सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( षष्ठ स्कन्धः ) का छठवाँ, सातवाँ, आठवाँ, नवाँ व दसवाँ अध्याय [ The six, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Sixth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( षष्ठ स्कन्धः ) का छठवाँ, सातवाँ, आठवाँ, नवाँ व दसवाँ अध्याय [ The six, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Sixth wing) ]



                           {षष्ठ स्कन्ध:}

                        【षष्ठ अध्याय:】६.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"दक्ष प्रजापति की साठ कन्याओं के वंश का विवरण"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! तदनन्तर ब्रह्मा जी के बहुत अनुनय-विनय करने पर दक्ष प्रजापति ने अपनी पत्नी असिक्नी के गर्भ से साठ कन्याएँ उत्पन्न कीं। वे सभी अपने पिता दक्ष से बहुत प्रेम करती थीं। दक्ष प्रजापति ने उनमें से दस कन्याएँ धर्म को, तेरह कश्यप को, सत्ताईस चन्द्रमा को, दो भूत को, दो अंगिरा को, दो कृशाश्व को और शेष चार तार्क्ष्य नामधारी कश्यप को ही ब्याह दीं।

परीक्षित! तुम इन दक्ष कन्याओं और इनकी सन्तानों के नाम मुझसे सुनो। इन्हीं की वंश परम्परा तीनों लोकों में फैली हुई है। धर्म की दस पत्नियाँ थीं- भानु, लम्बा, ककुभ्, जामि, विश्वा, साध्या, मरुत्वती, वसु, मुहूर्ता और संकल्पा। इनके पुत्रों के नाम सुनो। राजन्! भानु का पुत्र देवऋषभ और उसका इन्द्रसेन था। लम्बा का पुत्र हुआ विद्योत और उसके मेघगण। ककुभ् का पुत्र हुआ संकट, उसका कीकट और कीकट के पुत्र हुए पृथ्वी के सम्पूर्ण दुर्गों (किलों) के अभिमानी देवता। जामि के पुत्र का नाम था स्वर्ग और उसका पुत्र हुआ नन्दी। विश्वा के विश्वेदेव हुए। उनके कोई सन्तान न हुई। साध्या से साध्यगण हुए और उनका पुत्र हुआ अर्थसिद्धि।

मरुत्वती के दो पुत्र हुए- मरुत्वान् और जयन्त। जयन्त भगवान् वासुदेव के अंश हैं, जिन्हें लोग उपेन्द्र भी कहते हैं। मुहूर्ता से मूहूर्त के अभिमानी देवता उत्पन्न हुए। ये अपने-अपने मूहूर्त में जीवों को उनके कर्मानुसार फल देते हैं। संकल्पा का पुत्र हुआ संकल्प और उसका काम। वसु के पुत्र आठों वसु हुए। उनके नाम मुझसे सुनो। द्रोण, प्राण, ध्रुव, अर्क, अग्नि, दोष, वसु और विभावसु। द्रोण की पत्नी का नाम है अभिमति। उससे हर्ष, शोक, भय आदि के अभिमानी देवता उत्पन्न हुए। प्राण की पत्नी ऊर्जस्वती के गर्भ से सह, आयु और पुरोजव नाम के तीन पुत्र हुए। ध्रुव की पत्नी धरणी ने अनेक नगरों के अभिमानी देवता उत्पन्न किये। अर्क की पत्नी वासना के गर्भ से तर्ष (तृष्णा) आदि पुत्र हुए। अग्नि नामक वसु की पत्नी धारा के गर्भ से द्रविणक आदि बहुत-से पुत्र उत्पन्न हुए। कृत्तिका पुत्र स्कन्द भी अग्नि से ही उत्पन्न हुए। उनसे विशाख आदि का जन्म हुआ।

दोष की पत्नी शर्वरी के गर्भ से शिशुमार का जन्म हुआ। वह भगवान् का कलावतार है। वसु की पत्नी अंगीरसी से शिल्पकला के अधिपति विश्वकर्मा जी हुए। विश्वकर्मा के उनकी भार्या कृती के गर्भ से चाक्षुष मनु हुए और उनके पुत्र विश्वेदेव एवं साध्यगण हुए। विभावसु की पत्नी उषा से तीन पुत्र हुए- वयुष्ट, रोचिष् और आतप। उनमें से आतप के पंचयाम (दिवस) नामक पुत्र हुआ, उसी के कारण सब जीव अपने-अपने कार्यों में लगे रहते हैं। भूत की पत्नी दक्षनन्दिनी सरूपा ने कोटि-कोटि रुद्रगण उत्पन्न किये। इनमें रैवत, अज, भव, भीम, वाम, उग्र, वृषाकपि, अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, बहुरूप, और महान्- ये ग्यारह मुख्य हैं। भूत की दूसरी पत्नी भूता से भयंकर भूत और विनायकादि का जन्म हुआ। ये सब ग्यारहवें प्रधान रुद्र महान् के पार्षद हुए। अंगिरा प्रजापति की प्रथम पत्नी स्वधा ने पितृगण को उत्पन्न किया और दूसरी पत्नी सती ने अथर्वंगिरस नामक वेद को ही पुत्र रूप में स्वीकार कर लिया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 20-36 का हिन्दी अनुवाद)

कृशाश्व की पत्नी अर्चि से धूम्रकेश का जन्म हुआ और धिषणा से चार पुत्र हुए- वेदशिरा, देवल, वयुन और मनु। तार्क्ष्य नामधारी कश्यप की चार स्त्रियाँ थीं- विनता, कद्रू, पतंगी और यामिनी। पतंगी से पक्षियों का और यामिनी से शलभों (पतिंगों) का जन्म हुआ। विनता के पुत्र गरुड़ हुए, ये ही भगवान् विष्णु के वाहन हैं। विनता के ही दूसरे पुत्र अरुण हैं, जो भगवान् सूर्य के सारथि हैं। कद्रू से अनेकों नाग उत्पन्न हुए।

परीक्षित! कृत्तिका आदि सत्ताईस नक्षत्राभिमानिनी देवियाँ चन्द्रमा की पत्नियाँ हैं। रोहिणी से विशेष प्रेम करने के कारण चन्द्रमा को दक्ष ने शाप दे दिया, जिससे उन्हें क्षयरोग हो गया था। उन्हें कोई सन्तान नहीं हुई। उन्होंने दक्ष को फिर से प्रसन्न करके कृष्ण पक्ष की क्षीण कलाओं के शुक्ल पक्ष में पूर्ण होने के वर तो प्राप्त कर लिया, (परन्तु नक्षत्राभिमानी देवियों से उन्हें कोई सन्तान न हुई) अब तुम कश्यप पत्नियों के मंगलमय नाम सुनो। वे लोकमाताएँ हैं। उन्हीं से यह सारी सृष्टि उत्पन्न हुई है। उनके नाम हैं- अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सरमा और तिमी। इसमें तिमि के पुत्र हैं- जलचर जन्तु और सरमा के बाघ आदि हिंसक जीव। सुरभि के पुत्र हैं- भैंस, गाय तथा दूसरे दो खुर वाले पशु। ताम्रा की सन्तान हैं- बाज, गीध आदि शिकारी पक्षी। मुनि से अप्सराएँ उत्पन्न हुईं। क्रोधावेश के पुत्र हुए- साँप, बिच्छू आदि विषैले जन्तु। इला से वृक्ष, लता आदि पृथ्वी में उत्पन्न होने वाली वनस्पतियाँ और सुरसा से यातुधान (राक्षस)। अरिष्टा से गन्धर्व और काष्ठा से घोड़े आदि एक खुर वाले पशु उत्पन्न हुए। दनु के इकसठ पुत्र हुए। उनमें प्रधान-प्रधान के नाम सुनो।

द्विमूर्धा, शम्बर, अरिष्ट, हयग्रीव, विभावसु, अयोमुख, शंकुशिरा, स्वर्भानु, कपिल, अरुण, पुलोमा, वृषपर्वा, एकचक्र, अनुतापन, धूम्रकेश, विरुपाक्ष, विप्रचित्ति और दुर्जय। स्वर्भानु की कन्या सुप्रभा से नमुचिने और वृषपर्वा की पुत्री शार्मिष्ठा से महाबली नहुषनन्दन ययाति ने विवाह किया। दनु के पुत्र वैश्वानर की चार सुन्दरी कन्याएँ थीं। इनके नाम थे- उपदानवी, हयशिरा, पुलोमा और कालका। इनमें से उपदानवी के साथ हिरण्याक्ष और हयशिरा के साथ क्रतु का विवाह हुआ। ब्रह्मा जी की आज्ञा से प्रजापति भगवान् कश्यप ने ही वैश्वानर की शेष दो पुत्रियों- पुलोमा और कालका के साथ विवाह किया। उनसे पौलोम और कालकेय नाम के साठ हजार रणवीर दानव हुए। इन्हीं का दूसरा नाम निवातकवच था। ये यज्ञकर्म में विघ्न डालते थे, इसलिये परीक्षित! तुम्हारे दादा अर्जुन ने अकेले ही उन्हें इन्द्र को प्रसन्न करने के लिये मार डाला। यह उन दिनों की बात है, जब अर्जुन स्वर्ग में गये हुए थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 37-45 का हिन्दी अनुवाद)

