सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - पूर्वार्ध ) का छठवाँ, सातवाँ, आठवाँ, नवाँ व दसवाँ अध्याय [ The six, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( दशम स्कन्धः - पूर्वार्ध ) का छठवाँ, सातवाँ, आठवाँ, नवाँ व दसवाँ अध्याय [ The six, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Tenth wing) ]



                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                        【षष्ठ अध्याय:】६.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षष्ठ अध्याय: श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

"पूतना-उद्धार"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! नन्दबाबा जब मथुरा से चले, तब रास्ते में विचार करने लगे कि वसुदेव जी का कथन झूठा नहीं हो सकता। इससे उनके मन में उत्पात होने की आशंका हो गयी। तब उन्होंने मन-ही-मन ‘भगवान की शरण हैं, वे ही रक्षा करेंगे’ ऐसा निश्चय किया।

पूतना नाम की एक बड़ी क्रूर राक्षसी थी। उसका एक ही काम था - बच्चों को मारना। कंस की आज्ञा से वह नगर, ग्राम और अहीरों की बस्तियों में बच्चों को मारने के लिए घूमा करती थी। जहाँ के लोग अपने प्रतिदिन के कामों में राक्षसों के भय को दूर भगाने वाले भक्तवत्सल भगवान के नाम, गुण और लीलाओं का श्रवण, कीर्तन और स्मरण नहीं करते, वहीं ऐसी राक्षसियों का बल चलता है।

वह पूतना आकाशमार्ग से चल सकती थी और अपनी इच्छा के अनुसार रूप भी बना लेती थी। एक दिन नन्दबाबा के गोकुल के पास आकर उसने माया से अपने को एक सुन्दर युवती बना लिया और गोकुल के भीतर घुस गयी। उसने बड़ा सुन्दर रूप बनाया था। उसकी चोटियों में बेले के फूल गुँथे हुए थे। सुन्दर वस्त्र पहने हुए थी। जब उसके कर्णफूल हिलते थे, तब उनकी चमक से मुख की ओर लटकी हुई अलकें और भी शोभायमान हो जाती थीं। उसके नितम्ब और कुच-कलश ऊँचे-ऊँचे थे और कमर पतली थी। वह अपनी मधुर मुस्कान और कटाक्षपूर्ण चितवन से ब्रजवासियों का चित्त चुरा रही थी।

उस रूपवती रमणी को हाथ में कमल लेकर आते देख गोपियाँ ऐसी उत्प्रेक्षा करने लगीं, मानो स्वयं लक्ष्मी जी अपने पति का दर्शन करने के लिए आ रही हैं। पूतना बालकों के लिए ग्रह के समान थी। वह इधर-उधर बालकों को ढूंढती हुई अनायास ही नन्दबाबा के घर में घुस गयी। वहाँ उसने देखा कि बालक श्रीकृष्ण दुष्टों के काल हैं। परन्तु जैसे आग राख की ढेरी में अपने को छिपाये हुए हो, वैसे ही उस समय उन्होंने अपने प्रचण्ड तेज को छिपा रखा था।

भगवान श्रीकृष्ण चर-अचर सभी प्राणियों की आत्मा हैं। इसलिए उन्होंने उसी क्षण जान लिया कि यह बच्चों को मार डालने वाला पूतना-ग्रह है और अपने नेत्र बंद कर लिये[1] जैसे कोई पुरुष भ्रमवश सोये हुए साँप को रस्सी समझकर उठा ले, वैसे ही अपने कालरूप भगवान श्रीकृष्ण को पूतना ने अपनी गोद में उठा लिया। मखमली म्यान के भीतर छिपी हुई तीखी धारवाली तलवार के समान पूतना का हृदय तो बड़ा कुटिल था, किन्तु ऊपर से वह बहुत मधुर और सुन्दर व्यवहार कर रही थी। देखने में वह एक भद्र महिला के समान जान पड़ती थी। इसलिये रोहिणी और यशोदा जी ने उसे घर के भीतर आयी देखकर भी उसकी सौन्दर्यप्रभा से हतप्रभ-सी होकर कोई रोक-टोक नहीं की, चुपचाप खड़ी-खड़ी देखतीं रहीं। इधर भयानक राक्षसी पूतना ने बालक श्रीकृष्ण को अपनी गोद में लेकर उनके मुँह में अपना स्तन दे दिया, जिसमें बड़ा भयंकर और किसी प्रकार भी पच न सकने वाला विष लगा हुआ था। भगवान ने क्रोध को अपना साथी बनाया और दोनों हाथों से उसके स्तनों को जोर से दबाकर उसके प्राणों के साथ उसका दूध पीने लगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षष्ठ अध्याय: श्लोक 11-24 का हिन्दी अनुवाद)

अब तो पूतना के प्राणों के आश्रयभूत सभी मर्मस्थान फटने लगे। वह पुकारने लगी- ‘अरे छोड़ दे, छोड़ दे, अब बस कर।’ वह बार-बार अपने हाथ और पैर पटक-पटक कर रोने लगी। उसके नेत्र उलट गये। उसका सारा शरीर पसीने से लथपथ हो गया। उसकी चिल्लाहट का वेग बड़ा भयंकर था। उसके प्रभाव से पहाड़ों के साथ पृथ्वी और ग्रहों के साथ अन्तरिक्ष डगमगा उठा। सातों पाताल और दिशाऐं गूँज उठीं। बहुत-से लोग वज्रपात की आशंका से पृथ्वी पर गिर पड़े। परीक्षित! इस प्रकार निशाचरी पूतना के स्तनों में इतनी पीड़ा हुई कि वह अपने को छिपा न सकी, राक्षसी रूप में प्रकट हो गयी। उसके शरीर से प्राण निकल गये, मुँह फट गया, बाल बिखर गये और हाथ-पाँव फैल गये। जैसे इन्द्र के वज्र से घायल होकर वृत्रासुर गिर पड़ा था, वैसे ही वह बाहर गोष्ठ में आकर गिर पड़ी।

राजेन्द्र! पूतना के शरीर ने गिरते-गिरते भी छः कोस के भीतर के वृक्षों को कुचल डाला। यह बड़ी ही अद्भुत घटना हुई। पूतना का शरीर बड़ा भयानक था, उसका मुँह हल के समान तीखी और भयंकर दाढ़ों से युक्त था। उसके नथुने पहाड़ की गुफ़ा के समान गहरे थे और स्तन पहाड़ से गिरी हुई चट्टानों की तरह बड़े-बड़े थे। लाल-लाल बाल चारों ओर बिखरे हुए थे। आँखें अंधे कुएँ के समान गहरी, नितम्ब नदी के करार की तरह भयंकर; भुजायें, जाँघें और पैर नदी के पुल के समान तथा पेट सूखे हुए सरोवर की भाँति जान पड़ता था। पूतना के उस शरीर को देखकर सब-के-सब ग्वाल और गोपी डर गये। उसकी भयंकर चिल्लाहट सुनकर उनके हृदय, कान और सर तो पहले ही फट से रहे थे। जब गोपियों ने देखा कि बालक श्रीकृष्ण उसकी छाती पर निर्भय होकर खेल रहे हैं[1], तब वे बड़ी घबराहट और उतावली के साथ झटपट वहाँ पहुँच गयीं तथा श्रीकृष्ण को उठा लिया।

इसके बाद यशोदा और रोहिणी के साथ गोपियों ने गाय की पूँछ घुमाने आदि उपायों से बालक श्रीकृष्ण के अंगों को सब प्रकार से रक्षा की। उन्होंने पहले बालक श्रीकृष्ण को गोमूत्र से स्नान कराया, फिर सब अंगों में गो-रज लगायी और फिर बारहों अंगों में गोबर लगाकर भगवान के केशव आदि नामों से रक्षा की। इसके बाद गोपियों ने आचमन करके ‘अज’ आदि ग्यारह बीज-मन्त्रों से अपने शरीर में अलग-अलग अंगन्यास एवं करन्यास किया और फिर बालक के अंगों में बीजन्यास किया। वे कहने लगीं- ‘अजन्मा भगवान तेरे पैरों की रक्षा करें, मणिमान घुटनों की, यज्ञपुरुष जाँघों की, अच्युत कमर की, हयग्रीव पेट की, केशव हृदय की, ईश वक्षःस्थल की, सूर्य कन्ठ की, विष्णु बाँहों की, उरुक्रम मुख की और ईश्वर सिर की रक्षा करें। चक्रधर भगवान रक्षा के लिए तेरे आगे रहें, गदाधारी श्रीहरि पीछे, क्रमशः धनुष और खड्ग धारण करने वाले भगवान मधुसूदन और अजन दोनों बगल में, शंखधारी उरुगाय चारों कोनों में, उपेन्द्र ऊपर, हलधर पृथ्वी पर और भगवान परमपुरुष तेरे सब ओर रक्षा के लिये रहें। हृषिकेश भगवान इन्द्रियों की और नारायण प्राणों की रक्षा करें। श्वेतद्वीप के अधिपति चित्त की और योगेश्वर मन की रक्षा करें।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षष्ठ अध्याय: श्लोक 25-40 का हिन्दी अनुवाद)

