सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( नवम स्कन्धः ) का प्रथम , द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम अध्याय [ The first, second, third, fourth and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Ninth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( नवम स्कन्धः ) का प्रथम , द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम अध्याय [ The first, second, third, fourth and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Ninth wing) ]


                           {नवम स्कन्ध:}

                      【प्रथम अध्याय:】१.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"वैवस्वत मनु के पुत्र राजा सुद्युम्न की कथा"
राजा परीक्षित ने पूछा ;- 'भगवन्! आपने सब मन्वन्तरों और उनमें अनन्त शक्तिशाली भगवान् के द्वारा किये हुए ऐश्वर्यपूर्ण चरित्रों का वर्णन किया और मैंने उनका श्रवण भी किया। आपने कहा कि पिछले कल्प के अन्त में द्रविड़ देश के स्वामी राजर्षि सत्यव्रत ने भगवान् की सेवा से ज्ञान प्राप्त किया और वही इस कल्प में वैवस्वत मनु हुए। आपने उनके इक्ष्वाकु आदि नरपति पुत्रों का भी वर्णन किया। ब्रह्मन्! अब आप कृपा करके उनके वंश और वंश में होने वालों का अलग-अलग चरित्र वर्णन कीजिये। महाभाग! हमारे हृदय में सर्वदा ही कथा सुनने की उत्सुकता बनी रहती है। वैवस्वत मनु के वंश में जो हो चुके हों, इस समय विद्यमान हों और आगे होने वाले हों-उन सब पवित्रकीर्ति पुरुषों के पराक्रम का वर्णन कीजिये।'

सूतजी कहते हैं ;- शौनकादि ऋषियों! ब्रह्मवादी ऋषियों की सभा में राजा परीक्षित ने जब यह प्रश्न किया, तब धर्म के परम मर्मज्ञ भगवान् श्रीशुकदेव जी ने कहा।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! तुम मनु वंश का वर्णन संक्षेप से सुनो। विस्तार से तो सैकड़ों वर्ष में भी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। जो परमपुरुष परमात्मा छोटे-बड़े सभी प्राणियों के आत्मा हैं, प्रलय के समय केवल वही थे; यह विश्व तथा और कुछ भी नहीं था। महाराज! उनकी नाभि से एक सुवर्णमय कमलकोष प्रकट हुआ। उसी में चतुर्मुख ब्रह्मा जी का आविर्भाव हुआ। ब्रह्मा जी के मन से मरीचि और मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। उनकी धर्मपत्नी दक्षनन्दिनी अदिति से विवस्वान् (सूर्य) का जन्म हुआ। विवस्वान् की संज्ञा नामक पत्नी से श्राद्धदेव मनु का जन्म हुआ।

परीक्षित! परममनस्वी राजा श्राद्धदेव ने अपनी पत्नी श्रद्धा के गर्भ से दस पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम थे- इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट, धृष्ट, करुष, नरिष्यन्त, पृषध्र, नभग और कवि।

वैवस्वत मनु पहले सन्तानहीन थे। उस समय सर्वसमर्थ भगवान् वसिष्ठ ने उन्हें सन्तान प्राप्ति कराने के लिये मित्रावरुण का यज्ञ कराया था। यज्ञ के आरम्भ में केवल दूध पीकर रहने वाली वैवस्वत मनु की धर्मपत्नी श्रद्धा ने अपने होता के पास जाकर प्रणामपूर्वक याचना की कि मुझे कन्या ही प्राप्त हो। तब अध्वर्यु की प्रेरणा से होता बने हुए ब्राह्मण ने श्रद्धा के कथन का स्मरण करके एकाग्रचित्त से वषट्कार का उच्चारण करते हुए यज्ञकुण्ड में आहुति दी। जब होता ने इस प्रकार विपरीत कर्म किया, तब यज्ञ के फलस्वरूप पुत्र के स्थान पर इला नाम की कन्या हुई। उसे देखकर श्राद्धदेव मनु का मन कुछ विशेष प्रसन्न नहीं हुआ। उन्होंने अपने गुरु वसिष्ठ जी से कहा- ‘भगवन्! आप लोग तो ब्रह्मवादी हैं, आपका कर्म इस प्रकार विपरीत फल देने वाला कैसे हो गया? अरे, ये तो बड़े दुःख की बात है। वैदिक कर्म का ऐसा विपरीत फल तो कभी नहीं होना चाहिये। आप लोगों का मन्त्रज्ञान तो पूर्ण है ही; इसके अतिरिक्त आप लोग जितेन्द्रिय भी हैं तथा तपस्या के कारण निष्पाप हो चुके हैं। देवताओं में असत्य की प्राप्ति के समान आपके संकल्प का यह उलटा फल कैसे हुआ?’

परीक्षित! हमारे वृद्ध पितामह भगवान् वसिष्ठ ने उनकी यह बात सुनकर जान लिया कि होता ने विपरीत संकल्प किया है। इसलिये उन्होंने वैवस्वत मनु से कहा- ‘राजन्! तुम्हारे होता के विपरीत संकल्प से ही हमारा संकल्प ठीक-ठीक पूरा नहीं हुआ। फिर भी अपने तप के प्रभाव से मैं तुम्हें श्रेष्ठ पुत्र दूँगा’।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 21-42 का हिन्दी अनुवाद)

परीक्षित! परमयशस्वी भगवान वसिष्ठ ने ऐसा निश्चय करके उस इला नाम की कन्या को ही पुरुष बना देने के लिये पुरुषोत्तम नारायण की स्तुति की। सर्वशक्तिमान् भगवान श्रीहरि ने सन्तुष्ट होकर उन्हें मुँहमाँगा वर दिया, जिसके प्रभाव से वह कन्या ही सुद्युम्न नामक श्रेष्ठ पुत्र बन गयी।

महाराज! एक बार राजा सुद्युम्न शिकार खेलने के लिये सिन्धु देश के घोड़े पर सवार होकर कुछ मन्त्रियों के साथ वन में गये। वीर सुद्युम्न कवच पहकर और हाथ में सुन्दर धनुष एवं अत्यन्त अद्भुत बाण लेकर हरिनों का पीछा करते हुए उत्तर दिशा में बहुत आगे बढ़ गये। अन्त में सुद्युम्न मेरु पर्वत की तलहटी के एक वन में चले गये। उस वन में भगवान शंकर पार्वती के साथ विहार करते रहते हैं। उसमें प्रवेश करते ही वीरवर सुद्युम्न ने देखा कि मैं स्त्री हो गया हूँ और घोड़ा घोड़ी हो गया है। परीक्षित! साथ ही उनके सब अनुचरों ने भी अपने को स्त्रीरूप में देखा। वे सब एक-दूसरे के मुँह देखने लगे, उनका चित्त बहुत उदास हो गया।
राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन! उस भूखण्ड में ऐसा विचित्र गुण कैसे आ गया? किसने उसे ऐसा बना दिया था? आप कृपा कर हमारे इस प्रश्न का उत्तर दीजिये; क्योंकि हमें बड़ा कौतूहल हो रहा है।

श्रीशुकदेव जी ने कहा ;- परीक्षित! एक दिन भगवान शंकर का दर्शन करने के लिये बड़े-बड़े व्रतधारी ऋषि अपने तेज से दिशाओं का अन्धकार मिटाते हुए उस वन में गये। उस समय अम्बिका देवी वस्त्रहीन थीं। ऋषियों को सहसा देख वे अत्यन्त लज्जित हो गयीं। झटपट उन्होंने भगवान शंकर की गोद से उठकर वस्त्र धारण कर लिया। ऋषियों ने भी देखा कि भगवान गौरी-शंकर इस समय विहार कर रहे हैं, इसलिये वहाँ से लौटकर वे भगवान नर-नारायण के आश्रम पर चले गये। उसी समय भगवान शंकर ने अपनी प्रिया भगवती अम्बिका को प्रसन्न करने के लिये कहा कि ‘मेरे सिवा जो भी पुरुष इस स्थान में प्रवेश करेगा, वही स्त्री हो जायेगा’।

परीक्षित! तभी से पुरुष उस स्थान में प्रवेश नहीं करते। अब सुद्युम्न स्त्री हो गये थे। इसलिये वे अपने स्त्री बने हुए अनुचरों के साथ एक वन से दूसरे वन में विचरने लगे। उसी समय शक्तिशाली बुध ने देखा कि मेरे आश्रम के पास ही बहुत-सी स्त्रियों से घिरी हुई एक सुन्दरी स्त्री विचर रही है। उन्होंने इच्छा की कि यह मुझे प्राप्त हो जाये। उस सुन्दरी स्त्री ने भी चन्द्रकुमार बुध को पति बनाना चाहा। इस पर बुध ने उसके गर्भ से पुरुरवा नाम का पुत्र उत्पन्न किया। इस प्रकार मनुपुत्र राजा सुद्युम्न स्त्री हो गये। ऐसा सुनते हैं कि उन्होंने उस अवस्था में अपने कुलपुरोहित वसिष्ठ जी का स्मरण किया। सुद्युम्न कि यह दशा देखकर वसिष्ठ जी के हृदय में कृपावश अत्यन्त पीड़ा हुई। उन्होंने सुद्युम्न को पुनः पुरुष बना देने के लिये भगवान शंकर कि आराधना की।

भगवान शंकर वसिष्ठ जी पर प्रसन्न हुए। परीक्षित! उन्होंने उनकी अभिलाषा पूर्ण करने के लिये अपनी वाणी को सत्य रखते हुए ही यह बात कही- ‘वसिष्ठ! तुम्हारा यह यजमान एक महीने तक पुरुष रहेगा और एक महीने तक स्त्री। इस व्यवस्था से सुद्युम्न इच्छानुसार पृथ्वी का पालन करे’। इस प्रकार वसिष्ठ जी के अनुग्रह से व्यवस्थापूर्वक अभीष्ट पुरुषत्व लाभ करके सुद्युम्न पृथ्वी का पालन करने लगे। परंतु प्रजा उनका अभिनन्दन नहीं करती थी। उनके तीन पुत्र हुए- उत्कल, गय और विमल। परीक्षित! वे सब दक्षिणापथ के राजा हुए। बहुत दिनों के बाद वृद्धावस्था आने पर प्रतिष्ठान नगरी के अधिपति सुद्युम्न ने अपने पुत्र पुरुरवा को राज्य दे दिया और स्वयं तपस्या करने के लिये वन की यात्रा की।

                           {नवम स्कन्ध:}

                      【द्वितीय अध्याय:】२.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"पृषध्र आदि मनु के पाँच पुत्रों का वंश"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इस प्रकार जब सुद्युम्न तपस्या करने के लिये वन में चले गये, तब वैवस्वत मनु ने पुत्र की कामना से यमुना के तट पर सौ वर्ष तक तपस्या की। इसके बाद उन्होंने सन्तान के लिये सर्वशक्तिमान भगवान श्रीहरि की आराधना की और अपने ही समान दस पुत्र प्राप्त किये, जिसमें सबसे बड़े इक्ष्वाकु थे। उन मनुपुत्रों में से एक का नाम था पृषध्र। गुरु वसिष्ठ जी ने उसे गायों की रक्षा में नियुक्त कर रखा था, अतः वह रात्रि के समय बड़ी सावधानी से वीरासन से बैठा रहता और गायों की रक्षा करता।

एक दिन रात में वर्षा हो रही थी। उस समय गायों के झुंड में एक बाघ घुस आया। उससे डरकर सोयी हुई गौएँ उठ खड़ी हुईं। वे गोशाला में ही इधर-उधर भागने लगीं। बलवान् बाघ ने एक गाय को पकड़ लिया। वह अत्यन्त भयभीत होकर चिल्लाने लगी। उसका वह क्रन्दन सुनकर पृषध्र गाय के पास दौड़ आया। एक तो रात का समय और दूसरे घनघोर घटाओं से आच्छादित होने के कारण तारे भी नहीं दीखते थे। उसने हाथ में तलवार उठाकर अनजान में ही बड़े वेग से गाय का सिर काट दिया। वह समझ रहा था कि यही बाघ है। तलवार की नोक से बाघ का भी कान कट गया, वह अत्यन्त भयभीत होकर रास्ते में खून गिराता हुआ वहाँ से निकल भागा। शत्रुदमन पृषध्र ने यह समझा कि बाघ मर गया। परंतु रात बीतने पर उसने देखा कि मैंने तो गाय को ही मार डाला है, इससे उसे बड़ा दुःख हुआ।

यद्यपि पृषध्र ने जान-बूझकर अपराध नहीं किया था, फिर भी कुलपुरोहित वसिष्ठ जी ने उसे शाप दिया कि ‘तुम इस कर्म से क्षत्रिय नहीं रहोगे; जाओ, शूद्र हो जाओ’। पृषध्र ने अपने गुरुदेव का यह शाप अंजलि बाँधकर स्वीकार किया और इसके बाद सदा के लिये मुनियों को प्रिय लगने वाले नैष्ठिक ब्रह्मचर्य-व्रत को धारण किया। वह समस्त प्राणियों का अहैतुक हितैषी एवं सबके प्रति समान भाव से युक्त होकर भक्ति के द्वारा परमविशुद्ध सर्वात्मा भगवान् वासुदेव का अनन्य प्रेमी हो गया। उसकी सारी आसक्तियाँ मिट गयीं। वृत्तियाँ शान्त हो गयीं। इन्द्रियाँ वश में हो गयीं। वह कभी किसी प्रकार का संग्रह-परिग्रह नहीं रखता था। जो कुछ दैववश प्राप्त हो जाता, उसी से अपना जीवन-निर्वाह कर लेता। वह आत्मज्ञान से सन्तुष्ट एवं अपने चित्त को परमात्मा में स्थित करके प्रायः समाधिस्थ रहता। कभी-कभी जड़, अंधे और बहरे के समान पृथ्वी पर विचरण करता। इस प्रकार का जीवन व्यतीत करता हुआ वह एक दिन वन में गया। वहाँ उसने देखा की दावानल धधक रहा है। मननशील पृषध्र अपनी इन्द्रियों को उसी अग्नि में भस्म करके परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त हो गया।

मनु का सबसे छोटा पुत्र था कवि। विषयों से वह अत्यन्त निःस्पृह था। वह राज्य छोड़कर अपने बन्धुओं के साथ वन में चला गया और अपने हृदय में स्वयंप्रकाश परमात्मा को विराजमान पर किशोर अवस्था में ही परमपद को प्राप्त हो गया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 16-36 का हिन्दी अनुवाद)

मनुपुत्र करूष से कारूष नामक क्षत्रिय उत्पन्न हुए। वे बड़े ही ब्राह्मण भक्त, धर्मप्रेमी एवं उत्तरापथ के रक्षक थे। धृष्ट के धार्ष्ट नामक क्षत्रिय हुए। अन्त में वे इस शरीर से ही ब्राह्मण बन गये। नृग का पुत्र हुआ सुमति, उसका पुत्र भूतज्योति और भूतज्योति का पुत्र वसु था। वसु का पुत्र प्रतीक और प्रतीक का पुत्र ओघवान। ओघवान के पुत्र का नाम भी ओघवान ही था। उनके एक ओघवती नाम की कन्या भी थी, जिसका विवाह सुदर्शन से हुआ। मनुपुत्र नरिष्यन्त से चित्रसेन, उससे ऋक्ष, ऋक्ष से मीढ्वान्, मीढ्वान् से कूर्च और उससे इन्द्रसेन की उत्पत्ति हुई। इन्द्रसेन से वीतिहोत्र, उससे सत्यश्रवा, सत्यश्रवा से ऊरूश्रवा और उससे देवदत्त की उत्पत्ति हुई। देवदत्त के अग्निवेश्य नामक पुत्र हुए, जो स्वयं अग्नि देव ही थे। आगे चलकर वे ही कानीन एवं महर्षि जातूकर्ण्य के नाम से विख्यात हुए।

परीक्षित! ब्राह्मणों का ‘आग्निवेश्यायन’ गोत्र उन्हीं से चला है। इस प्रकार नरिष्यन्त के वंश का मैंने वर्णन किया, अब दिष्टि का वंश सुनो। दिष्ट के पुत्र का नाम था नाभाग। यह उस नाभाग से अलग है, जिसका मैं आगे वर्णन करूँगा। वह अपने कर्म के कारण वैश्य हो गया। उसका पुत्र हुआ भलन्दन और उसका वत्सप्रीति। वत्सप्रीति का प्रांशु और प्रांशु का पुत्र हुआ प्रमति। प्रमति के खनित्र, खनित्र के चाक्षुष और उनके विविंशति हुए। विविंशति के पुत्र रम्भ और रम्भ के पुत्र खनिनेत्र-दोनों ही परम धार्मिक हुए। उनके पुत्र करन्धम और करन्धम के अवीक्षित्।

महाराज परीक्षित! अवीक्षित् के पुत्र मरुत्त चक्रवर्ती राजा हुए। उनसे अंगिरा के पुत्र महायोगी संवर्त्त ऋषि ने यज्ञ कराया था। मरुत्त का यज्ञ जैसा हुआ वैसा और किसी का नहीं हुआ। उस यज्ञ के समस्त छोटे-बड़े पात्र अत्यन्त सुन्दर एवं सोने के बने हुए थे। उस यज्ञ में इन्द्र सोमपान करके मतवाले हो गये थे और दक्षिणाओं से ब्राह्मण तृप्त हो गये थे। उसमें परसने वाले थे मरुद्गण और विश्वेदेव सभासद् थे। मरुत्त के पुत्र का नाम था दम। दम से राज्यवर्धन, उससे सुधृति और सुधृति से नर नामक पुत्र की उत्पत्ति हुई। नर से केवल, केवल से बन्धुमान्, बन्धुमान् से वेगवान, वेगवान से बन्धु और बन्धु से राजा तृणबिन्दु का जन्म हुआ।

तृणबिन्दु आदर्श गुणों के भण्डार थे। अप्सराओं में श्रेष्ठ अलम्बुषा देवी ने उसको वरण किया, जिससे उनके कई पुत्र और इडविडा नाम की कन्या उत्पन्न हुई। मुनिवर विश्रवा ने अपने योगेश्वर पिता पुलस्त्य जी से उत्तम विद्या प्राप्त करके इडविडा के गर्भ से लोकपाल कुबेर को पुत्ररूप में उत्पन्न किया। महाराज तृणबिन्दु के अपनी धर्मपत्नी से तीन पुत्र हुए- विशाल, शून्यबिन्दु और धूम्रकेतु। उनसे राजा विशाल वंशधर हुए और उन्होंने वैशाली नाम की नगरी बसायी। विशाल से हेमचन्द्र, हेमचन्द्र से धूम्राक्ष, धूम्राक्ष से संयम और सयंम से दो पुत्र हुए-कृशाश्व और देवज। कृशाश्व के पुत्र का नाम था सोमदत्त। उसने अश्वमेध यज्ञों के द्वारा यज्ञपति भगवान् की आराधना की और योगेश्वर संतों का आश्रय लेकर उत्तम गति प्राप्त की। सोमदत्त का पुत्र हुआ सुमति और सुमति से जनमेजय। ये सब तृणबिन्दु की कीर्ति को बढ़ाने वाले विशालवंशी राजा हुए।

                           {नवम स्कन्ध:}

                      【तृतीय अध्याय:】३.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"महर्षि च्यवन और सुकन्या का चरित्र, राजा शर्याति का वंश"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! मनुपुत्र राजा शर्याति वेदों का निष्ठावान् विद्वान् था। उसने अंगिरा गोत्र के ऋषियों के यज्ञ में दूसरे दिन का कर्म बतलाया था। उसकी एक कमललोचना कन्या थी। उसका नाम था सुकन्या।

एक दिन राजा शर्याति अपनी कन्या के साथ वन में घूमते-घूमते च्यवन ऋषि के आश्रम पर जा पहुँचे। सुकन्या अपनी सखियों के साथ वन में घूम-घूमकर वृक्षों का सौन्दर्य देख रही थी। उसने एक स्थान पर देखा कि बाँबी (दीमकों की एकत्रित की हुई मिट्टी) के छेद में से जुगनू की तरह दो ज्योतियाँ दीख रहीं हैं। दैव की कुछ ऐसी ही प्रेरणा थी, सुकन्या ने बाल सुलभ चपलता से एक काँटे के द्वारा उन ज्योतियों को बेध दिया। इससे उनमें से बहुत-सा खून बह चला। उसी समय राजा शर्याति के सैनिकों का मल-मूत्र रुक गया। राजर्षि शर्याति को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, उन्होंने अपने सैनिकों से कहा- ‘अरे, तुम लोगों ने कहीं महर्षि च्यवन जी के प्रति कोई अनुचित व्यवहार तो नहीं कर दिया? मुझे तो यह स्पष्ट जान पड़ता है कि हम लोगों में से किसी-न-किसी ने उनके आश्रम में कोई अनर्थ किया है।'

तब सुकन्या ने अपने पिता से डरते-डरते कहा कि ‘पिता जी! मैंने कुछ अपराध अवश्य किया है। मैंने अनजान में दो ज्योतियों को काँटे से छेद दिया है’। अपनी कन्या की यह बात सुनकर शर्याति घबरा गये। उन्होंने धीरे-धीरे स्तुति करके बाँबी में छिपे हुए च्यवन मुनि को प्रसन्न किया। तदनन्तर च्यवन मुनि का अभिप्राय जानकर उन्होंने अपनी कन्या उन्हें समर्पित कर दी और इस संकट से छूटकर बड़ी सावधानी से उनकी अनुमति लेकर वे अपनी राजधानी में चले आये। इधर सुकन्या परमक्रोधी च्यवन मुनि को अपने पति के रूप में प्राप्त करके बड़ी सावधानी से उनकी सेवा करती हुई उन्हें प्रसन्न करने लगी। वह उनकी मनोवृत्ति को जानकर उसके अनुसार ही बर्ताव करती थी।

कुछ समय बीत जाने पर उनके आश्रम पर दोनों अश्विनीकुमार आये। च्यवन मुनि ने उनका यथोचित सत्कार किया और कहा कि ‘आप दोनों समर्थ हैं, इसलिये मुझे युवा-अवस्था प्रदान कीजिये। मेरा रूप एवं अवस्था ऐसी कर दीजिये, जिसे युवती स्त्रियाँ चाहती हैं। मैं जानता हूँ कि आप लोग सोमपान के अधिकारी नहीं हैं, फिर भी मैं आपको यज्ञ में सोमरस का भाग दूँगा’।

वैद्यशिरोमणि अश्विनीकुमारों ने महर्षि च्यवन का अभिनन्दन करके कहा, ‘ठीक है।’ और इसके बाद उनसे कहा कि ‘यह सिद्धों के द्वारा बनाया हुआ कुण्ड है, आप इसमें स्नान कीजिये’। च्यवन मुनि के शरीर को बुढ़ापे ने घेर रखा था। सब ओर नसें दीख रही थीं, झुर्रियाँ पड़ जाने एवं बाल पक जाने के कारण वे देखने में बहुत भद्दे लगते थे। अश्विनीकुमारों ने उन्हें अपने साथ लेकर कुण्ड में प्रवेश किया। उसी समय कुण्ड से तीन पुरुष बाहर निकले। वे तीनों ही कमलों की माला, कुण्डल और सुन्दर वस्त्र पहने एक-से मालूम होते थे। वे बड़े ही सुन्दर एवं स्त्रियों को प्रिय लगने वाले थे। परमसाध्वी सुन्दरी सुकन्या ने जब देखा कि ये तीनों ही एक आकृति के तथा सूर्य के समान तेजस्वी हैं, तब अपने पति को न पहचानकर उसने अश्विनीकुमारों की शरण ली।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 17-36 का हिन्दी अनुवाद)

उसके पातिव्रत्य से अश्विनीकुमार बहुत सन्तुष्ट हुए। उन्होंने उसके पति को बतला दिया और फिर च्यवन मुनि से आज्ञा लेकर विमान के द्वारा वे स्वर्ग को चले गये।

कुछ समय के बाद यज्ञ करने की इच्छा से राजा शर्याति च्यवन मुनि के आश्रम पर आये। वहाँ उन्होंने देखा कि उनकी कन्या सुकन्या के पास एक सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष बैठा हुआ है। सुकन्या ने उनके चरणों की वन्दना की। शर्याति ने उसे आशीर्वाद नहीं दिया और कुछ अप्रसन्न-से होकर बोले- ‘दुष्टे! यह तूने क्या किया? क्या तूने सबके वन्दनीय च्यवन मुनि को धोखा दे दिया? अवश्य ही तूने उनको बूढ़ा और अपने काम का न समझकर छोड़ दिया और अब तू इस राह चलते जार पुरुष की सेवा कर रही है। तेरा जन्म तो बड़े ऊँचे कुल में हुआ था। यह उलटी बुद्धि तुझे कैसे प्राप्त हुई? तेरा यह व्यवहार तो कुल में कलंक लगाने वाला है। अरे राम-राम! तू निर्लज्ज होकर जार पुरुष की सेवा कर रही है और इस प्रकार अपने पिता और पति दोनों के वंश को घोर नरक में ले जा रही है’।

राजा शर्याति के इस प्रकार कहने पर पवित्र मुस्कान वाली सुकन्या ने मुसकराकर कहा- ‘पिताजी! ये आपके जमाता स्वयं भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ही हैं’। इसके बाद उसने अपने पिता से महर्षि च्यवन के यौवन और सौन्दर्य की प्राप्ति का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। वह सब सुनकर राजा शर्याति अत्यन्त विस्मित हुए। उन्होंने बड़े प्रेम से अपनी पुत्री को गले से लगा लिया।

महर्षि च्यवन ने वीर शर्याति से सोमयज्ञ का अनुष्ठान करवाया और सोमपान के अधिकारी न होने पर भी अपने प्रभाव से अश्विनीकुमारों को सोमपान कराया। इन्द्र बहुत जल्दी क्रोध कर बैठते हैं। इसलिये उनसे यह सहा न गया। उन्होंने चिढ़कर शर्याति को मारने के लिये वज्र उठाया। महर्षि च्यवन ने वज्र के साथ उनके हाथ को वहीं स्तम्भित कर दिया। तब सब देवताओं ने अश्विनीकुमारों को सोम का भाग देना स्वीकार कर लिया। उन लोगों ने वैद्य होने के कारण पहले अश्विनीकुमारों का सोमपान से बहिष्कार कर रखा था।

परीक्षित! शर्याति के तीन पुत्र थे- उत्तानबर्हि, आनर्त और भूरिषेण। आनर्त से रेवत हुए। महाराज! रेवत ने समुद्र के भीतर कुशस्थली नाम की एक नगरी बसायी थी। उसी में रहकर वे आनर्त आदि देशों का राज्य करते थे। उनके सौ श्रेष्ठ पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़े थे कुकुद्मी। कुकुद्मी अपनी कन्या रेवती को लेकर उसके लिये वर पूछने के उद्देश्य से ब्रह्मा जी के पास गये। उस समय ब्रह्मलोक का रास्ता ऐसे लोगों के लिये बेरोक-टोक था। ब्रह्मलोक में गाने-बजाने की धूम मची हुई थी। बातचीत के लिये अवसर न मिलने के कारण वे कुछ क्षण वहीं ठहर गये। उत्सव के अन्त में ब्रह्मा जी को नमस्कार करके उन्होंने अपना अभिप्राय निवेदन किया। उनकी बात सुनकर भगवान् ब्रह्मा जी ने हँसकर उनसे कहा- ‘महाराज! तुमने अपने मन में जिन लोगों के विषय में सोच रखा था, वे सब तो काल के गाल में चले गये। अब उनके पुत्र, पौत्र अथवा नातियों की तो बात ही क्या है, गोत्रों के नाम भी नहीं सुनायी पड़ते। इस बीच में सत्ताईस चतुर्युगी का समय बीत चुका है। इसलिये तुम जाओ। इस समय भगवान् नारायण के अंशावतार महाबली बलदेव जी पृथ्वी पर विद्यमान हैं। राजन्! उन्हीं नररत्न को यह कन्यारत्न तुम समर्पित कर दो। जिनके नाम, लीला आदि का श्रवण-कीर्तन बड़ा ही पवित्र है-वे ही प्राणियों के जीवन सर्वस्व भगवान् पृथ्वी का भार उतारने के लिये अपने अंश से अवतीर्ण हुए हैं।’

राजा कुकुद्मी ने ब्रह्मा जी का यह आदेश प्राप्त करके उनके चरणों की वन्दना की और अपने नगर में चले आये। उनके वंशजों ने यक्षों के भय से वह नगरी छोड़ दी थी और जहाँ-तहाँ यों ही निवास कर रहे थे। राजा कुकुद्मी ने अपनी सर्वांगसुन्दरी पुत्री परमबलशाली बलराम जी को सौंप दी और स्वयं तपस्या करने के लिये भगवान् नर-नारायण के आश्रम बदरीवन की ओर चल दिये।

                           {नवम स्कन्ध:}

                      【चतुर्थ अध्याय:】४.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"नाभाग और अम्बरीष की कथा"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! मनुपुत्र नभग का पुत्र था नाभाग। जब वह दीर्घकाल तक ब्रह्मचर्य का पालन करके लौटा, तब बड़े भाइयों ने अपने से छोटे किन्तु विद्वान् भाई को हिस्से में केवल पिता को ही दिया (सम्पत्ति तो उन्होंने पहले ही आपस में बाँट ली थी)। उसने अपने भाइयों से पूछा- ‘भाइयों! आप लोगों ने मुझे हिस्से में क्या दिया है?’ तब उन्होंने उत्तर दिया कि ‘हम तुम्हारे हिस्से में पिताजी को ही तुम्हें देते हैं।’ उसने अपने पिता से जाकर कहा- ‘पिताजी! मेरे बड़े भाइयों ने हिस्से में मेरे लिये आपको ही दिया है।’

पिता ने कहा ;- ‘बेटा! तुम उनकी बात न मानो। देखो, ये बड़े बुद्धिमान् आंगिरस गोत्र के ब्राह्मण इस समय एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं। परन्तु मेरे विद्वान् पुत्र! वे प्रत्येक छठे दिन अपने कर्म में भूल कर बैठते हैं। तुम उन महात्माओं के पास जाकर उन्हें वैश्वेदेव सम्बन्धी दो सूक्त बतला दो; जब वे स्वर्ग जाने लगेंगे, तब यज्ञ से बचा हुआ अपना सारा धन तुमें दे देंगे। इसलिये अब तुम उन्हीं के पास चले जाओ।’ उसने अपने पिता के आज्ञानुसार वैसा ही किया। उन आंगिरस गोत्री ब्राह्मणों ने भी यज्ञ का बचा हुआ धन उसे दे दिया और वे स्वर्ग में चले गये।

जब नाभाग उस धन को लेने लगा, तब उत्तर दिशा से एक काले रंग का पुरुष आया। उसने कहा- ‘इस यज्ञभूमि में जो कुछ बचा हुआ है, वह सब धन मेरा है’। नाभाग ने कहा- ‘ऋषियों ने यह धन मुझे दिया है, इसलिये मेरा है।’ इस पर उस पुरुष ने कहा- ‘हमारे विवाद के विषय में तुम्हारे पिता से ही प्रश्न किया जाये।’ तब नाभाग ने जाकर पिता से पूछा।

पिता ने कहा ;- ‘एक बार दक्ष प्रजापति के यज्ञ में ऋषि लोग यह निश्चय कर चुके हैं कि यज्ञभूमि में जो कुछ बच रहता है, वह सब रुद्र देव का हिस्सा है। इसलिये वह धन तो महादेव जी को ही मिलना चाहिये’।

नाभाग ने जाकर उन काले रंग के पुरुष रुद्र-भगवान को प्रणाम किया और कहा कि ‘प्रभो! यज्ञभूमि की सभी वस्तुएँ आपकी हैं, मेरे पिता ने ऐसा ही कहा है। भगवन्! मुझसे अपराध हुआ, मैं सिर झुकाकर आपसे क्षमा माँगता हूँ’। तब भगवान रुद्र ने कहा- ‘तुम्हारे पिता ने धर्म के अनुकूल निर्णय दिया है और तुमने भी मुझसे सत्य ही कहा है। तुम वेदों का अर्थ तो पहले से ही जानते हो। अब मैं तुम्हें सनातन ब्रह्मतत्त्व का ज्ञान देता हूँ। जहाँ यज्ञ में बचा हुआ मेरा जो अंश है, यह धन भी मैं तुम्हें ही दे रहा हूँ; तुम इसे स्वीकार करो।’ इतना कहकर सत्यप्रेमी भगवान शंकर अन्तर्धान हो गये।

जो मनुष्य प्रातः और सायंकाल एकाग्रचित्त से इस आख्यान का स्मरण करता है वह प्रतिभाशाली एवं वेदज्ञ तो होता ही है, साथ ही अपने स्वरूप को भी जान लेता है। नाभाग के पुत्र हुए अम्बरीष। वे भगवान के बड़े प्रेमी एवं उदार धर्मात्मा थे। जो ब्रह्म शाप कभी कहीं रोका नहीं जा सका, वह भी अम्बरीष का स्पर्श न कर सका।

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन! मैं परमज्ञानी राजर्षि अम्बरीष का चरित्र सुनना चाहता हूँ। ब्राह्मण ने क्रोधित होकर उन्हें ऐसा दण्ड दिया जो किसी प्रकार टाला नहीं जा सकता; परन्तु वह भी उनका कुछ न बिगाड़ सका।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 15-27 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अम्बरीष बड़े भाग्यवान् थे। पृथ्वी के सातों द्वीपों, अचल सम्पत्ति और अतुलनीय ऐश्वर्य उनको प्राप्त था। यद्यपि ये सब साधारण मनुष्यों के लिये अत्यन्त दुर्लभ वस्तुएँ हैं, फिर भी वे इन्हें स्वप्नतुल्य समझते थे। क्योंकि वे जानते थे कि जिस धन-वैभव के लोभ में पड़कर मनुष्य घोर नरक में जाता है, वह केवल चार दिन की चाँदनी है। उसका दीपक तो बुझा-बुझाया है। भगवान् श्रीकृष्ण में और उनके प्रेमी साधुओं में उनका परम प्रेम था। उस प्रेम के प्राप्त हो जाने पर तो यह सारा विश्व और इसकी समस्त सम्पत्तियाँ मिट्टी के ढेले के समान जान पड़ती हैं। उन्होंने अपने मन को श्रीकृष्णचन्द्र के चरणारविन्द युगल में, वाणी को भगवद्गुणानुवर्णन में, हाथों को श्रीहरि-मन्दिर के मार्जन-सेचन में और अपने कानों को भगवान् अच्युत की मंगलमयी कथा के श्रवण में लगा रखा था। उन्होंने अपने नेत्र मुकुन्दमूर्ति एवं मन्दिरों के दर्शनों में, अंग-संग भगवद्भक्तों के शरीर स्पर्श में, नासिका उनके चरणकमलों पर चढ़ी श्रीमती तुलसी के दिव्य गन्ध में और रसना (जिह्वा) को भगवान् के प्रति अर्पित नैवेद्य-प्रसाद में संलग्न कर दिया था।

अम्बरीष के पैर भगवान् के क्षेत्र आदि की पैदल यात्रा करने में ही लगे रहते और वे सिर से भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों की वन्दना किया करते। राजा अम्बरीष ने माला, चन्दन आदि भोग-सामग्री को भगवान् की सेवा में समर्पित कर दिया था। भोगने की इच्छा से नहीं, बल्कि इसलिये कि इससे वह भगवत्प्रेम प्राप्त हो, जो पवित्र कीर्ति भगवान् के निज-जनों में ही निवास करता है। इस प्रकार उन्होंने अपने सारे कर्म यज्ञपुरुष, इन्द्रियातीत भगवान् के प्रति उन्हें सर्वात्मा एवं सर्वस्वरूप समझकर समर्पित कर दिये थे और भगवद्भक्त ब्राह्मणों की आज्ञा के अनुसार वे इस पृथ्वी का शासन करते थे। उन्होंने ‘धन्व’ नाम के निर्जल देश में सरस्वती नदी के प्रवाह के सामने वसिष्ठ, असित, गौतम आदि भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा महान् ऐश्वर्य के कारण सर्वांग परिपूर्ण तथा बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले अनेकों अश्वमेध यज्ञ करके यज्ञाधिपति भगवान् की आराधना की थी। उनके यज्ञों में देवताओं के साथ जब सदस्य और ऋत्विज बैठ जाते थे, तब उनकी पलकें नहीं पड़ती थीं और वे अपने सुन्दर वस्त्र और वैसे ही रूप के कारण देवताओं के समान दिखायी पड़ते थे। उनकी प्रजा महात्माओं के द्वारा गाये हुए भगवान् के उत्तम चरित्रों का किसी समय बड़े प्रेम से श्रवण करती और किसी समय उनका गान करती।

इस प्रकार उनके राज्य के मनुष्य देवताओं के अत्यन्त प्यारे स्वर्ग की भी इच्छा नहीं करते। वे अपने हृदय में अनन्त प्रेम का दान करने वाले श्रीहरि का नित्य-निरन्तर दर्शन करते रहते थे। इसलिये उन लोगों को वह भोग-सामग्री भी हर्षित नहीं कर पाती थी, जो बड़े-बड़े सिद्धों को भी दुर्लभ है। वे वस्तुएँ उनके आत्मानन्द के सामने अत्यन्त तुच्छ और तिरस्कृत थीं।

राजा अम्बरीष इस प्रकार तपस्या से युक्त भक्तियोग और प्रजापालनरूप स्वधर्म के द्वारा भगवान् को प्रसन्न करने लगे और धीरे-धीरे उन्होंने सब प्रकार की आसक्तियों का परित्याग कर दिया। घर, स्त्री, पुत्र, भाई-बन्धु, बड़े-बड़े हाथी, रथ, घोड़े एवं पैदलों की चतुरंगिणी सेना, अक्षय रत्न, आभूषण और आयुध आदि समस्त वस्तुओं तथा कभी समाप्त न होने वाले कोशों के सम्बन्ध में उनका ऐसा दृढ़ निश्चय था कि वे सब-के-सब असत्य हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 28-42 का हिन्दी अनुवाद)

उनकी अनन्य प्रेममयी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् ने उनकी रक्षा के लिये सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर दिया था, जो विरोधियों को भयभीत करने वाला एवं भगवद्भक्तों की रक्षा करने वाला है।

राजा अम्बरीष की पत्नी भी उन्हीं के समान धर्मशील, संसार से विरक्त एवं भक्ति परायण थीं। एक बार उन्होंने अपनी पत्नी के साथ भगवान श्रीकृष्ण की आराधना करने के लिये एक वर्ष तक द्वादशी प्रधान एकादशी-व्रत करने का नियम ग्रहण किया। व्रत की समाप्ति होने पर कार्तिक महीने में उन्होंने तीन रात का उपवास किया और एक दिन यमुना जी में स्नान करके मधुवन में भगवान श्रीकृष्ण की पूजा की। उन्होंने महाभिषेक की विधि से सब प्रकार की सामग्री और सम्पत्ति द्वारा भगवान् का अभिषेक किया और हृदय में तन्मय होकर वस्त्र, आभूषण, चन्दन, माला एवं अर्ध्य आदि के द्वारा उनकी पूजा की। यद्यपि महाभाग्यवान ब्राह्मणों को इस पूजा की कोई आवश्यकता नहीं थी, स्वयं ही उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो चुकी थीं-वे सिद्ध थे-तथापि राजा अम्बरीष ने भक्ति-भाव से उनका पूजन किया।

तत्पश्चात पहले ब्राह्मणों को स्वादिष्ट और अत्यन्त गुणकारी भोजन कराकर उन लोगों के घर साठ करोड़ गौएँ सुसज्जित करके भेंज दीं। उन गौओं के सींग सुवर्ण से और खुर चाँदी से मढ़े हुए थे। सुन्दर-सुन्दर वस्त्र उन्हें ओढ़ा दिये गये थे। वे गौएँ बड़ी सुशील, छोटी अवस्था की, देखने में सुन्दर, बछड़े वाली और खूब दूध देने वाली थीं। उनके साथ दुहने की उपयुक्त सामग्री भी उन्होंने भेजवा दी थी।

जब ब्राह्मणों को सब कुछ मिल चुका, तब राजा ने उन लोगों से आज्ञा लेकर व्रत का पारण करने की तैयारी की। उसी समय शाप और वरदान देने में समर्थ स्वयं दुर्वासा जी भी उनके यहाँ अतिथि के रूप में पधारे। राजा अम्बरीष उन्हें देखते ही उठकर खड़े हो गये, आसन देकर बैठाया और विविध सामग्रियों से अतिथि के रूप में आये हुए दुर्वासा जी की पूजा की। उनके चरणों में प्रणाम करके अम्बरीष ने भोजन के लिये प्रार्थना की। दुर्वासा जी ने अम्बरीष की प्रार्थना स्वीकार कर ली और इसके बाद आवश्यक कर्मों से निवृत्त होने के लिये वे नदी तट पर चले गये। वे ब्रह्म का ध्यान करते हुए यमुना के पवित्र जल में स्नान करने लगे।

इधर द्वादशी केवल घड़ी भर शेष रह गयी थी। धर्मज्ञ अम्बरीष ने धर्म-संकट में पड़कर ब्राह्मणों के साथ परमार्थ किया। उन्होंने कहा- ‘ब्राह्मण देवताओ! ब्राह्मण को बिना भोजन कराये स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते पारण न करना-दोनों ही दोष हैं। इसलिये इस समय जैसा करने से मेरी भलाई हो और मुझे पाप न लगे, ऐसा काम करना चाहिये।'

तब ब्राह्मणों के साथ विचार करके उन्होंने कहा- ‘ब्राह्मणो! श्रुतियों में ऐसा कहा गया है कि जल पी लेना भोजन करना भी है, नहीं भी करना है। इसलिये इस समय केवल जल से पारण किये लेता हूँ।' ऐसा निश्चय करके मन-ही-मन भगवान् का चिन्तन करते हुए राजर्षि अम्बरीष ने जल पी लिया और परीक्षित! वे केवल दुर्वासा जी के आने की बाट देखने लगे। दुर्वासा जी आवश्यक कर्मों से निवृत्त होकर यमुना तट से लौट आये। जब राजा ने आगे बढ़कर उनका अभिनन्दन किया और तब उन्होंने अनुमान से ही समझ लिया कि राजा ने पारण कर लिया है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 43-55 का हिन्दी अनुवाद)

उस समय दुर्वासा जी बहुत भूखे थे। इसलिये यह जानकर कि राजा ने पारण कर लिया है, वे क्रोध से थर-थर काँपने लगे। भौंहों के चढ़ जाने से उनका मुँह विकट हो गया। उन्होंने हाथ जोड़कर खड़े अम्बरीष से डाँटकर कहा- ‘अहो! देखो तो सही, यह कितना क्रूर है! यह धन के मद में मतवाला हो रहा है। भगवान् की भक्ति तो इसे छू तक नहीं गयी और यह अपने को बड़ा समर्थ मानता है। आज इसने धर्म का उल्लंघन करके बड़ा अन्याय किया है। देखो, मैं इसका अतिथि होकर आया हूँ। इसने अतिथि-सत्कार करने के लिये मुझे निमन्त्रण भी दिया है, किन्तु फिर भी मुझे खिलाये बिना ही खा लिया है। अच्छा देख, ‘तुझे अभी इसका फल चखाता हूँ’।

यों कहते-कहते वे क्रोध से जल उठे। उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़ी और उससे अम्बरीष को मार डालने के लिये एक कृत्या उत्पन्न की। वह प्रलयकाल की आग के समान दहक रही थी। वह आग के समान जलती हुई, हाथ में तलवार लेकर राजा अम्बरीष पर टूट पड़ी। उस समय उसके पैरों की धमक से पृथ्वी काँप रही थी। परन्तु राजा अम्बरीष उसे देखकर उससे तनिक भी विचलित नहीं हुए। वे एक पग भी नहीं हटे, ज्यों-के-त्यों खड़े रहे।

परमपुरुष परमात्मा ने अपने सेवक की रक्षा के लिये पहले ही सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर रखा था। जैसे आग क्रोध से गुर्राते हुए साँप को भस्म कर देती है, वैसे ही चक्र ने दुर्वासा जी की कृत्या को जलाकर राख का ढेर कर दिया। जब दुर्वासा जी ने देखा कि मेरी बनायी हुई कृत्या तो जल रही है और चक्र मेरी ओर आ रहा है, तब वे भयभीत हो अपने प्राण बचाने के लिये जी छोड़कर एकाएक भाग निकले। जैसे ऊँची-ऊँची लपटों वाला दावानल साँप के पीछे दौड़ता है, वैसे ही भगवान का चक्र उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। जब दुर्वासा जी ने देखा कि चक्र तो मेरे पीछे लग गया है, तब सुमेरु पर्वत की गुफा में प्रवेश करने के लिये वे उसी ओर दौड़ पड़े।

दुर्वासा जी दिशा, आकाश, पृथ्वी, अतल-वितल आदि नीचे के लोक, समुद्र, लोकपाल और उनके द्वारा सुरक्षित लोक एवं स्वर्ग तक में गये; परन्तु जहाँ-जहाँ वे गये, वही-वहीं उन्होंने असह्य तेज वाले सुदर्शन चक्र को अपने पीछे लगा देखा। जब उन्हें कहीं भी कोई रक्षक न मिला, तब तो वे और भी डर गये। अपने लिये त्राण ढूँढ़ते हुए वे देवशिरोमणि ब्रह्मा जी के पास गये और बोले- ‘ब्रह्मा जी! आप स्वयम्भू हैं। भगवान् के इस तेजोमय चक्र से मेरी रक्षा कीजिये’।

ब्रह्मा जी ने कहा ;- ‘जब मेरी दो परार्ध की आयु समाप्त होगी और कालस्वरूप भगवान् अपनी यह सृष्टि लीला समेटने लगेंगे और इस जगत् को जलाना चाहेंगे, उस समय उनके भ्रूभंग मात्र से यह सारा संसार और मेरा यह लोक भी लीन हो जायेगा। मैं, शंकर जी, दक्ष-भृगु आदि प्रजापति, भूतेश्वर, देवेश्वर आदि सब जिनके बनाये नियमों में बँधे हैं तथा जिनकी आज्ञा शिरोधार्य करके हम लोग संसार का हित करते हैं, (उनके भक्त के द्रोही को बचाने के लिये हम समर्थ नहीं हैं)’।

जब ब्रह्मा जी ने इस प्रकार दुर्वासा को निराश कर दिया, तब भगवान् के चक्र से संतप्त होकर वे कैलासवासी भगवान् शंकर की शरण में गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 56-71 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीमहादेव जी ने कहा ;- ‘दुर्वासा जी! जिन अनन्त परमेश्वर में ब्रह्मा-जैसे जीव और उनके उपाधिभूत कोश, इस ब्रह्माण्ड के समान ही अनेकों ब्रह्माण्ड समय पर पैदा होते हैं और समय आने पर फिर उनका पता नहीं चलता, जिनमें हमारे-जैसे हजारों चक्कर काटते रहते हैं-उन प्रभु के सम्बन्ध में हम कुछ भी करने की सामर्थ्य नहीं रखते।
मैं, सनत्कुमार, नारद, भगवान ब्रह्मा, कपिल देव, अपान्तरतम, देवल, धर्म, आसुरि तथा मरीचि आदि दूसरे सर्वज्ञ सिद्धेश्वर-ये हम सभी भगवान की माया को नहीं जान सकते। क्योंकि हम उसी माया के घेरे में हैं। यह चक्र उन विश्वेश्वर का शस्त्र है। यह हम लोगों के लिये असह्य है। तुम उन्हीं की शरण में जाओ। वे भगवान ही तुम्हारा मंगल करेंगे’।

वहाँ से भी निराश होकर दुर्वासा भगवान के परमधाम वैकुण्ठ में गये। लक्ष्मीपति भगवान लक्ष्मी के साथ वहीं निवास करते हैं। दुर्वासा जी भगवान के चक्र की आग से जल रहे थे। वे काँपते हुए भगवान के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने कहा- ‘हे अच्युत! हे अनन्त! आप संतों के एकमात्र वाञ्छनीय हैं। प्रभो! विश्व के जीवनदाता! मैं अपराधी हूँ। आप मेरी रक्षा कीजिये। आपका परमप्रभाव न जानने के कारण ही मैंने आपके प्यारे भक्त का अपराध किया है। प्रभो! आप मुझे उससे बचाइये। आपके तो नाम का ही उच्चारण करने से नारकी जीव भी मुक्त हो जाता है’।

श्रीभगवान ने कहा ;- 'दुर्वासा जी! मैं सर्वथा भक्तों के अधीन हूँ। मुझमें तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे सीधे-सादे सरल भक्तों ने मेरे हृदय को अपने हाथ में कर रखा है। भक्तजन मुझसे प्यार करते हैं और मैं उनसे। ब्रह्मन्! अपने भक्तों का एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। इसलिये अपने साधु स्वभाव भक्तों को छोड़कर मैं न तो अपने-आपको चाहता हूँ और न अपनी अर्द्धांगिनी विनाशरहित लक्ष्मी को। जो भक्त स्त्री, पुत्र, गृह, गुरुजन, प्राण, धन, इहलोक और परलोक-सब को छोड़कर केवल मेरी शरण में आ गये हैं, उन्हें छोड़ने का संकल्प भी मैं कैसे कर सकता हूँ? जैसे सती स्त्री अपने पातिव्रत्य से सदाचारी पति को वश में कर लेती है, वैसे ही मेरे साथ अपने हृदय को प्रेम-बन्धन से बाँध रखने वाले समदर्शी साधु भक्ति के द्वारा मुझे अपने वश में कर लेते हैं। मेरे अनन्य प्रेमी भक्त सेवा से ही अपने को परिपूर्ण-कृतकृत्य मानते हैं। मेरी सेवा के फलस्वरूप जब उन्हें सालोक्य, सारूप्य आदि मुक्तियाँ प्राप्त होती हैं, तब वे उन्हें भी स्वीकार करना नहीं चाहते; फिर समय के फेर से नष्ट हो जाने वाली वस्तुओं की तो बात ही क्या है।

दुर्वासा जी! मैं आपसे और क्या कहूँ, मेरे प्रेमी भक्त तो मेरे हृदय हैं और उन प्रेमी भक्तों का हृदय स्वयं मैं हूँ। वे मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते तथा मैं उनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जानता।

दुर्वासा जी! सुनिये, मैं आपको एक उपाय बताता हूँ। जिसका अनिष्ट करने से आपको इस विपत्ति में पड़ना पड़ा है, आप उसी के पास जाइये। निरपराध साधुओं के अनिष्ट की चेष्टा से अनिष्ट करने वाले का ही अमंगल होता है। इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मणों के लिये तपस्या और विद्या परमकल्याण के साधन हैं। परन्तु यदि ब्राह्मण उद्दण्ड और अन्यायी हो जाये तो वे ही दोनों उलटा फल देने लगते हैं। दुर्वासा जी! आपका कल्याण हो। आप नाभागनन्दन परम भाग्यशाली राजा अम्बरीष के पास जाइये और उनसे क्षमा माँगिये। तब आपको शान्ति मिलेगी।'

                           {नवम स्कन्ध:}

                      【पञ्चम अध्याय:】५.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"दुर्वासा जी की दुःख निवृत्ति"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब भगवान् ने इस प्रकार आज्ञा दी, तब सुदर्शन चक्र की ज्वाला से जलते हुए दुर्वासा लौटकर राजा अम्बरीष के पास आये और उन्होंने अत्यन्त दुःखी होकर राजा के पैर पकड़ लिये।

दुर्वासा जी की यह चेष्टा देखकर और उनके चरण पकड़ने से लज्जित होकर राजा अम्बरीष भगवान् के चक्र की स्तुति करने लगे। उस समय उनका हृदय दयावश अत्यन्त पीड़ित हो रहा था।

अम्बरीष ने कहा ;- प्रभो सुदर्शन! आप अग्नि स्वरूप हैं। आप ही परमसमर्थ सूर्य हैं। समस्त नक्षत्रमण्डल के अधिपति चन्द्रमा भी आपके स्वरूप हैं। जल, पृथ्वी, आकाश, वायु, पंचतन्मात्रा और सम्पूर्ण इन्द्रियों के रूप में भी आप ही हैं। भगवान् के प्यारे, हजार दाँत वाले चन्द्रदेव! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। समस्त अस्त्र-शस्त्रों को नष्ट कर देने वाले एवं पृथ्वी के रक्षक! आप इन ब्राह्मण की रक्षा कीजिये। आप ही धर्म हैं, मधुर एवं सत्य वाणी हैं; आप ही समस्त यज्ञों के अधिपति और स्वयं यज्ञ भी हैं। आप समस्त लोकों के रक्षक एवं सर्वलोकस्वरूप भी हैं। आप परमपुरुष परमात्मा के श्रेष्ठ तेज हैं।

सुनाभ! आप समस्त धर्मों की मर्यादा के रक्षक हैं। अधर्म का आचरण करने वाले असुरों को भस्म करने के लिये आप साक्षात् अग्नि हैं। आप ही तीनों लोकों के रक्षक एवं विशुद्ध तेजोमय हैं। आपकी गति मन के वेग के समान है और आपके कर्म अद्भुत हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ, आपकी स्तुति करता हूँ।

वेदवाणी के अधीश्वर! आपके धर्ममय तेज से अन्धकार का नाश होता है और सूर्य आदि महापुरुषों के प्रकाश की रक्षा होती है। आपकी महिमा का पार पाना अत्यन्त कठिन है। ऊँचे-नीचे और छोटे-बड़े के भेदभाव से युक्त यह समस्त कार्य-कारणात्मक संसार आपका ही स्वरूप है।

सुदर्शन चक्र! आप पर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। जिस समय निरंजन भगवान् आपको चलाते हैं और आप दैत्य एवं दानवों की सेना में प्रवेश करते हैं, उस समय युद्धभूमि में उनकी भुजा, उदर, जंघा, चरण और गरदन आदि निरन्तर काटते हुए आप अत्यन्त शोभायमान होते हैं। विश्व के रक्षक! आप रणभूमि में सबका प्रहार सह लेते हैं, आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। गदाधारी भगवान् ने दुष्टों के नाश के लिये ही आपको नियुक्त किया है। आप कृपा करके हमारे कुल के भाग्योदय के लिये दुर्वासा जी का कल्याण कीजिये। हमारे ऊपर यह आपका महान् अनुग्रह होगा। यदि मैंने कुछ भी दान किया हो, यज्ञ किया हो अथवा अपने धर्म का पालन किया हो, यदि हमारे वंश के लोग ब्राह्मणों को ही अपना आराध्यदेव समझते रहे हों, तो दुर्वासा जी की जलन मिट जाये। भगवान् समस्त गुणों के एकमात्र आश्रय हैं। यदि मैंने समस्त प्राणियों के आत्मा के रूप में उन्हें देखा हो और वे मुझ पर प्रसन्न हों तो दुर्वासा जी के हृदय की सारी जलन मिट जाये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- जब राजा अम्बरीष ने दुर्वासा जी को सब ओर से जलाने वाले भगवान् के सुदर्शन चक्र की इस प्रकार स्तुति की, तब उनकी प्रार्थना से चक्र शान्त हो गया। जब दुर्वासा चक्र की आग से मुक्त हो गये और उनका चित्त स्वस्थ हो गया, तब वे राजा अम्बरीष को अनेकानेक उत्तम आशीर्वाद देते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 14-27 का हिन्दी अनुवाद)

दुर्वासा जी ने कहा ;- 'धन्य है! आज मैंने भगवान के प्रेमी भक्तों का महत्त्व देखा। राजन! मैंने आपका अपराध किया, फिर भी आप मेरे लिये मंगल-कामना ही कर रहे हैं। जिन्होंने भक्तवत्सल भगवान श्रीहरि के चरणकमलों को दृढ़ प्रेमभाव से पकड़ लिया है-उन साधु पुरुषों के लिये कौन-सा कार्य कठिन है? जिनका हृदय उदार है, वे महात्मा भला, किस वस्तु का परित्याग नहीं कर सकते। जिनके मंगलमय नामों के श्रवण मात्र से जीव निर्मल हो जाता है-उन्हीं तीर्थपाद भगवान के चरणकमलों के जो दास हैं, उनके लिये कौन-सा कर्तव्य शेष रह जाता है? महाराज अम्बरीष! आपका हृदय करुणाभाव से परिपूर्ण है। आपने मेरे ऊपर महान् अनुग्रह किया। अहो! आपने मेरे अपराध को भुलाकर मेरे प्राणों की रक्षा की है।'

परीक्षित! जब से दुर्वासा जी भागे थे, तब से अब तक राजा अम्बरीष ने भोजन नहीं किया था। वे उनके लौटने की बाट देख रहे थे। अब उन्होंने दुर्वासा जी के चरण पकड़ लिये और उन्हें प्रसन्न करके विधिपूर्वक भोजन कराया। राजा अम्बरीष बड़े आदर से अतिथि के योग्य सब प्रकार की भोजन-सामग्री ले आये। दुर्वासा जी भोजन करके तृप्त हो गये। अब उन्होंने आदर से कहा- ‘राजन! अब आप भी भोजन कीजिये। अम्बरीष! आप भगवान के परमप्रेमी भक्त हैं। आपके दर्शन, स्पर्श, बातचीत और मन को भगवान की ओर प्रवृत्त करने वाले आतिथ्य से मैं अत्यन्त प्रसन्न और अनुगृहीत हुआ हूँ। स्वर्ग की देवांगनाएँ बार-बार आपके इस उल्ल्वल चरित्र का गान करेंगी। यह पृथ्वी भी आपकी परमपुण्यमयी कीर्ति का संकीर्तन करती रहेगी’।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- दुर्वासा जी ने बहुत ही सन्तुष्ट होकर राजा अम्बरीष के गुणों की प्रशंसा की और उसके बाद उनसे अनुमति लेकर आकाशमार्ग से उन ब्रह्मलोक की यात्रा की जो केवल निष्काम कर्म से ही प्राप्त होता है।

परीक्षित! जब सुदर्शन चक्र से भयभीत होकर दुर्वासा जी भागे थे, तब से लेकर उनके लौटने तक एक वर्ष का समय बीत गया। इतने दिनों तक राजा अम्बरीष उनके दर्शन की आकांक्षा में केवल जल पीकर ही रहे। जब दुर्वासा जी चले गये, तब उनके भोजन से बचे हुए अत्यन्त पवित्र अन्न का उन्होंने भोजन किया। अपने कारण दुर्वासा जी का दुःख में और फिर अपनी ही प्रार्थना से उनका छूटना-इन बातों को उन्होंने अपने द्वारा होने पर भी भगवान की ही महिमा समझा। राजा अम्बरीष में ऐसे-ऐसे अनेकों गुण थे। अपने समस्त कर्मों के द्वारा वे परब्रह्म परमात्मा श्रीभगवान के भक्तिभाव की अभिवृद्धि करते रहते थे। उस भक्ति के प्रभाव से उन्होंने ब्रह्मलोक तक के समस्त भोगों को नरक के समान समझा। तदनन्तर राजा अम्बरीष अपने ही समान भक्तपुत्रों पर राज्य का भार छोड़ दिया और स्वयं वे वन में चले गये। वहाँ वे बड़ी धीरता के साथ आत्मस्वरूप भगवान में अपना मन लगाकर गुणों के प्रवाहरूप संसार से मुक्त हो गये।

परीक्षित! महाराज अम्बरीष का यह परमपवित्र आख्यान है। जो इसका संकीर्तन और स्मरण करता है, वह भगवान का भक्त हो जाता है।

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