सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( अष्टम स्कन्धः ) का प्रथम , द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम अध्याय [ The first, second, third, fourth and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Eighth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( अष्टम स्कन्धः ) का प्रथम , द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ व पञ्चम अध्याय [ The first, second, third, fourth and fifth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Eighth wing) ]



                           {अष्टम स्कन्ध:}

                      【प्रथम अध्याय:】१.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"मन्वन्तरों का वर्णन"
राजा परीक्षित ने पूछा ;- गुरुदेव! स्वायम्भुव मनु का वंश-विस्तार मैंने सुन लिया। इसी वंश में उनकी कन्याओं के द्वारा मरीचि आदि प्रजापतियों ने अपनी वंश परम्परा चलायी थी। अब आप हमसे दूसरे मनुओं का वर्णन कीजिये। ब्रह्मन्! ज्ञानी महात्मा जिस-जिस मन्वन्तर में महामहिम भगवान के जिन-जिन अवतारों और लीलाओं का वर्णन करते हैं, उन्हें आप अवश्य सुनाइये। हम बड़ी श्रद्धा से उनका श्रवण करना चाहते हैं। भगवन्! विश्वभावन भगवान बीते हुए मन्वन्तरों में जो-जो लीलाएँ कर चुके हैं, वर्तमान मन्वन्तर में जो कर रहे हैं और आगामी मन्वन्तरों में जो कुछ करेंगे, वह सब हमें सुनाइये।

श्रीशुकदेव जी ने कहा ;- इस कल्प में स्वायम्भुव आदि छः मन्वन्तर बीत चुके हैं। उनमें से पहले मन्वन्तर का मैंने वर्णन कर दिया, उसी में देवता आदि की उत्पत्ति हुई थी। स्वायम्भुव मनु की पुत्री आकूति से यज्ञपुरुष के रूप में उपदेश करने के लिये तथा देवहूति से कपिल के रूप में ज्ञान का उपदेश करने के लिए भगवान ने उनके पुत्ररूप से अवतार ग्रहण किया था।

परीक्षित! भगवान कपिल का वर्णन मैं पहले ही (तीसरे स्कन्ध में) कर चुका हूँ। अब भगवान यज्ञपुरुष ने आकूति के गर्भ से अवतार लेकर जो कुछ किया, उसका वर्णन करता हूँ।

परीक्षित! भगवान स्वायम्भुव मनु ने समस्त कामनाओं और भोगों से विरक्त होकर राज्य छोड़ दिया। वे अपनी पत्नी शतरूपा के साथ तपस्या करने के लिये वन में चले गये। परीक्षित! उन्होंने सुनन्दा नदी के किनारे पृथ्वी पर एक पैर से खड़े रहकर सौ वर्ष तक घोर तपस्या की। तपस्या करते समय वे प्रतिदिन इस प्रकार भगवान की स्तुति करते थे।

मनु जी कहा करते थे ;- जिनकी चेतना के स्पर्शमात्र से यह विश्व चेतन हो जाता है, किन्तु यह विश्व जिन्हें चेतना का दान नहीं कर सकता; जो इसके सो जाने पर प्रलय में भी जागते रहते है, जिनको यह नहीं जान सकता, परन्तु जो इसे जानते हैं- वही परमात्मा हैं। यह सम्पूर्ण विश्व और इस विश्व में रहने वाले समस्त चर-अचर प्राणी- सब उन परमात्मा से ही ओतप्रोत हैं। इसलिये संसार के किसी भी पदार्थ में मोह न करके उसका त्याग करते हुए ही जीवन-निर्वाह मात्र के लिये उपभोग करना चाहिये। तृष्णा का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। भला, ये संसार की सम्पत्तियाँ किसकी हैं? भगवान सबके साक्षी हैं। उन्हें बुद्धि-वृत्तियाँ या नेत्र आदि इन्द्रियाँ नहीं देख सकतीं। परन्तु उनकी ज्ञानशक्ति अखण्ड है। समस्त प्राणियों के हृदय में रहने वाले उन्हीं स्वयंप्रकाश असंग परमात्मा की शरण ग्रहण करो। जिनका न आदि है न अन्त, फिर मध्य होगा ही कहाँ से? जिनका न कोई अपना है और न पराया और न बाहर है न भीतर, वे विश्व के आदि, अन्त, मध्य, अपने-पराये, बाहर और भीतर- सब कुछ हैं। उन्हीं की सत्ता से विश्व की सत्ता है। वही अनन्त वास्तविक सत्य परब्रह्म हैं। वही परमात्मा विश्वरूप हैं। उनके अनन्त नाम हैं। वे सर्वशक्तिमान् सत्य, स्वयंप्रकाश, अजन्मा और पुराणपुरुष हैं। वे अपनी मायाशक्ति के द्वारा ही विश्वसृष्टि के जन्म आदि को स्वीकार कर लेते हैं और अपनी विद्याशक्ति के द्वारा उसका त्याग करके निष्क्रिय, सत्स्वरूप मात्र रहते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 14-33 का हिन्दी अनुवाद)

इसी से ऋषि-मुनि नैष्कर्म्य स्थित अर्थात ब्रह्म से एकत्व प्राप्त करने के लिये पहले कर्म योग का अनुष्ठान करते हैं। प्रायः कर्म करने वाला पुरुष ही अन्त में निष्क्रिय होकर कर्मों से छुट्टी पा लेता है। यों तो सर्वशक्तिमान भगवान भी कर्म करते हैं, परन्तु वे आत्मलाभ से पूर्णकाम होने के कारण उन कर्मों में आसक्त नहीं होते। अतः उन्हीं का अनुसरण करके अनासक्त रहकर कर्म करने वाले भी कर्मबन्धन से मुक्त ही रहते हैं। भगवान ज्ञानस्वरूप हैं, इसलिये उनमें अहंकार का लेश भी नहीं है। वे सर्वतः परिपूर्ण हैं, इसलिये उन्हें किसी वस्तु की कामना नहीं है। वे बिना किसी की प्रेरणा के स्वच्छन्द रूप से ही कर्म करते हैं। वे अपनी ही बनायी हुई मर्यादा में स्थित रहकर अपने कर्मों के द्वारा मनुष्यों को शिक्षा देते हैं। वे ही समस्त धर्मों के प्रवर्तक और उनके जीवनदाता हैं। मैं उन्हीं प्रभु की शरण में हूँ।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! एक बार स्वायम्भुव मनु एकाग्रचित्त से इन मन्त्रमय उपनिषत्स्वरूप श्रुति का पाठ कर रहे थे। उन्हें नींद में अचेत होकर बड़बड़ाते जान भूखे असुर और राक्षस खा डालने के लिये उन पर टूट पड़े। यह देखकर अन्तर्यामी भगवान यज्ञपुरुष अपने पुत्र याम नामक देवताओं के साथ वहाँ आये। उन्होंने उन खा डालने के निश्चय से आये हुए असुरों का संहार कर डाला और फिर वे इन्द्र के पद पर प्रतिष्ठित होकर स्वर्ग का शासन करने लगे।

परीक्षित! दूसरे मनु हुए स्वारोचिष। वे अग्नि के पुत्र थे। उनके पुत्रों के नाम थे-द्युमान्, सुषेण और रोचिष्मान् आदि। उस मन्वन्तर में इन्द्र का नाम था रोचन, प्रधान देवगण थे तुषित आदि। ऊर्जास्तम्भ आदि वेदवादीगण सप्तर्षि थे। उस मन्वन्तर में वेदशिरा नाम के ऋषि की पत्नी तुषिता थीं। उनके गर्भ से भगवान ने अवतार ग्रहण किया और विभु नाम से प्रसिद्ध हुए। वे आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहे। उन्हीं के आचरण से शिक्षा ग्रहण करके अठासी हजार व्रतनिष्ठ ऋषियों ने भी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया।

तीसरे मनु थे उत्तम। वे प्रियव्रत के पुत्र थे। उनके पुत्रों के नाम थे-पवन, सृंजय, यज्ञहोत्र आदि। उस मन्वन्तर में वसिष्ठ जी के प्रमद आदि सात पुत्र सप्तर्षि थे। सत्य, वेदश्रुत और भद्र नामक देवताओं के प्रधान गण थे और इन्द्र का नाम था सत्यजित। उस समय धर्म की पत्नी सूनृता के गर्भ से पुरुषोत्तम भगवान ने सत्यसेन के नाम से अवतार ग्रहण किया था। उनके साथ सत्यव्रत नाम के देवगण भी थे। उस समय के इन्द्र सत्यजित् के सखा बनकर भगवान ने असत्यपरायण, दुःशील और दुष्ट यक्षों, राक्षसों एवं जीवद्रोही भूतगणों का संहार किया।

चौथे मनु का नाम था तामस। वे तीसरे मनु उत्तम के सगे भाई थे। उनके पृथु, ख्याति, नर, केतु इत्यादि दस पुत्र थे। सत्यक, हरि और वीर नामक देवताओं के प्रधान गण थे। इन्द्र का नाम था त्रिशिख। उस मन्वन्तर में ज्योतिर्धाम आदि सप्तर्षि थे। परीक्षित! उस तामस नाम के मन्वन्तर में विधृति के पुत्र वैधृति नाम के और भी देवता हुए। उन्होंने समय के फेर से नष्टप्राय वेदों को अपनी शक्ति से बचाया था, इसीलिये ये ‘वैधृति’ कहलाये। इस मन्वन्तर में हरिमेधा ऋषि की पत्नी हरिणी के गर्भ से हरि के रूप में भगवान ने अवतार ग्रहण किया। इसी अवतार में उन्होंने ग्राह से गजेन्द्र की रक्षा की थी।

राजा परीक्षित ने पूछा ;- मुनिवर! हम आपसे यह सुनना चाहते हैं कि भगवान ने गजेन्द्र को ग्राह के फंदे से कैसे छुड़ाया था। सब कथाओं में वही कथा परमपुण्यमय, प्रशंसनीय, मंगलकारी और शुभ हैं, जिसमें महात्माओं के द्वारा गान किये हुए भगवान श्रीहरि के पवित्र यश का वर्णन रहता है।

सूत जी कहते हैं ;- शौनकादि ऋषियों! राजा परीक्षित आमरण अनशन करके कथा सुनने के लिये ही बैठे हुए थे। उन्होंने जब श्रीशुकदेव जी महाराज को इस प्रकार कथा कहने के लिये प्रेरित किया, तब वे बड़े आनन्दित हुए और प्रेम से परीक्षित का अभिनन्दन करके मुनियों की भरी सभा में कहने लगे।

                           {अष्टम स्कन्ध:}

                      【द्वितीय अध्याय:】२.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"ग्राह के द्वारा गजेन्द्र का पकड़ा जाना"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! क्षीरसागर में त्रिकुट नाम का एक प्रसिद्ध सुन्दर एवं श्रेष्ठ पर्वत था। वह दस हजार योजन ऊँचा था। उसकी लंबाई-चौड़ाई भी चारों ओर इतनी ही थी। उसके चाँदी, लोहे और सोने के तीन शिखरों की छटा से समुद्र, दिशाएँ और आकाश जगमगाते रहते थे और भी उसके कितने ही शिखर ऐसे थे जो रत्नों और धातुओं की रंग-बिरंगी छटा दिखाते हुए सब दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे। उनमें विविध जाति के वृक्ष, लताएँ और झाड़ियाँ थीं। झरनों की झर-झर से वह गुंजायमान होता रहता था। सब ओर से समुद्र की लहरें आ-आकर उस पर्वत के निचले भाग से टकरातीं, उस समय ऐसा जान पड़ता मानो वे पर्वतराज के पाँव पखार रहीं हों।

उस पर्वत के हरे पन्ने के पत्थरों से वहाँ की भूमि ऐसी साँवली हो गयी थी, जैसे उस पर हरी-भरी दूब लग रही हो। उसकी कन्दराओं में सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, नाग, किन्नर और अप्सराएँ आदि विहार करने के लिये प्रायः बने ही रहते थे। जब उसके संगीत की ध्वनि चट्टानों से टकराकर गुफाओं में प्रतिध्वनित होने लगती थी, तब बड़े-बड़े गर्वीले सिंह उसे दूसरे सिंह की ध्वनि समझकर सह न पाते और अपनी गर्जना से उसे दबा देने के लिये और जोर से गरजने लगते थे। उस पर्वत की तलहटी तरह-तरह के जंगली जानवरों के झुंडों से सुशोभित रहती थी। अनेकों प्रकार के वृक्षों से भरे हुए देवताओं के उद्यान में सुन्दर-सुन्दर पक्षी मधुर कण्ठ से चहकते रहते थे। उस पर बहुत-सी नदियाँ और सरोवर भी थे। उनका जल बड़ा निर्मल था। उनके पुलिन पर मणियों की बालू चमकती रहती रही थी। उनमें देवांगनाएँ स्नान करती थीं जिससे उनका जल अत्यन्त सुगन्धित हो जाता था। उसकी सुरभि लेकर भीनी-भीनी वायु चलती रहती थी।

पर्वतराज त्रिकूट की तराई में भगवत्प्रेमी महात्मा भगवान् वरुण का एक उद्यान था। उसका नाम था ऋतुमान्। उसमें देवांगनाएँ क्रीड़ा करती रहती थीं। उसमें सब ओर ऐसे दिव्य वृक्ष शोभायमान थे, जो फलों और फूलों से सर्वदा लदे ही रहते थे। उस उद्यान में मन्दार, पारिजात, गुलाब, अशोक, चम्पा, तरह-तरह के आम, प्रियाल, कटहल, आमड़ा, सुपारी, नारियल, खजूर, बिजौरा, महुआ, साखू, ताड़, तमाल, असन, अर्जुन, रीठा, गूलर, पाकर, बरगद, पलास, चन्दन, नीम, कचनार, साल, देवदारु, दाख, ईख, केला, जामुन, बेर, रुद्राक्ष, हर्रे, आँवला, बेल, कैथ, नीबू और भिलावे आदि के वृक्ष लहराते रहते थे। उस उद्यान में एक बड़ा सरोवर था। उसमें सुनहले कमल खिल रहे थे और भी विविध जाति के कुमुद, उत्पल, कल्हार, शतदल आदि कमलों की अनूठी छटा छिटक रही थी। मतवाले भौंरे गूँज रहे थे। मनोहर पक्षी कलरव कर रहे थे। हंस, कारण्डव, चक्रवाक और सारस दल-के-दल भरे हुए थे। पनडुब्बी, बतख और पपीहे कूज रहे थे। मछली और कछुओं के चलने से कमल के फूल हिल जाते थे, जिससे उनका पराग झड़कर जल को सुन्दर और सुगन्धित बना देता था। कदम्ब, बेंत, नरकुल, कदम्ब लता, बेन आदि वृक्षों से वह घिरा था। कुन्द, कुरबक (कटसरैया), अशोक, सिरस, वनमल्लिका, लिसौड़ा, हरसिंगार, सोनजूही, नाग, पुन्नाग, जाती, मल्लिका, शतपत्र, माधवी और मोगरा आदि सुन्दर-सुन्दर पुष्प वृक्ष एवं तट के दूसरे वृक्षों से भी-जो प्रत्येक ऋतु में हरे-भरे रहते थे-वह सरोवर शोभायमान रहता था।


(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 20-28 का हिन्दी अनुवाद)

उस पर्वत के घोर जंगल में बहुत-सी हथिनियों के साथ एक गजेन्द्र निवास करता था। वह बड़े-बड़े शक्तिशाली हाथियों का सरदार था। एक दिन वह उसी पर्वत पर अपनी हथिनियों के साथ काँटे वाले कीचक, बाँस, बेंत, बड़ी-बड़ी झाड़ियों और पेड़ों को रौंदता हुआ घूम रहा था। उसकी गन्धमात्र से सिंह, हाथी, बाघ, गैंडे आदि हिंस्र जन्तु, नाग तथा काले-गोर शरभ और चमरी गाय आदि डरकर भाग जाया करते थे और उसकी कृपा से भेड़िये, सूअर, भैंसे, रीछ, शल्य, लंगूर तथा कुत्ते, बंदर, हरिन और खरगोश आदि क्षुद्र जीव सब कहीं निर्भय विचरते रहते थे। उसके पीछे-पीछे हाथियों के छोटे-छोटे बच्चे दौड़ रहे थे। बड़े-बड़े हाथी और हथिनियाँ भी उसे घेरे हुए चल रही थीं। उसकी धमक से पहाड़ एकबारगी काँप उठता था। उसके गण्डस्थल से टपकते हुए मद का पान करने के लिये साथ-साथ भौंरे उड़ते जा रहे थे। मद के कारण उसके नेत्र विह्वल हो रहे थे। बड़े जोर की धूप थी, इसलिये वह व्याकुल हो गया और उसे तथा उसके साथियों को प्यास भी सताने लगी। उस समय दूर से ही कमल के पराग से सुवासित वायु की गन्ध सूँघकर वह उसी सरोवर की ओर चल पड़ा, जिसकी शीतलता और सुगन्ध लेकर वायु आ रही थी। थोड़ी ही देर में वेग से चलकर वह सरोवर के तट पर जा पहुँचा।

उस सरोवर का जल अत्यन्त निर्मल एवं अमृत के समान मधुर था। सुनहले और अरुण कमलों की केसर से वह महक रहा था। गजेन्द्र ने पहले तो उसमें घुसकर अपनी सूँड़ से उठा-उठा जी भरकर जल पिया, फिर उस जल में स्नान करके अपनी थकान मिटायी। गजेन्द्र गृहस्थ पुरुषों की भाँति मोहग्रस्त होकर अपनी सूँड़ से जल की फुहारें छोड़-छोड़कर साथ की हथिनियों और बच्चों को नहलाने लगा तथा उनके मुँह में सूँड़ डालकर जल पिलाने लगा। भगवान की माया से मोहित हुआ गजेन्द्र उन्मत्त हो रहा था। उस बेचारे को इस बात का पता ही न था कि मेरे सिर पर बहुत बड़ी विपत्ति मँडरा रही है।

परीक्षित! गजेन्द्र जिस समय इतना उन्मत्त हो रहा था, उसी समय प्रारब्ध की प्रेरणा से एक बलवान् ग्राह ने क्रोध में भरकर उसका पैर पकड़ लिया। इस प्रकार अकस्मात् विपत्ति में पड़कर उस बलवान् गजेन्द्र ने अपनी शक्ति के अनुसार अपने को छुड़ाने की बड़ी चेष्टा की, परन्तु छुड़ा न सका। दूसरे हाथी, हथिनियों और उनके बच्चों ने देखा कि उनके स्वामी को बलवान् ग्राह बड़े वेग से खींच रहा है और वे बहुत घबरा रहे हैं। उन्हें बड़ा दुःख हुआ। वे बड़ी विकलता से चिग्घाड़ने लगे। बहुतों ने उसे सहायता पहुँचाकर जल से बाहर निकाल लेना चाहा, परन्तु इसमें भी वे असमर्थ ही रहे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 29-33 का हिन्दी अनुवाद)

गजेन्द्र और ग्राह अपनी-अपनी पूरी शक्ति लगाकर भिड़े हुए थे। कभी गजेन्द्र ग्राह को बाहर खींच लाता तो कभी ग्राह गजेन्द्र को भीतर खींच ले जाता।

परीक्षित! इस प्रकार उनको लड़ते-लड़ते एक हजार वर्ष बीत गये और दोनों ही जीते रहे। यह घटना देखकर देवता भी आश्चर्यचकित हो गये।

अन्त में बहुत दिनों तक बार-बार जल में खींचे जाने से गजेन्द्र का शरीर शिथिल पड़ गया। न तो उसके शरीर में बल रह गया और न मन में उत्साह। शक्ति भी क्षीण हो गयी। इधर ग्राह तो जलचर ही ठहरा। इसलिये उसकी शक्ति क्षीण होने के स्थान पर बढ़ गयी, वह बड़े उत्साह से और भी बल लगाकर गजेन्द्र को खींचने लगा।

इस प्रकार देहाभिमानी गजेन्द्र अकस्मात् प्राण संकट में पड़ गया और अपने को छुड़ाने में सर्वथा असमर्थ हो गया। बहुत देर तक उसने अपने छुटकारे के उपाय पर विचार किया, अन्त में वह इस निश्चय पहुँचा- ‘यह ग्राह विधाता की फाँसी ही है। इसमें फँसकर मैं आतुर हो रहा हूँ। जब मुझे मेरे बराबर के हाथी भी इस विपत्ति से न उबार सके, तब ये बेचारी हथिनियाँ तो छुड़ा ही कैसे सकती हैं। इसलिये अब मैं सम्पूर्ण विश्व के एकमात्र आश्रय भगवान् की ही शरण लेता हूँ।

काल बड़ा बली है। यह साँप के समान बड़े प्रचण्ड वेग से सबको निगल जाने के लिये दौड़ता ही रहता है। इससे भयभीत होकर जो कोई भगवान् की शरण में चला जाता है, उसे वे प्रभु अवश्य-अवश्य बचा लेते हैं। उनके भय से भीत होकर मृत्यु भी अपना कम ठीक-ठीक पूरा करता है। वही प्रभु सबके आश्रय हैं। मैं उन्हीं की शरण ग्रहण करता हूँ’।

                           {अष्टम स्कन्ध:}

                      【तृतीय अध्याय:】३.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"गजेन्द्र के द्वारा भगवान की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! अपनी बुद्धि से ऐसा निश्चय करके गजेन्द्र ने अपने मन को हृदय में एकाग्र किया और फिर पूर्वजन्म में सीखे हुए श्रेष्ठ स्तोत्र के जप द्वारा भगवान की स्तुति करने लगा।

गजेन्द्र ने कहा ;- जो जगत के मूल कारण हैं और सबके हृदय में पुरुष के रूप में विराजमान हैं एवं समस्त जगत् के एकमात्र स्वामी हैं, जिनके कारण इस संसार में चेतना का विस्तार होता है-उन भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ, प्रेम से उनका ध्यान करता हूँ। यह संसार उन्हीं में स्थित है, उन्हीं की सत्ता से प्रतीत हो रहा है, वे ही इसमें व्याप्त हो रहे हैं और स्वयं वे ही इसके रूप में प्रकट हो रहे हैं। यह सब होने पर भी वे इस संसार और इसके कारण-प्रकृति से सर्वथा परे हैं। उन स्वयंप्रकाश, स्वयंसिद्ध सत्तात्मक भगवान की मैं शरण ग्रहण करता हूँ। यह विश्वप्रपंच उन्हीं की माया से उनमें अध्यस्त है। यह कभी प्रतीत होता है, तो कभी नहीं। परन्तु उनकी दृष्टि ज्यों-की-त्यों-एक-सी रहती है। वे इसके साक्षी हैं और उन दोनों को ही देखते रहते हैं। वे सबके मूल हैं और अपने मूल भी वही हैं। कोई दूसरा उनका कारण नहीं है। वे ही समस्त कार्य और कारणों से अतीत प्रभु मेरी रक्षा करें।

प्रलय के समय लोक, लोकपाल और इन सबके कारण सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं। उस समय केवल अत्यन्त घना और गहरा अन्धकार-ही-अन्धकार रहता है। परन्तु अनन्त परमात्मा उससे सर्वथा परे विराजमान रहते हैं। वे ही प्रभु मेरी रक्षा करें। उनकी लीलाओं का रहस्य जानना बहुत ही कठिन है। वे नट की भाँति अनेकों वेष धारण करते हैं। उनके वास्तविक स्वरूप को न तो देवता जानते हैं और न ऋषि ही; फिर दूसरा ऐसा कौन प्राणी है जो वहाँ तक जा सके और उसका वर्णन कर सके? वे प्रभु मेरी रक्षा करें। जिनके परममंगलमय स्वरूप का दर्शन करने के लिये महात्मागण संसार की समस्त आसक्तियों का परित्याग कर देते हैं और वन में जाकर अखण्ड भाव से ब्रह्मचर्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं तथा अपने आत्मा को सबके हृदय में विराजमान देखकर स्वाभाविक ही सबकी भलाई करते हैं-वे मुनियों के सर्वस्व भगवान मेरे सहायक हैं; वे ही मेरी गति हैं।

न उनके जन्म-कर्म हैं और न नाम-रूप; फिर उनके सम्बन्ध में गुण और दोष की तो कल्पना ही कैसे की जा सकती है? फिर भी विश्व की सृष्टि और संहार करने के लिये समय-समय पर वे उन्हें अपनी माया से स्वीकार करते हैं। उन्हीं अनन्त शक्तिमान सर्वैश्वर्यमय परब्रह्म परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। वे अरूप होने पर भी बहुरूप हैं। उनके कर्म अत्यन्त आश्चर्यमय हैं। मैं उनके चरणों में नमस्कार करता हूँ। स्वयंप्रकाश, सबके साक्षी परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। जो मन, वाणी और चित्त से अत्यन्त दूर हैं-उन परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ। विवेकी पुरुष कर्म-संन्यास अथवा कर्म-समर्पण के द्वारा अपना अन्तःकरण शुद्ध करके जिन्हें प्राप्त करते हैं तथा जो स्वयं तो नित्युमुक्त, परमानन्द एवं ज्ञानस्वरूप हैं ही, दूसरों को कैवल्य-मुक्ति देने की सामर्थ्य भी केवल उन्हीं में है-उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 12-21 का हिन्दी अनुवाद)

जो सत्त्व, रज, तम-इन तीन गुणों का धर्म स्वीकार करके क्रमशः शान्त, घोर और मूढ़ अवस्था भी धारण करते हैं, उन भेदरहित समभाव से स्थित एवं ज्ञानघन प्रभु को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। आप सबके स्वामी, समस्त क्षेत्रों के एकमात्र ज्ञाता एवं सर्वसाक्षी हैं, आपको मैं नमस्कार करता हूँ। आप स्वयं ही अपने कारण हैं। पुरुष और मूल प्रकृति के रूप में भी आप ही हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार। आप समस्त इन्द्रिय और उनके विषयों के द्रष्टा हैं, समस्त प्रतीतियों के आधार हैं। अहंकार आदि छायारूप असत् वस्तुओं के द्वारा आपका ही अस्तित्व प्रकट होता है। समस्त वस्तुओं की सत्ता के रूप में भी केवल आप ही भास रहे हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

आप सबके मूल कारण हैं, आपका कोई कारण नहीं है तथा कारण होने पर भी आप में विकार या परिणाम नहीं होता, इसलिये आप अनोखे कारण हैं। आपको मेरा बार-बार नमस्कार। जैसे समस्त नदी-झरने आदि का परम आश्रय समुद्र है, वैसे ही आप समस्त वेद और शास्त्रों के परम तात्पर्य हैं। आप मोक्षस्वरूप हैं और समस्त संत आपकी ही शरण ग्रहण करते हैं; अतः आपको मैं नमस्कार करता हूँ। जैसे यज्ञ के काष्ठ अरणि में अग्नि गुप्त रहती है, वैसे ही आपने अपने ज्ञान को गुणों की माया से ढक रखा है। गुणों में क्षोभ होने पर उनके द्वारा विविध प्रकार की सृष्टि रचना का आप संकल्प करते हैं। जो लोग कर्म-संन्यास अथवा कर्म-समर्पण के द्वारा आत्मतत्त्व की भावना करके वेद-शास्त्रों से ऊपर उठ जाते हैं, उनके आत्मा के रूप में आप स्वयं प्रकाशित हो जाते हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ।

जैसे कोई दयालु पुरुष फंदे में पड़े हुए पशु का बन्धन काट दे, वैसे ही आप मेरे-जैसे शरणागतों की फाँसी काट देते हैं। आप नित्यमुक्त हैं, परमा कल्याणमय हैं और भक्तों का कल्याण करने में आप कबी आलस्य नहीं करते। आपके चरणों में मेरा नमस्कार है। समस्त प्राणियों के हृदय में अपने अंश के द्वारा अन्तरात्मा के रूप में आप उपलब्ध होते रहते हैं। आप सर्वेश्वर्यपूर्ण एवं अनन्त हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ। जो लोग शरीर, पुत्र, गुरुजन, गृह, सम्पत्ति और स्वजनों में आसक्त हैं-उन्हें आपकी प्राप्ति अत्यन्त कठिन हैं। क्योंकि आप स्वयं गुणों की आसक्ति से रहित हैं। जीवन्मुक्त पुरुष अपने हृदय में आपका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं। उन सर्वेश्वरपूर्ण ज्ञानस्वरूप भगवान् को मैं नमस्कार करता हूँ। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कामना से मनुष्य उन्हीं का भजन करके अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेते हैं। इतना ही नहीं, वे उनको सभी प्रकार का सुख देते हैं और अपने ही जैसा अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं। वे ही परमदयालु प्रभु मेरा उद्धार करें।

जिनके अनन्य प्रेमी भक्तजन उन्हीं की शरण में रहते हुए उनसे किसी भी वस्तु की-यहाँ तक की मोक्ष की भी अभिलाषा नहीं करते, केवल उनकी परमदिव्य मंगलमयी लीलाओं का गान करते हुए आनन्दसमुद्र में निमग्न रहते हैं। जो अविनाशी, सर्वशक्तिमान्, अव्यक्त, इन्द्रियातीत और अत्यन्त सूक्ष्म हैं; जो अत्यन्त निकट रहने पर भी बहुत दूर जान पड़ते हैं; जो आध्यात्मिक योग अर्थात् ज्ञानयोग और भक्तियोग के द्वारा प्राप्त होते हैं-उन्हीं आदिपुरुष, अनन्त एवं परिपूर्ण परब्रह्म परमात्मा की मैं स्तुति करता हूँ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 22-33 का हिन्दी अनुवाद)

जिनकी अत्यन्त छोटी कला से अनेकों नाम-रूप भेद-भाव से युक्त ब्रह्मा आदि देवता, वेद और चराचर लोकों की सृष्टि हुई है, जैसे धधकती हुई आग से लपटें और प्रकाशमान सूर्य से उनकी किरणें बार-बार निकलती और लीन होती रहती हैं, वैसे ही जिन स्वयंप्रकाश परमात्मा से बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शरीर-जो गुणों के प्रवाहरूप हैं-बार-बार प्रकट होते तथा लीन हो जाते हैं, वे भगवान् न देवता हैं और न असुर। वे मनुष्य और पशु-पक्षी भी नहीं हैं। न वे स्त्री हैं, न पुरुष और न नपुंसक। वे कोई साधारण या असाधारण प्राणी भी नहीं हैं। न वे गुण हैं और न कर्म, न कार्य हैं और न तो कारण ही। सबका निषेध हो जाने पर जो कुछ बचा रहता है, वही उनका स्वरूप है तथा वे ही सब कुछ हैं। वे ही परमात्मा मेरे उद्धार के लिये प्रकट हों।

मैं जीना नहीं चाहता। यह हाथी की योनि बाहर और भीतर-सब ओर से अज्ञानरूप आवरण के द्वारा ढकी हुई है, इसको रखकर करना ही क्या है? मैं तो आत्मप्रकाश को ढकने वाले उस अज्ञानरूप आवरण से छूटना चाहता हूँ, जो कालक्रम से अपने-आप नहीं छूट सकता, जो केवल भगवत्कृपा अथवा तत्त्वज्ञान के द्वारा ही नष्ट होता है। इसलिये मैं उन परब्रह्म परमात्मा की शरण में हूँ जो विश्वरहित होने पर भी विश्व के रचयिता और विश्वस्वरूप हैं-साथ ही जो विश्व की अन्तरात्मा के रूप में विश्वरूप सामग्री से क्रीड़ा करते रहते हैं, उन अजन्मा परमपदस्वरूप ब्रह्म को मैं नमस्कार करता हूँ।

योगी लोग योग के द्वारा कर्म, कर्मवासना और कर्मफल को भस्म करके अपने योगशुद्ध हृदय में जिन योगेश्वर भगवान् का साक्षात्कार करते हैं-उन प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ।

प्रभो! आपकी तीन शक्तियों-सत्त्व, रज और तम के रागादि वेग असह्य हैं। समस्त इन्द्रियों और मन के विषयों के रूप में भी आप ही प्रतीत हो रहे हैं। इसलिये जिनकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, वे तो आपकी प्रप्ति का मार्ग भी नहीं पा सकते। आपकी शक्ति अनन्त है। आप शरणागतवत्सल हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। आपकी माया अहं बुद्धि से आत्मा का स्वरूप ढक गया है, इसी से यह जीव अपने स्वरूप को नहीं जान पाता। आपकी महिमा अपार है। उन सर्वशक्तिमान् एवं माधुर्यनिधि भगवान् की मैं शरण में हूँ।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! गजेन्द्र ने बिना किसी भेदभाव के निर्विशेष रूप से भगवान् की स्तुति की थी, इसलिये भिन्न-भिन्न नाम और रूप को अपना स्वरूप मानने वाले ब्रह्मा आदि देवता उसकी रक्षा करने के लिये नहीं आये। उस समय सर्वात्मा होने के कारण सर्वदेवस्वरूप स्वयं भगवान् श्रीहरि प्रकट हो गये। विश्व के एकमात्र आधार भगवान् ने देखा कि गजेन्द्र अत्यन्त पीड़ित हो रहा है। अतः उसकी स्तुति सुनकर वेदमय गरुड़ पर सवार हो चक्रधारी भगवान् बड़ी शीघ्रता से वहाँ के लिये चल पड़े, जहाँ गजेन्द्र अत्यन्त संकट में पड़ा हुआ था। उनके साथ स्तुति करते हुए देवता भी आये।

सरोवर के भीतर बलवान् ग्राह ने गजेन्द्र को पकड़ रखा था और वह अत्यन्त व्याकुल हो रहा था। जब उसने देखा कि आकाश में गरुड़ पर सवार होकर हाथ में चक्र लिये भगवान् श्रीहरि आ रहे हैं, तब अपनी सूँड़ में कमल का एक सुन्दर पुष्प लेकर उसने ऊपर को उठाया और बड़े कष्ट से बोला- ‘नारायण! जगद्गुरो! भगवन्! आपको नमस्कार है’। जब भगवान् ने देखा कि गजेन्द्र अत्यन्त पीड़ित हो रहा है, तब वे एकबारगी गरुड़ को छोड़कर कूद पड़े और कृपा करके गजेन्द्र के साथ ही ग्राह को भी बड़ी शीघ्रता से सरोवर से बाहर निकाल लाये। फिर सब देवताओं के सामने ही भगवान् श्रीहरि ने चक्र से ग्राह का मुँह फाड़ डाला और गजेन्द्र को छुड़ा लिया।

                           {अष्टम स्कन्ध:}

                      【चतुर्थ अध्याय:】४.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"गज और ग्राह का पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! उस समय ब्रह्मा, शंकर आदि देवता, ऋषि और गन्धर्व श्रीहरि भगवान के इस कर्म की प्रशंसा करने लगे तथा उनके ऊपर फूलों की वर्षा करने लगे। स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बजने लगीं, गन्धर्व नाचने-गाने लगे, ऋषि, चारण और सिद्धगण भगवान पुरुषोत्तम की स्तुति करने लगे।

इधर वह ग्राह तुरंत ही परमआश्चर्य दिव्य शरीर से सम्पन्न हो गया। यह ग्राह इसके पहले ‘हूहू’ नाम का एक श्रेष्ठ गन्धर्व था। देवल के शाप से उसे यह गति प्राप्त हुई थी। अब भगवान की कृपा से वह मुक्त हो गया। उसने सर्वेश्वर भगवान के श्रीचरणों में सिर रखकर प्रणाम किया, इसके बाद वह भगवान के सुयश का गान करने लगा। वास्तव में अविनाशी भगवान ही सर्वश्रेष्ठ कीर्ति से सम्पन्न हैं। उन्हीं के गुण और मनोहर लीलाएँ गान करने योग्य हैं। भगवान के कृपापूर्ण स्पर्श से उसके सारे पाप-ताप नष्ट हो गये। उसने भगवान की परिक्रमा करके उनके चरणों में प्रणाम किया और सबके देखते-देखते अपने लोक की यात्रा की।

गजेन्द्र भी भगवान का स्पर्श होते ही अज्ञान से मुक्त हो गया। उसे भगवान का ही रूप प्राप्त हो गया। वह पीताम्बरधारी एवं चतुर्भुज बन गया। गजेन्द्र पूर्वजन्म में द्रविड देश का पाण्ड्वंशी राजा था। उसका नाम था इन्द्रद्युम्न। वह भगवान का एक श्रेष्ठ उपासक एवं अत्यन्त यशस्वी था। एक बार राजा इन्द्रद्युम्न राजपाट छोड़कर मलय पर्वत पर रहने लगे थे। उन्होंने जटाएँ बढ़ा लीं, तपस्वी का वेष धारण कर लिया। एक दिन स्नान के बाद पूजा के समय मन को एकाग्र करके एवं मौनव्रती होकर सर्वशक्तिमान् भगवान की आरधना कर रहे थे। उसी समय दैवयोग से परमयशस्वी अगस्त्य मुनि अपनी शिष्य मण्डली के साथ वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने देखा कि यह प्रजापालन और गृहस्थोचित अतिथि सेवा आदि धर्म का परित्याग करके तपस्वियों की तरह एकान्त में चुपचाप बैठकर उपासना कर रहा है, इसलिये वे राजा इन्द्रद्युम्न पर क्रुद्ध हो गये। उन्होंने राजा को यह शाप दिया- ‘इस राजा ने गुरुजनों से शिक्षा नहीं ग्रहण की है, अभिमानवश परोपकार से निवृत्त होकर मनमानी कर रहा है। ब्राह्मणों का अपमान करने वाला यह हाथी के समान जड़बुद्धि है, इसलिये इसे वही घोर अज्ञानमयी हाथी की योनि प्राप्त हो’।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! शाप एवं वरदान देने में समर्थ अगस्त्य ऋषि इस प्रकार शाप देकर अपनी शिष्य मण्डली के साथ वहाँ से चले गये। राजर्षि इन्द्रद्युम्न ने यह समझकर सन्तोष किया कि वह मेरा प्रारब्ध ही था। इसके बाद आत्मा की विस्मृति करा देने वाली हाथी की योनि उन्हें प्राप्त हुई। परन्तु भगवान की आराधना का ऐसा प्रभाव है कि हाथी होने पर भी उन्हें भगवान की स्मृति हो ही गयी।

भगवान श्रीहरि ने इस प्रकार गजेन्द्र का उद्धार करके उसे अपना पार्षद बना लिया। गन्धर्व, सिद्ध, देवता उनकी इस लीला का गान करने लगे और वे पार्षदरूप गजेन्द्र को साथ ले गरुड़ पर सवार होकर अपने अलौकिक धाम को चले गये।

कुरुवंश शिरोमणि परीक्षित! मैंने भगवान श्रीकृष्ण की महिमा तथा गजेन्द्र के उद्धार की कथा तुम्हें सुना दी। यह प्रसंग सुनने वालों के कलिमल और दुःस्वप्न को मिटाने वाला एवं यश, उन्नति और स्वर्ग देने वाला है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 15-26 का हिन्दी अनुवाद)

इसी से कल्याणकामी द्विजगण दुःस्वप्न आदि की शान्ति के लिये प्रातःकाल जागते ही पवित्र होकर इसका पाठ करते हैं।

परीक्षित! गजेन्द्र की स्तुति से प्रसन्न होकर सर्वव्यापक एवं सर्वभूतस्वरूप श्रीहरि भगवान् ने सब लोगों के सामने ही उसे यह बात कही थी।

श्रीभगवान् ने कहा ;- जो लोग रात के पिछले पहर में उठकर इन्द्रियनिग्रहपूर्वक एकाग्र चित्त से मेरा, तेरा तथा इस सरोवर, पर्वत एवं कन्दरा, वन, बेंत, कीचक और बाँस एक झुरमुट, यहाँ के दिव्य वृक्ष तथा पर्वतशिख, मेरे, ब्रह्मा जी और शिव जी के निवासस्थान, मेरे प्यारे धाम क्षीरसागर, प्रकाशमय श्वेतद्वीप, श्रीवत्स, कौस्तुभ मणि, वनमाला, मेरी कौमोदकी गदा, सुदर्शन चक्र, पांचजन्य शंख, पक्षिराज गरुड़, मेरे सूक्ष्म कलास्वरूप शेष जी, मेरे आश्रय में रहने वाली लक्ष्मी जी, ब्रह्मा जी, देवर्षि नारद, शंकर जी तथा भक्तराज प्रह्लाद, मत्स्य, कच्छप, वराह आदि अवतारों में किये हुए मेरे अनन्त पुण्यमय चरित्र, सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, ॐकार, सत्य, मूलप्रकृति, गौ, ब्राह्मण, अविनाशी सनातन धर्म, सोम, कश्यप और धर्म की पत्नी दक्षकन्याएँ, गंगा, सरस्वती, अलकनन्दा, यमुना, ऐरावत हाथी, भक्तशिरोमणि ध्रुव, सात ब्रह्मर्षि और पवित्र कीर्ति (नल, युधिष्ठिर, जनक आदि) महापुरुषों का स्मरण करते हैं-वे समस्त पापों से छूट जाते हैं; क्योंकि ये सब-के-सब मेरे ही रूप हैं।

प्यारे गजेन्द्र! जो लोग ब्रह्ममुहूर्त में जगकर तुम्हारी की हुई स्तुति से मेरा स्तवन करेंगे, मृत्यु के समय उन्हें मैं निर्मल बुद्धि का दान करूँगा।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान् श्रीकृष्ण ने ऐसा कहकर देवताओं को आनन्दित करते हुए अपना श्रेष्ठ शंख बजाया और गरुड़ पर सवार हो गये।


                           {अष्टम स्कन्ध:}

                      【पञ्चम अध्याय:】५.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"देवताओं का ब्रह्मा जी के पास जाना और ब्रह्माकृत भगवान् की स्तुति"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! भगवान् की यह गजेन्द्र मोक्ष की पवित्र लीला समस्त पापों का नाश करने वाली है। इसे मैंने तुम्हें सुना दिया। अब रैवत मन्वन्तर की कथा सुनो।

पाँचवें मनु का नाम था रैवत। वे चौथे मनु तामस के सगे भाई थे। उनके अर्जुन, बलि, विन्ध्य आदि कई पुत्र थे। उस मन्वन्तर में इन्द्र का नाम था विभु और भूतरय आदि देवताओं के प्रधान गण थे। परीक्षित! उस समय हिरण्यरोमा, वेदशिरा, ऊर्ध्वबाहु आदि सप्तर्षि थे। उनमें शुभ्र ऋषि की पत्नी का नाम था विकुण्ठा। उन्हीं के गर्भ से वैकुण्ठ नामक श्रेष्ठ देवताओं के साथ अपने अंश से स्वयं भगवान् ने वैकुण्ठ नामक अवतार धारण किया। उन्हीं ने लक्ष्मी देवी की प्रार्थना से उनको प्रसन्न करने के लिये वैकुण्ठधाम की रचना की थी। वह लोक समस्त लोकों में श्रेष्ठ है। उन वैकुण्ठनाथ के कल्याणमय गुण और प्रभाव का वर्णन मैं संक्षेप से (तीसरे स्कन्ध में) कर चुका हूँ।

भगवान् विष्णु के सम्पूर्ण गुणों का वर्णन तो वह करे, जिसने पृथ्वी के परमाणुओं की गिनती कर ली हो। छठे मनु चक्षु के पुत्र चाक्षुष थे। उनके पूरु, पुरुस, सुद्युम्न आदि कई पुत्र थे। इन्द्र का नाम था मन्त्रद्रुम और प्रधान देवगण थे आप्य आदि। उन मन्वन्तर में हविष्यामान् और वीरक आदि सप्तर्षि थे। जगत्पति भगवान् ने उस समय भी वैराज की पत्नी सम्भूति के गर्भ से अजित नाम का अंशावतार ग्रहण किया था। उन्होंने ही समुद्र मन्थन करके देवताओं को अमृत पिलाया था, तथा वे ही कच्छप रूप धारण करके मन्दराचल की मथानी के आधार बने थे।

राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! भगवान् ने क्षीरसागर का मन्थन कैसे किया? उन्होंने कच्छप रूप धारण करके किस कारण और किस उद्देश्य से मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया? देवताओं को उस समय अमृत कैसे मिला? और भी कौन-कौन-सी वस्तुएँ समुद्र से निकलीं? भगवान् की यह लीला बड़ी ही अद्भुत है, आप कृपा करके अवश्य सुनाइये। आप भक्तवत्सल भगवान् की महिमा का ज्यों-ज्यों वर्णन करते हैं, त्यों-ही-त्यों मेरा हृदय उसको और भी सुनने के लिये उत्सुक होता जा रहा है। अघाने का तो नाम ही नहीं लेता। क्यों न हो, बहुत दिनों से यह संसार की ज्वालाओं से जलता जो रहा है।

सूत जी ने कहा ;- शौनकादि ऋषियों! भगवान् श्रीशुकदेव जी ने राजा परीक्षित के इस प्रश्न का अभिनन्दन करते हुए भगवान् की समुद्र-मन्थन-लीला का वर्णन आरम्भ किया।

श्री शुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जिस समय की यह बात है, उस समय असुरों ने अपने तीखे शस्त्रों से देवताओं को पराजित कर दिया था। उस युद्ध में बहुतों के तो प्राणों पर ही बन आयी, वे रणभूमि में गिरकर फिर उठ न सके। दुर्वासा के शाप से[1] तीनों लोक और स्वयं इन्द्र भी श्रीहीन हो गये थे। यहाँ तक कि यज्ञ-यागादि धर्म-कर्मों का भी लोप हो गया था।

यह सब दुर्दशा देखकर इन्द्र, वरुण आदि देवताओं ने आपस में बहुत कुछ सोचा-विचारा; परन्तु अपने विचारों से वे किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सके। तब वे सब-के-सब सुमेरु के शिखर पर स्थित ब्रह्मा जी की सभा में गये और वहाँ उन लोगों ने बड़ी नम्रता से ब्रह्मा जी की सेवा में अपनी परिस्थिति का विस्तृत विवरण उपस्थित किया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 19-29 का हिन्दी अनुवाद)

ब्रह्मा जी ने स्वयं देखा कि इन्द्र, वायु आदि देवता श्रीहीन एवं शक्तिहीन हो गये हैं। लोगों की परिस्थिति बड़ी विकट, संकटग्रस्त हो गयी है और असुर इनके विपरीत फल-फूल रहे हैं। समर्थ ब्रह्मा जी ने अपना मन एकाग्र करके परमपुरुष भगवान् का स्मरण किया; फिर थोड़ी देर रुककर प्रफुल्लित मुख से देवताओं को सम्बोधित करते हुए कहा- ‘देवताओं! मैं, शंकर जी, तुम लोग तथा असुर, दैत्य, मनुष्य, पशु-पक्षी, वृक्ष और स्वेदज आदि समस्त प्राणी जिनके विराट् रूप के एक अत्यन्त स्वल्पातिस्वल्प अंश से रचे गये हैं-हम लोग उन अविनाशी प्रभु की ही शरण ग्रहण करें। यद्यपि उनकी दृष्टि में न कोई वध का पात्र है और न रक्षा का, उनके लिये न तो कोई उपेक्षणीय है न कोई आदर का पात्र ही-फिर भी सृष्टि, स्थिति और प्रलय के लिये समय-समय पर वे रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण को स्वीकार किया करते हैं। उन्होंने इस समय प्राणियों के कल्याण के लिये सत्त्वगुण को स्वीकार कर रखा है। इसलिये यह जगत् की स्थिति और रक्षा का अवसर है। अतः हम सब उन्हीं जगद्गुरु परमात्मा की शरण ग्रहण करते हैं। वे देवताओं के प्रिय हैं और देवता उनके प्रिय। इसलिये हम निजजनों का वे अवश्य ही कल्याण करेंगे।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! देवताओं से यह कहकर ब्रह्मा जी देवताओं को साथ लेकर भगवान् अजित के निजधाम वैकुण्ठ में गये। वह धाम तमोमयी प्रकृति से परे है। इन लोगों ने भगवान् के स्वरूप और धाम के सम्बन्ध में पहले से ही बहुत कुछ सुन रखा था, परन्तु वहाँ जाने पर लोगों को कुछ दिखायी न पड़ा। इसलिये ब्रह्मा जी एकाग्र मन से वेदवाणी के द्वारा भगवान् की स्तुति करने लगे।

ब्रह्मा जी बोले ;- भगवन्! आप निर्विकार, सत्य, अनन्त, आदिपुरुष, सबके हृदय में अन्तर्यामीरूप से विराजमान, अखण्ड एवं अतर्क्य हैं। मन जहाँ-जहाँ जाता है, वहाँ-वहाँ आप पहले ही विद्यमान रहते हैं। वाणी आपका निरूपण नहीं कर सकती। आप समस्त देवताओं के आराधनीय और स्वयं प्रकाश हैं। हम सब आपके चरणों में नमस्कार करते हैं। आप प्राण, मन, बुद्धि और अहंकार के ज्ञाता हैं। इन्द्रियाँ और उनके विषय दोनों ही आपके द्वारा प्रकाशित होते हैं। अज्ञान आपका स्पर्श नहीं कर सकता। प्रकृति के विकार मरने-जीने वाले शरीर से भी आप रहित हैं। जीव के दोनों पक्ष-अविद्या और विद्या आप में बिलकुल ही नहीं हैं। आप अविनाशी और सुख स्वरूप हैं। सत्ययुग, त्रेता और द्वापर में तो आप प्रकट रूप से ही विराजमान रहते हैं। हम सब आपकी शरण ग्रहण करते हैं।

यह शरीर जीव का एक मनोमय चक्र (रथ का पहिया) है। दस इन्द्रिय और पाँच प्राण-ये पंद्रह इसके अरे हैं। सत्त्व, रज और तम-ये तीन गुण इसकी नाभि हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार-ये आठ इसमें नेमि (पहिये का घेरा) हैं। स्वयं माया इसका संचालन करती है और यह बिजली से भी अधिक शीग्रगामी है। इस चक्र के धुरे हैं स्वयं परमात्मा। वे ही एकमात्र सत्य हैं। हम उनकी शरण में हैं। जो एकमात्र ज्ञानस्वरूप, प्रकृति से परे एवं अदृश्य हैं; जो समस्त वस्तुओं के मूल में स्थित अव्यक्त हैं और देश, काल अथवा वस्तु से जिनका पार नहीं पाया जा सकता-वही प्रभु इस जीव के हृदय में अन्तर्यामीरूप से विराजमान रहते हैं। विचारशील मनुष्य भक्तियोग के द्वारा उन्हीं की आराधना करते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 30-38 का हिन्दी अनुवाद)

जिस माया से मोहित होकर जीव अपने वास्तविक लक्ष्य अथवा स्वरूप को भूल गया है, वह उन्हीं की है और कोई भी उसका पार नहीं पा सकता। परन्तु सर्वशक्तिमान् प्रभु अपनी उस माया तथा उसके गुणों को अपने वश में करके समस्त प्राणियों के हृदय में समभाव से विचरण करते रहते हैं। जीव अपने पुरुषार्थ से नहीं, उनकी कृपा से ही–उन्हें प्राप्त कर सकता है। हम उनके चरणों में नमस्कार करते हैं।

यों तो हम देवता और ऋषिगण भी उनके परमप्रिय सत्त्वमय शरीर से ही उत्पन्न हुए हैं, फिर भी उनके बाहर-भीतर एकरस प्रकट वास्तविक स्वरूप को नहीं जानते। तब रजोगुण एवं तमोगुण प्रधान असुर आदि तो उन्हें जान ही कैसे सकते हैं? उन्हीं प्रभु के चरणों में हम नमस्कार करते हैं। उन्हीं की बनायीं हुई यह पृथ्वी उनका चरण है। इसी पृथ्वी पर जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्ज-ये चार प्रकार के प्राणी रहते हैं। वे परम स्वतन्त्र, परम ऐश्वर्यशाली पुरुषोत्तम परब्रह्म हम पर प्रसन्न हों। यह परम शक्तिशाली जल उन्हीं का वीर्य है। इसी से तीनों लोक और समस्त लोकों के लोकपाल उत्पन्न होते, बढ़ते और जीवित रहते हैं। वे परम ऐश्वर्यशाली परब्रह्म हम पर प्रसन्न हों।

श्रुतियाँ कहती हैं कि चन्द्रमा उस प्रभु का मन है। यह चन्द्रमा समस्त देवताओं का अन्न, बल एवं आयु है। वही वृक्षों का सम्राट् एवं प्रजा की वृद्धि करने वाला है। ऐसे मन को स्वीकार करने वाले परम ऐश्वर्यशाली प्रभु हम पर प्रसन्न हों। अग्नि प्रभु का मुख है। इसकी उत्पत्ति ही इसलिये हुई है कि वेद के यज्ञ-यागादि कर्मकाण्ड पूर्ण रूप से सम्पन्न हो सकें। यह अग्नि ही शरीर के भीतर जठराग्नि रूप से और समुद्र के भीतर बड़वानल के रूप से रहकर उनमें रहने वाले अन्न, जल आदि धातुओं का पाचन करता रहता है और समस्त द्रव्यों की उत्पत्ति भी उसी से हुई है। ऐसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों। जिनके द्वारा जीव देवयान मार्ग से ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है, जो वेदों की साक्षात् मूर्ति और भगवान् के ध्यान करने योग्य धाम हैं, जो पुण्यलोकस्वरूप होने के कारण मुक्ति के द्वार एवं अमृतमय हैं और कालरूप होने के कारण मृत्यु भी हैं-ऐसे सूर्य जिनके नेत्र हैं, वे परम ऐशवर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

प्रभु के प्राण ही चराचर का प्राण तथा उन्हें मानसिक, शारीरिक और इन्द्रिय सम्बन्धी बल देने वाला वायु प्रकट हुआ है। वह चक्रवर्ती सम्राट् है, तो इन्द्रियों के अधिष्ठातृ-देवता हम सब उसके अनुचर। ऐसे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों। जिनके कानों से दिशाएँ, हृदय से इन्द्रियगोलक और नाभि से वह आकाश उत्पन्न हुआ है, जो पाँचों प्राण (प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान), दसों इन्द्रिय, मन, पाँचों असु (नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय) एवं शरीर का आश्रय है-वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 39-50 का हिन्दी अनुवाद)

जिनके बल से इन्द्र, प्रसन्नता से समस्त देवगण, क्रोध से शंकर, बुद्धि से ब्रह्मा, इन्द्रियों से वेद और ऋषि तथा लिंग से प्रजापति उत्पन्न हुए हैं-वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

जिनके वक्षःस्थल से लक्ष्मी, छाया से पितृगण, स्तन से धर्म, पीठ से अधर्म, सिर से आकाश और विहार से अप्सराएँ प्रकट हुई हैं, वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

जिनके मुख से ब्राह्मण और अत्यन्त रहस्यमय वेद, भुजाओं से क्षत्रिय और बल, जंघाओं से वैश्य और उनकी वृत्ति-व्यापार कुशलता तथा चरणों से वेदबाह्य शूद्र और उनकी सेवा आदि वृत्ति प्रकट हुई-वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

जिनके अधर से लोभ और ओष्ठ से प्रीति, नासिका से कान्ति, स्पर्श से पशुओं का प्रिय काम, भौंहों से यम और नेत्र के रोमों से काल की उत्पत्ति हुई है-वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

पंचभूत, काल, कर्म, सत्त्वादि गुण और जो कुछ विवेकी पुरुषों के द्वारा बाधित किये जाने योग्य निर्वचनीय या अनिर्वचनीय विशेष पदार्थ हैं, वे सब-के-सब भगवान् की योगमाया से ही बने हैं-ऐसा शास्त्र कहते हैं। वे परम ऐश्वर्यशाली भगवान् हम पर प्रसन्न हों।

जो मायानिर्मित गुणों में दर्शनादि वृत्तियों के द्वारा आसक्त नहीं होते, जो वायु के समान सदा-सर्वदा असंग रहते हैं, जिनमें समस्त शक्तियाँ शान्त हो गयी हैं-उन अपने आत्मानन्द के लाभ से परिपूर्ण आत्मस्वरूप भगवान् को हमारे नमस्कार हैं।

प्रभो! हम आपके शरणागत हैं और चाहते हैं कि मन्द-मन्द मुस्कान से युक्त आपका मुखकमल अपने इन्हीं नेत्रों से देखें। आप कृपा करके हमें उसका दर्शन कराइये। प्रभो! आप समय-समय पर स्वयं ही अपनी इच्छा से अनेकों रूप धारण करते हैं और जो काम हमारे लिये अत्यन्त कठिन होता है, उसे आप सहज में कर देते हैं। आप सर्वशक्तिमान् हैं, आपके लिये इसमें कौन-सी कठिनाई है। विषयों के लोभ में पड़कर जो देहाभिमानी दुःख भोग रहे हैं, उन्हें कर्म करने में परिश्रम और क्लेश तो बहुत अधिक होता है; परन्तु फल बहुत कम निकलता है। अधिकांश में तो उनके विफलता ही हाथ लगती है। परन्तु जो कर्म आपको समर्पित किये जाते हैं, उनके करने के समय ही परम सुख मिलता है। वे स्वयं फल रूप ही हैं।

भगवान् को समर्पित किया हुआ छोटे-से-छोटा कर्माभास भी कभी विफल नहीं होता। क्योंकि भगवान् जीव के परम हितैषी, परम प्रियतम और आत्मा ही हैं। जैसे वृक्ष की जड़ को पानी से सींचना उसकी बड़ी-बड़ी शाखाओं और छोटी-छोटी डालियों को भी सींचना है, वैसे ही सर्वात्मा भगवान् की आरधना प्राणियों की और अपनी भी आराधना है। जो तीनों काल और उससे परे भी एकरस स्थित हैं, जिनकी लीलाओं का रहस्य तर्क-वितर्क के परे हैं, जो स्वयं गुणों से परे रहकर भी सब गुणों के स्वामी हैं तथा इस समय सत्त्वगुण में स्थित हैं-ऐसे आपको हम बार-बार नमस्कार करते हैं।

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