विप्रचित्ति की पत्नी सिंहिका के गर्भ से एक सौ एक पुत्र उत्पन्न हुए। उनमें सबसे बड़ा था राहु, जिसकी गणना ग्रहों में हो गयी। शेष सौ पुत्रों का नाम केतु था।

परीक्षित! अब क्रमशः अदिति की वंश परम्परा सुनो। इस वंश में सर्वव्यापक देवाधिदेव नारायण ने अपने अंश से वामन रूप में अवतार लिया था। अदिति के पुत्र थे- विवस्वान्, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इन्द्र और त्रिविक्रम (वामन)। यही बारह आदित्य कहलाये।

विवस्वान् की पत्नी महाभाग्यवती संज्ञा के गर्भ से श्राद्धदेव (वैवस्वत) मनु एवं यम-यमी का जोड़ा पैदा हुआ! संज्ञा ने ही घोड़ी का रूप धारण करके भगवान् सूर्य के द्वारा भूलोक में दोनों अश्विनीकुमारों को जन्म दिया।

विवस्वान् की दूसरी पत्नी थी छाया। उसके शनैश्चर और सावर्णि मनु नाम के दो पुत्र तथा तपती नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई। तपती ने संवरण को पति रूप में वरण किया। अर्यमा की पत्नी मातृका थी। उसके गर्भ से चर्षणी नामक पुत्र हुए। वे कर्तव्य-अकर्तव्य के ज्ञान से युक्त थे। इसलिये ब्रह्मा जी ने उन्हीं के आधार पर मनुष्य जाति की (ब्राह्मणादि वर्णों की) कल्पना की। पूषा के कोई सन्तान न हुई।

प्राचीन काल में जब शिव जी दक्ष पर क्रोधित हुए थे, तब पूषा दाँत दिखाकर हँसने लगे थे; इसलिये वीरभद्र ने इनके दाँत तोड़ दिये थे। तब से पूषा पिसा हुआ अन्न ही खाते हैं। दैत्यों की छोटी बहिन कुमारी रचना त्वष्टा की पत्नी थी। रचना के गर्भ से दो पुत्र हुए- संनिवेश और पराक्रम विश्वरूप। इस प्रकार विश्वरूप यद्यपि शत्रुओं के भानजे थे, फिर भी जब देवगुरु बृहस्पतिजी ने इन्द्र से अपमानित होकर देवताओं का परित्याग कर दिया, तब देवताओं ने विश्वरूप को ही अपना पुरोहित बनाया था।

                           {षष्ठ स्कन्ध:}

                        【सप्तम अध्याय:】७.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"बृहस्पति जी के द्वारा देवताओं का त्याग और विश्वरूप का देवगुरु के रूप में वरण"
राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! देवाचार्य बृहस्पति जी ने अपने प्रिय शिष्य देवताओं को किस कारण त्याग दिया था? देवताओं ने अपने गुरुदेव का ऐसा कौन-सा अपराध कर दिया था, आप कृपा करके मुझे बतलाइये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- राजन्! इन्द्र को त्रिलोकी का ऐश्वर्य पाकर घमण्ड हो गया था। इस घमण्ड के कारण वे धर्म मर्यादा का, सदाचार का उल्लंघन करने लगे थे। एक दिन की बात है, वे भरी सभा में अपनी पत्नी शची के साथ ऊँचे सिंहासन पर बैठे हुए थे, उनचास मरुद्गण, आठ वसु, ग्यारह रुद्र, आदित्य, ऋभुगण, विश्वदेव, साध्यगण और दोनों अश्विनीकुमार उनकी सेवा में उपस्थित थे। सिद्ध, चारण, गन्धर्व, ब्रह्मवादी मुनिगण, विद्याधर, अप्सराएँ, किन्नर, पक्षी और नाग उनकी सेवा और स्तुति कर रहे थे। सब ओर ललित स्वर से देवराज इन्द्र की कीर्ति का गान हो रहा था। ऊपर की ओर चन्द्रमण्डल के समान सुन्दर श्वेत छत्र शोभायमान था। चँवर, पंखे आदि महाराजोचित सामग्रियाँ यथा स्थान सुसज्जित थीं। इस दिव्य समान में देवराज इन्द्र बड़े ही सुशोभित हो रहे थे।

इसी समय देवराज इन्द्र और समस्त देवताओं के परम आचार्य बृहस्पति जी वहाँ आये। उन्हें सुर-असुर सभी नमस्कार करते हैं। इन्द्र ने देख लिया कि वे सभा में आये हैं, परन्तु वे न तो खड़े हुए और न आसन आदि देकर गुरु का सत्कार ही किया। यहाँ तक कि वे अपने आसन से हिले-डुले तक नहीं। त्रिकालदर्शी समर्थ बृहस्पति जी ने देखा कि यह ऐश्वर्यमद का दोष हैं। बस, वे झटपट वहाँ से निकलकर चुपचाप अपने घर चले आये।

परीक्षित! उसी समय देवराज इन्द्र को चेत हुआ। वे समझ गये कि मैंने अपने गुरुदेव की अवहेलना की है। वे भरी सभा में स्वयं ही अपनी निन्दा करने लगे। ‘हाय-हाय! बड़े खेद की बात है कि भरी सभा में मुर्खतावश मैंने ऐश्वर्य के नशे में चूर होकर अपने गुरुदेव का तिरस्कार कर दिया। सचमुच मेरा यह कर्म अत्यन्त निन्दनीय है। भला, कौन विवेकी पुरुष इस स्वर्ग की राजलक्ष्मी को पाने की इच्छा करेगा? देखो तो सही, आज इसी ने मुझ देवराज को भी असुरों के-से रजोगुणी भाव से भर दिया। जो लोग यह कहते हैं कि सार्वभौम राजसिंहासन पर बैठा हुआ सम्राट् किसी के आने पर राजसिंहासन से न उठे, वे धर्म का वास्तविक स्वरूप नहीं जानते। ऐसा उपदेश करने वाले कुमार्ग की ओर ले जाने वाले हैं। वे स्वयं घोर नरक में गिरते हैं। उनकी बात पर जो लोग विश्वास करते हैं, वे पत्थर की नाव की तरह डूब जाते हैं। मेरे गुरुदेव बृहस्पति जी ज्ञान के अथाह समुद्र हैं। मैंने बड़ी शठता की। अब मैं उनके चरणों में अपना माथा टेककर उन्हें मनाऊँगा’।

परीक्षित! देवराज इन्द्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भगवान् बृहस्पति जी अपने घर से निकलकर योगबल से अन्तर्धान हो गये। देवराज इन्द्र ने अपने गुरुदेव को बहुत ढूँढ़ा-ढूँढ़वाया; परन्तु उनका कहीं पता न चला। तब वे गुरु के बिना अपने को सुरक्षित न समझकर देवताओं के साथ अपनी बुद्धि के अनुसार स्वर्ग की रक्षा का उपाय सोचने लगे, परन्तु वे कुछ भी सोच न सके। उनका चित्त अशान्त ही बना रहा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 18-30 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! दैत्यों को भी देवगुरु बृहस्पति और देवराज इन्द्र की अनबन का पता लग गया। तब उन मदोन्मत्त और आततायी असुरों ने अपने गुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार देवताओं पर विजय पाने के लिये धावा बोल दिया। उन्होंने देवताओं पर इतने तीखे-तीखे बाणों की वर्षा की कि उनके मस्तक, जंघा, बाहु आदि अंग कट-कटकर गिरने लगे। तब इन्द्र के साथ सभी देवता सिर झुकाकर ब्रह्मा जी की शरण में गये। स्वयम्भू एवं समर्थ ब्रह्मा जी ने देखा कि देवताओं की तो सचमुच बड़ी दुर्दशा हो रही है। अतः उनका हृदय अत्यन्त करुणा से भर गया। वे देवताओं को धीरज बँधाते हुए कहने लगे।