पृश्निगर्भ तेरी बुद्धि की और परमात्मा भगवान तेरे अहंकार की रक्षा करें। खेलते समय गोविन्द रक्षा करें, सोते समय माधव रक्षा करें। चलते समय श्रीपति तेरी रक्षा करें। भोजन के समय समस्त ग्रहों को भयभीत करने वाले यज्ञभोक्ता भगवान तेरी रक्षा करें। डाकिनी, राक्षसी और कूष्माण्डा आदि बालग्रह; भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, राक्षस और विनायक, कोटरा, रेवती, ज्येष्ठा, पूतना, मातृका आदि; शरीर, प्राण तथा इन्द्रियों का नाश करने वाले उन्माद एवं अपस्मार आदि रोग; स्वप्न में देखे हुए महान उत्पात, वृद्धग्रह और बालग्रह आदि - ये सभी अनिष्ट विष्णु का नामोच्चारण करने से भयभीत होकर नष्ट हो जायँ।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इस प्रकार गोपियों ने प्रेमपाश में बँधकर भगवान श्रीकृष्ण की रक्षा की। माता यशोदा ने अपने पुत्र को स्तन पिलाया और फिर पालने पर सुला दिया। इसी समय नन्दबाबा और उनके साथी गोप मथुरा से गोकुल में पहुँचे। जब उन्होंने पूतना का भयंकर शरीर देखा, तब वे आश्चर्यचकित हो गये।
वे कहने लगे ;- ‘यह तो बड़े आश्चर्य की बात है, अवश्य ही वसुदेव के रूप में किसी ऋषि ने जन्म ग्रहण किया है। अथवा सम्भव है वसुदेव जी पूर्वजन्म में कोई योगेश्वर रहे हों; क्योंकि उन्होंने जैसा कहा था, वैसा ही उत्पात यहाँ देखने में आ रहा है। तब तक ब्रजवासियों ने कुल्हाड़ी से पूतना के शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर डाला और गोकुल से दूर ले जाकर लकड़ियों पर रखकर जला दिया। जब उसका शरीर जलने लगा, तब उसमें से ऐसा धुँआ निकला, जिसमें से अगर की-सी सुगन्ध आ रही थी। क्यों न हो, भगवान ने जो उसका दूध पी लिया था, जिससे उसके सारे पाप तत्काल ही नष्ट हो गये थे। पूतना एक राक्षसी थी। लोगों के बच्चों को मार डालना और उनका खून पी जाना, यही उसका काम था। भगवान को भी उसने मार डालने की इच्छा से ही स्तन पिलाया था। फिर भी उसे वह परम गति मिली, जो सत्पुरुषों को मिलती है।

ऐसी स्थिति में जो परब्रह्म परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण को श्रद्धा और भक्ति से माता के समान अनुराग पूर्वक अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु और उनको प्रिय लगने वाली वस्तु समर्पित करते हैं उनके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या। भगवान के चरणकमल सबके वन्दनीय ब्रह्मा, शंकर आदि देवताओं के द्वारा भी वन्दित हैं। वे भक्तों के हृदय की पूँजी हैं। उन्हीं चरणों से भगवान ने पूतना का शरीर दबाकर उसका स्तनपान किया था। माना कि वह राक्षसी थी, परंतु उसे उत्तम-से-उत्तम गति जो माता को मिलनी चाहिए, प्राप्त हुई। फिर जिनके स्तन का दूध भगवान ने बड़े प्रेम से पिया, उन गौओं और माताओं की बात ही क्या है।

परीक्षित! देवकीनन्दन भगवान कैवल्य आदि सब प्रकार की मुक्ति और सब कुछ देने वाले हैं। उन्होंने ब्रज की गोपियों और गौओं का वह दूध, जो भगवान के प्रति पुत्र-भाव होने से वात्सल्य-स्नेह की अधिकता के कारण स्वयं ही झरता रहता था, भरपेट पान किया। राजन! वे गौएँ और गोपियाँ, जो नित्य-निरन्तर भगवान श्रीकृष्ण को अपने पुत्र के ही रूप में देखतीं थीं, फिर जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्र में कभी नहीं पड़ सकतीं, क्योंकि यह संसार तो अज्ञान के कारण ही है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षष्ठ अध्याय: श्लोक 41-44 का हिन्दी अनुवाद)

नन्दबाबा के साथ आने वाले ब्रजवासियों की नाक में जब चिता के धुएँ की सुगन्ध पहुँची, तब ‘यह क्या है? कहाँ से ऐसी सुगन्ध आ रही है?’ इस प्रकार कहते हुए वे ब्रज में पहुँचे। वहाँ गोपों ने उन्हें पूतना के आने से लेकर, मरने तक का सारा वृतान्त कह सुनाया। वे लोग पूतना की मृत्यु और श्रीकृष्ण के कुशलपूर्वक बच जाने की बात सुनकर बड़े ही आश्चर्यचकित हुए। परीक्षित! उदारशिरोमणि नन्दबाबा ने मृत्यु के मुख से बचे हुए अपने लाला को गोद में उठा लिया और बार-बार उसका सर सूँघकर मन-ही-मन बहुत आनन्दित हुए।

यह ‘पूतना-मोक्ष’ भगवान श्रीकृष्ण की अद्भुत लीला है। जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इसका श्रवण करता है, उसे भगवान श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम प्राप्त होता है।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                        【सप्तम अध्याय:】७.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तम अध्याय: श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"शकट-भंजन और तृणावर्त-उद्धार"
राजा परीक्षित ने पूछा ;- प्रभो! सर्वशक्तिमान भगवान श्रीहरि अनेकों अवतार धारण करके बहुत-सी सुन्दर एवं सुनने में मधुर लीलाएँ करते हैं। वे सभी मेरे हृदय को बहुत प्रिय लगती हैं। उनके श्रवण मात्र से भगवत-सम्बन्धी कथा से अरुचि और विविध विषयों की तृष्णा भाग जाती है। मनुष्य का अंतःकरण शीघ्र-से-शीघ्र शुद्ध हो जाता है। भगवान के चरणों में भक्ति और उनके भक्तजनों से प्रेम भी प्राप्त हो जाता है। यदि आप मुझे उनके श्रवण का अधिकारी समझते हों, तो भगवान की उन्हीं मनोहर लीलाओं का वर्णन कीजिये। भगवान श्रीकृष्ण ने मनुष्य-लोक में प्रकट होकर मनुष्य-जाति के स्वभाव का अनुसरण करते हुए जो बाल-लीलाएँ की हैं अवश्य ही वे अत्यन्त अद्भुत हैं, इसलिए आप अब उनकी दूसरी बाल-लीलाओं का भी वर्णन कीजिये।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! एक बार भगवान श्रीकृष्ण के करवट बदलने का अभिषेक-उत्सव मनाया जा रहा था। उसी दिन उनका जन्म नक्षत्र भी था। घर में बहुत-सी स्त्रियों के बीच में खड़ी हुईं सती-साध्वी यशोदा जी ने अपने पुत्र का अभिषेक किया। उस समय ब्राह्मण लोग मन्त्र पढ़कर आशीर्वाद दे रहे थे। नन्दरानी यशोदा जी ने ब्राह्मणों का खूब पूजन, सम्मान किया। उन्हें अन्न, वस्त्र, माला, गाय आदि मुँह माँगी वस्तुऐं दीं।

जब यशोदा जी ने उन ब्राह्मणों द्वारा स्वस्तिवाचन कराकर स्वयं बालक के नहलाने आदि का कार्य सम्पन्न कर लिया, तब यह देखकर कि मेरे लल्ला के नेत्रों में नींद आ रही है, अपने पुत्र को धीरे से शैय्या पर सुला दिया। थोड़ी देर में श्यामसुन्दर की आँखें खुलीं, तो वे स्तन-पान के लिये रोने लगे। उस समय मनस्विनी यशोदा जी उत्सव में आये हुए ब्रजवासियों के स्वागत-सत्कार में बहुत ही तन्मय हो रही थीं। इसलिए उन्हें श्रीकृष्ण का रोना सुनायी नही पड़ा। तब श्रीकृष्ण रोते-रोते अपने पाँव उछालने लगे। शिशु श्रीकृष्ण एक छकड़े के नीचे सोये हुए थे। उसके पाँव अभी लाल-लाल कोंपलों के समान बड़े ही कोमल और नन्हें-नन्हें थे। परन्तु वह नन्हा-सा पाँव लगते ही विशाल छकड़ा उलट गया[2]। उस छकड़े पर दूध-दही आदि अनेक रसों की भरी हुई मटकियाँ और दूसरे बर्तन रखे हुए थे। वे सब-के-सब फूट-फाट गये, उसका जुआ फट गया। करवट बदलने के उत्सव में जितनी भी स्त्रियाँ आयी हुई थीं, वे सब और यशोदा, रोहिणी, नन्दबाबा और गोपगण इस विचित्र घटना को देखकर व्याकुल हो गये। वे आपस में कहने लगे - ‘अरे, यह क्या हो गया? यह छकड़ा अपने-आप कैसे उलट गया?’ वे इसका कोई कारण निश्चित न करे सके। वहाँ खेलते हुए बालकों ने गोपों और गोपियों से कहा कि ‘इस कृष्ण ने ही तो रोते-रोते अपने पाँव की ठोकर से इसे उलट दिया है, इसमें कोई संदेह नहीं।' परन्तु गोपों ने उसे ‘बालकों की बात’ मानकर उस पर विश्वास नहीं किया। ठीक ही है, वे गोप उस बालक के अनन्त बल को नहीं जानते थे।

