सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( सप्तम स्कन्धः ) का छठवाँ, सातवाँ, आठवाँ, नवाँ व दसवाँ अध्याय [ The six, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Seventh wing) ]

सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत महापुराण ( सप्तम स्कन्धः ) का छठवाँ, सातवाँ, आठवाँ, नवाँ व दसवाँ अध्याय [ The six, seventh, eighth, ninth and tenth chapters of the entire Srimad Bhagavat Mahapuran (Seventh wing) ]



                           {सप्तम स्कन्ध:}

                        【षष्ठ अध्याय:】६.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"प्रह्लाद जी का असुर-बालकों को उपदेश"
प्रह्लाद जी ने कहा ;- मित्रो! इस संसार में मनुष्य-जन्म बड़ा दुर्लभ है। इसके द्वारा अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है। परन्तु पता नहीं कब इसका अन्त हो जाये; इसलिये बुद्धिमान् पुरुष को बुढ़ापे या जवानी के भरोसे न रहकर बचपन में ही भगवान् की प्राप्ति कराने वाले साधनों का अनुष्ठान कर लेना चाहिये। इस मनुष्य-जन्म में श्रीभगवान् के चरणों की शरण लेना ही जीवन की एकमात्र सफलता है। क्योंकि भगवान् समस्त प्राणियों के स्वामी, सुहृद्, प्रियतम और आत्मा हैं।

भाइयों! इन्द्रियों से जो सुख भोगा जाता है, वह तो- जीव चाहे जिस योनि में रहे- प्रारब्ध के अनुसार सर्वत्र वैसे ही मिलता रहता है, जैसे बिना किसी प्रकार का प्रयत्न किये, निवारण करने पर भी दुःख मिलता है। इसलिये सांसारिक सुख के उद्देश्य से प्रयत्न करने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्योंकि स्वयं मिलने वाली वस्तु के लिये परिश्रम करना आयु और शक्ति को व्यर्थ गँवाना है। जो इनमें उलझ जाते हैं, उन्हें भगवान् के परम कल्याणस्वरूप चरणकमलों की प्राप्ति नहीं होती। हमारे सिर पर अनेकों प्रकार के भय सवार रहते हैं। इसलिये यह शरीर-जो भगवत्प्राप्ति के लिये पर्याप्त है-जब तक रोग-शोकादि ग्रस्त होकर मृत्यु के मुख में नहीं चला जाता, तभी तक बुद्धिमान् पुरुष को अपने कल्याण के लिये प्रयत्न कर लेना चाहिये।

मनुष्य की पूरी आयु सौ वर्ष की है। जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं कर लिया है, उनकी आयु का आधा हिस्सा तो यों ही बीत जाता है। क्योंकि वे रात में घोर तमोगुण-अज्ञान से ग्रस्त होकर सोते रहते हैं। बचपन में उन्हें अपने हित-अहित का ज्ञान नहीं रहता, कुछ बड़े होने पर कुमार अवस्था में वे खेल-कूद में लग जाते हैं। इस प्रकार बीस वर्ष का तो पता ही नहीं चलता। जब बुढ़ापा शरीर को ग्रस लेता है, तब अन्त के बीस वर्षों में कुछ करने-धरने की शक्ति ही नहीं रह जाती। रह गयी बीच की कुछ थोड़ी-सी आयु। उसमें कभी न पूरी होने वाली बड़ी-बड़ी कामनाएँ हैं, बलात् पकड़ रखने वाला मोह है और घर-द्वार की वह आसक्ति है, जिससे जीव इतना उलझ जाता है कि उसे कुछ कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान ही नहीं रहता। इस प्रकार बची-खुची आयु भी हाथ से निकल जाती है।

दैत्य बालकों! जिसकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, ऐसा कौन-सा पुरुष होगा, जो घर-गृहस्थी में आसक्त और माया-ममता की मजबूत फाँसी में फँसे हुए अपने-आपको उससे छुड़ाने का साहस कर सके। जिसे चोर, सेवक एवं व्यापारी अपने अत्यन्त प्यारे प्राणों की भी बाजी लगाकर संग्रह करते हैं और इसलिये उन्हें जो प्राणों से भी अधिक वांछनीय है-उस धन की तृष्णा को भला कौन त्याग सकता है। जो अपनी प्रियतमा पत्नी के एकान्त सहवास, उसकी प्रेम भरी बातों और मीठी-मीठी सलाह पर अपने को निछावर कर चुका है, भाई-बन्धु और मित्रों के स्नेह-पाश में बँध चुका है और नन्हें-नन्हें शिशुओं की तोतली बोली पर लुभा चुका है- भला, वह उन्हें कैसे छोड़ सकता है। जो अपनी ससुराल गयी हुई प्रिय पुत्रियों, पुत्रों, भाई-बहिनों और दीन अवस्था को प्राप्त पिता-माता, बहुत-सी सुन्दर-सुन्दर बहुमूल्य सामग्रियों से सजे हुए घरों, कुलपरम्परागत जीविका के साधनों तथा पशुओं और सेवकों के निरन्तर स्मरण में रम गया है, वह भला-उन्हें कैसे छोड़ सकता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 13-24 का हिन्दी अनुवाद)

जो जननेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय के सुखों को ही सर्वस्व मान बैठा है, जिसकी भोगवासनाएँ कभी तृप्त नहीं होतीं, जो लोभवश कर्म-पर-कर्म करता हुआ रेशम के कीड़े की तरह अपने को और भी कड़े बन्धन में जकड़ता जा रहा है और जिसके मोह की कोई सीमा नहीं है- वह उनसे किस प्रकार विरक्त हो सकता है और कैसे उनका त्याग कर सकता है। यह मेरा कुटुम्ब है, इस भाव से उसमें वह इतना रम जाता है कि उसी के पालन-पोषण के लिये अपनी अमूल्य आयु को गवाँ देता है और उसे यह भी नहीं जान पड़ता कि मेरे जीवन का वास्तविक उद्देश्य नष्ट हो रहा है। भला, इस प्रमाद की भी कोई सीमा है। यदि इन कामों में कुछ सुख मिले तो भी एक बात है; परन्तु यहाँ तो जहाँ-जहाँ वह जाता है, वहीं-वहीं दैहिक, दैविक और भौतिक ताप उसके हृदय को जलाते ही रहते हैं। फिर भी वैराग्य का उदय नहीं होता। कितनी विडम्बना है। कुटुम्ब की ममता के फेर में पड़कर वह इतना असावधान हो जाता है, उसका मन धन के चिन्तन में सदा इतना लवलीन रहता है कि वह दूसरे का धन चुराने के लौकिक-पारलौकिक दोषों को जानता हुआ भी कामनाओं को वश में न कर सकने के कारण इन्द्रियों के भोग की लालसा से चोरी कर ही बैठता है।

भाइयों! जो इस प्रकार अपने कुटुम्बियों के पेट पालने में ही लगा रहता है- कभी भगवद्भजन नहीं करता- वह विद्वान् हो, तो भी उसे परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि अपने-पराये का भेद-भाव रहने के कारण उसे भी अज्ञानियों के समान ही तमःप्रधान गति प्राप्त होती है। जो कामिनियों के मनोरंजन का सामान- उनका क्रीड़ामृग बन रहा है और जिसने अपने पैरों में सन्तान की बेड़ी जकड़ ली है, वह बेचारा गरीब-चाहे कोई भी हो, कहीं भी हो- किसी भी प्रकार से अपना उद्धार नहीं कर सकता। इसलिये भाइयों! तुम लोग विषयासक्त दैत्यों का संग दूर से ही छोड़ दो और आदिदेव भगवान् नारायण की शरण ग्रहण करो। क्योंकि जिन्होंने संसार की आसक्ति छोड़ दी है, उन महात्माओं के वे ही परम प्रियतम और परम गति हैं।

मित्रो! भगवान् को प्रसन्न करने के लिये कोई बहुत परिश्रम या प्रयत्न नहीं करना पड़ता। क्योंकि वे समस्त प्राणियों के आत्मा हैं और सर्वत्र सबकी सत्ता के रूप में स्वयं सिद्ध वस्तु हैं। ब्रह्मा से लेकर तिनके तक छोड़े-बड़े समस्त प्राणियों में, पंचभूतों से बनी हुई वस्तुओं में, पंचभूतों में, सूक्ष्म तन्मात्राओं में, महत्तत्त्व में, तीनों गुणों में और गुणों की साम्यावस्था प्रकृति में एक ही अविनाशी परमात्मा विराजमान हैं। वे ही समस्त सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्यों की खान हैं। वे ही अन्तर्यामी द्रष्टा के रूप में हैं और वे ही दृश्य जगत् के रूप में भी हैं। सर्वथा अनिर्वचनीय तथा विकल्परहित होने पर द्रष्टा और दृश्य, व्याप्य और व्यापक के रूप में उनका निर्वचन किया जाता है। वस्तुतः उनमें एक भी विकल्प नहीं है। वे केवल अनुभवस्वरूप, आनन्दस्वरूप एकमात्र परमेश्वर ही हैं। गुणमयी सृष्टि करने वाली माया के द्वारा ही उनका ऐश्वर्य छिप रहा है। इसके निवृत्त होते ही उनके दर्शन हो जाते हैं। इसलिये तुम लोग अपने दैत्यपने का, आसुरी सम्पत्ति का त्याग करके समस्त प्राणियों पर दया करो। प्रेम से उनकी भलाई करो। इसी से भगवान् प्रसन्न होते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 25-30 का हिन्दी अनुवाद)

आदि नारायण अनन्त भगवान् के प्रसन्न हो जाने पर ऐसी कौन-सी वस्तु है, जो नहीं मिल जाती? लोक और परलोक के लिये जिन धर्म, अर्थ आदि की आवश्यकता बतलायी जाती है-वे तो गुणों के परिणाम से बिना प्रयास के स्वयं ही मिलने वाले हैं। जब हम श्रीभगवान् के चरणामृत का सेवन करने और उनके नाम-गुणों का कीर्तन करने में लगे हैं, तब हमें मोक्ष की भी क्या आवश्यकता है। यों शास्त्रों में धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों पुरुषार्थों का भी वर्णन है।

आत्मविद्या, कर्मकाण्ड, न्याय (तर्कशास्त्र), दण्डनीति और जीविका के विविध साधन- ये सभी वेदों के प्रतिपाद्य विषय हैं; परन्तु यदि ये अपने परम हितैषी, परम पुरुष भगवान् श्रीहरि को आत्मसमर्पण करने में सहायक हैं, तभी मैं इन्हें सत्य (सार्थक) मानता हूँ। अन्यथा ये सब-के-सब निरर्थक हैं।

यह निर्मल ज्ञान जो मैंने तुम लोगों को बतलाया है, बड़ा ही दुर्लभ है। इसे पहले नर-नारायण ने नारद जी को उपदेश किया था और यह ज्ञान उन सब लोगों को प्राप्त हो सकता है, जिन्होंने भगवान् के अनन्य प्रेमी एवं अकिंचन भक्तों के चरणकमलों की धूलि से अपने शरीर को नहला लिया है। यह विज्ञान सहित ज्ञान विशुद्ध भागवत धर्म है। इसे मैंने भगवान् का दर्शन कराने वाले देवर्षि नारद जी के मुँह से ही पहले-पहल सुना था।

प्रह्लाद जी के सहपाठियों ने पूछा- प्रह्लाद जी! इन दोनों गुरुपुत्रों को छोड़कर और किसी गुरु को तो न तुम जानते हो और न हम। ये ही हम सब बालकों के शासक हैं। तुम एक तो अभी छोटी अवस्था के हो और दूसरे जन्म से ही महल में अपनी माँ के पास रहे हो। तुम्हारा महात्मा नारद जी से मिलना कुछ असंगत-सा जान पड़ता है। प्रियवर! यदि इस विषय में विश्वास दिलाने वाली कोई बात हो तो तुम उसे कहकर हमारी शंका मिटा दो।

                           {सप्तम स्कन्ध:}

                        【सप्तम अध्याय:】६.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"प्रह्लाद जी द्वारा माता के गर्भ में प्राप्त हुए नारद जी के उपदेश का वर्णन"
नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! जब दैत्य बालकों ने इस प्रकार प्रश्न किया, तब भगवान् के परमप्रेमी भक्त प्रह्लाद जी को मेरी बात का स्मरण हो आया। कुछ मुसकराते हुए उन्होंने उनसे कहा।

प्रह्लाद जी ने कहा ;- जब हमारे पिताजी तपस्या करने के लिये मन्दराचल पर चले गये, तब इन्द्रादि देवताओं ने दानवों से युद्ध करने का बहुत बड़ा उद्योग किया। वे इस प्रकार कहने लगे कि जैसे चींटियाँ साँप को चाट जाती हैं, वैसे ही लोगों को सताने वाले पापी हिरण्यकशिपु को उसका पाप ही खा गया। जब दैत्य सेनापतियों को देवताओं की भारी तैयारी का पता चला, तब उनका साहस जाता रहा। वे उनका सामना नहीं कर सके। मार खाकर स्त्री, पुत्र, मित्र, गुरुजन, महल, पशु और साज-सामान की कुछ चिन्ता न करके वे अपने प्राण बचाने के लिये बड़ी जल्दी में सब-के-सब इधर-उधर भाग गये। अपनी जीत चाहने वाले देवताओं ने राजमहल में लूट-खसोट मचा दी। यहाँ तक कि इन्द्र ने राजरानी मेरी माता कयाधु को भी बन्दी बना लिया। मेरी मा भय से घबराकर कुररी पक्षी की भाँति रो रही थी और इन्द्र उसे बलात् लिये जा रहे थे। दैववश देवर्षि नारद उधर आ निकले और उन्होंने मार्ग में मेरी माँ को देख लिया। उन्होंने कहा- ‘देवराज! यह निरपराध है। इसे ले जाना उचित नहीं। महाभाग! इस सती-साध्वी परनारी का तिरस्कार मत करो। इसे छोड़ दो, तुरंत छोड़ दो!'