ब्रह्मा जी ने कहा ;- देवताओं! यह बड़े खेद की बात है। सचमुच तुम लोगों ने बहुत बुरा काम किया। हरे, हरे! तुम लोगों ने ऐश्वर्य के मद से अंधे होकर ब्रह्मज्ञानी, वेदज्ञ एवं संयमी ब्रह्माण का सत्कार नहीं किया। देवताओं! तुम्हारी उसी अनीति का यह फल है कि आज समृद्धिशाली होने पर भी तुम्हें अपने निर्बल शत्रुओं के सामने नीचा देखना पड़ा। देवराज! देखो, तुम्हारे शत्रु भी पहले अपने गुरुदेव शुक्राचार्य का तिरस्कार करने के कारण अत्यन्त निर्बल हो गये थे, परन्तु अब भक्तिभाव से उनकी आराधना करके वे फिर धन-जन से सम्पन्न हो गये हैं। देवताओं! मुझे तो ऐसा मालूम पड़ रहा है कि शुक्राचार्य को अपना आराध्यदेव मानने वाले ये दैत्य लोग कुछ दिनों में मेरा ब्रह्मलोक भी छीन लेंगे। भृगुवंशियों ने इन्हें अर्थशास्त्र की पूरी-पूरी शिक्षा दे रखी है। ये जो कुछ करना चाहते हैं, उसका भेद तुम लोगों को नहीं मिल पाता। उनकी सलाह बहुत गुप्त होती है। ऐसी स्थिति में वे स्वर्ग को तो समझते ही क्या हैं, वे चाहे जिस लोक को जीत सकते हैं। सच है, जो श्रेष्ठ मनुष्य ब्राह्मण, गोविन्द और गौओं को अपना सर्वस्व मानते हैं और जिन पर उनकी कृपा रहती है, उनका कभी अमंगल नहीं होता। इसलिये अब तुम लोग शीघ्र ही त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप के पास जाओ और उन्हीं की सेवा करो। वे सच्चे ब्राह्मण, तपस्वी और संयमी हैं। यदि तुम लोग उसके असुरों के प्रति प्रेम को क्षमा कर सकोगे और उनका करोगे, तो वे तुम्हारा काम बना देंगे।

श्रीशुकदेव जी कहते है ;- परीक्षित! जब ब्रह्मा जी ने देवताओं से इस प्रकार कहा, तब उनकी चिन्ता दूर हो गयी। वे त्वष्टा के पुत्र विश्वरूप ऋषि के पास गये और उन्हें हृदय से लगाकर यों कहने लगे।

देवताओं ने कहा ;- बेटा विश्वरूप! तुम्हारा कल्याण हो। हम तम्हारे आश्रम पर अतिथि के रूप में आये हैं। हम एक प्रकार से तुम्हारे पितर हैं। इसलिये तुम हम लोगों की समयोचित अभिलाषा पूर्ण करो। जिन्हें सन्तान हो गयी हो, उन सत्पुत्रों का भी सबसे बड़ा धर्म यही है कि वे अपने पिता तथा अन्य गुरुजनों की सेवा करें। फिर जो ब्रह्मचारी हैं, उनके लिये तो कहना ही क्या है। वत्स! आचार्य वेद की, पिता ब्रह्मा जी की, भाई इन्द्र की और माता साक्षात् पृथ्वी की मूर्ति होती है। (इसी प्रकार) बहिन दया की, अतिथि धर्म की, अभ्यागत अग्नि की और जगत् के सभी प्राणी अपने आत्मा की मूर्ति-आत्मस्वरूप होते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 31-40 का हिन्दी अनुवाद)

पुत्र! हम तुम्हारे पितर हैं। इस समय शत्रुओं ने हमें जीत लिया है। हम बड़े दुःखी हो रहे हैं। तुम अपने तपोबल से हमारा यह दुःख, दारिद्य, पराजय टाल दो। पुत्र! तुम्हें हम लोगों की आज्ञा का पालन करना चाहिये। तुम ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण हो, अतः जन्म से ही हमारे गुरु हो। हम तुम्हें आचार्य के रूप में वरण करके तुम्हारी शक्ति से अनायास ही शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर लेंगे। पुत्र! आवश्यकता पड़ने पर अपने से छोटों का पैर छूना भी निन्दनीय नहीं है। वेदज्ञान को छोड़कर केवल अवस्था बड़प्पन का कारण भी नहीं है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब देवताओं ने इस प्रकार विश्वरूप से पुरोहिती करने की प्रार्थना की, तब परम तपस्वी विश्वरूप ने प्रसन्न होकर उनसे अत्यन्त प्रिय और मधुर शब्दों में कहा।

विश्वरूप ने कहा ;- पुरोहिती का काम ब्रह्मतेज को क्षीण करने वाला है। इसलिये धर्मशील महात्माओं ने उसकी निन्दा की है। किन्तु आप मेरे स्वामी हैं और लोकेश्वर होकर भी मुझसे उसके लिये प्रार्थना कर रहे हैं। ऐसी स्थति में मेरे-जैसा व्यक्ति भला, आप लोगों को कोरा जवाब कैसे दे सकता है? मैं तो आप लोगों का सेवक हूँ। आपकी आज्ञाओं का पालन करना ही मेरा स्वार्थ है।

देवगण! हम अकिंचन हैं। खेती कट जाने पर अथवा अनाज की हाट उठ जाने पर उसमें से गिरे हुए कुछ दाने चुन लाते हैं और उसी से अपने देवकार्य तथा पितृकार्य सम्पन्न कर लेते हैं। लोकपालो! इस प्रकार जब मेरी जीविका चल ही रही है, तब मैं पुरोहिती की निन्दनीय वृत्ति क्यों करूँ? उससे तो केवल वे ही लोग प्रसन्न होते हैं, जिनकी बुद्धि बिगड़ गयी है। जो काम आप लोग मुझसे कराना चाहते हैं वह निन्दनीय है-फिर भी मैं आपके काम से मुँह नहीं मोड़ सकता; क्योंकि आप लोगों की माँग ही कितनी है। इसलिये आप लोगों का मनोरथ मैं तन-मन-धन से पूरा करूँगा।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! विश्वरूप बड़े तपस्वी थे। देवताओं से ऐसी प्रतिज्ञा करके उनके वरण करने पर वे बड़ी लगन के साथ उनकी पुरोहिती करने लगे। यद्यपि शुक्राचार्य ने अपने नीतिबल से असुरों की सम्पत्ति सुरक्षित कर दी थी, फिर भी समर्थ विश्वरूप ने वैष्णवी विद्या के प्रभाव से उनसे वह सम्पत्ति छीनकर देवराज इन्द्र को दिला दी।

राजन्! जिस विद्या से सुरक्षित होकर इन्द्र ने असुरों की सेना पर विजय प्राप्त की थी, उसका उदारबुद्धि विश्वरूप ने ही उन्हें उपदेश किया था।

                           {षष्ठ स्कन्ध:}

                        【अष्टम अध्याय:】८.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"नारायण कवच का उपदेश"
राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! देवराज इन्द्र ने जिससे सुरक्षित होकर शत्रुओं की चतुरंगिणी सेना को खेल-खेल में- अनायास ही जीतकर त्रिलोकी की राजलक्ष्मी का उपभोग किया, आप उस नारायण कवच को मुझे सुनाइये और यह भी बतलाइये कि उन्होंने उससे सुरक्षित होकर रणभूमि में किस प्रकार आक्रमणकारी शत्रुओं पर विजय प्राप्त की।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब देवताओं ने विश्वरूप को पुरोहित बना लिया, तब देवराज इन्द्र के प्रश्न करने पर विश्वरूप ने उन्हें नारायण कवच का उपदेश किया। तुम एकाग्रचित्त से उसका श्रवण करो।

विश्वरूप ने कहा ;- देवराज इन्द्र! भय का अवसर उपस्थित होने पर नारायण कवच धारण करके अपने शरीर की रक्षा कर लेनी चाहिये। उसकी विधि यह है कि पहले हाथ-पैर धोकर आचमन करे, फिर हाथ में कुश की पवित्री धारण करके उत्तर मुँह बैठ जायें। इसके बाद कवच धारणपर्यन्त और कुछ न बोलने का निश्चय करके पवित्रता से ‘ॐ नमो नारायणाय’ और ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’- इन मन्त्रों के द्वारा हृदयादि अंगन्यास तथा अंगुष्ठादि करन्यास करे। पहले ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस अष्टाक्षर मन्त्र के ॐ आदि आठ अक्षरों का क्रमशः पैरों, घुटनों, जाँघों, पेट, हृदय, वक्षःस्थल, मुख और सिर में न्यास करे अथवा पूर्वोक्त मन्त्र के मकार से लेकर ॐकार पर्यन्त आठ अक्षरों का सिर से आरम्भ करके उन्हीं आठ अंगों में विपरीत क्रम से न्यास करे।

तदनन्तर ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’- इस द्वादशाक्षर मन्त्र के ॐ आदि बारह अक्षरों का दायीं तर्जनी से बायीं तर्जनी तक दोनों हाथ की आठ अँगुलियों और दोनों अँगूठों की दो-दो गाँठों में न्यास करे। फिर ’ॐ विष्णवे नमः’ इस मन्त्र के पहले अक्षर ‘ॐ’ का हृदय में ‘वि’ का ब्रह्मरन्ध्र में, ‘ष्’ का भौंहों के बीच में, ‘ण’ का चोटी में, ‘वे’ का दोनों नेत्रों में और ‘न’ का शरीर की सब गाँठों में न्यास करे। तदनन्तर ‘ॐ मः अस्त्राय फट्’ कहकर दिग्बन्ध करे। इस प्रकार न्यास करने से इस विधि को जानने वाला पुरुष मन्त्रस्वरूप हो जाता है। इसके बाद समग्र, ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य से परिपूर्ण इष्टदेव भगवान् का ध्यान करे और अपने को भी तदरूप ही चिन्तन करे। तत्पश्चात् विद्या, तेज और तपःस्वरूप इस कवच का पाठ करे-