यशोदा जी ने समझा यह किसी ग्रह आदि का उत्पात है। उन्होंने अपने रोते हुए लाड़ले लाल को गोद में लेकर ब्राह्मणों से वेद मन्त्रों के द्वारा शान्ति-पाठ कराया और फिर वे उसे स्तन पिलाने लगीं। बलवान गोपों ने छकड़े को फिर से सीधा कर दिया। उस पर पहले की तरह सारी सामग्री रख दी गयी। ब्राह्मणों ने हवन किया और दही, अक्षत, कुश तथा जल के द्वारा भगवान और उस छकड़े की पूजा की।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तम अध्याय: श्लोक 13-28 का हिन्दी अनुवाद)

जो किसी के गुणों में दोष नहीं निकालते, झूठ नहीं बोलते, दम्भ, ईर्ष्या और हिंसा नहीं करते तथा अभिमान रहित हैं - उन सत्यशील ब्राह्मणों का आशीर्वाद कभी विफल नहीं होता। यह सोचकर नन्दबाबा ने बालक को गोद में उठा लिया और ब्राह्मणों से साम, ऋक और यजुर्वेद मन्त्रों द्वारा संस्कृत एवं पवित्र औषधियों से युक्त जल से अभिषेक कराया। उन्होंने बड़ी एकाग्रता से स्वस्तययनपाठ और हवन कराकर ब्राह्मणों को अति उत्तम अन्न का भोजन कराया। इसके बाद नन्दबाबा ने अपने पुत्र की उन्नति और अभिवृद्धि की कामना से ब्राह्मणों को सर्वगुण सम्पन्न बहुत-सी गौएँ दीं। वे गौएँ वस्त्र, पुष्पमाला और सोने के हारों से सजी हुई थीं। ब्राह्मणों ने उन्हें आशीर्वाद दिया। यह बात स्पष्ट है कि जो वेदवेत्ता और सदाचारी ब्राह्मण होते हैं, उनका आशीर्वाद कभी निष्फल नहीं होता।

एक दिन की बात है, सती यशोदा जी अपने प्यारे लल्ला को गोद में लेकर दुलार रहीं थीं। सहसा श्रीकृष्ण चट्टान के समान भारी बन गये। वे उनका भार न सह सकीं। उन्होंने भार से पीड़ित होकर श्रीकृष्ण को पृथ्वी पर बैठा दिया। इसके बाद उन्होंने भगवान पुरुषोत्तम का स्मरण किया और घर के काम में लग गईं। तृणावर्त नाम का एक दैत्य था। वह कंस का निजी सेवक था। कंस की प्रेरणा से ही बवंडर के रूप में वह गोकुल में आया और बैठे हुए बालक श्रीकृष्ण को उड़ाकर आकाश में ले गया। उसने ब्रज-रज से सारे गोकुल को ढक दिया और लोगों की देखने की शक्ति हर ली। उसके अत्यन्त भयंकर शब्द से दसों दिशाऐं काँप उठीं। सारा ब्रज दो घड़ी तक रज और तम से ढका रहा। यशोदा जी ने अपने पुत्र को जहाँ बैठा दिया था, वहाँ जाकर देखा तो, श्रीकृष्ण वहाँ नहीं थे। उस समय तृणावर्त ने बवंडर रूप से इतनी बालू उड़ा रखी थी कि सभी लोग अत्यन्त उद्विग्न और बेसुध हो गये थे। उन्हें अपना-पराया कुछ भी नहीं सूझ रहा था।

उस जोर की आँधी और धूल की वर्षा में अपने पुत्र का पता न पाकर यशोदा जी को बड़ा शोक हुआ। वे अपने पुत्र की याद करके बहुत ही दीन हों गयीं और बछड़े के मर जाने पर गाय की जो दशा हो जाती है, वही दशा उनकी हो गयी। वे पृथ्वी पर गिर पड़ीं। बवंडर के शान्त होने पर जब धूल की वर्षा का वेग कम हो गया, तब यशोदा जी के रोने का शब्द सुनकर दूसरी गोपियाँ वहाँ दौड़ आयीं। नन्दनन्दन श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण को न देखकर उनके हृदय में भी बड़ा सन्ताप हुआ, आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। वे फूट-फूटकर रोने लगीं इधर तृणावर्त बवंडर रूप से जब भगवान श्रीकृष्ण को आकाश में उठा ले गया, तब उनके भारी बोझ को न संभाल सकने के कारण उसका वेग शान्त हो गया। वह अधिक चल न सका।

तृणावर्त अपने से भी भारी होने के कारण श्रीकृष्ण को नीलगिरी की चट्टान समझने लगा। उन्होंने उसका गला ऐसा पकड़ा कि वह उस अद्भुत शिशु को अपने से अलग नहीं कर सका। भगवान ने इतने ज़ोर से उसका गला पकड़ रखा था कि वह असुर निश्चेष्ट हो गया। उसकी आँखें बाहर निकल आयीं, बोलती बंद हो गयी तथा प्राण-पखेरू उड़ गये और बालक श्रीकृष्ण के साथ वह ब्रज में गिर पड़ा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्तम अध्याय: श्लोक 29-37 का हिन्दी अनुवाद)

वहाँ जो स्त्रियाँ इकट्ठी होकर रो रही थीं, उन्होंने देखा कि वह विकराल दैत्य आकाश से एक चट्टान पर गिर पड़ा और उसका एक-एक अंग चकनाचूर हो गया - ठीक वैसे ही, जैसे भगवान शंकर के बाणों से आहत हो त्रिपुरासुर गिरकर चूर-चूर हो गया था। भगवान श्रीकृष्ण उसके वक्षःस्थल पर लटक रहे थे। यह देखकर गोपियाँ विस्मित हो गयीं। उन्होंने झटपट वहाँ जाकर श्रीकृष्ण को गोद में ले लिया और लाकर उन्हें माता को दे दिया। बालक मृत्यु के मुख से सकुशल लौट आया। यद्यपि उसे राक्षस आकाश में उठा ले गया था, फिर भी वह बच गया। इस प्रकार बालक श्रीकृष्ण को फिर पाकर यशोदा आदि गोपियों तथा नन्द आदि गोपों को अत्यन्त आनन्द हुआ।
वे कहने लगे ;- ‘अहो! यह तो बड़े आश्चर्य की बात है। देखो तो सही, यह कितनी अद्भुत घटना घट गयी! यह बालक राक्षस के द्वारा मृत्यु के मुख में डाल दिया गया था, परन्तु फिर जीता-जागता आ गया और उस हिंसक दुष्ट को उसके पाप ही खा गये! सच है, साधु पुरुष अपनी समता से ही सम्पूर्ण भयों से बच जाता है। हमने ऐसा कौन-सा, तप, भगवान की पूजा, प्याऊ-पौसला, कुआँ-बावली, बाग-बगीचे आदि पूर्त, यज्ञ, दान अथवा जीवों की भलाई की थी, जिसके फल से हमारा यह बालक मर कर भी अपने स्वजनों को सुखी करने के लिए लौट आया? अवश्य ही यह बड़े सौभाग्य की बात है।'
जब नन्दबाबा ने देखा कि महावन में बहुत-सी अद्भुत घटनाएँ घटित हो रही हैं, तब आश्चर्यचकित होकर उन्होंने वसुदेव जी की बात का बार-बार समर्थन किया। एक दिन की बात है, यशोदा जी अपने प्यारे शिशु को अपनी गोद में लेकर बड़े प्रेम से स्तन पान करा रहीं थीं। वे वात्सल्य-स्नेह से इस प्रकार सराबोर हो रहीं थीं कि उनके स्तनों से अपने-आप ही दूध झरता जा रहा था। जब वे प्रायः दूध पी चुके और माता यशोदा उनके रुचिर मुस्कान से युक्त मुख को चूम रहीं थीं उसी समय श्रीकृष्ण को जँभाई आ गयी और माता ने उनके मुख में यह देखा कि उसमें आकाश, अन्तरिक्ष, ज्योतिर्मण्डल, दिशाऐं, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, वायु, समुद्र, द्वीप, पर्वत, नदियाँ, वन और समस्त चराचर प्राणी स्थित हैं।

