सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( अष्टम स्कन्धः ) का ग्यारवाँ , बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँँ व पंद्रहवाँ अध्याय [ The Eleven, twelve, thirteenth, fourteenth and fifteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Eighth wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( अष्टम स्कन्धः ) का ग्यारवाँ , बारहवाँ, तेरहवाँ, चौदहवाँँ व पंद्रहवाँ अध्याय [ The Eleven, twelve, thirteenth, fourteenth and fifteenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Eighth wing) ]



                           {अष्टम स्कन्ध:}

                      【एकादश अध्याय:】११.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"देवासुर-संग्राम की समाप्ति"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! परम पुरुष भगवान् की अहैतुकी कृपा से देवताओं की घबराहट जाती रही, उनमें नवीन उत्साह का संचार हो गया। पहले इन्द्र, वायु और देवगण रणभूमि में जिन-जिन दैत्यों से आहत हुए थे, उन्हीं के ऊपर अब वे पूरी शक्ति से प्रहार करने लगे। परम ऐश्वर्यशाली इन्द्र ने बलि से लड़ते-लड़ते जब उन पर क्रोध करके वज्र उठाया तब सारी प्रजा में हाहाकार मच गया। बलि अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर बड़े उत्साह से युद्ध भूमि में बड़ी निर्भयता से डटकर विचर रहे थे। उनको अपने सामने ही देखकर हाथ में वज्र लिये हुए इन्द्र ने उनका तिरस्कार करके कहा- ‘मूर्ख! जैसे नट बच्चों की आँखें बाँधकर अपने जादू से उनका धन ऐंठ लेता है, वैसे ही तू माया की चालों से हम पर विजय प्राप्त करना चाहता है। तुझे पता नहीं कि हम लोग माया के स्वामी हैं, वह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। जो मूर्ख माया के द्वारा स्वर्ग पर अधिकार करना चाहते हैं और उसको लाँघकर ऊपर के लोकों में भी धाक जमाना चाहते हैं-उन लुटेरे मूर्खों को मैं उनके पहले स्थान से भी नीचे पटक देता हूँ। नासमझ! तूने माया की बड़ी-बड़ी चालें चली है। देख, आज मैं अपने सौ धार वाले वज्र से तेरा सिर धड़ से अलग किये देता हूँ। तू अपने भाई-बन्धुओं के साथ जो कुछ कर सकता हो, करके देख ले’।

बलि ने कहा ;- इन्द्र! जो लोग काल शक्ति की प्रेरणा से अपने कर्म के अनुसार युद्ध करते हैं-उन्हें जीत या हार, यश या अपयश अथवा मृत्यु मिलती ही है। इसी से ज्ञानीजन इस जगत् को काल के अधीन समझकर न तो विजय होने पर हर्ष से फूल उठते हैं और न तो अपकीर्ति, हार अथवा म्रत्यु से शोक के ही वशीभूत होते हैं। तुम लोग इस तत्त्व से अनभिज्ञ हो। तुम लोग अपने को जय-पराजय आदि का कारण-कर्ता मानते हो, इसलिये महात्माओं की दृष्टि से तुम शोचनीय हो। हम तुम्हारे मर्मस्पर्शी वचन को स्वीकार ही नहीं करते, फिर हमें दुःख क्यों होने लगा?
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- वीर बलि ने इन्द्र को इस प्रकार फटकारा। बलि की फटकार से इन्द्र कुछ झेंप गये। तब तक वीरों का मान-मर्दन करने वाले बलि ने अपने धनुष को कान तक खींच-खींचकर बहुत-से बाण मारे। सत्यवादी देवशत्रु बलि ने इस प्रकार इन्द्र का अत्यन्त तिरस्कार किया। अब तो इन्द्र अंकुश से मारे हुए हाथी की तरह और भी चिढ़ गये। बलि का आपेक्ष वे सहन न कर सके। शत्रुघाती इन्द्र ने बलि पर अपने अमोघ वज्र का प्रहार किया। उसकी चोट से बलि पंख कटे हुए पर्वत के समान अपने विमान के साथ पृथ्वी पर गिर पड़े।

बलि का एक बड़ा हितैषी और घनिष्ठ मित्र जम्भासुर था। अपने मित्र के गिर जाने पर भी उनको मारने का बदला लेने के लिये वह इन्द्र के सामने आ खड़ा हुआ। सिंह पर चढ़कर वह इन्द्र के पास पहुँच गया और बड़े वेग से अपनी गदा उठाकर उनके जत्रुस्थान (हँसली) पर प्रहार किया। साथ ही उस महाबली ने ऐरावत पर भी एक गदा जमायी। गदा की चोट से ऐरावत को बड़ी पीड़ा हुई, उसने व्याकुलता से घुटने टेक दिये और फिर मुर्च्छित हो गया।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: एकादश अध्यायः श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद)

उसी समय इन्द्र का सारथि मातलि हजार घोड़ों से जुता हुआ रथ ले आया और शक्तिशाली इन्द्र ऐरावत को छोड़कर तुरंत रथ पर सवार हो गये। दानवश्रेष्ठ जम्भ ने रणभूमि में मातलि के इस काम की बड़ी प्रशंसा की और मुसकराकर चमकता हुआ त्रिशूल उसके ऊपर चलाया। मातलि ने धैर्य के साथ इस असह्य पीड़ा को सह लिया। तब इन्द्र ने क्रोधित होकर अपने वज्र से जम्भ का सिर काट डाला।

देवर्षि नारद से जम्भासुर की मृत्यु समाचार जानकर उसके भाई-बन्धु नमुचि, बल और पाक झटपट रणभूमि में आ पहुँचे। अपने कठोर और मर्मस्पर्शी वाणी से उन्होंने इन्द्र को बहुत कुछ बुरा-भला कहा और जैसे बादल पहाड़ पर मूसलधार पानी बरसाते हैं, वैसे ही उनके ऊपर बाणों की झड़ी लगा दी। बल ने बड़े हस्तलाघव से एक साथ ही एक हजार बाण चलाकर इन्द्र के एक हजार घोड़ों को घायल कर दिया। पाक ने सौ बाणों से मातलि को और सौ बाणों से रथ के एक-एक अंग को छेद डाला। युद्धभूमि में यह बड़ी अद्भुत घटना हुई कि एक ही बार इतने बाण उसने चढ़ाये और चलाये। नमुचि ने बड़े-बड़े पंद्रह बाणों से, जिनमें सोने के पंख लगे हुए थे, इन्द्र को मारा और युद्धभूमि में वह जल से भरे बादल के समान गरजने लगा। जैसे वर्षाकाल के बादल सूर्य को ढक लेते हैं, वैसे ही असुरों ने बाणों की वर्षा से इन्द्र और उनके रथ तथा सारथि को भी चारों ओर से ढक दिया।