‘भगवान् श्रीहरि गरुड़ जी की पीठ पर अपने चरणकमल रखे हुए हैं। अणिमादि आठों सिद्धियाँ उनकी सेवा कर रही हैं। आठ हाथों में शंख, चक्र, ढाल, तलवार, गदा, बाण, धनुष और पाश (फंदा) धारण किये हुए हैं। वे ही ॐकारस्वरूप प्रभु सब प्रकार से, सब ओर से मेरी रक्षा करें। मत्स्यमूर्ति भगवान् जल के भीतर जलजन्तुओं से और वरुण के पाश से मेरी रक्षा करें। माया से ब्रह्मचारी का रूप धारण करने वाले वामन भगवान् स्थल पर और विश्वरूप श्रीत्रिविक्रम भगवान् आकाश में मेरी रक्षा करें।

जिनके घोर अट्टहास से सब दिशाएँ गूँज उठी थीं और गर्भवती दैत्यपत्नियों के गर्भ गिर गये थे, वे दैत्य-यूथपतियों के शत्रु भगवान् नृसिंह किले, जंगल, रणभूमि आदि विकट स्थानों में मेरी रक्षा करें। अपनी दाढ़ों पर पृथ्वी को धारण करने वाले यज्ञमूर्ति वराह भगवान् मार्ग में, परशुराम जी पर्वत के शिखरों पर और लक्ष्मण जी के सहित भरत के बड़े भाई भगवान् रामचन्द्र प्रवास के समय मेरी रक्षा करें।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 16-22 का हिन्दी अनुवाद)

भगवान् नारायण मारण-मोहन आदि भयंकर अभिचारों और सब प्रकार के प्रमादों से मेरी रक्षा करें। ऋषिश्रेष्ठ नर गर्व से, योगेश्वर भगवान् दत्तात्रेय योग के विघ्नों से और त्रिगुणाधिपति भगवान् कपिल कर्म बन्धनों से मेरी रक्षा करें। परमर्षि सनत्कुमार कामदेव से, हयग्रीव भगवान् मार्ग में चलते समय देवमूर्तियों को नमस्कार आदि न करने से अपराध से, देवर्षि नारद सेवापराधों से[1] और भगवान् कच्छप सब प्रकार के नरकों से मेरी रक्षा करें।

भगवान् धन्वन्तरि कुपथ्य से, जितेन्द्रिय भगवान् ऋषभदेव सुख-दुःख आदि भयदायक द्वन्दों से, यज्ञ भगवान् लोकापवाद से, बलराम जी मनुष्यकृत कष्टों से और श्रीशेषजी क्रोधवश नामक सर्पों के गण से मेरी रक्षा करें। भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजी अज्ञान से ततः बुद्धिदेव पाखण्डियों से और प्रमाद से मेरी रक्षा करें। धर्म रक्षा के लिये महान् अवतार धारण करने वाले भगवान् कल्कि पापबहुल कलिकाल के दोषों से मेरी रक्षा करें। प्रातःकाल भगवान् केशव अपनी गदा लेकर, कुछ दिन चढ़ आने पर भगवान् गोविन्द अपनी बाँसुरी लेकर, दोपहर के पहले भगवान् नारायण अपनी तीक्ष्ण शक्ति लेकर और दोपहर को भगवान् विष्णु चक्रराज सुदर्शन लेकर मेरी रक्षा करें। तीसरे पहर में भगवान् मधुसूदन अपना प्रचण्ड धनुष लेकर मेरी रक्षा करें। सायंकाल में ब्रह्मा आदि त्रिमूर्तिधारी माधव, सूर्यास्त के बाद हृषीकेश, अर्धरात्रि के पूर्व तथा अर्धरात्रि के समान अकेले भगवान् पद्मनाभ मेरी रक्षा करें। रात्रि के पिछले प्रहार में श्रीवत्सलांछन श्रीहरि, उषाकाल में खड्गधारी भगवान् जनार्दन, सूर्योदय से पूर्व श्रीदामोदर और सम्पूर्ण सन्ध्याओं में कालमूर्ति भगवान् विश्वेश्वर मेरी रक्षा करें।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 23-42 का हिन्दी अनुवाद)

सुदर्शन! आपका आकार चक्र (रथ के पहिये) की तरह है। आपके किनारे का भाग प्रलयकालीन अग्नि के समान अत्यन्त तीव्र है। आप भगवान् की प्रेरणा से सब ओर घूमते रहते हैं। जैसे आग वायु की सहायता से सूखे घास-फूस को जला डालती है, वैसे ही आप हमारी शत्रु-सेना को शीघ्र-से-शीघ्र जला दीजिये, जला दीजिये।

कौमोदकी गदा! आपसे छूटने वाली चिनगारियों का स्पर्श वज्र के समान असह्य है। आप भगवान् अजित की प्रिया है और मैं उनका सेवक हूँ। इसलिये आप कूष्माण्ड, विनायक, यक्ष, राक्षस, भूत और प्रेतादि ग्रहों को अभी कुचल डालिये, कुचल डालिये तथा मेरे शत्रुओं को चूर-चूर कर दीजिये।

शंखश्रेष्ठ! आप भगवान् श्रीकृष्ण के फूँकने से भयंकर शब्द करके मेरे शत्रुओं का दिल दहला दीजिये एवं यातुधान, प्रमथ, प्रेत, मातृ का, पिशाच तथा ब्रह्मराक्षस आदि भयावने प्राणियों को यहाँ से झटपट भगा दीजिये।

भगवान् की प्यारी तलवार! आपकी धार बहुत तीक्ष्ण है। आप भगवान् की प्रेरणा से मेरे शत्रुओं को छिन्न-भिन्न कर दीजिये।

भगवान् की प्यारी ढाल! आपमें सैकड़ों चन्द्राकार मण्डल हैं। आप पाप-दृष्टि पापात्मा शत्रुओं की आँखें बंद कर दीजिये और उन्हें सदा के लिये अंधा बना दीजिये। सूर्य आदि ग्रह, धूमकेतु (पुच्छलतारे) आदि केतु, दुष्ट मनुष्य, सर्पादि रेंगने वाले जन्तु, दाढ़ों वाले हिंसक पशु, भूत-प्रेत आदि तथा पापी प्राणियों से हमें जो-जो भय हों और जो-जो हमारे मंगल के विरोधी हों-वे सभी भगवान् के नाम, रूप तथा आयुधों का कीर्तन करने से तत्काल नष्ट हो जायें। बृहद्, रथन्तर आदि सामवेदीय स्तोत्रों से जिनकी स्तुति की जाती है, वे वेदमूर्ति भगवान् गरुड़ और विष्वक्सेनजी अपने नामोच्चारण के प्रभाव से हमें सब प्रकार की विपत्तियों से बचायें। श्रीहरि के नाम, रूप, वाहन, आयुध और श्रेष्ठ पार्षद हमारी बुद्धि, इन्द्रिय, मन और प्राणों को सब प्रकार की आपत्तियों से बचायें।

‘जितना भी कार्य अथवा कारणरूप जगत् है, वह वास्तव में भगवान् ही हैं’-इस सत्य के प्रभाव से हमारे सारे उपद्रव नष्ट हो जायें। जो लोग ब्रह्म और आत्मा की एकता का अनुभव कर चुके हैं, उनकी दृष्टि में भगवान् का स्वरूप समस्त विकल्पों-भेदों से रहित है; फिर भी वे अपनी माया-शक्ति के द्वारा भूषण, आयुध और रूप नामक शक्तियों को धारण करते हैं, यह बात निश्चित रूप से सत्य है। इस कारण सर्वज्ञ, सर्वव्यापक भगवान् श्रीहरि सदा-सर्वत्र सब स्वरूपों से हमारी रक्षा करें।
जो अपने भयंकर अट्टहास से सब लोगों के भय को भगा देते हैं और अपने तेज से सबका तेज ग्रस लेते हैं, वे भगवान् नृसिंह दिशा-विदिशा में, नीचे-ऊपर, बाहर-भीतर-सब ओर हमारी रक्षा करें’।

देवराज इन्द्र! मैंने तुम्हें यह नारायण कवच सुना दिया। इस कवच से तुम अपने को सुरक्षित कर लो। बस, फिर तुम अनायास ही सब दैत्य-यूथपतियों को जीत लोगे। इस नारायण कवच को धारण करने वाला पुरुष जिसको भी अपने नेत्रों से देख लेता अथवा पैर से छू देता है, वह तत्काल समस्त भयों से मुक्त हो जाता है। जो इस वैष्णवी विद्या को धारण कर लेता है, उसे राजा, डाकू, प्रेत-पेशाचादि और बाघ आदि हिंसक जीवों से कभी-किसी प्रकार का भय नहीं होता।