परीक्षित! अपने पुत्र के मुँह में इस प्रकार सहसा सारा जगत देखकर मृगशावक-नयनी यशोदा जी का शरीर काँप उठा। उन्होंने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें बन्द कर लीं। वे अत्यन्त आशचर्य चकित हो गयीं।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                        【अष्टम अध्याय:】८.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टम अध्याय: श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"नामकरण- संस्कार और बाललीला"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! यदुवंशियों के कुल पुरोहित थे श्री गर्गाचार्य जी। वे बड़े तपस्वी थे। वसुदेव जी की प्रेरणा से वे एक दिन नन्दबाबा के गोकुल में आये। उन्हें देखकर नन्दबाबा को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए। उनके चरणों में प्रणाम किया। इसके बाद ‘ये स्वयं भगवान ही हैं’- इस भाव से उनकी पूजा की। जब गर्गाचार्य जी आराम से बैठ गये और विधिपूर्वक उनका आतिथ्य- सत्कार हो गया, तब नन्दबाबा ने बड़ी ही मधुर वाणी से उनका अभिनन्दन किया और कहा- ‘भगवन! आप तो स्वयं पूर्णकाम हैं, फिर मैं आपकी क्या सेवा करूँ? आप-जैसे महात्माओं का हमारे-जैसे गृहस्थों के घर आ जाना ही हमारे परम कल्याण का कारण है। हम तो घरों में इतने उलझ रहे हैं और इन प्रपंचों में हमारा चित्त इतना दीन हो रहा है कि हम आपके आश्रम तक जा भी नहीं सकते। हमारे कल्याण के सिवा आपके आगमन का और कोई हेतु नहीं है। प्रभो! जो बात साधारणतः इन्द्रियों की पहुँच के बाहर है अथवा भूत और भविष्य के गर्भ में निहित हैं, वह भी ज्योतिष-शास्त्र के द्वारा प्रत्यक्ष जान ली जाती है। आपने उसी ज्योतिष-शास्त्र की रचना की है। आप ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। इसलिए मेरे इन दोनों बालकों का नामकरण आदि संस्कार आप ही कर दीजिये; क्योंकि ब्राह्मण जन्म से ही मनुष्य-मात्र का गुरु है।

गर्गाचार्यजी ने कहा ;- नन्द जी! मैं सब जगह यदुवंशियों के आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हूँ। यदि तुम्हारे पुत्र के संस्कार करूँगा, तो लोग समझेंगे कि यह तो देवकी का पुत्र है। कंस की बुद्धि बुरी है, वह पाप ही सोचा करती है। वसुदेव जी के साथ तुम्हारी बड़ी घनिष्ठ मित्रता है। जब से देवकी की कन्या से उसने यह बात सुनी है कि उसको मारने वाला और कहीं पैदा हो गया है, तबसे वह यही सोचा करता है कि देवकी के आठवें गर्भ से कन्या का जन्म नहीं होना चाहिए। यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार कर दूँ और वह इस बालक को वसुदेव जी का लड़का समझकर मार डाले, तो हमसे बड़ा अनर्थ हो जायेगा।

नन्दबाबा ने कहा ;- आचार्य जी! आप चुपचाप इस एकान्त गौशाला में केवल स्वस्तिवाचन करके इस बालक का द्विजाति समुचित नामकरण-संस्कार मात्र कर दीजिये। औरों की कौन कहे, मेरे सगे-सम्बन्धी भी इस बात को न जानने पावें।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- गर्गाचार्य जी तो संस्कार करना चाहते ही थे। जब नन्दबाबा ने उनसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब उन्होंने एकान्त में छिपकर गुप्त रूप से दोनों बालकों का नामकरण-संस्कार कर दिया।

गर्गाचार्य जी ने कहा ;- ‘यह रोहिणी का पुत्र है। इसलिये इसका नाम होगा रौहिणेय। यह अपने सगे-सम्बन्धी और मित्रों को अपने गुणों से अत्यन्त आनन्दित करेगा। इसलिए इसका दूसरा नाम होगा राम। इसके बल की कोई सीमा नहीं है, अतः इसका एक नाम बल भी है। यह यादवों में और तुम लोगों में कोई भेदभाव नहीं रखेगा और लोगों में फूट पड़ने पर मेल करवायेगा, इसलिए इसका एक नाम संकर्षण भी है। और यह जो साँवला- साँवला है, यह प्रत्येक युग में शरीर ग्रहण करता है। पिछले युगों में इसने क्रमशः श्वेत, रक्त और पीत, ये तीन विभिन्न रंग स्वीकार किये थे। अब की बार यह कृष्णवर्ण हुआ है। इसलिये इसका नाम कृष्ण होगा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टम अध्याय: श्लोक 14-24 का हिन्दी अनुवाद)

नंद जी! यह तुम्हारा पुत्र पहले कभी वसुदेव जी के घर भी पैदा हुआ था, इसलिये इस रहस्य को जानने वाले लोग इसे ‘श्रीमान वासुदेव’ भी कहते हैं। तुम्हारे पुत्र के और भी बहुत-से नाम हैं तथा रूप भी अनेक हैं। इसके जितने गुण हैं और जितने कर्म, उन सबके अनुसार अलग-अलग नाम पड़ जाते हैं। मैं तो उन नामों को जानता हूँ, परन्तु संसार के साधारण लोग नहीं जानते। यह तुम लोगों का परम कल्याण करेगा। समस्त गोप और गौओं को यह बहुत ही आनन्दित करेगा। इसकी सहायता से तुम लोग बड़ी-बड़ी विपत्तियों को बड़ी सुगमता से पार कर लोगे।

ब्रजराज! पहले युग की बात है। एक बार पृथ्वी में कोई राजा नहीं रह गया था। डाकुओं ने चारों ओर लूट-खसोट मचा रखी थी। तब तुम्हारे इसी पुत्र ने सज्जन पुरुषों की रक्षा की और इससे बल पाकर उन लोगों ने लुटेरों पर विजय प्राप्त की। जो मनुष्य तुम्हारे इस साँवले-सलोने शिशु से प्रेम करते हैं। वे बड़े भाग्यवान हैं। जैसे विष्णु भगवान के करकमलों की छत्रछाया में रहने वाले देवताओं को असुर नहीं जीत सकते, वैसे ही इससे प्रेम करने वालों को भीतर या बाहर किसी भी प्रकार के शत्रु नहीं जीत सकते। नंद जी! चाहे जिस दृष्टि से देखें - गुण में, संपत्ति और सौन्दर्य में, कीर्ति और प्रभाव में तुम्हारा यह बालक साक्षात भगवान नारायण के समान है। तुम बड़ी सावधानी और तत्परता से इसकी रक्षा करो।'

इस प्रकार नन्दबाबा को भलीभाँति समझाकर, आदेश देकर गर्गाचार्य जी अपने आश्रम को लौट गये। उनकी बात सुनकर नन्दबाबा को बड़ा ही आनन्द हुआ। उन्होंने ऐसा समझा कि मेरी सब आशा-लालसाएँ पूरी हो गयीं, मैं अब कृतकृत्य हूँ। परीक्षित! कुछ ही दिनों में राम और श्याम घुटनों और हाथों के बल बकैयाँ चल-चलकर गोकुल में खेलने लगे। दोनों भाई अपने नन्हें-नन्हें पाँवों को गोकुल की कीचड़ में घसीटते हुए चलते। उस समय उनके पाँव और कमर के घुंघरू रुनझुन बजने लगते। वह शब्द बड़ा भला मालूम पड़ता। वे दोनों स्वयं वह ध्वनि सुनकर खिल उठते। कभी-कभी वे रास्ते चलते किसी अज्ञात व्यक्ति के पीछे हो लेते। फिर जब देखते कि यह तो कोई दूसरा है, तब झक-से रह जाते और डरकर अपनी माताओं - रोहिणी जी और यशोदा जी के पास लौट आते। माताएँ यह सब देख-देखकर स्नेह से भर जातीं। उनके स्तनों से दूध की धारा बहने लगती थी।

जब उसके दोनों नन्हें-नन्हें-से शिशु अपने शरीर में कीचड़ का अंगराग लगाकर लौटते, तब उनकी सुन्दरता और भी बढ़ जाती थी। माताएँ उन्हें आते ही दोनों हाथों से गोद से लेकर हृदय से लगा लेतीं और स्तनपान कराने लगतीं, जब वे दूध पीने लगते और बीच-बीच में मुस्करा-मुस्कराकर अपनी माताओं की ओर देखने लगते, तब वे उनकी मन्द-मन्द मुसकान, छोटी-छोटी दंतुलियाँ और भोला-भाला मुँह देखकर आनन्द के समुद्र में डूबने-उतराने लगतीं। जब राम और श्याम दोनों कुछ और बड़े हुए, तब ब्रज में घर के बाहर ऐसी-ऐसी बाललीलाएँ करने लगे, जिन्हें गोपियाँ देखती ही रह जातीं। जब वे किसी बैठे हुए बछड़े की पूँछ पकड़ लेते और बछड़े डरकर इधर-उधर भागते, तब वे दोनों और भी ज़ोर से पूँछ पकड़ लेते और बछड़े उन्हें घसीटते हुए दौड़ने लगते। गोपियाँ अपने घर का काम-धंधा छोड़कर यही सब देखतीं रहतीं और हँसते-हँसते लोट-पोट होकर परम आनन्द में मग्न हो जातीं ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टम अध्याय: श्लोक 25-30 का हिन्दी अनुवाद)

कन्हैया और बलदाऊ दोनों ही बड़े चंचल और बड़े खिलाड़ी थे। वे कहीं हिरण, गाय आदि सींग वाले पशुओं के पास दौड़ जाते, तो कहीं धधकती हुई आग से खेलने के लिए कूद पड़ते। कभी दाँत से काटने वाले कुत्तों के पास पहुँच जाते, तो कभी आँख बचाकर तलवार उठा लेते। कभी कुएँ या गड्ढे के पास जल में गिरते-गिरते बचते, कभी मोर आदि पक्षियों के निकट चले जाते और कभी काँटों की ओर बढ़ जाते थे। माताएँ उन्हें बहुत बरजतीं, परन्तु एक न चलती। ऐसी स्थिति में वे घर काम-धंधा भी नहीं संभाल पातीं। उनका चित्त बच्चों को भय की वस्तुओं से बचाने की चिन्ता से अत्यन्त चंचल रहता था। राजर्षे! कुछ ही दिनों में यशोदा और रोहिणी के लाड़ले लाल घुटनों का सहारा लिए बिना अनायास ही खड़े होकर गोकुल में चलने-फिरने लगे।

ये ब्रजवासियों के कन्हैया स्वयं भगवान हैं, परम सुन्दर और परम मधुर! अब वे और बलराम अपनी ही उम्र के ग्वालबालों को अपने साथ लेकर खेलने के लिए ब्रज में निकल पड़ते और ब्रज की भाग्यवती गोपियों को निहाल करते हुए तरह-तरह के खेल खेलते। उनके बचपन की चंचलताएँ बड़ी ही अनोखी होती थीं। गोपियों को तो वे बड़ी ही सुन्दर और मधुर लगतीं। एक दिन सब-की-सब इकट्ठी होकर नन्दबाबा के घर आयीं और यशोदा माता को सुना-सुनाकर कन्हैया के करतूत कहने लगीं।

‘अरी यशोदा! यह तेरा कान्हा बड़ा नटखट हो गया है। गाय दुहने का समय न होने पर भी यह बछड़ों को खोल देता है और हम डाँटती हैं, तो ठठा-ठठाकर हँसने लगता है। यह चोरी के बड़े-बड़े उपाय करके हमारे मीठे-मीठे दही-दूध चुरा-चुराकर खा जाता है। केवल अपनी ही खाता तो भी एक बात थी, यह तो सारा दही-दूध वानरों को बाँट देता है और जब वे भी पेट भर जाने पर नहीं खा पाते, तब यह हमारे मटकों को ही फोड़ डालता है। यदि घर में कोई वस्तु इसे नहीं मिलती तो यह घर और घरवालों पर बहुत खीझता है और हमारे बच्चों को रुलाकर भाग जाता है। जब हम दही-दूध को छीकों पर रख देतीं हैं और इसके छोटे-छोटे हाथ वहाँ तक नहीं पहुँच पाते, तब यह बड़े-बड़े उपाय रचता है।

कहीं दो-चार पीढ़ो को एक के ऊपर एक रख देता है। कहीं उखल पर चढ़ जाता है तो कहीं उखल पर पीढ़ा रख देता है, जब इतने पर काम नहीं चलता, तब यह नीचे से ही उन बर्तनों में छेद कर देता है। इसे इस बात की पक्की पहचान रहती है कि किस छीके पर किस बर्तन में क्या रखा है। और ऐसे ढंग से छेड़ करना जानता है कि किसी को पता तक न चले।

जब हम अपनी वस्तुओं को बहुत अँधेरे में छिपा देतीं हैं, तब नन्दरानी! तुमने जो इसे बहुत से मणिमय आभूषण पहना रखे हैं, उनके प्रकाश से अपने-आप ही सब कुछ देख लेता है। इसके शरीर में भी ऐसी ज्योति है कि जिससे इसे सब कुछ दीख जाता है। यह इतना चालाक है कि कब कौन कहाँ रहता है, इसका पता रखता है और जब हम सब घर के काम-धंधों में उलझी रहतीं हैं, तब यह अपना काम बना लेता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टम अध्याय: श्लोक 31-41 का हिन्दी अनुवाद)

ऐसा करके भी ढिठाई की बातें करता है - उलटे हमें ही चोर बनाता और अपने घर का मालिक बन जाता है। इतना ही नहीं, यह हमारे लिपे-पुते स्वच्छ घरों में मूत्र आदि भी कर देता है। तनिक देखो तो इसकी ओर, वहाँ तो चोरी के अनेकों उपाय करके काम बनाता है और यहाँ मालूम हो रहा है मानो पत्थर की मूर्ति खड़ी हो! वाह रे भोले-भाले साधु!’ इस प्रकार गोपियाँ कहतीं जातीं और श्रीकृष्ण के भीत-चकित नेत्रों से मुखमंडल को देखती जातीं। उनकी यह दशा देखकर नन्दरानी यशोदा उनके मन का भाव ताड़ लेतीं और उनके हृदय में स्नेह और आनन्द की बाढ़ आ जाती। वे इस प्रकार हँसने लगतीं कि अपने लाड़ले कन्हैया को इस बात का उलाहना भी न दे पातीं, डाँटने की बात तक नहीं सोंचती। एक दिन बलराम आदि ग्वालबाल श्रीकृष्ण के साथ खेल रहे थे। उन लोगों ने माँ यशोदा के पास आकर कहा ;- ‘माँ! कन्हैया ने मिट्टी खायी है’।

हितैषिणी यशोदा ने श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लिया। उस समय श्रीकृष्ण की आँखें डर के मारे नाच रहीं थीं।
यशोदा मैया ने डाँटकर कहा ;- ‘क्यों रे नटखट! तू बहुत ढीठ हो गया है। तूने अकेले में छिपकर मिट्टी क्यों खायी ? देख तो तेरे दल के तेरे सखा क्या कह रहे हैं! तेरे बड़े भैया बलदाऊ भी तो उन्हीं ओर से गवाही दे रहें हैं’ ।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा ;- ‘माँ! मैंने मिट्टी नहीं खायी। ये सब झूठ बक रहें हैं। यदि तुम इन्हीं की बात सच मानती हो तो मेरा मुँह तुम्हारे सामने ही है, तुम अपनी आँखों से देख लो।
यशोदा जी ने कहा ;- ‘अच्छी बात। यदि ऐसा है, तो मुँह खोल।’ माता के ऐसा कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपना मुँह खोल दिया।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण का ऐश्वर्य अनन्त है। वे केवल लीला के लिए ही मनुष्य के बालक बने हुए हैं ।यशोदा जी ने देखा कि उनके मुँह में चर-अचर सम्पूर्ण जगत विद्यमान है। आकाश , दिशाएँ, पहाड़, द्वीप और समुद्रों के सहित सारी पृथ्वी, बहने वाली वायु, विद्युत, अग्नि, चन्द्रमा और तारों के साथ सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डल, जल, तेज, पवन, वियत, वैकारिक अहंकार के कार्य देवता, मन-इन्द्रिय, पंचतन्मात्राएँ और तीनों गुण श्रीकृष्ण के मुख में दीख पड़े। परीक्षित! जीव, काल, स्वाभाव, कर्म, उसकी वासना और शरीर आदि के द्वारा विभिन्न रूपों में दीखने वाला यह सारा विचित्र संसार, सम्पूर्ण ब्रज और अपने-आपको भी यशोदा जी ने श्रीकृष्ण के नन्हें से खुले हुए मुख में देखा। वे बड़ी शंका में पड़ गयीं। वे सोचने लगीं कि ‘यह कोई स्वप्न है या भगवान की माया? कहीं मेरी बुद्धि में ही तो कोई भ्रम नहीं हो गया है? सम्भव है, मेरे इस बालक में ही कोई जन्मजात योगसिद्धि हो।' ‘जो चित्त, मन, कर्म और वाणी के द्वारा ठीक-ठीक तथा सुगमता से अनुमान के विषय नहीं होते, यह सारा विश्व जिनके आश्रित है, जो इसके प्रेरक हैं और जिनकी सत्ता से ही इसकी प्रतीति होती है, जिसका स्वरूप सर्वथा अचिन्त्य है - उन प्रभु को मैं प्रणाम करती हूँ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टम अध्याय: श्लोक 42-52 का हिन्दी अनुवाद)

यह मैं हूँ और ये मेरे पति तथा यह मेरा लड़का है, साथ ही मैं ब्रजराज की समस्त संपत्तियों की स्वामिनी धर्मपत्नी हूँ; ये गोपियाँ गोपुर गोधन मेरे अधीन हैं - जिनकी माया से मुझे इस प्रकार की कुमति घेरे हुए है, वे भगवान ही मेरे एकमात्र आश्रय हैं - मैं उन्हीं की शरण में हूँ।' जब इस प्रकार यशोदा माता श्रीकृष्ण का तत्त्व समझ गयीं, तब सर्वशक्तिमान सर्व्यापक प्रभु ने अपनी पुत्र स्नेहमयी वैष्णवी योगमाया का उनके हृदय में संचार कर दिया। यशोदा जी को तुरंत वह घटना भूल गयी। उन्होंने अपने दुलारे लाल को गोद में उठा लिया। जैसे पहले उनके हृदय में प्रेम का समुद्र उमड़ता रहता था, वैसे ही फिर उमड़ने लगा। सारे वेद, उपनिषद, सांख्य, योग और भक्तजन जिनके माहात्मय का गीत गाते-गाते अघाते नहीं - उन्हीं भगवान को यशोदा जी अपना पुत्र मानती थीं।

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन! नन्दबाबा ने ऐसा कौन-सा बहुत बड़ा मंगलमय साधन किया था? और परमभाग्यवती यशोदा जी ने भी ऐसी कौन-सी तपस्या की थी, जिसके कारण स्वयं भगवान ने अपने श्रीमुख से उनका स्तनपान किया। भगवान श्रीकृष्ण की वे बाल-लीलाएँ, जो वे अपने ऐश्वर्य और महत्ता आदि को छिपाकर ग्वालबालों में करते हैं, इतनी पवित्र हैं कि उनका श्रवण-कीर्तन करने वाले लोगों के भी सारे पाप-ताप शान्त हो जाते हैं। त्रिकालदर्शी ज्ञानी पुरुष आज भी उनका गान करते रहते हैं। वे ही लीलाएँ उनके जन्मदाता माता-पिता देवकी-वसुदेव जी को तो देखने तक को न मिलीं और नन्द-यशोदा उनका अपार सुख लूट रहे हैं। इसका क्या कारण है?

श्री शुकदेव जी ने कहा ;- परीक्षित! नन्दबाबा पूर्वजन्म में एक श्रेष्ठ वसु थे। उनका नाम था द्रोण और उनकी पत्नी का नाम था धरा। उन्होंने ब्रह्मा जी के आदेशों का पालन करने की इच्छा से उनसे कहा ;- ‘भगवन! जब हम पृथ्वी पर जन्म लें, तब जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण में हमारी अनन्य प्रेममयी भक्ति हो - जिस भक्ति के द्वारा संसार में लोग अनायास ही दुर्गतियों को पार कर जाते हैं।' ब्रह्मा जी ने कहा ;- ‘ऐसा ही होगा।’ वे ही परम यशस्वी भवन्मय द्रोण ब्रज में पैदा हुए और उनका नाम हुआ नन्द। और वे ही धरा इस जन्म में यशोदा के नाम से उनकी पत्नी हुईं। परीक्षित! अब इस जन्म में जन्म-मृत्यु के चक्र से छुड़ाने वाले भगवान उनके पुत्र हुए और समस्त गोप-गोपियों की अपेक्षा इन पति-पत्नी नन्द और यशोदा जी का उनके प्रति अत्यन्त प्रेम हुआ। ब्रह्मा जी की बात सत्य करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण बलराम जी के साथ ब्रज में रहकर समस्त ब्रजवासियों को अपनी बाल-लीला से आनन्दित करने लगे।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                        【नवम अध्याय:】९.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: नवम अध्याय: श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)

"श्रीकृष्ण का उखल से बाँधा जाना"
श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! एक समय की बात है, नन्दरानी यशोदा जी ने घर की दासियों को तो दूसरे कामों में लगा दिया और स्वयं दही मथने लगीं मैंने तुमसे अब तक भगवान की जिन-जिन बाल-लीलाओं का वर्णन किया है, दधिमंथन के समय वे उन सबका स्मरण करतीं और गातीं भी जाती थीं।

वे अपने स्थूल कटिभाग में सूत से बाँधकर रेशमी लहँगा पहने हुए थीं। उनके स्तनों में से पुत्र-स्नेह की अधिकता से दूध चूता जा रहा था और वे काँप भी रहे थे। नेती खींचते रहने से बाँहें कुछ थक गयी थीं। हाथों में कंगन और कानों में कर्णफूल हिल रहे थे। मुँह पर पसीने की बूँदें झलक रहीं थीं। चोटी में गुँथे हुए मालती के सुन्दर पुष्प गिरते जा रहे थे। सुन्दर भौंहों वाली यशोदा इस प्रकार दही मथ रहीं थीं।

उसी समय भगवान श्रीकृष्ण स्तन पीने के लिए दही मथती हुई अपनी माता के पास आये। उन्होंने अपनी माता के हृदय में प्रेम और आनन्द को और भी बढ़ाते हुए दही की मथानी पकड़ ली तथा उन्हें मथने से रोक दिया श्रीकृष्ण माता यशोदा की गोद में चढ़ गये। वात्सल्य-स्नेह की अधिकता से उनके स्तनों से दूध तो स्वयं झर ही रहा था। वे उन्हें पिलाने लगीं और मन्द-मन्द मुस्कान से युक्त उनका मुख देखने लगीं। इतने में ही दूसरी ओर अँगीठी पर रखे हुए दूध में उफान आया। उसे देखकर यशोदा जी उन्हें अतृप्त ही छोड़कर जल्दी से दूध उतारने के लिए चली गयीं।

इससे श्रीकृष्ण को कुछ क्रोध आ गया। उनके लाल-लाल होंठ फड़कने लगे। उन्हें दाँतों से दबाकर श्रीकृष्ण ने पास ही बड़े हुए लोढ़े से दही का मटका फोड़-फाड़ डाला, बनावटी आँसू आँखों में भर लिये और दूसरे घर में जाकर अकेले में बासी माखन खाने लगे यशोदा जी औटे हुए दूध को उतारकर फिर मथने के घर में चली आयीं। वहाँ देखती हैं तो दही का मटका टुकड़े-टुकड़े हो गया है। वे समझ गयीं कि सब सब मेरे लाला की ही करतूत है। साथ ही उन्हें वहाँ न देखकर यशोदा माता हँसने लगीं। इधर-उधर ढूंढने पर पता चला कि श्रीकृष्ण एक उलटे हुए ऊखल पर खड़े हैं और छीके पर का माखन ले-लेकर बंदरों को खूब लुटा रहे हैं। उन्हें यह भी डर है कि कहीं मेरी चोरी खुल न जाय, इसलिए चौकन्ने होकर चारों ओर ताकते जाते हैं। यह देखकर यशोदा रानी पीछे से धीरे-धीरे उनके पास जा पहुँची।

जब श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी माँ हाथ में छड़ी लिये मेरी ही ओर आ रहीं हैं, तब झट से ओखली पर से कूद पड़े और डरे हुए की भाँति भागे। परीक्षित! बड़े-बड़े योगी तपस्या के द्वारा अपने मन को अत्यन्त सूक्ष्म और शुद्ध बनाकर भी जिनमें प्रवेश नहीं करा पाते, पाने की बात तो दूर रही, उन्हीं भगवान के पीछे-पीछे उन्हें पकड़ने के लिये यशोदा जी दौड़ीं जब इस प्रकार माता यशोदा श्रीकृष्ण के पीछे दौड़ने लगीं, तब कुछ ही देर में बड़े-बड़े एवं हिलते हुए नितम्बों के कारण उनकी चाल धीमी पड़ गयी। वेग से दौड़ने के कारण चोटी की गाँठ ढीली पड़ गयी। वे ज्यों-ज्यों आगे बढती, पीछे-पीछे चोटी में गुँथे हुए फूल गिरते जाते। इस प्रकार सुन्दरी यशोदा ज्यों-त्यों करके उन्हें पकड़ सकीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: नवम अध्याय: श्लोक 11-23 का हिन्दी अनुवाद)

यशोदा मैया श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर उन्हें डराने-धमकाने लगीं। उस समय श्रीकृष्ण की झाँकी बड़ी विलक्षण हो रही थी। अपराध तो किया ही था, इसलिये रुलाई रोकने पर भी न रुकती थी। हाथों से आँखें मल रहे थे, इसलिए मुँह पर काजल की स्याही फ़ैल गयी थीं, पिटने के भय से आँखें ऊपर की ओर उठ गयी थीं, उनसे व्याकुलता सूचित होती थी जब यशोदा जी ने देखा कि लल्ला बहुत डर गया है, तब उनके हृदय में वात्सल्य-स्नेह उमड़ आया। उन्होंने छड़ी फ़ेंक दी। इसके बाद सोचा कि इसको एक बार रस्सी से बाँध देना चाहिए।

परीक्षित! सच पूछो तो यशोदा मैया को अपने बालक के ऐश्वर्य का पता नहीं था जिसमें न बाहर है न भीतर, न आदि है और न अन्त; जो जगत के पहले भी थे, बाद में भी रहेंगे, इस जगत के भीतर तो हैं ही, बाहरी रूपों में भी हैं; और तो क्या, जगत के रूप में भी स्वयं वही हैं;