इन्द्र को न देखकर देवता और उनके अनुचर अत्यन्त विह्वल होकर रोने-चिल्लाने लगे। एक तो शत्रुओं ने उन्हें हरा दिया था और दूसरे अब उनका कोई सेनापति भी न रह गया था। उस समय देवताओं की ठीक वैसी ही अवस्था हो रही थी, जैसे बीच समुद्र में नाव टूट जाने पर व्यापारियों की होती है। परन्तु थोड़ी ही देर में शत्रुओं के बनाये हुए बाणों के पिंजड़े से घोड़े, रथ, ध्वजा और सारथि के साथ इन्द्र निकल आये। जैसे प्रातःकाल सूर्य अपनी किरणों से दिशा, आकाश और पृथ्वी को चमका देते हैं, वैसे ही इन्द्र के तेज से सब-के-सब जगमगा उठे। वज्रधारी इन्द्र ने देखा कि शत्रुओं ने रणभूमि में हमारी सेना को रौंद डाला है, तब उन्होंने बड़े क्रोध से शत्रु को मार डालने के लिये वज्र से आक्रमण किया।

परीक्षित! उस आठ धार वाले पैने वज्र से उन दैत्यों के भाई-बन्धुओं को भी भयभीत करते हुए उन्होंने बल और पाक के सिर काट लिये। परीक्षित! अपने भाइयों को मरा हुआ देख नमुचि को बड़ा शोक हुआ। वह क्रोध के कारण आपे से बाहर होकर इन्द्र को मार डालने के लिये जी-जान से प्रयास करने लगा। ‘इन्द्र! अब तुम बच नहीं सकते’-इन प्रकार ललकारते हुए एक त्रिशूल उठाकर वह इन्द्र पर टूट पड़ा। वह त्रिशूल फौलाद का बना हुआ था, सोने के आभूषणों से विभूषित था और उसमें घण्टे लगे हुए थे। नमुचि ने क्रोध के मारे सिंह के समान गरजकर इन्द्र पर वह त्रिशूल चला दिया। परीक्षित! इन्द्र ने देखा कि त्रिशूल बड़े वेग से मेरी ओर आ रहा है। उन्होंने अपने बाणों से आकाश में ही उसका हजारों टुकड़े कर दिये और इसके बाद देवराज इन्द्र ने बड़े क्रोध से उसका सिर काट लेने के लिये उसकी गर्दन पर वज्र मारा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 32-48 का हिन्दी अनुवाद)

यद्यपि इन्द्र ने बड़े वेग से वह वज्र चलाया था, परन्तु उस यशस्वी वज्र से उसके चमड़े पर खरोंच तक नहीं आयी। यह बड़ी आश्चर्यजनक घटना हुई कि जिस वज्र ने महाबली वृत्रासुर का शरीर टुकड़े-टुकड़े कर डाला था, नमुचि के गले की त्वचा ने उसका तिरस्कार कर दिया। जब वज्र नमुचि का कुछ न बिगाड़ सका, तब इन्द्र उससे डर गये। वे सोचने लगे कि ‘दैवयोग से संसार भर को संशय में डालने वाली यह कैसी घटना हो गयी। पहले युग में जब ये पर्वत पाँखों से उड़ते थे और घूमते-फिरते भार के कारण पृथ्वी पर गिर पड़ते थे, तब प्रजा का विनाश होते देखकर इसी वज्र से मैंने उन पहाड़ों की पाँखें काट डाली थीं। त्वष्टा की तपस्या का सार ही वृत्रासुर के रूप में प्रकट हुआ था। उसे भी मैंने इसी वज्र के द्वारा काट डाला था और भी अनेकों दैत्य, जो बहुत बलवान् थे और किसी अस्त्र-शस्त्र से जिनके चमड़े को भी चोट नहीं पहुँचायी जा सकी थी, इसी वज्र से मैंने मृत्यु के घाट उतार दिये थे। वही मेरा वज्र मेरे प्रहार करने पर भी इस तुच्छ असुर को न मार सका, अतः अब मैं इसे अंगीकार नहीं कर सकता। यह ब्रह्मतेज से बना है तो क्या हुआ, अब तो निकम्मा हो चुका है’।
इस प्रकार इन्द्र विषाद करने लगे। उसी समय यह आकाशवाणी हुई- "यह दानव न तो सूखी वस्तु से मर सकता है, न गीली से। इसे मैं वर दे चुका हूँ कि ‘सूखी या गीली वस्तु से तुम्हारी मृत्यु न होगी।’ इसलिये इन्द्र! इस शत्रु को मारने के लिये अब तुम कोई दूसरा उपाय सोचो।"

उस आकाशवाणी को सुनकर देवराज इन्द्र बड़ी एकाग्रता से विचार करने लगे। सोचते-सोचते उन्हें सूझ गया कि समुद्र का फेन तो सूखा भी है, गीला भी। इसलिये न उसे सूखा कह सकते हैं, न गीला। अतः इन्द्र ने उस न सूखे और न गीले समुद्र फेन से नमुचि का सिर काट डाला। उस समय बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भगवान् इन्द्र पर पुष्पों की वर्षा और उनकी स्तुति करने लगे। गन्धर्वशिरोमणि विश्वावसु तथा परवसुगान करने लगे, देवताओं की दुन्दुभियाँ बजने लगीं और नर्तकियाँ आनन्द से नाचने लगीं। इसी प्रकार वायु, अग्नि, वरुण आदि दूसरे देवताओं ने भी अपने अस्त्र-शस्त्रों से विपक्षियों को वैसे ही मार गिराया जैसे सिंह हरिनों को मार डालते हैं।

परीक्षित! इधर ब्रह्मा जी ने देखा कि दानवों का तो सर्वथा नाश हुआ जा रहा है। तब उन्होंने देवर्षि नारद को देवताओं के पास भेजा और नारद जी ने वहाँ जाकर देवताओं को लड़ने से रोक दिया।

नारद जी ने कहा ;- देवताओं! भगवान् की भुजाओं की छत्रछाया में रहकर आप लोगों ने अमृत प्राप्त कर लिया है और लक्ष्मी जी ने भी अपनी कृपा-कोर से आपकी अभिवृद्धि की है, इसलिये आप लोग अब लड़ाई बंद कर दें।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- देवताओं ने देवर्षि नारद की बात मानकर अपने क्रोध के वेग को शान्त कर लिया और फिर वे सब-के-सब अपने लोक स्वर्ग को चले गये। उस समय देवताओं के अनुचर उनके यश का गान कर रहे थे। युद्ध में बचे हुए दैत्यों ने देवर्षि नारद की सम्मति से वज्र की चोट से मरे हुए बलि को लेकर अस्ताचल की यात्रा की। वहाँ शुक्राचार्य ने अपनी संजीवनी विद्या से उन असुरों को जीवित कर दिया, जिनके गरदन आदि अंग कटे नहीं थे, बच रहे थे। शुक्राचार्य के स्पर्श करते ही बलि की इन्द्रियों में चेतना और मन में स्मरण शक्ति आ गयी। बलि यह बात समझते थे कि संसार में जीवन-मृत्यु, जय-पराजय आदि उलट-फेर होते ही रहते हैं। इसलिये पराजित होने पर भी उन्हें किसी प्रकार का खेद नहीं हुआ।

                           {अष्टम स्कन्ध:}

                      【बारहवाँ अध्याय:】१२.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"मोहिनी रूप को देखकर महादेव जी का मोहित होना"
श्रीशुकदेव कहते हैं ;- परीक्षित! जब भगवान् शंकर ने यह सुना कि श्रीहरि ने स्त्री का रूप धारण करके असुरों को मोहित कर लिया और देवताओं को अमृत पिला दिया, तब वे सती देवी के साथ बैल पर सवार हो समस्त भूतगणों को लेकर वहाँ गये, जहाँ भगवान् मधुसूदन निवास करते हैं। भगवान् श्रीहरि ने बड़े प्रेम से गौरी-शंकर भगवान् का स्वागत-सत्कार किया। वे भी सुख से बैठकर भगवान् का सम्मान करके मुसकराते हुए बोले।

श्रीमहादेव जी ने कहा ;- 'समस्त देवों के आराध्यदेव! आप विश्वव्यापी, जगदीश्वर एवं जगत्स्वरूप हैं। समस्त चराचर पदार्थों के मूल कारण, ईश्वर और आत्मा भी आप ही हैं। इस जगत् के आदि, अन्त और मध्य आपसे ही होते हैं; परन्तु आप आदि, मध्य और अन्त से रहित हैं। आपके अविनाशीस्वरूप द्रष्टा, दृश्य, भक्ता और भोग्य का भेदभाव नहीं है। वास्तव में आप सत्य, चिन्मात्र ब्रह्म ही हैं। कल्याणकामी महात्मा लोग इस लोक और परलोक दोनों की आसक्ति एवं समस्त कामनाओं का परित्याग करके आपके चरणकमलों की ही आराधना करते हैं। आप अमृतस्वरूप, समस्त प्राकृत गुणों से रहित, शोक की छाया से भी दूर, स्वयं परिपूर्ण ब्रह्म हैं। आप केवल आनन्दस्वरूप हैं। आप निर्विकार हैं। आपसे भिन्न कुछ नहीं है, परन्तु आप सबसे भिन्न हैं। आप विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के परम कारण हैं। आप समस्त जीवों के शुभाशुभ कर्म का फल देने वाले स्वामी हैं। परन्तु यह बात भी जीवों की अपेक्षा से ही कही जाती है; वास्तव में आप सबकी अपेक्षा से रहित, अनपेक्ष हैं।
स्वामिन्! कार्य और कारण, द्वैत और अद्वैत- जो कुछ है, वह सब एकमात्र आप ही हैं; ठीक वैसे ही जैसे आभूषणों के रूप में स्थित सुवर्ण और मूल सुवर्ण में कोई अन्तर नहीं हैं, दोनों एक ही वस्तु हैं। लोगों ने आपके वास्तविक स्वरूप को न जानने के कारण आप में नाना प्रकर के भेदभाव और विकल्पों की कल्पना कर रखी है। यही कारण है कि आप में किसी प्रकार की उपाधि न होने पर भी गुणों को लेकर भेद की प्रतीति होती है।

प्रभो! कोई-कोई आपको ब्रह्म समझते हैं, तो दूसरे आपको धर्म कहकर वर्णन करते हैं। इसी प्रकार कोई आपको प्रकृति और पुरुष से परे परमेश्वर मानते हैं तो कोई विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्यी, सत्या, ईशाना और अनुग्रहा- इन नौ शक्तियों से युक्त परम पुरुष तथा दूसरे क्लेश-कर्म आदि के बन्धन से रहित, पूर्वजों के भी पूर्वज, अविनाशी पुरुष विशेष के रूप में मानते हैं। प्रभो! मैं, ब्रह्मा, मरीचि और ऋषि-जो सत्त्वगुण की सृष्टि के अन्तर्गत हैं-जब आपकी बनायी हुई सृष्टि का भी रहस्य नहीं जान पाते, तब आपको तो जान ही कैसे सकते हैं। फिर जिनका चित्त माया ने अपने वश में कर रखा है और जो सर्वदा रजोगुणी और तमोगुणी कर्मों में लगते रहते हैं, वे असुर और मनुष्य आदि तो भला जानेंगे ही क्या।

प्रभो! आप सर्वात्मा एवं ज्ञानस्वरूप हैं। इसीलिये वायु के समान आकाश में अदृश्य रहकर भी आप सम्पूर्ण चराचर जगत् में सदा-सर्वदा विद्यमान रहते हैं तथा इसकी चेष्टा, स्थिति, जन्म, नाश, प्राणियों के कर्म एवं संसार के बन्धन, मोक्ष-सभी को जानते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 12-23 का हिन्दी अनुवाद)

प्रभो! आप जब गुणों को स्वीकार करके लीला करने के लिये बहुत-से अवतार ग्रहण करते हैं, तब मैं उनका दर्शन करता ही हूँ। अब मैं आपके उस अवतार का भी दर्शन करना चाहता हूँ, जो आपने स्त्रीरूप में ग्रहण किया था। जिससे दैत्यों को मोहित करके आपने देवताओं को अमृत पिलाया, स्वामिन्! उसी को देखने के लिये हम सब आये हैं। हमारे मन में उसके दर्शन का बड़ा कौतूहल है।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- जब भगवान् शंकर ने विष्णु भगवान् से यह प्रार्थना की, तब वे गम्भीर भाव से हँसकर शंकर जी से बोले।

श्रीविष्णु भगवान् ने कहा ;- 'शंकर जी! उस समय अमृत का कलश दैत्यों के हाथ में चला गया था। अतः देवताओं का काम बनाने के लिये और दैत्यों का मन एक नये कौतूहल की ओर खींच लेने के लिये ही मैंने वह स्त्रीरूप धारण किया था। देवशिरोमणे! आप उसे देखना चाहते हैं, इसलिये मैं आपको वह रूप दिखाऊँगा। परन्तु वह रूप तो कामी पुरुषों का ही आदरणीय है, क्योंकि वह कामभाव को उत्तेजित करने वाला है।'