देवराज! प्राचीनकाल की बात है, एक कौशिक गोत्री ब्राह्मण ने इस विद्या को धारण करके योगधारणा से अपना शरीर मरूभूमि में त्याग दिया। जहाँ उस ब्राह्मण का शरीर पड़ा था, उसके ऊपर से एक दिन गन्धर्वराज चित्ररथ अपनी स्त्रियों के साथ विमान पर बैठकर निकले। वहाँ आते ही वे नीचे की ओर सिर किये विमान सहित आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़े। इस घटना से उनके आश्चर्य की सीमा न रही। जब उन्हें वालखिल्य मुनियों ने बतलाया कि यह नारायण कवच धारण करने का प्रभाव है, तब उन्होंने उस ब्राह्मण देवता की हड्डियों को ले जाकर पूर्ववाहिनी सरस्वती नदी में प्रवाहित कर दिया और फिर स्नान करके वे अपने लोक को गये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जो पुरुष इस नारायण कवच को समय पर सुनता है और जो आदरपूर्वक इसे धारण करता है, उसके सामने सभी प्राणी आदर से झुक जाते हैं और वह सब प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है। परीक्षित! शतक्रतु इन्द्र ने आचार्य विश्वरूप जी से यह वैष्णवी विद्या प्राप्त करके रणभूमि में असुरों को जीत लिया और वे त्रैलोक्यलक्ष्मी का उपभोग करने लगे।

                           {षष्ठ स्कन्ध:}

                        【नवम अध्याय:】९.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"विश्वरूप का वध, वृत्रासुर द्वारा देवताओं की हार और भगवान् की प्रेरणा से देवताओं का दधीचि ऋषि के पास जाना"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! हमने सुना है कि विश्वरूप के तीन सिर थे। वे एक मुँह से सोमरस तथा दूसरे से सुरा पीते थे और तीसरे से अन्न खाते थे। उनके पिता त्वष्टा आदि बारह आदित्य देवता थे, इसलिये वे यज्ञ के समय प्रत्यक्ष रूप में ऊँचे स्वर से बोलकर बड़े विनय के साथ देवताओं को आहुति देते थे। साथ ही वे छिप-छिपकर असुरों को भी आहुति दिया करते थे। उनकी माता असुर कुल की थीं, इसीलिये वे मातृस्नेह के वशीभूत होकर यज्ञ करते समय उस प्रकार असुरों का भाग पहुँचाया करते थे।

देवराज इन्द्र ने देखा कि इस प्रकार वे देवताओं का अपराध और धर्म की ओट में कपट कर रहे हैं। इससे इन्द्र डर गये और क्रोध में भरकर उन्होंने बड़ी फुर्ती से उनके तीनों सिर काट लिये। विश्वरूप का सोमरस पीने वाला सिर पपीहा, सुरापान करने वाला गौरैया और अन्न खाने वाला तीतर हो गया। इन्द्र चाहते तो विश्वरूप के वध से लगी हुई हत्या को दूर कर सकते थे; परन्तु उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा, वरन हाथ जोड़कर उसे स्वीकार कर लिया तथा एक वर्ष तक उससे छूटने का कोई उपाय नहीं किया। तदनन्तर सब लोगों के सामने अपनी शुद्धि प्रकट करने के लिये उन्होंने अपनी ब्रह्महत्या को चार हिस्सों में बाँटकर पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्रियों को दे दिया।

परीक्षित! पृथ्वी ने बदले में यह वरदान लेकर कि जहाँ कहीं गड्ढा होगा, वह समय पर अपने-आप भर जायेगा, इन्द्र की ब्रह्महत्या का चतुर्थांश स्वीकार कर लिया। वही ब्रह्महत्या पृथ्वी में कहीं-कहीं ऊसर के रूप में दिखायी पड़ती है। दूसरा चतुर्थांश वृक्षों ने लिया। उन्हें यह वर मिला कि उनका कोई हिस्सा कट जाने पर फिर जम जायेगा। उनमें अब भी गोंद के रूप में ब्रह्महत्या दिखायी पड़ती है। स्त्रियों ने यह वर पाकर कि वे सर्वदा पुरुष का सहवास कर सकें; ब्रह्महत्या का तीसरा चतुर्तांश स्वीकार किया। उनकी ब्रह्महत्या प्रत्येक महीने में रज के रूप में दिखायी पड़ती है। जल ने यह वर पाकर कि खर्च करते रहने पर भी निर्झर आदि के रूप में तुम्हारी बढ़ती ही होती रहेगी, ब्रह्महत्या का चौथा चतुर्थांश स्वीकार किया। फेन, बुद्बुद आदि के रूप में वही ब्रह्महत्या दिखायी पड़ती है। अतएव मनुष्य उसे हटाकर जल ग्रहण किया करते हैं।

विश्वरूप की मृत्यु के बाद उनके पिता त्वष्टा ‘हे इन्द्रशत्रो! तुम्हारी अभिवृद्धि हो और शीघ्र से-शीघ्र तुम अपने शत्रु को मार डालो’-इस मन्त्र से इन्द्र का शत्रु उत्पन्न करने के लिये हवन करने लगे। यज्ञ समाप्त होने पर अन्वाहार्य-पचन नामक अग्नि (दक्षिणाग्नि) से एक बड़ा भयावना दैत्य प्रकट हुआ। वह ऐसा जान पड़ता था, मानो लोकों का नाश करने के लिये प्रलयकालीन विकराल काल ही प्रकट हुआ हो।

परीक्षित! वह प्रतिदिन अपने शरीर के सब ओर बाण के बराबर बढ़ जाया करता था। वह जले हुए पहाड़ के समान काला और बड़े डील-डौल का था। उसके शरीर में से सन्ध्याकालीन बादलों के समान दीप्ति निकलती रहती थी। उसके सिर के बाल और दाढ़ी-मूँछ तपे हुए ताँबे के समान लाल रंग के तथा नेत्र दोपहर के सूर्य के समान प्रचण्ड थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 15-27 का हिन्दी अनुवाद)

चमकते हुए तीन नोकों वाले त्रिशूल को लेकर जब वह नाचने, चिल्लाने और कूदने लगता था, उस समय पृथ्वी काँप उठती थी और ऐसा जान पड़ता था कि उस त्रिशूल पर उसने अन्तरिक्ष को उठा रखा है। वह बार-बार जँभाई लेता था। इससे जब उसका कन्दरा के समान गम्भीर मुँह खुल जाता, तब जान पड़ता कि वह सारे आकाश को पी जायेगा, जीभ से सारे नक्षत्रों को चाट जायेगा और अपनी विशाल एवं विकराल दाढ़ों वाले मुँह से तीनों लोकों को निगल जायेगा। उसके भयावने रूप को देखकर सब लोग डर गये और इधर-उधर भागने लगे।

परीक्षित! त्वष्टा के तमोगुणी पुत्र ने सारे लोकों को घेर लिया था। इसी से उस पापी और अत्यन्त क्रूर पुरुष का नाम वृत्रासुर पड़ा। बड़े-बड़े देवता अपने-अपने अनुयायियों के सहित एक साथ ही उस पर टूट पड़े तथा अपने-अपने दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से प्रहार करने लगे। परन्तु वृत्रासुर उनके सारे अस्त्र-शस्त्रों को निगल गया। अब तो देवताओं के आश्चर्य की सीमा न रही। उनका प्रभाव जाता रहा। वे सब-के-सब दीन-हीन और उदास हो गये तथा एकाग्रचित्त से अपने हृदय में विराजमान आदिपुरुष श्रीनारायण की शरण में गये।

देवताओं ने भगवान् से प्रार्थना की- वायु, आकाश, अग्नि, जल और पृथ्वी-ये पाँचों भूत, इनसे बने हुए तीनों लोक उनके अधिपति ब्रह्मादि तथा हम सब देवता जिस काल से डरकर उसे पूजा-सामग्री की भेंट दिया करते हैं, वही काल भगवान् से भयभीत रहता है। इसलिये अब भगवान् ही हमारे रक्षक हैं। प्रभो! आपके लिये कोई नयी बात न होने के कारण कुछ भी देखकर आप विस्मित नहीं होते। आप अपने स्वरूप के साक्षात्कार से ही सर्वथा पूर्णकाम, सम एवं शान्त हैं। जो आपको छोड़कर किसी दूसरे की शरण लेता है, वह मूर्ख है। वह मानो कुत्ते की पूँछ पकड़कर समुद्र पार करना चाहता है। वैवस्वत मनु पिछले कल्प के अन्त में जिनके विशाल सींग में पृथ्वीरूप नौका को बाँधकर अनायास ही प्रलयकालीन संकट से बच गये, वे ही मत्स्य भगवान् हम शरणागतों को वृत्रासुर के द्वारा उपस्थित किये हुए दुस्तर भय से अवश्य बचायेंगे।