इन्द्र ने कहा ;- 'इसके पेट में देवद्रोही हिरण्यकशिपु का अत्यन्त प्रभावशाली वीर्य है। प्रसवपर्यन्त यह मेरे पास रहे, बालक हो जाने पर उसे मारकर मैं इसे छोड़ दूँगा।'

नारद जी ने कहा ;- ‘इसके गर्भ में भगवान् का साक्षात् परमप्रेमी भक्त और सेवक, अत्यन्त बली और निष्पाप महात्मा है। तुममें उसको मारने की शक्ति नहीं है।’

देवर्षि नारद की यह बात सुनकर उसका सम्मान करते हुए इन्द्र ने मेरी माता को छोड़ दिया और फिर इसके गर्भ में भगवद्भक्त है, इस भाव से उन्होंने मेरी माता की प्रदक्षिणा की तथा अपने लोक में चले गये।

इसके बाद देवर्षि नारद जी मेरी माता को अपने आश्रम पर लिवा ले गये और उसे समझा-बुझाकर कहा कि- ‘बेटी! जब तक तुम्हारा पति तपस्या करके लौटे, तब तक तुम यहीं रहो।’ ‘जो आज्ञा’ कहकर वह निर्भयता से देवर्षि नारद के आश्रम पर ही रहने लगी और तब तक रही, जब तक मेरे पिता घोर तपस्या से लौटकर नहीं आये। मेरी गर्भवती माता मुझ गर्भस्थ शिशु की मंगल कामना से और इच्छित समय पर (अर्थात् मेरे पिता के लौटने के बाद) सन्तान उत्पन्न करने की कामना से बड़े प्रेम तथा भक्ति के साथ नारद जी की सेवा-शुश्रूषा करती रही।

देवर्षि नारद जी बड़े दयालु और सर्वसमर्थ हैं। उन्होंने मेरी माँ को भागवत धर्म का रहस्य और विशुद्ध ज्ञान- दोनों का उपदेश किया। उपदेश करते समय उनकी दृष्टि मुझ पर भी थी। बहुत समय बीत जाने के कारण और स्त्री होने के कारण भी मेरी माता को तो अब उस ज्ञान की स्मृति नहीं रही, परन्तु देवर्षि की विशेष कृपा होने के कारण मुझे उसकी विस्मृति नहीं हुई।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 17-31 का हिन्दी अनुवाद)

यदि तुम लोग मेरी इस बात पर श्रद्धा करो तो तुम्हें भी वह ज्ञान हो सकता है। क्योंकि श्रद्धा से स्त्री और बालकों की बुद्धि भी मेरे समान शुद्ध हो सकती है। जैसे ईश्वरमूर्ति काल की प्रेरणा से वृक्षों के फल लगते, ठहरते, बढ़ते, पकते, क्षीण होते और नष्ट हो जाते हैं-वैसे ही जन्म, अस्तित्व की अनुभूति, वृद्धि, परिणाम, क्षय और विनाश-ये छः भाव-विकार शरीर में ही देखे जाते हैं, आत्मा से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है। आत्मा नित्य, अविनाशी, शुद्ध, एक, क्षेत्रज्ञ, आश्रय, निर्विकार, स्वयंप्रकाश, सबका कारण, व्यापक, असंग तथा आवरणरहित है। ये बारह आत्मा के उत्कृष्ट लक्षण हैं। इनके द्वारा आत्मतत्त्व को जानने वाले पुरुष को चाहिये कि शरीर आदि में अज्ञान के कारण जो ‘मैं’ और ‘मेरे’ का झूठा भाव हो रहा है, उसे छोड़ दे। जिस प्रकार सुवर्ण की खानों में पत्थर में मिले हुए सुवर्ण को उसके निकालने की विधि जानने वाला स्वर्णकार उन विधियों से उसे प्राप्त कर लेता है, वैसे ही अध्यात्मतत्त्व को जानने वाला पुरुष आत्मप्राप्ति के उपायों द्वारा अपने शरीररूप क्षेत्र में ही ब्रह्मपद का साक्षात्कार कर लेता है।

आचार्यों ने मूल प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार और पंचतन्मात्राएँ-इन आठ तत्त्वों को प्रकृति बतलाया है। उनके तीन गुण हैं-सत्त्व, रज और तम तथा उनके विकार हैं सोलह-दस इन्द्रियाँ, एक मन और पंचमहाभूत। इन सबमें एक पुरुषतत्त्व अनुगत है। इस सबका समुदाय ही देह है। यह दो प्रकार का है-स्थावर और जंगम। इसी में अन्तःकरण, इन्द्रिय आदि अनात्मवस्तुओं का ‘यह आत्मा नहीं है’-इस प्रकार बाध करते हुए आत्मा को ढूंढना चाहिये। आत्मा सबमें अनुगत है, परन्तु है वह सबसे पृथक्। इस प्रकार शुद्ध बुद्धि से धीरे-धीरे संसार की उत्पत्ति, स्थिति और उसके प्रलय पर विचार करना चाहिये। उतावली नहीं करनी चाहिये। जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति-ये तीनों बुद्धि की वृत्तियाँ हैं। इन अतीत, सबका साक्षी परमात्मा है। जैसे गन्ध से उसके आश्रय वायु का ज्ञान होता है, वैसे ही बुद्धि की इन कर्मजन्य एवं बदलने वाली तीनों अवस्थाओं के द्वारा इनमें साक्षीरूप से अनुगत आत्मा को जाने। गुणों और कर्मों के कारण होने वाला जन्म-मृत्यु का यह चक्र आत्मा को शरीर और प्रकृति से पृथक् न करने के कारण ही है। यह अज्ञानमूलक एवं मिथ्या है। फिर भी स्वप्न के समान जीव को इसकी प्रतीति हो रही है।

इसलिये तुम लोगों को सबसे पहले इन गुणों के अनुसार होने वाले कर्मों का बीज ही नष्ट कर देना चाहिये। इससे बुद्धि-वृत्तियों का प्रवाह निवृत्त हो जाता है। इसी को दूसरे शब्दों में योग या परमात्मा से मिलन कहते हैं। यों तो इन त्रिगुणात्मक कर्मों की जड़ उखाड़ फेंकने के लिये अथवा बुद्धि-वृत्तियों का प्रवाह बंद कर देने के लिये सहस्रों साधन हैं; परन्तु जिस उपाय से और जैसे सर्वशक्तिमान् भगवान् में स्वाभाविक निष्काम प्रेम हो जाये, वही उपाय सर्वश्रेष्ठ है। यह बात स्वयं भगवान् ने कही है। गुरु की प्रेमपूर्वक सेवा, अपने को जो कुछ मिले वह सब प्रेम से भगवान् को समर्पित कर देना, भगवत्प्रेमी महात्माओं का सत्संग, भगवान् की आराधना, उनकी कथावार्ता में श्रद्धा, उनके गुण और लीलाओं का कीर्तन, उनके चरणकमलों का ध्यान और उनके मन्दिर, मूर्ति आदि का दर्शन-पूजन आदि साधनों से भगवान् में स्वाभाविक प्रेम हो जाता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 32-42 का हिन्दी अनुवाद)

सर्वशक्तिमान् भगवान् श्रीहरि समस्त प्राणियों में विराजमान हैं-ऐसी भावना से यथाशक्ति सभी प्राणियों की इच्छा पूर्ण करे और हृदय से उनका सम्मान करे। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर-इन छः शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके जो लोग इस प्रकार भगवान् की साधन-भक्ति का अनुष्ठान करते हैं, उन्हें उस भक्ति के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में अनन्य प्रेम की प्राप्ति हो जाती है।

जब भगवान् के लीला शरीरों से किये हुए अद्भुत पराक्रम, उनके अनुपम गुण और चरित्रों को श्रवण करके अत्यन्त आनन्द के उद्रेक से मनुष्य का रोम-रोम खिल उठता है, आँसुओं के मारे कण्ठ गद्गद हो जाता है और वह संकोच छोड़कर जोर-जोर से गाने-चिल्लाने और नाचने लगता है; जिस समय वह ग्रहग्रस्त पागल की तरह कभी हँसता है, कभी करुण-क्रन्दन करने लगता है, कभी ध्यान करता है तो कभी भगवद्भाव से लोगों की वन्दना करने लगता है; जब वह भगवान् में ही तन्मय हो जाता है, बार-बार लंबी साँस खींचता है और संकोच छोड़कर ‘हरे! जगत्पते!! नारायण’!! कहकर पुकारने लगता है-तब भक्तियोग के महान् प्रभाव से उसके सारे बन्धन कट जाते हैं और भगवद्भाव की ही भावना करते-करते उसका हृदय भी तदाकार-भगवन्मय हो जाता है। उस समय उसके जन्म-मृत्यु के बीजों का खजाना ही जल जाता है और वह पुरुष श्रीभगवान् को प्राप्त कर लेता है।

इस अशुभ संसार के दलदल में फँसकर अशुभमय हो जाने वाले जीव के लिये भगवान् की यह प्राप्ति संसार के चक्कर को मिटा देने वाली है। इसी वस्तु को कोई विद्वान् ब्रह्म और कोई निर्वाण-सुख के रूप में पहचानते हैं। इसलिये मित्रो! तुम लोग अपने-अपने हृदय में हृदयेश्वर भगवान् का भजन करो।

असुरकुमारो! अपने हृदय में ही आकाश के समान नित्य विराजमान भगवान् का भजन करने में कौन-सा विशेष परिश्रम है। वे समान रूप से समस्त प्राणियों के अत्यन्त प्रेमी मित्र हैं; और तो क्या, अपने आत्मा ही हैं। उनको छोड़कर भोग सामग्री इकट्ठी करने के लिये भटकना-राम! राम! कितनी मूर्खता है। अरे भाई! धन, स्त्री, पशु, पुत्र, पुत्री, महल, पृथ्वी, हाथी, खजाना और भाँति-भाँति की विभूतियाँ-और तो क्या, संसार का समस्त धन तथा भोग सामग्रियाँ इस क्षणभंगुर मनुष्य को क्या सुख दे सकती हैं। वे स्वयं ही क्षणभंगुर हैं। जैसे इस लोक की सम्पत्ति प्रत्यक्ष ही नाशवान् है, वैसे ही यज्ञों से प्राप्त होने वाले स्वर्गादि लोक भी नाशवान् और आपेक्षिक-एक-दूसरे से छोटे-बड़े, नीचे-ऊँचे हैं। इसलिये वे भी निर्दोष नहीं हैं। निर्दोष हैं केवल परमात्मा। न किसी ने उनमें दोष देखा है और न सुना है; अतः परमात्मा की प्राप्ति के लिये अनन्य भक्ति से उन्हीं परमेश्वर का भजन करना चाहिये।

इसके सिवा अपने को बड़ा विद्वान् मानने वाला पुरुष इस लोक में जिस उद्देश्य से बार-बार बहुत-से कर्म करता है, उस उद्देश्य की प्रप्ति तो दूर रही-उलटा उसे उसके विपरीत ही फल मिलता है और निस्सदेह मिलता है। कर्म में प्रवृत्त होने के दो ही उद्देश्य होते हैं-सुख पाना और दुःख से छूटना। परन्तु जो पहले कामना न होने के कारण सुख में निमग्न रहता था, उसे ही अब कामना के कारण यहाँ सदा-सर्वदा दुःख ही भोगना पड़ता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 43-55 का हिन्दी अनुवाद)

मनुष्य इस लोक में सकाम कर्मों के द्वारा जिस शरीर के लिये भोग प्राप्त करना चाहता है, वह शरीर ही पराया-स्यार-कुत्तों का भोजन और नाशवान् है। कभी वह मिल जाता है तो कभी बिछुड़ जाता है। जब शरीर की ही यह दशा है-तब इससे अलग रहने वाले पुत्र, स्त्री, महल, धन, सम्पत्ति, राज्य, खजाने, हाथी-घोड़े, मन्त्री, नौकर-चाकर, गुरुजन और दूसरे अपने कहलाने वालों की तो बात ही क्या है। ये तुच्छ विषय शरीर के साथ ही नष्ट हो जाते हैं। ये जान तो पड़ते हैं पुरुषार्थ के समान, परन्तु हैं वास्तव में अनर्थरूप ही। आत्मा स्वयं ही अनन्त आनन्द का महान् समुद्र है। उसके लिये इन वस्तुओं की क्या आवश्यकता है?

भाइयों! तनिक विचार तो करो-जो जीव गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त सभी अवस्थाओं में अपने कर्मों के अधीन होकर क्लेश-ही-क्लेश भोगत है, उसका इस संसार में स्वार्थ ही क्या है। यह जीव सूक्ष्म शरीर को ही अपना आत्मा मानकर उसके द्वारा अनेकों प्रकार के कर्म करता है और कर्मों के कारण ही फिर शरीर ग्रहण करता है। इस प्रकार कर्म से शरीर और शरीर से कर्म की परम्परा चल पड़ती है। और ऐसा होता है अविवेक के कारण। इसलिये निष्कामभाव से निष्क्रिय आत्मस्वरूप भगवान् श्रीहरि का भजन करना चाहिये। अर्थ, धर्म और काम-सब उन्हीं के आश्रित हैं, बिना उनकी इच्छा के नहीं मिल सकते। भगवान् श्रीहरि समस्त प्राणियों के ईश्वर, आत्मा और परम प्रियतम हैं। वे अपने ही बनाये हुए पंचभूत और सूक्ष्मभूत आदि के द्वारा निर्मित शरीरों में जीव के नाम से कहे जाते हैं। देवता, दैत्य, मनुष्य, यक्ष अथवा गन्धर्व- कोई भी क्यों न हो-जो भगवान् के चरणकमलों का सेवन करता है, वह हमारे ही समान कल्याण का भाजन होता है।

दैत्यबालको! भगवान् को प्रसन्न करने के लिये ब्राह्मण, देवता या ऋषि होना, सदाचार और विविध ज्ञानों से सम्पन्न होना तथा दान, तप, यज्ञ, शारीरिक और मानसिक शौच और बड़े-बड़े व्रतों का अनुष्ठान पर्याप्त नहीं है। भगवान् केवल निष्काम प्रेम-भक्ति से ही प्रसन्न होते हैं। और सब तो विडम्बना-मात्र हैं। इसलिये दानव-बन्धुओं! समस्त प्राणियों को अपने समान ही समझकर सर्वत्र विराजमान, सर्वात्मा, सर्वशक्तिमान् भगवान् की भक्ति करो। भगवान् की भक्ति के प्रभाव से दैत्य, यक्ष, राक्षस, स्त्रियाँ, शूद्र, गो पालक अहीर, पक्षी, मृग और बहुत-से पापी जीव भी भगवद्भाव को प्राप्त हो गये हैं। इस संसार में या मनुष्य-शरीर में जीव का सबसे बड़ा स्वार्थ अर्थात् एकमात्र परमार्थ इतना ही है कि वह भगवान् श्रीकृष्ण की अनन्य भक्ति प्राप्त करे। उस भक्ति का स्वरूप है सर्वदा, सर्वत्र जब वस्तुओं में भगवान् का दर्शन।

                           {सप्तम स्कन्ध:}

                        【अष्टम अध्याय:】८.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"नृसिंह भगवान् का प्रादुर्भाव, हिरण्यकशिपु का वध एवं ब्रह्मादि देवताओं द्वारा भगवान् की स्तुति"
नारद जी कहते हैं ;- प्रह्लाद का प्रवचन सुनकर दैत्य बालकों ने उसी समय से निर्दोष होने के कारण, उनकी बात पकड़ ली। गुरु जी की दूषित शिक्षा की ओर उन्होंने ध्यान ही न दिया।

जब गुरु जी ने देखा कि उन सभी विद्यार्थियों की बुद्धि एकमात्र भगवान् में स्थिर हो रही है, तब वे बहुत घबराये और तुरंत हिरण्यकशिपु के पास जाकर निवेदन किया। अपने पुत्र प्रह्लाद की इस असह्य और अप्रिय अनीति को सुनकर क्रोध के मारे उसका शरीर थर-थर काँपने लगा। अन्त में उसने यही निश्चय किया कि प्रह्लाद को अब अपने ही हाथ से मार डालना चाहिये।

मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाले प्रह्लाद जी बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर चुपचाप हिरण्यकशिपु के सामने खड़े थे और तिरस्कार के सर्वथा अयोग्य थे। परन्तु हिरण्यकशिपु स्वभाव से ही क्रूर था। वह पैर की चोट खाये हुए साँप की तरह फुफकारने लगा। उसने उनकी ओर पाप भरी टेढ़ी नजर से देखा और कठोर वाणी से डाँटते हुए कह- ‘मूर्ख! तू बड़ा उदण्ड हो गया है। स्वयं तो नीच है ही, अब हमारे कुल के और बालकों को भी फोड़ना चाहता है। तूने बड़ी ढिठाई से मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया है। आज ही तुझे यमराज के घर भेजकर इसका फल चखाता हूँ। मैं तनिक-सा क्रोध करता हूँ तो तीनों लोक और उनके लोकपाल काँप उठते हैं। फिर मूर्ख! तूने किसके बल-बूते पर निडर की तरह मेरी आज्ञा के विरुद्ध काम किया है?'

प्रह्लाद ने कहा ;- दैत्यराज! ब्रह्मा से लेकर तिनके तक सब छोड़े-बड़े, चर-अचर जीवों को भगवान् ने ही अपने वश में कर रखा है। न केवल मेरे और आपके, बल्कि संसार के समस्त बलवानों के बल भी केवल वही हैं। वे ही महापराक्रमी सर्वशक्तिमान् प्रभु काल हैं तथा समस्त प्राणियों के इन्द्रियबल, मनोबल, देहबल, धैर्य एवं इन्द्रिय भी वही हैं। वह परमेश्वर अपनी शक्तियों के द्वारा इस विश्व की रचना, रक्षा और संहार करते हैं। वे ही तीनों गुणों के स्वामी हैं। आप अपना यह आसुर भाव छोड़ दीजिये। अपने मन को सबके प्रति समान बनाइये। इस संसार में अपने वश में न रहने वाले कुमार्गगामी मन के अतिरिक्त और कोई शत्रु नहीं है। मन में सबके प्रति समता का भाव लाना ही भगवान् की सबसे बड़ी पूजा है। जो लोग अपना सर्वस्व लूटने वाले इन छः इन्द्रियरूपी डाकुओं पर तो पहले विजय नहीं प्राप्त करते और ऐसा मानने लगते हैं कि हमने दासों दिशाएँ जीत लीं, वे मूर्ख हैं। हाँ, जिस ज्ञानी एवं जितेन्द्रिय महात्मा ने समस्त प्राणियों के प्रति समता का भाव प्राप्त कर लिया, उसके अज्ञान से पैदा होने वाले काम-क्रोधादि शत्रु भी मर-मिट जाते हैं; फिर बाहर के शत्रु तो रहें ही कैसे।

हिरण्यकशिपु ने कहा ;- 'रे मन्दबुद्धि! तेरे बहकने की भी अब हद हो गयी है। यह बात स्पष्ट है कि अब तू मरना चाहता है। क्योंकि जो मरना चाहते हैं, वे ही ऐसी बेसिर-पैर की बातें बका करते हैं। अभागे! तूने मेरे सिवा जो और किसी को जगत् का स्वामी बतलाया है, सो देखूँ तो तेरा वह जगदीश्वर कहाँ है। अच्छा, क्या कहा, वह सर्वत्र है? तो इस खंभे में क्यों नहीं दीखता?

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: अष्टम अध्यायः श्लोक 14-23 का हिन्दी अनुवाद)

अच्छा, तुझे इस खंभे में भी दिखायी देता है! अरे, तू क्यों इतनी डींग-हाँक रहा है? मैं अभी-अभी तेरा सिर धड़ से अलग किये देता हूँ। देखता हूँ तेरा सर्वस्व हरि, जिस पर तुझे इतना भरोसा है, तेरी कैसे रक्षा करता है।'

इस प्रकर वह अत्यन्त बलवान् महादैत्य भगवान् के परमप्रेमी प्रह्लाद को बार-बार झिड़कियाँ देता और सताता रहा। जब क्रोध के मारे वह अपने को रोक न सका, तब हाथ में खड्ग लेकर सिंहासन से कूद पड़ा और बड़े जोर से उस खंभे को एक घूँसा मारा। उसी समय उस खंभे में एक बड़ा भयंकर शब्द हुआ। ऐसा जान पड़ा मानो यह ब्रह्माण्ड ही फट गया हो। वह ध्वनि जब लोकपालों के लोक में पहुँची, तब उसे सुनकर ब्रह्मादि को ऐसा जान पड़ा, मानो उनके लोकों का प्रलय हो रहा हो। हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को मार डालने के लिये बड़े जोर से झपटा था; परन्तु दैत्य सेनापतियों को भी भय से कँपा देने वाले उस अद्भुत और अपूर्व घोर शब्द को सुनकर वह घबराया हुआ-सा देखने लगा कि यह शब्द करने वाला कौन है? परन्तु उसे सभा के भीतर कुछ भी दिखायी न पड़ा।

इसी समय अपने सेवक प्रह्लाद और ब्रह्मा की वाणी सत्य करने और समस्त पदार्थों में अपनी व्यापकता दिखाने के लिये सभा के भीतर उसी खंभे में बड़ा ही विचित्र रूप धारण करके भगवान् प्रकट हुए। वह रूप न तो पूरा-पूरा सिंह का था और न मनुष्य का ही। जिस समय हिरण्यकशिपु शब्द करने वाले की इधर-उधर खोज कर रहा था, उसी समय खंभे के भीतर से निकलते हुए उस अद्भुत प्राणी को उसने देखा। वह सोचने लगा- 'अहो, यह न तो मनुष्य है और न पशु; फिर यह नृसिंह के रूप में कौन-सा अलौकिक जीव है।'

जिस समय हिरण्यकशिपु इस उधेड़-बुन में लगा हुआ था, उसी समय उसके बिलकुल सामने ही नृसिंह भगवान् खड़े हो गये। उनका वह रूप अत्यधिक भयावना था। तपाये हुए सोने के समान पीली-पीली भयानक आँखें थीं। जँभाई लेने से गरदन के बाल इधर-उधर लहरा रहे थे। दाढ़ें बड़ी विकराल थीं। तलवार की तरह लपलपाती हुई छूरे की धार के समान तीखी जीभ थी। टेढ़ी भौंहों से उनका मुख और भी दारुण हो रहा था। कान निश्चल एवं ऊपर की ओर उठे हुए थे। फूली हुई नासिका और खुला हुआ मुँह पहाड़ की गुफा के समान अद्भुत जान पड़ता था। फटे हुए जबड़ों से उसकी भयंकरता बहुत बढ़ गयी थी। विशाल शरीर स्वर्ग का स्पर्श कर रहा था। गरदन कुछ नाटी और मोटी थी। छाती चौड़ी और कमर बहुत पतली थी। चन्द्रमा की किरणों के समान सफ़ेद रोएँ सारे शरीर पर चमक रहे थे, चारों ओर सैकड़ों भुजाएँ फैली हुई थीं, जिनके बड़े-बड़े नख आयुध का काम देते थे। उनके पास फटकने तक का साहस किसी को न होता था। चक्र आदि अपने निज आयुध तथा वज्र आदि अन्य श्रेष्ठ शस्त्रों के द्वारा उन्होंने सारे दैत्य-दानवों को भगा दिया। हिरण्यकशिपु सोचने लगा- 'हो-न-हो महामायावी विष्णु ने ही मुझे मार डालने के लिये यह ढंग रचा है; परन्तु इसकी इन चालों से हो ही क्या सकता है।'

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 24-32 का हिन्दी अनुवाद)

इस प्रकार कहता और सिंहनाद करता हुआ दैत्यराज हिरण्यकशिपु हाथ में गदा लेकर नृसिंह भगवान् पर टूट पड़ा। परन्तु जैसे पतिंगा आग में गिरकर अदृश्य हो जाता है, वैसे ही वह दैत्य भगवान् के तेज के भीतर जाकर लापता हो गया। समस्त शक्ति और तेज के आश्रय भगवान् के सम्बन्ध में ऐसी घटना कोई आश्चर्यजनक नहीं है; क्योंकि सृष्टि के प्रारम्भ में उन्होंने अपने तेज से प्रलय के निमित्तभूत तमोगुणरूपी घोर अन्धकार को भी पी लिया था।

तदनन्तर वह दैत्य बड़े क्रोध से लपका और अपनी गदा को बड़े जोर से घुमाकर उसने नृसिंह भगवान् पर प्रहार किया। प्रहार करते समय ही-जैसे गरुड़ साँपों को पकड़ लेते हैं, वैसे ही भगवान् ने गदा सहित उस दैत्य को पकड़ लिया। वे जब उसके साथ खिलवाड़ करने लगे, तब वह दैत्य उनके हाथ से वैसे ही निकल गया, जैसे क्रीड़ा करते हुए गरुड़ के चंगुल से साँप छूट जाये।

युधिष्ठिर! उस समय सब-के-सब लोकपाल बादलों में छिपकर इस युद्ध को देख रहे थे। उनका स्वर्ग तो हिरण्यकशिपु ने पहले ही छीन लिया था। जब उन्होंने देखा कि वह भगवान् के हाथ से छूट गया, तब वे और भी डर गये। हिरण्यकशिपु ने भी यही समझा कि नृसिंह ने मेरे बलवीर्य से डरकर ही मुझे अपने हाथ से छोड़ दिया है। इस विचार से उसकी थकान जाती रही और वह युद्ध के लिये ढाल-तलवार लेकर फिर उनकी ओर दौड़ पड़ा। उस समय वह बाज की तरह बड़े वेग से ऊपर-नीचे उछल-कूदकर इस प्रकार ढाल-तलवार के पैंतरे बदलने लगा कि जिससे उन पर आक्रमण करने का अवसर ही न मिले। तब भगवान् ने बड़े ऊँचे स्वर में प्रचण्ड और भयंकर अट्टहास किया, जिससे हिरण्यकशिपु की आँखें बंद हो गयीं। फिर बड़े वेग से झपटकर भगवान् ने उसे वैसे ही पकड़ लिया, जैसे साँप चूहे को पकड़ लेता है।

जिस हिरण्यकशिपु के चमड़े पर वज्र की चोट से भी खरोंच नहीं आयी थी, वही अब उनके पंजे से निकलने के लिये जोर से छटपटा रहा था। भगवान् ने सभा के दरवाजे पर ले जाकर उसे अपनी जाँघों पर गिरा लिया और खेल-खेल में अपने नखों से उसे उसी प्रकार फाड़ डाला, जैसे गरुड़ महाविषधर साँप को चीर डालते हैं। उस समय उनकी क्रोध से भरी विकराल आँखों की ओर देखा नहीं जाता था। वे अपनी लपलपाती हुई जीभ से फैले हुए मुँह के दोनों कोने चाट रहे थे। खून के छींटों से उनका मुँह और गरदन के बाल लाल हो रहे थे। हाथी को मारकर गले में आँतों की माला पहले हुए मृगराज के समान उनकी शोभा हो रही थी। उन्होंने अपने तीखे नखों से हिरण्यकशिपु का कलेजा फाड़कर उसे जमीन पर पटक दिया। उस समय हजारों दैत्य-दानव हाथों में शस्त्र लेकर भगवान् पर प्रहार करने के लिये आये। पर भगवान् ने अपनी भुजारूपी सेना से, लातों से और नखरूपी शस्त्रों से चारों ओर खदेड़-खदेड़ कर उन्हें मार डाला।

युधिष्ठिर! उस समय भगवान् नृसिंह के गरदन के बालों की फटकार से बादल तितर-बितर होने लगे। उनके नेत्रों की ज्वाला से सूर्य आदि ग्रहों का तेज फीका पड़ गया। उनके श्वास के धक्के से समुद्र क्षुब्ध हो गये। उनके सिंहनाद से भयभीत होकर दिग्गज चिग्घाड़ने लगे।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 33-44 का हिन्दी अनुवाद)

उनके गरदन के बालों से टकराकर देवताओं के विमान अस्त-व्यस्त हो गये। स्वर्ग डगमगा गया। उनके पैरों की धमक से भूकम्प आ गया, वेग से पर्वत उड़ने लगे और उनके तेज की चकाचौंध से आकाश तथा दिशाओं का दीखना बंद हो गया। इस समय नृसिंह भगवान् का सामना करने वाला कोई दिखायी न पड़ता था। फिर भी उनका क्रोध अभी बढ़ता ही जा रहा था। वे हिरण्यकशिपु की राजसभा में ऊँचें सिंहासन पर जाकर विराज गये। उस समय उनके अत्यन्त तेजपूर्ण और क्रोध भरे भयंकर चेहरे को देखकर किसी का भी साहस न हुआ कि उनके पास जाकर उनकी सेवा करे।

युधिष्ठिर! जब स्वर्ग की देवियों को यह शुभ समाचार मिला कि तीनों लोकों के सिर की पीड़ा मूर्तिमान् स्वरूप हिरण्यकशिपु युद्ध में भगवान् के हाथों मार डाला गया, तब आनन्द के उल्लास से उनके चेहरे खिल उठे। वे बार-बार भगवान् पर पुष्पों की वर्षा करने लगीं। आकाश में विमानों से आये हुए भगवान् के दर्शनार्थी देवताओं की भीड़ लग गयी। देवताओं के ढोल और नगारे बजने लगे। गन्धर्वराज गाने लगे, अप्सराएँ नाचने लगीं। तात! इसी समय ब्रह्मा, इन्द्र, शंकर आदि देवता, ऋषि, पितर, सिद्ध, विद्याधर, महानाग, मनु, प्रजापति, गन्धर्व, अप्सराएँ, चारण, यक्ष, किम्पुरुष, वेताल, सिद्ध, किन्नर और सुनन्द-कुमुद आदि भगवान् के सभी पार्षद उनके पास आये। उन लोगों ने सिर पर अंजलि बाँधकर सिंहासन पर विराजमान अत्यन्त तेजस्वी नृसिंह भगवान् की थोड़ी देर से अलग-अलग स्तुति की।

ब्रह्मा जी ने कहा ;- 'प्रभो! आप अनन्त हैं। आपकी शक्ति का कोई पार नहीं पा सकता। आपका पराक्रम विचित्र और कर्म पवित्र हैं। यद्यपि गुणों के द्वारा आप लीला से ही सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति, पालन और प्रलय यथोचित ढंग से करते हैं-फिर भी आप उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रखते, स्वयं निर्विकार रहते हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ।'

श्रीरुद्र ने कहा ;- 'आपके क्रोध करने का समय तो कल्प के अन्त में होता है। यदि इस तुच्छ दैत्य को मारने के लिये ही आपने क्रोध किया है तो वह भी मारा जा चुका। उसका पुत्र आपकी शरण में आया है। भक्तवत्सल प्रभो! आप अपने इस भक्त की रक्षा कीजिये।'

इन्द्र ने कहा ;- 'पुरुषोत्तम! आपने हमारी रक्षा की है। आपने हमारे जो यज्ञभाग लौटाये हैं, वे वास्तव में आप (अन्तर्यामी) के ही हैं। दैत्यों के आतंक से संकुचित हमारे हृदयकमल को आपने प्रफुल्लित कर दिया। वह भी आपका ही निवासस्थान है। यह जो स्वर्गादि का राज्य हम लोगों को पुनः प्राप्त हुआ है, यह सब काल का ग्रास है। जो आपके सेवक हैं, उनके लिये यह है कि क्या? स्वामिन्! जिन्हें आपकी सेवा की चाह है, वे मुक्ति का भी आदर नहीं करते। फिर अन्य भोगों की तो उन्हें आवश्यकता ही क्या है।'

ऋषियों ने कहा ;- 'पुरुषोत्तम! आपने तपस्या के द्वारा ही अपने में लीन हुए जगत् की फिर से रचना की थी और कृपा करके उसी आत्मतेजःस्वरूप श्रेष्ठ तपस्या का उपदेश आपने हमारे लिये भी किया था। इस दैत्य ने उसी तपस्या का उच्छेद कर दिया था। शरणागतवत्सल! उस तपस्या की रक्षा के लिये फिर से उसी उपदेश का अनुमोदन किया है।'

पितर ने कहा ;- 'प्रभो! हमारे पुत्र हमारे लिये पिण्डदान करते थे, यह उन्हें बलात् छीनकर खा जाया करता था। जब वे पवित्र तीर्थों में या संक्रान्ति आदि के अवसर पर नैमित्तिक तर्पण करते या तिलांजलि देते, तब उसे भी यह पी जाता। आज आपने अपने नखों से उसका पेट फाड़कर वह सब-का-सब लौटाकर मानो हमें दे दिया। आप समस्त धर्मों के एकमात्र रक्षक हैं। नृसिंहदेव! हम अपको नमस्कार करते हैं।'

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 45-56 का हिन्दी अनुवाद)

सिद्धों ने कहा ;- 'नृसिंह देव! इस दुष्ट ने अपने योग और तपस्या के बल से हमारी योगसिद्धि गति छीन ली थी। अपने नखों से आपने उस घमंडी को फाड़ डाला है। हम आपके चरणों में विनीतभाव से नमस्कार करते हैं।'

विद्याधरों ने कहा ;- 'यह मूर्ख हिरण्यकशिपु अपने बल और वीरता के घमंड में चूर था। यहाँ तक कि हम लोगों ने विविध धारणाओं से जो विद्या प्राप्त की थी, उसे इसने व्यर्थ कर दिया था। आपने युद्ध में यज्ञपशु की तरह इसको नष्ट कर दिया। अपनी लीला से नृसिंह बने हुए आपको हम नित्य-निरन्तर प्रणाम करते हैं।'

नागों ने कहा ;- 'इस पापी ने हमारी मणियों और हमारी श्रेष्ठ और सुन्दर स्त्रियों को छीन लिया था। आज उसकी छाती फाड़कर आपने हमारी पत्नियों को बड़ा आनन्द दिया है। प्रभो! हम आपको नमस्कार करते हैं।'

मनुओं ने कहा ;- 'देवाधिदेव! हम आपके आज्ञाकारी मनु हैं। इस दैत्य ने हम लोगों की धर्म मर्यादा भंग कर दी थी। आपने उस दुष्ट को मारकर बड़ा उपकार किया है। प्रभो! हम आपके सेवक हैं। आज्ञा कीजिये, हम आपकी क्या सेवा करें?'

प्रजापतियों ने कहा ;- 'परमेश्वर! आपने हमें प्रजापति बनाया था। परन्तु इसके रोक देने से हम प्रजा की सृष्टि नहीं कर पाते थे। आपने इसकी छाती फाड़ डाली और यह जमीन पर सर्वदा के लिये सो गया। सत्त्वमय मूर्ति धारण करने वाले प्रभो! आपक यह अवतार संसार के कल्याण के लिये है।'

गन्धर्वों ने कहा ;- 'प्रभो! हम आपके नाचने वाले, अभिनय करने वाले और संगीत सुनाने वाले सेवक हैं। इस दैत्य ने अपने बल, वीर्य और पराक्रम से हमें अपना गुलाम बना रखा था। उसे आपने इस दशा में पहुँचा दिया। सच है, कुमार्ग से चलने वाले का भी क्या कभी कल्याण हो सकता है?'

चारणों ने कहा ;- 'प्रभो! आपने सज्जनों के हृदय को पीड़ा पहुँचाने वाले इस दुष्ट को समाप्त कर दिया। इसलिये हम आपके उन चरणकमलों की शरण में हैं, जिनके प्राप्त होते ही जन्म-मृत्युरूप संसारचक्र से छुटकारा मिल जाता है।'

यक्षों ने कहा ;- 'भगवन्! अपने श्रेष्ठ कर्मों के कारण हम लोग आपके सेवकों में प्रधान गिने जाते थे। परन्तु हिरण्यकशिपु ने हमें अपनी पालकी ढोने वाला कहार बना लिया। प्रकृति के नियामक परमात्मा! इसके कारण होने वाले अपने जिनजनों के कष्ट जानकर ही आपने इसे मार डाला है।'

किम्पुरुषों ने कहा ;- 'हम लोग अत्यन्त तुच्छ किम्पुरुष हैं और आप सर्वशक्तिमान् महापुरुष हैं। जब सत्पुरुषों ने इसका तिरस्कार किया- इसे धिक्कारा, तभी आज आपने इस कुपुरुष- असुराधम को नष्ट कर दिया।'

वैतालिकों ने कहा ;- 'भगवन्! बड़ी-बड़ी सभाओं और ज्ञानयज्ञों में आपके निर्मल यश का गान करके हम बड़ी प्रतिष्ठा-पूजा प्राप्त करते थे। इस दुष्ट ने हमारी वह आजीविका ही नष्ट कर दी थी। बड़े सौभाग्य की बात है कि महारोग के समान इस दुष्ट को आपन जड़मूल से उखाड़ दिया।'

किन्नरों ने कहा ;- 'हम किन्नरगण आपके सेवक हैं। यह दैत्य हमसे बेगार में ही काम लेता था। भगवन्! आपने कृपा करके आज इस पापी को नष्ट कर दिया। प्रभो! आप इसी प्रकार हमारा अभ्युदय करते रहें।'

भगवान् के पार्षदों ने कहा ;- 'शरणागतवत्सल! सम्पूर्ण लोकों को शान्ति प्रदान करने वाला आपका यह अलौकिक नृसिंह रूप हमने आज ही देखा है। भगवन्! यह दैत्य आपका वही आज्ञाकारी सेवक था, जिसे सनकादि ने शाप दे दिया था। हम समझते हैं, आपने कृपा करके इसके उद्धार के लिये ही इसका वध किया है।'

                           {सप्तम स्कन्ध:}

                        【नवम अध्याय:】९.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"प्रह्लाद जी के द्वारा नृसिंह भगवान् की स्तुति"
नारद जी कहते हैं ;- इस प्रकार ब्रह्मा, शंकर आदि सभी देवगण नृसिंह भगवान् के क्रोधावेश को शान्त न कर सके और न उनके पास जा सके। किसी को उसका ओर-छोर नहीं दीखता था। देवताओं ने उन्हें शान्त करने के लिये स्वयं लक्ष्मी जी को भेजा। उन्होंने जाकर जब नृसिंह भगवान् का वह महान् अद्भुत रूप देखा, तब भयवश वे भी उनके पास तक न जा सकीं। उन्होंने ऐसा अनूठा रूप न कभी देखा और न सुना ही था।

तब ब्रह्मा जी ने अपने पास ही खड़े प्रह्लाद को यह कहकर भेजा कि ‘बेटा! तुम्हारे पिता पर ही तो भगवान् कुपित हुए थे। अब तुम्हीं उनके पास जाकर उन्हें शान्त करो’। भगवान् के परम प्रेमी प्रह्लाद ‘जो आज्ञा’ कहकर और धीरे से भगवान् के पास जाकर हाथ जोड़ पृथ्वी पर साष्टांग लोट गये। नृसिंह भगवान् ने देखा कि नन्हा-सा बालक मेरे चरणों के पास पड़ा हुआ है। उनका हृदय दया से भर गया। उन्होंने प्रह्लाद को उठाकर उनके सिर पर अपना वह करकमल रख दिया, जो कालसर्प से भयभती पुरुषों को अभयदान करने वाला है।

भगवान् के करकमलों का स्पर्श होते ही उनके बचे-खुचे अशुभ संस्कार भी झड़ गये। तत्काल उन्हें परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार हो गया। उन्होंने बड़े प्रेम और आनन्द में मग्न होकर भगवान् के चरणकमलों को अपने हृदय में धारण किया। उस समय उनका सारा शरीर पुलकित हो गया, हृदय में प्रेम की धारा प्रवाहित होने लगी और नेत्रों से आनन्दाश्रु झरने लगे। प्रह्लाद जी भावपूर्ण हृदय और निर्निमेष नयनों से भगवान् को देख रहे थे। भाव समाधि से स्वयं एकाग्र हुए मन के द्वारा होने भगवान् के गुणों का चिन्तन करते हुए प्रेमगद्गद वाणी से स्तुति की।

प्रह्लाद जी ने कहा ;- ब्रह्मा आदि देवता, ऋषि-मुनि और सिद्ध पुरुषों की बुद्धि निरन्तर सत्त्वगुण में ही स्थित रहती है। फिर भी वे अपनी धारा-प्रवाह स्तुति और अपने विविध गुणों से आपको अब तक भी सन्तुष्ट नहीं कर सके। फिर मैं तो घोर असुर-जाति में उत्पन्न हुआ हूँ। क्या आप मुझसे सन्तुष्ट हो सकते हैं? मैं समझता हूँ कि धन, कुलीनता, रूप, तप, विद्या, ओज, तेज, प्रभाव, बल, पौरुष, बुद्धि और योग- ये सभी गुण परमपुरुष भगवान् को सन्तुष्ट करने में समर्थ नहीं हैं- परन्तु भक्ति से तो भगवान् गजेन्द्र पर भी सन्तुष्ट हो गये थे। मेरी समझ से इन बारह गुणों से युक्त ब्राह्मण भी यदि भगवान् कमलनाभ के चरणकमलों से विमुख हो तो उससे वह चाण्डालश्रेष्ठ है, जिसने अपने मन, वचन, कर्म, धन और प्राण भगवान् के चरणों में समर्पित कर रखे हैं; क्योंकि वह चाण्डाल तो अपने कुल तक को पवित्र कर देता है और बड़प्पन का अभिमान रखने वाला वह ब्राह्मण अपने को भी पवित्र नहीं कर सकता। सर्वशक्तिमान् प्रभु अपने स्वरूप के साक्षात्कार से ही परिपूर्ण हैं। उन्हें अपने लिये क्षुद्र पुरुषों की पूजा ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है। वे करुणावश ही भोले भक्तों के हित के लिये उनके द्वारा की हुई पूजा स्वीकार कर लेते हैं। जैसे अपने मुख का सौन्दर्य दर्पण में दीखने वाले प्रतिबिम्ब को भी सुन्दर बना देता है, वैसे ही भक्त भगवान् के प्रति जो-जो सम्मान प्रकट करता है, वह उसे ही प्राप्त होता है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 12-20 का हिन्दी अनुवाद)

इसलिये सर्वथा अयोग्य और अनधिकारी होने पर भी मैं बिना किसी शंका के अपनी बुद्धि के अनुसार सब प्रकार से भगवान् की महिमा का वर्णन कर रहा हूँ। इस महिमा के गान का ही ऐसा प्रभाव है कि अविद्यावश संसारचक्र में पड़ा हुआ जीव तत्काल पवित्र हो जाता है।

भगवन! आप सत्त्वगुण के आश्रय हैं। ये ब्रह्मा आदि देवता आपके आज्ञाकारी भक्त हैं। ये हम दैत्यों की तरह आपसे द्वेष नहीं करते। प्रभो! आप बड़े-बड़े सुन्दर-सुन्दर अवतार ग्रहण करके इस जगत् के कल्याण एवं अभ्युदय के लिये तथा उसे आत्मानन्द की प्राप्ति कराने के लिये अनेकों प्रकार की लीलाएँ करते हैं। जिस असुर को मारने के लिये आपने क्रोध किया था, वह मारा जा चुका। अब आप अपना क्रोध शान्त कीजिये। जैसे बिच्छू और साँप की मृत्यु से सज्जन भी सुखी ही होते हैं, वैसे ही इस दैत्य के संहार से सभी लोगों को बड़ा सुख मिला है। अब सब आपके शान्त स्वरूप के दर्शन की बाट जोह रहे हैं।

नृसिंहदेव! भय से मुक्त होने के लिये भक्तजन आपके इस रूप का स्मरण करेंगे। परमात्मान्! आपका मुख बड़ा भयावना है। आपकी जीभ लपलपा रही है। आँखें सूर्य के समन हैं। भौंहें चढ़ी हुई हैं। बड़ी पैनी दाढ़ें हैं। आँतों की माला, खून से लथपथ गरदन के बाल, बर्छे की तरह सीधे खड़े कान और दिग्गजों को भी भयभीत कर देने वाला सिंहनाद एवं शत्रुओं को फाड़ डालने वाले आपके इन नखों को देखकर मैं तनिक भी भयभीत नहीं हुआ हूँ। दीनबन्धों! मैं भयभीत हूँ तो केवल इस असह्य और उग्र संसारचक्र में पिसने से। मैं अपने कर्मपाशों से बँधकर इन भयंकर जंतुओं के बीच में डाल दिया गया हूँ। मेरे स्वामी! आप प्रसन्न होकर मुझे कब अपने उन चरणकमलों में बुलायेंगे, जो समस्त जीवों की एकमात्र शरण और मोक्षस्वरूप हैं?

अनन्त! मैं जिन-जिन योनियों में गया, उन सभी योनियों में प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग से होने वाले शोक की आग में झुलसता रहा। उन दुःखों को मिटाने की जो दवा है, वह भी दुःख रूप ही है। मैं न जाने कब से अपने से अतिरिक्त वस्तुओं को आत्मा समझकर इधर-उधर भटक रहा हूँ। अब आप ऐसा साधन बतलाइये जिससे कि आपकी सेवा-भक्ति प्राप्त कर सकूँ। प्रभो! आप हमारे प्रिय हैं। अहैतुक हितैषी सुहृद् हैं। आप ही वास्तव में सबके परमाराध्य हैं। मैं ब्रह्मा जी के द्वारा गायी हुई आपकी लीला-कथाओं का गान करता हुआ बड़ी सुगमता से रागादि प्राकृत गुणों से मुक्त होकर इस संसार की कठिनाइयों को पार कर लाऊँगा; क्योंकि आपके चरण युगलों में रहने वाले भक्त परमहंस महात्माओं का संग तो मुझे मिलता ही रहेगा।

भगवान् नृसिंह! इस लोक में दुःखी जीवों का दुःख मिटाने के लिये जो उपाय माना जाता है, वह आपके उपेक्षा करने पर एक क्षण के लिये ही होता है। यहाँ तक कि माँ-बाप बालक की रक्षा नहीं कर सकते, ओषधि रोग नहीं मिटा सकती और समुद्र में डूबते हुए को नौका नहीं बचा सकती। सत्त्वादि गुणों के कारण भिन्न-भिन्न स्वभाव के जितने भी ब्रह्मादि श्रेष्ठ और कालादि कनिष्ठ कर्ता हैं, उनको प्रेरित करने वाले आप ही हैं। वे आपकी प्रेरणा से जिस आधार में स्थित होकर जिस निमित्त से जिन मिट्टी आदि उपकरणों से जिस समय जिन साधनों के द्वारा जिस अदृष्ट आदि की सहायता से जिस प्रयोजन के उद्देश्य से जिस विधि से जो कुछ उत्पन्न करते हैं या रूपान्तरित करते हैं, वे सब और वह सब आपका ही स्वरूप है।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 21-28 का हिन्दी अनुवाद)

पुरुष की अनुमति से काल के द्वारा गुणों में क्षोभ होने पर माया मनःप्रधान लिंग शरीर का निर्माण करती है। यह लिंग शरीर बलवान्, कर्ममय एवं अनेक नाम-रूपों में आसक्त-छन्दोमय है। यही अविद्या के द्वारा कल्पित मन, दस इन्द्रिय और पाँच तन्मात्रा-इन सोलह विकाररूप अरों से युक्त संसार-चक्र है।

जन्मरहित प्रभो! आपसे भिन्न रहकर ऐसा कौन पुरुष है, जो इस मनरूप संसारचक्र को पार कर जाये? सर्वशक्तिमान् प्रभो! माया इस सोलह अरों वाले संसारचक्र में डालकर ईख के समान मुझे पेर रही है। आप अपनी चैतन्य शक्ति से बुद्धि के समस्त गुणों को सर्वदा पराजित रखते हैं और कालरूप से सम्पूर्ण साध्य और साधनों को अपने अधीन रखते हैं। मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मुझे इनसे बचाकर अपनी सन्निधि में खींच लीजिये।

भगवन्! जीनके लिये संसारी लोग बड़े लालायित रहते हैं, स्वर्ग में मिलने वाली समस्त लोकपालों की वह आयु, लक्ष्मी और ऐश्वर्य मैंने खूब देख लिये। जिस समय मेरे पिता तनिक क्रोध करके हँसते थे और उससे उनकी भौंहें थोड़ी टेढ़ी हो जाती थीं, तब उन स्वर्ग की सम्पत्तियों के लिये कहीं ठिकाना नहीं रह जाता था, वे लुटती फिरती थीं। किन्तु आपने मेरे उन पिता को भी मार डाला। इसलिये मैं ब्रह्मलोक की आयु, लक्ष्मी, ऐश्वर्य और वे इन्द्रिय भोग, जिन्हें संसार के प्राणी चाहा करते हैं, नहीं चाहता; क्योंकि मैं जानता हूँ कि अत्यन्त शक्तिशाली काल का रूप धारण करके आपने उन्हें ग्रस रखा है। इसलिये मुझे आप अपने दासों की सन्निधि में ले चलिये।

विषय भोग की बातें सुनने में ही अच्छी लगती हैं, वास्तव में मृगतृष्णा के जल के समान नितान्त असत्य हैं और यह शरीर भी, जिससे वे भोग भोगे जाते हैं, अगणित रोगों का उद्गम स्थान है। कहाँ वे मिथ्या विषय भोग और कहाँ यह रोगयुक्त शरीर। इन दोनों की क्षणभंगुरता और असारता जानकर भी मनुष्य इनसे विरक्त नहीं होता। वह कठिनाई से प्राप्त होने वाले भोग के नन्हे-नन्हें मधुविन्दुओं से अपनी कामना की आग बुझाने की चेष्टा करता है।

प्रभो! कहाँ तो इस तमोगुणी असुर वंश में रजोगुण से उत्पन्न हुआ मैं, और कहाँ आपकी अनन्त कृपा! धन्य है! आपने अपना परम प्रसादस्वरूप और सकल सन्तापहारी वह करकमल मेरे सिर पर रखा है, जिसे आपने ब्रह्मा, शंकर और लक्ष्मी के सिर पर कभी नहीं रखा। दूसरे संसारी जीवों के समान आपमें छोटे-बड़े का भेदभाव नहीं है; क्योंकि आप सबके आत्मा और अकारण प्रेमी हैं। फिर भी कल्पवृक्ष के समान आपका कृपा-प्रसाद भी सेवन-भजन से ही प्राप्त होता है। सेवा के अनुसार ही जीवों पर आपकी कृपा का उदय होता है, उसमें जातिगत उच्चता या नीचता कारण नहीं है। भगवन्! यह संसार एक ऐसा अँधेरा कुआँ है, जिसमें कालरूप सर्प डँसने के लिये सदा तैयार रहता है। विषय-भोगों की इच्छा वाले पुरुष उसी में गिरे हुए हैं। मैं भी संगवश उसके पीछे उसी में गिरने जा रहा था। परन्तु भगवन्! देवर्षि नारद ने मुझे अपनाकर बचा लिया। तब भला, मैं आपके भक्तजनों की सेवा कैसे छोड़ सकता हूँ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 29-36 का हिन्दी अनुवाद)

अनन्त! जिस समय मेरे पिता ने अन्याय करने के लिये कमर कसकर हाथ में खड्ग ले लिया और वह कहने लगा कि ‘यदि मेरे सिवा कोई और ईश्वर है तो तुझे बचा ले, मैं तेरा सिर काटता हूँ’, उस समय आपने मेरे प्राणों की रक्षा की और मेरे पिता का वध किया। मैं समझता हूँ कि आपने अपने प्रेमी भक्त सनकादि ऋषियों का वचन सत्य करने के लिये ही वैसा किया था।

भगवन! यह सम्पूर्ण जगत् एकमात्र आप ही हैं। क्योंकि इसके आदि में आप ही कारणरूप से थे, अन्त में आप ही अवधि के रूप में रहेंगे और बीच में इसकी प्रतीति के रूप में भी केवल आप ही हैं। आप अपनी माया से गुणों के परिणाम-स्वरूप इस जगत् की सृष्टि करके इसमें पहले से विद्यमान रहने पर भी प्रवेश की लीला करते हैं और उन गुणों से युक्त होकर अनेक मालूम पड़ रहे हैं।

भगवन! यह जो कुछ कार्य-कारण के रूप में प्रतीत हो रहा है, वह सब आप ही हैं और इससे भिन्न भी आप ही हैं। अपने-पराये का भेद-भाव तो अर्थहीन शब्दों की माया है; क्योंकि जिससे जिसका जन्म, स्थिति, लय और प्रकाश होता है, वह उसका स्वरूप ही होता है-जैसे बीज और वृक्ष कारण और कार्य की दृष्टि से भिन्न-भिन्न हैं, तो भी गन्ध-तन्मात्र की दृष्टि से दोनों एक ही हैं।

भगवन्! आप इस सम्पूर्ण विश्व को स्वयं ही अपने में समेटकर आत्मसुख का अनुभव करते हुए निष्क्रिय होकर प्रलयकालीन जल में शयन करते हैं। उस समय अपने स्वयं-सिद्ध योग के द्वारा बाह्य दृष्टि को बंद कर आप अपने स्वरूप के प्रकाश में निद्रा को विलीन कर लेते हैं और तुरीय ब्रह्मपद में स्थित रहते हैं। उस समय आप न तो तमोगुण से ही युक्त होते और न तो विषयों को ही स्वीकार करते हैं। आप अपनी कालशक्तिसे प्रकृति के गुणों को प्रेरित करते हैं, इसलिये यह ब्रह्माण्ड आपका ही शरीर है। पहले यह आपमें ही लीन था। जब प्रलयकालीन जल के भीतर शेष शय्या पर शयन करने वाले आपने योग निद्रा की समाधि त्याग दी, तब वट के बीज से विशाल वृक्ष के समान आपकी नाभि से ब्रह्माण्ड कमल उत्पन्न हुआ। उस पर सूक्ष्मदर्शी ब्रह्मा जी प्रकट हुए। जब उन्हें कमल के सिवा और कुछ भी दिखायी न पड़ा, तब अपने में बीजरूप से व्याप्त आपको वे न जान सके और आपको अपने से बाहर समझकर जल के भीतर घुसकर सौ वर्ष तक ढूँढ़ते रहे। परन्तु वहाँ उन्हें कुछ नहीं मिला। यह ठीक ही है, क्योंकि अंकुर उग आने पर उसमें व्याप्त बीज को कोई बाहर अलग कैसे देख सकता है।

ब्रह्मा को बड़ा आश्चर्य हुआ। वे हारकर कमल पर बैठ गये। बहुत समय बीतने पर तीव्र तपस्या करने से जब उनका हृदय शुद्ध हो गया, तब उन्हें भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरण रूप अपने शरीर में ही ओत-प्रोत रूप से स्थित आपके सूक्ष्म रूप का साक्षात्कार हुआ-ठीक वैसे ही जैसे पृथ्वी में व्याप्त उसकी अति सूक्ष्म तन्मात्रा गन्ध का होता है। विराट् पुरुष सहस्रों मुख, चरण, सिर, हाथ, जंघा, नासिका, मुख, कान, नेत्र, आभूषण और आयुधों से सम्पन्न था। चौदहों लोक उसके विभिन्न अंगों के रूप में शोभायमान थे। वह भगवान् की एक लीलामयी मूर्ति थी। उसे देखकर ब्रह्मा जी को बड़ा आनन्द हुआ।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: नवम अध्याय: श्लोक 37-43 का हिन्दी)

रजोगुण और तमोगुणरूप मधु और कैटभ नाम के दो बड़े बलवान् दैत्य थे। जब वे वेदों को चुराकर ले गए, तब आपने हयग्रीव-अवतार को किया और उन दोनों को मारकर सत्त्वगुणरूप श्रुतियाँ ब्रह्मा जी को लौटा दीं। वह सत्त्वगुण ही तुम्हारा अत्यंतन्त प्रिय शरीर है-महात्मा लोग इस प्रकार वर्णन करते हैं।

पुरुषोत्तम! इस प्रकार आप मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋषि , देवता और मत्स्य आदि अवतार लेकर लोकों का पालन और विश्व के द्रोहियों का संहार करते हैं। ये अवतारों के द्वारा आप प्रत्येक युग में उसके धर्मों की रक्षा करते हैं। कलियुग में आप छिपकर गुप्त रूप से ही रहते हैं, इसलिए आपक एक नाम 'त्रियुग' भी है।

वैकुण्ठनाथ! मेरे मन की बड़ी दुर्दशा है। वह पाप-वासनाओं से तो कलुषित है ही, स्वयं भी अत्यन्त दुष्ट है। वह प्राथमिकता: ही कामनाओं के कारण आतुर रहता है और हर्ष-शोक, भय और लोक-परलोक, धन, पत्नी, पुत्र आदि की चिन्ताओं से व्याकुल रहता है। इसे आपकी लीला-कथाओं में तो रस ही नहीं मिलता। इसके मारे मैं दीन हो रहा हूँ। ऐसा मन से मैं आपके स्वरूप का चिन्तन कैसे करूँ? अच्युत! यह कभी न अघाने की जीभ मुझे स्वादिष्ट रसों की ओर खींचती रहती है। जननेन्द्रिय सुन्दरी स्त्री की ओर, त्वचा सुकोमल स्पर्श की ओर, पेट भोजन की ओर, कान मधुर संगीत की ओर, नासिका भीनी-भीनी सुगन्ध की ओर और ये चपल नेत्र सौन्दर्य की ओर मुझे खींचते रहते हैं। उनके सिवा कर्मेन्द्रियाँ भी अपने-अपने विषयों की ओर ले जाने को जो लगाती ही रहती हैं। मेरी तो वह दशा हो रही है, जैसे किसी पुरुष की बहुत-सी पत्नियाँ उसे अपने-अपने शयन गृह में ले जाने के लिए चारों ओर से घसीट रही होंगी। इस प्रकार यह अपने कर्मों के बन्धन में पड़कर इस संसाररूप को जीवित करता हैवैतरणी नदी में गिरा हुआ है। जन्म से मृत्यु, मृत्यु से जन्म और दोनों के द्वारा कर्म भोग करते-करते यह भयभीत हो गया है। यह अपना है, यह पराया है-इस प्रकार के भेद-भाव से युक्त होकर किसी से मित्रता करता है तो किसी से शत्रुता। आप इस मूढ़ जीव-जाति की यह दुर्दशा देखकर करुणा से द्रवित हो जाइये। इस भव-नदी से सर्वदा पार रहने वाले भगवन्! इन प्राणियों को भी अब पार लगा देना।

जगद्गुरो! आप इस सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और पालन करने वाले हैं। ऐसी अवस्थाओं में इन जीवों को इस गर्व-नदी के पार उतार देने में आपको क्या प्रयास है? दीनजनों के परम हितैषी प्रभो! भूले-भटके मूढ़ ही महान् पुरुषों के विशेष अनुग्रह के पात्र होते हैं। हमें उसकी कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि हम आपके लोगों की सेवा में लगे रहते हैं, इसलिए पार जाने की हमें कभी ठंड नहीं होती। परमात्मान्! इस गर्व-वैतरणी से पार उतरना दूसरे लोगों के लिए अवश्य ही कठिन है, लेकिन मुझे तो तनिक भी भय नहीं है। क्योंकि मेरा चित्त इस वैतरणी में नहीं, आपकी उन लीलाओं के गान में मग्न रहता है, जो स्वर्गीय आश्रम को भी प्रबल करने वाली-परमामृत रूप हैं। मैं उन मूढ़ प्राणियों के लिए शोक कर रहा हूँ, जो आपके गुणगान से विमुख रहकर इन्द्रियों के विषयों का मायायम झूठा सुख प्राप्त करने के लिए अपने सिर पर सभी संसार का भार ढोते रहते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 44-55 का हिन्दी अनुवाद)

मेरे स्वामी! बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तो प्रायः अपनी मुक्ति के लिये निर्जन वन में जाकर मौनव्रत धारण कर लेते हैं। वे दूसरों की भलाई के लिये कोई विशेष प्रयत्न नहीं करते। परन्तु मेरी दशा तो दूसरी ही हो रही है। मैं इन भूले हुए असहाय ग़रीबों को छोड़कर अकेला मुक्त होना नहीं चाहता और इन भटकते हुए प्राणियों के लिये आपके सिवा और कोई सहारा भी नहीं दिखायी पड़ता।

घर में फँसे हुए लोगों को जो मैथुन आदि का सुख मिलता है, वह अत्यन्त तुच्छ एवं दुःखरूप ही है-जैसे कि दोनों हाथों से खुजला रहा हो तो उस खुजली में पहले उसे कुछ थोड़ा-सा सुख मालूम पड़ता है, परन्तु पीछे से दुःख-ही-दुःख होता है। किंतु ये भूले हुए अज्ञानी मनुष्य बहुत दुःख भोगने पर भी इन विषयों से अघाते नहीं। इसके विपरीत धीर पुरुष जैसे खुजलाहट को सह लेते हैं, वैसे ही कामादि वेगों को भी सह लेते हैं। सहने से ही उनका नाश होता है।

पुरुषोत्तम! मोक्ष के दस साधन प्रसिद्ध हैं-मौन, ब्रह्मचर्य, शस्त्र-श्रवण, तपस्या, स्वाध्याय, स्वधर्मपालन, युक्तियों से शास्त्रों की व्याख्या, एकान्तसेवन, जप और समाधि। परन्तु जिनकी इन्द्रियाँ वश में नहीं हैं, उनके लिये ये सब जीविका के साधन-व्यापार मात्र रह जाते हैं और दम्भियों के लिये तो जब तक उनकी पोल खुलती नहीं, तभी तक ये जीवन निर्वाह के साधन रहते हैं और भंडाफोड़ हो जाने पर वह भी नहीं। वेदों ने बीज और अंकुर के समान आपके दो रूप बताये हैं-कार्य और कारण। वास्तव में आप प्राकृतरूप से रहित हैं। परन्तु इन कार्य और कारणरूपों को छोड़कर आपके ज्ञान का कोई और साधन भी नहीं है। काष्ठ-मन्थन के द्वारा जिस प्रकार अग्नि प्रकट की जाती है, उसी प्रकार योगीजन भक्तियोग की साधना से आपको कार्य और कारण दोनों में ही ढूँढ निकालते हैं। क्योंकि वास्तव में ये दोनों आपसे पृथक् नहीं हैं, आपके स्वरूप ही हैं।

अनन्त प्रभो! वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल, पंचतन्मात्राएँ, प्राण, इन्द्रिय, मन, चित्त, अहंकार, सम्पूर्ण जगत् एवं सगुण और निर्गुण-सब कुछ केवल आप ही हैं और तो क्या, मन और वाणी के द्वारा जो कुछ निरूपण किया गया है, वह सब आपसे पृथक् नहीं है। समग्र कीर्ति के आश्रय भगवन्! ये सत्त्वादि गुण और इन गुणों के परिणाम महत्तत्त्वादि, देवता, मनुष्य एवं मन आदि कोई भी आपका स्वरूप जानने में समर्थ नहीं हैं; क्योंकि ये सब आदि-अन्त वाले हैं और आप अनादि एवं अनन्त हैं। ऐसा विचार करके ज्ञानीजन शब्दों की माया से उपरत हो जाते हैं।

परमपूज्य! आपकी सेवा के छः अंग हैं-नमस्कार, स्तुति, समस्त कर्मों का समर्पण, सेवा-पूजा, चरणकमलों का चिन्तन और लीला-कथा का श्रवण। इस षडंग सेवा के बिना आपके चरणकमलों की भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? और भक्ति के बिना आपकी प्रप्ति कैसे होगी? प्रभो! आप तो अपने परमप्रिय भक्तजनों के, परमहंसों के ही सर्वस्व हैं।

नारद जी कहते हैं ;- इस प्रकार भक्त प्रह्लाद ने बड़े प्रेम से प्रकृति और प्राकृत गुणों से रहित भगवान् के स्वरूपभूत गुणों का वर्णन किया। इसके बाद वे भगवान् के चरणों में सिर झुकाकर चुप हो गये। नृसिंह भगवान् का क्रोध शान्त हो गाया और वे बड़े प्रेम तथा प्रसन्नता से बोले।

श्रीनृसिंह भगवान् ने कहा ;- 'परमकल्याणस्वरूप प्रह्लाद! तुम्हारा कल्याण हो। दैत्यश्रेष्ठ! मैं तुम पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम्हारी जो अभिलाषा हो, मुझसे माँग लो। मैं जीवों की इच्छाओं को पूर्ण करने वाला हूँ। आयुष्मन्! जो मुझे प्रसन्न नहीं कर लेता, उसे मेरा दर्शन मिलना बहुत ही कठिन है। परन्तु जब मेरे दर्शन हो जाते हैं, तब फिर प्राणी के हृदय में किसी प्रकार की जलन नहीं रह जाती। मैं समस्त मनोरथों को पूर्ण करने वाला हूँ। इसलिये सभी कल्याणकामी परमभाग्यभावान् साधुजन जितेन्द्रिय होकर अपनी समस्त वृत्तियों से मुझे प्रसन्न करने का ही यत्न करते हैं।'

असुरकुलभूषण प्रह्लाद जी भगवान् के अनन्य प्रेमी थे। इसलिये बड़े-बड़े लोगों को प्रलोभन में डालने वाले वरों के द्वारा प्रलोभित किये जाने पर भी उन्होंने उनकी इच्छा नहीं की।

                           {सप्तम स्कन्ध:}

                        【दशम अध्याय:】१०.


(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"प्रह्लाद जी के राज्याभिषेक और त्रिपुरदहन की कथा"
नारद जी कहते हैं ;- प्रह्लाद जी ने बालक होने पर भी यह समझा कि वरदान माँगना प्रेम-भक्ति का विघ्न है; इसलिये कुछ मुसकराते हुए वे भगवान् से बोले।

प्रह्लाद जी ने कहा ;- 'प्रभो! मैं जन्म से ही विषय-भोगों में आसक्त हूँ, अब मुझे इन वरों के द्वारा आप लुभाइये नहीं। मैं उन भोगों के संग से डरकर, उनके द्वारा होने वाली तीव्र वेदना का अनुभव कर उनसे छूटने की अभिलाषा से ही आपकी शरण में आया हूँ। भगवन्! मुझमें भक्त के लक्षण हैं या नहीं- यह जानने के लिये आपने अपने भक्त को वरदान माँगने की ओर प्रेरित किया है। ये विषय-भोग हृदय की गाँठ को और भी मजबूत करने वाले तथा बार-बार जन्म-मृत्यु के चक्कर में डालने वाले हैं।

जगद्गुरो! परीक्षा के सिवा ऐसा कहने का और कोई कारण नहीं दीखता; क्योंकि आप परम दयालु हैं। (अपने भक्त को भोगों में फँसाने वाला वर कैसे दे सकते हैं?) आपसे जो सेवक अपनी कामनाएँ पूर्ण करना चाहता है, वह सेवक नहीं; वह तो लेन-देन करने वाला निरा बनिया है। जो स्वामी से अपनी कामनाओं की पूर्ति चाहता है, वह सेवक नहीं; और जो सेवक से सेवा कराने के लिये, उसका स्वामी बनने के लिये उसकी कामनाएँ पूर्ण करता है, वह स्वामी नहीं। मैं आपका निष्काम सेवक हूँ और आप मेरे निरपेक्ष स्वामी हैं। जैसे राजा और उसके सेवकों का प्रयोजनवश स्वामी-सेवक का सम्बन्ध रहता है, वैसा तो मेरा और आपका सम्बन्ध है नहीं।

मेरे वरदानिशिरोमणि स्वामी! यदि आप मुझे मुँहमाँगा वर देना ही चाहते हैं तो यह वर दीजिये कि मेरे हृदय में कभी किसी कामना का बीज अंकुरित ही न हो। हृदय में किसी भी कामना के उदय होते ही इन्द्रिय, मन, प्राण, देह, धर्म, धैर्य, बुद्धि, लज्जा, श्री, तेज, स्मृति और सत्य- ये सब-के-सब नष्ट हो जाते हैं। कमलनयन! जिस समय मनुष्य अपने मन में रहने वाली कामनाओं का परित्याग कर देता है, उसी समय वह भगवत्स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। भगवन्! आपको नमस्कार है। आप सबके हृदय में विराजमान, उदारशिरोमणि स्वयं परब्रह्म परमात्मा हैं। अद्भुत नृसिंह रूपधारी श्रीहरि के चरणों में मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ।'

श्रीनृसिंह भगवान् ने कहा ;- प्रह्लाद! तुम्हारे-जैसे मेरे एकान्तप्रेमी इस लोक अथवा परलोक की किसी भी वस्तु के लिये कभी कोई कामना नहीं करते। फिर भी अधिक नहीं, केवल एक मन्वन्तर तक मेरी प्रसन्नता के लिये तुम इस लोक में दैत्याधिपतियों के समस्त भोग स्वीकार कर लो। समस्त प्राणियों के हृदय में यज्ञों के भोक्ता ईश्वर के रूप में मैं ही विराजमान हूँ। तुम अपने हृदय में मुझे देखते रहना और मेरी लीला-कथाएँ, जो तुम्हें अत्यन्त प्रिय हैं, सुनते रहना। समस्त कर्मों के द्वारा मेरी ही आराधना करना और इस प्रकार अपने प्रारब्ध-कर्म का क्षय कर देना। भोग के द्वारा पुण्य कर्मों के फल और निष्काम पुण्य कर्मों के द्वारा पाप का नाश करते हुए समय पर शरीर का त्याग करके समस्त बन्धनों से मुक्त होकर तुम मेरे पास आ जाओगे। देवलोक में भी लोग तुम्हारी विशुद्ध कीर्ति का गान करेंगे। तुम्हारे द्वारा की हुई मेरी इस स्तुति का जो मनुष्य कीर्तन करेगा और साथ ही मेरा और तुम्हारा स्मरण भी करेगा, वह समय पर कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जायेगा।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 15-30 का हिन्दी अनुवाद)

प्रह्लाद जी ने कहा ;- महेश्वर! आप वर देने वालों के स्वामी हैं। आपसे मैं एक वर और माँगता हूँ। मेरे पिता ने आपके ईश्वरीय तेज को और सर्वशक्तिमान् चराचर गुरु स्वयं आपको न जानकर आपकी बड़ी निन्दा की है। ‘इस विष्णु ने मेरे भाई को मार डाला है’ ऐसी मिथ्या दृष्टि रखने के कारण पिता जी करोड़ के वेग को सहन करने में असमर्थ ओ गये थे। इसी से उन्होंने आपका भक्त होने के कारण मुझसे भी द्रोह किया। दीनबन्धो! यद्यपि आपकी दृष्टि पड़ते ही वे पवित्र हो चुके, फिर भी मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि उस जल्दी नाश न होने वाले दुस्तर दोष से मेरे पिता शुद्ध हो जायें।'

श्रीनृसिंह भगवान् ने कहा ;- निष्पाप प्रह्लाद! तुम्हारे पिता स्वयं पवित्र होकर तर गये, इसकी तो बात ही क्या है, यदि उनकी इक्कीस पीढ़ियों के पितर होते तो उन सबके साथ भी वे तर जाते; क्योंकि तुम्हारे-जैसा कुल को पवित्र करने वाला पुत्र उनको प्राप्त हुआ। मेरे शान्त, समदर्शी और सुख से सदाचार पालन करने वाले प्रेमी भक्तजन जहाँ-जहाँ निवास करते हैं, वे स्थान चाहे कीकट ही क्यों न हों, पवित्र हो जाते हैं। दैत्यराज! मेरे भक्तिभाव से जिनकी कामनाएँ नष्ट हो गयी हैं, वे सर्वत्र आत्मभाव हो जाने के कारण छोटे-बड़े किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार के कष्ट नहीं पहुँचाते। संसार में जो लोग तुम्हारे अनुयायी होंगे, वे भी मेरे भक्त जो जायेंगे। बेटा! तुम मेरे सभी भक्तों के आदर्श हो। यद्यपि मेरे अंगों का स्पर्श होने से तुम्हारे पिता पूर्णरूप से पवित्र हो गये हैं, तथापि तुम उनकी अन्त्येष्टि-क्रिया करो। तुम्हारे-जैसी सन्तान के कारण उन्हें उत्तम लोकों की प्राप्ति होगी। वत्स! तुम अपने पिता के पद पर स्थित हो जाओ और वेदवादी मुनियों की आज्ञा के अनुसार मुझमें अपना मन लगाकर और मेरी शरण में रहकर मेरी सेवा के लिये ही अपने सारे कार्य करो।

नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! भगवान् की आज्ञा के अनुसार प्रह्लाद जी ने अपने पिता कि अन्त्येष्टि-क्रिया की, इसके बाद श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने उनका राज्याभिषेक किया। इसी समय देवता, ऋषि आदि के साथ ब्रह्मा जी ने नृसिंह भगवान् को प्रसन्नवदन देखकर पवित्र वचनों के द्वारा उनकी स्तुति की और उनसे यह बात कही।

ब्रह्मा जी ने कहा ;- देवताओं के आराध्यदेव! आप सर्वान्तर्यामी, जीवों के जीवनदाता और मेरे भी पिता हैं। यह पापी दैत्य लोगों को बहुत ही सता रहा था। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आपने इसे मार डाला। मैंने इसे वर दे दिया था कि मेरी सृष्टि का कोई भी प्राणी तुम्हारा वध न कर सकेगा। इससे यह मतवाला हो गया था। तपस्या, योग और बल के कारण उच्छ्रंखल होकर इसने वेद विधियों का उच्छेद कर दिया था। यह भी बड़े सौभाग्य की बात है कि इसके पुत्र परमभागवत शुद्ध हृदय नन्हे-से शिशु प्रह्लाद को आपने मृत्यु के मुख से छुड़ा दिया; तथा यह भी बड़े आनन्द और मंगल की बात है कि वह अब आपकी शरण में है। भगवन्! आपके इस नृसिंह रूप का ध्यान जो कोई एकाग्र मन से करेगा, उसे यह सब प्रकार के भयों से बचा लेगा। यहाँ तक कि मारने की इच्छा से आयी हुई मृत्यु भी उसका कुछ न बिगाड़ सकेगी।

श्रीनृसिंह भगवान् बोले ;- ब्रह्मा जी! आप दैत्यों को ऐसा वर न दिया करें। जो स्वभाव से ही क्रूर हैं, उनको दिया हुआ वर तो वैसा ही है जैसा साँपों को दूध पिलाना।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 31-48 का हिन्दी अनुवाद)

नारद जी कहते हैं ;- युधिष्ठिर! नृसिंह भगवान् इतना कहकर और ब्रह्मा जी के द्वारा की हुई पूजा को स्वीकार करके वहीं अन्तर्धान-समस्त प्राणियों के लिये अदृश्य हो गये। इसके बाद प्रह्लाद जी ने भगवत्स्वरूप ब्रह्मा-शंकर की तथा प्रजापति और देवताओं की पूजा करके उन्हें माथा टेककर प्रणाम किया। तब शुक्राचार्य आदि मुनियों के साथ ब्रह्मा जी ने प्रह्लाद जी को समस्त दानव और दैत्यों का अधिपति बना दिया। फिर ब्रह्मादि देवताओं ने प्रह्लाद का अभिनन्दन किया और उन्हें शुभाशीर्वाद दिये। प्रह्लाद जी ने भी यथायोग्य सबका सत्कार किया और वे लोग अपने-अपने लोकों को चले गये।

युधिष्ठिर! इस प्रकार भगवान् के वे दोनों पार्षद जय और विजय दिति के पुत्र दैत्य हो गये थे। वे भगवान् से वैर भाव रखते थे। उनके हृदय में रहने वाले भगवान् ने उनका उद्धार करने के लिये उन्हें मार डाला। ऋषियों के शाप के कारण उनकी मुक्ति नहीं हुई, वे फिर से कुम्भकर्ण और रावण के रूप में राक्षस हुए। उस समय भगवान् श्रीराम के पराक्रम से उनका अन्त हुआ। युद्ध में भगवान् राम के बाणों से उनका कलेजा फट गया। वहीं पड़े-पड़े पूर्वजन्म की भाँति भगवान् का स्मरण करते-करते उन्होंने अपने शरीर छोड़े। वे ही अब इस युग में शिशुपाल और दन्तवक्त्र के रूप में पैदा हुए थे। भगवान् के प्रति वैर भाव होने के कारण तुम्हारे सामने ही वे उनमें समा गये। युधिष्ठिर! श्रीकृष्ण से शत्रुता रखने वाले सभी राजा अन्त समय में श्रीकृष्ण के स्मरण से तद्रूप होकर अपने पूर्वकृत पापों से सदा के लिये मुक्त हो गये। जैसे भृंगी के द्वारा पकड़ा हुआ कीड़ा भय से ही उसका स्वरूप प्राप्त कर लेता है। जिस प्रकार भगवान् के प्यारे भक्त अपनी भेद-भाव रहित अनन्य भक्ति के द्वारा भगवत्स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं, वैसे ही शिशुपाल आदि नरपति भी भगवान् के वैर भावजनित अनन्य चिन्तन से भगवान् के सारूप्य को प्राप्त हो गये।

युधिष्ठिर! तुमने मुझसे पूछा था कि भगवान् से द्वेष करने वाले शिशुपाल आदि को उनके सारूप्य की प्रप्ति कैसे हुई। उसका उत्तर मैंने तुम्हें दे दिया। ब्रह्मण्यदेव परमात्मा श्रीकृष्ण का यह परम पवित्र अवतार-चरित्र है। इसमें हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु इन दोनों दैत्यों के वध का वर्णन है। इस प्रसंग में भगवान् के परमभक्त प्रह्लाद का चरित्र, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य एवं संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय के स्वामी श्रीहरि के यथार्थ स्वरूप तथा उनके दिव्य गुण एवं लीलाओं का वर्णन है। इस आख्यान में देवता और दैत्यों के पदों में कालक्रम से जो महान् परिवर्तन होता है, उसका भी निरूपण किया गया है। जिसके द्वारा भगवान् की प्राप्ति होती है, उस भागवत-धर्म का भी वर्णन है। अध्यात्म के सम्बन्ध में भी सभी जानने योग्य बातें इसमें हैं। भगवान् के पराक्रम से पूर्ण इस पवित्र आख्यान को जो कोई पुरुष श्रद्धा से कीर्तन करता और सुनता है, वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य परमपुरुष परमात्मा की यह श्रीनृसिंह-लीला, सेनापतियों सहित हिरण्यकशिपु का वध और संत शिरोमणि प्रह्लाद जी का पावन प्रभाव एकाग्र मन से पढ़ता और सुनता है, वह भगवान् के अभयपद वैकुण्ठ को प्राप्त होता है।

युधिष्ठिर! इस मनुष्य लोक में तुम लोगों के भाग्य अत्यन्त प्रशंसनीय हैं, क्योंकि तुम्हारे घर में साक्षात् परब्रह्म परमात्मा मनुष्य का रूप धारण करके गुप्त रूप से निवास करते हैं। इसी से सारे संसार को पवित्र कर देने वाले ऋषि-मुनि बार-बार उनका दर्शन करने के लिये चारों ओर से तुम्हारे पास आया करते हैं।

(श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 49-71 का हिन्दी अनुवाद)

बड़े-बड़े महापुरुष निरन्तर जिनको ढूँढ़ते रहते हैं, जो माया के लेश से रहित परमशान्त परमानन्दानुभव-स्वरूप परब्रह्म परमात्मा हैं-वे ही तुम्हारे प्रिय, हितैषी, ममेरे भाई, पूज्य, आज्ञाकारी, गुरु और स्वयं आत्मा श्रीकृष्ण हैं। शंकर, ब्रह्मा आदि भी अपनी सारी बुद्धि लगाकर ‘वे यह हैं’-इस रूप में उनका वर्णन नहीं कर सके, फिर हम तो कर ही कैसे सकते हैं। हम तो मौन, भक्ति और संयम के द्वारा ही उनकी पूजा करते हैं। कृपया हमारी यह पूजा स्वीकार करके भक्तवत्सल भगवान् हम पर प्रसन्न हों। युधिष्ठिर! यही एकमात्र आराध्यदेव हैं। प्राचीन काल में बहुत बड़े मायावी मयासुर ने जब रुद्र देव की कमनीय कीर्ति में कलंक लगाना चाहा था, तब इन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण ने फिर से उनके यश की रक्षा और विस्तार किया था।

राजा युधिष्ठिर ने पूछा ;- 'नारद जी! मय दानव किस कार्य में जगदीश्वर रुद्र देव का यश नष्ट करना चाहता था और भगवान् श्रीकृष्ण ने किस प्रकार उनके यश की रक्षा की? आप कृपा करके बतलाइये।

नारद जी ने कहा ;- एक बार इन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण से शक्ति प्राप्त करके देवताओं ने युद्ध में असुरों को जीत लिया था। उस समय सब-के-सब असुर मायावियों के परम गुरु मय दानव की शरण में गये। शक्तिशाली मयासुर ने सोने, चाँदी और लोहे के तीन विमान बना दिये। वे विमान क्या थे, तीन पुर ही थे। वे इतने विलक्षण थे कि उनका आना-जाना जान नहीं पड़ता था। उनमें अपरिमित सामग्रियाँ भरी हुई थीं। युधिष्ठिर! दैत्य सेनापतियों के मन में तीनों लोक और लोकपतियों के प्रति वैर भाव तो था ही, अब उसकी याद करके उन तीनों विमानों के द्वारा वे उनमें छिपे रहकर सबका नाश करने लगे। तब लोकपालों के साथ सारी प्रजा भगवान् शंकर की शरण में गयी और उनसे प्रार्थना की कि ‘प्रभो! त्रिपुर में रहने वाले असुर हमारा नाश कर रहे हैं। हम आपके हैं; अतः देवाधिदेव! आप हमारी रक्षा कीजिये’।

उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान् शंकर ने कृपापूर्ण शब्दों में कहा- ‘डरो मत।’ फिर उन्होंने अपने धनुष पर बाण चढ़ाकर तीनों पुरों पर छोड़ दिया। उनके उस बाण से सूर्य मण्डल से निकलने वाली किरणों के समान अन्य बहुत-से बाण निकले। उनमें से मानो आग की लपटें निकल रही थीं। उनके कारण उन पुरों का दीखना बंद हो गया। उनके स्पर्श से सभी विमानवासी निष्प्राण होकर गिर पड़े। महामायावी मय बहुत-से उपाय जानता था, वह उन दैत्यों को उठा लाया और अपने बनाये हुए अमृत के कुएँ में डाल दिया। उन सिद्ध अमृत-रस का स्पर्श होते ही असुरों का शरीर अत्यन्त तेजस्वी और वज्र के समान सुदृढ़ हो गया। वे बादलों को विदीर्ण करने वाली बिजली की आग की तरह उठ खड़े हुए। इन्हीं भगवान् श्रीकृष्ण ने जब देखा कि महादेव जी तो अपना संकल्प पूरा न होने के कारण उदास हो गये हैं, तब उन असुरों पर विजय प्राप्त करने के लिये इन्होंने एक युक्ति की।

यही भगवान् विष्णु उस समय गौ बन गये और ब्रह्मा जी बछड़ा बने। दोनों ही मध्याह्न के समय उन तीनों पुरों में गये और उस सिद्ध रस के कुएँ का सारा अमृत पी गये। यद्यपि उसके रक्षक दैत्य इन दोनों को देख रहे थे, फिर भी भगवान् की माया से वे इतने मोहित हो गये कि इन्हें रोक न सके। जब उपाय जानने वालों में श्रेष्ठ मयासुर को यह बात मालूम हुई, तब भगवान् की इस लीला का स्मरण करके उसे कोई शोक न हुआ। शोक करने वाले अमृत-रक्षकों से उनके कहा- ‘भाई! देवता, असुर, मनुष्य अथवा और कोई भी प्राणी अपने, पराये अथवा दोनों के लिये जो प्रारब्ध का विधान है, उसे मिटा नहीं सकता। जो होना था, हो गया। शोक करके क्या करना है?’

इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी शक्तियों के द्वारा भगवान् शंकर के युद्ध की सामग्री तैयार की। उन्होंने धर्म से रथ, ज्ञान से सारथि, वैराग्य से ध्वजा, ऐश्वर्य से घोड़े, तपस्या से धनुष, विद्या से कवच, क्रिया से बाण और अपनी अन्यान्य शक्तियों से अन्यान्य वस्तुओं का निर्माण किया। इन सामग्रियों से सज-धजकर भगवान् शंकर रथ पर सवार हुए एवं धनुष-बाण धारण किया। भगवान् शंकर ने अभिजित् मुहूर्त में धनुष पर बाण चढ़ाया और उन तीनों दुर्भेद्य विमानों को भस्म कर दिया।

युधिष्ठिर! उसी समय स्वर्ग में दुन्दुभियाँ बजने लगीं। सैकड़ों विमानों की भीड़ लग गयी। देवता, ऋषि, पितर और सिद्धेश्वर आनन्द से जय-जयकार करते हुए पुष्पों की वर्षा करने लगे। अप्सराएँ नाचने और गाने लगीं। युधिष्ठिर! इस प्रकार उन तीनों पुरों को जलाकर भगवान् शंकर ने ‘पुरारि’ की पदवी प्राप्त की और ब्रह्मादिकों की स्तुति सुनते हुए अपने धाम को चले गये। आत्मस्वरूप जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार अपनी माया से जो मनुष्यों की-सी लीलाएँ करते हैं, ऋषि लोग उन्हीं अनेकों लोकपावन लीलाओं का गान किया करते हैं। बताओ, अब मैं तुम्हें और क्या सुनाऊँ?

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