल के सिवा दूसरे भोगों से। महाभाग्यवान् महर्षे! मैं तो दुःखी हूँ ही, पिण्डदान न मिलने की आशंका से मेरे पितर भी दुःखी हो रहे हैं। अब आप हमें सन्तान-दान करके परलोक में प्राप्त होने वाले घोर नरक से उबारिये और ऐसी व्यवस्था कीजिये कि मैं लोक-परलोक के सब दुःखों से छुटकारा पा लूँ।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब राजा चित्रकेतु ने इस प्रकार प्रार्थना की, तब सर्वसमर्थ एवं परमकृपालु ब्रह्मपुत्र भगवान् अंगिरा ने त्वष्टा देवता के योग्य चरु निर्माण करके उससे उनका यजन किया। परीक्षित! राजा चित्रकेतु की रानियों में सबसे बड़ी और सद्गुणवती महारानी कृतद्युति थीं। महर्षि अंगिरा ने उन्हीं को यज्ञ का अवशेष प्रसाद दिया और राजा चित्रकेतु से कहा- ‘राजन्! तुम्हारी पत्नी के गर्भ से एक पुत्र होगा, जो तुम्हें हर्ष और शोक दोनों ही देगा।’ यों कहकर अंगिरा ऋषि चले गये। उस यज्ञाशेष प्रसाद के खाने से ही महारानी कृतद्युति ने महाराज चित्रकेतु के द्वारा गर्भ धारण किया, जैसे कृत्तिका ने अपने गर्भ में अग्नि कुमार को धारण किया था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 31-45 का हिन्दी अनुवाद)

राजन्! शूरसेन देश के राजा चित्रकेतु के तेज से कृतद्युति का गर्भ शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा के समान दिनोंदिन क्रमशः बढ़ने लगा।

तदनन्तर समय आने पर महारानी कृतद्युति के गर्भ से एक सुन्दर पुत्र का जन्म हुआ। उसके जन्म का समाचार पाकर शूरसेन देश की प्रजा बहुत ही आनन्दित हुई। सम्राट् चित्रकेतु के आनन्द का तो कहना ही क्या था। वे स्नान करके पवित्र हुए। फिर उन्होंने वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हो, ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन कराकर और आशीर्वाद लेकर पुत्र का जातकर्म-संस्कार करवाया। उन्होंने उन ब्राह्मणों को सोना, चाँदी, वस्त्र, आभूषण, गाँव, घोड़े, हाथी और छः अर्बुद गौएँ दान कीं। उदारशिरोमणि राजा चित्रकेतु ने पुत्र के धन, यश और आयु की वृद्धि के लिये दूसरे लोगों को भी मुँहमाँगी वस्तुएँ दीं-ठीक उसी प्रकार जैसे मेघ सभी जीवों का मनोरथ पूर्ण करता है।

परीक्षित! जैसे यदि किसी कंगाल को बड़ी कठिनाई से कुछ धन मिल जाता है तो उसमें उसकी आसक्ति हो जाती है, वैसे ही बहुत कठिनाई से प्राप्त हुए उस पुत्र में राजर्षि चित्रकेतु का स्नेहबन्धन दिनोंदिन दृढ़ होने लगा। माता कृतद्युति को भी अपने पुत्र पर मोह के कारण बहुत ही स्नेह था। परन्तु उनकी सौत रानियों के मन में पुत्र की कामना से और भी जलन होने लगी। प्रतिदिन बालक का लाड़-प्यार करते रहने के कारण सम्राट् चित्रकेतु का जितना प्रेम बच्चे की माँ कृतद्युति में था, उतना दूसरी रानियों में न रहा। इस प्रकार एक तो वे रानियाँ सन्तान न होने के कारण ही दुःखी थीं, दूसरे राजा चित्रकेतु ने उनकी उपेक्षा कर दी। अतः वे डाह से अपने को धिक्कारने और मन-ही-मन जलने लगीं।

वे आपस में कहने लगीं ;- ‘अरी बहिनों! पुत्रहीन स्त्री बहुत ही अभागिनी होती है। पुत्र वाली सौतें तो दासी के समान उसका तिरस्कार करती हैं। और तो और, स्वयं पतिदेव ही उसे पत्नी करके नहीं मानते। सचमुच पुत्रहीन स्त्री धिक्कार के योग्य है। भला, दासियों को क्या दुःख है? वे तो अपने स्वामी की सेवा करके निरन्तर सम्मान पाती रहती हैं। परन्तु हम अभागिनी तो इस समय उनसे भी गयी-बीती हो रही हैं और दासियों की दासी के समान बार-बार तिरस्कार पा रही हैं।

परीक्षित! इस प्रकार वे रानियाँ अपनी सौत की गोद भरी देखकर जलती रहती थीं और राजा भी उनकी ओर से उदासीन हो गये थे। फलतः उनके मन में कृतद्युति के प्रति बहुत द्वेष हो गया। द्वेष के कारण रानियों की बुद्धि मारी गयी। उनके चित्त में क्रूरता छा गयी। उन्हें अपने पति चित्रकेतु का पुत्र-स्नेह सहन न हुआ। इसलिये उन्होंने चिढ़कर नन्हे से राजकुमार को विष दे दिया। महारानी कृतद्युति को सौतों की इस घोर पापमयी करतूत का कुछ भी पता न था। उन्होंने दूर से देखकर समझ लिया कि बच्चा सो रहा है। इसलिये वे महल में इधर-उधर डोलती रहीं। बुद्धिमती रानी ने यह देखकर कि बच्चा बहुत देर से सो रहा है, धाय से कहा- ‘कल्याणि! मेरे लाल को ले आ’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 46-55 का हिन्दी अनुवाद)

धाय ने सोते हुए बालक के पास जाकर देखा कि उसके नेत्रों की पुतलियाँ उलट गयी हैं। प्राण, इन्द्रिय और जीवात्मा ने भी उसके शरीर से विदा ले ली है। यह देखते ही ‘हाय रे! मैं मारी गयी!’ इस प्रकार कहकर वह धरती पर गिर पड़ी।

धाय अपने दोनों हाथों से छाती पीट-पीटकर बड़े आर्तस्वर में जोर-जोर से रोने लगी। उसका रोना सुनकर महारानी कृतद्युति जल्दी-जल्दी अपने पुत्र के शयनगृह में पहुँचीं और उन्होंने देखा कि मेरा छोटा-सा बच्चा अकस्मात् मर गया है। तब वे अत्यन्त शोक के कारण मुर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ीं। उनके सिर के बाल बिखर गये और शरीर पर के वस्त्र अस्त-व्यस्त हो गये। तदनन्तर महारानी का रुदन सुनकर रनिवास के सभी स्त्री-पुरुष वहाँ दौड़ आये और सहानुभूतिवश अत्यन्त दुःखी होकर रोने लगे। वे हत्यारी रानियाँ भी वहाँ आकर झूठमूठ रोने का ढोंग करने लगीं।
जब राजा चित्रकेतु को पता लगा कि मेरे पुत्र की अकारण ही मृत्यु हो गयी है, तब अत्यन्त स्नेह के कारण शोक के आवेग से उनकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया। वे धीरे-धीरे अपने मन्त्रियों और ब्राह्मणों के साथ मार्ग में गिरते-पड़ते मृत बालक के पास पहुँचे और मुर्च्छित होकर उसके पैरों के पास गिर पड़े। उनके केश और वस्त्र इधर-उधर बिखर गये। वे लंबी-लंबी साँस लेने लगे। आँसुओं की अधिकता से उनका गला रूँध गया और वे कुछ भी बोल न सके। पतिप्राणा रानी कृतद्युति अपने पति चित्रकेतु को अत्यन्त शोकाकुल और इकलौते नन्हें-से बच्चे को मरा हुआ देख भाँति-भाँति से विलाप करने लगीं। उनका यह दुःख देखकर मन्त्री आदि सभी उपस्थित मनुष्य शोकग्रस्त हो गये।

महारानी के नेत्रों से इतने आँसू बह रहे थे कि वे उनकी आँखों का अंजन लेकर केसर और चन्दन से चर्चित वक्षःस्थल को भिगोने लगे। उनके बाल बिखर रहे थे तथा उनमें गुँथे हुए फूल गिर रहे थे। इस प्रकार वे पुत्र के लिये कुररी पक्षी के समान उच्च स्वर में विवध प्रकार से विलाप कर रही थीं। वे कहने लगीं- ‘अरे विधाता! सचमुच तू बड़ा मूर्ख है, जो अपनी सृष्टि के प्रतिकूल चेष्टा करता है। बड़े आश्चर्य की बात है कि बूढ़े-बूढ़े तो जीते रहें और बालक मर जायें। यदि वास्तव में तेरे स्वभाव में ऐसी ही विपरीतता है, तब तो तू जीवों का अमर शत्रु है। यदि संसार में प्राणियों के जीवन-मरण का कोई क्रम न रहे, तो वे अपने प्रारब्ध के अनुसार जन्मते-मरते रहेंगे। फिर तेरी आवश्यकता ही क्या है। तूने सम्बन्धियों में स्नेह-बन्धन तो इसीलिये डाल रखा है कि वे तेरी सृष्टि को बढ़ायें? परन्तु तू इस प्रकार बच्चों को मारकर अपने किये-कराये पर अपने हाथों पानी फेर रहा है’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: चतुर्दश अध्यायः श्लोक 56-61 का हिन्दी अनुवाद)

फिर वे अपने मृत पुत्र की ओर देखकर कहने लगीं- ‘बेटा! मैं तुम्हारे बिना अनाथ और दीन हो रही हूँ। मुझे छोड़कर इस प्रकार चले जाना तुम्हारे लिये उचित नहीं है। तनिक आँख खोलकर देखो तो सही, तुम्हारे पिताजी तुम्हारे वियोग में कितने शोक-सन्तप्त हो रहे हैं।

बेटा! जिस घोर नरक को निःसन्तान पुरुष बड़ी कठिनाई से पार कर पाते हैं, उसे हम तुम्हारे सहारे अन्यास ही पार कर लेंगे। अरे बेटा! तुम इस यमराज के साथ दूर मत जाओ। यह तो बड़ा निर्दयी है।

मेरे प्यारे लल्ला! ओ राजकुमार! उठो! बेटा! देखो, तुम्हारे साथी बालक तुम्हें खेलने के लिये बुला रहे हैं। तुम्हें सोते-सोते बहुत देर हो गयी, अब भूख लगी होगी। उठो, कुछ खा लो और कुछ नहीं तो मेरा दूध ही पी लो और अपने स्वजन-सम्बन्धी हम लोगों का शोक दूर करो।
प्यारे लाल! आज मैं तुम्हारे मुखारविन्द पर वह भोली-भाली मुसकराहट और आनन्द भरी चितवन नहीं देख रही हूँ। मैं बड़ी अभागिनी हूँ। हाय-हाय! अब भी मुझे तुम्हारी सुमधुर तोतली बोली नहीं सुनायी दे रही है। क्या सचमुच निष्ठुर यमराज तुम्हें उस परलोक में ले गया, जहाँ से फिर कोई लौटकर नहीं आता?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब सम्राट् चित्रकेतु ने देखा कि मेरी रानी अपने मृत पुत्र के लिये इस प्रकार भाँति-भाँति से विलाप कर रही है, तब वे शोक से अत्यन्त सन्तप्त हो फूट-फूटकर रोने लगे। राजा-रानी के इस प्रकार विलाप करने पर उनके अनुगामी स्त्री-पुरुष भी दुःखित होकर रोने लगे। इस प्रकार सारा नगर ही शोक से अचेत-सा हो गया।

राजन्! महर्षि अंगिरा और देवर्षि नारद ने देखा कि राजा चित्रकेतु पुत्रशोक के कारण चेतनाहीन हो रहे हैं, यहाँ तक कि उन्हें समझाने वाला भी कोई नहीं है। तब वे दोनों वहाँ आये।

                           {षष्ठ स्कन्ध:}

                      【पञ्चदश अध्याय:】१५.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"चित्रकेतु को अंगिरा और नारद जी का उपदेश"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! राजा चित्रकेतु शोकग्रस्त होकर मुर्दे के समान अपने मृत पुत्र के पास ही पड़े हुए थे। अब महर्षि अंगिरा और देवर्षि नारद उन्हें सुन्दर-सुन्दर उक्तियों से समझाने लगे।

उन्होंने कहा ;- राजेन्द्र! जिसके लिये तुम शोक कर रहे हो, वह बालक इस जन्म और पहले के जन्मों में तुम्हारा कौन था? उसके तुम कौन थे? और अगले जन्मों में भी उसके साथ तुम्हारा क्या सम्बन्ध रहेगा? जैसे जल के वेग से बालू के कण एक-दूसरे से जुड़ते और बिछुड़ते रहते हैं, वैसे ही समय के प्रवाह में प्राणियों का भी मिलन और बिछोह होता रहता है।

राजन्! जैसे कुछ बीजों से दूसरे बीज उत्पन्न होते और नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही भगवान् की माया से प्रेरित होकर प्राणियों से अन्य प्राणी उत्पन्न होते और नष्ट हो जाते हैं। राजन! हम, तुम और हम लोगों के साथ इस जगत् में जितने भी चराचर प्राणी वर्तमान हैं- वे सब अपने जन्म के पहले नहीं थे और मृत्यु के पश्चात् नहीं रहेंगे। इससे सिद्ध है कि इस समय भी उनका अस्तित्व नहीं है। क्योंकि सत्य वस्तु तो सब समय एक-सी रहती है। भगवान् ही समस्त प्राणियों के अधिपति हैं। उनमें जन्म-मृत्यु इच्छा है और न अपेक्षा। वे अपने-आप परतन्त्र प्राणियों की सृष्टि कर लेते हैं और उनके द्वारा अन्य प्राणियों की रचना, पालन तथा संहार करते हैं- ठीक वैसे ही जैसे बच्चे घर-घरौंदे, खेल-खिलौने बना-बनाकर बिगाड़ते रहते हैं।
राजन! जैसे एक बीज से दूसरा बीज उत्पन्न होता है, वैसे ही पिता देह द्वारा माता की देह से पुत्र की देह उत्पन्न होती है। पिता-माता और पुत्र जीव के रूप में देही हैं और बाह्य दृष्टि से केवल शरीर। उसमें देहीजीव घट आदि कार्यों में पृथ्वी के समान नित्य है। राजन्! जैसे एक मृत्तिकारूप वस्तु में घटत्व आदि जाति और घट आदि व्यक्तियों का विभाग केवल कल्पना मात्र है, उसी प्रकार यह देही और देह का विभाग भी अनादि एवं अविद्या-कल्पित है।[1]

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! जब महर्षि अंगिरा और देवर्षि नारद ने इस प्रकार राजा चित्रकेतु को समझाया-बुझाया, तब उन्होंने कुछ धीरज धारण करके शोक से मुरझाये हुए मुख को हाथ से पोंछा और उनसे कहा-

राजा चित्रकेतु बोले ;- आप दोनों परम ज्ञानवान् और महान् से भी महान् जान पड़ते हैं तथा अपने को अवधूतवेष में छिपाकर यहाँ आये हैं। कृपा करके बतलाइये, आप लोग हैं कौन? मैं जानता हूँ कि बहुत-से भगवान् के प्यारे ब्रह्मवेत्ता मेरे-जैसे विषयासक्त प्राणियों को उपदेश करने के लिये उन्मत्त का-सा वेष बनाकर पृथ्वी पर स्वच्छन्द विचरण करते हैं। सनत्कुमार, नारद, ऋभु, अंगिरा, देवल, असित, अपान्तरतम व्यास, मार्कण्डेय, गौतम, वसिष्ठ, भगवान् परशुराम, कपिलदेव, शुकदेव, दुर्वासा, याज्ञवल्क्य, जातूकर्ण्य, आरुणि, रोमश, च्यवन, दत्तात्रेय, आसुरि, पंतजलि, वेदशिरा, बोध्यमुनि, पंचशिरा, हिरण्यनाभ, कौसल्य, श्रुतदेव और ऋतध्वज- ये सब तथा दूसरे सिद्धेश्वर ऋषि-मुनि ज्ञानदान करने के लिये पृथ्वी पर विचरते रहते हैं। स्वामियों! मैं विषय भोगों में फँसा हुआ, मूढ़बुद्धि ग्राम्य पशु हूँ और अज्ञान के घोर अन्धकार में डूब रहा हूँ। आप लोग मुझे ज्ञान की ज्योति से प्रकाश केन्द्र में लाइये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 17-28 का हिन्दी अनुवाद)

महर्षि अंगिरा ने कहा ;- राजन्! जिस समय तुम पुत्र के लिये बहुत लालायित थे, तब मैंने ही तुम्हें पुत्र दिया था। मैं अंगिरा हूँ। ये जो तुम्हारे सामने खड़े हैं, स्वयं ब्रह्मा जी के पुत्र सर्वसमर्थ देवर्षि नारद हैं। जब हम लोगों ने देखा कि तुम पुत्र शोक के कारण बहुत ही घने अज्ञानान्धकार में डूब रहे हो, तब सोचा कि तुम भगवान् के भक्त हो, शोक करने योग्य नहीं हो। अतः तुम पर अनुग्रह करने के लिये ही हम दोनों यहाँ आये हैं।

राजन्! सच्ची बात तो यह है कि जो भगवान् और ब्राह्मणों का भक्त है, उसे किसी अवस्था में शोक नहीं करना चाहिये। जिस समय पहले-पहल मैं तुम्हारे घर आया था, उसी समय मैं तुम्हें परमज्ञान का उपदेश देता; परन्तु मैंने देखा कि अभी जो तुम्हारे हृदय में पुत्र की उत्कट लालसा है, इसलिये उस समय तुम्हें ज्ञान न देकर मैंने पुत्र ही दिया। अब तुम स्वयं अनुभव कर रहे हो कि पुत्रवानों को कितना दुःख होता है। यही बात स्त्री, घर, धन, विविध प्रकार के ऐश्वर्य, सम्पत्तियाँ, शब्द-रूप-रस आदि विषय, राज्यवैभव, पृथ्वी, राज्य, सेना, खजाना, सेवक, अमात्य, सगे-सम्बन्धी, इष्ट-मित्र सबके लिये हैं; क्योंकि ये सब-के-सब अनित्य हैं।
शूरसेन! अतएव ये सभी शोक, मोह, भय और दुःख के कारण हैं, मन के खेल-खिलौने हैं, सर्वथा कल्पित और मिथ्या हैं; क्योंकि ये न होने पर भी दिखायी पड़ रहे हैं। यही कारण है कि ये एक क्षण दीखने पर भी दूसरे क्षण लुप्त हो जाते हैं। ये गन्धर्व नगर, स्वप्न, जादू और मनोरथ की वस्तुओं के समान सर्वथा असत्य हैं। जो लोग कर्म-वासनाओं से प्रेरित होकर विषयों का चिन्तन करते रहते हैं; उन्हीं का मन अकेल प्रकार के कर्मों की सृष्टि करता है। जीवात्मा का यह देह-जो पंचभूत, ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों का संघात है-जीव को विविध प्रकार के क्लेश और सन्ताप देने वाली कही जाती है। इसलिये तुम अपने मन को विषयों में भटकने से रोककर शान्त करो, स्वस्थ करो और फिर उस मन के द्वारा अपने वास्तविक स्वरूप का विचार करो तथा इस द्वैत-भ्रम से नित्यत्व की बुद्धि छोड़कर परमशान्तिस्वरूप परमात्मा में स्थित हो जाओ।

देवर्षि नारद ने कहा ;- राजन्! तुम एकाग्रचित्त से मुझसे यह मन्त्रोपनिषद् ग्रहण करो। इसे धारण करने से सात रात में ही तुम्हें भगवान् संकर्षण का दर्शन होगा।

नरेन्द्र! प्राचीन काल में भगवान् शंकर आदि ने श्रीसंकर्षणदेव के ही चरणकमलों का आश्रय लिया था। इससे उन्होंने द्वैतभ्रम का परित्याग कर दिया और उनकी उस महिमा को प्राप्त हुए, जिससे बढ़कर तो कोई है ही नहीं, समान भी नहीं है। तुम भी बहुत शीघ्र ही भगवान् के उसी परम पद को प्राप्त कर लोगे।

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