प्राचीनकाल में प्रचण्ड पवन के थपेड़ों से उठी हुई उत्ताल तरंगों की गर्जना के कारण ब्रह्मा जी भगवान् के नाभिकमल से अत्यन्त भयानक प्रलयकालीन जल में गिर पड़े थे। यद्यपि वे असहाय थे, तथापि उनकी कृपा से वे उस विपत्ति से बच सके, वे ही भगवान् हमें इस संकट से पार करें। उन्हीं प्रभु ने अद्वितीय होने पर भी अपनी माया से हमारी रचना की और उन्हीं के अनुग्रह से हम लोग सृष्टि कार्य का संचालन करते हैं। यद्यपि वे हमारे सामने ही सब प्रकार की चेष्टाएँ कर-करा रहे हैं, तथापि ‘हम स्वतन्त्र ईश्वर हैं’-अपने इस अभिमान के कारण हम लोग उनके स्वरूप को देख नहीं पाते।

वे प्रभु जब देखते हैं कि देवता अपने शत्रुओं से बहुत पीड़ित हो रहे हैं, तब वे वास्तव में निर्विकार रहने पर भी अपनी माया का आश्रय लेकर देवता, ऋषि, पशु-पक्षी और मनुष्यादि योनियों में अवतार लेते हैं, तथा युग-युग में हमें अपना समझकर हमारी रक्षा करते हैं। वे ही सबके आत्मा और परमाध्य देव हैं। वे ही प्रकृति और पुरुषरूप से विश्व के कारण हैं। वे विश्व से पृथक् भी हैं और विश्वरूप भी हैं। हम सब उन्हीं शरणागतवत्सल भगवान् श्रीहरि की शरण ग्रहण करते हैं। उदार शिरोमणि प्रभु अवश्य ही अपने निजजन हम देवताओं का कल्याण करेंगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 28-34 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- महाराज! जब देवताओं ने इस प्रकार भगवान् की स्तुति की, तब स्वयं शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी भगवान् उनके सामने पश्चिम की ओर (अन्तर्देश में) प्रकट हुए। भगवान् के नेत्र शरत्कालीन कमल के समान खिले हुए थे। उनके साथ सोलह पार्षद उनकी सेवा में लगे हुए थे। वे देखने में सब प्रकार से भगवान् के समान ही थे। केवल उनके वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न और गले में कौस्तुभ मणि नहीं थी।

परीक्षित! भगवान् का दर्शन पाकर सभी देवता आनन्द से विह्वल हो गये। उन लोगों ने धरती पर लोटकर साष्टांग दण्डवत् किया और फिर धीरे-धीरे उठकर वे भगवान् की स्तुति करने लगे।

देवताओं ने कहा ;- भगवन्! यज्ञ में स्वर्गादि देने की शक्ति तथा उनके फल की सीमा निश्चित करने वाले काल भी आप ही हैं। यज्ञ में विघ्न डालने वाले दैत्यों को आप चक्र से छिन्न-भिन्न कर डालते हैं। इसलिये आपके नामों की कोई सीमा नहीं है। हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं। विधातः! सत्त्व, रज, तम- इन तीन गुणों के अनुसार जो उत्तम, मध्यम और निकृष्ट गतियाँ प्राप्त होती हैं, उनके नियामक आप ही हैं। आपके परमपद का वास्तविक स्वरूप इस कार्यरूप जगत् का कोई आधुनिक प्राणी नहीं जान सकता।

भगवान्! नारायण! वासुदेव! आप आदि पुरुष (जगत् के परम कारण) और महापुरुष (पुरुषोत्तम) हैं। आपकी महिमा असीम है। आप परममंगलमय, परम कल्याण-स्वरूप और परमदयालु हैं। आप ही सारे जगत् के आधार एवं अद्वितीय हैं, केवल आप ही सारे जगत् के स्वामी हैं। आप सर्वेश्वर हैं तथा सौन्दर्य और मृदुलता की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी के परमगति हैं।

प्रभो! परमहंस परिव्राजक विरक्त महात्मा जब आत्मसंयमरूप परमसमाधि से भलीभाँति आपका चिन्तन करते हैं, तब उनके शुद्ध हृदय में परमहंसों के धर्म वास्तविक भगवद्भजन का उदय होता है। इससे उनके हृदय के अज्ञानरूप किवाड़ खुल जाते हैं और उनकी आत्मलोक में आप आत्मानन्द के रूप में बिना किसी आवरण के प्रकट हो जाते हैं और वे आपका अनुभव करके निहाल हो जाते हैं। हम आपको बार-बार नमस्कार करते हैं।

भगवन्! आपकी लीला का रहस्य जानना बड़ा ही कठिन है। क्योंकि आप बिना किसी आश्रय और प्राकृत शरीर के हम लोगों के सहयोग की अपेक्षा न करके निगुण और निर्विकार होने पर भी स्वयं ही इस सगुण जगत् की सृष्टि, रक्षा और संहार करते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 35-40 का हिन्दी अनुवाद)

भगवन्! हम लोग यह बात भी ठीक-ठीक नहीं समझ पाते कि सृष्टिकर्म में आप देवदत्त आदि किसी व्यक्ति के समान गुणों के कार्यरूप इस जगत् में जीवरूप से प्रकट हो जाते हैं और कर्मों के अधीन होकर अपने किये अच्छे-बुरे कर्मों का फल भोगते हैं, अथवा आप आत्माराम, शान्तस्वभाव एवं सबसे उदासीन-साक्षीमात्र रहते हैं तथा सबको समान देखते हैं। हम तो यह समझते हैं कि यदि आपमें ये दोनों बातें रहें तो भी कोई विरोध नहीं है। क्योंकि आप स्वयं भगवान् हैं। आपके गुण अगणित हैं, महिमा अगाध है और आप सर्वशक्तिमान् हैं। आधुनिक लोग अनेकों प्रकार के विकल्प, वितर्क, विचार, झूठे प्रमाण और कुतर्क पूर्ण शास्त्रों का अध्ययन करके अपने हृदय को दूषित कर लेते हैं और यही कारण है कि वे दुराग्रही हो जाते हैं। आपमें उनके वाद-विवाद के लिये अवसर ही नहीं है। आपका वास्तविक स्वरूप समस्त मायामय पदार्थों से परे, केवल है। जब आप उसी में अपनी माया को छिपा लेते हैं, तब ऐसी कौन-सी बात है जो आपमें नहीं हो सकती? इसलिये आप साधारण पुरुषों के समान कर्ता-भोक्ता भी हो सकते हैं और महापुरुषों के समान उदासीन भी। इसका कारण यह है कि न तो आपमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व है और न तो उदासीन ही। आप तो दोनों से विलक्षण, अनिर्वचनीय हैं।

जैसे एक ही रस्सी का टुकड़ा भ्रान्त पुरुषों को सर्प, माला, धारा आदि के रूप में प्रतीत होता है, किन्तु जानकार को रस्सी के रूप में-वैसे ही आप भी भ्रान्त बुद्धि वालों को कर्ता, भोक्ता आदि अनेक रूपों में दीखते हैं और ज्ञानी को शुद्ध सच्चिदानन्द के रूप में। आप सभी की बुद्धि का अनुसरण करते हैं। विचारपूर्वक देखने से मालूम होता है कि आप ही समस्त वस्तुओं में वस्तुत्व के रूप से विराजमान हैं, सबके स्वामी हैं और सम्पूर्ण जगत् के कारण ब्रह्मा, प्रकृति आदि के भी कारण हैं। आप सबके अन्तर्यामी अन्तरात्मा हैं; इसलिये जगत् में जितने भी गुण-दोष प्रतीत हो रहे हैं, उन सबकी प्रतीतियाँ अपने अधिष्ठानस्वरूप आपका ही संकेत करती हैं और श्रुतियों ने समस्त पदार्थों का निषेध करके अन्त में निषेध की अवधि के रूप में केवल आपको ही शेष रखा है।

मधुसूदन! आपकी अमृतमयी महिमारस का अनन्त समुद्र है। उनके नन्हें-से सीकर का भी, अधिक नहीं-एक बार भी स्वाद चख लेने से हृदय में नित्य-निरन्तर परमानन्द की धारा बहने लगती है। उसके कारण अब तक जगत् में विषय-भोगों के जितने भी लेशमात्र, प्रतीतिमात्र सुख का अनुभव हुआ है या परलोक आदि के विषय में सुना गया है, वह सब-का-सब जिन्होंने भूला दिया है, समस्त प्राणियों के परमप्रियतम, हितैषी, सुहृद् और सर्वात्मा आप ऐश्वर्यनिधि परमेश्वर में जो मन को नित्य-निरन्तर लगाये रखते और आपके चिन्तन का ही सुख लूटते रहते हैं, वे आपके अनन्य प्रेमी परमभक्त पुरुष ही अपने स्वार्थ और परमार्थ में निपुण हैं। मधुसूदन! आपके वे प्यारे और सुहृद् भक्तजन भला, आपके चरणकमलों का सेवन कैसे त्याग सकते हैं, जिससे जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्कर से सदा के लिये छुटकारा मिल जाता है।

प्रभो! आप त्रिलोकी के आत्मा और आश्रय हैं। आपने अपने तीन पगों से सारे जगत् को नाप लिया था और आप ही तीनों लोकों के संचालक हैं। आपकी महिमा त्रिलोकी का मन हरण करने वाली है। इसमें सन्देह नहीं कि दैत्य, दानव आदि असुर भी आपकी ही विभूतियाँ हैं। तथापि यह उनकी उन्नति का समय नहीं है-यह सोचकर आप अपनी योगमाया से देवता, मनुष्य, पशु, नृसिंह आदि मिश्रित और मत्स्य आदि जलचरों के रूप में अवतार ग्रहण करते और उनके अपराध के अनुसार उन्हें दण्ड देते हैं। दण्डधारी प्रभो! यदि जँचे तो आप उन्हीं असुरों के समान इस वृत्रासुर का भी नाश कर डालिये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 41-50 का हिन्दी अनुवाद)

भगवन्! आप हमारे पिता, पितामह-सब कुछ हैं। हम आपके निजजन हैं और निरन्तर आपके सामने सिर झुकाये रहते हैं। आपके चरणकमलों का ध्यान करते-करते हमारा हृदय उन्हीं के प्रेम बन्धन से बँध गया है। आपने हमारे सामने अपना दिव्यगुणों से युक्त साकार विग्रह प्रकट करके हमें अपनाया है। इसलिये प्रभो! हम आपसे यह प्रार्थना करते हैं कि आप अपनी दया भरी, विशद, सुन्दर और शीतल मुस्कानयुक्त चितवन से तथा अपने मुखारविन्द से टपकते हुए मनोहर वाणीरूप सुमधुर सुधाबिन्दु से हमारे हृदय का ताप शान्त कीजिये, हमारे अन्तर की जलन बुझाइये।

प्रभो! जिस प्रकार अग्नि की ही अंशभूत चिनगारियाँ आदि अग्नि को प्रकाशित करने में असमर्थ हैं, वैसे ही हम भी आपको अपना कोई भी स्वार्थ-परमार्थ निवेदन करने में असमर्थ हैं। आपसे भला, कहना ही क्या है। क्योंकि आप सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लय करने वाली दिव्यमाया के साथ विनोद करते रहते हैं तथा समस्त जीवों के अन्तःकरण में ब्रह्म और अन्तर्यामी के रूप में विराजमान रहते हैं। केवल इतना ही नहीं, उनके बाहर भी प्रकृति के रूप से आप ही विराजमान हैं। जगत् में जितने भी देश, काल, शरीर और अवस्था आदि हैं, उनके उपादान और उपादान और प्रकाशक के रूप में आप ही उनका अनुभव करते रहते हैं। आप सभी वृत्तियों के साक्षी हैं। आप प्रकाशक के समान सर्वगत हैं, निर्लिप्त हैं। आप स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं। अतएव हम अपना अभिप्राय आपसे निवेदन करें-इसकी अपेक्षा न रखकर जिस अभिलाषा से हम लोग यहाँ आये हैं, उसे पूर्ण कीजिये। आप अचिन्त्य ऐश्वर्यसम्पन्न और जगत् के परमगुरु हैं। हम आपके चरणकमलों की छत्रछाया में आये हैं, जो विविध पापों के फलस्वरूप जन्म-मृत्युरूप संसार में भटकने की थकावट को मिटाने वाली है।

सर्वशक्तिमान् श्रीकृष्ण! वृत्रासुर ने हमारे प्रभाव और अस्त्र-शस्त्रों को तो निगल ही लिया है। अब वह तीनों लोकों को भी ग्रस रहा है, आप उसे मार डालिये। प्रभो! आप शुद्धस्वरूप हृदयस्थित शुद्ध ज्योतिर्मय आकाश, सबके साक्षी, अनादि, अनन्त और उज्ज्वलकीर्ति सम्पन्न हैं। संत लोग आपका ही संग्रह करते हैं। संसार के पथिक जब घूमते-घूमते आपकी शरण में आ पहुँचते हैं, तब अन्त में आप उन्हें परमानन्दस्वरूप अभीष्ट फल देते हैं और इस प्रकार उनके जन्म-जन्मान्तर के कष्ट को हर लेते हैं। प्रभो! हम आपको नमस्कार करते हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब देवताओं ने बड़े आदर के साथ इस प्रकार भगवान् का स्तवन किया, तब वे अपनी स्तुति सुनकर बहुत प्रसन्न हुए तथा उनसे कहने लगे।

श्रीभगवान् ने कहा ;- श्रेष्ठ देवताओं! तुम लोगों ने स्तुतियुक्त ज्ञान से मेरी उपासना की है, इससे मैं तुम लोगों पर प्रसन्न हूँ। इस स्तुति के द्वारा जीवों को अपने वास्तविक स्वरूप की स्मृति और मेरी भक्ति प्राप्त होती है। देवशिरोमणियो! मेरे प्रसन्न हो जाने पर कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रह जाती। तथापि मेरे अनन्य प्रेमी तत्त्ववेत्ता भक्त मुझसे मेरे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं चाहते। जो पुरुष जगत् के विषयों को सत्य समझता है, वह नासमझ अपने वास्तविक कल्याण को नहीं जनता। यही कारण है कि वह विषय चाहता है; परन्तु यदि कोई जानकार उसे उसकी इच्छित वस्तु दे देता है, तो वह भी वैसा ही नासमझ है। जो पुरुष मुक्ति का स्वरूप जानता है, वह अज्ञानी को भी कर्मों में फँसने का उपदेश नहीं देता-जैसे रोगी के चाहते रहने पर भी सद्वैद्य उसे कुपथ्य नहीं देता।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 51-55 का हिन्दी अनुवाद)

देवराज इन्द्र! तुम लोगों का कल्याण हो। अब देर मत करो। ऋषशिरोमणि दधीचि के पास जाओ और उनसे उनका शरीर-जो उपासना, व्रत तथा तपस्या के कारण अत्यत्न दृढ़ हो गया है-माँग लो। दधीचि ऋषि को शुद्ध ब्रह्म का ज्ञान है। अश्विनीकुमारों को घोड़े के सिर से उपदेश करने के कारण उनका एक नाम ‘अश्वशिर भी है। उनकी उपदेश की हुई आत्मविद्या के प्रभाव से ही दोनों अश्विनीकुमार जीवन्मुक्त हो गये। अथर्ववेदी दधीचि ऋषि ने पहले-पहल मेरे स्वरूपभूत अभेद्य नारायण कवच का त्वष्टा को उपदेश किया था। त्वष्टा ने वही विश्वरूप को दिया और विश्वरूप से तुम्हें मिला। दधीचि ऋषि धर्म के परम मर्मज्ञ हैं। वे तुम लोगों को अश्विनीकुमार के माँगने पर, अपने शरीर के अंग अवश्य दे देंगे। इसके बाद विश्वकर्मा के द्वारा उन अंगों से एक श्रेष्ठ आयुध तैयार करा लेना।

देवराज! मेरी शक्ति से युक्त होकर तुम उसी शस्त्र के द्वारा वृत्रासुर का सिर काट लोगे।

देवताओं! वृत्रासुर के मर जाने पर तुम लोगों को फिर से तेज, अस्त्र-शस्त्र और सम्पत्तियाँ प्राप्त हो जायेंगी। तुम्हारा कल्याण अवश्यम्भावी है; क्योंकि मेरे शरणागतों को कोई सता नहीं सकता।

                           {षष्ठ स्कन्ध:}

                        【दशम अध्याय:】७.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"देवताओं द्वारा दधीचि ऋषि की अस्थियों से वज्र-निर्माण और वृत्रासुर की सेना पर आक्रमण"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! विश्व के जीवनदाता श्रीहरि इन्द्र को इस प्रकार आदेश देकर देवताओं के सामने वहीं-के-वहीं अन्तर्धान हो गये।

अब देवताओं ने उदारशिरोमणि अथर्ववेदी दधीचि ऋषि के के पास जाकर भगवान् के आज्ञानुसार याचना की। देवताओं की याचना सुनकर दधीचि ऋषि को बड़ा आनन्द हुआ। उन्होंने हँसकर देवताओं से कहा- ‘देवताओ! आप लोगों को सम्भवतः यह बात नहीं मालूम है कि मरते समय प्राणियों को बड़ा कष्ट होता है। उन्हें जब तक चेत रहता है, बड़ी असह्य पीड़ा सहनी पड़ती है और अन्त में वे मुर्च्छित हो जाते हैं। जो जीव जगत् में जीवित रहना चाहते हैं, उनके लिये शरीर बहुत ही अनमोल, प्रियतम एवं अभीष्ट वस्तु है। ऐसी स्थिति में स्वयं विष्णु भगवान् भी यदि जीव से उसका शरीर माँगें तो कौन उसे देने का साहस करेगा।

देवताओं ने कहा ;- ब्रह्मन्! आप-जैसे उदार और प्राणियों पर दया करने वाले महापुरुष, जिनके कर्मों की बड़े-बड़े यशस्वी महानुभाव भी प्रशंसा करते हैं, प्राणियों की भलाई के लिये कौन-सी वस्तु निछावर नहीं कर सकते। भगवन्! इसमें सन्देह नहीं कि माँगने वाले लोग स्वार्थी होते हैं। उसमें देने वालों की कठिनाई का विचार करने की बुद्धि नहीं होती। यदि उनमें इतनी समझ होती तो वे माँगते ही क्यों। इसी प्रकार दाता भी माँगने वाले की विपत्ति नहीं जानता। अन्यथा उसके मुँह से कदापि नाहीं न निकलती (इसलिये आप हमारी विपत्ति समझकर हमारी याचना पूर्ण कीजिये।)।

दधीचि ऋषि ने कहा ;- देवताओं! मैंने आप लोगों के मुँह से धर्म की बात सुनने के लिये ही आपकी माँग के प्रति उपेक्षा दिखलायी थी। यह लीजिये, मैं अपने प्यारे शरीर को आप लोगों के लिये अभी छोड़े देता हूँ। क्योंकि एक दिन यह स्वयं ही मुझे छोड़ने वाला है। देवशिरोमणियों! जो मनुष्य इस विनाशी शरीर से दुःखी प्राणियों पर दया करके मुख्यतः धर्म और गौणतः यश का सम्पादन नहीं करता, वह जड़ पेड़-पौधों से भी गया-बीता है। बड़े-बड़े महात्माओं ने इस अविनाशी धर्म की उपासना की है। उसका स्वरूप बस, इतना ही है कि मनुष्य किसी भी प्राणी के दुःख में दुःख का अनुभव करे और सुख में सुख का। जगत् के धन, जन और शरीर आदि पदार्थ क्षणभंगुर हैं। ये अपने किसी काम नहीं आते, अन्त में दूसरों के ही काम आयेंगे। ओह! यह कैसी कृपणता है, कितने दुःख की बात है कि यह मरणधर्मा मनुष्य इनके द्वारा दूसरों का उपकार नहीं कर लेता।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अथर्ववेदी महर्षि दधीचि ने ऐसा निश्चय करके अपने को परब्रह्म परमात्मा श्रीभगवान् में लीन करके अपना स्थूल शरीर त्याग दिया। उनके इन्द्रिय, प्राण, मन और बुद्धि संयत थे, दृष्टि तत्त्वमयी थी, उनके सारे बन्धन कट चुके थे। अतः जब वे भगवान् से अत्यन्त युक्त होकर स्थित हो गये, तब उन्हें इस बात का पता ही न चल कि मेरा शरीर छूट गया। भगवान् की शक्ति पाकर इन्द्र का बल-पौरुष उन्नति की सीमा पर पहुँच गया। अब विश्वकर्मा जी ने दधीचि ऋषि की हड्डियों से वज्र बनाकर उन्हें दिया और वे उसे हाथ में लेकर ऐरावत हाथी पर सवार हुए। उनके साथ-साथ सभी देवता लोग तैयार हो गये। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि देवराज इन्द्र की स्तुति करने लगे। अब उन्होंने त्रिलोकी को हर्षित करते हुए वृत्रासुर का वध करने के लिये उस पर पूरी शक्ति लगाकर धावा बोल दिया- ठीक वैसे ही, जैसे भगवान् रुद्र क्रोधित होकर स्वयं काल पर ही आक्रमण कर रहे हों।

परीक्षित! वृत्रासुर भी दैत्य-सेनापतियों की बहुत बड़ी सेना के साथ मोर्चे पर डटा हुआ था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 16-33 का हिन्दी अनुवाद)

जो वैवस्वत मन्वन्तर इस समय चल रहा है, इसकी पहली चतुर्युगी का त्रेतायुग अभी आरम्भ ही हुआ था। उसी समय नर्मदा तट पर देवताओं का दैत्यों के साथ यह भयंकर संग्राम हुआ। उस समय देवराज इन्द्र हाथ में वज्र लेकर रुद्र, वसु, आदित्य, दोनों अश्विनीकुमार, पितृगण, अग्नि, मरुद्गण, ऋभुगण, साध्यगण और विश्वेदेव आदि के साथ अपनी कान्ति से शोभायमान हो रहे थे। वृत्रासुर आदि दैत्य उनको अपने सामने आया देख और भी चिढ़ गये। तब नमुचि, शम्बर, अनर्वा, द्विमूर्धा, ऋषभ, अम्बर, हयग्रीव, शंकुशिरा, विप्रचित्ति, अयोमुख, पुलोमा, वृषपर्वा, प्रहेति, हेति, उत्कल, सुमाली, माली आदि हजारों दैत्य-दानव एवं यक्ष-राक्षस स्वर्ण के साज-सामान से सुसज्जित होकर देवराज इन्द्र की सेना को आगे बढ़ने से रोकने लगे।

परीक्षित! उस समय देवताओं की सेना स्वयं मृत्यु के लिये भी अजेय थी। वे घमंडी असुर सिंहनाद करते हुए बड़ी सावधानी से देवसेना पर प्रहार करने लगे। उन लोगों ने गदा, परिघ, बाण, प्रास, मुद्गर, तोमर, शूल, फरसे, तलवार, शतघ्नी (तोप), भुशुण्डि आदि अस्त्र-शस्त्रों की बौछार से देवताओं को सब ओर से ढक दिया। एक-पर-एक इतने बाण चारों ओर से आ रहे थे कि उनसे ढक जाने के कारण देवता दिखलायी भी नहीं पड़ते थे-जैसे बादलों से ढक जाने पर आकाश के तारे नहीं दिखायी देते। परीक्षित! वह शस्त्रों और अस्त्रों की वर्षा देवसैनिकों को छू तक न सकी। उन्होंने अपने हस्तलाघव से आकाश में ही उनके हजार-हजार टुकड़े कर दिये। जब असुरों के अस्त्र-शस्त्र समाप्त हो गये, तब वे देवताओं की सेना पर पर्वतों के शिखर, वृक्ष और पत्थर बरसाने लगे। परन्तु देवताओं ने उन्हें पहले की ही भाँति काट गिराया।

परीक्षित! जब वृत्रासुर के अनुयायी असुरों ने देखा कि उनके असंख्य अस्त्र-शस्त्र भी देवसेना का कुछ न बिगाड़ सके-यहाँ तक कि वृक्षों, चट्टानों और पहाड़ों के बड़े-बड़े शिखर से भी उनके शरीर पर खरोंच तक नहीं आयी, सब-के-सब सकुशल हैं, तब तो वे बहुत डर गये। दैत्य लोग देवताओं को पराजित करने के लिये जो-जो प्रयत्न करते, वे सब-के-सब निष्फल हो जाते-ठीक वैसे ही, जैसे भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा सुरक्षित भक्तों पर क्षुद्र मनुष्यों के कठोर और अमंगलमय दुर्वचनों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

भगवद्विमुख असुर अपना प्रयत्न व्यर्थ देखकर उत्साहरहित हो गये। उनका वीरता का घमंड जाता रहा। अब वे अपने सरदार वृत्रासुर को युद्धभूमि में ही छोड़कर भाग खड़े हुए; क्योंकि देवताओं ने उनका सारा बल-पौरुष छीन लिया था। जब धीर-वीर वृत्रासुर ने देखा कि मेरे अनुयायी असुर भाग रहे हैं और अत्यन्त भयभीत होकर मेरी सेना भी तहस-नहस और तितर-बितर हो रही है, तब वह हँसकर कहने लगा।

वीरशिरोमणि वृत्रासुर ने समयानुसार वीरोचित वाणी से विप्रचित्ति, नमुचि, पुलोमा, मय, अनर्वा, शम्बर आदि दैत्यों को सम्बोधित करके कहा- ‘असुरों! भागो मत, मेरी एक बात सुन लो। इसमें सन्देह नहीं कि जो पैदा हुआ है, उसे एक-न-एक दिन अवश्य मरना पड़ेगा। इस जगत् में विधाता ने मृत्यु से बचने का कोई उपाय नहीं बताया है। ऐसी स्थिति में यदि मृत्यु के द्वारा स्वर्गादि लोक और सुयश भी मिल रहा हो तो ऐसा कौन बुद्धिमान् है, जो उस उत्तम मृत्यु को न अपनायेगा। संसार में दो प्रकार की मृत्यु परम दुर्लभ और श्रेष्ठ मानी गयी है-एक तो योगी पुरुष का अपने प्राणों को वश में करके ब्रह्मचिन्तन के द्वारा शरीर का परित्याग और दूसरा युद्धभूमि में सेना के आगे रहकर बिना पीठ दिखाये जूझ मरना (तुम लोग भला, ऐसा शुभ अवसर क्यों खो रहे हो)।

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