यही नहीं, जो समस्त इन्द्रियों से परे और अव्यक्त हैं - उन्हीं भगवान को मनुष्य का-सा रूप धारण करने के कारण पुत्र समझकर यशोदा रानी रस्सी से उखल में ठीक वैसे ही बाँध देतीं हैं, जैसे कोई साधारण-सा बालक हो। जब माता यशोदा अपने ऊधमी और नटखट लड़के को रस्सी से बाँधने लगीं, तब वह दो अंगुल छोटी पड़ गयी! तब उन्होंने दूसरी रस्सी लाकर उसमें जोड़ी जब वह भी छोटी हो गयी, तब उसके साथ और जोड़ी, इस प्रकार वे ज्यों-ज्यों रस्सी लाती और जोड़तीं गयीं, त्यों-त्यों जुड़ने पर भी वे सब दो-दो अंगुल छोटी पड़ती गयीं।

यशोदा रानी ने घर की सारी रस्सियाँ जोड़ डालीं, फिर भी वे भगवान श्रीकृष्ण को न बाँध सकीं। उनकी असफलता पर देखने वाली गोपियाँ मुस्कराने लगीं और वे स्वयं भी मुस्कराती हुई आशचर्यचकित हो गयीं। भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि मेरी माँ का शरीर पसीने से लथपथ हो गया है, चोटी में गुँथी हुई मालाएँ गिर गयीं हैं और वे बहुत थक भी गयीं हैं; तब कृपा करके वे स्वयं ही अपनी माँ के बंधन में बन्ध गये।

परीक्षित! भगवान श्रीकृष्ण परम स्वतंत्र हैं। ब्रह्मा, इन्द्र आदि के साथ यह सम्पूर्ण जगत उनके वश में है। फिर भी इस प्रकार बँधकर उन्होंने संसार को यह बात दिखला दी कि मैं अपने प्रेमी भक्तों के वश में हूँ। ग्वालिनी यशोदा ने मुक्तिदाता मुकुन्द से जो कुछ अनिर्वचनीय कृपा प्रसाद प्राप्त किया वह प्रसाद ब्रह्मा पुत्र होने पर भी, शंकर आत्मा होने पर भी और वक्षःस्थल पर विराजमान लक्ष्मी अर्धांगिनी होने पर भी न पा सके। यह गोपिकानंदन भगवान अनन्यप्रेमी भक्तों के लिए जितने सुलभ हैं, उतने देहाभिमानी कर्मकाण्डी एवं तपस्वियों को तथा अपने स्वरूप भूत ज्ञानियों के लिए भी नहीं हैं। इसके बाद नन्दरानी यशोदा जी तो घर के काम-धंधों में उलझ गयीं और ऊखल में बंधे हुए भगवान श्यामसुन्दर ने उन दोनों अर्जुन वृक्षों को मुक्ति देने की सोची, जो पहले यक्षराज कुबेर के पुत्र थे। इनके नाम थे नलकूबर और मणिग्रीव। इनके पास धन, सौन्दर्य और ऐश्वर्य की पूर्णता थी। इनका घमण्ड देखकर ही देवर्षि नारदजी ने इन्हें शाप दे दिया था और ये वृक्ष हो गये थे।

                           {दशम स्कन्ध:} (पूर्वार्ध)

                        【दशम अध्याय:】१०.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: दशम अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"यमलार्जुन का उद्धार"
राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन! आप कृपया यह बतलाइये कि नलकूबर और मणिग्रीव को शाप क्यों मिला। उन्होंने ऐसा कौन-सा निन्दित कर्म किया था, जिसके कारण परम शान्त देवर्षि नारद जी को भी क्रोध आ गया?

श्री शुकदेव जी ने कहा ;- परीक्षित! नलकूबर और मणिग्रीव - ये दोनों एक तो धनाध्यक्ष कुबेर के लाड़ले लड़के थे और दूसरे इनकी गिनती हो गयी रुद्र भगवान के अनुचरों में। इससे उनका घमण्ड बढ़ गया। एक दिन वे दोनों मन्दाकिनी के तट पर कैलाश के रमणीय उपवन में वारुणी मदिरा पीकर मदोन्मत्त हो गये थे। नशे के कारण उनकी आँखें घूम रही थीं। बहुत-सी स्त्रियाँ उनके साथ गा-बजा रहीं थीं और वे पुष्पों से लदे हुए वन में उनके साथ विहार कर रहे थे। उस समय गंगा जी में पाँत-के-पाँत कमल खिले हुए थे। वे स्त्रियों के साथ जल के भीतर घुस गये और जैसे हाथियों का जोड़ा हथिनियों के साथ जलक्रीडा कर रहा हो, वैसे ही वे उन युवतियों के साथ तरह-तरह की क्रीडा करने लगे।

परीक्षित! संयोगवश उधर से परम समर्थ देवर्षि नारद जी आ निकले। उन्होंने उन यक्ष-युवकों को देखा और समझ लिया कि ये इस समय मतवाले हो रहे हैं। देवर्षि नारद को देखकर वस्त्रहीन अप्सराएँ लजा गयीं। शाप के डर से उन्होंने तो अपने-अपने कपड़े झटपट पहन लिये, परन्तु इन यक्षों ने कपड़े नहीं पहने। जब देवर्षि नारद ने देखा कि ये देवताओं के पुत्र होकर श्रीमद से अन्धे और मदिरापान करके उन्मत्त हो रहे हैं, तब उन्होंने उन पर अनुग्रह करने के लिए शाप देते हुए यह कहा -
नारद जी ने कहा ;- जो लोग अपने प्रिय विषयों का सेवन करते हैं, उनकी बुद्धि को सबसे बढ़कर नष्ट करने वाला है श्रीमद - धन सम्पत्ति का नशा। हिंसा आदि रजोगुणी कर्म और कुलीनता आदि का अभिमान भी उससे बढ़कर बुद्धिभ्रंशक नहीं है; क्योंकि श्रीमद के साथ-साथ तो स्त्री, जुआ और मदिरा भी रहती है।

ऐश्वर्यमद और श्रीमद से अंधे होकर अपनी इन्द्रियों के वश में रहने वाले क्रूर पुरुष अपने नाशवान शरीर को तो अजर-अमर मान बैठते हैं और अपने ही जैसे शरीर वाले पशुओं की हत्या करते हैं। जिस शरीर को ‘भूदेव’, ‘नरदेव’, ‘देव’ आदि नामों से पुकारते हैं - उसकी अन्त में क्या गति होगी? उसमें कीड़े पड़ जायँगे, पक्षी खाकर उसे विष्ठा बना देंगे या वह जलकर राख का ढेर बन जायगा। उसी शरीर के लिये प्राणियों से द्रोह करने में मनुष्य अपना कौन-सा स्वार्थ समझता है? ऐसा करने में तो उसे नरक की ही प्राप्ति होगी।

बतलाओ तो सही, यह शरीर किसकी सम्पत्ति है? अन्न देकर पालने वाले की है या गर्भाधान अक्राने वाले पिता की? यह शरीर उसे नौ महीने पेट में रखने वाली माता का है अथवा माता को पैदा करने वाले नाना का? जो बलवान पुरुष बलपूर्वक इससे काम करा लेता है, उसका है अथवा दाम देकर खरीद लेने वाले का? चिता की जिस धधकती आग में यह जल जायगा, उसका है अथवा जो कुत्ते-स्यार उसको चीथ-चीथकर खा जाने की आशा लगाये बैठे हैं, उनका?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: दशम अध्याय: श्लोक 12-25 का हिन्दी अनुवाद)

जो दुष्ट श्रीमद से अंधे हो रहे हैं, उनकी आँखों में ज्योति डालने के लिए दरिद्रता ही सबसे बड़ा अंजन है; क्योंकि दरिद्र यह देख सकता है कि दूसरे प्राणी भी मेरे ही जैसे हैं ।

जिसके शरीर में एक बार काँटा गड़ जाता है, वह नहीं चाहता कि किसी भी प्राणी को काँटा गड़ने की पीड़ा सहनी पड़े; क्योंकि उस पीड़ा और उसके द्वारा होने वाले विकारों से वह समझता है कि दूसरे को भी वैसी ही पीड़ा होती है। परन्तु जिसे कभी काँटा गड़ा ही नहीं, वह उसकी पीड़ा का अनुमान नहीं कर सकता।

दरिद्र में घमण्ड और हेकड़ी नहीं होती; वह सब तरह के मदों से बचा रहता है। बल्कि देववश उसे जो कष्ट उठाना पड़ता है, वह उसके लिए एक बहुत बड़ी तपस्या भी है।

जिसे प्रतिदिन भोजन के लिय अन्न जुटाना पड़ता है, भूख से जिसका शरीर दुबला-पतला हो गया है, उस दरिद्र की इन्द्रियाँ भी अधिक विषय नहीं भोगना चाहतीं, सूख जाती हैं और फिर वह अपने भोगों के लिए दूसरे प्राणियों को सताता नहीं - उसकी हिंसा नहीं करता।

यद्यपि साधु पुरुष समदर्शी होते हैं, फिर भी उनका समागम दरिद्र के लिये ही सुलभ है; क्योंकि उसके भोग तो पहले से ही छूटे हुए हैं। अब संतों के संग से उसकी लालसा-तृष्णा भी मिट जाती है और शीघ्र ही उसका अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। जिन महात्माओं के चित्त में सबके लिये समता है, जो केवल भगवान के चरणारविन्दों का मकरन्द-रस पीने के लिए सदा उत्सुक रहते हैं, उन्हें दुर्गुणों के खजाने अथवा दुराचारियों की जीविका चलाने वाले और धन के मद से मतवाले दुष्टों की क्या आवश्यकता है? वे तो उसकी उपेक्षा के ही पात्र हैं।

ये दोनों यक्ष वारुणी मदिरा का पान करके मतवाले और श्रीमद से अंधे हो रहे हैं। अपनी इन्द्रियों के अधीन रहनेवाले इन स्त्री-लम्पट यक्षों का अज्ञानजनित मद मैं चूर-चूर कर दूँगा। देखो तो सही, कितना अनर्थ है कि ये लोकपाल कुबेर के पुत्र होने पर भी मदोन्मत्त होकर अचेत हो रहे हैं और इनको इस बात का भी पता नहीं है कि हम बिलकुल नंग-धडंग हैं। इसलिए ये दोनों अब वृक्ष योनि में जाने के योग्य हैं। ऐसा होने से इन्हें फिर इस प्रकार का अभिमान न होगा। वृक्ष योनि में जाने पर भी मेरी कृपा से इन्हें भगवान की स्मृति बनी रहेगी और मेरे अनुग्रह से देवताओं के सौ वर्ष बीतने पर इन्हें भगवान श्रीकृष्ण का सानिध्य प्राप्त होगा और फिर भगवान के चरणों में परम प्रेम प्राप्त करके ये अपने लोक में चले आयेंगे।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- देवर्षि! नारद इस प्रकार कहकर भगवान नर-नारायण के आश्रम पर चले गये। नलकूबर और मणिग्रीव - ये दोनों एक ही साथ अर्जुन वृक्ष होकर यमलार्जुन नाम से प्रसिद्ध हुए। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने परम प्रेमी भक्त देवर्षि नारद की बात सत्य करने के लिए धीरे-धीरे ऊखल घसीटते हुए उस ओर प्रस्थान किया, जिधर यमलार्जुन वृक्ष थे। भगवान ने सोचा कि ‘देवर्षि नारद मेरे अत्यन्त प्यारे हैं और ये दोनों भी मेरे भक्त कुबेर के लड़के हैं। इसलिए महात्मा नारद ने जो कुछ कहा है, उसे मैं ठीक उसी रूप में पूरा करूँगा।’

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: दशम अध्याय: श्लोक 26-38 का हिन्दी अनुवाद)

यह विचार करके भगवान श्रीकृष्ण दोनों वृक्षों के बीच में घुस गये। वे तो दूसरी ओर निकल गये, परन्तु ऊखल टेढ़ा होकर अटक गया। दामोदर भगवान श्रीकृष्ण की कमर में रस्सी कसी हुई थी। उन्होंने अपने पीछे लुढ़कते हुए ऊखल को ज्यों ही तनिक ज़ोर से खींचा, त्यों ही पेड़ों की सारी जड़ें उखड़ गयीं। समस्त बल-विक्रम के केन्द्र भगवान का तनिक-सा ज़ोर लगते ही पेड़ों के तने, शाखाएँ, छोटी-छोटी डालियाँ और एक-एक पत्ता काँप उठा और वे दोनों बड़े ज़ोर से तड़तड़ाते हुए पृथ्वी पर गिर पड़े। उन दोनों वृक्षों में से अग्नि के समान तेजस्वी दो सिद्ध पुरुष निकले। उनके चमचमाते हुए सौन्दर्य से दिशाएँ दमक उठीं। उन्होंने सम्पूर्ण लोकों के स्वामी भगवान श्रीकृष्ण के पास आकर उनके चरणों में सर रखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर शुद्ध हृदय से वे उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे -

उन्होंने कहा ;- सच्चिदानन्दस्वरूप! सबको अपनी ओर आकर्षित करने वाले परम योगेश्वर श्रीकृष्ण! आप प्रकृति से अतीत स्वयं पुरुषोत्तम हैं। वेदज्ञ ब्राह्मण यह बात जानते हैं कि यह व्यक्त और अव्यक्त सम्पूर्ण जगत आपका ही रूप है। आप ही समस्त प्राणियों के शरीर, प्राण, अंतःकरण और इन्द्रियों के स्वामी हैं तथा आप ही सर्वशक्तिमान काल, सर्वव्यापक एवं अविनाशी ईश्वर हैं। आप ही महत्तत्त्व और वह प्रकृति हैं, जो अत्यन्त सूक्ष्म एवं सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणरूपा है। आप ही समस्त स्थूल और सूक्ष्म शरीरों के कर्म, भाव, धर्म और सत्ता को जानने वाले सबके साक्षी परमात्मा हैं। वृत्तियों से ग्रहण किये जाने वाले प्रकृति के गुणों और विकारों के द्वार आप पकड़ में नहीं आ सकते।

स्थूल और सूक्ष्म शरीर के आवरण से ढका हुआ ऐसा कौन-सा पुरुष है, जो आपको जान सक? क्योंकि आप तो उन शरीरों के पहले भी एकरस विद्यमान थे। समस्त प्रपंच के विधाता भगवान वासुदेव को हम नमस्कार करते हैं। प्रभो! आपके द्वारा प्रकाशित होने वाले गुणों से ही आपने अपनी महिमा छिपा रखी है। परब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण! हम आपको नमस्कार करते हैं। आप प्राकृत शरीर से रहित हैं। फिर भी जब ऐसे पराक्रम प्रकट करते हैं, जो साधारण शरीरधारियों के लिए शक्य नहीं है और जिसने बढ़कर तो क्या जिनके समान भी कोई नहीं कर सकता, तब उनके द्वारा उन शरीरों में आपके अवतारों का पता चलता है।

प्रभो! आप ही समस्त लोकों के अभ्युदय और निःश्रेयसके लिए इस समय अपनी सम्पूर्ण शक्तियों से अवतीर्ण हुए हैं। आप समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले हैं। परम कल्याण (साध्य) स्वरूप! आपको नमस्कार है। परम मंगल (साधन) स्वरूप! आपको नमस्कार हैं। परम शान्त, सबके हृदय में विहार करने वाले यदुवंश शिरोमणि श्रीकृष्ण को नमस्कार है। अनन्त! हम आपके दासानुदास हैं। आप यह स्वीकार कीजिये। देवर्षि भगवान नारद के परम अनुग्रह से ही हम अपराधियों को आपका दर्शन प्राप्त हुआ है।

प्रभो! हमारी वाणी आपके मंगलमय गुणों का वर्णन करती रहे। हमारे कान आपकी रसमयी कथा में लगे रहें। हमारे हाथ आपकी सेवा में और मन आपके चरण-कमलों की स्मृति में रम जाये। यह सम्पूर्ण जगत आपका निवास-स्थान है। हमारा मस्तक सबके सामने झुका रहे। संत आपके प्रत्यक्ष शरीर हैं। हमारी आँखें उनके दर्शन करती रहें।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: दशम अध्याय: श्लोक 39-43 का हिन्दी अनुवाद)

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- सौन्दर्य-माधुर्यनिधि गोकुलेश्वर श्रीकृष्ण नलकूबर और मणिग्रीव के इस प्रकार स्तुति करने पर रस्सी से उखल बँधे-बँधे ही हँसते हुए उनसे कहा -

श्री भगवान ने कहा ;- तुम लोग श्रीमद से अंधे हो रहे थे। मैं पहले से ही यह बात जानता था कि परम कारुणिक देवर्षि नारद ने शाप देकर तुम्हारा ऐश्वर्य नष्ट कर दिया तथा इस प्रकार तुम्हारे ऊपर कृपा की।

जिसकी बुद्धि समदर्शिनी है और हृदय पूर्ण रूप से मेरे प्रति समर्पित है, उन साधु पुरुषों के दर्शन से बंधन होना ठीक वैसे ही सम्भव नहीं है, जैसे सूर्योदय होने पर नेत्रों के सामने अन्धकार होना।

इसलिए नलकूबर और मणिग्रीव! तुम लोग मेरे परायण होकर अपने-अपने घर जाओ। तुम लोगों को संसार चक्र से छुड़ाने वाले अनन्य भक्तिभाव की, जो तुम्हें अभीष्ट है, प्राप्ति हो गयी है।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- जब भगवान ने इस प्रकार कहा, तब उन दोनों ने उनकी परिक्रमा की और बार-बार प्रणाम किया। इसके बाद ऊखल में बंधे हुए सर्वेश्वर की आज्ञा प्राप्त करके उन लोगों ने उत्तर दिशा की यात्रा की।

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