सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( नवम स्कन्धः ) का छठवाँ, सातवाँ, आठवाँ, नवाँ व दसवाँ अध्याय [ The six, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Ninth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( नवम स्कन्धः ) का छठवाँ, सातवाँ, आठवाँ, नवाँ व दसवाँ अध्याय [ The six, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Ninth wing) ]



                           {नवम स्कन्ध:}

                        【षष्ठ अध्याय:】६.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"इक्ष्वाकु के वंश का वर्णन, मान्धाता और सौभरि ऋषि की कथा"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अम्बरीष के तीन पुत्र थे- विरूप, केतुमान् और शम्भु। विरूप से पृषदश्व और उसका पुत्र रथीतर हुआ। रथीतर सन्तानहीन था। वंश परम्परा की रक्षा के लिये उसने अंगिरा ऋषि से प्रार्थना की, उन्होंने उसकी पत्नी से ब्रह्मतेज से सम्पन्न कई पुत्र उत्पन्न किये। यद्यपि ये सब रथीतर की भार्या से उत्पन्न हुए थे, इसलिये इनका गोत्र वही होना चाहिये था, जो रथीतर का था, फिर भी वे आंगिरस ही कहलाये। ये ही रथीतर-वंशियों के प्रवर (कुल में सर्वश्रेष्ठ पुरुष) कहलाये। क्योंकि ये क्षत्रोपेत ब्राह्मण थे-क्षत्रिय और ब्राह्मण दोनों गोत्रों से इनका सम्बन्ध था।

परीक्षित! एक बार मनु जी के छींकने पर उनकी नासिका से इक्ष्वाकु नाम पुत्र उत्पन्न हुआ। इक्ष्वाकु के सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़े तीन थे- विकुक्षि, निमि और दण्डक। परीक्षित! उनसे छोटे पचीस पुत्र आर्यावर्त के पूर्वभाग के और पचीस पश्चिम भाग के तथा उपर्युक्त तीन मध्य भाग के अधिपति हुए। शेष सैंतालीस दक्षिण आदि अन्य प्रान्तों के अधिपति हुए।

एक बार राजा इक्ष्वाकु ने अष्टका-श्राद्ध के समय अपने बड़े पुत्र को आज्ञा दी- ‘विकुक्षे! शीघ्र ही जाकर श्राद्ध के योग्य पवित्र पशुओं का मांस लाओ’। वीर विकुक्षे ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर वन की यात्रा की। वहाँ उसने श्राद्ध के योग्य बहुत-से पशुओं का शिकार किया। वह थक तो गया ही ता, भूख भी लग आयी थी; इसलिये यह बात भूल गया कि श्राद्ध के लिये मारे हुए पशु को स्वयं न खाना चाहिये। उसने एक खरगोश खा लिया। विकुक्षि ने बचा हुआ मांस लाकर अपने पिता को दिया। इक्ष्वाकु ने अब अपने गुरु से उसे प्रोक्षण करने के लिये कहा, तब गुरु जी ने बताया कि यह मांस तो दूषित एवं श्राद्ध के अयोग्य है।

परीक्षित! गुरु जी के कहने पर राजा इक्ष्वाकु को अपने पुत्र की करतूत का पता चल गया। उन्होंने शास्त्रीय विधि का उल्लंघन करने वाले पुत्र को क्रोधवश अपने देश से निकाल दिया। तदनन्तर राजा इक्ष्वाकु ने अपने गुरुदेव वसिष्ठ से ज्ञान विषयक चर्चा की। फिर योग के द्वारा शरीर का परित्याग करके उन्होंने परमपद प्राप्त किया। पिता का देहान्त हो जाने पर विकुक्षि अपनी राजधानी में लौट आया और इस पृथ्वी का शासन करने लगा। उसने बड़े-बड़े यज्ञों से भगवान् की आराधना की और संसार में शशाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

विकुक्षि के पुत्र का नाम था पुरंजय। उसी को कोई ‘इन्द्रवाह’ और कोई ‘कुकुत्स्थ’ कहते हैं। जिन कर्मों के कारण उसके ये नाम पड़े थे, उन्हें सुनो।

सत्ययुग के अन्त में देवताओं का दानवों के साथ घोर संग्राम हुआ था। उसमें सब-के-सब देवता दैत्यों से हार गये। तब उन्होंने वीर पुरंजय को सहायता के लिये अपना मित्र बनाया। पुरंजय ने कहा कि ‘यदि देवराज इन्द्र मेरे वाहन बनें तो मैं युद्ध कर सकता हूँ।’ पहले तो इन्द्र ने अस्वीकार कर दिया, परन्तु देवताओं के आराध्यदेव सर्वशक्तिमान् विश्वात्मा भगवान् की बात मानकर पीछे वे एक बड़े भारी बैल बन गये। सर्वान्तर्यामी भगवान् विष्णु ने अपनी शक्ति से पुरंजय को भर दिया। उन्होंने कवच पहकर दिव्य धनुष और तीखे बाण ग्रहण किये। इसके बाद बैल पर चढ़कर वे उसके ककुद् (डील) के पास बैठ गये। जब इस प्रकार वे युद्ध के लिये तत्पर हुए, तब देवता उनकी स्तुति करने लगे। देवताओं को साथ लेकर उन्होंने पश्चिम की ओर से दैत्यों का नगर घेर लिया।



(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद)

वीर पुरंजय का दैत्यों के साथ अत्यन्त रोमांचकारी घोर संग्राम हुआ। युद्ध में जो-जो दैत्य उनके सामने आये पुरंजय ने बाणों के द्वारा उन्हें यमराज के हवाले कर दिया। उनके बाणों की वर्षा क्या थी, प्रलयकाल की धधकती हुई आग थी। जो भी उसके सामने आता, छिन्न-भिन्न हो जाता। दैत्यों का साहस जाता रहा। वे रणभूमि छोड़कर अपने-अपने घरों में घुस गये। पुरंजय ने उनके नगर, धन और ऐश्वर्य-सब कुछ जीतकर इन्द्र को दे दिया। इसी से उन राजर्षि को पुर जीतने के कारण ‘पुरंजय’, इन्द्र को वाहन बनाने के कारण ‘इन्द्रवाह’ और बैल के ककुद पर बैठने के कारण ‘काकुत्स्थ’ कहा जाता है।

पुरंजय का पुत्र था अनेना। उसका पुत्र पृथु हुआ। पृथु के विश्वरन्धि, उसके चन्द्र और चन्द्र के युवनाश्व। युवनाश्व के पुत्र हुए शाबस्त, जिन्होंने शाबस्तीपुरी बसायी। शाबस्त के बृहदश्व और उसके कुवलयाश्व हुए। ये बड़े बली थे। इन्होंने उतंक ऋषि को प्रसन्न करने के लिये अपने इक्कीस हजार पुत्रों को साथ लेकर धुन्धु नामक दैत्य का वध किया। इसी से उनका नाम हुआ ‘धुन्धुमार’। धुन्धु दैत्य के मुख की आग से उनके सब पुत्र जल गये। केवल तीन ही बच रहे थे।

परीक्षित! बचे हुए पुत्रों के नाम थे-दृढ़ाश्व, कपिलाश्व और भद्राश्व। दृढ़ाश्व से हर्यश्व और उससे निकुम्भ का जन्म हुआ। निकुम्भ के बर्हणाश्व, उनके कृशाश्व, कृशाश्व के सेनजित् और सेनजित् के युवनाश्व नामक पुत्र हुआ। युवनाश्व सन्तानहीन था, इसलिये वह बहुत दुःखी होकर अपनी सौ स्त्रियों के साथ वन में चला गया। वहाँ ऋषियों ने बड़ी कृपा करके युवनाश्व से पुत्र-प्राप्ति के लिये बड़ी एकाग्रता के साथ इन्द्र देवता का यज्ञ कराया।

एक दिन राजा युवनाश्व को रात्रि के समय बड़ी प्यास लगी। वह यज्ञशाला में गया, किन्तु वहाँ देखा कि ऋषि लोग तो सो रहे हैं। तब जल मिलने का और कोई उपाय न देख उसने वह मन्त्र से अभिमन्त्रित जल ही पी लिया। परीक्षित! जब प्रातःकाल ऋषि लोग सोकर उठे और उन्होंने देखा कि कलश में तो जल ही नहीं है, तब उन लोगों ने पूछा कि ‘यह किसका काम है? पुत्र उत्पन्न करने वाला जल किसने पी लिया? अन्त में जब उन्हें यह मालूम हुआ कि भगवान की प्रेरणा से राजा युवनाश्व ने ही उस जल को पी लिया है तो उन लोगों ने भगवान के चरणों में नमस्कार किया और कहा- ‘धन्य है! भगवान का बल ही वास्तव में बल है’। इसके बाद प्रसव का समय आने पर युवनाश्व की दाहिनी कोख फाड़कर उसके एक चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न हुआ। उसे रोते देख ऋषियों ने कहा- ‘यह बालक दूध के लिये बहुत रो रहा है; अतः किसका दूध पियेगा?’ तब इन्द्र ने कहा, ‘मेरा पियेगा’, ‘(माँ धाता)’ ‘बेटा! तू रो मत।’ यह कहकर इन्द्र ने अपनी तर्जनी अँगुली उसके मुँह में डाल दी। ब्राह्मण और देवताओं के प्रसाद से उस बालक के पिता युवनाश्व की भी मृत्यु नहीं हुई। वह वहीं तपस्या करके मुक्त हो गया।



परीक्षित! इन्द्र ने उस बालक का नाम रखा त्रसद्दस्यु, क्योंकि रावण आदि दस्यु (लुटेरे) उससे उद्विग्न एवं भयभीत रहते थे। युवनाश्व के पुत्र मान्धाता (त्रसद्दस्यु) चक्रवर्ती राजा हुए। भगवान के तेज से तेजस्वी होकर उन्होंने अकेले ही सातों द्वीप वाली पृथ्वी का शासन किया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 35-46 का हिन्दी अनुवाद)

वे यद्यपि आत्मज्ञानी थे, उन्हें कर्म-काण्ड की कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी-फिर भी उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञों से उन यज्ञ स्वरूप प्रभु की आराधना की जो स्वयंप्रकाश, सर्वदेवस्वरूप, सर्वात्मा एवं इन्द्रियातीत हैं। भगवान् के अतिरिक्त और है ही क्या? यज्ञ की सामग्री, मन्त्र, विधि-विधान, यज्ञ, यजमान, ऋत्विज्, धर्म, देश और काल-यह सब-का-सब भगवान् का ही स्वरूप तो है।

परीक्षित! जहाँ से सूर्य का उदय होता है और जहाँ वे अस्त होते हैं, वह सारा-का-सारा भूभाग युवनाश्व के पुत्र मान्धाता के ही अधिकार में था।

राजा मान्धाता की पत्नी शशबिन्दु की पुत्री बिन्दुमती थी। उसके गर्भ से उनके तीन पुत्र हुए- पुरुकुत्स, अम्बरीष (ये दूसरे अम्बरीष हैं) और योगी मुचुकुन्द। इनकी पचास बहनें थीं। उन पचासों ने अकेलें सौभरि ऋषि को पति के रूप में वरण किया। परमतपस्वी सौभरिजी एक बार यमुना के जल में डुबकी लगाकर तपस्या कर रहे थे। वहाँ उन्होंने देखा कि एक मत्स्यराज अपनी पत्नियों के साथ बहुत सुखी हो रहा है। उसके इस सुख को देखकर ब्राह्मण सौभरि के मन में भी विवाह करने की इच्छा जग उठी और उन्होंने राजा मान्धाता के पास आकर उनकी पचास कन्याओं में से एक कन्या माँगी।

राजा ने कहा ;- ‘ब्रह्मन! कन्या स्वयंवर में आपको चुन ले तो आप उसे ले लीजिये’।

सौभरि ऋषि राजा मान्धाता का अभिप्राय समझ गये। उन्होंने सोचा कि ‘राजा ने इसलिये मुझे ऐसा सूखा जवाब दिया है कि अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ, शरीर में झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, बाल पक गये हैं और सिर काँपने लगा है। अब कोई स्त्री मुझसे प्रेम नहीं कर सकती। अच्छी बात है। मैं अपने को ऐसा सुन्दर बनाऊँगा कि राजकन्याएँ तो क्या, देवांगनाएँ भी मेरे लिये लालायित हो जायेंगी।’ ऐसा सोचकर समर्थ सौभरि जी ने वैसा ही किया।

फिर क्या था, अन्तःपुर के रक्षक ने सौभरि मुनि को कन्याओं के सजे-सजाये महल में पहुँचा दिया। फिर तो उन पचासों राजकन्याओं ने एक सौभरि को ही अपना पति चुन लिया। उन कन्याओं का मन सौभरि जी में इस प्रकार आसक्त हो गया कि वे उनके लिये आपस के प्रेमभाव को तिलांजलि देकर परस्पर कलह करने लगीं और एक-दूसरी से कहने लगी कि ‘ये तुम्हारे योग्य नहीं, मेरे योग्य हैं। ऋग्वेदी सौभरि ने उन सभी का पाणिग्रहण कर लिया। वे अपनी अपार तपस्या के प्रभाव से बहुमूल्य सामग्रियों से सुसज्जित, अनेकों उपवनों और निर्मल जल से परिपूर्ण सरोवरों से युक्त एवं सौगन्धिक पुष्पों के बगीचों से घिरे महलों में बहुमूल्य शय्या, आसन, वस्त्र, आभूषण, सनान, अनुलेपन, सुस्वादु भोजन और पुष्प मालाओं के द्वारा अपनी पत्नियों के साथ विहार करने लगे। सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये स्त्री-पुरुष सर्वदा उनकी सेवा में लगे रहते। कहीं पक्षी चहकते रहते तो कहीं भौंरें गुंजार करते रहते और कहीं-कहीं वन्दीजन उनकी विरदावली का बखान करते रहते।



(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 47-55 का हिन्दी अनुवाद)

सप्तद्वीपवती पृथ्वी के स्वामी मान्धाता सौभरि जी की इस गृहस्थी का सुख देखकर आश्चर्यचकित हो गये। उनका यह गर्व कि मैं सार्वभौम सम्पत्ति का स्वामी हूँ, जाता रहा। इस प्रकार सौभरि जी गृहस्थी के सुख में रम गये और अपनी नीरोग इन्द्रियों से अनेकों विषयों का सेवन करते रहे। फिर भी जैसे घी की बूँदों से आग तृप्त नहीं होती, वैसे ही उन्हें सन्तोष नहीं हुआ।

ऋग्वेदाचार्य सौभरि जी एक दिन स्वस्थ चित्त से बैठे हुए थे। उस समय उन्होंने देखा कि मत्स्यराज के क्षण भर के संग से मैं किस प्रकार अपनी तपस्या तथा अपना आपा तक खो बैठा। वे सोचने लगे- ‘अरे, मैं तो बड़ा तपस्वी था। मैंने भलीभाँति अपने व्रतों का अनुष्ठान भी किया था। मेरा यह अधःपतन तो देखो! मैंने दीर्घकाल से अपने ब्रह्मतेज को अक्षुण्ण रखा था, परन्तु जल के भीतर विहार करती हुई एक मछली के संसर्ग से मेरा वह ब्रह्मतेज नष्ट हो गया। अतः जिसे मोक्ष की इच्छा है, उस पुरुष को चाहिये कि वह भोगी प्राणियों का संग सर्वथा छोड़ दे और एक क्षण के लिये भी अपनी इन्द्रियों को बहिर्मुख न होने दे। अकेला ही रहे और एकान्त में अपने चित्त को सर्वशक्तिमान् भगवान् में ही लगा दे।

यदि संग करने की आवश्यकता ही हो तो भगवान् के अनन्य प्रेमी निष्ठावान् महात्माओं का ही संग करे। मैं पहले एकान्त में अकेला ही तपस्या में संलग्न था। फिर जल में मछली का संग होने से विवाह करके पचास हो गया और फिर सन्तानों के रूप में पाँच हजार। विषयों में सत्य बुद्धि होने से माया के गुणों ने मेरी बुद्धि हर ली। अब तो लोक और परलोक के सम्बन्ध में मेरा मन इतनी लालसाओं से भर गया है कि मैं किसी तरह उनका पार ही नहीं पाता।

इस प्रकार विचार करते हुए वे कुछ दिनों तक तो घर में ही रहे। फिर विरक्त होकर उन्होंने संन्यास ले लिया और वे वन में चले गये। अपने पति को ही सर्वस्व मानने वाली उनकी पत्नियों ने भी उनके साथ ही वन की यात्रा की। वहाँ जाकर परमसंयमी सौभरि जी ने बड़ी घोर तपस्या की, शरीर को सुखा दिया तथा आहवनीय आदि अग्नियों के साथ ही अपने-आपको परमात्मा में लीन कर दिया।



परीक्षित! उनकी पत्नियों ने जब अपने पति सौभरि मुनि की आध्यात्मिक गति देखी, तब जैसे ज्वालाएँ शान्त अग्नि में लीन हो जाती हैं-वैसे ही वे उनके प्रभाव से सती होकर उन्हीं में लीन हो गयीं, उन्हीं की गति को प्राप्त हुईं।

                           {नवम स्कन्ध:}

                        【सातवाँ अध्याय:】७.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा त्रिशंकु और हरिश्चन्द्र की कथा"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! मैं वर्णन कर चुका हूँ कि मान्धाता के पुत्रों में सबसे श्रेष्ठ अम्बरीष थे। उनके दादा युवनाश्व ने उन्हें पुत्ररूप में स्वीकार कर लिया। उनका पुत्र हुआ यौवनाश्व और यौवनाश्व का हरीत। मान्धाता के वंश में ये तीन अवान्तर गोत्रों के प्रवर्तक हुए।

नागों ने अपनी बहिन नर्मदा का विवाह पुरुकुत्स से कर दिया था। नागराज वासुकि की आज्ञा से नर्मदा अपने पति को रसातल में ले गयी। वहाँ भगवान् की शक्ति से सम्पन्न होकर पुरुकुत्स ने वध करने योग्य गन्धर्वों को मार डाला। इस पर नागराज ने प्रसन्न होकर पुरुकुत्स को वर दिया कि जो इस प्रसंग का स्मरण करेगा, वह सर्पों से निर्भय हो जायेगा। राजा पुरुकुत्स का पुत्र त्रसद्दस्यु था। उसके पुत्र हुए अनरण्य। अनरण्य के हर्यश्व, उसके अरुण और अरुण के त्रिबन्धन हुए।

त्रिबन्धन के पुत्र सत्यव्रत हुए। यही सत्यव्रत 'त्रिशंकु' के नाम से विख्यात हुए। यद्यपि त्रिशंकु अपने पिता और गुरु के शाप से चाण्डाल हो गये थे, परन्तु विश्वामित्र जी के प्रभाव से वे सशरीर स्वर्ग में चले गये। देवताओं ने उन्हें वहाँ से ढकेल दिया और वे नीचे को सिर किये हुए गिर पड़े; परन्तु विश्वामित्र जी ने अपने तपोबल से उन्हें आकाश में ही स्थिर आकर दिया। वे अब भी आकाश में लटके हुए दीखते हैं।



त्रिशंकु के पुत्र थे हरिश्चन्द्र। उनके लिये विश्वामित्र और वसिष्ठ एक-दूसरे को शाप देकर पक्षी हो गये और बहुत वर्षों तक लड़ते रहे। हरिश्चन्द्र के कोई सन्तान न थी। इससे वे बहुत उदास रहा करते थे। नारद के उपदेश से वे वरुण देवता की शरण में गये और उनसे प्रार्थना की कि ‘प्रभो! मुझे पुत्र प्राप्त हो। महाराज! यदि मेरे वीर पुत्र होगा तो मैं उसी से आपका यजन करूँगा।’

वरुण ने कहा ;- ‘ठीक है।’ तब वरुण की कृपा से हरिश्चन्द्र के रोहित नाम का पुत्र हुआ। (पुत्र होते ही)
 वरुण ने आकर कहा ;- ‘हरिश्चन्द्र! तुम्हें पुत्र प्राप्त हो गया। अब इसके द्वारा मेरा यज्ञ करो।’
हरिश्चन्द्र ने कहा ;- ‘जब आपका यह यज्ञपशु (रोहित) दस दिन से अधिक का हो जायेगा, तब यज्ञ के योग्य होगा’।
(दस दिन बीतने पर)
वरुण ने आकर फिर कहा ;- ‘अब मेरा यज्ञ करो।’
हरिश्चन्द्र ने कहा ;- ‘जब आपके यज्ञपशु के मुँह में दाँत निकल आयेंगे, तब वह यज्ञ के योग्य होगा’।
दाँत उग आने पर वरुण ने कहा ;- ‘अब इसके दाँत निकल आये, मेरा यज्ञ करो।’
हरिश्चन्द्र ने कहा ;- ‘जब इसके दूध के दाँत गिर जायेंगे, तब यह यज्ञ के योग्य होगा’।
दूध के दाँत गिर जाने पर वरुण ने कहा ;- ‘अब इस यज्ञपशु के दाँत गिर गये, मेरा यज्ञ करो।’
हरिश्चन्द्र ने कहा ;- ‘जब इसके दुबारा दाँत आ जायेंगे, तब यह पशु यज्ञ के योग्य हो जायेगा’।
दाँतों के फिर उग आने पर वरुण ने कहा ;- ‘अब मेरा यज्ञ करो।’
हरिश्चन्द्र ने कहा ;- ‘वरुण जी महाराज! क्षत्रिय पशु तब यज्ञ के योग्य होता है, जब वह कवच धारण करने लगे’।

परीक्षित! इस प्रकार राजा हरिश्चन्द्र पुत्र के प्रेम से हीला-हवाला करके समय टालते रहे। इसका कारण यह था कि पुत्र-स्नेह की फाँसी ने उनके हृदय को जकड़ लिया था। वे जो-जो समय बताते वरुण देवता उसी की बाट देखते।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 16-27 का हिन्दी अनुवाद)

जब रोहित को इस बात का पता चला कि पिताजी तो मेरा बलिदान करना चाहते हैं, तब वह अपने प्राणों की रक्षा के लिये हाथ में धनुष लेकर वन में चला गया। कुछ दिन के बाद उसे मालूम हुआ कि वरुण देवता ने रुष्ट होकर मेरे पिताजी पर आक्रमण किया है-जिसके कारण वे महोदर रोग से पीड़ित हो रहे हैं, तब रोहित अपने नगर की ओर चल पड़ा। परन्तु इन्द्र ने आकर उसे रोक दिया।
उन्होंने कहा ;- ‘बेटा रोहित! यज्ञ पशु बनकर मरने की अपेक्षा तो पवित्र तीर्थ और क्षेत्रों का सेवन करते हुए पृथ्वी में विचरना ही अच्छा है।’ इन्द्र की बात मानकर वह एक वर्ष तक और वन में ही रहा।

इसी प्रकार दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवें वर्ष भी रोहित ने अपने पिता के पास जाने का विचार किया; परन्तु बूढ़े ब्राह्मण का वेश धारण कर हर बार इन्द्र आते और उसे रोक देते। इस प्रकार छः वर्ष तक रोहित वन में ही रहा। सातवें वर्ष जब वह अपने नगर को लौटने लगा, तब उसने अजीगर्त से उनके मझले पुत्र शुनःशेप को मोल ले लिया और उसे यज्ञ पशु बनाने के लिये अपने पिता को सौंपकर उनके चरणों में नमस्कार किया। तब परम यशस्वी एवं श्रेष्ठ चरित्र वाले राजा हरिश्चन्द्र ने महोदर रोग से छूटकर पुष्पमेध यज्ञ द्वारा वरुण आदि देवताओं का यजन किया। उस यज्ञ में विश्वामित्र जी होता हुए। परमसंयमी जमदग्नि ने अध्वर्यु का काम किया। वसिष्ठ जी ब्रह्मा बने और अयास्य मुनि समागम करने वाले उद्गाता बने। उस समय इन्द्र ने प्रसन्न होकर हरिश्चन्द्र को एक सोने का रथ दिया था।

परीक्षित! आगे चलकर मैं शुनःशेप का माहात्म्य वर्णन करूँगा। हरिश्चन्द्र को अपनी पत्नी के साथ सत्य में दृढ़तापूर्वक स्थित देखकर विश्वामित्र जी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उन्हें उस ज्ञान का उपदेश किया, जिसका कभी नाश नहीं होता। उसके अनुसार राजा हरिश्चन्द्र ने अपने मन को पृथ्वी में, पृथ्वी को जल में, जल को तेज में, तेज को वायु में और वायु को आकाश में स्थिर करके, आकाश को अहंकार में लीन कर दिया। फिर अहंकार को महत्तत्त्व में लीन करके उसमें ज्ञान-कला का ध्यान किया और उससे अज्ञान को भस्म कर दिया। इसके बाद निर्वाण-सुख की अनुभूति से उस ज्ञान-कला का भी परित्याग कर दिया और समस्त बन्धनों से मुक्त होकर वे अपने उस स्वरूप में स्थित हो गये, जो न तो किसी प्रकार बतलाया जा सकता है और न उसके सम्बन्ध में किसी प्रकार का अनुमान ही किया जा सकता है।



                           {नवम स्कन्ध:}

                        【आठवाँ अध्याय:】८.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"सगर-चरित्र"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- रोहित का पुत्र था हरित। हरित से चम्प हुआ। उसी ने चम्पापुरी बसायी। चम्प से सुदेव और उसका पुत्र विजय हुआ। विजय का भरुक, भरुक का वृक और वृक का पुत्र हुआ बाहुक। शत्रुओं ने बाहुक से राज्य छीन लिया, तब वह अपनी पत्नी के साथ वन में चला गया। वन में जाने पर बुढ़ापे के कारण जब बाहुक की मृत्यु हो गयी, तब उसकी पत्नी भी उसके साथ सती होने को उद्यत हुई। परन्तु महर्षि और्व को यह मालूम था कि इसे गर्भ है। इसलिये उन्होंने उसे सती होने से रोक दिया। जब उसकी सौतों को यह बात मालूम हुई तो उन्होंने उसे भोजन के साथ गर (विष) दे दिया। परन्तु गर्भ पर उस विष का कोई प्रभाव नहीं पड़ा; बल्कि उस विष को लिये हुए ही एक बालक का जन्म हुआ, जो गर के साथ पैदा होने के कारण ‘सगर’ कहलाया। सगर बड़े यशस्वी राजा हुए।

सगर चक्रवर्ती सम्राट थे। उन्हीं के पुत्रों ने पृथ्वी खोदकर समुद्र बना दिया था। सगर ने अपने गुरुदेव और्व की आज्ञा मानकर तालजंघ, यवन, शक, हैहय और बर्बर जाति के लोगों का वध नहीं किया, बल्कि उन्हें विरूप बना दिया। उनमें से कुछ के सिर मुड़वा दिये, कुछ के मूँछ-दाढ़ी रखवा दी, कुछ को खुले बालों वाला बना दिया और कुछ को आधा मुँड़वा दिया। कुछ लोगों को सगर ने केवल वस्त्र ओढ़ने की ही आज्ञा दी, पहनने की नहीं। और कुछ को केवल लँगोटी पहनने को ही कहा, ओढ़ने को नहीं। इसके बाद राजा सगर ने और्व ऋषि के उपदेशानुसार अश्वमेध यज्ञ के द्वारा सपूर्ण वेद एवं देवतामय, आत्मस्वरूप, सर्वशक्तिमान भगवान की आराधना की। उसके यज्ञ में जो घोड़ा छोड़ा गया था, उसे इन्द्र ने चुरा लिया। उस समय महारानी सुमति के गर्भ से उत्पन्न सगर के पुत्रों ने अपने पिता के आज्ञानुसार घोड़े के लिये सारी पृथ्वी छान डाली। जब उन्हें कहीं घोड़ा न मिला, तब उन्होंने बड़े घमण्ड से सब ओर से पृथ्वी को खोद डाला। खोदते-खोदते उन्हें पूर्व और उत्तर के कोने पर कपिल मुनि के पास अपना घोड़ा दिखायी दिया। घोड़े को देखकर वे साठ हजार राजकुमार शस्त्र उठाकर यह कहते हुए उनकी ओर दौड़ पड़े कि ‘यही हमारे घोड़े को चुराने वाला चोर है। देखो तो सही, इसने इस समय कैसे आँखें मूँद रखी हैं! यह पापी है। इसको मार डालो, मार डालो!’

उसी समय कपिल मुनि ने अपनी पलकें खोलीं। इन्द्र ने राजकुमारों की बुद्धि हर ली थी, इसी से उन्होंने कपिल मुनि जैसे महापुरुष का तिरस्कार किया। इस तिरस्कार के फलस्वरूप उनके शरीर में ही आग जल उठी, जिससे क्षण भर में ही वे सब-के-सब जलकर खाक हो गये।



परीक्षित! सगर के लड़के कपिल मुनि के क्रोध से जल गये, ऐसा कहना उचित नहीं है। वे तो शुद्ध सत्त्वगुण के परम आश्रय हैं। उनका शरीर तो जगत् को पवित्र करता रहता है। उनमें भला क्रोधरूप तमोगुण की सम्भावना कैसे की जा सकती है। भला, कहीं पृथ्वी की धूल का भी आकाश से सम्बन्ध होता है?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 14-24 का हिन्दी अनुवाद)

यह संसार-सागर एक मृत्युमय पथ है। इसके पार जाना अत्यन्त कठिन है। परन्तु कपिल मुनि ने इस जगत् में सांख्यशास्त्र की एक ऐसी दृढ़ नाव बना दी है, जिससे मुक्ति की इच्छा रखने वाला कोई भी व्यक्ति उस समुद्र के पार जा सकता है। वे केवल परम ज्ञानी ही नहीं, स्वयं परमात्मा हैं। उनमें भला, यह शत्रु है और यह मित्र-इस प्रकार की भेदबुद्धि कैसे हो सकती है?

सगर की दूसरी पत्नी का नाम था केशिनी। उसके गर्भ से उन्हें असमंजस नाम का पुत्र हुआ था। असमंजस के पुत्र का नामा था अंशुमान्। वह अपने दादा सगर की आज्ञाओं का पालन तथा उन्हीं की सेवा में लगा रहता। असमंजस पहले जन्म में योगी थे। संग के कारण वे योग से विचलित हो गये थे, परतु अब भी उन्हें अपने पूर्वजन्म का स्मरण बना हुआ था। इसलिये वे ऐसे काम किया करते थे, जिनसे भाई-बन्धु उन्हें प्रिय न समझें। वे कभी-कभी तो अत्यत्न निन्दित कर्म कर बैठते और अपने को पागल-सा दिखलाते-यहाँ तक कि खेलते हुए बच्चों को सरयू में डाल देते। इस प्रकार उन्होंने लोगों को उद्विग्न कर दिया था। अन्त में उनकी ऐसी करतूत देखकर पिता ने पुत्र-स्नेह को तिलांजलि दे दी और उन्हें त्याग दिया।



तदनन्तर असमंजस ने अपने योगबल से उन सब बालकों को जीवित कर दिया और अपने को पिता को दिखाकर वे वन में चले गये। अयोध्या के नागरिकों ने जब देखा कि हमारे बालक तो फिर लौट आये, तब उन्हें असीम आश्चर्य हुआ और राजा सगर को भी बड़ा पश्चाताप हुआ। इसके बाद राजा सगर की आज्ञा से अंशुमान् घोड़े को ढूँढने के लिये निकले। उन्होंने अपने चाचाओं के द्वारा खोदे हुए समुद्र के किनारे-किनारे चलकर उनके शरीर के भस्म के पास ही घोड़े को देखा। वहीं भगवान के अवतार कपिल मुनि बैठे हुए थे। उनको देखकर उदारहृदय अंशुमान ने उनके चरणों में प्रणाम किया और हाथ जोड़कर एकाग्र मन से उनकी स्तुति की।

अंशुमान ने कहा ;- भगवन! आप अजन्मा ब्रह्मा जी से भी परे हैं। इसीलिये वे आपको प्रत्यक्ष नहीं देख पाते। देखने की बात तो अलग रही-वे समाधि करते-करते एवं युक्ति लड़ाते-लड़ाते हार गये, किन्तु आज तक आपको समझ नहीं पाये। हम लोग तो उनके मन, शरीर और बुद्धि से होने वाली सृष्टि के द्वारा बने हुए अज्ञानी जीव हैं। तब भला, हम आपको कैसे समझ सकते हैं। संसार के शरीरधारी सत्त्वगुण, रजोगुण या तमोगुण-प्रधान हैं। वे जाग्रत और स्वप्न अवस्थाओं में केवल गुणमय पदार्थों, विषयों को और सुषुप्ति-अवस्था में केवल अज्ञान-ही-अज्ञान देखते हैं। इसका कारण यह है कि वे आपकी माया से मोहित हो रहे हैं। वे बहिर्मुख होने के कारण बाहर की वस्तुओं को तो देखते हैं, पर अपने ही हृदय में स्थित आपको नहीं देख पाते। आप एकरस, ज्ञानघन हैं। सनन्दन आदि मुनि, जो आत्मस्वरूप के अनुभव से माया के गुणों के द्वारा होने वाले भेदभाव को और उसके कारण अज्ञान को नष्ट कर चुके हैं, आपका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं। माया के गुणों में ही भूला हुआ मैं मूढ़ किस प्रकार आपका चिन्तन करूँ?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 25-31 का हिन्दी अनुवाद)

माया, उसके गुण और गुणों के कारण होने वाले कर्म एवं कर्मों के संस्कार से बना हुआ लिंग शरीर आप में है ही नहीं। न तो आपका नाम है और न तो रूप। आप में न कार्य है और न तो कारण। आप सनातन आत्मा हैं। ज्ञान का उपदेश करने के लिये ही आपने यह शरीर धारण कर रखा है। हम आपको नमस्कार करते हैं।

प्रभो! यह संसार आपकी माया की करामात है। इसको सत्य समझकर काम, लोभ, ईर्ष्या और मोह से लोगों का चित्त, शरीर तथा घर आदि में भटकने लगता है। लोग इसी के चक्कर में फँसे जाते हैं। समस्त प्राणियों के आत्मा प्रभो! आज आपके दर्शन से मेरे मोह की वह दृढ़ फाँसी कट गयी जो कामना, कर्म और इन्द्रियों को जीवनदान देती है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब अंशुमान् ने भगवान् कपिल मुनि के प्रभाव का इस प्रकार गान किया, तब उन्होंने मन-ही-मन अंशुमान् पर बड़ा अनुग्रह किया और कहा।



श्रीभगवान ने कहा ;- ‘बेटा! यह घोड़ा तुम्हारे पितामह का यज्ञ पशु है। इसे तुम ले जाओ। तुम्हारे जले हुए चाचाओं का उद्धार केवल गंगाजल से होगा, और कोई उपाय नहीं है’।

अंशुमान ने बड़ी नम्रता से उन्हें प्रसन्न करके उनकी परिक्रमा की और वे घोड़े को ले आये। सगर ने उस यज्ञ पशु के द्वारा यज्ञ की शेष क्रिया समाप्त की। तब राजा सगर ने अंशुमान को राज्य का भार सौंप दिया और वे स्वयं विषयों से निःस्पृह एवं बन्धन मुक्त हो गये। उन्होंने महर्षि और्व के बतलाये हुए मार्ग से परमपद की प्राप्ति की।

                           {नवम स्कन्ध:}

                        【नवाँ अध्याय:】९.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"भगीरथ-चरित्र और गंगावतरण"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अंशुमान् ने गंगा जी को लाने की कामना से बहुत वर्षों तक घोर तपस्या की; परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली, समय आने पर उनकी मृत्यु हो गयी। अंशुमान् के पुत्र दिलीप ने भी वैसी ही तपस्या की; परन्तु वे भी असफल ही रहे, समय पर उनकी भी मृत्यु हो गयी। दिलीप के पुत्र थे भगीरथ। उन्होंने बहुत बड़ी तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती गंगा ने उन्हें दर्शन दिया और कहा कि- ‘मैं तुम्हें वर देने के लिये आयी हूँ।’ उनके ऐसा कहने पर राजा भगीरथ ने बड़ी नम्रता से अपना अभिप्राय प्रकट किया कि ‘आप मर्त्यलोक में चलिये’।



[गंगा जी ने कहा] ‘जिस समय मैं स्वर्ग से पृथ्वीतल पर गिरूँ, उस समय मेरे वेग को कोई धारण करने वाला होना चाहिये। भगीरथ! ऐसा न होने पर मैं पृथ्वी को फोड़कर रसातल में चली जाऊँगी। इसके अतिरिक्त इस कारण से भी मैं पृथ्वी पर नहीं जाऊँगी कि लोग मुझमें अपने पाप धोयेंगे। फिर मैं उस पाप को कहाँ धोऊँगी। भगीरथ! इस विषय में तुम स्वयं विचार कर लो’।

भगीरथ ने कहा ;- ‘माता! जिन्होंने लोक-परलोक, धन-सम्पत्ति और स्त्री-पुरुष की कामना का संन्यास कर दिया है, जो संसार से उपरत होकर अपने-आप में शान्त हैं, जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकों को पवित्र करने वाले परोपकारी सज्जन हैं-वे अपने अंगस्पर्श से तुम्हारे पापों को नष्ट कर देंगे। क्योंकि उनके हृदय में अघरूप अघासुर को मारने वाले भगवान सर्वदा निवास करते हैं। समस्त प्राणियों के आत्मा रुद्रदेव तुम्हारा वेग धारण कर लेंगे। क्योंकि जैसे साड़ी सूतों में ओत-प्रोत है, वैसे ही यह सारा विश्व भगवान रुद्र में ही ओत-प्रोत है’।

परीक्षित! गंगा जी से इस प्रकार कहकर राजा भगीरथ ने तपस्या के द्वारा भगवान शंकर को प्रसन्न किया। थोड़े ही दिनों में महादेव जी उन पर प्रसन्न हो गये। भगवान शंकर तो सम्पूर्ण विश्व के हितैषी हैं, राजा की बात उन्होंने ‘तथास्तु’ कहकर स्वीकार कर ली। फिर शिव जी ने सावधान होकर गंगा जी को अपने सिर पर धारण किया। क्यों न हो, भगवान के चरणों का सम्पर्क होने के कारण गंगा जी का जल परम पवित्र जो है। इसके बाद राजर्षि भगीरथ त्रिभुवनपावनी गंगा जी को वहाँ ले गये, जहाँ उनके पितरों के शरीर राख के ढेर बने पड़े थे। वे वायु के समान वेग से चलने वाले रथ पर सवार होकर आगे-आगे चल रहे थे और उनके पीछे-पीछे मार्ग में पड़ने वाले देशों को पवित्र करती हुई गंगा जी दौड़ रही थीं। इस प्रकार गंगासागर-संगम पर पहुँचकर उन्होंने सगर के जले हुए पुत्रों को अपने जल में डुबा दिया। यद्यपि सगर के पुत्र ब्राह्मण के तिरस्कार के कारण भस्म हो गये थे, इसलिये उनके उद्धार का कोई उपाय न था-फिर भी केवल शरीर की राख के साथ गंगाजल का स्पर्श हो जाने से ही वे स्वर्ग में चले गये।

परीक्षित! जब गंगाजल से शरीर की राख का स्पर्श हो जाने से सगर के पुत्रों को स्वर्ग की प्राप्ति हो गयी, तब जो लोग श्रद्धा के साथ नियम लेकर श्रीगंगा जी का सेवन करते हैं, उनके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 14-27 का हिन्दी अनुवाद)

मैंने गंगा जी की महिमा के सम्बन्ध में जो कुछ कहा है, उसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। क्योंकि गंगा जी भगवान् के उन चरणकमलों से निकली हैं, जिनका श्रद्धा के साथ चिन्तन करके बड़े-बड़े मुनि निर्मल हो जाते हैं और तीनों गुणों के कठिन बन्धन को काटकर तुरन्त भगवत्स्वरूप बन जाते हैं। फिर गंगा जी संसार का बन्धन काट दें, इसमें कौन बड़ी बात है।



भगीरथ का पुत्र था श्रुत, श्रुत का नाभ। यह नाभ पूर्वोक्त नाभ से भिन्न है। नाभ का पुत्र था सिन्धुद्वीप और सिन्धुद्वीप का अयुतायु। अयुतायु के पुत्र का नाम था ऋतुपर्ण। वह नल का मित्र था। उसने नल को पासा फेंकने की विद्या का रहस्य बतलाया था और बदले में उससे अश्व-विद्या सीखी थी। ऋतुपर्ण का पुत्र सर्वकाम हुआ।

परीक्षित! सर्वकाम के पुत्र का नाम था सुदास। सुदास के पुत्र का नाम था सौदास और सौदास की पत्नी का नाम था मदयन्ती। सौदास को ही कोई-कोई मित्रसह कहते हैं और कहीं-कहीं उसे कल्माषपाद भी कहा गया है। वह वसिष्ठ के शाप से राक्षस हो गया था और फिर अपने कर्मों के कारण सन्तानहीन हुआ।

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन! हम यह जानना चाहते हैं कि महात्मा सौदास को गुरु वसिष्ठ जी ने शाप क्यों दिया। यदि कोई गोपनीय बात न हो तो कृपया बतलाइये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! एक बार राजा सौदास शिकार खेलने गये हुए थे। वहाँ उन्होंने किसी राक्षस को मार डाला और उसके भाई को छोड़ दिया। उसने राजा के इस काम को अन्याय समझ और उनसे भाई की मृत्यु का बदला लेने के लिये वह रसोइये का रूप धारण करके उनके घर गया। जब एक दिन भोजन करने के लिये गुरु वसिष्ठ जी राजा के यहाँ आये, तब उसने मनुष्य का मांस राँधकर उन्हें परस दिया। जब सर्वसमर्थ वसिष्ठ जी ने देखा कि परोसी जाने वाली वस्तु तो नितान्त अभक्ष्य है, तब उन्होंने क्रोधित होकर राजा को शाप दिया कि ‘जा, इस काम से तू राक्षस हो जायेगा’। जब उन्हें यह बात मालूम हुई कि यह काम तो राक्षस का है-राजा का नहीं, तब उन्होंने उस शाप को केवल बारह वर्ष एक लिये कर दिया। उस समय राजा सौदास भी अपनी अंजलि में जल लेकर गुरु वसिष्ठ को शाप देने के लिये उद्यत हुए। परन्तु उनकी पत्नी मदयन्ती ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। इस पर सौदास ने विचार किया कि ‘दिशाएँ, आकाश और पृथ्वी-सब-के-सब तो जीवमय ही हैं। तब यह तीक्ष्ण जल कहाँ छोडूँ?’ अन्त में उन्होंने उस जल को अपने पैरों पर डाल दिया। [इसी से उनका नाम ‘मित्रसह’ हुआ]। उस जल से उनके पैर काले पड़ गये थे, इसलिये उनका नाम ‘कल्माषपाद’ भी हुआ। अब वे राक्षस हो चुके थे।

एक दिन राक्षस बने हुए राजा कल्माषपाद ने एक वनवासी ब्राह्मण-दम्पत्ति को सहवास के समय देख लिया। कल्माषपाद को भूख तो लगी ही थी, उसने ब्राह्मण को पकड़ लिया। ब्राह्मण-पत्नी की कामना अभी पूर्ण नहीं हुई थी। उसने कहा- राजन! आप राक्षस नहीं हैं। आप महारानी मदयन्ती के पति और इक्ष्वाकु वंश के वीर महारथी हैं। आप को ऐसा अधर्म नहीं करना चाहिये। मुझे सन्तान की कामना है और इस ब्राह्मण की भी कामनाएँ अभी पूर्ण नहीं हुई हैं, इसलिये आप मुझे मेरा यह ब्राह्मण पति दे दीजिये।



(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 28-41 का हिन्दी अनुवाद)

राजन! यह मनुष्य-शरीर जीव को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति कराने वाला है। इसलिये वीर! इस शरीर को नष्ट कर देना सभी पुरुषार्थों की हत्या कही जाती है। फिर यह ब्राह्मण तो विद्वान् है। तपस्या, शील और बड़े-बड़े गुणों से सम्पन्न है। यह उन पुरुषोत्तम परब्रह्म की समस्त प्राणियों के आत्मा के रूप में आराधना करना चाहता है, जो समस्त पदार्थों में विद्यमान रहते हुए भी उनके पृथक्-पृथक् गुणों से छिपे हुए हैं। राजन! आप शक्तिशाली हैं। आप धर्म का मर्म भलीभाँति जानते हैं। जैसे पिता के हाथों पुत्र की मृत्यु उचित नहीं, वैसे ही आप-जैसे श्रेष्ठ राजर्षि के हाथों मेरे श्रेष्ठ ब्राह्मण पति का वध किसी प्रकार उचित नहीं है। आपका साधु-समाज में बड़ा सम्मान है। भला आप मेरे परोपकारी, निरपराध, श्रोत्रिय एवं ब्रह्मवादी पति का वध कैसे ठीक समझ रहे हैं? ये तो गौ के समान निरीह हैं। फिर भी यदि आप इन्हें खा ही डालना चाहते हैं, तो पहले मुझे खा डालिये। क्योंकि अपने पति के बिना मैं मुर्दे के समान हो जाऊँगी और एक क्षण भी जीवित न रह सकूँगी’।

ब्राह्मण पत्नी बड़ी ही करुणापूर्ण वाणी में इस प्रकार कहकर अनाथ की भाँति रोने लगी। परन्तु सौदास ने शाप से मोहित होने के कारण उसकी प्रार्थना पर कुछ भी ध्यान न दिया और वह उस ब्राह्मण को वैसे ही खा गया, जैसे बाघ किसी पशु को खा जाये। जब ब्राह्मणी ने देखा कि राक्षस ने मेरे गर्भाधान के लिये उद्यत पति को खा लिया, तब उसे बड़ा शोक हुआ। सती ब्राह्मणी ने क्रोध करके राजा को शाप दे दिया। ‘रे पापी! मैं अभी काम से पीड़ित हो रही थी। ऐसी अवस्था में तूने मेरे पति को खा डाला है। इसलिये मूर्ख! जब तू स्त्री से सहवास करना चाहेगा, तभी तेरी मृत्यु हो जायेगी, यह बात मैं तुझे सुझाये देती हूँ’। इस प्रकार मित्रसह को शाप देकर ब्राह्मणी अपने पति की अस्थियों को धधकती हुई चिता में डालकर स्वयं भी सती हो गयी और उसने वही गति प्राप्त की, जो उसके पतिदेव को मिली थी। क्यों न हो, वह अपने पति को छोड़कर और किसी लोक में जाना भी तो नहीं चाहती थी।



बारह वर्ष बीतने पर राजा सौदास शाप से मुक्त हो गये। जब वे सहवास के लिये अपनी पत्नी के पास गये, तब उसने इन्हें रोक दिया। क्योंकि उसे उस ब्राह्मणी के शाप का पता था। इसके बाद उन्होंने स्त्री-सुख का बिक्लुल परित्याग ही कर दिया। इस प्रकार अपने कर्म के फलस्वरूप वे सन्तानहीन हो गये। तब वसिष्ठ जी ने उनके कहने से मदयन्ती को गर्भाधान कराया। मदयन्ती सात वर्ष तक गर्भ धारण किये रही, किन्तु बच्चा पैदा नहीं हुआ। तब वसिष्ठ जी ने पत्थर से उसके पेट पर आघात किया। इससे जो बालक हुआ, वह अश्म (पत्थर) की चोट से पैदा होने के कारण ‘अश्मक’ कहलाया। अश्मक से मूलक का जन्म हुआ। जब परशुराम जी पृथ्वी को क्षत्रियहीन कर रहे थे, तब स्त्रियों ने उसे छिपाकर रख लिया था। इसी से उसका एक नाम ‘नारीकवच’ भी हुआ। उसे मूलक इसलिये कहते हैं कि वह पृथ्वी के क्षत्रियहीन हो जाने पर उस वंश का मूल (प्रवर्तक) बना। मूलक के पुत्र हुए दशरथ, दशरथ के ऐडविड और ऐडविड के राजा विश्वसह। विश्वसह के पुत्र ही चक्रवर्ती सम्राट् खट्वांग हुए।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 42-49 का हिन्दी अनुवाद)

युद्ध में उन्हें कोई जीत नहीं सकता था। उन्होंने देवताओं की प्रार्थना से दैत्यों का वध किया था। जब उन्हें देवताओं से यह मालूम हुआ कि अब मेरी आयु केवल दो ही घड़ी बाकी है, तब वे अपनी राजधानी लौट आये और अपने मन को उन्होंने भगवान् में लगा दिया। वे मन-ही-मन सोचने लगे कि ‘मेरे कुल के इष्ट देवता हैं ब्राह्मण! उनसे बढ़कर मेरा प्रेम अपने प्राणों पर भी नहीं है। पत्नी, पुत्र, लक्ष्मी, राज्य और पृथ्वी भी मुझे उतने प्यारे नहीं लगते। मेरा मन बचपन में भी कभी अधर्म की ओर नहीं गया। मैंने पवित्र कीर्ति भगवान् के अतिरिक्त और कोई भी वस्तु कहीं नहीं देखी। तीनों लोकों के स्वामी देवताओं ने मुझे मुँहमाँगा वर देने को कहा, परन्तु मैंने उन भोगों की लालसा बिल्कुल नहीं की। क्योंकि समस्त प्राणियों के जीवनदाता श्रीहरि की भावना में ही मैं मग्न हो रहा था।



जिन देवताओं की इन्द्रियाँ और मन विषयों में भटक रहे हैं, वे सत्त्वगुण प्रधान होने पर भी अपने हृदय में विराजमान, सदा-सर्वदा प्रियतम के रूप में रहने वाले अपने आत्मस्वरूप भगवान् को नहीं जानते। फिर भला जो रजोगुणी और तमोगुणी हैं, वे तो जान ही कैसे सकते हैं। इसलिये अब इन विषयों में मैं नहीं रमता। ये तो माया के खेल हैं। आकाश में झूठ-मूठ प्रतीत होने वाले गन्धर्व नगरों से बढ़कर इनकी सत्ता नहीं है। ये तो अज्ञानवश चित्त पर चढ़ गये थे। संसार के सच्चे रचयिता भगवान् की भावना में लीन होकर मैं विषयों को छोड़ रहा हूँ और केवल उन्हीं की शरण ले रहा हूँ।

परीक्षित! भगवान् ने राजा खट्वांग की बुद्धि को पहले से ही अपनी ओर आकर्षित कर रखा था। इसी से वे अन्त समय में ऐसा निश्चय कर सके। अब उन्होंने शरीर आदि अनात्म पदार्थों में जो अज्ञानमूलक आत्मभाव था, उसका परित्याग कर दिया और अपने वास्तविक आत्मस्वरूप में स्थित हो गये। वह स्वरूप साक्षात् परब्रह्म है। वह सूक्ष्म भी सूक्ष्म, शून्य के समान ही है। परन्तु वह शून्य नहीं, परम सत्य है। भक्तजन उसी वस्तु को ‘भगवान् वासुदेव’ इस नाम से वर्णन करते हैं।

                           {नवम स्कन्ध:}

                        【दसवाँ अध्याय:】१०.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद)

"भगवान् श्रीराम की लीलाओं का वर्णन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! खट्वांग के पुत्र दीर्घबाहु और दीर्घबाहु के परम यशस्वी पुत्र रघु हुए। रघु के अज और अज के पुत्र महाराज दशरथ हुए। देवताओं की प्रार्थना से साक्षात् परब्रह्म परमात्मा भगवान् श्रीहरि ही अपने अंशांश से चार रूप धारण करके राजा दशरथ के पुत्र हुए। उनके नाम थे- राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न।



परीक्षित! सीतापति भगवान् श्रीराम का चरित्र तो तत्त्वदर्शी ऋषियों ने बहुत कुछ वर्णन किया है और तुमने अनेक बार उसे सुना भी है।

भगवान श्रीराम ने अपने पिता राजा दशरथ के सत्य की रक्षा के लिये राजपाट छोड़ दिया और वे वन-वन में फिरते रहे। उनके चरणकमल इतने सुकुमार थे कि परम सुकुमारी श्रीजानकी जी के करकमलों का स्पर्श भी उनसे सहन नहीं होता था। वे ही चरण जब वन में चलते-चलते थक जाते, तब हनुमान और लक्ष्मण उन्हें दबा-दबाकर उनकी थकावट मिटाते। शूर्पणखा को नाक-कान काटकर विरूप कर देने के कारण उन्हें अपनी प्रियतमा श्रीजानकी जी का वियोग भी सहना पड़ा। इस वियोग के कारण क्रोधवश उनकी भौंहें तन गयीं, जिन्हें देखकर समुद्र तक भयभीत हो गया। इसके बाद उन्होंने समुद्र पर पुल बाँधा और लंका में जाकर दुष्ट राक्षसों के जंगल को दावाग्नि के समान दग्ध कर दिया। वे कोसल नरेश हमारी रक्षा करें।

भगवान श्रीराम ने विश्वामित्र के यज्ञ में लक्ष्मण के सामने ही मरीच आदि राक्षसों को मार डाला। वे सब बड़े-बड़े राक्षसों की गिनती में थे। परीक्षित! जनकपुर में सीता जी का स्वयंवर हो रहा था। संसार के चुने हुए वीरों की सभा में भगवान् शंकर का वह भयंकर धनुष रखा हुआ था। वह इतना भारी था कि तीन सौ वीर बड़ी कठिनाई से उसे स्वयंवर सभा में ला सके थे। भगवान श्रीराम ने उस धनुष को बात-की-बात में उठाकर उस पर डोरी चढ़ा दी और खींचकर बीचोंबीच से उसके दो टुकड़े कर दिये-ठीक वैसे ही, जैसे हाथी का बच्चा खेलते-खेलते ईख तोड़ डाले। भगवान् ने जिन्हें अपने वक्षःस्थल पर स्थान देकर सम्मानित किया है, वे श्रीलक्ष्मी जी ही सीता के नाम से जनकपुर में अवतीर्ण हुई थीं। वे गुण, शील, अवस्था, शरीर की गठन और सौन्दर्य में सर्वथा भगवान् श्रीराम के अनुरूप थीं। भगवान् ने धनुष तोड़कर उन्हें प्राप्त कर लिया। अयोध्या को लौटते समय मार्ग में उन परशुराम जी से भेंट हुई जिन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी को राजवंश के बीज से भी रहित कर दिया था। भगवान ने उनके बढ़े हुए गर्व को नष्ट कर दिया।

इसके बाद पिता के वचन को सत्य करने के लिये उन्होंने वनवास स्वीकार किया। यद्यपि महाराज दशरथ ने अपनी पत्नी के अधीन होकर ही उसे वैसा वचन दिया था, फिर भी वे सत्य के बन्धन में बँध गये थे। इसलिये भगवान् ने अपने पिता की आज्ञा शिरोधार्य की। उन्होंने प्राणों के समान प्यारे राज्य, लक्ष्मी, प्रेमी, हितैषी, मित्र और महलों को वैसे ही छोड़कर अपनी पत्नी के साथ यात्रा की, जैसे मुक्त संग योगी प्राणों को छोड़ देता है। वन में पहुँचकर भगवान् ने राक्षसराज रावण की बहिन शूर्पणखा को विरूप कर दिया। क्योंकि उसकी बुद्धि बहुत ही कलुषित, काम वासना के कारण अशुद्ध थी। उसके पक्षपाती खर, दूषण, त्रिशिरा आदि प्रधान-प्रधान भाइयों को-जो संख्या में चौदह हजार थे-हाथ में महान् धनुष लेकर भगवान् श्रीराम ने नष्ट कर डाला; और अनेक प्रकार की कठिनाइयों से परिपूर्ण वन में इधर-उधर विचरते हुए निवास करते रहे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 10-17 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! जब रावण ने सीता जी के रूप, गुण, सौन्दर्य आदि की बात सुनी तो उसका हृदय काम वासना से आतुर हो गया। उसने अद्भुत हरिन के वेष में मरीच को उनकी पर्णकुटी के पास भेजा। वह धीरे-धीरे भगवान को वहाँ से दूर ले गया। अन्त में भगवान ने अपने बाण से उसे बात-की-बात में वैसे ही मार डाला, जैसे दक्ष प्रजापति को वीरभद्र ने मारा था। जब भगवान श्रीराम जंगल में दूर निकल गये, तब (लक्ष्मण की अनुपस्थिति में) नीच राक्षस रावण ने भेड़िये के समान विदेहनन्दिनी सुकुमारी श्रीसीता जी को हर लिया। तदनन्तर वे अपनी प्राणप्रिया सीता जी से बिछुड़कर अपने भाई लक्ष्मण के साथ वन-वन में दीन की भाँति घूमने लगे और इस प्रकार उन्होंने यह शिक्षा दी कि ‘जो स्त्रियों में आसक्ति रखते हैं, उनकी यही गति होती है’।

इसके बाद भगवान ने उस जटायु का दाह-संस्कार किया, जिसके सारे कर्म बन्धन भगवत्सेवारूप कर्म से पहले ही भस्म हो चुके थे। फिर भगवान ने कबन्ध का संहार किया और इसके अनन्तर सुग्रीव आदि वानरों से मित्रता करके बालि का वध किया, तदनन्तर वानरों के द्वारा अपनी प्राणप्रिया का पता लगवाया। ब्रह्मा और शंकर जिनके चरणों की वन्दना करते हैं, वे भगवान श्रीराम मनुष्य की-सी लीला करते हुए बंदरों की सेना के साथ समुद्र तट पर पहुँचे। (वहाँ उपवास और प्रार्थना से जब समुद्र पर कोई प्रभाव न पड़ा, तब) भगवान ने क्रोध की लीला करते हुए अपनी उग्र एवं टेढ़ी नजर समुद्र पर डाली। उसी समय समुद्र के बड़े-बड़े मगर और मच्छ खलबला उठे। डर जाने के कारण समुद्र की गर्जना शान्त हो गयी। तब समुद्र शरीरधारी बनकर और अपने सिर पर बहुत-सी भेंटे लेकर भगवान के चरणकमलों की शरण में आया और इस प्रकार कहने लगा ;- ‘अनन्त! हम मूर्ख हैं; इसलिये आपके वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते। जानें भी कैसे? आप समस्त जगत् के एकमात्र स्वामी, आदिकारण एवं जगत् के समस्त परिवर्तनों में एकरस रहने वाले हैं। आप समस्त गुणों के स्वामी हैं। इसलिये जब आप सत्त्वगुण को स्वीकार कर लेते हैं, तब देवताओं की, रजोगुण को स्वीकार कर लेते हैं तब प्रजापतियों की और तमोगुण को स्वीकार कर लेते हैं, तब आपके क्रोध से रुद्रगण की उत्पत्ति होती है।



वीरशिरोमणे! आप अपनी इच्छा के अनुसार मुझे पार कर जाइये और त्रिलोकी को रुलाने वाले विश्रवा के कुपूत रावण को मारकर अपनी पत्नी को फिर से प्राप्त कीजिये। परन्तु आपसे मेरी एक प्रार्थना है। आप यहाँ मुझ पर एक पुल बाँध दीजिये। इससे आपके यश का विस्तार होगा और आगे चलकर जब बड़े-बड़े नरपति दिग्विजय करते हुए यहाँ आयेंगे, तब वे आपके यश का गान करेंगे’।

भगवान श्रीराम ने अनेकानेक पर्वतों के शिखरों से समुद्र पर पुल बाँधा। जब बड़े-बड़े बन्दर अपने हाथों से पर्वत उठा-उठाकर लाते थे, तब उनके वृक्ष और बड़ी-बड़ी चट्टानें थर-थर काँपने लगती थीं। इसके बाद विभीषण की सलाह से सुग्रीव, नील, हनुमान आदि प्रमुख वीरों और वानरी सेना के साथ लंका में प्रवेश किया। वह तो श्रीहनुमान जी के द्वारा पहले ही जलायी जा चुकी थी। उस समय वानर की सेना ने लंका के सैर करने और खेलने के स्थान, अन्न के गोदाम, खजाने, दरवाजे, फाटक, सभा भवन, छज्जे और पक्षियों के रहने के स्थान तक को घेर लिया। उन्होंने वहाँ की वेदी, ध्वजाएँ, सोने के कलश और चौराहे तोड़-फोड़ डाले। उस समय लंका ऐसी मालूम पड़ रही थी, जैसे झुंड-के-झुंड हाथियों ने किसी नदी को मथ डाल हो।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 18-28 का हिन्दी अनुवाद)

यह देखकर राक्षसराज रावण ने निकुम्भ, कुम्भ, धूम्राक्ष, दुर्मुख, सुरान्तक, नरान्तक, प्रहस्त, अतिकाय, विकम्पन आदि अपने सब अनुचरों, पुत्र मेघनाद और अन्त में भाई कुम्भकर्ण को भी युद्ध करने के लिये भेजा। राक्षसों की वह विशाल सेना तलवार, त्रिशूल, धनुष, प्रास, ऋष्टि, शक्ति, बाण, भाले, खड्ग आदि शस्त्र-अस्त्रों से सुरक्षित और अत्यन्त दुर्गम थी। भगवान् श्रीराम ने सुग्रीव, लक्ष्मण, हनुमान, गन्ध-मादन, नील, अंगद, जाम्बवान और पनस आदि वीरों को अपने साथ लेकर राक्षसों की सेना का सामना किया।

रघुवंशशिरोमणि भगवान् श्रीराम के अंगद आदि सब सेनापति राक्षसों की चतुरंगिणी सेना-हाथी, रथ, घुड़सवार और पैदलों के साथ द्वन्दयुद्ध की रीति से भिड़ गये और राक्षसों को वृक्ष, पर्वत शिखर, गदा और बाणों से मारने लगे। उनका मारा जाना तो स्वाभाविक ही था। क्योंकि वे उसी रावण के अनुचर थे, जिसका मंगल श्रीसीता जी को स्पर्श करने के कारण पहले ही नष्ट हो चुका था। जब राक्षसराज रावण ने देखा कि मेरी सेना का तो नाश हुआ जा रहा है, तब वह क्रोध में भरकर पुष्पक विमान पर आरुढ़ हो भगवान् श्रीराम के सामने आया। उस समय इन्द्र का सारथि मातलि बड़ा ही तेजस्वी दिव्य रथ लेकर आया और उस पर भगवान् श्रीराम जी विराजमान हुए। रावण अपने तीखे बाणों से उन पर प्रहार करने लगा।



भगवान श्रीराम जी ने रावण से कहा ;- ‘नीच राक्षस! तुम कुत्ते की तरह हमारी अनुपस्थिति में हमारी प्राणप्रिया पत्नी को हर लाये! तुमने दुष्टता की हद कर दी! तुम्हारे-जैसा निर्लज्ज तथा निन्दनीय और कौन होगा। जैसे काल को कोई टाल नहीं सकता-कर्तापन के अभिमानी को वह फल दिये बिना रह नहीं सकता, वैसे ही आज मैं तुम्हें तुम्हारी करनी का फल चखाता हूँ’। इस प्रकार रावण को फटकारते हुए भगवान् श्रीराम ने अपने धनुष पर चढ़ाया हुआ बाण उस पर छोड़ा। उस बाण ने वज्र के समान उसके हृदय को विदीर्ण कर दिया। वह अपने दसों मुखों से खून उगलता हुआ विमान से गिर पड़ा-ठीक वैसे ही, जैसे पुण्यात्मा लोग भोग समाप्त हो जाने पर स्वर्ग से गिर पड़ते हैं। उस समय उसके पुरजन-परिजन ‘हाय-हाय’ करके चिल्लाने लगे।

तदनन्तर हजारों राक्षसियाँ मन्दोदरी के साथ रोती हुई लंका से निकल पड़ीं और रणभूमि में आयीं। उन्होंने देखा कि उनके स्वजन-सम्बन्धी लक्ष्मण जी के बाणों से छिन्न-भिन्न होकर पड़े हुए हैं। वे अपने हाथों अपनी छाती पीट-पीटकर और अपने सगे-सम्बन्धियों को हृदय से लगा-लगाकर ऊँचे स्वर से विलाप करने लगीं। हाय-हाय! स्वामी! आज हम सब बेमौत मारी गयीं। एक दिन वह था, जब आपके भय से समस्त लोकों में त्राहि-त्राहि मच जाती थी। आज वह दिन आ पहुँचा कि आपके न रहने से हमारे शत्रु लंका की दर्दशा कर रहे हैं और यह प्रश्न उठ रहा है कि अब लंका किसके अधीन रहेगी। आप सब प्रकार से सम्पन्न थे, किसी भी बात की कमी न थी। परन्तु आप काम के वश हो गये और यह नहीं सोचा कि सीता जी कितनी तेजस्विनी हैं और उनका कितना प्रभाव है। आपकी यही भूल आपकी इस दुर्दशा का कारण बन गयी। कभी आपके कामों से हम सब और समस्त राक्षस वंश आनन्दित होता था और आज हम सब तथा यह सारी लंका नगरी विधवा हो गयी। आपका वह शरीर, जिसके लिये आपने सब कुछ कर डाला, आज गीधों का आहार बन रहा है और अपने आत्मा को आपने नरक का अधिकारी बना डाला। यह सब आपकी ही नासमझी और कामुकता का फल है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 29-43 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! कोसलाधीश भगवान श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा से विभीषण ने अपने स्वजन-सम्बन्धियों का पितृयज्ञ की विधि से शास्त्र के अनुसार अन्त्येष्टि कर्म किया। इसके बाद भगवान श्रीराम ने अशोक वाटिका के आश्रम में अशोक वृक्ष के नीचे बैठी हुई श्रीसीता जी को देखा। वे उन्हीं के विरह की व्यथा से पीड़ित एवं अत्यन्त दुर्बल हो रही थीं। अपनी प्राणप्रिया अर्द्धांगिनी श्रीसीता जी को अत्यन्त दीन अवस्था में देखकर श्रीराम का हृदय प्रेम और कृपा से भर आया। इधर भगवानका दर्शन पाकर सीता जी का हृदय प्रेम और आनन्द से परिपूर्ण हो गया, उनका मुखकमल खिल उठा। भगवान ने विभीषण को राक्षसों का स्वामित्व, लंकापुरी का राज्य और एक कल्प की आयु दी और इसके बाद पहले सीता जी को विमान पर बैठाकर अपने दोनों भाई लक्ष्मण तथा सुग्रीव एवं सेवक हनुमान जी के साथ स्वयं भी विमान पर सवार हुए। इस प्रकार चौदह वर्ष का व्रत पूरा हो जाने पर उन्होंने अपने नगर की यात्रा की। उस समय मार्ग में ब्रह्मा आदि लोकपरायणगण उन पर बड़े प्रेम से पुष्पों की वर्षा कर रहे थे।



इधर तो ब्रह्मा आदि बड़े आनन्द से भगवान की लीलाओं का गान कर रहे थे और उधर जब भगवान को यह मालूम हुआ कि भरत जी केवल गोमूत्र में पकाया हुआ जौ का दलिया खाते हैं, वल्कल पहनते हैं और पृथ्वी पर डाभ बिछाकर सोते हैं एवं उन्होंने जटाएँ बढ़ा रखी हैं, तब वे बहुत दुःखी हुए। उनकी दशा का स्मरण कर परमकरुणाशील भगवान का हृदय भर आया। जब भरत को मालूम हुआ कि मेरे बड़े भाई भगवान श्रीराम जी आ रहे हैं, तब वे पुरवासी, मन्त्री और पुरोहितों को साथ लेकर एवं भगवान की पादुकाएँ सिर पर रखकर उनकी अगवानी के लिये चले। जब भरत जी अपने रहने के स्थान नन्दिग्राम से चले, तब लोग उनके साथ-साथ मंगलगान करते, बाजे बजाते चलने लगे। वेदवादी ब्राह्मण बार-बार वेद मन्त्रों का उच्चारण करने लगे और उसकी ध्वनि चारों ओर गूँजने लगी। सुनहरी कामदार पताकाएँ फहराने लगीं। सोने से मढ़े हुए तथा रंग-बिरंगी ध्वजाओं से सजे हुए रथ, सुनहले साज से सजाये हुए सुन्दर घोड़े तथा सोने के कवच पहने हुए सैनिक उनके साथ-साथ चलने लगे। सेठ-साहूकार, श्रेष्ठ वारांगनाएँ, पैदल चलने वाले सेवक और महाराजाओं के योग्य छोटी-बड़ी सभी वस्तुएँ उनके साथ चल रही थीं।

भगवान को देखते ही प्रेम के उद्रेक से भरत जी का हृदय गद्गद हो गया, नेत्रों में आँसू छलक आये, वे भगवान के चरणों पर गिर पड़े। उन्होंने प्रभु के सामने उनकी पादुकाएँ रख दीं और हाथ जोड़कर खड़े हो गये। नेत्रों से आँसू की धारा बहती जा रही थी। भगवान ने अपने दोनों हाथों से पकड़कर बहुत देर तक भरत जी को हृदय से लगाये रखा। भगवान के नेत्रजल से भरत जी का स्नान हो गया। इसके बाद सीता जी और लक्ष्मण जी के साथ भगवान श्रीराम जी ने ब्राह्मण और पूजनीय गुरुजनों को नमस्कार किया तथा सारी प्रजा ने बड़े प्रेम से सिर झुकाकर भगवान के चरणों में प्रणाम किया। उस समय उत्तर कोसल देश की रहने वाली समस्त प्रजा अपने स्वामी भगवान को बहुत दिनों के बाद आये देख अपने दुपट्टे हिला-हिलाकर पुष्पों की वर्षा करती हुई आनन्द से नाचने लगी। भरत जी ने भगवान की पादुकाएँ लीं, विभीषण ने श्वेत चँवर, सुग्रीव ने पंखा और श्रीहनुमान जी ने श्वेत छत्र ग्रहण किया।



(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 44-56 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! शत्रुघ्न जी ने धनुष और तरकस, सीता जी ने तीर्थों के जल से भरा हुआ कमण्डलु, अंगद ने सोने का खड्ग और जाम्बवान् ने ढाल ले ली। इन लोगों के साथ भगवान् पुष्पक विमान पर विराजमान हो गये, चारों तरह यथास्थान स्त्रियाँ बैठ गयीं, वन्दीजन स्तुति करने लगे। उस समय पुष्पक विमान पर भगवान् श्रीराम की ऐसी शोभा हुई, मानो ग्रहों के साथ चन्द्रमा उदय हो रहे हों।

इस प्रकार भगवान् ने भाइयों का अभिनन्दन स्वीकार करके उनके साथ अयोध्यापुरी में प्रवेश किया। उस समय वह पुरी आनन्दोत्सव से परिपूर्ण हो रही थी। राजमहल में प्रवेश करके उन्होंने अपनी माता कौसल्या, अन्य माताओं, गुरुजनों, बराबर के मित्रों और छोटों का यथायोग्य सम्मान किया तथा उनके द्वारा किया हुआ सम्मान स्वीकार किया। श्रीसीता जी और लक्ष्मण जी ने भी भगवान् के साथ-साथ सबके प्रति यथायोग्य व्यवहार किया। उस समय जैसे मृतक शरीर में प्राणों का संचार हो जाये, वैसे ही माताएँ अपने पुत्रों के आगमन से हर्षित हो उठीं। उन्होंने उनको अपनी गोद में बैठा लिया और अपने आँसुओं से उनका अभिषेक किया। उस समय उनका सारा शोक मिट गया।

इसके बाद वसिष्ठ जी ने दूसरे गुरुजनों के साथ विधिपूर्वक भगवान् की जटा उतरवायी और बृहस्पति ने जैसे इन्द्र का अभिषेक किया था, वैसे ही चारों समुद्रों के जल आदि से उनका अभिषेक किया। इस प्रकार सिर से स्नान करके भगवान् श्रीराम ने सुन्दर वस्त्र, पुष्पमालाएँ और अलंकार धारण किये। सभी भाइयों और श्रीजानकी जी ने भी सुन्दर-सुन्दर वस्त और अलंकार धारण किये। उनके साथ भगवान् श्रीराम जी अत्यन्त शोभायमान हुए। भरत जी ने उनके चरणों में गिरकर उन्हें प्रसन्न किया और उनके आग्रह करने पर भगवान् श्रीराम ने राजसिंहासन स्वीकार किया। इसके बाद वे अपने-अपने धर्म में तत्पर तथा वर्णाश्रम के आचार को निभाने वाली प्रजा का पिता के समान पालन करने लगे। उनकी प्रजा भी उन्हें अपना पिता ही मानती थी।

परीक्षित! जब समस्त प्राणियों को सुख देने वाले परम धर्मज्ञ भगवान् श्रीराम राजा हुए, तब था तो त्रेतायुग, परन्तु मालूम होता था मानो सत्ययुग ही है। परीक्षित! उस समय वन, नदी, पर्वत, वर्ष, द्वीप और समुद्र-सब-के-सब प्रजा के लिये कामधेनु के समान समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले बन रहे थे। इन्द्रियातीत भगवान् श्रीराम के राज्य करते समय किसी को मानसिक चिन्ता या शारीरिक रोग नहीं होते थे। बुढ़ापा, दुर्बलता, दुःख, शोक, भय और थकावट नाम मात्र के लिये भी नहीं थे। यहाँ तक कि जो मरना नहीं चाहते थे, उनकी मृत्यु भी नहीं होती थी। भगवान् श्रीराम ने एक पत्नी का व्रत धारण कर रखा था, उनके चरित्र अतंत पवित्र एवं राजर्षियों के-से थे। वे गृहस्थोचित स्वधर्म की शिक्षा देने के लिये स्वयं उस धर्म का आचरण करते थे। सतीशिरोमणि सीता जी अपने पति के हृदय का भाव जानती रहतीं। वे प्रेम से, सेवा से, शील से, अत्यन्त विनय से तथा अपनी बुद्धि और लज्जा आदि गुणों से अपने पति भगवान् श्रीराम जी का चित्त चुराती रहती थीं।

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