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- इस तरह कहते-कहते विष्णु भगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये और भगवान् शंकर सती देवी के साथ चारों ओर दृष्टि दौड़ाते हुए वहीं बैठे रहे। इतने में ही उन्होंने देखा कि सामने एक बड़ा सुन्दर उपवन है। उसमें भाँति-भाँति के वृक्ष लग रहे हैं, जो रंग-बिरंगे फूल और लाल-लाल कोंपलों से भरे-पूरे हैं। उन्होंने यह भी देखा कि उस उपवन में एक सुन्दरी स्त्री गेंद उछाल-उछालकर खेल रही है। वह बड़ी ही सुन्दर साड़ी पहने हुए है और उसकी कमर में करधनी की लड़ियाँ लटक रही हैं। गेंद के उछालने और लपकर पकड़ने से उसके स्तन और उन पर पड़े हुए हाल हिल रहे हैं। ऐसा जान पड़ता था, मानो इनके भार से उसकी पतली कमर पग-पग पर टूटते-टूटते बच जाती है। वह अपने लाल-लाल पल्लवों के समान सुकुमार चरणों से बड़ी कला के साथ ठुमुक-ठुमुक चल रही थी। उछलता हुआ गेंद जब इधर-उधर छलक जाता था, तब वह लपक कर उसे रोक लेती थी। इससे उसकी बड़ी-बड़ी चंचल आँखें कुछ उद्विग्न-सी हो रही थीं। उसके कपोलों पर कानों के कुण्डलों की आभा जगमगा रही थी और घुँघराली काली-काली अलकें उन पर लटक आती थीं, जिससे मुख और भी उल्लसित हो उठता था।

जब कभी साड़ी सरक जाती और केशों की वेणी खुलने लगती, तब अपने अत्यन्त सुकुमार बायें हाथ से वह उन्हें सम्हाल-सँवार लिया करती। उस समय भी वह दाहिने हाथ से गेंद उछाल-उछालकर सारे जगत् को अपनी माया से मोहित कर रही थी। गेंद से खेलते-खेलते उसने तनिक सलज्ज भाव से मुसकराकर तिरछी नजर से शंकर जी की ओर देखा। बस, उनका मन हाथ से निकल गया। वे मोहिनी को निहारने और उसकी चितवन के रस में डूबकर इतने विह्वल हो गये कि उन्हें अपने-आप की भी सुधि न रही। फिर पास बैठी हुई सती और गणों की तो याद ही कैसे रहती। एक बार मोहिनी के हाथ से उछलकर गेंद थोड़ी दूर चला गया। वह भी उसी के पीछे दौड़ी। उसी समय शंकर जी के देखते-देखते वायु ने उसकी झीनी-सी साड़ी करधनी के साथ ही उड़ा ली।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 24-37 का हिन्दी अनुवाद)

मोहिनी का एक-एक अंग बड़ा ही रुचिकर और मनोरम था। जहाँ आँखें लग जातीं, लगी ही रहतीं। यही नहीं, मन भी वहीं रमण करने लगता। उसको इस दशा में देखकर भगवान् शंकर उसकी ओर अत्यन्त आकृष्ट हो गये। उन्हें मोहिनी भी अपने प्रति आसक्त जान पड़ती थी। उसने शंकर जी का विवेक छीन लिया। वे उसके हाव-भावों से कामातुर हो गये और भवानी के सामने ही लज्जा छोड़कर उसकी ओर चल पड़े।

मोहिनी वस्त्रहीन तो पहले ही हो चुकी थी, शंकर जी को अपनी ओर आते देख बहुत लज्जित हो गयी। वह एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष की आड़ से जाकर छिप जाती और हँसने लगती। परन्तु कहीं ठहरती न थी। भगवान् शंकर की इन्द्रियाँ अपने वश में नहीं रहीं, वे कामवश हो गये थे; अतः हथिनी के पीछे हाथी की तरह उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगे। उन्होंने अत्यन्त वेग से उसका पीछा करके पीछे से उसका जूड़ा पकड़ लिया और उसकी इच्छा न होने पर भी उसे दोनों भुजाओं में भरकर हृदय से लगा लिया।
जैसे हाथी हथिनी का आलिंगन करता है, वैसे ही भगवान् शंकर ने उसका आलिंगन किया। वह इधर-उधर खिसककर छुड़ाने की चेष्टा करने लगी, इसी छीना-झपटी में उसके सिर के बाल बिखर गये। वास्तव में वह सुन्दरी भगवान् की रची हुई माया ही थी, इससे उसने किसी प्रकार शंकर जी के भुजपाश से अपने को छुड़ा लिया और बड़े वेग से भागी। भगवान् शंकर भी उन मोहिनी वेषधारी अद्भुतकर्मा भगवान् विष्णु के पीछे-पीछे दौड़ने लगे। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो उनके शत्रु कामदेव ने इस समय उन पर विजय प्राप्त कर ली है। कामुक हथिनी के पीछे दौड़ने वाले मदोन्मत्त हाथी के समान वे मोहिनी के पीछे-पीछे दौड़ रहे थे। यद्यपि भगवान् शंकर का वीर्य अमोघ है, फिर भी मोहिनी की माया से वह स्खलित हो गया। भगवान् शंकर का वीर्य पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ गिरा, वहाँ-वहाँ सोने-चाँदी की खानें बन गायीं।

परीक्षित! नदी, सरोवर, पर्वत, वन और उपवन में एवं जहाँ-जहाँ ऋषि-मुनि निवास करते थे, वहाँ-वहाँ मोहिनी के पीछे-पीछे भगवान् शंकर गये थे। परीक्षित! वीर्यपात हो जाने के बाद उन्हें अपनी स्मृति हुई। उन्होंने देखा कि अरे, भगवान् की माया ने तो मुझे खूब छकाया। वे तुरंत उस दुःखद प्रसंग से अलग हो गये। इसके बाद आत्मस्वरूप सर्वात्मा भगवान् की यह महिमा जानकर उन्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ। वे जानते थे कि भला, भगवान् की शक्तियों का पार कौन पा सकता है। भगवान् ने देखा कि भगवान् शंकर को इससे विषाद या लज्जा नहीं हुई है, तब वे पुरुषशरीर धारण करके फिर प्रकट हो गये और बड़ी प्रसन्नता से उनसे कहने लगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: द्वादश अध्यायः श्लोक 38-47 का हिन्दी अनुवाद)

श्रीभगवान् ने कहा ;- 'देवशिरोमणे! मेरी स्त्रीरूपिणी माया से विमोहित होकर भी आप स्वयं ही अपनी निष्ठा में स्थित हो गये। यह बड़े ही आनन्द की बात है। मेरी माया अपार है। वह ऐसे-ऐसे हाव-भाव रचती है कि अजितेन्द्रिय पुरुष तो किसी प्रकार उससे छुटकारा पा ही नहीं सकते। भला, आपके अतिरिक्त ऐसा कौन पुरुष है, जो एक बार मेरी माया के फंदे में फँसकर फिर स्वयं ही उससे निकल सके। यद्यपि मेरी यह गुणमयी माया बड़ों-बड़ों को मोहित कर देती है, फिर भी अब यह आपको कभी मोहित नहीं करेगी। क्योंकि सृष्टि आदि के लिये समय पर उसे क्षोभित करने वाला काल मैं ही हूँ, इसलिये मेरी इच्छा के विपरीत रजोगुण आदि की सृष्टि नहीं कर सकती।'

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! इस प्रकार भगवान् विष्णु ने भगवान् शंकर का सत्कार किया। तब उससे विदा लेकर एवं परिक्रमा करके वे अपने गणों के साथ कैलास को चले गये।

भरतवंशशिरोमणे! भगवान् शंकर ने बड़े-बड़े ऋषियों की सभा में अपनी अर्द्धांगिनी सती देवी से अपने विष्णुरूप की अंशभूता मायामयी मोहिनी का इस प्रकार बड़े प्रेम से वर्णन किया। ‘देवि! तुमने परम पुरुष परमेश्वर भगवान् विष्णु की माया देखी? देखो, यों तो मैं स्वतन्त्र हूँ, फिर भी उस माया से विवश होकर मोहित हो जाता हूँ। फिर दूसरे जीव तो परतन्त्र हैं ही; अतः वे मोहित हो जायें-इसमें कहना ही क्या है। जब मैं एक हजार वर्ष की समाधि से उठा था, तब तुमने मेरे पास आकर पूछा था कि तुम किसकी उपासना करते हो। वे यही साक्षात् सनातन पुरुष हैं। न तो काल ही इन्हें अपनी सीमा में बाँध सकता है और न वेद ही इनका वर्णन कर सकता है। इनका वास्तविक स्वरूप अनन्त और अनिर्वचनीय है’।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- प्रिय परीक्षित! मैंने विष्णु भगवान् की यह ऐश्वर्यपूर्ण लीला तुमको सुनायी, जिसमें समुद्र मन्थन के समय अपनी पीठ पर मन्दराचल धारण करने वाले भगवान् का वर्णन है। जो पुरुष बार-बार इनका कीर्तन और श्रवण करता है, उसका उद्योग कभी और कहीं निष्फल नहीं होता। क्योंकि पवित्रकीर्ति भगवान् के गुण और लीलाओं का गान संसार के समस्त क्लेश और परिश्रम को मिटा देने वाला है। दुष्ट पुरुषों को भगवान् के चरणकमलों की प्राप्ति कभी हो नहीं सकती। वे तो भक्तिभाव से युक्त पुरुष को ही प्राप्त होते हैं। इसी से उन्होंने स्त्री का मायामय रूप धारण करके दैत्यों को मोहित किया और अपने चरणकमलों के शरणागत देवताओं को समुद्र मन्थन से निकले हुए अमृत का पान कराया। केवल उन्हीं की बात नहीं-चाहे जो भी उनके चरणों की शरण ग्रहण करे, वे उसकी समस्त कामनाएँ पूर्ण कर देते हैं। मैं उन प्रभु के चरणकमलों में नमस्कार करता हूँ।

                           {अष्टम स्कन्ध:}

                      【तेरहवाँ अध्याय:】१३.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

"आगामी सात मन्वन्तरों का वर्णन"
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! विवस्वान् के पुत्र यशस्वी श्राद्धदेव ही सातवें (वैवस्वत) मनु हैं। यह वर्तमान मन्वन्तर ही उनका कार्यकाल है। उनकी सन्तान का वर्णन मैं करता हूँ।

वैवस्वत मनु के दस पुत्र हैं- इक्ष्वाकु, नभग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यन्त, नाभाग, दिष्ट, करुष, पृषध्र और वसुमान।

परीक्षित! इस मन्वन्तर में आदित्य, वसु, रुद्र, विश्वेदेव, मरुद्गण, अश्विनीकुमार और ऋभु- ये देवताओं के प्रधान गण हैं और पुरन्दर उनका इन्द्र है। कश्यप, अत्रि, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भरद्वाज- ये सप्तर्षि हैं। इस मन्वन्तर में भी कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से आदित्यों के छोटे भाई वामन के रूप में भगवान् विष्णु ने अवतार ग्रहण किया था।

परीक्षित! इस प्रकार मैंने संक्षेप से तुम्हें सात मन्वन्तरों का वर्णन सुनाया; अब भगवान् की शक्ति से युक्त अगले (आने वाले) सात मन्वन्तरों का वर्णन करता हूँ। परीक्षित! यह तो मैं तुम्हें पहले (छठे स्कन्ध में) बता चुका हूँ कि विवस्वान् (भगवान् सूर्य) की दो पत्नियाँ थीं- संज्ञा और छाया। ये दोनों ही विश्वकर्मा की पुत्री थीं। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि उनकी एक तीसरी पत्नी वडवा भी थी। (मेरे विचार से तो संज्ञा का ही नाम वडवा हो गया था।) उन सूर्यपत्नियों में संज्ञा से तीन सन्तानें हुईं- यम, यमी और श्राद्धदेव। छाया के भी तीन सन्तानें हुईं- सावर्णि, शनैश्चर और तपती नाम की कन्या जो संवरण की पत्नी हुई। जब संज्ञा ने वडवा का रूप धारण कर लिया, तब उससे दोनों अश्विनीकुमार हुए।

आठवें मन्वन्तर में सावर्णि मनु होंगे। उनके पुत्र होंगे निर्मोक, विरजस्क आदि। परीक्षित! उस समय सुतपा, विरजा और अमृतप्रभ नामक देवगण होंगे। उन देवताओं के इन्द्र होंगे विरोचन के पुत्र बलि। विष्णु भगवान् ने वामन अवतार ग्रहण करके इन्हीं से तीन पग पृथ्वी माँगी थी; परन्तु इन्होंने उनको सारी त्रिलोकी दे दी। राजा बलि को एक बार तो भगवान् ने बाँध दिया था, परन्तु फिर प्रसन्न होकर उन्होंने इनको स्वर्ग से भी श्रेष्ठ सुतल लोक का राज्य दे दिया। वे इस समय वहीं इन्द्र के समान विराजमान हैं। आगे चलकर ये ही इन्द्र होंगे और समस्त ऐश्वर्यों से परिपूर्ण इन्द्रपद का भी परित्याग करके परमसिद्धि प्राप्त करेंगे।
गालव, दीप्तिमान्, परशुराम, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, ऋष्यश्रृंग और हमारे पिता भगवान् व्यास- ये आठवें मन्वन्तर में सप्तर्षि होंगे। इस समय ये लोग योग बल से अपने-अपने आश्रम मण्डल में स्थित हैं। देवगुह्य की पत्नी सरस्वती के गर्भ से सार्वभौम नामक भगवान् का अवतार होगा। ये ही प्रभु पुरन्दर इन्द्र से स्वर्ग का राज्य छीनकर राजा बलि को दे देंगे।

परीक्षित! वरुण के पुत्र दक्षसावर्णि नवें मनु होंगे। भूतकेतु, दीप्तकेतु आदि उनके पुत्र होंगे। पार, मारीचिगर्भ आदि देवताओं के गण होंगे और अद्भुत नाम के इन्द्र होंगे। उस मन्वन्तर में द्युतिमान् आदि सप्तर्षि होंगे। आयुष्यमान् की पत्नी अम्बुधारा के गर्भ से ऋषभ के रूप में भगवान् का कलावतार होगा। अद्भुत नामक इन्द्र उन्हीं की दी हुई त्रिलोकी का उपभोग करेंगे। दसवें मनु होंगे उपश्लोक के पुत्र ब्रह्मसावर्णि। उनमें समस्त सद्गुण निवास करेंगे। भूरिषेण आदि उनके पुत्र होंगे और हविष्यमान्, सुकृति, सत्य, जय, मूर्ति आदि सप्तर्षि। सुवासन, विरुद्ध आदि देवताओं के गण होंगे और इन्द्र होंगे शम्भु।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 23-36 का हिन्दी अनुवाद)

विश्वसृज की पत्नी विषूचि के गर्भ से भगवान् विष्वक्सेन के रूप में अंशावतार ग्रहण करके शम्भु नामक इन्द्र से मित्रता करेंगे।

ग्यारहवें मनु होंगे अत्यन्त संयमी धर्म सावर्णि। उनके सत्य, धर्म आदि दस पुत्र होंगे। विहंगम, कामगम, निर्वाणरुचि आदि देवताओं के गण होंगे। अरुणादि सप्तर्षि होंगे वैधृत नाम के इन्द्र होंगे। आर्यक की पत्नी वैधृता के गर्भ से धर्मसेतु के रूप में भगवान् का अंशावतार होगा और उसी रूप में वे त्रिलोकी की रक्षा करेंगे।

परीक्षित! बारहवें मनु होंगे रुद्र सार्वणि। उनके देववान्, उपदेव और देवश्रेष्ठ आदि पुत्र होंगे। उस मन्वन्तर में ऋतुधामा नामक इन्द्र होंगे और हरित आदि देवगण। तपोमूर्ति, तपस्वी आग्नीध्रक आदि सप्तर्षि होंगे। सत्यसहाय की पत्नी सूनृता के गर्भ से स्वधाम के रूप में भगवान् का अंशावतार होगा और उसी रूप में भगवान उस मन्वन्तर का पालन करेंगे।

तेरहवें मनु होंगे परम जितेन्द्रिय देवसावर्णि। चित्रसेन, विचित्र आदि उनके पुत्र होंगे। सुकर्म और सुत्राम आदि देवगण होंगे तथा इन्द्र का नाम होगा दिवस्पति। उस समय निर्मोक और तत्त्वदर्श आदि सप्तर्षि होंगे। देवहोत्र कि पत्नी बृहती के गर्भ से योगेश्वर के रूप में भगवान का अंशावतार होगा और उसी रूप में भगवान् दिवस्पति को इन्द्रपद देंगे।

महराज! चौदहवें मनु होंगे इन्द्र सावर्णि। उरू, गम्भीर, बुद्धि आदि उनके पुत्र होंगे। उस समय पवित्र, चाक्षुष आदि देवगण होंगे और इन्द्र का नाम होगा शुचि। अग्नि, बाहु, शुचि, शुद्ध और मागध आदि सप्तर्षि होंगे। उस समय सत्रायण की पत्नी विताना के गर्भ से बृहद्भानु के रूप में भगवान अवतार ग्रहण करेंगे तथा कर्मकाण्ड का विस्तार करेंगे।

परीक्षित! ये चौदह मन्वन्तर भूत, वर्तमान और भविष्य- तीनों ही काल में चलते रहते हैं। इन्हीं के द्वारा एक सहस्र चतुर्युगी वाले कल्प के समय की गणना की जाती है।

                           {अष्टम स्कन्ध:}

                      【चोदहवाँ अध्याय:】१४.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध चतुर्दश: अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"मनु आदि के पृथक्-पृथक् कर्मों का निरूपण"
राजा परीक्षित ने कहा ;- भगवन्! आपके द्वारा वर्णित ये मनु, मनुपुत्र, सप्तर्षि आदि अपने-अपने मन्वन्तर में किसके द्वारा नियुक्त होकर कौन-कौन-सा काम किस प्रकार करते हैं- यह आप कृपा करके मुझे बतलाइये।
श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! मनु, मनुपुत्र, सप्तर्षि और देवता- सबको नियुक्त करने वाले स्वयं भगवान् ही हैं।

राजन! भगवान् के जिन यज्ञपुरुष आदि अवतार शरीरों का वर्णन मैंने किया है, उन्हीं की प्रेरणा से मनु आदि विश्व-व्यवस्था का संचालन करते हैं। चतुर्युगी के अन्त में समय के उलट-फेर से जब श्रुतियाँ नष्ट प्राय हो जाती हैं, तब सप्तर्षिगण अपनी तपस्या से पुनः उसका साक्षात्कार करते हैं। उन श्रुतियों से ही सनातन धर्म की रक्षा होती है। राजन्! भगवान् की प्रेरणा से अपने-अपने मन्वन्तर में बड़ी सावधानी से सब-के-सब मनु पृथ्वी पर चारों चरण से परिपूर्ण धर्म का अनुष्ठान करवाते हैं। मनुपुत्र मन्वन्तरभर काल और देश दोनों का विभाग करके प्रजापालन तथा धर्मपालन का कार्य करते हैं। पंच-महायज्ञ आदि कर्मों में जिन ऋषि, पितर, भूत और मनुष्य आदि का सम्बन्ध है- उनके साथ देवता उस मन्वन्तर में यज्ञ का भाग स्वीकार करते हैं।

इन्द्र भगवान् की दी हुई त्रिलोकी की अतुल सम्पत्ति का उपभोग और प्रजा का पालन करते हैं। संसार में यथेष्ट वर्षा करने का अधिकार भी उन्हीं को है। भगवान् युग-युग में सनक आदि सिद्धों का रूप धारण करके ज्ञान का, याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों का रूप धारण करके कर्म का और दत्तात्रेय आदि योगेश्वरों के रूप में योग का उपदेश करते हैं। वे मरीचि आदि प्रजापतियों के रूप में सृष्टि का विस्तार करते हैं, सम्राट् के रूप में लुटेरों का वध करते हैं और शीत, उष्ण आदि विभिन्न गुणों को धारण करके कालरूप से सबको संहार की ओर ले जाते हैं। नाम और रूप की माया से प्राणियों की बुद्धि विमूढ़ हो रही है। इसलिये वे अनेक प्रकार के दर्शनशास्त्रों के द्वारा महिमा तो भगवान् की ही गाते हैं, परन्तु उनके वास्तविक स्वरूप को नहीं जान पाते।

परीक्षित! इस प्रकार मैंने तुम्हें महाकल्प और अवान्तर कल्प का परिमाण सुना दिया। पुराणतत्त्व के विद्वानों ने प्रत्येक अवान्तर कल्प में चौदह मन्वन्तर बतलाये हैं।

                           {अष्टम स्कन्ध:}

                      【पंद्रहवाँ अध्याय:】१५.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा बलि की स्वर्ग पर विजय"
राजा परीक्षित ने पूछा ;- भगवन्! श्रीहरि स्वयं ही सबके स्वामी हैं। फिर उन्होंने दीन-हीन की भाँति राजा बलि से तीन पग पृथ्वी क्यों माँगी? तथा जो कुछ वे चाहते थे, वह मिल जाने पर भी उन्होंने बलि को बाँधा क्यों? मेरे हृदय में इस बात का बड़ा कौतुहल है कि स्वयं परिपूर्ण यज्ञेश्वर भगवान् के द्वारा याचना और निरपराध का बन्धन-ये दोनों ही कैसे सम्भव हुए? हम लोग यह जानना चाहते हैं।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं ;- परीक्षित! जब इन्द्र ने बलि को पराजित करके उनकी सम्पत्ति छीन ली और उनके प्राण भी ले लिये, तब भृगुनन्दन शुक्राचार्य ने उन्हें अपनी संजीवनी विद्या से जीवित कर दिया। इस पर शुक्राचार्य जी के शिष्य महात्मा बलि ने अपना सर्वस्व उनके चरणों पर चढ़ा दिया और वे तन-मन से गुरुजी के साथ ही समस्त भृगुवंशी ब्राह्मणों की सेवा करने लगे। इससे प्रभावशाली भृगुवंशी ब्राह्मण उन पर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने स्वर्ग पर विजय प्राप्त करने की इच्छा वाले बलि का महाभिषेक की विधि से अभिषेक करके उनसे विश्वजित् नाम का यज्ञ कराया। यज्ञ की विधि से हविष्यों के द्वारा जब अग्नि देवता की पूजा की गयी, तब यज्ञ कुण्ड में से सोने की चद्दर से मढ़ा हुआ एक बड़ा सुन्दर रथ निकला। फिर इन्द्र के घोड़ों-जैसे हरे रंग के घोड़े और सिंह के चिह्न से युक्त रथ पर लगाने की ध्वजा निकली। साथ ही सोने के पत्र से मढ़ा हुआ दिव्य धनुष, कभी खाली न होने वाले दो अक्षय तरकश और दिव्य कवच भी प्रकट हुए। दादा प्रह्लाद जी ने उन्हें एक ऐसी माला दी, जिसके फूल कभी कुम्हलाते न थे तथा शुक्राचार्य ने एक शंख दिया।

इस प्रकार ब्राह्मणों की कृपा से युद्ध की सामग्री प्राप्त करके उनके द्वारा स्वस्तिवाचन हो जाने पर राजा बलि ने उन ब्राह्मणों की प्रदक्षिणा की और नमस्कार किया। इसके बाद उन्होंने प्रह्लाद जी से सम्भाषण करके उनके चरणों में नमस्कार किया। फिर वे भृगुवंशी ब्राह्मणों के दिये हुए दिव्य रथ पर सवार हुए। जब महारथी राजा बलि ने कवच धारण कर धनुष, तलवार, तरकश आदि शस्त्र ग्रहण कर लिये और दादा की दी हुई सुन्दर माला धारण कर ली, तब उनकी बड़ी शोभा हुई। उनकी भुजाओं में सोने के बाजूबंद और कानों में मकराकृति कुण्डल जगमगा रहे थे। उनके कारण रथ पर बैठे हुए वे ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो अग्निकुण्ड में अग्नि प्रज्वलित हो रही हो। उनके साथ उन्हीं के समान ऐश्वर्य, बल और विभूति वाले दैत्य सेनापति अपनी-अपनी सेना लेकर हो लिये। ऐसा जान पड़ता था मानो वे आकाश को पी जायेंगे और अपने क्रोध भरे प्रज्वलित नेत्रों से समस्त दिशाओं को, क्षितिज को भस्म कर डालेंगे।
राजा बलि ने इस बहुत बड़ी आसुरी सेना को लेकर उसका युद्ध के ढंग से संचालन किया तथा आकाश और अन्तरिक्ष को कँपाते हुए सकल ऐश्वर्यों से परिपूर्ण इन्द्रपुरी अमरावती पर चढ़ाई की। देवताओं की राजधानी अमरावती में बड़े सुन्दर-सुन्दर नन्दनवन आदि उद्यान और उपवन हैं। उन उद्यानों और उपवनों में पक्षियों के जोड़े चहकते रहते हैं। मधु लोभी भौंरे मतवाले होकर गुनगुनाते रहते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद)

लाल-लाल नये-नये पत्तों, फलों और पुष्पों से कल्पवृक्षों की शाखाएँ लदी रहती हैं। वहाँ के सरोवरों में हंस, सारस, चकवे और बतखों की भीड़ लगी रहती है। उन्हीं में देवताओं के द्वारा सम्मानित देवांगनाएँ जल क्रीड़ा करती रहती हैं। ज्योतिर्मय आकाशगंगा ने खाई की भाँति अमरावती को चारों ओर से घेर रखा है। उसके चारों ओर बहुत ऊँचा सोने का परकोटा बना हुआ है, जिसमें स्थान-स्थान पर बड़ी-बड़ी अटारियाँ बनी हुई हैं। सोने के किवाड़ द्वार-द्वार पर लगे हुए हैं और स्फटिक मणि के गोपुर (नगर के बाहरी फाटक) हैं। उसमें विश्वकर्मा ने ही उस पुरी का निर्माण किया है। सभा के स्थान, खेल के चबूतरे और रथ के चलने के बड़े-बड़े भागों से वह शोभायमान है। दस करोड़ विमान उसमें सर्वदा विद्यमान रहते हैं और मणियों के बड़े-बड़े चौराहे एवं हीरे और मूँगे की वेदियाँ बनी हुई हैं। वहाँ की स्त्रियाँ सर्वदा सोलह वर्ष की-सी रहती हैं, उनका यौवन और सौन्दर्य स्थिर रहता है। वे निर्मल वस्त्र पहनकर अपने रूप की छटा से इस प्रकार देदीप्यमान होती है, जैसे अपनी ज्वालाओं से अग्नि।

देवांगनाओं के जूड़े से गिरे हुए नवीन सौगन्धित पुष्पों की सुगन्ध लेकर वहाँ के मार्गों में मन्द-मन्द हवा चलती रहती है। सुनहली खिड़कियों में से अगर की सुगन्ध से युक्त सफ़ेद धूआँ निकल-निकलकर वह के मार्गों को ढक दिया करता है। उसी मार्ग से देवांगनाएँ जाती-आती हैं। स्थान-स्थान पर मोतियों की झालरों से सजाये हुए चँदोवे तने रहते हैं। सोने की मणिमय पताकाएँ फहराती रहती हैं। छज्जों पर अनेकों झंडियाँ लहराती रहती हैं। मोर, कबूतर और भौंरे कलगान करते रहते हैं। देवांगनाओं के मधुर संगीत से वहाँ सदा ही मंगल छाया रहता है। मृदंग, शंख, नगारे, ढोल, वीणा, वंशी, मँजीरे और ऋष्टियाँ बजती रहती हैं। गन्धर्व बाजों के साथ गाया करते हैं और अप्सराएँ नाचा करती हैं। इनसे अमरावती इतनी मनोहर जान पड़ती है, मानो उसने अपनी छटा से छटा की अधिष्ठात्री देवी को भी जीत लिया है।

उस पुरी में अधर्मी, दुष्ट, जीव द्रोही, ठग, मानी, कामी और लोभी नहीं जा सकते। जो इन दोषों से रहित हैं, वे ही वहाँ जाते हैं। असुरों की सेना के स्वामी राजा बलि ने अपनी बहुत बड़ी सेना से बाहर की ओर सब ओर से अमरावती को घेर लिया लिया और इन्द्रपत्नियों के हृदय में भय का संचार करते हुए उन्होंने शुक्राचार्य जी के दिये हुए महान् शंख को बजाया। उस शंख की ध्वनि सर्वत्र फैल गयी।

इन्द्र ने देखा कि बलि ने युद्ध की बहुत बड़ी तैयारी की है। अतः सब देवताओं के साथ वे अपने गुरु बृहस्पति जी के पास गये और उनसे बोले‌‌‌‌- ‘भगवन! मेरे पुराने शत्रु बलि ने इस बार युद्ध की बहुत बड़ी तैयारी की है। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि हम लोग उनका सामना नहीं कर सकेंगे। पता नहीं, किस शक्ति से इनकी इतनी बढ़ती हो गयी है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: पञ्चदश अध्यायः श्लोक 25-36 का हिन्दी अनुवाद)

मैं देखता हूँ कि इस समय बलि को कोई भी किसी प्रकार से रोक नहीं सकता। वे प्रलय की आग से समान बढ़ गये हैं और जान पड़ता है, मुख से इस विश्व को पी जायेंगे, जीभ से दसों दिशाओं को चाट जायेंगे और नेत्रों की ज्वाला से दिशाओं को भस्म कर देंगे। आप कृपा करके मुझे बतलाइये कि मेरे शत्रु की इतनी बढ़ती का, जिसे किसी प्रकार भी दबाया नहीं जा सकता, क्या कारण है? इसके शरीर, मन और इन्द्रियों में इतना बल और इतना तेज कहाँ से आ गया है कि इसने इतनी बड़ी तैयारी करके चढ़ाई की है’।
देवगुरु बृहस्पति जी ने कहा ;- ‘इन्द्र! मैं तुम्हारे शत्रु बलि की उन्नति का कारण जानता हूँ। ब्रह्मवादी भृगुवंशियों ने अपने शिष्य बलि को महान् तेज देकर शक्तियों का खजाना बना दिया है। सर्वशक्तिमान् भगवान् को छोड़कर तुम या तुम्हारे-जैसा और कोई भी बलि के सामने उसी प्रकार नहीं ठहर सकता, जैसे काल के सामने प्राणी। इसलिये तुम लोग स्वर्ग को छोड़कर कहीं छिप जाओ और उस समय की प्रतीक्षा करो, जब तुम्हारे शत्रु का भाग्यचक्र पलटे। इस समय ब्राह्मणों के तेज से बलि की उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। उसकी शक्ति बहुत बढ़ गयी है। जब यह उन्हीं ब्राह्मणों का तिरस्कार करेगा, तब अपने परिवार-परिकर के साथ नष्ट हो जायेगा।

बृहस्पति जी देवताओं के समस्त स्वार्थ और परमार्थ के ज्ञाता थे। उन्होंने जब इस प्रकार देवताओं को सलाह दी, तब वे स्वेच्छानुसार रूप धारण करके स्वर्ग छोड़कर चले गये। देवताओं के छिप जाने पर विरोचननन्दन बलि ने अमरावतीपुरी पर अपना अधिकार कर लिया और फिर तीनों लोकों को जीत लिया।

जब बलि विश्वविजयी हो गये, तब शिष्यप्रेमी भृगुवंशियों ने अपने अनुगत शिष्य से सौ अश्वमेध यज्ञ करवाये। उन यज्ञों के प्रभाव से बलि की कीर्ति-कौमुदी तीनों लोकों से बाहर भी दशों दिशाओं में फैल गयी और वे नक्षत्रों के राजा चन्द्रमा के समान शोभायमान हुए। ब्राह्मण-देवताओं की कृपा से प्राप्त समृद्ध राज्यलक्ष्मी का वे बड़ी उदारता से उपभोग करने लगे और अपने को कृतकृत्य-सा मानने लगे।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें