सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( अष्टम स्कन्धः ) का छठवाँ, सातवाँ, आठवाँ, नवाँ व दसवाँ अध्याय [ The six, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Eighth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( अष्टम स्कन्धः ) का छठवाँ, सातवाँ, आठवाँ, नवाँ व दसवाँ अध्याय [ The six, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Eighth wing) ]



                           {अष्टम स्कन्ध:}

                        【षष्ठ अध्याय:】६.

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"देवताओं और दैत्यों का मिलकर समुद्र मन्थन के लिये उद्योग करना"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब देवताओं ने सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि की इस प्रकार स्तुति की, तब वे उनके बीच में ही प्रकट हो गये। उनके शरीर की प्रभा ऐसी थी, मानो हजारों सूर्य एक साथ ही उग गये हों। भगवान् की उस प्रभा से सभी देवताओं की आँखें चौंधिया गयीं। वे भगवान् को तो क्या-आकाश, दिशाएँ, पृथ्वी और अपने शरीर को भी न देख सके। केवल भगवान् शंकर और ब्रह्मा जी ने उस छबि का दर्शन किया। बड़ी ही सुन्दर झाँकी थी। मरकतमणि (पन्ने) के समान स्वच्छ श्यामल शरीर, कमल के भीतरी भाग के समान सुकुमार नेत्रों में लाल-लाल डोरियाँ और चमकते हुए सुनहले रंग का रेशमी पीताम्बर। सर्वांगसुन्दर शरीर के रोम-रोम से प्रसन्नता फूटी पड़ती थी। धनुष के समान टेढ़ी भौंहें और बड़ा ही सुन्दर मुख। सिर पर महामणिमय किरीट और भुजाओं में बाजूबंद। कानों के झलकते हुए कुण्डलों की चमक पड़ने से कपोल और भी सुन्दर हो उठते थे, जिससे मुखकमल खिल उठता था। कमर में करधनी की लड़ियाँ, हाथों में कंगन, गले में हार और चरणों में नूपुर शोभायमान थे। वक्षःस्थल पर लक्ष्मी और गले में कौस्तुभ मणि तथा वनमाला सुशोभित थीं। भगवान् के निज अस्त्र सुदर्शन चक्र आदि मूर्तिमान् होकर उनकी सेवा कर रहे थे। सभी देवताओं ने पृथ्वी पर गिरकर साष्टांग प्रणाम किया। फिर सारे देवताओं को साथ ले शंकर जी तथा ब्रह्मा जी परम पुरुष भगवान् की स्तुति करने लगे।

ब्रह्मा जी ने कहा ;- जो जन्म, स्थिति और प्रलय से कोई सम्बन्ध नहीं रखते, जो प्राकृत गुणों से रहित एवं मोक्षस्वरूप परमानन्द के महान् समुद्र हैं, जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हैं और जिनका स्वरूप अनन्त है- उन पर ऐश्वर्यशाली प्रभु को हम लोग बार-बार नमस्कार करते हैं।
पुरुषोत्तम! अपना कल्याण चाहने वाले साधक वेदोक्त एवं पांचरात्रोक्त विधि से आपके इसी स्वरूप की उपासना करते हैं। मुझे भी रचने वाले प्रभो! आपके इस विश्वमय स्वरूप में मुझे समस्त देवगणों के सहित तीनों लोक दिखायी दे रहे हैं। आप में ही पहले यह जगत् लीन था, मध्य में भी यह आपमें ही स्थित है और अन्त में भी यह पुनः आप में ही लीन हो जायेगा। आप स्वयं कार्य-कारण से परे परम स्वतन्त्र हैं। आप ही इस जगत् के आदि, अन्त और मध्य हैं-वैसे ही जैसे घड़े का आदि, मध्य और अन्त मिट्टी है।
आप अपने ही आश्रय रहने वाली अपनी माया से इस संसार की रचना करते हैं और इसमें फिर से प्रवेश करके अन्तर्यामी के रूप में विराजमान होते हैं। इसीलिये विवेकी और शास्त्रज्ञ पुरुष बड़ी सावधानी से अपने मन को एकाग्र करके इन गुणों की, विषयों की भीड़ में भी आपके निर्गुण स्वरूप का ही साक्षत्कार करते हैं। जैसे मनुष्य युक्ति के द्वारा लकड़ी से आग, गौ से अमृत के समान दूध, पृथ्वी से अन्न तथा जल और व्यापार से अपनी आजीविका प्राप्त कर लेते हैं-वैसे ही विवेकी पुरुष भी अपनी शुद्ध बुद्धि से भक्तियोग, ज्ञानयोग आदि के द्वारा आपको इन विषयों में ही प्राप्त कर लेते हैं और अपनी अनुभूति के अनुसार आपका वर्णन भी करते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद)

कमलनाभ! जिस प्रकार दावाग्नि से झुलसता हुआ हाथी गंगाजल में डुबकी लगाकर सुख और शान्ति का अनुभव करने लगता है, वैसे ही आपके आविर्भाव से हम लोग परम सुखी और शान्त हो गये हैं। स्वामी! हम लोग बहुत दिनों से आपके दर्शनों के लिये अत्यन्त लालायित हो रहे थे। आप ही हमारे बाहर और भीतर के आत्मा हैं। हम सब लोकपाल जिस उद्देश्य से आपके चरणों की शरण में आये हैं, उसे आप कृपा करके पूर्ण कीजिये। आप सबके साक्षी हैं, अतः इस विषय में हम लोग आपसे और क्या निवेदन करें।

प्रभो! मैं, शंकर जी, अन्य देवता, ऋषि और दक्ष आदि प्रजापति-सब-के-सब अग्नि से अलग हुई चिनगारी की तरह आपके ही अंश हैं और अपने को आपसे अलग मानते हैं। ऐसी स्थिति में प्रभो! हम लोग समझ ही क्या सकते हैं। ब्राह्मण और देवताओं के कल्याण के लिये जो कुछ करना आवश्यक हो, उसका आदेश आप ही दीजिये और आप वैसा स्वयं कर भी लीजिये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- ब्रह्मा आदि देवताओं ने इस प्रकार स्तुति करके अपनी सारी इन्द्रियाँ रोक लीं और सब बड़ी सावधानी के साथ हाथ जोड़कर खड़े हो गये। उनकी स्तुति सुनकर और उसी प्रकार उनके हृदय की बात जानकर भगवान् मेघ के समान गम्भीर वाणी से बोले।

परीक्षित! समस्त देवताओं के तथा जगत् के एकमात्र स्वामी भगवान् अकेले ही उनका सब कार्य करने में समर्थ थे, फिर भी समुद्र मन्थन आदि लीलाओं के द्वारा विहार करने की इच्छा से वे देवताओं को सम्बोधित करके इस प्रकार कहने लगे।

श्रीभगवान् ने कहा ;- ब्रह्मा, शंकर और देवताओं! तुम लोग सावधान होकर मेरी सलाह सुनो। तुम्हारे कल्याण का यही उपाय है। इस समय असुरों पर काल की कृपा है। इसलिये जब तक तुम्हारे अभ्युदय और उन्नति का समय नहीं आता, तब तक तुम दैत्य और दानवों के पास जाकर उनसे सन्धि कर लो। देवताओं! कोई बड़ा कार्य करना हो तो शत्रुओं से भी मेल-मिलाप कर लेना चाहिये। यह बात अवश्य है कि काम बन जाने पर उनके साथ साँप और चूहे वाला बर्ताव कर सकते हैं।[1] तुम लोग बिना विलम्ब के अमृत निकालने का प्रयत्न करो। उसे पी लेने पर मरने वाला प्राणी भी अमर हो जाता है। पहले क्षीरसागर में सब प्रकार के घास, तिनके, लताएँ और ओषधियाँ डाल दो। फिर तुम लोग मन्दराचल की मथानी और वासुकि नाग की नेती बनाकर मेरी सहायता से समुद्र का मन्थन करो। अब आलस्य और प्रमाद का समय नहीं है। देवताओं! विश्वास रखो-दैत्यों को तो मिलेगा केवल श्रम और क्लेश, परन्तु फल मिलेगा तुम्हीं लोगों को। देवताओं! असुर लोग तुमसे जो-जो चाहें, सब स्वीकार कर लो। शान्ति से सब काम बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता।
(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 25-39 का हिन्दी अनुवाद)

पहले समुद्र से कालकूट विष निकलेगा, उससे डरना नहीं और किसी भी वस्तु के लिये कभी भी लोभ न करना। पहले तो किसी वस्तु की कामना ही नहीं करनी चाहिये, परन्तु यदि कामना हो और वह पूरी न हो तो क्रोध तो करना ही नहीं चाहिये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! देवताओं को यह आदेश देकर पुरुषोत्तम भगवान् उनके बीच में ही अन्तर्धान हो गये। वे सर्वशक्तिमान् एवं परम स्वतन्त्र जो ठहरे। उनकी लीला का रहस्य कौन समझे। उनके चले जाने पर ब्रह्मा और शंकर ने फिर से भगवान् को नमस्कार किया और वे अपने-अपने लोकों को चले गये, तदनन्तर इन्द्रादि देवता राजा बलि के पास गये।

देवताओं को बिना अस्त्र-शस्त्र के सामने आते देख दैत्य सेनापतियों के मन में बड़ा क्षोभ हुआ। उन्होंने देवताओं को पकड़ लेना चाहा। परन्तु दैत्यराज बलि सन्धि और विरोध के अवसर को जानने वाले एवं पवित्र कीर्ति से सम्पन्न थे। उन्होंने दैत्यों को वैसा करने से रोक दिया। इसके बाद देवता लोग बलि के पास पहुँचे। बलि ने तीनों लोकों को जीत लिया था। वे समस्त सम्पत्तियों से सेवित एवं असुर सेनापतियों से सुरक्षित होकर अपने राजसिंहासन पर बठे हुए थे। बुद्धिमान् इन्द्र बड़ी मधुर वाणी से समझाते हुए राजा बलि से वे सब बातें कहीं, जिनकी शिक्षा स्वयं भगवान् ने उन्हें दी थी। वह बात दैत्यराज बलि को जँच गयी।

वहाँ बैठे हुए दूसरे सेनापति शम्बर, अरिष्टनेमि और त्रिपुरनिवासी असुरों को भी यह बात बहुत अच्छी लगी। तब देवता और असुरों ने आपस में सन्धि समझौता करके मित्रता कर ली और परीक्षित! वे सब मिलकर अमृत मन्थन के लिये पूर्ण उद्योग करने लगे। इसके बाद उन्होंने अपनी शक्ति से मन्दराचल को उखाड़ लिया और ललकारते तथा गरजते हुए उसे समुद्र तट की ओर ले चले। उनकी भुजाएँ परिघ के समान थीं, शरीर में शक्ति थी और अपने-अपने बल का घमंड तो था ही। परन्तु एक तो वह मन्दर पर्वत ही बहुत भारी था और दूसरे उसे ले जाना भी बहुत दूर था। इससे इन्द्र, बलि आदि सब-के-सब हार गये। जब ये किसी प्रकार भी मन्दराचल को आगे न ले जा सके, तब विवश होकर उन्होंने उसे रास्ते में ही पटक दिया।

वह सोने का पर्वत मन्दराचल बड़ा भारी था। गिरते समय उसने बहुत-से देवता और दानवों को चकनाचूर कर डाला। उन देवता और असुरों के हाथ, कमर और कंधे टूट ही गये थे, मन भी टूट गया। उनका उत्साह भंग हुआ देख गरुड़ पर चढ़े हुए भगवान् सहसा वहीं प्रकट हो गये। उन्होंने देखा कि देवता और असुर पर्वत के गिरने से पिस गये हैं। अतः उन्होंने अपनी अमृतमयी दृष्टि से देवताओं को इस प्रकार जीवित कर दिया, मानो उनके शरीर में बिलकुल चोट ही न लगी हो। इसके बाद उन्होंने खेल-ही-खेल में एक हाथ से उस पर्वत को उठाकर गरुड़ पर रख लिया और स्वयं भी सवार हो गये। फिर देवता और असुरों के साथ उन्होंने समुद्र तट की यात्रा की। पक्षिराज गरुड़ ने समुद्र के तट पर पर्वत को उतार दिया। फिर भगवान् के विदा करने पर गरुड़ जी वहाँ से चले गये।

                           {अष्टम स्कन्ध:}

                        【सप्तम अध्याय:】७.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"समुद्र मन्थन का आरम्भ और भगवान् शंकर का विषपान"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! देवता और असुरों ने नागराज वासुकि को यह वचन देकर कि समुद्र मन्थन से प्राप्त होने वाले अमृत में तुम्हारा भी हिस्सा रहेगा, उन्हें भी सम्मिलित कर लिया। इसके बाद उन लोगों ने वासुकि नाग को नेती के समान मन्दराचल में लपेटकर भलीभाँति उद्यत हो बड़े उत्साह और आनन्द से अमृत के लिये समुद्र मन्थन प्रारम्भ किया। उस समय पहले-पहल अजित भगवान् वासुकि के मुख की ओर लग गये, इसलिये देवता भी उधर ही आ जुटे। परन्तु भगवान् की यह चेष्टा दैत्य सेनापतियों को पसंद न आयी। उन्होंने कहा कि ‘पूँछ तो साँप का अशुभ अंग है, हम उसे नहीं पकड़ेंगे। हमने वेद-शास्त्रों का विधिपूर्वक अध्ययन किया है, ऊँचे वंश में हमारा जन्म हुआ है और वीरता के बड़े-बड़े काम हमने किये हैं। हम देवताओं से किस बात में कम हैं?’ यह कहकर वे लोग चुपचाप एक ओर खड़े हो गये। उनकी यह मनोवृत्ति देखकर भगवान् ने मुसकराकर वासुकि का मुँह छोड़ दिया और देवताओं के साथ उन्होंने पूँछ पकड़ ली। इस प्रकार अपना-अपना स्थान निश्चित करके देवता और असुर अमृत प्राप्ति के लिये पूरी तैयारी से समुद्र मन्थन करने लगे।
परीक्षित! जब समुद्र मन्थन होने लगा, तब बड़े-बड़े बलवान् देवता और असुरों के पकड़े रहने पर भी अपने भार की अधिकता और नीचे कोई आधार न होने के कारण मन्दराचल समुद्र में डूबने लगा। इस प्रकार अत्यन्त बलवान् दैव के द्वारा अपना सब किया-कराया मिट्टी में मिलते देख उनका मन टूट गया। सबके मुँह पर उदासी छा गयी। उस समय भगवान् ने देखा कि यह तो विघ्नराज की करतूत है। इसलिये उन्होंने उसके निवारण का उपाय सोचकर अत्यन्त विशाल एवं विचित्र कच्छप का रूप धारण किया और समुद्र के जल में प्रवेश करके मन्दराचल को ऊपर उठा दिया। भगवान् की शक्ति अनन्त है। वे सत्यसंकल्प हैं। उनके लिये यह कौन-सी बड़ी बात थी। देवता और असुरों ने देखा कि मन्दराचल तो ऊपर उठ आया है, तब वे फिर से समुद्र मन्थन के लिये उठ खड़े हुए। उस समय भगवान् ने जम्बू द्वीप के समान एक लाख योजन फैली हुई अपनी पीठ पर मन्दराचल को धारण कर रखा था।

परीक्षित! जब बड़े-बड़े देवता और असुरों ने अपने बाहुबल से मन्दराचल को प्रेरित किया, तब वह भगवान् की पीठ पर घूमने लगा। अनन्त शक्तिशाली आदि कच्छप भगवान् को उस पर्वत का चक्कर लगाना ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई उनकी पीठ खुजला रहा हो। साथ ही समुद्र मन्थन सम्पन्न करने के लिये भगवान् ने असुरों में उनकी शक्ति और बल को बढ़ाते हुए असुर रूप से प्रवेश किया। वैसे ही उन्होंने देवताओं को उत्साहित करते हुए उनमें देव रूप से प्रवेश किया और वासुकि नाग में निद्रा के रूप से। इधर पर्वत के ऊपर दूसरे पर्वत के समान बनकर सहस्रबाहु भगवान् अपने हाथों से उसे दबाकर स्थित हो गये। उस समय आकाश में ब्रह्मा, शंकर, इन्द्र आदि उनकी स्तुति और उनके ऊपर पुष्पों की वर्षा करने लगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 13-22 का हिन्दी अनुवाद)

इस प्रकार भगवान् ने पर्वत के ऊपर उसको दबा रखने वाले के रूप में, नीचे उसके आधार कच्छप के रूप में, देवता और असुरों के शरीर में उनकी शक्ति के रूप में, परत में दृढ़ता के रूप में और नेती बने हुए वासुकि नाग में निद्रा के रूप में-जिससे उसे कष्ट न हो-प्रवेश करके सब ओर से सबको शक्तिसम्पन्न कर दिया। अब वे अपने बल के मद से उन्मत्त होकर मन्दराचल के द्वारा बड़े वेग से समुद्र मन्थन करने लगे। उस समय समुद्र और उसमें रहने वाले मगर, मछली आदि जीव क्षुब्ध हो गये।

नागराज वासुकि के हजारों कठोर नेत्र, मुख और श्वासों से विष की आग निकलने लगी। उनके धूएँ से पौलोम, कालेय, बलि, इल्वल आदि असुर निस्तेज हो गये। उस समय वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो दावानल से झुलसे हुए साखू के पेड़ खड़े हों। देवता भी उससे न बच सके। वासुकि के श्वास की लपटों से उनका भी तेज फीका पड़ गया। वस्त्र, माला, कवच एवं मुख धूमिल हो गये। उनकी यह दशा देखकर भगवान् की प्रेरणा से बादल देवताओं के ऊपर वर्षा करने लगे एवं वायु समुद्र की तरंगों का स्पर्श करके शीतलता और सुगन्धिका संचार करने लगी। इस प्रकार देवता और असुरों के समुद्र मन्थन करने पर भी जब अमृत न निकला, तब स्वयं अजित भगवान् समुद्र मन्थन करने लगे।

मेघ के समान साँवले शरीर पर सुनहला पीताम्बर, कानों में बिजली के समान चमकते हुए कुण्डल, सिर पर लहराते हुए घुँघराले बाल, नेत्रों में लाल-लाल रेखाएँ और गले में वनमाला सुशोभित हो रही थी। सम्पूर्ण जगत् को अभयदान करने वाले अपने विश्वविजयी भुजदण्डों से वासुकि नाग को पकड़कर तथा कूर्म रूप से पर्वत को धारण कर जब भगवान् मन्दराचल की मथानी से समुद्र मन्थन करने लगे, उस समय वे दूसरे पर्वतराज के समान बड़े ही सुन्दर लग रहे थे। जब अजित भगवान् ने इस प्रकार समुद्र मन्थन किया, तब समुद्र में बड़ी खलबली मच गयी। मछली, मगर, साँप और कछुए भयभीत होकर ऊपर आ गये और इधर-उधर भागने लगे। तिमी-तिमिंगिल आदि मच्छ, समुद्री हाथी और ग्राह व्याकुल हो गये। उसी समय पहले-पहल हलाहल नाम का अत्यन्त उग्र विष निकला। वह अत्यन्त उग्र विष दिशा-विदिशा में, ऊपर-नीचे सर्वत्र उड़ने और फैलने लगा। इस असह्य विष से बचने का कोई उपाय भी तो न था। भयभीत होकर सम्पूर्ण प्रजा और प्रजापति किसी के द्वारा त्राण न मिलने पर भगवान् सदाशिव की शरण में गये। भगवान् शंकर सती जी के साथ कैलास पर्वत पर विराजमान थे। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उनकी सेवा कर रहे थे। वे वहाँ तीनों लोकों के अभ्युदय और मोक्ष के लिये तपस्या कर रहे थे। प्रजापतियों ने उनका दर्शन करके उनकी स्तुति करते हुए उन्हें प्रणाम किया।
प्रजापतियों ने भगवान् शंकर की स्तुति की-देवताओं के आराध्यदेव महादेव! आप समस्त प्राणियों के आत्मा और उनके जीवनदाता हैं। हम लोग आपकी शरण में आये हैं। त्रिलोकी को भस्म करने वाले इस उग्र विष से आप हमारी रक्षा कीजिये। सारे जगत् को बाँधने और मुक्त करने में एकमात्र आप ही समर्थ हैं। इसलिये विवेकी पुरुष आपकी ही आराधना करते हैं। क्योंकि आप शरणागत की पीड़ा नष्ट करने वाले एवं जगद्गुरु हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 23-32 का हिन्दी अनुवाद)

प्रभो! अपनी गुणमयी शक्ति से इस जगत् की सृष्टि, स्थिति और प्रलय करने के लिये आप अनन्त, एकरस होने पर भी ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि नाम धारण कर लेते हैं। आप स्वयं प्रकाश हैं। इसका कारण यह है कि आप परम रहस्यमय ब्रह्मतत्त्व हैं। जितने भी देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सत् अथवा असत् चराचर प्राणी हैं-उनको जीवनदान देने वाले आप ही हैं। क्योंकि आप आत्मा हैं। अनेक शक्तियों के द्वारा आप ही जगत् रूप में भी प्रतीत हो रहे हैं। क्योंकि आप ईश्वर हैं, सर्वसमर्थ हैं। समस्त वेद आपसे ही प्रकट हुए हैं। इसलिये आप समस्त ज्ञानों के मूल स्रोत स्वतःसिद्ध ज्ञान हैं। आप ही जगत् के आदिकारण महत्तत्त्व और त्रिविध अहंकार हैं एवं आप ही प्राण, इन्द्रिय, पंचमहाभूत तथा शब्दादि विषयों के भिन्न-भिन्न स्वभाव और उनके मूल कारण हैं। आप स्वयं ही प्राणियों की वृद्धि और ह्रास करने वाले काल हैं, उनका कल्याण करने वाले यज्ञ हैं एवं सत्य और मधुर वाणी हैं।

धर्म भी आपका ही स्वरूप है। आप ही ‘अ, उ, म्,’ इन तीनों अक्षरों से युक्त प्रणव हैं अथवा त्रिगुणात्मिक प्रकृति हैं-ऐसा वेदवादी महात्मा कहते हैं। सर्वदेवस्वरूप अग्नि आपका मुख है। तीनों लोकों के अभ्युदय करने वाले शंकर! यह पृथ्वी आपका चरणकमल है। आप अखिल देवस्वरूप हैं। यह काल आपकी गति है, दिशाएँ कान हैं और वरुण रसनेन्द्रिय है। आकाश नाभि है, वायु श्वास है, सूर्य नेत्र हैं और जल वीर्य है। आपका अहंकार नीचे-ऊँचे सभी जीवों का आश्रय है। चन्द्रमा मन है और प्रभो! स्वर्ग आपका सिर है। वेदस्वरूप भगवन्! समुद्र आपकी कोख हैं। पर्वत हड्डियों हैं। सब प्रकार की ओषधियाँ और घास आपके रोम हैं। गायत्री आदि छन्द आपकी सातों धातुएँ हैं और सभी प्रकार के धर्म आपके हृदय हैं।

स्वामिन्! सद्योजातादि पाँच उपनिषद् ही आपके तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात, वामदेव और ईशान नामक पाँच मुख हैं। उन्हीं के पदच्छेद से अड़तीस कलात्मक मन्त्र निकले हैं। आप जब समस्त प्रपंच से उपरत होकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाते हैं, तब उसी स्थिति का नाम होता है ‘शिव’। वास्तव में वही स्वयंप्रकाश परमार्थतत्त्व है। अधर्म की दम्भ-लोग आदि तरंगों में आपकी छाया है, जिनसे विविध प्रकार की सृष्टि होती है, वे सत्त्व, रज और तम-आपके तीन नेत्र हैं। प्रभो! गायत्री आदि छन्द रूप सनातन वेद ही आपका विचार है। क्योंकि आप ही सांख्य आदि समस्त शास्त्रों के रूप में स्थित हैं और उनके कर्ता भी हैं।

भगवन्! आपका परम ज्योतिर्मय स्वरूप स्वयं ब्रह्म है। उसमें न तो रजोगुण, तमोगुण एवं सत्त्वगुण हैं और न किसी प्रकार का भेदभाव ही। आपके उस स्वरूप को सारे लोकपाल-यहाँ तक कि ब्रह्मा, विष्णु और देवराज इन्द्र भी नहीं जान सकते। आपने कामदेव, दक्ष के यज्ञ, त्रिपुरासुर और कालकूट विष (जिसको आप अभी-अभी अवश्य पी जायेंगे) और अनेक जीवद्रोही असुरों को नष्ट कर दिया है। परन्तु यह कहने से आपकी कोई स्तुति नहीं होती। क्योंकि प्रलय के समय आपका बनाया हुआ यह विश्व आपके ही नेत्र से निकली हुई आग की चिनगारी एवं लपट से जलकर भस्म हो जाता है और आप इस प्रकार ध्यानमग्न रहते हैं कि आपको इसका पता ही नहीं चलता।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 33-46 का हिन्दी अनुवाद)

जीवन्मुक्त आत्माराम पुरुष अपने हृदय में आपके युगल चरणों का ध्यान करते रहते हैं तथा आप स्वयं भी निरन्तर ज्ञान और तपस्या में ही लीन रहते हैं। फिर भी सती के साथ रहते देखकर जो आपको आसक्त एवं श्मशानवासी होने के कारण उग्र अथवा निष्ठुर बतलाते हैं-वे मूर्ख आपकी लीलाओं का रहस्य भला क्या जानें। उनका वैसा कहना निर्लज्जता से भरा है।

इस कार्य और कारण रूप जगत् से परे माया है और माया से भी अत्यन्त परे आप हैं। इसलिये प्रभो! आपके अनन्त स्वरूप का साक्षात् ज्ञान प्राप्त करने में सहसा ब्रह्मा आदि भी समर्थ नहीं होते, फिर स्तुति तो कर ही कैसे सकते हैं। ऐसी अवस्था में उनके पुत्रों के पुत्र हम लोग कह ही क्या सकते हैं। फिर भी अपनी शक्ति के अनुसार हमने आपका कुछ गुणगान किया है। हम लोग तो केवल आपके इसी लीलाविहारी रूप को देख रहे हैं। आपके परम स्वरूप को हम नहीं जानते। महेश्वर! यद्यपि आपकी लीलाएँ अव्यक्त हैं, फिर भी संसार का कल्याण करने के लिये आप व्यक्त रूप से भी रहते हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! प्रजा का यह संकट देखकर समस्त प्राणियों के अकारण बन्धु देवाधिदेव भगवान् शंकर के हृदय में कृपावश बड़ी व्यथा हुई। उन्होंने अपनी प्रिया सती से यह बात कही।

शिव जी ने कहा ;- देवि! यह बड़े खेद की बात है। देखो तो सही, समुद्र मन्थन से निकले हुए कालकूट विष के कारण प्रजा पर कितना बड़ा दुःख आ पड़ा है। ये बेचारे किसी प्रकार अपने प्राणों की रक्षा करना चाहते हैं। इस समय मेरा यह कर्तव्य है कि मैं उन्हें निर्भय कर दूँ। जिनके पास शक्ति-सामर्थ्य है, उनके जीवन की सफलता इसी में है कि वे दीन-दुखियों की रक्षा करें। सज्जन पुरुष अपने क्षणभंगुर प्राणों की बलि देकर भी दूसरे प्राणियों के प्राण की रक्षा करते हैं। कल्याणि! अपने ही मोह की माया में फँसकर संसार के प्राणी मोहित हो रहे हैं और एक-दूसरे से वैर की गाँठ बाँधे बैठे हैं। उनके ऊपर जो कृपा करता है, उस पर सर्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और जब भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, तब चराचर जगत् के साथ मैं भी प्रसन्न हो जाता हूँ। इसलिये अभी-अभी मैं इस विष को भक्षण करता हूँ, जिससे मेरी प्रजा का कल्याण हो।
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- विश्व के जीवनदाता भगवान् शंकर इस प्रकार सती देवी से प्रस्ताव करके उस विष को खाने के लिये तैयार हो गये। देवी तो उनका प्रभाव जानती ही थीं, उन्होंने हृदय से इस बात का अनुमोदन किया। भगवान् शंकर बड़े कृपालु हैं। उन्हीं की शक्ति से समस्त प्राणी जीवित रहते हैं। उन्होंने उस तीक्ष्ण हलाहल विष को अपनी हथेली पर उठाया और भक्षण कर गये। वह विष जल का पाप-मल था। उसने शंकर जी पर भी अपना प्रभाव प्रकट कर दिया, उससे उनका कण्ठ नीला पड़ गया, परन्तु वह तो प्रजा का कल्याण करने वाले भगवान् शंकर के लिये भूषण रूप हो गया। परोपकारी सज्जन प्रायः प्रजा का दुःख टालने के लिये स्वयं दुःख झेला ही करते हैं। परन्तु यह दुःख नहीं है, यह तो सबके हृदय में विराजमान भगवान् की परम आराधना है।

देवाधिदेव भगवान् शंकर सबकी कामना पूर्ण करने वाले हैं। उनका यह कल्याणकारी अद्भुत कर्म सुनकर सम्पूर्ण प्रजा, दक्षकन्या सती, ब्रह्मा जी और स्वयं विष्णु भगवान् भी उनकी प्रशंसा करने लगे। जिस समय भगवान् शंकर विषपान कर रहे थे, उस समय उनके हाथ से थोड़ा-सा विष टपक पड़ा था। उसे बिच्छू, साँप तथा अन्य विषैले जीवों ने एवं विषैली ओषधियों ने ग्रहण कर लिया।

                           {अष्टम स्कन्ध:}

                        【अष्टम अध्याय:】८.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"समुद्र से अमृत का प्रकट होना और भगवान् का मोहिनी-अवतार ग्रहण करना"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- इस प्रकार जब भगवान् शंकर ने विष पी लिया, तब देवता और असुरों को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे फिर नये उत्साह से समुद्र मथने लगे। तब समुद्र से कामधेनु प्रकट हुई। वह अग्निहोत्र की सामग्री उत्पन्न करने वाली थी। इसलिये ब्रह्मलोक तक पहुँचाने वाले यज्ञ के लिये उपयोगी पवित्र घी, दूध आदि प्राप्त करने के लिये ब्रह्मवादी ऋषियों ने उसे ग्रहण किया। उसके बाद उच्चैःश्रवा नाम का घोड़ा निकला। वह चन्द्रमा के समान श्वेतवर्ण का था। बलि ने उसे लेने की इच्छा प्रकट की। इन्द्र ने उसे नहीं चाहा; क्योंकि भगवान् ने उन्हें पहले से ही सिखा रखा था।

तदनन्तर ऐरावत नाम का श्रेष्ठ हाथी निकला। उसके बड़े-बड़े चार दाँत थे, जो उज्ज्वल वर्ण कैलास की शोभा को भी मात करते थे। तत्पश्चात् कौस्तुभ नामक पद्मराग मणि समुद्र से निकली। उस मणि को अपने हृदय पर धारण करने के लिये अजित भगवान् ने लेना चाहा।

परीक्षित! इसके बाद स्वर्गलोक की शोभा बढ़ाने वाला कल्पवृक्ष निकला। वह याचकों की इच्छाएँ उनकी इच्छित वस्तु देकर वैसे ही पूर्ण करता रहता है, जैसे पृथ्वी पर तुम सबकी इच्छाएँ पूर्ण करते हो। तत्पश्चात् अप्सराएँ प्रकट हुईं। वे सुन्दर वस्त्रों से सुसज्जित एवं गले में स्वर्णहार पहने हुए थीं। वे अपनी मनोहर चाल और विलासभरी चितवन से देवताओं को सुख पहुँचाने वाली हुईं। इसके बाद शोभा की मूर्ति स्वयं भगवती लक्ष्मी देवी प्रकट हुईं। वे भगवान् की नित्य शक्ति हैं। उनकी बिजली के समान चमकीली छटा से दिशाएँ जगमगा उठीं। उनके सौन्दर्य, औदार्य, यौवन, रूप-रंग और महिमा से सबका चित्त खिंच गया। देवता, असुर, मनुष्य- सभी ने चाहा कि ये हमें मिल जायें। स्वयं इन्द्र अपने हाथों उनके बैठने के लिये बड़ा विचित्र आसन ले आये। श्रेष्ठ नदियों ने मूर्तिमान् होकर उनके अभिषेक के लिये सोने के घड़ों में भर-भरकर पवित्र जल ला दिया। पृथ्वी ने अभिषेक के योग्य सब ओषधियाँ दीं। गौओं ने पंचगव्य और वसन्त ऋतु ने चैत्र-वैशाख होने वाले सब फूल-फल उपस्थित कर दिये। इन सामग्रियों से ऋषियों ने विधिपूर्वक उनका अभिषेक सम्पन्न किया।

गन्धर्वों ने मंगलमय संगीत की तान छेड़ दी। नर्तकियाँ नाच-नाचकर गाने लगीं। बादल सदेह होकर मृदंग, डमरू, ढोल, नगारे, नरसिंगे, शंख, वणु और वीणा बड़े जोर से बजाने लगे। तब भगवती लक्ष्मी देवी हाथ में कमल लेकर सिंहासन पर विराजमान हो गयीं। दिग्गजों ने जल से भरे कलशों से उनको स्नान कराया। उस समय ब्राह्मणगण वेद मन्त्रों का पाठ कर रहे थे। समुद्र ने पीले रेशमी वस्त्र उनको पहनने के लिये दिये। वरुण ने ऐसी वैजन्ती माला समर्पित की, जिसकी मधुमय सुगन्ध से भौंरे मतवाले हो रहे थे। प्रजापति विश्वकर्मा ने भाँति-भाँति के गहने, सरस्वती ने मोतियों का हार, ब्रह्मा जी के कमल और नागों ने दो कुण्डल समर्पित किये। इसके बाद लक्ष्मी जी ब्राह्मणों के स्वस्त्ययन-पाठ कर चुकने पर अपने हाथों में कमल की माला लेकर उसे सर्वगुणसम्पन्न पुरुष के गले में डालने चलीं। माला के आसपास उसकी सुगन्ध से मतवाले हुए भौंरें गुंजार कर रहे थे। उस समय लक्ष्मी जी के मुख की शोभा अवर्णनीय हो रही थी। सुन्दर कपोलों पर कुण्डल लटक रहे थे। लक्ष्मी जी कुछ लज्जा के साथ मन्द-मन्द मुसकरा रही थीं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 18-29 का हिन्दी अनुवाद)

उनकी कमर बहुत पतली थी। दोनों स्तन बिल्कुल सटे हुए और सुन्दर थे। उन पर चन्दन और केसर का लेप किया हुआ था। जब वे इधर-उधर चलती थीं, तब उनके पायजेब से बड़ी मधुर झनकार निकलती थी। ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई सोने की लता इधर-उधर घूम-फिर रही है। वे चाहती थीं कि मुझे कोई निर्दोष और समस्त उत्तम गुणों से नित्ययुक्त अविनाशी पुरुष मिले तो मैं उसे अपना आश्रय बनाऊँ, वरण करूँ। परन्तु गन्धर्व, यक्ष, असुर, सिद्ध, चारण, देवता आदि में कोई भी वैसा पुरुष उन्हें न मिला। (वे मन-ही-मन सोचने लगीं कि) कोई तपस्वी तो हैं, परन्तु उन्होंने क्रोध पर विजय नहीं प्राप्त की है। किन्हीं में ज्ञान तो है, परन्तु वे पूरे अनासक्त नहीं हैं। कोई-कोई हैं तो बड़े महत्त्वशाली, परन्तु वे काम को नहीं जीत सके हैं। किन्हीं में ऐश्वर्य भी बहुत हैं; परन्तु वह ऐश्वर्य ही किस काम का, जब उन्हें दूसरों का आश्रय लेना पड़ता है। किन्हीं में धर्माचरण तो है; परन्तु प्राणियों के प्रति वे प्रेम का पूरा बर्ताव नहीं करते। त्याग तो है, परन्तु केवल त्याग ही तो मुक्ति का कारण नहीं है। किन्हीं-किन्हीं में वीरता तो अवश्य है, परन्तु वे भी काल के पंजे से बाहर नहीं हैं। अवश्य ही कुछ महात्माओं में विषयासक्ति नहीं है, परन्तु वे तो निरन्तर अद्वैत-समाधि में ही तल्लीन रहते हैं। किसी-किसी ऋषि ने आयु तो बहुत लंबी प्राप्त कर ली है, परन्तु उनका शील-मंगल भी मेरे योग्य नहीं है। किन्हीं में शील-मंगल भी है परन्तु उनकी आयु का कुछ ठिकाना नहीं। अवश्य ही किन्हीं में दोनों ही बातें हैं, परन्तु वे अमंगल-वेष में रहते हैं। रहे एक भगवान् विष्णु उनमें सभी मंगलमय गुण नित्य निवास करते हैं, परन्तु वे मुझे चाहते ही नहीं।
इस प्रकार सोच-विचारकर अन्त में श्रीलक्ष्मी जी ने अपने चिर-अभीष्ट भगवान् को ही वर के रूप में चुना; क्योंकि उनमें समस्त सद्गुण नित्य निवास करते हैं। प्राकृत गुण उनका स्पर्श नहीं कर सकते और अणिमा आदि समस्त गुण उनको चाहा करते हैं; परन्तु वे किसी की भी अपेक्षा नहीं रखते। वास्तव में लक्ष्मी जी की एकमात्र आश्रय भगवान् ही हैं। इसी से उन्होंने उन्हीं को वरण किया। लक्ष्मी जी ने भगवान् के गले में वह नवीन कमलों की सुन्दर माला पहना दी, जिसके चारों ओर झुंड-के-झुंड मतवाले मधुकर गुंजार कर रहे थे। इसके बाद लज्जापूर्ण मुस्कान और प्रेमपूर्ण चितवन से अपने निवास स्थान उनके वक्षःस्थल को देखती ही वे उनके पास ही खड़ी हो गयीं।

जगत्पिता भगवान् ने जगज्जननी, समस्त सम्पत्तियों की अधिष्ठातृ देवता श्रीलक्ष्मी जी को अपने वक्षःस्थल पर ही सर्वदा निवास करने का स्थान दिया। लक्ष्मी जी ने वहाँ विराजमान होकर अपनी करुणा भरी चितवन से तीनों लोक, लोकपति और अपनी प्यारी प्रजा की अभिवृद्धि की। उस समय शंख, तुरही, मृदंग आदि बाजे बजने लगे। गन्धर्व, अप्सराओं के साथ नाचने-गाने लगे। इससे बड़ा भारी शब्द होने लगा। ब्रह्मा, रुद्र, अंगिरा आदि सब प्रजापति पुष्पवर्षा करते हुए भगवान् के गुण, स्वरूप और लीला आदि के यथार्थ वर्णन करने वाले मन्त्रों से उनकी स्तुति करने लगे। देवता, प्रजापति और प्रजा-सभी लक्ष्मी जी की कृपा दृष्टि से शील आदि उत्तम गुणों से सम्पन्न होकर बहुत सुखी हो गये।

परीक्षित! इधर जब लक्ष्मी जी ने दैत्य और दानवों की उपेक्षा कर दी, तब वे लोग निर्बल, उद्योगरहित, निर्लज्ज और लोभी हो गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 30-46 का हिन्दी अनुवाद)

इसके बाद समुद्र मन्थन करने पर कमलनयनी कन्या के रूप में वारुणी देवी प्रकट हुईं। भगवान् की अनुमति से दैत्यों ने उसे ले लिया। तदनन्तर महाराज! देवता और असुरों ने अमृत की इच्छा से जब और भी समुद्र मन्थन किया, तब उसमें से एक अत्यन्त अलौकिक पुरुष प्रकट हुआ। उसकी भुजाएँ लंबी एवं मोटी थीं। उसका गला शंख के समान उतार-चढ़ाव वाला था और आँखों में लालिमा थी। शरीर का रंग बड़ा सुन्दर साँवला-साँवला था। गले में माला, अंग-अंग सब प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित, शरीर पर पीताम्बर, कानों में चमकीले मणियों के कुण्डल, चौड़ी छाती, तरुण अवस्था, सिंह के समान पराक्रम, अनुपम सौन्दर्य, चिकने और घुँघराले बाल लहराते हुए उस पुरुष की छबि बड़ी अनोखी थी। उसके हाथों में कंगन और अमृत से भरा हुआ कलश था। वह साक्षात् विष्णु भगवान् के अंशांश अवतार थे। ये ही आयुर्वेद के प्रवर्तक और यज्ञभोक्ता धन्वन्तरि के नाम से सुप्रसिद्ध हुए।

जब दैत्यों की दृष्टि उन पर तथा उनके हाथ में अमृत से भरे हुए कलश पर पड़ी, तब उन्होंने शीघ्रता से बलात् उस अमृत के कलश को छीन लिया। वे तो पहले से ही इस ताक में थे कि किसी तरह समुद्र मन्थन से निकली हुई सभी वस्तुएँ हमें मिल जायें। जब असुर उस अमृत से भरे कलश को छीन ले गये, तब देवताओं का मन विषाद से भर गया। अब वे भगवान् कि शरण में आये। उनकी दीन दशा देखकर भक्तवाञ्छाकल्पतरु भगवान् ने कहा- ‘देवताओं! तुम लोग खेद मत करो। मैं अपनी माया से उनमें आपस की फूट डालकर अभी तुम्हारा काम बना देता हूँ’।
परीक्षित! अमृतलोलुप दैत्यों में उसके लिये आपस में झगड़ा खड़ा हो गया। सभी कहने लगे ‘पहले मैं पीऊँगा, पहले मैं; तुम नहीं, तुम नहीं’। उनमें जो दुर्बल थे, वे उन बलवान् दैत्यों का विरोध करने लगे, जिन्होंने कलश छीनकर अपने हाथ में कर लिया था, वे ईर्ष्यावश धर्म की दुहाई देकर उनको रोकने और बार-बार कहने लगे कि ‘भाई! देवताओं ने भी हमारे बराबर ही परिश्रम किया है, उनको भी यज्ञ भाग के समान इसका भाग मिलना ही चाहिये। यही सनातन धर्म है’। इस प्रकार इधर दैत्यों में ‘तू-तू, मैं-मैं’ हो रही थी और उधर सभी उपाय जानने वालों के स्वामी चतुरशिरोमणि भगवान् ने अत्यन्त अद्भुत और अवरणनीय स्त्री का रूप ग्रहण किया।

शरीर का रंग नील कमल के समान श्याम एवं देखने ही योग्य था। अंग-प्रत्यंग बड़े ही आकर्षक थे। दोनों कान बराबर और कर्णफूल से सुशोभित थे। सुन्दर कपोल, ऊँची नासिका और रमणीय मुख। नयी जवानी के कारण स्तन उभरे हुए थे और उन्हीं के भार से कमर पतली हो गयी थी। मुख से निकलती हुई सुगन्ध के प्रेम से गुनगुनाते हुए भौंरे उस पर टूटे पड़ते थे, जिससे नेत्रों में कुछ घबराहट का भाव आ जाता था। अपने लंबे केशपाशों में उन्होंने खिले हुए बेले के पुष्पों की माला गूँथ रखी थी। सुन्दर गले में कण्ठ के आभूषण और सुन्दर भुजाओं में बाजूबंद सुशोभित थे। इनके चरणों के नूपुर मधुर ध्वनि से रुनझुन-रुनझुन कर रहे थे और स्वच्छ साड़ी से ढके नितम्ब द्वीप पर शोभायमान करधनी अपनी अनूठी छटा छिटका रही थी। अपनी सलज्ज मुसकान, नाचती हुई तिरछी भौंहें और विलास भरी चितवन से मोहिनी-रूपधारी भगवान् दैत्य सेनापतियों के चित्त में बार-बार कामोद्दीपन करने लगे।

                           {अष्टम स्कन्ध:}

                        【नवम अध्याय:】९.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"मोहिनी रूप से भगवान् के द्वारा अमृत बाँटा जाना"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! असुर आपस के सद्भाव और प्रेम को छोड़कर एक-दूसरे की निन्दा कर रहे थे और डाकू की तरह एक-दूसरे के हाथ से अमृत का कलश छीन रहे थे। इसी बीच में उन्होंने देखा कि एक बड़ी सुन्दरी स्त्री उनकी ओर चली आ रही है। वे सोचने लगे- ‘कैसा अनुपम सौन्दर्य है। शरीर में से कितनी अद्भुत छटा छिटक रही है! तनिक इसकी नयी उम्र तो देखो!’ बस, अब वे आपस की लाग-डाँट भूलकर उसके पास दौड़ गये। उन लोगों ने काममोहित होकर उससे पूछा- ‘कमलनयनी! तुम कौन हो? कहाँ से आ रही हो? क्या करना चाहती हो? सुन्दरी! तुम किसकी कन्या हो? तुम्हें देखकर हमारे मन में खलबली मच गयी है। हम समझते हैं कि अब तक देवता, दैत्य, सिद्ध, गन्धर्व, चारण और लोकपालों ने भी तुम्हें स्पर्श तक न किया होगा। फिर मनुष्य तो तुम्हें कैसे छू पाते?

सुन्दरी! अवश्य ही विधाता ने दया करके शरीरधारियों की सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं मन को तृप्त करने के लिये तुम्हें यहाँ भेजा है। मानिनी! वैसे हम लोग एक ही जाति के हैं। फिर भी हम सब एक ही वस्तु चाह रहे हैं, इसलिये हममें डाह और वैर की गाँठ पड़ गयी है। सुन्दरी! तुम हमारा झगड़ा मिटा दो। हम सभी कश्यप जी के पुत्र होने के नाते सगे भाई हैं। हम लोगों ने अमृत के लिये बड़ा पुरुषार्थ किया है। तुम न्याय के अनुसार निष्पक्ष भाव से इसे बाँट दो, जिससे फिर हम लोगों में किसी प्रकार का झगड़ा न हो’। असुरों ने जब इस प्रकार प्रार्थना की, तब लीला से स्त्री वेष धारण करने वाले भगवान् ने तनिक हँसकर और तिरछी चितवन से उनकी ओर देखते हुए कहा-
श्रीभगवान् ने कहा ;- 'आप लोग महर्षि कश्यप के पुत्र हैं और मैं हूँ कुलटा। आप लोग मुझ पर न्याय का भार क्यों डाल रहे हैं? विवेकी पुरुष स्वेच्छाचारिणी स्त्रियों का कभी विश्वास नहीं करते। दैत्यों! कुत्ते और व्यभिचारिणी स्त्रियों की मित्रता स्थायी नहीं होती। वे दोनों ही सदा नये-नये शिकार ढूँढा करते हैं।'

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! मोहिनी की परिहास भरी वाणी से दैत्यों के मन में और भी विश्वास हो गया। उन लोगों ने रहस्यपूर्ण भाव से हँसकर अमृत का कलश मोहिनी के हाथ में दे दिया। भगवान् ने अमृत का कलश अपने हाथ में लेकर तनिक मुसकराते हुए मीठी वाणी से कहा- ‘मैं उचित या अनुचित जो कुछ भी करूँ, वह सब यदि तुम लोगों को स्वीकार हो तो मैं यह अमृत बाँट सकती हूँ’।

बड़े-बड़े दैत्यों ने मोहिनी की यह मीठी बात सुनकर उसकी बारीकी नहीं समझी, इसलिये सबने एक स्वर से कह दिया ‘स्वीकार है।’ इसका कारण यह था कि उन्हें मोहिनी के वास्तविक स्वरूप का पता नहीं था। इसके बाद एक दिन का उपवास करके सबने स्नान किया। हविष्य से अग्नि में हवन किया। गौ, ब्राह्मण और समस्त प्राणियों को घास-चारा, अन्न-धनादि का यथायोग्य दान दिया तथा ब्राह्मणों से स्वस्त्ययन कराया। अपनी-अपनी रुचि के अनुसार सबने नये-नये वस्त्र धारण किये और इसके बाद सुन्दर-सुन्दर आभूषण धारण करके सब-के-सब उन कुशासनों पर बैठ गये, जिनका अगला हिस्सा पूर्व की ओर था। जब देवता और दैत्य दोनों ही धूप से सुगन्धित, मालाओं और दीपकों से सजे-सजाये भव्य भवन में पूर्व की ओर मुँह करके बैठ गये, तब हाथ में अमृत का कलश लेकर मोहिनी सभामण्डप में आयी। वह एक बड़ी सुन्दर साड़ी पहने हुए थी। नितम्बों के भार के कारण वह धीरे-धीरे चल रही थी। आँखें मद से विह्वल हो रही थीं। कलश के समान स्तन और गजशावक की सूँड़ के समान जंघाएँ थीं। उसके स्वर्ण नूपुर अपनी झनकार से सभा भवन को मुखरित कर रहे थे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 18-29 का हिन्दी अनुवाद)

सुन्दर कानों में सोने के कुण्डल थे और उसकी नासिका, कपोल तथा मुख बड़े ही सुन्दर थे। स्वयं परदेवता भगवान् मोहिनी के रूप में ऐसे जान पड़ते थे मानो लक्ष्मी जी की कोई श्रेष्ठ सखी वहाँ आ गयी हो। मोहिनी ने अपनी मुस्कान भरी चितवन से देवता और दैत्यों की ओर देखा, तो वे सब-के-सब मोहित हो गये। उस समय उनके स्तनों पर से अंचल कुछ खिसक गया था। भगवान् ने मोहिनी रूप में यह विचार किया कि असुर तो जन्म से ही क्रूर स्वभाव वाले हैं। इनको अमृत पिलाना सर्पों को दूध पिलाने के समान बड़ा अन्याय होगा। इसलिये उन्होंने असुरों को अमृत में भाग नहीं दिया। भगवान् ने देवता और असुरों की अलग-अलग पंक्तियाँ बना दीं और फिर दोनों को कतार बाँधकर अपने-अपने दल में बैठा दिया। इसके बाद अमृत का कलश हाथ में लेकर भगवान् दैत्यों के पास चले गये। उन्हें हाव-भाव और कटाक्ष से मोहित करके दूर बैठे हुए देवताओं के पास आ गये तथा उन्हें वह अमृत पिलाने लगे, जिसे पी लेने पर बुढ़ापे और मृत्यु का नाश हो जाता है।
परीक्षित! असुर अपनी की हुई प्रतिज्ञा का पालन कर रहे थे। उनका स्नेह भी हो गया था और वे स्त्री से झगड़ने में अपनी निन्दा भी समझते थे। इसलिये वे चुपचाप बैठे रहे। मोहिनी में उनका अत्यन्त प्रेम हो गया था। वे डर रहे थे कि उससे हमारा प्रेम सम्बन्ध टूट न जाये। मोहिनी ने भी पहले उन लोगों का बड़ा सम्मान किया था, इससे वे और भी बँध गये थे। यही कारण है कि उन्होंने मोहिनी को कोई अप्रिय बात नहीं कही।

जिस समय भगवान् देवताओं को अमृत पिला रहे थे, उसी समय राहु दैत्य देवताओं का वेष बनाकर उनके बीच में आ बैठा और देवताओं के साथ उसने भी अमृत पी लिया। परन्तु तत्क्षण चन्द्रमा और सूर्य ने उसकी पोल खोल दी। अमृत पिलाते-पिलाते ही भगवान् ने अपने तीखी धार वाले चक्र से उसका सिर काट डाला। अमृत का संसर्ग न होने से उसका धड़ नीचे गिर गया, परन्तु सिर अमर हो गया और ब्रह्मा जी ने उसे ‘ग्रह’ बना दिया। वही राहु पर्व के दिन (पूर्णिमा और अमावस्या को) वैर-भाव से बदला लेने के लिये चन्द्रमा तथा सूर्य पर आक्रमण किया करता है। जब देवताओं ने अमृत पी लिया, तब समस्त लोकों को जीवनदान करने वाले भगवान् ने बड़े-बड़े दैत्यों के सामने ही मोहिनी रूप त्यागकर अपना वास्तविक रूप धारण कर लिया।

परीक्षित! देखो- देवता और दैत्य दोनों ने एक ही समय एक स्थान पर एक प्रयोजन तथा एक वस्तु के लिये एक विचार से एक ही कर्म किया था, परन्तु फल में बड़ा भेद हो गया। उनमें से देवताओं ने बड़ी सुगमता से अपने परिश्रम का फल-अमृत प्राप्त कर लिया, क्योंकि उन्होंने भगवान् के चरणकमलों की रज का आश्रय लिया था। परन्तु उससे विमुख होने के कारण परिश्रम करने पर भी असुरगण अमृत से वंचित ही रहे।

मनुष्य अपने प्राण, धन, कर्म, मन और वाणी आदि से शरीर एवं पुत्र आदि के लिये जो कुछ करता है-वह व्यर्थ ही होता है; क्योंकि उसके मूल में भेद बुद्धि बनी रहती है। परन्तु उन्हीं प्राण आदि वस्तुओं के द्वारा भगवान् के लिये जो कुछ किया जाता है, वह सब भेदभाव से रहित होने के कारण अपने शरीर, पुत्र और समस्त संसार के लिये सफल हो जाता है। जैसे वृक्ष की जड़ में पानी देने से उसका तना, टहनियाँ और पत्ते-सब-के-सब सिंच जाते हैं, वैसे ही भगवान् के लिये कर्म करने से वे सबके लिये हो जाते हैं।

                           {अष्टम स्कन्ध:}

                        【दशम अध्याय:】१०.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"देवासुर-संग्राम"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! यद्यपि दानवों और दैत्यों ने बड़ी सावधानी से समुद्र मन्थन की चेष्टा की थी, फिर भी भगवान् से विमुख होने के कारण उन्हें अमृत की प्रप्ति नहीं हुई।

राजन! भगवान् ने समुद्र को मथकर अमृत निकाला और अपने निजजन देवताओं को पिला दिया। फिर सबके देखते-देखते वे गरुड़ पर सवार हुए और वहाँ से चले गये। जब दैत्यों ने देखा कि हमारे शत्रुओं को तो बड़ी सफलता मिली, तब वे उनकी बढ़ती सह न सके। उन्होंने तुरंत अपने हथियार उठाये और देवताओं पर धावा बोल दिया। इधर देवताओं ने एक तो अमृत पीकर विशेष शक्ति प्राप्त कर ली थी और दूसरे उन्हें भगवान् के चरणकमलों का आश्रय था ही। बस, वे भी अपने अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो दैत्यों से भिड़ गये।

परीक्षित! क्षीरसागर के तट पर बड़ा ही रोमांचकारी और अत्यन्त भयंकर संग्राम हुआ। देवता और दैत्यों की वह घमासान लड़ाई ही ‘देवासुर संग्राम’ के नाम से कही जाती है। दोनों ही एक-दूसरे के प्रबल शत्रु हो रहे थे, दोनों ही क्रोध से भरे हुए थे। एक-दूसरे को आमने-सामने पाकर तलवार, बाण और अन्य अनेकानेक अस्त्र-शस्त्रों से परस्पर चोट पहुँचाने लगे। उस समय लड़ाई में शंख, तुरही, मृदंग, नगारे और डमरू बड़े जोर से बजने लगे; हाथियों की चिग्घाड़, घोड़ों की हिनहिनाहट, रथों घरघराहट और पैदल सेना की चिल्लाहट से बड़ा कोलाहल मच गया। रणभूमि में रथियों के साथ रथी, पैदल के साथ पैदल, घुड़सवारों के साथ घुड़सवार एवं हाथी वालों के साथ हाथी वाले भिड़ गये। उसमें से कोई-कोई वीर ऊँटों पर, हाथियों पर और गधों पर चढ़कर लड़ रहे थे तो कोई-कोई गौरमृग, भालू, बाघ और सिंहों पर। कोई-कोई सैनिक गिद्ध, कंक, बगुले, बाज और भास पक्षियों पर चढ़े हुए थे तो बहुत-से तिमिंगिल मच्छ, शरभ, भैंसे, गैड़ें, बैल, नीलगाय और जंगली साँड़ों पर सवार थे। किसी-किसी ने सियारिन, चूहे, गिरगिट और खरहों पर ही सवारी कर ली थी तो बहुत-से मनुष्य, बकरे, कृष्णसार मृग, हंस और सूअरों पर चढ़े थे। इस प्रकार जल, स्थल एवं आकाश में रहने वाले तथा देखने में भयंकर शरीर वाले बहुत-से प्राणियों पर चढ़कर कई दैत्य दोनों सेनाओं में आगे-आगे घुस गये।
परीक्षित! उस समय रंग-बिरंगी पताकाओं, स्फटिक मणि के समान श्वेत निर्मल छत्रों, रत्नों से जड़े हुए दण्ड वाले बहुमूल्य पंखों, मोरपंखों, चँवरों और वायु से उड़ते हुए दुपट्टों, पगड़ी, कलँगी, कवच, आभूषण तथा सूर्य की किरणों से अत्यन्त दमकते हुए उज्ज्वल शस्त्रों एवं वीरों की पंक्तियों के कारण देवता और असुरों की सेनाएँ ऐसी शोभायमान हो रही थीं, मानो जल-जन्तुओं से भरे हुए दो महासागर लहरा रहे हों। परीक्षित! रणभूमि में दैत्यों के सेनापति विरोचनपुत्र बलि मय दानव के बनाये हुए वैहायस नामक विमान पर सवार हुए। वह विमान चलाने वाले की जहाँ इच्छा होती थी, वहीं चला जाता था। युद्ध की समस्त सामग्रियाँ उसमें सुसज्जित थीं। परीक्षित! वह इतना आश्चर्यमय था कि कभी दिखलायी पड़ता तो कभी अदृश्य हो जाता। वह इस समय कहाँ है-जब इस बात का अनुमान भी नहीं किया जा सकता था, तब बतलाया तो कैसे जा सकता था।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 18-37 का हिन्दी अनुवाद)

उसी श्रेष्ठ विमान पर राजा बलि सवार थे। सभी बड़े-बड़े सेनापति उनको चारों ओर से घेरे हुए थे। उन पर श्रेष्ठ चमर डुलाये जा रहे थे और छत्र तना हुआ था। उस समय बलि ऐसे जान पड़ते थे, जैसे उदयाचल पर चन्द्रमा। उनके चारों ओर अपने-अपने विमानों पर सेना की छोटी-छोटी टुकड़ियों के स्वामी नमुचि, शम्बर, बाण, विप्रचित्ति, अयोमुख, द्विमूर्धा, कालनाभ, प्रहेति, हेति, इल्वल, शकुनि, भूतसन्ताप, वज्रद्रन्ष्ट्र, विरोचन, हयग्रीव, शंकुशिरा, कपिल, मेघदुन्दुभि, तारक, चक्राक्ष शुम्भ, निशुम्भ, जम्भ, उत्कल, अरिष्ट, अरिष्टनेमि, त्रिपुराधिपति मय, पौलोम कालेय और निवातकवच आदि स्थित थे। ये सब-के-सब समुद्र मन्थन में सम्मिलित थे। परन्तु इन्हें अमृत का भाग नहीं मिला, केवल क्लेश ही हाथ लगा था। इन सब असुरों ने एक नहीं, अनेक बार युद्ध में देवताओं को पराजित किया था। इसलिये वे बड़े उत्साह से सिंहनाद करते हुए अपने घोर स्वर वाले शंख बजाने लगे।

इन्द्र ने देखा कि हमारे शत्रुओं का मन बढ़ रहा है, ये मदोन्मत्त हो रहे हैं; तब उन्हें बड़ा क्रोध आया। वे अपने वाहन ऐरावत नामक दिग्गज पर सवार हुए। उसके कपोलों से मद बह रहा था। इसलिये इन्द्र की शोभा हुई, मानो भगवान् सूर्य उदयाचल पर आरूढ़ हों और उससे अनेकों झरने बह रहे हों। इन्द्र के चारों ओर अपने-अपने वाहन, ध्वजा और आयुधों से युक्त देवगण एवं अपने-अपने गणों के साथ वायु, अग्नि, वरुण आदि लोकपाल हो लिये। दोनों सेनाएँ आमने-सामने खड़ी हो गयीं। दो-दो की जोड़ियाँ बनाकर वे लोग लड़ने लगे। कोई आगे बढ़ रहा था, तो कोई नाम ले-लेकर ललकार रहा था। कोई-कोई मर्मभेदी वचनों के द्वारा अपने प्रतिद्वन्दी को धिक्कार रहा था।

बलि इन्द्र से, स्वामि कार्तिक तारकासुर से, वरुण हेति से और मित्र प्रहेति से भिड़ गये। यमराज कालनाभ से, विश्वकर्मा मय से, शम्बरासुर त्वष्टा से तथा सविता विरोचन से लड़ने लगे। नमुचि अपराजित से, अश्विनीकुमार वृषपर्वा से तथा सूर्यदेव बलि के बाण आदि सौ पुत्रों से युद्ध करने लगे। राहु के साथ चन्द्रमा और पुलोमा के साथ वायु के युद्ध हुआ। भद्रकाली देवी निशुम्भ और शुम्भ पर झपट पड़ीं।

परीक्षित! जम्भासुर से महादेव जी की, महिषासुर से अग्निदेव की वातापि तथा इल्वल से ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि की ठन गयी। दुर्मर्ष की कामदेव से, उत्कल की मातृगणों से, शुक्राचार्य की बृहस्पति से और नरकासुर की शनैश्चर से लड़ाई होने लगी। निवात कवचों के साथ मरुद्गण, कालेयों के साथ वसुगण, पौलोमों के साथ विश्वेदेवगण तथा क्रोधावशों के साथ रुद्रगण का संग्राम होने लगा।

इस प्रकार असुर और देवता रणभूमि में द्वन्द युद्ध और सामूहिक आक्रमण द्वारा एक-दूसरे से भिड़कर परस्पर विजय की इच्छा से उत्साहपूर्वक तीखे बाण, तलवार और भालों से प्रहार करने लगे। वे तरह-तरह से युद्ध कर रहे थे। भुशुण्डि, चक्र, गदा, ऋष्टि, पट्टिश, शक्ति, उल्मुक, प्रास, फरसा, तलवार, भाले, मुद्गर, परिघ और भिन्दिपाल से एक-दूसरे का सिर काटने लगे। उस समय अपने सवारों के साथ हाथी, घोड़े, रथ आदि अनेकों प्रकार के वाहन और पैदल सेना छिन्न-भिन्न होने लगी। किसी की भुजा, किसी की जंघा, किसी की गरदन और किसी के पैर कट गये तो किसी-किसी की ध्वजा, धनुष, कवच और आभूषण ही टुकड़े-टुकड़े हो गये।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 38-57 का हिन्दी अनुवाद)

उनके चरणों की धमक और रथ के पहियों की रगड़ से पृथ्वी खुद गयी। उस समय रणभूमि से ऐसी प्रचण्ड धूल उठी कि उसने दिशा, आकाश और सूर्य को भी ढक दिया। परन्तु थोड़ी ही देर में खून की धारा से भूमि आप्लावित हो गयी और कहीं धूल का नाम भी न रहा।

तदनन्तर लड़ाई का मैदान कटे हुए सिरों से भर गया। किसी के मुकुट और कुण्डल गिर गये थे, तो किसी की आँखों से क्रोध की मुद्रा प्रकट हो रही थी। किसी-किसी ने अपने दाँतों से होंठ दबा रखा था। बहुतों की आभूषणों और शस्त्रों से सुसज्जित लंबी-लंबी भुजाएँ कटकर गिरी हुई थीं और बहुतों की मोटी-मोटी जाँघें कटी हुई पड़ी थीं। इस प्रकार वह रणभूमि बड़ी भीषण दीख रही थी। तब वहाँ बहुत-से धड़ अपने कटकर गिरे हुए सिरों के नेत्रों से देखकर हाथों में हथियार उठा वीरों की ओर दौड़ने और उछलने लगे।
राजा बलि ने दस बाण इन्द्र पर, तीन उनके वाहन ऐरावत पर, चार ऐरावत के चार चरण-रक्षकों पर और एक मुख्य महावत पर-इस प्रकार कुल अठारह बाण छोड़े। इन्द्र ने देखा कि बलि के बाण तो हमें घायल करना ही चाहते हैं। तब उन्होंने बड़ी फुर्ती से उतने ही तीखे भल्ल नामक बाणों से उनको वहाँ तक पहुँचने के पहले ही हँसते-हँसते काट डाला। इन्द्र की यह प्रशंसनीय फुर्ती देखकर राजा बलि और भी चिढ़ गये। उन्होंने एक बहुत बड़ी शक्ति, जो बड़े भारी लूके के समान जल रही थी, उठायी। किन्तु अभी वह उनके हाथ में ही थी-छूटने नहीं पायी थी कि इन्द्र ने उसे भी काट डाला। इसके बाद बलि ने एक के पीछे के एक क्रमशः शूल, प्रास, तोमर और शक्ति उठायी। परन्तु वे जो-जो शस्त्र हाथ में उठाते, इन्द्र उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर डालते। इस हस्तलाघव से इन्द्र का ऐश्वर्य और भी चमक उठा।

परीक्षित! अब इन्द्र की फुर्ती से घबराकर पहले तो बलि अन्तर्धान हो गये, फिर उन्होंने आसुरि माया की सृष्टि की। तुरंत ही देवताओं की सेना के ऊपर एक पर्वत प्रकट हुआ। उस पर्वत से दावाग्नि से जलते हुए वृक्ष और टाँकी-जैसी तीखी धार वाले शिखरों के साथ नुकीली शिलाएँ गिरने लगीं। इससे देवताओं की सेना चकनाचूर होने लगी। तत्पश्चात् बड़े-बड़े साँप, दन्दशूक, बिच्छू और अन्य विषैले जीव उछल-उछलकर काटने और डंक मारने लगे। सिंह, बाघ और सूअर देवसेना के बड़े-बड़े हाथियों को फाड़ने लगे। परीक्षित! हाथों में शूल लिये ‘मारो-काटो’ इस प्रकार चिल्लाती हुई सैकड़ों नंग-धड़ंग राक्षसियाँ और राक्षस भी वहाँ प्रकट हो गये। कुछ ही क्षण बाद आकाश में बादलों की घनघोर घटाएँ मँडराने लगीं, उनके आपस में टकराने से बड़ी गहरी और कठोर गर्जना होने लगी, बिजलियाँ चमकने लगीं और आँधी के झकझोरने से बादल अंगारों की वर्षा करने लगे।

दैत्यराज बलि ने प्रलय की अग्नि के समान बड़ी भयानक आग की सृष्टि की। वह बात-की-बात में वायु की सहायता से देवसेना को जलाने लगी। थोड़ी ही देर में ऐसा जान पड़ा कि प्रबल आँधी के थपेड़ों से समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें और भयानक भँवर उठ रहे हैं और वह अपनी मर्यादा छोड़कर चारों ओर से देवसेना को घेरता हुआ उमड़ा आ रहा है। इस प्रकार जब उन भयानक असुरों ने बहुत बड़ी माया की सृष्टि की और स्वयं अपनी माया के प्रभाव से छिपे रहे-न दीखने के कारण उन पर प्रहार भी नहीं किया जा सकता था। तब देवताओं के सैनिक बहुत दुःखी हो गये। परीक्षित! इन्द्र आदि देवताओं ने उनकी माया का प्रतीकार करने के लिये बहुत कुछ सोचा-विचारा, परन्तु उन्हें कुछ न सूझा। तब उन्होंने विश्व के जीवनदाता भगवान् का ध्यान किया और ध्यान करते ही वे वहीं प्रकट हो गये। बड़ी ही सुन्दर झाँकी थी। गरुड़ के कंधे पर उनके चरणकमल विराजमान थे। नवीन कमल के समान बड़े ही कोमल नेत्र थे। पीताम्बर धारण किये हुए थे। आठ भुजाओं में आठ आयुध, गले में कौस्तुभ मणि, मस्तक पर अमूल्य मुकुट एवं कानों में कुण्डल झलमला रहे थे। देवताओं ने अपने नेत्रों से भगवान् की इस छबि का दर्शन किया।

परमपुरुष परमात्मा के प्रकट होते ही उनके प्रभाव से असुरों की वह कपटभरी माया विलीन हो गयी-ठीक वैसे ही जैसे जग जाने पर स्वप्न की वस्तुओं का पता नहीं चलता। ठीक ही है, भगवान् की स्मृति समस्त विपत्तियों से मुक्त कर देती है। इसके बाद कालनेमि दैत्य ने देखा कि लड़ाई के मैदान में गरुड़वाहन भगवान् आ गये हैं, तब उसने अपने सिंह पर बैठे-ही-बैठे वेग से उनके ऊपर एक त्रिशूल चलाया। वह गरुड़ के सिर पर लगने वाला ही था कि खेल-खेल में भगवान् ने उसे पकड़ लिया और उसी त्रिशूल से उसके चलाने वले कालनेमि दैत्य तथा उसके वाहन को मार डाला। माली और सुमाली-दो दैत्य बड़े बलवान् थे, भगवान् ने युद्ध में अपने चक्र से उनके सिर भी काट डाले और वे निर्जीव होकर गिर पड़े। तदनन्तर माल्यवान् ने अपनी प्रचण्ड गदा से गरुड़ पर बड़े वेग के साथ प्रहार किया। परन्तु गर्जना करते हुए माल्यवान् के प्रहार करते-न-करते ही भगवान् ने चक्र से उनके सिर को भी धड़ से अलग कर दिया।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें